ॐ श्री सद्गुरवे नमः
महर्षि मेंही परमहंसजी के सम्बन्ध में विविध मंगलमय संस्मरण
लोकोत्तर व्यक्तित्व महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के श्री चरणों के सत्संग और श्री मुख के प्रवचन से लाभान्वित होने के अवसर मुझे प्राप्त हुए हैं। महर्षिजी उच्च कोटि के साधक तथा चिन्तक होते हुए भी- पूर्णतया वीतराग होते हुए भी लोक-कल्याण के लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं। मेरा जब-जब महर्षिजी महाराज से साक्षात्कार हुआ है, मैं उनके पुनीत एवं लोकोत्तर व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा ।
महर्षिजी के दीर्घ जीवन की मैं कामना करता हूँ।
– धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी ‘शास्त्री’ प्राचार्य, एल॰एस॰ कॉलेज मुजफ्फरपुर
पुण्य भूमि भारतवर्ष की यह विशेषता है कि श्रेष्ठ संतों की परम्परा असंख्य शताब्दियों से यहाँ समाज का पथ-प्रदर्शन करती रही है।
भौतिक वस्तुओं से अनासक्त होकर, सत्य की खोज में सब कुछ त्यागकर और अपने अनुभव की गहराई से ये संत लोग गूढ तत्त्वों को सरल रूप में हमारे सामने रखते हैं और जिज्ञासुओं की ज्ञान-पिपासा को तृप्त करते हैं।
परम पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का स्थान निस्संदेह ऐसे ही ब्रह्मनिष्ठ एवं निर्लिप्त संतों की परंपरा में है। उनका सारा जीवन ही परम तत्त्व के अनुसन्धान में बीता है। उनके सदुपदेशों और उनके सत्संग से न जाने कितने लोगों का कल्याण हुआ है।
मुझे श्री महर्षिजी की अमूल्य पुस्तकों को देखकर उनके विचारों के प्रति बड़ी श्रद्धा हुई । इनमें मैंने अनुभव की प्रत्यक्ष छाप, असीम विद्वत्ता और सर्वधर्म -समन्वय की पूर्ण उदारता देखी।
फिर श्री महर्षिजी के दर्शन व सत्संग का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनके समुद्र जैसे शान्त, अत्यन्त करुणामय व्यक्तित्व से मैं कितना प्रभावित हुआ, मैं व्यक्त नहीं कर सकता।
श्री महर्षिजी के प्रति में अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ और आशा करता हूँ कि उनकी कृपा हमलोगों पर सदा बनी रहेगी।
- महेन्द्र प्रताप अध्यक्ष, आंग्ल विभाग, लंगट सिंह कॉलेज, मुजफ्फरपुर
शैशव से ही मैं भगवदर्शनाभिलाषी था। ईश्वर का साक्षात्कार करने के लिए जिन भक्तों ने जो-जो युक्तियाँ बतायी , मैंने सबकी सब कर डाली, पर कभी सफलता के दर्शन नहीं हुए।
सन् १९४१ ईस्वी में स्व॰ ठाकुर सिंहजी सत्संगी दयालपुर पधारे । सुना, वे ईश्वर का साक्षात्कार करा देते हैं। मैंने बड़ी उत्कण्ठा से दीक्षा लेकर ध्यानाभ्यास किया, पर दर्शन नहीं हुए और मैंने उसे छोड़ दिया।
महर्षिजी के दर्शन की लालसा न जाने क्यों मेरे हृदय में तीव्र-से-तीव्रतर हो उठती और अत्यन्त उत्कण्ठा से आकुल हो उठता । सन् १९४७ ईस्वी में श्री जयदेव सिंहजी ने अपने यहाँ विशाल सत्संग का आयोजन किया, जिसमें महर्षिजी के साथ सत्संग-महासभा के उपाध्यक्ष डॉक्टर रामप्रसादजी, प्रधानमंत्री लक्ष्मी प्रसाद चौधरीजी, महावीर ‘सन्तसेवीजी’ आदि प्रधान सत्संगीगण भी पधारनेवाले थे। मैं खिंचा हुआ-सा थाना बिहपुर स्टेशन पर चला गया और जीवन में प्रथम बार उनके दर्शन कर मुग्ध और तृप्त हो गया। अहा ! कैसी दिव्य मूर्ति थी।
शामियानों की छाया में विद्युत-प्रकाश सुशोभित हो रहा था और ध्वनि-वर्द्धक यन्त्र से महर्षिजी की शान्तिप्रदायिनी ध्वनि शान्ति-वृष्टि कर रही थी। मैं उस पवित्र वातावरण में प्रेम-गद्गद हो केवल महर्षिजी की पवित्र दिव्य मूर्ति को ही मुग्ध भाव से निहार रहा था ।
मैंने श्री जयदेव सिंहजी के द्वारा महर्षिजी से एकान्त में बातें करने का निवेदन उपस्थित किया। सात बजे संध्या का समय मिला । समय पर मैं कमरे में उपस्थित हो गया और प्रश्न किया- ‘महर्षिजी ! जब मैं पूजा करने के लिये बैठता हूँ, तो मन चारों ओर चक्कर लगाने लगता है, एकाग्र नहीं होता। मन को एकाग्र करने की युक्ति क्या है ?’ .
महर्षिजी— ‘मन भागे, तो पुनः उसे लौटाकर पूजा में लगा दीजिए।’
मैं- ‘परन्तु मन को लौटाने का उपाय क्या है ?’
महर्षिजी– ‘उपाय यही है कि मन भागे, तो उसे बारम्बार लौटाते जाइए।’
फिर बोले- ‘अब सत्संग का समय हो गया। साढ़े सात बजे ही सत्संग का आरम्भ है ।’
मैं यह सुनकर तनिक भिन्नाया और सोचने लगा- ‘ये महात्मा और पुराने साधक तो अवश्य हैं; पर जान पड़ता है कि ये अपने शिष्यों के अतिरिक्त दूसरे को मन लौटाने की युक्ति नहीं बताते हैं – इधर-उधर की बातें कहकर टाल देते हैं ।’
बाहर में कुछ शिक्षित-शिष्ट लोग खड़े मेरी प्रतीक्षा में थे कि देखें प्रश्न पूछने में निपुण मास्टर साहब को संतोंषकारी उत्तर मिलता है या नहीं ? बाहर आते ही उनलोगों ने मुझसे पूछा–मास्टर साहब ! आपने महर्षिजी से क्या पूछा और महर्षिजी ने उसका क्या उत्तर दिया ?’
मैं तो बौखलाया हुआ था ही, उनलोगों से कहा- ‘उत्तर कुछ नहीं दिए साहब ! केवल टाल दिए।’
पुनः उनलोगों के पूछने पर मैंने प्रश्न और उत्तर का स्वरूप उनलोगों के समक्ष उपस्थित किया और अन्त में अपना असन्तोष प्रगट किया कि वे अपने शिष्यों को ही भेद की बातें बतलाते हैं, दूसरों को नहीं ।
सारे आवेशों और बौखलाहटों के बीच भी सत्संग के प्रति मेरा आकर्षण बढ़ता ही जा रहा था और जबतक यहाँ सत्संग होता रहा, मैं प्रतिदिन शाम-सबेरे सत्संग में जाकर तल्लीन भाव से महर्षिजी की वाणी सुनने और समझने का प्रयत्न करता; पर सच कहूँ, तो मैं उन वाणियों को समझ ही नहीं पाता था । ‘बहिर्मुख से अन्तर्मुख बनो और आत्मा को सभी इन्द्रियादिकों से अलग कर परमात्मा का साक्षात्कार करो’, इन पावन वाणियों का कोई अर्थ समझ में आता ही नहीं था ।
सत्संग-समाप्ति के दिन साधुजी ने मुझे धन्यवाद ज्ञापन करने के लिए कहा। मेरे धन्यवाद-भाषण से पूज्यपाद महर्षिजी ने प्रसन्नता प्रगट करते हुए कहा- ‘मास्टर साहब बड़े प्रेमी भक्त हैं । मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि वे इनको भक्ति-मार्ग में सफलता दे ।’
यह आशीर्वाद पाकर मेरा हृत्य उत्फुल्ल हो गया और मैंने विशिष्ट सत्संगी सज्जनों से कहा कि यदि महर्षिजी की कृपा होगी, तो मैं भी निकट भविष्य में अवश्य ही सत्संगी बन जाऊँगा।
सत्संग समाप्त होते ही तुरत महर्षिजी ने कहा- ‘शामियानों एवं यन्त्रादि सामानों को जल्दी-जल्दी समेट दो ।’ आदेश पाते ही सभी ने मिल-जुलकर सभी सामानों को समेट-सहेजकर घर के अन्दर रख दिया। महर्षिजी की जल्दबाजी मुझे भली नहीं लग रही थी।
शुभ्र चन्द्र-ज्योत्स्ना-भरी विभावरी में हमलोग वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे थे। स्वच्छ आकाश में नक्षत्र-मण्डल प्रसन्नता से जगमगा रहे थे। उसकी छाया में तीन-चार सौ सत्संगी भोजन कर रहे थे। दही परोसा जा रहा था। सहसा स्वच्छ आकाश में बादल घिर आए और जोरों की आँधी चलने लगी और थोड़ी देर में घनघोर वृष्टि भी आरम्भ हो गयी। अब मेरी समझ में आया कि भविष्यदर्शी महर्षिजी ने क्यों इतनी उतावली के साथ सारे सामानों को सहेज-समेटकर रखने कहा था। उसी समय मेरे अन्तर में संकल्प उठा कि मैं अवश्य ही महर्षिजी से दीक्षा लूँगा।
परमात्मा की कृपा होने से परिस्थिति भी अनुकूल बन जाती है। सन् १९४९ ईस्वी के अप्रैल महीने में पुनः जयदेव सिंह ‘साधु’ ने महर्षिजी से सत्संगायोजन में पधारने की स्वीकृति प्राप्त की। सत्संग के लिए आकुल मेरी अन्तरात्मा महर्षिजी के दर्शन के लिए इतने दिनों तक तड़पती-तरसती रही थी। जैसे ही मैंने सुना कि वे थाना बिहपुर स्टेशन पर आ गए हैं , मैं भी अति आतुरता से सभी के साथ स्वागत में वहाँ जा पहुँचा। मैं उनके दिव्य दर्शन कर स्तब्ध–परितृप्त-सा हो रहा, जैसे पिपासाकुल चातक को स्वाति-जल उपलब्ध हो गया हो: जैसे आजन्म दरिद्र के घर में स्वर्ण की वर्षा हो गयी हो; जैसे तीव्र मुमुक्षु को ब्रह्म का साक्षात्कार हो गया हो।
इस बार अध्यापन का कार्य त्यागकर भी मैं प्रतिदिन के सत्संग में रहने का संकल्प कर चुका था, पर परम प्रभु की इच्छा से उस समय विद्यालय में रामनवमी एवं चैत्र-संक्रान्ति का अवकाश-काल था। इस सत्संग में महर्षिजी का प्रवचन मेरी समझ में आने लगा, कदाचित् यह उन्हीं की अहैतुकी कृपा थी। सत्संग समाप्त होने पर मैंने दीक्षा पाने की अभीप्सा की, पर साहस नहीं होता था; क्योंकि मैंने श्री ठाकुर सिंहजी से दीक्षा लेकर उसे छोड़ दिया था और मांस-मछली भी खाने लगा था।
श्री ठाकुर सिंहजी से दीक्षित मेरे अनन्य साथी श्री जगन्नाथ झाजी पुनः महर्षिजी से दीक्षा प्राप्त कर लौट रहे थे। उनके द्वारा महर्षिजी की विशद उदारता की बात सुनकर मैंने भी अपने अन्तर में साहस संचय किया और श्री जयदेव सिंहजी ‘साधु’ के द्वारा अपनी प्रार्थना श्री चरणों में उपस्थित की। स्वीकृति मिल गई। फिर तो मेरे उत्साह की सीमा नहीं थी। मैं तुरन्त प्रसाद, फूल, पुष्पहारादि लेकर उनके चरणों में उपस्थित हो गया। मुझे देखते ही वे बहुत प्रसन्न हुए और मुझसे पूछ दिया मास्टर साहब ! आप मांस-मछली भी खाते हैं ?’
मैंने कहा- ‘जी, हाँ ।’
यह सुनकर उन्होंने कहा- ‘मेरे गुरु महाराज की आज्ञा है कि मांस-मछली खानेवाले को भजन-भेद मत देना; परन्तु आप पढ़े-लिखे आदमी है। आप पर मेरा विश्वास है। यदि मांस-मछली खाना छोड़ दे , तो आपको भजन-भेद दे दूँ ।’
मैंने कहा- ‘सरकार ! आज से मैंने मांस-मछली खाना छोड़ दिया ।’
यह सुनकर महर्षिजी मुस्कुराए और प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर कर देने कहा । हस्ताक्षर करने पर मुझे मानस जप, मानस ध्यान एवं दृष्टि-साधन की युक्ति बता दी गयी। इस दीक्षा-समारोह के उपरान्त मैं विद्यालय के सारे अवकाशों को महर्षिजी के संग में ही बिताने लगा। उनके साथ रहकर मैं उनकी असीम-गम्भीर भक्ति-ज्ञान-योगनिष्ठा, तपश्चर्या, पवित्रतम सदाचार और सत्संग-चर्चा से आप्लावित होता रहता। फलस्वरूप २०.२. १९५५ ईस्वी को मुझे उनकी अपार दया से नादानुसन्धान या सुरत-शब्द-योग की भी गंभीर, सूक्ष्म युक्ति बता दी गयी।
मेरा विश्वास है कि भोग-विमुख एवं योग-सम्मुख होने के बाद ही तेजस्विता तथा तपस्विता का आमुख प्रस्तुत होता है और मानवता-पोषण, सज्जनतानुसरण, शान्ति-निर्वहण, न्यायानुकरण तथा ब्रह्मतत्त्व-निरूपण की पृष्ठभूमि बनती है। इस क्रम में मायिक विभ्रम-मुक्त तथा क्लिष्ट तप-श्रम-युक्त होकर आपने जो सर्वांगीण सफलता पायी है, उनका प्रसाद पाकर मैं ‘दिन-दिन होत सवाई, राम धन कबहुँ न लागे काई’ की उक्ति को चरितार्थ कर रहा हूँ।
- श्री उदितनारायण चौधरी व्यवस्थापक- ‘शान्ति-सन्देश’
एवं सभापति- जिला शिक्षक-संघ, भागलपुर
१९५९ ईस्वी की फरवरी का महीना था, दो दिन पहले वृष्टि भी काफी मात्रा में हो चुकी थी। ओले भी पड़े थे। सर्दी भी काफी पड़ रही थी। मैं जनवरी में ही नगरपारा, वरीय प्रशिक्षण विद्यालय से स्थानान्तरित होकर वरीय प्रशिक्षण विद्यालय, टीकापट्टी आया था । टीकापट्टी में संतमत-सत्संग-सम्मेलन की बड़ी तैयारी थी और वह भी तैयारी प्रशिक्षण विद्यालय के प्रागंण में । टीकापट्टी के सत्संगी परिवार में तो जोश उमड़ पड़ा था। दो दिनों के अन्तर्गत एक विस्तृत एवं विशाल पंडाल बन गया। ऊपर से साधारण संठियों तथा फूस की छावनी कर दी गई। इसी की टट्टियाँ लगा दी गयी। मैंने इस पंडाल को देखा, तो आश्चर्य का ठिकाना न रहा। पहले तो कभी इस प्रकार का सत्संग मैंने देखा भी नहीं था। सोचा- इतने बड़े पंडाल में तो ३० हजार लोग बैठ सकेंगे। प्रशिक्षण-विद्यालय के छह बीघे खेत में चूल्हों की भरमार हो गई । लकड़ियों का ढेर लग गया। मैंने समझा, क्या अखिल भारतीय काँग्रेस का सालाना जलसा तो नहीं है? बीच में एक मंचवेदी बनाई गई। उसके बाँस भी तो थे शीशम के पेड़ की भाँति मोटे-मोटे । अपूर्व उत्साह था, अपार श्रद्धा थी। सत्संग से प्रेरित होकर प्रेमीगण आते थे और निर्देशानुसार कार्य करते रहते थे। उनपर किन्हीं का दबाव नहीं था, और न था किसी का शासन । सत्संगीगण अदम्य श्रद्धा एवं उत्साह से कार्य कर रहे थे । थकना तो वे जानते ही नहीं थे। देखा, जलावन गाड़ी-का-गाड़ी आ रहा है और देखा, भक्तजन की टोलियों से धीरे-धीरे पंडाल का खचाखच भरना। प्रशिक्षण-विद्यालय का चप्पा-चप्पा भर गया। लोगों की तायदाद तो ५० हजार से भी ज्यादा बढ़ चली। क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या जवान, क्या बूढ़ा सब-के-सब भक्ति से सराबोर हो महर्षि मेँहीँ परमहंसजी के अमृत-वचनों को श्रवण करने के लिए आ रहे थे। पंडाल से भीड़ जब बढ़ चली, तो वह भीड़ बाजार तक चली गई। वहाँ तिल धरने का भी स्थान नहीं था । भक्त लोगो के आने का ताँता तो रुकता ही नहीं था । डॉक्टर धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी ‘शास्त्री’, अपर लोकशिक्षा-निर्देशक इस संतमत-सत्संग का उद्घाटन करने के लिए आए हुए थे।
मैंने महर्षिजी की भव्य मूर्ति इसी अवसर पर देखी। अत्यन्त ही वृद्ध, गौरवर्ण, लम्बी नासिका, उन्नत ललाट, वृद्धावस्था के कारण जीर्ण-शीर्ण शरीर, किन्तु अद्भुत ज्योति उनकी आँखों से निकल रही थी। सोचा कि यह तो उनके अपूर्व तप-त्याग एवं साधना का फल है। उनको देखने से ही प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों की कल्पना साकार हो उठी। सफेद बाल, लम्बी दाढ़ी, लम्बा कद, दिव्य ज्योति को देखते-ही-देखते मेरा हृदय श्रद्धा से ओत-प्रोत हो आकृष्ट हो गया। उनके मुखमंडल की आभा उनके अन्तर्ज्ञान और चिर-साधना का प्रतीक है, मुझे ज्ञात हुआ। जब उन्होंने पहले-पहल टीकापट्टी में प्रवेश किया, तो जनता उनकी ओर उमड़ पड़ी। पुस्तकालय में ठहरे । रहने का साधारणतः अच्छा ही प्रबन्ध रहा। स्वच्छता और सादगी पर महर्षिजी का उत्तम विचार पाया। इतने व्यक्ति जुटे हुए हैं , उनके रहन-सहन का प्रबन्ध तो है- यह जानने की उनकी उत्कट अभिलाषा बनी रहती थी।
