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अध्याय 6
अथ ध्यानयोग 

इस अध्याय का विषय ध्यानयोग है।

प्रथम अध्याय का विषय ‘अर्जुन-विषाद-योग’ था। द्वितीय अध्याय में विषाद दूर करने के हेतु श्रीभगवान ने सांख्ययोग अर्जुन को सुनाया। आत्मा की अमरता तथा शरीर (अनात्मा) की नश्वरता के ज्ञान को ही सांख्यज्ञान वा अध्यात्मज्ञान श्रीमद्भगवद्गीता के अनुकूल जानना चाहिए।
आत्मज्ञान से जब बुद्धि स्थिर हो जाती है, तब समत्व प्राप्त होता है। समत्व से द्वैत और द्वन्द्व मिटते हैं तथा सब दुःखों को दूर करनेवाला ब्रह्म-निर्वाण प्राप्त होता है। परन्तु बुद्धि की पूर्ण स्थिरता समाधि में होती है (गी0 अ0 2, श्लोक 53)। और आत्मज्ञान भी समाधि में ही पूर्ण होता है। जिसकी बुद्धि समाधि में दृढ़ एवं स्थिर हो जाती है, उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं। ऐसी अवस्था में समाधि-साधक को ईश्वर पहचानने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। गीता अ0 2 के वर्णनानुसार इस साधनविशेष के द्वारा समाधि की सिद्धि का लाभ करना अत्यावश्यक हो जाता है।
सांसारिक कर्तव्यों का अनासक्त भाव से पूर्णरूपेण पालन करते हुए साधन-विशेष द्वारा समाधि की सिद्धि का लाभ हो, श्रीमद्भगवद्गीता इसी को उत्तम बतलाती है। इसीलिए तीसरे, चौथे और पाँचवें अध्यायों में कर्मयोग, ज्ञानकर्मसंन्यासयोग और कर्मसंन्यासयोग का वर्णन करके कथित समाधि के विशेष और सरलतम साधन का वर्णन छठे अध्याय में किया गया है।
समाधि प्राप्ति करने के विशेष साधन को ही ध्यानयोग कहते हैं। इसके लिए कर्मों का त्याग न करके मानस ध्यान में लगे हुए, कर्मों को करते रहना चाहिए। उनको अहं और फल-आश छोड़कर गृही रहते हुए - अर्थात् गृहस्थी में ही विरक्त (संन्यासी) बन कर्मयोगी होकर, ध्यानयोग का अभ्यास करना चाहिए। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण का यही उपदेश है।
योगी बनने के लिए कर्म (कर्मफलों में अनासक्त रहकर कर्म करना तथा एकान्त में केवल ध्यानयोग करने का कर्म करना-ये दोनों ही कर्म हैं) साधन है। और योग में सिद्धि-लाभ होने पर शम अर्थात् मनोनिग्रह, कर्म का साधन बन जाता है। शम की सिद्धि के बिना कर्मों और विषयों में अनासक्त होना असम्भव है। जब यह आसक्ति और सब संकल्प छूट जाते हैं, तब अभ्यासी योगारूढ़ (योग पर चढ़ा हुआ) कहलाता है। यह असाध्य और असम्भव नहीं है। प्रतिदिन के बाह्य कर्तव्यों के लिए जैसे समय बाँट-बाँटकर उनका सम्पादन करना चाहिए, उसी तरह नित्य एकान्त में बैठकर ध्यानयोग का भी अभ्यास करने के लिए अपने समय का भाग होना चाहिए।
मनुष्य अपना उद्धार आप करे। अपनी अधोगति न करे। जिसने अपने मन को जीता है, वह अपना मित्र और जिसने नहीं जीता है, वह अपना शत्रु है। जो मन को जीतकर पूर्ण रूपेण शांत हो गया है, वह ठण्ढ-गर्मी, सुख-दुःख और मानापमान में समान रहता है। इन्द्रियों को जीतनेवाला, ज्ञान और विज्ञान से तृप्त, कूटस्थ अर्थात् मूल (परमात्म-पद) में पहुँचा हुआ, सोने और मिट्टी को तुल्य जाननेवाला और परमात्मा के प्रत्यक्ष ज्ञान से युक्त योगी कहलाता है। जो सुहृद, शत्रु, मित्र आदि सब प्रकार के लोगों में समान भाव रखनेवाला है, वह श्रेष्ठ पुरुष है।
उपर्युक्त योग्यता को प्राप्त करने के लिए चाहिए कि योगाभ्यासी एकान्त में अकेला रहकर विचार-द्वारा अपने मन पर काबू रखते हुए तथा संग्रहों को त्यागते हुए सदा (नित्य नियत समयों पर) योगाभ्यास करें। ‘सदा’ (सतत) शब्द से ऐसा समझना कि दूसरा कोई काम न करते हुए, दिन-रात के सम्पूर्ण समय (चौबीसो घण्टे) जीवन-भर योगाभ्यास करें, ऐसा हो सकना असम्भव है। शौचादि नित्य कर्म, भोजन, शयन, जीविकोपार्जन तथा अन्य कर्तव्यों के किए बिना कोई कदापि नहीं रह सकता है। इन कर्मों में जैसे समय बाँट-बाँटकर नित्य लगाना होगा, उसी तरह नितप्रति योगाभ्यास के लिए भी समय नियत रखकर अभ्यास करना होगा।
जो ऐसा कहते हैं-‘एकान्त में अकेला रहकर ध्यानाभ्यास में समय लगाने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि गीता में बतायी हुई विधियों से मन पर संयम रखते हुए तथा कर्तव्यों का पालन करते हुए केवल कर्मयोग के ही अभ्यास से स्थितप्रज्ञता तथा परम सिद्धि मिल जाएगी।’ और यह भी कहते हैं-मेरा उनसे निवेदन है कि उपर्युक्त उक्ति चाहे जिस किसी भी महापुरुष की हो, वे अवश्य ही भूल में हैं। यदि वे समाधि, स्थित-प्रज्ञता तथा सिद्धावस्था के विषय में जानकार हैं, तो अपने किसी विशेष कार्य सम्पादन के हेतु देश में भ्रांतिपूर्ण विचार फैला रहे हैं और देशहितैषी कहलाते हुए भी देश की आध्यात्मिक हानि कर रहे हैं। अन्यथा वे अवश्य ही समाधि, स्थित-प्रज्ञता तथा सिद्धावस्था के विषय के पूर्ण ज्ञाता नहीं है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के दूसरे अध्याय में ही कह दिया है-‘समाधि में स्थितप्रज्ञता होगी, तब समत्व प्राप्त होगा (श्लोक 53)।’ स्थितप्रज्ञता और समत्व के बिना अन्यान्य विधियों से कर्मयोग में सिद्धिलाभ नहीं हो सकता है। इसलिए इस अध्याय के श्लोक 3 के अनुसार योगी बनने में कर्म (अर्थात् ध्यानाभ्यास-रूप कर्म और बाह्य कर्तव्यों के विधिवत् सम्पादन का कर्म) उसका साधन और योगी बन चुकने पर (अर्थात् योग की पूरी सिद्धि) अथवा सिद्धावस्था प्राप्त होने पर शम (मन पर पूर्ण अधिकार) कर्म का साधन बन जाता है। और इसकी सिद्धि के हेतु श्लोक 10 में एकान्त में अकेला रहकर योगाभ्यास करने को कहा गया है।
स्वयं भगवान श्रीकृष्ण एकान्त में अकेला रहकर योगाभ्यास करते थे।
ब्राह्म मुहूर्त्ते उत्थाय वार्युपस्पुश्य माधवः।
दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमसः परम्।।
(श्रीमद्भागवत, स्कन्ध 10, अध्याय 10, श्लोक 4)
अर्थ-भगवान श्रीकृष्ण प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्त में ही उठ जाते और हाथ-मुँह धोकर अपने मायातीत आत्म-स्वरूप का ध्यान करने लगते। उस समय उनका रोम-रोम आनन्द से खिल उठता था।।4।।
भगवान श्रीकृष्ण गीता-ज्ञान के आदिगुरु हैं। उन्होंने केवल पाण्डव अर्जुन को ही इस ज्ञान की शिक्षा दी थी, सो नहीं, अर्जुन से बहुत पूर्व उन्होंने अपने इस जन्म के पूर्व ही यह शिक्षा पहले-पहल विवस्वान (सूर्य) को दी थी (अध्याय 4, श्लोक 1)। अध्याय 3 के 20, 21, 22, 23 और 24 श्लोकों से विदित होता है कि श्रीभगवान कहते हैं-‘उत्तम पुरुष के आचरण का अनुकरण लोग करते हैं और उत्तम पुरुष जिसे प्रमाण बनाते हैं, उसका लोग अनुसरण करते हैं।’ भगवान श्रीकृष्ण को यद्यपि तीनों लोकों में न कुछ करना था और न उन्हें कुछ भी अप्राप्त ही था, यद्यपि वे उपर्युक्त कारणों से कर्तव्य कर्मों में कुछ भी रुके बिना लगे रहते थे, ताकि लोग उनका अनुकरण और अनुसरण करें, नहीं तो सारे लोक नष्ट हो जाएँगे और वे स्वयं अव्यवस्था के कर्ता बनेंगे तथा लोकों का नाश करनेवाले होंगे। भगवान श्रीकृष्ण ध्यान-योगाभ्यास नित्य प्रति उपर्युक्त कारण से ही करते थे, नहीं तो उनको स्वयं अपने लिए इसकी कुछ आवश्यकता नहीं थी।
