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श्रीगीता-योग-प्रकाश

[महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज]

महर्षिजी का परिचय

‘श्रीगीता-योग-प्रकाश’ के लेखक महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज हैं। इस जगतीतल पर आपका अवतरण वि0 सं0, 1941, वैशाख शुक्ल चतुर्दशी तदनुसार सन् 1884 ई0 को बिहार प्रान्त स्थित सहरसा मण्डलान्तर्गत (अब मधेपुरा जिला) उदाकिशुनगंज थाने के खोखशी श्याम ग्राम में अपने मातामह के यहाँ हुआ था। आपका पितृगृह पुरैनियाँ मण्डलान्तर्गत ग्राम सिकलीगढ़ धरहरा में है। आपके पूज्य पिता कायस्थ कुलभूषण स्वर्गीय बाबू बबुजन लाल दासजी थे। आपका जन्मराशि पर का नाम श्रीरामानुग्रह लाल दासजी था।
 कहावत है-‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात।’ आपमें जन्मजात योगी के चिह्न विद्यमान थे। शैशवावस्था से ही आपके सिर में सात जटाएँ थीं। वे प्रतिदिन कंघी से सुलझा दिए जाने पर भी पुनः प्रातःकाल अनायास सात जटाएँ ही बन आती थीं।
 चार वर्ष की अवस्था में ही आपकी पूज्या माताजी इस असार संसार को त्यागकर परलोक सिधार गईं। पाँच वर्ष की अवस्था में कुल-पुरोहित-द्वारा आपका विधिवत् मुण्डन-संस्कार सम्पन्न होने के पश्चात् आपकी प्राथमिक शिक्षा का शुभारम्भ अपने ग्राम में ही हुआ। आपकी शिक्षा का आरम्भ कैथी लिपि में हुआ, फिर भी प्रारम्भिक शिक्षा समाप्त करते-करते आपने दिव्य प्रतिभा के कारण अल्प काल में ही नागरी लिपि भी सीख ली और आप ग्यारह वर्ष की अवस्था में पुरैनियाँ जिला स्कूल में विद्याध्ययन के लिए भर्त्ती कराए गए। वहाँ विद्याध्ययन-काल में आपकी अभिरुचि आध्यात्मिक ग्रन्थों के अध्ययन एवं पूजा-ध्यान की ओर अधिकाधिक बढ़ती गई।
 सन् 1904 ई0 की 4 जुलाई को आप प्रवेशिका परीक्षा दे रहे थे। उस दिन अँग्रेजी की परीक्षा थी। प्रश्नपत्र का प्रथम प्रश्न था- 'Quote from memory the poem 'Builders' and explain it in your own English' अर्थात् ‘निर्माणकर्ता’ शीर्षक पद्य को अपने स्मरण से लिखकर उसकी व्याख्या करो।
 आपने ‘निर्माणकर्ता’ शीर्षक कविता का प्रथम छन्द लिखकर उसकी विशद व्याख्या की। उसका समासरूप निम्नलिखित है-
'For the structure that we raise;
 Time is with material's field,
 Our to-days and yesterdays;
 Are the blocks with which we build.'
 ‘हमलोगों का जीवन-मन्दिर अपने प्रतिदिन के सुकर्म वा कुकर्म रूपी ईंटों से बनता वा बिगड़ता है। जो जैसा कर्म करता है, उसका वैसा ही जीवन बनता है। इसलिए हमलोगों को भगवद्-भजन-रूपी सर्वश्रेष्ठ ईंटों से अपने जीवन-मन्दिर की दिवाल का निर्माण करते जाना चाहिए। ----समय की सदुपयोगिता सत्कर्म में है और ईश्वर-भक्ति वा भजन से श्रेष्ठतम और कोई भी सत्कर्म नहीं है।----
  इस भाँति अध्यात्मपूर्ण हृदयोद्गारों को अभिव्यक्त करते हुए अन्त में आपने लिखा-
  देह धरे कर यहि फ़ल भाई। भजिय राम सब काम बिहाई।।
 यह उत्तर लिखते-लिखते आप भाव-विह्वल हो अपने संवेग का संवरण न कर सके और आपने निरीक्षक (Invigilator) से कहा- 'May I go out, Sir ?' -महाशय! क्या मैं बाहर जा सकता हूँ? संरक्षक महोदय आपके मनोभाव को परख न सके और उन्होंने आपको बाहर जाने की अनुमति दे दी।
 बस क्या था? जैसे नदी का बाँध टूटने पर जलधारा अबाध रूप से अग्रसर होती है, वैसे ही आप परीक्षा-निरीक्षक महोदय का आदेश पा तीव्र और उत्कट आध्यात्मिक अन्तःप्रेरणा से प्रेरित हो विद्यालय का परित्याग कर साधु-सन्तों की खोज में निकल पड़े। सन्तों के दर्शन सहज नहीं। पहाड़ों और अरण्यों में भटकने पर अपार कष्ट तो हुए, किन्तु सन्तों के दर्शन नहीं हुए।
 अपने गृहस्थ-जीवन से सुदूर-ब्रह्मचर्य-जीवन को ही पसन्द किया, अतएव आपने विवाह नहीं किया। सत्रह वर्ष की अवस्था में आप दरियापंथ के साधु बाबा रामानन्द स्वामी से दीक्षित होकर मानस जप, मानस ध्यान और खुले नेत्र से त्राटक का अभ्यास करने लगे। निष्ठापूर्वक वर्षों आपने इसकी साधना की। फिर भी अध्यात्म-ज्ञान की पूर्णता की पिपासा बनी रही। जब उन गुरू महाराज से आपकी जिज्ञासाओं का समाधान नहीं हुआ, तब आप किसी दूसरे पहुँचे हुए साधु-सन्त की खोज करने लगे। वर्षों की खोज-ढूँढ़ के पश्चात् सन् 1909 ई0 में आपका सन्तमत-साधना से परिचय हुआ और उत्तर प्रदेशान्तर्गत मुरादाबाद-निवासी परम संत बाबा देवी साहब के शिष्य स्वर्गीय बाबू राजेन्द्रनाथ सिंहजी महोदय (मायागंज, भागलपुर, बिहार) से आपने दृष्टि-साधन की युक्ति (भेद) प्राप्त की। उसी वर्ष भागलपुर में ही आपको परम सन्त बाबा देवी साहबजी का दिव्य दर्शन और पूर्ण समाधानकारी प्रवचन सुनने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ। इस शुभ दर्शन और प्रवचन से आपको शान्ति और तृप्ति का बोध हुआ। तत्पश्चात् आपको सद्गुरु के साथ सत्संग और उनकी सेवा करने के सुअवसर भी प्राप्त होते रहे। आप प्रति वर्ष बिहार से मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) जाते और उनकी यथायोग्य सेवा करते। आपकी सेवा-भक्ति से प्रसन्न होकर सन् 1914 ई0 में बाबा देवी साहब ने आपको नादानुसन्धान-सुरतशब्दयोग की साधना भी बतला दी और कहा-‘अभी दस वर्ष पर्यन्त तुम मात्र दृष्टियोग का अभ्यास करो। मैंने बत्तीस वर्ष तक केवल दृष्टियोग का अभ्यास किया है। दृष्टियोग-अभ्यास में मजबूत हूए बिना शब्द-साधना करना ठीक नहीं है। यह अभी तुमको इसलिए बतला दिया कि यह तुम्हारी जानकारी में रहे, परन्तु इसका अभ्यास अभी नहीं करना।’
 इन साधनाओं का नित्य नियमित अभ्यास आप वर्षों एकान्तवासी बन गुफा में बैठकर बड़ी निष्ठा से करते रहे हैं। सन् 1933-34 ई0 में अठारह महीने तक भागलपुर के कुप्पाघाट की गंगा पुलिनस्थ शान्त सुपावन गुहा में बैठकर आपने दृढ़ ध्यानाभ्यास किया। इसी पुण्य स्थल ने आज महर्षि मेँहीँ आश्रम (कुप्पाघाट, भागलपुर) के नाम से तीर्थत्व प्राप्त कर लिया है, जहाँ सहस्त्रों नर-नारी एकत्र होकर योग, ज्ञान और भक्ति की मन्दाकिनी में अवगाहन कर कल्याण-पथ के पथिक बन अपना मानव-जीवन कृतार्थ करते हैं।
 सन् 1957 ई0 में आपकी एक प्रचछन्न शक्ति-भरी वाणी आविर्भूत हुई-‘लोगों को चाहिए कि कुप्पाघाट में भी एक स्मारक बनवा दें।’ जिसने सन् 1960 ई0 से क्रियात्मक रूप धारण किया और आज वह वाणी अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग के केन्द्र-रूप में परिणत हो ‘महर्षि मेँहीँ आश्रम’ के नाम से प्रख्यात हो रही है।
