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टिप्पणियाँ

द्वितीय सोपान-अयोध्याकाण्ड

दोहा-श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुर सुधारि ।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायक फल चारि ।। 39।। 

001

[मन जब जिस विषय का चिन्तन करता है, तब उस पर वह (विषय) लगता है। जैसे मन के विषयों के चिन्तन में लगने के कारण ही यह कहा गया है कि-‘काई विषय मुकुर मन लागी।’ इसी तरह जब मन से गुरु-मूर्ति का चिंतन हो अथवा गुरु-रूप का मानस-ध्यान किया जावे, तो मन-रूपी दर्पण पर सहज में ‘गुरु पद रज’ लग जाएगी (क्योंकि गुरु-रूप स्वाभाविक ही चरण तथा चरण-रज-युक्त है)। चौपाई सं0 1 के नीचे के कोष्ठ में वर्णित यह आभा-रूप रज है। गुरु के प्रति अपनी अत्यन्त श्रद्धा और उनके सम्मुख अपनी अतीव दीनता प्रकट करने का एवं गुरु-ध्यान को मंगल-सिद्धि-सुबुद्धि-दायक जानकर तथा यह जानकर कि गुरु की आराधना-बिना ईश्वरीय महिमा का पता नहीं लग सकता है, गोस्वामी तुलसीदासजी ने यह दोहा लिखा।] 

राम प्रान प्रिय जीवन जी के । स्वारथ-रहित सखा सबही के ।। 257।।

002

[जीव का जीवन सहज निर्गुण स्वरूप आत्मा है।]

पूजनीय प्रिय परम जहाँ ते । सब मानिअहि राम के नाते ।। 258।।

003

[जाके प्रिय न राम वैदेही । तजिये ताहि कोटि बैरी सम यद्यपि परम सनेही ।। (विनय-पत्रिका)] 

जोग बियोग भोग भल मन्दा । हित अनहित मध्यम भ्रम फन्दा ।। 264।।

004

[योग-वियोग आदि द्वैत को भ्रम कहा गया। बिना भ्रम के विविधता नहीं हो सकती है। भ्रम सत्य नहीं कहा जा सकता। इसलिए द्वैत वा विविधता भ्रम होने के कारण असत्य-नाशवान-माया वा जड़ ठहर गई। जीवात्मा को रामचरितमानस के सप्तम सोपान में ‘ईश्वर अंश जीव अविनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी ।।’ कहकर ईश्वर-अंश (ईश्वर, जिनको रामचरितमानस में अनेक स्थलों पर अखण्ड, अनन्त, अपार और असीम आदि कहकर वर्णन किया गया है), चेतन और निर्मल माना गया है। यहाँ पर अंश कहा गया है, पर इससे ऐसा न समझना चाहिए कि अंश (जीव) अखण्ड, अनन्त, अपार स्वरूप अपने अंशी से टूटकर वा खण्ड होकर भिन्न हो गया है। अंश यहाँ अंशी से उसी प्रकार सम्बन्ध रखता है, जैसे ढेव या तरंग का पानी के साथ है। तरंग अंश और पानी अंशी है। जैसे कि लोमश मुनि ने कागभुशुण्डि (जीवात्मा) को ईश्वर के साथ सम्बन्ध दिखाते हुए कहा है-‘सो तुम ताहि तोहि नहिं भेदा । बारि बीचि इव गावहिं वेदा ।।’ (रामचरितमानस, सप्तम सोपान) इस सिद्धान्त से एक दूसरा सिद्धान्त निकलता है कि जैसे जल-राशि पर की असंख्य तरंगों को तत्त्व-रूप में एकता वा अपृथक्त्व है, उसी तरह असंख्य शरीरों में स्थित जीवात्मा (शरीरी) की एकता-अपृथक्त्व है। तात्पर्य यह कि असंख्य शरीरों वा पिण्डों में एक ही परम तत्त्व-स्वरूप आत्मा है। ऊपर कहा जा चुका है कि द्वैत वा विविधता केवल भ्रम-मात्र, माया-जड़ वा असत्य है। ऐसा जान लेने पर और सब पिण्डरूप विविधताओं में एक ही आत्मा विचार-निश्चयपूर्वक विश्वास कर लेने पर, एक ही अद्वैत पदार्थ आत्मा रह जाता है। जब एक-ही-एक हो, दो होवे नहीं, तब मिलना-बिछुड़ना, भोगी-भोग्य, हित-अहित, उत्तम-निकृष्ट और मध्यम आदि का मानना असत्य, भ्रम और अयुक्त है। इसी विचार को व्यक्त करने के लिए चौ0 सं0 263 और 264 लिखी गई हैं।] 

