इस अध्याय का विषय क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभागयोग है।
इस अध्याय के आरम्भ में ही कह दिया गया है कि शरीर को ‘क्षेत्र’ कहते हैं और इसे जो जानता है, उसको तत्वज्ञानी लोग ‘क्षेत्रज्ञ’ कहते हैं। बारहवें अध्याय में भक्तियोग का वर्णन हो चुका है। अब इस तेरहवें अध्याय में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विभाग करके उनके स्वरूपों का पृथक-पृथक वर्णन इसलिए किया गया है कि लोग शरीर (क्षेत्र) और शरीरी (क्षेत्रज्ञ) अर्थात् देह और देही को यथार्थतः भिन्न-भिन्न कर जानें-दोनों को एक ही न समझ बैंठें और न यह समझ कि देही देह ही है और न ऐसी भूल करें कि देह में देह से भिन्न कुछ अन्य पदार्थ (देही या चेतन जीव) है ही नहीं; तथा लोगों की सुनिश्चित रूप से यह भी पूर्णतया विदित हो जाया कि स्वयं परमात्मा की विशेषावतार के शरीर (क्षेत्र) में उस व्यक्त दिव्य श्रीविग्रहरूप से भिन्न, अद्भुत और अव्यक्त हैं।
बारहवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि अव्यक्तोपासक भी मुझे ही (मामेव) पाते हैं। क्या यहाँ ‘मुझे ही’ (मामेव) कहकर श्रीभगवान अपने व्यक्त नर-शरीर को ही बतलाते हैं? यदि इसका उत्तर ‘हाँ’ हो, तो अव्यक्तोपासक भी व्यक्त रूप को ही पाते हैं-ऐसा कहा जाएगा। परन्तु यह उत्तर युक्तियुक्त और जँचनेयोग्य नहीं है। भगवान ने गीता में ऐसा कहीं नहीं कहा है कि मैं केवल व्यक्तरूप ही हूँ, अव्यक्त नहीं। बल्कि अध्याय 7 के श्लोक 24 में स्पष्ट रूप से उन्होंने अपने को अव्यक्त ही बतलाया है और केवल व्यक्त ही कहकर जाननेवालों को ‘बुद्धिहीन’ कहा है। युक्तिसंगत बात तो यह है कि अव्यक्तोपासक अव्यक्त स्वरूप को ही अन्त में प्राप्त करे। अतएव बारहवें अध्याय में श्लोक 4 के ‘मामेव’ (मुझे ही) से भगवान ने अपने अव्यक्त स्वरूप को ही व्यक्त किया है, ऐसा जानना चाहिए। अपने इस स्वरूप को भी क्षेत्र से स्पष्टतया भिन्न जानने की आवश्यकता जानकर ही उन्होंने इस अध्याय में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का विचार कहा है।
यदि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ-विभाग का ज्ञान लोग नहीं जानेंगे, तो केवल व्यक्त क्षेत्र-ज्ञान में पड़े रहेंगे; अव्यक्त स्वरूप को नहीं जानकर अज्ञानता से नहीं छूटेंगे। क्षेत्र-क्षेत्र-विभाग-वर्णन में कहा गया है कि पाँच स्थूल तत्त्व (मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), पाँच सूक्ष्म तत्त्व (गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द), अहंकार, बुद्धि, प्रकृति, दशेन्द्रियाँ (हाथ, पैर, मुँह, गुदा और लिंग-ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ और आँख, कान, नासिका, जिह्वा और त्वचा-ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ), मन, चैतन्य, संघात (कहे गये का संघरूप), धृति (धारण करने की शक्ति) और इनके विचार इच्छा, द्वेष, सुख और दुःख-इन इकतीस के समूह को संक्षेप में ‘क्षेत्र’ कहते हैं। इस क्षेत्र के जाननेवाले को ‘क्षेत्रज्ञ’ कहते हैं। गीता भगवती कहती है कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के ज्ञान को ही ‘ज्ञान’ कहते हैं।
सब क्षेत्रें में क्षेत्रज्ञ तत्त्व-रूप से परमात्मा ही हैं, यह भगवान श्रीकृष्ण का मत है।
