ॐ श्री सद्गुरवे नमः
एक बार भागलपुर मंडलान्तर्गत बाँका सबडिविजन की निवासिनी श्री मती गुंजेश्वरी देवीजी ने मन्दार पहाड़ के पापहारिणी पुष्करिणी के तटपर सफादल के प्रवर्तक श्री चन्द्रदासजी को कारबारी बनाकर सर्वधर्म-सम्मेलन नाम से सत्संग का एक वृहत् आयोजन किया। उस सत्संग में संतमत के वर्तमान आचार्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज, योगीराज श्री भूपेन्द्रनाथ सान्यालजी महोदय, कबीर पंथ के प्रमुख महंत योगानन्दजी महाराज प्रभृति महानुभाव सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किए गए थे। पापहारिणी के पावन तटपर एक वृहत् पंडाल का निर्माण किया गया और दो दिनों तक सत्संग का कार्यक्रम चलता रहा। महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के सारगर्भित प्रवचनों से सत्संग सफल रहा। हाँ, बीच-बीच में श्री योगानन्दजी महाराज, श्री महेन्द्रनाथ सिंहजी महानुभाव, श्री चन्द्रदासजी तथा अन्यान्य महानुभावों के भी प्रवचन हुआ करते थे। शारीरिक अस्वस्थता के कारण श्री भूपेन्द्रनाथ सान्यालजी महोदय उसमें सम्मिलित नहीं हो सके थे, परन्तु सत्संग की निर्धारित तिथियों के ही बीच दो दिन उन्होंने अपने शिष्यों को महर्षिजी के पास भेजकर कहला भेजा कि एक बार आप आकर उनसे मुलाकात करें। आपने उनको उत्तर भेजा कि सत्संग समाप्त करके लौटती बार उनके गुरुधाम में जाकर उनसे अवश्य मिलेंगे। तदनुसार जब आप दक्षिण की ओर जाने लगे, तब उसी होकर गए और कुछ काल के लिए उनके आश्रम पर जाकर ठहरे । जब आप वहाँ पहुँचे, वे अन्दर थे। आपके पहुँचने का समाचार पाकर योगीराज बाहर निकले । उनके आते ही आपने अपने कर-कमलों से उनका चरण-स्पर्श किया । उन्होंने आपके हाथ पकड़कर आपको अपने हृदय से लगा लिया। संत-द्वय गले-गले मिले । आपने कहा, आप वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, साधनवृद्ध, सब तरह आप वृद्ध हैं , आपही पूजने योग्य हैं । इसपर उन्होंने कहा- ‘इतने लोगों को जो उपदेश देते हैं, उनको हम बाप समझते हैं !’ तब दोनों संत मंदिर के आँगन से ऊपर मंदिर के ओसारे पर जाकर अलग-अलग अपने आसन पर, जो पहले से ही बिछे हुए थे, बैठ गए। वहाँ उनकी धर्मपत्नी भी उनके बगल में आकर बैठ गईं । आपने कहा- ‘आज यहाँ मुझे शिव-पार्वतीजी के साक्षात् दर्शन हो रहे हैं ।’ इसके बाद कुछ देर सत्संग-वार्ता के पश्चात् समयाभाव तथा अन्यत्र जाने के कारण आपने उनसे विदाई माँगी। उन्होंने एक डाली फल मँगवाकर आपके सामने रख दिया। आपने उससे एक अनार ले लिया और कहा कि एक अनार के बहुत-से दाने होते हैं, हम बहुत-से लोगों में बाँट लेंगे।’ इतना कह प्रणाम करके आप चल दिए।
बाबू श्री वैद्यनाथ चौधरीजी महोदय, संयोजक भूदान यज्ञ-समिति पुरैनियाँ के यत्न करने पर आप मनिहारी उच्च विद्यालय में आचार्य विनोबाजी से छह बजे संध्याकाल में मिले । उपर्युक्त बाबू साहब आपको ‘संतसेवी’ श्री महावीर दासजी के साथ एक कमरे में ले गए, जहाँ आचार्य महोदयजी एक चौकी पर बैठे हुए एक छोटे टेबुल पर रखे हुए कागज पर कुछ लिख रहे थे। आपको पहुँचे हुए जानकर लिखना छोड़कर आपकी ओर उलटकर देखने लगे। आपने हाथ जोड़ा और एक ओर कुर्सी पर जो आपके बैठने के लिए दी गई थी, बैठ गए।
