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अध्याय 9
अथ राजविद्याराजगुह्ययोग 


इस अध्याय का विषय राजविद्याराजगुह्ययोग है।

यह नाम बड़ा आकर्षक है। इसमें कहा गया है कि इसमें दिया गया ज्ञान अकल्याण से बचावेगा। इसमें पापों से मुक्त करनेवाला विज्ञान-सहित ज्ञान बतलाया गया है। सब गूढ़ और गुप्त रहस्यों में यह सर्वश्रेष्ठ है और राजाओं की विद्या है। राजाओं की विद्या यह इसलिए है कि भगवान श्रीकृष्ण ने बतलाया है कि मैंने यह विद्या या ज्ञान पहले सूर्य को दिया, सूर्य ने राजा मनु को दिया, मनु ने राजा इक्ष्वाकु को दिया और राजा जनक भी इसका आचरण करते थे। इस तरह यह विद्या राजाओं की परम्परा में बहुत दिनों तक था, इसीलिए यह राजविद्या कही गई है। कुछ लोग ‘राजविद्या’ का अर्थ श्रेष्ठ विद्या भी करते हैं। अवश्य ही इसकी श्रेष्ठता भी अस्वीकार करनेयोग्य नहीं है। यह पवित्र और उत्तम विद्या प्रत्यक्ष बोध देनेवाली, धर्ममय, आचरण में सुख-साध्य और अक्षय है; परन्तु इसमें श्रद्धा की विशेषता है।
श्रद्धावन्त परम गति प्राप्त करेगा और श्रद्धाहीन संसार-चक्र में भ्रमता हुआ सांसारिक दुःखों को भोगता ही रहेगा। गुरुवाक्य, सच्छास्त्र और सद्विचार; तीनों का मेल मिलने पर जो अटल विश्वास होता है, उसी को श्रद्धा कहते हैं। परमात्मा की स्थिति में, उसके व्यक्त और अव्यक्त रूप और स्वरूप की भक्ति से मुक्ति होने में गुरु-वाक्य, सच्छास्त्र और सद्विचार; तीनों का मेल है। अतएव इन बातों में अवश्य ही श्रद्धा होनी चाहिए।
परमात्मा का अव्यक्त स्वरूप ऐसा है कि उनमें समूचा विश्व भरा हुआ है। उनमें और उनके ही आधार पर सब रहते हैं; परन्तु वे किसी आधार पर नहीं है। उनमें रहते हुए सब उनको नहीं पहचानते, अपने आधार को प्रत्यक्ष रूप से नहीं जानते और परमात्मा भी अपने में सबको रखते हुए तथा सबका आधार बनते हुए, अत्यन्त निर्लिप्त भाव को धारण किए रहते हैं। अतएव ये ऐसे ही हैं, जैसे कि परमात्मा में सम्पूर्ण विश्व है ही नहीं। सबकी उत्पत्ति का कारण और सबके पालक होकर वे सबमें व्यापक रहते हुए भी उपर्युक्त कारणों से उनमें नहीं हैं। यह परमात्मा का दिव्य योगबल है। जैसे सर्वत्र घूमता हुआ महाबतास सदा आकाश में रहता है, उसी भाँति सारा विश्व परमात्मा में रहता है। कल्पारम्भ में सबको परमात्मा रचते हैं और कल्पान्त में सब उनकी प्रकृति में लय होते हैं। उनका यह सृष्टि व्यापार अनवरत रूप से होता ही रहता है। पर कर्म का बन्धन परमात्मा को नहीं होता है; क्योंकि परमात्मा इसमें अनासक्त रहकर उदासीन हो बरतते रहते हैं। यह उनकी निजी लीला है, न कि किसी अभ्यास-द्वारा उन्होंने अपने को ऐसा बनाया है। प्रभु परमात्मा के अधीनस्थ परा और अपरा; दोनों प्रकृतियों में यह सृष्टि का व्यापार उनकी प्रेरणा से होता रहता है। यह विश्व घटमाल (रहट-धरियों) की भाँति घूमा करता है।
श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश भगवान श्रीकृष्ण-द्वारा संसार को मिला है। वे महायोगेश्वर थे। वे हरि के विशेषावतार कहे जाते हैं और प्राकृतिक गुणों से मुक्त भी कहे जाते हैं। महाभारत में लिखा है-
आत्मा क्षेत्रज्ञ इत्युक्त संयुक्तः प्राकृतैर्गुणैः।
तैरेवतु विनिर्मुक्तः परमात्मेत्युदाहृतः।।
(शान्ति पर्व, 187/24)
अर्थ-जब आत्मा प्रकृति में या संसार में बद्ध रहती है, तब उसे क्षेत्रज्ञ या जीवात्मा कहते हैं और वही प्राकृत गुणों से यानी प्रकृति या शरीर के गुणों से मुक्त होने पर ‘परमात्मा’ कहलाता है।
अव्यक्त आत्म-स्वरूप से श्रीकृष्ण परमात्मा और व्यक्तरूप में मनुष्य-शरीरधारी थे। उनके अनुसरण के द्वारा लोकपथ कल्याणमय हो, इसीलिए वे भी योगाभ्यास किया करते थे। उनकी योग की शक्तियाँ तो उनके शिशुकाल से ही संसार में प्रकट हो गई थीं। तात्पर्य यह कि उनको योगबल प्राप्त करने के लिए योगाभ्यास करना नहीं था। इनके नर-रूप को देखकर इनकी अवज्ञा करनी मूर्खता और आसुरी भाव है। मर्यादा-पुरुषोत्तम (दाशरथि) श्रीराम भगवान, वैकुण्ठवासी वा क्षीरसमुद्रवासी भगवान विष्णु, भगवान विष्णु, भगवान शंकर और भगवती शक्ति माता के लिए भी उपर्युक्त बातें लागू हैं। इनके इन्द्रियगम्य क्षेत्र दिव्य भले ही हों, परन्तु वे अप्राकृत1 (निर्मायिक) गुणों से युक्त नहीं हो सकते। नर-शरीर वा देव-शरीर वा किसी प्रकार के क्षेत्र का क्षेत्रज्ञ ही प्राकृत गुण-रहित होने से परमात्म-स्वरूप है। सन्त की भी यही दशा मानी जाती है।