श्रवण, मनन, निदिध्यासन तथा अनुभव से प्राप्त इस ज्ञान की पूर्णता के लिए मानहीनता, पाखण्डहीनता, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरु-उपासना, पवित्रता, स्थिरता, अपने ऊपर रोक, इन्द्रियों के विषयों से मन का अलगाव, निरहंकारिता, जन्म, मरण, बुढ़ापा, व्याधि, दुःख और दोषों का सदा स्मरण, पुत्र, स्त्री, गृहादि में मोह तथा ममता का अभाव, प्रिय और अप्रिय में स्थिर समता, अनन्यता से ध्यानयुक्त परमात्मा की एकनिष्ठ भक्ति, एकान्त स्थान का सेवन, जनसमूह में सम्मिलित होने की अरुचि, अध्यात्म-ज्ञान की सत्यता का स्मरण और आत्म-दर्शन-इन सबका सेवन करता हुआ साधक ज्ञान में रहता है। यदि ऐसा नहीं रहता है, तो वह अज्ञान में है। इन सब बातों के सहित भगवान श्रीकृष्ण का यह भी मत है कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के ज्ञान को ही ज्ञान कहते हैं और क्षेत्रें में क्षेत्रज्ञ तत्त्वतः परमात्मा ही हैं। अतएव उपर्युक्त ज्ञानों के अतिरिक्त ज्ञान को अनात्म-ज्ञान कहना अनुचित नहीं है। गीता में यह नहीं कहा गया है कि भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य नररूप वा विराट रूप श्रीविग्रहों वा दिव्य क्षेत्रें में और उनमें व्याप्त आत्मा या क्षेत्रज्ञ में भेद नहीं है।
क्षेत्र को व्यक्त कहा जायेगा, परन्तु क्षेत्रज्ञ को व्यक्त नहीं, अव्यक्त कहा जायेगा। सब क्षेत्रें में क्षेत्रज्ञ तत्त्व-रूप से परमात्मा ही हैं, उसे प्रत्यक्ष जाननेवाले मोक्ष पाते हैं। वह अनादि पर-ब्रह्म हैं, उसे न सत्1 कहा जा सकता है और न असत् ही।
परब्रह्म की सब ओर सब इन्द्रियाँ हैं; परन्तु वे स्वरूपतः इन्द्रियों से रहित, अलिप्त और इन्द्रियातीत हैं। तात्पर्य यह कि परब्रह्म में सब ओर के सब प्रकार के ज्ञान सदा विद्यमान रहते हैं, वे सर्वव्यापक हैं। वे सबके बाहर और सबके अन्दर सदा विद्यमान रहते हैं। त्रयगुणों में रहते हुए अर्थात् उनका भोक्ता होते हुए भी वे उन गुणों से रहित हैं। अर्थात् निर्गुण2 हैं। वे ध्रुव वा स्थित होते हुए भी गतिमान हैं। (परा प्रकृति में व्यापक रहने के कारण ही गतिमान-सा दीखता है और परा प्रकृति में व्याप्त अर्थात् उस प्रकृति के सहित रहने के कारण उसे राम या सबमें रमण करनेवाला भी कहते हैं, यही सच्चिदानन्द3 है।) यह ब्रह्म सबसे दूर और सबसे अधिक निकट भी है।
इस सम्बन्ध में कबीर साहब के ये शब्द हैं-
श्रूप अखंडित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य।
ऊँचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य।।
बड़ा तें बड़ा छोट तें छोटा मींहीं तें सब लेखा।
सबके मध्य निरन्तर साईं दृष्टि दृष्टि सों देखा।।
‘है सब में सब ही तें न्यारा------------।
सब के निकट दूर सब ही तें---------।।’
सखिया वा घर सबसे न्यारा, जहँ पूरन पुरुष हमारा।
जहँ नहिं सुख-दुख साँच झूठ नहिं, पाप न पुन्न पसारा।।
नहिं निर्गुण नहिं सर्गुण भाई, नहीं सूक्ष्म स्थूलं।
नहिं अच्छर नहिं अविगत भाई, ये सब जग के मूलं।।
सब अनकेताओं में वह पुरुषोत्तम परब्रह्म बँटा हुआ-सा दीखता है; परन्तु सब अनेकताओं में रहकर भी वह अविभक्त, अखण्ड और एक-ही-एक रहता है। वह प्राण्यिों को कर्ता, पालक और नाशक है। वही अपरोक्षता से जानने-योग्य है, वह अन्धकार से परे है और ज्योति की भी ज्योति अर्थात् ज्योति का भी प्रकाशक है। गीताजी कहती हैं कि इस अध्याय में वर्णित क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, ज्ञाता और ज्ञेय को जाननेवाला भक्त परमात्मा के भाव को (अर्थात् व्यक्त और अव्यक्त भाव को) पानेयोग्य बनता है।
