ॐ श्री सद्गुरवे नमः
‘सन्तमत’ शब्द का अर्थ यदि यह माना जाय कि जितने भी सन्त हुए हैं ; सभी के भिन्न-भिन्न मत हैं और उन सारे मतों को मिलाकर जो मत हो सकता है या कहा जा सकता है, उसे ही सन्तमत कहते हैं, तो ‘सन्तमत’ शब्द का मूल अभिप्राय ही नष्ट हो जाता है। हमें जहाँ तक अवगत है- हम कह सकते हैं कि अभी तक अधिकांश विद्वानों के विचार में यह तथ्य दृढीभूत नहीं हो पाया है कि भारत ही नहीं- सर्वत्र के सभी सन्तों का मत, धर्म सिद्धान्त और लक्ष्य एक ही है। इसीलिए सन्तमत-साहित्य का इतिहास जानने के प्रथम हमें यह जानना होगा कि सन्तमत शब्द का ‘वास्तविक अर्थ’ कहाँ से प्रारम्भ हुआ और इसके प्रथम प्रणेता कौन हुए? तभी हम सन्तमत का’ एवं उसके साहित्य का इतिहास और उसका क्रम-विकास जान सकेंगे। हमारे एक विद्वान मित्र हैं, जिन्होंने ‘सन्तमत-साहित्य का इतिहास’ लिखने की कल्पना करते हुए कहा था- ‘यह काम तो बड़ा दुरूह है। हमें प्रारम्भ के सन्तों के विचारों का स्वरूप बतलाते हुए यह दिखाना होगा कि प्रथम के संतमत का कैसा अस्पष्ट या अविकसित रूप था, जो विकास करते-करते आज इस उत्कर्ष को प्राप्त हुआ है।’
उनकी ऐसी बात सुनकर मैंने जानने के लिए पूछा- ‘पहले के सन्तों के कैसे और कौन-से विचार थे, जिसे आप शैशवकालीन अविकसित या अनुन्नत कहते हैं और वर्तमान में उनके विचार उन्नत या विकसित होकर कैसे उत्कर्षतर रूप को धारण किए हुए है – इसे जरा साफ-साफ मुझे समझाने की कृपा करें ।’
उत्तर में उन्होंने इस विषय का स्पष्टीकरण करने के स्थान पर टाल-टूल किया, शायद सन्तमत की गूढ़ता को नहीं समझ सकने की मेरी अयोग्यता के कारण । खैर, वह बात वहीं समाप्त हो गयी। तदुपरान्त मुझे वेदकाल से लेकर आजतक के अनेक ऋषियों-सन्तों की वाणियाँ पढ़ने को मिली , जिनमें मैंने सभी के विचारों को एक ही रूप में पाया, केवल उस समय की और स्थान की उसे प्रगट करने के ढंग भिन्न-भिन्न जान पड़े। किन्तु इस समन्वयकारी एकता की दृष्टि तो मुझे पूज्यपाद महर्षिजी के सत्संग से ही प्राप्त हुई थी। मैंने सब सन्तों की वाणियों में परमात्मा की सर्वविध अनन्त स्वरूपता का दर्शन किया और पाया कि शम-दम या इन्द्रिय-निरोध एवं मन की एकाग्रता द्वारा ही परमात्म-दर्शन के पथ पर चला जा सकता है। इस क्रिया के द्वारा इड़ा एवं पिंगला नाड़ियों के मध्य सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करना अनिवार्य है, जिसके लिए दृष्टियोग अपेक्षित है। यह अन्धकार मण्डल की सीमा को तोड़कर प्रकाश मण्डल में प्रवेश करने का अनिवार्य साधन या विधान है; पर साधना का पथ यहीं समाप्त नहीं हो जाता। प्रकाश मण्डल के भी आगे शब्द मण्डल है। वहाँ की चढ़ाई या आरोहण के लिए. नादानुसन्धान या सुरत-शब्द-योग का साधन करना पड़ता है। शब्द मण्डल की भी मर्यादा या सीमा है। उससे बाहर होते ही परमात्मा का साक्षात्कार होता है और फिर कुछ भी पाने के लिए बाकी नहीं रहता। साधना की यहाँ समाप्ति है। इस साधना में केवल वे ही सफलता पा सकते हैं, जिनका आचरण पवित्र और निर्मल है, जिन्होंने चोरी, व्यभिचार, नशा, हिंसा अर्थात् जीवों को दुख देना या मत्स्य-मांस को खाद्य पदार्थ मानकर उसे ग्रहण करना और झूठ बोलने का परित्याग कर दिया है। जो वर्णित परमात्म-स्वरूप और साधन-क्रम का बौद्धिक-ज्ञान प्राप्त कर नित्य सत्संग और नियमित रूप से ध्यानाभ्यास करते हैं। जो एक मात्र उस परम प्रभु पर ही भरोसा एवं पूर्ण विश्वास रखते हैं और जो सद्गुरु को ‘कृपासिन्धु नररूप हरि’ मानकर तन-मन-धन से उनकी सेवा करके उन्हें सन्तुष्ट कर लेते हैं।
शम-दम या मन एवं इन्द्रियों को निग्रह करने के लिए प्रथम किसी वर्णात्मक नाम का जप और अपने इष्ट का मानस ध्यान करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। इसके बिना मन को एकविन्दुता प्राप्त कराने की साधना में सफल होना उसी भाँति असम्भव है, जिस भाँति ‘भूमि पड़ा चह छुअन अकाशा’ है। और मैंने अपने अध्ययन में सभी ऋषियों, सन्तों, पूर्ण भक्तों, पूर्ण योगियों, ब्रह्मज्ञानियों की वाणियों में कहीं संक्षिप्त और कहीं विस्तृत रूप से इन सारी साधनाओं का विवरण पाया; पर सभी सन्तों के एक ही लक्ष्य, साधन-मार्ग और आचरण-प्रकार है - यह केवल बौद्धिक परिकल्पनाओं से नहीं बताया जा सकता। यह तो साधना के सम्पूर्ण मार्गों को तय करके ही जाना जा सकता है और मंजिल पर पहुँचे हुए योगी, ज्ञानी और भक्त ही इसकी वास्तविक और निर्णयात्मक घोषणा कर सकते हैं ; क्योंकि वे ही इसके एकमात्र अधिकारी है। हमलोग तो केवल अपनी बौद्धिक जानकारी और अपना विश्वास मात्र ही प्रगट कर सकते हैं। यद्यपि इसे समझने के लिए हमारे पास विवेक-बुद्धि ही प्रधान साधन है, पर इसे भी पूर्वगत संस्कारों- राग, आसक्ति और पक्षपात से रहित बनाकर समझना होगा। ऐसे अनुभवी महापुरुषों की सत्संगति करनी होगी- बारम्बार उन विचारों को श्रवण कर मनन करना होगा। तब धीरे-धीरे ये बातें भली भाँति समझ में आने लगती है। हम तो ऐसा ही समझते हैं ।
