प्रथम सोपान-बालकाण्ड
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सोरठा-बंदउँ गुरु पद-कंज, कृपा-सिन्धु नर-रूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु बचन रबि कर निकर ।। 1।।
चौपाई-बंदउँ गुरु पद पदुम परागा ।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ।। 1।।
अमिय मूरि मय चूरन चारू ।
समन सकल भव रुज परिवारू ।। 2।।
सुकृत संभु तन बिमल बिभूती ।
मंजुल मंगल मोद प्रसूती ।। 3।।
जन-मन मंजु मुकुर-मल हरनी ।
किए तिलक गुन-गन बस करनी ।। 4।।
श्री गुरु-पद-नख मनि गन जोती ।
सुमिरत दिब्य दृष्टि हिय होती ।। 5।।
दलन मोह तम सो सु-प्रकासू ।
बड़े भाग उर आवइ जासू ।। 6।।
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के ।
मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ।। 7।।
सूझहिं रामचरित मनि मानिक ।
गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ।। 8।।
दोहा-जथा सु अंजन आंजि दृग, साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखहिं सैल बन, भूतल भूरि निधान ।। 2।।
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन ।
नयन अमिय दृग दोष बिभंजन ।। 9।।
तेहि करि बिमल बिबेक बिलोचन ।
बरनउँ रामचरित भव मोचन ।। 10।।
बंदउँ प्रथम मही सुर चरना ।
मोह जनित संसय सब हरना ।। 11।।
सुजन समाज सकल गुन खानी ।
करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी ।। 12।।
साधु चरित सुभ सरिस कपासू ।
निरस बिसद गुन मय फल जासू ।। 13।।
जो सहि दुख पर छिद्र दुरावा ।
बन्दनीय जेहि जग जसु पावा ।। 14 ।।
मुद मंगल मय संत समाजू ।
जो जग जंगम तीरथ राजू ।। 15।।
राम भगति जहँ सुरसरि धारा ।
सरसइ ब्रह्म-िबचार प्रचारा ।। 16।।
बिधि निषेधमय कलि मल हरनी ।
करम कथा रबि नन्दिनि बरनी ।। 17।।
हरिहर कथा बिराजति बेनी ।
सुनत सकल मुद मंगल देनी ।। 18।।
बट बिस्वास अचल निज धर्मा ।
तीरथराज समाज सु कर्मा ।। 19।।
सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा ।
सेवत सादर समन कलेसा ।। 20।।
अकथ अलौकिक तीरथ राऊ ।
देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ ।। 21।।
दोहा-सुनि समुझहिं जन मुदित मन, मज्जहिं अति अनुराग ।
लहहिँ चारि फल अछत तनु, साधु समाजु प्रयाग ।। 3।।
मज्जन फल देखिय ततकाला ।
काक होहिं पिक बकउ मराला ।। 22।।
सुनि आचरज करइ जनि कोई ।
सत संगति महिमा नहिं गोई ।। 23।।
बालमीकि नारद घट जोनी ।
निज निज मुखनि कही निज होनी ।।24।।
जलचर थलचर नभचर नाना ।
जे जड़ चेतन जीव जहाना ।। 25।।
मति कीरति गति भूति भलाई ।
जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई ।। 26।।
सो जानब सत्संग प्रभाऊ ।
लोकहु बेद न आन उपाऊ ।। 27।।
बिनु सत्संग बिबेक न होई ।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।। 28।।
सत संगति मुद मंगल मूला ।
सोइ फल सिधि सब साधन फूला ।। 29।।
सठ सुधरहिं सत संगति पाई ।
पारस परसि कुधातु सोहाई ।। 30।।
बिधि बस सुजन कुसंगति परहीं ।
फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ।। 31।।
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी ।
कहत साधु महिमा सकुचानी ।। 32।।
सो मो सन कहि जात न कैसे ।
साक बनिक मनि गन गुन जैसे ।। 33।।
दोहा-बंदउँ संत समान चित, हित अनहित नहिँ कोउ ।
अंजुलि गत सुभ सुमन जिमि, सम सुगंध कर दोउ ।। 4।।
दोहा-संत सरल चित जगत हित, जानि सुभाउ सनेहु ।
बाल बिनय सुनि करि कृपा, राम-चरन-रति देहु ।। 5।।
बहुरि बंदि खल गन सति भाये ।
जे बिनु काज दाहिने बाये ।। 34।।
पर हित हानि लाभ जिन केरे ।
उजरे हरष बिषाद बसेरे ।। 35।।
हरिहर जस राकेस राहु से ।
पर अकाज भट सहस बाहु से ।। 36।।
जो परदोष लखहिं सहसाखी ।
परहित घृत जिनके मन माखी।। 37।।
तेज कृसानु रोष महिषेसा ।
अघ अवगुन धन धनी धनेसा ।। 38।।
उदय केतु सम हित सबही के ।
कुम्भकरन सम सोवत नीके ।। 39।।
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं ।
जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं ।। 40।।
बंदउँ खल जस सेष सरोषा ।
सहस बदन बरनइ पर दोषा ।। 41।।
पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना ।
पर अघ सुनइ सहस दस काना ।। 42।।
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही ।
सन्तत सुरानीक हित जेही ।। 43।।
बचन बज्र जेहि सदा पियारा ।
सहस नयन पर दोष निहारा ।। 44।।
दोहा-उदासीन अरि मीत हित, सुनत जरहिं खल रीति ।
जानि पानि जुग जोरि जन, बिनती करउँ सप्रीति ।। 6।।
मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा ।
तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा ।। 45।।
बायस पलिअहि अति अनुरागा ।
होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा ।। 46।।
बंदउँ सन्त असज्जन चरना ।
दुख प्रद उभय बीच कछु बरना ।। 47।।
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं ।
मिलत एक दारुन दुख देहीं ।। 48।।
उपजहिं एक संग जल माहीं ।
जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं ।। 49।।
सुधा सुरा सम साधु असाधू ।
जनक एक जग जलधि अगाधू ।। 50।।
भल अनभल निज निज करतूती ।
लहत सुजस अपलोक बिभूती ।। 51।।
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू ।
गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू ।। 52।।
गुन अवगुन जानत सब कोई ।
जो जेहि भाव नीक तेहि सोई ।। 53।।
दोहा-भलो भलाइहि पै लहइ, लहइ निचाइहि नीचु ।
सुधा सराहिय अमरता, गरल सराहिय मीचु ।। 7।।
खल अघ अगुन साधु गुन गाहा ।
उभय अपार उदधि अवगाहा ।। 54।।
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने ।
संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने ।। 55।।
भलेउ पोच सब बिधि उपजाए ।
गनि गुन दोष बेद बिलगाए ।। 56।।
कहहिँ बेद इतिहास पुराना ।
बिधि प्रपंच गुन अवगुन साना ।। 57।।
दुख सुख पाप पुन्य दिन राती ।
साधु असाधु सुजाति कुजाति ।। 58।।
दानव देव ऊँच अरु नीचू ।
अमिय सजीवन माहुर मीचू ।। 59।।
माया ब्रह्म जीव जगदीसा ।
लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा ।। 60।।
कासी मग सुरसरि क्रमनासा ।
मरु मालव महिदेव गवासा ।। 61।।
सरग नरक अनुराग बिरागा ।
निगम अगम गुन दोष बिभागा ।। 62।।
दोहा-जड़ चेतन गुन दोष मय, बिस्व कीन्ह करतार ।
संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरि बारि बिकार ।। 8।।
अस बिबेक जब देइ बिधाता ।
तब तजि दोष गुनहिं मनु राता ।। 63।।
काल सुभाउ करम बरियाई ।
भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाई ।।64।।
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं ।
दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं ।। 65।।
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू ।
मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू ।। 66।।
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ ।
बेष प्रताप पूजिअहि तेऊ ।। 67।।
उघरहिं अन्त न होइ निबाहू ।
कालनेमि जिमि रावन राहू ।। 68।।
किएहु कुबेष साधु सनमानू ।
जिमि जग जामवन्त हनुमानू ।। 69।।
हानि कुसंग सुसंगति लाहू ।
लोकहु बेद बिदित सब काहू ।। 70।।
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा ।
कीचहिँ मिलइ नीच जल संगा ।। 71।।
साधु असाधु सदन सुक सारी ।
सुमिरहिं रामु देहि गनि गारी ।। 72।।
धूम कुसंगति कारिख होई ।
लिखिय पुरान मंजु मसि सोई ।। 73।।
सोइ जल अनल अनिल संघाता ।
होइ जलद जग जीवन दाता ।। 74।।
दोहा-ग्रह भेषज जल पवन पट, पाइ कुजोग सुजोग ।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग, लखहिं सुलच्छन लोग ।। 9।।
दोहा-सम प्रकास तम पाख दुहुँ, नाम भेद बिधि कीन्ह ।
ससि पोषक सोषक समुझि, जग जस अपजस दीन्ह ।। 10।।
दोहा-जड़ चेतन जग जीव जत, सकल राम मय जानि ।
बदउँ सब के पद कमल, सदा जोरि जुग पानि ।। 11।।
दोहा-सारद सेष महेस बिधि, आगम निगम पुरान ।
नेति नेति कहि जासु गुन, करहिं निरंतर गान ।। 12।।
सब जानत प्रभु प्रभुता सोई ।
तदपि कहे बिन रहा न कोई ।। 75।।
तहाँ बेद अस कारन राखा ।
भजन प्रभाव भाँति बहु भाखा ।। 76।।
एक अनीह अरूप अनामा ।
अज सच्चिदानन्द परधामा ।। 77।।
ब्यापक बिस्व रूप भगवाना ।
तेहि धरि देह चरित कृत नाना ।। 78।।
दोहा-गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न ।
बंदउँ सीता राम पद, जिनहिं परम प्रिय खिन्न ।। 13।।
बन्दउँ राम नाम रघुबर को ।
हेतु कृसानु भानु हिमकर को ।। 79।।
बिधि हरि हर मय बेद प्रान सो ।
अगुन अनूपम गुन निधान सो ।। 80।।
महा मंत्र जोइ जपत महेसू ।
कासी मुक्ति हेतु उपदेसू ।। 81।।
महिमा जासु जान गन राऊ ।
प्रथम पूजियत नाम प्रभाऊ ।। 82।।
जान आदिकबि नाम प्रतापू ।
भयउ सुद्ध करि उलटा जापू ।। 83।।
समुझत सरिस नाम अरु नामी ।
प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी ।। 84।।
नाम रूप दुइ ईस उपाधी ।
अकथ अनादि सुसामुझि साधी ।। 85।।
को बड़ छोट कहत अपराधू ।
सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू ।। 86।।
देखिअहिं रूप नाम आधीना ।
रूप ज्ञान नहिं नाम विहीना ।। 87।।
रूप बिसेष नाम बिनु जाने ।
करतल गत न परहिं पहिचाने ।। 88।।
सुमिरिय नाम रूप बिनु देखे ।
आवत हृदय सनेह बिसेखे ।। 89।।
नाम रूप गति अकथ कहानी ।
समुझत सुखद न परति बखानी ।। 90।।
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी ।
उभय प्रबोधक चतुर दुभाखी ।। 91।।
दोहा-राम नाम मनि दीप धरु, जीह देहरी द्वार ।
तुलसी भीतर बाहरहुँ, जो चाहसि उँजियार ।। 14।।
नाम जीह जपि जागहिं जोगी ।
विरति बिरंचि प्रपंच बियोगी ।। 92।।
ब्रह्म सुखहिं अनुभवहिं अनूपा ।
अकथ अनामय नाम न रूपा ।। 93।।
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ ।
नाम जीह जपि जानहिं तेऊ ।। 94।।
साधक नाम जपहिं लउ लाए ।
होहिं सिद्ध अनिमादिक पाए ।। 95।।
जपहिं नामु जन आरत भारी ।
मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी ।। 96।।
राम भगत जग चारि प्रकारा ।
सुकृति चारिउ अनघ उदारा ।। 97।।
चहुँ चतुरन कहँ नाम अधारा ।
ज्ञानी प्रभुहिं बिसेषि पियारा ।। 98।।
चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ ।
कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ ।। 99।।
दोहा-सकल कामना हीन जे, राम भगति रस लीन ।
नाम सुप्रेम पियूष ह्द, तिनहुँ किये मन मीन ।। 15।।
अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा ।
अकथ अगाध अनादि अनूपा ।। 100।।
मोरे मत बड़ नाम दुहू ते ।
किय जेहि जुग निज बस निज बूते ।। 101।।
प्रौढ़ सुजन जनि जानहिं जन की ।
कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की ।। 102।।
एक दारु गत देखिय एकू ।
पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू ।। 103।।
उभय अगम जुग सुगम नाम तें ।
कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें ।। 104।।
ब्यापक एक ब्रह्म अबिनासी ।
सत चेतन घन आनन्द रासी ।। 105।।
अस प्रभु हृदय अछत अबिकारी ।
सकल जीव जग दीन दुखारी ।। 106।।
नाम निरूपन नाम जतन तें ।
सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें ।। 107।।
दोहा-निरगुन तें एहि भाँति बड़, नाम प्रभाउ अपार ।
कहेउँ नाम बड़ राम तें, निज बिचार अनुसार ।। 16।।
राम भगत हित नर तनु धारी ।
सहि संकट किय साधु सुखारी ।। 108।।
नाम सप्रेम जपत अनयासा ।
भगत होहिं मुद मंगल बासा ।। 109।।
दोहा-ब्रह्म राम ते नाम बड़, बर दायक बरदानि ।
रामचरित सत कोटि महँ, लिय महेस जिय जानि ।। 17।।
राम चरित मानस यहि नामा ।
सुनत श्रवण पाइय बिश्रामा ।। 110।।
मन करि बिषय अनल बन जरई ।
होइ सुखी जो यहि सर परई ।। 111।।
रामचरितमानस मुनि भावन ।
बिरचेउ संभु सुहावन पावन ।। 112।।
त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन ।
कलि कुचालि कलि कलुष नसावन ।। 113।।
रचि महेस निज मानस राखा ।
पाइ सुसमउ सिवा सन भाखा ।। 114।।
तातें रामचरितमानस बर ।
धरेउ नाम हिय हेरि हरषि हर ।। 115।।
लीला सगुन जो कहहिं बखानी ।
सोइ स्वच्छता करइ मल हानी ।। 116।।
प्रेम भगति जो बरनि न जाई ।
सोइ मधुरता सुसीतलताई ।। 117।।
दोहा-सुठि सुन्दर सम्बाद बर, बिरचे बुद्धि विचारि ।
तेहि यहि पावन सुभग सर, घाट मनोहर चारि ।। 18।।
सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना ।
ज्ञान-नयन निरखत मन माना ।। 118।।
रघुपति महिमा अगुन अबाधा ।
बरनव सोइ बर बारि अगाधा ।। 119।।
जो नहाइ चह यहि सर भाई ।
सो सतसंग करउ मन लाई ।। 120।।
अस मानस मानस चषु चाही ।
भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही ।। 121।।
जिन्ह यहि बारि न मानस धोये ।
ते कायर कलिकाल बिगोये ।। 122।।
दोहा-ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज, अकल अनीह अभेद ।
सो कि देह धरि होइ नर, जाहि न जानत बेद ।। 19।।
बिष्नु जो सुर हित नर तनु धारी ।
