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तृतीय सोपान-अरण्यकाण्ड

छन्द-नमामि इन्दिरा पतिं । सुखाकरं सतां गतिं ।।
भजे सशक्ति सानुजं, शची पति प्रियानुजं ।। 3।। 

001

[अत्रि मुनि श्रीराम को इन्द्र का छोटा भाई कह रहे हैं। इसका कारण यह है कि इन्द्र की माता अदिति और पिता कश्यप मुनि हैं। इन्द्र के जन्म के बहुत काल पीछे राजा बलि को छलने के लिए अर्थात् राजा बलि के यज्ञ करते समय उनसे पृथ्वी लेकर इन्द्र को देने के लिए अदिति के व्रत से प्रसन्न होकर विष्णु भगवान ने उसकी (अदिति की) कोख से वामन अवतार लिया था। इसलिए विष्णु भगवान इन्द्र के छोटे भाई या उपेन्द्र कहलाते हैं। इससे भी स्पष्ट प्रकट होता है कि श्रीराम विष्णु भगवान के ही अवतार थे। सहज निर्गुण स्वरूप परम प्रभु शचीपति इन्द्र के छोटे भाई नहीं कहला सकते।] 

बिनु श्रम नारि परम गति लहई । पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई ।। 402क।। 

002

[पति-सेवा सगुण-उपासना के तुल्य है। इस उपासना से वह परमपद प्राप्त नहीं होता है, जो ‘अति दुर्लभ कैवल्य परम पद’ है। हाँ, उसको स्वर्गादि लाभ होते हैं और अणिमादि सिद्धियों की प्राप्ति होती है। चौ0 सं0 402 में जो ‘परम गति’ कहा है, सो स्वर्ग आदि अणिमादि लाभ को ही कहा गया है। कैवल्य पद की गति वह है, जो महाभक्तिन श्रीशवरीजी को हुई थी, जिनके लिए लिखा है कि ‘तजि जोग पावक देह हरिपद लीन भइ जहँ नहिँ फिरै।’ शवरीजी से श्रीराम ने कहा था कि ‘मम दरसन फल परम अनूपा । जीव पाव निज सहज सरूपा ।।’ और ‘जोगिवृन्द दुर्लभ गति जोई । तो कहँ आज सुलभ भइ सोई ।।’ योगियों की दुर्लभ गति निज सहज स्वरूप की प्राप्ति ही है और निज सहज स्वरूप के विषय में गोस्वामी तुलसीदासजी ‘विनय-पत्रिका’ में कहते हैं- ‘अनुराग सो निज रूप जो जग तें बिलच्छण देखिए। संतोष सम सीतल सदा दम देहवन्त न लेखिये ।। निर्मल निरामय एक रस तेहि हरष सोक न व्यापई । त्रयलोक पावन सो सदा जाकी दसा ऐसी भई ।।’ यह निज सहज स्वरूप निर्गुण आत्म-स्वरूप है, जो योगतत्त्वोपनिषद् में लिखा है-‘सगुणं ध्यानमेतत्स्यादणिमादि गुण प्रदम् । निर्गुण ध्यानयुक्तस्य समाधिश्च ततो भवेत् ।। 105।।’ अर्थात् सगुण का ध्यान अणिमा आदि गुणों का देनेवाला है और निर्गुण-ध्यान से युक्त को समाधि होती है। शवरीजी से श्रीराम ने जो नवधा भक्ति का वर्णन किया था, उसमें नवधा भक्ति के अतिरिक्त केवल पातिव्रत्य धर्म के पालन से भी ‘जोगिवृन्द दुर्लभ गति’ और ‘सहज स्वरूप की प्राप्ति’ होती है, सो नहीं लिखा है। स्वर्ग और अणिमादि सिद्धियों के लिए रामचरितमानस में यह लिखा है कि रिद्धि-सिद्धि प्रेरइ बहु भाई । बुद्धिहि लोभ दिखावइ आई ।। होइ बुद्धि जो परम सयानी। तिन्ह तन चितब न अनहित जानी ।।’ और ‘एहि तन कर फल विषय न भाई । स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई ।।’ ईश्वर के सगुण और निर्गुण, रूप और स्वरूप की भक्ति के बिना परम गति वा मुक्ति नहीं होती। ‘बारि मथे घृत होइ बरु, सिकता तें बरु तेल । बिनु हरि भजन न भव तरिय, यह सिद्धान्त अपेल ।।’ (रा0 च0 मा0)
चौ0 सं0 395 (क) और 402 (क) विदित करती है कि स्त्रियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिए पातिव्रत्य धर्म ही एक धर्म है, जिसे वे छल छोड़कर करें। बालकाण्ड में श्रीसीताजी का विवाह श्रीरामजी से हो जाने पर श्रीसीताजी की माता उन्हें श्रीराम के साथ सासुर जाने के लिए विदा करने के समय सिखावन देती है। ‘सासु-ससुर गुरु सेवा करेहू । पति रुख लखि आयसु अनुसरेहु ।।’ इस चौ0 से विदित होता है कि स्त्रियों को चाहिए कि वे सास, ससुर और गुरु की सेवा करें तथा पति के मनोभाव को उनके चेहरे वा संकेत द्वारा जानकर उनकी सेवा का आचरण करें। उत्तरकाण्ड में दोहा है-‘पुरुष नपुंसक नारि वा, जीव चराचर कोइ। सर्व भाव भज कपट तजि, मोहि परम प्रिय सोइ ।।’ अरण्यकाण्ड में नवधा भक्ति का उपदेश करते हुए भगवान श्रीराम श्रीशवरीजी से कहते हैं-
नव महँ एकउ जिन्हके होई । नारि पुरुष सचराचर कोई ।।
सोइ अतिसय प्रिय भामिनी मोरे । सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे ।।
नवधा भक्ति में श्रीराम ने श्रीशवरीजी से पति-सेवा के विषय में कुछ नहीं कहा; किन्तु ‘गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।’ और ‘मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा । पंचम भजन सो बेद प्रकासा ।।’ तो कहा ही है। शवरीजी की जो परम गति हुई है, सो इस प्रकार लिखित है-‘तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरै ।’ इन सब उद्धरणों से जानना चाहिए कि स्त्रियों के लिए मोक्ष के हेतु उनके घरों के सास, ससुर, गुरु और पति की सेवा में यथायोग्य बरतते हुए साथ-ही-साथ ईश्वर-भक्ति में अनुरक्ति रहनी चाहिए । चौ0 सं0 395 (क) में ‘एकहि धरम एक ब्रत नेमा । काय बचन मन पति पद प्रेमा।।’ कहा गया है, सो पति-सेवा की ओर बहुत जोर दिया गया है और इसी से परम गति प्राप्त करने को भी कहा गया है। इससे ‘बारि मथे घृत होय बरु, सिकता तें बरु तेल । बिनु हरि भजन न भव तरिय, यह सिद्धान्त अपेल ।।’ यह अपेल सिद्धान्त कट जाता है और ‘जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई । कोटि भाँति कोउ करइ उपाई ।। तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई । रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ।।’ भी गौण हो जाता है। फिर यह भी ‘सो सब करम धरम जरि जाऊ । जहँ न राम पद पंकज भाऊ ।।’ का महत्त्व भी मटियामेट हो जाता है। जो ‘परम गति’ पति-सेवा से मिलती है और जो ‘मोक्ष-सुख’ ईश्वर- भक्ति से मिलता है; दोनों एक ही है, यह मानने योग्य नहीं है। पति-सेवा की परम गति में पत्नी पुण्य लोकों में जाकर पति के साथ उस लोक के सुख में रहेगी, जिसके लिए ‘एहि तन कर फल विषय न भाई । स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई ।।’ रामचरितमानस में लिखा है। परन्तु ईश्वर-भक्ति से शवरीवाली गति को पहुँचेगी। शवरी योग-युक्त होकर भक्ति करती थी। इसीलिए ‘तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भइ जहँ नहिँ फिरै ।’ यह परम गति शवरी की हुई। और गोस्वामी तुलसीदासजी ‘विनय-पत्रिका’ में लिखते हैं-‘सकल दृश्य निज उदर मेलि सोवइ निद्रा तजि जोगी। सोइ हरिपद अनुभवइ परम सुख अतिसय द्वैत वियोगी ।। सोक मोह भय हरष दिवस निसि देश काल तहँ नाहिं । तुलसिदास यहि दसा हीन संसय निर्मूल न जाहिं ।।’ यह ‘देश कालातीत हरि पद’ ‘अति दुर्लभ कैवल्य परम पद’ है। यह ‘अतिशय द्वैत वियोगी’ को ही प्राप्त होने योग्य है। अतएव स्त्रियों को पति-भक्ति के सहित ईश्वर-भक्ति भी श्रीशवरीजी की भाँति योग-युक्त होकर अवश्य करनी चाहिए।] 

