001
[गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के गुरु का नाम ‘तुलसीचरित’ में रामदास लिखा है। गोस्वामीजी के शिष्य महानुभाव महात्मा रघुवर दासजी ने ‘तुलसी चरित’ नामी एक बृहत् ग्रन्थ गोस्वामीजी के जीवन-चरित्र के वर्णन में लिखा है। इस ग्रन्थ का विशेष वर्णन, रामचरितमानस की उस प्रति के आदि में किया गया है, जो काशी नागरी प्रचारिणी सभा के पाँच सभासदों द्वारा संगृहीत तथा उक्त सभा के सभापति द्वारा टीकाकृत और इण्डियन प्रेस प्रयाग से 1922 ई0 में प्रकाशित हुई है।]
002
[चरण-रज में चरणों की चैतन्य वृत्ति गर्मी-रूप से स्वभावतः समाई होती है। यही चैतन्य वृत्ति, चरण-रज में सार है। जो पुरुष जिन गुणोंवाले होते हैं, उनकी चैतन्य वृत्ति और गर्मी उन्हीं गुणों का रूप होती है। भक्तिवान, योगी, ज्ञानी और पवित्रात्मा गुरु की चरण-रज में उनका चैतन्य-रूपी सार भगवद्भक्ति में सुरुचि और प्रेम उत्पन्न करता है और श्रद्धालु गुरु-भक्तों को वह रज सुगन्धित भी जान पड़ती है। चरण-रज तीन तरह की होती है-(1) मिट्टी-रूप, (2) स्वाभाविक आभारूप और (3) ब्रह्म-ज्योतिरूप। मिट्टीरूप चरण-रज को सर्वसाधारण जानते ही हैं। यह रज स्थूल शरीर के ऊपर लगाने की वस्तु है। प्रत्येक मनुष्य के शरीर के चारों ओर शरीर से निकली हुई नैसर्गिक आभा (वा ज्योति का मण्डल) शरीर को घेरे हुए रहती है। यह बात अब आधुनिक विज्ञान से भी छिपी हुई नहीं है। आभायुक्त गुरु-मूर्ति के मानस ध्यान का अभ्यास करने से आभायुक्त गुरु-मूर्ति का दर्शन अभ्यासी श्रद्धालु भक्तों को अन्तर में मिलता है। चौपाई संख्या 5 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में वर्णित दृष्टि-योग के द्वारा ‘गुरु-चरण नख विन्दु’ से ब्रह्म-ज्योति का प्रकाश होता है। इसलिए इसको भी ‘गुरु पद पदुम परागा’ वा‘पद-रज’ कहते हैं। यह रज सूक्ष्म और कारण शरीरों पर लगती है।]
003
[चरण-रज में सार अमृत-रूप है। वह जन्म-मरणादि रोगों को धीरे-धीरे दूर करके सेवन करनेवाले को अमर करता है।]
004
[गुरु-चरण-रज-सार के प्रभाव से भक्तों को चौपाई में वर्णित लाभ होते हैं। आभारूप रज (जिसका वर्णन चौपाई संख्या 1 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में हुआ है) मन-रूपी दर्पण की मैल को हरती है और मिट्टी-रूप रज का ललाट पर तिलक लगता है।]
005
[गुरु-चरण-नख का स्मरण वाक्यों को बारम्बार (मुख से) रटने से नहीं होता है। गुरु का चरण-नख, रूप है। अन्तर में मनोमय रूप बनाकर उस पर मन को टिकाए रखने से रूप का स्मरण होता है। इसको मानस-ध्यान कहते हैं। मनोमय नख पर यदि दृष्टि-योग ठीक-ठीक बनता है, तो नख में मणियों की ज्योति प्रत्यक्ष झलकती है। इसलिए मानस-ध्यान और दृष्टि-योग के साधन से चौपाई में वर्णित सुमिरण होता है।]
‘सुमिरन सुरत लगाइ कर, मुखतें कछू न बोल ।
बाहर का पट देइ कर, अन्तर का पट खेाल ।।’ (कबीर साहब)
यह (दृष्टि-योग) साधन अत्यन्त सुगम है। आँखें खोलकर वा बन्द करके डीम और पुतलियों को जोर से उलटाये रखकर भौओं के बीच में वा नाक की नीचेवाली नोक पर टक लगाने में वा बाहर में किसी एक निशाने पर देखने में जो कष्ट और रोग होते हैं, वे इस साधन में नहीं होते। कोई-कोई आँखों को बन्द करके डीम और पुतलियों में कुछ जोर लगाये बिना भौंओं के बीच में केवल ख्याल से देखते रहते हैं, मानो वे भौंओं के बीच के देश का केवल मानस-ध्यान भर करते हैं। यह दृष्टि-योग नहीं है, केवल मानस-ध्यान है। दृष्टि-योग से रेचक, पूरक और कुम्भक प्राणायाम की क्रिया आप-से-आप ही होती जाती है। दृष्टि-योग-साधन से चैतन्य वृत्ति का सिमटाव (संकोच) जैसे-जैसे होता जाता है, श्वास-प्रश्वास (प्राण की स्वाभाविक क्रिया) वैसे-वैसे आप-से-आप धीमा पड़ता जाता है। दृष्टि-योग-साधक को अनजाने ही प्राणायाम का साधन होता जाता है और जानकर केवल प्राणायाम की क्रिया करने में जो कष्ट और विघ्न होते हैं, उनसे अभ्यासी बिल्कुल बच जाता है। इसलिए यह कह सकते हैं कि प्राणायाम का साधन दृष्टि-योग के द्वारा अत्यन्त सुगमता से हो जाता है। यह दृष्टि-योग- साधन ऐसा उत्कृष्ट है कि श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में केवल एक इसी साधन से भगवान में विराजनेवाली शान्ति की प्राप्ति होनी लिखी है। दोनों नेत्रें से होकर निकलनेवाली चैतन्य धारों को एक विन्दु पर जोड़ने को दृष्टि-योग कहते हैं। इस साधन में डीम और पुतलियों पर किसी प्रकार बल लगाना अनावश्यक है; बल्कि बल लगाने से आँखों में कष्ट होगा, विशेष कष्ट रोग का रूप धारण करेगा और आँखें बिगड़ जाएँगी। श्रीमद्भगवद्गीता में नासाग्र पर दृष्टि रखने की आज्ञा है, पर नाक के ऊपर वा नीचेवाले भाग की ओर डीम और पुतलियों को झुकाकर देखने से दृष्टि-योग ठीक-ठीक होने के बदले आँखों में कष्ट और रोग होते हैं। जबतक दृष्टि की धारें एक विन्दु पर नहीं आएँगी, दृष्टि-योग होगा नहीं। उपर्युक्त रीति से देखने पर नाक के ऊपर का वा नीचे का जो भाग दीख पड़ता है, वह भाग एक विन्दु नहीं है। विन्दु तो वह है, जिसका स्थान है, पर परिमाण (लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई आदि) नहीं है। बाल की नोक से एक छोटे-से-छोटा चिह्न करने पर भी उसका कुछ-न-कुछ परिमाण हो जाता है। इसलिए अन्दाज से विन्दु नहीं बन सकता है। जिसमें केवल लम्बाई हो, पर चौड़ाई न हो, वह रेखा कहलाती है। यह भी अंदाज से नहीं बन सकती है; क्योंकि अत्यन्त पतली नोक से भी एक लम्बा चिह्न अंकित करने पर उस (चिह्न) में कुछ-न-कुछ चौड़ाई होगी। दो रेखाओं का मिलन एक विन्दु पर होता है। एक विन्दु पर दृष्टि-धारों को रखने की यह एक ही तरकीब है। अब आगे इस भेद को लिखकर खोलने की गुरु-आज्ञा नहीं है। यह भेद सच्चे भेदी गुरु से जाना जाता है और श्रीमद्भगवद्गीता के नासाग्र का ठीक-ठीक पता लग जाता है।
‘धरनी निर्मल नासिका, निरखो नैन के कोर।
सहजे चन्दा ऊगिहै, भवन होय उजियोर ।।’ (प्रान्त-बिहार, छपरा जिलान्तर्गत माँझीवाले महात्मा धरनीदास जी)
चेतन-वृत्ति का सिमटाव धीरे-धीरे एक बड़े परिमाण से दूसरे छोटे परिमाण तक सुगमता से होना सम्भव है। ऽयह (सिमटाव) पहले मानस-ध्यान के द्वारा ख्याल के साथ-साथ चेतन-वृत्ति का होता है। और जब चेतन-वृत्ति और ख्याल के सिमटाव की मात्रा मानस-ध्यान के द्वारा बढ़ते-बढ़ते ‘गुरु-पद- नख’ तक पहुँच जाती है, तब गुरु से पाए हुए भेद के द्वारा मनोमय नख पर दृष्टि-योग के साधन की शक्ति अभ्यासी को होती है। उपर्युक्त क्रम से मानस-ध्यान में सफलता प्राप्त किए बिना दृष्टि-योग में सफलता प्राप्त करने की इच्छा ‘भूमि परा चह छुअन अकासा’ की तरह असम्भव है। पढ़न्त और सुनन्त विद्या से जो समझ की शक्ति बढ़ती है, उसको वा जाग्रत अवस्था में बाहरी संसार को देखने की दृष्टि को वा ख्याल की दृष्टि को (जिसमें मानस ध्यान होता है) और स्वप्न-अवस्था में देखने की दृष्टि को दिव्य दृष्टि नहीं कहते हैं। इनसे भिन्न, इन सब दृष्टियों और सुषुप्ति (गहरी नींद) की बेहोशी से आगे बढ़कर साधना-द्वारा जो दिव्य-दृष्टि (तुरीय अवस्थावाली) प्राप्त होती है, उसे दिव्य दृष्टि कहते हैं। उपर्युक्त प्रकार से दृष्टियोग करने से यह खुल जाती है और ब्रह्मज्योति दरसती है। इस दृष्टि के खुले बिना सबसे नीचेवाले मण्डल की भी ब्रह्मज्योति का देखना असम्भव है।]
006
[केवल पढ़न्त और सुनन्त विद्या-द्वारा ज्ञान प्राप्त करने से अज्ञान-अन्धकार पूर्ण रूप से दूर नहीं होता है। जब अन्तर में दिव्य दृष्टि खुलती और ब्रह्मज्योति दरसती है, तभी तम-मोह दूर होता है।]
007
[अन्तर में ब्रह्म-ज्योति देखनेवाली तुरीयावस्था की दृष्टि और विवेक की दृष्टि (बुद्धि में सारासार की शक्ति यानी विद्या), हृदय के दो निर्मल नेत्र हैं।]
008
[गुप्त चरित-ब्रह्मज्योतिर्मय मणि-माणिक तुरीयावस्थावाली दिव्यदृष्टि से अन्तर की गहरी गुप्त खान में देखे जाते हैं। और प्रकट चरित पुराणों की प्रकट खान में विविध कथा-रूप- रत्न-समूह हैं, जो विद्या की दृष्टि से मालूम पड़ते हैं।]
009
[दृष्टि-योग-साधन में रत रहनेवाले साधक के नेत्रें में उपर्युक्त सुअंजन लगता है। दृष्टियोग-साधन करना, इस सुअंजन के लगाने का यत्न-रूप है। बहुत-सी धरतियों की खान परम विराट रूप माया है, जिसमें अनेकानेक ब्रह्माण्डों की रचनाएँ हैं। ‘गूलरि तरु समान तव माया। फल ब्रह्माण्ड अनेक निकाया’।। (रामचरितमानस) ‘रोम-रोम ब्रह्माण्डमय, देखत तुलसीदास । बिनु देखे कैसे कोऊ, सुनि मानै विस्वास ।।’ (तुलसी सतसई)। उपर्युक्त सुअंजन प्राप्त करनेवाले को अखिल ब्रह्माण्ड दरसते हैं।]
010
[चौ0 1 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में गुरु-पद-रज, गुरु की चेतन वृत्ति-युक्त सार-सहित और तीन प्रकार की वर्णित हुई है। वहाँ रज की महिमा भी दरसा दी गई है। वर्णित अपनी महिमा के कारण गुरु-पद-रज का नयनामृत और दृग्दोष- विभंजक होना सर्वथा सम्भव है।]
011
[दृश्यों को आँखों से देखते हुए जब निर्मल सारासार विचार उपजते रहें, तब उन आँखों को निर्मल विवेकवाली कहना चाहिए। चौ0 1 में वर्णित तीनों प्रकार की रजों को लगाने से यह विवेक-विलोचन खुलेगा।]
012
[पहले गणेश आदि स्वर्गीय देवताओं की वन्दना हो चुकी है, अब पृथ्वी-तल के देवताओं की वन्दना की जाती है। इनमें सबसे श्रेष्ठ देवता ब्राह्मण हैं, इसलिए पहले ब्राह्मणों को प्रणाम किया जाता है। महीसुर=भूदेव=ब्राह्मण=विद्वान ब्रह्मवेत्ता मोह-जनित संशयों को निस्सन्देह हर सकते हैं।]
013
[राम भगति=सर्वेश्वर के सगुण रूप का भजन या सेवा। ब्रह्म-विचार=सर्वेश्वर के सर्वव्यापी निर्गुण स्वरूप का विचार।]
014
[विधि=कर्त्तव्य कर्म=गुरु की सेवा, सत्संग और ध्यानाभ्यास नित्य प्रति करना। निषेध=अकर्त्तव्य कर्म=झूठ, व्यभिचार, नशा, हिंसा और चोरी; इन पाँच पापों को छोड़ना।]
015
[कहने का तात्पर्य यह है कि कटुवादी मधुरभाषी और हिंसक अहिंसक हो जाता है।]
016
[वाल्मीकि डाकू और हत्यारे थे। नारद दासी-पु़त्र थे और अगस्त्य की उत्पत्ति नीच स्थान से हुई थी; पर सत्संग के प्रभाव से ये तीनों ऋषि हो गए।]
017
[साँप विष चढ़ानेवाला है, पर उसके मस्तक में रहनेवाली मणि विष उतारनेवाली है। साँप के संग में रहकर मणि साँप के गुण को नहीं धरती है, बल्कि उसमें रहती हुई भी (वह) अपने ही गुण के पीछे-पीछे चलती है, विष चढ़ानेवाली नहीं बनती। इसी तरह अच्छे मनुष्य कुसंग में पड़ जाने पर भी उसके (कुसंग के) गुण को नहीं ग्रहण करते हैं, बल्कि अपने गुण, सज्जनता के ही पीछे चलते हैं।]
018
[केतु ग्रह के उदय होने से संसार में दुर्भिक्ष आदि दुःख होते हैं, इसी तरह दुष्ट के प्रकट होने से तामस कर्मों का प्रचार होता है, संसार में महा अनर्थ मच जाता है, धर्म की हिंसा होती है, मोक्ष-मार्ग के प्रचार में महाविघ्न उपस्थित हो जाता है और इन कारणों से सज्जनों को महादुःख होता है।]
019
[दोषों का बार-बार बखान करना, हजार मुखों से कहने के तुल्य है।]
020
[राजा पृथु को दश हजार कान भागवत-यश सुनने को थे, पर दुष्ट जन दूसरों के पापों को सुनने के लिए दस हजार कान रखते हैं।]
021
[कालनेमि राक्षस था। रावण की आज्ञा से उसने हनुमानजी को ठगने के लिए मुनि का वेश बनाया था। अन्त में उसका कपट खुल गया और हनुमानजी ने उसे मार डाला। रावण संन्यासी का वेश धारण करके श्रीसीता जी को हरने के लिए गया था। भेद खुलने पर रामचन्द्रजी के हाथ से मारा गया। राहु राक्षस, देवता का रूप धर कर अमृत पीने के लिए देवताओं की पंक्ति में बैठा था, परन्तु उसका कपट भी खुल गया और विष्णु ने चक्र से उसका सिर काट डाला।]
022
[एक = अद्वितीय = अनुपम = जिसके बराबर कोई न हो। परधाम = परे स्थान = सर्वोत्तम स्थान। साकेत, वैकुण्ठ आदि धाम और समस्त लोकों का स्थान ब्रह्माण्ड है। अनेकों ब्रह्माण्ड का स्थान प्रकृति-मण्डल वा माया-मण्डल और प्रकृति (माया)-मण्डल का स्थान सर्वेश्वर है, इसलिए सर्वेश्वर परधाम है। नाम और रूप; दोनों को माया कहते हैं, कठ0 (2-5), मुण्डक (1-2-9) और श्वेताश्वतर (4-10) आदि उपनिषदों में इसका वर्णन है और रामचरितमानस में माया अर्थात् प्रकृति को ससीम या परिमित या हददार माना गया है और रामस्वरूप को अपार-अपरिमित-असीम-बेहद माना गया है; यथा ‘प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी।’ (चौ0 726) इस चौपाई में प्रकृति पार कहकर प्रकृति को ससीम या हददार बतलाया गया है; क्योंकि जिसकी सीमा होगी, उसी का पार वा दूसरा किनारा अथवा उससे अलग वा उससे आगे कुछ होगा। और भी-
सोरठा-राम स्वरूप तुम्हार, बचन अगोचर बुद्धि पर ।
अबिगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
इस सोरठे में राम-स्वरूप वा ब्रह्म-स्वरूप वा सर्वेश्वर को अपार बतलाया गया है। असीम ससीम में पूरा-पूरा नहीं अँट सकता। अपरिमित, परिमित को अपने कुछ अंश-मात्र से ही भरपूर करता है और परिमित तत्त्व के बाहर प्रत्येक ओर वह कितना अधिक बच जाता है, इसको कोई बतला नहीं सकता। प्रकृति में व्यापक सर्वेश्वर के अंश को ब्रह्म कहकर पुकार सकते हैं, क्योंकि व्याप्य (प्रकृति)-व्यापक (सर्वेश्वर का अंश-रूप पुरुष वा ब्रह्म) का भेद यहाँ जानने में आता है। और इस पद के परे अर्थात् समस्त प्रकृति-मण्डल के परे व्याप्य तत्त्व नहीं रहने के कारण व्याप्य बिना व्यापक कहा नहीं जा सकता, इसलिए इस ‘प्रकृति-पर’ पद को ब्रह्म-पर और अनाम कह सकेंगे।]
023