देखिय सुनिय गुनिय मन माहीं ।   मोह मूल परमारथ नाहीं ।। 267।। 

005

 [चौ0 सं0 265, 266 और 267 में बतलाया गया है कि जन्म-मरण, सम्पत्ति-विपत्ति, कर्म, काल, धरती, घर, नगर, धन, परिवार, स्वर्ग-नरक, रूप, शब्द तथा मन के कर्म, आदि सभी माया के जाल और व्यवहार, परमार्थ-रूप नहीं हैं। ये सब केवल अज्ञानता या मोह के कारण दीख पड़ते हैं। मोह या अज्ञानता के मिट जाने पर ये नहीं दीखेंगे। और जब अज्ञानता के मिटने पर माया-जाल और व्यवहार लोप हो जाएँगे-देखने में नहीं आवेंगे, तब परमार्थ दीख पड़ेगा।] 

दोहा-सपने होइ भिखारी नृप, रंक नाकपति होइ ।
जागे लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपंच जिय जोइ ।। 40।। 

006

[इस दोहे का तात्पर्य यह है कि जब जीव मोह-अज्ञानता की रात में अचेत हो जाता है अर्थात् सो जाता है, तो अपने राजा-रूप स्वतंत्र आत्म-स्वरूप परमार्थ को भूल जाता है और स्वप्नवत् माया के वश में होकर अपने को तृष्णावन्त बनाकर दरिद्र हो जाता है। और कभी यही माया-मोहित दरिद्र जीव मायिक (असत्य-सम्बन्धी) पदार्थों को पाकर अपने को सुखी मानता है तथा अपने को उन पदार्थों का स्वामी मान अहंकार करके इन्द्रवत् हो जाता है। परन्तु अज्ञानता की रात जब मिट जाती है अर्थात् परमार्थ दीखने लगता है और जीव का स्वप्न छूट जाता है, तब उपर्युक्त दरिद्रता और राजत्व के हानि-लाभ कुछ नहीं रहते-सब-के-सब लुप्त हो जाते हैं। इसी तरह अज्ञानता के मिट जाने पर सम्पूर्ण संसार लुप्त हो जाता है और प्रपंच-द्वैत संसार से लुप्त होने पर दुःख-सुख, दुःखदायी-सुखदायी आदि भेद कुछ सत्य नहीं हो सकते।] 

यहि जग जामिनि जागहिं जोगी । परमारथी प्रपंच बियोगी ।। 270।।

007

[कोई केवल घर छोड़ वैरागी बनने से माया-त्यागी नहीं हो सकता है। योगाभ्यास-द्वारा माया के स्वर्ग और मृत्युलोक आदि सब मण्डलों को पार करके ऊपर पहुँचने पर माया-त्यागी बन सकता है। योगों में केवल भक्ति-योग, जिसकी विशेषता सम्पूर्ण रामचरितमानस में कही गई है, सुख-साध्य है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति; इन्हीं तीन अवस्थाओं में साधारणतया सभी रहते हैं और जग-यामिनी में सोते हुए संसार-व्यवहार का स्वप्न देखते हैं। इन तीन अवस्थाओं को त्यागकर जो चौथी अवस्था-तुरीय अवस्था में जाते हैं, वे योगी होते हैं। चौथी अवस्था में जाने को ही जगना कहते हैं। इसी जागरण में विषय-विलास से विरक्ति होती है। इस अवस्था में रहकर भजन करना बड़ा उत्कृष्ट है। इसलिए ‘विनय-पत्रिका’ में गो0 तुलसीदासजी ने कहा है-‘तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त।]  