कहिय तात सो परम बिरागी । तृन सम सिद्धि तीन गुन त्यागी ।। 410।।

003

[तीन गुणों की सिद्धियों के त्याग से तात्पर्य अणिमा आदि सिद्धियों का, रजोगुण या ब्रह्मा के पद का, सतोगुण या विष्णु-पद का तथा तमोगुण या शिव-पद का त्यागना है अर्थात् त्रयगुणातीत होना वा निर्गुण तत्त्व में लीन होना है।] 

प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती । निज निज धरम निरत स्त्रुति रीती ।। 416।।

004

[विप्र, वेद-विद्या में निपुण को कहते हैं। प्रेम से विप्र की सेवा और सत्संग करनेवाले को वेद-रीति और सत् धर्म में लगने का ज्ञान होगा, और उसे वेद का सार तत्त्व वेदान्त-आत्म-ज्ञान का श्रवण और मनन-ज्ञान होगा। इस भाँति ज्ञान प्राप्त करनेवाले को ही चौ0 सं0 417 में वर्णित फल मिल सकेगा] 

एहि कर फल मन बिषय बिरागा । तब मम धरम उपज अनुरागा ।। 417।।

005

[यहाँ ‘मम धरम’ से तात्पर्य राम-भक्ति से है। चौ0 सं0 416 में वर्णित साधन का फल विषय से विरक्ति है और विषय-विरक्ति का फल राम-भक्ति है। 417 सं0 की चौ0 का यही तात्पर्य झलकता है। रामचरितमानस के अनुसार राम-भक्ति प्राप्त करने के अधिकारी ब्राह्मण से डोम-चाण्डाल-यवन-पर्यन्त सब-के-सब हैं। इसका वर्णन रामचरितमानस के अनेक स्थलों पर है। वेदान्त का श्रवण-मनन-ज्ञान प्राप्त किए बिना विषय से विराग होना असम्भव है और जबकि रामचरितमानस बतलाता है कि विप्र की सेवा करके विषय से वैराग्य प्राप्त करके राम-भक्ति में प्रेम होगा, वही भक्ति के साधन का सुगम पन्थ है, तब इससे साफ-साफ प्रकट होता है कि वेदान्त-ज्ञान (चाहे किसी भाषा में हो) प्राप्त करने का अधिकार रामचरितमानस अत्यन्त उदारता से संसार के सब वर्णों, सब जातियों-बल्कि मनुष्य-मात्र को देता है।] 

गीध अधम खग आमिष भोगी । गति दीन्ही जो जाँचत जोगी ।। 445।।* 

006

[चौ0 सं0 436 से 445 तक में वर्णन है कि मांस-भक्षी पक्षियों में अधम गिद्ध ने रामजी की स्थूल सेवा करने में अपना शरीर अर्पित कर अत्यन्त प्रेम से उनका दर्शन करते हुए प्राण छोड़ दिए। इस प्रकार सगुण ब्रह्म की भक्ति करने का फल गिद्ध को यह हुआ कि सगुण ब्रह्म राम भगवान ने उसको अपना-सा रूप (हरि-रूप-सा श्यामला चतुर्भुजी रूप) देकर अर्थात् अपना पार्षद बनाकर अपने धाम को भेज दिया। उन्होंने उसको कह दिया कि तुम सीता-हरण की बात मेरे पिता (स्वर्गीय राजा दशरथ) से जाकर नहीं कहना। यदि मैं राम हूँ, तो रावण कुल-सहित वहाँ जाकर उनसे सीता-हरण की बात कहेगा। चौ0 सं0 264, 266, 267 और 405 के अनुसार गिद्ध को प्राप्त हरि-रूप और राम का धाम (जिसमें वह भेजा गया); दोनों मायावी थे, परमार्थ-रूप
नहीं थे। इस कारण कहना पड़ता है कि ब्रह्म के केवल सगुण रूप को प्रत्यक्ष पाकर भी भक्त माया में ही रह जाता है, परम मोक्ष नहीं पाता है। चौ0 सं0 445 में यह भी कहा गया है कि गिद्धराज को रामजी ने वह गति दी, जिसकी याचना योगीजन करते हैं। पर जानना चाहिए कि सब योगी एक तरह के नहीं होते हैं। चौ0 सं0 92, 93 और 270 में जिस प्रकार के योगी का वर्णन है, वैसे योगी माया के सर्वोत्कृष्ट पद-गिद्धराज जटायु और राजा दशरथ आदि को प्राप्त हरि-धाम और साम्यावस्थाधारणी अव्यक्त प्रकृति पद तक की भी याचना नहीं करते हैं। बल्कि ऐसे योगी तो उस पद तक को त्यागनेवाले होते हैं, जहाँ लेश-मात्र भी द्वैत और देश-कालादि माया है; क्योंकि देश-काल आदि से परे जिसकी गति नहीं है, उसका संशय निर्मूल होकर नाश नहीं होता है और संशय-युक्त पुरुष मोक्ष कदापि नहीं पा सकता है। (वेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित ‘विनय-पत्रिका’ की पद-सं0 167 पढ़िए।)] 

