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टिप्पणियाँ

चतुर्थ सोपान-किष्किन्धाकाण्ड

दामिनि दमकि रह न घन माहीँ । खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं ।। 520।। 

001

[दुष्टों की प्रीति स्थिर नहीं रहती है।] 

बरषहिं जलद भूमि नियराये । जथा नवहिँ बुध विद्या पाये ।। 521।।

002

[विद्वान का लक्षण नम्र होना है।] 

बुन्द अघात सहहिँ गिरि कैसे । खल के बचन सन्त सह जैसे ।। 522।।

003

[दुष्टों का कटु-वचन सहना सन्तों का लक्षण है।] 

भूमि परत भा ढाबर पानी । जनु जीवहि माया लपटानी ।। 524।।

004

[जीव का स्वरूप निर्मल है, माया से मिलने पर मैला हो जाता है।]  

समिटि समिटि जल भरहिँ तलाबा । जिमि सदगुन सज्जन पहिँ आवा ।। 525।।

005

[सज्जन थोड़ा-थोड़ा उत्तम गुण ग्रहण कर सद्गुणों से भर जाते हैं।] 

सरिता जल जलनिधि महँ जाई । होइ अचल जिमि जिव हरि पाई ।। 526।।

006

[‘निर्गुन रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोइ ।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होइ ।।’(रामचरितमानस-सप्तम सोपान)
भ्रमित मन में अचलता नहीं हो सकती है, सगुण रूप हरि को पाकर इस अचलता की आशा नहीं की जा सकती। परन्तु उन्हीं के निर्गुण स्वरूप की प्राप्ति होने पर इस अचलता की प्राप्ति हो जाती है, इसमें संशय नहीं।] 

अर्क जवास पात बिनु भयऊ । जस सुराज खल उद्यम गयऊ ।। 528।।

007

[सुराज्य में दुष्टों के धन्धे नहीं हो पाते हैं।] 

ससि सम्पन्न सोह महि कैसी । उपकारी कै सम्पति जैसी ।। 530।।

008

[धरती की फसल धरती के लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए है। उसी तरह परोपकारी की सम्पत्ति दूसरों के लिए होती है।] 

निसि तम धन खद्योत बिराजा । जनु दम्भिन्ह कर मिला समाजा ।। 531।।

009

[जुगनुओं से अत्यल्प चमक होती है, उससे मार्ग नहीं सूझता। उसी तरह पाखण्डियों के उपदेश से कुछ ज्ञान-सा प्रतीत होता है, पर सन्मार्ग नहीं दरसता।] 

महा वृष्टि चलि फूटि कियारीं । जिमि सुतन्त्र भये बिगरहीँ नारीं ।। 532।।

010

[स्वतन्त्रता पाकर स्त्रियाँ बिगड़ जाती हैं।] 

कृषी निरावहिं चतुर किसाना । जिमि बुध तजहिं मोह मद माना ।। 533।।

011

[बुद्धिमान को चाहिए कि वह मोह, मद और अभिमान को छोड़ दे।] 

ऊसर बरषइ तृन नहिं जामा । जिमि हरि जन हिय उपज न कामा ।। 535।।

012

[हरिभक्तों के हृदय में संयोग पाकर भी काम-वासना उत्पन्न नहीं होती।] 

जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना । जिमि इन्द्रिय गन उपजें ग्याना ।। 537।।

013

[ज्ञान से इन्द्रियों का दमन होता है और ज्ञान, योग से उत्पन्न होता है (देखो चौ0 सं0 411), अतएव योगाभ्यास के बिना इन्द्रियों का दमन नहीं होगा।] 

उदित अगस्त पंथ जल सोखा । जिमि लोभहिँ सोखइ सन्तोखा ।। 540।।

014

[सन्तोष से लोभ का नाश हो जाता है।] 

सरिता सर निर्मल जल सोहा । सन्त हृदय जस गत मद मोहा ।। 541।।

015

[सन्तों का हृदय मद-मोह से रहित निर्मल होता है।] 

रस रस सूख सरित सर पानी । ममता त्याग करहिँ जिमि ज्ञानी ।। 542।।

016

[ज्ञानीजन धीरे-धीरे ममता त्याग देते हैं।] 

जानि सरद रितु खंजन आये । पाइ समय जिमि सुकृत सुहाये ।। 543।।

017

[वृक्ष को लगाने, सींचने, निराने और विघ्नों से बचाने से उसका पालन होता है। समय पाकर उससे फल भी अवश्य मिलता है, इसी तरह सुकर्मों का फल भी अवश्य ही मिलता है।] 

बिनु घन निर्मल सोह अकासा । हरि जन इव परिहरि सब आसा ।। 546।।

018

[हरिभक्त सब आशाओं को छोड़ एक हरि की ही आशा रखते हैं।] 

सुखी मीन जे नीर अगाधा । जिमि हरि सरन न एकउ बाधा ।। 548।।

019

[हरि की शरण में हो जाने से सब विघ्न मिट जाते हैं।] 

फूले कमल सोह सर कैसा । निर्गुन ब्रह्म सगुन भये जैसा ।। 549।।

020

[ब्रह्म का मूल स्वरूप निर्गुण है। जैसे उचित समयों पर तालाब में कमल बारम्बार उपजते, फूलते और मिटते हैं, उसी तरह सगुण बारम्बार प्रकट होते, चमत्कार-पूर्ण लीला करते और लय होते हैं। निर्गुण स्वरूप स्थिर है और सगुण अस्थिर।] 

चक्रबाक मन दुख निसि पेखी । जिमि दुर्जन पर सम्पति देखी ।। 550।।

021

[दुष्ट पर-धन देखकर जलते हैं।]  

चातक रटत तृषा अति ओही । जिमि सुख लहइ कि संकर द्रोही ।। 551।।

022

[शंकरजी के द्रोही को सुख नहीं मिलता है। किसी से भी द्रोह करनेवाले को सुख नहीं मिलता। ‘पर द्रोही की होहि निसंका।’ (सप्तम सोपान-उत्तरकाण्ड)] 

सरदातप निसि ससि अपहरई । सन्त दरस जिमि पातक टरई ।। 552।।

023

[सन्त के दर्शन से पाप नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि उनके शरीर का पवित्र सार (गर्मी-अपजंसपजल) उनके दर्शन करनेवालों की देह में स्वभावतः आप-से-आप समाकर शुभ और निर्मल प्रभाव पहुँचाता है। उसी तरह उनके (सन्तों के) पवित्र उपदेशों के असर भी उनके समीप में जाकर सुननेवालों को निष्पाप कर देते हैं।] 

देखि इन्दु चकोर समुदाई । चितवहिँ जिमि हरिजन हरि पाई ।। 553।।

024

[मानस-ध्यान स्थिर दृष्टि से करना चाहिए।] 

दोहा-भूमि जीव संकुल रहे, गये सरद रितु पाइ ।
सदगुरु मिले जाहिँ जिमि, संसय भ्रम समुदाइ ।। 79।। 

025

[सद्गुरु मिले बिना संशय-भ्रम दूर नहीं होते।] 

यह गुन साधन तेँ नहिँ होई । तुम्हरी कृपाँ पाव कोइ कोई ।। 559।।

026

[भक्ति की साधना के बिना भगवान कृपा नहीं करते।] 

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