इस अध्याय का विषय भक्तियोग है।
इसमें भक्ति-विषय का वर्णन किया गया है। इसके आरंभ में ही अर्जुन ने पूछा है कि व्यक्त और अव्यक्त रूप के उपासकों में कौन योगी श्रेष्ठ माननेयोग्य है? उत्तर में कहा गया है कि व्यक्त उपासक श्रेष्ठ है, और सर्वव्यापी अव्यक्त के उपासक भी परमात्मा को ही पाते हैं, परन्तु इस उपासक को कष्ट अधिक होता है; क्योंकि अव्यक्त गति को देहधारी कष्ट से ही पा सकता है।
अब विचारणीय है कि राजा मनु और उसकी रानी शतरूपा, प्रह्लाद और ध्रुव, ये सब व्यक्तोपासक ही थे और इनको भी तो व्यक्त रूप भगवान का दर्शन बड़े-बड़े कष्टों को सहन करके ही प्राप्त हुआ था। मनु-शतरूपा ने व्यक्त रूप के दर्शन के लिए कठोर तप करने का जो महान कष्ठ उठाया, सो विदित ही है। वांछित व्यक्त दर्शन के बाद स्वर्ग-सुख भोगकर, नरलोक में जन्म पाकर राजा दशरथ और रानी कौशल्या बनकर भी उन्होंने कष्टों का भोग भोगा, यह भी अविदित नहीं है। प्रह्लादजी व्यक्त उपासना में लगे रहे। इसी कारण उन्होंने अपने पिता से अनेकानेक घोर कष्ट पाए, यह भी लोग जानते ही हैं। उन सब कष्टों को पाये बिना प्रह्लाद ने नरसिंह भगवान का दर्शन नहीं पाया। और भक्त ध्रुव को भी घोर जंगल में एकान्त रहकर तप तथा प्राणायाम-अभ्यास करने का कष्ट उठाना पड़ा।
श्रीमद्भागवत में यह कथा है ही।
फिर यह बात कि व्यक्तोपासना में कष्ट नहीं होता है वा इसमें भी कष्ट होता है-इसे विचारवान समझ लें। केवल रोचकता के लिए ही व्यक्तोपासना के पक्ष में यह कहा जाता है कि यह कष्टसाध्य नहीं है। राजा मनु ने तो भगवान श्रीकृष्ण द्वारा सूर्य को दिया हुआ श्रीमद्भागवद््गीता का ज्ञान सूर्य से पाया था। गीता-ज्ञान के इस इतिहास से तो यह मानना पड़ता है कि व्यक्तोपासना में मनु-शतरूपा वाला साधन अमित कष्टमय कठोर है।1
गीता के इस अध्याय में व्यक्तोपासना के लिए कहा गया कि व्यक्त रूप भगवान में परायण अर्थात् प्रवृत्त वा लगा रहना, सब कुछ उन्हें समर्पण करना, एक निष्ठा से उनके रूप का ध्यान करना और मन-बुद्धि को उनमें लगाये रहना-ये सब साधन हैं; परन्तु अव्यक्तोपासना के क्या-क्या साधन हैं, इसका वर्णन कुछ भी नहीं है। यदि कहा जाय कि पिछले अध्यायों में जो संख्यायोग, प्राणायामयोग और ध्यानयोग बतलाए गए हैं-वे सब अव्यक्त-उपासना के साधन हैं, तो मानना पड़ता है कि ये साधन बतला दिये गए हैं। पिछले अध्यायों में तो इस अध्याय में बतलाए गए अव्यक्तोपासना के भी सब साधन कहे ही गए हैं; इस अध्याय में वे मात्र समासरूप में दुहराए गए हैं। अव्यक्तोपासना के साधनों का वर्णन पिछले अध्यायों में हुआ है, ऐसा स्पष्ट रूप से समझ में नहीं आता। हाँ, अव्यक्त स्वरूप का वर्णन स्पष्ट रूप से अवश्य हुआ है।
प्राणायाम और ध्यानयोग अव्यक्तोपासना हैं, इसका बोध कैसे हो? पूरक कुम्भक और रेचक-द्वारा प्राणवायु की कसरत (प्राणायाम) में प्राणवायु के व्यक्त होने के कारण और ध्यान-योग में ध्यान का लक्ष्य भी व्यक्त होने के कारण व्यक्तोपासना ही तो है। और इन दोनों साधनों में जप-विधि भी तो है। ये व्यक्तोपासनाएँ नहीं कहलाकर अव्यक्तोपासनाएँ कहलावें, इसका कोई कारण नहीं है। कहते हैं कि ‘सांख्य और आध्यात्मिक विचार से सत्य, असत्य, आत्मा, ब्रह्म और माया के पूर्ण निर्णयात्मक ज्ञान में मन और बुद्धि को लगाकर आत्म-तत्त्व में विचार-द्वारा संलग्न, निरत या परायण रहने को अव्यक्तोपासना कहते हैं; क्योंकि आत्मा अव्यक्त है।’ बुद्धि-विचार द्वारा अव्यक्त तत्त्व की स्थिति का निर्णय कर सकना तो सम्भव है; परन्तु बुद्धि से उसकी पहचान नहीं हो सकती है; क्योंकि गीता, उपनिषद् भारतीय संतवाणी और सब आध्यात्मिक ग्रंथ इस बात को दृढ़ता से बतलाते हैं कि आत्म-ब्रह्मतत्व और परमात्म-स्वरूप मन और बुद्धि से परे हैं। तब उपर्युक्त अव्यक्तोपासना जिनकी सीमा बुद्धि तक ही है-अत्यंत अपूर्ण है, ऐसा कहना अयुक्त नहीं है। यदि इसको अयुक्त और अपूर्ण नहीं मानकर कोई इसी उपासना में निरत होता है, तो इसके लिए विशेष विद्योपार्जन और केवल विचार-द्वारा मन और बुद्धि पर पूर्ण नियंत्रण रखने का घोर प्रयास अवश्य ही कष्टमय तपश्चर्या है। इसीलिए अव्यक्त उपासना को अधिक कष्टसाध्य कहा जाय, तो ठीक ही है; परन्तु इतना होने पर भी इस तरह की अव्यक्तोपासना को अधिक कष्टसाध्य कहा गया है। इससे यह जानना युक्तियुक्त है कि गीता कहती है कि व्यक्तोपासना में जितना कष्ट है, उससे अधिक कष्ट अव्यक्तोपासना में है। यह नहीं कि व्यक्तोपासना में कुछ कष्ट है ही नहीं। गीता केवल व्यक्त भाव2 के ज्ञानवालों को ‘मूढ़’ की संज्ञा देती है, इसलिए इस संज्ञा से छुटकारा तभी मिल सकता है, जब परमात्मा के अव्यक्त भाव का केवल बौद्धिक ज्ञान ही नहीं, बल्कि समाधि में प्राप्त इसका अनुभव-सिद्ध पूर्ण प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया जाय।
गीता में परमात्म-स्वरूप को अज, अविनाशी, अनंत और अव्यक्त स्थान-स्थान पर बारम्बार कहा गया है; परन्तु परमात्मा के स्थूल-व्यक्त विभूतिरूप सगुण साकार से उपासना आरम्भ करने के प्रेममय भाव की श्रेष्ठता गीताग्रंथ में विशेष रूप से कही गई है। इसके अतिरिक्त इसमें उस परमात्मा के अणु-से-अणु (विन्दु) रूप की तथा ॐकारूप शब्दब्रह्म की उपासनाएँ भी पिछले अध्यायों में कही गई हैं। जैसे नवजात अज्ञ शिशु को रूप और शब्द को देखने और सुनने की शक्ति रहने पर भी उनकी कोई पहचान उसे नहीं होती है, वे उसके लिए अव्यक्त-से ही रहते हैं, उसी भाँति जो भक्ति की विधि की जानकारी और उसके साधन में निरा शिशु है, उसके लिए सूक्ष्म विन्दु और नाद अव्यक्त ही रहते हैं; परन्तु साधन-विधि के जानकार साधनशील के लिए वे व्यक्त रहते हैं। स्थूल और सगुण-साकार रूप तो व्यक्त है ही; विन्दु सूक्ष्म सगुण साकार रूप है और अन्तर्नाद अरूप सगुण3 है और अरूप निर्गुण भी।
साधनशील को एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा क्रमशः व्यक्त होता जाता है। ऐसा साधक एक व्यक्त के बाद दूसरे व्यक्त को पाता हुआ, व्यक्त-ही-व्यक्त की उपासना करता हुआ माया के स्थूल, सूक्ष्म और कारण आवरणों को टपता हुआ शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण से छूटकर अंत में अपने को कैवल्य दशा में लाकर निज से-चेतन आत्मा से या अपने तईं से परमात्मा पुरुषोत्तम के सत्-असत्, क्षर-अक्षर, सगुण और निर्गुण से परे, मायातीत अव्यक्त, निराकार स्वरूप को प्राप्त कर भव-सिन्धु को तर, नित्यानंद को प्राप्त कर लेता है। यह है भक्ति-योग का सम्पूर्ण रहस्य और उसका पूरा रूप।
इस संबंध में महात्मा गाँधी और विनोबा भावे के विचार क्रमशः ये हैं-‘साकार के उस पार निराकार अचिन्त्यस्वरूप है।’ और ‘सगुण पहले तथा उसके बाद निर्गुण की सीढ़ी आनी ही चाहिए।’
