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अध्याय 4
अथ ज्ञानकर्मसंन्यासयोग 


इस अध्याय में ज्ञान, कर्म और संन्यास-योग का वर्णन किया गया है। ज्ञान, कर्म और संन्यास वा त्याग-तीनों से युक्त रहते हुए, संसार में जीवन बिताने का उपदेश इस अध्याय में दिया गया है।

यह उपदेश बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा था; जैसे भगवान ने पहले सूर्य को, सूर्य ने अपने पुत्र मनु को और मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को यह उपदेश दिया था। इस भाँति राजर्षियों की परम्परा में यह उपदेश बहुत काल तक चलता रहा; परन्तु दीर्घकाल की प्रबलता से यह नष्ट हो गया।
भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डव1 अर्जुन को यह उपदेश देकर फिर से इसका प्रचार किया।
इस उपदेश का सारांश इस प्रकार है-जीवों को अनेक बार जन्म-मरण के चक्र में घुमते रहना पड़ता है। साधारण लोगों को बीते हुए अनेकानेक जन्मों का स्मरण नहीं रहता है; परन्तु भगवान श्रीकृष्णवत् महायोगेश्वर को यह स्मरण रहता है। साधारण लोग मायावश होकर जन्म लेते हैं; परन्तु महायोगेश्वर माया को स्ववश में रखते हुए, संसार के कर्मों का संपादन करने के लिए जन्म-धारण करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ऐसे ही थे। ऐसे महापुरुष पुरुषोत्तम अपने आत्मस्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान रखने वाले, अपने को अजन्मा और अविनाशी प्रत्यक्ष रूप में जानते हैं। माया को स्ववश में रखते हुए, जन्म-धारण कर संसार के कार्यों का संपादन करने को दिव्य जन्म और दिव्य कर्म जानना चाहिए। ऐसे जन्म कर्म के जाननेवाले का पुनर्जन्म नहीं होता है। (क्योंकि इसका पूर्ण ज्ञान आत्मज्ञान के बिना नहीं होता। केवल बौद्धिक ज्ञान पूर्ण नहीं होता। श्रवण, मनन निदिध्यासन और अनुभव ज्ञान के इन चारो अंगों में पूर्ण होने को ही पूर्ण ज्ञान कहते हैं। समाधिजन्य अनुभव ज्ञान हुए बिना, आत्मज्ञान नहीं होता है।)
श्रीमद्भगवद्गीता, अ0 7, श्लोक 24 में व्यक्त अथवा इन्द्रियगम्य रूप को ही केवल जाननेवाले और इन्द्रियातीत रूप को नहीं पहचाननेवाले को मूढ़ात्मा कहा गया है। मूढ़ात्मा को भगवान के दिव्य जन्म और कर्म का ज्ञान हो और उसको पुनर्जन्म से मुक्ति मिले, कैसे संभव है? विषयानुरक्ति, भय और क्रोध से रहित भगवद्भक्त ज्ञानरूप तप से पवित्र होकर भगवान में लीन हो जाते हैं। जब कोई श्रवण, मनन, निदिध्यासन और अनुभव; ज्ञान के इन चारो अंगों में निष्णात और परिपक्व होता है। तभी वह ज्ञान रूप तप से पवित्र होता है। चाहे मोक्षार्थी बनकर, चाहे इस लोक और स्वर्ग आदि परलोक का कामार्थी बन, जो जिस आकांक्षा से भगवान का आश्रय लेते हैं, वे वैसे ही फल भगवान से प्राप्त करते हैं। देवताओं की आराधना से किसी को मोक्ष नहीं मिलता है।
गुणों और कर्मों के विभागानुसार चार वर्णों की रचना ईश्वरकृत है, फिर भी ईश्वर अकर्ता ही रहता है। ईश्वर भगवान कृष्ण को कर्म स्पर्श नहीं करता है।2
जो ईश्वर को भली भाँति जानता है, वह कर्म-बन्धन से नहीं बँधता है।
भगवान के इन्द्रियातीत आत्मस्वरुप के प्रत्यक्ष ज्ञान से विहीन, उनके केवल इन्द्रिय-गम्य रूप की प्रत्यक्षता-प्राप्त भक्त को उपर्युक्त प्रकार की अभिज्ञता (जानकारी) नहीं होती है और न वह कर्म-बन्धन से छूट सकता है। भगवत्स्वरूप को अच्छे प्रकार से जाननेवालों ने कर्तव्य कर्म किए हैं। सब लोगों को उसी प्रकार कर्म करना चाहिए।
कर्म और अकर्म क्या हैं, इस विषय में बुद्धिमान लोग भी मोह में पड़े हैं।
‘कर्म’, ‘विकर्म’ (निषिद्ध कर्म)3 और ‘अकर्म’ का भेद जानना चाहिए। कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखना-
इस भाँति कर्म में गूढ़ता है। इस गूढ़ता-भरे कर्म के करनेवाले
को बुद्धिमान, योगी और समस्त कर्तव्यों का करनेवाला जानना चाहिए। पूर्ण आत्म-ज्ञान-प्राप्त महापुरुष योगेश्वर कर्म में अकर्म रहते हैं। परन्तु इस ज्ञान में जो अपूर्ण है, वह अकर्म का ढोंग रखता है और अकर्म में कर्म का कर्ता कहलाता है। और वह भी अकर्म में ढोंगी है, जो बाहर से कर्मत्यागी है, परन्तु मन से विषयों में रमण करता रहता है। पूर्ण आत्म-ज्ञानी ही पण्डित कहलाता है। वह सब आरम्भ, कामना और संकल्प से रहित रहता है। उसके सब कर्म ज्ञानाग्नि से भस्म हो जाते हैं। वह कर्मफल-त्यागी, सदा सन्तुष्ट और किसी आश्रय की लालसा से विहीन होता है। वह कर्तव्य कर्म में प्रवृत रहकर भी अकर्मी रहता है। ‘कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हें।’ (तुलसी-कृत रामायण) ऐसे पुरूष का मन उसके वश में रहता है। वह द्वन्द्व और द्वेष से रहित रहता है और सफलता तथा विफलता में तटस्थ (विकार-विहीन) रहता है। वह यज्ञार्थ अर्थात् परहित-हेतु कर्म करता है। वह सब कर्मों को ब्रह्ममय देखता है। होम, होम की सब सामग्रियाँ, हवि, अग्नि, होम करनेवाला; ये सब-के-सब ब्रह्म हैं। (ऐसा प्रत्यक्ष ज्ञान बिना अपरोक्ष ब्रह्म-ज्ञान के नहीं होता है। केवल श्रवण, मनन और भावनावाले को यह ज्ञान कदापि नहीं हो सकता।) इस प्रकार कर्मों के साथ ब्रह्म का मिलाप देखनेवाला ब्रह्म को प्राप्त करता है।