प्रात:काल सत्संग प्रारम्भ होने के पहले क्रम-क्रम से ईश-स्तुति, संत-स्तुति और गुरु-स्तुति हुई। इतनी बड़ी भीड़, तथापि कहीं बीड़ी पीने, मादक द्रव्य का व्यवहार आदि देखने में नहीं आया और न शोर-गुल का ही। प्रातः ४ बजे से साधुओं का कीर्तन आरम्भ हो जाता था। जहाँ-तहाँ भजन, श्रवण-कीर्तन चलता रहता था। धूनी यत्र-तत्र सर्वत्र जल रही थी। सत्संग प्रवचन चलता रहता था।
महर्षिजी में संत की वाणी विराजती है। वे सम्प्रति एक बड़े लोक-शिक्षक हैं। वे मानव को मानव बनने की सत्य शिक्षा देते हैं। हंस की तरह महर्षिजी ने संसार-सागर से मोती निकालकर अपने श्रद्धालु भक्तों को दिया है। बड़े भाग्य से महर्षिजी से भेंट हुई है। प्रसन्नता तो उनकी चारो ओर दीख पड़ती थी। शीलता, नम्रता तथा शीतलता भी विराज रही थी। सभी भक्तजन पद-रज लेते दिखाई पड़ते थे। किन्हीं का भाषण होता, तो जनता में कुछ आवाज भी सुनाई पड़ती, किन्तु महर्षिजी की अमृतवाणी से एकाएक शांति का वातावरण गूंज जाता था। महर्षिजी की साधना की अमिट छाप भक्तों पर थी। जब-जब महर्षिजी को मैंने देखा, तब-तब मैं उनकी ओर आकृष्ट होता रहा हूँ।
- तारकेश्वर झा , प्राचार्य टीकापट्टी, उच्च प्रशिक्षण विद्यालय, पूर्णियाँ ।
मैं स्वामी दयानन्द सरस्वती के प्रति अत्यधिक आकर्षित था और आज भी उनके प्रति अपार श्रद्धा रखता हूँ। इसी श्रद्धा में मैं आर्यसमाज की प्रचलित पद्धति से प्राणायामादि द्वारा अनेक वर्षों तक उपासना करता रहा; परन्तु परमात्मा के तुरीयातीत स्वरूप का बौद्धिक निर्णय और उनकी प्राप्ति की युक्तियुक्त साधना-विधि ता महर्षि मेँहीँ परमहंसजी के चरणों में ही बैठकर प्राप्त की। अब जमीन में कोई काल्पनिक सम्भावना लेकर मैं नहीं चल रहा हूँ। मेरा विश्वास अडिग है कि सर्वेश्वर के परोक्ष ज्ञान को दृष्टि-साधन और सुरत-शब्द-योग द्वारा एक दिन अवश्य ही अपरोक्ष ज्ञान में परिणत कर लूँगा और यह सदगुरु की असीम करुणा के सहारे ही मेरे द्वारा साधित होगी। इस भौतिकवादी युग में मेरे महान सदगुरु के अवतरण को मैं भगवान राम-कृष्ण की भाँति ही एक दिव्य अवतार मानता हूँ। युक्तिवादी लोग निष्पक्ष बुद्धि से इसका परीक्षण कर सकते हैं। मैं तो संत गरीबदासजी की वाणी में अपनी अंतरधारा को एकीभूत कर रहा हूँ। साहब से सद्गुरु भये, सद्गुरु से भये साध । ये तीनों अंग एक है, गति कछु अगम अगाध ॥
–श्री तालेजी महेशपुर, प॰ देवीपुर (पुरैनियाँ) ।
सन्त महर्षि मेँहीँ परमहंसजी से मेरी दो बार भेंट हुई। पहली बार १९५३ ईस्वी के दिसम्बर में। वे कटिहार जंक्शन पर रेलवे कम्पार्टमेट में थे। मेरे साथ श्री हरिवंशी सहायजी थे। स्वामीजी के सौम्य व्यक्तित्व ने मुझे बहुत प्रभावित किया । मैं अनायास ही नतमस्तक हुआ। उनका स्वभाव बहुत मीठा लगा। मैंने उनसे कॉलेज के लिए आशीर्वाद चाहा। उसी वर्ष कटिहार में कॉलेज की स्थापना हुई। इसके सामने अनेक कठिनाइयाँ थी। आशीर्वादस्वरूप ५१ रु॰ देते हुए उन्होंने कॉलेज के उत्तरोत्तर विकास की शुभकामना प्रकट की। कॉलेज बढ़ा और खूब बढ़ा । मैं इसे उनके आशीर्वाद का फल मानता हूँ ।
दूसरी बार १९६० ईस्वी के जून में मुझे उनसे मिलने का सौभाग्य कटिहार स्थित सत्संग-मंदिर में मिला। उनका प्रवचन चल रहा था । आध्यात्मिक वातावरण था । साधना से आलोकित व्यक्तित्व । उनके विचार बहुत ही सुलझे मालूम हुए। भाषा में सरलता और प्रवाह था । साधारण जीवन की असाधारण घटनाओं का उदाहरण लेकर अध्यात्म के जो दुरूह और गंभीर विचार थे, उन्हें उन्होंने बहुत ही सरलता और स्पष्टता से श्रोताओं के सामने रखा। मैं अत्यन्त प्रभावित हुआ ।
-ब्रह्मदेव नारायण सिन्हा प्राचार्य, डी॰ एस॰ कॉलेज कटिहार
महर्षिजी की अयाचित करुणा से मुझे अध्यात्म-जगत् में प्रवेश करने का श्रेय १९४३ ईस्वी के अगस्त महीने में ही मिला था । दीक्षोपरान्त पुनः भेलवा गाँव में आपके पदार्पण की बात सुनकर मैं दर्शन और सत्संग की दुर्लभ घड़ी प्राप्त करने के लिए चल पड़ा और वहाँ मुझे जो निर्देश मिला, आज भी मैं उसे भूल नहीं सका हूँ- ‘जोन्हरी पेरि रस होय, तबहुँ गुड़ न पके । ईख ही से गुड़ होय, भक्ति से कर्म कटै ॥’
पुनः १९४४ ईस्वी के कहलगाँव सत्संग में आपके द्वारा मेरे हृदय में गो॰ तुलसीदासजी की वाणी प्रविष्ट करायी गयी
“ते नर नरकरूप जीवत जग, भव-भंजन-पद-विमुख अभागी।’
इस वाणी ने मुझे बेताब कर दिया था और उसी दिन मैंने अपने को आप पर न्योछावर-सा कर दिया ।
तीसरी बार अभाव-त्रस्त होकर १९४६ ईस्वी में मैं मनिहारी सत्संग-मंदिर गया था। वहाँ दस दिन रहकर मैं सत्संग एवं भजन करता रहा । एक दिन कृपालु सद्गुरु ने मुझसे पूछने की कृपा की - ‘भजन होता है ?’
मैंने कहा- ‘मैं बनिया आदमी सांसारिक चिंता में व्यस्त रहता हूँ; भजन क्या कर सकूँगा !’
इसपर आपने फरमाया-भजन करो । भजन से परिस्थिति का निर्माण होता है। जैसा चाहोगे, वैसा होगा । मुझे भी बाबा देवी साहब ने कहा था कि भजन करो, सब समस्या हल हो जाएगी।’
इसके बाद मैंने अपने जीवन में प्रत्यक्ष देखा- महर्षिजी की वाणी अक्षरशः सत्य होती गई। मैं जैसा चाहता गया, वैसा वातावरण या परिस्थिति मुझे मिलती गई।
चौथी बार मैं उपेन्द्र जायसवाल को भजन-भेद दिलाने मनिहारी गया था। वहाँ से मुझे धरहरा तक साथ रहने का अवसर मिला । इस बार मुझे पीयूष-दान मिला—’माधो ! अगर भजन में तरक्की चाहते हो, तो मानस जप कभी नहीं भूलने देना- हर वक्त जारी रखना ।’
और यह वाणी मेरे लिए वरदानस्वरूपा हुई। आपकी वात्सल्यपूर्ण वाणी को याद कर आज भी मेरा हृदय भर आता है— श्रद्धा से लबालब हो जाता है।
एक बार मंदार-सत्संग में श्री गुंजेश्वरी देवी का पुत्र-शोक मिटाने के लिए आपने जो आश्वासन-वाणी उच्चारित की थी, वह बड़ी ही मर्म-स्पर्शिनी है
“पुत्र तो वह है, जो नरक से बचा सके । ‘पु’ का अर्थ है नरक और ‘त्र’ का अर्थ है त्राण करनेवाला-- बचानेवाला-- उद्धार करनेवाला । सत्संग नरक से उद्धार करता है। अतः सत्संग ही तुम्हारा वास्तविक पुत्र है। भगवान भी नरक के दु:खों से छुड़ा देते हैं , अतः भगवान ही पुत्र है। ऐसा भी विश्वास होता है कि सद्गुरु नरक-यातना से बचा लेते हैं, अतः सद्गुरु ही तुम्हारा सच्चा पुत्र है। तुम्हारे तो कल्याण की ओर ले जानेवाले अनेकों पुत्र हैं, फिर तुम्हें शोक क्यों करना चाहिए !”
गुंजेश्वरी देवी की अश्रु-धारा के संग हमलोगों के भी पत्थर-दिल से अजस्र स्रोत बह रहा था।
पुनः योगी भूपेन्द्रनाथ से मिलने के सुमधुर दृश्य की याद आती है। दोनों, दोनों को आलिंगन कर रहे थे और दोनों ही कहते जाते- आप बड़े हैं, नहीं आप बड़े हैं । हमलोग आनन्द-सिंधु में निमग्न हो रहे थे।
जब मैं वहाँ से वापस लौटते समय प्रणाम करने गया, तो मुझे असीम प्यार से, पर झिड़कते हुए उन्होंने कहा- ‘मैं जहाँ जाता हूँ, तुम वहीं पहुँच जाते हो। कही स्थिर रहकर भजन क्यों नहीं करते ? जाओ, स्थिर होकर भजन करो । केवल दौड़ने से कुछ नहीं होगा।’
उनके मातृ-तुल्य अगाध वात्सल्य की याद कर हृदय भावों से भर-भर आता है।
एक बार मनिहारी सत्संग-मंदिर में उनकी आज्ञा प्राप्त कर एक महीने उनके साथ रहने का सौभाग्य पाया। बीच में ही दीपावली का दिव्य पर्व आया। उस दिन आश्रम की सफाई में मैंने अति परिश्रम किया, जिस कारण भजन करते समय थकावट के कारण मुझे नींद आ गई। उस समय मुझे उठाते हुए उन्होंने कहा- ‘कौन कहता है कि तुम इतना परिश्रम करो ? दिनभर मेहनत करोगे, तो भजन क्या होगा? थककर सो गए हो । यहाँ भजन करने के लिए आए हो या केवल काम करने और सोने के लिए ?’
मुझे आज भी उनकी कल्याणकारिणी वाणी की याद कर आँखों में प्रेमाश्रु उमड़ आते हैं ।
एक दिन परवत्ती (भागलपुर) सत्संगालय में महर्षिजी ने मुझसे पूछा- “तुम तो ‘मुनि समाज’ की पुस्तकों को भी पढ़ते हो, फिर विवाह क्यों नहीं कर लेते; क्योंकि वे विवाह करने से मना तो नहीं करते होंगे?”
मैंने उत्तर दिया- ‘उनकी यही बात तो मुझे अच्छी नहीं जान नहीं पड़ती।’
यह सुनकर पुनः महर्षिजी ने कहा- ‘वे तो सपत्नीक हैं, इसी से वे ऐसा कहते हैं । यह अपनी कमजोरी छिपाने का एक जरिया है, और कुछ नहीं। तुम बड़े चतुर हो ।’
एक बार मुरादाबाद के सत्संग में मैंने महर्षिजी से अनुरोधपूर्ण विनय उपस्थित की- ‘मैं इसी शरीर में ही मोक्ष-पद प्राप्त कर लेना चाहता हूँ। मोक्ष प्राप्त करने के लिए पुनः दूसरा शरीर धारण कर मैं साधन करूँ – यह नहीं चाहता ।’
यह बात सुनकर उन्होंने कहा- ‘तो भजन करो, इसी शरीर में मिल जाएगा। कौन कहता है कि दूसरे शरीर के भरोसे में रहो ।’
मैंने कहा- ‘तो फर्माया जाय कि कितनी देर तक, कितने वर्ष तक लगातार भजन करूँ, जो यह पूर्ण हो जाए ! इसके लिए जितनी भी कीमत लगे, मैं अदा करने के लिए तैयार हूँ, चाहे सर्वस्व ही त्यागना पड़े ।’
मेरी यह बात सुनकर महर्षिजी बोले- ‘मैं कैसे कहूँ कि इतने समय में तुमको मोक्ष हो जाएगा? इसका समय निर्धारित नहीं होता। तुम समय बँधवाकर मुझसे झूठ कहवाना चाहते हो ?’
इसी बीच में अलीगढ़ के एक सत्संगी भाई ने बीच में ही टोक दिया और मुझसे सवाल-जवाब करने लगे। मैंने आवेश में आ महर्षिजी की तरफ से दूसरी ओर घूमकर रूखे स्वर में उनको जवाब देना शुरू किया। मेरा रूखा जवाब सुनकर महर्षिजी रोष से बोले- ‘तुमको ज्ञान का घमण्ड हो गया ?’
यह सुनते ही मैं चुप हो रहा। उनकी संरक्षकता की याद सदा बनी रहेगी।
- माधव भगत, ढोलबज्जा, भागलपुर
एक बार मैं भी ध्यानाभ्यास-साधना में एक महीने के लिए धरहरा गया था । दो दिन अभ्यास करके मैंने सदगुरुदेव से कहा ‘मैं १५ मिनट भी ध्यान में नहीं बैठ पाता हूँ, अतः मुझे घर जाने की आज्ञा मिले ।’ उत्तर मिला- ‘ और दो दिन रहकर देख लो ।’ फिर तो मुझे डेढ़ घंटे का समय १५ मिनट जैसा लगने लगा। दो दिनों के बाद पुनः पूछा- ‘घर जाओगे?’ मैंने कहा- ‘नहीं ।’ और सद्गुरुदेव हँसते हुए चले गए। सद्गुरु की कृपा इसी भाँति छिपकर होती है।
-महावीर दास, ग्राम- देशरी, पत्रालय जगदीशपुर, भागलपुर
मैंने पहले एक महात्मा से दीक्षा लेकर साधना प्रारंभ की। उन्होंने बताया कि जप करो, पूजा करो, तीर्थ करो और दान करो; इसी से मुक्ति होती है। मैं तीन वर्षों तक लगातार उक्त साधन करता रहा, पर हृदय का अंधकार दूर नहीं हुआ । एक दिन मैंने उक्त महात्माजी से कहा कि मैं दूसरे महात्मा से भजन-भेद लेना चाहता हूँ। यह सुनते ही उन्होंने मुझे बड़ा फटकारा और वेद-वेदान्त का नाम लेकर बहुत तरह की बात सुनाने लगे। मैं तो उस समय कुछ जानता नहीं था, जो जवाब देता। वे सारूप्य, सालोक्य, सामीप्य और सायुज्य मुक्ति की बातें कह रहे थे। मैंने उनसे चारों प्रकार की मुक्तियों को समझा देने की प्रार्थना की; परन्तु उन्होंने नहीं समझाया । मैं अपने हृदय की पिपासा शांत करने के विचार से बरमसिया आया और अजबलाल दासजी संतमत-सत्संगी से मिला। उन्होंने मुझे ‘सत्संग-योग’ नाम की पुस्तक पढ़कर विविध भाँति से समझाया । मेरा मन आश्वस्त हुआ । अब बराबर बरमसिया जाकर सत्संग करने लगा। तीन-चार महीने तक लगातार सत्संग करते रहने पर पाँचो पापों को भी दृढ़ता से छोड़ दिया। फिर सत्संग के सिलसिले में कई बार महर्षि मेँहीँ परमहंसजी के दर्शन का भी सौभाग्य मिला। अब दीक्षा पाने के लिए मैं आकुल होने लगा। सोचता—’यह क्षणभंगुर शरीर न जाने कब नष्ट हो जाएगा। अतः दीक्षा लेकर मनुष्य-जीवन को सार्थक बनाने में लग जाना चाहिए।’
१९५७ साल में महर्षिजी सैदाबाद कुटी पधारे थे। श्री अजबलाल दासजी भी वहीं थे। उन्होंने पत्र लिखकर मुझे बुलाया । वहाँ कई दिनों तक सत्संग करने के बाद मुझे दीक्षा मिल गई। घर में आकर भजन-अभ्यास कर रहा हूँ। धीरे-धीरे हृदय का अंधकार दूर हो रहा है और शांति बढ़ती जा रही है। ऐसे सद्गुरु महाराज को हमारा असंख्य प्रणाम ।
-भज्जुलाल दास, कुवाँड़ी (पूर्णियाँ)
गीता का स्वाध्याय करते हुए जब मैंने अर्जुन की दिव्य दृष्टि के विषय में विचार करना शुरू किया, तो मेरे अन्तर्हदय में भी दिव्य दृष्टि पाने की लालसा ललकने लगी। इस अभीप्सा की परिपूर्ति के लिए मैं शांतिसम्पर्क-स्थलों की खोज करने लगा। मुझे खोज करते हुए यह सुनने में आया कि महर्षि मेँहीँ परमहंसजी के तत्त्वावधान में बहुत-से शांति-संपर्क-स्थल स्थापित किए गए हैं । और इस समेली गाँव में भी एक शांति-संपर्कस्थल है। मैं वहाँ गया। वहाँ जीवन के गंभीर-से-गंभीरतर रहस्यों की चर्चा होती है- मुझे ऐसा प्रतीत हुआ। फिर तो मैं बराबर सत्संग में आने-जाने लगा। मेरी आन्तर चेतना क्रमशः विकसित होती गई और मैं सद्गुरु-दर्शन के लिए छटपटाने लगा। उसी अवसर पर पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कोशिकीपुर सत्सग-मंदिर पधारे । १८ वर्ष की उम्र में उनसे दीक्षा प्राप्त कर मैंने अपने जीवन को धन्य-धन्य समझा । उनके प्रवचन में मैंने सुना–’योगाभ्यास में ऐसी शक्ति है कि दीवार के उस पार की वस्तु अनावरणित रूप में देखी जा सकती है।’ ६ वर्षों से मैं उनके संग समयानुसार सत्संग करता आया हूँ। मैं दृढ़ता से कह सकता हूँ कि निश्चय ही उनमें अद्भूत शक्तियों का निवास है। उनके समक्ष हार्दिक प्रश्नों को कभी बोलकर पूछने की आवश्यकता ही नहीं। ऐसा अनुभव केवल मेरा ही नहीं, अनेक साधनशील जिज्ञासुओं का है। ऐसे महान् सन्तों के पद-कमल में मेरा बारम्बार प्रणाम है !