गीता में इसकी विधि भी इस अध्याय में है ही, तब जो इसकी अवहेलना करते हैं और श्रीभगवान के विचार का उल्लंघन करते हैं, चाहे वे कोई भी हों, उनका विचार माननेयोग्य नहीं है। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक और महात्मा गाँधी के सदृश सफल घोर कर्मयोगियों को भी एकान्त में ध्यानाभ्यास करना अत्यन्त आवश्यक जान पड़ता था। तिलक महोदयजी अपने ‘गीता-रहस्य’ में कहते हैं-‘परमेश्वर-स्वरूप की इस प्रकार पूरी पहचान हो जावे कि एक ही परब्रह्म सब प्राणियों में व्याप्त है और उसी भाव से संकट के समय भी पूरी समता से बर्त्ताव करने का अचल स्वभाव हो जावे; परन्तु इसके लिए (सदैव से हमारे समान चार अक्षरों का कुछ ज्ञान होना ही बस नहीं है।) अनेक पीढ़ियों के संस्कार की, इन्द्रियनिग्रह की, दीर्घोद्योग की तथा ध्यान और उपासना की सहायता अत्यन्त आवश्यक है (अध्यात्म-प्रकरण, पृ0 247)।’
महात्मा गाँधी ‘अनासक्ति-योग’, अध्याय 2, श्लोक 69 की टिप्पणी में कहते हैं-‘भोगी मनुष्य रात के बारह-एक बजे तक नाच, रंग, खान-पान आदि में अपना समय बिताते हैं और फिर सबेरे सात-आठ बजे तक सोते हैं। संयमी रात के सात-आठ बजे सोकर मध्य रात्रि में उठकर ईश्वर का ध्यान करते हैं। साथ ही भोगी संसार का प्रपंच बढ़ाता है और ईश्वर को भूलता है। उधर संयमी सांसारिक प्रपंचों से अनजान रहता है और ईश्वर का साक्षात्कार करता है।’ इन उद्धरणों से यही सिद्ध है कि चाहे कोई कैसा भी कर्मयोगी हो, उसको ध्यानाभ्यास नित्य नियमित रूप से सतत, जीवन-भर अवश्य करना चाहिए।
श्रीमद्भगवद्गीता जिस बृहदाकार ग्रंथ ‘महाभारत’ के भीष्मपर्व का एक बहुत छोटा, परन्तु अत्यन्त तेजस्वी अंश है, उस महाभारत के शान्ति पर्व (पूर्वार्द्ध, मोक्षधर्म), अध्याय 67 में श्रीव्यासदेवजी का वाक्य है-‘तीनों काल (बाह्य मुहूर्त, मध्याह्न और सायंकाल) योग का अभ्यास करे। जैसे पात्रें का चाहनेवाला मनुष्य पात्रें की रक्षा करता है, उसी प्रकार एकाग्रता का अभ्यास करनेवाला इन्द्रियों के समूह को हृदय-कमल१ में नियत करके सदैव ध्यान करे और योग से चित्त को भयभीत न करे, उसी का सेवन करे और तद्रूप होकर चलायमान न हो, वह सावधान योगी है।’
‘इस शान्त-चित्तरूप योग से शूद्र और धर्म जाननेवाली स्त्रियाँ भी परम गति को पाती हैं। परन्तु शान्त-चित्तरूप योग-मार्ग में स्त्री और शूद्र भी अधिकारी है।’ इस बात को विद्वान और बुद्धिमान निश्चय ही समझ सकते हैं कि भगवद्गीता और महाभारत के ज्ञान में एक मेल होना चाहिए।
भगवद्गीता के इस अध्याय में ध्यानयोग वा योगाभ्यास करने की जो विधि है, अब सो लिखी जाती है। पवित्र और एकांत स्थान में अपने योग्यतानुसार पवित्र आसनी बिछावे। स्थान न बहुत ऊँचा हो, न बहुत नीचा, समतल हो। वहाँ शरीर, गर्दन तथा मस्तक को सीधा और निश्चल करके बैठे। दिशाओं का देखना छोड़कर नासिकाग्र2 को देखता हुआ, परमात्म-परायण होता हुआ ब्रह्मचर्य में दृढ़ रहकर, योगी परमात्मदेव का ध्यान करता हुआ बैठे। शरीर, गर्दन और सिर सीधा रखने से मेरुदण्ड सीधा रहेगा। इसके सीधा और स्थिर रहने से श्वास-प्रश्वास की गति धीमी-धीमी होती रहेगी। इस तरह उसकी गति होते रहने के कारण मन की चंचलता कम होगी। यह ध्यानायोग में लाभदायक और सहायक है। परन्तु दृष्टि का लक्ष्य नासाग्र में अवश्य बनाये रखना चाहिए। उपर्युक्त रीति से तनकर बैठने और ध्यानयोग का अभ्यास करने से परमात्मपरायण योगी के मन का चक्र अवश्य बन्द होगा।
जिनको परमात्मदेव में आन्तरिक प्रीति और परायणता नहीं, उन्हें केवल बाहरी और आडम्बरी परायणता हो तथा एकान्त में बैठकर न आप इस अभ्यास में अपना समय लगाना चाहें और न दूसरों को इसमें समय लगाने की सलाह देना चाहें तो वह परमात्मदेव की प्राप्ति, स्थितप्रज्ञता और पूर्ण कर्मयोगी होने की उपर्युक्त बातों को मानकर आप अभ्यास करें और दूसरों को भी इसके लिए सलाह दें, कैसे सम्भव हो सकता है? उनको तो केवल कर्मयोग का ही अभ्यास, ध्यान-योगाभ्यास के बिना ही करना है।
उपर्युक्त ध्यानाभ्यास के बिना स्थितप्रज्ञता और स्थितप्रज्ञता के बिना कर्मयोग में पूर्णता श्रीमद्भगवद्गीता नहीं बतलाती है। कर्मयोग और ध्यानयोग गीता के अनुकूल करते जाना उत्तम है। न कर्मयोग छोड़ो और न ध्यानयोग। यही श्रेष्ठ विधि परमात्म और मोक्ष-प्राप्ति की तथा संसार के समयानुकूल निज कर्तव्यों के पालन करने की है।
मोक्षार्थी को ध्यान और सेवा-कर्म; दोनों संग-संग अवश्य करना ही पड़ता है; क्योंकि सेवा-कर्म किए बिना संसार में निवास ही नहीं हो सकता है। सेवा-कर्म करने के गीता में बताए हुए ढंग से विचार रख तथा मन पर संयम रखते हुए कर्म-सम्पादन करना उसके लिए नितान्त आवश्यक है।
कोई केवल आध्यात्मिक सेवा, कोई केवल आधिभौतिक सेवा और कोई आध्यात्मिक और आधिभौतिक; दोनों सेवाओं का भार अपनी-अपनी योग्यता तथा देश और काल की माँग के अनुसार अपने-अपने योग्यता तथा देश और काल की माँग के अनुसार अपने-अपने ऊपर धारण और उनका सम्पादन करते हुए तथा मोक्ष-धर्म का पालन करते हुए जीवन व्यतीत किए हैं, करते हैं और करेंगे। ये सब-के-सब कर्मयोगी ही माने जाएँगे। इनमें से कोई यदि यह कहे कि ‘मैं जो करता हूँ, वही कर्मयोग है, मैं ही कर्मयोगी हूँ और अन्य का न तो कर्मयोग है और न वे कर्मयोगी हैं,’ तो उनको यह उक्ति घमण्ड से भरी हुई है, वे आत्म-प्रशंसक हैं और यथार्थतः वे कर्मयोगी हैं ही नहीं। वे कर्मयोगी-से केवल दीखते हैं; किन्तु मुमुक्षु3 नहीं हैं और मुमुक्षु के गुणों से हीन को कर्मयोग सिद्ध नहीं होगा।
ऐसे लोग अपनी यह भी अभिलाषा प्रकट करते हैं कि ‘सब लोग स्वधारित कर्मों को छोड़कर मेरे ही विचार का अनुसरण करें, तो देश की सामयिक सेवा होगी, नहीं तो देश खतरे में गिरेगा।’ उनकी यह अभिलाषा अयोग्य है।
जबतक किसी देश का आध्यात्मिक स्तर उत्तम और ऊँचा नहीं होगा, तबतक उस देश में सदाचारिता ऊँची और उत्तम नहीं होगी। जबतक सदाचारिता ऐसी नहीं रहेगी, तबतक सामाजिक नीति अच्छी और शान्तिदायक नहीं होगी। बुरी सामाजिक नीति के कारण राजनीति शासन-सँभाल के योग्य हो नहीं सकेगी और उस देश में अशान्ति फैली हुई रहेगी।
इन बातों को भूलकर देश में केवल धन और भूमि के बँटवारे का प्रयास देश में शान्ति लाने में असफल ही रहेगा। देश की जनता में धन और भूमि के बँटवारे से पहले ही उनकी आध्यात्मिकता का स्तर उत्तम और ऊँचा उठाने का प्रयास कर उनकी सदाचारिता को ऊँचा उठा, उन्हें सत्य, सन्तोष और अहिंसा का पाठ पढ़ा, उसे धन देकर उनका दारिद्र्य और अभाव दूर करना युक्तिसंगत है। आध्यात्मिकता और सदाचारिता से विहीन तथा सत्य, सन्तोष और अहिंसा से दूर रहनेवालों में केवल धन और भूमि की प्राप्ति शान्ति नहीं ला सकती है। इन सद्गुणों से रहितों को कितने धन और ऐश्वर्य से सन्तुष्ट किया जा सकेगा, इसकी माप ही नहीं है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपनी ‘विनय-पत्रिका’ में ठीक ही कहा है-
द्रव्यहीन दुख लहै दुसह अति, सुख सपनेहुँ नहिं पाये।
उभय प्रकार प्रेत पावक ज्यों, धन दुखप्रद श्रुति गाये।।
जनता के दोनों वर्गों (धनी और निर्धन) में आध्यात्मिकता, सदाचारिता, सत्य, सन्तोष और अहिंसा का प्रचार अधिक-से-अधिक करके, उन्हें इन सद्गुणों से युक्त किए बिना केवल धन किसी से लेकर किसी को देने से देश में शान्ति विराजती रहे, असम्भव है। अपने देश में अब स्वराज्य है, परन्तु एक को दूसने से धन माँगकर तीसरे को देने की आवश्यकता क्यों जान पड़ी है और वे इसके लिए घोर प्रयास क्यों कर रहे हैं? यदि देश के दोनों वर्ग उपर्युक्त सद्गुणों को धारण किए होते, तो उपर्युक्त प्रयासी को कथित प्रयास नहीं करना पड़ता। जनता के दोनों वर्ग आपस में स्वतः एक-दूसरे को सुख पहुँचाकर शान्तिपूर्वक रहते। गोस्वामी तुलसीदासजी के निम्नलिखित सदुपदेशों को पूर्ण विश्वास से मानना चाहिए और कभी नहीं भूलना चाहिए-
