001
[इस चौ0 का तात्पर्य यह है कि गुण, काल, कर्म और स्वभाव शक्ति-हीन हो गए अर्थात् इनकी प्रबलता न रही। जबतक भेदी भक्त अन्तर में भक्तियोग के सूक्ष्म साधन-द्वारा त्रिकुटी (ओ3म्-पद) तक न पहुँचे, तबतक कर्म, गुण, काल और स्वभाव की प्रबलता घट गई है, ऐसा वह देख नहीं सकता।]
002
[यह राम-प्रतापरूप सूर्य त्रिकुटी महल में विराजित ओ3म् ब्रह्म का स्वरूप है-
पद-‘त्रिकुटी महल में विद्या सारा, घनहर गरजै बजै नगारा ।
लाल बरन सूरज उजियारा, चत्र कँवल मँझार शब्द ओंकारा ।।’
(कबीर साहब)
भक्ति-योग के सच्चे साधकों को अपने हृदय में यह तब दरसता है, जब वे रामचरितमानस में वर्णित नवधा भक्ति की छठी भक्ति का साधन पूर्ण रूप से कर लेते हैं। यह सूर्य हिम-कर युक्त है। इसी (सूर्य) को चौ0 सं0 79 में ‘कृसानु भानु हिमकर’ कहा गया है। चौ0 सं0 611 से 614 तक में वर्णित अज्ञान, पाप, काम और क्रोधादि ताप मनुष्य के हृदय को दग्ध करते हैं; परन्तु साधन में लवलीन भक्त अपने हृदय में त्रिकुटी महल पर चढ़कर ऊपर कथित सूर्य का दर्शन पाते हैं; और इससे ऊपर वर्णित विकारों का ताप उनके हृदय से दूर हो जाता है। फलस्वरूप हृदय शीतल एवं शान्त हो जाता है और इसमें ज्ञान, विज्ञान, सुख, सन्तोष, विराग और विवेक बढ़ जाते हैं। जैसे उल्लू पक्षी को आकाश में उदित सूर्य नहीं दरसता है, उसी तरह छठी भक्ति के साधन से हीन भक्त को वर्णित ‘राम प्रताप प्रबल दिनेस’ अपने अन्तर में नहीं दरसता है। इसलिए उनके हृदय के विकार दूर नहीं होते और न उनमें ज्ञान, विज्ञान, सुख, सन्तोष, विराग और विवेक आते हैं। ‘राम प्रताप प्रबल दिनेस’ के प्रसंग को पढ़कर यह समझ लेना बड़ी भूल होगी कि यह सूर्य त्रेता युग में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के अवधेश रहने के समय में उदित था और अब अस्त हो गया है। वास्तव में यह सूर्य सर्वदा सबके हृदय-रूप आकाश में (बाहरी आकाश में नहीं) उदित है, पर उल्लू पक्षी-रूप अनधिकारी को अपने अन्तर में नहीं दरसता है।
पद (तुलसी साहब की घटरामायण)-‘घूघर अन्धे भेष टेक अभिमान में । सुझै न सबमें ब्रह्म धुन्द अज्ञान में ।। घूघर नेतर खुलैं सुनो सोइ साध है । देखै तन बिच भान सो ब्रह्म अगाध है ।।’ ‘जौं दुपहैर गगन रवि छाई । तासे उजास भया घट माहीं ।’ दोहा सं0 91 में ‘यह प्रताप रवि जाके, उर जब करइ प्रकास’ का अर्थ यह नहीं होता है कि किसी एक ही युग वा युग-भाग में यह सूर्य उगा था, परन्तु यह अर्थ होता है कि यह सूर्य जब जिसके हृदय में प्रकाश करे (अर्थात् योगी भक्त इनके दर्शन का साधन जब करेगा), तब वह अपने अन्तर में इसका दर्शन पावेगा।
यद्यपि चौ0 सं0 609 से दो0 91 तक में जिस प्रसंग का वर्णन है, वह यथार्थ में अन्तरी भेद (योग का रहस्य) है और कागभुशुण्डि ने जैसा अपने अन्तर में दर्शन पाकर फल प्राप्त किया है, उसी का वर्णन किया है, तथापि गो0 तुलसीदासजी ने इसको इस ढंग से लिखा है कि जिनको रामचरितमानस में देखने के लिए योग-चक्षु प्राप्त नहीं है, उनको इसमें योग-रहस्य सूझ नहीं पड़ता। चौ0 सं0 118 और 121 में रामचरितमानस में देखने के लिए योग-चक्षु का वर्णन है। अतएव यह ज्ञान प्राप्त करने के लिए इन दोनों चौपाइयों के अर्थों के सहित कोष्ठ में लिखे वर्णन को पढ़िए। प्रथम सोपान बालकाण्ड में जहाँ ‘रामचरितमानस’ नाम रखकर उसकी महिमा गायी गई है, वहाँ की इस चौपाई ‘नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा ।।’ से प्रकट होता है कि जैसे पोखरे के जल में जब जलचर डूबा हुआ रहता है, वह तब जल के ऊपर-ऊपर नहीं दरसता है, पर जब जाल आदि से यत्न करके पकड़ा जाता है, तब उसका रूप ठीक-ठीक दरसता है। इसी तरह योग-रूप जलचर रामचरितमानस-रूप तड़ाग के कथा-रूप जल में छिपा हुआ है, इसको पकड़ने के लिए भक्ति का विचार, भेद और साधन आदि ही जाल-स्वरूप है। इस जाल से पकड़ जाने पर उस (भक्ति-योग-जलचर) का रूप ठीक-ठीक दरसता है। परन्तु जो इन साधनों से हीन हैं, जिन्होंने यह समझ प्राप्त नहीं की है कि इस मानस में किस आँख से देखना चाहिए और जिन्होंने केवल इतिहास और अल्प शब्दार्थ ही जान पाया है, वे यदि इस प्रकार गुप्त योग-रहस्य को रामचरितमानस में नहीं पकड़ सकें और मेरे इस वर्णन को रामचरितमानस का बाह्य विषय कहें, तो उनकी समझ कहाँ तक ठीक है, उसे विचारवान भेदी जन जान सकते हैं। जानना चाहिए कि गो0 तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस में योग को जलचर बना रखा है और जैसे जलचर जलगर्भ में छिपा रहता है, तड़ाग में ऊपर से केवल जल-ही-जल दीख पड़ता है, उसी तरह रामचरितमानस में योग गुप्त रीति से वर्णित है, पर ऊपर से देखने से वह (रामचरितमानस) केवल कथाओं से भरा मालूम पड़ता है। जलचर को पकड़नेवाले जैसे युक्ति से जलपुंज से उसे पकड़ लेते हैं, उसी तरह विचारवान भेदी जन रामचरितमानस से योग-जलचर को निकाल लेते हैं। जो रामचरितमानस के इस तत्त्व को नहीं समझ सकते हैं, वे यदि सम्पूर्ण रामचरितमानस को कण्ठाग्र भी कर लें, तोभी उन्हें उससे (रामचरितमानस से) होने योग्य सर्वश्रेष्ठ और सार लाभ कदापि नहीं होगा।]
003
[दो देखना = द्वैत बुद्धि रखनी = ‘सियाराम मय सब जग जानी’ के विरुद्ध बुद्धि रखनी।]
004
[चौ0 सं0 77 और 78 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में लिखित विचारों को ध्यान से पढ़ने पर ‘ब्रह्मपर’ = ब्रह्म के आगे वा ‘परे’ पद का खुलासा हो जायगा।]
005
[यहाँ परलोक स्वर्ग को नहीं कहा गया है। क्योंकि चौ0 सं0 655 में स्वर्ग को ओछा और दुःखदायी बतलाया गया है। इसलिए यहाँ परलोक से मोक्ष ही समझना चाहिए। और भी-स्वर्ग में देव-शरीर की प्राप्ति होती है और नर-देह सुर-दुर्लभ कही गई है। इस कारण मनुष्य-देही यदि देव-देह के लिए यत्न करे, तो कहा जाएगा कि वह क्षति की ओर जा रहा है।]
006
[चौ0 सं0 658, 659 और 660 से प्रकट होता है कि जीव चार खानि, चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते-करते अन्त में मनुष्य-शरीर पाता है। ऐसे वर्णन से गो0 तुलसीदासजी का इशारा जानना चाहिए कि जीव नीचे की श्रेणियों से उन्नति करता हुआ आकर सर्वोत्तम, देव-शरीर से भी उत्तम मनुष्य-शरीर को पाता है। इसी ख्याल को उत्क्रान्ति-तत्त्व वा स्वर्गीय लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के ख्याल में गुणविकास या गुणोत्कर्ष तत्त्व [Evolution Theory] , कह सकेंगे। यदि कहा जाय कि Evolution Theory में ईश्वर-कृपा से नहीं, केवल स्वभाव की ही प्रेरणा से उन्नति मानी गई और गो0 तुलसीदासजी मनुष्य-देह-प्राप्ति-रूप उन्नति का हेतु ईश्वर की कृपा मानते हैं, इसलिए Evolution Theory और तुलसीदासजी के इस विचार में बड़ा अन्तर है, तो जानना चाहिए कि गो0 तुलसीदासजी सरीखे परम आस्तिक, निस्सीम प्रेमी भक्त को यह कभी विश्वास नहीं हो सकता कि ईश्वर की कृपा के बिना भी कोई उन्नति हो सकती है। यदि एक भक्त कहता है कि [Nature], स्वभाव-प्रकृति में जो उत्तरोत्तर उन्नति कराने की शक्ति है, वह ईश्वर की कृपा ही है और इसी ईश्वर-कृपा को [Nature], स्वभाव-रूप जानकर Evolution Theory का सिद्धान्त निकालनेवाले ने ईश्वर-कृपा-रहित, केवल स्वभाव से ही उन्नति होना मान रखा है, तो इस बात में कोई फर्क नहीं आता कि दोनों ख्याल में उन्नति का होना (नीचे से ऊँचे की ओर दरजे-ब-दरजे, उत्तरोत्तर) माना गया है और इसी ख्याल को Evolution Theory वा ‘गुण विकास तत्त्व’ कह सकेंगे। यदि एक ख्याल ने इस तत्त्व को ‘ईश्वर-कृपा’ कहकर जाना और दूसरे ने केवल Nature वा स्वभाव कहकर, तो क्या क्षति, जाना तो दोनों ने एक ही तत्त्व को।]
007
[भव-सागर तरने के साज का समाज-मनुष्य शरीर-रूप नाव, ईश्वर-कृपारूप अनुकूल वायु और सद्गुरु रूप मल्लाह है।]
008
[ब्राह्मणों के सम्बन्ध में चौ0 सं0 447 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में लिखे विचारों को पढ़िए। ब्राह्मणों की पूजा सबसे श्रेष्ठ पुण्य है, ऐसे पुण्यों के फल से अर्थात् ब्राह्मणों की पूजा एवं अन्य प्रकार के पुण्यों के पुंज होने से सन्त का दर्शन-लाभ होता है। इससे प्रकट होता है कि सच्चे ब्राह्मण की महिमा से सन्त की महिमा कहीं अधिक है। परन्तु गो0 तुलसीदास ने इस विचार को ऐसे ढंग से वर्णित किया है कि ब्राह्मण देव के हृदय में यह बात काँटे की तरह चुभे नहीं, पर सन्त की महिमा छिपी हुई भी न रहे।]
009
[कर = किरण । किरण प्रकाश-रूप होनी चाहिए। शरीर में चैतन्य वृत्ति वा सुरत की धार ज्ञानमयी तथा प्रकाशमयी है, अतएव इसी वृत्ति वा धार को किरण मानना चाहिए। गुप्त भेद के द्वारा अभ्यास करके जो कोई चैतन्य वृत्तियों को अन्तर में अति अल्प काल भी जोड़ सकता वा एकत्र कर सकता है वा दूसरे शब्दों में चित्त का निरोध कर सकता है, उसे प्रत्यक्ष ज्ञात हो जाता है कि जितनी देर उसको यह भजन ठीक बना; उतनी देर उसे अत्यन्त कल्याण वा चैतन्य प्राप्त हुआ और उसका हृदय ईश्वरीय प्रेम और भक्ति से भरा रहा। जानना चाहिए कि चौदहो इन्द्रियों के विषयों में भटकता हुआ चित्तवाला चित्तवृत्ति का निरोध नहीं कर सकता और फलस्वरूप कल्याण वा चैन कभी नहीं पा सकता। किन्तु जब सब विषयों से छूटेगा तो सहज ही निर्मलतापूर्वक सर्वेश्वर की ओर हो जाएगा अर्थात् वह सर्वेश्वर का प्रेम और भक्ति पा लेगा। इसलिए जो सत्संगी गुरु-भेद और विचार के बल से नित्य-प्रति सच्चाई से भजन अभ्यास करते-करते कभी किरणों को ठीक जोड़ सकेगा, तो अवश्य ही वह कल्याण और ईश्वर की भक्ति पा जाएगा। किरणों को जोड़कर भजन करने की विधि चौ0 सं0 5, 292, 293 और 294 में उनके अर्थों और उनके नीचे कोष्ठों में लिखी है। यह भजन अत्यन्त गुप्त है, इसमें शक नहीं। इसको छोड़ दूसरा प्रकार समझने से वह गुप्त मत का भजन कदापि नहीं ठहरेगा।]
010
[चौ0 सं0 671 में जो कहा गया है कि भक्ति-मार्ग में योग और जप-तप करने नहीं हैं, वह केवल भक्ति-माार्ग में चित्त को अत्यन्त आकर्षित करने के लिए है। कवि का यह वर्णन केवल रोचकता रखता है, यथार्थता नहीं। चौ0 सं0 5, 79, 92 से 96 तक, 270, 290 से 294 तक, 457 से 459 तक, 494 और 499 को उनके अर्थों के सहित उनके नीचे कोष्ठों में वर्णित विचारों को खूब समझकर पढ़िए, तो विदित हो जाएगा कि भक्ति-मार्ग में जप और योग अवश्य हैं और भक्त अर्थात् सन्तजन अवश्य ही योगी होते हैं। फिर भी-
‘रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार जानै सोइ जेहि बनि आई ।।
जो जेहि कला कुशल ता कहँ सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सन्मुख जल प्रवाह सुरसरि बहइ गज भारी ।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ बल ते नहीं विलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलका बिनु प्रयास ही पावै ।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि पद अनुभवइ परम सुख अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा हीन संसय निर्मूल न जाहीं।।’
(गो0 तुलसीदासजी की विनय-पत्रिका)
इस पद को पढ़िए, अच्छी तरह समझ में आ जाएगा कि भक्ति-मार्ग में जप और योग अवश्य हैं। हाँ, यह भले ही कह सकते हैं कि जिस जप और योग से (जैसे केवल हठयोग से) सर्वेश्वर की भक्ति नहीं होती है, वह जप-योग भक्ति-मार्ग में नहीं है।]
011
[विज्ञानी = ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय की त्रिपुटी के परे अर्थात् व्याप्य-व्यापक भेद-रहित। जैसे नींद में सोया हुआ मनुष्य श्वास-प्रश्वास कर्म करता हुआ भी उस कर्म का जान-बूझकर करनेवाले अपने को नहीं जानता, इसी तरह परम ज्ञान-प्राप्त विज्ञानी भक्त भी तुरीयातीतावस्था को प्राप्त किए जगत-हित सब कर्त्तव्यों को करते हुए भी, गृह-परिवार में रहते हुए भी अनारम्भ और अनिकेत होते हैं। पर तुरीयातीत अवस्था अथवा विज्ञान-पद प्राप्त हुए बिना मनुष्य को यह ठीक समझ में नहीं आ सकता है।]
012
[स्वर्ग को तुच्छ इसलिए कहा गया है कि वह अन्त में दुःखदाई है। देखो चौ0 सं0 655। भक्तों के लिए मोक्ष भी तुच्छ है; क्योंकि वह मोक्ष देनेवाले परम प्रभु सर्वेश्वर को ही अपना लेते हैं।
इसीलिए ‘घटरामायण’ में लिखा है कि-
‘मुक्ति कहूँ निरबार, सन्त चरन लागी फिरै ।
फिरै सन्त की लार, करै सन्त निरबार जेहि ।।’
भक्त मोक्ष को सर्वेश्वर से तुच्छ जानकर उसका आदर नहीं करते और सर्वेश्वर में लवलीन रहते हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भक्ति-मार्गी को मोक्ष नहीं मिलता है, वह तो अवश्य ही मिलता है।
भक्ति-मार्ग के सब अंगों में पूर्ण शवरी के विषय में रामचरितमानस में पूर्व ही वर्णन हो चुका है कि वह ‘हरि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरै ।’ और आगे चलकर सप्तम सोपान-उत्तरकाण्ड में ऐसा भी लिखा है कि-‘जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई । कोटि भाँति कोउ करै उपाई ।। तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई । रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ।।’]
013