इन दोनों महात्माओं के कथानानुकूल पदार्थ की प्रत्यक्ष प्राप्ति राजविद्या तथा राजगुह्य वा अव्यक्तोपासना से कम कष्टसाध्य भक्तियोग के द्वारा कैसे हो जाती है और व्यक्तोपासना की युक्ति द्वारा पहले सगुण, फिर निर्गुण, तत्पश्चात् भगवद्गीता के अचिन्तय, क्षराक्षर-पर (सगुण-निर्गुण के परे) पुरुषोत्तम के पाने की राजविद्या और राजगुह्य का पूरा-पूरा रूप क्या है, कैसा है-यह बुद्धिमान ऊपर किए हुए विवेचन से समझ सकते हैं।
इस अध्याय में स्थूल-सगुण-साकार-व्यक्त रूप का ध्यान करने को कहा गया है। ध्यानयोग कैसे किया जाय, यह तो छठे, अध्याय में लिखित है ही। इस ध्यान के समय ‘हाथ बेकार, पाँव बेकार, आँखें बेकार; सब इन्द्रियाँ कर्मशून्य ही रहती हैं।’ पुनः इसमें ‘जीभ बंद, कान बंद, हाथ-पैर बंद’ उसी तरह, जिस तरह से निर्गुण ध्यान में। यह कहा जाता है कि ‘साधक से ये सब बन्दी-प्रकार की साधनाएँ (अर्थात् सब इन्द्रियों को कर्म-शून्य रखना) नहीं सध सकती हैं। और यह सारा बन्दी-प्रकार देखकर बेचारा साधक घबड़ा जाता है।’ फिर यह भी कहा जाता है कि ‘सगुण पहले, परन्तु उसके बाद निर्गुण की सीढ़ी आनी ही चाहिए, नहीं तो परिपूर्णता नहीं होगी।’ जब भक्ति-योग में परिपूर्णता चाहिए ही और इसके लिए निर्गुण की सीढ़ी पर आना ही है, तो ऊपर-लिखित सब इन्द्रियों को कर्मशून्य करके रखने का अभ्यास और उपर्युक्त सारा बन्दी-प्रकार का अभ्यासारम्भ सगुण-उपासना के द्वारा ही अवश्य करो।
हे साधक! इसमें घबड़ाओ मत। श्रीमद्भगवद्गीता के इस उपदेश को मत भूलो कि भक्त का ‘योगक्षेम’ स्वयं भगवान करते हैं। साधन में साधक को सहायता देनी और उसके अभ्यास-बल की रक्षा करनी भी योगक्षेम के ही अन्दर है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी अपने ‘विनय-पत्रिका’ ग्रन्थ में कहा है कि-
जौं तेहि पंथ चलै मन लाई। तौ हरि काहे न होहि। सहाई।।
क्या भक्तियोग के किसी भी साधक को चाहिए कि भगवान की कृपा-भरोसे का विश्वास नहीं करे? ऐसा कदापि नहीं चाहिए। स्थूल सगुन का ध्यान भगवद्गीता की बतायी रीति से, एकान्त में स्थिर एवं तनकर अर्थात् शरीर, मस्तक और ग्रीवा को सीधा रखते हुए बैठकर करो तो मन के चक्र का घूमना भी अवश्य ही बन्द होगा। इसमें मन को ऐसा अन्तर्मुख और संलग्न किया जा सकता है, जैसा सुतीक्ष्ण मुनि स्थूल-सगुण-साकार का ध्यान करते हुए कर सके थे। वनवास-काल में श्रीराम उस वन में पहुँचे, जहाँ सुतीक्ष्ण मुनि का आश्रम था। उन्होंने देखा कि मुनि ध्यान में तल्लीन हैं। स्वयं श्रीराम ने उनको बाहर से जगाना चाहा, परन्तु जब उनका ध्यान नहीं टूटा, तब श्रीराम ने अपने योगबल से उनके अभ्यन्तर के उस ध्येय रूप को, जिसमें कि वे उस समय ध्यानावस्थित थे, बदल दिया। तब ते जगे। (तुलसीकृत रामायण)। इस कथा से स्पष्ट है कि सगुण साकार के ध्यान में भी साधक बाहर से सब इन्द्रियों को कर्मशून्य और जीभ, कान आदि का सारा बन्दी-प्रकार का साधन करता है। और केवल निगुर्ण में ही नहीं, सगुण उपासना में भी प्रथम से ही सब इन्द्रियों को कर्मशून्य करने का तथा उपर्युक्त सारा बन्दी-प्रकार का साधन अवश्य करना चाहिए। नहीं तो निर्गुण की सीढ़ी पर पहुँच कैसे होगी और कैसे परिपूर्णता आएगी?