विविध प्रकार के यज्ञ करनेवाले होते हैं। कोई देव-पूजन-रूप यज्ञ करते हैं। (यह यज्ञ तब पूर्ण होता है, जब पूज्य देव के आत्मस्वरूप का प्रत्यक्ष दर्शन पूजक को हो जाता है) कोई इन्द्रियों का संयमरूप यज्ञ करते हैं। (यह यज्ञ इन्द्रियों की चेतन-धारों को अन्तर्मुखी करके केन्द्र में केन्द्रित करने से होता है।) कोई शब्दादि विषयों को इन्द्रियाग्नि में होम कर यज्ञ करते हैं। (इन्द्रियों की चेतनधारों को अन्तर्मुख करके केन्द्र में केन्द्रित) ऐसा करने से वहाँ अन्तर्ज्योति उदित होती है 4 तथा उस ज्योतिमण्डल में अनहद ध्वनि अनवरत रूप से ध्वनित होती रहती है, मानो उस प्रकाशाग्नि में शब्द की आहुति पडती है। और दूसरे सब विषय भी उस प्रकाश-मण्डल के अभ्यन्तर उदित हो-होकर उसमें लीन होते रहते हैं। मानो सब सूक्ष्म विषयों की आहुतियाँ उस प्रकाशाग्नि में पड़कर भस्म होती हैं।5 कोई इन्द्रियों के कर्मों को तथा प्राण के व्यापारों को ज्ञान-दीप की प्रज्वलित आत्म-संयमरूप योगाग्नि में होमते हैं। (इन्द्रियों और प्राणों के व्यापार चेतन-धारों के कारण से ही होते हैं। साधन-द्वारा इन चेतन-धारों को अन्तर में समेटकर केन्द्रित करने से ज्ञान-दीपक जलता है।)
जैसे मन्दिर दीपक बारा।
ऐसे जोति होत उजियारा।।
(तुलसी साहब)
यह अवश्य ही योगाग्नि का तेज है। इसको पाकर साधक वा इस यज्ञ को करनेवाला पूर्ण आत्म-संयमी हो जाता है। कोई परोपकारार्थ द्रव्य-दान-रूप यज्ञ, कोई तप-रूप यज्ञ, कोई योगाभ्यास-रूप यज्ञ, कोई स्वाध्याय-रूप यज्ञ और कोई ज्ञान-यज्ञ (अर्थात् ज्ञान-ग्रहण और ज्ञान-दान-रूप यज्ञ) करते हैं। ये सब कठिन व्रती और प्रयत्नशील याज्ञिक होते हैं। प्राणायाम में निरत, प्राणवायु और अपानवायु दोनों को रोककर अपानवायु को प्राणवायु में और प्राणवायु को अपानवायु में होमते हैं।6
(दृष्टि-योग से सुषुम्ना में ध्यान स्थिर हो जाने पर भी यह होम हो सकता है।) अथवा अध्याय 6 में कहे गये नासाग्र में देखने के अभ्यास से और दूसरे भोजन का संयम कर, प्राणों में प्राण होमते हैं। (अर्थात् इन्द्रियगत चेतन-धारों7 को दृष्टियोग-द्वारा एकत्र कर वा कर्मेन्द्रियों की चेतन-धाराओं को ज्ञानेन्द्रियों की की चेतन-धाराओं से मिलाकर, चेतन-धाराओं के रूप प्राणों को चेतन-धाराओं के रूप प्राणों में होमते हैं। आहार का संयम नहीं रखने से उक्त योगाभ्यास नहीं हो सकता है। अध्याय 6 में इस संयम को आवश्यक बतलाया गया है। पहले जब दृष्टियेाग के अभ्यास से युगल नेत्रें की चेतन-धाराएँ जुटकर एकविन्दुता ग्रहण करती हैं, तब सब इन्द्रियों की चेतनधाराएँ उसी विन्दु में खिंचकर, सब मिलजुलकर एक हो जाती हैं। इस प्रकार प्राण का प्राणों में होम होता है।8 परन्तु इस होम को बिरला ही गुरुमुख जानता है और करता है।9
उक्त यौगिक यज्ञ में ब्रह्म परमात्म-रूप अग्नि प्रत्यक्ष होती है। तब याज्ञिक को पूर्ण आत्म-ज्ञान प्राप्त होता है। उसके किये हुए अन्यान्य सब यज्ञ उस ब्रह्माग्नि में आप-से-आप ही आहुति होकर पड़ जाते हैं। वह याज्ञिक कर्म-रहित हो जाता है। ‘कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हे।’ वह अहं-पद से ऊपर उठ जाता है। इस पद पर आरूढ़ रहकर अपने कर्तव्य कर्मों को करते हुए वह अकर्ता बना रहता है। इस (यज्ञों) को जाननेवाले याज्ञिक उपर्युक्त यज्ञों के द्वारा अपने पापों (अर्थात् सर्व कर्म-बन्धनों) को भस्मीभूत करते हैं। यज्ञ से बचा हुआ अमृत खानेवाले सनातन ब्रह्म को प्राप्त करते हैं। यज्ञ से वा परोपकारार्थ दिए हुए धन से बचे हुए10 धन का उपयोग करनेवाले होकर सनातन ब्रह्म को प्राप्त करते हैं। यज्ञ न करनेवाले के लिए यह लोक सुखकर नहीं हो सकता है। तब उसे परलोक का सुख और मोक्ष कहाँ से हो सकता है?
द्रव्य-यज्ञ से ज्ञान-यज्ञ श्रेष्ठ है। ज्ञान में सम्पूर्ण कर्मों का अन्त हो जाता है। इस विषय को, आत्म-तत्त्व के जाननेवाले ज्ञानियों के पास जाकर, उन्हें प्रणाम और उनकी सेवा कर विनीत भाव से प्रश्न करके उनसे जानना चाहिए।
ज्ञान-प्राप्त पुरुष को अपने में और परमात्मा में सारा ब्रह्माण्ड दरसता है। यह ज्ञान केवल बौद्धिक ही नहीं होता है, वरंच श्रवण, मनन और निदिध्यासन की समाप्ति के पश्चात् पूर्ण समाधि-द्वारा अनुभूत होकर अपरोक्ष रूप से प्राप्त होता है। निदिध्यासन में अभ्यास द्वारा चलते-चलते अभ्यासी को अपने अन्दर सारा ब्रह्माण्ड दिखाई देने लगता है और अन्त में उसे स्व-स्वरूप-सहित परमात्म-स्वरूप का भी प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। ज्ञान-यज्ञ यहाँ समाप्त हो जाता है। अभ्यासी जीवन्मुक्त होते हुए विदेह-मुक्त होकर ब्रह्म-निर्वाण को प्राप्त कर जन्म-मरण से छूटकर, दुःखों से सदा के लिए मुक्त हो जाता है। सब पापियों से भी यदि कोई बढ़कर पापी हो, तो भी वह ज्ञान-नौका-द्वारा सब पापों को पार कर जाएगा। ज्ञानाग्नि में सब पाप भस्म हो जाते हैं। संसार में ज्ञान-तुल्य कुछ भी पवित्र नहीं है। ज्ञान की पूर्णता केवल श्रवण और मनन मं नहीं है। इसलिए अपने अन्दर निदिध्यासन करके इसके अन्त में पहुँचकर, अपने अन्दर में ही ज्ञान की पूर्णता प्राप्य है।
जितेन्द्रिय, श्रद्धावान और ईश्वर-भक्त पुरुष, ज्ञान पाकर तुरन्त परम शान्ति पाता है। अज्ञानी और श्रद्धाहीन होकर जो संशययुक्त रहता है, वह नाश को प्राप्ता होता है अर्थात् कष्टमय जगत में पड़ा रहता है। उसे इस लोक और परलोक में कहीं भी शान्ति-सुख नहीं मिलता है। जो योग-द्वारा ज्ञानी बन कर्म करता हुआ अकर्मी बन, संशयरहित हो जाता है, उसको कर्मों का बन्धन नहीं होता है। इसलिए सबको चाहिए कि हृदयस्थ अज्ञान से उत्पन्न संशयों को ज्ञान-तलवार से काट, योग का अवलम्बन ग्रहण करें और संसार के कर्तव्यों का सम्पादन करने के लिए तैयार हों।
वस्तुतः श्रवण और मनन-ज्ञान-सहित योगाभ्यास करते रहकर संसार के कर्तव्यों को निर्लिप्तता से करते रहना उचित है, न कि संसार के कर्तव्यों को छोड़े रहना।