-श्री महेन्द्र दास , समेली (पूर्णियाँ)
बचपन में भगवान के दर्शन की लालसा थी और इस लालसा की पूर्ति के लिये मैं प्रयत्न करना चाहता था। संतमत के एक-दो सत्संगियों से मेरा परिचय था। मेरी रुचि देख ये लोग मुझे बराबर सत्संग में बुलाते रहते थे। मुझे भी सत्संग में मन लगता था । इस भाँति सत्संग करते-करते दिनोंदिन मैं बहुत-सी नई-नई बातें जानने लगा और सत्संग में मेरी दिलचस्पी बढ़ती ही चली गई। अब मैं परमात्मा के दर्शन का रास्ता जानने के लिए उत्कण्ठित होने लगा। उसी अवसर पर सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज सईद गाँव आये हुए थे। मैं बड़ी उमंग के साथ वहाँ पहुँचा और जाकर अपने को गुरु-चरणों में समर्पित कर दिया । गुरु महाराज की कृपा हुई और उन्होंने मुझे भक्ति-मार्ग पर चलने की युक्ति बता दी। उसका साधन करते हुए मैं दिनोंदिन शांति का अनुभव कर रहा हूँ। आज मैं सोचता हूँ कि सत्संगति के प्रभाव से ही मुझे सद्गुरु मिले और मेरा मानव-जन्म सफल और सार्थक हो गया है।
- पंडितलाल मंडल, कुवाँड़ी (पूर्णियाँ)
सन् १९५८ ईस्वी का कार्तिक महीना था। टीकापट्टी में होनेवाले अखिल भारतीय विशेष संतमत-सत्संगाधिवेशन के लिए हमलोग पंडाल बनाने के हेतु कास (खरै) लाने के लिए गंगा के किनारे गए थे। चार नावें थी।
दो नावें तो गंगा की धारा में किसी भाँति निकल गयी , पर दो नावों को ठेलते-ठेलते हमलोग थकावट से चूर होकर बैठ गए। भुवन-भास्कर अस्त हो चुके थे। दिन भर पानी में रहते-रहते जाड़े से हमारे शरीर थर-थर काँप रहे थे। निराश होकर हम सभी लोग वही नाव पर बैठ गए। रात्रि वहीं बितायी। साढ़े तीन बजे ब्राह्म मुहूर्त की पावन वेला में हमलोग नाव पर बैठकर ही ध्यानाभ्यास करने लगे। उस समय मैंने मन-ही-मन सद्गुरु से प्रार्थना की कि हे सद्गुरु महाराज ! हमलोग तो नाव को ठेलते-ठेलते हारकर-निराश होकर बैठ गए हैं , सो अब आप करुणा कर उद्धार कीजिए। प्रार्थना करते-करते प्रेम-समुद्र मेरे हृदय में उमड़ने लगा । अचानक देखा- सद्गुरुदेव का ज्योतिर्मय स्वरूप अंतर में आश्वासन देते हुए प्रगट हुआ। रूप को देखते-देखते मेरा अंतर-बाहर प्रेम और आनंद से गद्गद हो गया। इतना आनंद था, जिसका वारापार नहीं । मैंने उत्साह के स्वर में कहा- ‘अब हम नाव को नहीं ठेलेंगे।’ इतना कहकर सभी साथी प्रार्थना और आरती कर रहे थे कि सहसा एक नाव जोरों से आगे की ओर निकल गयी और एक मिनट के उपरांत दूसरी नाव भी स्वतः आगे की ओर बढ़ गई। सभी लोग सद्गुरु महाराज की जय-जयकार कर उठे ।
- श्री सुन्दरजी, ग्राम+ पत्रालय– टीकापट्टी (पूर्णियाँ)
भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि मुझे संसार में कुछ भी अप्राप्य नहीं है, फिर भी मैं लोक-व्यवहार को पवित्र रखने के लिये मानवोचित कर्मों को नित्य नियमित रूप से करते ही रहता हूँ; क्योंकि लोकप्रसिद्ध जन यदि समुचित आचरण नहीं करें, तो जन-समाज कर्म-भ्रष्ट हो जायँ ।
उपर्युक्त आदर्श का प्रत्यक्षीकरण हम तो पल-पल महर्षिजी की एक-एक क्रिया-प्रक्रिया में देख रहे हैं। जो भी महानुभाव इस आदर्श को प्रत्यक्ष चरितार्थ हाता हुआ देखना चाहते हैं , वे महर्षिजी के संग निवास कर इसका परीक्षण कर सकते हैं। ऐसे दिव्याचरणी महापुरुष को हमारा कोटि-काटि प्रणाम !
- श्री रामदेव सिंह, ग्राम+ पत्रालय– टीकापट्टी (पूर्णियाँ)
मैंने सर्वप्रथम महर्षि मेँहीँ परमहंसजी के कोशकीपुर में शुभ दर्शन किए। ग्रामीण सत्संगियों के साथ सत्संग करने के सिलसिले में तरह-तरह की शंकाओं की गठरी मेरे मानस पटल में बँध गई थी। सत्संगियों के साथ मैं रात्रि को करीब ८ बजे कोशिकीपुर संतमत-सत्संग-आश्रम पहुँचा। महर्षिजी एक कोठरी में विश्राम कर रहे थे। मैं चुपचाप बैठ गया, मेरे मन में इस बात का गुन्थन चल ही रहा था कि जल्द दर्शन क्यों नहीं देते ? अचानक मैं देखता हूँ कि वृद्ध शरीर, लम्बी श्वेत दाढ़ी, श्वेत बाल, गौर वर्ण, लंबी नासिका, भारतीय संस्कृति के अपूर्व गौरवान्वित वस्त्र (गेरुए) से सुसज्जित युगल नेत्रों की आभा-सहित कोठरी के द्वार पर खड़े हैं। मैंने समझा कि अवश्य ही मुझे दर्शन देने के लिये ही खड़े हैं। तत्क्षण ही उठकर साष्टांग दंडवत् किया, बहुत भावनाओं को लेकर । तत्पश्चात् सत्संग में मेरी पूर्वरचित मन की सभी शंकाओं का समाधान हो गया ।
एक बार मैं कटिहार गया था। मैं वहीं सत्संग आश्रम में ठहरा, गुरुदेवजी ने भी पधारने की कृपा की थी। पाखाने की ताली (चाबी) किसी दूसरे सत्संगी ने सत्संग-आश्रम में ही चुपचाप रख दी थी। महर्षिजी ने रात्रि में कहा कि पाखाना खोल दो। चाबी की खोज होने लगी। दो-तीन सत्संगी चाबी खोजते-खोजते परेशान हो गए; परंतु चाबी नहीं मिली। तब महर्षिजी ने पाए के ताखे की ओर इशारा किया कि इस जगह देखो । चाबी वहीं मिल गई। इसी प्रकार जीवन में अनेक बार इस तरह क चमत्कारपूर्ण कार्य देख हैं ।
एक बार हम दो साथी सिकलीगढ़ धरहरा सत्संग-आश्रम महर्षिजी से मुलाकात करने गए थे। सभी बैठे हुए थे। एक व्यक्ति प्रणाम करके अपने स्थान पर बैठ गया। उस समय तो महर्षिजी ने कुछ नहीं कहा; परंतु सत्संग शुरू होने के बाद ही उनके मुखारविन्द से यह वाणी निकली कि लोग ऐसी-ऐसी गंदी भावनाओं को लेकर प्रणाम करने आते हैं कि यदि उनको मुँह पर कह दिया जाय, तो उलटे पाँव भाग जाएँगे।
- वेदानन्दजी, टीकापट्टी (पूर्णियाँ)
मैं पहले राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा आदि विभिन्न देव एवं देवियों के नाम-जप एवं रूप ध्यान करता था। मामा श्री सुन्दर सिंहजी की प्रेरणा से मैंने महर्षिजी के चरणों में उपस्थित होकर दीक्षा प्राप्त की। तब मुझे गुरु और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है, ऐसा अनुभव हुआ।
एक बार मैंने अपने एक साथी से ध्यान में बिजली की छटक की चर्चा की थी, उसके बाद अब खोजने पर भी उसका पता नहीं मिला। गुरु के उपदेश का उल्लंघन करने का यह परिणाम हुआ। पुनः अवसर पाकर गुरुदेव से यह विनय किया, फिर तो अंतर में उनकी करुणा-वृष्टि होने लगी।
मेरा दृढ़ विश्वास है और यह दृढ़ता बढ़ रही है कि बिना सद्गुरु के किसी का पूर्ण कल्याण कभी नहीं हो सकता।
– रविकांत मंडल, महेशपुर, पत्रालय- देवीपुर (पूर्णियाँ)
सन् १९१० ईस्वी की बात है, जब नव किशोर संन्यासी महर्षिजी अपने पितृदेव के बनाए एक तृण-कुटीर में निवास करते थे। मैं बालकपन से उनके सत्संग में बराबर जाता था, पर समझता नहीं था। किन्तु मेरा मन वहाँ खूब लगता था। समय बीतता गया। मेरी बुद्धि का कुछ विकास हुआ। सत्संग का प्रभाव मेरे अंदर संचित हो रहा था, अतः मैंने स्वेच्छा से ही मांस-मछली का भोजन परित्याग कर दिया और पाँचो पापों से बचकर सत्संग करते रहने का संकल्प किया। यह समय सन् १९२१ ईस्वी का था।
उस समय महर्षिजी के धीरजलालजी, रामदासजी, नंदन साहब, यदुनाथजी, लाला रघुवरदयालजी आदि अनेक सुयोग्य गुरुभाई उपस्थित थे, उसी बीच में मैंने रामचरितमानस के निम्नलिखित पदों को अर्थ समझाने के लिए उपस्थित किया-
बिनु पग चले सुने बिनु काना ।
कर बिनु कर्म करे विधि नाना ॥
अस सब भाँति अलौकिक करनी ।
महिमा जासु जाइ नहिं बरनी ॥
जेहिं इमि गावहिं वेद बुध, जाहि धरहिं मुनि ध्यान ।
सोइ दसरथ सुत भक्त हित, कौसलपति भगवान ।
महर्षिजी ने इसका अभिप्राय मुझे इस भाँति समझाया- ‘जो गुन रहित सगुन सोइ कैसे। जल हिम उपल विलग नहिं जैसे ॥’
‘देखो, जल का विस्तार कितना अधिक है ? उसकी तुलना में ओला कितना लघु है ? इस भाँति निर्गुण-सगुण दोनो तत्त्व-रूप में एक होते हुए भी जल की विभुता और ओले की लघुता या अणुता का विभेद है और शरीर या क्षेत्र से क्षेत्रज्ञ की उत्कृष्टता अवश्य युक्तियुक्त और मानने योग्य है।’
अब तो ऐसी बातों को समझाने के लिए उन्होंने ‘रामचरितमानस-सार सटीक’, ‘श्री गीता-योग-प्रकाश’, ‘वेद-दर्शन-योग’ आदि कतिपय पुस्तकें लिखी है , जिन्हें पढ़कर इस रहस्य को भली भाँति समझा जा सकता है। मैं जानता हूँ कि इनके वाणी-विचार को उपेक्षा की दृष्टि से देखनेवाले पंडितों ने इन पुस्तकों की रचना करने के बाद महर्षिजी को ब्राह्मण मानना और कहना प्रारम्भ कर दिया।
- मिन्तीलाल पोद्दार
सिकलीगढ धरहरा, पो॰- बनमनखी (पुरैनियाँ)
पूज्य पिताजी महर्षिजी से दीक्षा ग्रहण कर चुके थे। उनके दैनिक कर्तव्य, नियम, साधन को मैं देखा करता था। मैं भी सत्संग में जाने लगा। पिताजी ने बहुत-सी पुस्तकें महर्षिजी की बनाई हुई खरीदी थी। मैं प्रतिदिन उन पुस्तकों का अध्ययन किया करता। पुस्तकों के अध्ययन से मुझे काफी प्रसन्नता होती ही थी, साथ ही ईश्वर-भक्ति एवं गुरु के प्रति अटल श्रद्धा भी उत्पन्न हुई। मेरा हृदय बार-बार नियम-साधन को अपनाने के लिए उद्वेलित होने लगा ।
सुनने में आया कि महर्षिजी बरमसिया ग्राम में पधारे हैं । बस, मैं चल पड़ा। वहाँ पहुँचकर महर्षिजी के दर्शन हुए। मैंने अपनी हार्दिक अभिलाषा उनसे कह सुनाई। महर्षिजी ने अपने वचन द्वारा मेरे अशांत हृदय को शांति पहुँचाने के नियम और साधन बताए ।
महर्षिजी बड़े दयालु हैं। उन्हें तो एकान्तवास ही भाता है। लोभ तो उन्हें छू तक नहीं पाया। ऐसे त्यागी गुरुदेव को पाकर कौन हतभाग्य नहीं अपने को भाग्यवान समझेगा?
अब मुझे शांति है। यह पूज्य गुरु महाराज की ही असीम कृपा है।
-पृथ्वीराज मंडल
कुवाँड़ी (पूर्णियाँ)
परमात्मा की असीम कृपा से संत शिरोमणि एवं सर्वेश्वर-पद-प्राप्त महाप्रभु के दिव्य दर्शन कर पाए। उनकी मर्मस्पर्शिनी वाणी एवं सदुपदेश का श्रवण एवं मननकर मेरे मानसिक दुर्गुणों का नाश हो गया। जब-जब आपका हमारे नजदीकी इलाको में सत्संग एवं धर्मोपदेश होता, मैं उसमें सम्मिलित होकर अमृतमयी वाणी को पान करता । उनकी वाणी सुनकर उस ओर मेरी आत्मा का झुकाव दिनों-दिन बढ़ता ही गया। बहुत दिनों से मैं महर्षिजी से भजन-भेद लेने के लिए इच्छुक था । आप हमारे दिल की हार्दिक पुकार अनसुनी नहीं कर सके । आपकी दया-सागर-रूपी लहर मुझ दीन सेवक पर फिर गई। ज्यों ही मैंने आपसे भजन-भेद की भिक्षा माँगी, त्यों हीं आपने निःसंकोच मुझे प्रदान कर दिया।
मैं आपसे कहाँ तक लाभान्वित हुआ हूँ, जो कुछ भी कहा जाय, सब थोड़ा ही होगा। फिर कहूँ, तो क्या कहूँ?
-वीरेन्द्र मोदी
मो॰- असरगंज, थाना- तारापुर, पो॰- असरगंज (मुंगेर) ।
हे भगवन ! हमारे गुरु महाराज का जीवन शांतिप्रद बनावें, जिससे उनकी आत्मा परमात्मा में मिल जाए।
पूज्यपाद महर्षिजी महाराज का पदार्पण ग्राम रमला में पहली बार हुआ था। मैं वहाँ पर पाँच दिनों तक सत्संग करता रहा । सत्संग खतम हो जाने पर मुझे काफी मिठाइयाँ खाने के लिए मिल जाया करती थी। मैं और भी आनंद से ठीक समय पर सत्संग में दाखिल हुआ करता था। और दिन-दिन प्रेम बढ़ता ही गया, लेकिन न जाने मेरे ही लिए सद्गुरु महाराज का पर्दापण हुआ था। मुझे यह बाण लग गया और श्री महर्षिजी महाराज ने मुझसे पूछा कि आपने कुछ समझा-बूझा, तो भजन-भेद ले लीजिए। मैंने कहा कि अभी देरी है। यह बात मेरे मामाजी से भी पूछी गयी और उन्होंने कहा- ‘लेगा ।’ पहले-पहल मेरी यही मुलाकात और संपर्क उनसे हुआ। किंतु उसी रोज मुझे यह बाण लग गया। मैंने उसी रोज से गुरु मान लिया है। हे परमात्मन्! मैं इन्हीं से भजन-भेद लूँगा। और मेरी तुरत यही इच्छा हुई कि वस्त्र-आभूषण उतारूँ और गेरुआ रंगाऊँ और साधु बन जाऊँ। किंतु साधुता पर मुझे तरस खाना पड़ा कि साधु-वेश में बडी तकलीफ होती है। इसलिए मैंने अपने को सँभाला और फिर सत्संग में दाखिल हुआ। मैंने सोचा कि किसी तरह अगर घर ही में भक्ति की जाय, तो बड़ी अच्छी बात है।
यदि ऐसी आज्ञा गुरु महाराज से मिलती, तो बड़ी अच्छी बात होती। मैं यह बात पूछूँगा। परंतु पूछने की बात तो दूर ही रही। मुझे आपसे-आप सरकार ने सुना दिया- ‘सभी वेशों में भगवान की भक्ति की जा सकती है और सभी जातियों को ऐसा करने का अधिकार है।’ मैं तो फूला न समाने लगा, मुझे तो पूरा साहस मिल गया । मैं उसी रोज जान गया कि इनमें ईश्वरी शक्ति है। अब बात क्या रही ? चित्त स्थिर हो गया कि सभी चीजों से निवृत्त होकर महर्षिजी से भजन-भेद लूँगा। लेकिन इसी बीच में मैं बहुत बीमार हो गया और यहाँ तक कि मरने पर हो गया। तब कालेश्वर दास ने प्रलोभन दिया कि भजन-भेद ले लेने से भक्ति का बीज पैदा हो जाएगा। अगर मर भी जाऊँगा तोभी। तब मैंने कहा- बड़ी अच्छी बात, भजन-भेद ले ही लूँ। बस उसी अवस्था में श्री गोपी दासजी के पास जाकर मैंने भजन-भेद ले लिया ।
श्री महर्षिजी महाराज में हमलोगों ने बहुत विशेषता और गुण पाया। उनके प्रभाव का क्या वर्णन करूँ? ऐसा हँसमुख शब्द उच्चारण होता है, जो मन एकदम मुग्ध हो जाता है। संसार की विषय-वासना को भूल जाते हैं। इनके विषय में अनेक उदाहरण हैं--
एक दफा मंदार विद्यापीठ में सत्संग हो रहा था। श्री महर्षिजी का वासस्थान निकट ही जैन-मंदिर में था। मैं ही श्री महर्षिजी की सेवा में था। बौंसी के कुछ पंडे श्री महर्षिजी से मिलने के लिए आए। हमने यह बात उनसे कही और उनलोगों को मिलने की आज्ञा दी गई । जब पण्डे लोग उनसे मिले, तो उन लोगों ने कहा कि जिस विचार से आए थे, वह विचार तो अलग ही रहा; हमलोग सिर्फ उनके दर्शन से ही मुग्ध हो गए। मुँह से कुछ आवाज नहीं निकली।
बभनगामा में वार्षिक सत्संग हो रहा था। जब मैं जिला प्रेसिडेण्ट राघवेन्द्र बाबू के साथ कुछ सामान लाने के लिए बाँका गया था, वहाँ एस॰ पी॰ और दारोगाजी ने पूछा कि वे किस तरह के व्यक्ति हैं ? हमने कहा- ‘प्रत्यक्ष में क्या प्रमाण दूँ?’ उनलोगों ने कहा कि मिलने में कोई बाधा तो नहीं ? मैंने कहा- ‘किसी समय नहीं ।’ तब वे लोग मिलने के लिए आए। और मैं भी वहाँ सेवा में मौजूद था ।
उनलोगों ने कहा- हुजूर के मुखारविन्द से कुछ कहा जाय ।’ श्री महर्षिजी महाराज ने कहा कि आप लोगों को जनता के प्रति इस तरह बरतना चाहिए, जिस तरह माता व पिता; क्योंकि आपलोगों पर ही जनता का हित निर्भर है। और जब वहाँ से जाने लगे, तो उनलोगों को खाने के लिए आग्रह किया गया, तो उनलोगों ने कहा कि उनके वचन से ही हमलोगों का पेट भर गया और हमलोगों को इच्छित भोजन मिल गया।
-श्री राधिका दास
ग्राम-पथरा, पत्रालय-लखपुरा, (भागलपुर)
श्री -श्री पूज्य गुरु महाराज की कृपा से उनकी (महर्षिजी की) महिमा का जो दिग्दर्शन मुझे हुआ, उसका वर्णन-
एक समय महर्षिजी मौन-व्रत धारण किए हुए थे। मुझे एकांत में बुलाकर उन्होंने संकेत किया कि तुम गुप्त रूप से बुद्धू कुँवरजी से मुलाकात करने चले जाओ; क्योंकि मैं उसे दुःखी हालत में देख रहा हूँ। उनकी आज्ञानुसार मैं रवाना हुआ। रास्ते में मैं सोचता जाता था कि अगर प्रभु की कृपा से बुद्धू कुँवरजी राह में मिल जाते, तो मैं परेशानी से बच जाता । भगवान को मनाते हुए अररिया स्टेशन पहुँचा। स्टेशन-घर में बैठकर मैं सोच ही रहा था कि अगर गुरु-कृपा से कुँवरजी यहीं मिल जाते, तो मैं यही से वापस हो जाता। इतने में मैं देखता क्या हूँ कि कुँवरजी हलवाई की दूकान से निकलकर मेरी ही तरफ आ रहे हैं। मैं दौड़कर कुँवरजी के गले से लिपट गया। दोनो प्रेमी मिलकर गुरु महाराज को धन्यवाद देने लगे। उसके बाद मैंने श्री महर्षिजी के आदेशानुसार उनसे पूछा । कुँवरजी बोले- ‘ मैं एक दिन बहुत दुःखी हुआ; कारण जो मैं स्कूल में एक समय सोया था, तो स्वप्न में देखा कि गंगाजी के बीच में एक जहाज पर मैं बैठा हूँ। सभा लगी हुई है, जिसके बीच आनंदकंद श्री गुरु महाराज बैठे हैं और उपदेश कर रहे हैं । इसी बीच नींद टूट गयी, तो कहीं कुछ नहीं देखकर मैं रोने लगा ।’ सुनने के बाद मैंने वहीं से वापस होना चाहा, किंतु कुँवरजी आग्रहपूर्वक अपने यहाँ (जलालगढ़) ले गए। वहाँ से जब मैं वापस गुरु महाराज के निकट आया, तो धन्यवाद देने लगा श्री महर्षिजी को। मेरे आनंद का ठिकाना न रहा। मैंने कहा कि प्रभु ! आप गुरु-रूप में ईश्वर होकर हमलोगों को दर्शन दे रहे हैं । आप अन्तर्यामी हैं । स्वामीजी कहने लगे कि इस बात को गुप्त ही रखना। सो
एक समय महर्षिजी मुक्तेश्वर चले गए थे। उसी समय मुझे वात की बीमारी हो गयी, जिससे मैं पीड़ित था। बचना असम्भव जान पड़ता था। दो महीने तक परेशान रहा । लाली दास, जैलाल दास, रामलाल दास, महँगू दास, भागवत बाबू वैद्य को मैंने मुलाकात करने के लिए खबर दी। बेलसरा से गाड़ी भेजी। धरहरा से केवल भागवत बाबू वैद्य ने आकर दर्शन दिए। बहुत तरह की दवाइयाँ भी दी और पथ्य बताकर आश्वासन देकर चले गए। अनेक दवाइयाँ सेवन करने पर भी बीमारी आराम नहीं हुई, तब रात को बिछावन पर सोये-सोये मैं रोने लगा। मेरी आँखें बन्द थी। रोते हुए मन में इस बात की चिन्ता भी लगी हुई थी कि अब मुझे स्वामीजी के दर्शन नहीं होंगे। इतने में श्री महर्षिजी प्रगट होकर कहने लगे कि तुम रोओ मत । गुरु-स्मरण करो। यह सुनकर मैं उठकर बैठ गया, जबकि मुझे उठने की शक्ति भी नहीं थी। महर्षिजी के दर्शन होते ही मन प्रेम से विह्वल हो गया और मैं रोने लगा और कहने लगा- ‘हे गुरु महाराज ! आप दर्शन देकर कहाँ छिप गए!’