सन्त भगवन्त अन्तर निरन्तर नहिं किमपि,
मति विमल कह दास तुलसी।
(विनय-पत्रिका)
साधु मिलै साहब मिलै, अन्तर रहा न रेख।
मनसा वाचा कर्मणा, साधू साहब एक।।
(कबीर साहब)
साहिब से सतगुरु भये, सतगुरु से भये साध।
ये तीनों अंग एक है, गति कछु अगम अगाध।।
(गरीब दास)
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुगुरुर्देवः सदाशिवः।
न गुरोरधिकः कश्चिन्त्रिषु लोकेषु विद्यते।।56।।
दिव्यज्ञानोपदेष्टारं देशिकं परमेश्वरम्।
पूजयेत्परया भक्त्या तस्य ज्ञानफलं भवेत्।।57।।
यथा गुरुस्तथैवेशो यथैवेशस्तथा गुरुः।
पूजनीयो महाभक्त्या न भेदो विद्यतेऽनयो।।58।।
(योगशिखोपनिषद्, अ0 5)
अर्थ-गुरुदेव ही ब्रह्मा, विष्णु और सदाशिव हैं। तीनों लोकों में गुरु से बढ़कर कोई नहीं है।।56।। दिव्यज्ञान के उपदेश देनेवाले प्रत्यक्ष उपस्थित परमेश्वर की, भक्ति के साथ उपासना करे, तब वह (शिष्य) ज्ञान का फल प्राप्त करेगा।।57।। जैसे गुरु हैं, वैसे ईश हैं; जैसे ईश हैं, वैसे गुरु हैं; इन दोनों में भेद नहीं है-इस भावना से पूजा करे।।58।।
स्वयं गीता में भी तत्त्ववेत्ता ज्ञानी की सेवा और उनके आदरभाव करने अर्थात् अवज्ञा नहीं करने के लिए लिखा है। (अध्याय 4, श्लोक 34)
अव्यक्त और सर्वव्यापी होने के कारण परमात्मदेव के लिए अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा वसत-----’(विनय-पत्रिका) कहना अयुक्त नहीं है। अपनी श्रद्धानुकूल किसी एक रूप को प्रभु परमात्मा का रूप मानकर भक्ति का आरम्भ कर देना अनुचित, अयोग्य और अयुक्त नहीं है। इस नौवें अध्याय में परमात्मा के व्यक्त और अव्यक्त दोनों रूपों का वर्णन है, तो भक्त व्यक्त से अव्यक्त स्वरूप तक को पा जाने की इच्छा और प्रयास क्यों न करे?
इस अध्याय में परमात्मा के व्यक्त रूप की बाह्य पूजा से उपासना करने को विशेष रूप से कहा गया है। कीर्तन, प्राणायाम और ध्यान से उनकी उपासना करनी चाहिए। ‘श्रद्धा-प्रीति से अर्पित पुष्प, पत्र और जल आदि को वे ग्रहण करते हैं।’ अद्वैत भाव से, द्वैत भाव से वा अनेक भाँति के ज्ञानयज्ञ से उस सर्वव्यापी परमात्मा को भजना चाहिए। यज्ञ का संकल्प, यज्ञ-स्वधा (पितरों के लिए अर्पित अन्न वा अर्पण करने का मंत्र), यज्ञ की वनस्पति, आहुति, हवन-द्रव्य, जगत का पिता, माता, पितामह, धारण करनेवाला, जानने-योग्य, पवित्र ॐकार (शब्दब्रह्म, स्फोट, उद्गीथ और प्रणव), द्दग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, गति पोषक, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, हितेच्छु, उत्पत्ति, नाश, स्थिति, भण्डार, अविनाशी बीज, धूप देनेवाला, वर्षा रोकनेवाला, वर्षा बरसानेवाला, अमरता, मृत्यु, असत् (अपरा प्रकृति) और सत् (परा प्रकृति)-ये सब परमात्मा ही हैं।
परमात्मा को अनन्य भाव से भजनेवाले को आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति कराने और रक्षा करने का भार स्वयं परमात्मा ही उठाते हैं।
तीनों वेदों के अनुकूल यज्ञ करके यज्ञकर्ता स्वर्ग को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर पुनः इस मृत्युलोक में जन्म लेता है और जन्म-मरण के चक्र में भरमता रहता है।
श्रद्धायुक्त हो देवताओं को पूजनेवाला, विधिरहित होते हुए भी परमात्मा को ही भजता है। वह परमात्मा को ही सर्व यज्ञों का भोगनेवाला नहीं जानता, इसलिए गिरता (पुनर्जन्म को प्राप्त होता) है। इस तरह देवताओं को भजननेवाला देवलोकों को पाता है, पितरों का पूजक पितृलोक पाता है, प्रेतादि का पूजक उनके लोकों को पाता है और परमात्मा का भक्त परमात्मा को पाता है। (व्यक्त रूप का भक्त व्यक्त रूप को और अव्यक्त का भक्त अव्यक्त परमात्म-स्वरूप को पाता है।)