सोउ सर्बज्ञ जथा त्रिपुरारी ।। 123।।
खोजइ सो कि अज्ञ इव नारी ।
ज्ञान-धाम श्रीपति असुरारी ।। 124।।
छन्द-मुनि धीर योगी सिद्ध सन्तत, बिमल मन जेहि ध्यावहीं ।
कहि नेति निगम पुरान आगम, जासु कीरति गावहीं ।।
सोइ राम ब्यापक ब्रह्म भुवन, निकाय पति माया धनी ।
अवतरेउ अपने भगत-हित, निज तंत्र नित रघुकुल मनी ।।1।।
सोरठा-जल पय सरिस बिकाय, देखहु प्रीति कि रीति भली ।
बिलग होत रस जाय, कपट खटाई परत ही ।। 20।।
जदपि मित्र प्रभु पितु गुरु गेहा ।
जाइय बिनु बोले न सन्देहा ।। 125।।
तदपि बिरोध मान जहँ कोई ।
तहाँ गये कल्यान न होई ।। 126।।
भानु-कृसानु सर्ब रस खाहीं ।
तिन कहँ मन्द कहत कोउ नाहीं ।। 127।।
सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई ।
सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई ।।128।।
समरथ कहँ नहिं दोष गुसाईं ।
रबि पावक सुरसरि की नाईं ।। 129।।
दोहा-जौं अस हिसिषा करहिं नर, जड़ बिबेक अभिमान ।
परहिं कलप भरि नरक महुँ, जीव कि ईस समान ।।21।।
सुरसरि जल कृत बारुनि जाना ।
कबहुँ न सन्त करहिँ तेहि पाना ।। 130।।
सुरसरि मिले सो पावन जैसे ।
ईस अनीसहि अन्तर तैसे ।। 131।।
तप बल रचइ प्रपंच बिधाता ।
तप बल बिष्नु सकल जग त्रता ।। 132।।
तप बल सम्भु करहिं संघारा ।
तप बल सेष धरहिं महि भारा ।। 133।।
तप अधार सब सृष्टि भवानी ।
करहि जाइ तप अस जिय जानी ।। 134 ।।
मैना सत्य सुनहु मम बानी ।
जगदम्बा तव सुता भवानी ।। 135।।
अजा अनादि सक्ति अविनासिनि ।
सदा संभु अरधंग निवासिनि ।। 136।।
जग संभव पालन लय-कारिनि ।
निज इच्छा लीला बपु धारिनि ।। 137।।
जनमी प्रथम दच्छ गृह जाई ।
नाम सती सुन्दर तनु पाई ।। 138।।
दोहा-मुनि अनुसासन गनपतिहिँ, पूजेउ संभु भवानि ।
कउ सुनि संसय करइ जनि, सुर अनादि जिय जानि ।। 22।।
प्रभु जे मुनि परमारथ बादी ।
कहहिँ राम कहँ ब्रह्म अनादी ।। 139।।
सेष सारदा बेद पुराना ।
सकल करहिँ रघुपति गुन गाना ।। 140।।
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती ।
सादर जपहु अनंग अराती ।। 141।।
राम सो अवध-नृपति सुत सोई ।
कि अज अगुन अलख गति कोई ।। 142।।
दोहा-जौं नृप तनय तो ब्रह्म किमि, नारि बिरह मति भोरि ।
देखि चरित महिमा सुनत, भ्रमति बुद्धि अति मोरि ।। 23।।
जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ ।
कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ ।। 143।।
गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिँ ।
आरत अधिकारी जहँ पावहिँ ।। 144।।
झूठउँ सत्य जाहि बिनु जाने।
जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचाने ।। 145।।
जेहि जाने जग जाइ हेराई ।
जागे जथा सपन भ्रम जाई ।। 146।।
बंदउँ बाल रूप सोई रामू ।
सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू ।। 147।।
दोहा-राम कृपा ते पारबति, स्वपनेहु तव मन माहिँ ।
सोक मोह संदेह भ्रमु, मम बिचार कछु नाहिँ ।। 24।।
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना ।
स्त्रवन रन्ध्र अहि भवन समाना ।। 148 ।।
नयनन्हि सन्त दरस नहिं देखा ।
लोचन मोर पंख सम लेखा ।। 149।।
ते सिर कटु तूमरि सम तूला ।
जे न नमत हरि गुरु पद मूला ।। 150।।
जिन्ह हरि भगति हृदय नहिं आनी ।
जीवत सव समान ते प्रानी ।। 151।।
जो नहिं करइ राम गुन गाना ।
जीह सो दादुर जीह समाना ।। 152।।
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती ।
सुनि हरि चरित न जो हरषाती ।। 153।।
राम नाम गुन चरित सुहाये ।
जनम करम अगनित स्त्रुति गाये ।। 154।।
जथा अनन्त राम भगवाना ।
तथा कथा कीरति गुन गाना ।। 155।।
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई ।
सुखद संत सम्मत मोहि भाई ।। 156।।
एक बात नहिं मोहि सुहानी ।
जदपि मोह बस कहेहु भवानी ।। 157।।
तुम्ह जो कहा राम कोउ आना ।
जेहि स्त्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना ।। 158।।
दोहा-कहहिं सुनहिं अस अधम नर, ग्रसे जे मोह पिसाच ।
पाखंडी हरि पद बिमुख, जानहिं झूठ न साँच ।। 25।।
अज्ञ अकोबिद अन्ध अभागी ।
काई बिषय मुकुर मन लागी ।। 159।।
लंपट कपटी कुटिल बिसेखी ।
सपनेहु संत सभा नहिं देखी ।। 160।।
कहहिं ते बेद असम्मत बानी ।
जिन्हके सूझ लाभ नहिं हानी ।। 161।।
मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना ।
राम रूप देखहिँ किमि दीना ।। 162।।
जिन्ह के अगुन न सगुन बिबेका ।
जल्पहिं कल्पित बचन अनेका ।। 163।।
हरि माया बस जगत भ्रमाहीं ।
तिन्हहिँ कहत कछु अघटित नाहीं ।। 164।।
बातुल भूत बिबस मतवारे ।
ते नहिँ बोलहिँ बचन बिचारे ।। 165।।
जिन्ह कृत महा मोह मद पाना ।
तिन्ह कर कहा करिय नहिँ काना ।। 166।।
सगुनहिँ अगुनहिँ नहिँ कछु भेदा ।
गावहिँ मुनि पुरान बुध बेदा ।। 167।।
अगुन अरूप अलख अज जोई ।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई ।। 168।।
जो गुण रहित सगुण सोइ कैसे ।
जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसे ।।169।।
राम सच्चिदानन्द दिनेसा ।
नहिं तहँ मोह-निसा लव-लेसा ।। 170।।
सहज प्रकास रूप भगवाना ।
नहिँ तहँ पुनि बिज्ञान बिहाना ।। 171।।
हरष बिषाद ज्ञान अज्ञाना ।
जीव धरम अहमिति अभिमाना ।। 172।।
राम ब्रह्म व्यापक जग जाना ।
परमानन्द परेस पुराना ।। 173।।
दोहा-पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि, प्रकट परावर नाथ ।
रघुकुल मनि मम स्वामी सोइ, कहि सिव नायउ माथ ।। 26।।
निज भ्रम नहिँ समुझहिँ अज्ञानी ।
प्रभु पर मोह धरहिँ जड़ प्रानी ।। 174।।
जथा गगन घन पटल निहारी ।
झाँपेउ भान कहहिँ कुबिचारी ।। 175।।
चितब जो लोचन अंगुलि लाये ।
प्रगट जुगल ससि तेहि के भाये ।। 176।।
उमा राम बिषयक अस मोहा ।
नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा ।। 177।।
बिषय करन सुर जीव समेता ।
सकल एक तें एक सचेता ।। 178।।
सब कर परम प्रकासक जोई ।
राम अनादि अवधपति सोई ।। 179।।
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू ।
मायाधीस ज्ञान-गुन धामू ।। 180।।
जासु सत्यता तें जड़ माया ।
भास सत्य इव मोह सहाया ।। 181।।
दोहा-रजत सीप महँ भास जिमि, जथा भानु कर बारि ।।
जदपि मृषा तिहुँ काल सो, भ्रम न सकइ कोउ टारि ।। 27।।
यहि बिधि जग हरि आस्त्रित रहई ।
जदपि असत्य देत दुख अहई ।। 182।।
जौं सपने सिर काटइ कोई ।
बिनु जागे न दूरि दुख होई ।। 183।।
जासु कृपा अस भ्रम मिटि जाई ।
गिरिजा सोइ कृपालु रघुराई ।। 184।।
आदि अन्त कोउ जासु न पावा ।
मति अनुमान निगम अस गावा ।। 185।।
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना ।
कर बिनु करम करइ विधि नाना ।। 186।।
आनन रहित सकल रस भोगी ।
बिनु बानी बकता बड़ जोगी ।। 187।।
तन बिनु परस नयन बिनु देखा ।
ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेखा ।। 188।।
असि सब भाँति अलौकिक करनी ।
महिमा जासु जाइ नहिँ बरनी ।। 189।।
दोहा-जेहि इमि गावहिँ बेद बुध, जाहि धरहिँ मुनि ध्यान ।
सोइ दसरथ सुत भगत हित, कोसलपति भगवान ।। 28।।
राम ब्रह्म चिन्मय अबिनासी ।
सर्व-रहित सब उर पुर वासी ।। 190।।
नाथ धरेउ नर तनु केहि हेतू ।
मोहि समुझाइ कहहु वृषकेतू ।। 191।।
हरि अवतार हेतु जेहि होई ।
इदमित्थं कहि जाइ न सोई ।। 192।।
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी ।
मत हमार अस सुनहिँ सयानी ।। 193।।
‘राम ब्रह्म चिन्मय अबिनासी ।
सर्व-रहित सब उर पुर बासी ।। 190।।
नाथ धरेउ नर तन केहि हेतू ।
मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू ।। 191।।’
उर अभिलाष निरन्तर होई ।
देखिय नयन परम प्रभु सोई ।। 194।।
अगुन अखण्ड अनन्त अनादि ।
जेहि चिन्तहि परमारथ बादी ।। 195।।
नेति नेति जेहि वेद निरूपा ।
चिदानन्द निरुपाधि अनूपा ।। 196 ।।
सम्भु बिरंचि बिष्नु भगवाना ।
उपजहिं जासु अंस तें नाना ।। 197।।
ऐसउ प्रभु सेवक बस अहई ।
भगत हेतु लीला तनु गहई ।। 198।।
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा ।
तौं हमार पूजिहिँ अभिलाषा ।। 199।।
बिधि हरि हर तप देखि अपारा ।
मनु समीप आये बहुबारा ।। 200।।
माँगहु बर बहु भाँति लोभाये ।
परम धीर नहिँ चलहिँ चलाये ।। 201।।
जो सरूप बस सिव मन माहीँ ।
जेहि कारण मुनि जतन कराहीं ।। 202।।
जो भुसुन्डि मन मानस हंसा ।
सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा ।। 203।।
देखहि हम सो रूप भरि लोचन ।
कृपा करहु प्रनतारति मोचन ।। 203क।।
भगत बछल प्रभु कृपा निधाना ।
बिस्व बास प्रगटे भगवाना ।। 204।।
बाम भाग सोभित अनुकूला ।
आदि सक्ति छबि निधि जगमूला ।। 205।।*
जासु अंस उपजहिं गुन खानी ।
अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी ।। 206।।*
भृकुटि विलास जासु जग होई ।
राम बाम दिसि सीता सोई ।। 207।।*
पुर बैकुण्ठ जान कह कोई ।
कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई ।। 208।।*
हरि व्यापक सर्वत्र समाना ।
प्रेम तें प्रगट होहिँ मैं जाना ।। 209।।
देस काल दिसि बिदिसहु माहीं ।
कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ।। 210।।
अग जग मय सब रहित बिरागी ।
प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी ।। 211।।
छंद-जय जय सुर नायक जन सुख दायक प्रनत पाल भगवंता ।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधु-सुता प्रिय कंता ।।
जय जय अविनासी सब घटवासी व्यापक परमानंदा ।
अविगत गोतीतं चरित पुनीतं माया रहित मुकुंदा ।। 1।।
कस्यप अदिति महा तप कीन्हा ।
तिन कहँ मैं पूरब बर दीन्हा ।। 212।।*
ते दसरथ कौसल्या रूपा ।
कौसलपुरी प्रगट नर भूपा ।। 213।।*
तिन्ह के गृह अवतरिहौं जाई ।
रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई ।। 214।।*
नारद बचन सत्य सब करिहौं ।
परम सक्ति समेत अवतरिहौं ।। 215।।*
हरिहउँ सकल भूमि गरुआई ।
निर्भय होउ देव समुदाई ।। 216।।*
यह सब रुचिर चरित मैं भाखा ।
अब सो सुनहु जो बीचहिँ राखा ।। 217क।।
गगन ब्रह्म बानी सुनि काना ।
तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना ।। 217।।
दोहा-सुर समूह बिनती करि, पहुँचे निज निज धाम ।
जग निवास प्रभु प्रगटे, अखिल लोक बिश्राम ।। 30।।
छंद- कह दुइ कर जोरी, अस्तुति तोरी, केहि विधि करउँ अनन्ता ।
माया गुण ज्ञानातीत अमाना वेद पुरान भनन्ता ।।
ब्रह्माण्ड निकाया, निर्मित माया, रोम-रोम प्रति बेद कहे ।
मम उर सो बासी, सो उपहासी, सुनत धीर मति थिर न रहे ।।2।।
दोहा-बिप्र धेनु सुर सन्त हित, लीन्ह मनुज अवतार ।
निज इच्छा निर्मित तनु, माया गुन गो पार ।। 31।।*
काक भुशुन्डि संग हम दोऊ ।
मनुज रूप जानहिँ नहिं कोऊ ।। 218।।*
परमानन्द प्रेम सुख फूले ।
बीथिन्ह फिरहिँ मगन मन भूले ।। 219।।*
दोहा-ब्यापक ब्रह्म निरंजन, निर्गुण विगत बिनोद ।
सो अज प्रेम-भगति बस, कौसल्या की गोद ।। 32।।
उर मनि हार पदिक की सोभा ।
बिप्र चरन देखत मन लोभा ।। 219क।।
दोहा-सुख संदोह मोह पर, ज्ञान-गिरा-गोतीत ।
दम्पत्ति परम प्रेम बस, कर सिसु चरित पुनीत ।। 33।।
दोहा-देखरावा मातहिँ निज, अद्भुत रूप अखण्ड ।
रोम रोम प्रति लागे, कोटि कोटि ब्रह्मण्ड ।। 34।।
मन क्रम बचन अगोचर जोई ।
दशरथ अजिर बिचर प्रभु सोई ।। 220।।
दोहा-ब्यापक अकल अनीह अज, निर्गुण नाम न रूप ।
भगत हेतु नाना बिधि, करत चरित्र अनूप ।। 35।।
छन्द-जेहि पद सुर सरिता परम पुनीता, प्रगट भई सिव सीस धरी ।
सोई पद पंकज जेहि पूजत अज, मम सिर धरेउ कृपाल हरी ।। 3।।
दोहा-सभय सप्रेम बिनीत अति, सकुच सहित दोउ भाई ।
गुरु-पद-पंकज नाइ सिर, बैठे आयसु पाइ ।। 36।।
निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा ।
सबही सन्ध्या बन्दन कीन्हा ।। 221।।
कहत कथा इतिहास पुरानी ।
रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी ।। 222।।
मुनि वर सयन कीन्ह तब जाई ।
लगे चरन चाँपन दोउ भाई ।। 223।।
बार बार गुरु आज्ञा दीन्ही ।
रघुबर जाय सयन तब कीन्ही ।। 224।।
चाँपत चरन लषनु उर लाये ।
सभय सप्रेम परम सचु पाये ।। 225।।
पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता ।
पौढ़े धरि उर पद जल जाता ।। 226।।
दोहा-उठे लषनु निसि विगत सुनि, अरुन-सिखा धुनि कान ।
गुरु तें पहिले जगतपति, जागे राम सुजान ।। 37।।
जिन्ह कै रही भावना जैसी ।
प्रभु मूरति देखी तिन्ह तैसी ।। 227।।*
देखहिं भूप महा रनधीरा ।
मनहुँ बीर रस धरेउ सरीरा ।। 228।।*
डरे कुटिल नृप प्रभुहिँ निहारी ।
मनहु भयानक मूरति भारी ।। 229।।*
रहे असुर छल छोनिप बेखा ।
तिन्ह प्रभु प्रगट काल सम देखा ।। 230।।*
पुरवासिन्ह देखे दोउ भाई ।
नर-भूषन लोचन सुख दाई ।। 231।।*
दोहा-नारि बिलोकहिँ हरषि हिय, निज निज रुचि अनुरूप ।
जनु सोहत सृंगार धरि, मूरति परम अनूप ।। 38।।*
बिदुषन प्रभु विराट मय दीसा ।
बहु मुख कर पग लोचन सीसा ।। 232।।*
जनक जाति अवलोकहिँ कैसे ।
सजन सगे प्रिय लागहिँ जैसे ।। 233।।*
सहित बिदेह बिलोकहिँ रानी ।
सिसु सम प्रीति न जाइ बखानी ।। 234।।*