बिनु सन्तोष न काम नसाहीं।
काम अछत सुख सपनुहुँ नाहीं।।
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा।
थल विहीन तरु कबहुँ कि जामा।।
श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में योग-समाधि से बुद्धि की स्थिरता, समत्व की प्राप्ति, अपने से अपने में ही संतुष्ट रहकर स्थितप्रज्ञ होने का तथा समत्व को ही योग जानने के अनेक उत्तम-उत्तम सदुपदेश दिए गए हैं। किसी प्रकार धन प्राप्त करके उसके द्वारा समता और सन्तोष प्राप्त होगा, यह उपदेश गीता में नहीं है। गीता के अनुकूल पूर्ण कर्मयोगी महापुरुष को समत्वप्राप्त स्थितप्रज्ञ कहा गया है। स्थितप्रज्ञता समाधि-साधन से मिलेगी। इसी हेतु समाधि-साधन की सरलतम अभ्यास-विधि इस छठे अध्याय में बतलाने की पूर्ण आवश्यकता जानकर बतलायी गई है। इस अभ्यासविधि में नासिकाग्र में दृष्टि रखने को कहा गया है। महात्मा गाँधीजी ने भृकुटी के बीच के भाग को नासिकाग्र कहा है।4 लोकमान्य बालगंगाधर तिलकजी ने नाक की नोक को नासिकाग्र कहा है।4 शाण्डिल्योपनिषद् अध्याय 1 में भी नासिकाग्र5 में देखना कहा है; यथा-
‘---विद्वान्समग्रीवशिरोनासाग्रदृग्भ्रूमध्ये
शशभृद्बिम्बं पश्यन्नेत्राभ्याममृतं पिबेत्---।।’
और-
---द्वादशांगुलपर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे।
संविद्दृशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पयन्दो निरुध्यते---।।32।।
अर्थ-विद्वान गला और सिर को सीधा करके नासिका के आगे दृष्टि रखते हुए, भौंओं के बीच में चन्द्रमा के बिम्ब को देखते हुए, नेत्रें से अमृत का पान करे। जब ज्ञानदृष्टि (सुरत, चेतनवृत्ति) नासाग्र से बारह अंगुल पर स्वच्छ आकाश में स्थिर हो, तो प्राण का स्पन्दन रुद्ध हो जाता है।6 मण्डलब्राह्मणोपनिषद्, ब्राह्मण 2 में इसको शाम्भवी मुद्रा (दृष्टियोग) कहा गया है-
तद्दर्शने तिस्त्रो मूर्त्तयः अमा प्रतिपत्पूर्णिमा चेति।
निमीलितदर्शनममादृष्टिः। अर्धोन्मीलितं प्रतिपत्।
सर्वोन्मीलनं पूर्णिमा भवति। -- तत्लक्ष्यं नासाग्रम----।
----तदभ्यासान्मनःस्थैर्यम्। ततो वायुस्थैर्यम्।
अर्थ-उसके देखने के लिए तीन दृष्टियाँ होती है; अमावस्या, प्रतिपदा और पूर्णिमा। आँख बन्द कर देखना अमादृष्टि है, आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा है और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा है। उसका लक्ष्य नासाग्र होना चाहिए। उसके अभ्यास से मन की स्थिरता होती है। इससे वायु स्थिर होता है।
कोई-कोई अमादृष्टि से (आँख बन्द कर) अभ्यास करने को मना करते हैं, यह कहकर कि इसमें नींद आ जाती है और कोई इस अभ्यास को यह कहकर तिरस्कृत करते हैं कि ‘आँख का मूँदना वक का काम है।’ परन्तु मेरा निवेदन यह है कि अमादृष्टि से ध्यानाभ्यास करना विशेष निरापद और सरल है। आँखों को आधी व पूरी खोलकर अभ्यास करने से आँखों में विशेष कष्ट अवश्य ही होगा। इसलिए यह न सरल है और न निरापद ही कहा जा सकता है। फिर भी इनसे जो अभ्यास करना चाहते हैं, वे करें। परन्तु उनको नहीं चाहिए कि अमादृष्टि द्वारा अभ्यास का तिरस्कार करते हुए वे दूसरों को इसके द्वारा अभ्यास करने से मना करें।
भगवान बुद्ध की ध्यानावस्थित प्रतिमाओं के दर्शन से विदित होता है कि वे आँखों को बन्द करके ध्यानाभ्यास करते थे। श्रीमद्भागवत में लिखा है कि राजा परीक्षित ने आँख बन्द किए ध्यानावस्थित शमीक मुनि के गले में मरा हुआ साँप पहनाया था (स्कन्ध 1, अ0 18, श्लोक 25-39)
कबीर साहब, गुरु नानक साहब तथा पलटू साहब आदि संतों की वाणियों में आँखें बन्द कर ध्यान करने की विधि लिखी है।
नयनों की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय।
पलकों की चिक डारिके, पिय को लिया रिझाय।।
आँख कान मुख बन्द कराओ, अनहद झिंगा शब्द सुनाओ।
दोनों तिल एक तार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है।।
गुरुदेव के भेद को जीव जानै नहीं,जीव तो अपनी बुद्धि ठाने।
गुरुदेव तो जीव को काढ़ि भव सिंधु तें, फेरि लै सुक्ख के सिधु आनै।
बन्द कर दृष्टि को फेरि अन्दर करै, घट का पाट गुरुदेव खोलै। कहै कबीर तू देख संसार में, गुरुदेव समान कोइ नाहिं तोलै।।
(कबीर साहब)
तीन बन्द7 लगाय कर, सुन अनहद टंकोर।
नानक सुन्न समाधि में, नहीं साँझ नहिं भोर।।
(गुरु नानक)
आँख मूँदि के ध्यान लावै, द्वार दसवाँ खोलनं।8
(पलटू साहब)
दोउ मूँदि के नैन अन्दर देखा,
नहिं चाँद सुरज दिन राति है रे।
(यारी साहब)
कबीर साहब ने सहज समाधि का वर्णन करते हुए एक पद्य में कहा है कि-
आँखि न मूँदौं कान न रूधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
खुले नयन पहिचानौं हँसि हँसि, सुन्दर रूप निहारौं।।
यह दशा अवश्य ही सहज समाधि प्राप्त कर लेने पर होगी। परन्तु जबतक सहज समाधि नहीं हुई है, तबतक ‘आँखि न मूँदौं, कान न रूधौं’ नहीं। साधनारम्भ में तो कबीर साहब के वाक्यों में जैसा वर्णन है, आँख और कान बन्द करने ही पड़ेंगे।
साधन के अन्त में सहज समाधि प्राप्त होगी और आँख-कान बन्द करने की आवश्यकता नहीं रहेगी। परन्तु साधनारम्भ से ही आँख-कान न बन्द करना, कबीर साहब नहीं करते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा है-दिशाओं को नहीं देखते हुए नासिकाग्र में देखो। यहाँ विचारणीय है कि दिशाओं को नहीं देखने के लिए आँखों को बन्द करना होगा अथवा उन्हें खोलकर देखना होगा? चारो सीधी ओर, उनके चारो कोने और ऊपर तथा नीचे-ये दस दिशाएँ हैं। आँखों को खोलकर देखने से कोई-न-कोई दिशा अवश्य देखी जाएगी। परन्तु आँखों को बन्द कर और बाहर के ख्यालों को छोड़कर देखने से दिशाओं का देखना छूटेगा।
भृकुटियों के बीच में वा नाक के निचले भाग पर देखने से आँखों में कष्ट तो होगा ही और विशेष बात यह होगी कि भृकुटियों के बीच का वा नाक के निचले नोक-भाग का स्थान प्रत्यक्ष देखा जा सकेगा वा आँख बन्द कर केवल मानसिक दृष्टि से उन स्थानों पर देखने से उन स्थानों के मनोमय रूप देखे जाएँगें। उन स्थानों के जितने-जितने भाग देखे जाएँगे, वे कुछ-न-कुछ परिमाणवाले अवश्य देखे जाएँगे और उन स्थानों पर यदि इष्टदेव की स्थूल मूर्ति ख्याल में बनाकर देखी जायेगी, तो मूर्ति के विस्तार का परिणाम रहेगा। इस तरह किसी परिमाण में मन और दृष्टि को रखने से समाधि प्राप्त करने की ऊर्ध्वगति नहीं हो सकेगी। इसके लिए पूर्ण सिमटाव चाहिए। यह बिना एकबिन्दुता के नहीं हो सकेगा। विन्दु-ध्यान परम ध्यान है-
तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्मह्दि संस्थितम्।।1।।
(तेजोविन्दूपनिषद्)
अर्थ-हृदयस्थित विश्वात्म तेजस्-स्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है।।1।।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान के अणु-से-अणु रूप का निर्देश है।
कवि पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।9
सर्वस्य धातारमविन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।।