।। चतुर्थ अध्याय समाप्त ।।


1 राजा पाण्डु के पुत्र होने के कारण अर्जुन पाण्डव कहलाते थे; किन्तु स्वयं पाण्डु भी कौरण ही थे।

2 यः स नारायणो नाम देवदेवः सनातनः।
तस्यांशो वासुदेवस्तु कर्मणाऽन्ते विवेश ह।।
अर्थ-जो देवताओं के भी देवता सनातन नारायण हैं, उनके अंश-रूप वासुदेवजी कर्म के अंत होने पर उन्हीं में प्रवेश कर गये।
यह श्लोक विदित करता है कि भगवान श्रीकृष्ण को भी मानव-शरीर में किये कर्मों का फल स्वर्ग में भोगना पड़ा था। कर्मों का स्पर्श नहीं होता है और फिर स्वर्ग में जा कर्मफल-भोग के अंत होने तक वहाँ रहने के बाद अपने अंशी में जा मिलता है-ये दोनों बातें ‘महाभारत’ में ही लिखी है। यह बात भी प्रसिद्ध है कि भगवान श्रीकृष्ण को एक व्या भ्रमवश उनके चरण में तीर मारा था, जो उनके इस लोक से सिधार जाने का कारण हुआ। मानो स्वयं श्रीकृष्ण भगवान ने उस तीर को इस लोक के त्यागने का कारण बना लिया था। उस तीर में लगा हुआ लोहा वही था जिससे यदुवंश का नाश होना था, मुनियों ने ऐसा शाप दिया था। मानो इस शाप को भी भगवान ने स्वीकार किया था। यह इसलिए कि त्रेतायुग के रामावतार में भगवान ने वानरराज बालि का वध छिपकर किया था। उसी कर्मों का वह प्रतिफल था। तुलसीकृत रामायण में तो श्रीलक्ष्मीजी ने गुह निषाद से श्रीराम-सीता के वनवास के कष्ट का कारण यह बताया गया है-
काहु न कोउ सुख-दुख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सुनु भ्राता ।।
इससे जानने में आता है कि कर्मफल श्रीभगवान भी भोगते हैं। बात यह है कि जैसे सौर-जगत में रहनेवालों पर सूर्य का प्रभाव अनिवार्य रूप से पड़ता रहेगा या कि जैसे किसी राज्य में रहनेवालों पर उस राज्य का विधान (कानून) लागू रहेगा, उसी भाँति कर्म-मण्डल में रहनेवाले पर कर्म के फल का मिलना अनिवार्य रूप से होता रहेगा। इस नियम को स्वयं भगवान भी नहीं तोड़ते हैं। इस
नरलोक से लेकर देहधारियों के जितने भी स्वर्गाधिक उत्तमोत्तम लोक हैं, सब-के-सब कर्म-भवन वा कर्म-मण्डल के अन्तर्गत है। इनमें से किसी में जाओं, कर्मफल का भोग अनिवार्य रूप से होता रहेगा।
हाँ, यदि देहधारियों के लोकों के ऊपर ब्रह्म-निर्वाण-पद में पहुँचो, तो वहाँ अवश्य ही कर्मफल के भोग से सम्पूर्ण रूपेण रहित हो जाओगे। कर्मयोग के सहित परमात्मा-भक्ति के साधन से ही उपर्युक्त सर्वोच्य पद की प्राप्ति होगी-अन्यथा नहीं। कर्म-योग और परमात्मा-भक्ति में ज्ञान, संन्यास, विषय-भोग की लालसा का त्याग, कर्मफल का त्याग, सफलता और विफलता में तटस्थता और आत्म-ज्ञान ओत-प्रोत रहते हैं।

3 विद्वानों एवं साधकों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से ‘विकर्म’ का अर्थ किया है; यथा-
‘कर्मणः शास्त्रविहितस्य हि यस्माद् अपि अस्ति बोद्धव्यं बोद्धव्यं च अस्ति एवं विकर्मणः प्रतिषिद्धस्य, तथा अकर्मणः च तूष्णींभावस्य बोद्धव्यम् अस्ति इति त्रिषु अपि अध्याहारः कर्त्तव्यः।’
अर्थ-कर्म का-शास्त्रविहित कर्म का भी रहस्य जानना चाहिए; विकर्म का-शास्त्रवर्जित का भी रहस्य जानना चाहिए और अकर्म का-चुपचाप बैठे रहने का भी रहस्य समझना चाहिए।,
(शांकर भाष्य का भाषानुवाद)
‘विकर्मणि च, नित्य नैमित्तिक तथा काम्य रूपेण तत्साधन द्रव्यार्ज-नाद्या कारेण च विविधताम् आपन्नं कर्म, विकर्म।’
अर्थ-नित्य, नैमित्तिक और काम्य रूप से तथा उसके साधन द्रव्योपार्जनादि रूप से विविध भावों को प्राप्त कर्म, विकर्म कहलाते हैं। (श्रीरामानुज-भाव्य। अनुवादक- हरिकृष्ण दास गोयनका)
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के अनुसार-‘निषिद्ध कर्म वा तामस कर्म, मोह और अज्ञान से हुआ करते हैं, इसलिए उन्हें विकर्म कहते हैं। मीमांसकों को यज्ञ-याग आदि काम्य कर्म इष्ट हैं, इसलिए उन्हें इसके अतिरिक्त और सभी कर्म ‘विकर्म’ जँचते हैं। अपने माँ-बाप को कोई मारता-पीटता हो, तो उसको न रोककर चुप्पी मारकर बैठा रहना, उस समय व्यावाहारिक दृष्टि से अकर्म अर्थात् कर्मशून्यता हो तो भी, कर्म ही-अधिक या कहें; विकर्म है; और कर्म-विपाक की दृष्टि से उसका अशुभ परिणाम हमें भोगना ही पड़ेगा।’ विकर्म= विपरीत कर्म। गीता-रहस्य, पृ0 675 और 677।’
महात्मा गाँधीजी महाराज के अनुसार, ‘विकर्म का अर्थ निषिद्ध कर्म है।’
-अनासक्तियोग (श्लोक-सहित गीता के पृष्ठ 79)