होइ बिबेक मोह भ्रम भागा । तब रघुनाथ चरन अनुरागा ।। 272।।

008

[विवेक-सार-असार वा आत्म-अनात्म का विचार। इसका वर्णन चौ0 सं0 264 से 267 तक में है। चौ0 267 के अर्थ के नीचे कोष्ठ के वर्णन को पढ़िए। उसमें रूप आदि जो पदार्थ मोह के कारण दरसनेवाले बताए गए हैं, उन्हें ही माया-असार-अनात्म जानना चाहिए। इनको छोड़ जो रूप आदि-रहित परमार्थ वा तत्त्व-वस्तु बची रहती है, उसी को अमाया-सार वा आत्म-तत्त्व जानना चाहिए। विवेक होने पर शरीर माया-रूप रघुनाथ असार वा अनात्म-रूप ठहरता है, पर उसी (माया-रूप रघुनाथ) में व्यापक आत्म-स्वरूपी अमायिक रूप रघुनाथ ही सार ठहरता है। चौ0 सं0 272 में वर्णन हुआ है कि मोह-भ्रम के भागने और विवेक होने पर रघुनाथजी के चरणों में प्रेम उपजेगा। इससे प्रकट होता है कि विवेक होने पर परमार्थ रूप, अमायिक, अरूप तत्त्व-वस्तु का विचार में सार तत्त्व कहकर ग्रहण होता है, उसी (तत्त्व-वस्तु) को यहाँ पर रघुनाथ कहा गया है। चौ0 सं0 147 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में देखिए-वहाँ वर्णन है कि माया-रहित आत्म-स्वरूपी राम को रघुनाथ, रघुवर आदि नामों से पुकारना युक्ति-युक्त है।]  

सकल बिकार रहित गत भेदा । कहि नित नेति निरूपहिँ वेदा ।। 275।।

009

[चौ0 सं0 274 और 275 में राम के नर-रूप का नहीं, बल्कि (उनके) सहज निर्गुण आत्म-स्वरूप का वर्णन है, जो माया-कृत नर-रूप में व्यापक है। नर वा देव कोई भी रूप मायाकृत असत्य, विनाशी, आदि-अन्त-सहित होने के कारण उन गुणों को धारण करनेवाला कदापि नहीं हो सकता, जो इन चौपाइयों में वर्णित हैं।] 

धरम न दूसर सत्य समाना । आगम निगम पुरान बखाना ।। 278।।*

010

[आगम = शास्त्र, निगम = वेद] 

सोइ कृपाल केवटहि निहोरा । जेहि जग किय तिहु पगहु ते थोरा ।। 283।।* 

011

[विष्णु भगवान ने वामन अवतार धरकर राजा बलि से तीन पग धरती का दान माँगा था और विराट रूप होकर दो ही पग में सारा ब्रह्माण्ड नाप लिया। तब बलि ने तीसरे पग में अपनी पीठ नपवा ली। इसी कथा के सम्बन्ध में ‘जेहि जग किय तिहुँ पगहुँ ते थोरा’ पद लिखा गया है। यहाँ भी स्पष्ट प्रकट होता है कि श्रीराम विष्णु ही के अवतार थे।] 

सोरठा-राम स्वरूप तुम्हार, बचन अगोचर बुद्धि पर ।
अबिगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।। 42।। 

012

[नर-रूप राम वाल्मीकिजी के सम्मुख ही उपस्थित हैं। नर-रूप को ही अकथ, अपार, अविगत, अगोचर और बुद्धि-पर कहना, मानो मन-मोदक खाकर भूख मिटाना है। उक्त विशेषणों से नररूप की महिमा नहीं प्रकट की जाती है। सहज निर्गुण आत्म-स्वरूप, जो उस नर-रूप में व्यापक है, राम का यथार्थ स्वरूप है। नर-रूप तो राम की केवल माया-मात्र है।] 