प्रकृति और पुरुष (अर्थात् जड़ और चेतन) दोनों अनादि हैं। इसको इस प्रकार भी कह सकते हैं कि दोनों प्रकृतियाँ-त्रयगुणमयी अपरा और निर्गुण परा-वा क्षर पुरुष और अक्षर पुरुष-वा असत् और सत्-अनादि4 हैं। विकार और गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। कार्य और कारण का हेतु (कारण) प्रकृति (महाकारण) है। कार्य (अर्थात् अनेकतामयी सृष्टि) का कारण साम्यावस्थाधारिणी मूल प्रकृति का कम्पित भागरूप विकृति प्रकृति है और इस कारण-रूप विकृति प्रकृति का हेतु या कारण साम्यावस्थाधारिणी त्रयगुणमयी मूल प्रकृति है। इसी मूल प्रकृति को ‘महाकारण’ कह सकेंगे। जगत का यह उपादान कारण है। पुरुष-चेतन जीव, प्रकृति से उत्पन्न होनेवाले गुणों को भोगता है, अतएव यह सुख-दुःख के भोग में कारण है। यही भोग और गुण का संग जीव के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण होता है।
शरीरस्थ जीव अकेला ही शरीर में नहीं रहता है। परमात्मा पुरुषोत्तम भी उसके साथ-ही-साथ शरीर में इस प्रकार पूर्णतः व्याप्त रहता है, जिस प्रकार वायुपूर्ण किसी घट में आकाश। परा प्रकृति वा चेतन-जीव-पुरुष, पुरुषोत्तम परमात्मा से स्थूल दशा में है और स्थूल में सूक्ष्म स्वाभाविक ही व्याप्त रहता है।5 त्रयगुणमयी प्रकृति को तथा पुरुष को उपर्युक्त प्रकार से अपरोक्ष ज्ञान-द्वारा जो जानता है, वह कर्तव्य कर्मों को करता रहकर भी फिर जन्म नहीं पाता है।
कोई ध्यान6 द्वारा कोई सांख्य-योग6 अर्थात् सांख्य-शास्त्र से निरूपित ज्ञान में मन-बुद्धि को डुबाए रखकर और कोई कर्मयोग6 द्वारा योगस्थ रहकर अर्थात् कर्तव्य कर्मों को योगस्थ रहकर करता हुआ आत्मा-द्वारा आत्मा को देखता है, तात्पर्य यह कि चेतन आत्मा-द्वारा परमात्मा का दर्शन पाता है।
जो शास्त्र पढ़कर उपर्युक्त विषयों का ज्ञान नहीं रखते हैं, वे दूसरों से सुनकर श्रद्धा से परमात्मा का भजन करके संसार से तर जाते हैं। परमात्मा-ईश्वर को सर्वत्र समभाव से रहता हुआ जो मनुष्य देखता है, वह अपघाती नहीं बनता और परम गति पाता है।
सब कर्मों को करनेवाली प्रकृति है और आत्मा अकर्ता है। जो यह देखता है, वही यथार्थ देखता है।7 जीवों के भिन्नत्व में जब एकत्व दीखने लगे और सब फैलाव उसी एक में होने का बोध जब हो, तब परमात्मा-ब्रह्म की प्राप्ति होती है।
जैसे सर्वव्यापी आकाश को किसी का लेप नहीं लगता, वैसे ही सर्वव्यापी आत्मा को भी। जैसे एक ही सूर्य सर्वजगत को प्रकाशित करता है, वैसे ही क्षेत्रज्ञ सब क्षेत्रें को प्रकाशित करता है अर्थात् सचेतन करके रखता है। ज्ञान-चक्षु (आत्मदृष्टि) द्वारा क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का भेद और जीव-आत्मा की मुक्ति की विधि को जो जानता है (विधि-अनुकूल साधन करता है), वह ब्रह्म-परमात्मा को पाता है।
।। त्रयोदश अध्याय समाप्त ।।
1 चैतन्य अपरिवर्तनशील, गतिशील और कल्पमय पदार्थ है,अतएव सत् परन्तु मर्यादित या ससीम है। यही जीवरूपा परा प्रकृति है। गीता, अध्याय 7, श्लोक 5 और महाभारत, शान्तिपर्व, उत्तरार्द्ध, अध्याय 104 में परा प्रकृति को रूपान्तर-दशा से रहित कहा गया है। जीव को जड़ नहीं माना जा सकता। इसको अक्षर पुरूष कहते हैं। अतएव चैतन्य सत्य है। क्षेत्र के 31 तत्त्वों में एक चेतना अर्थात् चैतन्य भी है। जड़ असत् है। यही अपरा प्रकृति, क्षर पुरुष है। परमात्मा अक्षर अर्थात् सत् और क्षर अर्थात् असत्; दोनों से उत्तम और परे हैं। इसलिए उस पुरुषोत्तम परमात्मा को न सत् कह सकते हैं ओर न असत्। वह अनादि, असीम अर्थात् अमर्यादित है, अतएव ध्रुव और अकम्प है। असीम के बाहर अवकाश नहीं। जिसके बाहर अवकाश नहीं, उसमे कम्प अथवा गति नहीं। असीम एक ही हो सकता है। चैतन्य स्वाभाविक ही गतिशील ओर कम्नमय है। यह ससीम है।