भक्त को चाहिए कि जो करे, जो खाय, जो हवन में होमे और जो तप करे, वह सब परमात्मा को अर्पित करे। ऐसा त्यागी भक्त कर्म-बन्धन से मुक्त होकर परमात्मा में मिल जाएगा। (करना और भोगना चित्त का धर्म है) केवल बौद्धिक और मौखिक अर्पण से यथार्थ अर्पण होना असम्भव है। इसके लिए समाधि-साधन द्वारा स्थितप्रज्ञता चाहिए, नहीं तो स्थितप्रज्ञता-विहीन बौद्धिक और मौखिक अर्पण, अनर्पण हो जाएगा और कबीर साहब के वाक्यानुकूल फल भोगेगा; यथा-
तन मन दिया तो भल किया, सिर का जासी भार।
कबहूँ कहै कि मैं दिया, धनी सहैगा मार।।
(कबीर साहब)
चित्त-धर्म पर विजय प्राप्त करके ही समाधि-द्वारा स्थित-प्रज्ञता प्राप्त होगी। श्रवण, मनन, निदिध्यासन और अनुभवज्ञान की पूर्णता की स्थिति में चित्त-धर्म पर विजय प्राप्त होगी। निदिध्यासन के साधन (प्राणस्पन्दन का निरोध वा वासना-परित्याग) के द्वारा एक तत्त्व का दृढ़ाभ्यास करते-करते मन पर पूर्णरूप से विजय प्राप्त होगी (मुक्तिकोपनिषद् अ0 2 देखें)
परमात्मा सबमें सम भाव से रहते हैं, कोई उनको प्रिय या अप्रिय नहीं है; परन्तु जो उनको भक्ति-सहित भजता है, वे उसमें रहते हैं अर्थात् सर्वव्यापी परमात्मा में अपने को वह आत्मज्ञान से प्रत्यक्ष पाता है और परमात्मा उसमें रहते हैं, जैसे जल में जल हो-
जौं जल में जल पैठ न निकसे, यों ढुरि मिला जुलाहा।
(कबीर साहब)
जल तरंग जिउ जलहि समाइया------------।
(गुरु नानक)
----------------जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।
(गोस्वामी तुलसीदास)
घोर दुराचारी यदि अनन्य भाव से परमात्मा को भजे, तो उसके अच्छे संकल्प के कारण वह साधु मानने-योग्य होता है। वह शीघ्र धर्मात्मा हो जाता है और सदा की शान्ति प्राप्त करता है।
प्रभु परमात्मा के भक्त को भवसागर की नाशवन्त गतियों से मुक्ति मिल जाती है। जब पापयोनि में जन्म लेनेवाली स्त्रियाँ और शुद्र, जो भी परमात्मा की शरण लेते हैं, वे परम गति पाते हैं, तब पुण्ययोनि में जन्म लेकर जो भगवान के भक्त होते हैं, उनके लिए कहना ही क्या? इसलिए हे लोगो! इस अनित्य और सुखरहित लोक में जन्म लेकर भगवान का भजन करो। उनमें मन लगाओ, उनके भक्त बनो, उनके लिए यज्ञ करो और उन्हें प्रणाम करो। इस तरह उनमें परायण रहकर आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़कर उनको पाओगे। परमात्मा के स्थूल-व्यक्त सगुण नररूप, सगुण देवरूप, अणु-से-अणु सूक्ष्म सगुण रूप, ॐ (निर्गुण शब्द-ब्रह्म) रूप और स्वरूप हैं। आत्मा का मिलाप या योग परमात्म-स्वरूप से होगा। मन सूक्ष्म-सगुण तक युक्ति से लग सकता है। मनविहीन चेतन-आत्मा जब निर्गुण शब्द-ब्रह्म ॐ में लगेगी, तब उससे आकृष्ट हो उसके लय स्थान (परमात्म-स्वरूप) तक पहुँचेगी। आत्मा-परमात्मा के एकीभाव-
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछुड़ें पियारे से।
और-
जौं जल में जल पैठ न निकसे, यों ढुरि मिला जुलाहा।
(कबीर साहब)-की स्थिति प्रत्यक्ष प्रगट हो जाएगी।
स्थूल-सगुण रूप के अतिरिक्त उनके सूक्ष्म-सगुण भाव को भी जानना और उनकी भी उपासना करनी चाहिए। इसलिए गीता में अणु से भी अणु रूप परमात्मा का वर्णन है। निर्गुन स्वरूप का भी ज्ञान प्राप्त हो, उनकी उपासना की जाय, इसलिए गीता में ॐ तथा अव्यक्त स्वरूप का भी वर्णन है। जैसे भाँति-भाँति के पहिरावे के बदलने से पहननेवाला नहीं बदलता, वह अपने तईं जो का सो ही रहता है, उसी तरह स्थूल-सूक्ष्म तथा सगुण-निर्गुण भावों में परमात्मा ही रहते हैं।
केवल स्थूल सगुण रूप की ही उपासना से और उनकी कृपा से सूक्ष्म सगुण, निर्गुण शब्द-ब्रह्म (ॐ) तथा अव्यक्त स्वरूप परमात्मा के, आप-से-आप मिलने का विश्वास रखना तथा सूक्ष्म सगुण और निर्गुण की उपासना को अनावश्यक प्रतीत करना ठीक नहीं।
यदि वे उपासनाएँ अनावश्यक होतीं, तो गीता में कही ही नहीं जातीं। अध्याय 8 के श्लोक 9 से 13 में इनकी उपासना और उसका फल साफ-साफ कहा गया है।
श्रीमद्भागवत में भी स्थूल सगुण उपासना के अनन्तर शून्य-ध्यान (सूक्ष्म सगुण-उपासना) का क्रमानुसार कथन किया गया है। (स्कन्ध 11, अध्याय 14, श्लोक 32, 34, 42, 43 और 44) । अव्यक्त निर्गुण के विषय में सूरदासजी के ये शब्द हैं-
जौं लौं सत्य स्वरूप न सूझत।
तौं लौं मनु मणि कण्ठ बिसारे, फिरत सकल बन बूझत।।
अपनो ही मुख मलिन मन्द मति, देखत दर्पण माँह।