भक्त को चाहिए कि भगवन्त में मन को लगाए रहे। यदि वह योगसाधन के बिना ही इसका अभ्यास करने लगे और न कर सके, तो वह योगाभ्यास-साधन से उन्हें पाने का यत्न करे। यदि वह इसमें भी नहीं सके, तो अपना प्रत्येक कर्म भगवान को समर्पित करे। यदि इसमें भी वह असमर्थ हो, तो यत्न करके उसे सब कर्मों का फल त्यागना चाहिए। सब कर्म भगवान को चढ़ा देना भी कर्म और उसके फल का त्याग ही तो है। कर्मफल-त्याग क्या उपर्युक्त सब कामों से आसान है? इसमें भी मन पर पूरा नियन्त्रण रखना पड़ेगा, नहीं तो सन्त कबीर साहब की इस उक्ति के अनुकूल फल पाना होगा-
तन मन दिया तो भल किया, सिर का जासी भार।
कबहूँ कहै कि मैं दिया, धनी सहैगा मार।।
मन पर पूरा नियंत्रण रखने की शक्ति योगाभ्यास के बिना असम्भव है। भगवन्त में सदा मन लगाए रहना भी इसके बिना नहीं हो सकेगा। देखना चाहिए कि गीता में किस योगाभ्यास की ओर अधिक प्रेरण है-प्राणायाम-योग की ओर वा ध्यान-योग की ओर? कैसे स्थान पर, क्या-क्या बिछाकर, शरीर को किस तरह रखकर और किस विधि से प्राणायाम करना चाहिए-ये बातें प्राणायाम के वर्णन में उतनी विशेष रूप से नहीं है, जितनी कि ध्यानयोग में हैं। गीता में प्राणायाम-योग नामक एक विशेष अध्याय भी नहीं है, परन्तु ‘ध्यानयोग’ नामक एक विशेष अध्याय तो गीता में है ही। अतएव यह मानने में संशय नहीं रह जाता कि गीता ध्यान-योगाभ्यास करने की ही अधिक प्रेरणा देती है। इस सम्बन्ध में और एक बात जाननी चाहिए कि गीता में एक अध्याय ‘राजविद्या-राजगुह्य’ का भी है। इस अध्याय के अनुकूल तो निरापद, सरल, कुशल-साध्य और रहस्यमय साधन होना चाहिए। प्राणायाम ऐसा नहीं माना जा सकता है। शाण्डिल्योपनिषद् में है-
यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्यः शनैः शनैः।
तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम्।।
अर्थ-जैसे सिंह, हाथी और बाघ धीरे-धीरे काबू में आते हैं, वैसे प्राणायाम (अर्थात् वायु का अभ्यास कर वश में करना) भी किया जाता है। प्रकारान्तर होने से वह अभ्यासी को मार डालता है।
ध्यानयोग के विषय में ऐसी आपदा की बात नहीं कही गई है। गीता में ‘भक्तियोग’ बहुत ही मधुर साधन है, परन्तु ध्यानयोग को इससे अलग रखा जाय, तो इसका सार ही निकल जाएगा। भक्ति में प्रेम की प्रधानता है। प्रेम में ध्यान अनिवार्य रूप से रहता है। ध्यानयोगवाले अध्याय में ध्यानयोग की विधि से ईश्वर में परायण रहते हुए, साधक को ध्यानाभ्यास करने के लिए बैठने की आज्ञा है। इसमें और विशेष बात यह भी जाननी चाहिए कि ध्यान-योगयुक्त भक्तियोग में यदि केवल स्थूल-सगुण- साकार ईश्वर-रूप को ही ग्रहण कर रखने का आग्रह रहे-इसके अतिरिक्त उसके अणोरणीयाम् रूप और शब्दब्रह्म-रूप को ग्रहण करने का आग्रह नहीं हो तथा ध्यानयोग में इनके ग्रहण की युक्ति या भेद जानने और उसके द्वारा अभ्यास करने की अवहेलना हो, तो ऐसा भक्तियोग ‘राजविद्या और राजगुह्य’ (गीता के अत्यन्त आकर्षक विषय) से हीन रहकर, उसके साधन-फल को न पाकर, परमात्म-स्वरूप को नहीं प्राप्त कर, भक्ति की चरम सीमा तक नहीं पहुँच, परम मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकेगा। इसलिए भी गीता की विशेष रुचि ध्यान-योगाभ्यास कराने की ही है। राजविद्या और राजगुह्य ही तो गीता के परम आकर्षक विषय हैं-इनके अनुकूल ध्यानयोग ही है, प्राणायाम नहीं।