2 अपरा-जड़ प्रकृति (रज, सत् और तम) त्रयगुणमयी है। परा प्रकृति त्रयगुण-रहित है। परब्रह्म पुरुषोत्तम को दोनों प्रकृतियों से परे वा उत्तम होने के कारण निर्गुण और सगुण दोनों के परे भी कहा जाता है।
3 उस सच्चिदानन्द के यर्थाथ स्वरूप को बालगंगाधर तिलकजी ने इस तरह समझाया है-प्रकृति और पुरुष के परे भी जाकर उपनिषत्कारों ने यह सिद्धान्त स्थापित किया है कि सच्चिदानन्द ब्रह्म से भी श्रेष्ठ श्रेणी का ‘निगुर्ण ब्रह्म’ ही जगत का मूल है।
4 इनके अनादित्व के विषय में गीता, अध्याय 14, श्लोक 3 के वर्णन के स्थान पर पढ़िए।
5 अज्ञ का कहना है कि किसी गिलास में एक ही बार गिलास भर पानी और उतनी ही मदिरा नही अँट सकती, अतएव ईश्वर नहीं, केवल जीव ही देह में है।
6 ये तीनों पृथक्-पृथक् साधन जाने जाते हैं, परन्तु तीनों आपस में मिले-जुले रहते हैं और श्रद्धालु भक्त भी अपने भक्ति-साधन में इन तीनों से युक्त हो जाता है। इनके वर्णन के पृथक्-पृथक् अध्यायों में ये बातें समझा दी गई हैं।
7 ऐसा दर्शन केवल बौद्धिक या परोक्ष नहीं, बल्कि अपरोक्ष अर्थात प्रत्यक्ष होना चाहिए। ऐसा दर्शन तभी हो सकता है, जब चेतन आत्मा से परमात्मा का दर्शन हो।
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अध्याय १३ - क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग
(क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय)
अर्जुन उवाच
प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च ।
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव ॥ (१)
भावार्थ : अर्जुन ने पूछा - हे केशव! मैं आपसे प्रकृति एवं पुरुष, क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ और ज्ञान एवं ज्ञान के लक्ष्य के विषय में जानना चाहता हूँ। (१)
श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥ (२)
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे कुन्तीपुत्र! यह शरीर ही क्षेत्र (कर्म-क्षेत्र) कहलाता है और जो इस क्षेत्र को जानने वाला है, वह क्षेत्रज्ञ (आत्मा) कहलाता है, ऎसा तत्व रूप से जानने वाले महापुरुषों द्वारा कहा गया हैं। (२)
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥ (३)
भावार्थ : हे भरतवंशी! तू इन सभी शरीर रूपी क्षेत्रों का ज्ञाता निश्चित रूप से मुझे ही समझ और इस शरीर तथा इसके ज्ञाता को जान लेना ही ज्ञान कहलाता है, ऐसा मेरा विचार है। (३)
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् ।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु ॥ (४)
भावार्थ : यह शरीर रूपी कर्म-क्षेत्र जैसा भी है एवं जिन विकारों वाला है और जिस कारण से उत्पन्न होता है तथा वह जो इस क्षेत्र को जानने वाला है और जिस प्रभाव वाला है उसके बारे में संक्षिप्त रूप से मुझसे सुन। (४)
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥ (५)
भावार्थ : इस क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के बारे में ऋषियों द्वारा अनेक प्रकार से वैदिक ग्रंथो में वर्णन किया गया है एवं वेदों के मन्त्रों द्वारा भी अलग-अलग प्रकार से गाया गया है और इसे विशेष रूप से वेदान्त में नीति-पूर्ण वचनों द्वारा कार्य-कारण सहित भी प्रस्तुत किया गया है। (५)