सुनु गन्धर्व कहउँ मैं तोही । मोहि न सुहाइ ब्रह्म कुल द्रोही ।। 447।।

007

[मनुस्मृति, तृतीय अध्याय के श्लोक 150 से 167 तक में चोर, जुआरी, वेद नहीं पढ़े हुए, बहुत-से यजमानों को एक साथ बिठाकर यज्ञ करानेवाले, वैद्य, धन ठहराकर पूजा करनेवाले पुजारी, ब्याज खानेवाले, चरवाहे, आजीविका के लिए नाचने- गाने-बजानेवाले, पर-स्त्री से ब्रह्मचर्य नष्ट करनेवाले, मजदूरी ठहराकर वेद-शास्त्र पढ़ानेवाले, मजदूरी देकर वेद-शास्त्र पढ़े हुए, कटुवादी, घर जलानेवाले, विष देनेवाले, समुद्र-यात्री, झूठी गवाही देनेवाले, दूध-दही आदि रस बेचनेवाले, चुगलखोर, नक्षत्र बताकर आजीवका करनेवाले (जोशी), भूत-पिशाच आदि को पूजनेवाले, आचार-भ्रष्ट, धन रहते हुए नित्य भीख माँगनेवाले, खेती पर जीनेवाले और भैंसा पालनेवाले आदि ब्राह्मणों को ब्राह्मण-पंक्ति से बाहर माना गया है।
फिर अध्याय 3, श्लोक 169 से 172 तक में कहा गया है कि वेदाध्ययन के लिए कहे हुए व्रतों को न करनेवाले तथा परिवेत्ता आदि और पंक्ति से बाहर के ब्राह्मणों को देव वा पितृकर्म में जो भोजन कराया जाता है, उस भोजन को निस्सन्देह राक्षस खाते हैं। इन वर्णनों से प्रकट है कि केवल ब्राह्मण-कुल में जन्म लेने से कोई यथार्थ ब्राह्मण नहीं होता है। यदि वह कुल (ब्राह्मण कुल) के कर्त्तव्यों के विपरीत चलता है, तो वह राक्षस तक कहलाता है। रामचरितमानस के लंकाकाण्ड में रावण के लिए कहा गया है-‘उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती । सिव बिरंचि पूजहु बहु भाँती ।।’ देवों के देव ब्रह्मा के पुत्र पुलस्त्य मुनि, उनके पुत्र विश्वश्रवा और उनके पुत्र रावण-कुम्भकर्ण हुए। रावण-कुम्भकर्ण पवित्र ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न होने पर भी अपने आचरणों से राक्षस कहलाए। अतएव स्वयं श्रीराम भगवान ने उन्हें मार डाला। ऐसा कर्म करने पर भी रामजी ब्रह्मकुल-द्रोही नहीं, वरन् ब्रह्म-कुल-पालक कहलाते हैं। रावण-कुम्भकर्ण ही ब्रह्मकुल-द्रोही थे; क्योंकि वे ब्राह्मण-कुल के कर्त्तव्यों के विपरीत कर्म करते थे। इसीलिए वे श्रीराम भगवान को न सुहाये और इसीलिए उन्होंने उनको मार डाला।
कृष्णावतार में भी स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत के मैदान में ब्राह्मण और गुरु-हत्या के पाप से डरनेवाले पाण्डवों के द्वारा पवित्र ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न द्रोणाचार्य को युक्ति से मरवा डाला। द्रोण-पुत्र अश्वत्थामा की भी रक्षा श्रीकृष्ण भगवान ने नहीं की।
अश्वत्थामा का प्राण केवल महारानी द्रौपदी की दया से ही बचने पाया। यद्यपि प्राण बच गया, तथापि उसकी अत्यन्त दुर्दशा श्रीकृष्ण भगवान के सामने ही-बल्कि उनकी सहायता पाकर पाण्डवों द्वारा की गई। यद्यपि रावण, द्रोण और अश्वत्थामा वेद-विद्या के बहुत बड़े ज्ञाता थे, तथापि कर्त्तव्यभ्रष्ट होने के कारण इनको मारने-मरवाने में ही भगवान को अच्छा लगा। ‘शूद्रेचैतद्भवेल्लक्ष्यं द्विजे तच्च न विद्यते । न वै शूद्रो भवेच्छूद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मणः ।।’ जो ब्राह्मण के गुण शूद्र में दृष्टि पड़ें और ब्राह्मण में वर्त्तमान न हों, तो ऐसी दशा में शूद्र शूद्र नहीं और ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं गिना जाएगा। (महाभारत, शान्तिपर्व पूर्वार्द्ध, मोक्षधर्म, अध्याय 16) फिर उस गन्धर्व से, जो दुर्वासा के शाप से राक्षस हुआ था, भगवान ने दुर्वासा का पक्ष लेकर कहा था कि ‘मोहि न सुहाइ ब्रह्मकुल-द्रोही’ और जब दुर्वासा भक्त राजा अम्बरीष को सताने लगे, तो स्वयं भगवान ने ही दुर्वासा के नाश के लिए अपना सुदर्शन चक्र छोड़ा था। इस चक्र से दुर्वासा तभी बचने पाये, जब वे भक्त अम्बरीष की शरण में गए। इन कथाओं से यही प्रकट होता है कि भगवान ब्राह्मण-कुल के पालक अवश्य हैं, परन्तु रावणादि के समान ब्राह्मणों के कुल की रक्षा करने को ब्रह्मकुल-रक्षण वे नहीं मानते और नहीं करते हैं; क्योंकि ऐसे पुरुष उनको नहीं सुहाते हैं।
यथार्थ तो यह है कि भगवान देव, दानव, यक्ष, राक्षस, किन्नर, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और चाण्डाल इत्यादि किसी भी कुल के नाशक नहीं हैं। वे सभी कुल के पालक हैं। हाँ, जिन-जिन कुलों के जो-जो पुरुष दुराचारी और अभक्त होते हैं, उनके लिए वे अवश्य ही नाशक हैं।
कौन प्राणी भगवान को प्यारे-विशेष प्यारे हैं, उनका वर्णन रामचरितमानस के अनुसार नीचे लिखे पद्यों में है। भगवान श्रीराम शवरी से कहते हैं-
‘कह रघुपति सुनु भामिनि बाता ।
मानउँ एक भगति कर नाता ।।
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई ।
धन बल परिजन गुन चतुराई ।।
भगति हीन नर सोहइ कैसा ।
बिनु जल बारिद देखिय जैसा ।।’
और कागभुशुण्डिजी से भी कहते हैं-
मम माया सम्भव संसारा ।
जीव चराचर बिबिध प्रकारा ।।
सब मम प्रिय सब मम उपजाये ।
सब तें अधिक मनुज मोहि भाये ।।
तिन्ह महँ द्विज द्विज मह स्त्रुतिधारी ।
तिन्ह महँ निगम धर्म अनुसारी ।।
तिन्ह महँ प्रिय विरक्त मुनि ज्ञानी ।
ज्ञानिहुँ ते अति प्रिय बिज्ञानी ।।
तिन्ह तेँ पुनि मोहि प्रिय निज दासा ।
जेहि गति मोरि न दूसरि आसा ।।
पुनि पुनि सत्य कहौं तोहि पाहीँ ।
मोहि सेबक सम प्रिय कोउ नाहीँ ।।
भगति हीन बिरंचि किन होई ।
सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई ।।
भगतिवन्त अति नीचउ प्रानी ।
मोहि प्रान प्रिय असि मम बानी ।।
दोहा-पुरुष नपुंसक नारि वा, जीव चराचर कोइ ।
सर्व भाव भज कपट तजि, मोहि परम प्रिय सोइ ।।] 