ता कालिमा मेटिबे कारण, पचत पखारत छाँह।।
तेल तूल पावक पुट भरि धरि, बनै न दिया प्रकासत।
कहत बनाय दीप की बातें, कैसे हो तम नासत।।
सूरदास जब यह मति आई, वे दिन गये अलेखे।
कह जाने दिनकर की महिमा, अन्ध नयन बिनु देखे।।
तथा-
अपुनपौ आपुन ही में पायो।
शब्दहि शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो।।
ज्यों कुरंग नाभी कस्तूरी,ढूँढ़त फिरत भुलायो।
फिर चेत्यो जब चेतन ह्वै करि, आपुन ही तन छायो।।
राज कुँआर कण्ठे मणि भूषण, भ्रम भयो कह्यो गँवायो।
दियो बताइ और सतज्रन तब, तनु को पाप नशायो।।
सपने माँहि नारि को भ्रम भयो, बालक कहूँ हिरायो।
जागि लख्यो ज्यों को त्यों ही है, ना कहुँ गयो न आयो।।
सूरदास समुझे की यह गति, मन ही मन मुसुकायो।
कहि न जाय या सुख की महिमा, ज्यों गूँगो गुड़ खायो।।
(भक्तवर सूरदास)
केवल स्थूल-सगुण को ही हठपूर्वक पकड़े नहीं रहना चाहिए। इसीलिए लोकमान्य बालगंगाधर तिलकजी ने ‘गीता-रहस्य’ के भक्ति-मार्ग प्रकरण में लिखा है-‘साधन की दृष्टि से यद्यपि वासुदेव-भक्ति को गीता में प्रधानता दी गई है, तथापि अध्यात्म-दृष्टि से विचार करने पर वेदान्त-सूत्र की नाईं (वे0 सू0, 4/1/4) गीता में भी यही स्पष्ट रीति से कहा है कि ‘प्रतीक’ एक प्रकार का साधन है-वह सत्य, सर्वव्यापी और नित्य परमेश्वर हो नहीं सकता। अधिक क्या कहें? नामरूपात्मक और व्यक्त अर्थात् सगुण वस्तुओं में से किसी को भी लीजिए, वह माया ही हैं; जो सत्य परमेश्वर को देखना चाहे, उसे इस सगुण रूप के भी परे अपनी दृष्टि को ले जाना चाहिए। भगवान की जो अनेक विभूतियाँ हैं, उनमें अर्जुन को दिखलाए गए विश्वरूप से अधिक व्यापक भगवान ने नारद को दिखलाया, तब उन्होंने कहा है, ‘तू मेरे जिस रूप को देख रहा है, यह सत्य नहीं है, यह माया है। मेरे सत्यस्वरूप को देखने के लिए इसके भी आगे तुझे जाना चाहिए।’ (महाभारत, शान्तिपर्व, 339/44) और गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट रीति से यही कहा है-
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।।
(गीता 7/24)
यद्यपि मैं अव्यक्त हूँ, तथापि मूर्ख लोग मुझे व्यक्त (गीता 7/24) अर्थात् मनुष्य-देहधारी मानते हैं (गीता 9-11); परन्तु यह बात सच नहीं है, मेरा अव्यक्त स्वरूप ही सत्य है। इसी तरह उपनिषदों में भी यद्यपि उपासना के लिए मन, वाचा, सूर्य, आकाश इत्यादि अनेक व्यक्त और अव्यक्त ब्रह्म-प्रतीकों का वर्णन किया गया है, तथापि अन्त में यह कहा है कि जो वाचा, नेत्र या कान को गोचर हो, वह ब्रह्म नहीं है। जैसे-
यन्मनसा न मनुते येनाऽहुर्मनो मतम्।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।
(केनोपनिषद्, खण्ड 1, मंत्र 5)
अर्थ-मन से जिसका मनन नहीं किया जा सकता, किन्तु मन ही जिसकी मनन-शक्ति में आ जाता है, उसे तू ब्रह्म समझ, जिसकी उपासना (प्रतीक के तौर पर) की जाती है, वह सत्य ब्रह्म नहीं है।
‘नेति नेति’ सूत्र का भी यही अर्थ है। मन और आकाश को लीजिए; अथवा व्यक्त उपासना-मार्ग के अनुसार शालिग्राम, शिवलिंग इत्यादि को लीजिए; या श्रीराम, कृष्ण आदि अवतारी पुरुषों की अथवा साधु पुरुषों की व्यक्त मूर्ति का चिन्तन कीजिए; मंदिरों में शिलामय अथवा धातुमय देव की मूर्ति को देखिए; अथवा बिना मूर्ति का मंदिर या मस्जिद लीजिए-ये सब छोटे बच्चे की लँगड़ी गाड़ी के समान मन को स्थिर करने के अर्थात् चित्त की वृत्ति को परमेश्वर की ओर झुकाने के साधन हैं। प्रत्येक मनुष्य अपनी-अपनी इच्छा और अधिकार के अनुसार उपासना के लिए किसी प्रतीक को स्वीकार कर लेता है। यह प्रतीक चाहे कितना प्यारा हो, परन्तु इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि सत्य परमेश्वर इस ‘प्रतीक’ में नहीं हैं’-न प्रतीके न हिसः (वे0 सू0 4/1/4)-उसके परे है। --------- यह मनुष्यों की अत्यन्त शौचनीय मूर्खता का लक्षण है कि वे इस सत्य तत्त्व को तो नहीं पहचानते कि ईश्वर सर्वव्यापी, सर्वसाक्षी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और उसके भी परे अर्थात् अचिन्त्य है। किन्तु वे ऐसे नाम-रूपात्मक व्यर्थ अभिमान के अधीन हो जाते हैं कि ईश्वर ने अमुक समय, अमुक देश में, अमुक माता के गर्भ से, अमुक वर्ण का, नाम का या आकृति का जो व्यक्त स्वरूप धारण किया, वही केवल सत्य है और इस अभियान में फँसकर एक-दूसरे की जान लेने तक को उतारू हो जाते हैं।’