[चौ0 सं0 671 में कहा गया है कि भक्ति-मार्ग में योग-जप नहीं है। और चौ0 सं0 672 से दोहा सं0 102 तक में वर्णन है कि भक्ति-मार्गी को सरल स्वभाववाला, यथालाभ में सन्तोष रखनेवाला, अन्य सब आशाओं को छोड़ केवल सर्वेश्वर की आशा रखनेवाला, अनारम्भ, अनिकेत, अमानी, अनघ, अरोष, दक्ष, विज्ञानी, सज्जन-संसर्ग में सदा प्रीति करनेवाला, स्वर्ग और अपवर्ग को तृणवत् जाननेवाला, एक भक्ति-पक्ष में रहनेवाला, दुष्टतर्की नहीं, सर्वेश्वर के गुणग्राम और नाम में रत, ममता, मद और मोह से रहित और परानन्द-सन्दोह-सुख का भोगी होना चाहिए। अब विचारवान मनुष्य समझें कि उपर्युक्त गुण-धारी व्यक्ति का चित्त कितना सुधरा व सधा हुआ, विषयों से किस प्रकार निर्लिप्त और उनसे खिंचा हुआ है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि उसने चित्त-वृत्ति का एकदम निरोध कर लिया है वा वह पूर्ण योगी है। इस अवस्था में पहुँचने के लिए उस सुधरे हुए पुरुष-पूर्ण योगी ने कुछ साधन और प्रयास न किया हो, यह असम्भव है। यदि कहा जाए कि ऐसा बनने के लिए दो0 सं0 102 में साधन का वर्णन है कि सर्वेश्वर के गुण-ग्राम और नाम में रत रहना, तो यह बात कुछ अनुचित नहीं है। पर प्रथम तो यह देखा जाता है कि जो केवल बाहरी तौर पर गुण-ग्राम और नाम में रत रहना चाहते हैं, वे गुण गाने तथा सुनने का, शरीर को खूब उछला-उछलाकर नाचने का, साजों के साथ उच्च स्वर में नाम-संकीर्त्तन कर विरल प्रेम की मस्ती में (विशेषतः केवल संग-सोहर भेड़िया धँसान में) नाच-नाचकर शरीर थकाने का, माला के साथ वा बिना माला के अंगुलियों पर गिन-गिन कर वा बिना गिनतियों के जप और रटन का प्रयास करते हैं और भरोसा रखते हैं कि इसी प्रकार अभ्यास करते-करते प्रेम खूब बढ़ जाएगा और चित्त-निरोध होकर प्रभु-पद में लग जाएगा और समाधि लग जाएगी। यदि मान लिया जाय कि उत्तर देनेवाले का यह विचार सत्य है, तो साथ ही यह भी अवश्य मानना पड़ा कि इस तरह भक्ति-मार्ग में चलने में जप और योग; दोनों (अवश्य) हो गए। क्योंकि चित्त के निरोध को ही योग कहते हैं। फिर कौन विचारवान कह सकेगा कि ऐसा करने में प्रयास कुछ नहीं होगा ? दूसरी बात यह कि जबतक सुरत विन्दु पर न सिमटेगी, तबतक पिण्ड में पूर्ण सिमटाव वा चित्त-वृत्ति का पूर्ण निरोध होना असम्भव है।
इस विषय का वर्णन और एक विन्दु पर सुरत के सिमटाव का साधन चौ0 सं0 5, 292, 293, 294 और 458 को और उसके अर्थों के सहित उनके नीचे कोष्ठों के लेखों को विचार से पढ़कर जानिये। तीसरी बात यह कि केवल वर्णात्मक नाम के संकीर्त्तन वा रटन को रामचरितमानस के अनुसार नाम में रत रहना नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि रामचरितमानस से नाम के दो रूप-वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक जानने में आते हैं। (देखिए चौ0 सं0 79, 80 और 85 के अर्थों और कोष्ठों के वर्णनों को) इसलिए जबतक ध्वन्यात्मक नाम में भक्त की चैतन्य वृत्ति वा सुरत लीन नहीं होगी, तबतक यह नहीं कहा जा सकेगा कि वह नाम में रत है। फिर ध्वन्यात्मक नाम में रत होना सुरत-शब्द-योग-अभ्यास के बिना कदापि नहीं हो सकता है। इसलिए भक्ति-मार्ग में जप, योग आदि करने का प्रयास कुछ नहीं है, ऐसा वर्णन केवल रोचकता बढ़ाने भर के लिए ही है। अतएव भोलेपन से यह समझकर कि भक्ति-मार्ग में जप-योग का प्रयास नहीं है, जप-योग का निरादर करना निरी मूर्खता है। हाँ, यह बात अवश्य है कि भक्ति-मार्ग में रामचरितमानस के अनुसार वर्णित नवधा भक्ति के साधन-स्वरूप योग-अभ्यास के अतिरिक्त दूसरे योग की आवश्यकता नहीं है और न उस प्रयास के अतिरिक्त दूसरे प्रयास की आवश्यकता है, जो नवधा भक्ति-रूपी योग करने में होता है।]
014
[यहाँ पर परमात्मा, क्षीर-समुद्र-वासी नारद मुनि के शाप से अवतार लेनेवाले विष्णु भगवान को ही कहा गया है। क्योंकि चौ0 सं0 236 से 240 तक और उनके अर्थों के सहित तत्सम्बन्धी कोष्ठों के विचारों से साफ-साफ प्रकट है कि श्रीराम क्षीर-समुद्र- निवासी विष्णु भगवान के अवतार थे।]
015
[योग से केवल सगुण ब्रह्म ही नहीं मिलता, बल्कि सगुण शरीर में व्यापक शुद्ध निर्गुण स्वरूप भी प्राप्त होता है।]
016
[महादेवजी ने राम-कथा को यहाँ तक ही कहकर उसकी इति कर दी। पर प्रथम सोपान में जो पार्वतीजी का यह प्रश्न है कि-
दोहा-‘बहुरि कहहु करुनायतन, कीन्ह जो अचरज राम ।
प्रजा सहित रघुबंस मनि, किमि गवने निज धाम ।।’
इसका उत्तर कहीं भी नहीं दिया और रामचरितमानस में इसका उत्तर है भी नहीं।]
017
[देह-धारण किए हुए जीवित पुरुष को, जो माया से मुक्त है अर्थात् जो हर्ष, शोक, दुःख, हानि, लाभ, मान, अपमान, मित्र, शत्रु, निन्दा, स्तुति आदि तथा देहाभिमान से रहित है। वह ब्रह्म-पर जीवन्मुक्त पुरुष है। इससे परे कोई पद नहीं है। यहाँ तक पहुँचकर भी जो जगत के कल्याण के लिए (अर्थात् संसारी जीवों को भक्ति में लगाने के लिए) राम-भक्ति में रत रहते हैं, उनकी सर्वश्रेष्ठता चौ0 सं0 695 और 696 में कही गई है।]
018
[जाप यज्ञ-एक चित्त से नाम-भजन करने को जप-यज्ञ कहते हैं। गीता-रहस्य, गीता-अनुवाद और टिप्पणी अध्याय 10, श्लोक 25 अर्थ और टिप्पणी पढ़कर देखिए। यहाँ पर यज्ञ को अग्नि, घृत, तिल और यव आदि सामग्री से युक्त यज्ञ समझना नितान्त भूल है; क्योंकि पक्षी के लिए इन द्रव्यों का संग्रह करना असम्भव है। यदि कहा जाय कि बहुत-से नर राजा उनके भक्त थे, जो उन द्रव्यों को जुटा देते थे, तो ऐसा वर्णन नहीं है। बल्कि यह वर्णन है कि कागभुशुण्डि के पास केवल पक्षीगण ही कथा सुनने आते थे। महादेवजी भी हंस पक्षी का शरीर धरकर ही उनके पास कथा सुनने को गए थे। यदि मनुष्यगण उनके भक्त होते और कथा सुनने को उनके पास जाते होते तो गो0 तुलसीदासजी इसका वर्णन कर देते।]
019
[कागभुशुण्डिजी से सम्बन्ध रखनेवाली वार्त्ता, जो चौ0 सं0 697 से 707 तक वर्णित है, बड़ी ही रहस्यमयी जान पड़ती है। पहले तो चार कनकमय शिखरोंवाले नील पर्वत के इस भूमण्डल पर होने का पता भूमण्डल की भूगोल-पुस्तक में नहीं है। दूसरी बात यह (जो चौ0 सं0 702-703 में है) कि माया-कृत अज्ञान, काम और अविवेकादि दोष-लक्षण उस नील पर्वत के ऊपर तो क्या, उसके पास तक नहीं फटकने पाते हैं, असम्भव-सी है; क्योंकि समस्त बाहरी संसार में ऐसा कोई भी स्थान देखा नहीं गया है, जहाँ प्राणी को अज्ञान, काम और अविवेकादि दोष-लक्षण न हों। तीसरी बात यह कि ऊपर कहे दो कारणों से जब यह नीलगिरि ही रहस्यमय जान पड़ता है, तब उस पर के मणिमय सोपानवाला सरोवर, उस पर के विहंग; उन विहंगों के कलरव, उनकी चारों कनकमयी चोटियों पर के चार वृक्ष, वह सुमेरु, जिसके उत्तर में यह नीलगिरि है, उसकी उत्तर दिशा; ये सभी अवश्य ही रहस्यमय होंगे। चौथी बात यह कि कागभुशुण्डि एक शिखर पर पीपल वृक्ष के नीचे ध्यान करते हैं, दूसरे शिखर पर आम के नीचे मानस-पूजा करते हैं। इससे प्रकट होता है कि मानस-पूजा और ध्यान पृथक्-पृथक् दो साधन हैं। यथार्थ यह है कि-मेरुदण्ड के अन्तर में सीधी खड़ी रेखा-रूप धार है, उसे ही सुमेरु गिरि कहा गया है। इससे अवलम्बित इसके नीचे से ऊपर तक पिण्ड में गुदा-स्थान से कण्ठ तक पाँच चक्र हैं; जिनके नाम-मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत (हृदय) और विशुद्ध (कण्ठ) हैं। ऊपर (सूक्ष्मता) की ओर को उत्तर दिशा कहा गया है। वर्णित समेरु गिरि से उत्तर अर्थात् ऊपर तम-रूप नीलगिरि है। भक्ति-योग-अभ्यासी अपने अन्तर में इस (तम-रूप नीलगिरि) को प्रथम ही पाता है। आज्ञाचक्र नाम का छठा चक्र इसी में विराजित है। बाहरी विषयों से मुड़ी हुई चैतन्य वृत्ति (सुरत) वाला इस पहाड़ पर ठहरा रहता है। उसको अज्ञान, काम और अविवेक आदि दोष-लक्षण नहीं छूते हैं। इसीलिए वर्णन किया गया है कि इस पहाड़ के पास ये दोष-लक्षण नहीं जाते हैं। वेद, शास्त्र, पुराण और सत्संग से प्राप्त अति बृहत् वार्त्ता विशाल वट वृक्ष हैं। सुबुद्धि प्रकाश-रूप है। कथित नील पर्वत की कनकमय (चमकीली, प्रकाशमयी) एक चोटी यही है। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द आदि बाहरी विषयों से अपनी सुरत वा चैतन्य वृत्तियों को मोड़कर, सुबुद्धि पर स्थिर होकर (अर्थात् एक कनकमय शिखर पर बैठकर) कथित विशाल वट वृक्ष के नीचे वा उसके आश्रित रहकर कागभुशुण्डिजी कथा कहते थे। उच्च ज्ञान-वर्द्धक परम आस्तिक बुद्धि ही प्रकाश है। नीलगिरि के जिस भाग पर ठहरकर कागभुशुण्डिजी जप-यज्ञ करते हैं, वह भाग परम आस्तिक बुद्धि-रूप होने के कारण ऊँचा (शिखर) और प्रकाशमय वा चमकीला वा कनकमय है। नीलगिरि का यही दूसरा शिखर हुआ।
गुरु-भेद विशाल पाकरि (पाकर) वृक्ष-रूप है। इसी की छाया में वा इसके आश्रित होकर कागभुशुण्डिजी जप-यज्ञ करते हैं। सर्वेश्वर के सगुण रूप के प्रति अत्यन्त प्रेम ही अति उच्च प्रकाशमय वा चमकीला वा कनकमय स्थान है। नीलगिरि के जिस भाग पर टिककर कागभुशुण्डिजी मानस-पूजा करते हैं, वह यही कनकमय शिखर है। यह नीलगिरि का तीसरा शिखर हुआ। एक और अत्यन्त दृढ़ आशा-रूप विशाल आम का वृक्ष इस शिखर पर लगा है। इसी की छाया में वा इनके आश्रित रहकर कागभुशुण्डि मानस-पूजा करते हैं। नील पर्वत के वर्णित शिखरों में ऊँचा और सर्वश्रेष्ठ चौथा शिखर चरम सीमा से, मुक्त दृष्टि (दिव्य दृष्टि) से दर्शित प्रत्यक्ष ज्योति-स्वरूप वा प्रत्यक्ष चमकीला वा कनकमय है। सद्गुरु की कृपा विशाल पीपल वृक्ष है। वर्णित कनकमय चौथे शिखर पर यह वृक्ष विराजित है। इसी की छाया में वा इसके आश्रित होकर कागभुशुण्डि ध्यान करते हैं।
अब मानस-पूजा और ध्यान के विषय में समझना रह गया है। मनोमय देव की रचना करके अर्थात् मन से मन तत्त्व की ही इष्टदेव की मूर्ति बनाकर और पूजा की सब सामग्रियाँ मनोमय ही रचकर मनोनय इष्ट का पूजन करना मानस-पूजा कहलाती है। चौ0 सं0 5 के नीचे कोष्ठ में वर्णित मानस पूजा और मानस ध्यान एक ही बात है। मन से एक ही ध्येय वस्तु के चिन्तन करते रहने को ध्यान कहते हैं। बहुत लोग मानस पूजा ही को ध्यान कहते हैं। इसके अतिरिक्त इससे निराले किसी साधन को ध्यान नहीं समझते हैं। परन्तु रामचरितमानस की चौ0 सं0 705 और 706 में जैसा वर्णन है, उससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि ध्यान और मानस पूजा, दो भिन्न-भिन्न साधन हैं। यदि मानस पूजा को मानस ध्यान कहा जाय, तो कुछ अनुचित न होगा। परन्तु मानस ध्यान वा मानस पूजा में मनोमय देव के अनेक अंग-प्रत्यंगों की तथा पूजा की अनेक सामग्रियों की रचना और चिन्तन में लगा रहकर केवल एक ही ध्येय तत्त्व पर ठहराकर केवल उसी का चिन्तन नहीं किया जा सकता। इसीलिए मानस पूजा के साधन से जब कि केवल एक ही ध्येय तत्त्व का चिन्तन नहीं हो सकता, तब इसको ध्यान नहीं कहा जा सकता है और न वह साधन ध्यान का साधन हो सकता है, जिससे मानस पूजा होती है। अतएव ध्यान का साधन मानस पूजा के साधन से नितान्त भिन्न ही होना चाहिए। मनुस्मृति अ0 12, श्लोक 122 में जो परमात्मा के शुद्ध स्वर्ण समान कान्तिमान, अणु से भी अणु स्वरूप के ध्यान करने की आज्ञा है, ‘प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि। रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम् ।।’ यथार्थ में परमात्मा के इसी रूप का चिन्तन-ध्यान करना है। इसके साधन का वर्णन चौ0 सं0 292 से 294 तक में है। इसलिए इन चौपाइयों, उनके अर्थों और तत्सम्बन्धी कोष्ठों के वर्णनों को पढ़कर समझिए। अब एक विषय समझने को बच रहा है कि चौ0 सं 700 में वर्णित सरोवर उसके मणिमय सोपान, उसमें भौरों का गुंजार और हंसों का कलरव क्या है ? यथार्थ यह है कि सहस्त्रदल कमल सरोवर है। प्रणव-विन्दु मणिमय सोपान है। सहस्त्रदल कमल में विराजित ज्योति उस सरोवर का शीतल, पवित्र और मीठा जल है। लाल, हरा, पीला, नीला और सफेद रंग के पाँच मण्डल-विद्युत- मण्डल, दीप-शिखावत् ज्योति-मण्डल, नक्षत्र-मण्डल और चन्द्र- ज्योति-मण्डल आदि अनेक ज्योति-मण्डल उस तालाब के विपुल बहुरंग जलज हैं। मीठी-मीठी अनहद ध्वनियाँ हंसों के कलरव और भौंरों की गूँज हैं।]
020
[दो0 सं0 110 में अत्यन्त पुष्ट रीति से माया मिथ्यात्ववाद है। इस सिद्धान्त को मानने से ही अद्वैतवाद सहज ही पुष्ट होता है और साथ ही यह मानना पड़ता है कि इस दोहे के अतिरिक्त यही सिद्धान्त चौ0 सं0 145, 146, 182 और दो0 सं0 27 में वर्णित है।]
021
[दो0 सं0 110 और 27 में तथा चौ0 सं0 145, 146 और 182 में माया-मिथ्यात्ववाद है। त्रयगुण-पसार माया वा प्रकृति के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता है। चौ0 सं0 167 से 169 तक में कहा गया है कि निर्गुण ब्रह्म ही सगुण होता है। तत्त्वरूप में सगुण, निर्गुण ब्रह्म से भिन्न नहीं है। निर्गुण रूप सनातन और सगुण उससे नवीन है। सगुण रूप व्याप्य और निर्गुण व्यापक है। इसी से चौ0 सं0 723 में कहा गया है कि राम व्यापक और व्याप्य (वह स्थान, जिसमें फैलने का काम हो) दोनों हैं। (लोहे के तपाए हुए गोले में अग्नि व्यापक है और वह गोला व्याप्य है।) दो0 सं0 27 और 110 तथा चौ0 सं0 145, 146 और 182 में माया-मिथ्यात्ववाद है। और चौ0 सं0 167 से 169 तक में ऊपर कहा जा चुका ही है कि निर्गुण तत्त्व ही सगुण होता है। अतएव इन दोनों सिद्धान्तों से यही सिद्ध होता है कि अनादि और मूल एक ही (निर्गुण) तत्त्व है, इसी सिद्धान्त को अद्वैतवाद कहते हैं। अद्वैतवाद के अनुसार जबकि अनादि और मूल एक ही निर्गुण तत्त्व सिद्ध होता है, तब व्यापक (सर्वत्र फैलनेवाला अर्थात् मोहित कुल्ल) और व्याप्य (जिसके बाहर-भीतर फैलनेवाला फैले अर्थात् मोहात) के दो रूप अवश्य ही एक ही निर्गुण तत्त्व के होने चाहिए। इसीलिए चौ0 सं0 723 में राम को व्यापक और व्याप्य दोनों कहा गया है।]