परन्तु गीता प्राणायाम करने से मन भी नहीं करती है। जिससे यह अभ्यास हो सके, वह करे; परन्तु गीता ध्यानयोगाभ्यास ही विशेष रूप से कराना चाहती है। ध्यान-योगाभ्यास से जब मन पर पूर्ण नियन्त्रण रखने की शक्ति होगी, तब भगवान में मन लगाए रखने, उनको प्रत्येक कर्म अर्पण करने और कर्मफल-त्याग करने इत्यादि के (जिस-जिस प्रकार अपने मन को कोई रखना चाहेगा, उस-उस प्रकार के) साधन में उसे वह दृढ़ता से रख सकेगा। भक्तियोग में जिस-जिस प्रकार के कामों की विधियाँ गीता में दी गई हैं, उनमें से साधक अपने लिए जिसे चुने, उसमें विचार-द्वारा अपने मन को लगाए रखने का यत्न करे और साथ-ही-साथ नित्य प्रति संध्याओं के समय एकान्त में बैठ-बैठकर भी ईश्वर-प्राप्ति के लिए प्रेम-सहित ध्यान-योगाभ्यास अवश्य करे। गीता का ध्यानयोग ही वह योग है, जिसका अभ्यास नित्य प्रति संध्याओं के समय अवश्य करना चाहिए। गीता की विशेष रुचि ऐसी ही है।
उपर्युक्त बातें इस अध्याय के श्लोक 12 से ही विदित होती हैं। इसमें कहा गया है कि ज्ञान से ध्यान विशेष है; परन्तु यह नहीं कि ज्ञान से प्राणायाम विशेष है। बारहवें श्लोक में कहा गया है कि अभ्यास से ज्ञान श्रेयस्कर है; ज्ञान से ध्यान विशेष है और ध्यान से कर्म-फल-त्याग विशेष है। त्याग से तुरत ही शान्ति मिल जाती है। किसी विद्या को सीखने की क्रिया को बारंबार करने की आदत लगाने को अभ्यास कहते हैं। ज्ञान, ध्यान और कर्म-फल-त्याग के अतिरिक्त गीता में प्राणायाम आदि और जितने साधन कहे गए हैं, उन सबके अभ्यास का तात्पर्य इस अध्याय के बारहवें श्लोक के ‘अभ्यास’ शब्द से विदित होता है; क्योंकि ज्ञान, ध्यान और कर्मफल-त्याग; इन तीनों कर्मों को तो इस श्लोक में क्रियात्मक रूप में लाने की विधि-सी जानी जाती है। इनके अभ्यास तो इनके साथ ही रह जाते हैं। तब इनके अतिरिक्त उपर्युक्त और सब अभ्यास ही बच जाते हैं। इसलिए उन बचे हुए प्राणायाम आदि के अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, यह जानने में आता है। और जबकि ज्ञान से ध्यान को विशेष कहा गया है, तब प्राणायाम-योगाभ्यास से ध्यान-योगाभ्यास गीता के अनुकूल विशेष मानने योग्य हो ही जाता है। गीता के भक्ति-योग-अध्याय में ध्यान और कर्मफल-त्याग की बड़ाई की गई है; अतएव गीता के ‘भक्ति-योग’ में इन तीनों का अभीष्ट स्थान है, ऐसा जानना ही समुचित है। यदि इन तीनों को वा इनमें से किसी एक को ‘भक्ति-योग’ से हटाया जाए, तो ‘भक्ति-योग’ स्थितिशून्य हो जाएगा। ज्ञान के बिना ध्यान और ध्यान के बिना ज्ञान अभीष्ट फलप्रद (मोक्ष-फलप्रद) नहीं हो सकते। दोनो का अभ्यास अनिवार्य रूप से करना ही होगा। इसकी पुष्टि के विषय में योगशिखोपनिषद् तथा योगतत्त्वोपनिषद् के उद्धरणों को पृष्ठ 6 की पादटिप्पणी में पढ़कर जानिए। ध्यानाभ्यास-द्वारा मन पर पूर्णाधिकार प्राप्त किए बिना तथा ध्यानाभ्यास में पूर्णता पाकर ज्ञान में पूर्ण हुए बिना कर्मफल-त्याग में अचूक और दृढ़ भी कोई नहीं बन सकता। इन तीनों का आपस में घनिष्ठ संबंध है। इन तीनों के सहित भक्तियोग के साधन के साथ-साथ कर्मयोग का साधन करता हुआ वह सिद्ध हो जाएगा। जैसे-जैसे प्रेमी भक्त