दोहा-मन क्रम बचन कपट तजि, जो कर भूसुर सेव ।
मोहि समेत बिरंचि सिव, बस ताके सब देव ।। 62।। 

008

[चौ0 सं0 11 के अर्थ के नीचे कोष्ठ-वर्णित विचारों से मानना पड़ेगा कि भगवान के प्यारे ब्राह्मण भक्ति और ज्ञान के गुण से सम्पन्न होते हैं। इस प्रकार के ब्राह्मणों की सेवा करने से दो0 सं0 62 में वर्णित फल अवश्य ही मिल सकता है। मेरे जानते तो ऐसे ब्राह्मणों की सेवा से मुक्ति तक मिल सकती है।
रीति है कि विशेष स्थान और अवसर पर मुख्य-मुख्य पुरुषों के ही नाम विशेष कर कहे या गिनाए जाते हैं। वैदिक संसार में ब्रह्मा, विष्णु और महेश सर्व-पूज्य मुख्य देव हैं। दो0 सं0 62 में भगवान श्रीराम ने अपनी, ब्रह्मा और शिव की गिनती तो कराई, पर विष्णु भगवान का नाम नहीं कहा और मोट में ‘सब देव’ कह दिया। श्रीराम को विष्णु भगवान से कोई परे पुरुष कहा जाय और यह कहा जाय कि मोट में जो ‘सब देव’ कहा गया है, उसी में विष्णु भगवान भी आ गए, तो यह ठीक नहीं जँचता। जबकि ब्रह्मा और शिव का नाम पृथक्-पृथक् करके लिया गया, तो यह परम उचित था कि विष्णु भगवान का नाम भी उसी प्रकार पृथक् लिया जाता और ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के अधीनस्थ देवताओं के साथ नहीं मिला दिया जाता। ऐसे अवसर पर विष्णु भगवान का नाम पृथक् न लेना और उनको साधारण देवताओं के साथ मिला देना, उनका अनादर करना है। रामचरितमानस को विष्णु भगवान का अनादर मान्य है, ऐसा कदापि कहा नहीं जा सकता है। ऐसी दशा में या तो यह कहा जाएगा कि ब्राह्मणों की सेवा से वे वश में होते हैं, जो विष्णु भगवान से पर पुरुष हैं; पर स्वयं विष्णु नहीं। या यह कहना पड़ेगा कि स्वयं राम ही विष्णु भगवान के अवतार हैं और उन्होंने अपने सम्बन्ध में वश होने की बात कह ही दी है। मेरे विचार से दूसरी बात ठीक है; क्योंकि पूर्व में कई स्थलों पर सिद्ध कर दिया गया है कि श्रीराम, विष्णु भगवान के अवतार छोड़ कोई दूसरे नहीं हैं।] 

सापत ताड़त परुष कहन्ता । बिप्र पूज्य अस गावहिँ सन्ता ।। 448।।

009

[मनुस्मृति की तरह धर्म-शास्त्र की आज्ञा के अनुसार शिक्षित यथार्थ ब्राह्मण यदि शाप देंगे वा कटु वचन कहेंगे, तो जिसके प्रति ऐसा बर्त्ताव होगा, उसका अहित न होगा।
‘गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है, गढ़-गढ़ काढ़े खोंट ।
अन्तर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट ।।’
(कबीर साहब)
इस वचन में शिष्य के लिए जो लाभ प्रकट होता है, वही लाभ उसको होगा, जिसको सच्चा ब्राह्मण शाप देंगे-मारेंगे वा कटु वचन कहेंगे। इसीलिए सुशिक्षित यथार्थ ब्राह्मण शाप-दाता होने पर भी पूज्य कहे जाते हैं।] 