[समस्त ऐश्वर्य, धर्म, यश, सम्पत्ति, ज्ञान और वैराग्य-इन छह बातों को भग कहते हैं। इनसे युक्त को पुरुष होने से भगवान और स्त्री होने से भगवती कहते हैं। विश्व में व्यापक विश्वरूप असीम नहीं कहा जा सकता; क्योंकि संसार के परिमाण के बराबर ही उसका (विश्वरूप का) भी परिमाण होगा। चौपाई 77 में सर्वेश्वर के अपरिमित स्वरूप का वर्णन है, पर इस चौपाई (78) में उसके केवल उस अंश रूप का वर्णन है, जो समस्त प्रकृति-मण्डल भर में भी नहीं, केवल सत्, जन और तप आदि लोकों और हाथ, पैर, नाक, कान आदि इन्द्रियों-सहित रूपवान और परिमित संसार में व्यापक है। जिस प्रकार धरातल पर के अति विस्तृत महदाकाश में के मठ (मकान) के भीतर के आकाश को महदाकाश नहीं कहते, मठाकाश कहते हैं और मठ के भीतर के घड़े में के आकाश को न मठाकाश और न महदाकाश कहते, बल्कि घटाकाश कहते हैं; इसी प्रकार अनन्त, निरवयव और अगम-अपार सर्वेश्वर में ससीम व्याप्यरूप साम्यावस्थाधारिणी अव्यक्त प्रकृति-मण्डल में व्यापक सर्वेश्वर के अंश को और साम्यावस्था-रहित व्याप्य रूप व्यक्त प्रकृति-मण्डल में व्यापक सर्वेश्वर के अंश को आच्छादन-भेद से पृथक-पृथक नामों से पुकारते हैं, जैसे कि सर्वेश्वर के अपरम्पार स्वरूप को ब्रह्म-पर वा अनाम, साम्यावस्थाधारिणी अव्यक्त प्रकृति मण्डल में व्यापक उसके (अनाम के) अंश को शुद्ध ब्रह्म और साम्यावस्था-रहित व्यक्त प्रकृति मण्डल में व्यापक उसके (अनाम के) अंश को विश्वरूप कहते हैं; जिस प्रकार मठ में घट बनता है, उसी तरह साम्यावस्थाधारिणी अव्यक्त प्रकृति मंडल में साम्यावस्था-रहित व्यक्त प्रकृति मंडल का निर्माण होता है। अतएव जैसे मठ और मठाकाश से घट और घटाकाश का विस्तार कम होता है, उसी तरह साम्यावस्थाधारिणी अव्यक्त प्रकृति-मण्डल और शुद्ध ब्रह्म से साम्यावस्था-रहित प्रकृति-मंडल और विश्वरूप का विस्तार कम है; और ब्रह्म पर अनाम से तो शुद्ध ब्रह्म और विश्वरूप; दोनों कितने न्यून हैं; इसका अन्दाजा कोई बता नहीं सकता है।]
024
[राम = सर्वव्यापक। नाम = शब्द। राम नाम = सर्वव्यापक शब्द। वर्णित चौ0 में गोस्वामी तुलसीदासजी ने ‘राम-नाम’ को कृशानु, भानु और हिमकर का कारण बताया है। तात्पर्य यह है कि ‘राम’ (र+आ+म) के अभाव में पावक, पूषण और शशि की स्थिति नहीं रह सकती। जैसे-‘कृशानु’ में से ‘र्’ के निकाल लेने पर वह ‘किसानु’ हो जायगा, उसका अर्थ ‘अग्नि’ नहीं होगा। ‘भानु’ शब्द में ‘आ’ अर्थात् आकार ‘ा’ का अभाव होने से ‘भनु’ होगा, जिसका अर्थ ‘सूर्य’ नहीं हो सकेगा। ‘हिमकर’ में ‘म’ के नहीं रहने से ‘हिकर’ हो जायगा, जिसका अर्थ ‘चन्द्र’ नहीं होगा। इसलिए ‘रामनाम’ को अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा का कारण कहा गया है।]
नाम-सम्बन्धी विशेष जानकारी के लिए गो0 तुलसीदास जी महाराज की और भी उक्तियाँ नीचे दी जाती हैं।
चौदह चारो अष्टदस, रस समझव भरपूर ।
नाम भेद जाने बिना, सकल समझ महँ धूर ।।
भेद जाहि बिधि नाम महँ, बिन गुरु जान न कोय ।
तुलसी कहहिं बिनीत बर, जो बिरंचि सिब होय ।।
श्रवणात्मक ध्वन्यात्मक, वर्णात्मक बिधि तीन ।
त्रिबिध शब्द अनुभव अगम, तुलसी कहहि प्रबीन ।।
रसना सुत पहिचान बिन, कहहु न कौन भुलान ।
जानै कोउ हरि गुरु कृपा, उदित भये रबि ज्ञान ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की सतसई के इन चारो दोहों से और उन्हीं की विनय-पत्रिका की इस कड़ी ‘अपने धाम नाम सुर तरु तजि, विषय बबूर बाग मन लायो।’ से और स्वयं रामचरितमानस की ‘नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी ।।’ इस चौपाई से नाम की समझ, उसका (नाम का) गुप्त भेद और उसका साधन कितना गहरा है तथा यह भी कि अपने धाम (देह) में ही नाम मौजूद है, यह बुद्धिमान जान सकते हैं। र्+आ+म के उच्चारण से जो वर्णात्मक शब्द ‘राम’ होता है, केवल इसी (वर्णात्मक शब्द) की महिमा को ऊपर कहे हुए पदों में वर्णित विशेषणों से प्रकट करना ‘कथन मात्र’ ही होगा, यथार्थता और सत्यता उक्त वर्णन में कुछ न होगी। हाँ, यदि ‘रामनाम’ का अर्थ ‘सर्वव्यापक शब्द’ समझा जाय और इसका पता लगाया जाय कि कौन-सा शब्द सर्वव्यापक है ? तो ऊपर के पदों में वर्णित विशेषता, गम्भीरता, बड़ाई की यथार्थता और सत्यता साफ-साफ झलक उठेगी। जो अत्यन्त सघनता से सबके भीतर एकरस फैला हुआ हो, उसको सर्वव्यापक कहते हैं। एकाक्षर वा अनेकाक्षर किसी भी वर्णात्मक शब्द को और जड़ प्रकृति-मण्डल के अभ्यन्तर के स्थूल और सूक्ष्म सब मण्डलों के ध्वन्यात्मक शब्दों को सर्वव्यापक शब्द नहीं कह सकते हैं; क्योंकि इन शब्दों में से प्रत्येक शब्द जड़ प्रकृति के स्थूल वा सूक्ष्म किसी-न-किसी मण्डल में अपना उद्गम स्थान रखता है, और जड़ प्रकृति-मण्डलों के ही किसी मण्डल में वह विलीन हो जाता है। अतएव जड़ प्रकृति-मण्डल के परे स्वयं सर्वेश्वर ही जिस ध्वनि का उद्गम-स्थान हो, वही ध्वनि (सर्वव्यापक) शब्द कहला सकती है और उसी ध्वनि को ‘रामनाम’ कह सकेंगे। परन्तु ख्याल रहे कि यह रामनाम तो वर्णात्मक होगा ही नहीं, वरन् जड़ प्रकृति-मण्डल की सभी ध्वनियों से भी विलक्षण, जड़ प्रकृति से परे, उस (प्रकृति) का कारण, अनादि और आदि शब्द होगा। यह न तो लिखा जा सकेगा और न किसी प्रकार कहा जा सकेगा। केवल समझ, भेद और साधन; इसकी प्राप्ति के हेतु होंगे और तभी ‘अकथ अनादि सुसामुझि साधी’ यह पद नाम की बड़ाई में कहना सार्थक होगा। कोई रचना बिना कम्प के नहीं हो सकती और कम्प अपने सहचर शब्द के बिना नहीं रह सकता। इसलिए आदि में जड़-प्रकृति के निर्माण के लिए आदिशब्द की अत्यन्त आवश्यकता है और आदिशब्द, जड़ प्रकृति से भी विशेष सूक्ष्म और उसका कारण हुआ। सूक्ष्म तत्त्व अपने से स्थूल तत्त्व में स्वभाव से ही सर्वव्यापक होता है, अतएव ऐसा मानना परम युक्ति युक्त है कि वर्णित आदि शब्द, जड़ प्रकृति के बाहर-भीतर अत्यन्त सघनता से भरा हुआ है अर्थात् वह सर्वव्यापक है, स्पष्ट शब्दों में वही आदिशब्द ‘रामनाम’ है। जड़ प्रकृति त्रिगुण (सत्त्व, रज, तम)-मयी है; परन्तु प्रकृति के परे ये गुण माने नहीं जा सकते। इस कारण आदिशब्द को अगुण वा निर्गुण ही मानना पड़ेगा। और जड़-प्रकृति का कोई विन्दु इस शब्द का उद्गम-स्थान नहीं माना जा सकता और न इस शब्द के प्रारम्भ में काल का ही निर्णय हो सकता है; क्योंकि काल भी जड़-प्रकृति के अभ्यन्तर का ही तत्त्व है। इस हेतु इस शब्द को अनादि शब्द कहकर पुकारते हैं। लोग कहेंगे कि ‘रघुवर का रामनाम’ कहने से केवल वर्णात्मक ‘राम’ शब्द का ही बोध होता है, उसको ध्वन्यात्मक (कहकर) जानने की इस स्थान पर कोई आवश्यकता नहीं है। यदि इस कथन को यथार्थ मान लें, तो ‘अगुन अनूपम गुन निधान सो’ और ‘अकथ अनादि सुसामुझि साधी’ आदि रामनाम के वर्णन में गो0 तुलसीदासजी के कहने से क्या लाभ ? क्या तब उनका ऐसा कहना केवल झूठी, बुद्धि-विपरीत और असम्भव बात न होगी ? विष्णु भगवान के अवतार ‘दाशरथि राम’ रघुवर को गोस्वामीजी महाराज ने अपना इष्टदेव माना था। वे अपने इष्टदेव के निर्गुण, सगुण और साकार, निराकार रूपों के परम श्रद्धालु भक्त थे; यथा-‘हिय निर्गुन नयनन्हि सगुन, रसना राम सुनाम । मनहु पुरट1 सम्पुट2 लसत, तुलसि ललित3 ललाम4।।’ (दोहावली, दोहा 7) और चौपाई-
‘सेवत साधु द्वैत भय भागै । श्री रघुवीर चरन लय लागै ।।
देह जनित बिकार सब त्यागै । तब फिरि निज सरूप अनुरागै ।।’
छन्द-
‘अनुराग सो निज रूप जो, जग तें विलच्छन देखिये ।
सन्तोष सम सीतल सदा दम, देहवन्त न लेखिये ।।
निर्मल निरामय एक रस तेहि, हरष सोक न व्यापई ।
त्रयलोक पावन सो सदा, जाकी दसा ऐसी भई ।।’
(विनय-पत्रिका)
अपने इष्टदेव में पूर्ण श्रद्धा रखते हुए गोसाईंजी महाराज ने सत्य और पूर्ण भेद का भी वर्णन कर दिया। नाम के वर्णन में उन्होंने जो कुछ भी कहा है, सब सत्यम् सत्य ही कहा है। केवल रोचकता के लिए वर्णात्मक रामनाम का बुद्धि-विपरीत और असम्भव गुणगान नहीं किया है। ध्वन्यात्मक रामनाम अनाहत आध्यात्मिक आदिशब्द है। रघुवर के आत्म-स्वरूप (जैसे=‘राम स्वरूप तुम्हार, बचन अगोचर बुद्धि पर। अबिगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।’) के नाम होने की योग्यता इसी को है। और रघुवर राम के नराकृति-मायाकृत रूप का नाम होना, वर्णात्मक राम-नाम को ही योग्यता है। गोस्वामीजी के हृदय में राम-नाम के वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक; दोनों रूपों में पूर्ण श्रद्धा-भक्ति है। मेरे जानते नाम के दोनों रूपों का भजन करना परम आवश्यक है; क्योंकि इन दोनों रूपों के भजन बिना भक्ति पूर्ण नहीं होती, न सर्वेश्वर मिल सकते हैं और न मोक्ष-लाभ हो सकता है। पर इतना जान लेना आवश्यक है कि वर्णात्मक नाम का भजन प्रारम्भिक साधन है और ध्वन्यात्मक नाम का भजन अन्तिम साधन है। भेदी भक्तों से इसका भेद खुल सकता है। इस तरह समझ लेने पर वर्णात्मक राम-नाम की महिमा में कुछ भी गौणता तथा न्यूनता नहीं आती तथा राम-नाम के अर्थ से निर्णीत तत्त्व सर्वव्यापक ध्वन्यात्मक शब्द का भी भेद खुलने को बाकी नहीं रह जाता; क्योंकि यह शब्द सर्वकाल में वा (यह भी कहना युक्तिहीन न होगा कि) काल के अन्त तक और जड़-प्रकृति के समस्त मण्डलों में एकरस तथा जड़-प्रकृति का आधार-रूप होकर रहनेवाला है। इसलिए इसी शब्द को शब्द-ब्रह्म, ओ3म् (ॐ), स्फोट, प्रणव ध्वनि, सत्य नाम, सत्य शब्द और सार शब्द भी कहते हैं। और क्योंकि यही शब्द सबके आदि में हुआ, इसीलिए इसी को कोई-कोई ‘आदि शब्द’ वा ‘आदि नाम’ भी कहते हैं। यहाँ पर उपनिषदों के और थोड़े-से सन्तों के शब्द लिखे जाते हैं, जिनको पढ़कर नाम-तत्त्व के खोजियों को नाम के सम्बन्ध में उन (सन्तों) के विचार ज्ञात होंगे। ‘अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते।’ (योगशिखोपनिषद्, अध्याय 3) अर्थ-अक्षर (अनाश) परम नाद को शब्दब्रह्म कहते हैं। ‘द्वेविद्ये वेदितव्ये तु शब्द ब्रह्म परं च यत्। शब्द ब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।।’ (ब्रह्मविन्दूपनिषद्) अर्थ-दो विद्याएँ समझनी चाहिये, एक तो शब्दब्रह्म और दूसरा परब्रह्म। शब्द ब्रह्म में जो निपुण हो जाता है, वह परब्रह्म को प्राप्त करता है।
‘अघोषम् अव्यंजनम् अस्वरं च अकण्ठताल्वोष्ठम् अनासिकं च ।
अरेफ जातम् उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित् ।।’ (अमृतनाद उपनिषद्)
राम राम सब कोइ कहै, नाम न चीन्है कोय ।
नाम चीन्ह सतगुरु मिलै, नाम कहावै सोय ।।
आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह ।
परसत ही कंचन भया, छूटा बंधन मोह ।।
कोटि नाम संसार में, तातें मुक्ति न होय ।
आदि नाम जो गुप्त जप, बूझे बिरला कोय ।।
ज्ञान दीप परकाश करि, भीतर भवन जराय ।
तहाँ सुमिरि सतनाम को, सहज समाधि लगाय ।।
नाम रतन सोइ पाइहैं, ज्ञान दृष्टि जेहि होय ।
ज्ञान बिना नहिं पावई, कोटि करै जो कोय ।।
मुख कर की मेहनत मिटी, सतगुरु करी सहाय ।
घट में नाम प्रगट भया, बक-बक मरै बलाय ।।
सहजे ही धुन होत है, हरदम घट के माहिं ।
सुरत शब्द मेला भया, मुख की हाजत नाहिं ।।
कबीर शब्द शरीर में, बिन गुन बाजै ताँत ।
बाहर भीतर रमि रहा, तातें छूटी भ्रान्ति ।।
शब्द शब्द सब कोइ कहै, वो तो शब्द विदेह ।
जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि देह’।।
सब्द हमारा आदि का, पल-पल करिये याद ।
अन्त फलैंगी माँहि की, बाहर की सब बाद ।। (कबीर-साखी-संग्रह)
‘साधो शब्द साधना कीजै ।
जेहि शब्द से प्रगट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै ।।टेक।।
शब्दहि गुरु शब्द सुनि सिष भे, शब्द सो बिरला बूझै ।
सोई शिष्य सोइ गुरू महातम, जेहि अन्तर गति सूझै ।। 1।।
शब्दै वेद पुरान कहत हैं, शब्दै सब ठहरावै ।
शब्दै सुर मुनि सन्त कहत हैं, शब्द भेद नहिं पावै ।। 2।।
शब्दै सुनि सुनि भेष धरत हैं, शब्द कहै अनुरागी ।
षट दरसन सब शब्द कहत हैं, शब्द कहै बैरागी ।। 3।।
शब्दै माया जग उतपानी, शब्दै केर पसारा ।
कहै कबीर जहँ शब्द होत है, तवन भेद है न्यारा ।। 4।।’
‘हंसा करो नाम नौकरी ।। टेक।।
नाम विदेही निसि दिन सुमिरै, नहिं भूलै छिन घरी ।। 1।।
नाम विदेही जो जन पावै, कभुँ न सुरति बिसरी ।। 2।।
ऐसो सबद सतगुरु से पावै, आवागमन हरी ।। 3।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, पाव अमर नगरी ।। 4 ।।’
(कबीर साहब)
‘इस गुफा महि अखुट भंडारा ।
तिसु बिचि बसै हरि अलखइ अपारा ।।
आपे गुपुत परगट हैआपे गुर सबदि आप वं×ाावणिआ ।। 1।।
हउ वारी जीउ वारी अंम्रित नामु मंनि वसावणिआ ।
अमृत नामु महारसु मीठा गुरमति अंम्रितु पिआवणिआ ।।1।। रहाउ । ।
‘हउमै मारि बजर कपाट खुलाइआ ।
नाम अमोलकु गुर परसादी पाइआ ।
बिन सब्दै नामु न पाए कोई गुरु किरपा मंनि वसावणिआ ।। 2।।’
‘रामा रम रामो सुनि मनु भीजै ।।
हरि हरि नाम अंम्रितु रसु मीठा,
गुरमति सहिजे पीजै ।। 1।। रहाउ ।।
कासट महि जिउ है बैसंतरु मथि संजमि काढ़ि कढ़ीजै ।
राम नाम है जोति सवाई ततु गुरमति काढ़ि लईजै ।। 1।।’
‘सुनि मन भूले बाबरे, गुरु की चरणी लागु ।
हरि जपि नाम धिआइ तू, जम डरपै दुख भागु ।।’
(गुरु नानकदेवजी)
नाम डोर है गुप्त कोऊ नहिं जानता ।
निः अच्छर का रूप दृष्टि नहिं आवता ।।
ररंकार आकार पवन को देखना ।
अरे हाँ रे पलटू देखत हैं एक संत और सब पेखना ।।
जो कोइ चाहै नाम सो नाम अनाम है ।
लिखन पढ़न में नाहिं निःअछर काम है ।।
रूप कहूँ अनरूप पवन अनरेखते ।
अरे हाँ रे पलटू गैब दृष्टि सों संत नाम वह देखते ।। (पलटू साहब)
025
[राम-नाम अनाहत ध्वन्यात्मक, आदि और सर्वव्यापी शब्द होने के कारण ‘विधि हरि हर मय’ वा सर्वमय अवश्य कहा जा सकता है। सबसे परे और सबका आधार-रूप यही शब्द (ध्वन्यात्मक राम-नाम) है, इसलिए यह वेद का वा सबका प्राण या जीवन कहा गया है। यह शब्द त्रयगुणमयी प्रकृति के परे और उस (प्रकृति) से पूर्व का है, इसलिए यह निर्गुण है। इसकी उपमा का दूसरा कोई शब्द नहीं है, इसलिए यह उपमा-रहित है और त्रयगुणमयी प्रकृति का भी यही शब्द कारण है, इसलिए इसको गुणनिधान भी अवश्य ही कह सकते हैं। चौ0 79 के अर्थ के नीचे केाष्ठ का वर्णन पढ़कर इसको विशेष रूप से समझ लीजिये।]