जोगिन्ह परम तत्त्व-मय भासा ।
सांत-सुद्ध-सम सहज प्रकासा ।। 235।।*
हरि-भगतन देखे दोउ भ्राता ।
इष्ट-देव इव सब सुख-दाता ।। 236।।*
हरि हित सहित राम जब जोहे ।
रमा समेत रमापति मोहे ।। 237।।
होएहु संतत पियहि पियारी ।
चिरु अहिबात असीस हमारी ।। 237क।।*
सासु ससुर गुर-सेवा करेहू ।
पति-रुख लखि आयसु अनुसरेहू ।। 237ख।।*
राम करउँ केहि भाँति प्रसंसा ।
मुनि महेस मन मानस हंसा ।। 238।।
करहिँ जोग जोगी जेहि लागी ।
कोहु मोहु ममता मद त्यागी ।। 239।।
ब्यापक ब्रह्म अलख अबिनासी ।
चिदानन्द निर्गुन गुन रासी ।। 240।।
मन समेत जेहि जान न बानी ।
तरकि न सकहिँ सकल अनुमानी ।। 241।।
महिमा निगम नेति कहि कहई ।
जो तिहु काल एक रस अहई ।। 242।।
दोहा-नयन बिषय मो कहँ भयउ, सो समस्त सुख मूल ।
सबहिँ लाभ जग जीव कहँ, भये ईस अनुकूल ।। 38।।
रामचरितमानस-सार सटीक,
प्रथम सोपान-बालकाण्ड समाप्त।
द्वितीय सोपान-अयोध्याकाण्ड
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दोहा-श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुर सुधारि ।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायक फल चारि ।। 39।।
सकल कहहिँ कब होइहिँ काली ।
बिघन मनावहिँ देव कुचाली ।। 243।।
तिन्हहिँ सोहाइ न अवध बधावा ।
चोरहिं चान्दिनि राति न भावा ।। 244।।
ऊँच निवास नीच करतूती ।
देखि न सकहि ँ पराइ बिभूती ।। 245।।
नहिँ असत्य सम पातक पुंजा ।
गिरि सम होहिँ कि कोटिक गुंजा ।। 246।।
सत्य मूल सब सुकृत सुहाये ।
बेद पुरान बिदित मनु गाये ।। 247।।
दुइकि होइ एक समय भुआला ।
हँसब ठठाइ फुलाउब गाला ।। 248।।
दानि कहाउब अरु कृपनाई ।
होइ कि षेम कुसल रौताई ।। 249।।
तनु तिय तनय धाम धन धरनी ।
सत्यसंध कहँ तृन सम बरनी ।। 250।।
फिरि पछितैहसि अन्त अभागी ।
मारसि गाई नाहरू लागी ।। 251।।
सुनु जननी सोइ सुत बड़ भागी ।
जो पितु मातु बचन अनुरागी ।। 252।।
तनय मातु पितु तोषनि हारा ।
दुर्लभ जननि सकल संसारा ।। 253।।
धन्य जन्म जगती तल तासू ।
पितहि प्रमोद चरित सुनि जासू ।। 254।।
चारि पदारथ कर तल ताके ।
प्रिय पितु मातु प्रान सम जाके ।। 255।।
गुरु पितु मातु बन्धु सुर साईं ।
सेइअहि सकल प्रान की नाईं ।। 256।।
राम प्रान प्रिय जीवन जी के ।
स्वारथ-रहित सखा सबही के ।। 257।।
पूजनीय प्रिय परम जहाँ ते ।
सब मानिअहि राम के नाते ।। 258।।
पुत्रवती जुबती जग सोई ।
रघुपति भगतु जासु सुत होई ।। 259।।
नतरु बाँझ भल बादि बिआनी ।
राम बिमुख सुत तें हित जानी ।। 260।।
सकल सुकृत कर बड़ फल येहू ।
राम सीय पद सहज सनेहू ।। 261।।
बोले लखन मधुर मृदु बानी ।
ज्ञान बिराग भगति रस सानी ।। 262।।
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सुनु भ्राता ।। 263।।
जोग बियोग भोग भल मन्दा ।
हित अनहित मध्यम भ्रम फन्दा ।। 264।।
जनम मरन जहँ लगि जग जालू ।
सम्पति बिपति करम अरु कालू ।। 265।।
धरनी धाम धन पुर परिवारू ।
सरग नरक जहँ लगि ब्यवहारू ।। 266।।
देखिय सुनिय गुनिय मन माहीं ।
मोह मूल परमारथ नाहीं ।। 267।।
दोहा-सपने होइ भिखारी नृप, रंक नाकपति होइ ।
जागे लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपंच जिय जोइ ।। 40।।
अस बिचारि नहिं कीजिय रोषू ।
काहुहि बादि न देइय दोषू ।। 268।।
मोह निसा सब सोवनिहारा ।
देखिय सपन अनेक प्रकारा ।। 269।।
यहि जग जामिनि जागहिं जोगी ।
परमारथी प्रपंच बियोगी ।। 270।।
जानिय तबहिँ जीव जग जागा ।
जब सब बिषय बिलास बिरागा ।। 271।।
होइ बिबेक मोह भ्रम भागा ।
तब रघुनाथ चरन अनुरागा ।। 272।।
सखा परम परमारथ येहू ।
मन क्रम बचन राम पद नेहू ।। 273।।
राम ब्रह्म परमारथ रूपा ।
अविगत अलख अनादि अनूपा ।। 274।।
सकल बिकार रहित गत भेदा ।
कहि नित नेति निरूपहिँ वेदा ।। 275।।
दोहा-भगत भूमि भूसुर सुरभि, सुरहित लागी कृपाल ।
करत चरित धरि मनुज तनु, सुनत मिटहिँ जग जाल ।। 41।।
सिवि दधीचि हरिचन्द नरेसा ।
सहे धरम हित कोटि कलेसा ।। 276।।*
रन्ति देव बलि भूप सुजाना ।
धरम धरेउ सहि संकट नाना ।। 277।।*
धरम न दूसर सत्य समाना ।
आगम निगम पुरान बखाना ।। 278।।*
मैं सोइ धरम सुलभ करि पावा ।
तजे तिहूँ पुर अपजस छावा ।। 279।।*
सम्भावित कहँ अपजस लाहू ।
मरन कोटि सम दारुन दाहू ।। 280।।*
बेगि आनु जल पाय पखारू ।
होय विलम्ब उतारहि पारू ।। 281।।*
जासु नाम सुमिरत एक बारा ।
उतरहिँ नर भव-सिन्धु अपारा ।। 282।।*
सोइ कृपाल केवटहि निहोरा ।
जेहि जग किय तिहु पगहु ते थोरा ।। 283।।*
सोरठा-राम स्वरूप तुम्हार, बचन अगोचर बुद्धि पर ।
अबिगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।। 42।।
जगपेखनु तुम देखनिहारे ।
बिधि हरि सम्भु नचावनिहारे ।। 284।।
तेउ न जानहिं मरम तुम्हारा ।
अउर तुम्हहिँ को जाननिहारा ।। 285।।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई ।
जानत तुम्हहिँ तुम्हइ होइ जाई ।। 286।।
तुम्हरिहि कृपा तुम्हहिँ रघुनन्दन ।
जानहिँ भगत भगत उर चन्दन ।। 287।।
चिदानन्द मय देह तुम्हारी ।
बिगत बिकार जान अधिकारी ।। 288।।
नर तन धरेउ सन्त सुर काजा ।
कहहु करहु जस प्राकृत राजा ।। 289।।
दोहा-पूँछेहु मोहि कि रहउँ कहँ, मैं पूछत सकुचाउँ ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि, तुम्हहिं देखावउँ ठाउँ ।। 43।।
जिन्हके स्त्रवन समुद्र समाना ।
कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना ।। 290।।
भरहिं निरन्तर होहिं न पूरे ।
तिनके हिय तुम्ह कहँ गृह रूरे ।। 291।।
लोचन चातक जिन्ह करि राखे ।
रहहिँ दरस जलधर अभिलाखे ।। 292।।
निदरहिँ सरित सिन्धु सर भारी ।
रूप बिन्दु जल होहिं सुखारी ।। 293।।
तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक ।
बसहु बन्धु सिय सह रघुनायक ।। 294।।
दोहा-जस तुम्हार मानस बिमल, हंसिनि जीहा जासु ।
मुकताहल गुन गन चुनइ, राम बसहु हिय तासु ।। 44।।
प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा ।
सादर जासु लहइ नित नासा ।। 295।।
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं ।
प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं ।। 296।।
सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी ।
प्रीति सहित करि बिनय बिसेखी ।। 297।।
कर नित करहिं राम पद पूजा ।
राम भरोस हृदय नहिं दूजा ।। 298।।
चरन राम तीरथ चलि जाहीं ।
राम बसहु तिनके मन माहीं ।। 299।।
तरपन होम करहिं बिधि नाना ।
बिप्र जेबाइ देहिं बहु दाना ।। 300।।
तुम्हतें अधिक गुरुहिं जिय जानी ।
सकल भाय सेवहिं सनमानी ।। 301।।
दोहा-सब करि माँगहि एक फल, राम चरन रति होउ ।
तिन्ह के मन-मन्दिर बसहु, सिय रघुनन्दन दोउ ।। 45।।
काम कोह मद मान न मोहा ।
लोभ न छोभ न राग न द्रोहा ।। 302।।
जिन कहँ कपट दम्भ नहिं माया ।
तिन्हके हृदय बसहु रघुराया ।। 303।।
सब के प्रिय सब के हितकारी ।
दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी ।। 304।।
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी ।
जागत सोवत सरन तुम्हारी ।। 305।।
तुम्हहिं छाड़ि गति दूसरि नाहीं ।
राम बसहु तिन्हके मन माहीं ।। 306।।
जननी सम जानहिँ पर नारी ।
धन पराव बिष तें बिष भारी ।। 307।।
जो हरषहिँ पर सम्पति देखी ।
दुखित होहिँ पर बिपति बिसेखी ।। 308।।
जिन्हहिँ राम तुम प्रान पियारे ।
तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे ।। 309।।
दोहा-स्वामि सखा पितु मातु गुरु, जिन्ह के सब तुम तात ।
मन मन्दिर तिन्ह के बसहु, सिय सहित दोउ भ्रात ।। 46।।
अवगुन तजि सब के गुन गहहीँ ।
बिप्र धेनु हित संकट सहहीं ।। 310।।
नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका ।
घर तुम्हार तिन्ह कर मन नीका ।। 311।।
गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा ।
जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा ।। 312।।
राम भगत प्रिय लागहिं जेही ।
तेहि उर बसहु सहित बैदेही ।। 313।।
जाति पाँति धन धरम बड़ाई ।
प्रिय परिवार सदन सुखदायी ।। 314।।
सब तजि तुम्हहिं रहइ लउ लाई ।
तेहि के हृदय रहहु रघुराई ।। 315।।
सरग नरक अपवरग समाना ।
जहँ तहँ देख धरे धनु बाना ।। 316।।
करम बचन मन राउर चेरा ।
राम करहु तिनके उर डेरा ।। 317।।
दोहा-जाहि न चाहिय कबहुँ कछु, तुम्ह सन सहज सनेह ।
बसहु निरन्तर तासु मन, सो राउर निज गेह ।। 47।।
रामहिं केवल प्रेम पियारा ।
जानि लेउ जो जाननिहारा ।। 318।।*
पय पयोधि तजि अवध बिहाई ।
जहँ सिय लखन राम रहे छाई ।। 319।।
जनम मरन सब दुख सुख भोगा ।
हानि लाभ प्रिय मिलन बियोगा ।।320।।
काल करम बस होहिँ गोसाईं ।
बरबस राति दिवस की नाईं ।। 321।।
सुख हरषहिँ जड़ दुख बिलखाहीं ।
दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं ।। 322।।
जे अघ मातु पिता सुत मारे ।
गाइ गोठ महि सुर पुर जारे ।। 323।।
जे अघ तिय बालक बध कीन्हे ।
मीत महीपति माहुर दीन्हे ।। 324।।
जे पातक उपपातक अहहीँ ।
करम बचन मन भव कबि कहहीँ ।।325।।
ते पातक मोहि होउ बिधाता ।
जौं यह होइ मोर मत माता ।। 326।।
दोहा-जे परिहरि हरि हर चरन, भजहिं भूत गन घोर ।
तिन्हकर गति मोहि देउ बिधि, जौं जननी मत मोर ।। 48।।
बेचहिं बेद धरम दुहि लेहीं ।
पिसुन पराय पाप कहि देहीं ।। 327।।
कपटी कुटिल कलह प्रिय क्रोधी ।
बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी ।। 328।।
लोभी लम्पट लोलुप चारा ।
जो ताकहिँ परधन परदारा ।। 329।।
पावउँ मैं तिन्हके गति घोरा ।
जौं जननी यह सम्मत मोरा ।। 330।।
जे नहिँ साधु-संग अनुरागे ।
परमारथ पथ बिमुख अभागे ।। 331।।
जे न भजहिँ हरि नर तन पाई ।
जिन्हहिँ न हरिहर सुजस सुहाई ।। 232।।
तजि स्त्रुति पंथ बाम पथ चलहीँ ।
बंचक बिरचि बेष जग छलहीँ ।। 333।।
तिन्ह कइ गति मोहि संकर देऊ ।
जननी जौं यहु जानउँ भेऊ ।। 334।।
सोचिय बिप्र जो बेद बिहीना ।
तजि निज धरम बिषय लयलीना ।। 335।।
सोचिय नृपति जो नीति न जाना ।
जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना ।। 336।।
सोचिय बयस कृपन धनवानू ।
जो न अतिथि सिव भगति सुजानू ।। 337।।
सोचिय सुद्र बिप्र अपमानी ।
मुखर मानप्रिय ज्ञान गुमानी ।। 338।।
सोचिय पुनि पति बंचक नारी ।
कुटिल कलह प्रिय इच्छा चारी ।। 339।।
सोचिय बटु निज ब्रत परिहरई ।
जो नहिँ गुरु आयसु अनुसरई ।। 340।।
दोहा-सोचिय गृही जो मोह बस, करइ करम पथ त्याग ।
सोचिय जती प्रपंच रत, बिगत बिबेक बिराग ।। 49।।
बैखानस सोइ सोचन जोगू ।
तप बिहाइ जेहि भावइ भोगू ।। 341।।
सोचिय पिसुन अकारन क्रोधी ।
जननि जनक गुरु बन्धु बिरोधी ।। 342।।
सब बिधि सोचिय पर अपकारी ।
निज तनु पोषक निरदय भारी ।। 343।।
सोचनीय सबही बिधि सोई ।
जो न छाड़ि छल हरि जन होई ।। 344।।
बादि बसन बिनु भूषन भारू ।
बादि बिरति बिनु ब्रह्म बिचारू ।। 345।।
सरुज सरीर बादि बहु भोगा ।
बिनु हरि भगति जाय जप जोगा ।। 346।।
दोहा-जरउ सो सम्पति सदन सुख, सुहृद मातु पितु भाइ ।
सनमुख होत जो राम पद, करइ न सहज सहाइ ।। 50।।
राम पयादेहिँ पाय सिधाये ।
हम कहँ रथ गज बाजि बनाये ।। 347।।*
सिरभर जाउँ उचित अस मोरा ।
सबतें सेवक धरम कठोरा ।। 348।।*
माया पति सेवक सन माया ।
करइ त उलटि परइ सुर राया ।। 349।।*
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ ।
निज अपराध रिसाहिँ न काऊ ।। 350।।*
जो अपराध भगत कर करई ।
राम रोष पावक सो जरई ।। 351।।*
लोकहु बेद बिदित इतिहासा ।
यह महिमा जानहि दुरवासा ।। 352।।*
दोहा-मनहुँ न आनिय अमर पति, रघुबर भगत अकाज ।
अजस लोक परलोक दुख, दिन दिन सोक समाज ।। 51।।*
सुनु सुरेस उपदेस हमारा ।
रामहिँ सेवक परम पियारा ।। 353।।*
मानत सुख सेवक सेवकाई ।
सेवक बैर बैर अधिकाई ।। 354।।*
जद्यपि सम नहिँ राग न रोषू ।
गहहिँ न पाप पुन्य गुन दोषू ।। 355।।*
करम प्रधान बिस्व करि राखा ।
जो जस करइ सो तस फल चाखा ।। 356।।*
तदपि करहिँ सम विषम बिहारा ।
भगत अभगत हृदय अनुसारा ।। 357।।
अगुन अलेप अमान एक रस ।
राम सगुन भये भगत प्रेम बस ।। 358।।
राम सदा सेवक रुचि राखी ।
बेद पुरान साधु सुर साखी ।। 359।।
दोहा-ससि गुरु तिय गामी, नहुष चढ़ेउ भूमि सुर जान ।
लोक बेद ते बिमुख भा, अधम न बेन समान ।। 52।।
सहस बाहु सुर नाथ त्रिसंकू ।
केहि न राज मद दीन्ह कलंकू ।। 360।।*
अनुचित उचित काज कछु होऊ ।
समुझि करिय भल कह सब कोऊ ।। 361।।*
सहसा करि पाछे पछिताहीं ।
कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं ।। 362।।
राम सखा रिषि बरबस भेंटा ।
जनु महि लुटत सनेह समेटा ।। 363।।*
रघुपति भगति सुमंगल मूला ।
नभ सराहि सुर बरषहिं फूला ।। 364।।*
यहि सम निपट नीच कोउ नाहीं ।
बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं ।। 365।।*
दोहा-जेहि लखि लखनहुँ तें अधिक, मिले मुदित मुनि राउ ।
सो सीतापति भजन को, प्रगट प्रताप प्रभाउ ।। 53।।
जे गुरु पद अम्बुज अनुरागी ।
ते लोकहु वेदहु बड़ भागी ।। 366।।
तात जीय जनि करहु गलानी ।
ईस अधीन जीव गति जानी ।। 367।।
तात कुतरक करहु जनि जाये ।