शब्दकोष में ‘वि’ का अर्थ इस भाँति है-यह उपसर्ग है, जो विशेष, निषेध तथा वैरूप्य (विरूपता, कदर्य्यता, क्षुद्रता) के अर्थ में शब्दों के पहले लगाया जाता है। -और विकर्म का अर्थ ‘दुराचार’ है।
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 4 श्लोक 17 में कर्म, विकर्म और अकर्म को जानने के लिए कहा गया है। वहाँ प्रसंगानुसार ‘विकर्म’ का जो अर्थ श्रीशंकराचार्यजी महाराज, श्रीरामानुजाचार्यजी महाराज, श्री बालगंगाधर तिलकजी महाराज और श्रीमहात्मा गाँधीजी महाराज ने बताया है, मुझे वही ठीक जँचता है; क्योंकि कर्म-ज्ञान के लिए सर्वप्रथम विधिकर्म और निषिद्ध कर्म (दोनों ही) का ज्ञान होना आवश्यक है। गोस्वामी तुलसीदाजी महाराज भी यही कहते हैं-
‘विधि निषेध मय कलिमल हरनी ।
करम कथा रविनन्दिनि बरनी ।।’
(रामचरितमानस)
केवल विधि (वैध) कर्म का ही ज्ञान हो, निषिद्ध (अवैध) कर्म का ज्ञान नहीं हो और ‘विकर्म’ का अर्थ विशेष कर्म करके निषिद्ध कर्म के जानने और बताने की आवश्यकता नहीं समझी जाय, तो कर्म का ज्ञान अवश्य अपूर्ण रहेगा। ऐसी अवस्था में यदि कोई निषिद्ध कर्मों (चोरी-डकैती आदि) को ही पूरा मन लगाकर करे तो ये कर्म उक्त कथनानुसार विकर्म (विशेष कर्म) हो जाएँगे और ऐसे विकर्म (विशेष कर्म) अवश्य ही महा अनिष्टकर होंगे। यदि कहा जाय कि कर्म में अकर्म (अर्थात् अहंकार और फल-आश त्याग कर कर्म करना) विधि-कर्म है तथा अकर्म में कर्म (अर्थात् बाहर से कर्म-शून्यता और अन्तर में मानस कर्मों को करना) निषिद्ध कर्म है, तो जानना चाहिए कि बाहर से कर्म-शून्यता और अन्तर में सद्विचार तथा ब्रह्म-चिन्तन में संलग्नता, अकर्म में कर्म होते हुए भी, निषिद्ध कर्म कदापि नहीं है। बाहर में परोपकारादि शुभ कार्य और निज कर्तव्य करने का कर्म और अन्तर में ईश-स्मरण (यथा-‘मामनुस्मर युद्ध्य च’, गीता अ0 8, श्लोक 7)-यद्यपि यहाँ बाहरी कर्म से मन का मेल पूरा-पूरा ठीक मिला नहीं है (अर्थात् बाहरी कर्म के साथ ‘विकर्म’ का अर्थ विशेष कर्म करनेवाले के अनुकूल नहीं है), तो भी ऐसे कर्म को निषिद्ध कर्म नहीं कह सकते। इस हेतु भगवद्गीता के उक्त श्लोक में जो कर्म-ज्ञान का आदेश है, उसमें निषिद्ध कर्म को ही विकर्म कहा गया है, ऐसा जान पड़ता है।
विकर्मी (निषिद्ध कर्म का कर्मी) होने से बचा रहकर, कर्मी में अकर्मी (कर्तव्य कर्म बाह्य इन्द्रियों से करते हुए मन से उस कर्म के करने का अहंकार और कर्म-फल का त्याग) रहकर और अकर्मी में कर्मी (बाहर से अकर्मी और मन से कर्मी) रहने का दम्भ छोड़कर, कर्मयोग के सहित परमात्म-भक्ति का साधन ठीक बनेगा।
इस अध्याय में बताये गये यज्ञों द्वारा यह साधन क्रमशः पूर्णता की ओर चलते-चलते समाप्त हो जायेगा।
केवल बुद्धि शक्ति से ही मोक्ष का यह साधन समाप्त होने योग्य नहीं है। यह ब्रह्मनिर्वाण प्राप्त करने वा परम मोक्ष वा प्रत्यक्ष-अपरोक्ष आत्म-ज्ञान जीते-जी पा लेने पर ही कोई पूर्ण कर्मयोगी वा संन्यासी वा स्थितप्रज्ञ वा समत्व-प्राप्त पुरूष वा सन्त कहलाने का अधिकारी हो सकता है।
जो कर्म में अकर्मी होने का और विकर्म के त्याग का प्रयास आरम्भ करके उसमें आगे बढ़ता जाता है, वह सांसारिक भोगों से अनासक्त होता जाता है। उससे उपर्युक्त साधन बनते-बनते पूर्णरूप से बन जाता है और अनासक्त रहने के कारण, संसार में भी वह शान्ति से रह सकता है।
अध्याय 2, श्लोक 53 में तो स्पष्ट ही कहा गया है कि समाधिमें बुद्धि (प्रज्ञा) जब स्थिर होगी, तब समत्व प्राप्त होगा। जब जिसकी बुद्धि अर्थात् प्रज्ञा स्थिर होती है, तब वह स्थितप्रज्ञ होता है और तभी वह समत्व-प्राप्त पुरूष होता है। चाहे स्थितप्रज्ञ कहो वा समत्व-प्राप्त पुरूष कहो, एक ही बात है। गीता के अनुसार ऐसा ही पुरूष पूर्ण कर्मयोगी होता है; परन्तु गीता कहती है कि समाधि में ही यह दशा प्राप्त होती है। तब समाधि प्राप्त करने का साधन छोड़कर केवल बुद्धिबल से ही इस दशा में आने का प्रयास गीता के प्रतिकूल ही नहीं, वरन् अयुक्त और असम्भव भी है। समाधि-साधन का तिरस्कार कर ‘केवल बुद्धि-बल के प्रयास से ही समत्व वा स्थितप्रज्ञता को प्राप्त कर लेना गीता के अनुकूल है’-ऐसा कहना मिथ्यावाद के अतिरिक्त और हो ही क्या सकता है? हाँ, ऐसा कहना कि बुद्धि-बल से ओर समाधि के साधन से-दोनों से समत्व प्राप्त करने का गीता का आदेश है, यह पूर्णरूप से गीता-ज्ञान के अनुकूल मानना पड़ेगा। विकर्मी होने से बचते हुए, कर्म में अकर्मी रहने के भाव को बुद्धिबल से बढ़ाते रहो और साथ-ही-साथ समाधि का भी अभ्यास करते रहो, तो अन्त में पूर्ण कर्मयोगी बनकर ब्रह्मनिर्वाण जीते-जी प्राप्त कर लोगे। श्रीगीताजी का यही सच्चा उपदेश है।
कोई यह कहते हैं कि ‘वि’ का अर्थ जब विशेष है तो ‘विकर्म’ का अर्थ विशेष कर्म होगा ही और विकर्म के लिए निम्नोक्त प्रकार के अर्थों को जानना चाहिए। (1) ‘कर्म का अर्थ है स्वधर्माचरण की बाहरी स्थूल किया। इस बाहरी किया में चित्त को लगाना ही विकर्म है। स्वधर्माचरण-रूपी कर्म करते हुए यदि मन का विकर्म उसमें नहीं जुड़ा है, तो उसे धोखा समझना चाहिए।’ (2) ‘कर्म के साथ मन का मेल होना चाहिए। इस मन को ही गीता ‘विकर्म’ कहती है।’ (3) ‘कर्म में विकर्म उड़ेलने से अकर्म होता है। कर्म में विकर्म डाल देने से वह अकर्म हो जाता है मानो कर्म को करके पिफ़र उसे पोंछ दिया हो,’ इत्यादि। अब प्रत्येक संख्या के अर्थ पर विचार करना आवश्यक है।
(1) ‘कर्म’ का अर्थ ‘स्वधर्माचरण की बाहरी स्थूल किया’ यदि कोई कहता है तो यह उसका केवल अपना अर्थ है, सबके माननेयोग्य यह अर्थ नहीं है। जिस धर्माचरण में केवल बाहरी ही कर्म, मन के मेल के बिना ही होता है, उसको आडम्बरी कर्म कहना चाहिए, न कि यथार्थ में धर्मा-चरण-कर्म। क्या धर्माचरण-कर्म की यह परिभाषा है कि बिना मन के योग के केवल बाह्य आडम्बरी कर्म करना? कदापि नहीं। मन का योग तो धर्माचरण-कर्म में होना ही चाहिए। तभी वह धर्माचरण कह ही नहीं सकते; क्योंकि धर्म का मूल सत्य है और बिना मन के मेल के धर्म-कर्म में सत्यता नहीं है। धर्माचरण-कर्म में मन का मेल रखना ही पड़ेगा। कोई भी कर्म बिना मन के योग के पूर्ण रूप से ठीक नहीं बन सकता। यथार्थ में जो कुछ किया जाय, उसे कर्म कहते हैं। उसमें (क) धर्माचरण-कर्म वह है, जिसे विधि कर्म अर्थात् धर्म-शास्त्रेक्त कर्तव्य कर्म कहते हैं और (ख) निषिद्ध कर्म वह है, जिसे अधर्माचरण-कर्म अर्थात् धर्मशास्त्र से मना किया हुआ अकर्तव्य कर्म कहते हैं। इसको ही भगवद्गीता में ‘विकर्म’ की संज्ञा दी गई है। क्या धर्मशास्त्र, धर्माचरण-कर्म बिना मन के योग के ही करने की आज्ञा देता है? इसका उत्तर सिवा ‘नही’ के ‘हाँ’ नही हो सकता।
(2) ‘कर्म के साथ मन के मेल को गीता ‘विकर्म’ कहती है।’
श्रीशंकराचार्यजी महाराज, रीरामानुजाचार्यजी महाराज, लोकमान्य बालगंगाधर तिलकजी महाराज और महात्मा गाँधीजी महाराज ने गीता के अपने-अपने अर्थों में यह नहीं बतलाया है कि उपर्युक्त बात को गीता ‘विकर्म’ कहती है। उन बड़े लोगों को भी ‘विकर्म’ का अर्थ विशेष कर्म अवश्य ज्ञात होगा; परन्तु गीता में जहाँ कर्म, विकर्म और अकर्म के बारे में कहा गया है, वहाँ ‘विकर्म’ का अर्थ ‘विशेष कर्म’ कहना उनको नहीं जँचा। कर्म-प्रसंग में निषिद्ध कर्म को जानना और जनाना उन्हें आवश्यक जान पड़ा। स्वयं गीता अपने अध्याय 4, श्लोक 20 में कहती है-

त्यक्त्वा कर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृतोऽपि नैव किंचितकरोति सः।।

