इस अध्याय का विषय गुणत्रय विभागयोग है।
इससे पहले के अध्याय में त्रिगुणात्मिका प्रकृति का कुछ परिचय कराने के अनन्तर त्रयगुण-विभाग का भी कथन होना ही चाहिए। इस अध्याय में उसी त्रयगुण-विभाग का तथा त्रयगुणातीत का वर्णन हुआ है। जिस उत्तम ज्ञान का अनुभव (साक्षात् होने पर का ज्ञान) पाकर मुनिगण इस लोक से परम सिद्धि पा गए हैं, उसी ज्ञान का वर्णन यहाँ किया जाता है। इस ज्ञान का सहारा लेकर परमात्मा से एकरूपता पाए हुए लोग सृष्टि के उत्पत्ति-काल में भी जन्म नहीं लेते हैं और प्रलय की व्यथा भी नहीं भोगते हैं, अर्थात् जन्म-मरण से सदा का मोक्ष पा लेते हैं।
महद्ब्रह्म1 अर्थात् प्रकृति परमात्मा के अधीनस्थ योनि (उत्पत्ति-स्थान) है। उसी से उनके द्वारा सारी सृष्टि उपजती है। प्रकृति-स्थित त्रयगुण अनाशी आत्मा को देह के साथ सम्बन्धित रखता है। सत्त्वगुण ज्ञान के साथ बाँधता है; रजोगुण विषय-अनुरागी बनाता है, इससे तृष्णा और आसक्ति उपजती है और वह प्राणी को कर्म से बाँधता है। तमोगुण अज्ञान, आलस्य, निद्रा उपजाता है और मोह में डालता है। सत्त्वगुण सुख में और रजोगुण कर्म में आसक्ति उत्पन्न करता है। तमोगुण ज्ञान को ढँककर कर्तव्य-मूढ़ता और विस्मरण उत्पन्न करता है। रजोगुण और तमोगुण के दबने से सत्त्वगुण की बढ़ती होती है। सत्त्वगुण और तमोगुण के दबने से रजोगुण की बढ़ती होती है। सत्त्वगुण और रजोगुण के दबने से तमोगुण की बढ़ती होती है।
देह और उसके सब द्वारों में जब प्रकाशऽ-ब्रह्मज्योति उत्पन्न हो और ज्ञान की वृद्धि हो, तब सत्त्वगुण की वृद्धि हुई है, ऐसा जानना चाहिए। रजोगुण की वृद्धि में लोभ, संसार में फँसाव, कर्मों का आरम्भ और इच्छा का उदय होता है। तमोगुण की वृद्धि में अज्ञान, मन्दता, असावधानी और मोह उत्पन्न होता है। अपने अन्दर सत्त्वगुण की वृद्धि के काल में मृत्यु हो, तो ज्ञानियों के उत्तम लोक में गमन होता है। रजोगुण की वृद्धि में मृत्यु हो, तो कर्मों में आसक्त रहनेवालों में जन्म होता है और तमोगुण के वृद्धि-काल में मृत्यु हो, तो मूढ़ योनियों में जन्म प्राप्त होता है।
सत्कर्म का फल पवित्र और सात्त्विक होता है। राजसी कर्म का फल दुःख होता है और तामसी कर्म का फल अज्ञान होता है।
सात्त्विकता में रहनेवाले (सुषुम्ना में वृति रखनेवाले) की ऊर्ध्वगति (ऊपर अर्थात् सुक्ष्मता में चढ़ाई) होती है; राजसी मध्य में रहते हैं और तामसी नीचे वा नरक में जाते हैं।
जिसको प्रत्यक्ष दीखने लगता है कि कर्म करनेवाला गुणों (त्रयगुणमयी प्रकृति) के अतिरिक्त अन्य नहीं है, वह गुणातीत को भी पहचानता और जानता है। और तब वह परमात्मा के भाव को अर्थात् परमात्मा से एकता को प्राप्त करता है-
जौं जल में जल पैठ न निकसे, यौं ढुरि मिला जुलाहा।
(कबीर साहब)
जल तरंग जिउ जलहि समाइया।
तिउ जोती संगि जोति मिलाइआ।।
(गुरु नानक)
सकल दृस्य निज उदर मेलि, सोबइ निद्रा तजि योगी।
सोइ हरिपद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं।
तुलसिदास यहि दसाहीन, संलय निर्मूल न जाहीं।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी (विनय-पत्रिका)
तथा-
जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।
(रामचरितमानस)
इन पद्यों के लिखने का तात्पर्य यह है कि संतों की उक्ति गीता के अनुकूल ही है, ऐसा लोगों के जानने में आवे।
अब आगे इस अध्याय में गीता बतलाती है कि उपर्युक्त परमात्म-भाव को प्राप्त कर देहधारी गुणातीत या स्थितप्रज्ञ2 बन जन्म, मृत्यु और बुढ़ापे के दुःखों से छूट जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है।
।। चतुर्दश अध्याय समाप्त ।।
1 यहाँ ‘ब्रह्म’ का अर्थ प्रकृति है। अध्याय 3 के श्लोक 15 में कहा गया है, कर्म ‘ब्रह्म’ से उत्पन्न होता है। यहाँ ‘ब्रह्म’ का अर्थ-लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक महाशयजी और महात्मा गाँधीजी के मतानुकूल-प्रकृति ही है।
यही विचार पुनः अध्याय 13 के श्लोक 29 में भी बताया गया है। वहाँ कहा गया है कि यथार्थतः प्रकृति ही सर्वत्र कर्म करती है।
कतिपय टीकाकार अध्याय 3, श्लोक 15 के ‘ब्रह्म’ शब्द का अर्थ वेद लगाकर कहते हैं कि कर्म वेद से उत्पन्न हुआ है।