बैर प्रेम नहिं दुरइ दुराये ।। 368।।
मुनि गन निकट बिहँग मृग जाहीं ।
बाधक बधिक बिलोकि पराहीं ।। 369।।
हित अनहित पसु पच्छिउ जाना ।
मानुष तनु गुन ज्ञान निधाना ।। 370।।
जो सेवक साहिबहिँ सँकोची ।
निज हित चहइ तासु मति पोची ।। 371।।
सेवक हित साहिबहिँ सेवकाई ।
करइ सकल सुख लोभ बिहाई ।। 372।।
बिषयी साधक सिद्ध सयाने ।
त्रिबिध जीव जग बेद बखाने ।। 373।।
राम सनेह सरस मन जासू ।
साधु सभा बड़ आदर तासू ।। 374।।
सोह न राम प्रेम बिनु ज्ञानू ।
करनधार बिनु जिमि जलयानू ।। 375।।
सो सुख करम धरम जरि जाऊ ।
जहँ न राम पद पंकज भाऊ ।। 376।।*
जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू ।
जहँ नहिं राम प्रेम परधानू ।। 377।।*
सहज सनेह स्वामि सेवकाई ।
स्वारथ छल फल चारि बिहाई ।। 378।।
आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा ।
सो प्रसाद जन पावइ देवा ।। 379।।
सोरठा-देखि दुखारी दीन, दुहुँ समाज नर नारि सब ।
मघवा महा मलीन, मुये मारि मंगल चहत ।। 54।।*
कपट कुचालि सींव सुरराजू ।
पर अकाज प्रिय आपन काजू ।। 380।।
काक समान पाक रिपु रीती ।
छली मलीन न कतहुँ प्रतीती ।। 381।।
लखि हिय हँसि कह कृपानिधानू ।
सरिस स्वान मघवान जुबानू ।। 382।।
होहिं कुठाँय सुबन्धु सहाये ।
ओड़ियहि हाथ असनि के घाये ।। 383।।
दोहा-सेवक कर पद नयन से, मुख सो साहिब होइ ।
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि, सुकबि सराहहिँ सोइ ।। 55।।
गुरु पितु मातु स्वामि सिख पाले ।
चलेहु कुमग पग परइ न खाले ।। 384।।
अस बिचारि सब सोच बिहाई ।
पालहु अवध अवधि भरि जाई ।। 385।।*
देश कोस पुरजन परिवारू ।
गुरु पद रजहिं लाग छर भारू ।। 386।।
तुम्ह मुनि मातु सचिव सिख मानी ।
पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी ।। 387।।
दोहा-मुखिया मुख सो चाहिए, खान पान कहँ एक ।
पालइ पोषइ सकल अंग, तुलसी सहित बिबेक ।। 56।।*
रामचरितमानस-सार सटीक
चतुर्थ सोपान-किष्किन्धाकाण्ड समाप्त
तृतीय सोपान-अरण्यकाण्ड
~~~~~~~~~~~~~~~~
मातु मृत्यु पितु समन समाना ।
सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना ।। 388।।
मित्र करइ सत रिपु कै करनी ।
ता कहँ बिबुध नदी बैतरनी ।। 389।।
सब जग तेहि अनलहु ते ताता ।
जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता ।। 390।।
छन्द-नमामि इन्दिरा पतिं । सुखाकरं सतां गतिं ।।
भजे सशक्ति सानुजं, शची पति प्रियानुजं ।। 3।।
मातु पिता भ्राता हितकारी ।
मित प्रद सब सुनु राजकुमारी ।। 391।।
अमित दानि भर्त्ता बैदेही ।
अधम सो नारि जो सेव न तेही ।। 392।।
धीरज धर्म मित्र अरु नारी ।
आपद काल परखियहिं चारी ।। 393।।
बृद्ध रोग बस जड़ धन हीना ।
अन्ध बधिर क्रोधी अति दीना ।। 394।।
ऐसेहु पति कर किय अपमाना ।
नारि पाव जमपुर दुख नाना ।। 395।।
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा ।
काय बचन मन पति पद प्रेमा ।। 395क।।*
जग पतिब्रता चारि बिधि अहहीं ।
बेद पुरान सन्त सब कहहीं ।। 396।।*
उत्तम के अस बस मन माहीं ।
सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं ।। 397।।*
मध्यम पर पति देखहिं कैसे ।
भ्राता पिता पुत्र निज जैसे ।। 398।।*
धरम बिचारि समुझि कुल रहई ।
सो निकृष्ट तिय स्त्रुति अस कहई ।। 399।।
बिनु अवसर भय तें रह जोई ।
जानहु अधम नारि जग सोई ।। 400।।
पति बंचक पर पति रति करई ।
रौरव नरक कलप सत परई ।। 401।।
छन सुख लागि जनम सत कोटी ।
दुख न समझ तेहि सम को खोटी ।। 402।।
बिनु श्रम नारि परम गति लहई ।
पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई ।। 402क।।
पति प्रतिकूल जनम जहँ जाई ।
बिधवा होइ पाइ तरुनाई ।। 403।।
मैं अरु मोर तोर तैं माया ।
जेहि बस कीन्हे जीव निकाया ।। 404।।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई ।
सो सब माया जानेहु भाई ।। 405।।
तेहि कर भेद सुनहु तुम सोऊ ।
बिद्या अपर अबिद्या दोऊ ।। 406।।
एक दुष्ट अतिसय दुख-रूपा ।
जा बस जीव परा भव कूपा ।। 407।।
एक रचइ जग गुन बस जाके ।
प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताके ।। 408।।
ज्ञान मान जहँ एकउ नाहीं ।
देख ब्रह्म समान सब माहीं ।। 409।।
कहिय तात सो परम बिरागी ।
तृन सम सिद्धि तीन गुन त्यागी ।। 410।।
दोहा-माया ईस न आप कहँ, जान कहिय सो जीव ।
बन्ध मोच्छ-प्रद सर्ब पर, माया प्रेरक सीव ।। 57।।
धर्म तें विरति जोग तें ज्ञाना ।
ज्ञान मोच्छ-प्रद बेद बखाना ।। 411।।
जातेँ बेगि द्रवउँ मैं भाई ।
सो मम भगति भगत सुखदाई ।। 412।।
सो सुतन्त्र अवलम्ब न आना ।
तेहि आधीन ज्ञान बिज्ञाना ।। 413।।
भगति तात अनुपम सुख मूला ।
मिलइ जो सन्त होहिं अनुकूला ।। 414।।
भगति के साधन कहउँ बखानी ।
सुगम पन्थ मोहि पावहिँ प्रानी ।। 415।।
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती ।
निज निज धरम निरत स्त्रुति रीती ।। 416।।
एहि कर फल मन बिषय बिरागा ।
तब मम धरम उपज अनुरागा ।। 417।।
स्त्रवनादिक नव भगति दृढ़ाहीं ।
मम लीला रति अति मन माहिं ।। 418।।
सन्त चरन पंकज अति प्रेमा ।
मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा ।। 419।।
गुरु पितु मातु बन्धु पति देवा ।
सब मोहि कहँ जानइ दृढ़ सेवा ।। 420।।
मम गुन गावत पुलक सरीरा ।
गद गद गिरा नयन बह नीरा ।। 421।।
काम आदि मद दम्भ न जाके ।
तात निरन्तर बस मैं ताके ।। 422।।
दोहा-बचन करम मन मोरि गति, भजन करहिं निःकाम ।
तिन्ह के हृदय कमल महँ, करउँ सदा बिश्राम ।। 58।।
भ्राता पिता पुत्र उरगारी ।
पुरुष मनोहर निरखत नारी ।। 423।।
होइ बिकल सक मनहिं न रोकी ।
जिमि रबिमनि द्रव रबिहिं बिलोकी ।। 424।।
सुन्दरि सुनु मैं उन्ह कर दासा ।
पराधीन नहिँ तोर सुपासा ।। 425।।
प्रभु समरथ कोसलपुर राजा ।
जो कुछ करहिँ उनहिँ सब छाजा ।। 426।।*
सेवक सुख चह मान भिखारी ।
व्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी ।। 427।।
लोभी जस चह चार गुमानी ।
नभ दुहि दूध चहत ये प्रानी ।। 428।।
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा ।
हरिहि समर्पे बिनु सत कर्मा ।। 429।।
बिद्या बिनु बिबेक उपजाये ।
स्त्रम फल पढ़े किये अरु पाये ।। 430।।
संग तें जती कुमन्त्र तें राजा ।
मान तें ज्ञान पान तें लाजा ।। 431।।
प्रीति प्रनय बिनु मद तें गुनी ।
नासहिँ बेगि नीति अस सुनी ।। 432।।
सोरठा-रिपु रुज पावक पाप, प्रभु अहि गनिय न छोट करि ।
अस कहि बिबिध बिलाप, करि लागी रोदन करन ।। 59।।
नवनि नीच कै अति दुखदाई ।
जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई ।। 433।।
भयदायक खल कै प्रिय बानी ।
जिमि अकाल के कुसम भवानी ।। 434।।
इमि कुपंथ पग देत खगेसा ।
रह न तेज तन बुधि बल लेसा ।। 435।।
राम कहा तनु राखहु ताता ।
मुख मुसुकाइ कही तेहि बाता ।। 436।।*
जाकर नाम मरत मुख आवा ।
अधमउ मुकुत होइ स्त्रुति गावा ।। 437।।*
सो मम लोचन गोचर आगे ।
राखउँ देह नाथ केहि खाँगे ।। 438।।*
जल भरि नयन कहत रघुराई ।
तात करम निज तें गति पाई ।। 439।।*
पर हित बस जिनके मन माहीँ ।
तिन्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीँ ।। 440।।*
तनु तजि तात जाहु मम धामा ।
देउँ काह तुम्ह पूरन कामा ।। 441।।*
दोहा-सीता हरन तात जनि, कहेहु पिता सन जाइ ।
जौं मैं राम त कुल सहित, कहिहिँ दसानन आइ ।। 60।।*
गीध देह तजि धरि हरि रूपा ।
भूषन बहु पट पीत अनूपा ।। 442।।*
स्याम गात बिसाल भुज-चारी ।
अस्तुति करत नयन भरि बारी ।। 443।।*
छन्द-जय राम रूप अनूप निर्गुन, सगुन गुन प्रेरक सही ।
दस सीस बाहु प्रचंड खंडन, चंड सर मंडन मही ।। 4।।
दोहा-अबिरल भगति माँगि बर, गीध गयउ हरि धाम ।
तेहि की क्रिया जथोचित, निज कर कीन्ही राम ।। 61।।*
कोमल चित्त अति दीन दयाला ।
कारन बिनु रघुनाथ कृपाला ।। 444।।
गीध अधम खग आमिष भोगी ।
गति दीन्ही जो जाँचत जोगी ।। 445।।*
सुनहु उमा ते लोग अभागी ।
हरि तजि होहिँ बिषय अनुरागी ।। 446।।
सुनु गन्धर्व कहउँ मैं तोही ।
मोहि न सुहाइ ब्रह्म कुल द्रोही ।। 447।।
दोहा-मन क्रम बचन कपट तजि, जो कर भूसुर सेव ।
मोहि समेत बिरंचि सिव, बस ताके सब देव ।। 62।।
सापत ताड़त परुष कहन्ता ।
बिप्र पूज्य अस गावहिँ सन्ता ।। 448।।
पूजिय बिप्र सील गुन हीना ।
सूद्र न गुन गन ज्ञान प्रबीना ।। 449।।
केहि बिधि अस्तुति करउँ तुम्हारी ।
अधम जाति मैं जड़ मति भारी ।। 450।।
अधम तेँ अधम अधम अति नारी ।
तिन्ह महँ मैं मति मन्द अघारी ।। 451।।
कह रघुपति सुनु भामिनी बाता ।
मानउँ एक भगति कर नाता ।। 452।।
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई ।
धन बल परिजन गुन चतुराई ।। 453।।
भगति हीन नर सोहइ कैसा ।
बिनु जल बारिद देखिय जैसा ।। 454 ।।
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं ।
सावधान सुनु धरु मन माहीं ।। 455।।
प्रथम भगति सन्तन्ह कर संगा ।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।। 456।।
दोहा-गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान ।
चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान ।। 63।।
मन्त्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा ।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा ।। 457।।
छठ दम सील बिरति बहु कर्मा ।
निरत निरन्तर सज्जन धर्मा ।। 458।।
सातवँ सम मोहिमय जग देखा ।
मोतें सन्त अधिक करि लेखा ।। 459।।
आठवँ जथा लाभ सन्तोषा ।
सपनहु नहिँ देखइ पर दोषा ।। 460।।
नवम सरल सब सन छल हीना ।
मम भरोस हिय हरष न दीना ।। 461 ।।
नव महँ एकउ जिन्हके होई ।
नारि पुरुष सचराचर कोई ।। 462।।
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे ।
सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे ।। 463।।
जोगी बृन्द दुर्लभ गति जोई ।
तो कहँ आज सुलभ भइ सोई ।। 464।।
मम दरसन फल परम अनूपा ।
जीव पाव निज सहज सरूपा ।। 465।।
छन्द-कहि कथा सकल बिलोकि हरि, मुख हृदय पद पंकज धरे ।
तजि जोग पावक देह हरि पद, लीन भइ जहँ नहिँ फिरे ।।
नर बिबिध कर्म अधर्म बहुमत, सोक-प्रद सब त्यागहू ।
बिस्वास करि कह दास तुलसी, राम-पद अनुरागहू ।। 5।।
दोहा-जाति हीन अघ जनम महि, मुकुत कीन्ह अस नारि ।
महा मन्द मन सुख चहसि, ऐसे प्रभुहिँ बिसारि ।। 64।।
सास्त्र सुचिन्तित पुनि पुनि देखिय ।
भूप सुसेवित बस नहिं लेखिय ।। 466।।
राखिय नारि जदपि उर माहीँ ।
जुबति सास्त्र नृपति बस नाहीँ ।। 467।।
लछिमन देखत काम अनीका ।
रहहिँ धीर तिन्ह कै जग लीका ।। 468।।
एहि के एक परम बल नारी ।
तेहि तें उबर सुभट सोइ भारी ।। 469।।
दोहा-तात तीनि अति प्रबल खल, काम क्रोध अरु लोभ ।
मुनि बिज्ञान-धाम मन, करहिँ निमिष महँ छोभ ।। 65।।
दोहा-लोभ के इच्छा दम्भ बल, काम के केवल नारि ।
क्रोध के परुष बचन बल, मुनि बर कहहिँ बिचारि ।। 66।।
क्रोध मनोज लोभ मद माया ।
छूटहिँ सकल राम की दाया ।। 470।।
सो नर इन्द्रजाल नहिँ भूला ।
जा पर होइ सो नट अनुकूला ।। 471।।
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना ।
सत हरि भजन जगत सब सपना ।। 472।।
सन्त हृदय जस निर्मल बारी ।
बाँधे घाट मनोहर चारी ।। 473।।
जहँ तहँ पियहिँ बिबिध मृग नीरा ।
जनु उदार घर जाँचक भीरा ।। 474।।
दोहा-पुरइनि सघन ओट जल, बेगि न पाइय मर्म ।
मायाछन्न न देखिये, जैसे निर्गुन ब्रह्म ।। 67।।
दोहा-सुखी मीन सब एक रस, अति अगाध जल माहिँ ।
जथा धर्मसीलन्ह के, दिन सुख-संजुत जाहिँ ।। 68।।
दोहा-फल भारन्ह नमि बिटप सब, रहे भूमि नियराइ ।
पर उपकारी पुरुष जिमि, नवहिँ सुसम्पति पाइ ।। 69।।
मोर साप करि अंगीकारा ।
सहत राम नाना दुख भारा ।। 475।।*
ऐसे प्रभुहिँ बिलोकउँ जाई ।
पुनि न बनहिँ अस अवसर आई ।। 476।।*
राम जबहिँ प्रेरेउ निज माया ।
मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया ।। 477।।*
तब बिबाह मैं चाहउँ कीन्हा ।
प्रभु केहि कारन करइ न दीन्हा ।। 478।।*
सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा ।
भजहिँ जे मोहि तजि सकल भरोसा ।। 479।।
करउँ सदा तिन्हके रखवारी ।
जिमि बालकहिँ राख महतारी ।। 480।।
गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई ।
तहँ राखइ जननी अरु गाई ।। 481।।
प्रौढ़ भये पर सुत तेहि माता ।
प्रीति करइ नहिँ पाछिल बाता ।। 482।।
मोरे प्रौढ़ तनय सम ज्ञानी ।
बालक सुत सम दास अमानी ।। 483।।
जनहिँ मोर बल निज बल ताही ।
दुहुँ कहँ काम क्रोध रिपु आही ।। 484।।
अस बिचारि पंडित मोहि भजहीँ ।
पायहु ज्ञान भगति नहिँ तजहीँ ।। 485।।
दोहा-काम क्रोध लोभादि मद, प्रबल मोह कै धारि ।
तिन महँ अति दारुन दुखद, माया रूपी नारि ।। 70।।
सुनु मुनि कह पुरान स्त्रुति संता ।
मोह बिपिन कहँ नारि बसन्ता ।। 486।।
जप तप नेम जलासय झारी ।
होइ ग्रीषम सोखइ सब नारी ।। 487।।
काम क्रोध मद मत्सर भेका ।
इन्हहिँ हरष-प्रद बरषा एका ।। 488।।
दुर्बासना कुमुद समुदाई ।
तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई ।। 489।।