अर्थ-कर्मफल की आसक्ति छोड़कर जो सदा तृप्त और निराश्रय है, (अर्थात् जो पुरूष कर्मफल के साधन की आश्रयभूत ऐसी बुद्धि नहीं रखता कि अमुक कार्य की सिद्धि के लिए अमुक काम करता हूँ।) कहना चाहिए कि वह कर्म करने में निमग्न रहने पर भी कुछ नहीं करता।
-लोकमान्य बालगंगाधर तिलक
‘जिसने कर्मफल का त्याग किया है, जो सदा सन्तुष्ट रहता है, जिसे किसी आश्रय की लालसा नहीं है, वह कर्म में अच्छी तरह लगा रहने पर भी कुछ नहीं करता, ऐसा कहा जा सकता है।’ -महात्मा गाँधी। (रेखांकण इस लेखक का है) इसके द्वारा गीता कर्म में निमग्न रहने वा अच्छी तरह लगे रहने अर्थात् अत्यन्त मनोयोग से कर्म करने कहती है। पर यहाँ मन लगाकर कर्म करने के लिए ‘विकर्म’ शब्द का प्रयोग नहीं करती है। इससे यहाँ अच्छी तरह प्रगट होता है कि गीता ‘कर्म के साथ मन के मेल’ को ‘विकर्म’ कदापि नहीं कहती है।
(3) ‘कर्म में विकर्म उड़ेलने से अकर्म होता है। कर्म में विकर्म डाल देने से वह अकर्म हो जाता है, मानो कर्म करके फिर उसे पोंछ दिया हो।’
ऐसा क्यों? इसको युक्ति-युक्त रीति से कि ‘मनोयोग से कर्म करने पर वह अकर्म क्यों हो जाता है, ‘समझायें बिना ही ठीक नहीं है। पूर्ण मनोयोग से किया हुआ कर्म अकर्म हो जाएगा, यह मानने योग्य नहीं है। प्रथम तो ‘विकर्म’ का अर्थ ‘मनोयोगयुक्त कर्म’ लगाना भगवद्गीता के अनुकूल नहीं है। तब भगवद्गीता के आधार पर उपर्युक्त बातें कहनी पूर्णरूपेण असंगत है।


4 नाम का तेल सुरत की बाती, ब्रह्म अग्नि उद्गार रे।
जगमग जोत निहारू मन्दिर में, तन मन धन सब वारू रे।।
(कबीर साहब)


5 अणिमादि सिद्धियों के प्रलोभनों को हवन करते हैं।


6 अपान में प्राणवायु को, प्राण में अपान को होमना; दोनों का अवरोध करना, प्राणों को प्राण में होमना तथा शब्दादि विषयों को इन्द्रियाग्नि में होमना; ये सब समाधि के साधन हैं। आगे इन साधनों पर यथासम्भव प्रकाश डाला जाएगा। ये विशेष रूप से गुरुगम्य है।
प्राण एवं प्राणवायु दोनों ही दृष्टियोग के अभ्यास से रुकते हैं।
द्वादशांकुल पर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे।
संविद्दृशि प्रशाम्यन्त्यां प्राणस्पन्दो निरुध्यते।।32।।

भ्रूमध्ये तारकालोकशान्तावन्तमुपागते।
चेतनैकतने बद्धे प्राणस्पन्दो निरुध्यते।।33।।

चिरकालं हृदेकान्तव्योम संवेदनान्मुने।
अवासनमनोध्यानात्प्राणस्पन्दो निरुध्यते।।34।।
(शाण्डिल्योपनिषद्)
अर्थ-‘जब संवित् (सुरत) नासाग्र से बारह अंगुल पर स्वच्छ आकाश में स्थिर हो, तो प्राण का स्पन्दन रुद्ध हो जाता है।’
‘जब चेतन (सुरत) भौंओ के बीच के तारकलोक में पहुँचकर स्थिर होता है, तो प्राण की गति बन्द हो जाती है।’
‘हृदयाकाश में संकल्प-विकल्प-रहित और वासनाहीन मन से बहुत दिनों तक ध्यान करने से प्राण की गति रूक जाती है।’
उपनिषद् के इन वाक्यों का यदि कोई विश्वास नहीं करे तो उसे वर्णित साधन करके देखना चाहिए। प्राण के स्थिर होने पर, प्राण में अपान, अपान में प्राण का हवन होगा। दृष्टियोग-ध्यान से यह यज्ञ, प्राणायाम के कष्ट के बिना ही हो जाएगा। यह कहा जा सकता है कि दृष्टियोग-ध्यान-साधन प्राणायाम करने का सुगम और निरापद साधन है।
मण्डल-ब्राह्मणोपनिषद् के ब्राह्मण 2 में शाम्भवी मुद्रा और नासाग्र का लक्ष्य बतलाकर दृष्टियोग-साधन ही बताया है तथा इसके गुणों का वर्णन करते हुए कहा है कि-तद्भ्यासान्मनः स्थैर्यम्। ततोः वायु-स्थैर्यम्।’ अर्थात् ‘उसके अभ्यास से मन की स्थिरता आती है। इससे वायु स्थिर होता है।


7 चेतन आत्मा को भी प्राण कहते हैं। देखो प्रश्नोपनिषद्, प्रश्न 6 का शांकर भाष्य।


8 इस होम में सुषुम्न-विन्दु हवन-कुण्ड है, युगल नेत्रें की चेतनधाराएँ अरणि वा समिधा हैं और सब इन्द्रियों की चेतन-धाराएँ हवि हैं, ऐसा जानना चाहिए।