सन्तमत-साहित्य का इतिहास सभी सन्तों का मत भिन्न-भिन्न मानकर अथवा सभी सन्तों का मत एक ही मानकर भी लिखा जा सकता है, परन्तु सभी सन्तों के एक या विभिन्न मत के सम्बन्ध में बहुत सारी बातें लिखी गईं, अतः यहाँ पर हम सन्तमत के सही अर्थ पर आधारित इतिहास देने का प्रयत्न कर रहे हैं।
बुद्ध भगवान और आचार्य शंकर भी सन्त थे पर उस समय सन्तमत की एकता का प्रतिपादन नहीं हुआ। समर्थ स्वामी रामदास, भक्त नामदेव, गुरु नानक और कबीर साहब आदि सन्तों ने विभिन्न धर्मों की एकता को स्फुट रूप से अवश्य ही ध्वनित किया है, पर उसका सुसम्बद्ध प्रतिपादन नहीं किया गया। फिर भी इनकी वाणियों में एकता के बीज आंशिक रूप में भी अवश्य देखे जा सकते हैं। यहाँ ऐसे सन्तों की कुछ वाणियाँ परिदर्शनार्थ उपस्थित की जाती है--
‘भिक्षु, जो अपने शून्य हृदय में पहुँच गया है, जिसका चित्त स्थिर है, जो धर्म को साफ तौर से देखता है, वह अलौकिक आनन्द पाता है। (धम्मपद २५ । १४)’
जो लोग भगवान बुद्ध को निरीश्वरवादी और नास्तिक कहते हैं, वे धम्मपद की उपर्युक्त वाणी का मनन और निदिध्यासन करें, तो वे पाएँगे कि उनका शून्यवाद सर्वोच्च सिद्धि के प्रथम संकल्प-विकल्प-विहीनता-चित्तवृत्ति-निरोध, ‘शून्य ध्यान सब के मन माना, तुम बैठो आतम अस्थाना ।’ है। एसी स्थिति साधना-काल में बिना प्राप्त किए परम सच्चिदानन्द की प्राप्ति नहीं होती। सर्वोच्च तत्त्व को कोई अनन्त, कोई पुरुषोत्तम, कोई अनाम, कोई सर्वातीत शून्य, कोई सत्-असत् एवं क्षर-अक्षर के परे और कोई अखण्ड अलौकिक आनन्द’ शब्द से ही अभिहित करें तो इसमें परमात्मा के नहीं मानने की बात कैसे आ जाएगी? ‘सुन्न आसन आप साईं, बसन रंगरस भोर ।’ -शिवनारायण स्वामी
“गुरु के प्रसाद सब योग की युगति जानै, गुरु के प्रसाद शून्य में समाधि लाइये ।’
-सन्त सुन्दरदासजी
‘सुन्न मंडल सतलोक अगम घर छावहीं ॥’ – सन्त गरीबदासजी
‘इक पहर एकान्त ह्वैके सुन्न ध्यान लगावनं ।’ – सन्त पलटूदासजी
‘छठये छओं चक्रको बेधे, सुन्न भवन मन लावै ।’ - सन्त धरनीदासजी
‘सुन्न सिखर चढ़ि रहै, दृढ़ जहाँ आसन करै।’ –सन्त चरणदासजी
‘सहज सुन्नि मन राखिये, इन दुन्यूँ के माहिं । लय समाधि रस पीजिये, तहाँ काल भय नाहिं॥’
–सन्त दादूदयालजी
‘सुखमन के घर रागु सुनि सुन्न मंडल लिवलाई।’ - गुरु नानक साहब
‘सहज सुन्न में रहै समाना, सहज समाधि लगावै।’ – सन्त कबीर साहब
‘जहाँ पुरुष तहवाँ कछु नाही, कहै कबीर हम जाना ।’ – सन्त कबीर साहब
बस्ती न शून्यं शून्यं न बस्ती अगम अगोचर ऐसा । – योगी गोरखनाथजी
उपर्युक्त सारे सन्तों ने शून्य शब्द के द्वारा यदि परम तत्त्व की ओर संकेत किया, तो वे निरीश्वरवादी और नास्तिक नहीं हुए तो फिर भगवान बुद्धदेव को ही नास्तिक कहने का क्या रहस्य है? हमें लगता है कि भारतीय जनता की स्वाभाविक श्रद्धा परमात्मा के अस्तित्व में दृढीभूत है, अत: परमात्मा की सत्ता को स्वीकारनेवाले अनेकों सम्प्रदायों को भारतीय जनता ने आश्रय दिया, तो बुद्धधर्म को प्रश्रय नहीं देने का कोई कारण ही नहीं था। इसलिए इस स्वाभाविक मानव-धर्म को भारत से उखाड़ फेंकने के लिए, उसे निरीश्वरवादी और नास्तिक कहकर सत्यधर्म-विरोधी आसुरी वृत्तियों ने अपनी संकीर्ण, अमानुषिक साम्प्रदायिकता को प्रस्थापित करने के लिए, यह षड्यन्त्र भरी चाल चली। उसे नास्तिक धर्म कहकर खूब अपप्रचार किया गया जिससे बुद्धदेव को भगवान का अवतार मानते हुए भी भारतीय जनता ने उनके धर्मो को भ्रम और अज्ञानतावश उसे नास्तिकता का धर्म मानकर उसे छोड़ दिया। कुछ सचेत वर्गों ने जब इस धर्म-सुरक्षा में तन-मन-धन से सहायता पहुँचायी, तो उस संकीर्ण-वृत्ति के धर्मों ने ऐसे समाज को अस्पृश्य, शूद्र, घृण्य कहकर उसे अपमानित करने की योजना का क्रियान्वित किया।
यद्यपि भगवान बुद्ध ने वेद-शास्त्रों के मन्थन कर सभी महर्षि-सन्तों के एक ही धर्म (सन्तमत) का प्रतिपादन नहीं किया, परन्तु सन्तों के धर्मों में जो उदारता होती है, वह उसके कण-कण में ओतप्रोत थी, इसीलिए अनायास ही संकीर्णता-विहीन मानव-समाज ने उसे स्वभावतः अपना लिया ।
ऋषि शब्द का प्रचलन उठ जाने या कम हो जाने के बाद भगवान बुद्धदेव को हम प्रथम सन्त कहकर अभिहित या विहित करें, तो यह अवश्य ही उचित है। परन्तु सन्तमत का बीज बौद्धधर्म में रहते हुए भी हम इसके इतिहास को प्रारम्भ नहीं कह सकते । क्योंकि जन-साधारण की समझ में सब सन्तों के विचारों या सिद्धान्तों की एकता का निरूपण इसमें नहीं हुआ।