धर्म सकल सरसीरुह वृन्दा ।
होइ हिम तिन्हहिँ देति सुख मन्दा ।। 490।।
पुनि ममता जवास बहुताई ।
पलुहइ नारि सिसिर ऋतु पाई ।। 491।।
पाप उलूक निकर सुखकारी ।
नारि निबिड़ रजनी अँधियारी ।। 492।।
बुधि बल सील सत्य सब मीना ।
बनसी सम तिय कहहिँ प्रबीना ।। 493।।
दोहा-अवगुन मूल सूलप्रद, प्रमदा सब दुख खानि ।
ताते कीन्ह निवारन, मुनि मैं यह जिय जानि ।। 71।।
षट बिकार जित अनघ अकामा ।
अचल अकिंचन सुचि सुख धामा ।। 494।।
अमित बोध अनीह मित भोगी ।
सत्यसार कबि कोबिद जोगी ।। 495।।
सावधान मानद मद हीना ।
धीर भगति पथ परम प्रबीना ।। 496।।
दोहा-गुनागार संसार दुख, रहित बिगत सन्देह ।
तजि मम चरन सरोज प्रिय, जिन्ह कहँ देह न गेह ।। 72।।
निज गुन स्त्रवन सुनत सकुचाहीँ ।
पर गुन सुनत अधिक हरषाहीँ ।। 497।।*
सम सीतल नहिँ त्यागहिँ नीती ।
सरल सुभाव सबहि सन प्रीती ।। 498।।
जप तप ब्रत दम संजम नेमा ।
गुरु गोबिन्द बिप्र पद प्रेमा ।। 499।।
स्त्रद्धा छमा मइत्री दाया ।
मुदिता मम पद प्रीति अमाया ।। 500।।
बिरति बिबेक बिनय बिज्ञाना ।
बोध जथारथ बेद पुराना ।। 501।।
दम्भ मान मद करहिँ न काऊ ।
भूलि न देहिँ कुमारग पाऊ ।। 502।।
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला ।
हेतु रहित परहित रत सीला ।। 503।।
सुनु मुनि साधुन के गुन जेते ।
कहि न सकहिँ सारद स्त्रुति तेते ।। 504।।
दोहा-दीप सिखा सम जुबति तन, मन जनि होसि पतंग ।
भजहि राम तजि काम मद, करहि सदा सत्संग ।। 73।।
रामचरितमानस-सार सटीक
तृतीय सोपान-अरण्यकाण्ड समाप्त
चतुर्थ सोपान-किष्किन्धाकाण्ड
~~~~~~~~~~~~~~~~
जे न मित्र दुख होहिँ दुखारी ।
तिन्हहिँ बिलोकत पातक भारी ।। 505।।
निज दुख गिरि सम रज करि जाना ।
मित्र के दुख रज मेरु समाना ।। 506।।
जिन्हके असि मति सहज न आई ।
ते सठ कत हठि करत मिताई ।। 507।।
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा ।
गुन प्रगटइ अवगुनहिँ दुरावा ।। 508।।
देत लेत मन सक न धरई ।
बल अनुमान सदा हित करई ।। 509।।
बिपति काल कर सतगुन नेहा ।
स्त्रुति कह सन्त मित्र गुन एहा ।। 510।।
आगे कह मृदु बचन बनाई ।
पाछें अनहित मन कुटिलाई ।। 511।।
जाकर चित अहि गति सम भाई ।
अस कुमित्र परिहरेहि भलाई ।। 512।।
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी ।
कपटी मित्र सूल सम चारी ।। 513।।
सुख सम्पति परिवार बड़ाई ।
सब परिहरि करिहउँ सेवकाई ।। 514।।
ये सब राम भगति के बाधक ।
कहहिं सन्त तव पद अवराधक ।। 515।।
सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीँ ।
माया कृत परमारथ नाहीँ ।। 516।।
सपने जेहि सन होइ लराई ।
जागे समुझत मन सकुचाई ।। 517।।
छिति जल पावक गगन समीरा ।
पंच रचित अति अधम सरीरा ।। 518।।
प्रगट सो तनु तव आगे सोवा ।
जीव नित्य तुम केहि लगि रोवा ।। 519।।
दोहा-लछिमन देखहु मोर गन, नाचत बारिद पेखि ।
गृही बिरति रत हरष जस, बिष्णु भगत कहँ देखि ।। 74।।
दामिनि दमकि रह न घन माहीँ ।
खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं ।। 520।।
बरषहिं जलद भूमि नियराये ।
जथा नवहिँ बुध विद्या पाये ।। 521।।
बुन्द अघात सहहिँ गिरि कैसे ।
खल के बचन सन्त सह जैसे ।। 522।।
छुद्र नदी भरि चली तोराई ।
जस थोरेहु धन खल इतराई ।। 523।।
भूमि परत भा ढाबर पानी ।
जनु जीवहि माया लपटानी ।। 524।।
समिटि समिटि जल भरहिँ तलाबा ।
जिमि सदगुन सज्जन पहिँ आवा ।। 525।।
सरिता जल जलनिधि महँ जाई ।
होइ अचल जिमि जिव हरि पाई ।। 526।।
दोहा-हरित भूमि तृन संकुल, समुझि परहिं नहिं पन्थ ।
जिमि पाखंड बिबाद तें, गुप्त होहिं सद्ग्रन्थ ।। 57।।
नव पल्लव भये बिटप अनेका ।
साधक मन जस मिले बिबेका ।। 527।।
अर्क जवास पात बिनु भयऊ ।
जस सुराज खल उद्यम गयऊ ।। 528।।
खोजत कतहुँ मिलइ नहिँ धूरी ।
करइ क्रोध जिमि धर्महिँ दूरी ।। 529।।
ससि सम्पन्न सोह महि कैसी ।
उपकारी कै सम्पति जैसी ।। 530।।
निसि तम धन खद्योत बिराजा ।
जनु दम्भिन्ह कर मिला समाजा ।। 531।।
महा वृष्टि चलि फूटि कियारीं ।
जिमि सुतन्त्र भये बिगरहीँ नारीं ।। 532।।
कृषी निरावहिं चतुर किसाना ।
जिमि बुध तजहिं मोह मद माना ।। 533।।
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं ।
कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं ।। 534।।
ऊसर बरषइ तृन नहिं जामा ।
जिमि हरि जन हिय उपज न कामा ।। 535।।
बिबिध जन्तु संकुल महि भ्राजा ।
प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा ।। 536।।
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना ।
जिमि इन्द्रिय गन उपजें ग्याना ।। 537।।
दोहा-कबहुँ प्रबल बह मारुत, जहँ तहँ मेघ बिलाहिँ ।
जिमि कपूत के ऊपजें, कुल सद्धर्म नसाहिँ ।। 76।।
दोहा-कबहुँ दिवस महँ निविड़ तम, कबहुँक प्रगट पतंग ।
बिनसइ उपजइ ज्ञान जिमि, पाइ कुसंग सुसंग ।। 77।।
बरषा बिगत सरद रितु आई ।
लछिमन देखहु परम सुहाई ।। 538।।
फूले कास सकल महि छाई ।
जनु बरषा कृत प्रगट बुढ़ाई ।। 539।।*
उदित अगस्त पंथ जल सोखा ।
जिमि लोभहिँ सोखइ सन्तोखा ।। 540।।
सरिता सर निर्मल जल सोहा ।
सन्त हृदय जस गत मद मोहा ।। 541।।
रस रस सूख सरित सर पानी ।
ममता त्याग करहिँ जिमि ज्ञानी ।। 542।।
जानि सरद रितु खंजन आये ।
पाइ समय जिमि सुकृत सुहाये ।। 543।।
पंक न रेनु सोह अस धरनी ।
नीति निपुन नृप कै जसि करनी ।। 544।।
जल संकोच बिकल भइँ मीना ।
अबुध कुटुम्बी जिमि धन हीना ।। 545।।
बिनु घन निर्मल सोह अकासा ।
हरि जन इव परिहरि सब आसा ।। 546।।
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी ।
कोउ इक पाव भगति जिमि मोरी ।। 547।।
दोहा-चले हरषि तजि नगर नृप, तापस बनिक भिखारि ।
जिमि हरि भगति पाइ स्त्रम, तजहिं आश्रमी चारि ।।78।।
सुखी मीन जे नीर अगाधा ।
जिमि हरि सरन न एकउ बाधा ।। 548।।
फूले कमल सोह सर कैसा ।
निर्गुन ब्रह्म सगुन भये जैसा ।। 549।।
चक्रबाक मन दुख निसि पेखी ।
जिमि दुर्जन पर सम्पति देखी ।। 550।।
चातक रटत तृषा अति ओही ।
जिमि सुख लहइ कि संकर द्रोही ।। 551।।
सरदातप निसि ससि अपहरई ।
सन्त दरस जिमि पातक टरई ।। 552।।
देखि इन्दु चकोर समुदाई ।
चितवहिँ जिमि हरिजन हरि पाई ।। 553।।
मसक दंस बीते हिम त्रासा ।
जिमि द्विज द्रोह किये कुल नासा ।। 554।।
दोहा-भूमि जीव संकुल रहे, गये सरद रितु पाइ ।
सदगुरु मिले जाहिँ जिमि, संसय भ्रम समुदाइ ।। 79।।
नाथ बिषय सम मद कछु नाहीँ ।
मुनि मन मोह करइ छन माहीँ ।। 555।।
बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी ।
मैं पामर पसु कपि अति कामी ।। 556।।
नारि नयन सर जाहि न लागा ।
घोर क्रोध तम निसि जो जागा ।। 557।।
लोभ पास जेहि गर न बँधाया ।
सो नर तुम समान रघुराया ।। 558।।
यह गुन साधन तेँ नहिँ होई ।
तुम्हरी कृपाँ पाव कोइ कोई ।। 559।।
भानु पीठ सेइय उर आगी ।
स्वामिहिँ सर्व भाव छल त्यागी ।। 560।।
तजि माया सेइय परलोका ।
मिटहिँ सकल भव सम्भव सोका ।। 561।।
देह धरे कर यह फलु भाई ।
भजिअ राम सब काम बिहाई ।। 562।।
सोइ गुनज्ञ सोई बड़ भागी ।
जो रघुबीर चरन अनुरागी ।। 563।।*
रामचरितमानस-सार सटीक
चतुर्थ सोपान-किष्किन्धाकाण्ड समाप्त
पंचम सोपान-सुन्दरकाण्ड
~~~~~~~~~~~~~~~~
दोहा-तात स्वर्ग अपवर्ग सुख, धरिय तुला इक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सत्संग ।। 80।।
जाके बल बिरंचि हरि ईसा ।
पालत सृजत हरत दस सीसा ।। 564।।*
जा बल सीस धरत सहसानन ।
अंड कोस समेत गिरि कानन ।। 565।।*
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता ।
तुम्ह से सठ न सिखावन दाता ।। 566।।*
हर कोदंड कठिन जेहि भञ्जा ।
तोहि समेत नृप खल दल गञ्जा ।। 567।।*
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली ।
बधे सकल अतुलित बलसाली ।। 568।।*
दोहा-जाके बल लवलेस तेँ, जितेहु चराचर झारि ।
तासु दूत मैं जा करि, हरि आनेहु प्रिय नारि ।।81।।*
रिषि पुलस्ति जस बिमल मयंका ।
तेहि ससि महँ जनि होहु कलंका ।। 569।।*
राम नाम बिनु गिरा न सोहा ।
देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ।। 570।।*
बसन हीन नहिँ सोह सुरारी ।
सब भूषन भूषित बर नारी ।। 571।।*
राम बिमुख सम्पति प्रभुताई ।
जाइ रही पाई बिनु पाई ।। 572।।*
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीँ ।
बरषि गये पुनि तबहिँ सुखाहीँ ।। 573।।*
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी ।
बिमुख राम त्राता नहिँ कोपी ।। 574।।*
संकर सहस बिस्नु अज तोही ।
सकहिँ न राखि राम कर द्रोही ।। 575।।*
दोहा-मोह मूल बहु सूल प्रद, त्यागहु तम अभिमान ।
भजहु राम रघुनायक, कृपासिन्धु भगवान ।।82।।
दोहा-सचिव बैद गुरु तीनि जौं, प्रिय बोलहिँ भय आस ।
राज धर्म तन तीनि कर, होइ बेगि ही नास ।। 83।।
जो आपन चाहइ कल्याना ।
सुजस सुमति सुभ गति सुख नाना ।। 576।।
सो पर नारि लिलार गुसाईं ।
तजइ चौथि के चन्द कि नाईं ।। 577।।
चौदह भुवन एक पति होई ।
भूत द्रोह तिष्ठै नहिँ सोई ।। 578।।
गुनागार नागर नर जोऊ ।
अलप लोभ भल कहइ न कोऊ ।। 579।।
दोहा-काम क्रोध मद लोभ सब, नाथ नरक कर पंथ ।
सब परिहरि रघुवीर ही, भजहु भजहिँ जेहि सन्त ।। 84।।
सुमति कुमति सबके उर रहहीँ ।
नाथ पुरान निगम अस कहहीँ ।। 580।।*
जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना ।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ।। 581।।
उमा सन्त कर इहइ बड़ाई ।
मन्द करत जो करइ भलाई ।। 582।।
अस कहि चला विभीषण जबहीँ ।
आयू-हीन भये सब तबहीँ ।। 583।।*
साधु अवज्ञा तुरत भवानी ।
कर कल्यान अखिल कै हानी ।। 584।।
दोहा-सरनागत कहँ जे तजहिँ, निज अनहित अनुमानि ।
ते नर पामर पापमय, तिनहिँ बिलोकत हानि ।। 85।।
कहु लंकेस सहित परिवारा ।
कुसल कुठाहर बास तुम्हारा ।। 585।।*
खल मंडली बसहु दिन राती ।
सखा धरम निबहइ केहि भाँती ।। 586।।*
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती ।
अति नय निपुन न भाव अनीती ।। 587।।*
बरु भल बास नरक कर ताता ।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ।। 588।।*
अब पद देखि कुसल रघुराया ।
जो तुम कीन्हि जानि जन दाया ।। 589।।*
दोहा-तब लगि कुसल न जीव कहँ, सपनेहु मन बिस्त्राम ।
जब लगि भजत न राम कहँ, सोक धाम तजि काम ।। 86।।
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती ।
सहज कृपन सन सुन्दर नीती ।। 590।।
ममता रत सन ज्ञान कहानी ।
अति लोभी सन बिरति बखानी ।। 591।।
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा ।
ऊसर बीज बये फल जथा ।। 592।।
दोहा-काटेहि पै कदली फरइ, कोटि जतन कोउ सीँच ।
बिनय न मान खगेस सुनु, डाँटेहि पै नव नीच ।। 87।।
रामचरितमानस-सार सटीक
पञ्चम सोपान-सुन्दरकाण्ड समाप्त ।
षष्ठ सोपान-लंकाकाण्ड
~~~~~~~~~~~~~~~~
दोहा-लव निमेष परमानु जुग, बरष कलप सर चंड ।
भजसि न मन तेहि राम कहँ, काल जासु कोदंड ।।88।।
प्रिय बानी जे सुनहिँ जे कहहीं ।
ऐसे नर निकाय जग अहहीँ ।। 593।।
बचन परम हित सुनत कठोरे ।
सुनहिँ जे कहहिँ ते नर प्रभु थोरे ।। 594।।
कौल काम बस कृपिन बिमूढ़ा ।
अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा ।। 595।।
सदा रोग बस सन्तत क्रोधी ।
बिस्नु बिमुख स्त्रुति सन्त बिरोधी ।। 596।।
तनु पोषक निन्दक अघखानी ।
जीवत सवऽ सम चौदह प्रानी ।। 597।।
दोहा-ताहि कि सम्पति सगुन सुभ, सपनहुँ मन बिस्त्राम ।
भूत द्रोह रत मोह बस, राम बिमुख रत काम ।। 89।।
सुनहु सखा कह कृपा निधाना ।
जेहि जय होय सो स्यन्दन आना ।। 598।।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका ।
सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका ।। 599।।
बल बिबेक दम परहित घोरे ।
छमा कृपा समता रजु जोरे ।। 600।।
ईस भजन सारथी सुजाना ।
बिरति चर्म सन्तोष कृपाना ।। 601।।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा ।
बर बिज्ञान कठिन कोदंडा ।। 602।।
अमल अचल मन त्रोन समाना ।
सम जम नियम सिली मुख नाना ।। 603।।
कवच अभेद विप्र गुरु पूजा ।
एहि सम विजय उपाय न दूजा ।। 604।।
सखा धरम मय अस रथ जाके ।
जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताके ।। 605।।
दोहा-महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर ।
जाके अस रथ होइ दृढ़, सुनहु सखा मति धीर ।। 90।।
बहु राम लछिमन देख मर्कट भालु मन अति अप डरे ।
जनु चित्र लिखित समेत लछिमन, जहँ सो तहँ चितवहिँ खरे ।।
निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर, चाप सजि कोसल धनी ।
माया हरी हरि निमिष महँ, हरषी सकल मरकट अनी ।।6।।*
छन्द 7 हरिगीतिका
जनि जल्पना करि सुजस नासहि, नीति सुनहि करहि छमा ।
संसार महँ पूरुष त्रिविध, पाटल रसाल पनस समा ।।
एक सुमन प्रद एक सुमन फल एक, फलइ केवल लागही ।
एक कहहिँ कहहि करहि अपर एक, करहिं कहत न बागही।।
देखे कपिन्ह अमित दस सीसा ।
जहँ तहँ भजे भालु अरु कीसा ।। 606।।*
दह दिसि धावहिं कोटिन्ह रावन ।
गर्जहिँ घोर कठोर भयावन ।। 607।।*