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥ (६)
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥ (७)
भावार्थ : हे अर्जुन! यह क्षेत्र पंच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), अहंकार, बुद्धि, प्रकृति के अव्यक्त तीनों गुण (सत, रज, और तम), दस इन्द्रियाँ (कान, त्वचा, आँख, जीभ, नाक, हाथ, पैर, मुख, उपस्थ और गुदा), एक मन, पाँच इन्द्रियों के विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध)। इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, चेतना और धारणा वाला यह समूह ही विकारों वाला पिण्ड रूप शरीर है जिसके बारे में संक्षेप में कहा गया है। (६,७)
(ज्ञान का विषय)
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥ (८)
भावार्थ : विनम्रता (मान-अपमान के भाव का न होना), दम्भहीनता (कर्तापन के भाव का न होना), अहिंसा (किसी को भी कष्ट नहीं पहुँचाने का भाव), क्षमाशीलता (सभी अपराधों के लिये क्षमा करने का भाव), सरलता (सत्य को न छिपाने का भाव), पवित्रता (मन और शरीर से शुद्ध रहने का भाव), गुरु-भक्ति (श्रद्धा सहित गुरु की सेवा करने का भाव), दृड़ता (संकल्प में स्थिर रहने का भाव) और आत्म-संयम (इन्द्रियों को वश में रखने का भाव)। (८)
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥ (९)
भावार्थ : इन्द्रिय-विषयों (शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श) के प्रति वैराग्य का भाव, मिथ्या अहंकार (शरीर को स्वरूप समझना) न करने का भाव, जन्म, मृत्यु, बुढा़पा, रोग, दुःख और अपनी बुराईयों का बार-बार चिन्तन करने का भाव। (९)
असक्तिरनभिष्वङ्ग: पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥ (१०)
भावार्थ : पुत्र, स्त्री, घर और अन्य भौतिक वस्तुओं के प्रति आसक्त न होने का भाव, शुभ और अशुभ की प्राप्ति पर भी निरन्तर एक समान रहने का भाव। (१०)
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥ (११)
भावार्थ : मेरे अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु को प्राप्त न करने का भाव, बिना विचलित हुए मेरी भक्ति में स्थिर रहने का भाव, शुद्ध एकान्त स्थान में रहने का भाव और सांसारिक भोगों में लिप्त मनुष्यों के प्रति आसक्ति के भाव का न होना। (११)
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥ (१२)
भावार्थ : निरन्तर आत्म-स्वरूप में स्थित रहने का भाव और तत्व-स्वरूप परमात्मा से साक्षात्कार करने का भाव यह सब तो मेरे द्वारा ज्ञान कहा गया है और इनके अतिरिक्त जो भी है वह अज्ञान है। (१२)
(क्षेत्रज्ञ का ज्ञान)
ज्ञेयं यत्तत्वप्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥ (१३)
भावार्थ : हे अर्जुन! जो जानने योग्य है अब मैं उसके विषय में बतलाऊँगा जिसे जानकर मृत्यु को प्राप्त होने वाला मनुष्य अमृत-तत्व को प्राप्त होता है, जिसका जन्म कभी नही होता है जो कि मेरे अधीन रहने वाला है वह न तो कर्ता है और न ही कारण है, उसे परम-ब्रह्म (परमात्मा) कहा जाता है। (१३)
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ (१४)
भावार्थ : वह परमात्मा सभी ओर से हाथ-पाँव वाला है, वह सभी ओर से आँखें, सिर तथा मुख वाला है, वह सभी ओर सुनने वाला है और वही संसार में सभी वस्तुओं में व्याप्त होकर स्थित है। (१४)
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥ (१५)