जगपेखनु तुम देखनिहारे । बिधि हरि सम्भु नचावनिहारे ।। 284।।

013

[ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप माया-सम्बन्धी हैं। इन (रूपों में) अकथ, अपार, अविगत, अगोचर, बुद्धि-पर, सहज निर्गुण आत्म-स्वरूप व्यापक है। इसी आत्म-रूप की सत्ता पर सब मायिक रूप भासमान होते और नाचते हैं अर्थात् सब कृत्य करते हैं। (चौ0 सं0 181, 182, 183 और 184 तथा दो0 सं0 27 को अर्थ सहित 184 सं0 की चौ0 के अर्थ के नीचे कोष्ठ का वर्णन पढ़िए।) यद्यपि वाल्मीकिजी के सम्मुख नर-रूप रामजी उपस्थित हैं, तथापि राम-स्वरूप वर्णन करने से व्यक्त होता है कि ‘जोगिन्ह परम तत्त्व मय भासा’ के अनुसार वे उनका नर-रूप ही नहीं देखते हैं, बल्कि नर-रूप में व्यापक परम तत्त्व-रूप देखते हैं। जैसा कि दो0 सं0 42 में वर्णित है। चौ0 सं0 284 में भी उसी परम तत्त्व स्वरूप को सम्बोधन किया गया है, न कि मायाकृत नर-रूप को। मायाकृत नर-रूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश को नचानेवाला और जगत-रूप दृश्य को देखनेवाला कदापि नहीं हो सकता है। नर-रूप तो स्वयं ही जगत-रूप दृश्य का अंश-मात्र कहा जा सकता है। दृश्यांश (राम का नर-शरीर-माया) ही अपने अंशी (जगत-माया) को अर्थात् सम्पूर्ण दृश्य को देखे, यह कब सम्भव है ? फिर रूप तो माया-अचेतन है, उसमें देखने आदि की क्रिया नहीं होती है। स्मरण रहे कि रूप और आत्म-तत्त्व भिन्न-भिन्न हैं। आत्म-तत्त्व राम का निज स्वरूप है और रूप (नर, देवता या अन्य कोई विलक्षण रूप ही क्यों न हो) उसकी (राम की) माया-मात्र है। इसलिए राम का मायिक रूप ‘जग पेखन का देखनेवाला तथा ब्रह्मा, विष्णु और महेश को नचानेवाला’ नहीं है। बल्कि इन क्रियाओं का करनेवाला दोहा सं0 42 में वर्णित राम का स्वरूप ही है। यह कई स्थलों पर सिद्ध हुआ है कि क्षीर-शायी विष्णु भगवान के अवतार इस कल्प में (जिस कल्प की कथा गो0 तुलसीदासजी ने क्रम से वर्णन की है) श्रीराम थे। तब तो यही कहना पड़ा कि विष्णु ही विष्णु को नचाते हैं। यह सुनने में असंगत भले ही मालूम हो, पर यथार्थ यह है कि श्रीराम के मायाकृत नर-रूप में जो व्यापक आत्मतत्त्व वा राम का निज रूप है, वही देवाकृति मायिक रूप विष्णु-शरीर में भी व्यापक है, जिसकी सत्यता से जड़ मायिक रूप विष्णु-शरीर भासता और नाचता है अर्थात् कृत्य करता हुआ भासता है। जिस प्रकार चौ0 सं0 147 के अर्थ के नीचे (पाद-टीका में) सहज निर्गुण आत्म-तत्त्व को बाल-रूप राम वा रघुनाथ आदि कहना युक्ति-युक्त बतलाया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी विष्णु-शरीर में व्यापक आत्मतत्त्व को भी विष्णु नाम से पुकारना युक्ति-युक्त है।] 

तेउ न जानहिं मरम तुम्हारा । अउर तुम्हहिँ को जाननिहारा ।। 285।।

014

[इस चौ0 से प्रकट होता है कि दो0 सं0 42 वर्णित राम-स्वरूप को ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी नहीं जानते हैं, अतएव ये लोग भी पूर्ण ज्ञानी नहीं हैं और इस कारण ये भी मुक्तरूप नहीं माने जाएँगे। श्रीमद्भागवत, स्कन्ध 10, अध्याय 61 में भी यह वर्णन है कि-ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता भी भगवान के वास्तविक स्वरूप को या उनकी प्राप्ति के मार्ग को नहीं जानते।’-भागवतांक, पृ0 843।] 