 प्रथम यहाँ की गुफा पर ताड़-पत्ते की छाजन देकर कुछ दिन निवास हुआ, फिर फूस की कुटिया बनी, पर सम्प्रति विशालकाय सन्तमत-सत्संग-मंदिर, महर्षि-कुटीर एवं विभिन्न साधकों द्वारा निर्मित कई साधना-कुटीर गंगा की धारा जैसे प्रज्वलित हो रहे हैं। आज यहाँ महर्षिजी-रचित सभी पुस्तकों का प्रकाशन-कार्य भी शान्ति-सन्देश-प्रेस द्वारा सम्पन्न हो रहा है। महर्षिजी के वर्तमान निवास से तो यह भूमि मानो सन्त-साधना से प्रक्षालित हो अपनी पवित्रता की किरणों को चतुर्दिक बिखेर रही है। इसलिए यह स्थान दर्शनीय भी हो गया है।
 सम्प्रति यद्यपि आपको योगांगों को पूर्ण कर योगबल-प्राप्त्यर्थ योगाभ्यास करना नहीं है, फिर भी आपके अनुसरण-द्वारा लोकपथ कल्याणमय हो, इसी दृष्टि को अपनाए रखकर आज भी आप इन साधनाओं को सुगम्भीर एवं सुनिर्मल निष्ठा के साथ अविरल, अविश्रांत रूप से कर रहे हैं। आपने इन साधनाओं द्वारा केवल अपने ही मोक्ष का पथ प्रशस्त किया हो, सो नही अपितु मनुष्य-जाति के लिए चिर-अवरूद्ध मोक्ष-मार्ग खोल दिया है। इसलिए तो आपका उद्घोष है-‘जितने मनुष-तनधारि हैं, प्रभु भक्ति कर सकते सभी।’ तथा ‘मानस जप, मानस-ध्यान, दृष्टि-साधन और सुरत-शब्दयोग-द्वारा सर्वेश्वर की भक्ति करके अन्धकार, प्रकाश और शब्द के प्राकृतिक तीनों परदों से पार जाना और सर्वेश्वर से एकता का ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पा लेने का मनुष्य-मात्र अधिकारी है।’ (महर्षि मेँहीँ-पदावली)
 आपके प्रचार का क्षेत्र विशेषकर देहात रहा है। आपने समाज के असंख्य पीड़ित, पद-दलित, शोषित एवं अशिक्षित मनुष्यों में अपनी साधना का प्रचार किया है। एक दिन आपके मुख से दयार्द्र वाणी उच्छ्वसित हो उठी थी-‘जिसको कोई पूछनेवाला नहीं है अर्थात् जिसको कोई आदर की दृष्टि से नहीं देखता है, ऐसे आदमी जब दीक्षा पाने के लिए मेरे पास आते हैं, तो उन्हें दीक्षा देने में मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है।’ रेलवे स्टेशन से चालीस-चालीस मील दूर देहात में, जहाँ यातायात का साधन मात्र बैलगाड़ी ही है, आप अस्सी वर्ष की वृद्धावस्था में भी गर्मी, बरसात और शीत ऋतु-जन्य कष्टों को निर्विकार भाव की पुलकित प्रसन्नता में सहन करते हुए जाते हैं और जनता में अपनी साधना-विधि का प्रचार कर उन्हें चरित्र-निर्माण की शिक्षा देते हैं। गो0 तुलसीदासजी ने ठीक ही कहा है-‘सन्त सहहिं दुख परहित लागी।’ आप उनकी इस वाणी को चरितार्थ कर रहे हैं।
 कबीर, नानक, दादू और पलटू आदि सन्तों की भाँति आप भी अपनी साधना के आलोक में अज्ञानान्धकार में भटकते हुए असंख्य मानवों के हृदय में आध्यात्मिक चेतना की ज्योति जगाकर उनका मार्ग-प्रदर्शन करते हैं। यही कारण है कि आज आपसे वैदिक धर्मावलम्बी के लिए तो कहना ही क्या, बौद्ध, इस्लाम और ईसाई भी दीक्षित होकर अपने को कृतकृत्य मानते हैं।
 आपके प्रचार का आधार है-वेद, उपनिषदादि आर्ष ग्रन्थ और सन्तों की वाणियाँ। सन्तों की वाणियों में साधनाओं द्वारा जिस सत्य का साक्षात् करने का वर्णन किया गया है, उसका अभ्यास करके ही आपने उसका साक्षात्कार किया है।
 आप मधुकरी वृत्ति नहीं करके अपने गुरु महाराजजी की आज्ञानुसार कृषि-कर्म-द्वारा अपना जीवन-निर्वाह करते हैं और अपने शिष्यों को भी स्वावलम्बी जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देते हैं।
 सर्वसन्तानुमोदित आपकी साधना-विधि का क्रम है-मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टियोग तथा नादानुसन्धान अर्थात् सुरत-शब्द-योग, तदनुसार इन विषयों के साथ-साथ आप झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से विरत रहने का प्रबल आदेश देते हैं। आपका कथन है कि सदाचार की नींव पर ही साधना-भवन का सुनिर्माण किया जा सकता है। अतः साधकों के चरित्र-निर्माण के लिए आप सतत सचेष्ट रहते हैं।
 मानव के उभय लोक-कल्याणर्थ आपने सत्संग, अध्ययन, मनन, निदिध्यासन और अनुभवाधार पर कई पुस्तकें लिखीं और कुछ पुस्तकों की टीका करके जन-साधारण के लिए उन्हें बोधगम्य बनाया है। इसके नाम हैं-(1) सत्संग-योग (चारो भाग), (2) सन्तवाणी सटीक, (3) रामचरितमानस-सार सटीक, (4) वेद-दर्शन-योग, (5) श्रीगीता-योग-प्रकाश, (6) सत्संग-सुधा, प्रथम एवं द्वितीय भाग, (7) महर्षि मेँहीँ-पदावली, (8) मोक्ष-दर्शन, (9) भावार्थ सहित घटरामायण-पदावली, (10) विनय-पत्रिका-सार सटीक, (11) ईश्वर का स्वरूप और उसकी प्राप्ति, (12) ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर-भक्ति।
 (1) सत्संग-योग-इसके प्रथम भाग में वेदों, उपनिषदों, श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीमद्भागवत, अध्यात्म रामायण, शिवसंहिता, महाभारत, ज्ञानसंकलिनी तन्त्र, दुर्गा सप्तशती इत्यादि के मोक्ष-सम्बन्धी सदुपदेशों का संग्रह है। दूसरे भाग में भगवान महावीर, भगवान बुद्ध, भगवान शंकराचार्य, महायोगी गोरखनाथजी महाराज, सन्त कबीर साहब, गुरु नानक साहब, गो0 तुलसीदासजी, भक्तवर सूरदासजी, सन्त तुलसी साहब (हाथरस-निवासी), स्वामी विवेकानन्द, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, राधास्वामी साहब, बाबा देवी साहब प्रभृति पचास सन्त-महात्माओं और भक्तों के सदुपदेश हैं। तीसरे भाग में वर्तमान विद्वानों और महात्माओं के उत्तमोत्तम वचन हैं, जो ‘कल्याण’ तथा अन्य पत्रें से उद्धृत हैं। सत्संग, श्रवण, मनन, अध्ययन एवं समाधि-साधना-द्वारा महर्षिजी की अनुभूतियों का वर्णन चौथे भाग में है।
 2) सन्तवाणी सटीक-संतों की वाणी उनकी अनुभूतियों और अनुभवों का अगम और अपार सिंधु है। इस पुस्तक में महर्षिजी ने उसे सर्वसाधारण की समझ में आने योग्य बनाने का यथायोग्य प्रयास किया है।
 (3) रामचरितमानस-सार-सटीक-इस ग्रन्थ में महर्षिजी ने रामचरितमानस के उपदेशात्मक, साधनात्मक और अनुभव-प्रकाशक दोहों, चौपाइयों, छन्दों एवं सोरठों का चयन कर उनकी टीका और व्याख्या की है। रामचरितमानस का कथा-क्रम भी अभंग रूप से है। साथ ही सर्वसाधारण का यह भ्रामक विचार कि ‘गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज सगुण साकार भगवान की ही भक्ति करते थे और दाशरथि राम को ही सर्वोपरि समझते थे।’ इसके अध्ययन से दूरीभूत होकर सरलतम रूप से समझ में आ जाता है कि गोस्वामी तुलसीदासजी भगवान के सगुण-निर्गुण और इन दोनों रूपों के परे शुद्ध आत्मस्वरूप के भी ज्ञाता और ध्याता थे।