विनोबाजी ने कहा- ‘आपने एक पत्र मुझे लिखा था।’ महर्षिजी ने कहा- “हाँ ! मैंने आपकी गीता-प्रवचन पुस्तक को पढ़ा । उस संबंध में कुछ जिज्ञासा की आवश्यकता जान पड़ी। एतदर्थ मैंने आपको पत्र लिखा था। उक्त पत्र में मैंने पूछा था कि आपने अपने गीता-प्रवचन में लिखा है कि महाभारत युद्ध में संध्या समय सब कोई संध्या करने जाते और भगवान श्री कृष्ण घोड़े की परिचर्या करते थे, लेकिन यह बात महाभारत ग्रंथ में कहीं नहीं है। हाँ, केवल एक दिन भगवान ने घोड़े की परिचर्या की थी, जिस दिन जयद्रथ वध हुआ था और वह भी संध्याकाल में नहीं , बल्कि दोपहर के बाद, तीसरे प्रहर में। युद्ध में रथ के घोड़े थक गए, भूख-प्यास से आकुल हो-होकर वे घोड़े भगवान की ओर देखा करते थे। भगवान ने अर्जुन से कहा- ‘रथ के घोड़े बहुत थक गए हैं , भूख-प्यास से व्याकुल हैं, इसलिए तुम थोड़ी देर के लिए युद्ध विराम करो। जब घोड़े खा-पीकर कुछ आराम कर ताजे हो जायँ, फिर युद्ध करना ।’ अर्जुन ने भगवान की बात मानकर वरुणास्त्र से पानी निकाला और उस युद्ध के मैदान में ही भगवान श्री कृष्ण ने घोड़े के शरीर से तीर निकालकर उसे धोया और उन्हें खिला-पिलाकर ताजा बनाया । तबतक अर्जुन दुश्मनों के तीर से अपनी रक्षा करते रहे। फिर घोड़े को रथ में जोड़कर युद्ध करने चले गए। आपने जो गीता-प्रवचन में उपर्युक्त बातें लिखी , सो महाभारत में नहीं है।”
श्री विनोबाजी ने कहा- ‘यह महाभारत में नहीं , हरिवंश में है।’
पुनः आपने कहा- “आपने ‘गीता-प्रवचन’ में संत कबीर साहब के शब्द की एक कड़ी ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ लेकर लिखा है कि कबीर चादर बिनता जाता था और यह पद ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ गाता जाता था, मानो परमात्मा को ओढ़ाने के लिए वह चादर बिनता हो। लेकिन उनके सम्पूर्ण पद को सुनिए-
झीनी झीनी बीनी चदरिया ।।टेक।।
काहे के ताना काहे के भरनी, कौने तार से बीनी चदरिया ।।१।।
इँगला पिंगला ताना भरनी, सुषमन तार से बीनी चदरिया ।।२।।
आठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्त गुन तीनी चदरिया ।।३।।
साँई को सियत मास दस लागे, ठोक ठोक के बीनी चदरिया ।।४।।
सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी, ओढिके मैली कीन्हीं चदरिया ।।५।।
दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों’ की त्यों धर दीन्ही चदरिया ।।६।।
सम्पूर्ण पद के पढ़ने से यह स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि परमात्मा ने यह (मनुष्य शरीर-रूप) चादर बनाई है, जिसको औरों ने मैली कर दी और संत कबीर ने ज्यों-की-त्यों रख दी।’ इसपर आचार्य विनोबाजी बिल्कुल नि:शब्द रहे। पश्चात् आपने कहा- “आपने अपने ‘गीता-प्रवचन’ में कर्मयोग पर जितना जोर दिया है, उतना ध्यान-योग पर नहीं । ऐसा क्यों ?”
इसपर विनोबाजी ने उत्तर दिया- ‘आजकल लोगों को रोजी और रोटी चाहिए, ध्यान करने के लिए लोगों के पास समय कहाँ है?’
आपने कहा- ‘स्नान, खान, पान, शौच, शयन तथा फजूल गप-शप करने और नाच-रंग-प्रेक्षण के लिए लोगों को समय मिलता है और ध्यान के लिए थोड़ा-सा समय निकालेगा, सो नहीं होगा?’