सोइ जानइ जेहि देहु जनाई । जानत तुम्हहिँ तुम्हइ होइ जाई ।। 286।।

015

[इस चौ0 से प्रकट होता है कि सहज निर्गुण आत्म-स्वरूप राम ने अपने स्वरूप का ज्ञान करा देने की कृपा ब्रह्मा, विष्णु और महेश पर नहीं की है। और परम भक्त जीव, राम को जानकर राम ही हो जाता है अर्थात् जीव और ब्रह्म (राम) का भेद मिटकर केवल ब्रह्म-रूप ही रह जाता है।] 

तुम्हरिहि कृपा तुम्हहिँ रघुनन्दन । जानहिँ भगत भगत उर चन्दन ।। 287।।

016

[इस चौ0 से यह प्रकट होता है कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश उतने बड़े भक्त न थे कि राम उनको अपना स्वरूप जना देने की कृपा करते; क्योंकि चौ0 सं0 285 में कहा गया है कि त्रिदेव राम-स्वरूप को नहीं जानते हैं। और चौ0 सं0 286 में कहा गया है कि राम भक्तों को अपना स्वरूप जना देते हैं।] 

चिदानन्द मय देह तुम्हारी । बिगत बिकार जान अधिकारी ।। 288।।

017

[इस चौ0 से यह प्रकट होता है कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश, जो राम के चिदानन्दमय शरीर वा आत्म-स्वरूप को नहीं जानते हैं, विकार-हीन अधिकारी नहीं हैं।] 

दोहा-पूँछेहु मोहि कि रहउँ कहँ, मैं पूछत सकुचाउँ ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि, तुम्हहिं देखावउँ ठाउँ ।। 43।।

018

[तात्पर्य यह कि राम अपने स्वरूप से सर्वव्यापक हैं।] 