छन्द-जब कीन्ह तेहि पाखंड । भये प्रगट जन्तु प्रचंड ।।
बेताल भूत पिसाच । कर धरे धनु नाराच ।।*
जोगिनि गहे करवाल । एक हाथ मनुज कपाल ।।
करि सद्य सोनित पान । नाचहिँ करहिँ बहु गान ।।*
धरु मारु बोलहिँ घोर । रहि पूरि धुनि चहुँ ओर ।।
मुख बाइ धावहिँ खान । तब लगे कीस परान ।।*
जहँ जाहिँ मर्कट भागि । तहँ बरत देखहिँ आग ।।
भये बिकल बानर भालु । पुनि लाग बरषइ बालु ।।*
जहँ तहँ थकित करि कीस । गर्जेउ बहुरि दससीस ।।
लछिमन कपीस समेत । भये सकल बीर अचेत ।।*
हा राम हा रघुनाथ । कहि सुभट मीजहिँ हाथ ।।
यहि बिधि सकल बल तोरि । तेहि कीन्ह कपट बहोरि।।*
प्रगटेसि बिपुल हनुमान । धाये गहे पाषान ।।
तिन्ह राम घेरे जाइ । चहुँ दिसि बरूथ बनाइ ।।*
मारहु धरहु जनि जाइ । कटकटहिँ पूँछ उठाइ ।।
दह दिसि लंगूर बिराज । तेहि मध्य कोसल राज ।। 8।।*
काटत बढ़त सीस समुदाई ।
जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।। 608।।
[यह स्वाभाविक बात है कि जितना लाभ होता है, लोभ उतना ही अधिक बढ़ता है।]
रामचरितमानस-सार सटीक
षष्ठ सोपान-लंकाकाण्ड समाप्त
सप्तम सोपान-उत्तरकाण्ड
~~~~~~~~~~~~~~~~
जबते राम प्रताप खगेसा ।
उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा ।। 609।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका ।
बहुतेन्ह सुख बहुतेन्ह मन सोका ।। 610।।
जिन्हहिँ सोक ते कहउँ बखानी ।
प्रथम अबिद्या निसा नसानी ।। 611।।
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने ।
काम क्रोध कैरव सकुचाने ।। 612।।
बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ ।
ये चकोर सुख लहहिँ न काऊ ।। 613।।
मत्सर मान मोह मद चोरा ।
इन्ह कर हुनर न कवनिहु ओरा ।। 614।।
धरम तड़ाग ज्ञान बिज्ञाना ।
ये पंकज बिकसे बिधि नाना ।। 615।।
सुख सन्तोष बिराग बिबेका ।
बिगत सोक ये कोक अनेका ।। 616।।
दोहा-यह प्रताप रवि जाके, उर जब करइ प्रकास ।
पछिले बाढ़हिँ प्रथम जे, कहे ते पावहिँ नास ।। 91।।
बड़े भाग पाइय सतसंगा ।
बिनहिँ प्रयास होइ भवभंगा ।। 617।।
दोहा-सन्त संग अपबर्ग कर, कामी भव कर पन्थ ।
कहहिँ सन्त कवि कोबिद, स्त्रुति पुरान सदग्रन्थ ।। 92।।
सन्तन्ह के लच्छन सुनु भ्राता ।
अगनित स्त्रुति पुरान बिख्याता ।। 618।।
सन्त असन्तन्ह कै असि करनी ।
जिमि कुठार चन्दन आचरनी ।। 619।।
काटइ परसु मलय सुनु भाई ।
निज गुन देइ सुगन्ध बसाई ।। 620।।
दोहा-तातें सुर सीसन्ह चढ़त, जग बल्लभ श्रीखंड ।
अनल दाहि पीटत घनहिँ, परसु बदन यह दंड ।। 93।।
बिषय अलम्पट सील गुनाकर ।
पर दुख दुख सुख सुख देखे पर ।। 621।।
सम अभूत रिपु बिमद बिरागी ।
लोभामरष हरष भय त्यागी ।। 622।।
कोमल चित दीनन्ह पर दाया ।
मन बच क्रम मम भगति अमाया ।। 623।।
सबहिँ मान प्रद आपु अमानी ।
भरत प्रान सम मम तेइ प्रानी ।। 624।।
बिगत काम मम नाम परायन ।
सान्ति बिरति बिनती मुदितायन ।। 625।।
सीतलता सरलता मयत्री ।
द्विज पद प्रीति धरम जनयत्री ।। 626।।
ये सब लच्छन बसहिँ जासु उर ।
जानेहु तात सन्त सन्तत फुर ।। 627।।
सम1 दम2 नियम3 नीति नहिँ डोलहिँ ।
परुष बचन कबहूँ नहिँ बोलहिँ ।। 628।।
दोहा-निन्दा अस्तुति उभय सम, ममता मम पद कंज ।
ते सज्जन मम प्रान प्रिय, गुन मन्दिर सुख पुंज ।। 94।।
सुनहु असन्तन्ह केर सुभाऊ ।
भूलेहु संगति करिय न काऊ ।। 629।।
तिन्ह कर संग सदा दुखदाई ।
जिमि कपिलहि घालइ हरहाई ।। 630।।
खलन्ह हृदय अति ताप बिसेखी ।
जरहिँ सदा पर सम्पति देखी ।। 631।।
जहँ कहिँ निन्दा सुनहिँ पराई ।
हरषहिँ मनहुँ परी निधि पाई ।। 632।।
काम क्रोध मद लोभ परायन ।
निर्दय कपटी कुटिल मलायन ।। 633।।
बयर अकारन सब काहू सोँ ।
जो कर हित अनहित ताहू सोँ ।। 634।।
झूठइ लेना झूठइ देना ।
झूठइ भोजन झूठ चबेना ।। 635।।
बोलहिँ मधुर बचन जिमि मोरा ।
खाहिँ महा अहि हृदय कठोरा ।। 636।।
दोहा-पर द्रोही पर दार रत, पर धन पर अपबाद ।
ते नर पाँवर पापमय, देह धरे मनुजाद ।। 95।।
लोभइ ओढ़न लोभइ डासन ।
सिस्नोदर पर जम पुर त्रास न ।। 637।।
काहू की जौं सुनहिँ बड़ाई ।
स्वास लेहिँ जनु जूड़ी आई ।। 638।।
जब काहू की देखिहिँ बिपती ।
सुखी भये मानहु जग नृपती ।। 639।।
स्वारथ रत परिवार बिरोधी ।
लम्पट काम लोभ अति क्रोधी ।। 640।।
मातु पिता गुरु बिप्र न मानहिँ ।
आपु गये अरु घालहिँ आनहिँ ।। 641।।
करहिँ मोह बस द्रोह परावा ।
सन्तसंग हरि कथा न भावा ।। 642।।
अवगुन सिन्धु मन्द मति कामी ।
बेद बिदूषक पर धन स्वामी ।। 643।।
बिप्र द्रोह सुर द्रोह बिसेषा ।
दम्भ कपट जिय धरे सुबेषा ।। 644।।
दोहा-ऐसे अधम मनुज खल, कृत युग त्रेता नाहिँ ।
द्वापर कछुक वृन्द बहु, होइहहिँ कलियुग माहिँ ।। 93।।
पर हित सरिस धर्म नहिँ भाई ।
पर पीड़ा सम नहिँ अधमाई ।। 645।।
निरनय सकल पुरान बेद कर ।
कहेउँ तात जानहिँ कोबिद नर ।। 646।।
नर सरीर धरि जे पर पीरा ।
करहिँ ते सहहिँ महा भव भीरा ।। 647।।
करहिं मोह बस नर अघ नाना ।
स्वारथ रत परलोक नसाना ।। 648।।
काल रूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता ।
सुभ अरु असुभ करम फल दाता ।। 649।।
अस बिचार जे परम सयाने ।
भजहिँ मोहि संसृत दुख जाने ।। 650।।
त्यागहिँ करम सुभासुभ दायक ।
भजहिँ मोहि सुर नर मुनि नायक ।। 651।।
सन्त असंतन्ह के गुण भाखे ।
ते न परहिँ भव जिन्ह लखि राखे ।। 652।।
दोहा-सुनहु तात मायाकृत, गुन अरु दोष अनेक ।
गुन यह उभय न देखियहि, देखिय सो अबिबेक ।। 97।।
दोहा-जीवन मुक्त ब्रह्म पर, चरित सुनहिँ तजि ध्यान ।
जे हरि कथा न करहिँ रति, तिन्ह के हिय पाषान ।। 98।।
बड़े भाग मानुष तन पावा ।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा ।। 653।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा ।
पाइ न जेहि परलोक सँवारा ।। 654।।
दोहा-सो परत्र दुख पावइ, सिर धुनि धुनि पछताइ ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि, मिथ्या दोष लगाइ ।। 99।।
एहि तन कर फल विषय न भाई ।
स्वरगउ स्वल्प अन्त दुखदाई ।। 655।।
नर तनु पाइ बिषय मन देहीँ ।
पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीँ ।। 656।।
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई ।
गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई ।। 657।।
आकर चारि लच्छ चौरासी ।
जोनी भ्रमत यह जीव अबिनासी ।। 658।।
फिरत सदा माया कर प्रेरा ।
काल कर्म सुभाव गुन घेरा ।। 659।।
कबहुँक करि करुना नर देही ।
देत ईस बिनु हेतु सनेही ।। 660।।
नर तन भव बारिधि कहँ बेरो ।
सनमुख मरुत अनुग्रह मेरो ।। 661।।
करनधार सदगुर दृढ़ नावा ।
दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ।। 662।।
दोहा-जो न तरइ भव सागर, नर समाज अस पाइ ।
सो कृत निन्दक मन्द मति, आतम हन गति जाइ ।। 100।।
जौं परलोक इहाँ सुख चहहू ।
सुनि मम बचन हृदय दृढ़ गहहू ।। 663।।
सुलभ सुखद मारग यह भाई ।
भगति मोरि पुरान स्त्रुति गाई ।। 664।।
ज्ञान अगम प्रत्यूह अनेका ।
साधन कठिन न मन कहँ टेका ।। 665।।
करत कष्ट बहु पावै कोऊ ।
भगति हीन मोहि प्रिय नहिँ सोऊ ।। 666।।
भगति सुतंत्र सकल सुख खानी ।
बिनु सत्संग न पावहिँ प्रानी ।। 667।।
पुन्य पुंज बिनु मिलहिँ न सन्ता ।
सतसंगति संसृति कर अन्ता ।। 668।।
पुन्य एक जग महँ नहिं दूजा ।
मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा ।। 669।।
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा ।
जो तजि कपट करइ द्विज सेवा ।। 670।।
दोहा-औरउ एक गुपुत मत, सबहि कहउँ कर जोरि ।
संकर भजन बिना नर, भगति न पावइ मोरि ।। 101।।
कहहु भगति पथ कवन प्रयासा ।
जोग न मख जप तप उपवासा ।। 671।।
सरल सुभाव न मन कुटिलाई ।
जथा लाभ सन्तोष सदाई ।। 672।।
मोर दास कहाइ नर आसा ।
करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा ।। 673।।
बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई ।
एहि आचरण बस्य मैं भाई ।। 674।।
बयर न बिग्रह आस न त्रासा ।
सुखमय ताहि सदा सब आसा ।। 675।।
अनारम्भ अनिकेत अमानी ।
अनघ अरोष दक्ष बिज्ञानी ।। 676।।
प्रीति सदा सज्जन संसर्गा ।
तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा ।। 677।।
भगति पच्छ हठ नहीँ सठताई ।
दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई ।। 678।।
दोहा-मम गुन ग्राम नाम रत, गत ममता मद मोह ।
ताकर सुख सोइ जानइ, परानन्द सन्दोह ।। 102।।
उपरोहिती कर्म अति मन्दा ।
बेद पुरान स्मृति कर निन्दा ।। 679।।
जब न लेउँ मैं तब बिधि मोही ।
कहा लाभ आगे सुत तोही ।। 680।।
परमातमा ब्रह्म नर रूपा ।
होइहि रघुकुल भूषण भूपा ।। 681।।
दोहा-तब मैं हृदय बिचारा, जोग जज्ञ ब्रत दान ।
जा कहँ करिय सो पइहउँ, धर्म न एहि सम आन ।। 103।।
जप तप नियम योग निज धर्मा ।
स्त्रुति सम्भव नाना सुभ कर्मा ।। 682।।
ज्ञान दया दम तीरथ मज्जन ।
जहँ लगि धर्म कहत स्त्रुति सज्जन ।। 683।।
आगम निगम पुरान अनेका ।
पढ़े सुने कर फल प्रभु एका ।। 684।।
तव पद पंकज प्रीति निरन्तर ।
सब साधन कर फल यह सुन्दर ।। 685।।
छूटइ मल कि मलहि के धोये ।
घृत कि पाव कोउ बारि बिलोये ।। 686।।
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई ।
अभिअन्तर मल कबहुँ न जाई ।। 687।।
सोइ सर्वज्ञ तज्ञ सोइ पंडित ।
सोइ गुन गृह विज्ञान अखंडित ।। 688।।
दच्छ सकल लच्छन जुत सोई ।
जाके पद सरोज रति होई ।। 689।।
दोहा-नाथ एक बर माँगउँ, राम कृपा करि देहु ।
जनम जनम प्रभु पद कमल, कबहुँ घटै जनि नेहु ।। 104।।
नर सहस्त्र महँ सुनहु पुरारी ।
कोउ एक होइ धरम ब्रत-धारी ।। 690।।
धर्म सील कोटिक महँ कोई ।
बिषय बिमुख बिराग रत होई ।। 691।।
कोटि बिरक्त मध्य स्त्रुति कहई ।
सम्यक ज्ञान सकृत कोउ लहई ।। 692।।
ज्ञानवन्त कोटिक महँ कोऊ ।
जीवन मुक्त सकृत जग सोऊ ।। 693।।
तिन्ह सहस्त्र महँ सब सुख खानी ।
दुर्लभ ब्रह्म लीन बिज्ञानी ।। 694।।
धर्मसील बिरक्त अरु ज्ञानी ।
जीवन मुक्त ब्रह्म पर प्रानी ।। 695।।
सबतेँ सो दुर्लभ सुर राया ।
राम भगति रत गत मद माया ।। 696।।
गिरि सुमेरु उत्तर दिसि दूरी ।
नील सैल एक सुन्दर भूरी ।। 697।।
तासु कनक मय सिखर सुहाये ।
चारि चारु मोरे मन भाये ।। 698।।
तिन्ह पर एक एक बिटप बिसाला ।
बट पीपर पाकड़ी रसाला ।। 699।।
सैलोपरि सर सुन्दर सोहा ।
मनि सोपान देखि मन मोहा ।। 700।।
दोहा-सीतल अमल मधुर जल, जलज बिपुल बहु रंग ।
कूजत कलरव हंस गन, गुंजत मंजुल भृंग ।। 105।।
तेहि गिरि रुचिर बसइ खग सोई ।
तासु नास कल्पान्त न होई ।। 701।।
माया कृत गुन दोष अनेका ।
मोह मनोज आदि अबिबेका ।। 702।।
रहे ब्यापि समस्त जग माहीँ ।
तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिँ जाहीँ ।। 703।।
तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा ।
सो सुनु उमा सहित अनुरागा ।। 704।।
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई ।
जाप यज्ञ पाकरि तर करई ।। 705।।
आम छाँह कर मानस पूजा ।
तजि हरि भजन काज नहिँ दूजा ।। 706।।
बटतर कह हरि कथा प्रसंगा ।
आवहिँ सुनहिँ अनेक बिहंगा ।। 707।।
जो अति आतप ब्याकुल होई ।
तरु छाया सुख जानइ सोई ।। 708।।
निगमागम पुरान मत एहा ।
कहहिँ सिद्ध मुनि नहिँ सन्देहा ।। 709।।*
सन्त बिसुद्ध मिलहिँ पर तेही ।
चितवहिँ राम कृपा करि जेही ।। 710।।*
दोहा-श्रोता सुमति सुसील सुचि, कथा रसिक हरिदास ।
पाइ उमा अति गोप्यमपि, सज्जन करहिँ प्रकास ।। 106।।
नारद भव बिरंचि सनकादी ।
जे मुनि नायक आतम बादी ।। 711।।
मोह न अन्ध कीन्ह केहि केही ।
को जग काम नचाव न जेही ।। 712।।
तृष्ना केहि न कीन्ह बौराहा ।
केहि कर हृदय क्रोध नहिँ दाहा ।। 713।।
दोहा-ज्ञानी तापस सूर कबि, कोबिद गुन आगार ।
केहि कै लोभ बिडम्बना, कीन्ह न एहि संसार ।। 107।।
दोहा-श्रीमद बक्र न कीन्ह केहि, प्रभुता बधिर न काहि ।
मृग लोचनि के नयन सर, को अस लाग न जाहि ।। 108।।
गुन कृत सन्यपात नहिँ केही ।
कोउ न मान मद तजेउ निबेही ।। 714।।
जोबन ज्वर केहि नहिँ बलकावा ।
ममता केहि कर जस न नसावा ।। 715।।
मच्छर काहि कलंक न लावा ।
काहि न सोक समीर डोलावा ।। 716।।
चिन्ता साँपिन काहि न खाया ।
को जग जाहि न ब्यापी माया ।। 717।।
कीट मनोरथ दारु सरीरा ।
जेहि न लाग घुन को अस धीरा ।। 718।।
सुत बित लोक ईषना तीनी ।
केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी ।। 719।।
दोहा-ब्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचंड ।
सेनापति कामादि भट, दम्भ कपट पाखंड ।। 109।।
दोहा-सो दासी रघुबीर कै, समुझै मिथ्या सोपि ।
छूट न राम कृपा बिनु, नाथ कहउँ पद रोपि ।। 110।।
जो माया सब जगहिं नचावा ।
जासु चरित लखि काहु न पावा ।। 720।।
सो प्रभु भ्रू बिलास खगराजा ।
नाच नटी इव सहित समाजा ।। 721।।
सोइ सच्चिदानन्द घन रामा ।
अज बिज्ञान रूप बल धामा ।। 722।।
ब्यापक ब्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।। 723।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता ।