आश्रितमात्रं पुरुषं स्वाभिमुखं कर्षति श्री शः ।।
लोहमपि चुम्बकाश्मा सम्मुखमात्रं जडं यद्वत् ॥
अयमुत्तमोऽयमधमो जात्या रूपेण सम्पदा वयसा ।
श्लाघ्योऽश्लाघ्यो वेत्थं न वेत्ति भगवानानुग्रहावसरे ॥
- (प्रबोध सुधाकर २५१। २५२)।
अर्थ- श्री कृष्ण अपने आश्रम में आए हुए सभी पुरुषों और प्राणियों को वैसे ही खींचते हैं , जैसे सामने आए हुए जड़ लोहे को चुम्बक अपनी ओर खींचता है। कृपा करते समय भगवान यह कभी नहीं विचारते हैं कि यह उत्तम है या अधम है, यह उच्च जाति का है, यह नीच जाति का है, यह रूपवान है, यह कुरूप है, यह धनी है, यह गरीब है, यह अधिक उम्र का है, यह कम उम्रवाला है, यह प्रशंसा करने योग्य है या निन्दित है।
स्वामी शंकराचार्यजी की उपर्युक्त वाणी अवश्य ही मानव मात्र को भगवद्-शरण में जाने, उनकी भक्ति यानी उनके पाने का साधन करने के लिए प्रेरणा करती है, फिर भी इससे यह बात सुस्पष्ट नहीं होती कि सभी महर्षियों और सन्तों ने इस मार्ग और उपासना को ही प्रतिपादित किया है । यद्यपि गोस्वामी तुलसीदासजी तथा गीता ने भी इसका समर्थन और प्रतिपादन किया है
‘कह रघुपति सुनु भामिनि बाता । मानउँ एक भगति कर नाता ॥
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई । धन बल परिजन गुण चतुराई ॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा । बिनु जल वारिद देखिय जैसा ॥’
अपिचेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥
- श्री मद्भगवद्गीता, अ॰ ९।३०। ३१
अर्थात् घोर दुराचारी भी यदि अनन्य भाव से मेरा भजन करे, तो उसके अच्छे संकल्प के कारण वह साधु ही मानने योग्य है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा के लिए शान्ति प्राप्त कर लेता है। हे कुन्तीपुत्र ! यह सुनिश्चित समझो कि मेरे भक्तों का कभी भी विनाश यानी दुर्गति नहीं होती।
(ग्यारहवीं वि॰ सं॰ का प्रारम्भकाल)
‘मन में रहना भेद न कहिणा, बोलिबा अमृत वाणी।
आगि का अगनी होइबा अवधू, आपण होइबा पाणी ॥
गगन मण्डल में औंधा कूँवा, तहाँ अमृत का बासा ।
सगुरा होइ सो भर-भर पीया, निगुरा जाय पियासा ॥
धाये न खाइबा, भूखे न मरिबा अह निसि लेबा ब्रह्म अगिनि का भेवं ।
हठ न करिबा, पड़े न रहिबा यूँ बोल्या गोरख देवं ॥’
गुरु गोरखनाथजी ने लोक दिखावे से बचकर अन्तस्साधना करने के लिए कहा है। सदा मीठी वाणी बोलना और किसी की क्रोधभरी वाणी सुनकर भी सदा शान्त रहना । यह सब साधकों के लिए समुपयुक्त उपदेश है।
पुनः अन्तस्साधना का निर्देश है कि अन्तराकाश द्वारा गुरु के सूक्ष्म या ज्योतिर्मय रूप का दर्शन कर पाता है, वही सगुरा है। वह भरपेट आनन्द-सुधा का पान करता है, जिसने इस भाँति सद्गुरु की प्राप्ति नहीं की है, वह निगुरा अपने घर में अमृत-जल रहते हुए भी प्यासा ही लौट जाता है।
युक्ताहार-विहार सहित रहकर रात-दिन ब्रह्माग्नि प्रज्वलित करने की साधना में लगे रहना चाहिए।
उपर्युक्त वाणियों में भी अवश्य ही सर्वजनों के आचरणीय निर्देश है , किन्तु यहाँ भी इसका प्रतिपादन नहीं है कि सभी सन्त-महर्षिगण एक मात्र इसी मत का ही पोषण करते आ रहे हैं । हाँ, निरपेक्ष-निष्पक्ष भाव में स्थित होकर इन वाणियों में भी सन्तमत की एकरूपता तथा उसकी व्यापकता का प्रत्यक्षीकरण किया जा सकता है और एक धारा सन्तमत के इतिहास की ऐसी भी हो सकती है और सम्भवतः अधिक लोगों ने अभी तक इसी पथ का अनुसरण भी किया है।
‘सर्वैः प्रपत्तैरधिकारिणः सदा शक्ता अशक्ता अपि नित्य रङ्गिणाः।
अपेक्ष्यते तत्र कुलं बलं च नो, न चापि कालो न हि शुद्धता च ॥’
अर्थ- भगवान के चरणों में अनुराग करनेवाले सभी लोग – चाहे वे समर्थ हों या असमर्थ, भगवद्-शरणागति के नित्य अधिकारी हैं । भगवान की शरण में जाने के लिए न श्रेष्ठ कुल की आवश्यकता है, न किसी प्रकार के बल की ही। वहाँ न किसी श्रेष्ठ काल की अपेक्षा है और न विशेष प्रकार की शुद्धि की ही जरूरत है। सब समय और सभी अवस्थाओं में जीव परमात्मा की शरण में आ सकता है।
स्वामी रामानन्दजी ने उक्त वाणी के अनुसार आचरण करके, उसे व्यवहार रूप में परिणत करके दिखा दिया कि सभी जाति, सम्प्रदाय और वर्गों के लोग ब्रह्मज्ञान के अधिकारी हैं और उनके शिष्यों में अनेक वर्णों के लोग साधना करके सन्त या ऋषि के पद तक पहुँच भी गए, परन्तु सभी सन्तों ने यही सिद्धान्त स्थापित किए हैं, इसका सुस्पष्ट प्रतिपादन यहाँ भी नहीं हुआ। क्योंकि सन्तमत-विरोधी धाराओं का इतना प्राबल्य था कि उन्होंने इसे वेद-विरोधी मत कहकर ही जनता में इसका प्रचार किया और एकता एवं सामजस्य स्थापना की अनुकूलता का अवसर ही नहीं बनने दिया।
हिन्दू पूजै देहरा, मुसलमान मसीत ।
नामा सोई सेविया, जहँ देहरा न मसीत ॥