पूजिय बिप्र सील गुन हीना । सूद्र न गुन गन ज्ञान प्रबीना ।। 449।।

010

[सील गुन = सचाई और नर्मी से बर्त्ताव करने का गुण । सूद्र = क्षुद्र = छोटा = नीच।
इस चौ0 का तात्पर्य यह है कि यदि ब्राह्मण शिक्षित है, उसमें ज्ञान का गुण अर्थात् जानकारी या विद्या है, परन्तु शीलता का गुण नहीं है, तो भी वह पूज्य है; क्योंकि विद्यारूपी रत्न उस (ब्राह्मण) से प्राप्त किया जा सकता है। जिनका आदर नहीं किया जाएगा, अपूज्य मानकर जिनकी सेवा न की जाएगी, उनसे विद्या नहीं प्राप्त हो सकती है। इसलिए शील-गुण से हीन विद्वान की भी सेवा करनी चाहिए, उनको पूज्य जानना चाहिए।
पर यदि ऐसा अर्थ किया जाय कि चौथा वर्ण शूद्र यदि ज्ञान-गुण में निपुण हो, तो भी उसे नहीं पूजना चाहिए, तो यह रामचरितमानस और धर्मशास्त्र; दोनों के विरुद्ध होगा; क्योंकि रामचरितमानस के सप्तम सोपान-उत्तरकाण्ड में लिखा है कि-
‘सो कुल धन्य उमा सुनु, जगत पूज्य सुपुनीत ।
श्रीरघुवीर परायन, जेहि नर उपज बिनीत ।।’
यह दोहा साफ तरह से कहता है कि जिस कुल में (चाहे वह कुल चाण्डाल ही का क्यों न हो) भक्त पुरुष उपजते हैं, वह (कुल) संसार भर में पूजे जाने योग्य और अत्यन्त पवित्र है । और चौ0 सं0 413 में लिखा है कि ज्ञान और विज्ञान भक्ति के अधीन है। इसलिए रामचरितमानस के अनुसार भक्त ज्ञान-गुण में निपुण अवश्य ही होगा। फिर भक्त होने का अधिकार ब्राह्मण से चाण्डाल तक, मनुष्य-मात्र को है और अध्याय 2, श्लोक 238 और 240 में मनुस्मृति आज्ञा देती है कि उत्तम विद्या, उत्तम धर्म शूद्र और चाण्डाल से भी सीखे। ‘श्रद्दधानः शुभां विद्या- माददीतावरादपि। अन्त्यादपि परं धर्मं स्त्री रत्नं दुष्कुलादपि।।’] 

कह रघुपति सुनु भामिनी बाता । मानउँ एक भगति कर नाता ।। 452।।

011

[भामिनी = सुन्दरी स्त्री, क्रोध करनेवाली स्त्री। शवरी न तो क्रोध करनेवाली थी और न वह सुन्दरी ही थी; परन्तु उसके अन्दर जो सब प्रकार की भक्ति पूरी थी, इसी कारण भक्तिमति जानकर शवरी को श्रीराम ने ‘भामिनी’ कहा है। भगवान की दृष्टि में भक्ति से बढ़कर दूसरी सुन्दरता नहीं है; क्योंकि उनको केवल भक्ति से ही नाता है।] 

छठ दम सील बिरति बहु कर्मा । निरत निरन्तर सज्जन धर्मा ।। 458।।

012

[इन्द्रियों को रोकना ‘दम’ कहलाता है। योगाभ्यास में यह अति आवश्यक साधना है। दृष्टियोग के द्वारा यह सरलता से होने योग्य है। जैसे किसी वस्तु को अपना पूरा बल लगाकर दोनों हाथों से पकड़ा जाय तो शरीर का सारा बल उसी पकड़ की ओर फिर जाता है-वहीं एकत्र हो जाता है, इसी तरह गुरु-युक्ति के द्वारा अपने अन्दर में गुरु-इंगित स्थान पर नेत्रें की युगल दृष्टि-धारों को दृढ़ रखने से इन्द्रियों की सभी चेतन धारें वहाँ खि्ांचकर आ जाती हैं। इन्द्रियों की बाह्य विषयों की ओर की गति रुक जाती है और इसकी परिपक्वता में ‘दम’ का साधन बन जाता है। इस साधन के बिना योगाभ्यास का आरम्भ होकर उसमें आगे बढ़ना नहीं हो सकता है।
ऊपर कथित छठी भक्ति ही दृष्टि-योग है। इस (दृष्टि-योग) से अभ्यासी ब्रह्म-ज्योति के केन्द्र (ब्रह्म-ज्योति के अन्तिम पद) सहस्त्र दल कमल के परे त्रिकुटी तक पहुँचता है, जहाँ मन और इन्द्रियाँ लय हो जाते हैं-‘मन बुधि चित अहंकार की, है त्रिकुटी लग दौड़। जन दरिया इनके परे, ररंकार की ठौर ।।’] 

सातवँ सम मोहिमय जग देखा । मोतें सन्त अधिक करि लेखा ।। 459।।

013

[‘शम’ के साधन बिना ‘सम’-समता की प्राप्ति नहीं होती। ‘शम’ मनोनिरोध को कहते हैं। ‘दम’ के साधन में भी ‘शम’ का साधन होता ही रहता है, परन्तु इन्द्रियों का संग छोड़कर केवल मन का ही साधन हो, यही असली ‘शम’ का साधन है। दृष्टि-योग के बाद इसका साधन होने योग्य है। इस साधन में पूर्णता प्राप्त किए बिना योगाभ्यास पूर्ण नहीं होता है। नादानुसन्धान वा सुरत- शब्द-योग इसका निज साधन है।
‘सबद खोजि मन बस करै, सहज योग है येहि ।
सत्त शब्द निज सार है, यह तो झूठी देहि ।।’ (कबीर साहब)
मनोनिरोध के लिए नाद-विन्दूपनिषद् में नादानुसन्धान की इस भाँति विशेषता बताई गई है-
‘मकरन्दं पिबन्भृंगो गन्धान्नापेक्षते यथा ।
नादासक्तं सदा चित्तं विषयं नहि कांक्षति ।
बद्धः सुनाद गन्धेन सद्यः संत्यक्त चापलः ।। 42।।’
जिस प्रकार भौंरा फूल के केसर वा रस को पान करता हुआ उसकी सुगन्ध की चिन्ता नहीं करता है, उसी प्रकार चित्त जो नाद में सर्वदा लीन रहता है, विषय-चाहना नहीं करता है; क्योंकि वह नाद की मिठास के वशीभूत है तथा अपनी चंचल प्रकृति को त्याग चुका है ।। 42।।
‘नाद ग्रहणतश्चित्तमंतरंग भुजंगमः ।
विस्मृत्य विश्वमेकाग्रः कुत्र चिन्नहि धावति ।। 43।।’
नाग-रूप चित्त नाद का अभ्यास करते-करते पूर्णरूप से उसमें लीन हो जाता है और सभी विषयों को भूलकर कर नाद में अपने को एकाग्र करता है और उससे बाहर कहीं भी नहीं जाता है ।। 43।।
‘मनोमत्त गजेन्द्रस्य विषयोद्यानचारिणः ।
नियामन समर्थोऽयं निनादो निशितांकुशः ।। 44।।’
नाद मदान्ध हाथी-रूप चित्त को, जो विषयों की आनन्द- वाटिका में विचरण करता है, रोकने के लिए तीव्र अंकुश का काम करता है ।। 44।।
‘नादोऽन्तरंग सारंग बन्धने वागुरायते ।
अन्तरंग समुद्रस्य रोधे वेलायतेऽपि वा ।। 45।।’
मृग-रूपी चित्त को बाँधने के लिए यह (नाद) जाल का काम करता है। समुद्र-तरंग-रूपी चित्त के लिए (नाद) तट का काम करता है।। 45।।
जबतक मन पूर्णरूपेण काबू में नहीं होता, तबतक ‘शम’ का फल ‘सम’ नहीं होता। इसके लिए सातवीं भक्ति नादानुसन्धान वा सुरत-शब्द-योग असली साधन है।
मनोनिग्रह या मन की रोक के बिना कोई इन्द्रिय नहीं रुक सकती है। इसलिए सातवीं भक्ति में मनोनिग्रह अर्थात् चित्त की वृत्ति का निरोध करना है। इसका साधन किस तरह होगा, सो यहाँ खोलकर नहीं लिखा गया है। मनोनिग्रह को ही योग कहते हैं। रामचरितमानस चौ0 सं0 5, 79 और 290 से लगातार 294 तक में योगाभ्यास करने की युक्ति बतलाई गई है। इसलिए अर्थ-सहित इन चौपाइयों को और उनके नीचे के कोष्ठ की व्याख्याओं को पढ़कर देखिए। उनको पढ़ने से मालूम होगा कि रामचरितमानस दृष्टि-योग और सुरत-शब्द-योग के साधन से योगाभ्यास करना सिखाता है। सुरत-शब्द-योग का अभ्यास करके ध्वन्यात्मक राम-नाम में चेतन-वृत्ति को जोड़ना सातवीं भक्ति है। सारी सृष्टि में ध्वन्यात्मक रामनाम एक रस व्यापक है। जिसमें जैसा गुण है, उसके संग से संग करनेवाले को वैसा ही गुण प्राप्त होता है। ध्वन्यात्मक राम-नाम समता-स्वरूप है। जिस अभ्यासी की चेतन-वृत्ति इस नाम तक पहुँचेगी, उसे अवश्य ही समता प्राप्त हो जाएगी। राम-नाम का वर्णन चौ0 सं0 79 के अर्थ-सहित कोष्ठ में दी गई व्याख्या को पढ़कर जानिए।]  

सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे । सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे ।। 463।।

014

[भागवत पुराण में नवधा भक्ति इस प्रकार है-
श्रवणं कीर्त्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं साख्यं आत्मनिवेदनम् ।।
इस नवधा भक्ति से रामचरितमानस की नवधा भक्ति में कुछ अन्तर और विलक्षणता है, इसे बुद्धिमान विचार सकते हैं। रामचरितमानस की नवधा भक्ति में भगवान ने यह नहीं बताया है कि मेरे देव वा मानव-रूप की उपासना भी कोई एक भक्ति है; पर इससे यह नहीं जानना चाहिए कि इसमें (रामचरितमानस की नवधा भक्ति में) रूप की उपासना नहीं है। रामचरितमानस के आदि में ही मंगलाचरण करते हुए गो0 तुलसीदासजी गुरु को ‘कृपा सिन्धु नर रूप हरि’ कहते हैं और भगवान ने नवधा भक्ति में से एक भक्ति ‘गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान’ कह ही दिया है। इसलिए नवधा भक्ति की तीसरी भक्ति में जब भगवान ने प्रत्यक्ष गुरु की सेवा-उपासना बतला दी और रामचरितमानस को जब यह मान्य है कि गुरु-रूप ही भगवान का रूप है, तो ‘भगवान के रूप की उपासना’ तीसरी भक्ति में ही जान लेनी चाहिए।] 