026
[वर्णात्मक शब्द की धार की गति नीचे से ऊपर की ओर (नाभि से मुख की ओर) को है और अनाहत तथा अनहद ध्वन्यात्मक शब्द की धार की गति ऊपर से नीचे की ओर को वा ब्रह्माण्ड के परे से ब्रह्माण्ड की ओर को, पिण्ड में दिमाग के भीतर सूक्ष्म स्नायविक (स्नायु-संबन्धी) मण्डल के केन्द्र से स्थूल स्नायु-समूहों की ओर को है। इस प्रकार वर्णात्मक और कथित ध्वन्यात्मक; दोनों शब्दों की धारें एक दूसरे की उलटी ओर को प्रवाहित हैं। इसीलिए वर्णात्मक नाम-भजन के सम्मुख ध्वन्यात्मक नाम-भजन को उलटा नाम-भजन कहा गया है। आदिकवि (वाल्मीकिजी) केवल ‘मरा-मरा’ ही नहीं जपे थे, बल्कि वे ध्वन्यात्मक रामनाम का भी भजन करके पवित्र होकर (सब आवरणों को पार करके) ब्रह्म में लीन हो गये थे। ‘उलटा नाम जपत जग जाना। बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।।’ बिना शब्दब्रह्म में वा सर्वव्यापक शब्द में वा ध्वन्यात्मक राम-नाम में लीन हुए, ब्रह्म में लीन होकर कोई ब्रह्मस्वरूप नहीं हो सकता। ‘द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत्। शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ।।’ (ब्रह्मविन्दूपनिषद्) अर्थ-दो विद्याएँ समझनी चाहिये, एक तो शब्दब्रह्म और दूसरा परब्रह्म। शब्दब्रह्म में जो निपुण हो जाता है, वह परब्रह्म को प्राप्त करता है। पुनः-‘अक्षरं परमो नादः शब्दब्रह्मेति कथ्यते।’ (योगशिखोपनिषद्) अर्थ-अक्षर (अनाश) परम नाद को शब्दब्रह्म कहते हैं।]
027
[पदवी से बड़प्पन प्रगट होता है। कहने का भाव है कि नाम और रूप से ईश्वर का बड़प्पन कुछ-कुछ प्रगट होता है। वर्णात्मक नाम और रूप (दोभुजी, सहस्त्रभुजी, नररूप, देवरूप और विराट रूप आदि) अकथ और अनादि नहीं कहे जा सकते। पूर्व कथित ईश्वर के नाम के दो भेदों (वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक) में से ध्वन्यात्मक नाम ही अकथ और अनादि कहा जा सकेगा। ईश्वर के रूप के भी दो प्रकार हैं-एक मायिक, दूसरा अमायिक। माया सम्बन्धी रूप को सामान्य रूप भी कह सकेंगे। इसके भी दो भेद कर सकते हैं, एक दिव्य और दूसरा अदिव्य। दिव्य-जैसे चतुर्भुजी, सहस्त्रभुजी, अणुरूप (जिसका वर्णन मनुस्मृति के द्वादश अध्याय में अणु से भी अणु शुद्ध सुवर्ण-समान वा विन्दु-रूप कहकर किया गया है और यह वर्णन रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड में भी है।) दीपक-टेमवत्, तारावत्, चन्द्रवत्, सूर्यवत् ज्योति रूप। इन (दिव्य मायिक रूपों) का प्रत्यक्ष दर्शन पिण्ड में नहीं, ब्रह्माण्ड में होता है। अदिव्य मायिक रूप-जैसे नर आदि का, साधारण रूप है। मायिक दिव्य वा अदिव्य, कोई भी रूप अकथ और अनादि नहीं कहला सकता है। आत्म-स्वरूप को निर्मायिक रूप कहते हैं। इसको विशेष रूप भी कह सकते हैं। इसी रूप को अकथ और अनादि कहना चाहिये; क्योंकि आत्मा के स्वरूप का वर्णन नहीं किया जा सकता है और उसका आदि भी नहीं बतलाया जा सकता। इस चौपाई के उत्तरार्द्ध में ईश्वर के ध्वन्यात्मक नाम को और उसके (निर्गुण आत्म-स्वरूप को ही अकथ-अनादि कहकर बतलाया गया है, इस नाम और रूप को सुबुद्धिमान साधन करके प्राप्त करते हैं। रामचरितमानस के तृतीय सोपान (अरण्यकाण्ड) में वर्णित नवधा भक्ति के पूर्ण साधन से ईश्वर के उपर्युक्त नाम और रूप प्राप्त होते और सधते हैं।]
028
[वर्णात्मक नाम के सुमिरण-साधन से सिमटे हुए चित्त में सामान्य अदिव्य मायिक रूप प्राप्त करने की शक्ति होती है, इसलिए वर्णात्मक नाम के वश में यह रूप कहा गया है। अदिव्य मायिक रूप के ध्यानाभ्यास से विशेष सिमटे हुए चित्त को सामान्य दिव्य रूप ‘विन्दु वा अणु से भी अणु रूप’ ग्रहण करने की शक्ति होती है। और इस रूप के ध्यान के साधन से चौ0 85 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में वर्णित और सब सामान्य दिव्य रूपों की प्रत्यक्षता हो जाती है। जिनको इन दिव्य रूपों का ज्ञान नहीं होगा, वे बिना ध्वन्यात्मक नाम के रहेंगे। अथवा इसे यों भी कह सकते हैं कि जबतक वर्णित साधन से चित्त वा चेतन-वृत्ति वा सुरत का अति विशेष सिमटाव होकर ब्रह्माण्ड में चढ़ाई न होगी और वहाँ वर्णित दिव्य रूपों का दर्शन न मिलेगा, तबतक ध्वन्यात्मक नाम प्राप्त नहीं हो सकता है।]
029
[शब्द अपने आकर्षण से सुरत को खींचकर अपने उद्गम-स्थान तक पहुँचा देता है। ध्वन्यात्मक राम-नाम आदि-शब्द है और प्रकृति-मण्डल के ऊपर स्वयं सर्वेश्वर ही उसका उद्गम-स्थान है। सर्वेश्वर का स्वरूप, विशेष रूप वा आत्म-स्वरूप ही है। यह विशेष रूप सर्वव्यापक है। प्रत्येक पिण्ड में यही विशेष रूप व्याप्त होकर जीवात्मा कहलाता है, इसलिए यह रूप सबको करतल-गत या हथेली में प्राप्त है। यदि ध्वन्यात्मक राम-नाम को कोई परख सके, तो इसके आकर्षण से विशेष रूप तक उसकी सुरत पहुँच जाएगी और उसको पूर्ण आत्मज्ञान हो जाएगा।]
030
[सुषुप्ति-अवस्था के अतिरिक्त दूसरी सब अवस्थाओं में और समस्त रूप-मण्डल में (त्रिकुटी तक बिना रूप देखे सुमिरण करना असम्भव है। त्रिकुटी के ऊपर सुन्न में सुरत को पहुँचाकर शब्द (ध्वन्यात्मक नाम) में सुरत को लगाना बिना रूप देखे सुमिरण है।]
031
[वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक; दोनों शब्दों के ज्ञाता को यहाँ पर दुभाषी कहा गया है।]
032
[योगी जगते हैं-योगी योग करना आरम्भ करते हैं अर्थात् वर्णात्मक नाम को एकचित्त होकर जपना, योग-साधन का आरम्भ करना है।]
033
[चौ0 92-93 में वर्णित भक्त ज्ञानी हैं (1), चौ0 94 में वर्णित भक्त जिज्ञासु हैं (2), चौ0 95 में वर्णित भक्त अर्थार्थी हैं (3), चौ0 96 में वर्णित भक्त आर्त्त हैं (4); ये ही चारो प्रकार के भक्त हैं।]
034
[ब्रह्म का निर्गुण रूप तो जैसा चौपाई में है, अकथ- अनादि-अगाध और अनूप है, इसे सभी समझ सकते हैं। ब्रह्म के सगुण रूप ये हैं-विष्णु-रूप, विराट-रूप, रामकृष्णादि अवतारी-रूप; सब चर-अचर-रूप, योग-दृष्टि से दर्शित रूप और आहत-अनहद शब्द-रूप आदि। इन सब रूपों का पूर्ण वर्णन अशक्य है, ये थाहे नहीं जा सकते। यह भी बतलाया नहीं जा सकता कि ब्रह्म ने कब सगुण रूप धारण किया है, इसलिए सगुण रूप भी अनादि कहलाता है और न कोई उपमा ऐसी है, जो इसको दी जा सके।]
035
[निर्गुण व्यापक रूप है और सगुण प्रत्यक्ष रूप]
036
[गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामजी की कथा का नाम, जिसका वर्णन करना मैंने आरम्भ किया है, रामचरितमानस है। मानस = सरोवर। रामचरितमानस-श्रीरामजी के चरित्रें का सरोवर।]
037
[मुनि-भावन = ज्ञानी पुरुषों के मन को अच्छा लगनेवाला पदार्थ]
038
(तीन दोष = मन, वचन और कर्म के। तीन दुःख-दैहिक, दैविक और भौतिक। तीन दारिद्र्य-ज्ञान-हीनता, इन्द्रिय-सुख- लोलुपता और धन-लोलुपता।)
039
[इस जल की सगुण लीला-रूपिणी निर्मलता से शरीर का मल नहीं, हृदय का मल नष्ट होता है; जिस तरह पोखर, कूप और नदी आदि के जल की निर्मलता से शरीर का मल नष्ट होता है।]
040
[प्रेम मीठापन है। भक्ति-भजन-सेवा-नवधा भक्ति, ठण्ढापन है।]
041
[याज्ञवल्क्य-भरद्वाज का संवाद, शिव-पार्वती का संवाद, कागभुशुण्डि-गरुड़ का संवाद और कुम्भज ऋषि तथा शिवजी का संवाद; ये ही चारो संवाद चार घाट हैं।]
042
[ज्ञान-नेत्र प्राप्त करने के दो साधन हैं-(1) विद्याभ्यास और (2) योगाभ्यास। आप्त जन वा विश्वसनीय जन के वचनों के प्रमाण-द्वारा ज्ञान प्राप्त करना एवं उपमान प्रमाण-द्वारा और अनुमान प्रमाण-द्वारा ज्ञान प्राप्त करना विद्याभ्यास से होता है। पर इन तीनों प्रकारों से अनुभव वा प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता है। ज्ञान की इस कमी की पूर्ति के लिए दूसरा साधन योगाभ्यास है, जिससे अनुभव वा प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। उपर्युक्त दोनों साधनों के बिना, ज्ञान-चक्षु खुले बिना रामचरितमानस के वर्णित चारो घाटों की सीढ़ियों को देखे बिना मन नहीं मानेगा, यथार्थ बोध नहीं होगा अथवा संशय निर्मूल होकर नाश नहीं होगा। गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
मोह निसा सब सोवनिहारा। देखिय सपन अनेक प्रकारा ।।
यहि जग जामिनि जागहिं जोगी । परमारथी प्रपंच वियोगी ।।
(रामचरितमानस)
सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि पद अनुभवइ परम सुख, अतिशय द्वैत बियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास यहि दसा हीन, संसय निर्मूल न जाहीं ।।
(विनय-पत्रिका)
गो0 तुलसीदासजी रामचरितमानस के वर्णन में यह भी साफ कह देते हैं कि-चौ0-‘नवरस जप तप योग बिरागा । ते सब जल-चर चारु तड़ागा ।।’ तात्पर्य यह है कि रामचरितमानस में योग-रहस्य भी हैं, योग-साधन-विहीन केवल विद्या-बुद्धि से योग-रहस्य का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना असम्भव है। इसलिए विद्याभ्यास और योगाभ्यास-द्वारा ज्ञान-नेत्र प्राप्त करके ही रामचरितमानस में देखने से उसके अन्तर के सब रहस्य जाने जा सकेंगे। कोरे शब्दार्थों के जानने से काम पूरा नहीं होगा।]
043
[श्रीरघुनाथजी की निर्गुण महिमा बाधा और विघ्न-रहित है और रामचरितमानस के साधु-रूपी बादलों-द्वारा बरसाये हुए राम के सुन्दर यश-रूपी उत्तम जल की भी गहराई वही है। साथ-ही-साथ निर्गुण रूप को उत्तरकाण्ड में बहुत सरलतापूर्वक प्राप्त होने-योग्य भी बतलाया है; यथा-
दोहा-निर्गुन रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोइ ।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होइ ।।
निर्गुण-महिमा बाधा-रहित होने के कारण स्वभाव से ही स्वच्छतायुक्त मल-रहित होगा। इसलिए निर्गुण-महिमा स्वच्छता- सहित रामचरितमानस के जल की अगाधता है। चौ0 116 में कहा गया है कि सगुण लीला रामचरितमानस के जल की स्वच्छता है। स्वच्छता जल का उत्तम गुण है सही, परन्तु अगाधता-रहित स्वच्छता से अथवा अल्प स्वच्छ जल से विशेष मैल नष्ट नहीं हो सकती है। और उत्तरकाण्ड के उपर्युक्त दोहे में सगुण रूप को मुनियों के मन में भी भ्रम (मल) उत्पन्न करनेवाला कहा गया है और उसमें यह भी कहा गया है कि सगुण रूप को कोई जानता नहीं है। जैसे कि ब्रह्मा और इन्द्र ने श्रीकृष्ण भगवान को न जान सकने के कारण उनके विरुद्ध काम किया। ये कथाएँ (ब्रह्मा के गौ-हरण और इन्द्र द्वारा व्रज पर जल बरसाने आदि की) भागवत में हैं। और स्वयं रामचरितमानस में नारद, सती, गरुड़ और कागभुशुण्डि आदि के मोह में पड़ने का वर्णन है। निर्गुण और सगुण के उपर्युक्त वर्णनों को विचारकर बुद्धिमान जान सकेंगे कि यद्यपि रामचरितमानस में सगुण रूप और सगुण लीला का विस्तारपूर्वक वर्णन है और निर्गुण रूप तथा निर्गुण-महिमा का वर्णन उतने विस्तार से नहीं है, तथापि श्रेष्ठता निर्गुण रूप और निर्गुण-महिमा को ही उसमें दी गई है। प्रथम उपासना के लिए सगुण रूप और सगुण लीला को श्रद्धा से ग्रहण करने की आवश्यकता है, परन्तु दुराग्रह और हठ से ब्रह्म के सगुण रूप को ही परमावधि जान लेना तथा उसी पर अटके रहना और उसके आगे ब्रह्म के निर्गुण स्वरूप ग्रहण करने के उत्तम और सरल साधन से विमुख रहना, रामचरितमानस की अगाधता के अन्तस्तल में न पहुँचना, ब्रह्म के निर्गुण स्वरूप-रूपी अनमोल रत्न को गँवाना है। ऐसे दुराग्रही के प्रति स्व0 लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के ये वचन ठीक हैं-‘यह मनुष्यों की अत्यन्त शोचनीय मूर्खता का लक्षण है कि वे इस सत्य तत्त्व को तो नहीं पहचानते कि ईश्वर सर्वव्यापी, सर्वसाक्षी, सर्वज्ञ, सर्व-शक्तिमान और उसके भी परे अर्थात् अचिन्त्य है; किन्तु वे ऐसे नाम-रूपात्मक व्यर्थ अभिमान के अधीन हो जाते हैं कि ईश्वर ने अमुक समय, अमुक देश में, अमुक माता के गर्भ से, अमुक वर्ण का, नाम का या आकृति का जो व्यक्त स्वरूप धारण किया, वही केवल सत्य है और इस अभिमान में फँसकर एक दूसरे की जान लेने तक को उतारू हो जाते हैं।’ (गीता-रहस्य, भक्ति-मार्ग, पृष्ठ 423, पुनर्मुद्रण सं0 1974, सन् 1917 ई0, पूना)]
044
[बिना सत्संग रामचरितमानस में डूबकर नहीं समझ सकते हैं।]
045
[मानस-चषु = हृदय की आँख। इसका वर्णन चौ0 सं0 7 और 5 के अर्थ के नीचे के कोष्ठों में अवश्य पढ़िये। चौ0 सं0 7 के नीचे के कोष्ठ में कही गई रीति से हृदय की आँखें खोलकर रामचरितमानस में वर्णित विषय ठीक-ठीक जाना जा सकता है। और इस विषय को ही मन डुबाकर जानना, रामचरितमानस में स्नान करना है। पर याद रहे कि हृदय की आँखें खुले बिना रामचरितमानस के विषय को जानना असम्भव है।]
046
[भक्तियोग को साधे बिना हृदय की आँखें नहीं खुलेंगी और इन आँखों के खुले बिना हृदय नहीं धोया जा सकेगा। साधन के परिश्रम को न सह सकनेवाले, सुस्त, आलसी, विषय-लोलुप और सत्य परमार्थ-साधन के लिए पुरुषार्थ-हीन मनुष्यों को कायर कहा गया है।]
047
[जबतक दो नहीं हो, तबतक जाना नहीं जा सकता कि एक दूसरे के समान है (वा असमान है)। द्वैत में ही समानता वा असमानता की नाप वा विचार हो सकता है, अद्वैत में नहीं। इस दोहे को पढ़कर यह नहीं जानना चाहिये कि गोस्वामी तुलसीदासजी का यह मत है कि जिस तरह घट के फूटने पर घटाकाश और महदाकाश की एकता का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, उसी तरह जीव के जीवत्व (जीव का भाव) का नाश होने पर सर्वेश्वर से एकता नहीं होती है। ये (गो0 तु0 दा0) जीव और ईश की समानता तो अवश्य ही नहीं मानते हैं, परन्तु उपर्युक्त रीति से जीवत्व-रूप आवरण के नष्ट होने पर जीवात्मा का सर्वेश्वर से एकता अच्छी तरह निःसंशय रूप से अवश्य मानते हैं। इसकी पुष्टि आगे कई स्थानों पर की गई मिलेगी। समानता का अर्थ है बराबरी और एकता का अर्थ है अद्वैतता-अभेद भाव-अत्यन्त द्वैताभाव-दो भेद का कुछ भी न रहना। एक की दूसरे से तुलना करने पर यदि दोनों में बराबरी पाई जाय, तो कहेंगे कि यह उसके समान है। इसलिए यह कुछ भी जरूरी नहीं है कि समानता में द्वैतता मिट जाय। अतएव समानता और एकता वा अतिशय द्वैतहीनता; एक ही बात नहीं है। जीव और ईश को समान मानना तो निरी मूर्खता है ही, परन्तु समानता और अद्वैतता को एक ही जानना भी अगाध मूढ़ता से कम नहीं है।]