विनोबाजी ने कहा- ‘हाँ, हो सकता है। मैंने बत्तीस वर्षों तक ध्यान किया है।’ इसपर एक महिला (जो सम्भवतः संबंध में उनसे बड़ी होती थी ) बोल उठी –’इतने दिनों तक यह ध्यान भी करता और मेहतर का भी काम करता था ।’ उसपर आपने कहा- ‘वह इनका कर्मयोग था ।’ पुनः श्री विनोबाजी ने कहा- ‘एक आदमी ने बहुत ध्यान किया। उसको समाधि लगी और वह फिर नीचे गिर गया ।’
आपने कहा-“उसे समाधि नहीं हुई होगी। जिसको समाधि लग जाएगी, वह नीचे नहीं गिर सकता। क्योंकि ‘गीता’ कहती है कि स्थितप्रज्ञता समाधि में होती है। समाधि प्राप्त कर जो स्थितप्रज्ञता प्राप्त कर लेगा, वह नीचे गिर नहीं सकता। क्योंकि स्थितप्रज्ञता और ईश्वर-दर्शन दोनों की प्राप्ति समाधि में पूर्ण अपेक्षित है।” श्री विनोबाजी ने कहा- ‘हाँ, यह तो मैं भी मानता हूँ कि जिसको समाधि लगेगी, वह नीचे गिर नहीं सकता। लेकिन ईश्वर-प्राप्ति के अनेक मार्ग हैं । कोई ज्ञानयोग से, कोई ध्यानयोग से, कोई भक्तियोग से, कोई प्रेमयोग आदि से ईश्वर तक पहुँचते हैं ।’
आपने कहा– ‘नहीं , ईश्वर-प्राप्ति का एक ही मार्ग है, और उस मार्ग पर चलने के लिए सब-के-सब सहारे हैं। वह मार्ग बाह्य जगत में नहीं , अपने अंदर में है और उसपर जीवात्मा ही चल सकता है। जाग्रतावस्था में जीवात्मा का निवास आज्ञाचक्र के केन्द्र में है । जो जहाँ बैठा रहता है, वहीं से चलता है। इस तरह वह मार्ग आज्ञाचक्र से आरम्भ होकर अपने अंदर-ही-अंदर परमात्मा तक लगा हुआ है।’
पुनः श्री विनोबाजी ने कहा- ‘ईश्वर-प्राप्ति में कोई ज्ञानयोग की प्रधानता देते हैं, तो कोई ध्यानयोग की और कोई भक्तियोग की प्रधानता देते हैं ।’
आपने कहा- ‘जैसे घीउ, आटा और चीनी; तीनो को मिलाकर मिष्टान्न बनाते हैं ; उसी तरह ज्ञान, ध्यान और भक्ति; तीनो को मिलाकर सुमधुर मिष्टान्न बना लिया जाय ।’
थोड़ी देर तक और भी परस्पर बातें हुई। आपने कहा- ‘ मैं आपके भूदानयज्ञ की सराहना करता हूँ और अपने सत्संग-प्रचार के साथ आपके भूदानयज्ञ की भी चर्चा किया करता हूँ। किन्तु मैं आपसे कहूँगा कि आप अपने भूदान-यज्ञ-प्रचार के साथ-साथ ध्यानयोग का भी प्रचार करते तो बहुत अच्छा होता ।’ श्री विनोबाजी ने मौन होकर इसको मंजूर किया।
पुनः आपने कहा- ‘आप जमीन का छठा भाग लोगों से माँगते हैं । इस इलाके में मुझे बारह एकड़ जमीन है, इसका छठा भाग दो एकड़ जमीन मैं आपके इस महान यज्ञ में आहुतिरूप देता हूँ और इसका यह दानपत्र है।’ श्री विनोबाजी ने कहा- ‘आपके लिए कोई बात नहीं है।’ पुनः आपने कहा-क्या इस दानपत्र की जमीन मैं जिनको दिलवाना चाहूँ, उनको दी जा सकेगी?’
पूज्य श्री महर्षिजी ने उक्त दोनों एकड़ जमीनों को दो गरीबों को दिलवा दी।
संध्याकालीन अपनी संध्योपासना का समय टलता देखकर महर्षिजी उनसे विदाई ले अपनी कुटी में आ विराजे ।
-उदितनारायण चौधरी