9 योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशयजी की संस्था की ‘योग-संगीत’ नामक पुस्तिका में इसी आशय का निम्नलिखित पद्य है-
आनन्दे आनन्द बाड़े प्रति क्षण,
दशेन्द्रिय थाके शून्ये ते बन्धन।
रिपुचय पराजय, सकलि आनन्दमय,
अनुभव मात्र रय, आर सब पाय लय,
जेमन जीवने जीवन थाके ना।।
और-तीन दिन परे त्रिगुणेर परे,
श्रोतेर जलेते डूबिल प्रतिमा।
दशमीर दशा ए दशम दशा,
कि बले बुझाव बुझाते पारि ना।।
पार्वती चले गेलेन कैलाशे,
मिशेछेन सती कूटस्थ पुरुषे।
सुखे कि दुखे ते विषादे हरषे,
के आमी आमार मनेइ आसे ना।।
इन पद्यों में वर्णित कर्म भी उपर्युक्त यौगिक होम से ही होता है।
जो परोपकार से बचे हुए धन को अपने काम में लाता है और दूसरे सब उक्त यज्ञों को करता है, वह सनातन ब्रह्म को निःसंशय प्राप्त करेगा। इन्द्रियाग्नि में शब्दादि विषयों को होमने को कुछ लोग भजनादि सुनना बताते हैं; परन्तु शब्दादि पंच विषयों को परमात्म-सम्बन्धी भक्ति-भाव में लाकर उन-उन विषयों को इन्द्रियों से युक्त कर देना होता है। इस तरह इन्द्रियाग्नि में विषयों को होमकर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति हो, सम्भव नहीं है। इस यज्ञ का दूसरा प्रकार सूक्ष्म है। वह यह है कि इन्द्रियगत चेतन-धारों को क्रिया-विशेष द्वारा अपने अन्दर में समेटकर, उन्हें एक बना, बाह्य इन्द्रियों से ऊपर रहकर ब्रह्म-ज्योति का दर्शन करो। अनहद नादों को सुनो, तत्सम्बन्धी आन्तरिक रस का आस्वादन करो, चेतन-धार के चेतन-धार से मिलन के स्पर्श-सुख से सुखी होओ, वा परा प्रकृति-रूप जीव को अपरा और परा प्रकृतियों के स्वामी क्षराक्षर पुरूष-पर पुरुषोत्तम से मिलाओ और तत्सम्बन्धी स्पर्शसुख भोगो। तुरीयावस्था में मिलनेवाली देव-दुर्लभ दिव्य गन्ध को प्राप्त करो। ऐसा होता है; इसके लिये संतवाणी सुनो-
श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै।
रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै।।
नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै।
अंग बिना मिली संग, बहुत आनन्द बढ़ावै।।
बिनु शीश नवै जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिये रहै।।
मिलि परमातम सों आतमा, परा भक्ति ‘सुन्दर’ कहै।।
(सुन्दरदासजी)
भजन में होत आनन्द आनन्द।
बरसत विशद अमी के बादर, भीजत है कोइ सन्त।।
अगर बास जहँ तत की नदिया, मानो धारा गंग।
कर स्नान मगन हो बैठो, चढ़त शब्द के रंग।।
(कबीर साहब)
विमल विमल बानी उठै, अदबुद असमाना हो।
निर्मल बास निवास में, कर कर कोइ जाना हो।।
दूसरा पाठ-
निशि बासर जहाँ अगर बहे---------।
(तुलसी साहब)
द्वादस इंगला पिंगला जाय।
परिमल बास अग्र तहँ पाय।।
(दरिया साहब, बिहारी)
वे जो केवल मोटे और बाहरी विचारों में लगे हुए हैं, तथा मानसिक और बौद्धिक साधन में अनुरक्त हैं, उन्हें सन्त-साधना में लीन किसी योग्य पुरुष से बिना जिज्ञासा किये, उपर्युक्त गूढ़ रहस्य की जानकारी नहीं हो सकती है। बाहरी भाववालों ने तो यहाँ तक किया कि स्पर्श-विषय को इन्द्रियाग्नि में होमने के लिए अपने को गोपी, सखी वा पत्नी भाव में (यहाँ तक कि वेश-भूषा में भी) लाया। यह नहीं कि कबीर साहब आदि सन्तों ने अपने को, सुखी वा पत्नी भाव में अपने भजनों में नहीं वर्णित किया है; परन्तु उनका भाव बहुत उच्च और अत्यन्त पवित्र है। उनके भजनों से जानने में आता है; यथा-
सखिया वा घर सब से न्यारा, जहँ पूरन पुरुष हमारा ।।टेक।।
जहँ नहिं सुख दुख साँच झूठ नहिं, पाप न पुन्न पसारा।
नहिं दिन रैन चन्द नहिं सूरज, बिना ज्योति उजियारा।।
(कबीर साहब)
‘हिय नैन सैन सुचैन सुन्दरि साजि श्रुति पिउ पै चली।
गिरि गवन गोह गुहारि मारग चढ़त गढ़ गगना गली।।’
‘आली पार पलंग बिछाइ पल पल ललक पिउ सुख पावहीं।
खुस खेल मेल मिलाप पिउ कर पकरि कंठ लगावहीं।।
रस रीति जीति जनाइ आसिक इश्क रस बस ले रही।
पति पुरुष सेज सँवारि सजनी अजब आली सुख का कही।
मुख बैन कहनि न सैन आवै चैन चौज चिन्हावहीं।
आली सन्त अन्त अतन्त जानै बूझि समझि सुनावहीं।।
जिन चीन्हि तन मन सुरत साधी भवन भीतर लख लई।
जिन गाइ शब्द सुनाइ साखी भेद भाषा भिनि भई।।
आली अलख अण्ड न खलक खंडा पलक पट घट-घट कही।
तुलसी तोल बोल अबोल बानी बूझि लखि बिरले लई।।’
(तुलसी साहब)
श्रीमद्भागवत के स्कन्ध 10, अध्याय 29, श्लोक 11 में गोपियों के भाव के लिए यह लिखा है-‘उनका (गोपियों का) श्रीकृष्ण के प्रति भगवद्भाव नहीं था, जार-भाव था, परन्तु कहीं सत्य वस्तु भी भाव की अपेक्षा रखती है? उन्होंने जिनका आलिंगन किया, चाहे किसी भी भाव से किया हो, वे स्वयं परमात्मा ही तो थे। इसलिए उन्होंने पाप और पुण्य-रूप कर्म के परिणाम से बने हुए गुणमय शरीर का परित्याग कर दिया। भगवान की लीला में सम्मिलित होने योग्य दिव्य अप्राकृत शरीर प्राप्त कर लिया। इस शरीर में भोगे जानेवाले कर्मबन्धन तो ध्यान के समय ही छिन्न-भिन्न हो चुके थे।
(श्री भागवत सुधासागर, गीता प्रेस, गोरखपुर)
परन्तु कुब्जा के लिए दूसरा ही लिखा है-‘भगवान श्रीकृष्ण सच्दिानन्दस्वरूप होने पर भी, लोकाचार का अनुकरण करते हुए, तुरन्त उस (कुब्जा) की बहुमूल्य सेज पर जा बैठे। तब कुब्जा------अपने को खूब सजाकर लीलामयी लजीली मुसकान तथा हाव-भाव के साथ भगवान की ओर देखती हुई उनके पास आई। कुब्जा नवीन मिलन के संकोच से कुछ झिझक रही थी। तब श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ने उसे अपने पास बुला लिया और उसकी कंकण से सुशोभित कलाई पकड़कर अपने पास बैठा लिया और उसके साथ क्रीड़ा करने लगे---- ---- परन्तु उस दुर्भागा ने उन्हें प्राप्त करके भी वज्र-गोपियों की भाँति सेवा न माँगकर यही माँगा-‘प्रियतम! आप कुछ दिन यहीं रहकर मेरे साथ क्रीड़ा कीजिये; क्योंकि हे कमलनयन! मुझसे आपका साथ नहीं छोड़ा जाता। ---- ---- उन्होंने (श्रीकृष्ण ने) अभीष्ट वर देकर उसकी पूजा स्वीकार की।’
(श्रीभागवत सुधासागर, गीता प्रेस, गो0, स्क- 10, अ0 48, श्लोक 4-10तक)
कुब्जा को गोपियों की तरह बुद्धि नहीं हुई, ऐसा क्यों?-समझ में नहीं आता है। फिर जब द्वारिका से, श्रीबलरामजी व्रज में एक बार वहाँ के सब लोगों से मिलने आये थे, तब उनकी क्रीड़ा के बारे में ऐसा लिखा है-‘बलरामजी ने गोपियों के साथ वारुणि का पान किया ।।20।। जैसे गजराज हथनियों के साथ क्रीड़ा करता है, वैसे ही गोपियों के साथ जल-क्रीड़ा करने लगे।।28।।
(श्री भा0 सु0, गीता प्रेस, गोरखपुर, स्क0 10, अ0 65)
श्रीकृष्ण भगवान की गोपियों और कुब्जा के साथ क्रीड़ा का वर्णन जिनको इच्छा हो, स्वयं श्रीमद्भागवत में पढ़ें। पुनः श्रीबलरामजी की गोपियों के साथ क्रीड़ा का भी वर्णन श्रीमद्भागवत पढ़कर जानें। श्रीमद्भागवत में लिखित इन क्रीड़ाओं का पूरा वर्णन लिखना मुझे नहीं सुहाता।
भगवान के आलिंगन के विशेष गुण का प्रभाव गोपियों पर हुआ। उनके पाप और पुण्यरूप कर्म के परिणाम से बने हुए गुणमय शरीर का परित्याग हुआ और उन्होंने भगवान की लीला में सम्मिलित होनेयोग्य अप्राकृत शरीर प्राप्त कर लिया। गोपियों के प्राकृत शरीर से भोगे जानेवाले कर्म-बन्धन तो ध्यान के समय ही छिन्न-भिन्न हो चुके थे। ऐसा श्रीभगवान के आलिंगन का उपर्युक्त विशेष प्रभाव कुब्जा पर नहीं हुआ। तभी तो उनको ‘अभागा’ श्रीमद्भागवत में लिखा गया है। यदि यह कहा जाय कि गोपियाँ भगवान के प्रति प्रथम जार-भाव के अतिरिक्त और कोई विशेष भाव रखती थीं, जो कुब्जा नहीं रखती थी, तो भागवत में वहीं पर यह लिखा है कि-‘कहीं सत्य वस्तु भी भाव की अपेक्षा रखती है? उन्होंने जिनका आलिंगन किया, चाहे किसी भी भाव से किया हो, वे स्वयं परमात्मा ही तो थे।’ भगवान के इस प्रभाव से कुब्जा को भी गोपी ही की तरह होना चाहिये था, सो नहीं हुआ। गोपियाँ पुनः श्रीबलरामजी की क्रीड़ा में भी सम्मिलित हुई। तब भी उनके अप्राकृत शरीर ही रहे होंगे। क्या अप्राकृत शरीर इन्द्रिय-गोचर होता है? अप्राकृत पदार्थ का इन्द्रिय-गोचर होना असम्भव है। श्रीमद्भागवत के ऐसे वर्णनों को पढ़कर मैं आश्चर्य्यित होता हूँ।
इन मोटे और बाहरी भावों से बचे रहकर, सन्तों के बताये आन्तरिक और सूक्ष्म भावों की ही ओर लोगों का लगना उचित है।
यज्ञ से बचे हुए भोजन के विषय में यह और विशेष जानना चाहिये कि अन्तर-साधन-काल में, तत्सम्बन्धी यज्ञ में प्राप्त सुख का प्रभाव, साधन छोड़कर बाहरी कर्मों में बरतते समय भी रहता है। उसमें (बाह्य कर्म में) पडे रहने में भी उसका भोग होता रहता है। इसके भोगने को ‘यज्ञ से बचे हुए का भोजन करना’ कहना चाहिये। उक्त प्रकार के अभ्यासी वा याज्ञिक को ही आत्मपरायणता या ब्रह्मपरायणता, समत्व-योग, समत्व-बुद्धि, आत्मा द्वारा आत्मा में सन्तुष्टि, स्थितप्रज्ञता, संयमशीलता, ब्राह्मी स्थिति, विकारशून्यता, कर्म करते हुए कर्मों में अलिप्तता और ज्ञानी भक्त होने का गुण तथा शम-दम आदि गीता में वर्णित मोक्षदायक सब उच्च गुण प्राप्त हों, यही सम्भव है।
इन विषयों को प्रकाशित किये बिना ‘गीता-ज्ञान’ का सार छिपा रहेगा और सार-रहित ‘गीता-ज्ञान’ के प्रचार से संसार की हानि होगी।
यज्ञों का वर्णन करते हुए गीता में तप का भी आदेश है। गीता में वर्णित सब याज्ञिकों को तपी और उनके कर्मों को तप कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा। इसके अतिरिक्त जो-जो तप जो करना चाहें और जिनसे जो बन सके, सो करें। और
न तपस्तप इत्याहुब्रह्मचर्य तपोत्तमम्।
ऊर्ध्वरेता भवेद्यस्तु स देवो न तु मानुषः।।
(ज्ञानसंकलिनी तन्त्र)
अर्थ-तप को तप नहीं कहते हैं, ब्रह्मचर्यानुष्ठान ही तपस्या कहकर विशेष प्रसिद्ध किया गया है। जो मनुष्य ऊर्ध्वरेता हैं, वे देव-तुल्य कहे गये हैं।