048
[गंगाजी से पृथक हुआ जल मदिरा बनने योग्य दूसरे सब पदार्थों के संग से अपवित्र मदिरा कहलाता है और वह गंगा-जल की बराबरी मदिरा-रूप में रहकर कभी नहीं कर सकता है। इसी तरह अन्तःकरण, इन्द्रियों और शरीरों के आवरण-रूपी संग से ईश्वर का अंश जीवात्मा कहलाता है और अज्ञानता की अपवित्रता से युक्त मायाधीन हो जाता है और ईश्वर की बराबरी कभी नहीं कर सकता है। परन्तु जिस तरह वह मदिरा बना हुआ गंगा-जल गंगाजी में मिलकर अपवित्रता से मुक्त हो जाता है और गंगाजी की बराबरी नहीं करता, बल्कि गंगाजी से एकता प्राप्त करके तद्रूप (गंगाजी का रूप) हो जाता है, उसी तरह जीवात्मा ईश्वर की भक्ति करके, उसमें लीन होकर वह और ईश्वर एक ही हो जाता है। उसकी जीवत्व-भाववाली अपवित्रता सम्पूर्णतः नष्ट हो जाती है। चौ0 सं0 130 और 131 का यह मर्म है।]
049
[चौ0 सं0 145, 146 और 147 का सारांश यह है कि माया मिथ्या, भ्रम और स्वप्नवत् है। जिनके जाने बिना यह (माया) सत्य प्रतीत होती है, जिस तरह रस्सी-रूप सत्य वस्तु में माया-रूप सर्प का भ्रम होता है, जिसके जाने बिना जीव अज्ञानता-रूप नींद में माया-रूप स्वप्न देखता है, जो (स्वप्न) केवल भ्रम मात्र है, जिसको जानने पर माया मिट जाती है और अज्ञानता-रूप नींद नहीं रहती है, वह बालक-रूप राम है। बालक-रूप राम को ही देखकर कागभुशुण्डि को भ्रम हुआ था, जिसकी कथा सप्तम सोपान में वर्णन की गई है। इसलिए वह बालक-रूप राम, जिसको जान लेने से माया मिट जाती है, केवल बाल्यावस्था का नर-रूप राम नहीं; बल्कि उसी बाल्यावस्था के नर-रूप से आवरणित वा आच्छादित आत्म-रूप राम है। जो केवल मायाकृत नर-रूप को ही जानेगा, उसमें व्यापक आत्म-रूप राम को नहीं जानेगा, उसका माया-भ्रम नहीं मिटेगा। व्याप्य रूप आवरण-भेद से आत्म-स्वरूप राम को बालक-रूप राम कहने में कुछ भी अयुक्ति नहीं। आत्म-रूप राम से व्याप्त नराकृति बाल-रूप को, जो कौशल्या माता के गर्भ से प्रकट होनेवाले और राजा दशरथ के आँगन में विहार करनेवाले हैं, ‘दाशरथि राम’ वा ‘रघुनाथ’ वा ‘रघुवर’ और ‘दशरथ अजिर विहारी’ कहना कुछ भी अयोग्य नहीं। केवल नराकृति-राम-रूप को जानना और उसमें व्याप्त आत्मरूप राम की जानकारी को अनुपयोगी (बेफायदे) जानकर उसे जानने की चाह न करना, भ्रम में फँसे रहने का लक्षण है। रामचरितमानस के सप्तम सोपान में साफ कह दिया है कि-
भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ-सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ ।।
तात्पर्य यह है कि भगवान राम प्रभु ने शुभ लीला-हित नर राजा की देह वा नर-रूप धारण करके नर की भाँति नटवत् लीला की थी, पर वे यथार्थ मनुष्य न हो गये थे। अस्तु, मनुष्याकार राम भगवान का माया-रूप है। उनका स्वरूप (निजरूप) निश्चय ही आत्मराम-रूप अमायिक है।]
050
[इस दोहे से पार्वतीजी मोह-वश नहीं जान पड़ती हैं, परन्तु चौ0 157 से वे मोह-वश जान पड़ती हैं।]
051
[यदि केवल ज्ञान और विचार-हीन को अन्ध कहते, तो अज्ञ और अकोविद शब्दों के बाद फिर ‘अन्ध’ शब्द इस चौपाई में देने की आवश्यकता न थी। योगाभ्यास द्वारा प्राप्त दिव्य दृष्टि से हीन को ही विशेष कर व्यक्त करने के लिए ‘अन्ध’ शब्द का प्रयोग किया गया है। दिव्य दृष्टि के सम्बन्ध में विशेष बातें चौपाई सं0 5 और 118 में दी गई हैं। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द; विषय कहे जाते हैं। जो मन इन विषयों के अतिरिक्त कुछ नहीं जानता है, उसी मन-रूप दर्पण पर विषय की काई लगी हुई है। ‘जन मन मंजु मुकुर मल हरनी’, ‘गुरु पद पदुम परागा’ के सेवन से और रामचरितमानस के पवित्र जल से धोने से यह मल दूर होता है। चौ0 सं0 4, 116 और 119 के अर्थों, उनके नीचे के कोष्ठों के वर्णनों को समझकर पढ़िये।]
052
[चौ0 सं0 159 में मन को दर्पण और विषय को उस दर्पण पर की काई कहा गया है और अन्ध, बाहरी आँखों से हीन को नहीं, बल्कि दिव्य दृष्टि से हीन को कहा गया है। जो अपने मन-रूप दर्पण पर से विषय-ज्ञान-रूप मल को साधनों के द्वारा धोकर साफ कर डालेगा और दिव्य दृष्टि प्राप्त करेगा, वही राम-रूप का दर्शन पावेगा। साधनों से हीन, विषय-मल-युक्त मैला मन-दर्पणवाला और दिव्य दृष्टि विहीन, केवल चर्म-दृष्टिवाला अन्धा मनुष्य राम-रूप का दर्शन कभी नहीं प्राप्त कर सकेगा। चौ0 सं0 159 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में देखिए। चौ0 147 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में जो बालक-रूप राम का विचार किया गया है, उसको यह चौपाई (सं0 162) अच्छी तरह पुष्ट करती है। मायिक नराकृति बालक रघुवर-रूप आवरण से आच्छादित आत्म-रूप राम का दर्शन, मन-रूप दर्पण पर के विषय-रूप मल को दूर करने और दिव्य दृष्टि प्राप्त करने पर होगा। यदि केवल मायिक रूप से काम चल जाता अर्थात् राम के निज स्वरूप (यथा-राम स्वरूप तुम्हार, बचन अगोचर-----निगम कह ----) का ज्ञान हो जाता तो चौ0 सं0 162 के लिखने का कुछ भी फल न होता; क्योंकि माया का रूप तो मन-मलिन और चर्म-दृष्टिवाले अन्धे को स्वाभाविक ही दरसता है। अतएव जिनको राम-रूप देखना हो, उन्हें चाहिये कि अपने मन पर से विषय-काई को दूर कर दिव्य दृष्टि प्राप्त करके अपने अन्धेपन को दूर करें। ऐसा किए बिना जिस रूप को राम-रूप कहकर (देखनेवाला) देखता है, वह केवल मायिक रूप को ही देखता है, यथार्थ राम-रूप को नहीं। यदि अज्ञानता से हठ करके कोई कहे कि नराकृति बालक रघुवर-रूप ही गोस्वामी तुलसीदासजी के रामचरितमानस के आधार पर यथार्थ राम-रूप है; पर उसे संसार या भ्रम या माया, स्वप्न की तरह मिटी हुई (नराकृति बालक रघुवर-रूप को देखने के बाद भी) नहीं दिखाई देती है, तो रामचरितमानस ही के अनुसार वह भ्रम में पड़ा हुआ असत्यवादी पुरुष है।]
053
[चौ0 सं0 119 में कहा गया है कि निर्गुण-महिमा निर्विघ्न है। इस कारण निर्गुण का विवेकी बनावटी बातों की गप्पें नहीं मारेगा; क्योंकि उसको भ्रम कदापि न होगा और सगुण की असलियत को यथार्थ रूप से जानेगा। उक्त चौ0 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में यह दरसा दिया गया है कि केवल सगुण में भ्रम उत्पन्न होगा।]
054
[कोई एक पदार्थ जो अकेले हो-संगहीन हो, जब वह किसी दूसरे का संग कर लेता है, तब वह उस पदार्थ के सहित कहा जाता है। परन्तु दूसरे पदार्थ के संग होने पर भी वह वही रहता है, जो वह पहले से है।
गुण का अर्थ है-स्वभाव। उत्पादक स्वभाव रजोगुण, पोषक स्वभाव सतोगुण और विनाशक स्वभाव तमोगुण; इन तीन गुणों से हीन को निर्गुण कहते हैं। यह असंग एक-ही-एक है; परन्तु वही जब कथित गुणों को साथ कर लेता है, तब सगुण कहलाता है। सगुण कहलाने पर भी तत्त्व-रूप में वह स्वरूपतः निर्गुण ही रहता है। तात्पर्य यह कि शरीर वा देह पर जब कुरता नहीं पहना रहता है, तब बिना कुरते का शरीर कहा जाता है। कुरता पहन लेने पर वह कुरता के सहित हो जाता है। कुरते के आवरण के कारण शरीर, कुरता नहीं होता है और कुरता, शरीर नहीं होता। शरीर, शरीर ही और कुरता, कुरता ही रहता है। इसी तरह से निर्गुण, त्रयगुणी आवरण को धारण करके उसके अन्दर रहता हुआ निर्गुण ही रहता है और त्रयगुणी आवरण, निर्गुण नहीं होता है। परमात्म-स्वरूप राम ब्रह्म, सर्वव्यापी और अपार है।
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति-नेति नित निगम कह ।।
राम ब्रह्म परमारथ रूपा । अविगत अलख अनादि अनूपा ।।
सकल विकार रहित गत भेदा । कहि नित नेति निरूपहिं वेदा ।।
यह राम ब्रह्म ‘अविगत अलख अपार’ है। ‘अपार’=‘अनन्त’ तत्त्व दो नहीं हो सकने के कारण उसको उपर्युक्त त्रयगुण सम्पूर्णतः आच्छादित नहीं कर सकते। वह अनन्त तत्त्व अपने आंशिक भाव में ही सगुण कहलाता है। उन गुणों में आंशिक भाव से रहकर सगुण कहलाकर भी स्वरूपतः वह निर्गुण ही रहता है। वह सदैव निर्गुण ही रहता है-कहने का तात्पर्य है कि वह एक-ही-एक (निर्गुण तत्त्व) ऊपर वर्णनानुसार निर्गुण और सगुण; दोनों नामों से विदित है। अतएव ‘सगुनहिँ अगुनाहिँ नहिँ कछु भेदा।’ ठीक ही है।
त्रयगुण राम की निजी माया हैं-उनके स्वचरित हैं, उनके अधीन हैं। इस त्रयगुणमयी माया को रामचरितमानस में स्थान-स्थान पर भ्रम और मिथ्या कहा गया है।
‘रजत सीप महँ भास जिमि, यथा भानुकर वारि ।
जदपि मृषा तिहुँ काल सो, भ्रम न सकइ कोउ टारि ।।
ऐसेहि जग हरि आश्रित रहई । जदपि असत्य देत दुख अहई ।।
‘व्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचण्ड ।
सेनापति कामादि भट, दम्भ कपट पाखण्ड ।।
सो दासी रघुवीर कै, समुझे मिथ्या सोपि ।
छूट न राम कृपा बिनु, नाथ कहउँ पद रोपि ।।’
‘झूठउ सत्य जाहि बिनु जाने । जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचाने ।।’
सीपी में चाँदी, भानुकर में जल और रज्जु में सर्प का भान भ्रम से ही होता है। इन उपमाओं से गोसाईंजी ने माया को भ्रमवश प्रतीत होनेवाली कहा है। और-
‘प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी । ब्रह्म निरीह बिरज अविनासी ।।’
कहकर उन राम प्रभु को, प्रकृति-जो त्रयगुणमयी है, के पार कहकर केवल निर्गुण स्वरूप में भी रामचरितमानस में वर्णन किया है।
इससे यह नहीं कि निर्गुण राम कोई और तथा सगुण राम कोई दूसरे हैं, प्रत्युत प्रकृति-पार होते हुए भी वे प्रकृति में भी व्याप्त हैं। इसीलिए वे सगुण भी कहलाते हैं। प्रकृति पार और प्रकृति के अन्दर; दोनों तरहों से वे एक-ही-एक रहते हैं। चौ0 सं0 175 और 177 उपर्युक्त भाव को विदित करती हैं।
निर्गुण स्वरूप उसका सहज, स्वाभाविक और अनिर्मित है, पर उसका सगुणरूप किसी कारण से निर्मित और अस्वाभाविक है। निर्गुण स्वरूप अव्यक्त, अगोचर, अवयव-रहित, निराकार, अपरिच्छिन्न, असीम, निर्माया, अविनाशी और सत्य है। सगुण रूप व्यक्त, गोचर, अवयव-सहित, साकार, परिच्छिन्न, ससीम, माया, नाशवान और असत्य है। निर्गुण स्वरूप भ्रममूलक नहीं है, न भ्रम के आधार से दरसता है और न भ्रम उत्पन्न करता है, पर सगुण रूप भ्रममूलक, भ्रम के आधार से दरसनेवाला और भ्रम उत्पन्न करनेवाला है। निर्गुण स्वरूप का ज्ञान होने से सगुण रूप-माया की अयथार्थता प्रत्यक्ष हो जाती है और वह मिट जाती है-- इत्यादि-इत्यादि। निर्गुण एवं सगुण में तत्त्व-निर्भेदता के अतिरिक्त बहुत-से दूसरे भेद रामचरितमानस में ही वर्णित हैं। इन बातों की साक्षी के लिए चौ0 सं0 119, 145 से 147 तक तथा 168, 169, 171 और 177 के अर्थों और उनके नीचे के कोष्ठों के वर्णनों को पढ़िए।]
055
[यह चौपाई निर्गुण स्वरूप से सगुण रूप होने का कारण बतलाती है और यह भी बतलाती है कि जो पदार्थ निर्गुण है, वही सगुण होता है अर्थात् निर्भेदता केवल तत्त्व-रूप में है, गुण-रूप में नहीं। यदि कोई गुण-रूप में भी निर्भेदता माने, तो कहना होगा कि वह निर्गुण और सगुण शब्दों का अर्थ नहीं जानता है। इस चौपाई से यह भी साफ प्रकट होता है कि निर्गुण रूप राम का प्रथम, पुराना, सनातन और सहज स्वरूप है और उनका सगुण रूप नवीन, किसी कारण से प्रकट होनेवाला तथा असनातन है और सहज स्वरूप नहीं है।]
056
[जल से पाला और ओला बनता है। जल, पाला और ओला; तीनों ही तत्त्व-रूप में निर्भेद हैं, पर तत्त्व-रूप के अतिरिक्त और अनेक प्रकार से निर्भेद नहीं हैं; जल तरल, पाला वाष्पीय और ओला कठोर है। जल सींचने से खेती अच्छी होती है, पर पाले और ओले से खेती नष्ट हो जाती है इत्यादि। इसी तरह सगुण और निर्गुण में भेद और अभेद; दोनों हैं। इस चौपाई से भी उस वर्णन की पुष्टि होती है, जो चौ0 सं0 167 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में है। जैसे हिम और उपल, जल से व्याप्त जल के नवीन अपर रूप हैं, वैसे ही सगुण रूप निर्गुण से व्याप्त निर्गुण का नवीन अपर रूप है।]
057
[सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड में चौ0 सं0 722 से 727 तक राम के केवल निर्गुण स्वरूप का वर्णन है और इसी (वर्णित रूप) को सूर्य कहा गया है, जिसके आगे मोह-अन्धकार नहीं जा सकता है। इस चौ0 (सं0 170) में वर्णित सच्चिदानन्द के सूर्य-रूप राम को यदि सगुण मान लें, तो उत्तरकाण्ड के उपर्युक्त वर्णन (जो चौ0 सं0 722 से 727 तक है) से यह विरुद्ध (वर्णन) होगा। और रामचरितमानस में अनेक स्थानों पर वर्णन किया गया है कि राम के सगुण रूप को देखकर बहुतों को भ्रम उत्पन्न हुआ। उत्तरकाण्ड के इस दोहे-‘निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुण जान नहिं कोइ । सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होइ ।।’ में तो साफ ही कह दिया गया है कि सगुण भ्रमोत्पादक अर्थात् मोह-निशावाला है। इसलिए चौ0 सं0 170 में राम के निर्गुणत्व का ही वर्णन जानना यथार्थ है।]
058