महात्मा गाँधी का कथन-‘साकार के उस पार निराकार अचिन्त्यस्वरूप है, यह तो सबको समझे ही निरस्तार है। भक्ति की पराकाष्ठा यह है कि भक्त भगवान में विलीन हो जाय और अन्त में केवल एक अद्वितीय अरूपी भगवान ही रह जाएँ।’
(अनासक्तियोग, अध्याय 12, श्लोक 5 के अर्थ की टिप्पणी से।)
आचार्य विनोबाजी का कथन-‘सगुण पहले, परन्तु उसके बाद निर्गुण की सीढ़ी आनी ही चाहिए, नहीं तो परिपूर्णता नहीं होगी।’ (गीता-प्रवचन, पृष्ठ 173)।
इन उद्धरणों का आशय यह है कि परमात्मा के सगुण और निर्गुण; दोनों रूपों का ज्ञान और उनकी उपासना चाहिए।
राजविद्या का क्या अभिप्राय है, इसके पहले लिखा जा चुका है। अब ‘राजगुह्य’ का अभिप्राय भी स्पष्ट रूप से जान लेना आवश्यक है। गुप्त या गुढ़ रहस्यों में जो सबसे विशेष गुप्त हो, उसको राजगुह्य कहना चाहिए। इस अध्याय के किस विशेष रहस्यमय कथन को यह आकर्षक नाम दिया गया है? यदि कहें कि प्रत्यक्ष जानने में आने योग्य स्थूल-सगुण नर-रूप परमात्मा के रूप की अवज्ञा नहीं करके उसमें अत्यन्त श्रद्धा रखकर इस अध्याय में कही गयी रीति से भक्ति करने का जो कथन है, वही राजगुह्य तत्त्व है, तो यह कोई गुप्त और विशेष रहस्यमयी बात नहीं जान पड़ती। यह भक्ति तो भारत में सर्वत्र प्रकट है और अति व्यापक रूप से विदित है। हाँ, यदि उपर्युक्त प्रचलित स्थूल-सगुण भक्ति में सूक्ष्म-सगुण ‘अणोरणीयाम्’2 (विन्दु) रूप की भक्ति और ॐ3 (शब्दब्रह्म वा ब्रह्मनाद) रूप निर्गुण निराकार-भक्ति मिला दें, तो इस प्रकार की ‘सर्वांगपूर्ण परमात्म-भक्ति’4 को अवश्य ‘राजगुह्य’ कहेंगे।
यह प्रकट रूप से विख्यात नहीं है और अति स्वल्प संख्यक लोग ही इसे जानते हैं। यदि कहा जाय कि परमात्मा के ये (विन्दु और नाद) रूप प्रत्यक्षावगम (प्रत्यक्ष जानने में आनेयोग्य) नहीं हैं, तो इनके द्वारा उपासना वा भक्ति-विधि को ‘राजगुह्य’ कैसे माना जाय? तो उत्तर में निवेदन है कि क्या जन्मान्ध को सूर्य वा कोई अन्य रूप देखने में आता है? क्या जन्मान्ध का कुछ भी देखना असम्भव नहीं है? परन्तु जो जन्मान्ध नहीं है, उनके लिए संसार के विविध रंग-रूप क्या प्रकट नहीं है? क्या अणुवीक्षण यन्त्र से और युक्ति से वायु में भँसते हुए अनेक त्रसरेणु और कीटाणु नहीं देखे जाते हैं? देखने और सुनने की युक्तियाँ भक्तों को भेदी (युक्ति जाननेवाले) गुरु-द्वारा ज्ञात होती हैं, जिनके द्वारा अभ्यास करके वे विन्दु और नाद को सुखसाध्य रीति से प्रकट पाते हैं; परन्तु जिनको इसका गुरु नहीं, जिनको गुरु की आवश्यकता ही नहीं जानने में आवे और जो गुरु में श्रद्धा-भक्ति रखनी पाप, अयोग्यता, अपना अपमान और मूढ़ता जाने वा गुरु में श्रद्धाभक्ति रखनेवाले होते हुए भी जिनकी बुद्धि केवल स्थूल और बाह्य भक्ति-विधि की टेक में ही जकड़कर अड़ी हुई रहती है, ऐसे लोग ‘राजगुह्य’ नाम की भक्ति को जैसा कुछ समझें, उनके लिए वही ठीक है।
मैं अत्यन्त दृढ़तापूर्वक कहता हूँ कि ‘राजगुह्य’ नाम की भक्ति ही असली राजयोग है। यदि गीता से कर्मयोग को निकाल दिया जाय तो गीता के सार रहस्य-रूप प्राण ही निकल जाते हैं। इस ‘राजगुह्य’ नाम की भक्ति के साधक को कर्मयोग का साधन सुगमता से होता जाएगा। कर्मयोगी कर्तव्य कर्म में लगा रहता हुआ पहले स्थूल-सगुण मन में बनाए रखकर कर्म कर सकेगा। बाद में सूक्ष्म-सगुण के दर्शन हो जाने पर उसे ही मन से पकड़े हुए रहकर कर्म करेगा और अन्त में वह ॐ (ब्रह्मनाद) को प्राप्त करने पर अपने को उससे ही पकड़ा हुआ पावेगा। उसको सहज समाधि की स्थिति प्राप्त हो जाएगी। वह सारे कर्तव्यों को करता हुआ जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति; तीनों अवस्थाओं में उस अनुपम परमात्मा से कभी नहीं बिछुड़ेगा।
शब्द निरन्तर से मन लागा, मलिन वासना भागी।
ऊठत बैठत कबहुँ ना छूटै, ऐसी ताड़ी लागी
(कबीर साहब)
सोवत-जागत ऊठत बैठत, टुक विहीन नहिं तारा।
झिन-झिन जंतर निसि दिन बाजै, जम जालिम पचिहारा।
(दरिया साहब, बिहारी)