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अध्याय ४ - ज्ञान कर्म सन्यास योग
(कर्म-अकर्म और विकर्म का निरुपण)
श्री भगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌ ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌ ॥ (१)

भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - मैंने इस अविनाशी योग-विधा का उपदेश सृष्टि के आरम्भ में विवस्वान (सूर्य देव) को दिया था, विवस्वान ने यह उपदेश अपने पुत्र मनुष्यों के जन्म-दाता मनु को दिया और मनु ने यह उपदेश अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु को दिया। (१)

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥ (२)

भावार्थ : हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार गुरु-शिष्य परम्परा से प्राप्त इस विज्ञान सहित ज्ञान को राज-ऋषियों ने बिधि-पूर्वक समझा, किन्तु समय के प्रभाव से वह परम-श्रेष्ठ विज्ञान सहित ज्ञान इस संसार से प्राय: छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो गया। (२)

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्‌ ॥ (३)

भावार्थ : आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग (आत्मा का परमात्मा से मिलन का विज्ञान) तुझसे कहा जा रहा है क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय मित्र भी है, अत: तू ही इस उत्तम रहस्य को समझ सकता है। (३)

अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥ (४)

भावार्थ : अर्जुन ने कहा - सूर्य देव का जन्म तो सृष्टि के प्रारम्भ हुआ है और आपका जन्म तो अब हुआ है, तो फ़िर मैं कैसे समूझँ कि सृष्टि के आरम्भ में आपने ही इस योग का उपदेश दिया था? (४)

श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥ (५)

भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे अनेकों जन्म हो चुके हैं, मुझे तो वह सभी जन्म याद है लेकिन तुझे कुछ भी याद नही है। (५)

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्‌ ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥ (६)

भावार्थ : यधपि मैं अजन्मा और अविनाशी समस्त जीवात्माओं का परमेश्वर (स्वामी) होते हुए भी अपनी अपरा-प्रकृति (महा-माया) को अधीन करके अपनी परा-प्रकृति (योग-माया) से प्रकट होता हूँ। (६)

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥ (७)

भावार्थ : हे भारत! जब भी और जहाँ भी धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब मैं अपने स्वरूप को प्रकट करता हूँ। (७)

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ (८)

भावार्थ : भक्तों का उद्धार करने के लिए, दुष्टों का सम्पूर्ण विनाश करने के लिए तथा धर्म की फ़िर से स्थापना करने के लिए मैं प्रत्येक युग में प्रकट होता हूँ। (८)

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः ।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ (९)

भावार्थ : हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य (अलौकिक) हैं, इस प्रकार जो कोई वास्तविक स्वरूप से मुझे जानता है, वह शरीर को त्याग कर इस संसार मे फ़िर से जन्म को प्राप्त नही होता है, बल्कि मुझे अर्थात मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है। (९)

वीतरागभय क्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥ (१०)

भावार्थ : आसक्ति, भय तथा क्रोध से सर्वथा मुक्त होकर, अनन्य-भाव (शुद्द भक्ति-भाव) से मेरी शरणागत होकर बहुत से मनुष्य मेरे इस ज्ञान से पवित्र होकर तप द्वारा मुझे अपने-भाव से मेरे-भाव को प्राप्त कर चुके हैं। (१०)

ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्‌ ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ (११)

भावार्थ : हे पृथापुत्र! जो मनुष्य जिस भाव से मेरी शरण ग्रहण करता हैं, मैं भी उसी भाव के अनुरुप उनको फ़ल देता हूँ, प्रत्येक मनुष्य सभी प्रकार से मेरे ही पथ का अनुगमन करते हैं। (११)

काङ्‍क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥ (१२)

भावार्थ : इस संसार में मनुष्य फल की इच्छा से (सकाम-कर्म) यज्ञ करते है और फ़ल की प्राप्ति के लिये वह देवताओं की पूजा करते हैं, उन मनुष्यों को उन कर्मों का फ़ल इसी संसार में निश्चित रूप से शीघ्र प्राप्त हो जाता है। (१२)

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌ ॥ (१३)

भावार्थ : प्रकृति के तीन गुणों (सत, रज, तम) के आधार पर कर्म को चार विभागों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) में मेरे द्वारा रचा गया, इस प्रकार मानव समाज की कभी न बदलने वाली व्यवस्था का कर्ता होने पर भी तू मुझे अकर्ता ही समझ। (१३)

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥ (१४)

भावार्थ : कर्म के फल में मेरी आसक्ति न होने के कारण कर्म मेरे लिये बन्धन उत्पन्न नहीं कर पाते हैं, इस प्रकार से जो मुझे जान लेता है, उस मनुष्य के कर्म भी उसके लिये कभी बन्धन उत्पन्न नही करते हैं। (१४)

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्‌ ॥ (१५)

भावार्थ : पूर्व समय में भी सभी प्रकार के कर्म-बन्धन से मुक्त होने की इच्छा वाले मनुष्यों ने मेरी इस दिव्य प्रकृति को समझकर कर्तव्य-कर्म करके मोक्ष की प्राप्ति की, इसलिए तू भी उन्ही का अनुसरण करके अपने कर्तव्य का पालन कर। (१५)

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌॥ (१६)

भावार्थ : कर्म क्या है और अकर्म क्या है, इस विषय में बडे से बडे बुद्धिमान मनुष्य भी मोहग्रस्त रहते हैं, इसलिए उन कर्म को मैं तुझे भली-भाँति समझा कर कहूँगा, जिसे जानकर तू संसार के कर्म-बंधन से मुक्त हो सकेगा। (१६)

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥ (१७)

भावार्थ : कर्म को भी समझना चाहिए तथा अकर्म को भी समझना चाहिए और विकर्म को भी समझना चाहिए क्योंकि कर्म की सूक्ष्मता को समझना अत्यन्त कठिन है। (१७)

कर्मण्य कर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्‌ ॥ (१८)

भावार्थ : जो मनुष्य कर्म में अकर्म (शरीर को कर्ता न समझकर आत्मा को कर्ता) देखता है और जो मनुष्य अकर्म में कर्म (आत्मा को कर्ता न समझकर प्रकृति को कर्ता) देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह मनुष्य समस्त कर्मों को करते हुये भी सांसारिक कर्मफ़लों से मुक्त रहता है। (१८)


(महापुरुषों का आचरण)
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ॥ (१९)

भावार्थ : जिस मनुष्य के निश्चय किये हुए सभी कार्य बिना फ़ल की इच्छा के पूरी लगन से सम्पन्न होते हैं तथा जिसके सभी कर्म ज्ञान-रूपी अग्नि में भस्म हो गए हैं, बुद्धिमान लोग उस महापुरुष को पूर्ण-ज्ञानी कहते हैं। (१९)

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः ॥ (२०)

भावार्थ : जो मनुष्य अपने सभी कर्म-फलों की आसक्ति का त्याग करके सदैव सन्तुष्ट तथा स्वतन्त्र रहकर कार्यों में पूर्ण व्यस्त होते हुए भी वह मनुष्य निश्चित रूप से कुछ भी नहीं करता है। (२०)

