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अध्याय 17
अथ श्रद्धात्रय-विभागयोग 


इस अध्याय का विषय श्रद्धात्रय-विभागयोग है।

सोलहवें अध्याय में शास्त्र या सद्ग्रन्थ के अनुकूल कर्म करने का निश्चय बतलाया गया है। इसलिए प्रश्न होता है कि जो शास्त्रविधि को छोड़कर केवल श्रद्धा से ही पूजादि कर्म करते हैं, उनकी गति कैसी होनी है-सात्त्विकी, राजसी वा तामसी?
उत्तर में कहा गया है-तीनों गणों के भिन्न-भिन्न उत्कर्ष-भाववाले भिन्न-भिन्न मनुष्य सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी होते हैं। तीनों की तीन तरह की श्रद्धाएँ होती हैं। प्रत्येक कुछ-न-कुछ स्वभाव से ही श्रद्धाशील अवश्य होता है। जिसकी जैसी श्रद्धा होती है, वह वैसा ही मनुष्य होता है।
सात्त्विक लोग देवताओं को, राजस लोग यक्षों को और तामस लोग भूत-प्रेतादि को पूजते हैं। जो पाखण्डी और अहंकारी, इच्छा और विषयासक्ति में प्रेम के बल से प्रेरित हो, शास्त्रीय विधि से रहित भयंकर तप करते हैं, वे शरीर और अन्तरात्मा को भी कष्ट देते हैं। ऐसे लोग आसुरी निश्चयवाले हैं।
आहार भी गुणानुसार होते हैं और उनका भी प्रभाव आहार करनेवालों पर होता है। उसी प्रकार यज्ञ, दान और तप के लिए भी समझना चाहिए। आयुष्य, सात्त्विकता, बल, आरोग्य, सुख और रुचि बढ़ानेवाले, रसदार चिकने, पौष्टिक और मन को प्रिय-ऐसे आहार सात्त्विक लोगों को प्रिय होते हैं। चरपरे, खट्टे, विशेष लवणयुक्त, बहुत गरम1 नीमवत् तीते, रूखे और दाहकारक आहार राजस लोगों को प्रिय होते हैं। रोटी, भात आदि बनकर पहर भर से पड़ा हुआ, उतरा हुआ अर्थात् सड़ने पर आया हुआ फल, दुर्गन्ध-युक्त, बासी, जूठा आदि अपवित्र आहार तामस लोगों के हैं। उन्हें ऐसे ही भोजन प्रिय लगते हैं।
वह सात्त्विक यज्ञ है, जो फल-आश से रहित, विधिपूर्वक, कर्तव्य जानकर और परोपकारार्थ खूब मन लगाकर किया जाता है। जो फलेच्छा से और दम्भ से किया जाता है, वह यज्ञ राजस है। विधि-विहीन, फलाश-त्याग नहीं, श्रद्धा नहीं, इस प्रकार के किए गए यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं।
देव, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानी की पूजा, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा-ये शारीरिक तप हैं। अकटु, सत्य, प्रिय और हितकर वचनों को बोलना और धर्मग्रन्थों का अभ्यास-ये वाचिक तप कहलाते हैं। मन की प्रसन्नता, सौम्यता (प्रिय स्वभावयुक्त होना), मौन, आत्म-संयम और शुद्ध भावना-ये मानसिक तप हैं। परम श्रद्धालु, फलाश-त्यागी, समत्व में रहते हुए अच्छे स्वभाव के मनुष्य उपर्युक्त तीनों प्रकार के जो तप करते हैं, उन्हें सात्त्विक तप कहते हैं। जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए पाखण्डपूर्वक होता है, वह राजस है। कष्टकर, दुराग्रह से किए हुए और दूसरे को दुःख देने के हेतु किए हुए तप को तामस तप कहा है।
जो दान देश, काल और पात्र का विचार कर उचित जँचने पर और बदला पाने की इच्छा छोड़कर दिया जाता है, वह सात्त्विक दान है। जो दान बदला पाने का लक्ष्य करके दुःख के साथ दिया जाता है, वह राजस दान है। देश, काल और पात्र का कुछ भी विचार न कर तिरस्कार करके अनादर से दिया हुआ दान तामस दान है। इस अध्याय के नाम का विषय-वर्णन गीता में यहीं तक है।

।। सप्तदश अध्याय समाप्त ।।

1 सात्त्विक आहारों में भी अल्प-अल्प छहो स्वाद होते हैं। परन्तु ये जब विशेष मात्र में होते हैं, तब सात्त्विक नहीं रहते हैं। विशेष औंटा हुआ गाय का दूध, भैंस का दूध, मत्स्य, मांस और पक्षी एवं कछुए, मछली, मुर्गी आदि सब प्रकार के अण्डजों के अण्डे गुण में बहुत गर्म हैं। ये उत्तेजक और वीर्य-रक्षा के बाधक हैं। ये सात्त्विक आहार नहीं हैं।

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अध्याय १७ - श्रद्धा त्रय विभाग योग
(स्वभाव के अनुसार श्रद्धा)

अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥ (१)
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्रों के विधान को त्यागकर पूर्ण श्रद्धा से युक्त होकर पूजा करते हैं, उनकी श्रद्धा सतोगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी या अन्य किसी प्रकार की होती है? (१)

श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु ॥ (२)
भावार्थ : श्री भगवान्‌ ने कहा - शरीर धारण करने वाले सभी मनुष्यों की श्रद्धा प्रकृति गुणों के अनुसार सात्विक, राजसी और तामसी तीन प्रकार की ही होती है, अब इसके विषय में मुझसे सुन। (२)

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥ (३)
भावार्थ : हे भरतवंशी! सभी मनुष्यों की श्रद्धा स्वभाव से उत्पन्न अर्जित गुणों के अनुसार विकसित होती है, यह मनुष्य श्रद्धा से युक्त है, जो जैसी श्रद्धा वाला होता है वह स्वयं वैसा ही होता है। (३)

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः ।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये जयन्ते तामसा जनाः ॥ (४)
भावार्थ : सात्त्विक गुणों से युक्त मनुष्य अन्य देवी-देवताओं को पूजते हैं, राजसी गुणों से युक्त मनुष्य यक्ष और राक्षसों को पूजते हैं और अन्य तामसी गुणों से युक्त मनुष्य भूत-प्रेत आदि को पूजते हैं। (४)

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः ।
दम्भाहङ्‍कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ॥ (५)
भावार्थ : जो मनुष्य शास्त्रों के विधान के विरुद्ध अपनी कल्पना द्वारा व्रत धारण करके कठोर तपस्या करतें हैं, ऎसे घमण्डी मनुष्य कामनाओं, आसक्ति और बल के अहंकार से प्रेरित होते हैं। (५)

कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः ।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्‌यासुरनिश्चयान्‌ ॥ (६)
भावार्थ : ऎसे भ्रमित बुद्धि वाले मनुष्य शरीर के अन्दर स्थित जीवों के समूह और हृदय में स्थित मुझ परमात्मा को भी कष्ट देने वाले होते हैं, उन सभी अज्ञानियों को तू निश्चित रूप से असुर ही समझ। (६)


(स्वभाव के अनुसार आहार, यज्ञ, तप और दान)

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः ।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु ॥ (७)
भावार्थ : हे अर्जुन! सभी मनुष्यों का भोजन भी प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है, और यज्ञ, तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं, इनके भेदों को तू मुझ से सुन। (७)

आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः ।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥ (८)
भावार्थ : जो भोजन आयु को बढाने वाले, मन, बुद्धि को शुद्ध करने वाले, शरीर को स्वस्थ कर शक्ति देने वाले, सुख और संतोष को प्रदान करने वाले, रसयुक्त चिकना और मन को स्थिर रखने वाले तथा हृदय को भाने वाले होते हैं, ऐसे भोजन सतोगुणी मनुष्यों को प्रिय होते हैं। (८)

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः ।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥ (९)
भावार्थ : कड़वे, खट्टे, नमकीन, अत्यधिक गरम, चटपटे, रूखे, जलन उत्पन्न करने वाले भोजन रजोगुणी मनुष्यों को रुचिकर होते हैं, जो कि दुःख, शोक तथा रोग उत्पन्न करने वाले होते हैं। (९)

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्‌ ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्‌ ॥ (१०)
भावार्थ : जो भोजन अधिक समय का रखा हुआ, स्वादहीन, दुर्गन्धयुक्त, सड़ा हुआ, अन्य के द्वारा झूठा किया हुआ और अपवित्र होता है, वह भोजन तमोगुणी मनुष्यों को प्रिय होता है। (१०)

अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते ।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥ (११)
भावार्थ : जो यज्ञ बिना किसी फल की इच्छा से, शास्त्रों के निर्देशानुसार किया जाता है, और जो यज्ञ मन को स्थिर करके कर्तव्य समझकर किया जाता है वह सात्त्विक यज्ञ होता है। (११)

अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्‌ ।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्‌ ॥ (१२)
भावार्थ : परन्तु हे भरतश्रेष्ठ! जो यज्ञ केवल फल की इच्छा के लिये अहंकार से युक्त होकर किया जाता है उसको तू राजसी यज्ञ समझ। (१२)

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्‌ ।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥ (१३)
भावार्थ : जो यज्ञ शास्त्रों के निर्देशों के बिना, अन्न का वितरण किये बिना, वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के बिना, पुरोहितों को दक्षिणा दिये बिना और श्रद्धा के बिना किये जाते हैं, उन यज्ञ को तामसी यज्ञ माना जाता हैं। (१३)

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌ ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ (१४)
भावार्थ : ईश्वर, ब्राह्मण, गुरु, माता, पिता के समान पूज्यनीय व्यक्तियों का पूजन करना, आचरण की शुद्धता, मन की शुद्धता, इन्द्रियों विषयों के प्रति अनासक्ति और मन, वाणी और शरीर से किसी को भी कष्ट न पहुँचाना, शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है। (१४)

