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अध्याय 5
अथ कर्मसंन्यासयोग 

इस अध्याय में कर्मयोग और संन्यासयोग; दोनों को एक दूसरे का पूरक बताया गया है।

किसी से द्वेष नहीं करनेवाले और इच्छा-विहीन रहनेवाले को संन्यासी कहना चाहिए। सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से रहित को बन्धन से मुक्त कहना चाहिए। ऐसा पूर्ण संन्यासी होता है।
संन्यासी का भेष लेकर वा घर-गृहस्थी में ही रहकर यदि कोई अध्याय 4 में कहे गए साधनों को करे तो वह साधन में बढ़त-बढ़ता अन्त में पुर्ण संन्यासी होगा। जैसे शरीर में मैल उपजती है, वैसे ही मन में इच्छाएँ (राजसी, तामसी, और सात्त्विकी) स्वाभाविक रूप से उपजती रहती हैं। योगाभ्यास-द्वारा मन-मण्डल को पार किए बिना, कोई इच्छा-विहीन नहीं हो सकता है। मन-मण्डल कहाँ तक है-
मन बुद्धि चित हंकार की, है त्रिकुटी लगि दौड़।
जन दरिया इनके परे, ररंकार की ठौर।।
(मारवाड़ी दरिया साहब)
केवल विचार से इच्छाओं का रोकना क्षणिक होगा, स्थायी नहीं। परन्तु यदि विचार-द्वारा उन्हें रोकने के साथ-साथ ध्यानाभ्यास किया जाय तो सुरत (चेतनात्मा) की ऊर्ध्वगति होगी और वह मन-मण्डल को पार कर जाएगी। तब मनोलय हो जाएगा, जिसके साथ इच्छा का भी लोप हो जाएगा।
समत्व के विषय में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक महोदय ने अपने ‘गीता-रहस्य’ के अध्यात्म-प्रकरण में क्या ही अच्छा कहा है-‘संकट के समय भी पूरी समता से बर्ताव करने का अचल स्वभाव हो जावे; परन्तु इसके लिए (सुदैव से हमारे समान चार अक्षरों का कुछ ज्ञान होना ही बस नहीं है) अनेक पीढ़ियों के संस्कारों की, इन्द्रियनिग्रह की, दीर्घोद्योग की तथा ध्यान और उपासना की सहायता अत्यन्त आवश्यक है।’ सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा, दोनों को अज्ञ जन अज्ञान से दो जानते हैं। यथार्थ में दोनों एक ही हैं। एक के बिना दूसरा मोक्षदायक हो नहीं सकता।

‘योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवति ध्रुवम्---------’
(कृपया पृष्ठ 5 की टिप्पणी देखें)

सांख्य में निष्ठावालों के लिए श्रवण, मनन और स्वाध्याय द्वारा परोक्ष अध्यात्मज्ञान की प्राथमिक पूँजी जिस तरह अनिवार्य रूप से अपेक्षित है, ठीक उसी भाँति यह कर्मयोगी के लिए भी है तथा दोनों को पूर्णावस्था तक पहुँचाने के लिए प्राणायाम-सहित ध्यानोपासना-योग वा केवल ध्यानोपासना-योग भी अत्यन्त अपेक्षित है। इसके बिना, दोनों-के-दोनों लँगड़े और अपूर्ण रहेंगे। ये दोनों निष्ठावाले यदि उक्त साधनों की अवहेलना करेंगे और अपने-अपने को सांख्यनिष्ठ और कर्मयोगनिष्ठ घोषित करेंगे, तो दोनों ही केवल डींग ही हाँका करेंगे और यर्थाथता से दूर ही रहेंगे।