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌ ॥ (२१)

भावार्थ : जिस मनुष्य ने सभी प्रकार के कर्म-फ़लों की आसक्ति और सभी प्रकार की सम्पत्ति के स्वामित्व का त्याग कर दिया है, ऎसा शुद्ध मन तथा स्थिर बुद्धि वाला, केवल शरीर-निर्वाह के लिए कर्म करता हुआ कभी पाप-रूपी फ़लों को प्राप्त नही होता है। (२१)

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥ (२२)

भावार्थ : जो मनुष्य स्वत: प्राप्त होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो सभी द्वन्द्वो से मुक्त और किसी से ईर्ष्या नही करता है, जो सफ़लता और असफ़लता में स्थिर रहता है यधपि सभी प्रकार के कर्म करता हुआ कभी बँधता नही है। (२२)

गतसङ्‍गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥ (२३)

भावार्थ : प्रकृति के गुणों से मुक्त हुआ तथा ब्रह्म-ज्ञान में पूर्ण रूप से स्थित और अच्छी प्रकार से कर्म का आचरण करने वाले मनुष्य के सभी कर्म ज्ञान रूप ब्रह्म में पूर्ण रूप से विलीन हो जाते हैं। (२३)


(यज्ञ और यज्ञ-फ़ल)
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्‌ ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥ (२४)

भावार्थ : ब्रह्म-ज्ञान में स्थित उस मुक्त पुरूष का समर्पण ब्रह्म होता है, हवन की सामग्री भी ब्रह्म होती है, अग्नि भी ब्रह्म होती है, तथा ब्रह्म-रूपी अग्नि में ब्रह्म-रूपी कर्ता द्वारा जो हवन किया जाता है वह ब्रह्म ही होता है, जिसके कर्म ब्रह्म का स्पर्श करके ब्रह्म में विलीन हो चुके हैं ऎसे महापुरूष को प्राप्त होने योग्य फल भी ब्रह्म ही होता हैं। (२४)

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥ (२५)

भावार्थ : कुछ मनुष्य अनेक प्रकार के यज्ञों द्वारा देवताओं की भली-भाँति पूजा करते हैं और इस प्रकार कुछ मनुष्य परमात्मा रूपी अग्नि में ध्यान-रूपी यज्ञ द्वारा यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं। (२५)

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥ (२६)

भावार्थ : कुछ मनुष्य सभी ज्ञान-इन्द्रियों के विषयों को संयम-रूपी अग्नि में हवन करते हैं और कुछ मनुष्य इन्द्रियों के विषयों को इन्द्रिय-रूपी अग्नि में हवन करते हैं। (२६)

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥ (२७)

भावार्थ : कुछ मनुष्य सभी इन्द्रियों को वश में करके प्राण-वायु के कार्यों को मन के संयम द्वारा आत्मा को जानने की इच्छा से आत्म-योग रूपी अग्नि में हवन करते हैं। (२७)

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥ (२८)

भावार्थ : कुछ मनुष्य धन-सम्पत्ति के दान द्वारा, कुछ मनुष्य तपस्या द्वारा और कुछ मनुष्य अष्टांग योग के अभ्यास द्वारा यज्ञ करते हैं, कुछ अन्य मनुष्य वेद-शास्त्रों का अध्यन करके ज्ञान में निपुण होकर और कुछ मनुष्य कठिन व्रत धारण करके यज्ञ करते है। (२८)

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥ (२९)

भावार्थ : बहुत से मनुष्य अपान-वायु में प्राण-वायु का, उसी प्रकार प्राण-वायु में अपान-वायु का हवन करते हैं तथा अन्य मनुष्य प्राण-वायु और अपान-वायु की गति को रोक कर समाधि मे प्रवृत होते है। (२९)

अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ॥ (३०)

भावार्थ : कुछ मनुष्य भोजन को कम करके प्राण-वायु को प्राण-वायु में ही हवन किया करते हैं, ये सभी यज्ञ करने वाले यज्ञों का अर्थ जानने के कारण सभी पाप-कर्मों से मुक्त हो जाते हैं। (३०)

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्‌ ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥ (३१)

भावार्थ : हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञों के फ़ल रूपी अमृत को चखकर यह सभी योगी सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं, और यज्ञ को न करने वाले मनुष्य तो इस जीवन में भी सुख-पूर्वक नहीं रह सकते है, तो फिर अगले जीवन में कैसे सुख को प्राप्त हो सकते है? (३१)

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥ (३२)

भावार्थ : इसी प्रकार और भी अनेकों प्रकार के यज्ञ वेदों की वाणी में विस्तार से कहे गए हैं, इस तरह उन सबको कर्म से उत्पन्न होने वाले जानकर तू कर्म-बंधन से हमेशा के लिये मुक्त हो जाएगा। (३२)


(ज्ञान की महिमा)
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥ (३३)

भावार्थ : हे परंतप अर्जुन! धन-सम्पदा के द्वारा किये जाने वाले यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान-यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है तथा सभी प्रकार के कर्म ब्रह्म-ज्ञान में पूर्ण-रूप से समाप्त हो जाते हैं। (३३)

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥ (३४)

भावार्थ : यज्ञों के उस ज्ञान को तू गुरू के पास जाकर समझने का प्रयत्न कर, उनके प्रति पूर्ण-रूप से शरणागत होकर सेवा करके विनीत-भाव से जिज्ञासा करने पर वे तत्वदर्शी ब्रह्म-ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्व-ज्ञान का उपदेश करेंगे। (३४)

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भुतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥ (३५)

भावार्थ : हे पाण्डुपुत्र! उस तत्व-ज्ञान को जानकर फिर तू कभी इस प्रकार के मोह को प्राप्त नही होगा तथा इस जानकारी के द्वारा आचरण करके तू सभी प्राणीयों में अपनी ही आत्मा का प्रसार देखकर मुझ परमात्मा में प्रवेश पा सकेगा। (३५)

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥ (३६)

भावार्थ : यदि तू सभी पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू मेरे ज्ञान-रूपी नौका द्वारा निश्चित रूप से सभी प्रकार के पापों से छूटकर संसार-रूपी दुख के सागर को पार कर जाएगा। (३६)

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥ (३७)

भावार्थ : हे अर्जुन! जिस प्रकार अग्नि ईंधन को जला कर भस्म कर देती है, उसी प्रकार यह ज्ञान-रूपी अग्नि सभी सांसारिक कर्म-फ़लों को जला कर भस्म कर देती है। (३७)

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥ (३८)

भावार्थ : इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है, इस ज्ञान को तू स्वयं अपने हृदय में योग की पूर्णता के समय अपनी ही आत्मा में अनुभव करेगा। (३८)

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥ (३९)

भावार्थ : जो मनुष्य पूर्ण श्रद्धावान है और जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वही मनुष्य दिव्य-ज्ञान को प्राप्त होकर वह तत्क्षण भगवत-प्राप्ति रूपी परम-शान्ति को प्राप्त हो जाता है। (३९)

अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥ (४०)

भावार्थ : जिस मनुष्य को शास्त्रों का ज्ञान नही है, शास्त्रों पर श्रद्धा नही है और शास्त्रों को शंका की दृष्टि से देखता है वह मनुष्य निश्चित रूप से भ्रष्ट हो जाता है, इस प्रकार भ्रष्ट हुआ संशयग्रस्त मनुष्य न तो इस जीवन में और न ही अगले जीवन में सुख को प्राप्त होता है। (४०)

योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम्‌ ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥ (४१)

भावार्थ : हे धनंजय! जिस मनुष्य ने अपने समस्त कर्म के फ़लों का त्याग कर दिया है और जिसके दिव्य-ज्ञान द्वारा समस्त संशय मिट गये हैं, ऐसे आत्म-परायण मनुष्य को कर्म कभी नहीं बाँधते है। (४१)

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥ (४२)

भावार्थ : अत: हे भरतवंशी अर्जुन! तू अपने हृदय में स्थित इस अज्ञान से उत्पन्न अपने संशय को ज्ञान-रूपी शस्त्र से काट, और योग में स्थित होकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा। (४२)

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दिव्यज्ञानयोगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में दिव्यज्ञान-योग नाम का चौथा अध्याय संपूर्ण हुआ ॥

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