सब दरसी अनवद्य अजीता ।। 724।।
निर्मल निराकार निर्मोहा ।
नित्य निरंजन सुख सन्दोहा ।। 725।।
प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी ।
ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।। 726।।
इहाँ मोह कर कारन नाहीँ ।
रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीँ ।। 727।।
दोहा-भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।। 111।।
दोहा-जथा अनेकन बेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ ।। 112।।
असि रघुपति लीला उरगारी ।
दनुज विमोहिनि जन-सुखकारी ।। 728।।
जे मति मलिन बिषय बस कामी ।
प्रभु पर मोह धरहिँ इमि स्वामी ।। 729।।
नयन-दोष जा कहँ जब होई ।
पीत बरन ससि कहँ कह सोई ।। 730।।
जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा ।
सो कह पच्छिम उयेउ दिनेसा ।। 731।।
नौकारूढ़ चलत जग देखा ।
अचल मोह बस आपुहिँ लेखा ।। 732।।
बालक भ्रमहिँ न भ्रमहिँ गृहादी ।
कहहि परस्पर मिथ्याबादी ।। 733।।
हरि बिषयक अस मोह बिहंगा ।
सपनेहुँ नहिँ अज्ञान प्रसंगा ।। 734।।
माया बस मति मन्द अभागी ।
हृदय जबनिका बहु बिधि लागी ।। 735।।
ते सठ हठ बस संसय करहीं ।
निज अज्ञान राम पर धरहीं ।। 736।।
दोहा-काम क्रोध मद लोभ रत, गृहासक्त दुख रूप ।
ते किमि जानहिँ रघुपतिहिँ, मूढ़ परे तम कूप ।। 113।।
दोहा-निर्गुन रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिँ कोइ ।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होइ ।। 114।।
ज्ञान अखंड एक सीता बर ।
माया बस्य जीव सचराचर ।। 737।।
जौं सब के रह ज्ञान एक रस ।
ईस्वर जीवहिँ भेद कहहु कस ।। 738।।
माया बस्य जीव अभिमानी ।
ईस बस्य माया गुन खानी ।। 739।।
पर बस जीव स्वबस भगवन्ता ।
जीव अनेक एक श्रीकन्ता ।। 740।।
मुधा भेद जद्यपि कृत माया ।
बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया ।। 741।।
दोहा-रामचन्द्र के भजन बिनु, जो चह पद निर्बान ।
ज्ञानवन्त अपि सो नर, पसु बिनु पूँछ बिषान ।। 115।।
दोहा-राकापति षोड़स उअहिँ, तारा गन समुदाइ ।
सकल गिरिन्ह दव लाइय, बिनु रबि राति न जाइ ।। 116।।
ऐसेहि बिनु हरि भजन खगेसा ।
मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा ।। 742।।
हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या ।
प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या ।। 743।।
ताते नास न होइ दास कर ।
भेद भगति बाढ़इ बिहंग बर ।। 744।।
भगति हीन गुन सब सुख कैसे ।
लवन बिना बहु व्यंजन जैसे ।। 745।।
भगति ज्ञान बिज्ञान बिरागा ।
जोग चरित्र रहस्य बिभागा ।। 746।।
जानब तैं सबही कर भेदा ।
मम प्रसाद नहिँ साधन खेदा ।। 747।।
दोहा-माया सम्भव भ्रम सकल, अब न ब्यापिहहिँ तोहि ।
जानेसु ब्रह्म अनादि अज, अगुन गुनाकर मोहि ।। 117।।
दोहा-माहि भगत प्रिय सन्तत, अस बिचारि सुनु काग ।
काय बचन मन मम पद, करेसु अचल अनुराग ।। 118।।
अब सुनु परम बिमल मम बानी ।
सत्य सुगम निगमादि बखानी ।। 748।।
निज सिद्धान्त सुनावउँ तोही ।
सुनि मन धरु सब तजि भजु मोही ।। 749।।
मम माया सम्भव संसारा ।
जीव चराचर बिबिध प्रकारा ।। 750।।
सब मम प्रिय सब मम उपजाये ।
सब तेँ अधिक मनुज मोहि भाये ।। 751।।
तिन महँ द्विज द्विज महँ स्त्रुतिधारी ।
तिन्ह महँ निगम धर्म अनुसारी ।। 752।।
तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ज्ञानी ।
ज्ञानिहुँ तेँ अति प्रिय बिज्ञानी ।। 753।।
तिन्ह तेँ पुनि मोहि प्रिय निज दासा ।
जेहि गति मोरि न दूसरि आसा ।। 754।।
पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीँ ।
मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीँ ।। 755।।
भगति हीन बिरंचि किन होई ।
सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई ।। 756।।
भगतिवन्त अति नीचउ प्रानी ।
मोह प्रान प्रिय असि मम बानी ।। 757।।
दोहा-सुचि सुसील सेवक सुमति, प्रिय कहु काहि न लाग ।
स्त्रुति पुरान कह नीति असि, सावधान सुनु काग ।। 119।।
एक पिता के बिपुल कुमारा ।
होहिँ पृथक गुन सील अचारा ।। 758।।
कोउ पंडित कोउ तापस ज्ञाता ।
कोउ धनवन्त सूर कोउ दाता ।। 759।।
कोउ सर्वज्ञ धर्म रत कोई ।
सब पर पितहि प्रीति सम होई ।। 760।।
कोउ पितु-भगत बचन मन कर्मा ।
सपनेहु जान न दूसर धर्मा ।। 761।।
सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना ।
जद्यपि सो सब भाँति अयाना ।। 762।।
एहि विधि जीव चराचर जेते ।
त्रिजग देव नर असुर समेते ।। 763।।
अखिल बिस्व यह मम उपजाया ।
सब पर मोहि बराबरि दाया ।। 764।।
तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया ।
भजहिँ मोहि मन बच अरु काया ।। 765।।
दोहा-पुरुष नपुंसक नारि वा, जीव चराचर कोइ ।
सर्बभाव भज कपट तजि, मोहि परम प्रिय सोइ ।। 120।।
सोरठा-सत्य कहउँ खग तोहि, सुचि सेवक मम प्रान प्रिय ।
अस विचारि भजु मोहि, परिहरि आस भरोस सब ।। 121।।
सोरठा-जेहि सुख लागि पुरारि, असुभ बेष कृत सिव सुखद ।
अवधपुरी नर नारि, तेहि सुख महँ सन्तत मगन ।। 122।।
सोरठा-सोइ सुख लवलेस, जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ ।
ते नहिँ गनहिँ खगेस, ब्रह्म सुखहिँ सज्जन सुमति ।। 123।।
निज अनुभव अब कहउँ खगेसा ।
बिनु हरि भजन न जाहिँ कलेसा ।। 766।।
राम कृपा बिनु सुनु खगराई ।
जानि न जाइ राम प्रभुताई ।। 767।।
जाने बिनु न होइ परतीती ।
बिनु परतीति होइ नहिँ प्रीती ।। 768।।
प्रीति बिना नहिँ भगति दृढ़ाई ।
जिमि खगेस जल कै चिकनाई ।। 769।।
सोरठा-बिनु गरु होइ कि ज्ञान, ज्ञान कि होइ बिराग बिनु ।
गावहिँ बेद पुरान, सुख कि लहिय हरि भगति बिनु ।। 124।।
सोरठा-कोउ बिस्त्राम कि पाव, तात सहज सन्तोष बिनु ।
चलइ कि जल बिनु नाव, कोटि जतन पचि पचि मरिय ।। 125।।
बिनु सन्तोष न काम नसाहीँ ।
काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीँ ।। 770।।
राम भजन बिनु मिटहिँ कि कामा ।
थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा ।। 771।।
बिनु बिज्ञान कि समता आवै ।
कोउ अवकास कि नभ बिनु पावै ।। 772।।
श्रद्धा बिना धरम नहिँ होई ।
बिनु महि गन्ध कि पावइ कोई ।। 773।।
बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा ।
जल बिनु रस कि होइ संसारा ।। 774।।
कबिनिउँ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा ।
बिनु हरि भजन न भव भय नासा ।। 775।।
दोहा-बिनु बिस्वास भगति नहिँ, तेहि बिनु द्रवहिँ न राम ।
रामकृपा बिनु सपनेहुँ, जीव न लह विश्राम ।। 126।।
राम काम सत कोटि सुभग तन ।
दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन ।। 776।।
सक्र कोटि सत सरिस बिलासा ।
नभ सत कोटि अमित अवकासा ।। 777।।
दोहा-मरुत कोटि सत बिपुल बल, रबि सत कोटि प्रकास ।
ससि सत कोटि सुसीतल, समन सकल भव त्रास ।। 127।।
दोहा-काल कोटि सत सरिस अति, दुस्तर दुर्ग दुरन्त ।
धूमकेतु सत कोटि सम, दुराधरष भगवन्त ।। 128।।
प्रभु अगाध सत कोटि पताला ।
समन कोटि सत सरिस कराला ।। 778।।
तीरथ अमित कोटि सत पावन ।
नाम अखिल अघ पूग नसावन ।। 779।।
हिम गिरि कोटि अचल रघुबीरा ।
सिन्धु कोटि सत सम गम्भीरा ।। 780।।
कामधेनु सत कोटि समाना ।
सकल काम दायक भगवाना।। 781।।
सारद कोटि अमित चतुराई ।
बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई ।। 782।।
बिष्नु कोटि सम पालन करता ।
रुद्र कोटि सत सम संघरता ।। 783।।
धनद कोटि सत सम धनवाना ।
माया कोटि प्रपञ्च निधाना ।। 784।।
भार धरन सत कोटि अहीसा ।
निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा ।। 785।।
हरिगीतिका छन्द
छन्द-निरुपम न उपमा आन राम समान राम निगम कहै ।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै ।।
एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनीस हरिहि बखानहीं ।
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सचु पावहीं ।। 9।।
दोहा-राम अमित गुन सागर, थाह कि पावइ कोइ ।
सन्तन्ह सन जस कछु सुनेउँ, तुम्हहिँ सुनायउँ सोइ ।। 129।।
सोरठा-भाव बस्य भगवान, सुख निधान करुना भवन ।
तजि ममता मद मान, भजिय सदा सीता रमन ।। 130।।
गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई ।
जौं बिरंचि संकर सम होई ।। 786।।
नाथ सुना मैं अस सिव पाहीँ ।
महा प्रलयहु नास तव नाहीँ ।। 787।।*
मुधा बचन ईश्वर नहिँ कहई ।
सोउ मोरे मन संसय अहई ।। 788।।*
अग जग जीव नाग नर देवा ।
नाथ सकल जग काल कलेवा ।। 789।।
अंड कटाह अमित लय कारी ।
काल सदा दुरति क्रम भारी ।। 790।।
जप तप मख समऽ दम ब्रत दाना ।
बिरति बिबेक जोग बिज्ञाना ।। 791।।
सबकर फल रघुपति पद प्रेमा ।
तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा ।। 792।।
सोरठा-पन्नगारि असि नीति, स्त्रुति सम्मत सज्जन कहहिँ ।
अति नीचहु सन प्रीति, करिय जानि निज परम हित ।। 131।।
सोरठा-पाट कीट ते होइ, तेहि तेँ पाटम्बर रुचिर ।
कृमि पालइ सब कोइ, परम अपावन प्रान सम ।। 132।।
स्वारथ साँच जीव कहँ एहा ।
मन क्रम बचन राम पद नेहा ।। 793।।
सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा ।
जो तन पाइ भजइ रघुबीरा ।। 794।।
राम-बिमुख लहि बिधि सम देही ।
कबि कोबिद न प्रसंसहि तेही ।। 795।।
तजउँ न तन निज इच्छा मरना ।
तन बिनु बेद भजन नहिँ बरना ।। 796।।
नाना जनम करम पुनि नाना ।
किये जोग जप तप मख दाना ।। 797।।*
कवन जोनि जनमेउँ जहँ नाहीँ ।
मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीँ ।। 798।।*
देखउ सब करि करम गोसाईं ।
सुखी न भयउँ अबहिँ की नाईं ।। 799।।*
गुरु सिख बधिर अन्ध कर लेखा ।
एक न सुनइ एक नहिँ देखा ।। 800।।
हरइ सिष्य धन सोक न हरई ।
सो गुरु घोर नरक महँ परई ।। 801।।
दोहा-कृत जुग त्रेता द्वापर, पूजा मख अरु जोग ।ऽ
जो गति होइ सो कलि हरि, नाम तेँ पावइ लोग ।। 133।।*
कृत जुग सब जोगी बिज्ञानी ।
करि हरि ध्यान तरहिँ भव प्रानी ।। 801क।।*
त्रेता बिबिध जज्ञ नर करहीँ ।
प्रभुहिँ समर्पि करम भव तरहीँ ।। 801ख।।*
द्वापर करि रघुपति पद पूजा ।
नर भव तरहिँ उपाय न दूजा ।। 801ग।।*
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा ।
गावत नर पावहिँ भव थाहा ।। 801घ।।*
नित जुग धर्म होहिँ सब केरे ।
हृदय राम माया के प्रेरे ।। 802।।
सुद्ध सत्व समता बिज्ञाना ।
कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना ।। 803।।
सत्त्व बहुत रज कछु रति करमा ।
सब बिधि सुख त्रेता कर धरमा ।। 804।।
बहु रज सत्व स्वल्प कछु तामस ।
द्वापर धर्म हरष भय मानस ।। 805।।
तामस बहुत रजोगुण थोरा ।
कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा ।। 806।।
बुध जुग धरम जानि मन माहीं ।
तजि अधर्म रत धर्म कराहीँ ।। 807।।
काल धरम नहिं ब्यापहिँ ताही ।
रघुपति चरन प्रीति अति जाही ।। 808।।
नट कृत कपट बिकट खगराया ।
नट सेवकहिँ न ब्यापइ माया ।। 809।।
दोहा-हरि माया कृत दोष गुन, बिनु हरि भजन न जाहिँ ।
भजिय राम तजि काम सब, अस बिचारि मन माहिँ ।। 134।।
जेहि तेँ नीच बड़ाई पावा ।
सो प्रथमहिँ हठि ताहि नसावा ।। 810।।
सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा ।
बुध नहिँ करहिँ अधम कर संगा ।। 811।।
कबि कोबिद गावहिँ अस नीती ।
खल सन कलह न भल नहिँ प्रीती ।। 812।।
उदासीन नित रहिय गुसाईं ।
खल परिहरि स्वान की नाईं ।। 813।।
दोहा-एक बार हर मन्दिर, जपत रहेउँ सिव नाम ।
गुरु आयउ अभिमान तेँ, उठि नहिँ कीन्ह प्रनाम ।।135।।
दोहा-सो दयाल नहिँ कहेउ कछु, उर न रोष लवलेस ।
अति अघ गुरु अपमानता, सहि नहिँ सके महेस ।। 136।।
जे सठ गुरु सन इरिषा करहीँ ।
रौरव नरक कोटि युग परहीँ ।। 814।।
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा ।
अयुत जनम भरि पावहिँ पीरा ।। 815।।
छंद -
नमामीशमीशान निर्वाण रूपम्,
विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपम् ।
निजं (अजं) निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहम्,
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ।।
निराकारमोंकार मूलं तुरीयम्,
गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकाल कालं कृपालम्,
गुणागार संसार पारं नतोऽहम् ।।
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशम्,
अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम् ।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी,
सदा सज्जनानन्द दाता पुरारी ।।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी,
प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ।।10।।
सुनु मम बचन सत्य अब भाई ।
हरि तोषन ब्रत द्विज सेवकाई ।। 816।।
अब जनि करहि बिप्र अपमाना ।
जानहु सन्त अनन्त समाना ।। 817।।
जेहि पूछउँ सोइ मुनि अस कहई ।
ईस्वर सर्ब भूतमय अहई ।। 818।।
निर्गुन मत नहिँ मोहि सुहाई ।
सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई ।। 819।।
लागे करन ब्रह्म उपदेसा ।
अज अद्वैत अगुन हृदयेसा ।। 820।।