(गीता, अध्याय 8, श्लोक 9)
मनुस्मृति के अध्याय 12, श्लोक 122 में यही अणोरणीयाम् विन्दु है।
प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणेरपि।9
रूक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम्।।
अर्थ-जो सबका शासन करनेवाला, अणु से भी अति सूक्ष्म स्वर्ण के समान कान्तिवाला, स्वप्नावस्था के सदृश बुद्धि से जानने योग्य है, उस परम पुरुष को जानें।
परिभाषा के अनुकूल विन्दु का मानव रूप वा कल्पित रूप नहीं बनता है। यह देखने के कौशल से प्रत्यक्ष देखा जाता है। इसी एकविन्दुता वा विन्दुध्यान के लिए श्रीमद्भागवत के स्कन्ध 11, अध्याय 14 के नीचे लिखे श्लोकों में क्रम-क्रम से शून्य-ध्यान का वर्णन है।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाऽकृष्य तन्मनः।
बुद्ध्या सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः।।42।।
तत्सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत्।
नान्यानि चिन्तयेद् भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम्।।43।।
तत्र लब्धपदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत्।9
तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किञ्चदपि चिन्तयेत्।।44।।
अर्थ-बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से खींचकर, उस मन को बुद्धिरूपी सारथी की सहायता से सर्वांगयुक्त मुझमें ही लगा दे।।42।। सब ओर से फैले हुए चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थिर करे और अन्य अंगों का चिन्तन न करता हुआ केवल मेरे मुस्कान-युक्त मुख का ही ध्यान करे।।43।। मुखारविन्द में चित्त के स्थिर हो जाने पर उसे वहाँ से हटाकर आकाश में स्थिर करे। तदन्तर उसको भी त्यागकर मेरे शुद्ध स्वरूप में आरूढ़ हो और कुछ भी चिन्तन न करे।।44।।
इस ध्यानाभ्यास के बारे में उपनिषद् एवं सन्तवाणियों के ये कतिपय पद्य हैं-
बीजाक्षरं परं विन्दु नादं तस्योपरि स्थितम्।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम्।।2।।
अर्थ-परम विन्दु ही बीजाक्षर है, उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अनाशी ब्रह्म) में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है। (ध्यानविन्दूपनिषद्, श्लोक 2)
शून्य ध्यान सबके मन माना।9
गगन की ओट निशाना है।9
दहिने सूर चन्द्रमा बायें, तिनके बीच छिपाना है।
गगन मण्डल के बीच में, तहवाँ झलके नूर।9
जो कोइ निर्गुण दर्शन पावै।
प्रथमे सुरति जमावै तिल पर9, मूल मंत्र गहि लावै।।
मेरे नजर में मोती आया है।9
है तिल के तिल के तिल भीतर, बिरले साधू पाया है।।
(कबीर साहब)
गगनंतरि9 गगन गवनि करि फिरै।
जाय त्रिवेणी मजनु करै।।
गगनि निवासि9 आसणु जिसु होई।
नानक कहे उदासी सोई।।
भ्रम भै मोह न माइआ जाल।
सुन्न समाधि प्रभू किरपाल।।
(ग्रन्थ साहब, गुरु नानक)
चढ़ै गगन9 आकास गरजे द्वार दसम निकासनं।
विन्दु9 में तहँ नाद बोलै रैन दिवस सुहावनं।।
(पलटू साहब)
स्त्रुति ठहरानी रहे अकासा।
तिल खिरकी9 में निसदिन वासा।।
(तुलसी साहब)
नासाग्र और विन्दु वा अणोरणीयाम् के विषय में उक्त बातों की जानकारी के बाद समाधि के विषय में भी जानकारी होनी चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता के ज्ञान का सार विषय, कर्मयोग-द्वारा परमात्म-प्राप्ति और मोक्ष-लाभ करना है। अनेक जानकार ऐसा बतलाते हैं ओर भगवद्गीता का कहना है कि कर्मयोगी को स्थितप्रज्ञ होना चाहिए और स्थितप्रज्ञता समाधि में प्राप्त होती है। अतएव यह अवश्य ही जानना चाहिए कि समाधि किसे कहते है? योगाभ्यास10 के अन्तिम अंग को समाधि कहते हैं। इसमें पूर्ण सफल होने पर अभ्यासी पूर्ण योगी होता है। मुक्तिकोपनिषद् में समाधि की निम्नलिखित स्थितियाँ बतलायी गई हैं-
ब्रह्माकारमनोवृत्तिप्रवाहोऽहंकृतिं विना।
संप्रज्ञातसमाधिः स्याद्ध्यानाभ्यासप्रकर्षतः।।53।।
प्रशान्तवृत्तिकं चित्तं परमानन्ददायकम्।
असंप्रज्ञातनामायं समाधिर्योगिनां प्रियः।।54।।
प्र्र्र्र्र्रभाशून्यं मनःशून्यं बुद्धिशून्यं चिदात्मकम्।
अतद्व्यावृत्तिरूपोऽसौ समाधिर्मुनि भावितः।।55।।
ऊर्ध्वपूर्णमधः पूर्णं मध्यपूर्णं शिवात्मक्।
साक्षाद्विधिमुखो ह्येष समाधिः पारमार्थिकः।।56।।
अर्थ-जब अहंकारवृत्ति निरुद्ध होकर केवल ब्रह्माकार में चित्त की वृत्ति होकर रहती है, तब इसको संप्रज्ञात समाधि कहते हैं। यह अतिशय ध्यानाभ्यास से होती है।।53।।
जब चित्त की सब वृत्तियाँ प्रशान्त हो जाएँगी, उसी अवस्था का नाम असंप्रज्ञात समाधि है। वह योगियों को प्रिय है।।54।। ज्योति, मन तथा बुद्धि-रहित होकर केवल चैतन्य आत्मा ही रहे, यह अतद्व्यावृत्ति (जिसको किसी दूसरे की आवश्यकता न हो) समाधिस्थ मुनियों से अभिलषित है।।55।। (इस समाधि में) ऊपर, नीचे और मध्य; सर्वत्र कल्याणकारी ब्रह्म की परिपूर्णता की अनुभूति होती है। विधिमुख (कथित) यह पारमार्थिक समाधि है।।56।।
समाधि की इन स्थितियों में बाह्य ज्ञानविहीन होकर रहना होता है। नादविन्दूपनिषद् में भी कहा है-
शंखदुन्दुभिनादं च न शृणोति कदाचन।
काष्ठवज्ज्ञायते देह उन्मन्यावस्था ध्रुवम्।।52।।
न जानाति स शीतोष्णं न दुःखं न सुखं तथा।
न मानं नावमानं च संत्यक्त्वा तु समाधिना।।53।।
अवस्थात्रयमन्वेति न चित्तं योगिनः सदा।
जाग्रन्निद्राविनिर्मुक्तः स्वरूपावस्थितामियात्।।54।।
अर्थ-इसके पश्चात् किसी समय भी शंख या दुन्दुभि के नाद को वह (अभ्यासी) नहीं सुनता है। निश्चय ही उन्मुनी अवस्था को पाकर उसकी देह काष्ठवत् हो जाती है।।52।। ठण्ढ, गर्मी और सुख-दुःख को वह कुछ नहीं जानता है। योगी का चित्त सदा मान और अपमान को त्यागकर समाधि से तीनों अवस्थाओं को पार करता है। जाग्रत और निद्रावस्था से छूटकर वह आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है।।53-54।।
समाधि-साधन में जब इन दशाओं को कोई प्राप्त करेगा, तभी वह समाधि-प्राप्त महापुरुष कहलाने का अधिकारी होगा। ऐसे समाधिस्थ महापुरुष स्थितप्रज्ञ होकर पूर्ण कर्मयोगी होंगे, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। समाधि प्राप्त करने के लिए ध्यानयोग का और पूर्ण कर्मयोगी होने के लिए कर्मयोग का अभ्यास संग-संग आरम्भ कर, करते रहना युक्तियुक्त है। अभ्यासी ध्यानयोग में पूर्ण होकर कर्मयोग में भी पूर्ण हो जाएगा। समाधि-रहित को स्थितप्रज्ञता कदापि प्राप्त नहीं होगी और इसके बिना कर्मयोगी कच्चा और अपूर्ण रहेगा।
कोई-कोई कर्म-समाधि मानते हैं। उनका कहना है कि ‘बाह्य कर्तव्यों को पूर्णरूपेण मन लगा-लगाकर करते रहो, इसमें ऐसी तन्मयता आवे कि कर्तव्य कर्म करते समय मन दूसरी ओर तनिक न जाएँ। ऐसी कर्म-समाधि में जाग्रतावस्था नहीं छूटेगीं । ऊपर लिखित समाधियों में तुरीय और तुरीयातीतावस्था में रहकर अभ्यासी बाह्य ज्ञान से शून्य होगा। और नाना प्रकार के कर्तव्यकर्मों को करते हुए मन और बुद्धि एक-ही-एक पर अधिक विलम्ब-पर्यन्त नहीं ठहराए जा सकेंगे। इस भाँति एक तत्त्व का दृढ़ाभ्यास नहीं होगा और एक तत्त्व के दृढ़ाभ्यास के बिना भोगवासना का क्षय नहीं होगा। भोगवासना के क्षय नहीं होने से समाधि की प्राप्ति कदापि नहीं होगी।
एकतत्त्वदृढ़भ्यासाद्यावन्न विजितं मनः।।40।।
प्रक्षीणचित्तदर्पस्य निगृहीतेन्द्रियद्विषः।
पप्रिन्य इव हेमन्ते क्षीयन्ते भोगवासनाः।।41।।