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अणमडिया मंदलु बाजै, बिनु सावन घनहरु गाजै।
बादल बिनु बरषा होई, जउ ततु विचारै कोई ॥१॥
मोको मिलिओ राम सनेही, जिह मिलिअै देह सुदेही ॥ रहाउ॥
मिलि पारस कंचनु होइआ, मुष मनसा रतनु परोइआ ।
निज भाउ भइआ भ्रमु भागा, गुर पूछे मनु पतिआगा ॥२॥
जल भीतरि कुम्भ समानिआ, सम रामु एकु करि जानिआ ।
गुरु चेले हैं मनु मानिआ, जन नामैं तनु पिछानिआ ॥३॥
इनकी वाणियों में सद्गुरु की कृपा से अन्तर में अनहद ध्वनि सुनकर राम की सर्व व्यापकता का प्रत्यक्ष ज्ञान होने की बात है और वह ज्ञान हिन्दू-मुसलमान सभी के लिए एक समान ग्रहण करने योग्य है, किन्तु उसकी प्राप्ति बाहरी पूजाओं से नहीं हो सकती। इनकी वाणियों में भी सन्तमत की उदार अभिव्यक्ति स्पष्ट हो गयी है, जबकि उन्होंने सगुणोपासना के उपरान्त आगे की निर्गुण-उपासना में सद्गुरु के द्वारा प्रवेश किया। परन्तु सभी सन्तों के एक ही मत की चर्चा यहाँ भी स्पष्ट नहीं ।
गुरु को कीजै दण्डवत, कोटि कोटि प्रणाम ।
कीट न जानै भृंग को, वह करि ले आप समान ॥
कोटि नाम संसार में, ता तें मुक्ति न होय ।
आदि नाम जो गुप्त जप, बूझै बिरला कोय ॥
सहजे ही धुन होत है, हरदम घट के माहिं ।
सुरत शब्द मेला भया, मुख की हाजत नाहिं ॥
सब घट मेरा साइयाँ, सूनी सेज न कोय ।
बलिहारी वा घट्ट की, जा घट परगट होय ॥
अगवानी तो आइया, ज्ञान विचार विवेक ।
पीछे गुरु भी आयँगे, सारे साज समेत ।।
काँकर-पाथर जोड़ि के, मसजिद लिया बनाय ।
ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय ॥
पूजा सेवा नेम व्रत, गुड़ियन का सा खेल ।
जब लगि पिउ परिचय नहीं, तब लगि संशय मेल ॥
कबीर साहब अपने समय के विशेष सन्तों में से थे। उस कोटि के और भी अनकों सन्त हुए हैं । सभी की वाणियों में सन्त-साधना सम्बन्धी एक ही विचार और सिद्धान्त अवश्य है , पर सभी सन्तों के एक ही मत है, ऐसा प्रतिपादन नहीं पाया जाता। और सन्तों की वाणियों को स्थानाभाव से छोड़ देना पड़ा है। केवल जन-समाज में व्यापक प्रसिद्धिवाले सन्तों की वाणियों में ही सन्तमत-साहित्य का इतिहास अन्वेषित किया जा रहा है।
कूड़े करहिं तकव्वरी, हिन्दू मूसलमान।
लहन सजाईँ नानका, बिनु नाँवैँ सुलतान ॥
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जोगु न खिंथा जोग न डंडै, जोगु न भसम चढ़ाईअै ।
जोगु न मुंदी मूँड़ि मुड़ाईअै, जोगु न सिंञी वाईअै ॥
अंजन माहिं निरंजनि रहिअै, जोग जुगति इव पाईअै ॥१॥
केवल बाह्य पूजा-विधानों से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। इसके लिए योग की युक्ति जानकर दृश्य में व्याप्त निरंजन का दर्शन करना चाहिए। ऐसी ही साधना का निर्देश सभी सन्तों की वाणियों में है। गुरु नानक साहब ने इस एकता का प्रतिपादन तो नहीं किया, परन्तु इनकी उदार प्रेरणा से ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ में दसों गुरुओं के सिवाय कबीर साहब, रैदासजी आदि-आदि सन्तों की वाणियाँ भी सम्मिलित है। इससे अलक्ष्य रूप में ऐसा मानना उचित और उपयुक्त प्रतीत होता है कि उन्होंने ‘सभी सन्तों का एक ही मत है को घोषणा किए बिना उसका स्वरूप उपस्थित कर दिया । अतः यहाँ पर कुछ सन्तों के विचार की एकता का प्रतिपादन हो जाने से संतमत के इतिहास का लघु-प्रयत्न इसे कहा जाना चाहिए। परन्तु इन महान समन्वय के बावजूद भी उनके अनुयायियों ने अपना एक गिरोह बना लिया है, जिसका आधार बाहरी रूप और क्रिया ही है। इससे जान पड़ता है कि उनके उपदेशों की विशालतम उदारता का आन्तर-परिचय उनके अनुयायी कहलानेवाले जन नहीं पा सके और वे भी एक सम्प्रदाय के रूप में आबद्ध हो गए।
गुरु नानकदेव के बाद और अनेकों सन्त अवश्य ही हुए, परन्तु उनमें से लोक में अधिक व्यापक प्रसिद्धिवाले भक्तवर सूरदासजी, गोस्वामी तुलसीदासजी, समर्थ स्वामी रामदासजी ही हुए– यही मानकर इनकी वाणियाँ ऐतिहासिक श्रृंखला की संक्षिप्त रेखा के रूप में उपस्थित की जाती है -
सोई भलो जो रामहिं गावै।
स्वपचहुँ श्रेष्ठ होत पद सेवत, बिनु गोपाल द्विज जनम न भावै ॥
वाद-विवाद यज्ञ व्रत साधन, कितहूँ जाइ जनम डहकावै ।
होइ अटल जगदीश भजन में, अनायास चारिहुँ फल पावै ॥
कहूँ ठौर नहिं चरणकमल बिनु, भृंगी ज्यों दसहुँ दिसि धावै ।
‘सूरदास’ प्रभु सन्त समागम, आनन्द अभय निसान बजावै ॥
भक्तवर सूरदासजी ने सन्त-समागम की महिमा का बखान कर अवश्य ही सन्तमत की एकरूपता की ओर संकेत दिया है, पर इसका युक्तियुक्त प्रतिपादन नहीं किया।
बड़े भाग मानुष तन पावा ।
सुर दुर्लभ सद्ग्रन्थहिं गावा ॥
‘जिससे निर्गुण परमात्मा जानने में आता है, वही ज्ञान है; उसके अतिरिक्त सब कुछ अज्ञान है।