022
[दो0 सं0 111 के ऊपर की चौपाइयों में भगवान के केवल निर्गुण, निराकार, निर्मल, आत्मस्वरूप का वर्णन है और चट पट दो0 सं0 111 में कह दिया गया है कि भक्तों के हित के हेतु भगवान प्रभु राम ने नर राजा का शरीर धारण किया। ऐसे वर्णन से यह नहीं समझना चाहिए कि निराकार, निर्गुण, आत्म-स्वरूप राम ने प्रथम बिना किसी विशेष उपाधि के धारण किए ही एकाएक नर राजा का शरीर धारण किया था, बल्कि यह समझना ठीक है कि निराकार, निर्गुण आत्मस्वरूप राम प्रथम क्षीर-समुद्र-वासी विष्णु देव-रूप विशेष आवरण वा उपाधि धारण कर क्षीर-समुद्र में विराजमान थे। (तभी तो उन विष्णु-स्वरूपी सगुण राम को भगवान प्रभु राम कहा गया है; क्योंकि केवल निर्गुण, निराकार, उपाधि (आवरण)-रहित आत्म-स्वरूप को भगवान कह भी नहीं सकते।) और उसी रूप (विष्णु भगवान) को नारद मुनि ने नर राजा का शरीर धरने को शाप दिया था। जिस कल्प के रामावतार की सम्पूर्ण कथा तुलसी-कृत रामचरितमानस में गाई गई है, उसमें रामावतार का कारण नारद का शाप ही है। (चौ0 सं0 208, छन्द 1, चौ0 सं0 212-217, दो0 सं0 31, चौ0 सं0 218, 219, 219 क, 319, छन्द 3, चौ0 सं0 475 से 477 तक के अर्थों और तत्सम्बन्धी कोष्ठ-लिखित लेखों को पढ़कर देखिए।) दो0 सं0 112 से ज्ञात होता है कि जैसे नाटक का पात्र राजा का, देवता का अथवा ईश्वर का रूप बनाकर लीला दिखाता है, परन्तु वह यथार्थ में राजा वा देवता वा ईश्वर कुछ नहीं होता है, वह जो था, सो ही रहता है, उसी तरह निर्गुण, निराकार, आत्म-राम देवता वा मनुष्यादि आकृति धारण करने से देवता वा मनुष्यादि नहीं हो जाते हैं, वे जो हैं, सो ही रहते हैं। इससे जानना चाहिए कि निर्गुण, निराकार आत्म-राम ने केवल लीला (नाटक) के हेतु विष्णु देव वा अवधेश का रूप धारण किया था। ये रूप माया वा छल के थे, यथार्थ नहीं अर्थात् यथार्थ में वे न विष्णु हुए, न अवधेश; बल्कि जो थे, सो ही रहे। इसी तात्पर्य को दिखाने के लिए चौ0 सं0 175 और 177 लिखी गई है। अतएव जबतक उपर्युक्त मायिक रूपों से आगे बढ़कर निर्गुण, निराकार, आत्म-रूप राम को नहीं प्राप्त किया जाय, तबतक राम का पाना असम्भव है।]
023
[रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द को विषय कहते हैं। जिनकी बुद्धि इन्हीं में सनी रहती है, इनसे परे तत्त्व का निश्चय नहीं कर सकती और न इसकी प्रेमिणी बनती है, वे ही विषय-वश हैं।]
024
[जिसको चौ0 सं0 5 में वर्णित साधन-द्वारा दिव्य दृष्टि प्राप्त नहीं है, जानना चाहिए कि वह नेत्र-दोषी है। ऐसे नेत्र-दोषी को राम का स्वरूप, जो यथार्थ में सहज, निर्मल, निर्गुण और निराकार है; श्यामला, काला, घनश्याम और गौर आदि दरसता है।]
025
[राम का सहज निर्मल, निर्गुण और अपरम्पार स्वरूप पूर्व दिशा के तुल्य है। इस दिशा की बोधहीनता दिग्भ्रम-तुल्य है। जिसको ऐसा दिग्भ्रम होता है, वह कहता है कि पश्चिम दिशारूप नराकृति आदि में निर्गुण राम-रूप सूर्य उदित हुए हैं। यथार्थ में वे तो सदा सबमें भरपूर हैं। उनका कहीं से कहीं जाकर प्रकट वा लोप होना नहीं होता है। ये काम (प्रकट वा लोप होना) तो माया के हैं।]
026
[जिनकी बुद्धि रूप-रसादि विषयों में भ्रमण करती है, उनकी समता नौकारूढ़ यात्री वा घूमनेवाले बालक से की गई है। ये भ्रमते तो हैं आप, पर अज्ञान-वश कहते हैं कि सहज, निर्मल, निर्गुण और अपरम्पार स्वरूप राम एक स्थल से दूसरे स्थल तक गए-आए (भ्रमण किए-घूमे)। राम तो सहज, निर्मल, निर्गुण, अपरम्पार स्वरूपी, प्रकृति-पार, सर्वव्यापी और माया-रहित हैं, उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने की आवश्यकता ही नहीं। सर्वव्यापी होने के कारण उनका चलना-फिरना कैसा ? और माया-रहित होने के कारण उनमें माया-सम्बन्धी गुण भ्रमणादि करना भी कैसे हो सकता है ? जैसे यदि आकाश से भरे हुए घट को आकाश (महदाकाश) में एक स्थल से दूसरे स्थल तक भ्रमण कराया जाय, तो जानना चाहिए के इस दशा में घटव्यापी आकाश नहीं, केवल घट ही एक स्थल से दूसरे स्थल तक भ्रमण करता है। उसी तरह शरीरव्यापी सहज, निर्मल, निर्गुण राम शरीर के एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने से भ्रमण नहीं करते हैं। विष्णु-रूप देव-शरीर और रघुवर राम-रूप नर-राज-शरीर कहीं-से-कहीं जाकर प्रकट और लोप अवश्य हुए और हुआ करेंगे। ये शरीर केवल माया-मात्र हैं, (देखिए दो0 सं0 112) पर इनमें व्यापक सहज, निर्मल, निर्गुण, प्रकृति-पर और सर्वव्यापी राम न प्रकट-लोप होते हैं और न भ्रमण करते हैं।]
027
[रामचरितमानस में वर्णन है कि योग से ज्ञान की प्राप्ति होती है और योगिजन (अर्थात् ज्ञानी, क्योंकि योगी होने से ज्ञानी होना निश्चित है।) रघुवर राम को परम तत्त्वमय देखते हैं (देखिए चौ0 सं0 235 और 411), इससे सिद्ध होता है कि परम योगी और परम ज्ञानी को स्वप्न में भी अज्ञान से सम्बन्ध नहीं रहेगा। वे राम के परम तत्त्वमय अर्थात् सहज, निर्मल, निर्गुण स्वरूप को ही देखेंगे। अतएव जिनकी बुद्धि में राम के इसी स्वरूप का सत्य निश्चय है, उनको स्वप्न में भी अज्ञान का लगाव नहीं है। जिनकी बुद्धि में इस स्वरूप का निश्चय नहीं है, जो राम-स्वरूप को श्यामला आदि कोई भी मायिक रंगवाला, भ्रमण करनेवाला तथा प्रकट और लोप होनेवाला अपनी बुद्धि में निश्चय करके जानता है, वह हरि के विषय में मोह-अज्ञान से ग्रसित रहता है, जैसा कि चौ0 सं0 730 से 733 तक में वर्णन किया गया है।]
028
[अन्तर में स्थूल, सूक्ष्म और कारण (अर्थात् अन्धकार, प्रकाश और शब्द) के बहुत प्रकार के परदे लगे हैं। ये परदे रामचरितमानस में वर्णित नवधा भक्ति-योग के पूर्ण साधन से दूर होते हैं।]
029
[जिन्होंने योगाभ्यास द्वारा अपनी अज्ञानता दूर नहीं की है, वे ही मूर्ख अपनी अज्ञानता के कारण हठ-वश सन्देह करते हैं कि राम प्रकट हुए, राम लोप हुए, वे किसी मायावरण-धारी शरीरवाले और रूपवाले थे, जिन्होंने भ्रमण किये थे इत्यादि। अज्ञानता दूर नहीं होने के कारण बुद्धि रूप-रसादि विषयों में फँसी रहती है, राम के परम तत्त्वमय सहज, निर्मल, निर्गुण स्वरूप का निश्चय नहीं कर सकती है, इसी कारण वे अज्ञानी अपनी अज्ञानता (कि राम प्रकट और लोप हुए आदि) राम पर धरते हैं।]
030
[रघुपति राम को धनुषधारी, श्यामली मूरत, कौशल्या माता के उदर से प्रकट होनेवाले, अपने धाम क्षीर-समुद्र को फिर जानेवाले (लोप होनेवाले), रावण को मारनेवाले आदि-आदि कहकर जान सकनेवाले बहुत हैं। नर-तन-धारी रघुवर राम के समकालीन बहुत-से मनुष्यों ने उनको उपर्युक्त वेश और लीला में देखा भी था; परन्तु उनके परम तत्त्वमय, सहज, निर्मल, निर्गुण स्वरूप को उसी समय में योगिजनों को छोड़ दूसरे मनुष्य नहीं जान सके थे और न वर्त्तमान काल में जान सकते हैं। अतएव यदि राम के असली स्वरूप को पाना हो, तो अपने अन्तर में अन्धकारादि सब आवरणों को योगाभ्यास के द्वारा दूर करना चाहिए। काम, क्रोधादि विकारों को दमन करना और मन में विरक्ति लानी चाहिए। रघुवर राम के माया-सम्बन्धी रूपों के वर्णनों को पुराणादि से पढ़-सुनकर तथा किसी मन्दिर में उनकी प्रतिमा वा चित्र देखकर उनके असली स्वरूप-परम तत्त्वमय, सहज, निर्मल, निर्गुण स्वरूप को पाना असम्भव है। हाँ, भक्ति-योग के आरम्भ में प्रथम राम के मायिक रूप को ही मन में टिकाकर ध्यानाभ्यास किया जाता है। इसलिए पुराणों में प्रतिमा, चित्र और अन्य मायिक रूप का वर्णन तथा मन्दिरों में प्रतिमाओं की स्थापना की बात है। पर यहीं तक भक्ति-योग का साधन समाप्त नहीं हो जाता। (इसका सम्पूर्ण साधन अरण्यकाण्ड में नवधा भक्ति के किए गए वर्णन में देखिए) इसके आगे मनुस्मृति में वर्णित राम के अणु से भी अणु रूप, फिर ज्योति-रूप के भिन्न-भिन्न रूपों, उनके शब्द-रूप अर्थात् ध्वन्यात्मक राम-नाम वा सत्य-नाम को ग्रहण कर उनके परम तत्त्वमय स्वरूप की प्राप्ति कर लेने पर साधन समाप्त होता है। जैसे जल में पड़ा हुआ प्राणी जल ही के सहारे तैरता हुआ-उसकी एक हद से दूसरी हद तक पार करता हुआ अन्त में जल-राशि को पार कर स्थल पर आ जाता है, उसी तरह माया में पड़ा हुआ प्राणी सर्वेश्वर राम के देव वा नर आदि किसी मायिक रूप के सहारे से अभ्यास आरम्भ करके माया-विस्तार से पार होने को चल पड़ता है। (जानना चाहिए कि राम का मायिक रूप केवल दाशरथि रघुवीर ही नहीं है, बल्कि राम सर्वव्यापी हैं, इस कारण सारा-का-सारा विश्व, विश्व के एक अणु से परम प्रकाण्ड पिण्ड-विश्वरूप वा विराट रूप तक सब उन्हीं के रूप हैं।) फिर उनके अणु-से-अणु रूप, ज्योति-रूपों, फिर शब्द-रूपों का क्रम से सहारा ले-लेकर अभ्यासी माया-विस्तार को टपकर उनके (राम के) सहज, निर्मल, निर्गुण स्वरूप को पा जाता है। फिर उसे कुछ पाने को रह नहीं जाता है। परन्तु जैसे जल-राशि (अपार जल) में पड़ा हुआ मनुष्य उससे पार होने के लिए उसके एक ही भाग को जकड़कर पकड़ रखे, क्रमशः आगे न बढ़े और ख्याल करे कि मैं इसी (भाग) के सहारे जल-राशि को टप जाऊँगा, तो वह असफलमनोरथ होकर जल में डूब मरेगा। उसी तरह माया के केवल एक ही प्रकार-रूप (जो प्रथम ग्रहण हो सकता हो) को जकड़कर पकड़ रखनेवाला-उसके आगे न बढ़नेवाला अभ्यासी यह मनोरथ करे कि मैं माया से मुक्त होऊँ, तो वह असफल मनोरथ होगा और माया के महासागर में ही गोता खाता रहेगा।]
031
[पहले अनेक स्थानों पर सिद्ध कर दरसा दिया गया है कि सीता-वर (नर-रूप राम) विष्णु के अवतार हैं और चौ0 सं0 284-285 से प्रकट होता है कि विष्णु भी पूर्ण ज्ञानी नहीं हैं। श्रीराम ने नर-रूप में तो शोक और विलाप आदि अज्ञानियों की भाँति की भी लीला है (‘मनहु महा बिरही अति कामी ।’ - तृतीय सोपान)। तब जो यहाँ पर ‘ज्ञान अखंड एक सीता बर ।’ कहा गया है, वह भगवान के सहज रूप को ही लक्ष्य करके कहा गया है, न कि उनके देव वा नर आदि किसी मायामय सगुण रूप को।]
032
[रामचरितमानस के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी अनेक हैं। ‘श्रीकन्ता’ विष्णु भगवान के अतिरिक्त और कौन हो सकते हैं ? यहाँ पर ‘एक श्रीकन्ता’ से तात्पर्य विष्णु-शरीर-व्यापी केवल आत्मराम का है, न कि आत्मराम से व्याप्त विष्णु रूप का। परम तत्त्वमय आत्मराम एक ही हैं। वे सब शरीरों में व्याप्त होकर भी खण्ड-खण्ड होकर अनेक नहीं होते; बल्कि अनेक घट-मठों में व्याप्त एक ही आकाश की तरह वे एक ही अखण्ड रूप से व्यापक हैं।]
033
[जीव और ईश्वर में भेद बतलाकर भी यही माना गया कि माया-कृत भेद मिथ्या है, हरि-कृपा से यह दूर हो जाएगा। चौ0 सं0 286 का तात्पर्य भी यही है कि अन्त में जीव-ब्रह्म का भेद मिट जाता है।]
034
[भक्त जबतक अपने अन्तर में साधन के द्वारा अपने इष्ट-देव का निर्मल, निर्गुण, अज, अनादि, अनन्त, आत्मराम, सहज स्वरूप प्राप्त नहीं कर सकता है, तभी तक उसे सेवक-सेव्य का भेद बना रहता है; क्योंकि चौ0 सं0 741 में कहा गया है कि भेद मिथ्या है, पर हरि-कृपा से दूर होता है। और चौ0 सं0 286 में कहा गया है कि ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई’ । तात्पर्य यह कि जो भक्त वचन-अगोचर, बुद्धि पर, अविगत, अकथ और अपार राम को वा निर्मल, निर्गुण और सहज आत्मरूप राम को जान लेता है, उसका सेवक-सेव्य भेद-भाव मिट जाता है-वह राम ही हो जाता है । ऐसी दशा में उसे विद्या वा अविद्या माया कैसे व्यापे ? वह तो माया-ईश वा माया के दोनों रूपों का प्रेरक ही हो जाता है। और जबतक भक्त इस सर्वोच्च पद तक नहीं पहुँचता है, तबतक ही वह राम-भक्त (राम नहीं) कहलाता है और उसको प्रभु-प्रेरित विद्या-माया व्यापती है, जिससे वह ऐसे अवसर पर व्याकुल, त्रसित और शोकित आदि होता रहता है। जैसे कागभुशुण्डि, राजा दशरथ और अर्जुन आदि हुए थे। इसलिए जो अपना परम कल्याण चाहे, व्याकुलता, त्रास और शोक आदि दुःखों से बचना चाहे, उसे चाहिए कि प्रथम सेवक-सेव्य भाव रखकर भक्ति-पथ में आगे बढ़ता जाय और अन्त में उपर्युक्त सर्वोच्च पद पर पहुँच सेवक-सेव्य भेद-भाव को छोड़ अविगत, अकथ, अपार रूप राम ही बनकर माया-प्रेरक बने, न कि विद्या-माया के वशवर्ती रह समय-समय पर व्याकुलता, त्रास और शोकादि से पीड़ित होवे।]
035
[यदि भक्ति-मार्ग में उस पद तक रहे, जहाँ उस पर विद्या- माया व्याप सके, तो वह भेद-भक्ति में विशेष होता हुआ उसे धारण किए रहेगा और उस दशा में रहने का फल जो चौ0 सं0 743 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में लिखा गया है, अवश्य भोगता रहेगा।]
036