बीमारी तुरत छूट गई। लाठी लेकर मैं आँगन में टहलने लगा। तदुपरान्त बिछावन पर लेटकर मैं मानस जप करने लगा। सबेरे शौच से आया, तो झब्बू भगत कहने लगे कि आज तो आप बहुत दूर तक टहले हैं। मैं गुरु महाराज की दुहाई देने लगा। तदुपरान्त धरहरा जाकर महर्षिजी की खोज की, तो महँगू दास ने कहा कि महर्षिजी कुप्पाघाट, भागलपुर में हैं। मैंने वहाँ जाकर गुरु महाराज के चरणों की शरण ली। महर्षिजी पूछने लगे कि कुशल कहिए। मैं गद्गद स्वर में बोल उठा–’अब आपके चरण-कमलों के दर्शन हुए, सब कुशल है। नहीं तो जीने की आशा नहीं थी।’ सरकार पूछने लगे- ‘बीमारी छूटने में कुछ कसर भी है?’ मैंने कहा- ‘प्रभु तो अन्तर्यामी ही हैं।’ कुछ कसर तो थी ही, जिसपर महर्षिजी कहने लगे कि चार दिन तक सुबह में एक घड़ी तक गंगाजी में बैठिए, तो बाकी कसर भी दूर हो जाएगी। एक अच्छे डॉक्टर ने मुझसे कहा था कि वात की बीमारी में पानी बहुत फायदा करता है; क्योंकि यह शरीर तो पानी का ही है। जिसपर मैंने कहा कि प्रभु सब वैद्यों के वैद्य है। चार दिन मैं सुबह में एक घड़ी श्री गंगाजी में बैठा, जिससे बीमारी बिल्कुल दूर हो गयी। मैं महर्षिजी का धन्यवाद मनाने लगा और कृतकृत्य हो गया।
एक समय की बात है महर्षिजी बेलसरा आनेवाले थे। वर्षा का अभाव था । लोग ईश्वर से मनाते थे कि आज महर्षिजी का शुभागमन है, इस शुभ अवसर पर अगर वर्षा हो जाती, तो बड़ी अच्छी बात थी। मनुष्य, पशु, पक्षी सभी पानी के बिना व्याकुल थे। महर्षिजी बेलसरा आए। भोजनादि के उपरान्त बाकी आदमी भोजन करने बैठे । इसी बीच चारों ओर बादल छा गए । जोरों से वर्षा होने लगी। आनन्द में विभोर हो सब लोग महर्षिजी की दुहाई देने लगे। महर्षिजी बोले कि ईश्वर की दया से वर्षा हुई। लोग कहने लगे कि आप स्वयं ईश्वरावतार हैं । आपकी दया से वर्षा हुई। हमलोग आनन्दित हुए।
एक बार मैं गूदर दास के संग सत्संग में जा रहा था। उन्होंने बहुत शंकाएँ मेरे सामने उपस्थित की। मैंने गूदर दास से कहा कि आज सत्संग में इन सभी बातों का समाधान हो जाएगा। ठीक ऐसा ही हुआ । महर्षिजी की दृष्टि गूदर दास तथा मुझपर पड़ी, तो इशारे से जो-जो बातें हम दोनों में हुई थी, सभी बातों का जवाब महर्षिजी ने उसी तरह दिया, जैसा कि मैंने कहा था। महर्षिजी कहने लगे कि जो यहाँ आते हैं, उनको मैं शरण में ले लेता हूँ । आप दुख से मत घबराइए, यह सब तो भक्तों की परीक्षा है।
मेरे पास एक जोड़ा बैल थे। अचानक दोनों बैल मर गए, जिससे मुझे बड़ा दुख हुआ। कभी मन से बैल की चिन्ता जाती ही नहीं थी। एक समय धरहरा सत्संग-भवन में बहुत-से आदमी सत्संग में बैठे हुए थे। उस समय मेरी तरफ देखकर महर्षिजी कहने लगे कि अगर बैल मर गया है, तो उसकी चिन्ता में कभी जड़भरत के समान बैल न हो जाना पड़े। इसलिए मन से बैल की चिन्ता हटा देनी चाहिए। मैं हाथ जोड़कर महर्षिजी के चरणों में जा गिरा। महर्षिजी हँसने लगे।
काँप के वार्षिक अधिवेशन में प्रातःकाल महर्षिजी कहने लगे कि ‘यहाँ का सत्संग तो खूब बना, पर वर्षा की बड़ी कमी है। किसानों की फसल सूख रही है। अतः मैं ईश्वर से मनाता हूँ कि वर्षा हो और हमलोग भींग-भीगकर सत्संग करें।’ थोड़ी देर में ही आकाश काले-काले बादलों से आच्छादित हो गया और वर्षा होने लगी। इतनी वर्षा हुई कि कितने लोग पण्डाल छोड़कर बस्ती की तरफ भागने लगे, किन्तु महर्षिजी सत्संग समाप्त करके ही पण्डाल से उठे ।
एक समय धरहरा में एक महीने का सत्संग अटूट रूप से चल रहा था, जिसमें एक चम्मन साह नाम का सत्संगी सलाइगढ़ का था। उसको खाँसी का रोग सता रहा था। जिससे लोगों को ध्यान में बाधा हो जाती थी। एक दिन महर्षिजी के निकट बैठा हुआ था, तो उसे खाँसी सताने लगी। जिसपर महर्षिजी ने जोर से डॉटा । वह भाग गया। उसी दिन से उसकी खाँसी भी भाग गयी। बहुत वर्ष पूर्व ही महर्षि मेँहीँ परमहंसजी उपदेश के सिलसिले में कहते थे– ‘ऐसा समय आनेवाला है, जब जनसमूह में प्रेम के साथ ही समय बिताना पड़ेगा। क्या हिन्दू, क्या मुसलमान सभी मिलकर ही रहेंगे, तभी कुशल होगा।’
-खूबलाल दास , सत्संग-भवन, बेलसरा
तुलसी संत सुअम्ब तरु, फूले फलहिँ पर हेत । इतते वे पाहन हनें, उतते वे फल देत ॥
गत वर्ष की बात है। मैं सत्संग-मंदिर परवत्ती (भागलपुर) में ही रहकर विद्याध्ययन करता था। एक दिन एक सत्संगी, जिनका नाम गोपी दासजी है, सत्संग-मंदिर (परवत्ती) आए। वे अपने साथ एक पत्र भी लाए थे। रात्रि में सत्संग के पश्चात् उन्होंने पूज्य महर्षिजी महाराज के विरोध में बहुत कुछ कहा। दूसरे-दूसरे संतों को भी कोसा। पुनः वे आत्म-प्रशंसा करने लग गए। उनका कहना था कि मैं भी बाबा देवी साहब का ही शिष्य हूँ और मैं भी सत्संग का प्रचार करीब ३० वर्षों से करता आ रहा हूँ। महर्षिजी (मेँहीँ परमहंस) को कई पत्र दिए कि अभी भी आप अपने मत में सुधार लावें, लेकिन वे अभी तक मेरी बात पर या पत्र पर गौर नहीं करते । महर्षिजी जो प्रचार कर रहे हैं, वह बाबा देवी साहब के मत के खिलाफ है। रात्रि में वे यहीं ठहरे। सुबह महर्षिजी के नाम से एक पत्र यहीं (परवत्ती में ही) छोड़ते गए। साथ-हीसाथ वे अपना एक छाता भी यहीं भूल से छोड़ते गये। यहीं पर मुझे पता नहीं चला कि वे अपना छाता क्यों भूलते गये? शायद इसलिए कि उन्हें महर्षिजी से मिलना था।
पूज्य महर्षिजी महाराज का आगमन भी उसी दिन उसके थोड़ी देर जाने के बाद हुआ। उन्हें फिर किसी प्रकार महर्षिजी से मिलना था, अत: इसी बीच उसे छाते की याद आना भी जरूरी था। वे पुनः छाता लेने के उद्देश्य से सत्संग-भवन आए । पूज्य महर्षिजी महाराज से उनका साक्षात्कार हुआ। कुछ समय उपरांत ‘संतसेवी’ महावीर दासजी ने उनकी चिट्ठी महर्षिजी महाराज को प्रदान की। पत्र में जो कुछ लिखा था, महर्षिजी महाराज ने हम सबों के बीच पढ़ा और संक्षेप में या जो कुछ मुझे याद है, वह इस प्रकार है- ‘आप बाबा देवी साहब के मत के खिलाफ प्रचार कर रहे हैं । मैं आपके प्रचार से संतुष्ट नहीं हूँ । इस प्रश्न को लेकर मैंने कई पत्र प्रदान किए, लेकिन आप अभी तक गलत रास्ते पर ही चल रहे हैं । इस प्रश्न को लेकर मुझे कई पुस्तकें लिखनी पड़ी। आपका यह भी कहना है कि संतों ने जो कुछ उपनिषद् में वर्णन किया है या और-और संतों का जो मत हैं, उसी की मान्यता मैं भी देता हूँ, गलत है। इस प्रश्न को लेकर मैं पूर्णतः सहमत नहीं हूँ।’
श्री महर्षिजी महाराज तथा गोपी दासजी में कुछ समय तक वार्तालाप चलता रहा। इस सिलसिले में महर्षिजी महाराज का कहना था कि मैं आपकी बात की मान्यता दूँगा, जबकि आप मुझे स्पष्ट रूप से उदाहरण द्वारा समझा दें । इस प्रश्न पर वे कोई स्पष्ट और युक्तियुक्त जवाब नहीं दे सके। उसी सिलसिले में महर्षिजी महाराज ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि- देखो जी, सूर्य भी कहीं छिपता है !’ इस सिलसिले में यह भी कहा गया कि गोपी दासजी ! यह हो सकता है कि आप मुझसे उम्र में बड़े हों, आप प्रतिष्ठा या आदर के योग्य हों, इसमें मैं आपकी बात मान सकता हूँ, लेकिन यह कहना कि आपका जो संतों से मिलता हुआ विचार है, इसे नहीं मानता, मैं इसे कदापि नहीं मान सकता।
अत: यहीं पर उनकी (महर्षिजी महाराज की) महिमा एवं गरिमा का आभास सिद्ध हो जाता है। आपका स्थान यहीं पर स्पष्ट अवगत होता है। मैं कह सकता हूँ कि पूज्य महर्षिजी महाराज का स्थान इस भारत की पुण्यभूमि पर हम सबों के बीच वही है, जो आसमान में तारों के बीच चन्द्रमा का । हमलोगों का महान सौभाग्य है कि वे हमारे बीच और समीप में मौजूद हैं ।
- छविनाथ , चतुर्थ वर्ष (कला) , ग्राम+पत्रालय- अगरपुर (भागलपुर)
‘सत्संग-योग’ ग्रन्थ छप चुका था। उसी साल की बात है। उसकी व्याख्या अपने मुखारविन्द से सर्वसाधारण को सुनाने के लिए श्री महर्षिजी महाराज ने सात दिनों का कार्यक्रम ‘सिकलीगढ़ धरहरा में रखा था। जिस दिन व्याख्यान समाप्त हो चुका, उसी दिन संध्याकाल मुझे श्री महर्षिजी महाराज के प्रथम दर्शन का सौभाग्य उपलब्ध हुआ। रात में सविस्तार सत्संग नहीं कर, केवल दैनिक नियमानुकूल विनती-आरती करके वहाँ सत्संग समाप्त किया गया। दूसरे दिन प्रात:काल खगड़ियावाले डॉक्टर श्री रामप्रसाद दासजी एकांत में वार्तालाप कर रहे थे, उसी वक्त मैंने भी महर्षिजी के संपर्क में जाकर यथाविधि दंडवत् बंदगी की थी, श्री महर्षिजी महाराज ने दूर के रहनेवालों को, जिनमें एक मैं भी था, प्रश्न करने के लिए स्वतंत्र अधिकार दे दिया । ‘न मैं कोई बड़ा विद्वान हूँ और न मेरे पास अधिक प्रश्नावली ही है, केवल मैं गुरु-दीक्षा के हेतु आया हूँ, मुझे उपदेश मिल जाना चाहिए।’ मैंने श्री महर्षिजी से कहा। श्री महर्षिजी ने पूछा- “आप कभी सत्संग किए हैं या नहीं? अगर नहीं , तो नवीन मुद्रित ‘सत्संग-योग’ ले जाकर पढ़िए और साथ ही कुछ दिन सत्संग भी कीजिए, ताकि सन्तमत के नियमों से आप विशेष परिचित हो जाएँ। पश्चात् आपको दीक्षा मिल जाएगी।” बस, मैं भी ‘सत्संग-योग’ और ‘संतमत-सिद्धांत’ नाम की पुस्तक खरीदकर वापस लौट आया ।
एक वर्ष तक मैंने संतमत की पुस्तकों का यथोचित अध्ययन-मनन किया और बीच-बीच में दीक्षा के लिए कई बार धरहरा भी पहुँचा । जिनमें कई बार श्री गुरु महाराज का दर्शन-लाभ भी मुझे होता रहा। परंतु श्री महर्षिजी को अवकाश नहीं रहने के कारण मुझे दीक्षा का सुअवसर नहीं मिला।
चैत महीना था। मैं दीक्षार्थ महर्षिजी के पास पहुंचा और उपदेश के लिए साग्रह निवेदन किया । बहुत बातचीत होने के पश्चात् श्री महर्षिजी ने कहा- ‘आप एक ज्योतिषविद् है और चैत मास में दीक्षा लेना ज्योतिष से निषिद्ध है । अतएव निकट वैशाख में उपदेश लेना आपको उपयुक्त होगा।’ ऐसा आश्वासन पाकर मैं पुनः घर लौट गया।
जगे हुए की रैन बड़ी तथा थके हुए का मार्ग लंबा होता है। लौटा तो सही, लेकिन वैशाख की दूरी लंबी अनुभव हो रही थी। घड़ी जाती, पहर जाता, दिन-रात भी नियमानुकूल चक्कर लगाते, तो भी वैशाख की अवधि मुझे समीप प्रतीत नहीं होती थी। एक दिन का समय भी युग के समान मालूम पड़ता था।
वैशाख आया । दिल आनंद और उमंग से भर गया। गुरु-दर्शनाभिलाषी मन से प्रेरित पैर तीव्र गति से धरहरा-मार्ग को नापने लगा। सानंद धरहरा पहुँचा। पहुँचने पर हर्ष और विषाद-दोनों एक साथ हुए। हर्ष तो इस बात का था कि ‘वृथा न होहिं देव ऋषि वाणी’ विश्वास तथा आशा भी थी कि भजन-भेद मिलेगा, अवश्यमेव मिलेगा। किसी भाँति मैं उससे वंचित नहीं रहूँगा। चिन्ता का कारण था, महर्षिजी को वहाँ उपस्थित नहीं पाया । श्री धर बाबू से पूछने पर पता लगा कि महर्षिजी मोरंग की यात्रा में है। प्राप्त पते पर मैंने भी मोरंग का रास्ता लिया, दो दिन चलकर कनखुदिया में महर्षिजी का पता लगा । याद रहे कि इस बार समाधान के लिए बहुत-सी लिखित प्रश्नावली भी मेरे पास थी।
धूप बड़ी तेज थी, यात्रा थी मेरी पैदल और दूर की, अतः मैं थका-मारा तो था ही। वहाँ पहुँचते ही संयोगवश महर्षिजी की दृष्टि मुझपर पड़ी। बस, अब देर क्या थी, सामयिक सेवा-शुश्रूषा के लिए यथोचित प्रबंध कर दिया ! आतिथ्य की दृष्टि से एक भद्र महोदय का जैसा आदर-सत्कार होना चाहिए, तत्काल वैसा आसन-बासन, पंखा-पवन तथा अन्न-जल से मुझे परम संतोष मिला। यह था श्री महर्षिजी की सहानुभूति का महान आदर्श ! उल्लिखित क्रिया-कलापों से यद्यपि मैं लज्जा में डूबा हुआ था, तथापि गुरु-आज्ञा की अवहेलना का साहस और शक्ति मैंने अपने में नहीं पायी । कुछ काल आराम किया, समय पर सत्संग शुरू हुआ, वातावरण शांत था, वचनामृत के लिए तृषित तथा उत्सक श्रोतृवृन्द चकोर की भाँति टकटकी बाँधे महर्षिजी को निहार रहे थे, मानो सजीवता पर जड़ता का साम्राज्य छा गया था। अविलंब महर्षिजी का प्रवचन शुरू हुआ और सावधान, सतर्क तथा एकाग्रचित्त से लोग वचनामृत का श्रवणपुट से पान करने लगे। पूर्वनिर्धारित मेरा विचार था कि अपने प्रश्नों का प्रस्ताव के रूप में रखूँगा। किंतु परिवर्तित विचार से शंकालु हृदय प्रवचन में ही समाधान ढूँढ़ने लगा। कितने प्रश्न हल भी हो गए। स्वर्ण-अवसर की परिधि बहुत छोटी रहती है। अंत में परम प्रभु की असीम अनुकंपा तथा गुरुदेव की महती कृपा-दृष्टि से मुझे सैदाबाद में भजन-भेद (आंतरिक अभ्यास का युक्ति-संकेत) मिला।
राजावासा में बात के सिलसिले में महर्षिजी बोले थे कि मैं घर-वार छोड़कर नकली साधु के वेश में हूँ, इसलिए योग-युक्ति नहीं मिल रही है। श्री महर्षिजी के महान व्यक्तित्व या संतमत की उदारता ही थी, जो मुझे साम्प्रदायिक संकीर्णता से पार कर दिया, चूंकि इसके पूर्व मैंने कई मतों की शिक्षा ग्रहण की थी, जिनमें आजतक इस प्रकार स्वच्छन्द रूप से खुले आकाश में विचरने का कभी सुअवसर नहीं मिला था।
-गंगादास ‘वैरागी’, मो॰-ठूठी, पो॰-बलुआ बाजार, जिला-सहर्षा
टीकापुर (जिला मुंगेर) में सत्संग होनेवाला था। मैं अपने साथियों के साथ पहुँचा। सत्संग की शिक्षा का ध्यानपूर्वक श्रवण किया। बाद में एकाएक. प्रेम की भावना जाग्रत हो गयी। प्रेम बढ़ता गया, श्रद्धा बढ़ती गयी। धीरे-धीरे मादक द्रव्य भी छूटता गया और अंत में छूटकर ही रहा ।
