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अध्याय 7
अथ ज्ञान-विज्ञानयोग 

इस अध्याय का विषय ध्यानयोग है।

इसमें भगवान परमात्मा के नित्य, अविनाशी और मायातीत स्वरूप का वर्णन है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार; ये आठ उनकी अपरा (निम्नकोटि की) प्रकृति1 है। इससे ऊँची, जगत को धारण करनेवाली उनकी परा प्रकृति1 है, जो जीव-रूप है अर्थात् चेतन है। परमात्मा भगवान की इन्हीं दोनों प्रकृतियों से सब प्राणी उत्पन्न होते हैं। सब सृष्टि की उत्पत्ति और लय के कारण परमात्मा हैं और सारी रचना उनमें गुँथी हुई है। जल में रस; सूर्य, चन्द्र और अग्नि में तेज, वेदों में ॐकार, आकाश में शब्द, पुरुषों में पराक्रम, पृथ्वी में गन्ध, प्राणी-मात्र का जीवन, तपस्वी का तप, बुद्धिमान की बुद्धि, तेजस्वी का तेज, बलवान का काम-रागरहित बल और प्राणियों में धर्म का अविरोधी काम परमात्मा हैं। सात्विक, राजस और तामस, जो सब भाव हैं, सब परमात्मा से उपजे हुए हैं। परमात्मा में वे सब हैं, परन्तु परमात्मा उनमें नहीं हैं। इसका तात्पर्य यह है कि परमात्मा उन भावों के अवलम्ब से नहीं रहते हैं। उन भावों से वे निर्लिप्त रहते हैं; परन्तु वे भाव उनके आधार पर रहते हैं। सांसारिक लोग त्रैगुणी से उच्च और अविनाशी परमात्मा को नहीं पहचानते हैं। परमात्मा की सत, रज और तमवाली त्रैगुणी माया को तरना कठिन है। परन्तु जो परमात्मा की शरण लेते हैं, वे आसुरी भाववाले मूढ़, अधम और दुराचारी हैं। माया उनके ज्ञान को हर लेती है।
भक्त चार प्रकार के होते हैं-ज्ञानी, जिक्षासु, आत्त और अर्थार्थी। ये सदाचारी होते हैं। इनमें ज्ञानी भक्त श्रेष्ठ हैं, जो परमात्मा को प्रिय हैं। ये सब भक्त अच्छे हैं, परन्तु ज्ञानी तो परमात्मा की आत्मा ही हैं; क्योंकि वह योगी ज्ञानी भक्त जानता है कि परमात्मा-प्राप्ति से ऊँची गति दूसरी नहीं है। बहुत जन्मों के अन्त में वह ज्ञानी भक्त परमात्मा को पाता है। सब वासुदेव 2 मय है-ऐसा ज्ञानी महात्मा बड़ा दुर्लभ है। अनेक कामनाओं से हरी गई बुद्धिवाले, परमात्मा से भिन्न अनेक देवों की शरण जाते हैं। उन स्वल्प बुद्धिवालों को नाशवान फल मिलता है। देव और भूत आदि, जिनको जो भजते हैं, वे उनके पास जाते हैं और परमात्मा के भजनेवाले परमात्मा को ही पाकर अनाशी शान्तिमय सुखफल को सदा के लिए प्राप्त करते हैं। परमात्मदेव का परम स्वरूप इन्द्रियों से नहीं जाननेयोग्य, अनुपम और अविनाशी है। बुद्धिहीन लोग उनको इन्द्रियगम्य मानते हैं। अपनी योगमाया से ढँके हुए परमात्मदेव सबके लिए प्रगट नहीं हैं। मूढ़ सांसारिक लोग उन अजन्मा (जिनका जन्म न हो) और अविनाशी को भली भाँति नहीं पहचानते। इस ज्ञान-विज्ञान अध्याय के अन्त में यह लिख देना उचित जँचता है कि सबमें परमात्मा हैं, यह ज्ञान है और सब परमात्ममय है (जैसे जेवर धातुमय है), यह विज्ञान है।