[सो0 122 में वर्णित सुख कौन-सा है ? अवधपुरी कौन-सी हैं ? इनके उत्तर में यदि कहा जाय कि दाशरथि राम की बाल- लीलाओं को देखने से जो सुख होता है, वही ऊपर कथित सुख है और अवधपुरी वही है, जो भारतवर्ष में जिला फैजाबाद के अन्तर्गत अयोध्या नाम से विख्यात है और जिसमें हनुमान-गढ़ी आदि प्रसिद्ध स्थान हैं, तो विचार से ये उत्तर ठीक नहीं जँचते। क्योंकि- ‘अवधपुरी नर नारि, तेहि सुख महँ सन्तत मगन।’ के अर्थ के अनुसार भूत, वर्तमान और भविष्यत्; तीनों कालों में वहाँ के नर-नारी को उस सुख में मग्न रहना चाहिए। पर यथार्थ में यह बात देखी नहीं जाती है; क्योंकि देखिये रामजी के राजत्व काल ही में एक धोबी राम और सीता की निन्दा क्योंकर कर सका था ? और भी देखिए कि राम-राज्य में शूद्र के तप करने से ब्राह्मण-पुत्र मर गया, तब ब्राह्मण ने शोकित-क्रोधित हो भरी सभा में राम को कठोर वचन कह डाला। क्या उनसे भी ऐसे कर्म और चरित्र हो सकते हैं, जो सदा रामजी की बाल-लीला प्रत्यक्ष देखने, सुनने वा उनका गुण गाने वा चिन्तन करने के सुख में मग्न रहते हैं।
यह बात निर्विवाद है कि शिवजी महायोगी हैं। ‘जोगिन प्रभुहि तत्त्वमय भासा ।’ के अनुसार वे परम तत्त्वमय अर्थात् सहज स्वरूप में लगे हुए हैं। रामचरितमानस प्रथम सोपान में लिखा भी है-‘संकर सहज सरूप सँभारा । लागि समाधि अखंड अपारा।।’ इससे मानना पड़ेगा कि अवधपुरी के नारी-नर ‘सहजरूप’ के सुख में सदा मग्न रहते हैं। अब यह जानना है कि ‘सहज स्वरूप’ का वर्णन गो0 तुलसीदासजी, क्या करते हैं।
विनय-पत्रिका में लिखा है-‘जिय जब तें हरि तें बिलगानेउ । तब तें देह गेह निज जानउ ।। माया बस सरूप बिसरायेउ । तेहि भ्रमतें नाना दुख पायेउ ।। तहँ मगन मज्जसि पान करि त्रयकाल जल नाहीं जहाँ । निज सहज अनुभव-रूप तव खल, भूलि अब आयउँ तहाँ ।। सेवत साधु द्वैत भय भागे । श्रीरघुवीर चरण लय लागे ।। देह जनित विकार सब त्यागे । तब फिर निज सरूप अनुरागे ।। अनुराग सो निजरूप जो जग तें बिलच्छन देखिये । सन्तोष सम सीतल सदा दम देहवन्त न लेखिये ।। निर्मल निरामय एक रस तेहि हर्ष शोक न व्यापई । त्रयलोक पावन सो सदा जाकी दसा ऐसी भई ।।’
इन पदों में ‘सरूप’, ‘निज सहज अनुभव रूप’ और ‘निज रूप’ निर्मल आत्म-स्वरूप को कहा गया है और ‘सहज सरूप’ भी ‘सहज अनुभव रूप’ वा ‘आत्म-स्वरूप’ से भिन्न दूसरा कुछ नहीं है। ‘विनय-पत्रिका’ के ये (उपर्युक्त) पद बतलाते हैं कि साधु सेवा से पहले रघुपति-चरण में लव लगता है अर्थात् सगुण ब्रह्म में प्रेम होता है, तब देह जनित विकार छूटते हैं और अन्त में निज स्वरूप वा सहज स्वरूप वा सहज अनुभव रूप में अनुराग होता है। रामचरितमानस में लिखा है कि जब सती ने राम की परीक्षा के लिए सीता का रूप धारण किया था और शंकरजी ने इस बात को ध्यान में जान लिया था, तब वे मन में सती का संग छोड़ सतासी (87) हजार वर्ष तक अखण्ड समाधि में सहज स्वरूप सम्हाल उसमें लगे रहे। इससे साफ प्रकट होता है कि शंकरजी ‘सहज सरूप’ के सुख में लगे रहते हैं, न कि सगुण रूप के दर्शन आदि के सुख में। हाँ, यह बात ठीक है कि उपासना के आरम्भ में जैसा कि ऊपर में ‘विनय-पत्रिका’ का प्रमाण लिखा जा चुका है, उपासक को सगुण रूप में ऐकान्तिक भाव से लगना पड़ता है और शंकरजी भी अवश्य ही उस भाव में लगे होंगे; पर रामचरितमानस से ही विदित होता है कि कागभुशुण्डि और गरुड़ से जिस काल में संवाद हुआ था, उसके प्रथम ही श्रीशंकरजी ‘सहज सरूप’ के सुख में लगे हुए हैं और दो0 सं0 122 के अनुसार अवधपुरी के स्त्री-पुरुष इसी (शिवजी वाले) सुख में लगे रहते हैं। पर यह सिद्ध नहीं हो सकेगा कि फैजाबाद जिला के अन्तर्गत की अवधपुरी के नारी-नर सदा इसी सुख में लगे रहते थे वा लगे रहते हैं। हाँ, वशिष्ठजी और उनके तुल्य, वहाँ पहले भी उस सुख में लगे थे और अब भी कोई वैसे हो सकते हैं, पर भूतकाल में श्रीराम के पिता दशरथ जी के विषय में रामचरितमानस में ऐसा नहीं गाया गया है कि वे श्रीशंकरजी की तरह समाधि-द्वारा ‘सहज सरूप’ में लगकर उसका सुख प्राप्त कर सकते थे। इस कारण यह अवश्य ही मानना पड़ता है कि वह अवधपुरी दूसरी ही है, जिसके नारी-नर ‘सहज सरूप’ के सुख में लगे रहते हैं। रामचरितमानस के प्रथम सोपान-बालकाण्ड में लिखा है कि ‘सन्त सभा अनुपम अबध सकल सुमंगल मूल ।’ अर्थात् दूसरी अवधपुरी सन्तों की सभा है, जिसके नारी-नर ‘सहज सरूप’ के सुख में सर्वदा लगे रहते हैं, इसमें कुछ सन्देह नहीं; क्योंकि सत्संग की महिमा अगम है; यथा-‘तात स्वर्ग अपबर्ग सुख, धरिय तुला इक अंग । तूल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सत्संग ।। दो0 सं0 123 में कहा गया है कि दो0 सं0 122 में कहे गए सुख को जो एक बार स्वप्न में भी पा लेता है, वह इस (सुख) के आगे ब्रह्म-सुख को तुच्छ समझता है। यहाँ ब्रह्म-सुख का अर्थ निर्गुण ब्रह्म-प्राप्ति का सुख नहीं है; क्योंकि यहाँ ब्रह्म का अर्थ निर्गुण ब्रह्म नहीं, बल्कि ब्रह्मा है। सहज रूप, सहज अनुभव रूप, निज रूप वा आत्मरूप; जिसका वर्णन पहले हो चुका है, वही तत्त्व है, जो निर्गुण ब्रह्म है। इसीलिए रामचरितमानस में ‘सो तुम ताहि तोहि नहिं भेदा ।’ कहा गया है। इसी के बारे में लोमशजी ने कहा कि यह उपदेश ‘परम सुख’ है। (इसका विशेष वर्णन यथा-स्थान देखिए।) अतएव निर्गुण ब्रह्म-प्राप्ति और सहज सरूप-प्राप्ति का सुख एक ही है। यदि दोहा सं0 123 में ब्रह्म-सुख का अर्थ निर्गुण ब्रह्म-प्राप्ति का सुख किया जाय, तो दो0 122 और 123 को मिलाकर सारांश निकलता है कि जो सहज सरूप के सुख में लगे रहते हैं, वे निर्गुण ब्रह्म-प्राप्ति के सुख को तुच्छ समझते हैं। ऐसा अर्थ बुद्धि संगत नहीं होगा; क्योंकि ऊपर बतलाया जा चुका है कि सहज सरूप और निर्गुण ब्रह्म एक ही तत्त्व है। रामचरितमानस में ब्रह्म, ब्रह्मा को भी कहा गया है; यथा-‘मोर बचन सबके मन माना । साधु साधु करि ब्रह्म बखाना ।।’ (प्रथम सोपान-बालकाण्ड ) और भी-‘जब रावनहिं ब्रह्म बर दीन्हा । चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ।।’ (पंचम सोपान -सुन्दरकाण्ड)
इसलिए दो0 सं0 123 में ब्रह्म का अर्थ है ब्रह्मा और ब्रह्म- सुख का अर्थ है ब्रह्मा का सुख अर्थात् वह सुख जो ब्रह्माजी अपने लोक में रहकर भोगते हैं। सहज सरूप में लगे रहने के सुख के सामने ब्रह्मा का यह सुख निश्चय ही तुच्छ है; क्योंकि ब्रह्मा का सुख स्वर्गीय सुख है। रामचरितमानस में लिखा है कि ‘स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई’, पर ‘सहज सरूप’ के सुख को विनय-पत्रिका में ‘निर्मल, निरंजन, निर्विकार, उदार सुख’ कहा गया है।]
037
[अनुभव = ‘निज सहज अनुभव-रूप’ की प्राप्ति होने पर जो ज्ञान उत्पन्न होता है, इसका वर्णन सो0 सं0 123 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में पढ़िए । हरि-भजन = हरि के दोभुजी, चतुर्भुजी वा बहुभुजी मायिक रूपों के सहारे उपासना कर, चित्त का निरोध कर चौ0 सं0 292 और 293 में कथित साधन से हरि के विन्दु-रूप को प्राप्त करते हुए उसके आगे चौ0 सं0 459 में वर्णित भक्ति के द्वारा उनके उस रूप को, जो सो0 सं0 42 में वर्णित है, प्राप्त करना है। सारांश यह कि चौ0 456 से 459 तक में वर्णित भक्ति के साधनों को करना हरि-भजन है।]
038
[सबमें एक ब्रह्म देखना ज्ञान है (देखिये चौ0 सं0 409)। सब विविधताओं का एक ही ब्रह्मरूप होकर एकता में दरसना विज्ञान है (देखिए चौ0 सं0 459)। जैसे आकाश के बिना कोई स्थान नहीं पा सकता है, उसी तरह विज्ञान की प्राप्ति किए बिना कोई समता नहीं पा सकता है। चौ0 सं0 459 में वर्णित नवधा भक्ति की 7 वीं भक्ति के साधन से विज्ञान प्राप्त होता है और विज्ञान की प्राप्ति होने पर भक्ति का साधन पूर्ण हो जाता है। नवधा भक्ति की आठवीं और नौवीं भक्ति तो 7 वीं भक्ति का फल-रूप ही है। इस हेतु कहा जा सकता है कि भक्ति-मार्ग में विज्ञान की उपयोगिता और उसका महत्व सबसे अधिक है।]
039
[जल का गुण रस है। जैसे जल-बिना रस नहीं होता है, उसी तरह तप के बिना तेज नहीं बढ़ता है। विषय-भोग में लिप्त नहीं होना तप है। भक्ति-मार्ग में तप की बड़ी आवश्यकता है। चौ0 सं0 919 में लिखा है कि भक्ति-रूपी औषधि के सेवन करने में संयम यही है कि विषय की आशा नहीं रखे। (यथा-‘संयम यह न बिषय की आसा।’)]
040
[सम्पूर्ण आकाश के अवकाश का सौ करोड़ गुणा अवकाश राम में स्थित अवकाश से अत्यन्त तुच्छ है। इसलिए आकाश को राम से बाहर मानना निरा-बालकपन है। यदि ऐसे अवकाशवाले शरीर को धरनेवाले सगुण राम माने जावें, तो उनको शरीर के अवयवों के बाहर प्रति ओर तथा एक अवयव को दूसरे अवयव के पृथक् करते हुए अवयवों के बीच-बीच में आकाश का होना माने बिना कदापि बन नहीं सकता है; क्योंकि यदि ऐसा न माना जाय, तो वह शरीर है और वह शरीर का अवयव है; इस प्रकार पृथक्-पृथक् दोनों की पहचान नहीं हो सकती है। फिर पहचान करनेवाले के लिए भी उस शरीर के बाहर आकाश-हीनता के कारण स्थान नहीं रह सकता कि जहाँ रहकर वह शरीर और उसके अवयवों को पहचान सके। अतएव सम्पूर्ण आकाश से असंख्य गुणा विस्तृत परम विराट्मय अत्यन्त सुन्दर और परम आश्चर्यमय कोई भी शरीरधारी सगुण रूप नहीं हो सकता है कि जिसके बाहर आकाश न हो। यदि उसके बाहर आकाश माना जाएगा तो यह भी निश्चय ही मानना पड़ेगा कि जितना बड़ा आकाश उस रूप के भीतर है, उससे अधिक विस्तृत आकाश उससे बाहर है, और ऐसा मानने पर ‘नभ सत कोटि अमित अवकासा’ कहना अत्यन्त मिथ्या और निरर्थक होगा। इसलिए देह-रहित निर्गुण राम को ही ‘नभ सत कोटि अमित अवकासा’ का रूप कहा है वा उसी में यह परम अवकाश है, ऐसा माने बिना कदापि काम नहीं चल सकता है। अतएव चौ0 सं0 776 से छन्द 9 पर्यन्त जो परम आश्चर्यमयी महिमा गाई गई है, वह शरीरधारी सगुण राम की नहीं है, निर्गुण स्वरूप राम की है। रामचरितमानस को ये दो बातें स्वीकार हैं कि (1) राम का प्रथम पुरातन और सहज स्वरूप अगुण, अरूप, अलख और अज है। (2) जैसे जल से पाला और ओला बनता है, वैसे ही निर्गुण से ही सगुण होता है। (देखिए चौ0 सं0 168-169)।
इन दोनों सिद्धान्तों के अनुसार कामदेव, दुर्गा, इन्द्र, नभ, मरुत, रवि, शशि, काल, अग्नि, पाताल, यमराज, तीर्थ, हिमगिरि, सिन्धु, कामधेनु, सरस्वती, विधि, विष्णु, रुद्र, कुबेर, माया और शेषनाग अपने-अपने गुण, शक्तियों और प्रसाद आदि के सहित सगुण होने के कारण निर्गुण रूप राम से ही जल से हिम और उपल के समान उपजते हैं। निर्गुण रूप राम सब प्रकार आदि-अन्त-रहित हैं। (देखिए चौ0 सं0 185 और 723) इस कारण कहे गए सब सगुण देवादि में से प्रत्येक गणना में चाहे कितना भी अधिक उपजें, फिर भी ये सब मिलकर उस परम स्वरूप (निर्गुण राम) के सम्मुख सर्वथा अत्यन्त तुच्छ निश्चय ही रहेंगे। रामचरितमानस के अनुसार जैसे उपल पिण्ड में ओत-प्रोत केवल जल-ही-जल है-वह जलांश का ही दूसरा रूप है; उसी प्रकार कोई भी स्थूल-सूक्ष्म रूप निर्गुण स्वरूप राम से ओत-प्रोत, भरा हुआ होकर निर्गुण स्वरूप रामांश का ही दूसरा रूप है (अंश-अंशी का भेद चौ0 सं0 78 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में पढ़कर जानिए।) दाशरथि सगुण नर-रूप राम, विष्णु-अवतार थे, यह बात कई स्थानों पर रामचरितमानस के ही आधार पर सिद्ध करके दिखलाई गई है। उन्हीं राम को सूर्य और विष्णु को जुगनू मानना निरी भूल है। हाँ, निर्गुण रूप राम को, जिनसे सगुण राम और विष्णु-शरीर व्याप्त है, सूर्य माना जाय और सगुण राम तथा विष्णु-शरीर जुगनू माने जायँ, तो यह अत्यन्त निर्भ्रम और मानने योग्य है।
चौ0 सं0 776 से दोहा सं0 129 तक में राम की महिमा और बड़ाई को पढ़कर बहुतों की धारणा है कि इस तरह की बड़ाई और महिमा गो0 तुलसीदासजी की अतिशयोक्ति है। श्रीराम के पक्ष में अतिरोचक है, अतिरंजित है। परन्तु मुझे उन बहुतों की धारणा यथार्थ नहीं जानने में आती है। यदि गो0 तुलसीदासजी महाराज ‘राम’ कहकर केवल सगुण-साकार को ही जानते तो उन बहुतों की धारणा यथार्थ कही जा सकती; परन्तु गो0 तुलसीदासजी महाराज राम को निर्गुण स्वरूपी भी अवश्य मानते हैं। और रामचरितमानस में राम-स्वरूप को अनेक स्थलों पर ‘अविगत, अलख, अपार, अनन्त, अखण्ड, अज, निर्गुण, निराकार, प्रकृति-पार और नित्य निरंजन’ आदि भी कहकर जानते हैं। देखिए-चौ0 सं0 77, 105, 119, 168, 173, 185, 190, 195, 209, 211, 240, 274, 275, 288, 722 से 726 पर्यन्त और दो0 सं0 32, 35, 42 इत्यादि। और राम परमात्मा का मूलस्वरूप ‘अगुण अखण्ड अलख अज’ ही बतलाते हैं; तब निर्गुण-अखण्ड-अपार के लिए चौ0 सं0 776 से दोहा 129 तक में वर्णित महिमा और बड़ाई पूर्णरूपेण यथार्थ है। हाँ, यह अवश्य कहेंगे कि श्रीगोस्वामीजी ने सगुण उपमाओं के द्वारा सगुण-साकार रूप राम को नहीं, बल्कि उनके निर्गुण स्वरूप को दरसाया है। यह गोस्वामीजी महाराज की विलक्षण और अति गंभीर बुद्धि की विशेषता है।
सगुण और साकार रूपों के उत्कर्ष को पराकाष्ठा तक पहुँचाकर उनको भी तुच्छ कर देने से तब निर्गुण-निराकार के अतिरिक्त दूसरे कुछ का बोध नहीं हो सकता है। चौ0 सं0 776 से दोहा सं0 129 तक में सगुण-साकार रूपों को पराकाष्ठा तक पहुँचाकर फिर अति तुच्छ कर दिया है; क्योंकि विश्व के सम्पूर्ण जुगनुओं को भी मिलाकर कैसे कहा जायगा कि सूर्य उन जुगनू-समूह के तुल्य है ?]