मैं गुरुमंत्र के लिए पागल-जैसा बन गया। पूज्य महर्षिजी से एकांत में मुलाकात की। पहले तो आपने फटकारा और कहा कि सत्संग किया करो। बाद में आपके कथनानुसार काम किया।
अब क्या था, आपकी असीम कृपा हुई। प्रव्रज्या मिली। नित्य नियमानुसार मानस जप, मानस ध्यान और दृष्टि-साधन किया। फिर क्या था, जैसा आपने बताया, ठीक वैसा ही निकला।
- जगन्नाथ दास, कल्याण टोला, विन्दा दियारा, पत्रालय–बरियारपुर (मुंगेर)
कुछ लिखने के पहले ही मेरी लेखनी रुक जाती है कि शायद परमाणु-युग के मनचले मानव मेरे इस विश्वास को ठुकरा दें। ठुकराने से ही क्या; सत्य के पीछे मेरी लेखनी दौड़कर रहेगी।
श्री गुरु की कृपा हुई। खगड़िया के सत्संग में भाग लिया। यह सत्संग १९५२ ईस्वी को हुआ था। ऐसे सभा-समुदाय की विशालता अबतक मैंने कभी नहीं देखी थी। शांति, सत्यता और सद्विचार की सरिता मानो खगड़िया को सींच रही थी।
आते ही महर्षिजी को मैंने अलबलाहा रूप में देखा। बिल्कुल पतले और देखने में बिल्कुल बेढब दिखाई पड़ रहे थे। दिन-प्रतिदिन ही नहीं , बल्कि घंटे प्रति घंटे रूप में परिवर्तन-सा मालूम पड़ रहा था। कभी तो देखने में बलवान, कभी बिल्कुल वृद्ध और कभी लाठी तक भी पकड़ने की शक्ति भी नहीं । न जाने मैं बदल गया था अथवा महर्षिजी? सदा आश्चर्य की बातें सामने आती थी ।
अंतिम दिन मेरे विचार की बुरी भावनाएँ जलती हुई दिखायी पड़ी। ‘गुरुमंत्र’ के लिए विह्वल बन गया। सद्गुरु की कृपा हुई । ‘गुरुमंत्र’ मिला। जहाज-घाट से ही साधन-भजन प्रारंभ किया। दृढ़ विश्वास हुआ। कुछ दिनों के बाद पता चला कि सचमुच सबों के अंदर आत्म-ज्योति जगमगा रही है।
लगभग डेढ़ बज रहा था। भुवन-भास्कर भगवान का तेज पृथ्वी को तपा रहा था। देखा, कि पूज्य महर्षिजी सिंह पर सवार होकर तीव्र गति से सत्संग के लिए जा रहे हैं। सत्संगियों का सुमधुर गान भी सुनाई पड़ रहा है। यह स्वप्न था, फिर भी मुझे अनुभव हो रहा था कि प्रत्यक्ष मैं देख रहा हूँ। किसी विद्यार्थी ने मुझे पुकारा। आवाज सुनाई पड़ने पर भी दृश्य ज्यों-का-त्यों था। सिंह देखने पर डर मालूम पड़ता है। लेकिन गुरु की असीम कृपा से मैं निर्भीक था। देखने में आनंद आ रहा था।
परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति के लिए पूज्य महर्षि जी ने सही और सरल तरीका हमलोगों को बताया है। यह हमारा हमारे देश, हमारे संसार का सौभाग्य है कि ऐसे परब्रह्म परमात्मा हमारे बीच अवतीर्ण हुए हैं ।
-सोहन प्रसाद शर्मा , कल्याण टोला (मुंगेर)
एक बार मैं अपना अध्ययन छोड़कर अध्यात्मिक ग्रन्थ ही पढ़ने लगा। उस समय मुझे कोई दूसरा ग्रन्थ अच्छा ही नहीं लगता था। मेरे गाँव में एक सत्संगी आये थे। मैंने उनका सत्संग-योग पढ़ा। और-और ग्रन्थ पढे । मैं परमहंस महर्षिजी के लिए व्याकुल हो गया था। लोग मुझे पागल कहने लगे। मैं बेड़ी में बाधा गया। उसी कारागृह में ठीक दोपहर को कड़ाके की धूप थी। एक वृद्धा (यह वृद्धा मेरे गाँव के पास की बस्ती की ही थी) अपने हाथ में लोटा लिये तेजी से ही आयी और बोली- “ मेँहीँ बाबा” और लोटा ओसारे पर रख कर चली गयी। यह बात- मेरे अलावा कोई नहीं जानता। वृद्धा उस समय दिव्य छटा धारण किये हुई थी। मैंने इसका अर्थ निकाला कि महर्षि जी को गुरु मानना चाहिये।
- ईश्वरी यादव , विन्दा ‘दियरा (मुंगेर)
१९३० ईस्वी में मैं अस्वस्थ हो गया था, बचने की कोई उम्मीद न थी। स्थानीय एवं पटना के डॉक्टर, वैद्य-हकीम ने अपने-अपने ढंग से चिकित्सा की। यह क्रम प्रायः एक साल तक चला, किंतु सब व्यर्थ । मैं मरने की घड़ियाँ गिन रहा था। किसी मित्र ने मुझे शहर भागलपुर चिकित्सा कराने लाया। चिकित्सा के लिए एक यशस्वी कविराज मिले। चिकित्सा चलने लगी और पथ्यापथ्य पर नियंत्रण भी। किंतु रोग, विपद की रात की तरह लंबी होती जा रही थी। स्नान किए बिना पूरे वर्ष बीत चुके थे। मैं दुर्बल और कृशप्राय था। पर कुछ घूम-फिर सकता था।
एक दिन मैं अपराह्न में कविराज के यहाँ गया हुआ था। डेरे पर आने पर पता चला कि मेरी अवस्था का कोई सूत्र पाकर स्वयं महर्षिजी मुझे दर्शन देने खंजरपुर कचहरी आये थे और मुझे अनुपस्थित पाकर चले गए हैं । जाते समय वे अपना परिचय और पता देते गए थे।
जब यह समाचार मैंने सुना, तो हर्ष और शोक में डूब गया। हर्ष इसलिए कि नवनीत-हृदय संत सद्गुरु महाराज बिना कारण पाँव पैदल चलकर अकिंचन विपद्ग्रस्त शिष्य को दर्शन से कृतार्थ करने द्वार पर आए, इस कृपा के लिए मैं प्रेम-विभोर और गद्गद हो गया; किंतु उन्हें आकर कष्ट पहुँचाने और दर्शन से स्वयं वंचित होने के कारण शोक-संतप्त हो गया।
मैं उसी समय खंजरपुर चला गया । उस समय रात्रि का सत्संग हो रहा था । आरती के बाद मैंने सरकार के दर्शन किए । बड़ी ही करुणा और सद्भावना से सरकार ने मेरी कुशल पूछी और अपनी सारी करुणा का स्रोत मुझपर उड़ेलते हुए उन्होंने कहा- ‘भगवान ! तुम्हारी बीमारी तो कुछ वैसी नहीं लगती, तुम्हारे जैसे रोगी को तो गंगा-स्नान करना चाहिए।’
मैंन कहा- ऐसा ही करूँगा सरकार!
और दूसरे ही दिन से मैं बूढानाथ-घाट में स्नान करने लगा। पूरे एक वर्ष का रोगी, ज्वर के भय से कूप के जल से स्नान करने में भी भयभीत, भाद्र की चढ़ी-बढ़ी गंगा में सहर्ष स्नान करने लगा। और कुछ ही दिनों में पूर्ण स्वस्थ हो घर वापस आया । यह है महर्षिजी का अलौकिक चमत्कारिक व्यक्तित्व ।
- डॉ॰ भगवान पोद्दार, फुलवरिया
मैं मार्ग ढूँढ़ रहा था। मुझे सद्गुरु की आवश्यकता थी। भावना ने परिस्थिति पैदा की। अपनी नौकरी के सिलसिले में मुझे १९४२ ईस्वी में मनिहारी रहना पड़ा। वहाँ महर्षिजी के बारे में मैंने सुना। सुना कि वे आमिषाहारी को दीक्षा नहीं देते हैं।
मैं था कट्टर आमिषाहारी। साधारण तथाकथित शिक्षित तर्कपरायण श्रद्धाहीन नवयुवक की भाँति मैं अपराह्न में पहुँच गया उनके गंगातट के मनोरम कुटीर में और पूछा- ‘क्या आप आमिषाहार का विरोध करते हैं और आमिषाहारी को दीक्षा नहीं देते हैं ?’
महर्षिजी- ‘हाँ’
मेरे पास आमिषाहार के पक्ष में जितने तर्क थे, सभी को मैंने उनके सामने छेड़ा। उन्होंने मेरे तर्क को वितर्क द्वारा काटने के बजाय मुझे इन शब्दों से उबुद्ध किया ।
महर्षिजी – आप चाहते क्या है ?’
मैं- ‘मैं शांति चाहता हूँ ।’
महर्षिजी- शांति-प्राप्ति करने के लिए किन गुणों की जरूरत है ?’
मैं –’शांति प्राप्त करने के लिए सतोगुण की जरूरत है।
महर्षिजी- ‘सतोगुण प्राप्त करने के लिए सतोगुणी भोजन की आवश्यकता है।’
मेरे तर्क और आगे नहीं बढ़ सके। हिंसा-अहिंसा के सारे प्रश्न एक तरफ हो गए। मैं अवाक् हो गया। इतने सहज रूप से इस कठिन-समस्या का समाधान हो गया। उनकी बातों में मानो कोई अद्भुत शक्ति थी, वह शक्ति उनके व्यक्तित्व की थी।
आमिष व निरामिष की मीमांसा सैकड़ों किताबों द्वारा नहीं हो सकी थी, वह हो गयी एक महापुरुष के एक वाक्य से। मैं अच्छी तरह समझ गया और उनके सामने आमिषाहार छोड़ने का निश्चय किया। यह प्रसंग १७ वर्ष पहले का है। इतने दिनों में तर्क भावना से श्रद्धा में रूपान्तरित हो गया हूँ । महर्षिजी भारतीय संस्कृति के मूर्त प्रतीक हैं ।
निशाचर प्राणियों की भाँति संसार के विषय-पंक से आकण्ठ निमज्जित दीक्षित-अदीक्षित, शिक्षित-अशिक्षित, विद्वान-मूर्ख, पेशेदार गुरु व पंडित, सभी सद्गुरु रूपी प्रकाश-स्तम्भ के सामने आकर चकाचौंध में पड़ जाते हैं ।
-युगल प्रसाद लाल, आजमनगर (पूर्णियाँ)
करीब दस वर्षों से मैं भगवत्प्राप्ति के साधनों को जानने के लिए अनेक योगी-साधुओं की संगति में भटकता रहा, परंतु मेरे हृदय को शांति की आशा नहीं मिली। अंत में सन् १९४३ ईस्वी में महर्षि मेँहीँ परमहंसजी के तत्त्वावधान में सन्तमत-सत्संग में सम्मिलित होकर सत्संग किया। कई बार पूज्यपाद महर्षिजी के प्रवचनों को भी सुना। मेरी श्रद्धा क्रमशः दृढ़तर होती गयी और मैंने सन् १९४५ ईस्वी में उनसे दीक्षा प्राप्त की। साधना में तीव्र प्रवेग आने लगे। यह वर्णन की बात नहीं है, फिर भी मैं इतना कह सकता हूँ कि उपासना-काल में और जब कभी मैं उनका प्रवचन सुनने लगता था, उस समय अंधकार मुझसे कोसों दूर भाग जाता था।
मैं अनुज शिवशंकर को दशम वर्ग तक ही पढ़ा सका। उसे कोई नौकरी मिलने की भी आशा नहीं थी। मैंने श्री चरणों में इसके लिए निवेदन किया। मुझे विश्वास है कि बाहरी प्रयत्न चाहे जो भी रहे हों, परंतु उनकी कृपा से ही उसे अच्छी नौकरी मिल गयी। अब वह सानंद भजन कर रहा है।
इनकी बताई जड़ी-बूटियों से मेरी कई प्रकार की शारीरिक बीमारियाँ दूर हुई हैं और अनेक तापों से छुटकारा मिला है। मेरी पूजनीया माताजी को उनके चरणों में अगाध प्रेम है। वे भी समयानुसार सत्संग में बराबर ही जाने का प्रयत्न करती रहती है।
ता॰ १३-११-१९५८ ईस्वी की बात है। श्री महर्षिजी जमालपुर से झंडापुर जानेवाले थे। मैंने उनसे अपने घर पर आने की प्रार्थना की। महर्षिजी ने वचन दिया कि जाने के वक्त तुम्हारे घर होते हुए स्टेशन जाऊँगा। मैं महर्षिजी के शुभागमन के लिए इंतजाम करने में लग गया। मुझे महर्षिजी के पास जाने में कुछ देरी हो गई। महर्षिजी आठ बजे सुबह की गाड़ी पकड़ने के लिए प्रस्थान कर चुके थे, यहाँ तक कि टिकट कटाकर गाड़ी में बैठ भी चुके थे। उनके साथ करीब २०॰ सत्संगी भाई थे। मुझे मालूम हुआ कि महर्षिजी स्टेशन पहुँच गए। स्टेशन जाकर मेरी माँ ने महर्षिजी से घर पर आने की विनीत प्रार्थना की। मेरी माँ की अटूट श्रद्धा एवं भक्ति देखकर गाड़ी से उतरकर महर्षिजी जीप द्वारा हमारे घर पर पधारे । करीब दो मिनटों तक ठहरकर पुनः वापस लौट आए । गाड़ी तबतक खड़ी ही थी।
हम सभी सत्संगी भाई माँ की भक्ति एवं महर्षिजी की असीम कृपा पर चकित रह गए।
-रामदेव मंडल , मो॰- नयागाँव, जमालपुर (मुंगेर)
संसार के जितने धर्म और सम्प्रदाय हैं, उनमें प्रत्येक उनके प्रवर्तक आचायों के नाम पर चला है। हृदय में ऐसा विचार उद्भूत हुआ कि उन प्रवर्तकों के पूर्व भी कोई सनातन स्वतंत्र मत अवश्य ही होगा। बस, इसी विचार से प्रेरित होकर मैंने उसकी खोज में अनेक साधु-संतों से सत्संग किया। परंतु संतोंषजनक उत्तर कहीं नहीं मिला। अकस्मात् संतमत के एक अनुयायी से मुझे संतमत की एक छोटी-सी पुस्तक प्राप्त हुई। उसमें वर्णित गद्यात्मक-पद्यात्मक उपदेश तथा संतमत के सिद्धांत की मेरे हृदय पर अमिट छाप पड़ी। और स्वभावतः संतमत की ओर चित्त आकृष्ट हो गया। यही नहीं , अध्ययनमनन की निष्कर्षता पर ही मैंने ध्यानाभ्यास करना शुरू कर दिया।
और फिर श्री महर्षिजी के दर्शन की उत्कण्ठा मुझे दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक सताने लगी थी। ग्राम काँप में अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का वार्षिकाधिवेशन था। उसी में मुझे महर्षिजी के दर्शन-लाभ का सुअवसर मिला। संतमत की प्राचीनता, प्रामाणिकता तथा असाम्प्रदायिकता पर- ‘इहाँ न पक्षपात कछु राखौं, वेद पुराण संत मत भाखौं’ - प्रवचन में महर्षिजी के मुखारविन्द से सुनकर हृदय आनंद से गद्गद हो उठा और तभी से मुझमें संतमत के प्रति अटल विश्वास तथा अविरल श्रद्धा पैदा हो गई।
श्री महर्षिजी के सरल स्वभाव, मधुर भाव, निष्पक्षता, उदारता, महानता तथा उच्च उत्प्रेरक आदर्श के वशीभूत हो मैं और भी अधिक तत्परता से ध्यानाभ्यास करने लगा। ध्यान में सफलता का संकेत भी मिल गया, इससे विश्वास और भी परिपुष्ट तथा सुदृढ़ हो गया। ध्यानावस्था में निद्रा देवी ने एक बार अपनी गोद में ले लिया। स्वप्नावस्था में मैंने देखा तथा सुना कि “वह जमाना है नहीं, अब भई नयी श्रेणी। आज भी कोई सीख लो, इस विद्या के प्रेमी ।। - नृत्यकला में निरत महर्षिजी झूम-झूमकर गा रहे हैं। उक्त पद्यांश की स्मृति मुझे जाग्रत् में भी बनी रही और आजन्म बनी हुई रहेगी। इसी प्रेरणा से मार्च, सन् १९४० ईस्वी में धरहरा जाकर मैंने श्री परमपूज्य श्रद्धास्पद गुरुदेव महर्षिजी से दीक्षा ले ली।
श्री महर्षिजी का महान व्यक्तित्व, जो मध्याह्न गगन के सूर्य की नाईं चमक रहा है, क्या जड़ लेखनी से प्रकाशित हा सकता है ? इस घोर दुर्दिन में आध्यात्मिकता की ओर से अरुचि पैदा हो गई है, श्रद्धा-विश्वास का लगातार ह्रास हुआ जा रहा है। तब भी आपने संसार की बंधन-स्वरूप आसक्ति को तिलांजलि दे दी है और समग्र मानव जाति के आध्यात्मिक उन्नतिरूप महान परहित व्रत को अपने जीवन का परम लक्ष्य बना रखा है- यह है आपकी मौलिक विशेषता और उसके लिए आपका हमारा कोटिशः हार्दिक धन्यवाद है।
- कनकलाल सिंह
मुकाम—लक्ष्मीपुर, पो॰- नवाबगंज (पुरैनियाँ)
मैंने अपने जीवन को बहुत दिनों तक बाहरी पूजा-पाठ में लगाए रखा। मेरे सौभाग्य से मेरे गाँव में एक सन्तमत-सत्संग-मंदिर है, जिसमें महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज प्रति वर्ष कई बार आकर सत्संग कराया करते हैं । मैं अनायास आकर्षित होकर उस सत्संग में नियमित रूप से उपस्थित होता था। इस प्रकार बारम्बार सुनते-सुनते मेरी समझ में यह बात आने लगी कि केवल बाहरी पूजा-पाठ से परमात्मा या मोक्ष नहीं मिल सकता। फिर आंतरिक साधना जानने के लिए मन छटपट करने लगा।