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्‌ ।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्‍मयं तप उच्यते ॥ (१५)
भावार्थ : किसी को भी कष्ट न पहुँचाने वाले शब्द वोलना, सत्य वोलना, प्रिय लगने वाले हितकारी शब्द वोलना और वेद-शास्त्रों का उच्चारण द्वारा अध्यन करना, वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है। (१५)

मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ (१६)
भावार्थ : मन में संतुष्टि का भाव, सभी प्राणीयों के प्रति आदर का भाव, केवल ईश्वरीय चिन्तन का भाव, मन को आत्मा में स्थिर करने का भाव और सभी प्रकार से मन को शुद्ध करना, मन सम्बन्धी तप कहा जाता है। (१६)

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः ।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ॥ (१७)
भावार्थ : पूर्ण श्रद्धा से युक्त होकर मनुष्यों द्वारा बिना किसी फल की इच्छा से उपर्युक्त तीनों प्रकार से जो तप किया जाता है उसे सात्विक (सतोगुणी) तप कहा जाता है। (१७)

सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्‌ ।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्‌ ॥ (१८)
भावार्थ : जो तप आदर पाने की कामना से, सम्मान पाने की इच्छा से और पूजा कराने के लिये स्वयं को निश्चित रूप से कर्ता मानकर किया जाता है, उसे क्षणिक फल देने वाला राजसी (रजोगुणी) तप कहा जाता है। (१८)

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः ।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्‌ ॥ (१९)
भावार्थ : जो तप मूर्खतावश अपने सुख के लिये दूसरों को कष्ट पहुँचाने की इच्छा से अथवा दूसरों के विनाश की कामना से प्रयत्न-पूर्वक किया जाता है, उसे तामसी (तमोगुणी) तप कहा जाता है। (१९)

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्‌ ॥ (२०)
भावार्थ : जो दान कर्तव्य समझकर, बिना किसी उपकार की भावना से, उचित स्थान में, उचित समय पर और योग्य व्यक्ति को ही दिया जाता है, उसे सात्त्विक (सतोगुणी) दान कहा जाता है। (२०)

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः ।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्‌ ॥ (२१)
भावार्थ : किन्तु जो दान बदले में कुछ पाने की भावना से अथवा किसी प्रकार के फल की कामना से और बिना इच्छा के दिया जाता है, उसे राजसी (रजोगुणी) दान कहा जाता है। (२१)

अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते ।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्‌ ॥ (२२)
भावार्थ : जो दान अनुचित स्थान में, अनुचित समय पर, अज्ञानता के साथ, अपमान करके अयोग्य व्यक्तियों को दिया जाता है, उसे तामसी (तमोगुणी) दान कहा जाता है। (२२)


(ॐ, तत्, सत् की व्याख्या)

ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥ (२३)
भावार्थ : सृष्टि के आरम्भ से "ॐ" (परम-ब्रह्म), "तत्‌" (वह), "सत्‌" (शाश्वत) इस प्रकार से ब्रह्म को उच्चारण के रूप में तीन प्रकार का माना जाता है, और इन तीनों शब्दों का प्रयोग यज्ञ करते समय ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करके ब्रह्म को संतुष्ट करने के लिये किया जाता है। (२३)

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्‌॥ (२४)
भावार्थ : इस प्रकार ब्रह्म प्राप्ति की इच्छा वाले मनुष्य शास्त्र विधि के अनुसार यज्ञ, दान और तप रूपी क्रियाओं का आरम्भ सदैव "ओम" (ॐ) शब्द के उच्चारण के साथ ही करते हैं। (२४)

तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः ।
दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥ (२५)
भावार्थ : इस प्रकार मोक्ष की इच्छा वाले मनुष्यों द्वारा बिना किसी फल की इच्छा से अनेकों प्रकार से यज्ञ, दान और तप रूपी क्रियाऎं "तत्‌" शब्द के उच्चारण द्वारा की जाती हैं। (२५)

सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते ।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥ (२६)
भावार्थ : हे पृथापुत्र अर्जुन! इस प्रकार साधु स्वभाव वाले मनुष्यों द्वारा परमात्मा के लिये "सत्" शब्द ‍का प्रयोग किया जाता है तथा परमात्मा प्राप्ति के लिये जो कर्म किये जाते हैं उनमें भी "सत्‌" शब्द का प्रयोग किया जाता है। (२६)

यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते ॥ (२७)
भावार्थ : जिस प्रकार यज्ञ से, तप से और दान से जो स्थिति प्राप्त होती है, उसे भी "सत्‌" ही कहा जाता है और उस परमात्मा की प्रसन्नता लिए जो भी कर्म किया जाता है वह भी निश्चित रूप से "सत्‌" ही कहा जाता है। (२७)

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्‌ ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥ (२८)
भावार्थ : हे पृथापुत्र अर्जुन! बिना श्रद्धा के यज्ञ, दान और तप के रूप में जो कुछ भी सम्पन्न किया जाता है, वह सभी "असत्‌" कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस जन्म में लाभदायक होता है और न ही अगले जन्म में लाभदायक होता है। (२८)


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्री कृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय : ॥
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में श्रद्धात्रय विभाग-योग नाम का सत्रहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