।। नवम अध्याय समाप्त ।।

1 ‘अप्राकृत रूप’ दिव्य वा अदिव्य इन्द्रियों से जानने योग्य नहीं है।

2 गीता, अध्याय 8, श्लोक 13।

3 गीता, अध्याय 8, श्लोक 9।

4 स्थूल सगुण भक्ति+सगुण अणोरणीयाम् (विन्दु) रूप की भक्ति+ॐ (शब्दब्रह्म वा ब्रह्मनाद) रूप निर्गुण निराकार-भक्ति=सर्वांग पूर्ण परमात्म-भक्ति।
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अध्याय ९ - राज विद्या राज गुह्यः योग
(सृष्टि का मूल कारण)

श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌ ॥ (१)

भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! अब मैं तुझ ईर्ष्या न करने वाले के लिये इस परम-गोपनीय ज्ञान को अनुभव सहित कहता हूँ, जिसको जानकर तू इस दुःख-रूपी संसार से मुक्त हो सकेगा। (१)

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्‌ ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्‌ ॥ (२)

भावार्थ : यह ज्ञान सभी विद्याओं का राजा, सभी गोपनीयों से भी अति गोपनीय, परम-पवित्र, परम-श्रेष्ठ है, यह ज्ञान धर्म के अनुसार सुख-पूर्वक कर्तव्य-कर्म के द्वारा अविनाशी परमात्मा का प्रत्यक्ष अनुभव कराने वाला है। (२)

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥ (३)

भावार्थ : हे परन्तप! इस धर्म के प्रति श्रद्धा न रखने वाले मनुष्य मुझे न प्राप्त होकर, जन्म-मृत्यु रूपी मार्ग से इस संसार में आते-जाते रहते हैं। (३)

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेषवस्थितः ॥ (४)

भावार्थ : मेरे कारण ही यह सारा संसार दिखाई देता है और मैं ही इस सम्पूर्ण-जगत में अदृश्य शक्ति-रूप में सभी जगह स्थित हूँ, सभी प्राणी मुझमें ही स्थित हैं परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ। (४)

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्‌ ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥ (५)

भावार्थ : हे अर्जुन! यह मेरी एश्वर्य-पूर्ण योग-शक्ति को देख, यह सम्पूर्ण सृष्टि मुझमें कभी स्थित नहीं रहती है, फ़िर भी मैं सभी प्राणीयों का पालन-पोषण करने वाला हूँ और सभी प्राणीयों मे शक्ति रूप में स्थित हूँ परन्तु मेरा आत्मा सभी प्राणीयों में स्थित नहीं रहता है क्योंकि मैं ही सृष्टि का मूल कारण हूँ। (५)

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्‌ ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥ (६)

भावार्थ : जिस प्रकार सभी जगह बहने वाली महान वायु सदैव आकाश में स्थित रहती है, उसी प्रकार सभी प्राणी मुझमें स्थित रहते हैं। (६)


(जगत की परिवर्तनशील होने का कारण)

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्‌ ।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्‌ ॥ (७)

भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! कल्प के अन्त में सभी प्राणी मेरी प्रकृति (इच्छा-शक्ति) में प्रवेश करके विलीन हो जाते हैं और अगले कल्प के आरम्भ में उनको अपनी इच्छा-शक्ति (प्रकृति) से फिर उत्पन्न करता हूँ। (७)
(कल्प = 4320000 x 2000 x 365 x 100 वर्ष)

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्‌ ॥ (८)

भावार्थ : चौरासी लाख योनियाँ में सभी प्राणी अपनी इच्छा-शक्ति (प्रकृति) के कारण बार-बार मेरी इच्छा-शक्ति से विलीन और उत्पन्न होते रहते हैं, यह सभी पूर्ण-रूप से स्वत: ही मेरी इच्छा-शक्ति (प्रकृति) के अधीन होते है। (८)

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥ (९)

भावार्थ : हे धनन्जय! यह सभी कर्म मुझे बाँध नही पाते है क्योंकि मैं उन कार्यों में बिना किसी फ़ल की इच्छा से उदासीन भाव में स्थित रहता हूँ। (९)

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥ (१०)

भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! मेरी अध्यक्षता (पूर्ण-अधीनता) में मेरी भौतिक-प्रकृति (अपरा-शक्ति) सभी चर (चलायमान) तथा अचर (स्थिर) जीव उत्पन्न और विनिष्ट करती रहती है, इसी कारण से यह संसार परिवर्तनशील है। (१०)