जान पड़ता है, अकारण हितैषी संत लोग सबके हृदय की भावना को जान लेते हैं । मेरी साग्रह प्रार्थना सुनकर उन्होंने सन् १९४४ ईस्वी में मुझे भजन-भेद बतला दिया और उसके उपरांत पहली बार मैं कहलगाँव के अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के वार्षिक अधिवेशन में सम्मिलित होकर तीनों दिनों तक तल्लीनता से उनका प्रवचन सुना, फिर तो मेरे मन में किसी शंका का स्थान न रहा। मेरे लिए अपने जीवन का लक्ष्य और उसे प्राप्त करने की युक्तियुक्त विधि मिल गई।
महर्षिजी ने संतमत का प्रचार करने के लिए देश और प्रान्तों में अनेक सत्संग-मंदिर बनवाए हैं या उनकी मूक प्रेरणा से अनायास ही बन गए हैं और बनते जा रहे हैं । आज (१९६० ईस्वी ) ७७ वर्ष की अवस्था में भी वे सदा घूम-घूमकर संतमत का प्रचार करते ही रहते हैं। मेरा तथा अनेक सत्संगियों का अनुभव है कि जब भी कोई प्रश्न लेकर उनके प्रवचन में सम्मिलित हुए हैं, तब-तब बिना प्रश्न उपस्थित किए ही उन प्रश्नों के उत्तर मिलते गए हैं । मैं उन्हें सद्गुरु के रूप में प्राप्त कर अपना परम सौभाग्य समझता हूँ और परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि अधिकाधिक लोक-कल्याण के लिए उन्हें चिरायु प्रदान करें।
-श्री राम गोस्वामी, परवत्ती, भागलपुर
वार्षिक सत्संग का मेला धरहरा में था। गाँव के बहुत-से लोग मेला देखने के ख्याल से धरहरा जा रहे थे। मैं भी मेला देखने के ख्याल से ही धरहरा गया । प्रथम दर्शन धरहरा में ही हुए थे । किंतु सत्संग क्या चीज है, इसे मैंने उस समय समझा नहीं और न समझने की कोशिश ही की थी। मेला देखना था, इधर-उधर घूमकर घर वापस हो गया।
कुछ महीनों के बाद घर में आपसी झगड़ा हुआ। झगड़ा कुछ जगह-जमीन को लेकर हुआ था। मैं थाने में डायरी देने के ख्याल से धरहरा चला। संयोग से उस समय थाने का दफ्तर भी धरहरा ही था। (अब बनमनखी में है)। जब थाने के नजदीक पहुँचा तो लगभग चार बजा होगा। सूर्यास्त होने में कुछ ही देर थी। मैं थाना नहीं जाकर सीधे ‘जगह’ पर चला आया । मैं नहीं कह सकता कि ऐसी किस शक्ति ने हमें थाना नहीं जाने दिया और जबरन सत्संग-स्थान पर खींच लाई। इस बार कुटी पर जाने से ‘श्री महर्षिजी’ के साक्षात् दर्शन हुए। कुशलक्षेम उन्होंने पूछा, जैसा कि उनका स्वभाव है। मैंने रात में वहीं भोजन किया और सो रहा। सबेरे उठने पर उन्होंने मुझसे पूछा कि रात में आपने सत्संग किया था? मैं तो कोरा देहाती था। सत्संग किस चिड़िया का नाम है, जानता तक नहीं था। मैंने उन्हें सीधे एवं देहाती भाषा में ही कहा कि सत्संग किसे कहते हैं? मैं तो सत्संग नहीं करता हूँ। उन्होंने पूछा- ‘आप कहाँ आए हैं ?’ मैंने कहा- ‘थाना।’ उन्होंने कहा- ‘क्यों ?’ मैंने कहा- ‘चाचा से झगड़ा हुआ है।’ उन्होंने पूछा कि थाने का काम हो गया ? मैंने कहा कि थाना तो मैं नहीं गया, यहाँ पर यों ही चला आया। वे हँसने लगे। बाद में उन्होंने कहा कि बकिया भवानीपुर में वार्षिक सत्संग की सभा होनेवाली है, वहाँ जाइएगा? मैंने कहा कि देखा जाएगा। तब सम्मेलन-संबंधी पर्चा देते हुए उन्होंने कहा कि हर रविवार को आप यहाँ (धरहरा) आया करें । तदनुसार मैं महीने के हर रविवार को वहाँ जाने लगा। सत्संग के प्रति मेरी निष्ठा बढ़ी और न जाने किस शक्ति ने हमें तन-मन-धन से उस ओर अग्रसर कर दिया । मैं उनका शिष्य बन गया और तबसे उनके बताए हुए मार्ग पर चलने का अथक परिश्रम एवं कोशिश कर रहा हूँ। यह सही है कि उनकी वाणी दिमाग में तो बैठ जाती है, किंतु उतनी दूर पहुँच नहीं होने की वजह से वाक्-शक्ति कमजोर पड़ जाती है। उनकी विशेषता क्या लिखी जाय, जबकि उनको मैं ईश्वर-तुल्य ही समझता हूँ।
- बौधी दास , सोनापुर, पो॰- रामपुर तिलक, पूर्णियाँ
मैंने सुना था कि भगवान के दर्शन करने से सब दुख मिट जात हैं । उस समय मैं गीता-प्रेस से प्रकाशित ‘भक्त बालक’ पढ़ता था। लेकिन ईश्वर की कृपा से मुझे सत्संग मिला और उन सत्संगियों के संग में मैं महर्षिजी के पास तक पहुँचा और महर्षिजी के सत्संग में उस बालक ऐसा भगवान नहीं पाया। यहाँ तो आँख आदि इन्द्रिय से जो देखने में आते हैं, वह नहीं; यहाँ तो आत्मगम्य ईश्वर को पाया और उसकी प्राप्ति का साधन मानस जप, मानस ध्यान, विन्दु-ध्यान एवं शब्द-ध्यान पाया । तब मुझे विश्वास हुआ कि इन साधनों को जो भी करेंगे, उन्हें ईश्वर मिलेंगे।
- सरयू राम , चम्पानगर, भागलपुर
मुझे सबसे पहले १९३३ ईस्वी में श्री महर्षिजी को देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। जिस काल में ग्राम के सत्संग-स्थान पर साधु-मेला लगा था, उस समय मैं महर्षिजी से एवं उनके उपदेश से एकदम अपरिचित था, लेकिन कुछ साथियों के साथ देखने के ही ख्याल से गया था। वहाँ जाने से ही मुझमें कुछ नया भाव पैदा हुआ और उनका असल भाव समझने के लिए मेरे हृदय में एक नया जोश और उत्साह पैदा हुआ।
तभी से बराबर जहाँ कही सत्संग होता था, मैं उसमें आने-जाने लगा। धीरे-धीरे मेरा मन भरने लगा और मैंने अपने को शिष्य बनाना चाहा। समय पाकर मैं भवानीपुर ‘साधु-मेला (वार्षिक सत्संग १९३४ ईस्वी ) में उनका शिष्य बना और उनके उपदेश से जो मुझे फायदा हुआ, उसका उल्लेख करना मैं अपनी शक्ति से असाध्य समझता हूँ। फिर भी मैं कुछ मोटा-मोटी कह देना चाहता हूँ। मेरे जीवन में उतना ही अन्तर हो गया है, जितना अन्तर काग और हंस में है। मुझे पढ़ने का ज्ञान, अक्षर पहचानने का ही था। लेकिन आजकल मैंने महर्षिजी का शिष्य बनकर जो फायदा उठाया है, वह मेरे मानव-जीवन का प्रधान अंग ही है। मैं अपने आसपास के आदमियों को देखता हूँ, जबकि मैं पहले उनके ऐसा था, अब उनसे मैं अभी अपने को काफी उत्थित देखता हूँ और मैं अपने को लोगों की दृष्टि में आदरणीय पाता हूँ। यह महर्षिजी के उपदेश का ही फायदा है, जो कि जीवन के चौराहे पर से एक सुमार्ग पर आ गया हूँ। हमारे परिवार के सब आदमी वैष्णव और संतमत के हैं । मेरे छोटे-छोटे बच्चे वैष्णव ही हैं, जिससे मेरे भूत खानदान से भविष्य के खानदान में अच्छा परिवतन का चिह्न दिखाई देता है। मैं आशा रखता हूँ कि मेरे जीवन-सुधार से मेरे बाल-बच्चे पर मेरा असर पड़ेगा और वे भी सदाचारी बनने की पूरी कोशिश जरूर रखेंगे , ऐसा मेरा अनुभव है।
- अजबलाल मंडल , विशनीचक चाँदपुर (पूर्णियाँ)
सन्तमत के वर्तमान आचार्य पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का आज से करीब छह वर्ष पूर्व रामगंज संसारपुर (मुंगेर) में दर्शन करने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ था। सत्संग का समय था। उनका प्रवचन बहुत ही हृदयग्राही हुआ। उस सत्संग का मुझपर इतना प्रभाव पड़ा कि मुझे उनके लिखित ‘सत्संग-योग’ का पठन करना पड़ा। अब धीरे-धीरे सत्संग-सुधा-पान करने की ओर मन खिंचा जाने लगा। मुझे अपने इलाके के मासिक सत्संग में सम्मिलित होना परमावश्यक हो गया। परंतु ज्ञान-पिपासा शांत हो कैसे? “तुलसिदास हरि गुरु करुणा बिनु, विमल विवेक न होई। बिनु विवेक संसार घोर निधि पार न पावे कोई ।।’ परंतु ‘बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता।’ चतुर्थ वार्षिक सन्तमत-सम्मेलन खगड़िया में पुनः स्वामीजी के दर्शन करने का मौका मिला। आखिर ‘बलिहारी गुरु आपकी, जिन गोविन्द दियो बताय।’ महर्षिजी के कार्य ठीक बुद्ध भगवान के कार्य की तरह ज्ञात होते हैं। इनके मन, वचन और कर्म-नानक, कबीर, तुलसी, दादू, समर्थ रामदास, तुकाराम, गाँधी आदि संतों की तरह प्रतीत होते हैं । गाँधीजी के सत्य ही भगवान हैं, तो इनका सुरत-शब्द-योग द्वारा प्राकृतिक तीनों परदों के पार जाना मोक्ष (सत्य) प्राप्त करना है। इस बीसवीं सदी में योग को आपने सर्व-साधारण के बीच कबीर के सदृश साफ शब्दों में रखने का प्रयास किया है। आप अपनी ४० वर्षों की कठिन साधना से अनुभव प्राप्त कर साफ शब्दों में कहते हैं कि ‘निज तन में खोज सज्जन, बाहर न खोजना। अपने ही घट में हरि हैं, अपने में खोजना ।।’ क्या इनके वचनों और सदुपदेशों के द्वारा छली और ढोंगी साधु को सर्वसाधारण जनता पहचान नहीं सकती ? इनके संतमत-प्रचार में सभी संतों का मूलतत्त्व ईश्वर की प्रत्यक्षता ही है।
आप भारत की अनैतिकता, भ्रष्टाचार, कदाचार आदि दु:खों को देखकर दु:खी पाए जाते हैं । इनका निराकरण आप सामने रखते हैं। केवल योग-मार्ग का ही अनुसंधान नहीं, बल्कि वर्तमान साहित्य को किस प्रकार उठाया जाय, इसका भी ध्यान रखते हैं । हाल ही में इन्होंने पूर्णियाँ जिला साहित्य-सम्मेलन के सभापति-पद से जो विचार व्यक्त किये हैं, इससे इनकी विद्वत्ता तथा भाषा के प्रति प्रेम दर्शता है। ये हिन्दी ‘ भाषा की जगह ‘भारती भाषा’ कहना अपने और देश के लिए गौरव समझते हैं । अत: आप साहित्य में सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् को देखना चाहते हैं । आप अपनी बातचीत में भी अग्रेजी के स्थान पर भारती शब्दों को ही व्यवहार करते हैं। खादी आपको बहुत ही प्रिय है। बस, साद पहनाव एवं रहन-सहन में हद दर्जे की स्वच्छता के ऊपर कम ध्यान नहीं देते । अतः हम पूज्य महर्षिजी को योगी ही नहीं, बल्कि कर्मयोगी, राष्ट्रप्रेमी, देशसुधारक के रूप में पाते हैं । मेरे ऐसा अल्पज्ञ ऐसे महान गुरु की विशेषता क्या दर्शा सकता है ? यह शक्ति के बाहर की बात है। कबीर ने कहा है कि “सात समुँद की मसि करूँ, लेखनि सब वनराय । सब धरती कागद करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय।।’ अतः आपके ऊपर कुछ प्रकाश डालना सूर्य को दीप दिखाने सदृश होगा । परम पूज्य सद्गुरु महाराज शतायु हों और स्वतन्त्र भारत के बीच बुद्ध, अशोक तथा महावीर का बिहार आपकी सेवा में प्राचीन गौरव प्राप्त कर सके, यही मेरी परम प्रभु से प्रार्थना है।
-चन्द्रमोहन भगत, प्र॰ शि॰ चकला, पसराहा (मुंगेर)
बचपन में स्कूल के अध्यापक महोदय से उपदेश मिला कि प्रत्येक मनुष्य को कम से-कम एक बार सोने के समय श्री कृष्ण भगवान के साकार रूप का ध्यान करना चाहिए। मैं तभी से उनके आज्ञानुसार रोज सोने के समय एक बार अवश्य श्री मुरलीमनोहर के रूप का ध्यान करके सो जाता। धीरे-धीरे समय बीतता गया। इसी बीच जब मैं मैट्रिक में पढ़ता था, गाँधीजी जेल गए, देश-व्यापी आंदोलन हुआ और मैंने भी पढ़ना छोड़ सत्याग्रह में १९३० ईस्वी में भाग लिया।
सन् १९३८ ईस्वी में मौजे गुणवंती के कुछ भावुक सत्संगियों से मेरा परिचय हुआ, उनलोगों से श्री महर्षिजी की बात को जान मुझे दर्शन की उत्कट लालसा हुई। उनलोगों ने कृपा कर श्री महर्षिजी लिखित एक प्रति ‘रामचरितमानस-सार सटीक’ मुझे (जिस समय मैं बुखार से पीड़ित था) दी। उसे मैंने खूब मन लगाकर पढ़ा। मुझे वह अर्थ इतना जँचा कि आज तक किसी टीका से मुझे संतोष नहीं हुआ। मैं ठीक-ठीक समझ सका कि ‘बाल का आदि, अयोध्या का मध्य और उत्तर का अंत, जो जाने सो संत ।’
मेरी श्रद्धा श्री महर्षिजी के प्रति इतनी बढ़ी कि मुझे अज्ञात रूप से उनकी परम कृपा मिल ही गई। बीमारी के दौरान में ही रामचरितमानस ध्यानपूर्वक पढ़ता रहा और तल्लीनता बढ़ती गई। एक रात मैं नौ बजे जब अपने चिकित्सालय में बेंच पर पूरब मुख आसन लगाकर श्री श्री १०८ मुरलीमनोहर के साकार रूप का ध्यान कर रहा था, एकाएक मेरा सिर घूमने लगा, छाती धड़कने लगी, मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है ? मुझे संदेह होने लगा कि बगल की एक औरत ने, जिसे लोग डाइन कहते थे, कुछ जादू तो नहीं कर दिया है ? मैं घबड़ा रहा था, छाती धड़क रही थी, पर आँखें नहीं खुल रही थी। ललाट के भीतर में फट्फट् शब्द हुआ। मन स्थिर हुआ और हठात् मुझे अंतर में दिव्य प्रकाश मिला और ध्यान में ही साकार रूप श्री कृष्ण के दर्शन भी । बाह्य - दुनिया तथा शरीर की सुध भूल गया । यह अवस्था कितनी देर रही, मैं नहीं कह सकता, शायद आधे घंटे रहा हो, मैं उस आनंद को अभी तक भूल नहीं सका हूँ।
द्वितीय बार दिनांक २४.२.१९४० ईस्वी शनिवार के नौ बजे रात्रि में बसेटी बाजार के अपने चिकित्सालय में कुर्सी पर बैठकर जब मैं ध्यान कर रहा था, पुनः उसी प्रकार प्रकाश मिला। इस बार पहले जैसी घबड़ाहट नहीं हुई। तृतीय बार दिनांक २.८.१९४० ईस्वी सोमवार के बारह बजे रात्रि में जब मैं भगवान का ध्यान कर रहा था, तो मुझे अंतर-प्रकाश मिला। इस बार बहुत ही स्वादिष्ट रसपान करते-करते प्रकाश मिला था। कानों में शब्द भी अंतर से सुनाई पड़ता था, पर मैं शब्द का अनुभव अलग-अलग नहीं कर सका था; मीठा, प्रिय रलमिल शब्द सुनाई पड़ता था।