 (4) वेद-दर्शन-योग*-चारो वेदों से 100 मंत्रें का सटीक संग्रह करके उनके प्रायः प्रत्येक मन्त्र पर महर्षिजी द्वारा टिप्पणी। इसके लिए आर्य-समाज के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान पण्डित बिहारी लालजी शास्त्री ने अपनी ‘आर्य-मित्र’ साप्ताहिक पत्रिका में लिखा-‘महात्मा मेँहीँ परमहंसजी ने अपनी पुस्तक में सन्तों की अनुभूति और वेद का समन्वय करके कालान्तर से बिछुड़े सन्तमत और वैदिक धर्म को एक कर दिया है।’
[*इसके टीकाकार हैं-पंडित जयदेव शर्मा, विद्यालंकार, मीमांसातीर्थ (आर्य साहित्य मंडल लिमिटेड, अजमेर)।]
 (5) श्रीगीता-योग-प्रकाश (प्रस्तुत ग्रंथ)-गीता में वर्णित भक्ति, ज्ञान और योगादि का सन्त-साधना से समन्वय।
 (6) सत्संग-सुधा (महर्षि मेँहीँ-वचनामृत), प्रथम एवं द्वितीय भाग-इस पुस्तक में महर्षिजी के विभिन्न स्थानों में दिए गए 26 प्रवचनों का संग्रह है। इसमें ईश्वर-स्वरूप-निर्णय, भक्ति, योग, बन्ध-मोक्ष, सत्संग, सदाचार तथा सन्त-साधना-पद्धति पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है।
 (7) महर्षि मेँहीँ-पदावली-महर्षिजी द्वारा रचित सभी पदों का एक साथ संग्रह है।
 (8) मोक्ष-दर्शन-परमात्मा, ब्रह्म, ईश्वर, जीव, प्रकृति, माया, बन्ध-मोक्षधर्म वा सन्तमत की उपयोगिता, परमात्म-भक्ति और अन्तर-साधना का सारांश साफ-साफ समझ में आ जाय-इस पुस्तक के लिखने में महर्षिजी का यही उद्देश्य है।
 (9) घटरामायण-पदावली-हाथरस-निवासी तुलसी साहबकृत ग्रन्थ के कुछ पद्यों का चयन करके उनके अर्थ और उनकी व्याख्या कर उनके ही आधार पर महर्षिजी ने बताया है कि परम प्रभु सर्वेश्वर को अपने घट में कहाँ और कैसे पाया जा सकता है।
 (10) विनय-पत्रिका-सार-सटीक-इस ग्रन्थ में गोस्वामी तुलसीदास कृत विनय-पत्रिका से कतिपय चुने हुए पद्य, उनके अर्थ, उनकी व्याख्या और तत्सम्बन्धी महर्षिजी के विचार भी हैं।
 (11) ईश्वर-स्वरूप और उसकी प्राप्ति-ईश्वर स्वरूपतः क्या है और उसकी प्राप्ति कैसे होती है, इसका साररूप में वर्णन।
 (12) ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर-भक्ति-इस छोटी-सी पुस्तिका में महर्षिजी ने मोक्ष-साधन की पूर्णता के लिए ज्ञान, योग और भक्ति-इन तीनों की एक साथ अनिवार्य आवश्यकता बतलायी है।
 सत्संग की सुचारु एवं सुव्यवस्थित ढंग से दिनानुदिन अभिवृद्धि हो, इसके लिए सिकलीगढ़ धरहरा, बनमनखी, पुरैनियाँ (बिहार) में श्रीसंतमत-सत्संग मंदिर का सर्वप्रथम निर्माण किया गया। तदुपरान्त आज विभिन्न स्थानों में सैकड़ों सत्संग-मन्दिरों के निर्माण हो चुके हैं और नव-निर्माण होते ही जा रहे हैं। इनके द्वारा सभी जातियों एवं धर्मों के असंख्य नर-नारी स्वावलम्बी जीवन-यापन करने, सुचरित्र-निर्माण करने तथा परमात्म-भजन कर उभय लोक बनाने की शिक्षा पाते हैं।
 जैसे दूध में धृत और माता के उपदेश में बालक का हित भरा होता है, वैसे ही आपके ज्ञानोपदेश में मानव का कितना कल्याण निहित है, कहा नहीं जा सकता। आपके विचार, प्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्रचार और सिद्धांत से किसी भी धर्म, मजहब और सम्प्रदाय के सार सिद्धान्त का खण्डन नहीं होता, वरन् आपका दृढ़ सिद्धान्त है कि सभी सन्तों का एक ही मत है। आपके पूर्व से ही जैसे सन्त दादू दयालजी आपके वाक्यों का समर्थन करते रहे हों-
  ‘जे पहुँचे ते कहि गये, तिनकी एकै बाति।
  सबै सयाने एक मत, तिनकी एकै जाति।।’
 और यदि आपके शब्दों में कहना चाहेंगे, तो हम कह सकेंगे-‘भिन्न-भिन्न काल तथा देशों में सन्तों के प्रगट होने के कारण तथा इनके भिन्न-भिन्न नामों पर इनके अनुयायियों द्वारा संतमत के भिन्न-भिन्न नामकरण होने के कारण सन्तों के मत में पृथक्त्व ज्ञात होता है, परन्तु यदि मोटी और बाहरी बातों को तथा पंथाई भावों को हटाकर विचारा जाय और सन्तों के मूल एवं सार विचारों को ग्रहण किया जाय, तो यही सिद्ध होगा कि सब सन्तों का एक ही मत है।
 आपके तत्त्वावधान में प्रति वर्ष अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग का वार्षिक महाधिवेशन विभिन्न प्रान्तों के विभिन्न जिलों में हुआ करता है। इसमें जैन, बौद्ध, सिक्ख, ईसाई, इस्लाम और वैदिक धर्मावलम्बियों एवं सभी जातियों-सम्प्रदायों के सहस्त्रों नर-नारी एकत्रित हो आपके वचनामृत से लाभान्वित होते हैं। इसके अतिरिक्त आपके द्वारा प्रचालित अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग का विशेषाधिवेशन, मासिकाधिवेशन, साप्ताहिक, दैनिक, दिन में दो और तीन बार भी सत्संग-प्रचार अव्याहत रूप से हो रहा है। इसके अतिरिक्त दैनिक त्रैकालिक ध्यान-साधना का वैयक्तिक क्रम तो निर्बाध रूप से चलता ही है। फिर भी साधकों की ध्यान-साधना में विशेष प्रगति लाने के लिए आप अपने तत्त्वावधान में सप्ताह, अर्द्धमास और मास-ध्यान-साधना भी सामूहिक रूप से करवाते हैं।
 मात्र अध्यात्म-ज्ञान-द्वारा ही अपने देश-सेवा में हाथ बँटाया हो, ऐसा नहीं। राजनैतिक क्षेत्र में भी, प्रकट और अप्रकट रूप से आपने कम सेवा नहीं की। अपने देश को स्वतन्त्र बनाने में आपने जो योगदान दिया, वह अवर्णनीय है। हाल में ही जब चीनियों ने अपने देश (भारत) पर आक्रमण किया, तो आपने बिहार राज्य सुरक्षा-कोष में एकमुस्त दान दिया और आज भी आप प्रतिमास नियमित रूप से उक्त सुरक्षा-कोष में दान देते चले आ रहे हैं।
 इतना ही नहीं, इस अस्सी वर्ष की जर्जर वृद्धावस्था में भी आपने आत्म-विश्वास की ओजस्वी भाषा में जो अपनी उद्घोषवाणी विश्व को सुनायी है, उससे प्रत्यक्ष है कि आपमें अपने स्वतन्त्र देश का कितना गौरव और कितनी देश-भक्ति है। वह अभय वाणी है-‘आज या कल कभी-न-कभी इस शरीर का नाश हो जाना ध्रुव निश्चित है। किन्तु लोक-कल्याणकारी कार्य में इस शरीर का बलि हो जाना अति श्रेयस्कर है। मैं बूढ़ा हो गया हूँ, हाथ-पैर काँपते हैं, फिर भी देश-रक्षा के निमित्त सरकार मुझे युद्ध में जाने के लिए कहे, तो मैं सहर्ष जाने के लिए तैयार हूँ। देश-रक्षार्थ युद्ध के लिए अपने देश के किसी भी व्यक्ति को मुँह नहीं मोड़ना चाहिए। यह अनिवार्य हिंसा है, जैसे कृषकों के लिए कृषि-कर्म की हिंसा। नवजवानों को साहसी, निरालस्य और पुरुषार्थी होना चाहिए। और देशवासियों को तन, मन और धन से सतत सरकार की सहायता के लिए तत्पर, सावधान और क्रियाशील रहना चाहिए, जिससे देश का यह संकट शीघ्र टल जाए।’
शांति-सन्देश, मासिक पत्रिका का अक्टूबर (1992 ई0) अंक।
महर्षि मेँहीँ आश्रम
कुप्पाघाट, भागलपुर-3 (बिहार)