ईश्वर-संबंधी ज्ञान-ध्यान में तथा तत्सम्बन्धी ज्ञान और ध्यानाभ्यास में बढ़ता हुआ जाकर अंत में पूर्ण होगा, वैसे-वैसे वह कर्मफल-त्याग में भूलों को छोड़ता हुआ अंत में कर्मफल-त्याग में पूर्ण होकर, कर्मयोग में सिद्ध होगा। ज्ञान, ध्यान तथा ईश्वर-प्रेम की अवहेलना करके केवल कर्मफल त्यागने का गौरव अनुचित ही नहीं, बल्कि वह ‘आप गए और घालहिं आनहिं’ के नतीजे पर पहुँचा देगा, यह सुनिश्चित है। ध्यानयोगाभ्यास करने का सिद्धांत और उस अभ्यास की ओर प्रेरणा तथा उसमें मिलनेवाले विघ्नात्मक प्रलोभनों का बचाव पठन-पाठन और मनन द्वारा प्राप्त ज्ञान पर निर्भर है एवं अनुभूतियुक्त ज्ञान में बढ़ाव और उसके अपरोक्ष रूप की पूर्णता, ध्यान-योग में वृद्धि और उसकी परिपूर्णता पर निर्भर है। भगवान बुद्ध की ‘धम्मपद’ नाम्नी पुस्तिका के ‘भिक्खुवग्गो’ में है-
नत्थि झानं अपञ्ञस्य पञ्ञा नत्थि अझायतो।
यम्हि झानञ्च पञ्ञा च स वे निब्बाण सन्तिके।।
अर्थ-प्रज्ञाविहीन (पुरुष) को ध्यान नहीं (होता) है, ध्यान (एकाग्रता) न करनेवाले को प्रज्ञा नहीं हो सकती। जिसमें ध्यान और प्रज्ञा (दोनों) हैं, वही निर्वाण के समीप है।।13।।
अतएव ध्यानयोग गीता का निज, परम प्रिय, अत्यंत उपयोगी और भक्तियोग-साधन का साराधोर है।
अब इस अध्याय में भक्त के लक्षण और आचरणीय गुणों का वर्णन ही बच रहा है। वह यह है कि प्राणिमात्र के प्रति द्वेषहीन होना, सबसे मित्रता, सुख-दुःख में समान रहना, क्षमावान होना, सदा संतोषी रहना, योगी होना, दमशील होना, दृढ़ निश्चयी होना, न आप किसी से उद्वेग पानेवाला, न दूसरा उससे उद्वेग पावे, हर्ष, क्रोध, ईर्ष्या और भय से मुक्त, इच्छा-रहित, पवित्र, दक्ष (अमूढ़ या सुचतुर), तटस्थ वा निरपेक्ष, अचिन्त्य, संकल्पहीन, आशाहीन, शुभाशुभ-त्यागी; शत्रु-मित्र, मानापमान, शीतोष्ण, सुख-दुःख और स्तुति-निंदा में समतावान, स्वल्पभाषी, अनिकेत (अपने रहने के घर में ममत्व नहीं) और स्थिर चित्तवाला होना-भक्तयोगी के ये सब गुण और आचरणीय लक्षण हैं।
।। द्वादश अध्याय समाप्त ।।
1 मनु-शतरूपा के अमित कष्टमय कठोर साधना का वर्णन रामचरितमानस, बालकाण्ड के उस स्थान पर पढ़िए, जहाँ भगवान के अवतारों के कारण बतलाए गए हैं।
2 मोक्षकारणसामग्रयां भक्तिरेव गरीययी।
स्वस्वरूपानुसन्धानं भक्तिरित्यभिवीयते।।
(श्रीशंकराचार्यजी महाराज कृत ‘विवेक-चूड़मणि’)
अर्थ-मुक्ति की कारणरूप सामग्री में भक्ति ही सबसे बढ़कर है और अपने वास्तविक स्वरूप का अनुसंधान करना ही ‘भक्ति’ कहलाती है। आत्मस्वरूप ही वास्तविक स्वरूप है और यह अव्यक्त है।
3 सगुण और निर्गुण नादों के बीच के हेतु ‘सत्संग-योग, भाग-4’ पढ़िये।
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अध्याय १२ - भक्ति-योग
(साकार और निराकार रूप से भगवत्प्राप्ति)
अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥ (१)
भावार्थ : अर्जुन ने पूछा - हे भगवन! जो विधि आपने बतायी है उसी विधि के अनुसार अनन्य भक्ति से आपकी शरण होकर आपके सगुण-साकार रूप की निरन्तर पूजा-आराधना करते हैं, अन्य जो आपकी शरण न होकर अपने भरोसे आपके निर्गुण-निराकार रूप की पूजा-आराधना करते हैं, इन दोनों प्रकार के योगीयों में किसे अधिक पूर्ण सिद्ध योगी माना जाय? (१)