वाक्य ज्ञान अत्यन्त निपुन, भव पार न पावइ कोई।
निसि गृह मध्य दीप की बातन्हि, तम निवृत्त नहिं होई।।
(गो0 तुलसीदासजी)
और-
तेल तूल पावक पुट भरि धरि, बनै न दिया प्रकासत।
कहत बनाय दीप की बातें, कैसे हो तम नासत।।
(भक्तप्रवर सूरदासजी)
सांख्यज्ञान वा संन्यासयोग में कुछ-न-कुछ कर्मयोग का संग अवश्य रहेगा; क्योंकि स्वल्पातिस्वल्प का भी संग्रह उसको अवश्य रहेगा, जिसमें उसको कर्मयोग के नियम से बरतना पड़ेगा। कर्मयोगी को तो अपने विविध संग्रहों और कर्तव्यों में अपने हृदय को परम त्यागी वा संन्यासी बनाए रखकर ही कर्म करना पड़ेगा। इस भाँति किसी-न-किसी प्रकार कर्मयोग से ही कर्म का त्याग हो सकेगा। कर्म में अकर्मी, कर्मफलत्यागी हो, प्रथम कथित ध्यानोपासना आदि साधन करके समत्व लाभ करेगा। ऐसे मुनि को मोक्ष की प्राप्ति में विलम्ब नहीं होगा। ऐसा योगी तत्त्वज्ञ होता है। वह मन, वचन और शारीरिक कर्मों में निर्लिप्त रहता है। जैसे पानी में कमल निर्लिप्त रहता है, वैसे पाप उसको नहीं छू सकता है। साधनावस्था में उसके सब कर्म, आत्मशुद्धि के लिए होकर, ब्रह्मार्पण हो जाते हैं। वह योगी समतावान और कर्मफल-त्यागी बनकर परम शान्ति पाता है; परन्तु अयोगी बन्धन में पड़ा रहता है। इस तरह योगी पुरुष नौ छिद्रों वा द्वारों (आँखों के दो, कानों के दो, नाक के दो, मुँह का एक, लिंग का एक और गुदा का एक) वाले शरीर-नगर में संयमपूर्वक रहते हुए, कर्मरत रहकर भी अकर्मी बना रहता है। उसका मन कर्मफल में आसक्त नहीं होता है। ऐसा इसलिए कि योग से उसको पूर्ण वा अपरोक्ष आत्म-ज्ञान प्राप्त हो जाता है। इन्द्रिय-सम्बन्धी सुखों से वह ऊपर उठकर ब्रह्म-सुख का भोगी हो जाता है। मन पूर्ण रूप से उसके वश में हो जाता है। तब इन्द्रिय-सम्बन्धी सुख-दुःख-उत्पादक बाह्य भोगों में उसका मन क्यों लिप्त होगा?
परन्तु वर्णित स्थिति पर आए बिना, केवल बुद्धि-शक्ति के ही प्रयास से मन की यह निर्लिप्त दशा होनी असम्भव है। आत्म-ज्ञान से अज्ञान को पूर्णरूपेण विनष्ट करके उस आत्मतेजोमय सूर्य-ज्ञान से परम तत्त्व परमात्मा का दर्शन होता है अर्थात् आत्मा से ही परमात्मा का दर्शन होना सम्भव है। ऐसे दर्शन करनेवाले का पाप धुल जाता है। वह परमात्म-परायण होकर, उन्हीं में तन्मय रहते हुए और उन्हीं को सर्वस्व-रूप में पाते हुए मुक्त दशा में रहता है। वह संसार, संसार के सब पदार्थों और सब ऊँच-नीच शरीर-धारियों में समदर्शी हो जाता है। मानो वह संसार पर विजय प्राप्त किए हुए होता है। अपने को निष्कलंक ब्रह्ममय बना लेता है; क्योंकि वह ब्रह्म में लीन रहता है। सांसारिक सुख-दुःख से रहित रहता हुआ, बाह्य विषयों में आसक्तिहीन, आन्तरिक आनन्द का भोगी वह ब्रह्मपरायण अक्षय आनन्द को पाता रहता है। काम-क्रोधादि विकारों से रहित होकर अन्तर्ज्योति-प्राप्त वह जीवन्मुक्त योगी पुरुष ब्रह्म-निर्वाण पाता है। चतुर वा बुद्धिमान विषय-जनित भोग को दुःख का कारण और आदि-अन्तवाला जानकर उनमें रत नहीं होता है।
अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चौर-कर्म से रहित), ब्रह्मचर्य (वीर्य-निग्रह) और अपरिग्रह (आवश्यकता से अधिक का संग्रह वा संचय न करना); ये पाँच यम कहलाते हैं। शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान-ये पाँच नियम कहलाते हैं। यम-नियम का पालन करते हुए बाह्य विषय-भोग में अलिप्त रहकर, दृष्टि को भौंओ के बीच स्थिर रखकर, नाक से आने-जानेवाली प्राण और अपान वायुओं की गति को सम करके; इन्द्रिय, मन एवं बुद्धि को वश में करके तथा इच्छा, भय और क्रोध से रहित होकर, जो मननशील (मुनि) मोक्ष-साधन में लगा रहता है, वह सदा मुक्त ही है। वह यज्ञ और तप के भोक्ता, सबके हित करनेवाले और सब लोकों के महाप्रभु कृष्ण-परमात्मा को पहचानता हुआ शान्ति प्राप्त करता है।
कतिपय साधक पूरक, कुम्भक तथा रेचन के साधनों से प्राण-अपान वायुओं को सम किया करते हैं; किन्तु यह क्रिया निरापद नहीं है। परन्तु भौंओ के बीच में दृष्टि को स्थिर रखने से अर्थात् दृष्टियोग-साधन से भी, प्राणायाम के उपर्युक्त साधनों को किए बिना ही, कथित दोनों वायुओं के सम होने से प्राणस्पन्दन निरुद्ध होता है।* यह साधन निरापद है। अवश्य ही इसकी ठीक और उत्तम युक्ति जानकर अभ्यास करना चाहिए, नहीं तो आँखें बिगड़ने का इसमें भी डर है। दृष्टि का अर्थ-नजर, निगाह, देखने की शक्ति है, न कि डीम और पुतली। इसके अभ्यास से मन और दृष्टि की एकविन्दुता होती है, चित्तवृति का पूर्ण सिमटाव होता है और इस सिमटाव से, सिमटाव के स्वभावानुकूल मन और चेतन वा सुरत की ऊर्ध्वगति हो जाती है। और ऊर्ध्वगति पर ही समत्व, स्थितप्रज्ञता, सांख्य वा ज्ञाननिष्ठा की पूर्णता वा कर्मयोग की पूर्णता, आत्मदर्शन, आकर्षक वा श्रीकृष्ण परमात्मा का दर्शन और ब्रह्मनिर्वाण; सब-के-सब सम्पूर्णतः अवलम्बित हैं।