अकल अनीह अनाम अरूपा ।
अनुभवऽ गम्य अखंड अनूपा ।। 821।।
मन गोतीत अमल अबिनासी ।
निर्बिकार निरवधि सुखरासी ।। 822।।
सो तैँ ताहि तोहि नहिँ भेदा ।
बारि बीचि इव गावहिँ बेदा ।। 823।।
भरि लोचन बिलोकि अवधेसा ।
तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा ।। 824।।
सुनु प्रभु बहुत अवज्ञा किये ।
उपज क्रोध ज्ञानिहु के हिये ।। 825।।
अति संघरषन जौँ कर कोई ।
अनल प्रगट चन्दन तेँ होई ।। 826।।
दोहा-क्रोध कि द्वैत बुद्धि बिनु, द्वैत कि बिनु अज्ञान ।
माया बस परिछिन्न जड़, जीव कि ईस समान ।। 137।।
कबहुँ कि दुःख सब कर हित ताके ।
तेहि कि दरिद्र परस मनि जाके ।। 827।।
पर द्रोही कि होहिं निसंका ।
कामी पुनि कि रहहिँ अकलंका ।। 828।।
बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हे ।
कर्म कि होहिँ स्वरूपहिँ चीन्हे ।। 829।।
काहू सुमति कि खल सँग जामी ।
सुभ गति पाव कि परत्रियगामी ।। 830।।
भव कि परहिँ परमात्मा बिन्दक ।
सुखी कि होहिँ कबहुँ परनिन्दक ।। 831।।
राज कि रहइ नीति बिनु जाने ।
अघ कि रहहिँ हरि चरित बखाने ।। 832।।
पावन जस कि पुन्य बिनु होई ।
बिनु अघ अजस कि पावइ कोई ।। 833।।
लाभ कि कछु हरि भगति समाना ।
जेहि गावहिँ श्रुति सन्त पुराना ।। 834।।
हानि कि जग एहि सम किछु भाई ।
भजिय न रामहिँ नरतनु पाई ।। 835।।
अघ कि पिसुनता सम कछु आना ।
धर्म कि दया सरिस हरिजाना ।। 836।।
दोहा-उमा जे राम चरन रत, विगत काम मद क्रोध ।
निज प्रभुमय देखहिँ जगत, केहि सन करहिँ बिरोध ।। 138।।
राम भगति जिन्हके उर नाहीँ ।
कबहुँ न तात कहिय तिन पाहीँ ।। 837।।*
राम भगति अबिरल उर तोरे ।
बसहिँ सदा प्रसाद अब मोरे ।। 838।।*
दोहा-सदा राम प्रिय होब तुम्ह, सुभ गुन भवन अमान ।
काम रूप इच्छा मरन, ज्ञान बिराग निधान ।।139।।*
दोहा-जेहि आश्रम तुम्ह बसब पुनि, सुमिरत श्रीभगवन्त ।
ब्यापिहिँ तहँ न अबिद्या, जोजन एक प्रजन्त ।।140।।*
काल करम गुन दोष सुभाऊ ।
कछु दुख तुम्हहिँ न ब्यापहिँ काऊ ।। 839।।*
राम रहस्य ललित बिधि नाना ।
गुप्त प्रगट इतिहास पुराना ।। 840।।*
बिनु स्त्रम तुम्ह जानब सब सोऊ ।
नित नव नेह राम पद होऊ ।। 841।।*
सुनि मुनि आसिष सुनु मति धीरा ।
ब्रह्म गिरा भइ गगन गँभीरा ।। 842।।*
एवमस्तु तव बच मुनि ज्ञानी ।
यह मम भगत करम मन बानी ।। 843।।*
जे असि भगति जानि परिहरहीँ ।
केवल ज्ञान हेतु स्त्रम करहीँ ।। 844।।
ते जड़ कामधेनु गृह त्यागी ।
खोजत आक फिरहिँ पय लागी ।। 845।।
सुनु खगेस हरि भगति बिहाई ।
जो सुख चाहहि आन उपाई ।। 846।।
ते सठ महा सिन्धु बिनु तरनी ।
पैरि पार चाहहिँ जड़ करनी ।। 847।।
कहहिँ सन्त मुनि बेद पुराना ।
नहिँ कछु दुर्लभ ज्ञान समाना ।। 848।।
भगतिहि ज्ञानहि नहिँ कछु भेदा ।
उभय हरहिँ भव सम्भव खेदा ।। 849।।
ज्ञान बिराग जोग बिज्ञाना ।
ये सब पुरुष सुनहु हरिजाना ।। 850।।
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती ।
अबला अबल सहज जड़ जाती ।। 851।।
दोहा-पुरुष त्याग सक नारिहि, जो बिरक्त मतिधीर ।
न तु कामी जो बिषय बस, बिमुख जो पद रघुबीर ।। 141।।
सोरठा-जो मुनि ज्ञान निधान, मृगनयनी बिधु-मुख निरखि ।
बिकल होहिँ हरि जान, नारि बिस्व माया प्रगट ।। 142।।
इहाँ न पच्छपात कछु राखौँ ।
बेद पुरान सन्त मत भाखौँ ।। 852।।
मोह न नारि नारि के रूपा ।
पन्नगारि यह नीति अनूपा ।। 853।।
माया भगति सुनहु तुम दोऊ ।
नारि बर्ग जानइ सब कोऊ ।। 854।।
पुनि रघुबीरहि भगति पियारी ।
माया खलु नर्तकी बेचारी ।। 855।।
भगतिहि सानुकूल रघुराया ।
तातेँ तेहि डरपति अति माया ।। 856।।
राम भगति निरुपम निरुपाधी ।
बसइ जासु उर सदा अबाधी ।। 857।।
तेहि बिलोकि माया सकुचाई।
करि न सकइ कछु निज प्रभुताई ।। 858।।
अस बिचारि जे मुनि बिज्ञानी ।
जाँचहिँ भगति सकल सुख खानी ।। 859।।
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद ।
सन्त पुरान निगम आगम बद ।। 860।।
राम भजत सोइ मुकति गोसाईं ।
अन इच्छित आवइ बरिआईं ।। 861।।
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई ।
कोटि भाँति कोउ करइ उपाई ।। 862।।
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई ।
रहि न सकई हरि भगति बिहाई ।। 863।।
अस बिचारि हरि भगत सयाने ।
मुक्ति निरादर भगति लोभाने ।। 864।।
भगति करत बिनु जतन प्रयासा ।
संसृति मूल अबिद्या नासा ।। 865।।
भोजन करिय तृप्ति हित लागी ।
जिमि सो असन पचवइ जठरागी ।। 866।।
असि हरि भगति सुगम सुखदाई ।
को अस मूढ़ न जाहि सोहाई ।। 867।।
दोहा-सेवक सेब्य भाव बिनु, भव न तरिय उरगारि ।
भजहु राम-पद पंकज, अस सिद्धान्त बिचारि ।। 143।।
दोहा-जो चेतन कहँ जड़ करइ, जड़हि करइ चैतन्य ।
अस समर्थ रघुनायकहि, भजहि जीव ते धन्य ।। 144।।
राम भगति चिन्तामनि सुन्दर ।
बसइ गरुड़ जाके उर अन्तर ।। 868।।
परम प्रकास रूप दिन राती ।
नहिँ कछु चहिय दिया घृत बाती ।। 869।।
मोह दरिद्र निकट नहिँ आवा ।
लोभ बात नहिँ ताहि बुझावा ।। 870।।
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई ।
हारहिँ सकल सलभ समुदाई ।। 871।।
खल कामादि निकट नहिँ जाहीँ ।
बसइ भगति जाके उर माहीँ ।। 872।।
गरल सुधा सम अरि हित होई ।
तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई ।। 873।।
ब्यापहिँ मानस रोग न भारी ।
जिन्हके बस सब जीव दुखारी ।। 874।।
राम भगति मनि उर बस जाके ।
दुःख लवलेस न सपनेहुँ ताके ।। 875।।
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीँ ।
जे मनि लागि सु जतन कराहिँ ।। 876।।
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई ।
रामकृपा बिनु नहिँ कोउ लहई ।। 877।।
सुगम उपाय पाइबे केरे ।
नर हत भाग्य देहिँ भट भेरे ।। 878।।
पावन पर्बत बेद पुराना ।
राम-कथा रुचिराकर नाना ।। 879।।
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी ।
ज्ञान बिराग नयन उरगारी ।। 880।।
भाव सहित खोजै जो प्रानी ।
पाव भगति मनि सब सुख खानी ।। 881।।
मोरे मन प्रभु अस बिस्वासा ।
राम तेँ अधिक राम कर दासा ।। 882।।
राम सिन्धु घन सज्जन धीरा ।
चन्दन तरु हरि सन्त समीरा ।। 883।।
सबकर फल हरि भगति सोहाई ।
सो बिनु सन्त न काहू पाई ।। 884।।
अस बिचारि जो कर सतसंगा ।
राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा ।। 885।।
दोहा-ब्रह्म पयोनिधि मन्दर, ज्ञान सन्त सुर आहि ।
कथा सुधा मथि काढ़इ, भगति मधुरता जाहि ।। 145।।
दोहा-बिरति चर्म असि ज्ञान मद, लोभ मोह रिपु मारि ।
जय पाइय सो हरि भगति, देखु खगेस बिचारि ।। 146।।
नर तन सम नहिँ कवनिउँ देही ।
जीव चराचर जाचत जेही ।। 886।।
नरक सर्ग अपवर्ग निसेनी ।
ज्ञान बिराग भक्ति सुख देनी ।। 887।।
सो तनु धरि हरि भजहिँ न जे नर ।
होहिँ बिषय रत मन्द-मन्द तर ।। 888।।
काँच किरिच बदले ते लेहीँ ।
कर ते डारि परसमनि देहीँ ।। 889।।
नहिँ दरिद्र सम दुख जग माहीँ ।
सन्त मिलन सम सुख कछु नाहीँ ।। 890।।
पर उपकार बचन मन काया ।
सन्त सहज सुभाव खगराया ।। 891।।
सन्त सहहिँ दुख परहित लागी ।
परदुख हेतु असन्त अभागी ।। 892।।
भूरज तरु सम सन्त कृपाला ।
परहित नित सह बिपति बिसाला ।। 893।।
सन इव खल पर बन्धन करई ।
खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई ।। 894।।
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी ।
अहि मूसक इव सुनु उरगारी ।। 895।।
पर सम्पदा बिनासि नसाहीँ ।
जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीँ ।। 896।।
दुष्ट उदय जग आरत हेतू ।
जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू ।। 897।।
सन्त उदय सन्तत सुखकारी ।
बिस्व सुखद जिमि इन्दु तमारी ।। 898।।
परम धरम स्त्रुति बिदित अहिंसा ।
पर निन्दा सम अघ न गरीसा ।। 899।।
हरि गुरु निन्दक दादुर होई ।
जनम सहस्त्र पाव तन सोई ।। 900।।
द्विज निन्दक बहु नरक भोग करि ।
जग जनमइ बायस सरीर धरि ।। 901।।
सुर स्त्रुति निन्दक जे अभिमानी ।
रौरव नरक परहिँ ते प्रानी ।। 902।।
होहिँ उलूक सन्त निन्दा रत ।
मोह निसा प्रिय ज्ञान भानु गत ।। 903।।
सब कै निन्दा जे जड़ करहीँ ।
ते चमगादुर होइ अवतरहीँ ।। 904।।
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला ।
तेहिँ तेँ पुनि उपजहिँ बहु सूला ।। 905।।
काम बात कफ लोभ अपारा ।
क्रोध पित्त नित छाती जारा ।। 906।।
प्रीति करहिँ जौं तीनिउ भाई ।
उपजइ सन्निपात दुखदाई ।। 907।।
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना ।
ते सब सूल नाम को जाना ।। 908।।
ममता दादु कंडु इरषाई ।
हरष बिषाद गरह बहुताई ।। 909।।
परसुख देखि जरनि सोइ छई ।
कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई ।। 910।।
अहंकार अति दुखद डमरुआ ।
दम्भ कपट मद मान नहरुआ ।। 911।।
तृष्णा उदर बृद्धि अति भारी ।
त्रिविध ईषना तरुन तिजारी ।। 912।।
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका ।
कहँ लगि कहौँ कुरोग अनेका ।। 913।।
दोहा-एक ब्याधि बस नर मरहिँ, ये असाधि बहु ब्याधि ।
पीड़हिँ सन्तत जीव कहँ, सो किमि लहइ समाधि ।। 147।।
दोहा-नेम धरम अचार तप, ज्ञान यज्ञ जप दान ।
भेषज पुनि कोटिक नहीं, रोग जाहिँ हरिजान ।। 148।।
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी ।
सोक हरष भय प्रीति बियोगी ।। 914।।
मानस रोग कछुक मैं गाये ।
हैं सब के लख बिरलन्हि पाये ।। 915।।
जाने ते छीजहिँ कछु पापी ।
नास न पावहिँ जन परितापी ।। 916।।
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे ।
मुनिहु हृदय का नर बापुरे ।। 917।।
राम कृपा नासहि सब रोगा ।
जौँ एहि भाँति बनइ संजोगा ।। 918।।
सदगुरु बैद बचन बिस्वासा ।
संजम यह न बिषय कै आसा ।। 919।।
रघुपति भगति सजीवन मूरी ।
अनूपान स्त्रद्धा मति पूरी ।। 920।।
एहि बिधि भलेहि सो रोग नसाहीँ ।
नाहिँ त जतन कोटि नहिँ जाहीँ ।। 921।।
जानिय तब मन बिरुज गोसाँई ।
जब उर बल बिराग अधिकाई ।। 922।।
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई ।
बिषय आस दुर्बलता गई ।। 923।।
बिमल ज्ञान जल जब सो नहाई ।
तब रह राम भगति उर छाई ।। 924।।
सिव अज सुक सनकादिक नारद ।
जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद ।। 925।।
सब कर मत खग नायक एहा ।
करिय राम पद पंकज नेहा ।। 926।।
श्रुति पुरान सब ग्रन्थ कहाहीँ ।
रघुपति भगति बिना सुख नाहीँ ।। 927।।
कमठ पीठ जामहिँ बरु बारा ।
बन्ध्या सुत बरु काहुहि मारा ।। 928।।
फूलहिँ नभ बरु बहु बिधि फूला ।
जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला ।। 929।।
तृषा जाइ बरु मृग जल पाना ।
बरु जामहिँ सस सीस बिषाना ।। 930।।
अन्धकार बरु रबिहि नसावै ।
राम बिमुख न जीव सुख पावै ।। 931।।
हिम ते प्रगट अनल बरु होई ।
बिमुख राम सुख पाव न कोई ।। 932।।
दोहा-बारि मथे घृत होइ बरु, सिकता तेँ बरु तेल ।
बिनु हरि भजन न भव तरिय, यह सिद्धान्त अपेल ।। 149।।
दोहा-मसकहि करइ बिरंचि प्रभु, अजहि मसक ते हीन ।
अस बिचारि तजि संसय, रामहिँ भजहिँ प्रवीन ।। 150।।
स्त्रुति सिद्धान्त इहै उरगारी ।
राम भजिय सब काज बिसारी ।। 933।।
सत संगति दुर्लभ संसारा ।
निमिष दंड भरि एकउ बारा ।। 934।।
सन्त बिटप सरिता गिरि धरनी ।
परहित हेतु सबन्ह कै करनी ।। 935।।
सन्त हृदय नबनीत समाना ।
कहा कबिन्ह पै कहइ न जाना ।। 936।।
निज परिताप द्रवइ नवनीता ।
पर दुख द्रवहिँ सन्त सुपुनीता ।। 937।।
दोहा-गिरिजा सन्त समागम, सम न लाभ कछु आन ।
बिनु हरि कृपा न होइ सो, गावहिँ बेद पुरान ।। 151।।
सोइ सर्बज्ञ गुनी सोइ ज्ञाता ।
सोइ महि मंडित पंडित दाता ।। 938।।
धर्म परायन सोइ कुल त्राता ।
राम चरन जाकर मन राता ।। 939।।
नीति निपुन सोइ परम सयाना ।
स्त्रुति सिद्धान्त नीक तेहि जाना ।। 940।।
सो कबि कोबिद सो रन धीरा ।
जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा ।। 941।।
धन्य सो देस जहाँ सुरसरी ।
धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी ।। 942।।
धन्य सो भूप नीति जो करई ।
धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई ।। 943।।
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी ।
धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी ।। 944।।
धन्य घरी सोइ जब सत्संगा ।
धन्य जनम द्विज भगति अभंगा ।। 945।।
दोहा-सो कुल धन्य उमा सुनु, जगत पूज्य सु पुनीत ।
श्री रघुबीर परायन, जेहि नर उपज बिनीत ।। 152।।
राम कथा के तेइ अधिकारी ।
जिन्ह के सत संगति अति प्यारी ।। 946।।
गुरु पद प्रीति नीति रत जेई ।
द्विज सेवक अधिकारी तेई ।। 947।।
एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना ।
रघुपति भगति केर पन्थाना ।। 948।।
अति हरि कृपा जाहि पर होई ।
पाउँ देइ यहि मारग सोई ।। 949।।
एहि कलि काल न साधन दूजा ।
जोग जज्ञ जप तप ब्रत पूजा ।। 950।।
रामहिँ सुमिरिय गाइय रामहिँ ।
सन्तत सुनिय राम गुन ग्रामहिँ ।। 951।।
रामचरितमानस-सार सटीक
पञ्चम सोपान-सुन्दरकाण्ड समाप्त ।
रामचरितमानस-सार सटीक समाप्त