भरहिं निरन्तर होहिं न पूरे । तिनके हिय तुम्ह कहँ गृह रूरे ।। 291।।

019

[चौ0 सं0 290 और 291 का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार बहती हुई नदियाँ समुद्र को अपनी अभंग धारा से भरती रहती हैं, उसी तरह जो भक्तजन राम की कथा की अभंग धारा को सुनते रहें, सुनने से कभी न अघावें, उनका हृदय राम का सुन्दर घर है। कोई वक्ता वा श्रोता कथा की अभंग धारा कह वा सुन नहीं सकता है; क्योंकि स्नान, खान-पान आदि नित्य कर्म, अनेकों गृह-कार्य, स्वप्न, सुषुप्ति आदि अवस्थाओं और शब्दों तथा वाक्यों के जोड़-तोड़ आदि के कारण वक्ता-श्रोता को इस काम में बाधाएँ होंगी। इसलिए कहना पड़ता है कि केवल ईश्वर-स्वरूप-निरूपण या ब्रह्म-विचार वा त्रिदेव आदि देवताओं का यश वा भगवान के अवतारों की लीला और भक्तों के सदाचरणों आदि की कथाओं के सुनने की ओर इन दोनों चौपाइयों के द्वारा कवि संकेत नहीं करते हैं, बल्कि उस शब्द को सुनने की ओर संकेत करते हैं, जिसका वर्णन चौ0 सं0 79 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में ध्वन्यात्मक रामनाम वा सारशब्द आदि कहकर किया गया है। भजन-अभ्यास के द्वारा तुरीय अवस्था को प्राप्त कर ब्रह्माण्ड के भीतर इस सारशब्द, ध्वन्यात्मक राम-नाम की अभंग धार को अभ्यासी सुरत की कान से सुन सकता है, जो अभ्यासी तुरीय अवस्था को पूर्ण रीति से प्राप्त कर सकता है, उसको स्वप्न, सुषुप्ति आदि अवस्था-भेद वा नित्य कर्म वा गृह-कर्म आदि कोई भी व्यवहार उस अभंग धार को अभंग रूप से सुनने में कुछ भी बाधा नहीं पहुँचा सकते हैं। ‘सोवत जागत ऊठत बैठत टुक बिहीन नहिं तारा । झिन झिन जंतर निस दिन बाजे, जम जालिम पचिहारा ।’ (सन्त दरिया साहब, बिहार-वाले)।
जीव जब जाग्रत से स्वप्न-अवस्था में आता है, तो उसकी जाग्रत अवस्थावाली चेतन-वृत्ति बदलकर दूसरी दशा में हो जाती है। फिर जब वह स्वप्नावस्था से छूटकर सुषुप्ति-अवस्था में आता है, तो उसकी चेतन-वृत्ति जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं की वृत्ति से बदलकर तीसरी दशा में प्राप्त होती है। ये स्वभाव से ही सबको नित्य प्राप्त होती रहती हैं। सब-के-सब इनके विषय में जानते हैं। इन तीनों अवस्थाओं को टपकर ‘तुरीय’ नाम की चौथी अवस्था है, जो भक्तिमान अभ्यासी को प्राप्त होती है, जिसमें जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की भिन्न-भिन्न दशाएँ बदलकर चौथी एक विलक्षण दशा प्राप्त होती है। जैसे जो कोई स्वप्न-अवस्था को प्राप्त नहीं हुआ है, तो वह उस अवस्था में प्राप्त होनेवाली दशा का कुछ ज्ञान नहीं रखता है, उसी तरह जो तुरीय अवस्थ को कभी प्राप्त नहीं कर सका है, उसे उस अवस्था में प्राप्त होनेवाली दशा का कुछ ज्ञान नहीं हो सकता है। वह तुरीय अवस्था ही है, जिसमें योगी भक्तजन निद्रा छोड़कर सो जाते हैं अर्थात् निद्रा की अवस्था को त्यागकर स्थूल बाहरी जगत से बेसुध हो जाते हैं और सूक्ष्म अन्तर्जगत में सचेत रहते हैं। इसी दशा का वर्णन गो0 तुलसीदासजी अपनी ‘विनय-पत्रिका’ में इस तरह करते हैं-‘सकल दृश्य निज उदर मेलि सोवइ निद्रा तजि योगी । सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख अतिशय द्वैत वियोगी ।।’ परम भक्त योगीजन भगवत्-भजन के तार को कभी टूटने नहीं देते। चाहे वे जाग्रत वा स्वप्न-अवस्था में किसी आवश्यक तथा स्वाभाविक काम को करते हों, फिर भी सारशब्द की अभंग धार को पकड़े रहते हैं अर्थात् सुरत वा चेतन-वृत्ति से सुनते रहते हैं। जिस तरह कोई संगीत-प्रेमी किसी गानेवाले के स्वर को भली भाँति पहचानता हो, तो वह उसके स्वर को उस दशा में भी पहचानता और सुनता रहेगा, जबकि वह गायक अन्य बहुत-से गानेवालों के साथ मिलकर गाता रहेगा। ऐसे परम भक्त योगीजन अपनी सुरत को सुषुप्ति-अवस्था में कभी नहीं करते, बल्कि इस अवस्था में केवल मस्तिष्क आदि स्थूल भागों को आराम में छोड़कर और चेतन-वृत्ति को उससे आगे बढ़ाकर तुरीय अवस्था में रखते और ध्वन्यात्मक राम-नाम को अभंग रूप से सुरत की कान से सुनते रहते हैं। यहाँ पर ऐसा समझना भूल है कि सुरत को निरन्तर काम में लगाए रखने से वह निर्बल होकर रोगी हो जाएगी; क्योंकि सुरत जितने ऊँचे चढ़ती है, उतनी ही विशेष बलवती और निर्मल होती है। काम में लगे रहने से स्नायु- सम्बन्धी मस्तिष्क आदि रोगी हो सकता है, पर सुषुप्ति-अवस्था में उसको आराम मिलने में कोई बाधा नहीं होने पाती। इस तरह सुरत-शब्द-योग (नादानुसन्धान)-अभ्यास निर्विघ्नता-पूर्वक निरन्तर कर सकना सम्भव है।
‘कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना’ से प्रकट होता है कि बहुत तरह की कथाओं को निरन्तर सुनना चाहिए। सुरत-शब्द-योग के अभ्यासी को साधन के आरम्भ में अनेक प्रकार की ध्वनियाँ सुनने में आती हैं, पर सद्गुरु के कृपापात्र सद्गुरु के बताए संकेत से उन ध्वनियों में से ध्वन्यात्मक राम-नाम की अभंग धार को परखकर चुन लेते हैं और अन्य सब ध्वनियों को सुनते हुए भी उस (ध्वन्यात्मक राम-नाम की अभंग धार) में सुरत को उसी तरह लगाए रख सकते हैं, जिस तरह ऊपर के दिए दृष्टान्त में परिचित गायक के स्वर को पहचाननेवाला उसके स्वर को अन्य बहुत-से गायकों के मिले हुए स्वरों में से चुनकर उसमें अपनी सुरत को लगाकर रख सकता है।] 