‘मयि’, ‘मत्तः’ ‘अहम् अस्मि’, ‘माम्’ और ‘मम’ (मुझमें, मुझसे, मैं हूँ, मुझे और मेरा) आदि शब्दों से श्रीभगवान ने अपने को ज्ञात कराया है और उन्होंने अपने को अज, अविनाशी, इन्द्रियातीत बतलाया है। श्रीमद्भागवत, स्कन्ध 10 अध्याय 2 में ये श्लोक हैं-
भगवानपि विश्वात्मा भक्तानामभयंकरः।
आविवेशांशभागेन मन आनकदुन्दुभेः।।16।।
स बिभ्रत पौरुषं धाम भ्राजमानो यथा रविः।
दुरासदोऽतिदुर्धर्षो भूतानां सम्बभूव ह।।17।।
ततो जगन्मंगलमच्युतांश समाहितं शूरसुतेन देवी।
दधार सर्वात्मकमात्मभूतं काष्ठा यथाऽऽनन्दकरं मनस्तः।।18।।
सा देवकी सर्वजगन्निवासनिवासभूता नितरां न रेजे।
भोजेन्द्रगेहेऽग्निशिखेव रुद्धा सरस्वती ज्ञानखले यथा सती।।19।।
और-
निशीथे तमउद्भूते जायमाने जनार्दने।
देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः।।8।।
(श्रीमद्भागवत, स्क0 10, अ0 3)
अर्थ-भगवान भक्तों को अभय करनेवाले हैं। वे सर्वत्र सब रूप में हैं, उन्हें आना-जाना नहीं है। इसलिए वे वासुदेवजी के मन में अपनी समस्त कलाओं के साथ प्रकट हो गये।।16।।
उसमें विद्यमान रहने पर भी अपने को अव्यक्त से व्यक्त कर दिया। भगवान की ज्योति को धारण करने के कारण वसुदेवजी सूर्य के समान तेजस्वी हो गये, उन्हें देखकर लोगों की आँखें चौंधिया जाती थीं। कोई भी अपने बल, वाणी या प्रभाव से उन्हें दबा नहीं सकता था।।17।। भगवान के उस ज्योतिर्मय अंश को, जो जगत का परम मंगल करनेवाला है, वसुदेवजी के द्वारा आधान किये जाने पर देवी देवकी ने ग्रहण किया। जैसे पूर्व दिशा चन्द्रदेव को धारण करती है, वैसे ही शुद्ध सत्त्व से सम्पन्न देवी देवकी ने विशुद्ध मन से सर्वात्मा एवं आत्मस्वरूप भगवान को धारण किया।।18।। भगवान सारे जगत के निवासस्थान हैं। देवकी उनका भी निवासस्थान बन गई। परन्तु घड़े आदि के भीतर बन्द किए हुए दीपक का और अपनी विद्या दूसरे को न देनेवाले ज्ञानखल की श्रेष्ठ विद्या का प्रकाश जैसे चारों ओर नहीं फैलता, वैसे ही कंस के कारागार में बन्द देवकी की भी उतनी शोभा नहीं हुई।।19।।
जनार्दन के अवतार का समय निशीथ था। चारों ओर अंधकार का साम्राज्य था। उसी समय भगवान विष्णु देवरूपिणी देवकी के गर्भ से प्रकट हुए।।8।।
इन श्लोकों से भगवान का जन्म लेना पूर्ण रूप से विदित होता है।
ययाहरद् भुवो भारं तां तनुं विज्रहावजः।
कण्टकं कण्टकेनेव द्वयं चापीशितुः समम्।।34।।
यथा मत्स्यादि रूपाणि धत्ते जह्याद् यथा नटः।
भूभारः क्षपितो येन जहौ तच्च कलेवरम्।।35।।
(श्रीमद्भागवत, स्क0 1, अ0 15)
अर्थ-भगवान कृष्ण ने लोक-दृष्टि में जिस यादव-शरीर से पृथ्वी का भार उतारा था, उसका वैसे ही परित्याग कर दिया, जैसे कोई काँटे से काँटा निकालकर फिर दोनों को फेंक दे। भगवान की दृष्टि में दोनों ही समान हैं।।34।।