भावार्थ : वह परमात्मा समस्त इन्द्रियों का मूल स्रोत है, फिर भी वह सभी इन्द्रियों से परे स्थित रहता है वह सभी का पालन-कर्ता होते हुए भी अनासक्त भाव में स्थित रहता है और वही प्रकृति के गुणों (सत, रज, तम) से परे स्थित होकर भी समस्त गुणों का भोक्ता है। (१५)
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥ (१६)
भावार्थ : वह परमात्मा चर-अचर सभी प्राणीयों के अन्दर और बाहर भी स्थित है, उसे अति-सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियों के द्वारा नही जाना जा सकता है, वह अत्यन्त दूर स्थित होने पर भी सभी प्राणीयों के अत्यन्त पास भी वही स्थित है। (१६)
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥ (१७)
भावार्थ : वह परमात्मा सभी प्राणीयों में अलग-अलग स्थित होते हुए भी एक रूप में ही स्थित रहता है, यद्यपि वही समस्त प्राणीयों को ब्रह्मा-रूप से उत्पन्न करने वाला है, विष्णु-रूप से पालन करने वाला है और रुद्र-रूप से संहार करने वाला है। (१७)
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥ (१८)
भावार्थ : वह परमात्मा सभी प्रकाशित होने वाली वस्तुओं के प्रकाश का मूल स्रोत होते हुए भी अन्धकार से परे स्थित रहता है, वही ज्ञान-स्वरूप (आत्मा) है, वही जानने योग्य (परमात्मा) है, वही ज्ञान स्वरूप (आत्मा) द्वारा प्राप्त करने वाला लक्ष्य है और वही सभी के हृदय में विशेष रूप से स्थित रहता है। (१८)
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥ (१९)
भावार्थ : इस प्रकार कर्म-क्षेत्र (शरीर), ज्ञान-स्वरूप (आत्मा) और जानने योग्य (परमात्मा) के स्वरूप का संक्षेप में वर्णन किया गया है, मेरे भक्त ही यह सब जानकर मेरे स्वभाव को प्राप्त होते हैं। (१९)
(ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय)
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥ (२०)
भावार्थ : हे अर्जुन! इस प्रकृति (भौतिक जड़ प्रकृति) एवं पुरुष (परमात्मा) इन दोनों को ही तू निश्चित रूप से अनादि समझ और राग-द्वेष आदि विकारों को प्रकृति के तीनों गुणों से उत्पन्न हुआ ही समझ। (२०)
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥ (२१)
भावार्थ : जिसके द्वारा कार्य उत्पन्न किये जाते है और जिसके द्वारा कार्य सम्पन्न किये जाते है उसे ही भौतिक प्रकृति कहा जाता है, और जीव (प्राणी) सुख तथा दुःख के भोग का कारण कहा जाता है। (२१)
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् ।
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥ (२२)
भावार्थ : भौतिक प्रकृति में स्थित होने के कारण ही प्राणी, प्रकृति के तीनों गुणों से उत्पन्न पदार्थों को भोगता है और प्रकृति के गुणों की संगति के कारण ही जीव उत्तम और अधम योनियाँ में जन्म को प्राप्त होता रहता है। (२२)
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥ (२३)
भावार्थ : सभी शरीरों का पालन-पोषण करने वाला परमेश्वर ही भौतिक प्रकृति का भोक्ता साक्षी-भाव में स्थित होकर अनुमति देने वाला है, जो कि इस शरीर में आत्मा के रूप में स्थित होकर परमात्मा कहलाता है। (२३)
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥ (२४)
भावार्थ : जो मनुष्य इस प्रकार जीव को प्रकृति के गुणों के साथ ही जानता है वह वर्तमान में किसी भी परिस्थिति में स्थित होने पर भी सभी प्रकार से मुक्त रहता है और वह फिर से जन्म को प्राप्त नही होता है। (२४)
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥ (२५)