041
[यहाँ पर प्रश्न हो सकता है कि प्रथम निर्गुण स्वरूप राम की ही महिमा का वर्णन करके तुरत ‘सीता-रमण’ सगुण नर-रूप- धारी का भजन क्यों करने को कहा गया ? इसका उत्तर दो0 सं0 113 के अर्थ के नीचे कोष्ठ के सम्पूर्ण विचारों को समझकर पढ़ने पर मिलेगा।]
042
[कवि ने ‘जौं हरि बिधि संकर सम होई’ ऐसा नहीं लिखा।]
043
[सब ब्रह्माण्डों का नाश महाप्रलय है।]
044
[योग-साधन से जब सबमें समान ब्रह्म दरसे, तब समझना चाहिए कि ज्ञान की प्राप्ति हुई (देखिए चौ0 सं0 409, 411)। ज्ञान से विज्ञान विशेष है। (देखिए चौ0 सं0 753), इसलिए योग में विशेष उन्नति करने पर विज्ञान का प्राप्त होना सम्भव है। विज्ञान से समता प्राप्त होती है (देखिए चौ0 सं0 772)। विज्ञान, ज्ञान से विशेष इसलिए है कि सबमें समान ब्रह्म दरसना ज्ञान है और इससे विशेष यह है कि सबमें नहीं, बल्कि सब-का-सब एक ही ब्रह्म दरसे अर्थात् नानात्व मिटना और कैवल्यता-मात्र रह जाना पूर्ण समता है और यही विज्ञान है और चौ0 722 में तो राम को विज्ञान रूप ही कहा गया है। अतएव विज्ञान का फल रघुवर राम के मायामय नाना रूपों (नराकृति आदि) सगुण के पद में प्रेम होना मानना अविचार, अन्ध-ज्ञान और बाल-बुद्धि है। हाँ, दोहा सं0 43 में वर्णित रघुवर राम के रूप अर्थात् उनके सहज निर्गुण रूप में प्रेम होना मानना, विज्ञान का फल उचित और सद्विचारयुक्त है। जानना चाहिए कि विज्ञान का फल भेद-भक्ति नहीं है। इसका फल अभेद भक्ति है। योगी जन प्रभु के ‘अकथ अनामय नाम न रूपा’ स्वरूप निर्गुण रूप के अनुपम सुख को प्राप्त करते हैं। ये ही ज्ञानी भक्त कहलाते हैं, जो चारो प्रकार के भक्तों में प्रभु के विशेष प्यारे हैं (देखिए चौ0 सं0 92, 93, 98)। शेष तीन प्रकार के भक्तों में से जिज्ञासु अपूर्ण है, अर्थार्थी और आर्त्त राम के विज्ञान-रूप को प्राप्त नहीं कर सकते, वे भेद-भक्ति (सगुण की आसक्ति) में लगे रहते हैं। ऐसे भक्त महान तप-द्वारा भक्ति करके सगुण राम से उनके समान पुत्र पाने का वरदान पाकर, बल्कि उनको नर-रूप में पुत्र पाकर भी पूर्ण क्षेम-कल्याण नहीं प्राप्त कर सके। यह बात राजा दशरथ और वसुदेव की कथाओं से भली भाँति प्रमाणित है। फिर इन्हीं राजाओं और पाण्डव आदि की कथाओं से यह बात पूर्ण रूप के स्पष्ट है कि सगुण राम को पुत्र, मित्र आदि रूप में पाकर और उनके साथ वर्षों रहने पर भी मोह-रहित होकर परम ज्ञान को प्राप्त नहीं होता है। इसी हेतु श्रीकृष्ण भगवान ने अपने पिता वसुदेवजी को नारदजी से ज्ञानोपदेश कराया था और अपने चाचा अक्रूरजी को हिमालय में जाकर तप करने को कहा था (देखिए भागवत), फिर कागभुशुण्डि कहने लगे कि इस काग-शरीर से मुझे भक्ति प्राप्त हुई है। इस कारण मुझे यह शरीर प्यारा है।]
045
[परमानन्द-दायक प्रभु की भक्ति में लगना परम हितकर है। दुराचारी पुरुष, चाहे वह किसी जाति का हो, नीच है। डोम, चमार आदि वर्णों में गिने जाते हैं, परन्तु वे सब-के-सब नीच नहीं हैं। नीच वर्णों में भी उच्च चरित्र के पुरुष होते हैं। श्रीकृष्ण ने पाण्डवों के द्वारा उनके यज्ञ में काशी से वाल्मीकि डोम को सादर निमन्त्रित कर भोजन कराकर यज्ञ पूर्ण करवाया। परम भक्तिमती राजकुमारी मीराबाई ने अपना परम हित जानकर रविदास को, जो जाति के चमार थे, गुरु धारण किया और भक्तमाल के कर्त्ता डोम जाति के नाभाजी की मान्यता इसी विचार से स्वीकार की जाती है।]
046
[योग से ज्ञान और ज्ञान से मोक्ष होता है (दे0 चौ0 सं0 411)। भक्ति का भी अन्तिम फल मोक्ष ही है। चौ0 सं0 450 से छन्द 5 पर्यन्त पढ़िए। उससे विदित होगा कि शवरी (जिसको स्वयं भगवान ने चौ0 सं0 463 में भक्ति में सब प्रकार से पूर्ण कहा है) हरि-पद में लीन हुई, जहाँ से कोई भी संसार में नहीं लौटता है। इसी वर्णित लीनता को मोक्ष कहते हैं। इससे भिन्न दूसरे प्रकार का मोक्ष काल्पनिक वा कथन-मात्र है, सत्य नहीं है। और ‘अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लोभाने ।।’ इस चौ0 को पढ़कर मोक्ष-रस से और कोई विशेष हितकर रस है, ऐसा समझना निरा बालकपन है। इसका वर्णन आगे उचित स्थान पर दिया गया है। अब यदि कागभुशुण्डि अपने पूर्व जन्मों में सुखी नहीं हुए थे, तो इसका सत्य-सत्य कारण यही है कि उन जन्मों में वे योगभ्यास में उन्नति नहीं कर सके थे, जिससे योग का फल ज्ञान और ज्ञान का फल मोक्ष उनको प्राप्त होता और फलतः वे सुखी हो जाते। चौ0 797 से 799 तक में वर्णित लेखों को पढ़कर यह फल नहीं निकाल लेना चाहिए कि योग से सुख नहीं होता है; क्योंकि ऐसा करना रामचरितमानस व भागवतादि पुराणों के नितान्त विरुद्ध होगा। भक्ति-मार्ग में मनुष्यों के चित्त को अत्यन्त आकर्षित करने के हेतु चौ0 सं0 797-799 तक में तथा अन्यत्र भी इसी भाँति की वार्त्ता का कवि ने वर्णन किया है।]
047
[चारो युग-काल के पृथक्-पृथक् चार विभाग हैं। इनके धर्मों को काल-धर्म कहते हैं। कहे गए काल-धर्मों में जो खोटे हैं, वे परम प्रभु राम के प्रेमी को नहीं व्यापते। चौ0 808 का यही आशय है। चौ0 802 से 808 तक को खूब याद रखिए और इस विचार को मन से निकाल दीजिए कि योग-ध्यानादि काल-धर्म के अनुसार अब कलिकाल में नहीं हो सकेंगे। देखिए, इसी कलिकाल में महात्मा बुद्ध, शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, कबीर साहब, नानक साहब और गो0 तुलसीदासजी आदि बहुत-से ज्ञानी, योगी, परम भक्त, सन्त आदि हुए हैं। अतएव इस विचार को पकड़े रहना और फैलाना कि कलिकाल में योग-ध्यानादि नहीं हो सकते, आलसी, प्रमादी और राक्षसी प्रकृति के लोगों का काम है।]
048
[राम नट हैं। उनकी विविधता उनका छल वा माया है। उनके सच्चे सेवक को यह छल नहीं व्यापता है।]
049
[गुरु-उपासना से बढ़कर दूसरी उपासना नहीं है।]
050
[अभी कागभुशुण्डि होनेवाले यह ब्राह्मण ज्ञान और भक्ति आदि में पूर्ण हुए नहीं हैं, केवल जिज्ञासु ही हैं। यदि निर्गुण मत इनको नहीं सुहाता था, तो जानना चाहिए कि यह इनकी अल्पज्ञता थी, इसलिए इनके इस समय के ज्ञानाधार पर निर्गुण सिद्धान्त को तुच्छ और अनुपयोगी जानना घोर मूर्खता है। कागभुशुण्डि होकर जब ये पूर्ण हुए हैं, उस समय का इनका ज्ञान निर्गुण मत को किस विशेषता से महत्त्व देता है और सगुण को भ्रमोत्पादक बतलाता है, यह दो0 सं0 144 को पढ़कर जानिए। चौ0 818 से और इसके आगे चलकर लोमश मुनि ने जो ज्ञानोपदेश किया है, उससे प्रकट होता है कि अत्यन्त प्राचीन काल में निर्गुण मत का विशेष प्रचार था। जिस किसी से ईश्वर-विषयक प्रश्न किया जाता था, वह निर्गुण स्वरूप ही बतलाता था। इससे अनुमान किया जा सकता है कि भारत में जबसे अज्ञानता और अन्धविश्वास विशेष रूप से व्यापा है, तभी से ब्रह्म के केवल सगुण रूपवाले सगुण मत का विशेष प्रचार हुआ है। यदि यह अनुमान ठीक न हो तो कहना-पड़ेगा कि जिस काल में कागभुशुण्डि होनेवाले ब्राह्मण ईश्वर-विषयक जिज्ञासा करते- फिरते थे, वह काल बड़ा अज्ञान का था। और लोमश-सहित वे मुनिगण, जो उनको (कागभुशुण्डि को) निर्गुण मत बतलाते थे, इस समय के सगुण मत वालों से अल्पज्ञ थे।]
051
[कागभुशुण्डि होनेवाले ब्राह्मण लोमश मुनि के द्वारा किए गए ब्रह्म के निर्गुण स्वरूप और अद्वैतवाद-निरूपण को मिथ्या और कनिष्ठ नहीं मानते हैं, पर वे कहते हैं कि सगुण ब्रह्म का सुन्दर रूप अनूप जल है और मेरा मन उसमें की मछली है। सो मेरा मन उससे अलग होते ही प्राण निकलने पर हो जाता है। मैं पहले सगुण रूप का दर्शन करके फिर निर्गुण-उपदेश सुनूँगा। तात्पर्य यह कि काग होनेवाले ब्राह्मण रूप-विषय में आसक्त हैं। रूप देखकर जुड़ाये बिना उससे हट नहीं सकते हैं। विषयासक्ति हटे बिना ब्रह्मोपदेश कैसे अच्छा लगेगा? सगुण स्थूल और निर्गुण सूक्ष्म है। उस ब्राह्मण का कहना है कि मैं अभी सूक्ष्म ज्ञान ग्रहण करने योग्य नहीं हुआ हूँ। स्थूल ज्ञान (सगुण मत) ग्रहण करने के पीछे सूक्ष्म ज्ञान (निर्गुण मत) ग्रहण करूँगा। इस प्रकार कथा लिखकर कवि ने दिखलाया है कि पहले मोटा ज्ञान ग्रहण करो, पीछे सूक्ष्म ज्ञान ग्रहण करने योग्य होओगे।
चौ0 सं0 824 को पढ़कर यह परिणाम निकालना कि सगुणोपदेश सुनने के पहले निर्गुणोपदेश सुनने का महत्त्व तुच्छ-गौण है, मूर्खता के अतिरिक्त कुछ नहीं है; क्योंकि यह सिद्धान्त कवि को मान्य होता तो दो0 सं0 110 से 114 तक निर्गुण मत, निर्गुण स्वरूप-प्राप्ति की सुगमता और सगुण रूप की नटवत् लीला की तरह असत्यता एवं भ्रमोत्पादकता का उपदेश कागभुशुण्डि से ही नहीं कराते और न स्वयं अपनी ओर से चौ0 सं0 16 में ब्रह्म-विचार के प्रचार को सरस्वती की धारा कहकर बड़ाई करते। इसी प्रकार शिवजी से भी चौ0 सं0 168 से 189 तक निर्गुण मत और माया-मिथ्यात्ववाद का निरूपण नहीं कराते।]
[अपनी अल्पज्ञता के कारण सत्य विचार का निरूपण करना काग होनेवाले ब्राह्मण के लिए असम्भव था। इसलिए उस समय लोमश मुनि के सामने अपनी हठीली बातों के अतिरिक्त वह ब्राह्मण कुछ न कह सके होंगे। विज्ञानी लोमश मुनि के ब्रह्म-निरूपण का खण्डन युक्ति-पूर्ण बातों से न कर सके होंगे। भला एक विज्ञानी के आगे एक अल्पज्ञ की युक्तियाँ कहाँ तक ठहर सकी होंगी ! हाँ, अयुक्त एवं निरर्थक बातें कहकर अपनी बातों को ऊँचा बनाए रखने के लिए हठ करते जाना अवश्य ही उसके लिए सहज बात हुई होगी।]
052
[ज्ञान का होना अर्थात् अज्ञान का नाश होना रामचरितमानस को मान्य है (दे0 चौ0 411)। अज्ञान के ही कारण द्वैत बुद्धि होती है, तब अज्ञान मिटने-ज्ञान होने से द्वैत बुद्धि नहीं रहेगी। द्वैत बुद्धि नाश होने से जीव और ईश में निर्भेदता होती है और तब परिच्छिन्नता-अंश-रूपता और माया-वश्यता भी रहने नहीं पा सकती। चौ0 सं0 823 में तो स्पष्ट ही ब्रह्म-जीव का निर्भेद ज्ञान है और माया-मिथ्यात्ववाद रामचरितमानस को मान्य है। यह दो0 सं0 27 और 110 तथा चौ0 सं0 145, 146 और 182 को पढ़कर देखिए। माया-मिथ्यात्ववाद मानने पर जीव-ब्रह्म की निर्भेदता माने बिना गति नहीं। यह तो ज्ञानमार्ग का निर्णय है। और यही निर्णय भक्ति-मार्ग से रामचरितमानस को मान्य है। (चौ सं0 286 को पढ़कर जानिए।) इस दोहे (सं0 137) को पढ़कर यह सिद्धान्त निकालना कि जीव और ईश की निर्भेदता रामचरितमानस को मान्य नहीं है, बड़ी भयंकर भूल है।]
053