(मुक्तिकोपनिषद्)
अर्थ-जबतक मन नहीं जीता गया हो, एक तत्त्व के दृढ़ अभ्यास के चित्त-अहंकार को पूर्ण रूप से नष्ट करके इन्द्रिय-शत्रु को निग्रह करना। ऐसा होने से ही हेमन्त काल के कमल-सदृश भोग-वासना का नाश हो जाएगा।
अतएव कर्म-समाधि को असली समाधि नहीं मान सकते, जिसमें गीता की स्थितप्रज्ञता प्राप्त हो। वर्णित कर्म-समाधि के माननेवाले, अपने कर्म-समाधि के साधन को ‘विकर्म’ (विशेष कर्म) भी कहते हैं। परन्तु उनके केवल इस विकर्म-साधन से ही असली समाधि की प्राप्ति नहीं हो सकती है; और न कर्म-बन्धन से ही छूटा जा सकता है। कर्म-बन्धन तो असली समाधि में ही नष्ट हो सकता है। इसलिए उनके इस विकर्म-साधन से ‘अकर्म’ होना, माननेयोग्य नहीं है। (अध्याय 4 में विकर्म के विषय में लिखा जा चुका है, अतएव उस विषय में यहाँ और लिखने की आवश्यकता नहीं है।) कच्चे कर्मयोगी को परमात्म-दर्शन और मोक्ष-लाभ नहीं होंगे। जब ये ही नहीं मिले तो ऐसे कर्मयोग के लिए यह कह देना अनुचित नहीं होगा कि-
जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू। जहँ नहिं राम प्रेम परधानू।।
(गो0 तुलसीदास)
जिसको परमात्म-स्वरूप के प्रत्यक्ष दर्शन11 समाधि में प्राप्त करने का प्रेम नहीं है, उसको राम12 (परमात्म) में प्रेम है, यह कैसे कहा जाएगा? केवल ‘मनोमय कुछ’ को परमात्म-दर्शन जानना भूल है। यहाँ पाठकों को पुनः स्मरण करा देता हूँ कि स्थितप्रज्ञता में समत्वबुद्धि होती है और इसके लिए लोकमान्य बालगंगाधर तिलकजी ने ध्यान और उपासना को अत्यन्त आवश्यक बतलाया है। (गीता-रहस्य, पृष्ठ 247)
ध्यान का तात्पर्य यदि केवल मूर्त्त मानसरूप में मन को लगाना है, तो ऐसी जानकारी अपूर्ण है। पहले शून्यध्यान और बिन्दुध्यान के विषय में लिखा जा चुका है। इसके विशेष बोध के लिए कुछ और लिखा जाता है।
न ध्यानं ध्यानमित्याहुर्ध्यानं शून्यगतं मनः।
तस्य ध्यानप्रसादेन सौख्यं मोक्षं न संशयः।।
(ज्ञानसंकलिनी तंत्र)
अर्थ-ध्यान को ध्यान नहीं कहते हैं, शून्यगत मन को ही ध्यान कहते हैं। उसी ध्यान की प्रीति के द्वारा ही सुख और मोक्ष लाभ होते हैं, इसमे सन्देह नहीं।
तुलसीकृत रामायण उत्तराकाण्ड में कागभुशुण्डि के भजन-अभ्यास के विषय में लिखा है कि-
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई।
जाप यज्ञ पाकरि तर करई।।
आम छाँह कर मानस पूजा।
तजि हरि भजन काज नहिं दूजा।।
मानस-पूजा और ध्यान को अलग-अलग कहा गया है। मूर्त्त मानस-रूप में मन लगाना मानस-पूजा है, इसमें किसी को भी सन्देह नहीं है। यह भी एक प्रकार का ध्यान ही है, परन्तु जब कागभुशुण्डि का ध्यान करना इससे पृथक् कहा गया है, तब इसके अतिरिक्त किसी और प्रकार का ध्यानाभ्यास अवश्य होना चाहिए। श्रीमद्भागवत का शून्य में ध्यान करना अवश्य ही इस मानस-पूजा-ध्यान से पृथक् है। इसी में मन शून्यगत होता है और यह विन्दु-ध्यान भी कहलाता है। इसके विषय में प्रथम लिखा जा चुका है। परिमाणशून्य और नहीं विभाजित होनेवाले चिह्न को विन्दु कहते हैं। इसीलिए शून्य-ध्यान और विन्दु-ध्यान एक ही बात है।
आत्मज्ञान, परमात्म-भक्ति, स्थितप्रज्ञता, समाधि, समत्वयोग, कर्मयोग और ध्यानयोग श्रीमद्भगवद्गीता-ज्ञान के सार हैं। इसीलिए इन विषयों को समझाने के निमित्त, इस पुस्तक में इनका कुछ विशेष शब्दों में स्थान-स्थान पर वर्णन किया गया है तथा उचित स्थानों पर यथोचित वर्णन किया जायेगा। भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डव अर्जुन को ध्यानयोग की विधि बतलाकर निम्नलिखित बातें और कहीं।
ध्यानाभ्यास करके जो अपने को नियम में कर लेगा, वह अपने को परमात्मा में जोड़कर उनमें विराजनेवाली शान्ति प्राप्त करेगा। जो बहुत खाता है अथवा उपवासी रहता है; बहुत सोता है या अति अल्प सोता है, उसकी योग की सिद्धि नहीं होती है। बल्कि जिसका भोजन, शयन और जागरण तथा अन्यान्य कर्म; सब उचित परिमाण में नपे-तुले होते हैं, यह योग उसका दुःख-भंजन होता है। कामनाओं में सदा निःस्पृह रहता हुआ ध्यान-योगी का मन, निर्वातस्थान में दीप-शिखा-सदृश स्थिर होता हुआ आत्मा में लगा रहता है। यह योग बिना उकताये हुए साधने-योग्य है।
चंचल मन साधन छोड़कर जिधर-जिधर भागे, उधर- उधर से उसको लौटा-लौटाकर साधना में अनवरत रूप से लगाने का प्रत्याहार करना चाहिए। इस भाँति मन शान्त और वश में होगा। अभ्यासी को अनन्त ब्रह्म-सुख तथा समत्व की प्राप्ति होगी। वह अपने में सबको, सबमें अपने को, ईश्वर को सबमें13 और ईश्वर में सबको आत्मदृष्टि14 से प्रत्यक्ष (न कि केवल बौद्धिक रूप में) देखेगा। परमात्मा के दर्शन उसको सदा मिलते रहेंगे और परमात्मा को तो कभी कुछ भी अदृश्य नहीं रहता है, वह कभी भी कैसे उसको अदृश्य रहेगा? वह समत्व-प्राप्त भक्त-योगी अपने जैसा सबको देखता हुआ, कर्तव्य कर्मों में बरतता हुआ, परमात्मा की प्रत्यक्षता में ही रहा करता है।
यद्यपि मन की अत्यन्त चंचलता और इसके दुःसाध्य होने के कारण इसको वश में करना बड़ा कठिन है, तथापि अभ्यास (ध्यान) और वैराग्य से इसको वश में किया जाता है। यदि ध्यान-योग में श्रद्धा रखे; परन्तु साधन में ढीला रहे, तो यह योग-भ्रष्ट पुरुष अपने स्वल्पातिस्वल्प ध्यान-योगाभ्यास के फल से दुर्गति को प्राप्त न होकर प्रथम स्वर्ग-सुख भोगेगा; पुनः इस पृथ्वी पर किसी पवित्र श्रीमान के घर में अथवा किसी ज्ञानवान योगी के घर में जन्म लेगा और पूर्व के अभ्यास-संस्कार से प्रेरित होकर, ध्यान-योगाभ्यास में लग जायेगा। वह मोक्ष की ओर आगे बढ़ेगा और इस प्रकार अनेक15 जन्मों की कमाई के द्वारा पापों से छुटकर पवित्र होता हुआ परम गति (मोक्ष) को प्राप्त करेगा।
ज्ञानवान योगी के कुल में जन्म पाने को दुर्लभ कहा गया है। इसका हेतु यह ज्ञात होता है कि पवित्र श्रीमान के कुल में बारम्बार जन्म पाकर पूर्व संस्कार-द्वारा ध्यान-योगाभ्यास में जब वह अभ्यासी अधिकाधिक संलग्न होगा और विशेष अभ्यास से उसे सिद्धि मिलेगी, तब वह ज्ञानवान योगी-कुल में जन्म लेने का पात्र होगा। और उसमें जन्म लेकर ध्यान-योगाभ्यास में पारंगत हो, परम मोक्ष को प्राप्त करेगा। इस योगाभ्यास का स्वल्प अभ्यास भी जीव को भव के महाभय से बचाता है और इसकी ऐसी महिमा है कि इसका जिज्ञासु16 भी शब्दब्रह्म17 अर्थात् नाद-ब्रह्म को पार कर जाता है। यह नाद-ब्रह्म सृष्टि का बीज है। सृष्टि के आदि में परमात्मा से सर्वप्रथम इसी का आविर्भाव होता है। इसलिए इसको आदिनाद, आदिनाम और आदिशब्द कहा जाता है। इसको पार कर जाने से ही भवसागर से मुक्ति होती है।
इसका विशेष विवरण ‘सत्संग-योग’18 के चारो भागों में लिखा गया है। यहाँ नमूने के लिए ‘वराहोपनिषद्’, अध्याय 2 का एक मन्त्र दिया जाता है।
सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा।
नाद एवानुसन्धेयो योगसाम्राज्यमिच्छता।।83।।
अर्थ-योग-साम्राज्य की इच्छा करनेवाले मनुष्यों को सब चिन्ता त्यागकर सावधान होकर नाद की ही खोज करनी चाहिए।
ध्यानयोग का सार-साधन नादानुसन्धान है, जो साधन के अन्त तक पहुँचाता है।
तपस्वी से, ज्ञानी (वाचस ज्ञानी वा ध्यानयोग-अभ्यास में पूर्णताविहीन ज्ञानी) से और कर्मकाण्डी से योगी अधिक है। और योगियों में भी परमात्म-भक्त योगी श्रेष्ठ है। इसलिए हे लोगो! भक्तयोगी बनो।