सन् १९४१ ईस्वी में बसेटी से बिहारीगंज (सहर्षा) अपना चिकित्सालय किसी कारणवश ले आया। मेरा छोटा भाई मनुल्लहपट्टी जानेवाला था, अतः रात में वहीं ठहर गया। मुझे निश्चित तिथि याद नहीं है। मैं उस रात इतना विरही हो गया कि मैं चाहता था कि कैसे श्री महर्षिजी के दर्शन हों? रात भर रोते-रोते समय को बिताया। सुबह छोटे भाई को साथ ले स्टेशन आया और टिकट ले उसे ट्रेन में बिठा, जब मैं बासा लौट रहा था, तो मैंने श्री -श्री १०८ महर्षिजी महाराज को ट्रेन में बैठे देखा। इसके पहले न तो मैंने उनके दर्शन कर पाए थे, न उनका कोई फोटो ही देखा था। परंतु उनके दिव्य चेहरे को देख मैं समझ गया कि ये कोई महापुरुष हैं। उनके गले में न कोई कण्ठी-माला ही थी, न तिलक ही; खादी की गेरुए रंग में रंगी धोती, कुरता एवं आँखों में ऐनक था। मैं कुछ दूर निकल गया, फिर मन ने कहा, कोई महापुरुष हैं अवश्य । उनके नजदीक जाना चाहिए। गाड़ी खुलने में था। मैं लौट पड़ा और उसी डब्बे में बैठ ललचायी नजरों से उनकी ओर देखने लगा और अनुमान करने लगा। कुछ पूछना चाहता था, पर पूछ नहीं सकता था ! इसी समय महर्षिजी की कृपा हुई। उन्होंने ही पूछा- ‘आप कहाँ जाएँगे? आपका नाम क्या है ?’ मैंने उत्तर दिया और उनसे पूछा- ‘आपका शुभ नाम ?’ श्री महर्षिजी ने ज्योंही कहा- “लोग मुझे ‘मेँहीँ ‘ कहते हैं ।” मैं अपने को रोक नहीं सका। यह शब्द ऐसा मधुर था कि मेरा हृदय आनंदसागर में डूब गया। मैंने प्रथम बार उनके दिव्य चरणों में अपना मस्तक रखा । मुझे जो आनंद और शांति उस समय प्राप्त हुई, मैं वर्णन नहीं कर सकता। इतने दिनों के बाद भी समय-समय पर उनकी वही लुभावनी मूर्ति मुझे याद आ जाती है। बिना टिकट लिए ही उनके साथ-साथ बनमनखी स्टेशन से सिकलीगढ़ धरहरा तक गया। बाबा ने मेरे भाई के विषय में पूछा, तो मैंने कहा- मनुल्लहपट्टी कुटमैती जा रहा है। फिर मैं आशीर्वाद ले दूसरी ट्रेन से बिहारीगंज वापस आया।
सन् १९४२ ईस्वी के देशव्यापी आंदोलन में फिर मैने सक्रिय भाग लिया और फरार हो - जब नेपाल-तराई जा रहा था, तो श्री महर्षिजी - के दर्शनार्थ मैं सिकलीगढ़ धरहरा पहुँचा । सौभाग्यवश श्री महर्षिजी वहीं थे। दर्शन हुए। रात में वहीं ठहरा । सायंकालीन उपदेश को सुन आश्रम में ही भोजन किया। श्री महर्षिजी ने अपना भोजन करने के पहले ही हमलोगों को भोजन कराया और स्वयं घूमकर पूछने लगे क्या चाहिए ?’ आश्रम का भोजन कितना -सात्त्विक था ! पूरी सादी तरकारी, पका केला तथा दही। सुबह चलने के समय उनके दिव्य चरणों पर मस्तक रख मैंने प्रस्थान किया।
बाबा ने वहाँ के लोगों से कहा था- कदाचित् कुत्ते के पेट में घीऊ पच जाय, लेकिन मनुष्य के पेट में बात नहीं पचती ।’ इसलिए उन्होंने हिदायत दी थी कि किसी से मत कहना कि अमुक आदमी रात में आश्रम में ठहरा था। उन्होंने शाम के समय यह भी कहा था कि मुसलमानी बादशाहत के वक्त भी भजन करनेवालों को इतनी तकलीफ नहीं हुई थी। उनकी कृपा से मैं नेपाल-तराई में इतनी सुविधा से रह सका कि वैसे समय में असंभव था।
जेल से आने के बाद मैं अपना डिस्पेन्सरी करौती बाजार, थाना किशनगंज, जिला सहर्षा ले आया। इसी बीच मुझे श्री महर्षिजी के दर्शन का सौभाग्य कई बार मिला। बाराटेनी सत्संग में, दो बार सिकलीगढ़ धरहरा में, एक बार मनिहारी में और एक बार कलासन बाजार के स्कूल में महर्षिजी आए थे। मैं पुरैनी किसी रोगी को देखने गया था। मुझे मालूम हुआ कि शाम में यहाँ आनेवाले हैं , परंतु समय की बचत के ख्याल से मैं कलासन चला गया। श्री महर्षिजी मेरे विषय में पूछते गए कि वे कहाँ रहते हैं ? मैंन मन-ही मन सोचा, श्री महर्षिजी मुझे नहीं पहचान सके । पहचानें भी कैसे? मेरे-जैसे लाखों आदमी श्री महर्षिजी के दर्शन के लिए आते हैं , कितने को पहचानें? लेकिन जब चलने के समय उनके श्री चरणों में अपना मस्तक रखा, तब श्री महर्षिजी ने कहा- ‘मैं आपको देखकर बहुत खुश हूँ। खेत को अच्छी तरह तैयार करें ।’ और अंत में कहा- ‘आपकी कुटमैती मनुल्लहपट्टी है। उन लोगों का कैसा हाल है ?’ तब तो मैं दंग रह गया कि एक बार सन् १९४१ ईस्वी में थोड़ी देर की मुलाकात में जो बातें हुई, क्या इतने दिनों तक याद ही है ? मुझे विश्वास हो गया कि मैं भूल जाऊँ तो भूल जाऊँ, पर श्री महर्षिजी की कृपा मेरे जैसे पापी पर भी है और रहेगी।
मैं वैद्यनाथधाम सपरिवार गया था और लौटती बार जब मधुबनी (पूर्णियाँ) आया, तो मुझे मालूम हुआ कि श्री महर्षिजी ग्वाल टोली मधुबनी में ही है। मैं कुछ साथियों के साथ उनके दर्शन करने गया । सत्संग-भवन बनकर तैयार था। उनकी आकृति को देख इस बार अनुमान लगाया कि इस बार श्री महर्षिजी कुछ उदास-से हैं । लौटकर मैं अपने चिकित्सालय करौती आ गया। सन् १९५५ ईस्वी की ५ जनवरी को मैं हठात् बीमार पड़ गया। पूर्णियाँ अस्पताल में रहा। सात दिनों के बाद मेरी हालत नाजुक हो गई। उस रात श्री महर्षिजी का बार-बार स्मरण किया। रात में स्वप्न में बाबा वासुकीनाथ के रूप को देखा और वहीं एक योगी को भी, जिन्होंने स्वप्न में कुछ बूटी खाने को दी और कहा- ‘अच्छे हो जाओगे।’ मैं प्रातः ही अस्पताल से विदा हो अपनी ससुराल मधुबनी चला आया और असिस्टेन्ट सर्जन के इलाज में रहा। हालत सुधरी, पर बीमारी छूटी नहीं। मैं फिर दूसरे डॉक्टर के इलाज में चला गया। होली के अवसर में एकाएक मेरी हालत शोचनीय हो गई; यहाँ तक कि नाड़ी भी लुप्त होने लगी। श्री महर्षिजी का बार-बार स्मरण किया। फिर स्वप्न में एक योगी को देखा। वे कुछ बोले तो नहीं , पर उठने का इशारा किया। मुझे तुंरत चेतना आई और फिर हालत सुधरने लगी; पर आराम नहीं हुआ। ऊबकर मैं करौती चला आया । यहाँ एक महीने के बाद फिर अत्यन्त शोचनीय हालत हो गई। तबतक चार महीने खाट पर लेटे-लेटे समय कट रहा था। अब जीवन की कोई आशा नहीं रही। इस बार पुनः मैंने बार-बार महर्षिजी का स्मरण किया। एक रात स्वप्न में मैंने देखा- श्री महर्षिजी आए हैं । मैंने प्रणाम किया। उनको मैंने कुछ कमजोर पाया। मैंने स्वप्न में ही उन्हें चादर लाकर दी, कुछ आध्यात्मिक उपदेश मिला और बाद में उन्होंने कहा- समय था, कट गया। अब आप अच्छे हैं । मैं आपकी बीमारी का हाल जानकर ही देखने आया था। आप अपनी दवा खाएँ, अच्छे हो जाएँगे। चलते समय उन्होंने मुझे लीची के पके पाँच फल प्रदान किए। मैं जगा, आशा का संचार हुआ और अपनी दवा खाना शुरू किया, साथ ही महामृत्युंजय का जप भी शुरू किया। श्री महर्षिजी की कृपा से मैं साक्षात् मृत्यु-मुख से ही बच सका । श्री महर्षिजी महाराज की जय !
- सत्यनारायण प्रसाद, होमियोपैथ
मु॰- बलिया लस्करी, पो॰- उदाकिसुनगंज, जिला-सहर्षा
सन् १९३१ ईस्वी में रमला में सन्तमत का वार्षिक अधिवेशन होनेवाला था। मैंने सुना, महर्षि मेँहीँ परमहंसजी अधिवेशन में भी पधार रहे हैं , अतः वहाँ जाने की मेरी इच्छा बलवती हो गई। मैं मन-ही-मन वहाँ जाने की तैयारी करने लगा। यथासमय वहाँ पहुँचकर उनका उपदेशामृत पान किया और फिर घर चला आया।
इसके उपरांत कितनी बार उनके दर्शन हुए हैं । जब कभी उनका आना इस इलाके में हुआ है, कोरका वे जरूर पधारे हैं । प्रत्येक बार सत्संग में उनका उपदेश-वचन सुनने का गौरव प्राप्त हुआ है। अबतक मैंने उन्हें उपदेशक, महात्मा और साधु के रूप में देखा है। उपदेश करने का ढंग उनका अपना है। अत्यन्त सरल तरीके से वेदान्त के गूढ़ रहस्यों का वे वर्णन करते हैं, जिन्हें श्रवण कर कोई भी श्रोता भावप्रवण हुए बिना न रहेगा।
-धथूरी रामदास, ‘साहित्य-भूषण’ , कोरका (संताल परगना)
महर्षि मेँहीँ परमहंसजी के दर्शन का सुयोग एक दिन अनायास ही मुझे मिला। महाराज पटना आए हुए थे। पटना हाई कोर्ट के वयोवृद्ध वकील, भक्तशिरोमणि श्री अवधविहारी शरणजी के स्टेशन रोडवाले निवास स्थान पर वे ठहरे थे। उनके आने की सूचना मुझे श्री सूरदासजी से मिली। सूरदासजी महर्षिजी के परम श्रद्धालु शिष्यों में से एक हैं ।
मैं तिपहर को महाराज के समक्ष उपस्थित हुआ। सूरज ढल रहा था, स्टेशन रोड पर संध्याकालीन काफी चहल-पहल प्रारंभ हो चुकी थी। बाहर भीड़-भाड़ थी, कार्य-व्यस्तता थी, दैनंदिन जीवन का निर्मम व्यापार था। भीतर अवधविहारी शरणजी के मकान में शांति का साम्राज्य था। फर्श पर पुआल पर दरियाँ बिछी थी। आस-पास पोटलियाँ पड़ी थी , रस्सी डालकर वस्त्र रखे हुए थे, इधर-उधर बिछावन लपेटकर डाल दिए गए थे। वातावरण यात्रा के पड़ाव का था। महर्षिजी महाराज जल्द ही चले जानेवाले थे। उनके साथ के भक्तगण उनके साथ ही उस कमरे में टिके थे। रात्रि के विश्राम के बाद बिस्तर समेट उस कमरे में ही सब लोग दिन के अपने कार्य-कलाप में संलग्न थे। इस कार्य-कलाप का प्रधान अंग था, भक्तों का भगवान की चर्चा और महर्षिजी महाराज से आध्यात्मिक जिज्ञासा। महर्षिजी महाराज चौकी पर प्रसन्नमुख, सौम्य, गंभीर बैठे थे। इकहरी देहयष्टि, गेरुआ वस्त्र, चौड़ा ललाट, स्नेहतरल दृष्टि । मुझे उस वातावरण की नीरवता ने प्रभावित किया। मैं प्रणाम करके बैठ गया।
महर्षिजी से दस-पाँच मिनट ही मैं बातें कर पाया। उन्हें अपने यहाँ ले जाने के लिए कोई सज्जन वहाँ बैठे थे। मैंने महर्षिजी महाराज का अधिक समय लेना उचित नहीं समझा। इस थोड़े-से समय में महर्षिजी ने जिस स्नेह और सरलता से मुझसे बातें की , उसकी छाप मुझपर सदा रहेगी। मैंने देखा महर्षिजी के लिए अपने-पराये का कोई दुराव नहीं , यात्रा के अपने साथियों के प्रति उनका व्यवहार सहानुभूति और साहचर्य का है, न कि कठोर अनुशासन का और दो-चार सज्जन वहाँ उपस्थित थे। उन सबसे महर्षिजी का वार्तालाप बड़े संयत, मार्मिक और सरल ढंग का है। महर्षिजी ने बात-ही-बात में अपने प्रारम्भिक जीवन की चर्चा की और बतलाया- किस प्रकार प्रतिवर्ष वे अपने स्वर्गीय गुरु महाराज के स्थान की यात्रा किया करते हैं । ‘ईश्वर से आदमी को वही वस्तु माँगनी चाहिए, जो ईश्वर से ही उसे मिल सकती हो ।’ महर्षिजी ने प्रसंगवश कहा। फिर वार्तालाप जाने कैसे सामूहिक स्तर पर आ गया था। सम्भवतः वहाँ उपस्थित उनके किसी भक्त ने यात्रासंबंधी कोई मामूली बात उनसे पूछी थी। उनके प्रश्न का उत्तर देने के बाद महर्षिजी ने बतलाया था कि कल रात से अजीब बात थी, उन्हें जहाँ-तहाँ ठोकर लग रही थी। रात को बरामदे पर अचानक ठेस लग गई थी, आज दिन में भी एक-दो बार पाँव आस-पास की चीजों से टकरा गए थे। महर्षिजी को अपने दैनंदिन जीवन की छोटी-मोटी बातों की चर्चा करने में कोई हिचकिचाहट नहीं थी। महर्षिजी के उपदेश की विशदता, उनके व्यक्तित्व की भव्यता तथा उनके हृदय की सरलता की त्रिवेणी में क्षणभर अवगाहन कर उस दिन मैं पुलकित मन घर लौटा था।
- श्री दिवाकर प्रसाद ‘विद्यार्थी’
एम॰ ए॰, पी-एच॰ डी॰ (लंदन), बी॰एन॰ कॉलेज, पटना
परवत्ती सत्संग-मंदिर में महर्षिजी संत कबीर साहब की वाणी- ‘तन धर सुखिया कोई न देखा, जो देखा सो दुखिया हो।’ की व्याख्या कर रहे थे। उसी सिलसिले में श्री मुख से स्वभावतया यह वाणी निकल पड़ी थी- ‘हमको तो कोई विष्णु भगवान भी बनाना चाहें, तो उनकी कृपा को भी हम दूर ही से प्रणाम कर लें। कौन बारम्बार अवतार धारण कर नाना कष्ट झेले !’
उनकी यह उत्सर्गमयी वाणी सुनते ही मेरे अंतर में यह कड़ियाँ झंकृत हो उठी थी -
‘कहिय तात सो परम विरागी।
तृण सम सिद्धि तीन गुण त्यागी।।’
कभी कुशापुर सत्संग-घर में स्वल्प स्वरेण संगीत ध्वनि मधु बरसा रही थी- ‘कोटिन भानु निछावर आरति साजई।”
यह सुनकर सेवक ने प्रश्न किया- ‘महाराज ! यह पद्य रोचक है अथवा यथार्थ?’
सुदृढ़ स्वर में उत्तर मिला- ‘रोचक नहीं, बिल्कुल यथार्थ है।”
एक बार कुप्पाघाट में निवास करते समय सेवक भी श्री चरण में उपस्थित हुआ था। वहाँ आपको स्थायी रूप में निवास करते देख यह शंकात्मक प्रश्न किया- ‘बहता पानी निर्मला, बंधा गंदा होय । साधुजन रमता भला, दाग न लागै कोय ।।’ तो महाराज ! आप यहाँ कुटी-निर्माण कर स्थायी रूपेण कैसे विराजमान हैं ?
मुस्कुराते हुए सुप्रसन्न स्वर में उत्तर मिला-
‘बन्धा जल भी निर्मला, जो टुक गहरा होय ।
साधु भी बैठा भला, जो साधन-रत होय।।’
सद्गुरु महाराज के चिन्तन मात्र से असंभव भी संभव हो गया है। इस अकिंचन को अपना अनुभव है। संतान पर प्राण-संकट, न्यायालय में दंड-संकट, गई और खोई सम्पत्ति-जन्य मानसिक संताप के अवसर पर सद्गुरु महाराज के मात्र मानस ध्यान में वरद पाणि-पल्लव प्राप्त कर सतत सफलमनोरथ हआ है। औरो को भी इस अवसर पर ऐसा होते पाया है। संपत्ति, संतान और प्राण भी गुप्त रूपेण प्रदान होता है, किंतु महाराज ऐसे रहते हैं , जैसे काष्ठगत कृशानु ।
प्रायः अधिवेशन के अंत में आपकी विनयभरी कोमल मधुर वाणी अनुरागिणी जनता को बरबस आकर्षित कर लेती है- ‘मैंने आज तक सत्संग तथा संतों की वाणियों में जो भी पाया है अथवा साधन करता हूँ, वह आप भक्तजनों के समक्ष वर्णन कर दिया है। इस प्रकार का ज्ञान-ध्यान यदि युक्ति-युक्त और हितकर प्रतीत हो, तो इसपर स्वयं चलें तथा औरों को भी चलाने की चेष्टा करें, इससे श्रेष्ठ साधन है ही नहीं । यह मैं नहीं कहता कि इसी का अन्वेषण अबतक करते रहने पर भी मुझे तो नहीं मिला । अतः प्रस्तुत साधन पर मुझे पूर्ण विश्वास है और मैं इसे श्रद्धासहित करता भी हूँ।’
श्री नरेश ब्रह्मचारी का सूत्र भी सुनने योग्य है- ‘जीवन में यदि विनय और प्रेम को कहीं अभिव्यक्त पाया, तो वह महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज में । आप मूर्तिमान विनय और प्रेम हैं ।’
हे प्रियदर्शन ! विरोधी विद्याभिमानी भी आपसे प्रश्नोत्तर कर विनम्र बन जाते हैं । प्रायः दर्शक कहते हैं – ‘हमें महर्षिजी बहुत स्नेहभरी दृष्टि से देखते हैं ।’ ऐसे हे स्नेहसिन्धु ! मुझे भी अपना स्नेहपात्र बनाकर मानव-जन्म को सफल बनाने की कृपा करें । .