जैसे वे नट के समान मत्स्यादि रूप धारण करते हैं और उनका त्याग कर देते हैं, वैसे ही उन्होंने जिस यादव-शरीर से पृथ्वी का भार दूर किया था, उसका भी त्याग कर दिया।।35।।
महाभारत, मूसलपर्व के निम्नलिखित श्लोकों से भी भगवान श्रीकृष्ण का शरीर त्यागना और उसका जलाया जाना विदित है।
जैसे-
ततः शरीरे रामस्य वासुदेवस्य चोभयोः।
अन्विष्य दाहयामास पुरुषैराप्तकारिभिः।।
(अध्याय 7, श्लोक 31)
अर्थ-अर्जुन ने वासुदेव और बलदेवजी के शरीरों को खोज कर सत्य और ठीक कर्म करनेवाले आप्त पुरूषों के द्वारा उनका दाह कराया।।31।।
यः स मेघवपुः श्रीमान्बृहत्पंकजलोचनः।
स कृष्णः सह रामेण त्यक्त्वा देहं दिवं गतः।।
(अध्याय 8, श्लोक 8)
अर्थ-अर्जुन बोले कि जिसकी देह-श्री बादल-सदृश और दोनों नेत्र विशाल कमलदल के तुल्य थे, उस श्रीमान् कृष्ण ने राम के सहित शरीर छोड़कर सुरलोक गमन किया है।।8।।
श्रीमद्भागवत, स्कन्ध 11, अध्याय 31, श्लोक 6 में-
यथा-
लोकाभिरामां स्वतनुं धारणाध्यानमंगलम्।
योगधारणयाऽग्नेय्यदग्ध्वा धामाविशत्स्वकम्।।
अर्थ-भगवान का श्रीविग्रह उपासकों के ध्यान और धारणा का मंगलमय आधार है और समस्त लोकों के लिए परम रमणीय आश्रय है; इसलिए उन्होंने अग्नि देवता-सम्बन्धी योग-धारणा के द्वारा उसको जलाया नहीं, सशरीर अपने धाम में चले गये।।6।।
इससे विदित होता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने सशरीर निज धाम गमन किया था।
जबकि श्रीमद्भागवत में ही श्रीकृष्ण का शरीर छोड़ना भी लिखा है और इसका मेल महाभारत से भी है, तब मैं उनके शरीर-त्याग और अर्जुन-द्वारा उनके जलाये जाने में ही विश्वास करता हूँ। और तब उनका शरीर इन्द्रियातीत भी कैसे माना जा सकता है, जबकि उनके समय के लोगों ने उनका और उनके परिणामों को भली भाँति दर्श-स्पर्शादि किया था? अतएव उनके शरीर को अज, अव्यक्त और इन्द्रियातीत मानना बुद्धि-विपरीत और अन्धी श्रद्धा-मात्र है। हाँ, उस शरीर में व्यापक परमात्मा को कथित विशेषणों से युक्त जानना पूर्णरूपेण यर्थाथ है। इसी कारण से मैंने भगवान के अज, अव्यक्त और इन्द्रियातीत आत्म-स्वरूप को परमात्मा कहकर यत्र-तत्र प्रसंगानुसार विदित किया है।
गीता-प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित श्रीमद्भगवत के दशम स्कन्ध के अध्याय 107, श्लोक 31 की पादटिप्पणी में भगवान श्रीकृष्ण की बाल-लीला की व्याख्या करते हुए टीकाकार ने भ्रम पैदा किया है।
टीकाकार ने लिखा है-भगवान की लीला पर विचार करते समय यह बात स्मरण रखनी चाहिए कि भगवान का लीलाधाम, भगवान के लीलापात्र, भगवान का लीला-शरीर और उनकी लीला प्राकृत नहीं होती। भगवान में देह-देही का भेद नहीं है। महाभारत में आया है।
न भूतसंघसंस्थानो देवस्य परमात्मनः।
यो वेत्ति भौतिकं देहं कृष्णस्य परमात्मनः।।
स सर्वस्माद् बहिष्कार्यः श्रौतस्मार्तविधानतः।
मुखं तस्यावलोक्यापि सचैलः स्नानमाचरेत्।।