यहाँ सोचने की बात है कि वेद में कर्तव्याकर्तव्य की मीमांसा तथा विधि एवं कर्तव्य कर्म करने और निषिद्ध तथा अकर्तव्य कर्म छोड़ने की आज्ञा होनी चाहिए, न कि कर्म की उत्पत्ति ही वेद से होनी चाहिए।
इसीलिए गो0 तुलसीदासजी ने कहा है-
गनि गुन दोष वेद विलगाये।
(तुलसीकृत रामायण)
उपर्युक्त बातों पर विचार कर मैंने अध्याय 3, श्लोक 15 के ‘ब्रह्म’ का अर्थ प्रकृति ही ठीक माना है। इस श्लोक में यह भी कहा गया है कि ब्रह्म की उत्पत्ति अक्षर अर्थात् अनाशी परमात्मा से हुई है। अब मैं निर्णयात्मक रूप से इस सिद्धान्त पर पहुँचता हूँ कि प्रकृति परमात्मा से उपजी है। परन्तु प्रकृति के उपजने के पूर्व मायामय देश और काल नहीं थे; क्योंकि प्रकृति से ही देश और काल बनते हैं। अतएव प्रकृति उपर्युक्त देश और काल में नहीं उपजी। इसीलिए देश और काल की दृष्टि से प्रकृति अनादि है, परन्तु परमात्मा-सदृश अज यह नहीं है। निचोड़ यह है कि प्रकृति देश-काल-ज्ञान से अनादि है और उत्पत्ति-ज्ञान से सादि है। इसका आदि परमात्मा में है और परमात्मा देशकालातीत हैं।
और सन्त सुन्दरदासजी कहते हैं-
ब्रह्म तें पुरुष अरु, प्रकृति प्रगट भई।
प्रकृति तें महतत्त्व, पुनि अहंकार है।।
अहंकारहू तें तीन गुण-सत्व रज तम।
तमहू तें महाभूत, विषय पसार है।।
रजहू तें इन्द्री दश, पृथक पृथक भई।
सत्त्वहू तें मन आदि, देवता विचार है।।
ऐसे अनुक्रम करि, शिष्य सूँ कहत गुरु।
‘सुन्दर’ कहत यह, मिथ्या भ्रम-जार है।।
यह प्रकाश सबके अन्दर है ही।
चन्दा झलकै यहि घट माहीं। अन्धी आँखन सूझै नाहीं।।
यदि घट चन्दा यहि घट सूर। यहि घट बाजै अनहद तूर।।
चन्द चढ़ा कुल आलम देखै, मैं देखूँ भ्रम दूर।
हुआ प्रकाश आश गई दूजी, उगिया निर्मल नूर।।
(कबीर साहब)
घट घट अन्तरि ब्रह्मु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई।
बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई।।
(गुरु नानक)
सुषुम्ना में दृष्टि स्थिर रखने से सात्त्विकी वृत्ति रहती है और ज्योतिरूप परमात्मा की विभूति का दर्शन होता है। योगी श्रीश्यामाचरण लाहिड़ी महोदय का कथन है-
बायें इड़ा नाड़ी दक्षिणे पिंगला, रजस्तमो गुणे करितेछे खेला।
मध्ये सत्त्वगुणे सुषुम्ना विमला, घर-घर तारे सादरे।।
(योग-संगीत)
2 श्रीमद्भागवद्गीता में गुणातीत और स्थितप्रज्ञ के लक्षण एक ही प्रकार के मिलते हैं।
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अध्याय १४ - गुण त्रय विभाग योग
(प्रकृति और पुरुष द्वारा जगत् की उत्पत्ति)
श्रीभगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानं मानमुत्तमम् ।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥ (१)
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! समस्त ज्ञानों में भी सर्वश्रेष्ठ इस परम-ज्ञान को मैं तेरे लिये फिर से कहता हूँ, जिसे जानकर सभी संत-मुनियों ने इस संसार से मुक्त होकर परम-सिद्धि को प्राप्त किया हैं। (१)
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥ (२)
भावार्थ : इस ज्ञान में स्थिर होकर वह मनुष्य मेरे जैसे स्वभाव को ही प्राप्त होता है, वह जीव न तो सृष्टि के प्रारम्भ में फिर से उत्पन्न ही होता हैं और न ही प्रलय के समय कभी व्याकुल होता हैं। (२)
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥ (३)
भावार्थ : हे भरतवंशी! मेरी यह आठ तत्वों वाली जड़ प्रकृति (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार) ही समस्त वस्तुओं को उत्पन्न करने वाली योनि (माता) है और मैं ही ब्रह्म (आत्मा) रूप में चेतन-रूपी बीज को स्थापित करता हूँ, इस जड़-चेतन के संयोग से ही सभी चर-अचर प्राणीयों का जन्म सम्भव होता है। (३)
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥ (४)
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! समस्त योनियों जो भी शरीर धारण करने वाले प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सभी को धारण करने वाली ही जड़ प्रकृति ही माता है और मैं ही ब्रह्म (आत्मा) रूपी बीज को स्थापित करने वाला पिता हूँ। (४)
(प्रकृति के गुणों की क्रियाशीलता)
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥ (५)