।। पंचम अध्याय समाप्त ।।


* भ्रूमध्यै तारकालोकशान्तावन्तमुपागते।
चेतनैकतने बद्धे प्राणस्पन्दो निरुध्यते।।33।।
(शाण्डिल्योपनिषद्)
अर्थ-जब चेतन अथवा सुरत भौंओं के बीच के तारक-लोक (तारा-मण्डल) में पहुँचकर स्थिर होती है, तो प्राण की गति बन्द हो जाती है।
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अध्याय ५ - कर्म सन्यास योग
(सांख्य-योग और कर्म-योग के भेद)
अर्जुन उवाच
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्‌ ॥ (१)

भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण! कभी आप सन्यास-माध्यम (सर्वस्व का न्यास=ज्ञान योग) से कर्म करने की और कभी निष्काम माध्यम से कर्म करने (निष्काम कर्म-योग) की प्रशंसा करते हैं, इन दोनों में से एक जो आपके द्वारा निश्चित किया हुआ हो और जो परम-कल्याणकारी हो उसे मेरे लिये कहिए। (१)

श्रीभगवानुवाच
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥ (२)

भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - सन्यास माध्यम से किया जाने वाला कर्म (सांख्य-योग) और निष्काम माध्यम से किया जाने वाला कर्म (कर्म-योग), ये दोनों ही परमश्रेय को दिलाने वाला है परन्तु सांख्य-योग की अपेक्षा निष्काम कर्म-योग श्रेष्ठ है। (२)

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्‍क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥ (३)

भावार्थ : हे महाबाहु! जो मनुष्य न तो किसी से घृणा करता है और न ही किसी की इच्छा करता है, वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि ऎसा मनुष्य राग-द्वेष आदि सभी द्वन्द्धों को त्याग कर सुख-पूर्वक संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है। (३)

सांख्योगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्‌ ॥ (४)

भावार्थ : अल्प-ज्ञानी मनुष्य ही "सांख्य-योग" और "निष्काम कर्म-योग" को अलग-अलग समझते है न कि पूर्ण विद्वान मनुष्य, क्योंकि दोनों में से एक में भी अच्छी प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के फल-रूप परम-सिद्धि को प्राप्त होता है। (४)

यत्साङ्‍ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्‍ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥ (५)

भावार्थ : जो ज्ञान-योगियों द्वारा प्राप्त किया जाता है, वही निष्काम कर्म-योगियों को भी प्राप्त होता है, इसलिए जो मनुष्य सांख्य-योग और निष्काम कर्म-योग दोनों को फल की दृष्टि से एक देखता है, वही वास्तविक सत्य को देख पाता है। (५)

सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥ (६)

भावार्थ : हे महाबाहु! निष्काम कर्म-योग (भक्ति-योग) के आचरण के बिना (संन्यास) सर्वस्व का त्याग दुख का कारण होता है और भगवान के किसी भी एक स्वरूप को मन में धारण करने वाला "निष्काम कर्म-योगी" परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र प्राप्त हो जाता है। (६)


(कर्म-योग मे स्थित जीवात्मा के लक्षण)
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥ (७)

भावार्थ : "कर्म-योगी" इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला होता है और सभी प्राणीयों की आत्मा का मूल-स्रोत परमात्मा में निष्काम भाव से मन को स्थित करके कर्म करता हुआ भी कभी कर्म से लिप्त नहीं होता है। (७)

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ॥ (८)

भावार्थ : "कर्म-योगी" परमतत्व-परमात्मा की अनुभूति करके दिव्य चेतना मे स्थित होकर देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ, श्वांस लेता हुआ इस प्रकार यही सोचता है कि मैं कुछ भी नही करता हूँ। (८)

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ॥ (९)

भावार्थ : "कर्म-योगी" बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और बन्द करता हुआ भी, यही सोचता है कि सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त हो रही हैं, ऎसी धारणा वाला होता है। (९)

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ (१०)

भावार्थ : "कर्म-योगी" सभी कर्म-फ़लों को परमात्मा को समर्पित करके निष्काम भाव से कर्म करता है, तो उसको पाप-कर्म कभी स्पर्श नही कर पाते है, जिस प्रकार कमल का पत्ता जल को स्पर्श नही कर पाता है। (१०)

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥ (११)

भावार्थ : "कर्म-योगी" निष्काम भाव से शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा केवल आत्मा की शुद्धि के लिए ही कर्म करते हैं। (११)

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌ ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥ (१२)

भावार्थ : "कर्म-योगी" सभी कर्म के फलों का त्याग करके परम-शान्ति को प्राप्त होता है और जो योग में स्थित नही वह कर्म-फ़ल को भोगने की इच्छा के कारण कर्म-फ़ल में आसक्त होकर बँध जाता है। (१२)


(सांख्य-योग मे स्थित जीवात्मा के लक्षण)
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌ ॥ (१३)

भावार्थ : शरीर में स्थित जीवात्मा मन से समस्त कर्मों का परित्याग करके, वह न तो कुछ करता है और न ही कुछ करवाता है तब वह नौ-द्वारों वाले नगर (स्थूल-शरीर) में आनंद-पूर्वक आत्म-स्वरूप में स्थित रहता है। (१३)

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ (१४)

भावार्थ : शरीर में स्थित जीवात्मा देह का कर्ता न होने के कारण इस लोक में उसके द्वारा न तो कर्म उत्पन्न होते हैं और न ही कर्म-फलों से कोई सम्बन्ध रहता है बल्कि यह सब प्रकृति के गुणों के द्वारा ही किये जाते है। (१४)

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ (१५)

भावार्थ : शरीर में स्थित परमात्मा न तो किसी के पाप-कर्म को और न ही किसी के पुण्य-कर्म को ग्रहण करता है किन्तु जीवात्मा मोह से ग्रसित होने के कारण परमात्मा जीव के वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किये रहता है। (१५)

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्‌ ॥ (१६)

भावार्थ : किन्तु जब मनुष्य का अज्ञान तत्वज्ञान (परमात्मा का ज्ञान) द्वारा नष्ट हो जाता है, तब उसके ज्ञान के दिव्य प्रकाश से उसी प्रकार परमतत्व-परमात्मा प्रकट हो जाता है जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से संसार की सभी वस्तुएँ प्रकट हो जाती है। (१६)

तद्‍बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥ (१७)

भावार्थ : जब मनुष्य बुद्धि और मन से परमात्मा की शरण-ग्रहण करके परमात्मा के ही स्वरूप में पूर्ण श्रद्धा-भाव से स्थित होता है तब वह मनुष्य तत्वज्ञान के द्वारा सभी पापों से शुद्ध होकर पुनर्जन्म को प्राप्त न होकर मुक्ति को प्राप्त होता हैं। (१७)

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ (१८)