[भगवान शब्द से षडैश्वर्य माया-धारी सगुण रूप ही व्यक्त होता है। अमित भुज वा मुखधारी विश्ववास वा विराटरूप भगवान, ब्रह्मा-रूप भगवान, सीतापति राम रूप भगवान और भगवती कहानेवाली सब देवी-रूप भगवतियाँ विचारपूर्वक सगुण माया-रूप-धारी वा धारिणी ही कही जाएँगी। केवल रघुवर राम ही को वा केवल विष्णु भगवान ही को भगवान नहीं कहते हैं। भगवान का वर्णन चौ0 सं0 78 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में देखिये। यद्यपि सगुण के सर्वोत्कृष्ट पद को भगवान कहते हैं, तथापि सगुण भगवानरूप को ‘सहज प्रकाश-रूप’ मान नहीं सकते; क्योंकि भगवान कहलानेवाला उपर्युक्त कोई भी रूप क्यों न हो, वह तो फिर सगुण ही होना चाहिये। फिर चौ0 सं0 167 से 169 तक के अर्थों के नीचे कोष्ठों में सप्रमाण वर्णन कर दिया गया है कि सगुण बनावटी-मात्र है। हाँ, जिस तत्त्व से सगुण की बनावट हुई है, वह (तत्त्व) उपर्युक्त चौपाइयों (सं0 167 से 169 तक) के अनुसार ‘सहज प्रकास रूप भगवाना’ अवश्य ही मानने योग्य है; क्योंकि वह परम तत्त्व सगुण नहीं, निर्गुण है। निर्गुण रूप बनावटी हो नहीं सकता। ‘सहज प्रकाश रूप भगवाना’ अर्थात् भगवान बिना बनावट के प्रकाश-रूप हैं, ऐसा कहकर और सगुणता का प्रकाशक ‘भगवान’ शब्द का प्रयोग करके भी बिना बनावट का वा ‘सहज प्रकाश-रूप’ भगवान का तात्पर्य समझ लेने पर बनावटी सगुण छूटकर, बिना बनावट का निर्गुण ही रह जाता है। और चौ0 सं0 174 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में वर्णित बाल-रूप राम और दशरथ-अजिर-विहारी राम को जिस रीति से निर्गुण जाना गया, उस रीति से भी भगवान-रूप को निर्गुण जान लेना अयोग्य नहीं। मूल परम तत्त्व निर्गुण से ही निर्मित भगवान के किसी भी सगुण रूप व्याप्य में वही निर्गुण तत्त्व व्यापक है (क्योंकि जल से ओले की भाँति निर्गुण से सगुण का बनना कहा गया है)। इस दृष्टि से व्यापक और व्याप्य; दोनों को एक ही परम तत्त्व निर्गुण जानकर ही भगवान को ‘सहज प्रकास-रूप भगवाना’ कवि ने कहा है। यदि बहुत कारीगरी से अति सुन्दर चित्रकारीयुक्त, परम सुगढ़-गढ़न का एक सर्वोत्कृष्ट जेवर सोने का बनाया गया हो और कोई कवि सोने के गुणों का (जेवर का नहीं) वर्णन करके, उस जेवर को भी उन्हीं (सोने के) गुणोंवाला वर्णन करे तो जानना चाहिये कि इस वर्णन में कवि जेवर का केवल सोना-रूप में वर्णन करता है, जेवर-रूप में नहीं। इसी तरह जबकि निर्गुण परम तत्त्व-रूप सोने से ही सगुण भगवान-रूप अत्यन्त सुन्दर जेवर रामचरितमानस के अनुसार बना है (देखिये, चौ0 सं0 167 से 169 तक) और ‘सहज प्रकाश-रूप’ और ‘नहिं तहँ पुनि बिज्ञान बिहाना’ कहकर केवल निर्गुण रूप के ही सहज गुण का कवि वर्णन करते हैं, न कि सगुण रूप के गुणों का, तो मानना चाहिये कि कवि सगुणता-प्रकाशक भगवान नाम कहकर भी भगवान के निर्गुण स्वरूप का ही वर्णन करते हैं। और यह भी कहा है कि ‘बिनु विज्ञान कि समता आवै’, इसलिए जहाँ विज्ञान मिटा नहीं अर्थात् समता बनी रही, वह तत्त्व-रूपी स्थान सगुण नहीं, निर्गुण ही है। इस कोष्ठ के भीतर के सब वर्णनों का सारांश यह है कि चौ0 सं0 171 से सगुण रूप का नहीं, केवल निर्गुण रूप का ही बखान है।]
059
[चौ0 सं0 172 में वर्णित धर्म सगुण रूप से प्रत्यक्ष ही व्यक्त होता है, इसी से सगुण रूप को भ्रमोत्पादक कहा गया है। और चौ0 173 में ‘व्यापक ब्रह्म परेस पुराना’ आदि शब्दों से केवल निर्गुण रूप का वर्णन कर सकते हैं; क्योंकि सगुण रूप में ओत-प्रोत और उसके बाहर प्रति ओर व्यापक निर्गुण रूप से विशेष व्यापक सगुण रूप हो नहीं सकता। सगुण रूप के परे, उससे विशेष प्राचीन और उसका उत्पादक निर्गुण रूप से ‘परेस’ और ‘पुरातन’ अर्थात् सनातन निःसंशय रूप से कहा जा सकेगा। इसलिए इन दो संख्याओं की चौपाइयों में भी राम के निर्गुण रूप ही को व्यक्त किया गया है।]
060
[उत्तरकाण्ड में ‘सगुण जान नहिं कोइ’ कहा गया है। इसलिए रामचरितमानस के अनुसार सगुण रूप राम को ‘प्रसिद्ध पुरुष’ कहना ठीक नहीं है। रामचरितमानस के अनुसार निर्गुण पुरुष को ही प्रसिद्ध पुरुष कहना चाहिए। विराट आदि किसी भी सगुण भगवान-रूप को, सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र आदि को तथा आज्ञा-चक्र, सहस्त्र दल-कमल या सहस्त्रार और त्रिकुटी-स्थित ब्रह्म ज्योतियों के पृथक-पृथक अद्भुत रूपों को ‘प्रकाश-निधि’ नहीं कह सकते हैं; क्योंकि इनको पाकर भी आत्मरूप परम-प्रभु का निर्गुण स्वरूप प्रकाशित नहीं हो सकता। परन्तु निर्गुण स्वरूप का अनुभव-ज्ञान प्राप्त होने पर कुछ भी दरसने को शेष नहीं बच जाता। इसलिए निर्गुण स्वरूप को ‘प्रकाश-निधि’ भी कहेंगे। इस विचार की पुष्टि आगे की कई चौपाइयों से होती है। इस दोहे (सं0 26) से यह प्रकट है कि यद्यपि शिवजी ने ‘रघुकुल-मनि’ भी कहा, तथपि वे ‘रघुकुल-मनि’ रूप को सगुण दरसनेवाली दृष्टि से नहीं देखते हैं, बल्कि निर्गुण दरसनेवाली आत्म-दृष्टि से ही देखते हैं। जैसे कि जेवर को केवल धातु-रूप में देखना असम्भव नहीं है, उसी तरह इन्द्रियों से प्रत्यक्ष होने पर भी सगुण को निर्गुण रूप में देखना असम्भव नहीं है। परन्तु ऐसी उत्तम दृष्टि विशेष सत्संग और योगाभ्यास-द्वारा आत्म-दृष्टि प्राप्त किए बिना कभी किसी को नहीं प्राप्त हो सकती। शिवजी महान सत्संगी और योगी हैं। इसलिए इनको सगुण जेवर, निर्गुण धातु-रूप ही दरसे, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। सच्चे जिज्ञासु रामचरितमानस को इसी विचार से समझेंगे, तो रामचरितमानस के सार का पता पाएँगे। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 15, श्लोक 16-17 में पुरुष का वर्णन इस प्रकार है-
‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटोस्थोऽक्षर उच्यते ।। 16 ।।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
ये लोकत्रयमाविश्य विभर्त्यव्यय ईश्वरः ।। 17 ।।’
अर्थ-(इस) लोक में ‘क्षर’ और ‘अक्षर’ दो पुरुष हैं। सब (नाशवान) भूतों को क्षर कहते हैं और कूटस्थ को अर्थात् इन सब भूतों के मूल (कूट) में रहनेवाले (प्रकृति-’ रूप अव्यक्त तत्त्व) को अक्षर कहते हैं ।।16।। परन्तु उत्तम पुरुष (इन दोनों से) भिन्न हैं। उसको परमात्मा कहते हैं। वही अव्यय ईश्वर त्रैलोक्य में प्रवष्टि होकर (त्रैलोक्य का) पोषण करता है ।। 17।। (लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के ‘गीता-रहस्य’ से उद्धृृत) तथा कठोपनिषद्, अध्याय 2, वल्ली 3 में इस प्रकार वर्णन किया गया है-
‘अव्यक्तात्तु परः पुरुषो व्यापकोऽलिंग एव च ।
यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्वं च गच्छति ।। 8।।’
अर्थ-अव्यक्त से भी पुरुष श्रेष्ठ है और वह व्यापक तथा अलिंग है, जिसे जानकर मनुष्य मुक्त होता है और अमरत्व को प्राप्त हो जाता है ।। 8।। तथा मुण्डकोपनिषद्, मुण्डक 2, खण्ड 1 में कहा है-
‘दिव्यो ह्यमूर्त्तः पुरुषः सबाह्याभ्यन्तरो ह्यज ।
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात्परतः परः ।। 2।।’
अर्थ-(वह अक्षर ब्रह्म) निश्चय ही दिव्य, अमूर्त्त, पुरुष, बाहर- भीतर विद्यमान, अजन्मा, अप्राण, मनोहीन, विशुद्ध एवं कार्य-वर्ग की अपेक्षा श्रेष्ठ अक्षर (अव्याकृत’ प्रकृति) से भी उत्कृष्ट है ।। 2।।
061
[पृथ्वी से सूर्य पन्द्रह लाख गुणा बड़ा और नौ करोड़ तीस लाख मील ऊपर में है। बहुत-से तारे-पुंज और चन्द्रमा, सूर्य के नीचे हैं, बादल ताराओं और चन्द्रमा से भी नीचे रहता है। भू-मण्डल के सब भागों में एक ही ऋतु एक ही समय नहीं रहने के कारण, समस्त भू-मण्डल के निवासी एक ही समय अपने ऊपर मेघाच्छन्न आकाश नहीं देखते हैं। जिस समय भूमण्डल के किसी भाग पर से सूर्य साफ नजर आता है, उसी समय किसी भाग पर से बादल से ढँका हुआ-सा रहकर वह नजर नहीं आता है। इन्हीं कारणों से मेघ-मण्डल, जो सूर्य-मण्डल से सदैव बहुत छोटा है, सूर्य मण्डल का पूर्ण ढाँकनेवाला नहीं हो सकता है। इसलिए कहना पड़ेगा कि भू-मण्डल पर से समस्त मेघ-मण्डलों का यदि एक ही मण्डल बनाकर उसको सूर्य की ओर सीधे ऊपर की तरफ उठाते हुए सूर्य से बराबरी करने के लिए पहुँचाया जाय, तो वह (समस्त मेघ-मण्डल) जैसे-जैसे ऊपर चढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे भूमण्डल पर रहनेवालों को छोटा नजर आता जाएगा (क्योंकि दूर की वस्तु स्वभाव से ही छोटी मालूम होती है) और सूर्यांश प्रत्यक्ष होता जाएगा। वह सूर्य तक पहुँचने भी न पावेगा कि सम्पूर्ण सूर्य मण्डल बिना परदे का प्रत्यक्ष मालूम होने लगेगा और वह मेघ-मण्डल (सूर्य-ताप के कारण नहीं, केवल दूरी ही के कारण मान लीजिए) एक छोटा चिह्न-मात्र मालूम होकर, फिर न मालूम होने लगे, तो कुछ आश्चर्य नहीं। फिर सूर्य-ताप तो समस्त मेघ-मण्डल को नाश ही कर देगा, इसमें संशय ही क्या? इसलिए मेघ-मण्डल से समस्त सूर्य-मण्डल कभी भी छिप नहीं सकता। इन बातों के नहीं जाननेवालों को बादल से सूर्य के ढँक जाने का जैसे भ्रम होता है, वैसे ही अगुण और सगुण के विवेक से रहित अज्ञानी मनुष्य को सगुण रूप बादल से निर्गुण रूप सूर्य के ढँक जाने का भ्रम होता है। चौ0 सं0 174 में उपर्युक्त भ्रम को लक्ष्य करके कहा है कि अज्ञानी मनुष्य यह तो नहीं समझता है कि उपर्युक्त भ्रम मेरी बुद्धि पर छाया हुआ है, बल्कि वह जड़ प्राणी प्रभु पर ही मोह धरता है कि निर्गुण प्रभु-रूप सूर्य पर सगुण-बादल पूर्ण रूप से चढ़ा हुआ होकर वह (निर्गुण रूप सूर्य) सम्पूर्णतः सगुण रूप से ढँक गया है वा वह सम्पूर्ण का सम्पूर्ण सगुणाकार ही हो गया है। ऐसा विचार कुविचारी ही को होता है। विचारने पर निम्नोक्त विचार भी चौ0 सं0 175 में झलकता है। प्रभु का सहज निर्गुण स्वरूप अपरिमित है। वह बड़े-से-बड़े सगुण रूप से आवृत्त हो नहीं सकता है। निर्गुण स्वरूप परम विशाल, अनगिनत ब्रह्माण्डमय परम विराट सगुण रूप से आच्छादित होने पर भी इसके (सगुण विराट के) प्रति ओर बिना ढँके कितना अधिक बच जाता है, उसका अनुमान कोई नहीं कर सकता है। वर्णन हो चुका है कि बादल का रूप सूर्य के निकट होते-होते सूर्य-ताप और दर्शकों से दूर होते जाने के कारण घटते-घटते सम्पूर्णतः लुप्त हो जाएगा। इसी तरह अगुण-सगुण के विवेक से सगुण की निःसारता, असत्यता, भ्रम-रूपता और स्वप्न-सदृशता (ये सभी शब्द चौ0 सं0 145, 146 और दोहा 27 के अनुसार माया अथवा सगुण के लिए प्रयुक्त किये गये हैं) जैसे-जैसे समझ में आती जाएँगी और निर्गुण रूप का परम ज्ञान ताप जैसे-जैसे विशेष मिलता जाएगा, वैसे-वैसे सगुण-ज्ञान दूर और तुच्छ होते जाकर बिल्कुल नष्ट हो जाएगा। तब सगुण रूप को सामने देखने पर भी वह निर्गुण ही जानेगा। जैसे कि द्वितीय सोपान-अयोध्याकाण्ड में वर्णन है कि वाल्मीकि मुनि ने अपने सामने वर्त्तमान नर-रूपधारी भगवान राम से कहा-‘राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर। अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।’ इत्यादि।]
062
[सहज निर्गुण प्रभु-रूपी चन्द्र एक ही है। जो आदमी भ्रम का अंगुल अपने ज्ञान-चक्षु पर लगाकर देखता है, उसको सगुण प्रभु-रूपी एक और (दूसरा) चन्द्रमा दरसता है। जिस प्रकार आँखों पर से अंगुल हटा लेने से एक-का-एक ही चन्द्रमा दरसने लगता है और दूसरा (भ्रम का चन्द्रमा) मिट जाता है, उसी प्रकार भ्रम का अंगुल ज्ञान-चक्षु पर से हट जाने से सहज स्वरूपी निर्गुण रूप सत्य प्रभु-चन्द्र केवल एक ही रह जाता है और सगुण अथवा भ्रम-रूप दूसरा असत्य प्रभु-चन्द्र विलीन हो जाता है।]
063
[आकाश में अन्धकार के छाये रहने से आकाश अन्धकारमय या अन्धकार का रूप, धुआँ छाया रहने से धुआँमय वा धुआँ-रूप और धूल छायी रहने से धूलमय वा धूल-रूप दरसता है। पर यथार्थ में आकाश अन्धकार, धूम और धूलि से निर्लेप ही रहता है। प्रत्यक्ष निर्मल आकाश का जाननेवाला आकाश में अन्धकार, धूम और धूलि को देखकर भी उसे (आकाश को) इनसे लिप्त वा इनके रूप का कदापि नहीं जानेगा; परन्तु जिसने निर्मल आकाश को कभी नहीं देखा है, वह तो अन्धकार, धूम और धूलि छायी रहने के कारण आकाश को उनसे लिप्त और उनका रूप ही विश्वास-सहित मानता रहेगा। अच्छी युक्तियों से समझाने पर भी वह आकाश के निर्मल रूप को जल्द न समझ सकेगा। आकाश में यदि पूर्ण अन्धकार छाया हुआ होता है, तो आकाश का निज निर्मल रूप कुछ नहीं सूझता है। यदि उसमें धुआँ छाया रहे, तो वह कुछ-कुछ सूझता है और यदि धूल छाई रहे तो वह उससे कुछ विशेष सूझता है। पर जबतक कोई अन्धकार, धुएँ और धूल; तीनों के भीतर से चलते हुए तीनों की सीमाओं को पार न कर लेगा, तबतक आकाश का निर्मल निज रूप उससे कदापि नहीं सूझ सकता है। निर्मल आकाश-रूप निर्गुण राम में अन्धकार-रूप नराकृति सगुण (माया) छाया रहने से (वह निर्मल आकाश-रूप निर्गुण राम) नराकृति-अन्धकारमय नर-रूप दरसता है। धूम-रूप देवाकृति सगुण (माया) छाया रहने से देवाकृति-धूममय देवरूप और धूल-रूप विराटाकृति सगुण (माया) छाया रहने से विराटाकृति-धूलमय विराटरूप वा विश्ववास भगवान-रूप दरसता है। पर यथार्थ में निर्गुण राम-रूप निर्मल आकाश नराकृति, देवाकृति और विराटाकृति-रूप अंधकार, धूएँ और धूल से सर्वदा निर्लेप ही रहता है। निर्गुण-राम रूप निर्मल आकाश का प्रत्यक्ष अनुभव ज्ञान रखनेवाला पुरुष उसमें (निर्गुण राम-रूप निर्मल आकाश में) नराकृति, देवाकृति और विराटाकृति रूप अन्धकार, धूम और धूल को देखकर भी उसे इनसे लिप्त वा इनके रूप का कदापि नहीं जानेगा, परन्तु जिसने निर्गुण राम-रूप निर्मल आकाश का (प्रत्यक्ष) अनुभव ज्ञान कभी नहीं प्राप्त किया है, वह तो उसमें (निर्गुण राम-रूप निर्मल आकाश में) नराकृति-रूप अन्धकार, देवाकृति-रूप धूम और विराटाकृति-रूप धूल छाए रहने के कारण उसको (निर्गुण राम-रूप निर्मल आकाश को) उनसे लिप्त और उनका रूप ही विश्वास-सहित मानता रहेगा। अच्छी युक्तियों से समझाने पर भी वह उसे जल्द न समझ सकेगा। निर्गुण राम-रूप निर्मल आकाश में यदि नराकृति-रूप अन्धकार छाया हुआ होता है, तो उसको निर्गुण राम-रूप निर्मल आकाश के रूप का कुछ भी अनुभव ज्ञान नहीं होता है। यदि उसमें देवाकृति-रूप धूम छाया रहता, तो अनुभव ज्ञान की तरफ बढ़ानेवाला ज्ञान कुछ-कुछ होता है और यदि उसमें विराटाकृति-रूप धूल छायी हुई होती है, तो अनुभव ज्ञान की तरफ बढ़ानेवाला ज्ञान कुछ विशेष होता है। पर जबतक उस निर्गुण राम-रूप आकाश में से नराकृति माया-रूप अन्धकार, देवाकृति माया-रूप धूम और विराटाकृति माया-रूप धूल; तीनों माया-रूपों से गुजरते हुए तीनों की सीमाओं को पार न कर लिया जाय (और इसके आगे जब साम्यावस्थाधारिणी अव्यक्त प्रकृति को भी पार न कर लिया जाय), तबतक निर्गुण राम-रूप निर्मल आकाश के स्वरूप का अनुभव ज्ञान कदापि नहीं प्राप्त हो सकता है।]
