001
[आँख की पलक गिरने का नाम है लव । 60 लव = एक निमेष; 60 निमेष = 1 परमाणु; 60 परमाणु = एक पल; 60 पल = 1 घड़ी; 60 घड़ी = 8 पहर वा 1 दिन-रात वा 24 घंटे; 30 दिन-रात = एक महीना; 12 महीना = 1 वर्ष; इसी वर्ष से 17 लाख 28 हजार वर्ष सत्ययुग की आयु, 12 लाख 96 हजार वर्ष त्रेता की, 8 लाख 64 हजार वर्ष द्वापर की और 4 लाख 32 हजार वर्ष कलियुग की आयु है। इन चारो युगों के एक-एक बार बीतने का नाम 1 चौकड़ी है। 1 हजार चौकड़ी युग = 1 कल्प = ब्रह्मा का 1 दिन-रात। इस दिन से 30 दिनों का 1 महीना, ऐसे 12 महीनों का 1 वर्ष, ऐसे 100 वर्ष पर्यन्त ब्रह्मा जीते हैं। ब्रह्मा की आयु के नाश होने पर महाप्रलय कहा जाता है। एक ब्रह्मा की आयु के समान समय को महाकल्प कहते हैं।]
002
[ऐसी माया करने में सिद्ध रावण कितना स्वार्थी और पापी था ! ऐसी सिद्धियों के पाने से ही कोई भक्त, ज्ञानी, योगी और महात्मा नहीं हो सकता।]
003
[कहना, पर उसे नहीं करना अधमता है।
‘कहता सो करता नहीं, मुख का बड़ा लबार ।
आखिर धक्का खायगा, साहब के दरबार ।।’ (कबीर साहब)]
004
[छन्द सं0 6 और 8 में तथा चौपाई सं0 606 और 607 में रावण की माया (सिद्धियों) का वर्णन है। बहुत-से राम, लक्ष्मण, बहुत-से अपने रूप, बहुत-से बैताल, भूत, पिशाचादि, प्रचण्ड जन्तुओं की रचना करना, बालू की वर्षा करना और जलती हुई अग्नि प्रकट करना इत्यादि-इत्यादि उसकी माया अर्थात् सिद्धियाँ थीं। ये कितनी अद्भुत और विकट थीं ! रावण वेद-शास्त्रदि विद्या का प्रकाण्ड विद्वान भी था। उसने बड़ी तपस्या करके ब्रह्मा और शिव का दर्शन प्राप्त किया था और उनसे वर भी पाया था। ‘की मैनाक की खगपति होई । मम बल जान सहित पति सोई ।।’ (तृतीय सोपान-अरण्यकाण्ड) से प्रकट होता है कि लड़ाई में उसे विष्णु भगवान का भी दर्शन प्राप्त हुआ था। वह शंकर का इतना बड़ा भक्त था कि वह अपने हाथों अपना मस्तक काटकर उनके नाम से हवन कर देता था। नररूप भगवान राम से तो सम्मुख विकट संग्राम करके ही ‘कहाँ राम रन हतउँ प्रचारी’ कहकर वह मरा। तात्पर्य यह कि भगवान के अवतारी रूप अत्यन्त सुन्दर नर-रूप का भी उसे दर्शन मिला ही था। वह स्वयं ही कुलीन भी इतना था कि ब्रह्मा का प्रपौत्र था, इतना होने पर भी उसका हृदय शुद्ध न हो सका। लोग उसका नाम भक्तों की श्रेणी में नहीं गिनते। हाँ, पापियों और दुष्टों की श्रेणी में अवश्य ही गिनते हैं। अतएव कहना पड़ता है कि उसमें कुलीनता, सिद्धियाँ और दर्शन-प्राप्ति के जो-जो गुण थे, उनमें (उन गुणों में) स्वाभाविक शक्ति ऐसी नहीं है कि वे किसी के हृदय को शुद्ध करा उसे भक्त बना दें।]
005
[यह स्वाभाविक बात है कि जितना लाभ होता है, लोभ उतना ही अधिक बढ़ता है।]