श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥ (२)
भावार्थ : श्री भगवान कहा - हे अर्जुन! जो मनुष्य मुझमें अपने मन को स्थिर करके निरंतर मेरे सगुण-साकार रूप की पूजा में लगे रहते हैं, और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे दिव्य स्वरूप की आराधना करते हैं वह मेरे द्वारा योगियों में अधिक पूर्ण सिद्ध योगी माने जाते हैं। (२)
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥ (३)
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥ (४)
भावार्थ : लेकिन जो मनुष्य मन-बुद्धि के चिन्तन से परे परमात्मा के अविनाशी, सर्वव्यापी, अकल्पनीय, निराकार, अचल स्थित स्वरूप की उपासना करते हैं, वह मनुष्य भी अपनी सभी इन्द्रियों को वश में करके, सभी परिस्थितियों में समान भाव से और सभी प्राणीयों के हित में लगे रहकर मुझे ही प्राप्त होते हैं। (३,४)
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥ (५)
भावार्थ : अव्यक्त, निराकार स्वरूप के प्रति आसक्त मन वाले मनुष्यों को परमात्मा की प्राप्ति अत्यधिक कष्ट पूर्ण होती है क्योंकि जब तक शरीर द्वारा कर्तापन का भाव रहता है तब तक अव्यक्त परमात्मा की प्राप्ति दुखप्रद होती है। (५)
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥ (६)
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥ (७)
भावार्थ : परन्तु हे अर्जुन! जो मनुष्य अपने सभी कर्मों को मुझे अर्पित करके मेरी शरण होकर अनन्य भाव से भक्ति-योग में स्थित होकर निरन्तर मेरा चिन्तन करते हुए मेरी आराधना करते हैं। मुझमें स्थिर मन वाले उन मनुष्यों का मैं जन्म-मृत्यु रूपी संसार-सागर से अति-शीघ्र ही उद्धार करने वाला होता हूँ। (६,७)
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥ (८)
भावार्थ : हे अर्जुन! तू अपने मन को मुझमें ही स्थिर कर और मुझमें ही अपनी बुद्धि को लगा, इस प्रकार तू निश्चित रूप से मुझमें ही सदैव निवास करेगा, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है। (८)
अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषि मयि स्थिरम् ।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥ (९)
भावार्थ : हे अर्जुन! यदि तू अपने मन को मुझमें स्थिर नही कर सकता है, तो भक्ति-योग के अभ्यास द्वारा मुझे प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न कर। (९)
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥ (१०)
भावार्थ : यदि तू भक्ति-योग का अभ्यास भी नही कर सकता है, तो केवल मेरे लिये कर्म करने का प्रयत्न कर, इस प्रकार तू मेरे लिये कर्मों को करता हुआ मेरी प्राप्ति रूपी परम-सिद्धि को ही प्राप्त करेगा। (१०)
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः ।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥ (११)
भावार्थ : यदि तू मेरे लिये कर्म भी नही कर सकता है तो मुझ पर आश्रित होकर सभी कर्मों के फलों का त्याग करके समर्पण के साथ आत्म-स्थित महापुरुष की शरण ग्रहण कर, उनकी प्रेरणा से कर्म स्वत: ही होने लगेगा। (११)
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥ (१२)