जिसने अखिल ब्रह्माण्ड उत्पन्न किया, उस परमेश्वर को जिसने नहीं पहचाना, वह पापी है। इसलिए ईश्वर को पहचानना चाहिए । समझता न हो तो सत्संग करना चाहिए, जिससे समझ में आ जाता है।’
‘जो ईश्वर को जानते हैं और शाश्वत-अशाश्वत का भेद बता देते हैं, वे सन्त हैं ।’
उक्त वाणी में ‘सन्त’ का परिचय होने से सन्तमत का भी परिचय आ जाता है । परन्तु ईश्वर के पाने की एक ही विधि है- इसका निर्णय इसमें स्पष्ट नहीं है।
‘तुलसी प्यास तौ बुझे प्यार से, चढ़ घर अधर समाइ ।
किरपावन्त सन्त समुझावैं, और न लगै उपाइ ॥’
इस वाणी से स्पष्ट प्रतीत होता है कि सन्त तुलसी साहबजी के विचार से सभी सन्त अन्तराकाश में चढ़ने के लिए एक ही रास्ता बतलाते हैं । यदि भिन्न-भिन्न पथ बतलाते तो ‘सभी सन्त’ कहने का तो निश्चित अभिप्राय नहीं होता। अतः यहाँ सन्तों का विचार या मत एक ही है, ऐसा प्रतिपादित होता है। आगे उनकी वाणी में और भी सुस्पष्टता से ‘सन्तमत’ का प्रतिपादन सुनिए-
जग बेहोश बूझै नहीं, ‘सन्तमते’ की बात ॥
संतमते की बात, लात जम तातें मारै ।।
चोटी धरि-धरि काल पकड़ि चौरासी डारै ॥
मद माया के माहिं बात चित नेक न लावै ।
ऐसा बड़ा अयान जानकर ज्ञान न भावै ॥
तुलसी बूझ विचार ले, अंत किया नहीं साथ ।
जग बेहोश बूझै नहीं, ‘संतमते ‘ की बात ॥
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अब पंथा पंथी दरसाऊँ ।
पूछे पंथ न जाने गाऊँ ॥
पंथ नाम मारग को होई।
सो पंथी बूझा नहिं कोई ॥
गाय बजाय खंजरी पीटी।
गावत मुख में पड़ि गई सीठी ॥
जो सन्तन का शब्द विचारा।
सूझे पंथ वार अरु पारा ॥
शब्द सन्धि कछु और बतावै।
यह नहिं समझ सोध मन लावै ॥
गुरु बानी सन्तन की बूझै ।
निर्मल नैन आँखि से सूझै ॥
गुरु चेला मिलि पंथ चलावा ।
‘संत पंथ’ की राह न पावा ॥
-(रत्नसागर से)
उपर्युक्त वाणियों के आधार पर यह बात सुस्पष्ट और सुस्थिर हो जाती है कि सन्त तुलसी साहब ने सभी सन्तों के पंथों को भली-भाँति अनुभूति के प्रकाश में देखकर ही ‘सन्त पंथ’ की तीव्र स्वरों में उद्घोषणा की। इसके पहले और किसी सन्त की वाणियों में सन्तमत का इतना जोरदार प्रतिपादन नहीं पाया जाता। लगता है यहाँ से ‘सन्तमत यानी सभी सन्तों का एक ही मत वा धर्म है’ इसका सुदृढ़ प्रारम्भ हो गया है। ‘सन्त साहित्य’ के मर्मज्ञ विद्वान माने गए पण्डित परशुराम चतुर्वेदीजी ने अपने ‘सन्त-काव्य’ में सन्त तुलसी साहब का जो परिचय दिया है, वह भी इसको सम्पुष्ट करता है। नीचे पढ़िए--
‘तुलसी साहब को अपने पूर्ववर्ती संतों के नाम पर प्रचलित पंथों वा सम्प्रदायों में से किसी के शुद्ध (संत) मतावलम्बी होने में विश्वास नहीं था। वे बहुधा कहा करते थे कि कबीर साहब, गुरु नानकदेव, दादू दयाल प्रभति सन्तों ने जो मत प्रवर्तित किया था, वही सच्चा संतमत था, जिसे उक्त पंथों के अनुयायियों ने अपनी नासमझी के कारण भुला दिया और निरी बाह्य विडम्बनाओं में फँस गए। वे इसी कारण चाहते थे कि ऐसे लोग उसका मूल रूप फिर एक बार जानने की चेष्टा करें और उसी का प्रचार करें। इस दृष्टि से वे एक पक्के सुधारवादी थे और ‘सन्तमत’ की पुनः प्रतिष्ठा के लिए उन्होंने बहुत कुछ प्रयत्न किए। उनकी ‘घट रामायण’, ‘रत्नसागर’ तथा ‘शब्दावली’ नाम की रचनाएँ वेलवेडियर प्रेस (प्रयाग) द्वारा प्रकाशित हो चुकी है। इनमें विविध प्रकार के छन्दों द्वारा उनके आदर्श ‘संतमत’ का वर्णन तथा प्रचलित पाखण्डादि का खण्डन किया गया पाया जाता है। वे अपने विषय को विस्तार देकर लोगों को समझाया करते थे और ऐसा करते समय भिन्न-भिन्न भाषाओं के प्रयोग भी कर लेते थे। वर्णन-शैली वैसी गम्भीर नहीं थी।’ (सन्त-काव्य के ‘आधुनिक युग’ शीर्षक से उद्धत)
सन्त तुलसी साहब की वाणी में सन्तमत को सुप्रतिष्ठित करने की प्रवृत्ति अत्यन्त स्पष्ट हो गयी है, अतः वास्तविक ‘सन्तमत’ अर्थात् सभी सन्तों का एक ही मत है- इसका सुनिश्चित रूप से प्रथम प्रतिपादन इन्हीं के द्वारा मानना उचित और सत्य लगता है, इसीलिए सन्तमत का प्रथम स्रष्टा इनको नहीं माना जा सके, तो ‘सन्तमत मत’ का प्रथम उद्गाता तो इनको अवश्य ही कहा जाना चाहिए। सन्तमत-सम्बन्धी और भी कुछ इनकी वाणियों का अवलोकन कीजिए-
थाह बतावै समुँद की, बल्ली भव जल माहिं।
‘संतमता’ दुरलभ कहैं, सतसंग में गोहराय ॥
संतन की साखी सभी, देत जुगन जुग ज्ञान ।
सतसंग करके बूझ ले, करत सभी परमान॥
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हम ‘संतन मत’ अगम बखाना ।
हम तो इष्ट सन्त को जाना ।।
सतगुरु अगम सिन्धु सुखदाई ।
जिन ‘सत राह’ रीति दरसाई ॥
जो कुछ करै करै सोइ सन्ता ।
सन्त बिना नहिं पावै ‘पन्था’ ॥
सतगुरु साहब सन्त लखावै ।
तब घट भीतर परचा पावै ॥
संत गुरु और पंथ न जाना ।
ये ही “संत पंथ” हित माना ॥