064
[इन्द्रियाँ उनके (इन्द्रियों के) देवता से और इन्द्रियों के देवता जीव से सचेत हैं (जीव के कारण सचेत हैं)।]
065
[परम प्रकाशक-सर्वोत्तम प्रकाशक-आत्म-अनुभव- विकाशक-जिसके द्वारा कुछ भी देखने को बच न जाए । अनादि राम-राम का निर्गुण सनातन सहज रूप। राम के सगुण रूप को अनादि राम वा राम का निर्गुण सनातन रूप कहना ‘रामचरितमानस’ के विरुद्ध है। (चौ0 सं0 168 देखिए)। नराकृति-सगुण हुए बिना अवध-पति वा अयोध्या का राजा कहा नहीं जा सकता है। उत्तरकाण्ड में स्पष्ट कह दिया गया है कि ‘भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।।’ और भी-‘जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ । सोइ सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ।।’ इसलिए अवधपति-रूप को, राम का अनादि रूप नहीं कहा जा सकेगा। इस चौ0 का तात्पर्य यह है कि संसार-रूप नाट्यशाला में ‘सब कर परम प्रकाशक’ अनादि (निर्गुण स्वरूप) राम-रूप नट ने आवश्यकता-वश समयानुसार नाट्यकला दिखाने के लिए अवधपति का रूप धारण किया था। अयोध्या के राजा-रूप को ही ‘सब कर परम प्रकाशक’ और ‘अनादि’ मान लेना मूर्खता है। हाँ, इस रूप में व्यापक राम के निर्गुण सहज स्वरूप को ऐसा (‘सब कर परम प्रकाशक’ और ‘अनादि’) कहकर मानना निर्भ्रान्त और परमोचित है।]
066
[चौ0 सं0 180, 182, 183 और 184 तथा दो0 सं0 27 से निम्न-कथित सिद्धान्त प्रकट होते हैं-(1) माया अचेतन और असत्य है। (2) जैसे सीपी और सूर्य-किरण की सत्यता के आधार पर तथा मोह (भ्रम) की सहायता पाकर सीपी में चाँदी और सूर्य-किरण में जल मालूम पड़ता है, वैसे ही राम के अनादि, सहज और निर्गुण रूप की सत्यता के आधार पर मोह (भ्रम) की सहायता पाकर माया भासती (मालूम पड़ती) है। (3) माया कोई स्वतन्त्र मूल द्रव्य (तत्त्व) नहीं है। (4) यद्यपि माया असत्य और भ्रम मात्र है, तोभी अज्ञानावस्था में दुःख देती है। (5) जैसे स्वप्न का दुःख जग जाने से मिटता है, वैसे ही राम की कृपा से अज्ञानावस्था- रूप नींद से जागने पर अर्थात् भ्रम के नष्ट होने पर माया मिट जाती है। चौ0 सं0 184 में रघुराई शब्द से नराकृति-सगुण रूप जानने में आता है। नराकृति सगुण और स्थूल माया है। उपर्युक्त सिद्धान्तों के अनुसार जबकि माया-संसार असत्य और भ्रम-मात्र ही है, तो नराकृति स्थूल-सगुण माया की सत्यता मानना परम मूर्खता है। और जबकि इसकी सत्यता मानी नहीं जा सकती, तो इसकी सत्यता के आधार पर मोह की सहायता पाकर कुछ भासता है, ऐसा विश्वास करना पूर्ण निरर्थक है। इसलिए मानने योग्य है कि नराकृति-स्थूल सगुण माया रघुराई-रूप में व्यापक सहज निर्गुण रूप अनादि, सनातन और सत्य-रूप राम को ही लक्ष्य करके उपर्युक्त चौपाई और दोहे में वर्णित गुण-गान किया गया है।]
067
[बुद्धि के अनुमान-ज्ञान और अनुभव-ज्ञान में बड़ा अन्तर है। चौ0 सं0 118 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में इसका भेद खोल दिया गया है।]
068
[उपर्युक्त चारो चौपाइयों और इस दोहे (सं028) से भी यही बात प्रकट होती है कि राम का सनातन सहज रूप निराकार ही है, कारणवश वही साकार होता है। और ‘रामचरितमानस’ से यह बात सिद्ध है कि उसकी साकारता केवल माया-मात्र है। इसलिए यह नहीं भूलना चाहिए कि राम का सगुण वा माया-रूप असनातन, नवीन, असत्य और निर्गुण की सत्यता पर भ्रम की सहायता से असत्य होने पर भी सत्य-सा प्रतीत होता है।]
069
(इनका अर्थ चौ0 सं0 190, 191 के साथ यथास्थान में पूर्व हो चुका है) और इसी सोपान में इससे कुछ आगे बढ़ने पर मनु और शतरूपा की कथा में इनके तप-काल की अभिलाषा के प्रसंग में लिखा है कि-चौ0-‘उर अभिलाष निरन्तर होई । देखिए नयन परम प्रभु सोई ।। अगुन अखण्ड अनंत अनादि । जेहि चिन्तहि परमारथ बादी ।। नेति नेति जेहि वेद निरूपा । चिदानन्द निरुपाधि अनूपा ।। सम्भु बिरंचि बिष्नु भगवाना । उपजहिं जासु अंस ते नाना।।’ पार्वतीजी जिन चिन्मय, अविनाशी (ब्रह्म) के अवतार का कारण पूछती हैं, और ‘चिदानन्द निरुपाधि अनूपा ।’ जिनका दर्शन स्वायम्भुव मनुजी चाहते हैं; दोनों एक ही हैं, इसमें संशय नहीं। और स्वायम्भुव मनु की कथा में यह भी कहा गया है कि चिन्मय अविनाशी ब्रह्म अर्थात् ‘चिदानन्द निरुपाधि अनूप ब्रह्म’ से ही बहुत-से शम्भु, विरंचि और विष्णु भगवान उत्पन्न होते हैं। इसलिए चिन्मय (चिदानन्द), अविनाशी, अगुण, अखंड, अनन्त, अनादि ब्रह्म को (कि जिसके अंश से बहुत-से विष्णु उपजते हैं) और विष्णु भगवान को (निर्गुण और सगुण तथा अंशी और अंश के कारण) एक मानना रामचरितमानस के ही विरुद्ध होगा। मनु और शतरूपा ने भी चिन्मय, अगुण, अखण्ड और अनादि, ब्रह्म को ब्रह्मा, विष्णु और महेश का अंशी जाना था। इन तीनों देवेश्वरों को उन निर्गुण ब्रह्म के तुल्य नहीं माना था तथा इसी हेतु से उनसे वरदान नहीं लेकर तप करना नहीं छोड़ा और अंत में जिस रूप का दर्शन पाकर उन्होंने तप करना छोड़ा, उस रूप को भी ‘चिन्मय’ नहीं कह सकेंगे; क्योंकि ‘चिन्मय’ निर्मायिक होने के कारण इन्द्रियगोचर नहीं हो सकता। (इस विषय में अधिक जानकारी के लिए चौ0 सं0 204 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में पढ़िए) यद्यपि निर्गुण और सगुण में क्या अंतर है, वह चौ0 सं0 167 के नीचे कोष्ठ में दे दिया गया है, तथापि निर्गुण और सगुण को तत्त्व वा द्रव्य-रूप में रामचरितमानस के अनुसार एक अवश्य मानेंगे। परन्तु तत्त्व वा द्रव्य-रूप में तो निर्गुण के अतिरिक्त उसे सगुण कह न सकेंगे। इसलिए विष्णु-रूप अथवा सगुण के जो कर्म राम-अवतार के कारण हुए, उन्हीं को निर्गुण से सगुण होने का कारण मानना युक्ति-संगत नहीं। उपर्युक्त तीनों कथाओं से (इन कथाओं को रामचरितमानस पढ़कर जान लीजिए) तो रामचरितमानस के अनुसार यही प्रकट होता है कि इनमें रामावतार के जो कारण वर्णित किए गए हैं, वे सगुण रूप विष्णु के कर्म हैं; न कि चिन्मय, अविनाशी, अगुण, अखण्ड, अनन्त, अनादि ब्रह्म के। इन कर्मों के कारण जो रामावतार हुए, जान लेना चाहिए कि वह सगुण विष्णु भगवान ही नर-रूप राम, दशरथ-सुत हुए, न कि वह चिन्मय अगुण स्वरूप। इसलिए पार्वतीजी के प्रश्नों के उत्तर जो उपर्युक्त तीनों कथाओं को कहकर दिए गए हैं, यथोचित नहीं जँचते। ऐसे उत्तर से कवि का यह तात्पर्य झलकता है कि जैसे जल से बर्फ बनी है, वैसे ही निर्गुण से सगुण। विचार-दृष्टि से जिस प्रकार बर्फ जल ही है, उसी प्रकार सगुण-रूप विष्णु भी निर्गुण ब्रह्म ही हैं, परन्तु जबकि रामचरितमानस में माया को भ्रम और असत्य भी कहा गया है, तब ‘निज माया निर्मित तनु’ को सगुण के अतिरिक्त निर्गुण कैसे कहा जाए ? उत्तरकाण्ड में यह स्पष्ट ही कहा गया है कि ‘भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप । किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।। जथा अनेकन बेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ। सोइ सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ ।।’ तब फिर त्रयगुणमयी माया-निर्मित इन्द्रिय-गोचर रूप को निर्गुण नहीं कह सकते।]
070
[परमार्थ-तत्त्व के स्वरूप का वर्णन द्वितीय सोपान की चौपाई सं0 274-275 में और चौ0 सं0 267 के नीचे कोष्ठ में किया गया है।]
071
[तृतीय सोपान-अरण्यकाण्ड में है कि ‘गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई ।।’ अतएव शिवजी के मन में वा कागभुशुण्डि के मन में जो रूप गृहीत होगा, सो भी मायिक ही होगा, सत्य नहीं। इसके अतिरिक्त चौ0 सं0 284 से 287 तक के अर्थ-सहित कोष्ठ में के वर्णनों के पढ़ने से प्रकट होगा कि राम के स्वरूप को शिवजी नहीं जानते हैं। और न वे उतने बड़े अधिकारी भक्त हैं कि राम उनको अपना स्वरूप जना दें। इसलिए रामचरितमानस के अनुसार कहना पड़ता है कि शिवजी राम का केवल मायिक रूप ही जानते हैं, उनके निज स्वरूप को नहीं जानते हैं। फिर चौपाई सं0 198 में देखिये-मनु और शतरूपा को भी लीला (माया) सम्बन्धी रूप ही ‘भरि लोचन’ देखने की अभिलाषा थी। अपनी प्रार्थना के अनुसार मनु और शतरूपा ने विश्ववास भगवान के केवल मायिक रूप का ही दर्शन पाया, जो अत्यन्त सुन्दर था। मनु-शतरूपा को दर्शन देने के लिए वह रूप प्रकट हुआ, जिसकी प्रशंसा सगुण-अगुण कहकर वेद में है। सगुण रूप को ‘भरि लोचन’ वे अवश्य देखे होंगे, परन्तु अगुण-दूसरा और कुछ उन्होंने पहचाना, सो नहीं है। अगुण तो सगुण के अन्दर ही अवश्य व्याप्त था, परन्तु भगवान का वह व्यापक स्वरूप सगुणवत् इन्द्रियगोचर मानने योग्य नहीं है। तप करने के समय मनु-शतरूपा को केवल यही अभिलाषा थी कि निर्गुण ब्रह्म सगुणरूप धरकर हमको दर्शन दें। उस समय वे उस सगुण रूप से पुत्र की अभिलाषा नहीं रखते थे। सगुण-रूप के दर्शन होने पर ही यह अभिलाषा उनको हुई। इसका कारण यही कहा जा सकता है कि सगुण-रूप धारण करना निर्गुण ब्रह्म की माया है। अतएव माया-रूप के दर्शन से माया से मोहित होना सम्भव ही है। अतएव माया-मोहित होकर ही वे पुत्र-कामी हुए। यथार्थ में उनको ब्रह्म के निर्मायिक स्वरूप के दर्शन की इच्छा नहीं थी। उन्हें सगुण मायिक रूप के दर्शन की ही इच्छा थी। इसीलिए रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में यह दोहा लिखा है-‘भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप । किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।। जथा अनेकन भेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ । सोइ सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ ।।’ और दोहावली में है-‘हिय निर्गुण नयनन्हि सगुण, रसना राम सुनाम । मनहु पुरट सम्पुट लसत, तुलसी ललित ललाम ।।’
और कुछ लोग भगवान के सगुण रूप में अगुण स्वरूप में अभेद मानते हैं। वे स्वयं विश्वास करते हैं और औरों को भी विश्वास दिलाते हैं कि ‘भगवान के सगुण रूप और निर्गुण स्वरूप में कोई भेद नहीं है। आँखों से सगुण का दर्शन होने से ही निर्गुण का भी दर्शन हो गया। उनके सगुण रूप को ही निर्गुण स्वरूप मान लेना चाहिये ।।’ यह विश्वास अन्ध-विश्वास भर ही है। विश्वरूप वा विश्ववास भगवान के सम्बन्ध में चौ0 सं 77, 78, 175 और 177 को, उनके अर्थ-सहित कोष्ठ की व्याख्या को पढ़िये। परम प्रभु का निर्गुण असीम अनन्त स्वरूप पूर्ण का पूर्ण किसी एक बड़े-से-बड़े रूप में अँट (समा) नहीं सकता। तात्पर्य यह है कि अनादि, असीम परम प्रभु का विश्ववास आदि कोई भी एक बड़े-से-बड़ा रूप उनके अंश-मात्र से ही व्याप्त होगा। अतएव किसी भी रूप को उनके अंश-मात्र से बना हुआ कह सकेंगे। जिस रूप में प्रकट होकर विश्ववास भगवान ने मनु और शतरूपा को दर्शन दिया, वह अत्यन्त ही सुन्दर था (रूप का वर्णन रामचरितमानस में पढ़ लीजिए)। उससे ऐसा जान पड़ता है कि विष्णु भगवान के आभूषणों से ही यह सुन्दर रूप भी भूषित था। पर इस रूप में कितने हाथ थे, सो नहीं वर्णन किया गया है और भगवान राम के साथ उनकी बाईं ओर जगत की मूल आदिशक्ति शोभायमान थीं, जिनके अंश से असंख्य लक्ष्मी, ब्रह्माणी और पार्वती उपजती हैं।]
072
[चौ0 सं0 136 और 137 में देखिए, वहाँ श्री पार्वतीजी को ही आदिशक्ति और अजा (जो जनमे नहीं) कहा गया है।]
[विष्णु भगवान ने मनु और शतरूपा से वर माँगने को कहा। उन्होंने कहा कि आप अपने समान पुत्र और अपनी भक्ति हमको दीजिए। भगवान ने मनोवांछित वर देकर कहा कि तुम दोनों कुछ काल के बाद तन-त्यागकर इन्द्रलोक में जाकर बसोगे। कुछ काल वहाँ का भोग भोगकर फिर नर-लोक में अवतार लेकर अयोध्या के राजा-रानी होओगे, तब मैं तुम्हारे यहाँ अपने अंशों के सहित पुत्र होकर अवतार लूँगा। (यह कथा गो0 तुलसीदासजी ने और आगे नहीं बढ़ाई।)
5-याज्ञवल्क्य मुनि ने भारद्वाजजी से कहा कि हे मुनि! राम-जन्म के कारण के सम्बन्ध में एक कथा और सुनिए कि जो शिवजी ने पार्वतीजी से कही थी-
प्राचीन समय में सत्यकेतु नामक राजा था। उसके दो पुत्र हुए। बड़े का नाम प्रतापभानु था और छोटे का नाम अरिमर्दन। राजा सत्यकेतु अपने बेटे प्रतापभानु को राज्य देकर जंगल चला गया। प्रतापभानु अपने धर्मरुचि नामी बुद्धिमान मंत्री की सहायता से भूमण्डल के राजाओं को जीतकर सम्राट बन धर्म-पूर्वक राज्य करने लगा। राजा प्रतापभानु से पराजित किसी राजा ने उससे बदला लेने की इच्छा की। वह कपटी तपस्वी बनकर जंगल में रहने लगा। उसके एक मित्र ने जो छल-विद्या में बड़ा चतुर था, एक दिन जब प्रतापभानु शिकार के लिए जंगल गया, तो शिकार बन उसे (राजा को) भटकाते हुए कपटी तपस्वी राजा के आश्रम तक पहुँचाया और छिप गया। प्रतापभानु और उस कपटी तपस्वी में (जो प्रतापभानु का शत्रु था) गहरी बातचीत हुई। उस (कपटी तपस्वी) ने बतलाया कि यदि आप ब्राह्मणों को वश में कर लें, तो आपको फिर किसी शत्रु का भय न रह जाय। इस प्रकार अपनी दमपट्टी में लाकर राजा को ब्राह्मणों से शाप दिलवा दिया कि तुम सपरिवार राक्षस होओ। राजा किसी युद्ध में सपरिवार मारा गया और काल पाकर फिर जनमा। प्रतापभानु रावण हुआ और अरिमर्दन कुम्भकर्ण और धर्मरुचि नामी मन्त्री विभीषण हुआ। तीनों ने बहुत तप किया। शिवजी और ब्रह्माजी ने उनके पास जाकर वरदान दिया। रावण की माँग के अनुसार उसे वर मिला कि वह मनुष्य और बन्दर के अतिरिक्त किसी के हाथ से नहीं मरेगा। माँगने पर कुम्भकर्ण को वर दिया गया कि तुम छह महीने सोओगे और एक दिन जागे रहोगे। उस दिन तुमसे कोई जीतने नहीं पावेगा। विभीषण ने वर में हरि-भक्ति ली। रावण ने लंका में अपनी राजधानी बनायी। वह हिंसा आदि बहुत पापाचार करने लगा। धर्म की हानि देखकर पृथ्वी डरकर घबड़ायी। फिर गो का रूप धारण कर देवताओं के पास गयी और अपना सन्ताप सुनाकर उनसे छुटकारा पाने के लिए सहायता माँगी। परन्तु देवता और मुनि से कुछ न हो सका, इसलिए वह मुनियों को साथ कर ब्रह्मलोक गई। ब्रह्माजी उनसे सब वृत्तान्त जानकर बोले कि हम से भी कुछ न हो सकेगा। फिर ब्रह्मा-सहित सब देवतादि बैठकर विचार करने लगे कि प्रभु को कहाँ पावें, जो अपनी रक्षा के लिए पुकार करें।]