[योगी पुरुष योगाभ्यास करके अपने अन्तर में सूक्ष्म और कारणादि दूसरे शरीरों में प्रवेश करते हैं। इस प्रकार अपने अन्तर के एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने को भी दूसरा जन्म कह सकते हैं। इसलिए योगी विलक्षण द्विज कहला सकते हैं। इनका अनहित करनेवाले का भला होना सम्भव नहीं है। जिस अभ्यासी की गति अहंपद को पार कर क्रम से बुद्धि-पद और साम्यावस्थाधारिणी प्रकृति मण्डल से परे होती है, वही पूरा आत्मदर्शी-स्वरूप का पहचाननेवाला है। ऐसे पुरुष ने प्रकृति-मण्डल को जीत लिया है। प्रकृति इसके अधीन हो गई, इसके चलाए चलेगी। इसी कारण प्रकृति-जनित कर्म ऐसे पुरुष को बन्धनप्रद नहीं हो सकते हैं।]
054
[दो0 138 में वर्णित दिव्य बुद्धि यदि काग-शरीर प्राप्त ब्राह्मण को पहले ही से होती, तो लोमश मुनि से उसका मतभेद ही नहीं होता। काग-शरीर हो जाने पर अब लोमश मुनि उसके गुरु होंगे, उसे राम का मन्त्र देंगे और सगुण बालक-रूप राम का ध्यान बतलाएँगे। यदि मन्त्र और ध्यान का उपदेश पाने और उसके साधन के पूर्व ही वह जगत को निज प्रभुमय देखता तो लोमशजी के दिये मन्त्र और ध्यान-युक्ति को धारण करना उसके लिए परम अनावश्यक था। उक्त दोहे में वर्णित ज्ञान, भक्ति की परमावधि है, आदि वा मध्य नहीं। कविजी ने लोमश के क्रोध तथा ब्राह्मण की सहनशीलता की कथा और इस दोहे को लिखकर दरसाया है कि अल्प भक्ति की महिमा ज्ञान-विज्ञान की महिमा से कहीं बढ़कर है। लोमश मुनि की क्रोध वाली यह कथा भक्ति-पक्ष में अत्यन्त रोचक है, पर ज्ञान-विज्ञान की महिमा को मिट्टी में मिला देती है। आरम्भ ही में रामचरितमानस को मान्य है कि ज्ञानी भक्त प्रभु को और सब भक्तों से विशेष प्यारे हैं (दे0 चौ0 सं0 98)। लोमशजी अवश्य ज्ञानी भक्त हैं, नहीं तो राम-उपासना का मन्त्र और ध्यान कागभुशुण्डि को कैसे बताते ? उनका क्रोध साधारण मनुष्य के क्रोध के समान नहीं है। इनके समान पहुँचे हुए महात्मा क्रोधादि विकारों को स्व-अधीन रखकर दूसरों को कुछ लाभ पहुँचाने के निमित्त ही (उन विकारों का) प्रकाश करते हैं। उस ब्राह्मण ने शूद्र-देह में गुरु-अपमान के कारण शिवजी से शाप पाया था और चौ0 सं0 816, 817 में वर्णित आज्ञा शिवजी ने उसे दे दी थी कि विप्र का अपमान न करना। इसकी परवाह न करके लोमश मुनि की अवज्ञा कर अनादर किया और इस प्रकार शिवाज्ञा-भंग का अपराध उसने किया, अतएव इसका दण्ड पाना उसके लिए आवश्यक था। इस मुख्य कारण को गुप्त रखकर लोमश मुनि ने उसे शाप दिया। इस शाप से वह ब्राह्मण काग तो हुआ, पर इससे उसका बड़ा उपकार हुआ। ‘गरु कुम्हार शिष कुम्भ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट । अन्तर हाथ सहार दे, बाहर वाहै चोट ।।’ काग-देह पाने पर कागभुशुण्डिजी को भय और दीनता नहीं हुए; क्योंकि पूर्व जन्म में शूद्र-देह में गुरु-कृपा से शिवजी से आशीर्वाद पा चुके थे कि ‘किसी देह में तेरा ज्ञान भंग न होगा और तेरे हृदय में राम-भक्ति जमेगी ।’ इसी कारण पहले जन्मों से ही राम-भक्ति का अंकुर उग रहा था, पर लोमश मुनि के समान गुरु प्राप्त नहीं होने के कारण भक्ति का साधन पूरा नहीं हुआ था। पहले के जन्मों की सब घटनाओं का ज्ञान कागभुशुण्डिजी को था ही और उन्हें यह आशा भी पूरी थी कि किसी भी देह में मेरा ज्ञान नहीं मिटेगा। तब काग वा किसी भी शरीर को पाने का शाप पाकर उनका अभय और अदीन बना रहना कोई बड़ी बात नहीं हुई। शूद्र-तन में कागभुशुण्डि ने गुरु का अपमान किया था, पर गुरु ने उन पर दया दिखाई थी; उसी का परिणाम समझना चाहिए कि काग-शरीर होने का शाप पाकर भी वे भीत और दीन नहीं हुए। अतएव गुरु-कृपा धन्य है, कागभुशुण्डि भी इसलिए धन्य हैं कि पूर्व जन्म में उन्हें भले गुरु मिले थे और इस बार तो लोमशजी जैसे गुरु पाकर अत्यन्त धन्य हो गए। ‘तीन लोक नौ खण्ड में, गुरु तें बड़ा न कोइ । करता करै न करि सकै, गुरु करै सो होइ ।।’-कबीर साहब]
055
[जबकि स्वयं लोमशजी चौ0 सं0 837 में वर्णित आज्ञा दूसरों के लिए देते हैं, तो यह मानना क्योंकर सम्भव है कि वे स्वयं ही भक्त न थे ? मेरे विचार में वे भक्त-शिरोमणि थे; क्योंकि वे ज्ञानी भक्त थे। जो लोग उनके ज्ञान और भक्ति की महिमा को कागभुशुण्डि के ज्ञान और भक्ति की महिमा से ओछी जानते हैं, वे परम मूर्ख हैं।]
056
[चौ0 सं0 843 की वाणी अवश्य ही कागभुशुण्डि के इष्ट राम भगवान की है। इसीलिए ‘यह मम भगत’ वाणी में कहा गया है। कागभुशुण्डि को उनके गुरु लोमश मुनि ने अमोघ आशिष देकर परम कल्याणकारी-परम सुखदायी सब कुछ दे दिया। प्रथम काग होने का शाप दिया था, तो अब इच्छानुसार रूप ग्रहण करने का आशीर्वाद भी दिया। ठीक है ‘सतगुरु सब कुछ दीन्ह, देत कछु ना रहेउ ।’ (कबीर साहब)। फिर भगवान ने आकाशवाणी द्वारा ‘एवमस्तु’ कहकर मुनिजी के दिए आशीर्वाद को अमोघ कर दिया। अब कागभुशुण्डि को कुछ पाने को नहीं रह गया। अब यदि कोई आशीर्वाद इनको किसी से मिले तो वह इसके (उपर्युक्त आशीर्वाद के) अन्तर्गत ही होगा। तब जानना चाहिए कि चौ0 सं0 746, 747 और दो0 सं0 117 में वर्णित जो वरदान श्रीराम भगवान से कागभुशुण्डि को मिले हैं, वे तो गुरु लोमश मुनि की कृपा से उनको पूर्व ही प्राप्त थे। जो कुछ गुरु देंगे, वही राम दे सकेंगे और जो कुछ गुरु न देंगे, सो राम कभी नहीं दे सकते हैं। ‘गुरु देवैं तासों अधिक, राम सकैं नहिं देइ । मूर्ख बिगाड़ै आपनी, गुरु तजि रामहिं सेइ ।। गुरु रुचि स्वीकृत राम को, जानहु बारम्बार । जो गुरु रुचि देवन नहीं, कभी न दें करतार ।।’]
057
[भक्ति-रहित ज्ञान रामचरितमानस को मान्य तो है, पर भक्ति-सहित ज्ञान उसे परम मान्य है (दे0 चौ0 सं0 108)।
आगे चलकर बतलाया जाएगा कि भक्ति-मणि पाने के हेतु ज्ञान और विराग के नेत्रें से खोज करने की परम आवश्यकता है।]
058
[‘ब्रह्म और जीव में भेद नहीं है’- यह सिद्धान्त लोमश मुनि का है (दे0 चौ0 सं0 823)। इसी ज्ञान को कागभुशुण्डि ने अपने पूर्व शरीर (ब्राह्मण-शरीर) में लोमश मुनि से सुना था। यदि यह सिद्धान्त असत्य तथा खण्डनीय होता, तो चौ0 सं0 849 में ऐसा नहीं कहा जाता कि ज्ञान से मोक्ष होता है। अतएव यह निश्चय करके जानना चाहिए कि ब्रह्म और जीव के अभेदपने को रामचरितमानस कभी खण्डनीय नहीं मानता है।]
059
[विरक्त, तीन गुण-त्यागी-त्रयगुणातीत अर्थात् निर्गुण तत्त्व में लीन को कहते हैं (दे0 चौ0 सं0 410)। ऐसे ही पुरुष की बुद्धि धीर वा स्थिर होती है। सो0 सं0 42, चौ0 सं0 724, 725 और 726 आदि में रघुवीर राम के जिस स्वरूप का वर्णन है, वह यही त्रयगुणातीत पद है और यही राम का माया-रहित सत्य स्वरूप है और भक्तों को सुलभ भी है (दे0 दोहा सं0 114)। जिसको रघुवर राम के इस सत्य स्वरूप में प्रेम नहीं है, उसे रघुवर के सत्य स्वरूप से विमुख ही जानो। जो रघुवर के केवल नराकृति अति सुन्दर अनूप रूप में, जो राम-द्वारा नटवत् धारित (दे0 दो0 सं0 111) और मुनि-मन-भ्रमोत्पादक है-(दे0 दो0 सं0 114) प्रेम रखते हैं, जानना चाहिए कि उनका प्रेम राम के माया-रूप ही में है; क्योंकि माया-रूप को पार करके राम के ऊपर वर्णित सत्य स्वरूप में इनकी आसक्ति वा प्रेम नहीं है। इस हेतु इनकी भक्ति पूरी नहीं कही जा सकती। और इसी कारण माया इनको नाच नचाती रहती है। सुग्रीव और विभीषण रघुवर रामजी के भक्त थे, पर तो भी क्रमशः तारा और मन्दोदरी के मृग-लोचन एवं विधुमुख को देखकर विकल हो गए और पाप में लिप्त हुए। (जेहि अघ बधेउ ब्याध इव बाली । फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली ।। सोइ करतूति विभीषण केरी । सपनेहुँ सो न राम हिय हेरी ।। प्रथम सोपान-बालकाण्ड)। सुग्रीव और विभीषण के विकारी हृदयों का ख्याल श्रीराम ने अपनी अति उदारता से उन पर मैत्री भाव के कारण नहीं किया। इसीलिए उनका हृदय निष्पाप हो गया, ऐसा नहीं कहा गया है। किसी को यह नहीं विचारना चाहिए कि विकारी हृदयवाले की ऊर्ध्वगति होती है और परमात्म-स्वरूप की प्राप्ति उसको होती है। परमात्म-स्वरूप की प्राप्ति के बिना न तो भक्ति पूरी होती है और न भक्त का परम कल्याण होता है। सगुण-साकार ईश्वर-रूप को भी प्रत्यक्ष में पाकर उनको प्रभु और मित्र जानते हुए भी हृदय के विकार विभीषण और सुग्रीव के तथा राजा दशरथ के भी हृदय के विकार दूर नहीं हुए थे। इसीलिए तो भगवान में वात्सल्य भाव रखते हुए, उनको प्रत्यक्ष पाए हुए श्री राजा दशरथ के लिए गो0 तुलसीदासजी ऐसे राम-भक्त को भी लिखना पड़ा-‘सुरपति बसइ बाँहु बल जाके । नरपति सकल रहहिँ रुख ताके ।। सो सुनि तिय रिस गयेउ सुखाई । देखहु काम प्रताप बड़ाई ।। सूल कुलिस असि अँगवनिहारे । ते रति नाथ सुमन सर मारे ।।’ और सुग्रीव और विभीषण के लिए गोस्वामीजी को ऊपर लिखित चौपाइयाँ लिखनी पड़ीं। इस प्रकार के अधूरे भक्तों की बहुत-सी कथाएँ हैं, जो ग्रन्थ बढ़ने के भय से नहीं लिखी जाती हैं। इन बातों के लिखने का तात्पर्य यह है कि अधूरे भक्त मृगनयनी-विधुमुखी को देखकर व्याकुल हो जाते हैं; पर जो विरक्त और धीरमति हैं, वे व्याकुल नहीं होते हैं (दे0 दोहा 141-142)। रघुवीर पद (राम के वर्णित सत् पद) से विमुख कामी और विषय-वश को ही ‘ज्ञान-निधान मुनि’ कहा गया है। (दे0 दोहा सं0 141-142)। ऐसे ज्ञानी को ‘ज्ञान-निधान’ कहना, मुनि के लिए व्यंग्य वा ताना मारना है। भला ऐसे लोग भी ‘ज्ञान-निधान मुनि’ होते हैं ? ‘वाक्य ज्ञान अत्यन्त निपुण भव पार न पावै कोई । निसि गृह मध्य दीप की बातन्ह तम निवृत्त नहिं होई ।। षट रस बहु प्रकार व्यंजन कोउ दिन अरु रैन बखानै। बिनु बोले सन्तोष जनित सुख खाइ सोई पै जानै ।।’ (विनय-पत्रिका)। ऐसे कथन से कवि का कहना है कि विरक्त और मतिधीर ज्ञानी (अनुभव-प्राप्त ज्ञानी) रघुवर-राम-पद के सत्स्वरूप के पक्के भक्त होते हैं। वे मृगनयनी-विधुमुखी को देखकर व्याकुल नहीं होते हैं। पर विषय-आसक्त अस्थिर बुद्धिवाले, अनुभव-शून्य, रघुवर राम के पद से विमुख (केवल वाक्य-ज्ञान-निपुण) ‘ज्ञान- निधान मुनि’ (परम अधूरे ज्ञानी) मृगनयनी-विधुमुखी को देखकर व्याकुल हो जाते हैं। चाहे अधूरे ज्ञानी हों, चाहे अधूरे भक्ति हों, वे माया से मोहित अवश्य होंगे। जो पूरा भक्त है, वही पूरा ज्ञानी है और जो पूरा ज्ञानी है, वही पूरा भक्त है। इनमें अन्तर यही है कि भक्त प्रथम इष्ट को अपने से भिन्न मानकर उनकी उपासना भक्ति-योग की रीति (जो तृतीय सोपान में नवधा भक्ति के नाम से वर्णित है।) से करके उपास्यदेव के सत्स्वरूप वा आत्मस्वरूप को प्राप्त करके पूर्ण होता है; पर ज्ञानी वेदान्त-द्वारा आत्म-अनात्म विचारकर आत्म-चिन्तन करता हुआ योगाभ्यास करके सत्य स्वरूप आत्म-राम को प्राप्त कर लेता है। दोनों एक ही लड्डू और एक ही स्वाद पाते हैं, पर अधूरेपन में दोनों को माया सताती रहती है। अब यह विचारना है कि स्त्री संसार में प्रत्यक्ष माया रूप है। यह इस हेतु कहा गया है कि स्त्री को देखकर पुरुष का ज्ञान भ्रष्ट हो जाता है और माया को स्त्री-रूप जानने के कारण ही उसे आगे चलकर स्त्री वर्ग बताया जाएगा। इससे यह बात भी निकलती है कि यदि स्त्री को देखकर पुरुष मोहित नहीं होता, तो उसको प्रत्यक्ष माया नहीं कहा जाता और न माया स्त्री वर्ग में गिनी जाती। ‘इसीलिए स्त्री प्रत्यक्ष माया-रूप पुरुषों के लिए है, स्त्रियों के लिए नहीं। स्त्रियों के लिए तो पुरुष ही प्रत्यक्ष माया-रूप है; क्योंकि स्त्री पुरुष को देखकर अति व्याकुल हो जाती है (दे0 चौ0 सं0 423, 424)। अतएव स्त्रियों की तरफ से तो माया को पुरुष वर्ग में रखना चाहिए।’ यथार्थ में स्त्री, पुरुष, नपुंसक, सुन्दर, असुन्दर और इन्द्रिय-गम्य मात्र माया के प्रत्यक्ष रूप हैं। यहाँ पुरुषों के बीच संवाद है, इसी हेतु कविजी ने माया का वर्णन उपर्युक्त रीति से किया।]