लोचन चातक जिन्ह करि राखे ।  रहहिँ दरस जलधर अभिलाखे ।। 292।। 
 निदरहिँ सरित सिन्धु सर भारी ।   रूप बिन्दु जल होहिं सुखारी ।। 293।। 
तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक । बसहु बन्धु सिय सह रघुनायक ।। 294।।

020

[इन तीनों (चौ0 सं0 292, 293 और 294) में दृष्टि- साधन का भेद खोलकर बतलाया गया है। पपीहा स्वाति-जल के लिए बड़ी-बड़ी नदियों, तालाबों और समुद्रों का निरादर कर मेघ को एकटक से (टकटकी लगाकर) देखता रहता है और उसे (स्वाति-जल को) देख लेने पर परम प्रसन्नता से ग्रहण करता है। उसी तरह भक्ति-योग का साधक अपने हृदय-आकाश के अन्धकार- रूप बादल में एकटक से टकटकी लगाकर देखता रहता है अर्थात् दृष्टि-साधन करता रहता है और नदी आदि बड़े-बड़े जलाशय-रूपी बड़े-बड़े दृश्यों (रूपों) को निरादर करके, उन्हें नहीं देखता है, पर विन्दु-रूप को देखकर परम प्रसन्नता से दृढ़तापूर्वक धारण करता है; ऐसे साधक का हृदय राम के लिए सुखदायक घर है। वाल्मीकिजी रामजी को इसी घर में रहने कहते हैं। इसी विन्दु-ध्यान को मनुस्मृति के अध्याय 12, श्लोक 122[, में अणु-से-अणु स्वरूप परमात्मा का ध्यान कहा गया है। इन बातों का विशेष वर्णन चौ0 सं0 5 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में दिया गया है।] 

दोहा-जस तुम्हार मानस बिमल, हंसिनि जीहा जासु ।
मुकताहल गुन गन चुनइ, राम बसहु हिय तासु ।। 44।। 

021

[तात्पर्य यह कि जो राम के गुणों को चुन-चुनकर अपनी जिह्वा से वर्णन करते हैं, उनके हृदय में राम का घर है।] 