जोगी बृन्द दुर्लभ गति जोई । तो कहँ आज सुलभ भइ सोई ।। 464।।

015

[शवरी मातंग ऋषि की चेली थी। मातंग योगिराज थे। उनकी कृपा से शवरी की गति योगविद्या के शिखर तक पहुँची थी। इसी कारण से शवरी को आज योगियों की दुर्लभ गति सुलभ है। भ्रमवश ऐसा ख्याल नहीं करना चाहिए कि शवरी योग-विद्या में पहले से निपुण नहीं थी, केवल श्रीराम का दर्शन प्राप्त करके ही उसे ऐसी गति मिल गई थी। चौ0 सं0 445 में वर्णन किया गया है कि गिद्धराज जटायु को भगवान ने वह गति दी, जो योगिजन माँगते हैं। जटायु को वही गति मिली है, जिसका वर्णन चौ0 सं0 442 और 443 तथा दोहा सं0 60-61 में किया गया है। जटायु गिद्ध-शरीर त्याग हरि-रूप (श्यामला चतुर्भुजी रूप) को प्राप्त हुआ और उस हरि-धाम में गया, जहाँ राजा दशरथ गए थे और जहाँ (आगे चलकर वर्णन होगा कि) सपरिवार रावण पहुँचकर राजा दशरथ से सीता-हरण का समाचार कहेगा। भगवान ने जटायु से कह दिया कि तुम सीता-हरण का समाचार हमारे पिता से नहीं कहना। जटायु को प्राप्त ‘योगी वांछित गति’ और शवरी को प्राप्त ‘योगियों की दुर्लभ गति’ की सुलभता में बड़ा अन्तर है। चौ0 सं0 445 के अर्थ के नीचे कोष्ठ के लेख को पढ़कर देखिए, उससे मालूम होगा कि जटायु को ‘परम मोक्ष’ न हो सका। पर आगे चलकर वर्णन होगा कि शवरी को ‘परम मोक्ष’ प्राप्त हो गया। भगवान के दसों अवतारों के दर्शन उन अवतारों के समकालीन बहुतों को हुए, पर सबों को ‘योगी-वांछित गति’ वा वह ‘गति जो योगियों को दुर्लभ है’, प्राप्त न हो सकी। जिन लोगों ने साधन-भजन के द्वारा अपने को जिस पद को प्राप्त होने योग्य बना लिया था, उन्हें वही पद भगवान ने दे दिया था। इसलिए यह उचित नहीं है कि कोई भ्रम और आलस्यवश योगाभ्यास आदि साधन और संयम न करे और केवल मोटी उपासना में ही अपना जीवन बिता दे। रामचरितमानस में वर्णित नवधा भक्ति में स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्मातिसूक्ष्म; सभी उपासनाओं का अत्यन्त उचित क्रम से वर्णन है। अर्थात् जिस क्रम से पूर्ण साधना बना सकता है, वही क्रम बाँधकर नवधा भक्ति का वर्णन किया गया है। इन नवो में से किसी एक को अनावश्यक जान त्यागने वा क्रम को उलट-पलट कर देने से वह गति जो योगियों के लिए दुर्लभ है, जिसे शवरी ने पाई थी, किसी को नहीं मिल सकती है। चौ0 सं0 463 में स्पष्ट कहा गया है कि शवरी को नवो प्रकार की भक्ति अटल रूप से थी और तभी उसे योगियों की ‘दुर्लभ गति’ सुलभ हो गई थी। उसकी भक्ति के सब साधन समाप्त हो चुके थे, इसलिए उसने सम्पूर्ण वरदानों के सहित अविरल भक्ति भी नहीं माँगी। पर जटायु अविरल भक्ति का वरदान माँग कर हरिधाम गया (देखो दोहा सं0 61) इससे विदित होता है कि जटायु भक्ति के साधन में पारंगत न था, इसी कारण परम मोक्ष न पा सका। इस मत को काटने के लिए यदि यह कहा जाय-‘ताते हरिपद लीन न भयऊ । प्रथमहि भेद भक्ति वर लयऊ ।।’ तो इसका उत्तर यह है कि गो0 तुलसीदासजी भेद-पद में परम मोक्ष नहीं मानते हैं। (चौ0 सं0 445 के अर्थ के नीचे के कोष्ठ में के वर्णन को पढ़िए)। दूसरी बात यह है कि नवधा भक्ति की सातवीं भक्ति तो स्वतन्त्र रूप से समता प्राप्त करने के लिए ही है। यदि भेद-पद-असम-पद-द्वैत-पद ही परम मोक्ष-पद होता, तो इस सातवीं भक्ति के साधन से समता प्राप्त करके क्या करना था ? यथार्थ में यह अत्युक्ति (अलंकार) रोचकता के लिए है। ऐसा (अत्युक्ति अलंकारयुक्त) वर्णन गो0 तुलसीदासजी ने कई स्थलों पर किया है। चौ0 सं0 462 और 463 में भगवान की यह उक्ति कि ‘नवधा भक्ति में से एक भी जिसको है, वह मुझे अतिशय प्यारा है’ जानकर किसी को यह नहीं समझ बैठना चाहिए कि नवधा भक्ति में से एक भी प्राप्त कर लो और बस काम समाप्त है। यदि यह विचार गो0 तुलसीदासजी और स्वयं भगवान का रहता, तो छठी और सातवीं योगाभ्यास-साध्य भक्तियों का वर्णन वे क्यों करते ? फिर देखिए कि 1ली से 5वीं तक में किसी एक ही भक्ति के साधन से इन्द्रिय-दमन नहीं होता और न समता मिलती है। और दम-शीलता तथा समता-प्राप्ति के बिना भक्ति का साधन समाप्त नहीं होता है। यदि ऐसा होता, तो दम-शीलता और समता प्राप्त करने के लिए छठी और सातवीं भक्तियों का स्वतंत्र रूप से निष्प्रयोजन ही क्यों वर्णन किया गया ? इन बातों को विचारने से स्पष्ट प्रकट होता है कि नवधा भक्ति का जिस क्रम से वर्णन किया गया है, उसी के अनुसार नवो भक्तियों को समाप्त करके ही कोई भक्ति के साधन में पारंगत हो, पूर्ण भक्त बन, योगियों की दुर्लभ गति-परम मोक्ष को शवरी की तरह पा सकेगा। 

मम दरसन फल परम अनूपा । जीव पाव निज सहज सरूपा ।। 465।।

016

[शवरी को अपना सहज स्वरूप वा आत्म-स्वरूप अवश्य ही प्राप्त हुआ, पर जटायु को नहीं। चतुर्भुजी, दोभुजी, अनन्तभुजी, श्यामल वा गौर आदि कोई रूप जीव का निज सहज स्वरूप नहीं है। निज सहज स्वरूप सगुण नहीं, निर्गुण है। वह मायिक नहीं, अमायिक है। जटायु भी जब भक्ति के उस अंग तक का साधन कर लेगा, जहाँ तक साधन पूर्ण करके जीव भगवान के दर्शन का फल, निज सहज स्वरूप की प्राप्ति को पा लेता है, तो उसको भी निज सहज स्वरूप प्राप्त हो जाएगा। चौ0 सं0 465 में कथित भगवान का वाक्य कदापि मिथ्या नहीं होगा।] 

छन्द-कहि कथा सकल बिलोकि हरि, मुख हृदय पद पंकज धरे ।
तजि जोग पावक देह हरि पद, लीन भइ जहँ नहिँ फिरे ।।
नर बिबिध कर्म अधर्म बहुमत, सोक-प्रद सब त्यागहू ।
बिस्वास करि कह दास तुलसी, राम-पद अनुरागहू ।। 5।। 