भावार्थ : तत्वज्ञानी मनुष्य विद्वान ब्राह्मण और विनम्र साधु को तथा गाय, हाथी, कुत्ता और नर-भक्षी को एक समान दृष्टि से देखने वाला होता हैं। (१८)

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥ (१९)

भावार्थ : तत्वज्ञानी मनुष्य का मन सम-भाव में स्थित रहता है, उसके द्वारा जन्म-मृत्यु के बन्धन रूपी संसार जीत लिया जाता है क्योंकि वह ब्रह्म के समान निर्दोष होता है और सदा परमात्मा में ही स्थित रहता हैं। (१९)

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्‌ ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥ (२०)

भावार्थ : तत्वज्ञानी मनुष्य न तो कभी किसी भी प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित है और न ही अप्रिय वस्तु को पाकर विचलित होता है, ऎसा स्थिर बुद्धि, मोह-रहित, ब्रह्म को जानने वाला सदा परमात्मा में ही स्थित रहता है। (२०)

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्‌ ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥ (२१)

भावार्थ : तत्वज्ञानी मनुष्य बाहरी इन्द्रियों के सुख को नही भोगता है, बल्कि सदैव अपनी ही आत्मा में रमण करके सुख का अनुभव करता है, ऎसा मनुष्य निरन्तर परब्रह्म परमात्मा में स्थित होकर असीम आनन्द को भोगता है। (२१)

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥ (२२)

भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! इन्द्रियों और इन्द्रिय विषयों के स्पर्श से उत्पन्न, कभी तृप्त न होने वाले यह भोग, प्रारम्भ में सुख देने वाले होते है, और अन्त में निश्चित रूप से दुख-योनि के कारण होते है, इसी कारण तत्वज्ञानी कभी भी इन्द्रिय सुख नही भोगता है। (२२)

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्‌ ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥ (२३)

भावार्थ : जो मनुष्य शरीर का अन्त होने से पहले ही काम और क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही मनुष्य योगी है और वही इस संसार में सुखी रह सकता है। (२३)

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥ (२४)

भावार्थ : जो मनुष्य अपनी आत्मा में ही सुख चाहने वाला होता है, और अपने मन को अपनी ही आत्मा में स्थिर रखने वाला होता है जो आत्मा में ही ज्ञान प्राप्त करने वाला होता है, वही मनुष्य योगी है और वही ब्रह्म के साथ एक होकर परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होता है। (२४)

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥ (२५)

भावार्थ : जिनके सभी पाप और सभी प्रकार दुविधाएँ ब्रह्म का स्पर्श करके मिट गयीं हैं, जो समस्त प्राणियों के कल्याण में लगे रहते हैं वही ब्रह्म-ज्ञानी मनुष्य मन को आत्मा में स्थित करके परम-शान्ति स्वरूप परमात्मा को प्राप्त करके मुक्त हो जाते हैं। (२५)

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्‌ ।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्‌ ॥ (२६)

भावार्थ : सभी सांसारिक इच्छाओं और क्रोध से पूर्ण-रूप से मुक्त, स्वरूपसिद्ध, आत्मज्ञानी, आत्मसंयमी योगी को सभी ओर से प्राप्त परम-शान्ति स्वरूप परब्रह्म परमात्मा ही होता है। (२६)


(भक्ति-युक्त ध्यान-योग का निरूपण)
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥ (२७)

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥ (२८)

भावार्थ : सभी इन्द्रिय-विषयों का चिन्तन बाहर ही त्याग कर और आँखों की दृष्टि को भोंओं के मध्य में केन्द्रित करके प्राण-वायु और अपान-वायु की गति नासिका के अन्दर और बाहर सम करके मन सहित इन्द्रियों और बुद्धि को वश में करके मोक्ष के लिये तत्पर इच्छा, भय और क्रोध से रहित हुआ योगी सदैव मुक्त ही रहता है (२७-२८)

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌ ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ (२९)

भावार्थ : ऎसा मुक्त पुरूष मुझे सभी यज्ञों और तपस्याओं को भोगने वाला, सभी लोकों और देवताओं का परमेश्वर तथा सम्पूर्ण जीवों पर उपकार करने वाला परम-दयालु एवं हितैषी जानकर परम-शान्ति को प्राप्त होता है। (२९)


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसांख्ययोगो नाम पंचमोऽध्यायः॥
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में कर्मसांख्य-योग नाम का पाँचवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ॥

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