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जहाँ जोती निज निराकार कोउ न जावे।
“संत पंथ’ राह सोई अगम कहावे ॥
निरगुन और सरगुन का नाहीं खेला। ।
‘संत पंथ’ तुलसी कहै अगम अकेला ॥
“संतमता’ है सार और सब जाल पसारा ।
परमहंस सब भेष बहै सब मन की लारा ॥
आगरा
(जन्म, वि॰ सं॰ १८७५ कृष्णाष्टमी)
संत शिवदयालजी का परिवार प्रथम से ही सन्त तुलसी साहब के विचारों से प्रभावित था । इन्होंने अपनी साधना पूर्ण कर जब बाहर आकर सत्संग कराना आरम्भ किया, तो उक्त विचारों से इन्होंने संगठन के रूप में ‘सन्तमत’ की संस्थापना की। और सर्वप्रथम आगरा से ही ‘सन्तमत’ का प्रचार आरम्भ हुआ। इनके जीवनकाल में ‘राधास्वामी मत’ ‘सन्तमत’ नाम से ही अभिघोषित था, किन्तु इस मत के द्वितीय आचार्य शालिग्राम साहब ने ‘संतमत’ का नाम ‘राधास्वामी मत’ रखने की अभिलाषा अपने सद्गुरु के जीवन काल में ही प्रगट की थी और संत शिवदयाल साहब ने अपने छोटे भाई प्रतापनारायण से अपना शरीर छोड़ने के प्रथम कहा था कि शालिग्राम की इच्छा सन्तमत का नाम ‘राधास्वामी मत’ रखने की है, अत: मेरे बाद सन्तमत के साथ उस नाम को भी चलने देना । सन्त शिवदयाल साहब के जीवन-चरित्र में प्रतापनारायण ने इस विषय का उल्लेख किया है। सन्त शिवदयाल साहब को उनके अनुयायीगण स्वामी कहते थे और उनकी पत्नी को राधा कहकर पुकारते थे और उन्होंने अपनी रचना में ‘राधास्वामी’ शब्द का ही बारम्बार प्रयोग किया है तथा इस शब्द के द्वारा ही उन्होंने अनाम पुरुषोत्तम या सर्वोच्च तत्त्व-परमात्मा का निर्देश किया है; जैसे पुरुषोत्तम का नाम ‘राधास्वामी’ ही हो । इन सब कारणों से उनके परम प्रेमीभक्त सन्त शालिग्राम साहब के विचार में सन्तमत का नाम ‘राधास्वामी मत’ ही रखना अच्छा प्रतीत हुआ और इस नाम की प्रधानता हो जाने से ‘सन्तमत’ शब्द का वहाँ व्यवहार ही उठ गया, किन्तु अभी भी जन-साधारण में ‘राधास्वामी सन्तमत’ कहकर उसका उल्लेख किया जाता है।
एक संतमत सत्संगी एक बार आगरा सत्संग आश्रम गए। उन्होंने वहाँ के निवासी एक विशेष सत्संगी से पूछा- आपलोग परमात्मा को ‘राधास्वामी’ कहकर क्यों स्मरण करते हैं ?
इसपर वे बोले- ‘इस नाम की ओर तो पहले ही सन्त कबीर साहब ने संकेत कर दिया है-
कबीर धारा अगम की, सतगुरु दई बताय । ताहि उलटि सुमिरन करो, साईं संग मिलाय ।।
“तदनुसार ‘धारा’ को उलटने से वह ‘राधा’ बन गई और उसके साथ ‘स्वामी’ शब्द को मिला देने से ‘राधा स्वामी’ बन गया। इसे ही सुमिरन या जप करने का निर्देश कबीर साहब ने किया है।”
यह सुनकर ये सत्संगी हँसने लगे और कहा- ‘आपने इस संकेत का वास्तविक अर्थ ही आच्छादित कर दिया। कबीर साहब ने साधकों से अपनी बहिर्मुखी धारा को उलटाकर अन्तर-धारा, सुरत-शब्द-योग या मीनी मार्ग का संकेत किया है; जिस शब्दधारा को पकड़कर सुरत, स्वामी यानी परमात्मा से मिल जाती है और आपने तो इसे अत्यन्त बहिर्मुखी ही बना दिया।’
ऐसा ही होता आया है। जहाँ संसारासक्त या माया के घेरे में निवास करनेवाले मनुष्यों ने सन्तमत को अपनाया, वहाँ वह ‘सन्तमत’ को अपना ही रूप-रंग देने का प्रयत्न करने लगता है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी को कहना पड़ा है कि ‘नाम रूप दुइ ईश उपाधी। अकथ अगाध सुसामुझि साधी ॥’ अतः जो पूरे हृदय से सन्तों का संग कर इस रहस्य का परोक्ष ज्ञान नहीं प्राप्त करेंगे, ऐसे लोग अपनी संकीर्णता से ‘संतमत’ को भी किसी सम्प्रदाय में परिणत करने का प्रयत्न करने लगेंगे।
राधास्वामी ट्रस्ट, स्वामी बाग, आगरा से प्रकाशित पुस्तक ‘गुरु उपदेश’ में संत शिवदयालली का ३५ वाँ उपदेश यह है-
‘सन्तमत सब मतों का शिरोमणि है और उनकी जान-की-जान है। यही सच्चे मालिक का सच्चा मत है। सच्ची मुक्ति इसी से होगी। और कोई मत इसके निमित्त रचा ही नहीं गया।’
उसी ट्रस्ट से प्रकाशित ‘संत संग्रह भाग पहिला’ से सन्त शिवदयालजी की ‘सन्तमत’ सम्बन्धी वाणी और सुनिए-
‘सन्तमता’ सबसे बड़ा, यह निश्चय कर जान । सूफी और वेदान्ती, दोनों नीचे मान ॥
उपर्युक्त वाणियों में ‘सन्तमत’ ही परमात्म-प्राप्ति का एक मात्र पथ है, इसपर सम्पूर्ण बल केन्द्रित है। क्योंकि यह स्वभावतया सभी के अन्तर में ईश्वरनिर्मित मार्ग है , जिसे संतलोग ‘संतमत’ कहकर दरसाते हैं । अब इनके जीवन-चरित्र-लेखक, इनके सबसे छोटे भाई श्री प्रतापनारायणजी की कुछ वाणी सन्तमत के विषय की, ‘जीवन-चरित्र’ से उद्धृत कर दे रहे हैं -
“(८) फिर महाराजजी के पिताजी साहब को महाराज तुलसी साहब का, कि जो पूरे सन्त थे और हाथरस में प्रगट हुए थे, ....... सत्संग प्राप्त हुआ और उसकी वजह से ‘सन्तमत’ की पुष्टता और मजबूती खूब हुई।”
“(९) ....... तुलसी साहब का सत्संग बहुत अर्से तक प्राप्त होता रहा, इस वजह से इन सब साहबों को ‘संतमत’ की महिमा और प्रतीत और सुरत-शब्द-मारग की कदर जहननशान हो गई थी।”