।। षष्ठ अध्याय समाप्त ।।

1 इसे योगहृदय, कंजाकमल अथवा आज्ञाचक्रान्तर्गत शून्यमण्डल भी कहते हैं।
‘दशेन्द्रिय थाके शून्यते बन्धन’
(बंगला ‘योगसंगीत का पद्य’)

2 ‘भ्रुवोर्मध्य’ ,‘नासाग्र’ अथवा ‘नासिकाग्र’ कहकर ध्यान स्थिर करने के स्थान का संकेत प्राचीन काल से साधक करते चले आ रहे हैं। जैसे-निम्नलिखित कथा में गुप्त धन रखने के स्थान का संकेत है।
एक सेठ ने अपने गुप्त धन रखने का स्थान अपने बही-खाते में लिखकर रख दिया था कि अमुक महीने की अमुक तिथि के दिन, दोपहर के समय धन अमुक ताड़ गाछ की फुनगी पर रखा है। जब वह मर गया और उसके बेटे ने जब इसे पढ़ा तो अति आश्चर्यित हुआ कि ताड़ वुक्ष तो अभी वर्तमान है, पर वहाँ तो धन है नहीं! और सोचा कि वहाँ धन रह भी सकता है कैसे?
उसके पिता के समय का एक वृद्ध मुनीम था। जब लड़के ने इस विषय में उससे पूछा, तब उस वृद्ध ने कहा-‘वह महीना, तिथि और वह समय आने दो तो मैं बतला दूँगा।’ जब वह समय आ गया, तब उस वृद्ध ने उस सेठ के पुत्र को उस स्थान पर ले जाकर ताड़ गाछ की फुनगी की छाया जहाँ पड़ती थी, वह स्थान बता दिया और बोला कि इसी जगह में वह धन गड़ा है। सेठ-पुत्र ने कोड़कर अपना धन निकाल लिया।
इस भाँति भ्रुवोर्मध्य, नासाग्र अथवा नासिकाग्र का यर्थाथ स्थान भेदी गुरुमुख भक्त से, जिसे दूसरों को बतला देने की गुरु-आज्ञा हो, जाना जा सकता है।
नैन नासिका अग्र है, तहाँ ब्रह्म को वास।
अविनाशी विनसै नहीं, हो सहज जोति परकास।।
(श्रीसूरदासजी)
(कल्याण के वेदान्त-अंक, पृष्ठ 585 से उद्धृत)

3 कर्मयोग का अभ्यासी मुमुक्षु होता है और कर्मयोग में पारंगत जीवन्मुक्त होता है।

4 अनासक्तियोग, अध्या 6, श्लोक 13, 14 के नीचे टिप्पणी में तथा गीता-रहस्य, गीता-अध्याय 6, श्लोक 13 देखें।

5 इसका सच्चा रहस्य अच्दे अभ्यासी और सच्चे सद्गरु से जानना चाहिए; यह गुरुगम्य है।

6 नासाग्र का पता जाबालोपनिषद् के इस प्रसंग के पढ़ने से लगता है-
अथ हैनमत्रिः पप्रच्छ याज्ञवल्कयं। य एषोऽनन्तोऽव्यक्त आत्मा सोऽविमुक्ते प्रतिष्ठित इति।। सोऽविमुक्तः कस्मिन्प्र्रतिष्ठित इति। वरणायां नाश्यां च मध्ये प्रतिष्ठित इति।। का वै वरणा का च नाशीति। सर्वानिन्द्रियकृतान्दोषान्वारयतीति तेन वरणा भवति।।
सर्वानिन्द्रियकृतान्पापान्नाशयतीति तेन नाशी भवतीति। कतमं चास्य स्थानं भवतीति। भ्रुवोर्घ्राणस्य च यः सन्धिः स एष द्योर्लोकस्य परस्य च सन्धिर्भवतीति। एतद्वै सन्धिं सन्ध्यां ब्रह्मविद् उपासत इति।।2।।
अर्थ-अन्नि द्दषि ने इसके बाद याज्ञवल्क्य से पूछा-‘जो ऐसा अनन्त अव्यक्त आत्मा है, उसको हम कैसे जानें?’ याज्ञवल्क्य ने कहा-‘वह अविमुक्त आत्मा ही उपासना योग्य है। वह अनन्त अव्यक्त आत्मा अविमुक्त में प्रतिष्ठित है।’ वह अविमुक्त कहाँ प्रतिष्ठित है? वह वरणा और नाशी के बीच में प्रतिष्ठित है। वरणा और नाशी क्या है? सब इन्द्रियकृत पापों को नाश करता है, वही नाशी कहलाता है। कहाँ वह स्थान है? दोनों भौंओं का और नासिका का जो मिलन-स्थान है (वहीं वह स्थान है), वह द्युलोंक और परलोक का भी मिलन-स्थान है। इस संधिस्थान में ब्रह्मज्ञानी अपनी संध्या की उपासना करते हैं अर्थात् वहाँ पर ध्यान करके ब्रह्म-साक्षात्कार की चेष्टा करते हैं।।2।।
और सूरदासजी कहते हैं-
नैन नासिका अग्र है, तहाँ ब्रह्म को वास।
अविनासी विनसै नहीं, हो सहज जोति परकास।।
(कल्याण-वेदान्त अंक, 1993 वि0 सं0, पृ0 585 से उद्धृत)

7 आँख, कान और मुँह बन्द = तीन बन्द। हठयोग की क्रियाओं में मूल बन्ध, उड्डीयान बन्ध और जालंधर बन्ध-तीन बन्ध हैं, सो ये तीन बन्ध नहीं है।

8 पलटू साहब की बानी, भाग 1

9 द्रष्टव्य-रेखांकित वाणी में विन्दु-ध्यान का संकेत है।

10 इसके आठ अंग हैं-(1) यम, (2) नियम, (3) आसन, (4) प्राणायाम, (5) प्रत्याहार, (6) धारणा, (7) ध्यान और (8) समाधि।

11 यह दर्शन मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों को नहीं, केवल चेतन आत्मा को ही हो सकता है।

12 राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अविगत अलख अनादि अनूपा।।
सकल विकार रहित गत भेदा। कहि नित नेति निरूपहिं वेदा।।
(गोस्वामी तुलसीदास)

13 ध्यानयोग में पारंगत से ही ऐसा होगा। केवल किसी के कहने पर कि ‘सबमें ईश्वर को देखो,’ कोई सबमें ईश्वर का दर्शन नहीं पा सकता है।

14 कैवल्य दशा की आत्मदृष्टि।

15 श्रीमद्भगवद्गीता के कथनानुसार तो अनेक जन्मों तक ध्यानयोग करके सिद्धि मिलेगी, परन्तु जो अपने को गीता का विशेष जानकार और उसके द्वारा पुष्ट हुआ मानें, वह यदि केवल कुछ वर्षों तक ध्यान करके यह सिद्धान्त अपनी ओर से कह दें कि अब ध्यान-योग करने का समय नहीं है, तो उनकी यह बात विश्वास करने-योग्य नहीं है। अनेक जन्मों के अभ्यास के समक्ष केवल कुछ वर्षों का ही अभ्यास तो अत्यन्त स्वल्पाभ्यास है। इतने ही में अपने उक्त सिद्धान्त का प्रसार करना बड़ा ही अयोग्य है। अनेक जन्म ध्यानाभ्यास करके सिद्धि पाकर, वह यह नहीं कहेंगे कि अब ध्यानाभ्यास का समय नहीं है; क्योंकि गीता यह नहीं बताती है कि ध्यानाभ्यास करने का समय कभी नहीं रहेगा।