073
किसी ने वैकुण्ठ में चलने को कहा और किसी ने कहा-वे प्रभु क्षीर-समुद्र में रहते हैं।
[वैकुण्ठ और क्षीर-समुद्र में सगुण रूप चतुर्भुजी विष्णु भगवान रहते हैं, यह बात पुराणों की कथाओं से बहुत लोग जानते हैं। इस चौ0 (सं0 208) से प्रकट होता है कि देवगण केवल सगुण रूपधारी विष्णु भगवान की खोज में हैं। विष्णु भगवान इस देव-समाज में नहीं थे, यदि होते तो देवगण का विचार उल्लिखित रूप में नहीं होता। यदि देवगण उनकी खोज में होते, जिनको मनु और शतरूपावाली कथा में अनन्त अनादि परम प्रभु कहा गया है कि जिनके अंश से असंख्य ब्रह्मा, विष्णु और शिव उपजते हैं और विष्णु भी इस (देव) समाज में होते तो अच्छा था। यदि कहा जाय कि इस देव-समाज में विष्णु भी अवश्य थे, पर उनको व्यक्त नहीं किया गया है, तो यह बात मानी नहीं जा सकती; क्योंकि समाज में प्रधान लोग ही विशेषकर व्यक्त होते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश प्रधान देव हैं। ब्रह्मा और शिव इस समाज में व्यक्त कर ही दिए गए हैं, पर विष्णु को व्यक्त नहीं किया गया है। इसलिए और वैकुण्ठ वा क्षीर-समुद्र में चलकर प्रभु के सम्मुख पुकार करने का देवगणों का विचार करने के कारण से यह निःसन्देह सिद्ध है कि इस देव-समाज में विष्णु भगवान नहीं थे। यदि देवताओं का यह मन्तव्य होता कि विष्णु भगवान से बढ़कर किसी परम श्रेष्ठ देव के पास चलकर पुकार करें, तो जैसे उनके साथ में ब्रह्मा और शिव थे, उसी प्रकार यदि विष्णु भगवान भी उनके साथ में होते, तो उनकी अवहेलना करके उनकी सम्मति न लेने तथा उनको इस समाज में सम्मिलित न करने का अनुचित काम देवगण से नहीं हो सकता। इसलिए देवगण क्षीर-शायी वा वैकुण्ठवासी विष्णु भगवान की ही खोज में अवश्य थे और इन्हीं के सामने दुःख की पुकार करना चाहते थे।]
074
[षड् ऐश्वर्य-धारी विष्णु भगवान अपने को विश्व-रूपी वा विराट-रूपी भी कर लेते हैं, इसलिए कहा जाता है कि ये दृश्य जगत में सर्वव्यापक हैं। भगवान की व्यापकता के सम्बन्ध में चौ0 सं0 77, 78, 175 और 177 को पढ़िए।]
075
[परम प्रभु निर्गुण के अपरम्पार सहज सनातन स्वरूप को समुद्र-पुत्री (लक्ष्मीजी) का प्यारा स्वामी कहना कदापि उचित नहीं। भागवतादि पौराणिक ग्रन्थों में समुद्र मथने, उसमें से लक्ष्मीजी के निकलने और विष्णु भगवान की स्त्री बनने की कथा है, जिसको सब कोई जानते हैं। समुद्र से निकली, इसलिए समुद्र की पुत्री कहलायी। देवता-गण जिनकी खोज में थे और ब्रह्माजी ने जिनकी स्तुति उल्लिखित रूप से की थी, वे सगुण विष्णु भगवान ही हैं। चौ0 सं0 208 के कोष्ठ में वर्णित विषय को यह छन्द ‘सिन्धु सुता प्रिय कन्ता’ कहकर खूब पुष्ट करता है। अविनाशी, घट-घट-वासी, गोतीतं और माया-रहित आदि कहकर जो गुण गाया गया है, सो सगुण रूप के लिए तो केवल रोचक-मात्र कहा जाएगा, पर सगुण रूप विष्णु-शरीर में (वा किसी में) व्यापक निर्गुण परम तत्त्व का इस तरह गुण गाना परमोचित ही है।]
076
[नारद मुनि ने क्षीर-समुद्र में शयन करनेवाले विष्णु भगवान को शाप दिया था, यह कथा पहले वर्णित हो चुकी है। चौ0 सं0 215 से यह और भी अच्छी तरह से पुष्ट हो गया कि ब्रह्मा ने विष्णु भगवान ही की स्तुति की थी, जिसे सुनकर विष्णु भगवान ने अवतार लेकर भूमि का भार उतारने का वर दिया था। यदि असीम, अनादि, सहज निर्गुण स्वरूप परम प्रभु की स्तुति ब्रह्माजी करते और अवतार लेकर भूमि-भार उतारने का वर देवताओं को देते तो ‘नारद बचन सत्य सब करिहौं’ की आकाश-वाणी क्यों होती? नारदजी ने असीम, अनादि, सहज निर्गुण स्वरूप परम प्रभु को शाप नहीं दिया था। यदि कहा जाय कि ‘नारद बचन सत्य सब करिहौं’ से नारदजी से विष्णु भगवान को दिया गया शाप नहीं प्रकट किया गया है, बल्कि यह कोई दूसरी बात है, जो सहज निर्गुण रूप परम प्रभु के अवतार लेने के लिए नारदजी की प्रार्थना से सम्बन्ध रखती है, जिस (प्रार्थना) का पूरा-पूरा रामचरितमानस में वर्णन नहीं किया गया है, तो इसके उत्तर में कहा जाता है कि तृतीय सोपान में नारदजी अपने मन में ऐसा क्यों विचारते कि ‘मोर साप करि अंगीकारा । सहत राम नाना दुख भारा ।।’ फिर रामजी से ही वे ऐसा क्यों कहते कि ‘जब बिबाह मैं चाहौं कीन्हा । प्रभु केहि कारन करन न दीन्हा ।।’ यह कथा तीसरे कल्प में राम-अवतार लेने के कारण में पहले वर्णित की गई है। इस (कथा) में लिखा है कि विष्णु की माया से रचित विश्वमोहिनी नाम की कन्या से विवाह करने के लिए नारदजी ने विष्णु भगवान से प्रार्थना की कि मुझे आपका सुन्दर रूप मिले। यद्यपि नारदजी प्रार्थना करने के लिए क्षीर-समुद्र नहीं गए, तथापि विष्णु भगवान नारदजी की स्तुति से उनके समीप आ गए। इस भाँति देव और योगी वा सिद्धगण भी प्रकट होते हैं। ऐसा नहीं समझना चाहिए कि इस तरह केवल निर्गुण परम प्रभु ही सगुण होकर प्रकट होते हैं। इस कथा से यही सिद्ध होता है कि ‘नारद बचन सत्य सब करिहौं’ यह आकाशवाणी उल्लिखित कथा में वर्णित नारद के शाप के ही सम्बन्ध में हुई। अतएव यह आकाश-वाणी क्षीर-शायी विष्णु भगवान की ही थी, सहज निर्गुण अपरम्पार स्वरूप परम प्रभु की नहीं थी। यदि कहा जाय कि जल से बर्फ की तरह निर्गुण परम प्रभु से सगुण विष्णु मानो, तो विष्णु-कृत सब काम उसी परम प्रभु-कृत हुए, तो केवल विष्णु का ही क्यों, उपर्युक्त युक्ति से सब प्राणियों का किया काम उसी परम प्रभु का किया कहा जाएगा। रामचरितमानस के आधार पर यह भी सिद्ध हो ही चुका कि अपरम्पार परम प्रभु का स्वरूप, कोई बड़े-से-बड़ा एक रूप नहीं हो सकता वा वह बड़े-से-बड़े विस्तारवाले सगुण रूप से सम्पूर्णतः आवरणित नहीं हो सकता है। इसलिए विष्णु आदि उनके अंश के सगुण रूप माने जाएँगे। ऐसी दशा में केवल अंश के काम को अंशी का काम कहना अनुचित है।]
077
[कथा यह है कि रावण-कुम्भकर्णादि निशाचरों से बहुत सताये जाकर देवताओं और गौ-रूप धरती ने ब्रह्मा के पास जाकर अपने-अपने दुःखों को निवेदित किया। ब्रह्मा ने भगवान की स्तुति की और भगवान ने अवतार धारण कर दुःख दूर करने का वरदान आकाशवाणी-द्वारा दिया। आकाशवाणी के चुप हो जाने पर ब्रह्मा ने देवताओं से बन्दरों और भालुओं की देहों में धरती पर अवतार लेकर रहने को कहा। ब्रह्मा की आज्ञा के अनुकूल देवता भालुओं और बन्दरों की देहों को धारण कर-करके धरती पर भगवान के अवतार की प्रतीक्षा करने लगे। इस तरह भालुओं और बन्दरों की देहों में देवताओं के अवतार लेने की कथा को कहने के बाद आकाशवाणी-द्वारा भगवान ने अपने अवतार लेने की जो आज्ञा दी थी और जिसको आद्योपान्त कहे बिना ही कथा-प्रसंग के बीच में ही छोड़कर देवताओं के अवतारों की कथा कही गई-बीच में छूटी हुई इसी कथा को सुनाते हैं। ‘अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा ।।’ इसलिए ऐसा कहा गया है। यहाँ भगवान ने आकाश-वाणी-द्वारा अपने अवतार लेने की आज्ञा देवताओं से कही है। देवताओं के अवतार लेने की कथा के पूर्व अति पास ही में यह कथा छोड़ी गई थी। अतएव इन दोनों कथाओं को निकटतम मेल है, न कि मनु-शतरूपावाली कथा को। उपर्युक्त कथा प्रसंग में आकाशवाणी-द्वारा यह आज्ञा भगवान ने नहीं की कि मनु और शतरूपा दशरथ और कौशल्या हैं, उनके यहाँ मैं अवतार लूँगा। बल्कि उस आकाशवाणी-द्वारा उन्होंने यह आज्ञा की कि कश्यप और अदिति कौशलपुरी में दशरथ और कौशल्या हैं, उनके यहाँ मैं अवतार लूँगा और नारद मुनि के (शाप) वचन को सत्य करूँगा। मनु और शतरूपा के देह-त्याग के बाद स्वर्ग जाने तक की कथा कहकर यह कहा गया है-दो0-‘यह इतिहास पुनीत अति, उमहि कही वृषकेतु । भरद्वाज सुनु अपर पुनि, राम जनम कर हेतु ।।’ अपर=दूसरा। पुनि=फिर। भगवान के अवतार के कारण की मनु-शतरूपा वाली कथा को कहकर फिर दूसरा कारण उनके अवतार का सुनाते हैं, इस दोहे से साफ प्रकट यह है। इसी दूसरे कारण की कथा में राजा प्रतापभानु का रावण होकर अत्याचार और उपद्रव करना, इससे पृथ्वी और देवताओं का विकल होना, ब्रह्मदेव द्वारा भगवान की स्तुति की जानी, कश्यप और अदिति का तब दशरथ और कौशल्या होना, तिनके यहाँ अवतार लेने की आज्ञा भगवान की आकाशवाणी-द्वारा देनी, नारद-वचन सत्य करने की प्रतिज्ञा भगवान द्वारा होनी, ब्रह्मा द्वारा देवताओं को भालू और बन्दरों की देह धारण करने की आज्ञा दी जानी और देवताओं का उस तरह देह धारण करके धरती पर रहना, इत्यादि- इत्यादि वर्णन हैं। स्वायंम्भुव मनु और शतरूपा तथा हरगण-रूप रावण और कुम्भकर्ण की कथाओं के पूर्व नारद-वचन वा नारद -शाप वाली कथा रामचरितमानस में है। इस कथा से विदित होता है कि श्रीनारदजी ने क्षीर-सिन्धु में रहनेवाले भगवान को शाप दिया था। वह भगवान शरीरधारी सगुण-साकार थे। मनु-शतरूपा से आराधित अगुण, अखण्ड, अनन्त, अनादि प्रभु को और इन दोनों राजा-रानी की प्रार्थना के अनुसार आँखों से देखे जाने योग्य सुन्दर रूप बननेवाले इन प्रभु को श्रीनारदजी ने शाप दिया हो, ऐसा रामचरितमानस में वर्णन नहीं है। ब्रह्मा के स्तुति करने पर भगवान यह तो कहा कि नारद के (शाप) वचन को सत्य करूँगा, पर उन्होंने यह नहीं कहा कि मनु और शतरूपा को जो मैंने वरदान दिया है, उसको भी सत्य करूँगा। ब्रह्मा-द्वारा भगवान की स्तुति होने पर दशरथ-कौशल्या-रूप में कश्यप-अदिति के यहाँ भगवान को अवतार ग्रहण की कथा के साथ नारद के (शाप) वचन को प्रकट-रूप में व्यक्त किया गया है, परन्तु इस कथा के संग मनु-शतरूपावाली कथा को प्रकट-रूप में कुछ भी व्यक्त किया हुआ नहीं है। उपर्युक्त सब वर्णनों से मनु-शतरूपा को दिए हुए वरदान के कारण से इस कथा को दशरथ कौशल्या-रूप कश्यप अदिति की कथा तथा नारद के शापवाली कथा को मिला-जुला देना उचित नहीं है। अतएव ‘अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा ।।’ यह बीच में छूटी हुई कथा मनु-शतरूपा वाली कथा हो, कदापि सम्भव नहीं जँचता।]
078
[यहाँ विष्णु को ही ब्रह्म कहा गया है और उनकी वाणी को ब्रह्म-वाणी कहा गया है। विष्णु भगवान की व्यापकता के सम्बन्ध में चौ0 सं0 211 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में पढ़िए। जिस देश में जिसकी व्यापकता है, उस देश में वा उस देश का उसको ब्रह्म कहना परमोचित ही है।]
[‘तुम नर-लोक जाकर बन्दर की देह धारण करो और भगवान का चरण-सेवन करो।’ देवताओं को यह उपदेश देकर ब्रह्मा अपने लोक में चले गये। देवताओं ने धरती पर बन्दरों की देह धारण की। इधर अवधपुरी में राजा दशरथ राज्य करते थे। उनको कोई पुत्र न था। उन्होंने पुत्र के लिए यज्ञ किया। राजा दशरथ को तीन प्रधान रानियाँ थीं; बड़ी कौशल्या, दूसरी कैकेई और तीसरी सुमित्र। यज्ञ-फल से रानियों को गर्भ रहा। पहले बड़ी रानी कौशल्या के गर्भ से भगवान के प्रकट होने का समय हुआ, तो ब्रह्मा सब देवताओं को लेकर अवधपुरी के ऊपर आकाश में आए और विमानों पर से बाजा बजाकर भगवान की स्तुति करने लगे। इस प्रकार भगवान की सेवा करके सब कोई अपने-अपने धाम को चले गए।]
079
[यहाँ भी ब्रह्मा सब देवताओं को साथ लेकर आए और मानस में वर्णन है कि आगे चलकर शिवजी भी आए हैं, पर परम प्रधान देव विष्णु भगवान वहाँ उपस्थित हुए और उन्होंने स्तुति की, ऐसा वर्णन नहीं किया गया है। यथार्थ बात यह है कि विष्णु भगवान उस शुभ अवसर पर गुण-गान करने को उपस्थित नहीं हुए थे, बल्कि गुणगान सुनने के लिए कौशल्या माता के गर्भ से बालक-रूप में वे स्वयं प्रकट हुए थे। जग-निवास-विश्ववास-विष्णु भगवान। इसका वर्णन चौ0 सं0 211 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में किया गया है।]
080
[‘माया गुण ज्ञानातीत अमाना’ किसी सगुण रूप को कहा नहीं जा सकता। कौशल्या के गर्भ से चतुर्भुजी रूप से (‘निज आयुध भुज चारी’) प्रकट हुए हैं। विष्णु भगवान वैकुण्ठवासी वा क्षीर-शायी होकर इसी रूप से विराजते हैं। इस रूप से कौशल्या के सम्मुख उनके गर्भ से प्रकट होने का यही कारण हो सकता है कि भगवान कौशल्या को प्रकट रूप से जनाना चाहते थे कि मैं विष्णु हूँ, कोई साधारण जन नहीं। कौशल्या भगवान के इसी चतुर्भुजी रूप को देखती और ‘माया गुन ज्ञानातीत अमाना’ कहती हैं यदि वे इस सगुण रूप का ही उक्त प्रकार के गुणगान करती हैं, तो यह केवल रोचक मात्र है और यदि उस चतुर्भुजी रूप में व्यापक सहज निर्गुण स्वरूप का उक्त रीति से गुणगान करती है, तो भी अनुचित नहीं है। विष्णु भगवान अपने रोम-रोम में अनेकों ब्रह्माण्ड धारण कर अपना विराट रूप बना सकते हैं। इसलिए इनका ‘ब्रह्माण्ड निकाया, निर्मित माया, रोम-रोम प्रति’ कहकर गुणगान करना कुछ भी अयोग्य नहीं।]
081