“(३६) राधास्वामी मत को ‘सन्तमत’ भी कहते हैं और इसमें सुरत-शब्द-योग का अभ्यास किया जाता है।”
“ (४१) तरीका राधास्वामी यानी ‘संतमत’ का भक्ति मारग का है।”
“(४३) ....... ‘संतमत’ में वही कायदा जारी है, जो तरीकत यानी उपासनावालों के मत में जारी है।”
“ (५२) ....... ‘संतमत’ दुनियाँ को भुलाता है और मालिक की याद में लगाता है।”
“(८८) स्वामीजी महाराज ने जो बानी तसनीफ की है, वह आमफहम और सलीस जबान में ‘सन्तमत’ के ऊँचे-से-ऊँचे ख्याल का बयान करती है। जाहिर है कि ‘सन्तमत’ सबसे आला दरजे का मत है और उसमें सबसे ऊँचे धाम की महिमा की गई है।”
सन्त शालिग्राम साहब के (पद) शब्द –
“सतगुरु से करूँ पुकारी । ‘संतनमत’ कीजै जारी ॥१॥
जीवों का होय उद्धारी । मैं देखूँ यही बहारी ॥२॥”
-सार उपदेश हजूर राधास्वामी
“(२५) संतों का अभ्यास छठे चक्र और सहस्रदल कँवल से शुरू होता है। ....... यह स्थान, और मतों का अन्तपद है और ‘सन्तमत’ में यह पहिला अथवा शुरू का स्थान है।”
“(३८) ‘संतमत’ में आवागमन ....... सही माना गया है।”
उपर्युक्त शब्दों से स्पष्ट है कि सन्त शिवदयाल स्वामी ने संतमत को अवश्य ही प्रसारित करने का प्रयत्न किया था, परन्तु सन्त शालिग्राम साहब को राधास्वामी नाम या शब्द से अधिक प्रेम होने के कारण सन्तमत के सारे सिद्धान्त और साधना-विधियों के होते हुए भी केवल ‘शब्द मोह’ के कारण उसमें एकांगिता आ गयी है और जनसाधारण उसे राधास्वामी का एक गिरोह-दल या सम्प्रदाय मानकर केवल अध्यात्म-साधना के कारण उसमें श्रद्धा सहित सम्मिलित होते हैं । इसी प्रकार बाह्य रूपों, विधियों, नियमों, प्रकारों को ही एकमात्र सर्वश्रेष्ठ स्थान दे देने से साम्प्रदायिक भावनाओं का उत्थान प्रारम्भ हो जाता है। अतः सन्तमत के सच्चे हितैषियों को विश्व के सभी भाषा के शब्दों और प्रतीकों का समादर करते हुए उसे समुचित मार्ग और दिशाओं में लगाना उचित है। सन्त शिवदयाल स्वामी के सन्तमतप्रचार का प्रवाह एक सीमा में बद्ध हो जाने के कारण उसकी विशुद्ध विमुक्तता का द्वार खोलने के लिए परम सन्त बाबा देवी साहब का अवतरण हुआ।
‘सन्तमत की शिक्षा में वास्तव मुक्ति - उस ईश्वरीय देन का नाम है कि जो सुख और दुख दोनों से पृथक् है। सुख और दुख की तुलना का सम्बन्ध शरीर तथा इन्द्रियों से है और उन्हीं के द्वारा आत्मा पर यह दोनों सुख-दुख की दशा जीवन पर बीता करती है; चाहे वह किसी शरीर में क्यों न हो ।’
“अब वह समय आ गया है कि ‘सन्तमत’ के कार्य को नियमपूर्वक किया जावे और इसके लिए यह उचित प्रतीत होता है एक वार्षिक उत्सव ....... किया जावे, जिसमें सब लोग प्रत्येक सत्संग में आवें और ....... उस विषय में उचित उपदेश और शिक्षा ग्रहण करें ।’‘ (बाबा देवी साहब की लिखाई नियमावली से- सन् १९१० ईस्वी )
‘साधु-सन्त वह कहलाते हैं , जो संसार में आत्मा के लिए सीधे सरल मार्ग का अनुसरण करते हैं और स्थूल शरीर के किसी भाग से न तो स्वयं अभ्यास करते हैं और न दूसरों को बताते हैं । ....... केवल सुरत से ध्यान करने का उपदेश करते हैं ।’
“सन्त लोग अपने अन्त:करण में छठे चक्र से अभ्यास कराते हैं और ‘नाम’ तक उन्नति करने को कहते हैं; क्योंकि वही स्थान माया और नाश से रहित है और वहाँ पहुँचने से आवागमन नहीं होता । तथा आवागमन से बचाना इनके मत (सन्तमत) का सबसे बड़ा फल है।”
‘सन्तमत- सन्तमत किसी नवीन पन्थ या मत का नाम नहीं है; किन्तु वह एक सनातन सुगम मार्ग है, जो सब में होता हुआ भी सबसे न्यारा है। “....... गृहस्थ अथवा विरक्त, युवा अथवा वृद्ध, किसी भी अवस्था में विद्यमान प्रत्येक मत, देश, जाति, रंग और वंश के स्त्री-पुरुषों को उस पर चलने का अधिकार है; क्योंकि वह किसी मनुष्य का बनाया हुआ नहीं है। किन्तु प्रत्येक मनुष्य को सत्पुरुष सद्गुरु दयाल की ओर से मिला हुआ है, इसी कारण महात्मा कबीर, नानक, दादू, पलटू इत्यादि सब महापुरुषों ने जो उस पर चलकर भवसागर से पार हुए, उस पर केवल अपना चलना ही प्रगट किया है, न कि बताना । परन्तु जबतक माया के खिलवाड़ में पड़कर उससे अचेत पड़ा रहा। तबतक उसको वह मार्ग नहीं सूझता। किन्तु ज्यों ही उससे उकताकर उसको अपने निजधाम की तड़प उत्पन्न होती है, त्यों ही सन्त-महात्मा उसको सैन-बैन में समझाकर उस डगर पर डाल देते हैं, जिससे वह अन्धकार, प्रकाश और शब्द के प्राकृतिक तीनों आवरणो के पार उत्तम तत्त्व का अनुभव करता हुआ आवागमन से रहित होकर पूर्ण सुख व समस्त शान्ति को प्राप्त कर लेता है।’
‘सन्तमत का उपदेश लेकर जिसने एक बार भी अपने अन्दर प्रकाश का अनुभव किया है, वह फिर नीचे की योनियों में नहीं जाता ।’