परमात्मा का शरीर भूत-समुदाय से बना नहीं होता। जो मनुष्य श्रीकृष्ण परमात्मा के शरीर को भौतिक जानता-मानता है, उसका समस्त श्रौत-स्मार्त कर्मों से बहिष्कार कर देना चाहिए अर्थात् उसका किसी भी शास्त्रीय कर्म में अधिकार नहीं है। यहाँ तक कि उसका मुँह देखने पर भी सचैल (वस्त्र-सहित) स्नान करना चाहिए।
एक मात्र मूर्तिपूजा को ही मोक्ष का उपाय बतानेवाले यही भूल करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने जन्म ग्रहण किया, गोकुल में बाललीला (मटकी फोड़ना, मक्खन चुराना, वस्त्र छिपाना आदि) की और बालरूप में की। यह लीला प्राकृत थी। अप्राकृत होती, तो सबों के लिए गोचर नहीं होती; क्योंकि अप्राकृत पदार्थ का इन्द्रिय-गोचर असम्भव है। देह-देही का भेद तो स्वयं भगवान ने बताया है-‘देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।’-दूसरा अ0, श्लोक 30 तथा गीता के 13 वें अध्याय में शरीर और शरीरी का भेद बताते हुए शरीर को क्षेत्र और उसमें स्थित अपने को क्षेत्रज्ञ बताया है।
टीकाकार ने किसी मान्य धर्मग्रन्थ से स्पष्ट रूप में उद्धरण देकर नहीं बताया है कि भगवान की लीला प्राकृत नहीं तथा उसमें देह-देही का भेद नहीं। महाभारत से जो उन्होंने उद्धरण दिया है, वह उनके तर्क के लिए भी सटीक नहीं बैठता। उन्होंने यह भी नहीं बताने का कष्ट किया है कि महाभारत के किस स्थल पर और किस प्रसंग में यह बात आयी है। भगवान श्रीकृष्ण को उनके काल में लोगों ने देखा, स्पर्श किया, तो क्या वे ऐसे लोग थे, जिन्हें देखकर दूसरे सचैल (वस्त्र-सहित) स्नान कर लेते थे?
श्रीमद्भागवत, स्कन्ध 1, अ0 15, श्लोक 34-35 से विदित होता है कि भगवान श्रीकृष्ण के समय के पहले से ही पृथ्वी पर पापाचारी लोग बहुत हो गये थे और वे पृथ्वी के भार-रूप थे। वे उस समय के शिष्टों को दुःख देनेवाले कंटक (काँटा)-रूप थे। इस भार-रूप काँटे को निकालकर दूर करना बहुत ही आवश्यक था। भगवान विष्णु ने यदुवंश में इसी कारण अवतार लिया था कि उस काँटे को निकालकर दूर किया जाय। अतएव उनका इस वंशवाला शरीर-यादव-शरीर था। यह शरीर भी एक ऐसा काँटा था, जिसके द्वारा उन्होंने भू-भाररूप काँटे को निकालकर दूर कर दिया और अपने से ग्रहण किया हुआ उस यादव-शरीररूप काँटे को भी उन्होंने परित्याग कर दिया। भगवान की दृष्टि में दोनों काँटे अर्थात् भू-भाररूप काँटा और अपना यादव-शरीररूप काँटा, जिससे भू-भाररूप काँटे को निकाला, दोनों समान थे। जैसे नट मत्स्यादि रूप धारण करते हैं और उन्हें त्यागते हैं, वैसे ही उन्होंने यादव-शरीर धारण किया और उसे त्याग दिया था। भगवान का वह यादव शरीर इन्द्रिय-गोचर था। श्रीमद्भागवत, स्कन्ध 10, अध्याय 2, श्लोक 16 से 19 तक और इसी स्कन्ध के अ0 3, श्लोक 8 से विदित होता है कि (यादव-श्रेष्ठ) वसुदेव (भगवान कृष्ण के पिता) के