(मोह से ग्रसित और मोह से मुक्त स्वभाव वालों के लक्षण)

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्‌ ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्‌ ॥ (११)

भावार्थ : मूर्ख मनुष्य मुझे अपने ही समान निकृष्ट शरीर आधार (भौतिक पदार्थ से निर्मित जन्म-मृत्यु को प्राप्त होने) वाला समझते हैं इसलिये वह सभी जीवात्माओं का परम-ईश्वर वाले मेरे स्वभाव को नहीं समझ पाते हैं। (११)

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥ (१२)

भावार्थ : ऎसे मनुष्य कभी न पूर्ण होने वाली आशा में, कभी न पूर्ण होने वाले कर्मो में और कभी न प्राप्त होने वाले ज्ञान में विशेष रूप से मोहग्रस्त हुए मेरी मोहने वाली भौतिक प्रकृति की ओर आकृष्ट होकर निश्चित रूप से राक्षसी वृत्ति और आसुरी स्वभाव धारण किए रहते हैं। (१२)

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्यम्‌ ॥ (१३)

भावार्थ : हे पृथापुत्र! मोह से मुक्त हुए महापुरुष दैवीय स्वभाव को धारण करके मेरी शरण ग्रहण करते हैं, और मुझको सभी जीवात्माओं का उद्‍गम जानकर अनन्य-भाव से मुझ अविनाशी का स्मरण करते हैं। (१३)

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥ (१४)

भावार्थ : ऎसे महापुरुष दृड़-संकल्प से प्रयत्न करके निरन्तर मेरे नाम और महिमा का गुणगान करते है, और सदैव मेरी भक्ति में स्थिर होकर मुझे बार-बार प्रणाम करते हुए मेरी पूजा करते हैं। (१४)

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ते यजन्तो मामुपासते ।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥ (१५)

भावार्थ : कुछ मनुष्य ज्ञान के अनुशीलन द्वारा यज्ञ करके, कुछ मनुष्य मुझे एक ही तत्व जानकर, कुछ मनुष्य अलग-अलग तत्व जानकर, अनेक विधियों से निश्चित रूप से मेरे विश्व स्वरूप की ही पूजा करते हैं। (१५)


(सर्वत्र व्याप्त भगवान के स्वरूप का वर्णन)

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्‌ ।
मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्‌ ॥ (१६)

भावार्थ : हे अर्जुन! मैं ही वैदिक कर्मकाण्ड को करने वाला हूँ, मैं ही यज्ञ हूँ, मैं ही पितरों को दिये जाने वाला तर्पण हूँ, मैं ही जडी़-बूटी रूप में ओषधि हूँ, मैं ही मंत्र हूँ, मैं ही घृत हूँ, मैं ही अग्नि हूँ और मैं ही हवन मै दी जाने वाली आहूति हूँ। (१६)

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च ॥ (१७)

भावार्थ : इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का मैं ही पालन करने वाला पिता हूँ, मैं ही उत्पन्न करने वाली माता हूँ, मैं ही मूल स्रोत दादा हूँ, मैं ही इसे धारण करने वाला हूँ, मैं ही पवित्र करने वाला ओंकार शब्द से जानने योग्य हूँ, मैं ही ऋग्वेद (सम्पूर्ण प्रार्थना), सामवेद (समत्व-भाव) और यजुर्वेद (यजन की विधि) हूँ। (१७)

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्‌ ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्‌ ॥ (१८)

भावार्थ : मै ही सभी प्राप्त होने वाला परम-लक्ष्य हूँ, मैं ही सभी का भरण-पोषण करने वाला हूँ, मैं ही सभी का स्वामी हूँ, मैं ही सभी के अच्छे-बुरे कर्मो को देखने वाला हूँ, मैं ही सभी का परम-धाम हूँ, मैं ही सभी की शरण-स्थली हूँ, मैं ही सभी से प्रेम करने वाला घनिष्ट-मित्र हूँ, मैं ही सृष्टि को उत्पन्न करने वाला हूँ, मैं ही सृष्टि का संहार करने वाला हूँ, मैं ही सभी का स्थिर आधार हूँ, मै ही सभी को आश्रय देने वाला हूँ, और मैं ही सभी का अविनाशी कारण हूँ। (१८)

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्‌णाम्युत्सृजामि च ।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥ (१९)

भावार्थ : हे अर्जुन! मैं ही सूर्य रूप में तप कर जल को भाप रूप में रोक कर वारिश रूप में उत्पन्न होता हूँ, मैं ही निश्चित रूप से अमर-तत्व हूँ, मैं ही मृत-तत्व हूँ, मै ही सत्य रूप में तत्व हूँ और मैं ही असत्य रूप में पदार्थ हूँ। (१९)


(सकाम-पूजा और निष्काम-पूजा का फल)

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापायज्ञैरिष्ट्‍वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्‌ ॥ (२०)

भावार्थ : जो मनुष्य तीनों वेदों के अनुसार यज्ञों के द्वारा मेरी पूजा करके सभी पापों से पवित्र होकर सोम रस को पीने वालों के स्वर्ग-लोकों की प्राप्ति के लिये प्रार्थना करते हैं, वह मनुष्य अपने पुण्यों के फल स्वरूप इन्द्र-लोक में जन्म को प्राप्त होकर स्वर्ग में दैवी-देवताओं वाले सुखों को भोगते हैं। (२०)

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालंक्षीणे पुण्य मर्त्यलोकं विशन्ति ।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥ (२१)