भावार्थ : कुछ मनुष्य ध्यान-योग में स्थित होकर परमात्मा को अपने अन्दर हृदय में देखते हैं, कुछ मनुष्य वैदिक कर्मकाण्ड के अनुशीलन के द्वारा और अन्य मनुष्य निष्काम कर्म-योग द्वारा परमात्मा को प्राप्त होते हैं। (२५)
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥ (२६)
भावार्थ : कुछ ऎसे भी मनुष्य हैं जो आध्यात्मिक ज्ञान को नहीं जानते है परन्तु वह अन्य महापुरुषों से परमात्मा के विषय सुनकर उपासना करने लगते हैं, परमात्मा के विषय में सुनने की इच्छा करने कारण वह मनुष्य भी मृत्यु रूपी संसार-सागर को निश्चित रूप से पार कर जाते हैं। (२६)
यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥ (२७)
भावार्थ : हे भरतवंशी अर्जुन! इस संसार में जो कुछ भी उत्पन्न होता है और जो भी चर-अचर प्राणी अस्तित्व में है, उन सबको तू क्षेत्र (जड़ प्रकृति) और क्षेत्रज्ञ (चेतन प्रकृति) के संयोग से ही उत्पन्न हुआ समझ। (२७)
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥ (२८)
भावार्थ : जो मनुष्य समस्त नाशवान शरीरों में अविनाशी आत्मा के साथ अविनाशी परमात्मा को समान भाव से स्थित देखता है वही वास्तविक सत्य को यथार्थ रूप में देखता है। (२८)
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥ (२९)
भावार्थ : जो मनुष्य सभी चर-अचर प्राणीयों में समान भाव से एक ही परमात्मा को समान रूप से स्थित देखता है वह अपने मन के द्वारा अपने आप को कभी नष्ट नहीं करता है, इस प्रकार वह मेरे परम-धाम को प्राप्त करता है। (२९)
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥ (३०)
भावार्थ : जो मनुष्य समस्त कार्यों को सभी प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही सम्पन्न होते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है, वही यथार्थ रूप से देखता है। (३०)
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ (३१)
भावार्थ : जब जो मनुष्य सभी प्राणीयों के अलग-अलग भावों में एक परमात्मा को ही स्थित देखता है और उस एक परमात्मा से ही समस्त प्राणीयों का विस्तार देखता है, तब वह परमात्मा को ही प्राप्त होता है। (३१)
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥ (३२)
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! यह अविनाशी आत्मा आदि-रहित और प्रकृति के गुणों से परे होने के कारण शरीर में स्थित होते हुए भी न तो कुछ करता है और न ही कर्म उससे लिप्त होते हैं। (३२)
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥ (३३)
भावार्थ : जिस प्रकार सभी जगह व्याप्त आकाश अपनी सूक्ष्म प्रकृति के कारण किसी वस्तु से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार शरीर में सभी जगह स्थित आत्मा भी शरीरों के कार्यों से कभी लिप्त नहीं होता है। (३३)
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥ (३४)
भावार्थ : हे भरतवंशी अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार शरीर में स्थित एक ही आत्मा सम्पूर्ण शरीर को अपनी चेतना से प्रकाशित करता है। (३४)
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥ (३५)
भावार्थ : जो मनुष्य इस प्रकार शरीर और शरीर के स्वामी के अन्तर को अपने ज्ञान नेत्रों से देखता है तो वह जीव प्रकृति से मुक्त होने की विधि को जानकर मेरे परम-धाम को प्राप्त होता हैं। (३५)
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग-योग नाम का तेरहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