द्वारा आधान किये जाने पर देवी देवकी (भगवान कृष्ण की माता) ने उन्हें धारण किया। और भगवान माता देवकी के गर्भ से प्रकट हुए अर्थात् जन्म लिया। इसमें भगवान के जन्म में कोई अप्राकृतिक कार्य विदित नहीं होता अर्थात् उनका जन्म प्राकृतिक रूप से ही हुआ। गर्भाधान का होना, कुछ काल गर्भ में रहना, फिर गर्भ से प्रगट होना या जन्म लेना प्राकृतिक बात ही है। अप्राकृतिक बात का इसमें लेश भी नहीं है।
महाभारत के मूसल पर्व, अ0 7, श्लोक 31 तथा अ0 8, श्लोक 8 में यह व्यक्त किया गया है कि भगवान कृष्ण ने शरीर छोड़ा और अर्जुन ने आप्त पुरुषों के द्वारा उसका दाह कर्म कराया। ये बातें अप्राकृतिक वस्तु को इन्द्रियगोचर मानना बुद्धि-विपरीत है। महाभारत और श्रीमद्भागवत दोनों के रचयिता व्यासदेव माने जाते हैं। इनके द्वारा भगवान के शरीर को काँटा बताया जाना और जलाया जाना, क्या अप्राकृतिक शरीर के लिए कहा गया है? ऐसा कदापि नहीं हो सकता। भगवान के यादव-शरीर को प्राकृतिक शरीर कहनेवाले का दर्शन करके सचैल स्नान प्रायश्चित्त-रूप में करना चाहिए, तो व्यासदेव के लिए उस हेतु अनादर का भाव रखना आवश्यक हो जाता है, जिसके पात्र व्यासदेवजी कदापि नहीं। श्रीमद्भागवत में और महाभारत में जो वर्णन भगवान कृष्ण के इन्द्रियगोचर शरीर के लिए अप्राकृतिक कहा गया है, सो वचन व्यासदेवजी के नहीं हैं, टीकाकार के हैं। श्रीमद्भगवद्गीता (जो महाभारत का ही एक छोटा अंश है) के सातवें अध्याय में भगवान कहते हैं-
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामऽबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।।24।।
अर्थात् ‘मेरे परम अविनाशी और अनुपम स्वरूप को न जाननेवाले बुद्धिहीन लोग इन्द्रियों से अतीत मुझको इन्द्रियगम्य मानते हैं।’ इससे विदित होता है कि भगवान का अवयक्त (इन्द्रियों को अगोचर) रूप ही उनका परम भाव रूप है। उनको केवल व्यक्त भाव में ही जानना अज्ञानियों का काम है। व्यक्त रूप प्राकृतिक के अतिरिक्त अप्राकृतिक मानने-योग्य नहीं है। श्रीमद्भगवद्गीता में यह बात कहीं भी नहीं है कि भगवान के क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ में अभेद है। ऐसा अभेद-ज्ञान बुद्धि-विपरीत भी है। श्रीमद्भगतद्गीता, अध्याय 13, श्लोक 2 में है-
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।
अर्थात् ‘हे भारत! समस्त क्षेत्रें-शरीरों में रहनेवाला मुझको क्षेत्रज्ञ जान। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद का ज्ञान ही ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है।’ (महात्मा गाँधी)। परन्तु इसके साथ भगवान ने यह व्यक्त नहीं किया है कि मेरे क्षेत्र और सब क्षेत्रें में रहनेवाले मुझको, एक ही जानो। फिर भी कुछ लोग इस अभेदता को ही लोगों में विश्वास कराना चाहते हैं, जो अयोग्य है।