भूमिका

 भारत के एक बृहत ग्रन्थ का नाम ‘महाभारत’ है। कहा जाता है कि विश्व-साहित्य-भण्डार के पद्यबद्ध ग्रन्थों में यह सबसे विशेष स्थूलकाय है। यह केवल भारत ही नहीं, वरंच सम्पूर्ण विश्व में सुविख्यात है। 
 यह ग्रन्थ अठारह भागों में विभक्त है। इसके प्रत्येक भाग को ‘पर्व’ कहते हैं। इन अठारह पर्वों में से एक का नाम ‘भीष्मपर्व’ है। इसी भीष्मपर्व के एक छोटे-से भाग का नाम ‘श्रीमद्भगवद-गीता’ है। श्रीमद्भगवद्गीता का अर्थ ‘भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गाया हुआ गीत’ है। इसलिए इसकी पद्यात्मक भाषा में तार (टेलीग्राम) द्वारा भेजे गए सन्देश की-सी संक्षिप्तता है। इसमें केवल 700 श्लोक हैं तथा सब मिलकर 9,456 शब्द हैं।
 नौ हजार चार सौ छप्पन पद्यबद्ध शब्दों में उपनिषदों का सारांश आ गया है। इसीलिए इस पुस्तिका की बड़ी महत्ता है। यह तेजस्विनी पुस्तिका भारत की अध्यात्म-विद्या की सबसे बड़ी देन है।
 भारत आदिकाल से ही अध्यात्म-ज्ञान एवं योगविद्या का देश रहा है। इस विद्या के कोई गुरु कहीं बाहर से आकर यहाँ वालों को अध्यात्म-ज्ञान एवं योगविद्या की शिक्षा-दीक्षा दे गए हों, ऐसा एक भी उदाहरण भारत के हजारों साल लम्बे इतिहास में नहीं मिलता। उपर्युक्त विद्याओं के गुरु समय-समय पर इसी देश में उत्पन्न होते रहे हैं।
 पहले की बात तो जाने दीजिए, हजार साल की परतंत्रता से दीनापन्न भारत में भी इन विद्याओं के जानकार पूर्ववत् होते रहे हैं।
 भारत के स्वतंत्र होने के कुछ ही साल पूर्व श्रीपाल ब्रन्टन नाम के प्रतिष्ठित अँगरेज महाशय योग-विद्याओं के जानकारों की खोज में यहाँ आये और कुछ ही महीने ठहरकर वे जो कुछ जान पाये, उसी से सन्तुष्ट होकर अपने देश को लौट गये।
 इस देश को सर्वाधिक गौरव उपर्युक्त विद्याओं पर है और इन विद्याओं को श्रीमद्भगवद्गीता पर गौरव है।
 इसलिए भारत के बड़े-बड़े साधक-आचार्य श्रीमद्भगवद्गीता का सहारा लेकर ज्ञान-प्रचार-द्वारा भारत एवं विश्व का कल्याण करते रहे हैं। परिणामस्वरूप भारत-वन्द्य यह पुस्तिका अब विश्ववन्द्या हो चुकी है। विश्व की सभी समुन्नत भाषाओं में आये दिन इसके अनुवाद निकलते ही रहते हैं। अतएव जगद्गुरु भारत के प्रत्येक नागरिक का यह नैतिक उत्तरायित्व है कि वह इस ग्रन्थ का सही तात्पर्य स्वयं समझे और अन्यों को समझावे।
 इस उत्तरदायित्व के निवाहने में तनिक भी प्रमाद, असावधानी या भ्रम न केवल भारत, बल्कि विश्व की आध्यात्मिक उन्नति के लिए घातक है।
 अब प्रश्न यह है कि गीता का सही तात्पर्य क्या है? ऐहिक एवं पारमार्थिक कल्याण साथ-साथ करते हुए मनुष्य कैसे समता प्राप्त करे और किस तरह कर्म करता हुआ समाधिस्थ हो स्थितप्रज्ञता तक पहुँच सके, इसी के साधन की पूर्णता के लिए योग का अभ्यास अत्यावश्यक है। यहाँ ‘योग’ शब्द की सफाई में कुछ कह देना आवश्यक है। गीता के अठारह अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय के साथ ‘योग’ शब्द लगा हुआ है; जैसे-अर्जुन-विषादयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग इत्यादि। इससे गीता के पाठकों को ज्ञात होता है कि इसमें केवल योग-ही-योग है।
 स्मरण रखने की बात यह है कि गीता में केवल योग की ही बात नहीं है, बल्कि कैसे बैठना चाहिए, कितना खाना चाहिए और कितना सोना चाहिए आदि बातें दे दी गई हैं।
 यहाँ निवेदन यह है कि गीता में ‘योग’ शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है।
 पहले तो ‘योग’ शब्द सुनते ही ‘पातञ्जलयोग-दर्शन’ के योग का स्वरूप विचार में आने लगता है। चित्तवृत्ति के निरोध को महर्षि पतञ्जलि ‘योग’ कहते हैं। चित्तवृति-निरोध के अर्थ में ‘योग’ शब्द गीता में आया है, मगर उसके और दूसरे-दूसरे अर्थ भी हैं; जैसे-अर्जुन-विषादयोग।
 यहाँ ‘योग’ शब्द का अर्थ ‘युक्त होना’ है। अर्जुन विषाद-युक्त हुआ, इसी का वर्णन प्रथम अध्याय में है, इसीलिए उस अध्याय का नाम ‘विषादयोग’ हुआ। जिस विषय का वर्णन करके श्रोता को उससे युक्त किया गया, उसको तत्संबंधी योग कहकर घोषित किया गया।
 अध्याय 2 के श्लोक 48 में कहा गया है-‘समत्वं योग उच्यते’ -अर्थात् समता का ही नाम ‘योग है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ ‘योग’ शब्द का अर्थ समता है।
 पुनः उसी अध्याय के श्लोक 50 में कहा गया है-‘योगः कर्मसु कौशलम्’-अर्थात् कर्म करने की कुशलता या चतुराई को योग कहते हैं। यहाँ ‘योग’ शब्द उपर्युक्त अर्थों से भिन्न, एक तीसरे ही इर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
 अतएव गीता के तात्पर्य को अच्छी तरह समझने के लिए ‘योग’ शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थों को ध्यान में रखना चाहिए।
 गीता स्थितप्रज्ञता को सर्वोच्च योग्यता कहती है और उसकी प्राप्ति का मार्ग बतलाती है।
 स्थितप्रज्ञता, बिना समाधि के सम्भव नहीं है। इसीलिए गीता के सभी साधनों के लक्ष्य को समाधि कहना अयुक्त नहीं है।
 इन साधनों में समत्व-प्राप्ति को बहुत ही आवश्यक बतलाया गया है। समत्व-बुद्धि की तुलना में केवल कर्म बहुत तुच्छ है। (गीता 2-49) इसलिए समतायुक्त होकर कर्म करने को कर्मयोग कहा गया है। यही ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ है। अर्थात् कर्म करने की कुशलता को योग कहते हैं। कर्म करने का कौशल यह है के कर्म तो किया जाय; परन्तु उसका बधन न लगने पावे। यह समता पर निर्भर करता है।
 गीता न सांसारिक कर्तव्यों के करने से हटाती है और न कर्म बंधन रखती है।
