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भूमिका


 तुलसीकृत रामायण का नाम जो स्वयं गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रखा है, ‘रामचरितमानस’ है । इस उत्तम ग्रन्थ को तो ‘रघुवर भगति प्रेम परमिति-सी’ के स्थूल रूप में सर्वसाधारण देखते ही हैं और कुछ लोग इसे ‘सद्गुरु ज्ञान विराग जोग के’ के रूप में भी देख रहे हैं; पर इसके दोनों उपर्युक्त स्वरूपों को पूर्ण रूप से कोई बिरले ही देख सकते हैं; क्योंकि भक्ति का स्थूल स्वरूप जितनी सरलता से देखा जा सकता है, उतनी सरलता से उसका सूक्ष्म स्वरूप नहीं दरसता है और योग-विराग आदि को ‘मानस’ का जलचर बनाकर ग्रन्थकार ने रखा है। (‘नव रस जप तप जोग विरागा । ते सब जलचर चारु तड़ागा ।।’) जलचर जल-गर्भ में छिपे रहते हैं और सरलता से देखे नहीं जाते । रामचरितमानस के उपर्युक्त दोनों स्वरूपों का पूर्ण रूप से दर्शन करने के लिए ही मैंने उससे सार-संग्रह करने का प्रयास किया है । मैं नहीं कह सकता कि मुझे इसमें पूरी सफलता हुई है । इस संग्रह का नाम मैंने ‘रामचरितमानस-सार सटीक’ रखा है और अपनी बुद्धि के अनुसार इसका अर्थ और कुछ व्याख्या भी लिख दी है । इसमें वर्णित योग कठिन हठयोग नहीं है, बल्कि परम सरल भक्ति योग है, जिसका अभ्यास रेचक, पूरक और कुम्भक के द्वारा न होकर रामचरितमानस में वर्णित नवधा भक्ति के द्वारा वा कागभुशुण्डिजी के भजनाभ्यास की रीति से होता है । इन प्रसंगों का वर्णन इसमें समुचित रीति से किया गया है । प्रेमी भक्तजनों से मेरा नम्र निवेदन है कि वे इसको एकबार आदि से अन्त पर्यन्त ध्यान देकर विचारते हुए पढ़ें । बेसिलसिले न पढ़ें; क्योंकि छोड़-छाड़ कर बेसिलसिले पढ़ने से समुचित लाभ न होगा । मैं विद्वान नहीं हूँ । केवल एक अत्यन्त साधारण सत्संगी हूँ । यद्यपि ‘रामचरितमानस-सार सटीक’ को मैंने एक कॉपी पर लिख लिया था, तथापि वह कॉपी सबके सामने रखने योग्य नहीं थी; क्योंकि उसमें भाषा की बहुत अशुद्धियाँ थीं । इस त्रुटि को विशेष परिश्रम से सुधारने के लिए ई0 टी0 (E.T.) स्कूल बरहरवा (सन्ताल परगना) के हेड पण्डित श्रीयुक्त सूर्यनारायण मिश्रजी को अनेकानेक धन्यवाद देता हूँ ।

मेँहीँ
ता0 29 अगस्त, सन् 1930 ई0

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