।। सप्तम अध्याय समाप्त ।।

1 ये दोनों प्रकृतियाँ परमात्मा के स्वभाव या गुण नहीं हैं, परमात्मा के अधीन में हैं; जैसे किसी के अधीनस्थ चीज उसकी है, परन्तु वह उसका स्वभाव नहीं है। लोकमान्य बालगंगाधर तिलकजी को भी यह मान्य है कि प्रकृति स्वतन्त्र नहीं है, परमात्मा के अधीनस्थ है; यथा-‘श्रीमद्भगवदगीता में भी भगवान ने पहले यह वर्णन करके कि प्रकृति स्वतन्त्र नहीं है-मेरी ही माया है।’ (गीता, अध्याय 7, श्लोक 14) फिर आगे कहा है-‘प्रकृति अर्थात् माया और पुरुष, दोनों अनादि हैं।’ (13/19) (गीता-रहस्य, पृष्ठ 263)

2 महाभारत, उद्योगपर्व, अ0 70, श्लोक 3 का अर्थ-बसें सब भूतप्राणी जिसमें, उसे वासु कहते व वासु हो जो देव, उनको वासुदेव कहते हैं व व्यापक होने से विष्णु नाम कहाया।

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अध्याय ७ - ज्ञान विज्ञानं योग
(विज्ञान सहित तत्व-ज्ञान)
श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥ (१)

भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे पृथापुत्र! अब उसको सुन जिससे तू योग का अभ्यास करते हुए मुझमें अनन्य भाव से मन को स्थित करके और मेरी शरण होकर सम्पूर्णता से मुझको बिना किसी संशय के जान सकेगा। (१)

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥ (२)

भावार्थ : अब मैं तेरे लिए उस परम-ज्ञान को अनुभव सहित कहूँगा, जिसको पूर्ण रूप से जानने के बाद भविष्य में इस संसार में तेरे लिये अन्य कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रहेगा। (२)

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥ (३)

भावार्थ : हजारों मनुष्यों में से कोई एक मेरी प्राप्ति रूपी सिद्धि की इच्छा करता है और इस प्रकार सिद्धि की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने वाले मनुष्यों में से भी कोई एक मुझको तत्व रूप से साक्षात्कार सहित जान पाता है। (३)

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्‍कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥(४)

भावार्थ : पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार - ऎसे यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो मेरी जड़ स्वरूप अपरा प्रकृति है। (४)

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्‌ ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्‌ ॥ (५)

भावार्थ : हे महाबाहु अर्जुन! परन्तु इस जड़ स्वरूप अपरा प्रकृति (माया) के अतिरिक्त अन्य चेतन दिव्य-स्वरूप परा प्रकृति (आत्मा) को जानने का प्रयत्न कर, जिसके द्वारा जीव रूप से संसार का भोग किया जाता है। (५)

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥ (६)

भावार्थ : हे अर्जुन! तू मेरी इन जड़ तथा चेतन प्रकृतियों को ही सभी प्राणीयों के जन्म का कारण समझ, और मैं ही इस सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति तथा प्रलय का मूल कारण हूँ। (६)

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥ (७)

भावार्थ : हे धनंजय! मेरे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है, जिस प्रकार माला में मोती धागे पर आश्रित रहते हैं उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत मणियों के समान मुझ पर ही आश्रित है। (७)


(प्रकृति में भगवान का प्रसार)
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥ (८)

भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! मैं ही जल का स्वाद हूँ, सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश हूँ, समस्त वैदिक मन्त्रो में ओंकार हूँ, आकाश में ध्वनि हूँ और मनुष्यों द्वारा किया जाने वाला पुरुषार्थ भी मैं हूँ। (८)

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥ (९)

भावार्थ : मैं पृथ्वी में पवित्र गंध हूँ, अग्नि में उष्मा हूँ, समस्त प्राणीयों में वायु रूप में प्राण हूँ और तपस्वियों में तप भी मैं हूँ। (९)