060
[शब्द ‘यहाँ’ कहने का तात्पर्य भक्ति और ज्ञान में अन्तर बतलाने के प्रसंग से है। इस पर प्रश्न हो सकता है कि इस प्रसंग के अतिरिक्त रामचरितमानस में वर्णित दूसरे प्रसंगों में कविजी ने पक्षपात से काम लिया है ? इसका उत्तर ‘हाँ’ है। कविजी ने अपने किए पक्षपात को इसलिए स्वीकार किया है कि लोग प्रत्येक प्रसंग को निष्पक्षतापूर्ण और सत्य-सत्य मानकर भूल में न पड़ जाएँ। बुद्धिमान निष्पक्ष और सत्य प्रसंग को चुनकर आप भूल से बचें और दूसरों को बचावें। गो0 तुलसीदासजी केवल महाकवि ही नहीं, सन्त महाकवि हैं। काव्य की सुन्दरता के हेतु, उसे सर्वप्रिय बनाने के हेतु कविजी को पक्षपात किए बिना रहा न गया और सन्त के सरल, पर-हित-निरत स्वभाव से अपने किये पक्षपात को स्वीकार किए बिना भी रहा नहीं गया।]
061
[नर्तकी = नटिन = वेश बना-बनाकर नाच-नाचकर मोहित करनेवाली। गो0 तुलसीदासजी ने माया को यह अति उत्तम उपमा दी है। श्रीसीताजी महारानी तथा श्रीपार्वतीजी को रामचरितमानस में माया कहकर वर्णित किया गया है। सन्त कबीर साहब ने भी माया का कितना खरा और सुन्दर वर्णन किया है। शब्द-‘माया महा ठगनी मैं जानी । तिरगुन फाँस लिये कर डोलै, बोलै मधुरी बानी ।। केशव के कमला होइ बैठी, सिव के भवन भवानी । पंडा के मूरति ह्वै बैठी, तीरथ में भइ पानी ।। जोगी के जोगिन ह्वै बैठी, राजा के घर रानी। काहू के हीरा ह्वै बैठी, काहू की कौड़ी कानी ।। भक्तन के भक्तिन ह्वै बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्मानी । कहै कबीर सुनो हो सन्तो, यह सब अकथ कहानी ।।’]
062
[माया उस भक्त से डरती है, जिसकी भक्ति का वर्णन चौ0 सं0 857 में है और उस पर कुछ भी प्रभुता नहीं रखती है; परन्तु वह दूसरे प्रकार की भक्तिवाले भक्तों से नहीं डरती है और उस पर अपनी प्रभुता करती है। अब जानना चाहिए कि चौ0 सं0 857 में वर्णित निरुपम, निरुपाधि भक्ति किस भक्ति को कहेंगे ? भ्रमोत्पादक सगुण रूप (दे0 दोहा सं0 114) की भक्ति निरुपाधि नहीं कही जा सकती; क्योंकि जिस रूप में भ्रम उत्पन्न करने का स्वभाव ही है, वह तो भ्रम उत्पन्न करके भक्ति में विघ्न कर ही देगा। कागभुशुण्डिजी गरुड़जी तथा अन्य अनेकों को सगुण रूप के कारण भ्रम उत्पन्न हुआ था। भक्ति भ्रमोत्पादक सगुण रूप के सहारे ही आरम्भ होकर स्थूल-सूक्ष्म क्रम से बहुत दूर तक जाती है (वह क्रम दो0 सं0 113 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में पढ़ लीजिए।) दूसरी बात यह है कि विषय-प्राप्ति की कामना लेकर जो भक्ति की जाएगी, उसमें तो विषय कामना-रूप विघ्न मौजूद ही है; क्योंकि आगे चलकर रामचरितमानस में विषय की आशा को दुर्बलता और विषय को भक्ति-रूप औषधि के सेवन में कुपथ्य कहा गया है (देखिए चौ0 सं0 917, 918 और 923)। फिर ऐसी भक्ति भी निरुपाधि नहीं कही जा सकती। अतएव भ्रमोत्पादक रूप में लगे रहने की अवधि-पर्यन्त की भक्ति और विषय-कामना-युक्त भक्ति निरुपाधि भक्ति नहीं कहला सकती, उसे अनुपम कहना निरर्थक है। अतएव भक्ति-योग के साधन से विषय की कल्पनाओं को हटाकर राम के निर्भ्रान्त निर्गुण स्वरूप (दे0 चौ0 सं0 727) में रत होना ही निरुपम निरुपाधि राम-भक्ति है। यह भक्ति जिसके हृदय में सदा निर्विघ्न बसती है, उससे माया डरती है, न कि जो रघुराज राम के सगुण रूप का भक्त है, उससे माया डरती है। यदि कहा जाय कि रघुराज राम सगुण-भक्ति-उपासक पर ही कृपालु रहते हैं और इस जगह निर्गुण स्वरूपवाले प्रसंग को मिलाने की आवश्यकता नहीं है, तो इसके उत्तर में सुनिए-
स्वायम्भुव मनु और शतरूपा यद्यपि भगवान के निर्गुण रूप को भी जानते थे, पर वे उनके सगुण रूप ही के प्रेमी थे। इन दोनों ने अपार तप करके मनोवांछित सगुण रूप के दर्शन प्राप्त किए थे। वे उनके निर्गुण रूप में रत न थे और न उस रूप की प्राप्ति उन्हें हुई थी। रूप का धारण तो भगवान की माया भर है (दे0 दो0 सं0 112)। स्वायम्भुव मनु और शतरूपा ने यथार्थ में माया ही की चाहना की और उसे ही प्राप्त किया। इसलिए कहना पड़ता है कि ये दानों माया के ही भक्त थे। फल यह हुआ कि माया उनसे डरी नहीं, बल्कि उसने उन्हें मोहित कर लिया। माया से माहित होने के कारण भगवान के अनूप रूप को देखकर इच्छाधीन हो सगुण भगवान की तरह इन दोनों ने पुत्र की इच्छा की [इच्छा के रहते कोई स्वप्न में भी सुख नहीं पा सकता। दे0 चौ0 सं0 770]। सगुण भगवान ने कहा-‘मैं अपना-सा कहाँ खोजूँ ? मैं स्वयं तुम्हारा पुत्र होऊँगा।’ अब तुम मेरी आज्ञा को मानकर सुरपति- राजधानी (स्वर्ग) को जाओ और वहाँ विशाल विषय-भोग करके फिर इस धरती पर अयोध्या के राजा (दशरथ) होओगे, तब मैं तुम्हारा पुत्र होऊँगा।’ रामचरितमानस मानता है कि सेवक-सेव्य भाव के बिना भवसागर तरा नहीं जा सकता (दे0 दो0 सं0 143)। स्वायम्भुव मनु और शतरूपा ने तथा इन्हीं के समान अन्य कई भक्तों ने सेवक-सेव्य भाव के बदले पिता-पुत्र होने का विलक्षण वरदान प्राप्त किया। भगवान उनके पुत्र बनकर उनको पूज्य मानकर नम्रतापूर्वक उनके चरणों को छूकर प्रणाम करते होंगे। उनकी यथोचित सेवा करते और आज्ञाओं का पालन करते होंगे। स्वायम्भुव मनु और शतरूपा कुछ काल तक अपने आश्रम में रह अन्त समय प्राप्त होने पर शरीर छोड़कर भगवान की आज्ञानुसार स्वर्ग में जा विराजे। रामचरितमानस में इसकी कथा यहीं तक है। अब आगे जैसी आज्ञा भगवान की है, उसके अनुसार वे कुछ काल स्वर्ग में रह वहाँ के विशाल विषय-भोगों को भोगे होंगे। वहाँ से फिर इस नर-लोक में अवतरित होकर अवध-भुआल (राजा दशरथ) हुए होंगे, शिकार खेलने के व्यसन में पड़कर निर्दोष श्रवण मुनि को हाथी समझकर मारे होंगे और पुत्र-शोक में मरने के कारण उसके पिता से शाप पाए होंगे। वाल्मीकि रामायण के अनुसार तीन सौ तीन स्त्रियों से विवाह करके रानी कैकेई की तरह की स्त्रियों के अधीन हो, उनसे डरते होंगे (जैसा कि रामचरितमानस में लिखा है-चौ0-‘कोप भवन सुनि सकुचेउ राऊ । भय बस अगहुँड़ परइ न पाऊ ।। सुरपति बसइ बाँह बल जाके । नरपति सकल रहहिँ रुख ताके ।। सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई । देखहु काम प्रताप बड़ाई।। सूल कुलिस असि अँगवनिहारे । ते रति नाथ सुमन सर मारे ।। सभय नरेश प्रिया पहिँ गयउ । देखि दसा दारुन दुख भयऊ ।।)’ पुत्र-हीन होने के अवसर में-पुत्रभाव में ग्लानि हुई ही होगी । (रामचरितमानस, प्रथम सोपान, चौ0-एक बार भूपति मन माहीं । भइ गलानि मोरे सुत नाहीं ।।) और ऐसे कितने ही माया-चक्रों में फेरे खाते हुए अन्त में दारुण पुत्र-शोक से शरीर छोड़कर फिर स्वर्ग गए होंगे कि जहाँ से एक बार लौट आकर यहाँ नर-लोक में अवतार ले कथित यातनाओं को पाए होंगे। इन बातों को विचार करके देखिए, केवल सगुण रूप के भक्त भगवान के पिता तक से माया नहीं डरी और उसने उन्हें मोहित करके सब नाच नचाया। प्रथम (स्वायम्भुव मनुवाला) शरीर छोड़कर भगवान की आज्ञा के अनुसार स्वर्ग में गए होंगे। रामचरितमानस के मतानुसार मनुष्य होकर स्वर्ग का पाना, उसके लिये बड़ी हानि की बात है (दे0 चौ0 सं0 655 से 657 तक)।
स्वर्ग के राजा को विषयरूप सूखा हाड़ चबानेवाला कुत्ता, निर्लज्ज और वहाँ के वासी देवगणों को सदा स्वार्थी कहा गया है (दे0 दो0 सं0 29, सोरठा 54, चौ0 380 से 382 तक) ‘आये देव सदा स्वारथी । बचन कहहिँ जनु पारमारथी ।।’
रामचरितमानस कहता है कि ऐसे संग से तो नरक ही भला है (बरु भल बास नरक कर ताता । दुष्ट संग जनि देइ विधाता ।।) क्योंकि यहाँ के राजा व्यभिचारी और अन्य निवासी स्वार्थी हैं, अतएव ये दुष्ट हैं, फिर दुष्टों के बीच बसनेवाले को शान्ति कहाँ और फिर शान्ति के बिना सुख कहाँ? फिर जो ऐसी जगह रहने को दे, उससे उपकार ही क्या हुआ ? और जो ऐसी जगह को पसन्द करे, उसे विचार-शून्य क्यों न माना जाय ? कहा है-‘नरतन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहत पुकार ।। सब कोइ कहत पुकार, देव देही नहिँ पावैं । ऐसे मूरख लोग स्वर्ग की आस लगावैं ।। पुन्य छीन सोइ देव, स्वर्ग से नरक में आवैं । भरमें चारों खान, पुन्य कहि ताहि रिझावैं ।। तुलसी सत मत तत गहे, स्वर्ग पर करे खखार ।। नरतन दुर्लभ देव को सब कोइ कहत पुकार ।।’ (हाथरस- वाले तुलसी साहब)
रामचरितमानस के अनुसार कश्यप और अदिति भी राजा दशरथ और रानी कौशल्या होकर भगवान के माता-पिता होते हैं। सो इनकी दशा भी स्वायम्भुव मनु और शतरूपा की तरह जान लेनी चाहिए। और विशेष बात यह हुई कि पूर्व जन्म में जो ब्राह्मण थे, कठोर तप का फल भगवान के सगुण रूप का दर्शन करके भी उनको क्षत्रिय-कुल में जन्म ग्रहण करना पड़ा अर्थात् उच्च पद से नीच पद पर आना पड़ा। पाण्डवगण पत्नी सहित कृष्ण भगवान के बड़े भक्त थे। यद्यपि भगवान ने भी द्रौपदी का वस्त्र बढ़ाकर सभा में उसकी लाज रखी, पाण्डवों को जंगल में दुर्वासा के शाप से बचाया, पाण्डवों के राजसूय यज्ञ में बड़ी सहायता की, महाभारत में अर्जुन का सारथी बनकर उसे जिता दिया, विराट रूप का दर्शन दिया, गीता का अनुपम उपदेश सुनाया और भी अनेक उपकार पाण्डवों के किए, तथापि पाण्डवों को इस लोक में अनेक कष्ट हुए। वे माया से माहित होते ही रहे और कर्मानुसार नरक भोगकर बड़ा पुरस्कार केवल स्वर्ग ही पाया। ऐसी अनेक कथाएँ हैं, कहाँ तक लिखी जायँ ? शिव, नारद, गरुड़ और कागभुशुण्डि आदि यद्यपि रामचरितमानस के अनुसार सगुण रूप भगवान के बड़े भक्त हैं, तथापि ये लोग बारम्बार माया से मोहितमति हुए हैं। यदि कहिए कि भक्तों को अविद्या-माया नहीं व्यापती है-प्रभु-प्रेरित विद्या-माया ही व्यापती है, तो इस पर प्रश्न होगा कि विद्या-माया की प्रेरणा भगवान भक्तों पर क्यों करते हैं ?