[‘माया गुन गो पार’-माया, गुण और इन्द्रियों से परे कोई भी सगुण रूप नहीं हो सकता। प्रति शरीर में व्यापक शुद्ध निर्गुण तत्त्व को ऐसा कह सकते हैं। यहाँ विष्णु भगवान के शरीर-व्यापी शुद्ध निर्गुण तत्त्व को ही लक्ष्य करकेे ऐसा कहा है। रामचरितमानस में से भगवान के ऐसे सब गुणों का वर्णन पढ़कर यह परिणाम नहीं निकालना चाहिये कि सगुण रूप विष्णु ने रामावतार नहीं लिया था, सहज निर्गुण अपरम्पार स्वरूप का ही रामावतार हुआ था; क्योंकि इस कल्प की कथा के आरम्भ में राम-अवतार होने का जो कारण बतलाया गया है, उसमें स्पष्ट करके झलका दिया गया है कि नारदजी के शाप से विष्णु भगवान को अवतार लेना पड़ा। स्वायम्भुव मनु और शतरूपा को दिये गये वरदान के कारण इस कल्प का रामावतार हुआ कहना निरर्थक है; क्योंकि इस कल्प की कथा में भगवान ने साफ कह दिया है कि ‘कश्यप अदिति महा तप कीन्हा । तिन कहँ मैं पूरब बर दीन्हा ।।’ आदि।
फिर मनु और शतरूपा वाले कल्प की कथा का अन्त करके कहा कि अब दूसरे कल्प के अवतार का कारण सुनो-‘यह इतिहास पुनीत अति, उमहिँ कहा बृषकेतु । भरद्वाज सुनु अपर पुनि, राम जनम कर हेतु ।।’ तब इसको और मनु-शतरूपावाली कथा को एक कर देना, किसी तरह उचित नहीं है। मनु और शतरूपा ने निर्गुण परम प्रभु से सगुण रूप धरकर दर्शन देने की प्रार्थना की थी। जब उनको उसी रूप में दर्शन मिला, तब उन्होंने उस रूप से यह वरदान माँगा कि हमको तुम्हारे ही समान पुत्र हो। उन्होंने सगुण रूप से ही उस (सगुण रूप) के समान पुत्र का वरदान माँगा था। उस सगुण ने भी यह वरदान दिया था कि मैं तुम्हारा पुत्र होऊँगा। ऐसी दशा में मनु और शतरूपा के पुत्र-रूप में अवतार लेंगे, वही सगुण रूप जिन्होंने वरदान दिया था, न कि अपरम्पार सहज निर्गुण परम प्रभु। फिर अपरम्पार सहज निर्गुण परम प्रभु किसी भी सगुण से सम्पूर्णतः आवृत्त हो जायँ सो रामचरितमानस को मान्य नहीं है। (चौ0 सं0 175 और 177 के अर्थों के नीचे के कोष्ठों के वर्णनों को पढ़िए) इसलिए मनु और शतरूपा को जिस सगुण रूप का दर्शन मिला, उसको भी अपरम्पार सहज निर्गुण परम प्रभु के अंश का ही रूप मानेंगे। (यदि अपरम्पार सहज निर्गुण परम प्रभु से मनु और शतरूपा ने वर माँगा होता कि तुम्हारे समान पुत्र हमको हो, तो उनको ऐसा पुत्र होता कि वह किसी से देखा भी नहीं जाता।) चाहे वह अंशरूप, विष्णु-रूप अंश (जिनसे मनु और शतरूपा ने वरदान नहीं लिया) से कितना ही अधिक ऐश्वर्यवान हो, फिर भी अंश अंशी की बराबरी कदापि नहीं कर सकता है। इसलिए मनु और शतरूपा को अपरम्पार सहज निर्गुण परम प्रभु के जिन अंश-रूप का दर्शन मिला था, उनके कर्मों को पूर्ण अंशी का किया हुआ कहना युक्तिसंगत बात नहीं है।]
082
[चौ0 219 से शिवजी और कागभुशुण्डिजी का कितना गहरा प्रेम श्रीरामजी के प्रति प्रकट होता है। श्रीरामजी के जन्मोत्सव में इन दोनों को इतना आनन्द क्यों हुआ? ये लोग तो परम भक्त एवं परम योगी हैं। ऐसे लोग जबतक अपने आराध्य ध्येय को प्राप्त न करें, तबतक ऐसे प्रेम में विभोर हो नहीं सकते। इस अवसर पर इनका इस तरह प्रेम में मगन होने का वर्णन करके कवि ने यह प्रकट किया है कि दोनों परम भक्तों के परमाराध्य इष्टदेव का अवतार हुआ है। यह बात अच्छी तरह सिद्ध है कि इस बार क्षीर-शायी विष्णु भगवान ही ने अवतार धारण किया है। इसलिए यह बात अवश्य ही कही जाएगी कि इन्हीं भगवान के नराकृति-राम-रूप को शिवजी और कागभुशुण्डिजी अपना-अपना इष्ट मानते हैं। मनु और शतरूपा ने भी इसी रूप (शिवजी और कागभुशुण्डिजी के आराध्य रूप) का दर्शन चाहा था। इस तरह समझ लेने पर इसका भी पता लग ही जाता है कि मनु और शतरूपा को वर देनेवाली आकाश-वाणी किनकी हुई थी और किनने उनको दर्शन दिया था। वह आकाशवाणी क्षीर-शायी विष्णु भगवान की थी और उन्होंने ही मनु और शतरूपा को दर्शन दिया था। तब यह प्रश्न हो सकता है कि मनु और शतरूपा तो ‘अगुण, अखण्ड, अनन्त, अनादि’ का सगुण रूप में दर्शन पाने के लिए तप करते थे, इन्हें क्षीर-शायी विष्णु भगवान दर्शन देने क्यों आवेंगे ? इसका उत्तर यह है कि यद्यपि मनु और शतरूपा ने ‘अगुण, अखण्ड, अनन्त, अनादि’ से ही वर माँगा था, तथापि उन्होंने यह भी विनती की थी कि ‘जो स्वरूप बस शिव मन माहीं’ ‘जो भुशुण्डि मन मानस हंसा’, ‘देखहिं हम सो रूप भरि लोचन’- तात्पर्य यह है कि मनु और शतरूपा ने विनती की थी कि शिवजी और कागभुशुण्डिजी जिस रूप की उपासना करते हैं, उसी (रूप) का दर्शन हमको दीजिए। और यह तो कहा जा चुका है कि शिवजी और कागभुशुण्डिजी क्षीर-शायी विष्णु भगवान की उपासना करते हैं। गो0 तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में श्रीगणेशजी को ‘सुर अनादि’, शिवजी को ‘विभुं व्यापकं ब्रह्म’ (निजं), ‘अजं निर्गुणं’ और ‘अखण्डं अजं’ आदि और पार्वतीजी को ‘अजा अनादि सक्ति अविनासिनि’ और ‘नहिं तब आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाव वेद नहिं जाना ।।’ आदि कहा है। और मनु-शतरूपा को तप के फलस्वरूप जिन राम और सीता के दर्शन मिले थे, उनके सम्बन्ध में कहा है कि अनेकों ब्रह्मा, विष्णु और शिव राम के अंश से उपजते हैं और ‘अगनित लच्छि उमा ब्रह्माणी,’ आदिशक्ति सीता के अंश से उपजती हैं। इससे समझ में आता है कि गो0 तुलसीदासजी अज, अनादि, अखण्ड, निर्गुण और आदिशक्ति इत्यादि परमोच्च गुण-गण सगुण अंशी के लिए प्रयोग करते हैं। उन्हीं गुणों को वे सगुण अंश के लिए तथा अपरम्पार सहज निर्गुण रूप परम प्रभु के लिए भी प्रयोग करते हैं। तब दाशरथि राम-रूप विष्णु भगवान के लिए ‘अगुण अखण्ड अनन्त अनादी’ रामचरितमानस में कहा जाएगा, यह कोई विचित्र बात नहीं।]
083
[ब्रह्मा के पुत्र भृगुजी ने विष्णु भगवान की शान्ति और सहनशीलता जाँचने के लिए निद्रित अवस्था में उनकी छाती पर लात मारी थी। विष्णु भगवान उनके चरण-चिह्न को सदा के लिए अपनी छाती पर रखते हैं। नर-रूप में अवतार लेकर भी वे उस चिह्न से अपनी छाती चिह्नित किये हुए थे। भृगु मुनि विद्वान ब्राह्मण थे, इसलिए उनके चरण-चिह्न को ‘विप्र-चरण’ लिखा गया है। सहज, निर्गुण, अपरम्पार स्वरूप परम प्रभु पर कोई चिह्न नहीं लग सकता। यदि किसी भक्त के प्रेमवश वह अपने अंश का (क्योंकि वह अपने पूर्ण अपरम्पार स्वरूप से सगुण नहीं होता) सगुण रूप होकर नर-रूप में अवतार लेंगे तो विष्णु भगवान से धारण किए गए भृगु-चरण-चिह्न को अपनी छाती पर क्यों धारण करेंगे ? भृगु-लता दाशरथि राम भगवान की छाती पर थी। इसका वर्णन कर चुकने पर गो0 तुलसीदासजी स्पष्ट और विशेष प्रकार से कहते हैं कि उस कल्प में (जिसमें राम-अवतार हुआ है और जिसकी कथा विस्तारपूर्वक वे वर्णन कर चुके हैं) विष्णु भगवान ही दशरथ-सुत होकर राम कहलाए थे। तब ‘व्यापक ब्रह्म निरंजन, निर्गुण विगत विनोद’ और इसी कोटि के रामजी के अन्य-अन्य गुण-गान, जो गो0 तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में बारम्बार किये हैं, वे सभी आत्म-स्वरूपी राम के हैं, न कि लीलाधारी नर-रूप राम के।]
084
[मोह पर, ‘ज्ञान-गिरा-गोतीत’ का विचार दोहा सं0 31 और 32 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में लिखे वर्णन के अनुसार जानना चाहिए।]
085
[यह अचरज-रूप भी भगवान का निर्गुण आत्म-स्वरूप नहीं है। यह तो उनकी विशाल माया-भर है। महाभारत के शान्ति पर्व के नारायणीय प्रकरण में वर्णन है कि भगवान ने नारदजी को अपने अद्भुत विराट रूप का दर्शन देकर कहा-‘तुम जो मेरा रूप देख रहे हो, वह मेरी उत्पन्न की हुई माया है। इससे तुम ऐसा न समझो कि मैं सर्व भूतों के गुणों से युक्त हूँ। मेरा सच्चा स्वरूप सर्वव्यापी, अव्यक्त और नित्य है।’
एक रूप से अनेक रूप बनने की माया तो रावण आदि राक्षस भी जानते थे। अपने ऐसे अद्भुत विराट रूप का दर्शन शिवजी ने रामजी को दिया था। जिस प्रकार महाभारत का अंश श्रीमद्भगवद्गीता परमोच्च ज्ञान का ग्रन्थ है, लोग कहते हैं कि उसी तरह पद्म पुराण का अंश शिव-गीता परमोच्च ज्ञान का ग्रंथ है, इस शिव-गीता में वर्णन है कि जब श्रीसीताजी को रावण हर कर ले गया, तो श्रीरामजी उनके विरह में व्याकुल हुए। श्रीअगस्त्य मुनि ने उन्हें पहले तो कुछ ज्ञान-वैराग्य का उपदेश दिया, फिर शिवजी का दर्शन प्राप्त करने के लिए तप करने को कहा। श्रीरामजी ने वैसा ही किया। कुछ दिनों के बाद श्रीशिवजी देवताओं-सहित श्रीरामजी के सम्मुख प्रकट हुए और रावण का वध करने के लिए उन्होंने श्रीरामजी को अस्त्र-शस्त्र दिए। इसके बाद दिव्य दृष्टि देकर अपना परम अद्भुत विराट रूप दिखाया। श्रीरामजी ने शिवजी के उस विराट रूप के मुख में अनेकों ब्रह्माण्डों और सब रचनाओं को देखा। शिवजी का वह विराट रूप ऐसा तेजोमय और भयदायक था कि एक तो श्रीरामजी अपनी साधारण दृष्टि से उसे न देख सकेंगे, यह विचारकर शिवजी ने उन्हें दिव्य दृष्टि दी और दूसरी बात यह कि दिव्य दृष्टि से दर्शन पाने पर श्रीरामजी डर से सीधे खड़े न रह सके, जंघाओं के बल पृथ्वी पर बैठ गये। (शिव-गीता, अ0 7, श्लोक 9 से 20 तक)। विराट रूप दिखलाने की माया-विद्या केवल विष्णु भगवान वा केवल श्रीरामजी को ही है, सो नहीं; योगी और ज्ञानी जन भी अपने अन्तर में सारा ब्रह्माण्ड देखते हैं। ‘सकल दृस्य निज उदर मेलि सोवइ निद्रा तजि योगी। सोइ हरिपद अनुभवइ परम सुख अतिसय द्वैत वियोगी ।।’ (गो0 तुलसीदासजी की ‘विनय-पत्रिका’)
फिर मनुस्मृति के 12वें अध्याय के 120-121 श्लोकों में कहा गया है कि ज्ञानी पुरुष बाहरी आकाश की भावना उदराकाश में, वायु की चेष्टा स्पर्श में, तेज की जठराग्नि में, आदित्य की नेत्र में, जल की शरीर के चिकनेपन में, पृथ्वी की शरीर में, चन्द्रमा की मन में, दिशाओं की श्रोत्र में, विष्णु की गति में, शिव की बल में, अग्नि की वाणी में, मित्र (मरुद्गण देव में से पहला) की गुदा में, प्रजापति की जननेन्द्रिय में भावना करे। फिर शिवजी ने शिव-संहिता में पार्वतीजी से वर्णन किया है कि ‘इस शरीर में सुमेरु आदि सब पर्वत, समुद्र और नदी आदि समस्त विराट की रचना विद्यमान है।’ (जो पिण्डे सो ब्रह्माण्डे) इन वर्णनों का तात्पर्य यही है कि मनुष्य योग का अवलम्बन करे, तो वह अपने अन्तर में समस्त विराट की रचना देख और दिखा सकता है। इस प्रकार अपने शरीर को विश्व-रूपी बनाना यद्यपि आश्चर्य का काम है, तथापि यह भी माया से भिन्न दूसरा कुछ नहीं है और ऐसा काम योगीजन कर सकते हैं।]
086
[‘मन क्रम बचन अगोचर’ का विचार दोहा सं0 31 और 32 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में के वर्णन के अनुसार जानना चाहिए।]
087
[प्रथम यह सिद्ध हुआ है कि क्षीर-शायी विष्णु भगवान इस बार नर-रूप राम दशरथ-सुत हुए हैं। इसलिए ‘व्यापक अकल अनीह अज, निर्गुण नाम न रूप।’ का विचार दो0 सं0 31 और 32 के अर्थ के नीचे कोष्ठ के वर्णन के अनुसार ही जानना चाहिए।]
088
[पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि श्रीगंगाजी सगुण रूप विष्णु भगवान के ही चरण से निकली हैं। (निर्गुण स्वरूप से नहीं)। इस स्थान के वर्णन से भी श्रीरामजी विष्णु भगवान ही के अवतार सिद्ध होते हैं।]
089
[गुरु-भक्ति और भ्रातृ-भक्ति का आदर्श सिखाने के लिए ये पद लिखे गए हैं।]
090
[श्रीरामजी क्षीर-शायी विष्णु भगवान के अवतार हैं। इनकी शक्ति सहज ही अद्भुत है। ये अपनी अद्भुत शक्ति से भिन्न-भिन्न लोगों को उनकी भिन्न-भिन्न भावनाओं के अनुसार दिखाई पड़े। इनके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है, बल्कि छोटा-सा खेल है। अणिमा, गरिमा आदि अष्ट सिद्धियों के द्वारा सिद्ध लोग अपने को ऊपर कथित प्रकार से विविध रूपों में दिखलाते हैं। ये सिद्धियाँ केवल सहस्त्रदल में ही पहुँचे हुए अभ्यासी योगी भक्तों को प्राप्त होती हैं। सच्चे भक्त भक्ति मार्ग में विघ्न जानकर इन सिद्धियों से हटे रहते हैं। वैकुण्ठ और क्षीर समुद्र आदि परमोत्कृष्ट लोक सहस्त्रदल कमल के ही अभ्यन्तर हैं। चौ0 सं0 235 में वर्णित परम तत्त्वमय स्वरूप के अतिरिक्त और सब दृश्य विविध जनों की भावना के अनुकूल भगवान की माया-मात्र हैं। रामचरितमानस के अनुसार माया तो केवल भ्रम और असत्य है। कैसी भी अद्भुत माया क्यों न हो, वह परम भक्तजनों को निःसार ही दीख पड़ती है और उनके आगे उसकी अद्भुतता व्यर्थ हो जाती है। पूर्ण योगी-परम भक्त-सन्त तो परम तत्त्वदर्शी होते ही हैं; उन्हें केवल भगवान ही क्यों, सब चराचर परम तत्त्वमय दीखते हैं। ‘इहचेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहा वेदीन्महती विनष्टिः । भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ।। 5।। (केनो0, खंड 2) यदि इस जन्म में ब्रह्म को जान लिया, तब तो ठीक है और यदि उसे इस जन्म में न जाना, तब तो बड़ी भारी हानि है। बुद्धिमान लोग उसे समस्त प्राणियों में उपलब्ध करके इस लोक से जाकर (मरकर) अमर हो जाते हैं।’ योगियों को भगवान राम परम तत्त्वमय दीखें, इसमें भगवान की माया की कुछ विशेषता नहीं है। यह तो उस परम भक्त और सन्त-स्वरूप योगियों ही के भजन-अभ्यास-द्वारा परम बोध की प्राप्ति की विशेषता है।]
091
[यह प्रथम स्थान है कि श्रीराम को देखने के लिए लक्ष्मी-पति विष्णु भगवान आए हैं। इसके पूर्व कवि ने भगवान विष्णु को श्रीरामजी के जन्मोत्सव आदि में कहीं सम्मिलित नहीं किया था। यह सिद्ध हो चुका है कि श्रीरामजी क्षीरशायी विष्णु भगवान के अवतार हैं। हो सकता है कि विवाहोत्सव में सम्मिलित होनेवाले क्षीरशायी विष्णु भगवान न होकर वैकुण्ठ-वासी विष्णु भगवान हों अथवा अपने कई रूप बना लेना विष्णु भगवान के लिए कुछ भी विलक्षण बात नहीं है। ]
092
[चौपाई सं0 240 से 242 तक में वर्णित स्वरूप, विष्णु भगवान वा श्रीरामजी के शरीर में व्यापक सहज निर्गुण स्वरूप है।]