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्‌ ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्‌ ॥ (१०)

भावार्थ : हे पृथापुत्र! तू मुझको ही सभी प्राणीयों का अनादि-अनन्त बीज समझ, मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वी मनुष्यों का तेज हूँ। (१०)

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्‌ ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥ (११)

भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! मैं बलवानों का कामना-रहित और आसक्ति-रहित बल हूँ, और सब प्राणीयों में धर्मानुसार (शास्त्रानुसार) विषयी जीवन हूँ। (११)

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्चये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥ (१२)

भावार्थ : प्रकृति के तीन गुण - सत्त्व-गुण, रज-गुण और तम-गुण से उत्पन्न होने वाले भाव उन सबको तू मुझसे उत्पन्न होने वाले समझ, परन्तु प्रकृति के गुण मेरे अधीन रहते है, मैं उनके अधीन नही हूँ। (१२)


(भक्त और अभक्त का निरुपण)
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्‌ ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्‌ ॥ (१३)

भावार्थ : प्रकृति के इन तीनों गुणों से उत्पन्न भावों द्वारा संसार के सभी जीव मोहग्रस्त रहते हैं, इस कारण प्रकृति के गुणों से अतीत मुझ परम-अविनाशी को नहीं जान पाते हैं। (१३)

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ (१४)

भावार्थ : यह तीनों दिव्य गुणों से युक्त मेरी अपरा शक्ति स्वरुप माया को पार कर पाना असंभव है, परन्तु जो मनुष्य मेरे शरणागत हो जाते हैं, वह मेरी इस माया को आसानी से पार कर जाते हैं। (१४)

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥ (१५)

भावार्थ : मनुष्यों में अधर्मी और दुष्ट स्वभाव वाले मूर्ख लोग मेरी शरण ग्रहण नहीं करते है, ऐसे नास्तिक-स्वभाव धारण करने वालों का ज्ञान मेरी माया द्वारा हर लिया जाता है। (१५)

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥ (१६)

भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! चार प्रकार के उत्तम कर्म करने वाले (१) आर्त - दुख से निवृत्ति चाहने वाले, (२) अर्थार्थी - धन-सम्पदा चाहने वाले (३) जिज्ञासु - केवल मुझे जानने की इच्छा वाले और (४) ज्ञानी - मुझे ज्ञान सहित जानने वाले, भक्त मेरा स्मरण करते हैं। (१६)

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥ (१७)

भावार्थ : इनमें से वह ज्ञानी सर्वश्रेष्ठ है जो सदैव अनन्य भाव से मेरी शुद्ध-भक्ति में स्थित रहता है क्योंकि ऎसे ज्ञानी भक्त को मैं अत्यन्त प्रिय होता हूँ और वह मुझे अत्यन्त प्रिय होता है। (१७)

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्‌ ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्‌ ॥ (१८)

भावार्थ : यधपि ये चारों प्रकार के भक्त उदार हृदय वाले हैं, परन्तु मेरे मत के अनुसार ज्ञानी-भक्त तो साक्षात्‌ मेरा ही स्वरूप होता है, क्योंकि वह स्थिर मन-बुद्धि वाला ज्ञानी-भक्त मुझे अपना सर्वोच्च लक्ष्य जानकर मुझमें ही स्थित रहता है। (१८)

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ (१९)

भावार्थ : अनेकों जन्मों के बाद अपने अन्तिम जन्म में ज्ञानी मेरी शरण ग्रहण करता है उसके लिये सभी के हृदय में स्थित सब कुछ मैं ही होता हूँ, ऎसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है। (१९)


(देवताओं को पूजने वालों का निरुपण)
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥ (२०)

भावार्थ : जिन मनुष्यों का ज्ञान सांसारिक कामनाओं के द्वारा नष्ट हो चुका है, वे लोग अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूर्व जन्मों के अर्जित संस्कारों के कारण प्रकृति के नियमों के वश में होकर अन्य देवी-देवताओं की शरण में जाते हैं। (२०)