भावार्थ : हे महाबाहु अर्जुन! सात्विक गुण, राजसिक गुण और तामसिक गुण यह तीनों गुण भौतिक प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं, प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों के कारण ही अविनाशी जीवात्मा शरीर में बँध जाती हैं। (५)
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥ (६)
भावार्थ : हे निष्पाप अर्जुन! सतोगुण अन्य गुणों की अपेक्षा अधिक शुद्ध होने के कारण पाप-कर्मों से जीव को मुक्त करके आत्मा को प्रकाशित करने वाला होता है, जिससे जीव सुख और ज्ञान के अहंकार में बँध जाता है। (६)
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥ (७)
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! रजोगुण को कामनाओं और लोभ के कारण उत्पन्न हुआ समझ, जिसके कारण शरीरधारी जीव सकाम-कर्मों (फल की आसक्ति) में बँध जाता है। (७)
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् ।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥ (८)
भावार्थ : हे भरतवंशी! तमोगुण को शरीर के प्रति मोह के कारण अज्ञान से उत्पन्न हुआ समझ, जिसके कारण जीव प्रमाद (पागलपन में व्यर्थ के कार्य करने की प्रवृत्ति), आलस्य (आज के कार्य को कल पर टालने की प्रवृत्ति) और निद्रा (अचेत अवस्था में न करने योग्य कार्य करने की प्रवृत्ति) द्वारा बँध जाता है। (८)
सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ॥ (९)
भावार्थ : हे अर्जुन! सतोगुण मनुष्य को सुख में बाँधता है, रजोगुण मनुष्य को सकाम कर्म में बाँधता है और तमोगुण मनुष्य के ज्ञान को ढँक कर प्रमाद में बाँधता है। (९)
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥ (१०)
भावार्थ : हे भरतवंशी अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण के घटने पर सतोगुण बढ़ता है, सतोगुण और रजोगुण के घटने पर तमोगुण बढ़ता है, इसी प्रकार तमोगुण और सतोगुण के घटने पर तमोगुण बढ़ता है। (१०)
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥ (११)
भावार्थ : जिस समय इस के शरीर सभी नौ द्वारों (दो आँखे, दो कान, दो नथुने, मुख, गुदा और उपस्थ) में ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न होता है, उस समय सतोगुण विशेष बृद्धि को प्राप्त होता है। (११)
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥ (१२)
भावार्थ : हे भरतवंशीयों में श्रेष्ठ! जब रजोगुण विशेष बृद्धि को प्राप्त होता है तब लोभ के उत्पन्न होने कारण फल की इच्छा से कार्यों को करने की प्रवृत्ति और मन की चंचलता के कारण विषय-भोगों को भोगने की अनियन्त्रित इच्छा बढ़ने लगती है। (१२)
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च ।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥ (१३)
भावार्थ : हे कुरुवंशी अर्जुन! जब तमोगुण विशेष बृद्धि को प्राप्त होता है तब अज्ञान रूपी अन्धकार, कर्तव्य-कर्मों को न करने की प्रवृत्ति, पागलपन की अवस्था और मोह के कारण न करने योग्य कार्य करने की प्रवृत्ति बढने लगती हैं। (१३)
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् ।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ॥ (१४)
भावार्थ : जब कोई मनुष्य सतोगुण की वृद्धि होने पर मृत्यु को प्राप्त होता है, तब वह उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल स्वर्ग लोकों को प्राप्त होता है। (१४)
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते ।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥ (१५)
भावार्थ : जब कोई मनुष्य रजोगुण की बृद्धि होने पर मृत्यु को प्राप्त होता है तब वह सकाम कर्म करने वाले मनुष्यों में जन्म लेता है और उसी प्रकार तमोगुण की बृद्धि होने पर मृत्यु को प्राप्त मनुष्य पशु-पक्षियों आदि निम्न योनियों में जन्म लेता है। (१५)
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ॥ (१६)
भावार्थ : सतोगुण में किये गये कर्म का फल सुख और ज्ञान युक्त निर्मल फल कहा गया है, रजोगुण में किये गये कर्म का फल दुःख कहा गया है और तमोगुण में किये गये कर्म का फल अज्ञान कहा गया है। (१६)
सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥ (१७)
भावार्थ : सतोगुण से वास्तविक ज्ञान उत्पन्न होता है, रजोगुण से निश्चित रूप से लोभ ही उत्पन्न होता है और तमोगुण से निश्चित रूप से प्रमाद, मोह, अज्ञान ही उत्पन्न होता हैं। (१७)
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥ (१८)
भावार्थ : सतोगुण में स्थित जीव स्वर्ग के उच्च लोकों को जाता हैं, रजोगुण में स्थित जीव मध्य में पृथ्वी-लोक में ही रह जाते हैं और तमोगुण में स्थित जीव पशु आदि नीच योनियों में नरक को जाते हैं। (१८)
(गुणातीत पुरुष के लक्षण)
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥ (१९)
भावार्थ : जब कोई मनुष्य प्रकृति के तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है और स्वयं को दृष्टा रूप से देखता है तब वह प्रकृति के तीनों गुणों से परे स्थित होकर मुझ परमात्मा को जानकर मेरे दिव्य स्वभाव को ही प्राप्त होता है। (१९)
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् ।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥ (२०)
भावार्थ : जब शरीरधारी जीव प्रकृति के इन तीनों गुणों को पार कर जाता है तब वह जन्म, मृत्यु, बुढापा तथा सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त होकर इसी जीवन में परम-आनन्द स्वरूप अमृत का भोग करता है। (२०)
अर्जुन उवाच
कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो ।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते ॥ (२१)
भावार्थ : अर्जुन ने पूछा - हे प्रभु! प्रकृति के तीनों गुणों को पार किया हुआ मनुष्य किन लक्षणों के द्वारा जाना जाता है और उसका आचरण कैसा होता है तथा वह मनुष्य प्रकृति के तीनों गुणों को किस प्रकार से पार कर पाता है?। (२१)
श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥ (२२)
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - जो मनुष्य ईश्वरीय ज्ञान रूपी प्रकाश (सतोगुण) तथा कर्म करने में आसक्ति (रजोगुण) तथा मोह रूपी अज्ञान (तमोगुण) के बढने पर कभी भी उनसे घृणा नहीं करता है तथा समान भाव में स्थित होकर न तो उनमें प्रवृत ही होता है और न ही उनसे निवृत होने की इच्छा ही करता है। (२२)
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥ (२३)
भावार्थ : जो उदासीन भाव में स्थित रहकर किसी भी गुण के आने-जाने से विचलित नही होता है और गुणों को ही कार्य करते हुए जानकर एक ही भाव में स्थिर रहता है। (२३)
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥ (२४)
भावार्थ : जो सुख और दुख में समान भाव में स्थित रहता है, जो अपने आत्म-भाव में स्थित रहता है, जो मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण को एक समान समझता है, जिसके लिये न तो कोई प्रिय होता है और न ही कोई अप्रिय होता है, तथा जो निन्दा और स्तुति में अपना धीरज नहीं खोता है। (२४)
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः सा उच्यते ॥ (२५)
भावार्थ : जो मान और अपमान को एक समान समझता है, जो मित्र और शत्रु के पक्ष में समान भाव में रहता है तथा जिसमें सभी कर्मों के करते हुए भी कर्तापन का भाव नही होता है, ऎसे मनुष्य को प्रकृति के गुणों से अतीत कहा जाता है। (२५)
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्येतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ (२६)
भावार्थ : जो मनुष्य हर परिस्थिति में बिना विचलित हुए अनन्य-भाव से मेरी भक्ति में स्थिर रहता है, वह भक्त प्रकृति के तीनों गुणों को अति-शीघ्र पार करके ब्रह्म-पद पर स्थित हो जाता है। (२६)
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥ (२७)
भावार्थ : उस अविनाशी ब्रह्म-पद का मैं ही अमृत स्वरूप, शाश्वत स्वरूप, धर्म स्वरूप और परम-आनन्द स्वरूप एक-मात्र आश्रय हूँ। (२७)
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे प्राकृतिकगुणविभागयोगो नामचतुर्दशोऽध्यायः॥
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में प्राकृतिक गुण विभाग-योग नाम का चौदहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