16 जबतक योगाभ्यास में कोई पूर्ण नहीं होता है, तबतक वह योग का जिज्ञासु ही है।

17 अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते ---------।।2।।
(योगशिखोपनिषद्, अ0 3)
अर्थ-अक्षर (अनाशी) परम नाद को शब्दब्रह्म कहते हैं।।2।। ध्यानयोग में नादानुसंधान परम और अन्त का साधन है। इसके समाप्त हुए बिना योग समाप्त ही नही होगा। शून्यध्यान वा विन्दुध्यान-द्वारा नादानुसन्धान (सुरत-शब्दयोग) का अभ्यास ग्रहण होगा।
विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम् --------।।13।।
(योगशिखोपनिषद्, अ0 2)
अर्थ-विन्दुपीठ का भेदन करके नादलिंग उपस्थित होता है।
बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम्।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम्।।2।।
(ध्यानविन्दुपनिषद्)
अर्थ-परम विन्दु ही बीजाक्षर है। उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अनाशी) ब्रह्म में लय हो जाता है, तो निःशब्द परम पद है।
लोगों ने ‘शब्द-ब्रह्म’ का अर्थ वेद बतलाकर, ‘जिज्ञासुरपि योगस्य शब्द-ब्रह्माति वर्तते’ का अर्थ (योग का जिज्ञासु भी सकाम वैदिक कर्म करनेवाले की स्थिति पार कर जाता है।’) भी किया है। मैंने ‘शब्द-ब्रह्म’ को जैसा समझा है, उस अर्थ में वैदिक कर्मकाण्डात्म्क स्थिति को अवश्य ही अभ्यासी वा जिज्ञासु पार कर जाएगा।

18 वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक के कतिपय सन्तों के शब्द इस पुस्तक में संगृहीत हैं और चौथे भाग में यह बताया गया है कि इन वाणियों के अनुसार सन्तमत क्या है?
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अध्याय ६ - आत्म संयम योग
(योग में स्थित मनुष्य के लक्षण)
श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥ (१)

भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - जो मनुष्य बिना किसी फ़ल की इच्छा से अपना कर्तव्य समझ कर कार्य करता है, वही संन्यासी है और वही योगी है, न तो अग्नि को त्यागने वाला ही सन्यासी होता है, और न ही कार्यों को त्यागने वाला ही योगी होता है। (१)

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन ॥ (२)

भावार्थ : हे पाण्डुपुत्र! जिसे संन्यास कहते हैं, उसे ही तू योग (परब्रह्म से मिलन कराने वाला) समझ, क्योंकि इन्द्रिय-सुख (शरीर के सुख) की इच्छा का त्याग किये बिना कभी भी कोई मनुष्य योग (परमात्मा) को प्राप्त नहीं हो सकता है। (२)

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥ (३)

भावार्थ : मन को वश में करने की इच्छा वाले मनुष्य को योग की प्राप्ति के लिये कर्म करना कारण होता है, और योग को प्राप्त होते-होते सभी सांसारिक इच्छाओं का अभाव हो जाना ही कारण होता है। (३)

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्‍कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ॥ (४)

भावार्थ : जब मनुष्य सभी सांसारिक इच्छाओं का त्याग करके, न तो शारीरिक सुख के लिये कार्य करता है, और न ही फ़ल की इच्छा से कार्य में प्रवृत होता है, उस समय वह मनुष्य योग मे स्थित कहलाता है। (४)

उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌ ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ (५)

भावार्थ : मनुष्य को चाहिये कि वह अपने मन के द्वारा अपना जन्म-मृत्यु रूपी बन्धन से उद्धार करने का प्रयत्न करे, और अपने को निम्न-योनि में न गिरने दे, क्योंकि यह मन ही जीवात्मा का मित्र है, और यही जीवात्मा का शत्रु भी है। (५)

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्‌ ॥ (६)

भावार्थ : जो मनुष्य मन को वश में कर लेता है, उसका वह मन ही परम-मित्र बन जाता है, लेकिन जो मनुष्य मन को वश में नहीं कर पाता है, उसके लिए वह मन ही परम-शत्रु के समान होता है। (६)

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥ (७)

भावार्थ : जिसने मन को वश में कर लिया है, उसको परम-शान्ति स्वरूप परमात्मा पूर्ण-रूप से प्राप्त हो जाता है, उस मनुष्य के लिये सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और मान-अपमान एक समान होते है। (७)

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः ॥ (८)

भावार्थ : ऎसा मनुष्य स्थिर चित्त वाला और इन्द्रियों को वश में करके, परमात्मा के ज्ञान द्वारा परमात्मा को प्राप्त करके, पूर्ण सन्तुष्ट रहता है, ऎसे परमात्मा को प्राप्त हुए मनुष्य के लिये मिट्टी, पत्थर और सोना एक समान होते है। (८)

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥ (९)

भावार्थ : ऎसा मनुष्य स्वभाव से सभी का हित चाहने वाला, मित्रों और शत्रुओं में, तटस्थों और मध्यस्थों में, शुभ-चिन्तकों और ईर्ष्यालुओं में, पुण्यात्माओं और पापात्माओं में भी एक समान भाव रखने वाला होता है। (९)

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥ (१०)

भावार्थ : ऎसा मनुष्य निरन्तर मन सहित शरीर से किसी भी वस्तु के प्रति आकर्षित हुए बिना तथा किसी भी वस्तु का संग्रह किये बिना परमात्मा के ध्यान में एक ही भाव से स्थित रहने वाला होता है। (१०)


(योग में स्थित होने की विधि और लक्षण)
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्‌ ॥ (११)

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥ (१२)

भावार्थ : योग के अभ्यास के लिये मनुष्य को एकान्त स्थान में पवित्र भूमि में न तो बहुत ऊँचा और न ही बहुत नीचा, कुशा के आसन पर मुलायम वस्त्र या मृगछाला बिछाकर, उस पर दृड़ता-पूर्वक बैठकर, मन को एक बिन्दु पर स्थित करके, चित्त और इन्द्रिओं की क्रियाओं को वश में रखते हुए अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करना चाहिये। (११,१२)

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्‌ ॥ (१३)

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥ (१४)

भावार्थ : योग के अभ्यास के लिये मनुष्य को अपने शरीर, गर्दन तथा सिर को अचल और स्थिर रखकर, नासिका के आगे के सिरे पर दृष्टि स्थित करके, इधर-उधर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ, बिना किसी भय से, इन्द्रिय विषयों से मुक्त ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित, मन को भली-भाँति शांत करके, मुझे अपना लक्ष्य बनाकर और मेरे ही आश्रय होकर, अपने मन को मुझमें स्थिर करके, मनुष्य को अपने हृदय में मेरा ही चिन्तन करना चाहिये। (१३,१४)

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥ (१५)

भावार्थ : इस प्रकार निरन्तर शरीर द्वारा अभ्यास करके, मन को परमात्मा स्वरूप में स्थिर करके, परम-शान्ति को प्राप्त हुआ योग में स्थित मनुष्य ही सभी सांसारिक बन्धन से मुक्त होकर मेरे परम-धाम को प्राप्त कर पाता है। (१५)

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥ (१६)

भावार्थ : हे अर्जुन! योग में स्थित मनुष्य को न तो अधिक भोजन करना चाहिये और न ही कम भोजन करना चाहिये, न ही अधिक सोना चाहिये और न ही सदा जागते रहना चाहिये। (१६)

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ (१७)

भावार्थ : नियमित भोजन करने वाला, नियमित चलने वाला, नियमित जीवन निर्वाह के लिये कार्य करने वाला और नियमित सोने वाला योग में स्थित मनुष्य सभी सांसारिक कष्टों से मुक्त हो जाता है। (१७)

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥ (१८)

भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य का योग के अभ्यास द्वारा विशेष रूप से मन जब आत्मा में स्थित परमात्मा में ही विलीन हो जाता है, तब वह सभी प्रकार की सांसारिक इच्छाओं से मुक्त हो जाता है, उस समय वह पूर्ण रूप से योग में स्थिर कहा जाता है। (१८)

यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥ (१९)

भावार्थ : उदाहरण के लिये जिस प्रकार बिना हवा वाले स्थान में दीपक की लौ बिना इधर-उधर हुए स्थिर रहती है, उसी प्रकार योग में स्थित मनुष्य का मन निरन्तर आत्मा में स्थित परमात्मा में स्थिर रहता है। (१९)

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥ (२०)

भावार्थ : योग के अभ्यास द्वारा जिस अवस्था में सभी प्रकार की मानसिक गतिविधियाँ रुक जाती हैं, उस अवस्था (समाधि) में मनुष्य अपनी ही आत्मा में परमात्मा को साक्षात्कार करके अपनी ही आत्मा में ही पूर्ण सन्तुष्ट रहता है। (२०)

सुखमात्यन्तिकं यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्‌ ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥ (२१)