सरग नरक अपवरग समाना । जहँ तहँ देख धरे धनु बाना ।। 316।।

022

[चौ0 सं0 316 में जीवन्मुक्त पुरुष-जो समता प्राप्त करके विज्ञान तथा शम, यम और नियम को धारण किए रहते हैं, का वर्णन है, समता प्राप्त हो जाने पर जीवन्मुक्त पुरुष को सुख-दुःख, बन्धन-मोक्ष, स्वर्ग-नरक और अपवर्ग आदि का भेद-ज्ञान कुछ नहीं रहता है। उनको सब प्रपंच सहज निर्गुण, असीम रूप-राम-स्वरूप ही हो जाता है। ऐसे पुरुष जहाँ कहीं देखते हैं, वर-विज्ञान-रूप धनुष और शम-यम-नियम-रूप वाणों को धारण किए ही देखते हैं। ऐसे धनुष और वाणों का वर्णन षष्ट सोपान-लंकाकाण्ड में इस भाँति किया गया है-‘बर बिज्ञान कठिन कोदण्डा’ और ‘सम यम नियम सिलीमुख नाना’। ‘सरग नरक अपवर्ग समाना’ में अभेद ज्ञान अथवा समता-ज्ञान पूर्ण रूप से प्रकट होता है। फिर उत्तरकाण्ड में ‘बिनु बिज्ञान कि समता आवै’ कहकर कवि ने साफ प्रकट कर दिया है कि विज्ञान के बिना समता प्राप्त हो नहीं सकती है। इसलिए यहाँ पर विज्ञान-रूप धनुष माने बिना काम नहीं चल सकता है, फिर जहाँ पर ऐसा धनुष होगा, वहाँ उसके योग्य शम-यम-नियम को तीर मानना योग्य ही है। चौ0 सं0 316 का अर्थ यदि इस भाँति किया जाए कि-जिनको स्वर्ग, नरक और मोक्ष बराबर हैं, वे जहाँ-तहाँ (सब स्थानों में) (श्री राम को) धनुष-वाण धारण किए देखते रहें, तो इस पर विचार होता है कि समता प्राप्त हुए बिना स्वर्ग, नरक और मोक्ष बराबर जानने में नहीं आ सकता और ऐसी समता प्राप्त किए हुए को धनुष, वाण और इनको धारण करनेवाला आदि द्वैत दृश्य (मोक्ष-पद में) दरस नहीं सकते। यदि ये द्वैत दृश्य उन्हें मोक्ष-पद में भी दरसते ही रहेंगे, तो इनके स्वर्ग, नरक और मोक्ष के द्वैत-भेद क्यों मिट जाएँगे ? और ‘तजि जोग पावक-देह हरि पद लीन भइ जहँ नहीं फिरै ।’ (रामचरितमानस) तथा ‘सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि योगी । सोइ हरि पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ’ (विनय-पत्रिका)। इन कड़ियों से यह प्रकट होता है कि मोक्ष-पद द्वैत से अतिशय रहित है और अतिशय द्वैत-वियोगी ही राम पद को पूर्ण रीति से प्राप्त कर सकेगा। द्वैत-हीनता को ही समता कहते हैं। मोक्ष-पद प्राप्त किए बिना स्वर्ग, नरक और मोक्ष को समान जानना असम्भव है। फिर इस नियम से यह भी असम्भव है कि समता-प्राप्त, जीवन्मुक्त पुरुष को मोक्ष में भगवान का धनुषधारी द्वैत रूप-माया-रूप दरसता रहे। इसलिए मेरे विचार में यह दूसरा अर्थ ठीक नहीं जँचता।]  

पय पयोधि तजि अवध बिहाई । जहँ सिय लखन राम रहे छाई ।। 319।।

023

[चौ0 सं0 319 अत्यन्त निश्चय-पूर्वक बतला रही है कि जिन भगवान राम की कथा का वर्णन गो0 तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में आदि से अन्त तक किया है, वे क्षीर समुद्र में रहनेवाले भगवान विष्णु थे, न कि निर्गुण राम निर्गुण पद को छोड़कर आए थे। क्षीर समुद्र में रहनेवाले भगवान विष्णु सगुण ब्रह्म हैं। सगुण ब्रह्म ही अवतार लेकर दाशरथि राम कहलाए थे।] 

लोकहु बेद बिदित इतिहासा । यह महिमा जानहि दुरवासा ।। 352।।*

024

[विष्णुजी ने दुर्वासा से अम्बरीष की रक्षा अपने सुदर्शन चक्र-द्वारा की है। इस कथा से भी यही सिद्ध होता है कि विष्णु भगवान ही ने राम-अवतार लिया था।] 

अगुन अलेप अमान एक रस । राम सगुन भये भगत प्रेम बस ।। 358।।

025

[यह चौ0 भी बतलाती है कि राम का सनातन मूल स्वरूप निर्गुण है और सगुण रूप असनातन है।] 

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