‘सन्तमत के अनुसार साधन करने से थोड़े ही दिनों में अभ्यासी को यह ज्ञान हो जाता है कि यह मत सारे मतों की जान है और अन्तर्बोधित ग्रन्थों के प्रकाशित होने तथा घर बैठे ही गुरुदेव और देवी-देवताओं के दर्शन करने का साधन है।’
‘सत्संगी- प्रत्येक सत्संगी को, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि जब से वह सद्गुरु की शरण लेकर सत्संग में सम्मिलित होता है, उसका दूसरा जन्म प्रारम्भ हो जाता है। अब उसको पहली बेढंगी चाल पर न चला जाना चाहिए, किन्तु अपना चरित्र दिन-दिन उज्ज्वल और निर्मल बनाने का प्रयत्ल करना चाहिए और कोई कार्य ऐसा नहीं करना चाहिए, जिससे किसी को गुरु और सत्संग के लिए अनुचित शब्दों का प्रयोग करने का अवसर प्राप्त हो ।’
सन्त शिवदयाल साहब के बाद बाबा देवी साहब ने सन्तमत की संस्थापना बड़ी ही दृढ़ता से की और सदा अपने को बाह्य नाम-रूपों की मोहासक्ति से अलग रखा, जिससे साम्प्रदायिकता के प्रवेश की गुंजाइश नहीं रहे।
इस भाँति व्यवहार-जगत में ‘संतमत’ की रूप-रेखा तो निर्मित हो गई और बहुत से अनुयायी भी संतमत के हो गए, जो ‘सत्संगी’ नाम से अभिहित किए जाते हैं; परन्तु इतना कुछ हो जाने के बाद भी इस भ्रम का निवारण नहीं हुआ कि संत कबीर, गुरु नानक आदि संतों के प्रथम वैदिक काल से लेकर आज तक जितने भी सन्त-महर्षि हुए, उनलोगों के मत या विचार संतमत से एक ही थे या अलग-अलग?
इस विभ्रम और अज्ञान की शक्ति ने समाज को दो प्रधान खण्डों में विभक्त कर रखा था। एक दल कहता- ‘संतमत अशिक्षित, मूर्ख, कम बुद्धिवालों का भावुकता भरा मत या धर्म है और दूसरा वर्ग कहता कि वेदों और उपनिषदों में या संसार के किसी भी ग्रंथों में संतमत से ऊँचा ज्ञान नहीं है। दोनों को अपने-अपने विचारों पर दृढ़ विश्वास था, अत: दोनों अलग-अलग अपना समाज बनाकर अपनी-अपनी गति से जा रहे थे। तो क्या संसार में अनेक परमात्मा हैं? और क्या उन्होंने अपने पास आने को मानव-समाज के लिए असंख्य मार्ग बना रखे हैं? इन प्रश्नों का समाधान केवल कल्पना, युक्तिवाद या श्रद्धा-विश्वास के आधार पर संभव नहीं था। इसीलिए परमप्रभु ने दयालुतावश इस अज्ञान-तमावृत्ता धरणी पर एक ऐसे महर्षि का अवतरण कराया, जो अपने अनुभव-ज्ञान के आलोक में युक्तिपूर्वक मानव-समाज को यह विश्वास दिला सके कि सृष्टि के आदि काल से लेकर आजतक के पूर्ण ज्ञानियों , योगियों , भक्तों ने जो कुछ इस संबंध में उपलब्ध किया है- वह क्या है ?
जिस भाँति एक बूंद जल चखने से सारे समुद्र के जल का ज्ञान होता है, उसी भाँति हम उन महामहिम महर्षिजी की दिव्य वाणी का एक लघु अंश यहाँ दे रहे हैं । विस्तृति से परिचय पाने के लिए आप उनके लिखे ‘सत्संग-योग’ चारो भाग, ‘वेद-दर्शनयोग’ आदि ग्रन्थों का अध्ययन करने की कृपा करें -
(१) शान्ति - स्थिरता वा निश्चलता को कहते हैं ।
(२) शान्ति को जो प्राप्त कर लेते हैं, सन्त कहलाते हैं ।
(३) संतों के मत वा धर्म को ‘संतमत’ कहते हैं ।
(४) शान्ति प्राप्त करने का प्रेरण मनुष्यों के हृदय में स्वाभाविक ही है। प्राचीन काल में ऋषियों ने उपर्युक्त प्रेरण से प्रेरित होकर इसकी पूरी खोज की और इसकी प्राप्ति के विचारों को उपनिषदों में वर्णन किया । इन्हीं विचारों से मिलते हुए विचारों को कबीर साहब और गुरु नानक साहब आदि संतों ने भी भारती और पंजाबी आदि भाषाओं में सर्व-साधारण के उपकारार्थ वर्णन किया; इन विचारों को ही संतमत कहते हैं । परन्तु संतमत की मूलभित्ति तो उपनिषद् के वाक्यों को ही मानने पड़ते हैं; क्योंकि जिस ऊँचे ज्ञान का तथा उस ज्ञान के पद तक पहुँचाने के जिस विशेष साधन, नादानुसंधान वा सुरत-शब्द-योग का गौरव संतमत को है, वे तो अति प्राचीन काल की इसी भित्ति पर अंकित होकर जगमगा रहे हैं । भिन्न-भिन्न काल तथा देशों में संतों के प्रगट होने के कारण तथा इनके भिन्न-भिन्न नामों पर इनके अनुयायियों द्वारा संतमत के भिन्न-भिन्न नामकरण होने के कारण संतों के मत में पृथक्त्व ज्ञात होता है, परन्तु यदि मोटी और बाहरी बातों को तथा पंथाई भावों को हटाकर विचारा जाय और संतों के मूल एवं सार विचारों को ग्रहण किया जाय, तो यही सिद्ध होगा कि सब संतों का एक ही मत है।”
संतों का मत युक्तियुक्त विधि से पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी- जो सद्गुरु बाबा देवी साहब के परम शिष्य हैं - के द्वारा प्रतिपादित–प्रतिष्ठापित हो गई है। अब इसके रूप का विस्तार ही हो सकता है, नव प्रतिपादन नहीं ; क्योंकि यही सब संतों का सुनिश्चित मत या धर्म है।
आज संतमत-साहित्य का इतिहास महर्षिजी के हाथों से दिग्दिगन्त में अपनी सुरभि विस्तार करने के लिए प्रयत्नशील है ।
- हुलासचन्द्र रुंगटा , नवगछिया (भागलपुर)