 समत्व-योग प्राप्त कर स्थितप्रज्ञ बन, कर्म करने की कुशलता या चतुराई में दृढ़ारूढ़ रह, कर्तव्य कर्मों के करने का उपदेश गीता देती है।
 समत्व-प्राप्त स्थितप्रज्ञ पुरूष कर्म करने में कुशल, सांसारिक कर्मों में फल-आस-भाव से असंग रहता हुआ, कर्म-बंधन रहित होकर उन कर्मों को जीवन-भर करे और इस तरह जीवन्मुक्त बन जाय-यही ‘कर्मयोग गीता सीखलाती है।
 गीता-ज्ञानानुकूल कर्म-योगी के लिए समत्व और स्थित-प्रज्ञता अत्यन्त आवश्यक बतलाए गए हैं। ये दोनों समाधि साधन में ही प्राप्त होते हैं। (गीता 2-53 से) यह विदित होता है तथा गीता अध्याय 2, श्लोक 54 में तो समाधिस्थ और स्थितप्रज्ञ का कथन निर्भेद भाव में किया गया हैं
 पहले ही कहा जा चुका है कि गीता में बतलाए गए तमाम साधनों का अन्तिम लक्ष्य समाधि है।
 समाधि-साधन के लिए जिन योगों की आवश्यकता है, उन सबका समावेश गीता में है। गीताशास्त्र के ज्ञानयोग, ध्यानयोग, प्राणायामयोग, जपयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि सभी योगों की भरपूर उपादेयता है। सब एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं और इस तरह सम्बद्ध हैं जैसे माला की मणिकाएँ।
 अब अगर कोई कहे कि अमुक योग के अभ्यास करने का युग नहीं है, तो मानना पड़ेगा कि उनकी यह कथनी गीतोपदेश के विरुद्ध है।
 अन्य कोई कहे तो कहे, मगर कहनेवाले यदि भारत के उत्तम पुरुषों में से कोई हों और भारत के अध्यात्म-जगत की सर्वोत्तम उपाधि से विभूषित हों यानी ‘सन्त’ कहलाते हों, तो स्थिति और गम्भीर हो जाती है। ये सन्त यदि कहें कि ‘मेरे जीवन में गीता ने जो-जो स्थान पाया है, उसका मैं शब्दों मं वर्णन नहीं कर सकता हूँ। गीता का मुझ पर अनन्त उपकार है।------------ मेरा शरीर माँ के दूध पर जितना पला है, उससे कहीं अधिक मेरा हृदय व बुद्धि दोनों गीता से पोषित हुए हैं। ------------- मैं प्रायः गीता के ही वातावरण में रहता हूँ, गीता यानी मेरा प्राण तत्त्व।’ और पिफ़र वे ही अगर कहें कि ‘अब ध्यानयोग-अभ्यास करने का युग नहीं है।’ तो स्थिति गम्भीरतम हो जाती है। और यही विदित होता है कि देश का अमंगलकाल ही चला आया है।
 किसी को नहीं चाहिए कि कर्मयोगी बनते हुए कर्मयोग का तो वे गुणगान करें और ध्यानयोग को आधुनिक काल के लिए अव्यावहारिक बताकर जन-साधारण को उससे विमुख करें।
 गीता ज्ञान जन-साधारण के लिए ही है। साधारणतया यह मान लिया गया है कि गीता साधु-संन्यासियों के व्यवहार की ची हैं; किन्तु स्वयं गीता सबको गीता-ज्ञान सबको गीता-ज्ञान का अधिकारी मानती है। यहाँ सवर्ण, अवर्ण, स्त्री, शुद्र, पापी और दुराचारी; सभी के लिए गीता-गंगा का जल-रूपी उपदेश समान रूप से सुलभ है। (गीता, अध्याय 6,श्लोक 30 से 32)
 यहाँ उपदेश और उपदेष्टा (गुरु) के लिए कुछ कहना आवश्यक प्रतीत होता है; क्योंकि कुछ ऐेसे भी सज्जन हैं, जिनका मत है कि अध्यात्म-साधन के लिए गुरु की कोई आवश्यकता नहीं, परमात्मा ही एकमात्र गुरु हैं।
 उनसे मेरा निवेदन है कि ऐसे विचार गीता एवं भारतीय अध्यात्म-विद्या की शिक्षा-परम्परा के सर्वथा विरुद्ध हैं। गीता के चौथे अध्याय में लिखा है-
‘तद्धिद्धि प्रणिपासेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति से ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।34।।’
 तत्त्व को जाननेवाले ज्ञानी पुरुषों से भली प्रकार दण्डवत्
प्रणाम तथा सेवा और निष्कपट भाव से किए हुए प्रश्न-द्वारा उस ज्ञान को जान; वे मर्म को जाननेवाले ज्ञानीजन तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे।
 अध्याय 13 में है-
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिप्रहः ।।7।।
 अमानित्व (मान का अभाव), अदंभित्व (दंभ का अभाव), अहिंसा, क्षमा, सरलता, आचार्य (गुरु) की सेवा, शुद्धता, स्थिरता, आत्मसंयम--------------------- यह सब ज्ञान कहलाता है। इससे जो उलटा है, वह अज्ञान है।
‘देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्चते ।।’
     (गीता, अध्याय 54)
 देव, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानी की पूजा, पवित्रता, सरलता,
ब्रह्मचर्य और अहिंसा-यह शारीरिक तप कहलाता है।
  हमारे यहाँ उपनिषदानि ग्रन्थों से लेकर भगवान बुद्ध, भगवान शंकराचार्य, महायोगी श्रीगोरखदासजी, सन्त कबीर साहब, गुरु नानक साहब, गोस्वामी तुलसीदासजी इत्यादि अर्वाचीन साधु पुरुषों तक गुरु और उनके महत्त्व की मान्यता अव्याहत रूप से चली आ रही है। यहाँ तद्विषयक प्रमाणार्थ कुछ उपनिषद् एवं सन्तवाणियों को उद्धृत किया जाता है।
‘तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रिमं ब्रह्मनिष्ठम्।’
      (मुण्डकोपनिषद् 1-2-12)
 जिज्ञासु को परमात्मा का वास्तविक तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए हाथ में समिघा लेकर श्रद्धा और विनय-भाव के सहित ऐसे सद्गुरु की शरण में जाना चाहिए, जो वेदों के रहस्य को भली भाँति जानते हों और परब्रह्म में स्थित हों।
----------------------- इति शुश्रुम श्रीराणम् येनरतद्विचचक्षिरे ।’
      (ईशोपनिषद्)
 इस प्रकार हमने उन परम ज्ञानी महापुरुषों से सुना है, जिन्होंने हमें यह विषय पृथक-पृथक रूप से व्याख्या करके भली भाँति समझाया था।
 त्रिपाद्विभूति महानारायणोपनिषद् में-
 ‘शान्तो दान्तोऽतिविरक्तः सुशुद्धो गुरुभक्तस्तपोनिष्ठः शिष्यों ब्रह्मनिष्ठं गुरुमासाद्य प्रदक्षिणपूर्वकं दण्डवत्प्रणम्य प्राञ्जलिर्भूत्वा विनयेनोपसड़् गम्भ भगवन् गुरो मे परमतत्त्वं विदिच्यवक्तव्यमिति ।’