उत्तर मिलेगा-‘सुनहु राम कर सहज सुभाऊ । जन अभिमान न राखहिं काऊ ।। संसृति मूल सूल प्रद नाना । सकल सोक दायक अभिमाना ।।’ इत्यादि। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जब भक्तों को अभिमान होता है, तब भगवान उस पर विद्या-माया को प्रेरण करके उसके अभिमान को दूर कर देते हैं। फिर प्रश्न होगा कि अभिमान अविद्या माया से होता है (दे0 चौ0 407) और जबकि भक्तों को अभिमान होता है, तो उन पर अवश्य अविद्या-माया की प्रभुता है, सो ऐसी प्रभुता भक्तों पर क्यों होती है ? चौ0 सं0 854, 856 के अनुसार अभिमान-रूप अविद्या-माया भक्तों से डरकर हटी क्यों नहीं रहती है ? दोनों माया-विद्या और अविद्या का वर्णन मिलाकर समझने पर इसका उत्तर अवश्य यही होगा कि चौ0 सं0 857 में जैसी भक्ति का वर्णन है, वैसी भक्ति नहीं प्राप्त करने के कारण ही माया नहीं हटती है।
ऊपर के कथन से जाना गया कि केवल सगुण रूप की भक्ति करने के कारण भगवान के पिता भी माया को प्रबलता में पडे़ बिना न रहे, तो फिर आशा कैसे की जाए कि निर्गुण स्वरूप में अरत-रत रहे बिना, केवल सगुण रूप में ही रत प्राणी पर माया की प्रभुता कुछ न होगी ? सारांश यह कि ऐसे भक्त की भक्ति अधूरी है, माया के उपद्रव से रहित नहीं है। और यह बात पहले दिखाई जा चुकी है कि निर्गुण रूप निर्भ्रान्त है। इसमें रत होना ही राम की निरुपम-निरुपाधि भक्ति है। ऐसी भक्ति से माया डरती है। अतएव जबतक सर्वोच्च भक्ति (भक्ति को बढ़ाते हुए निर्गुण स्वरूप में रत होना) न की जाय, तबतक चौ0 सं0 857 में वर्णित निरुपम-निरुपाधि भक्ति को और चौ0 सं0 858 में वर्णित उसके प्रभाव को कोई नहीं पा सकता है। इसी कारण इसकी बड़ी आवश्यकता है कि निर्गुण स्वरूपवाले प्रसंग के साथ मिलाकर पूर्ण जानकारी प्राप्त की जाए। चार प्रकार के राम-भक्तों में ज्ञानी भक्त राम को विशेष प्यारे हैं (दे0 चौ0 सं0 97)। ज्ञानी भक्त का लक्षण चौ0 सं0 92-93 में यही दिया हुआ है कि वे योगी होते हैं, ब्रह्म-स्वरूप ‘अकथ अनामय नाम न रूपा’ के अनुपम सुख का अनुभव करते और वैराग्य-द्वारा विरंचि के प्रपंच के त्यागी होते हैं। ‘अकथ अनामय नाम न रूपा’ ब्रह्म-स्वरूप ही तो राम का निर्गुण स्वरूप है न ? फिर जो भक्ति-द्वारा उपर्युक्त अनुपम सुख पाते हैं, उन्हीं की भक्ति निरुपम और निरुपाधि होगी न ? अब तो स्पष्ट रूप से यह सिद्ध हो गया न, कि चौ0 सं0 92, 93 में राम के जिस स्वरूप की, जिस भक्ति का वर्णन है, उसी स्वरूप और उसी भक्ति का वर्णन चौ0 सं0 857 में भी किया गया है ? जबतक भक्ति इस दर्जे तक न पहुँचेगी, वह निस्सन्देह अधूरी रहेगी और राम को विशेष प्यारी न होगी। फलतः माया उससे न डरेगी; बल्कि माया ऐसे भक्त को नाच-नचाकर पद-दलित करेगी ।]
063
[पूर्ण अनुभव और पूर्ण समता-प्राप्त अर्थात् पूर्ण विज्ञानी को भक्ति प्राप्त ही रहती है। उन्हें कुछ पाने की न इच्छा रहती है और न कुछ पाने को शेष ही रहता है। वे तो ‘ब्रह्म सुखहि अनुभवहि अनूपा।’ अर्थात् अनुपम ब्रह्म-सुख का अनुभव करते हैं। वे सर्वोच्च भक्त प्रभु को विशेष प्यारे होते हैं। (दे0 चौ0 सं0 92, 93) जैसे शवरी ने भगवान से कुछ नहीं जाँचा। चौ0 सं0 859 में ‘जाँचहिं भगति’ के लिखने से जान पड़ता है कि ऐसे विज्ञानी को यथार्थ विज्ञानी नहीं कहा गया है। इसलिए यहाँ पर ‘विज्ञानी’ का अर्थ सुबोध लिखा गया है। जब भक्ति, राम के निर्गुण स्वरूप तक पहुँच जाती है, तभी वह सब सुख-खान होती है।]
064
[राम-भक्ति से भी कैवल्य परम पद की प्राप्ति होती है। चौ0 सं0 286 का भी यही तात्पर्य है।]
065
[चौ0 सं0 861 से 864 तक के वर्णनानुसार भक्ति करने से निस्सन्देह मुक्ति हो जाएगी। इस हेतु भक्ति करना ही मुक्ति का आदर करना है। जिस भक्ति से मोक्ष न हो, उसको पूरी भक्ति नहीं जानना चाहिए। जो मुक्ति का आदर करना न चाहे, उसे चाहिए कि भक्ति या मोक्ष प्राप्त करने का कोई साधन नहीं करे।]
066
[तात्पर्य यह है कि जो भोजन पचे नहीं, उससे रोग होता है। इसी तरह मोक्ष-रूपी भूख शान्त करने के लिए ज्ञान-रूपी भोजन किया जाता है; पर यह भोजन सुपाच्य नहीं है। अतएव कष्टकर है। किन्तु भक्ति-रूपी भोजन सुपाच्य होने से वह सुख से पचेगा और उससे मोक्ष-रूपी भूख की तृप्ति होगी। अर्थात् भक्ति का साधन सुगमता से होगा, अतएव भक्ति करते-करते ही मोक्ष प्राप्त करना चाहिए।]
067
[सेवक-सेव्य भाव = अपने को सेवक और ईश्वर को सेव्य जानने का भाव। यद्यपि भक्ति के वात्सल्य, सख्यादि कई भाव हैं, तथापि रामचरितमानस में केवल सेवक-सेव्य भाव को ही मोक्षदायक और उत्तम माना गया है। रामचरितमानस में यद्यपि गुह निषाद, सुग्रीव और विभीषण को राम-सखा कहा गया है, तथापि गोस्वामी तुलसीदासजी ने राम को इन सखाओं के मुख से प्रभु ही कहलाया है; जैसे-
गुहनिषाद-‘पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।’ (द्वितीय सोपान)
सुग्रीव- ‘कह सुग्रीव नयन भरि बारी । मिलिहि नाथ मिथिलेस कुमारी ।।’ (चतुर्थ सोपान)
विभीषण-‘नाथ न रथ नहिं तनु पद त्राना । केहि बिधि जितब बीर बलवाना ।।’ (षष्ठ सोपान)]
068
[चिन्तामणि एक रत्न है। लोगों में प्रसिद्ध है कि जिस बात की चिन्ता की जावे, उसे यह मणि शीघ्र दे देती है।]
069
[ब्रह्म-पयोनिधि = त्रिकुटी । कथा-सुधा = सारशब्द । जो अभ्यासी तीसरे तिल में प्रवेश करके सहस्त्रदल कमल के विविध ज्योति-मण्डलों के पार होता हुआ त्रिकुटी के महान ज्योति-मण्डलों को भी पार कर जाता है, वही ब्रह्म-पयोनिधि को मथ डालता है और कथा-सुधा अर्थात् सारशब्द को प्राप्त करके भक्ति के अत्यन्त मीठे रस में निमग्न हो जाता है। त्रिकुटी तक त्रयगुणात्मक मायिक आवरण विशेष मोटा होने के कारण उसके अन्दर सारशब्द का कुछ भी आभास मिलना नहीं हो सकता है। परन्तु त्रिकुटी के परे मायिक आवरण उत्तरोत्तर विशेष झीना होता जाता है। इस झीनेपन में सारशब्द की परख का आभास प्राप्त करता एवं क्रमशः आगे बढ़ता हुआ त्रयगुणात्मिका मूल प्रकृति के परे सच्चिदानन्द पद में जाकर भक्त साधक को उसकी (सारशब्द की) पूर्ण परख होती है। सारशब्द को ही रामनाम कहते हैं। इसका वर्णन चौ0 सं0 79 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में पढ़िए। सारशब्द की प्राप्ति से जीव को परम प्रभु प्राप्त हो जाते हैं और अमरत्व अर्थात् मोक्ष मिल जाता है, इसलिए यह शब्द (सारशब्द) सुधा-कथा है। उपर्युक्त दोहे में ‘ब्रह्म’ का अर्थ लोग वेद करते हैं, ऐसा अर्थ करने से ‘कथा-सुधा’ का अर्थ वेद-वर्णित राम-यश होता है, इस प्रकार सम्पूर्ण दोहे का तात्पर्य यह हो जाता है कि सब वेदों को सम्पूर्ण रूप से पढ़-सुन, उनकी यथार्थताओं को अत्यन्त शुद्धतापूर्वक बोध करके उनमें से केवल राम की मधुर भक्तिदायिनी राम-कथाओं को सन्त ग्रहण करते और उनकी शेष सब विधियों को असार जान त्याग देते हैं, यदि यही अर्थ लिया जाय तो राम-भक्त बनने के लिए बिना वेदों के पढ़े-सुने काम नहीं चल सकता है। इस दशा में सन्त भी वे ही होंगे, जिनको वेद-शास्त्रें ने वेद पढ़ने-सुनने का अधिकार दिया है। शूद्र, अन्त्यज और स्त्रियाँ; ये सब भक्ति प्राप्त करने से वंचित रहेंगे। पर रामचरितमानस अन्त्यज और स्त्रियों को भी भक्ति प्राप्त करने के अधिकारी मानता है (दे0 दो0 सं0 120)। शवरी भीलनी अन्त्यज जाति की स्त्री थी, उसको भक्ति के सब प्रकारों में पूर्ण कहा गया है (दे0 चौ0 सं0 463)। यदि भक्ति के साधन में वेदों का पढ़ना-सुनना परमावश्यक माना जाय (जैसा कि ऊपरलिखित दोहे में ‘ब्रह्म’ का अर्थ वेद करने से माना ही जाएगा।) तो र्भिक्त के सब प्रकारों में पूर्ण शवरी ने ही भला त्रेता युग में धर्म-शास्त्र विरुद्ध किस प्रकार वेदों को पढ़ा-सुना होगा ? फिर मातंग आदि मुनियों ने ही उनको वेद पढ़ा-सुनाकर धर्म-शास्त्र-विरुद्ध कार्य कैसे किया होगा ?]
070
[शरीर के भीतर का अन्धकार नरक में जाने की सीढ़ी है, प्रकाश स्वर्ग में जाने की सीढ़ी और शरीरस्थ ध्वन्यात्मक राम-नाम वा शब्द-ब्रह्म, सत्यनाम मोक्ष में जाने की सीढ़ी है।]
071
[रामचरितमानस में ज्ञान-मार्ग को अत्यन्त कठिन-साध्य बतलाकर भक्ति-मार्ग के तुल्य आदर नहीं किया गया है, इस प्रकार का वर्णन-ज्ञानमार्ग के पक्ष में अत्यन्त भयानक वचन है; इससे यह न समझना चाहिए कि रामचरितमानस के भक्ति-मार्ग पर चलने के लिए ज्ञान-वैराग्य की आवश्यकता ही नहीं है। चौ0 880 में साफ-साफ कहा गया है कि जिस खान में भक्ति-रूपी चिन्तामणि मिलेगा, उस खान में उस भक्ति-मणि को परखने के लिए ज्ञान और वैराग्य ही नेत्र हैं। अतएव विश्वासपूर्वक जानना चाहिए कि जैसे नेत्रहीन-अन्ध मनुष्य रूप विषय को ग्रहण नहीं कर सकता है, उसी तरह ज्ञान-वैराग्य से हीन मनुष्य को भक्ति-रूपी चिन्तामणि प्राप्त नहीं हो सकता है। चौ0 272 में वर्णन है कि सारासार का ज्ञान होने पर राम-चरण में प्रेम होगा। और चौपाई 919 से 924 तक में वर्णन है कि जब संसार-रोग से ग्रसित जीव सद्गुरु-वैद्य से प्राप्त राम-भक्ति-संजीवनी जड़ी को श्रद्धायुक्त होकर सेवन करेगा और विषयासक्ति-रूप कुपथ्य नहीं करेगा (वैराग्य-युक्त रहेगा); तब वह रोग से मुक्त होगा। रोग-मुक्त होने के लक्षण ये होंगे कि उसके हृदय में उत्तम ज्ञान और वैराग्य बढ़ते जाएँगे और जब वह (रोगी) विमल ज्ञान (जिस ज्ञान में राम का निर्मायिक स्वरूप ग्रहण होता है) में निमग्न हो जाएगा, तब उसके हृदय में भक्ति स्थिर होकर विराजती रहेगी। इन वर्णनों से यह स्पष्ट प्रकट होता है कि भक्ति-मार्ग में आरम्भ से अन्त पर्यन्त ज्ञान उसका साथी है। ज्ञान-बिना भक्ति-मार्ग में चलना एक पग भी असम्भव है। भोलेपन से यदि ज्ञान का एकदम तिरस्कार कर दिया जाय और बिना उसके अन्धा होकर (दे0 चौ0 880) भक्ति-मार्ग पर चलना आरम्भ किया जाय, तो लोकमान्य तिलक कृत गीता-रहस्य (भक्ति-मार्ग) के वर्णन के अनुसार ‘अन्ध श्रद्धा और उसी के साथ अन्धा प्रेम धोखा खा जाएगा और दोनों गड्ढे में जा गिरेंगे।’ ऐसा होना रामचरितमानस के अनुसार भी अवश्य ही सम्भव है।]
072
[ऊपर वर्णित चौपाई भी ब्रह्म-विचार की निपुणता की अर्थात् ज्ञान की विशेषता दरसा रही है। ब्रह्म-विचार में निपुण लोगों के ही मत की साक्षी पर कागभुशुण्डिजी गरुड़जी को और गोस्वामी तुलसीदासजी सर्वसाधारण को भक्ति-माार्ग में विश्वास दिला रहे हैं।]
073
[जबतक जीव को शान्ति-सुख नहीं प्राप्त हो, तबतक जानना चाहिए कि वह राम से विमुख ही है। चौ0 858 के अर्थ के नीचे के कोष्ठान्तर्गत वर्णन को पढ़िए। निःसंशय रूप से समझ जाइएगा कि राम के केवल सगुण रूप में लगे रहनेवाले को शान्ति-सुख नहीं प्राप्त हुआ है। इस कारण राम के निर्गुण रूप में जो कोई रत होगा, वही शान्ति-सुख पावेगा। और वही निश्चय करके राम का परम भक्त और राम से अविमुख कहलाएगा।]
074
[धन की तीन गतियाँ हैं-(1) दान, (2) भोग और (3) नाश।]
075
[चौ0 सं0 118 में सप्त सोपान का और उनको ज्ञान-नयन से देखने का वर्णन हो चुका है, उस चौपाई के नीचे कोष्ठान्तर्गत वर्णन को विचार-सहित पढ़ लीजिए। यह निश्चय ही ईश्वर की अत्यन्त कृपा उस पर है, जो भक्ति-मार्ग में चलने के हेतु उसकी (भक्ति-मार्ग की) इन सीढ़ियों पर पैर रखता है। रामचरितमानस के सातो सोपानों की कथा का श्रवण और मनन करना, उसमें वर्णित नवधा भक्ति में साधन द्वारा चलना ऊपर कथित सीढ़ियों पर पैर रखकर चलना है। नवधा भक्ति का वर्णन चौ0 सं0 455 से 461 तक में पढ़ लीजिए और कोष्ठ में लिखे वर्णनों को भी खूब समझ लीजिए।]
076
[चौ0 सं0 950 में कहा गया है कि कलिकाल में जप-साधन नहीं है, पर चौ0 सं0 951 में राम का सुमिरण करने को कहा गया है। वर्णात्मक राम-नाम का सुमिरण जप ही तो है और नवधा-भक्ति के वर्णन में भी मन्त्र-जप को पाँचवीं भक्ति कहा है। इस तरह जप की विधि और निषेध; दोनों हैं। इसका तात्पर्य यह जान पड़ता है कि भक्ति-मार्ग में जिन जप-योगादि साधनों की आवश्यकता है, जिनके बिना भक्ति-मार्ग पर चलना ही असम्भव है, उन (साधनों) को कलि-कालादि सब कालों में करना चाहिए। भक्ति-मार्ग में जप-योगादि जिन-जिन साधनों की आवश्यकता है, वे नवधा भक्ति के वर्णन में अच्छी तरह दरसा दी गई है। कलि-काल के क्रूर धर्म का प्रभाव प्रेमी भक्तों पर नहीं व्यापता है, (दे0 चौ0 सं0 808)। इस कारण कलि- धर्म का भय मन से दूर करके, आलस्य छोड़ पुरुषार्थी और प्रेमी बनकर जप-योगादि जिन-जिन साधनों से भक्ति बने, भक्तों को उनका अभ्यास करना चाहिए। परमेश्वर के भक्त चार प्रकार के होते हैं-उनमें से जो परमेश्वर के विशेष प्यारे हैं, उनका वर्णन चौ0 सं0 92 से 98 तक खूब समझ-समझकर पढ़ लीजिए। परमेश्वर के विशेष प्यारे भक्त योगी और ज्ञानी ही होते हैं, अतएव भक्ति-मार्ग में योग की बड़ी आवश्यकता है। इस बात को भूलकर योग से चित्त को कभी नहीं हटाना चाहिए। अपने को भक्त जानना और भक्ति-मार्ग में आवश्यक योगाभ्यास नहीं करना, पाखण्ड और वंचकता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। साथ-ही-साथ यह भी जान लेना चाहिए कि भक्ति-मार्ग का आवश्यक योगाभ्यास परम सरल है, उसे चौ0 सं0 455 से 461 तक उनके अर्थों और कोष्ठान्तर्गत वर्णनों के सहित पढ़ लीजिए। भक्ति-मार्ग के योगाभ्यास में स्थूल शरीर को कष्ट देनेवाले किसी साधन की आवश्यकता नहीं होती है। यह (योगाभ्यास) तो अत्यन्त सरल, प्रेममय और परम शान्तिदायक परम प्रभु के परम पद से मिलानेवाला है।]