भावार्थ : तब वह अपनी शुद्ध चेतना द्वारा प्राप्त करने योग्य परम-आनन्द को शरीर से अलग जानता है, और उस अवस्था में परमतत्व परमात्मा में स्थित वह योगी कभी भी विचलित नही होता है। (२१)

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥ (२२)

भावार्थ : परमात्मा को प्राप्त करके वह योग में स्थित मनुष्य परम-आनन्द को प्राप्त होकर इससे अधिक अन्य कोई सुख नहीं मानता हुआ भरी से भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता है। (२२)

तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥ (२३)

भावार्थ : मनुष्य को चाहिये कि दृड़-विश्वास के साथ योग का अभ्यास करते हुए सभी सांसारिक संसर्ग से उत्पन्न दुखों से बिना विचलित हुए है योग समाधि में स्थित रहकर कार्य करे। (२३)

सङ्‍कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥ (२४)

भावार्थ : मनुष्य को चाहिये मन से उत्पन्न होने वाली सभी सांसारिक इच्छाओं को पूर्ण-रूप से त्याग कर और मन द्वारा इन्द्रियों के समूह को सभी ओर से वश में करे। (२४)

शनैः शनैरुपरमेद्‍बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्‌ ॥ (२५)

भावार्थ : मनुष्य को चाहिये क्रमश: चलकर बुद्धि द्वारा विश्वास-पूर्वक अभ्यास करता हुआ मन को आत्मा में स्थित करके, परमात्मा के चिन्तन के अलावा अन्य किसी वस्तु का चिन्तन न करे। (२५)

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌ ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌ ॥ (२६)

भावार्थ : मनुष्य को चाहिये स्वभाव से स्थिर न रहने वाला और सदा चंचल रहने वाला यह मन जहाँ-जहाँ भी प्रकृति में जाये, वहाँ-वहाँ से खींचकर अपनी आत्मा में ही स्थिर करे। (२६)

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्‌ ।
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्‌ ॥ (२७)

भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य का मन जब परमात्मा में एक ही भाव में स्थिर रहता है और जिसकी रज-गुण से उत्पन्न होने वाली कामनायें भली प्रकार से शांत हो चुकी हैं, ऎसा योगी सभी पाप-कर्मों से मुक्त होकर परम-आनन्द को प्राप्त करता है। (२७)

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥ (२८)

भावार्थ : इस प्रकार योग में स्थित मनुष्य निरन्तर योग अभ्यास द्वारा सभी प्रकार के पापों से मुक्त् होकर सुख-पूर्वक परब्रह्म से एक ही भाव में स्थिर रहकर दिव्य प्रेम स्वरूप परम-आनंद को प्राप्त करता है। (२८)

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥ (२९)

भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य सभी प्राणीयों मे एक ही आत्मा का प्रसार देखता है और सभी प्राणीयों को उस एक ही परमात्मा में स्थित देखता है, ऎसा योगी सभी को एक समान भाव से देखने वाला होता है। (२९)

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ (३०)

भावार्थ : जो मनुष्य सभी प्राणीयों में मुझ परमात्मा को ही देखता है और सभी प्राणीयों को मुझ परमात्मा में ही देखता है, उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिए कभी अदृश्य नहीं होता है। (३०)

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥ (३१)

भावार्थ : योग में स्थित जो मनुष्य सभी प्राणीयों के हृदय में मुझको स्थित देखता है और भक्ति-भाव में स्थित होकर मेरा ही स्मरण करता है, वह योगी सभी प्रकार से सदैव मुझमें ही स्थित रहता है (३१)

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ (३२)

भावार्थ : हे अर्जुन! योग में स्थित जो मनुष्य अपने ही समान सभी प्राणीयों को देखता है, सभी प्राणीयों के सुख और दुःख को भी एक समान रूप से देखता है, उसी को परम पूर्ण-योगी समझना चाहिये। (३२)


(योग द्वारा मन का निग्रह)
अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्‌ ॥ (३३)

भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे मधुसूदन! यह योग की विधि जिसके द्वारा समत्व-भाव दृष्टि मिलती है जिसका कि आपके द्वारा वर्णन किया गया है, मन के चंचलता के कारण मैं इस स्थिति में स्वयं को अधिक समय तक स्थिर नही देखता हूँ। (३३)

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्‌ ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्‌ ॥ (३४)

भावार्थ : हे कृष्ण! क्योंकि यह मन निश्चय ही बड़ा चंचल है, अन्य को मथ डालने वाला है और बड़ा ही हठी तथा बलवान है, मुझे इस मन को वश में करना, वायु को वश में करने के समान अत्यन्त कठिन लगता है। (३४)

श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌ ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ (३५)

भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे महाबाहु कुन्तीपुत्र! इसमे कोई संशय नही है कि चंचल मन को वश में करना अत्यन्त कठिन है, किन्तु इसे सभी सांसारिक कामनाओं को त्याग (वैराग्य) और निरन्तर अभ्यास द्वारा वश में किया जा सकता है। (३५)

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥ (३६)

भावार्थ : जिस मनुष्य द्वारा मन को वश में नही किया गया है, ऐसे मनुष्य के लिये परमात्मा की प्राप्ति (योग) असंभव है लेकिन मन को वश में करने वाले प्रयत्नशील मनुष्य के लिये परमात्मा की प्राप्ति (योग) सहज होता है - ऎसा मेरा विचार है। (३६)


(योग-भ्रष्ट हुए मनुष्य की गति)
अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥ (३७)

भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण! प्रारम्भ में श्रद्धा-पूर्वक योग में स्थिर रहने वाला किन्तु बाद में योग से विचलित मन वाला असफ़ल-योगी परम-सिद्धि को न प्राप्त करके किस लक्ष्य को प्राप्त करता है? (३७)

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥ (३८)

भावार्थ : हे महाबाहु कृष्ण! परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग से विचलित हुआ जो कि न तो सांसारिक भोग को ही भोग पाया और न ही आपको प्राप्त कर सका, ऎसा मोह से ग्रसित मनुष्य क्या छिन्न-भिन्न बादल की तरह दोनों ओर से नष्ट तो नहीं हो जाता? (३८)

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥ (३९)

भावार्थ : हे श्रीकृष्ण! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरे इस संशय को सम्पूर्ण रूप से केवल आप ही दूर कर सकते हैं क्योंकि आपके अतिरिक्त अन्य कोई इस संशय को दूर करने वाला मिलना संभव नहीं है। (३९)

श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥ (४०)

भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे पृथापुत्र! उस असफ़ल योगी का न तो इस जन्म में और न अगले जन्म में ही विनाश होता है, क्योंकि हे प्रिय मित्र! परम-कल्याणकारी नियत-कर्म करने वाला कभी भी दुर्गति को प्राप्त नही होता है। (४०)

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥ (४१)

भावार्थ : योग में असफ़ल हुआ मनुष्य स्वर्ग आदि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर उनमें अनेकों वर्षों तक जिन इच्छाओं के कारण योग-भ्रष्ट हुआ था, उन इच्छाओं को भोग करके फिर सम्पन्न सदाचारी मनुष्यों के परिवार में जन्म लेता है। (४१)

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्‌ ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्‌ ॥ (४२)

भावार्थ : अथवा उत्तम लोकों में न जाकर स्थिर बुद्धि वाले विद्वान योगियों के परिवार में जन्म लेता है, किन्तु इस संसार में इस प्रकार का जन्म निःसंदेह अत्यन्त दुर्लभ है। (४२)

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्‌ ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥ (४३)

भावार्थ : हे कुरुनन्दन! ऎसा जन्म प्राप्त करके वहाँ उसे पूर्व-जन्म के योग-संस्कार पुन: प्राप्त हो जाते है और उन संस्कारों के प्रभाव से वह परमात्मा प्राप्ति रूपी परम-सिद्धि को प्राप्त करने के उद्देश्य फिर से प्रयत्न करता है। (४३)

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥ (४४)

भावार्थ : पूर्व जन्म के अभ्यास के कारण वह निश्चित रूप से परमात्म-पथ की ओर स्वत: ही आकर्षित हो जाता है, ऎसा जिज्ञासु योगी शास्त्रों के अनुष्ठानों का उल्लंघन करके योग में स्थित हो जाता है। (४४)

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो यात परां गतिम्‌ ॥ (४५)

भावार्थ : ऎसा योगी समस्त पाप-कर्मों से शुद्ध होकर अनेक जन्मों के कठिन अभ्यास से इस जन्म में प्रयत्न करते हुए परम-सिद्धि को प्राप्त करने के पश्चात् परम-गति को प्राप्त करता है। (४५)

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥ (४६)

भावार्थ : तपस्वियों से योगी श्रेष्ठ है, शास्त्र-ज्ञानियों से भी योगी श्रेष्ठ माना जाता है और सकाम कर्म करने वालों की अपेक्षा भी योगी श्रेष्ठ है, इसलिये हे अर्जुन! तू योगी बन। (४६)

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥ (४७)

भावार्थ : सभी प्रकार के योगियों में से जो पूर्ण-श्रद्धा सहित, सम्पूर्ण रूप से मेरे आश्रित हुए अपने अन्त:करण से मुझको निरन्तर स्मरण (दिव्य प्रेमाभक्ति) करता है, ऎसा योगी मेरे द्वारा परम-योगी माना जाता है। (४७)


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ध्यानयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः॥
इस प्रकार उपनिषद्, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्ररूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद में ध्यान-योग नाम का छठा अध्याय संपूर्ण हुआ॥

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