भावार्थ : वह जीवात्मा उस विशाल स्वर्ग-लोक के सुखों का भोग करके पुण्य-फ़लो के समाप्त होने पर इस मृत्यु-लोक में पुन: जन्म को प्राप्त होते हैं, इस प्रकार तीनों वेदों के सिद्धान्तों का पालन करके सांसारिक सुख की कामना वाले (सकाम-कर्मी) मनुष्य बार-बार जन्म और मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं। (२१)

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्‌ ॥ (२२)

भावार्थ : जो मनुष्य एक मात्र मुझे लक्ष्य मान कर अनन्य-भाव से मेरा ही स्मरण करते हुए कर्तव्य-कर्म द्वारा पूजा करते हैं, जो सदैव निरन्तर मेरी भक्ति में लीन रहता है उस मनुष्य की सभी आवश्यकताऎं और सुरक्षा की जिम्मेदारी मैं स्वयं निभाता हूँ। (२२)

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्‌ ॥ (२३)

भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! जो भी मनुष्य श्रद्धा-पूर्वक भक्ति-भाव से अन्य देवी-देवताओं को पूजा करते है, वह भी निश्वित रूप से मेरी ही पूजा करते हैं, किन्तु उनका वह पूजा करना अज्ञानता-पूर्ण मेरी प्राप्ति की विधि से अलग त्रुटिपूर्ण होता है। (२३)

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥ (२४)

भावार्थ : मैं ही निश्चित रूप से समस्त यज्ञों का भोग करने वाला हूँ, और मैं ही स्वामी हूँ, परन्तु वह मनुष्य मेरे वास्तविक स्वरूप को तत्त्व से नहीं जानते इसलिये वह कामनाओं के कारण पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं। (२४)

यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्‌ ॥ (२५)

भावार्थ : जो मनुष्य देवताओं की पूजा करते हैं वह देवताओं को प्राप्त होते हैं, जो अपने पूर्वजों की पूजा करते हैं वह पूर्वजों को प्राप्त होते हैं, जो भूतों (जीवित मनुष्यों) की पूजा करते हैं वह उन भूतों के कुल को प्राप्त होते है, परन्तु जो मनुष्य मेरी पूजा करते हैं वह मुझे ही प्राप्त होते हैं। (२५)


(निष्काम भगवद् भक्ति की महिमा)

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥ (२६)

भावार्थ : जो मनुष्य एक पत्ता, एक फ़ूल, एक फल, थोडा सा जल और कुछ भी निष्काम भक्ति-भाव से अर्पित करता है, उस शुद्ध-भक्त का निष्काम भक्ति-भाव से अर्पित किया हुआ सभी कुछ मैं स्वीकार करता हूँ। (२६)

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्‌ ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्‌ ॥ (२७)

भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! तू जो भी कर्म करता है, जो भी खाता है, जो भी हवन करता है, जो भी दान देता है और जो भी तपस्या करता है, उस सभी को मुझे समर्पित करते हुए कर। (२७)

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्य से कर्मबंधनैः ।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥ (२८)

भावार्थ : इस प्रकार तू समस्त अच्छे और बुरे कर्मों के फ़लों के बन्धन से मुक्त हो जाएगा और मन से सभी सांसारिक कर्मो को त्याग कर (सन्यास-योग के द्वारा) मन को परमात्मा में स्थिर करके विशेष रूप से मुक्त होकर मुझे ही प्राप्त होगा। (२८)

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्‌ ॥ (२९)

भावार्थ : मैं सभी प्राणीयों में समान रूप से स्थित हूँ, सृष्टि में न किसी से द्वेष रखता हूँ, और न ही कोई मेरा प्रिय है, परंतु जो मनुष्य शुद्ध भक्ति-भाव से मेरा स्मरण करता है, तब वह मुझमें स्थित रहता है और मैं भी निश्चित रूप से उसमें स्थित रहता हूँ। (२९)

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्‌ ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥ (३०)

भावार्थ : यदि कोई भी अत्यन्त दुराचारी मनुष्य अनन्य-भाव से मेरा निरन्तर स्मरण करता है, तो वह निश्चित रूप से साधु ही समझना चाहिये, क्योंकि वह सम्पूर्ण रूप से मेरी भक्ति में ही स्थित है। (३०)

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥ (३१)

भावार्थ : हे अर्जुन! वह शीघ्र ही मन से शुद्ध होकर धर्म का आचरण करता हुआ चिर स्थायी परम शान्ति को प्राप्त होता है, इसलिये तू निश्चिन्त होकर घोषित कर दे कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता है। (३१)

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्‌ ॥ (३२)

भावार्थ : हे पृथापुत्र! स्त्री, वैश्य, शूद्र अन्य किसी भी निम्न-योनि में उत्पन्न होने वाले मनुष्य हों, वह भी मेरी शरण-ग्रहण करके मेरे परम-धाम को ही प्राप्त होते हैं। (३२)

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्‌ ॥ (३३)

भावार्थ : तो फिर पुण्यात्मा ब्राह्मणों, भक्तों और राजर्षि क्षत्रियों का तो कहना ही क्या है, इसलिए तू क्षण में नष्ट होने वाले दुख से भरे हुए इस जीवन में निरंतर मेरा ही स्मरण कर। (३३)

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: ॥ (३४)

भावार्थ : हे अर्जुन! तू मुझमें ही मन को स्थिर कर, मेरा ही भक्त बन, मेरी ही पूजा कर और मुझे ही प्रणाम कर, इस प्रकार अपने मन को मुझ परमात्मा में पूर्ण रूप से स्थिर करके मेरी शरण होकर तू निश्चित रूप से मुझे ही प्राप्त होगा। (३४)


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्री कृष्णार्जुनसंवादे राजविद्यायोगो नाम नवमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में 'राजविद्या-योग' नाम का नौवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