001
[दुष्टों की प्रीति स्थिर नहीं रहती है।]
002
[विद्वान का लक्षण नम्र होना है।]
003
[दुष्टों का कटु-वचन सहना सन्तों का लक्षण है।]
004
[जीव का स्वरूप निर्मल है, माया से मिलने पर मैला हो जाता है।]
005
[सज्जन थोड़ा-थोड़ा उत्तम गुण ग्रहण कर सद्गुणों से भर जाते हैं।]
006
[‘निर्गुन रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोइ ।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होइ ।।’(रामचरितमानस-सप्तम सोपान)
भ्रमित मन में अचलता नहीं हो सकती है, सगुण रूप हरि को पाकर इस अचलता की आशा नहीं की जा सकती। परन्तु उन्हीं के निर्गुण स्वरूप की प्राप्ति होने पर इस अचलता की प्राप्ति हो जाती है, इसमें संशय नहीं।]
007
[सुराज्य में दुष्टों के धन्धे नहीं हो पाते हैं।]
008
[धरती की फसल धरती के लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए है। उसी तरह परोपकारी की सम्पत्ति दूसरों के लिए होती है।]
009
[जुगनुओं से अत्यल्प चमक होती है, उससे मार्ग नहीं सूझता। उसी तरह पाखण्डियों के उपदेश से कुछ ज्ञान-सा प्रतीत होता है, पर सन्मार्ग नहीं दरसता।]
010
[स्वतन्त्रता पाकर स्त्रियाँ बिगड़ जाती हैं।]
011
[बुद्धिमान को चाहिए कि वह मोह, मद और अभिमान को छोड़ दे।]
012
[हरिभक्तों के हृदय में संयोग पाकर भी काम-वासना उत्पन्न नहीं होती।]
013
[ज्ञान से इन्द्रियों का दमन होता है और ज्ञान, योग से उत्पन्न होता है (देखो चौ0 सं0 411), अतएव योगाभ्यास के बिना इन्द्रियों का दमन नहीं होगा।]
014
[सन्तोष से लोभ का नाश हो जाता है।]
015
[सन्तों का हृदय मद-मोह से रहित निर्मल होता है।]
016
[ज्ञानीजन धीरे-धीरे ममता त्याग देते हैं।]
017
[वृक्ष को लगाने, सींचने, निराने और विघ्नों से बचाने से उसका पालन होता है। समय पाकर उससे फल भी अवश्य मिलता है, इसी तरह सुकर्मों का फल भी अवश्य ही मिलता है।]
018
[हरिभक्त सब आशाओं को छोड़ एक हरि की ही आशा रखते हैं।]
019
[हरि की शरण में हो जाने से सब विघ्न मिट जाते हैं।]
020
[ब्रह्म का मूल स्वरूप निर्गुण है। जैसे उचित समयों पर तालाब में कमल बारम्बार उपजते, फूलते और मिटते हैं, उसी तरह सगुण बारम्बार प्रकट होते, चमत्कार-पूर्ण लीला करते और लय होते हैं। निर्गुण स्वरूप स्थिर है और सगुण अस्थिर।]
021
[दुष्ट पर-धन देखकर जलते हैं।]
022
[शंकरजी के द्रोही को सुख नहीं मिलता है। किसी से भी द्रोह करनेवाले को सुख नहीं मिलता। ‘पर द्रोही की होहि निसंका।’ (सप्तम सोपान-उत्तरकाण्ड)]
023
[सन्त के दर्शन से पाप नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि उनके शरीर का पवित्र सार (गर्मी-अपजंसपजल) उनके दर्शन करनेवालों की देह में स्वभावतः आप-से-आप समाकर शुभ और निर्मल प्रभाव पहुँचाता है। उसी तरह उनके (सन्तों के) पवित्र उपदेशों के असर भी उनके समीप में जाकर सुननेवालों को निष्पाप कर देते हैं।]
024
[मानस-ध्यान स्थिर दृष्टि से करना चाहिए।]
025
[सद्गुरु मिले बिना संशय-भ्रम दूर नहीं होते।]
026
[भक्ति की साधना के बिना भगवान कृपा नहीं करते।]