017

[योग-पावक = योगाग्नि । योगाभ्यास से प्राप्त होने योग्य परम कल्याणकारी उन तत्त्वों को योगाग्नि कहते हैं, जिनके प्राप्त होने से अभ्यासी के शरीर आदि माया-रचित बन्धन भस्म हो जाते हैं। ये (तत्त्व) दो प्रकार के हैं-ब्रह्म-ज्योति अर्थात् ब्रह्म का ज्योति-रूप और ब्रह्म-शब्द अर्थात् ब्रह्म का शब्द-रूप वा ध्वन्यात्मक राम-नाम, जिसका वर्णन चौ0 सं0 79, 80 और 85 आदि में है। जबतक शरीर के बारम्बार प्राप्त होने और छूटने का कारण बना रहता है, यथार्थ में तबतक शरीर पूर्ण रूप से नहीं छूटता है। साधारणतः शरीर के तीन प्रकार हैं-स्थूल, सूक्ष्म और कारण। गुदा-चक्र से ले छठे (आज्ञा) चक्र को पार कर सहस्त्र दल कमल में पहुँच ब्रह्म-ज्योति को प्राप्त करने पर स्थूल शरीर छूट जाता है। सहस्त्रदल कमल को पार कर अभ्यासी त्रिकुटी ओ3म् ब्रह्म-पद तक पहुँचता है, तो उसका सूक्ष्म शरीर छूट जाता है। (बहुत लोग दोनों भोंओं के मध्य स्थान को त्रिकुटी कहते हैं, पर यह वह त्रिकुटी नहीं है। शरीर के ऊपर किसी चिह्न को वा उसके सामने अन्तर की ओर इस त्रिकुटी का स्थान बतलाया नहीं जा सकता है। जो अपने अन्दर में के सूक्ष्म मण्डल में प्रवेश कर सहस्त्र दल कमल को पार कर सकेगा, वही इस त्रिकुटी को जानेगा। त्रिकुटी ब्रह्म-ज्योति का केन्द्र है। यही केन्द्र चौ0 सं0 609 से दो0 सं0 91 तक में वर्णित सूर्य है। इसके परे ज्योति नहीं-रूप नहीं है।) और जब अभ्यासी त्रिकुटी को भी पार करके केवल ध्वन्यात्मक शब्द (ब्रह्म-शब्द) से व्याप्त तीनों शब्द-मण्डलों (शून्य, महाशून्य और भँवर गुफा) को पार कर जाता है, तो उसका कारण शरीर भी छूट जाता है। अभ्यासी के माया-सम्बन्धी सब बन्धन योगाग्नि में भस्म हो जाते हैं और वह राम के परम पद में लीन हो जाता है, जहाँ से इस संसार में फिर नहीं लौटता है। शवरी ने इसी प्रकार योग-पावक में अपना शरीर छोड़ा था। भक्ति-योग के साधन में वह पारंगत थी। (देखिए चौ0 सं0 463) उपर्युक्त रीति से शरीर छोड़कर वह राम के परम पद में लीन हुई, इनमें कुछ भी संशय नहीं।
शरभंग मुनि के विषय में भी योग-अग्नि-द्वारा शरीर जलाने की चर्चा है। ‘यहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा । बैठे हृदय छाड़ि सब संगा ।। सीता अनुज समेत प्रभु, नील जलद तनु स्याम । मम हिय बसहु निरन्तर, सगुन रूप श्रीराम ।। अस कहि जोग अगिन तनु जारा । राम कृपा बैकुण्ठ सिधारा ।। तातें मुनि हरि लीन न भयऊ । प्रथमहि भेद भगति बर लयऊ ।।’ महाभक्तिन शवरी की योग-अग्नि और शरभंग मुनि की योग-अग्नि, एक ही नहीं है। शवरीजी ने चिता रचकर तब योग-अग्नि से शरीर को जलाया, सो नहीं; परन्तु शरभंग मुनि ने चिता रच कर अपने शरीर को जलाया। शवरीजी की योग-अग्नि के विषय में ऊपर लिखा जा चुका है। शवरीजी की भक्ति की पूर्णता तक शरभंगजी की र्भिक्त पहुँची थी, सो नहीं कहा जा सकता है। शवरीजी ने श्रीराम से वरदान की याचना नहीं की और वह उस हरि-पद में लीन हुई, जहाँ से कोई लौटता नहीं है। शवरीजी से तो श्रीरामजी ने स्पष्ट कह ही दिया कि ‘सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे’, जो शरभंगजी से उन्होंने नहीं कहा।] 

दोहा-तात तीनि अति प्रबल खल, काम क्रोध अरु लोभ ।
मुनि बिज्ञान-धाम मन, करहिँ निमिष महँ छोभ ।। 65।। 

018

[यह बात केवल आधिभौतिक विज्ञान जाननेवाले मुनियों के लिए है।] 

सन्त हृदय जस निर्मल बारी । बाँधे घाट मनोहर चारी ।। 473।।

019

[सन्त का हृदय कैसा होना चाहिए, वह इसमें बताया गया है।] 

जहँ तहँ पियहिँ बिबिध मृग नीरा । जनु उदार घर जाँचक भीरा ।। 474।।

020

[इसमें उदार पुरुष का लक्षण बताया गया है कि जिस प्रकार झुण्ड-के-झुण्ड पशु सरोवर में बेरोक पानी पीते हैं, सरोवर कभी नहीं घबड़ाता, सबको सहर्ष अपना पानी पीने देता है, उसी तरह उदार पुरुष अपने घर पर आए याचकों की भीड़ देखकर कभी नहीं घबड़ाता, सहर्ष सबको मनोवांछित दान देता है।] 

दोहा-पुरइनि सघन ओट जल, बेगि न पाइय मर्म ।
मायाछन्न न देखिये, जैसे निर्गुन ब्रह्म ।। 67।। 

021

[मूल माया (प्रकृति), ब्रह्माण्ड-रूप माया, पिण्ड-रूप माया, विश्व-रूपता की माया देवता-रूप की माया और सब अवतार- रूप माया से निर्गुण ब्रह्म आच्छादित है। इन सब रूपों की माया, पुरइन है। निर्मल जल-रूप निर्गुण ब्रह्म इसकी ओट में है।] 

सुनु मुनि कह पुरान स्त्रुति संता । मोह बिपिन कहँ नारि बसन्ता ।। 486।।

022

[तात्पर्य यह है कि स्त्री के संयोग से मोह बढ़ता है।] 

जप तप नेम जलासय झारी । होइ ग्रीषम सोखइ सब नारी ।। 487।।

023

[स्त्री के संयोग से जप, तप और नेम के साधन कम जाते हैं वा बिल्कुल ही घट जाते हैं।] 

काम क्रोध मद मत्सर भेका । इन्हहिँ हरष-प्रद बरषा एका ।। 488।।

024

[काम, क्रोध, अहंकार और डाह आदि की वृद्धि स्त्री के संयोग से होती है।] 

दुर्बासना कुमुद समुदाई । तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई ।। 489।।

025

[बुरी इच्छाएँ स्त्री के संयोग से विशेष होती हैं।] 

पुनि ममता जवास बहुताई । पलुहइ नारि सिसिर ऋतु पाई ।। 491।।

026

[स्त्री के संयोग से ममता बढ़ती है।] 

पाप उलूक निकर सुखकारी । नारि निबिड़ रजनी अँधियारी ।। 492।।

027

[स्त्री के संयोग से पाप की वृद्धि होती है।] 

बुधि बल सील सत्य सब मीना । बनसी सम तिय कहहिँ प्रबीना ।। 493।।

028

[बुद्धि, बल, शील और सत्य; स्त्री के संयोग से नष्ट हो जाते हैं।] 

दोहा-अवगुन मूल सूलप्रद, प्रमदा सब दुख खानि ।
ताते कीन्ह निवारन, मुनि मैं यह जिय जानि ।। 71।। 

029

[रामजी और नारदजी के प्रश्नोत्तर से साफ तरह से प्रकट होता है कि राम उन्हीं विष्णु भगवान के अवतार हैं, जिन्होंने नारदजी का मुख बन्दर के मुख के ऐसा और शरीर अपने शरीर के ऐसा बनाकर उनको स्त्री प्राप्त करने नहीं दिया था और इसी कारण उनसे (नारी-विरही नारद से) शाप पाया था।] 

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