भावार्थ : बिना समझे मन को स्थिर करने के अभ्यास से ज्ञान का अनुशीलन करना श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ समझा जाता है और ध्यान से सभी कर्मों के फलों का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि ऎसे त्याग से शीघ्र ही परम-शान्ति की प्राप्त होती है। (१२)
(भक्ति में स्थित मनुष्य के लक्षण)
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥ (१३)
भावार्थ : जो मनुष्य किसी से द्वेष नही करता है, सभी प्राणीयों के प्रति मित्र-भाव रखता है, सभी जीवों के प्रति दया-भाव रखने वाला है, ममता से मुक्त, मिथ्या अहंकार से मुक्त, सुख और दुःख को समान समझने वाला, और सभी के अपराधों को क्षमा करने वाला है। (१३)
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ (१४)
भावार्थ : जो मनुष्य निरन्तर भक्ति-भाव में स्थिर रहकर सदैव प्रसन्न रहता है, दृढ़ निश्चय के साथ मन सहित इन्द्रियों को वश किये रहता है, और मन एवं बुद्धि को मुझे अर्पित किए हुए रहता है ऎसा भक्त मुझे प्रिय होता है। (१४)
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः ।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥ (१५)
भावार्थ : जो मनुष्य न तो किसी के मन को विचलित करता है और न ही अन्य किसी के द्वारा विचलित होता है, जो हर्ष-संताप और भय-चिन्ताओं से मुक्त है ऎसा भक्त भी मुझे प्रिय होता है। (१५)
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ (१६)
भावार्थ : जो मनुष्य किसी भी प्रकार की इच्छा नही करता है, जो शुद्ध मन से मेरी आराधना में स्थित है, जो सभी कष्टों के प्रति उदासीन रहता है और जो सभी कर्मों को मुझे अर्पण करता है ऎसा भक्त मुझे प्रिय होता है। (१६)
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥ (१७)
भावार्थ : जो मनुष्य न तो कभी हर्षित होता है, न ही कभी शोक करता है, न ही कभी पछताता है और न ही कामना करता है, जो शुभ और अशुभ सभी कर्म-फ़लों को मुझे अर्पित करता है ऎसी भक्ति में स्थित भक्त मुझे प्रिय होता है। (१७)
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥ (१८)
भावार्थ : जो मनुष्य शत्रु और मित्र में, मान तथा अपमान में समान भाव में स्थित रहता है, जो सर्दी और गर्मी में, सुख तथा दुःख आदि द्वंद्वों में भी समान भाव में स्थित रहता है और जो दूषित संगति से मुक्त रहता है। (१८)
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥ (१९)
भावार्थ : जो निंदा और स्तुति को समान समझता है, जिसकी मन सहित सभी इन्द्रियाँ शान्त है, जो हर प्रकार की परिस्थिति में सदैव संतुष्ट रहता है और जिसे अपने निवास स्थान में कोई आसक्ति नही होती है ऎसा स्थिर-बुद्धि के साथ भक्ति में स्थित मनुष्य मुझे प्रिय होता है। (१९)
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।
श्रद्धाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥ (२०)
भावार्थ : परन्तु जो मनुष्य इस धर्म रूपी अमृत का ठीक उसी प्रकार से पालन करते हैं जैसा मेरे द्वारा कहा गया है और जो पूर्ण श्रद्धा के साथ मेरी शरण ग्रहण किये रहते हैं, ऎसी भक्ति में स्थित भक्त मुझको अत्यधिक प्रिय होता हैं। (२०)
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में भक्ति-योग नाम का बारहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