 शान्त, दमनशील, अति विरक्त, अति शुद्ध, गुरुभक्त, तपोनिष्ठ शिष्य ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाकर प्रदक्षिणा और दण्डवत् प्रणाम करके हाथ जोड़कर नम्रता के साथ कहे-हे भगवन् मेरे गुरु! परम तत्त्व-रहस्य विवेचना के साथ मुझे बतलाइए।
 महोपनिषद् में-
दुर्लभो विषयत्मागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम् ।
दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरोः करुणां दिना ।।77।।
 सद्गुरु की दया के बिना विषय-त्याग दुर्लभ है, तत्त्वदर्शन दुर्लभ है और सहजावस्था दुर्लभ है।
 योगशिखोपनिषद् के पाँचवें अध्याय में-
 गुरुर्ब्रह्मा गुरुविष्णुर्गुरुर्देवः सदाविशः।
 न गुरोरधिकः कश्चिन्त्रिषु लोकेषु विद्यते ।।56।।
 दिव्यज्ञानोपदेष्टारं देशिकं परेमश्वरम् ।
 पूजयेस्परया भवत्या तस्म ज्ञानफर्ल भवेत् ।।57।।
 यथा गुरुस्तथैवेशो यथैशस्तया गुरुः।
 पूजनीयो महाभवत्या न भेदो विद्यतेऽनयोः।।58।।
 गुरुदेव ही ब्रह्मा, विष्णु और सदाशिव हैं। तीनों लोकों में गुरु से बढ़कर कोई नहीं है। दिव्य ज्ञान के उपदेश देनेवाले उपस्थित प्रत्यक्ष परमेश्वर की, भक्ति के साथ उपासना करे, तब वह (शिष्य) ज्ञान का फल प्राप्त करेगा। जैसे गुरु हैं, वैसे ही ईश हैं, वैसे ही ईश हैं; जैसे ईश हैं, वैसे ही गुरु हैं; इन दोनों में भेद नहीं है, इस भावना से पूजा करे।
 कर्णधारं गुरुं प्राप्य तद्वाक्यं प्लववदृढम् ।
 अभ्यासवासनाशवत्या तरन्ति भवसागरम् ।।76।।
(योगशिखोपनिषद्, अध्याय3)
 गुरु के कर्णधार (मल्लाह) पाकर और उनके वाक्य को दृढ़ नौका पाकर अभ्यास (करने की) वासना की शक्ति से भवाागर को लोग पार कहते है।
देहस्थाः सर्वविद्याश्च देहस्थाः सर्वदेवताः ।
देहस्थाः सर्वतीर्थानि गुरुवाक्येन लभ्यते ।।8।।
 इस देह में सब विद्या, सब देवता और सब तीर्थ, विराजमान हैं। केवल गुरु के उपदेश से ही देहस्थित से सब विद्या, देवता और तीर्थ जाने जाते हैं।
 हम पहले ही कह आये हैं कि गीता में उपनिषदों का सार है। एवं इसकी भाषा में तार-सन्देश की-सी संक्षिप्तता है। इसलिए गीता गुरु-सम्बन्धी उपर्युक्त विचारों को एक श्लोक मं देती है।
 तद्विद्वि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
 उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।
                                  (गीता 4-34)
 इसे तू तत्त्व के जानेवाले ज्ञानियों की सेवा करके और नम्रतापूर्वक विवेक-सहित बारम्बार प्रश्न करके जानना। वे तेरी जिज्ञासा तृप्त करेंगे।
 तथा गुरु और ज्ञानी की पूजा करने की गीता शारीरिक तप की संज्ञा देती है। (गीता 27-14)
 महाभारत शान्तिपर्व उत्तराद्ध, मोक्षधर्म, अध्याय 114 में लिखा है-‘भीष्मजी बोले कि ईश्वर में चित्त लगाकर गुरु की पूजा और आचार्यों का सदैव पूजन करे। गुरु आदि से शास्त्रें को सुनना, तदन्तर शुद्धब्रह्म से सम्बन्ध रखनेवाला कल्याण कहा जाता है।’
 सन्तों ने भी इन्हीं विचारों को अपने-अपने स्वयं-सिद्ध शब्दों में दुहराए हैं।
 यम्हा धम्भं विजानेय्य सम्मानसम्बुद्धदेसितं ।
 सक्कच्चं तं नमस्सेय्य अग्गिहुर्त्त व ब्राह्मणो ।।10।।
                  (धम्मपद, ब्राह्मणवग्गो-362)
 मनुष्य जिससे बुद्ध का बताया हआ धर्म सीखे तो उसे उसकी परिश्रम से सेवा करनी चाहिए, जैसे ब्राह्मण यज्ञ-अग्नि की पूजा करता है।
 गुरुचरणाम्बुज निर्भरभक्तः संसारादचिराद्भवमुक्तः
                        (भगवान शंकराचार्य)
सप्त धातु का काया प्यंजरा ता माहिं ‘जुगति’ बिन सूचा ।
सतगुरु मिलै त उबरै बाबू नहिं तौ परलै हुआ ।।
    (महायोगी गोरखनाथजी)
 बिन सतगुरु उपदेस, सुर न मुनि नहिं निस्तरै ।
 ब्रह्मा विष्णु महेस, औ सकल जिव को गिनै ।।
गुरुदेव बिन जी की कल्पना ना मिटै, गुरुदेव बिन जीव का भला नाहीं ।।
गुरुदेव बिन जीव का तिमिर नासै नहीं, समुझि विचारि ले मने माहीं ।।
राह बारीक तें पाइये, जन्म अनेक की अटक खोलै ।
कहै कबीर गुरुदेव पूरन मिलै, जीव और सीव तब एक तालै ।।
 गुरु हैं बड़े गोविन्द तें, मन में देखु विचार ।
 हरि सुमिरै सो वार है, गुरु सुमिरै सो पार ।।
गुरु मिलि खुले कपाट । बहुरि न आवै योनी वाट ।।
 गुरु साहिब करि जानिये, रहिये सब्द समाय ।
 मिलै तो दंडवत बन्दगी, पल-पल ध्यान लगाय ।।
              (कबीर साहब)
गुरु की मूरति मन महि धिआनु । गुरु के सबदि मंत्र मनु मानु ।
गुरु के चरण रिवै लै धारउ । गुरु परब्रह्म सदा नमसकारउ ।।1।।
मत को भरमि भूलै संसारि । गुरु बिनु कोई न उतरसि पारि ।।
भूलै कउ गुरु मारगि पाइआ । अवरि तिआगि हरि भगती लाइआ ।।
जनम-जनम की त्रास मिटाई । गुरु पूरे की वे अन्त बड़ाई ।।2।।
गुरु प्रसादि ऊरध कमल विगास । अंधकार महि भइआ प्रगास ।।
जिनि किआ सो गुरते जानिआ । गुरु किरपा ते मुगधु मनु मानिआ ।।3।।
गुरु करता गुरु करणै जोगु । गुरु परमेसुर है भी होगु ।।
कहु नानक प्रभि इहै जनाई । बिनु गुरु मुकति न पाइअै भाई ।।4।।
      (गुरु नानक)
गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई । जौं बिरञ्चि सड़कर सम होई ।।
 बिनु गुरु होइ कि ज्ञान, कि होइ विराग बिनु ।
 गावहिं वेद पुरान, सुख कि लहिय हरि भगति बिनु ।।
      गुरु पद पड़क सेवा, तीसरि भगति अमान ।
 श्री हरि गुरुपद कमल भजहिं मन तजि अभियान ।
 जेहि सेवत पाइय हरि सुख निधान भगवान ।।
    (गोस्वामी तुलसीदासजी)
 गुरु बिनु ऐसी कौन करै ।
 माला तिलक मनोहर बाना, लै सिर छत्र धरै ।।
 भवसागर से बूड़त राखै, दीपक हाथ धरै ।
 सूर स्याम गुरु ऐसो समरथ, छिन में लै उधरै।।
    (भक्त सूरदासजी)
 सतगुरु सिकलीगर मिलै, तब छूटै पुराना दाग ।।
 छूटै पुराना दाग गड़ा मन मुरचा माहीं ।
 