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्‌ ॥ (२१)

भावार्थ : जैसे ही कोई भक्त जिन देवी-देवताओं के स्वरूप को श्रद्धा से पूजने की इच्छा करता है, मैं उसकी श्रद्धा को उन्ही देवी-देवताओं के प्रति स्थिर कर देता हूँ। (२१)

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्‌ ॥ (२२)

भावार्थ : वह भक्त सांसारिक सुख की कामनाओं से श्रद्धा से युक्त होकर उन देवी-देवताओं की पूजा-आराधना करता है और उसकी वह कामनायें पूर्ण भी होती है, किन्तु वास्तव में यह सभी इच्छाऎं मेरे द्वारा ही पूरी की जाती हैं। (२२)

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्‌ ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥ (२३)

भावार्थ : परन्तु उन अल्प-बुद्धि वालों को प्राप्त वह फल क्षणिक होता है और भोगने के बाद समाप्त हो जाता हैं, देवताओं को पूजने वाले देवलोक को प्राप्त होते हैं किन्तु मेरे भक्त अन्तत: मेरे परम-धाम को ही प्राप्त होते हैं। (२३)


(अल्प-ज्ञानी और पूर्ण-ज्ञानी मनुष्य के लक्षण)
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्‌ ॥ (२४)

भावार्थ : बुद्धिहीन मनुष्य मुझ अप्रकट परमात्मा को मनुष्य की तरह जन्म लेने वाला समझते हैं इसलिय वह मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी स्वरूप के परम-प्रभाव को नही समझ पाते हैं। (२४)

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्‌ ॥ (२५)

भावार्थ : मैं सभी के लिये प्रकट नही हूँ क्योंकि में अपनी अन्तरंगा शक्ति योग-माया द्वारा आच्छादित रहता हूँ, इसलिए यह मूर्ख मनुष्य मुझ अजन्मा, अविनाशी परमात्मा को नहीं समझ पाते है। (२५)

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥ (२६)

भावार्थ : हे अर्जुन! मैं भूतकाल में, वर्तमान में और भविष्य में जन्म-मृत्यु को प्राप्त होने वाले सभी प्राणीयों को जानता हूँ, परन्तु मुझे कोई नही जानता है। (२६)

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥ (२७)

भावार्थ : हे भरतवंशी! हे शत्रुविजेता! संसार में सभी प्राणी इच्छा-द्वेष आदि द्वन्दों से उत्पन्न मोह के कारण जन्म लेकर पुन: मोह को प्राप्त होते हैं। (२७)

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्‌ ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥ (२८)

भावार्थ : परन्तु जिस मनुष्य ने पूर्व-जन्मों में और इस जन्म में पुण्य-कर्म किये हैं तथा उसके सभी पाप पूर्ण-रूप से नष्ट हो चुके हैं, वह दृढ-संकल्प के साथ मेरी भक्ति करके मोह आदि सभी द्वन्दों से मुक्त हो जाता हैं। (२८)

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्‌ ॥ (२९)

भावार्थ : जो मनुष्य मेरी शरण होकर वृद्धावस्था और मृत्यु से मुक्ति पाने की इच्छा करता है, ऎसे मनुष्य उस ब्रह्म को, परमात्मा को और उसके सभी कर्मों को पूरी तरह से जानता हैं। (२९)

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥ (३०)

भावार्थ : जो मनुष्य मुझे अधिभूत (सम्पूर्ण जगत का कर्ता), अधिदैव (सम्पूर्ण देवताओं का नियन्त्रक) तथा अधियज्ञ (सम्पूर्ण फ़लों का भोक्ता) सहित जानता हैं और जिसका मन निरन्तर मुझमें स्थित रहता है वह मनुष्य मृत्यु के समय में भी मुझे जानता है। (३०)


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भगवद्‍ज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार उपनिषद्, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद् भगवदगीता में श्रीकृष्ण तथा अर्जुन के संवाद में भगवद्‍ज्ञान-योग नाम का सातवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