 सतगुरु पूरे बिना दाग यह छूटै नाहीं ।।
 झाँवाँ लेवै जोग तेग को मलै बनाई ।
         
 जौहर देय निकार सुरत को रंद चलाई ।।
 सब्द मस्कला करै ज्ञान का कुरँड लगावै ।
         
 जोग जुगत से मलै दाग तब मन का जावै ।।
 पलटू सैफ को साफ करि बाढ़ धरै वैराग ।
 सतगुरु सिकलीगर मिलैं तब छूटै पुराना दाग ।।
              (पलटू साहब)
 गुरु बिन ज्ञान नहिं, गुरु बिन ध्यान नहिं ।
 गुरु बिन आतम, विचार न लहतुहै ।।
 गुरु बिन प्रेम नहिं, गुरु बिन नेम नहिं ।
 गुरु बिन सीलहु, सन्तोष न रहतु है ।।
 गुरु बिन प्यास नहिं, बुद्धि को प्रकास नहिं ।
 भ्रमहू को नास नहिं, संसेइ रहतु है ।।
 गुरु बिन बाट नहिं, कौड़ी बिन हाट नहिं ।
 सुन्दर प्रगट लोक, वेद यों कहतु है ।।45।।
                   (पलटू साहब)
 इसी आशय की उक्तियाँ और भी सन्तों की हैं, जो बहुंलता एवं पुस्तक-वृद्धि के कारण यहाँ नहीं दी जा रही हैं।
 किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि जिस किसी को भी गुरु बना लिया जाय। इस मामले में अधिक सावधानी, खोज और सोच-विचार की आवश्यकता है। सन्त चरणदासजी कहते हैं-
 समझ रस कोइक पावै हो ।
 गुरु बिन तपन बुझै नहीं, प्यासा नर जावै हो ।।
 बहुत मनुष ढूँढत पिफ़रै, अन्धरे गुरु सेवैं हो ।
 उनहूँ को सूझै नहीं, औरन कहै दैवैं हो ।।2।।
 अन्धरे को अन्धरा मिलै, नारी को नारी हो ।
 ह्वाँ फल होयगा, समझै न अनारी हो ।।3।।
 गुरु सिष दोऊ एक से, एकै व्यवहारा हो ।
 गये भरोसे डूबि कै, वै नरक मँझारा हो ।।4।।
 सुकदेव कहैं चरनदास सूँ, इनका मत कूरा हो ।
 ज्ञान मुक्ति जब पाइये, मिलै सतगुरु पूरा हो ।।5।।
              (चरणदासजी)
गुरु सिष अन्ध वधिर कर लेखा । एक न सुनइ एक नहिं देखा ।
हरइ सिष्य धन सोक न हरई । सो गुरु नरक महँ परई ।।
        (गोस्वामी तुलसीदास)
 महात्मा गाँधीजी को उक्ति इस सम्बन्ध में इस तरह है-
 श्श् हिन्दू-धर्म में गुरु-पद को जो महत्त्व दिया गया है, उसे मैं मानता हूँ। ‘गुरु बिन होइ न ज्ञान’ यह वचन बहुतांश में सच है। अक्षर ज्ञान देनेवाला शिक्षक यदि अधकचरा हो तो एक बार का काम चल सकता है, परन्तु आत्मा-दर्शन करानेवाले अधूरे शिक्षक से हरगिज काम नहीं चलाया जा सकता है। सफलता गुरु की खोज में ही है; क्योंकि गुरु शिष्य को योग्यता के अनुसार ही मिला करते हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक साधक को योग्यता प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने का पूरा-पूरा अधिकार है। परन्तु इस प्रयत्न का फल ईश्वराधीन है।य्
 (आत्मकथा-महात्मा गाँधी, भाग2, अध्याय 1, पृष्ठ 62 नौवीं बार, सन् 1648)
 महाभारत , तंत्रशास्त्र एवं सन्तवाणी के निम्न उद्धरणों मं तो यह स्पष्ट ही कहा गया है कि यदि किसी ने अपनी अनभिज्ञता के कारण किसी अयोग्य गुरु को धारण कर लिया हो, तो वैसे गुरु का अविलम्ब त्याग कर दे ।
 गर्वित कार्य अकार्य नहिं, जानत चलत कुपंथ ।
 ऐसे गुरु कहै त्यागिये, यही कहत शुभ ग्रन्थ ।।
 (महाभारत, उद्योगपर्व, अध्याय 180, श्लोक 25)
 
 ज्ञानान्मोक्षमवाप्नोति तस्माज्जानं परास्परम् ।
 अतो यो ज्ञानदानेहि न क्षमस्तंत्यजेद् गुरुम ।।
                    (बृहत्तन्त्रसार)
 ज्ञान से मोक्ष होता है, इसलिए ज्ञान से बढ़कर दूसरा उपदेश नहीं है; इसलिए जो गुरु ज्ञान-दान में (अर्थात् ज्ञानोपदेश में) समर्थ (योग्य) नहीं है, ऐसे गुरु को छोड़ देना चाहिए ।
 झूठै गुरु के पच्छ को, तजत न कीजै बार ।
 द्वार न पावै सब्द का, भटकै बारम्बार ।।
      (कबीर साहब)
 इस विषय की विशेष जानकारी के लिए ‘सत्संग-योग’ (चारो भाग) को पढ़ें ।
 विशेष रूप से याद रखने की बात यह है कि गीता परम रहस्यमयी पुस्तिका है। इसी गुप्त योग-रहस्य-निधियों पर भी प्रकाश डालने के लिए ‘श्रीगीता-योग-प्रकाश’ में लिखा गया है। उपर्युक्त दृष्टिकोणों से गीतार्थ के भाव आवश्यकतानुकूल लिखे गये हैं।
 ‘श्रीगीता-योग-प्रकाश’ सब श्लोको के अर्थ वा उनकी टीकाओं की पुस्तिका नहीं है। गीता के सही ताप्पर्य को समझने के लिए जो दृष्टिकोण चाहिए, वही इसमें दरसाया गया है ।
 गीता के बारे में पफ़ैले हुए सैकड़ों भ्रामक विचारों में से एक का भी निराकरण यदि ‘श्रीगीता-योग-प्रकाश’ से हुआ, तो मैं अपना प्रयत्न सफल समझूँगा।
 पाण्डुलिपि की प्रतिलिपि शुद्धतापर्वूक तैयार करने में, शोध्यपत्र (प्रूफ) देखने तथा पुस्तक-प्रस्तुत होने के अन्यान्य कार्यो में जिन सत्संगियों ने परिश्रम किया है, वे सभी धन्यवाद के पात्र हैं।
 श्रीबाबू सुरेन्द नारायण सिंह, एम0 ए0, एल0 बी0, शास्त्री ने भी शोध-कर्म में यथेष्ट परिश्रम किया है, अतएव वे भी हमारे धन्यवाद के पात्र हैं।
श्रीसन्तमत-सत्संग मन्दिर मनिहारी
सत्संग सेवक
मेँहीँ
विजया दशमी,सं0 2012 वि0

विषय-सूची

जय गुरु!

गीता अध्याय

अर्जुनविषादयोग

पहला अध्याय

01-11 दोनों सेनाओं के प्रधान-प्रधान शूरवीरों की गणना और सामर्थ्य का कथन।
12-19 दोनों सेनाओं की शंख-ध्वनि का कथन
20-27 अर्जुन द्वारा सेना-निरीक्षण का प्रसंग
28-47 मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन

सांख्ययोग

दूसरा अध्याय

01-10 अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद
11-30 सांख्ययोग का विषय
31-38 क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण
39-53 कर्मयोग का विषय
54-72 स्थिर बुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा

01-08 ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण
09-16 यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता का निरूपण
17-24 ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता
25-35 अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा
36-43 काम के निरोध का विषय

ज्ञानकर्मसंन्यासयोग

चौथा अध्याय

01-18 सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय
19-23 योगी महात्मा पुरुषों के आचरण और उनकी महिमा
24-32 फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन
33-42 ज्ञान की महिमा

कर्मसंन्यासयोग

पाँचवाँ अध्याय

01-06 सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय
07-12 सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा
13-26 ज्ञानयोग का विषय
27-29 भक्ति सहित ध्यानयोग का वर्णन

आत्मसंयमयोग

छठा अध्याय

01-04 कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ पुरुष के लक्षण
05-10 आत्म-उद्धार के लिए प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण
11-32 विस्तार से ध्यान योग का विषय
33-36 मन के निग्रह का विषय
37-47 योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा

ज्ञानविज्ञानयोग

सातवाँ अध्याय

01-07 विज्ञान सहित ज्ञान का विषय
08-12 संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन
13-19 आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा
20-23 अन्य देवताओं की उपासना का विषय
24-30 भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा

अक्षरब्रह्मयोग

आठवाँ अध्याय

01-07 ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर
08-22 भक्ति योग का विषय
23-28 शुक्ल और कृष्ण मार्ग का विषय

राजविद्याराजगुह्ययोग

नौवाँ अध्याय

01-06 प्रभावसहित ज्ञान का विषय
07-10 जगत की उत्पत्ति का विषय
11-15 भगवान का तिरस्कार करने वाले आसुरी प्रकृति वालों की निंदा और देवी प्रकृति वालों के भगवद् भजन का प्रकार
16-19 सर्वात्म रूप से प्रभाव सहित भगवान के स्वरूप का वर्णन
20-25 सकाम और निष्काम उपासना का फल
26-34 निष्काम भगवद् भक्ति की महिमा

विभूतियोग

दसवाँ अध्याय

01-07 भगवान की विभूति और योगशक्ति का कथन तथा उनके जानने का फल
08-11 फल और प्रभाव सहित भक्तियोग का कथन
12-18 अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति तथा विभूति और योगशक्ति को कहने के लिए प्रार्थना
19-42 भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का कथन

विश्वरूपदर्शनयोग

ग्यारहवाँ अध्याय

01-04 विश्वरूप के दर्शन हेतु अर्जुन की प्रार्थना
05-08 भगवान द्वारा अपने विश्व रूप का वर्णन
09-14 संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति विश्वरूप का वर्णन
15-31 अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना
32-34 भगवान द्वारा अपने प्रभाव का वर्णन और अर्जुन को युद्ध के लिए उत्साहित करना
35-46 भयभीत हुए अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति और चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के लिए प्रार्थना
47-50 भगवान द्वारा अपने विश्वरूप के दर्शन की महिमा का कथन तथा चतुर्भुज और सौम्य रूप का दिखाया जाना
51-55 बिना अनन्य भक्ति के चतुर्भुज रूप के दर्शन की दुर्लभता का और फलसहित अनन्य भक्ति का कथन।

01-12 साकार और निराकार के उपासकों की उत्तमता का निर्णय और भगवत्प्राप्ति के उपाय का विषय
13-20 भगवत्‌-प्राप्त पुरुषों के लक्षण

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग

तेरहवाँ अध्याय

01-18 ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय
19-34 ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय

गुणत्रयविभागयोग

चौदहवाँ अध्याय

01-04 ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत्‌ की उत्पत्ति
05-18 सत्‌, रज, तम- तीनों गुणों का विषय
19-27 भगवत्प्राप्ति का उपाय और गुणातीत पुरुष के लक्षण

पुरुषोत्तमयोग

पंद्रहवाँ अध्याय

01-06 संसार वृक्ष का कथन और भगवत्प्राप्ति का उपाय
07-11 जीवात्मा का विषय
12-15 प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप का विषय
16-20 क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम का विषय

दैवासुरसम्पद्विभागयोग

सोलहवाँ अध्याय

01-05 फलसहित दैवी और आसुरी संपदा का कथन
06-20 आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन
21-24 शास्त्रविपरीत आचरणों को त्यागने और शास्त्रानुकूल आचरणों के लिए प्रेरणा

श्रद्धात्रयविभागयोग

सत्रहवाँ अध्याय

01-06 श्रद्धा और शास्त्रविपरीत घोर तप करने वालों का विषय
07-22 आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद
23-28 ॐतत्सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या

मोक्षसंन्यासयोग

अठारहवाँ अध्याय

01-12 त्याग का विषय
13-18 कर्मों के होने में सांख्यसिद्धांत का कथन
19-40 तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद
41-48 फल सहित वर्ण धर्म का विषय
49-55 ज्ञाननिष्ठा का विषय
56-66 भक्ति सहित कर्मयोग का विषय
67-78 श्री गीताजी का माहात्म्य

||ॐतत्सत्‌||