श्री चरण-शरण-सेवक - श्री पति सरसहाय
सन् १९३६ ईस्वी की बात है। स्वराज्य आश्रम, टीकापट्टी में उसके संस्थापक श्री युत वैद्यनाथ प्रसाद चौधरीजी ने एक रात की प्रार्थनासभा में हम आश्रमवासियों को सूचित किया कि ‘कल १० बजे पूर्णियाँ के बड़े और यशस्वी साधु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी आश्रम पधार रहे हैं । आश्रमवासियों को उनके उपदेश से लाभ उठाना चाहिए ।’ कहने को तो पूज्य वैद्यनाथ बाबू ने कह दिया, किंतु हमारे ऊपर और मैं समझता हूँ, मेरी तरह कई लोगों पर इसका कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा। सोचा, राजनीतिक सिपाहियों के आगे कोई साधु भला क्या उपदेश देगा? फिर भी अनुशासन की मर्यादा को समझकर उनके आगमन पर उनके स्वागतार्थ जो भी तैयारी करनी चाहिए, किया ।
दूसरे दिन ठीक १० बजे पूर्वाह्न एक दुबला-पतला गेरुआ वस्त्रधारी तथा साथ में दो सज्जन आश्रम के अहाते में संपनी से उतरे । फुर-फुर दाढ़ी से पहचानने में देर नहीं लगी; क्योंकि साथ में दो सज्जन जो थे, उन्हें दाढी नहीं थी और न गेरुआ वस्त्र ही। हम आश्रमवासियों ने उन्हें प्रणाम किया और साथ-साथ लिवा लाए। वे दो घंटे के बाद ही कही दूसरी जगह जानेवाले थे। अतएव दस-पन्द्रह मिनट के बाद ही उनका उपदेश शुरू हुआ। उन्होंने उपदेश जो कुछ भी दिया, उसकी याद नहीं है; क्योंकि उपदेश के वक्त हमने उनके उपदेश सुनने में कम ध्यान दिया था। अलबत्ता उनके चेहरे को मैं तबतक देखता रहा, जबतक कि वे आश्रम में मौजूद रहे। दुबले-पतले शरीर में भी तेजस्विता एवं कान्ति फूट निकली थो। चेहरे से सौजन्य, नम्रता बरबस लोगों को आकर्षित कर रही थी। मैंने उसी दिन समझा, गाँधीजी, ईसा मसीह एवं बुद्ध की तरह ही महर्षि मेँहीँ परमहंसजी भी साधु नहीं, वरन् ईश्वर के भेजे हुए दूत हैं ...।
मैं कोई सत्संगी नहीं हूँ, फिर भी महर्षिजी के दर्शन एवं उपदेश के लोभ को संवरण न कर सका और कई बार वार्षिक तथा साप्ताहिक सत्संग में शामिल हुआ हूँ ।
१९४२ की बात है। ‘अंग्रेजो ! भारत छोड़ो’ का नारा सारे भारत में गूंज रहा था। अंग्रेजों के साथ लड़ाई जारी थी। हमलोग गुरिल्ला युद्ध अंग्रेजों से कर रहे थे। इसी सिलसिले में संयोग से धरहरा पहुँचा। रविवार था। मालूम हुआ, महर्षिजी जगह पर आए हैं। सोचा, दर्शन कर लूँ। जगह पर गया, और पैर छूकर उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने परिचय पूछा। परिचय दिया और परिचय देने के सिलसिले में ही मैंने वह प्रश्न कर दिया, जो कि बहुत दिनों से मेरे मन में था। मैंने पूछा कि क्या वजह है कि आपके सत्संग जैसी उच्च एवं धार्मिक संस्था में सच्चे और ईमानदार आदमियों की संख्या कम है ? क्या धार्मिक संस्थाओं में अनुशासन का मान नहीं होता? अगर होता है, तो ऐसे सत्संगियों को जो आपके सिद्धान्त के अनुकूल नहीं चलते, उसे सत्संगी होने से वंचित क्यों नहीं किया जाता ? ... प्रश्न करने को तो मैं कर गया;
किंतु मैं इस असमजंस में पड़ा कि शायद महर्षिजी को इन प्रश्नों से ठेस पहुँचेगी और सम्भव है, वे क्रोधित हो जायँ । मैं उनके चेहरे एवं मनोभाव को ताड़ने लगा, पर मुझे इसके लिए स्वयं शर्मिन्दा होना पड़ा कि इस बात से उन्हें लेश मात्र भी क्रोध नहीं हुआ। उलटे मेरी बातों का हँसते हुए उन्होंने अनुमोदन ही किया। मैं उस समय यही सोचने लगा कि जिस तरह गाँधीजी ने अपनी त्रुटि अपनी आत्म-कथा में जगह-ब-जगह कबूल की है, उसी तरह ये भी कर रहे हैं; क्योंकि महामानवों से ऊपर ‘देव’ रूप में जो हैं ! उस समय महर्षिजी ने कहा था कि काँग्रेस में सभी गाँधीजी तो नहीं हैं, फिर भी अपना-अपना कर्तव्य सबको करना चाहिए। मुझे उन्होंने कहा- ‘तुम अपना कर्तव्य करते चलो। जिसमें जो गुण मिल सके, ले लो। दूसरों के अवगुण का अवलोकन न करो। दूसरों के अवगुण का बखान जो करते हो, यह भी तो एक अवगुण ही है।’ मेरे लिए यह सही और माकूल जवाब था। मुझे उनकी बातों से बड़ी तसल्ली मिली। जब-जब उनके दर्शन करने का मौका मुझे मिलता है, तब-तब उन्हें मैं नये रूप में पाता हूँ । यही एक कारण है कि महर्षिजी के दर्शन से मैं अघाता नहीं हूँ और लगता है कि उन्हें हमेशा देखता ही रहूँ। काश ! उनका प्राइवेट सेक्रेटरी बन पाता तो !
उन्हें लाखों प्रणाम !
- सहदेव प्रसाद ‘साहित्य-भूषण’, सोनापुर (पुरैनियाँ)
बात सन् १९४६ ईस्वी की है। उन दिनों मैं अपने गाँव के माध्यमिक विद्यालय का एक छात्र था। मैं प्रतिदिन दस बजे विद्यालय जाता और साढ़े चार बजे वापस लौटता । शनिवार को संध्या समय ज्यों ही विद्यालय की पूरबवाली कच्ची सड़क पर घर आने के लिए मैं पैर रखता कि ‘सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर और अक्षर पार में ...’ तथा ‘आरति संग सतगुरु की कीजै, अन्तर जोत होत लख लीजै ...’ ये स्तुति और आरती के स्वर एक तृणकुटिया से निकलकर दिशाओं की अज्ञात यात्रा में पर्यटन के लिए चलते मुझमें एक अजीब आन्दोलन पैदा कर देते । क्षणभर के लिए विचार-विस्मृति की सघन कुहेलिकाभरी धरती पर मुझे लगता कि ये स्वर तो मेरे कब के परिचित हैं । फिर स्वराकर्षण से खींचकर मैं तुरत स्तुति और आरती गानेवालों के बीच पहुँच जाता। वहीं प्रथम दिन मुझे बताया गया कि उस तृणकुटिया में एकत्रित जन सत्संगी कहलाते हैं । उन सत्संगियों ने एक अनोखे व्यक्तित्ववाले महर्षिजी की श्लाघा के शब्दों से मुझमें उनके दर्शन की उत्कट अभिलाषा जाग्रत् कर दी। तबसे मैं उनके दर्शनार्थ लालायित रहने लगा।
सन् १९५५ में मैं एक बारात से लौट रहा था। बारात पूर्णियाँ-जिलान्तर्गत बनमनखी थाने के सिकलीगढ़ धरहरा गाँव होकर लौट रही थी। वैशाख का अंत हो रहा था। किंत सूर्य की दाहकता का साम्राज्य दिशाओं में ज्यों --का-त्यों फैला हुआ था। पत्री-पत्री, कण-कण जलन और प्यास से व्याकुल थे। जब-तब पछिया हवा व्यंजन झलकर तथा सदय बादल जल बरसाकर जलन और प्यास को कम करने की चेष्टा कर रहे थे। दिन की ऐसी विषम परिस्थिति से बचने के लिए मैं धरहरा गाँव में अपने एक संबंधी के यहाँ ठहरा। मेरे संबंधी महर्षिजी के प्रति बडे आस्थावान और श्रद्धालु हैं । मैंने उनसे महर्षिजी के दर्शन कराने को कहा। कोई चार बजे वे मुझे महर्षिजी की कुटी पर ले गए। मैं ज्यों ही कुटी के आँगन में प्रविष्ट हुआ कि सामने देखा- एक घास-फूस की छाई हुई चौखंडी के बरामदे पर एक गैरिक वसनधारी व्यक्ति कुर्सी पर बैठे थे। मेरे संबंधी ने अपनी एक उँगली से संकेत करते हुए बताया कि महर्षिजी कुर्सी पर आसीन हैं । उनके आगे बरामदे पर दरियाँ और चटाइयाँ बिछी हुई थी। वहाँ कुछ सज्जन बैठे थे। मैं उनके निकट गया और उन्हें प्रणाम कर उनके सामने चटाई पर बैठ गया । उन्होंने मुझसे मेरा परिचय पूछा। मैं अपना परिचय देने ही वाला था कि मेरे संबंधी ने मेरा परिचय इस प्रकार दिया- “इनका नाम महेश्वर प्रसाद सिंह है। ये मेरे संबंधी हैं । ये बी॰ ए॰ में पढ़ते हैं । दर्शन-शास्त्र में इनकी रुचि है। इन्होंने ‘अश्रु-हास’ नामक कविता की एक पुस्तक लिखी है।” उस समय ‘अश्रु-हास’ की एक प्रति मेरे पास थी। मैंने वह प्रति उन्हें भेंट दी। उस पुस्तक में एक कविता थी ‘अति पास-पास भी रहकर प्रिय है मुझसे कितनी दूर-दूर !’ महर्षिजी ने वह कविता पढ़कर मुझसे पूछा- ‘कैसे अति पास-पास रहकर प्रिय मुझसे दूर-दूर हैं ?’ इसके लिए कविता में जो मैंने कहा था, वही उनके सामने रखा। मैंने बताया- ‘उषा को निश्चित समय पर वे जगा जाते हैं , नदियों की धाराएँ उनसे मिलने के लिए वेगवती है और पर्वत तो उनकी अपूर्व झाँकी लेकर मौन हो गया है। ये उनके दर्शन पाते हैं , वे हमारे निकटतम आते हैं , पर हम उन्हें देख नहीं सकते ।’ महर्षिजी ने पूछा- ‘क्यों?’ इस ‘क्यों’ के उत्तर में मैं चुप था । मुझे चुप देखकर महर्षिजी ने कहना प्रारंभ किया- ‘वे हमारे निकटतम ठीक हैं – अति पास-पास अवश्य हैं , पर हम उन्हें इसलिए नहीं देख सकते हैं कि हमारे ऊपर शरीर रूपी पट्टी और इन्द्रिय-रूपी चश्मा लगा हुआ है। ये उतर जायँ, तो वे तत्क्षण प्रत्यक्ष हो जाएँगे।’ इतना कहकर उन्होंने सलाह दी कि आप पुनः इस विषय पर एक कविता लिखें। इसके पश्चात् उनसे वेदान्त-संबंधी अनेक बातें हुईं। गूढ, दुरूह दार्शनिक सिद्धांतों को बोलचाल की भाषा में व्यावहारिक जगत के उदाहरणों द्वारा उन्होंने मुझे बड़ी सरलता से समझाया । उनके रूप और उनकी बातों ने मुझपर जादू डाल दिया। तेजोद्दीप्त कृश शरीर पर गैरिक वसन लगता था कि तप ही मूर्तिमान हो उठा - हो। उनके कंठ में आत्मीयता का निमंत्रण था, उनके मुँह से नि:सृत शब्द-शब्द में प्रेम की वार्ता थी और उनकी आँखों में अनुभूति-सिक्त साधना का निष्कर्ष था। अपूर्व थे ये प्रशान्त साधक के दिव्य दर्शन !
सन् १९५७ में मैं टी॰ एन॰ जे॰ कॉलेज के एम॰ ए॰ का विद्यार्थी था। मेरा बासा पूर्णियाँ लॉज में था। मेरे लॉज के अति निकट आशानन्दपुर मुहल्ले में संतमतानुयायियों का एक सत्संग-मंदिर है। महर्षिजी घूमते-फिरते इस सत्संग-मंदिर में बराबर आते रहते हैं । वे यहाँ जब-जब आते थे, मैं उनके सत्संग में सम्मिलित होता था। उनका सत्संग सुबह-शाम चलता था। एक दिन शाम के सत्संग की समाप्ति के बाद मैंने उनसे कहा- ‘महर्षिजी ! हमलोगों के कोर्स में संत कबीर की दो-चार पंक्तियाँ बड़ी विचित्र है -
डुबकी मारी समुँद में, निकसा जाय अकास।
गगन मंडल में घर किया, हीरा पाया दास ॥’
इनका अर्थ ठीक-ठीक समझ में नहीं आता है। हमारे प्राध्यापक भी इन पंक्तियों का संतोंषजनक अर्थ नहीं बताते हैं । महर्षिजी ने कहा- ‘आपलोगों के कोर्स में संत-साहित्य की ऐसी पंक्तियाँ क्यों दी जाती हैं , और यदि दी जाती है, तो उनका पूर्वापर संबंध भी दिया जाना चाहिए? आपको आश्चर्य यही लगता होगा कि समुद्र में डुबकी मारकर आकाश में निकलने का क्या अर्थ है। यही न?’ मैंने कहा- ‘हाँ ।’ उन्होंने कहा- ‘इन पंक्तियों के पहले आप संत कबीर की ये पंक्तियाँ पढ़ें-
कबीर काया समुँद है, अंत न पावै कोय ।
मिरतक होय के जो रहे, मानिक लावै सोय ।।
मैं मरजीवा समुँद का, डुबकी मारी एक ।।
मूठी लाया ज्ञान की, जा में वस्तु अनेक ।।
डुबकी मारी समुँद में, निकसा जाय अकास ।
गगन मंडल में घर किया, हीरा पाया दास ।।
महर्षिजी ने ज्यों ही पढ़ा, ‘कबीर काया समुँद है, अंत न पावे कोय’ कि मैं ‘समुँद’ का अर्थ समझ गया। फिर उन्होंने डुबकी लगाना, ‘अकास’ में निकलना और “गगन मंडल में घर किया, हीरा पाया दास’ का क्या अर्थ है, समझाया। उन्होंने बताया कि शरीर अथाह समुद्र है। साधक अपनी बहिर्मुखी मानसिक धारों को साधन-विशेष द्वारा अंतर्मुख करता है, मानो वह शरीररूपी अथाह समुद्र में डुबकी लगाता है। उसकी ब्रह्माण्ड पर चढ़ाई होती है, मानो वह ‘अकास’ में जा निकलता है। वहाँ वह घर बनाता है अर्थात् टिका रहता है। उसे हीरे की प्राप्ति होती है, इसका अर्थ है कि वह परमात्मा को पा जाता है। इस अर्थ ने मुझे आकर्षित किया। किसी साधक द्वारा किसी साधक की पंक्तियों के अर्थ-रहस्योद्घाटन पर मैं चुप्पी साधे बैठा था। महर्षिजी के इर्द-गिर्द बैठे कुछ व्यक्ति कभी मुझे और कभी महर्षिजी को देख रहे थे !
-प्रोफेसर महेश्वर प्रसाद सिंह, एम॰ ए॰
दर्शन साह कॉलेज , कटिहार, पूर्णियाँ
सन् १९३८ ईस्वी में काँप (पूर्णियाँ) में संतमत-सत्संग का वार्षिक अधिवेशन था । किसी अज्ञात आकर्षण से मैं भी उसमें सम्मिलित हो गया। किशोरावस्था की कोमल भावुकता में मुझे प्रतीत हुआ कि अतीत का ऋषित्व यहाँ आविर्भूत हो देदीप्यमान हो रहा है। उसी दिन मेरी अन्तरात्मा मूक भाव से उन पावन पद-पंकजों में समर्पित हो गयी थी।
अन्तर्मार्ग पाने की उत्कण्ठा ने मुझे खींचकर श्री माधवजी के संग मनिहारी पहुँचाया, पर हमलोगों को पावन सत्संग से निर्मल बनाकर रँगने की उनकी गोप्य योजना थी, अतः यहाँ से अपने साथ उन्होंने धरहरा चलने का आदेश दिया। चन्द्रग्रहण का अवसर था। वहाँ प्रातः बिना स्नान किए ही बहुत लोग सत्संग में आये थे। उन्होंने इस अवसर पर स्नान करने की आवश्यकता बताकर शिष्ट लोक-मर्यादा की प्रतिष्ठा की।
भजन-भेद मिला और उसी समय अभ्यास करने का आदेश हुआ। उस दिन मैंने स्पष्ट अनुभव किया कि भव-पथ के भ्रान्त पथिकों का आलोक देने के लिए करुणानिधि का साक्षात् अवतरण इस भूलोक में हुआ है।
गुरु-सेवा की अदम्य लालसा अंतर में उद्वेलित हो रही थी। उसी अवसर पर दयालपुर में तीन विशाल सत्संग-मंडलियों का सम्मेलन होने जा रहा था, जिसमें सद्गुरु महाराज भी पधारनेवाले थे। समय पर मैं भी वहाँ उपस्थित हुआ और उनके सतत सेवक - श्री संतसेवीजी से मैंने अपनी सेवा-लालसा की अभिव्यक्ति की। यह निवेदन श्री पादपद्मों में उपस्थित किया गया । सुनकर उन्होंने कहा-
‘भजन-भेद लेने के समय जिस तरह का वैराग्य एवं विवेक रहता है, यदि वह उसी तरह अंत समय तक रह जाय, तो क्या नहीं हो जाय?’ इसके उपरांत मनिहारी में एक महीने साथ में रहने का आदेश मुझे प्राप्त हो गया और निर्दिष्ट समय पर मैं वहाँ पहुँच भी गया। मैं वहाँ सेवा करने का अवसर ढूँढ़ता रहता; क्योंकि सारी सेवा तो संतसेवीजी एवं श्री भूपलाल बाबू ही पूर्ण कर दिया करते थे।
एक दिन अयाचित करुणावश उन्होंने अपने साथ गंगा-स्नान करने तथा वहाँ से एक बर्तन गंगा-जल लाने का आदेश दिया । सुनते ही मेरा पिपासित हृदय प्रसन्नता से उत्फुल्ल हो गया । यह सेवा करने का अवसर मेरे लिए परम सौभाग्य की बात थी। इसके अतिरिक्त समय पर उन्हें पानी पिलाना, उनका बिछावन सज्जित करना, रसोई-कार्य में काली मिर्च पीसकर गोला बना रखना तथा झाड़, लगाने की सेवा मुझे मिली थी। मैं इन कार्यों को पूरी तत्परता से करने में तल्लीन रहता, और समय-समय पर जीवन और साधना की अनेक समस्याओं का समाधान भी सुना करता।
उसी अवसर पर वहाँ महर्षिजी के भतीजे श्री बोधनारायणजी भी आ गए। दोनों के प्रति एक समान निष्पक्ष वात्सल्य भाव देख कर मैं उन महान चरणों पर आनंद-न्योछावर हो रहा था।
अपने माता-पिता से बिना आदश लिए ही यहाँ आने के कारण एक सप्ताह-उपरांत ही मुझे घर लौटने का आदेश मिल गया ।
साधकों में शीघ्र लक्ष्य-प्राप्ति की झोंक आया करती है। एक बार मैंने इसी प्रवेग में अपनी साधन-दशा उनके समक्ष वर्णन कर सुरत-शब्द-योग प्रदान करने का आग्रह किया। उत्तर मिला- ‘अभी तुम्हारी उम्र दृष्टि-साधन करने की है। दृष्टि-साधन मन लगाकर करो। जब आवश्यकता होगी, शब्द-साधन-विधि बता दूँगा ।’
तभी से मूक भाव में अव्याहत रूप से दृष्टि-साधन का क्रम चल रहा है और मेरी प्रसन्नता विकसित-वर्द्धित होती जा रही है।
- श्री उपेन्द्र जायसवाल, एम॰ ए॰, ढोलबज्जा (भागलपुर)
एक दिन सूर्यास्त के पश्चात् मैं भजन (ध्यान) कर रहा था। उसी समय एक सर्प आकर मेरी कमर में लिपट गया। पुनः आरती-विनती की। तदुपरांत लैम्प के प्रकाश में सभी ने उस सर्प को देखा। सत्संग-समाप्ति के बाद मेरे विनय करने पर वह मुझे छोड़ कर चला गया। मैं यह साक्षात् रूप से सद्गुरु की कृपा ही मानता हूँ।
-सौखी दास. सत्संग-मंदिर, परवत्ती, भागलपर
घटना को बीते कोई तीन वर्ष हो गए हैं - उन दिनों मैं भागलपुर में अपने विद्यार्थी-जीवन का आनंद ले रहा था। सबेरे का समय एम॰ ए॰ की पढ़ाई में और शाम का वक्त कानून पढ़ने में बीत जाता था। दोपहर के थकान को हमलोग ‘ईश्वर है या नहीं – यह एक विवादग्रस्त विषय है।’ के समाधान या बहस में बिता देते । उस दिन हमारे एक साथी ने कहा- ‘परवत्ती मुहल्ले के सत्संग-मंदिर में महर्षिजी आए हैं, चलो हमलोग प्रवचन सुनें ।’ हमलोग चले, रास्ते में भी वही चर्चा चल गई। यों बातों-ही-बातों में हमलोग सत्संग-मंदिर आ गए। सभी को ध्यानमग्न देख हमलोग भी चुपचाप बैठ गए। भजन समाप्त हुआ। ऊँचे आसन पर बैठे महर्षिजी ने आँखें खोली। मुझे अभी भी ठीक याद है- उस समय उनकी आँखों से ज्योति शिखा-सी निकली मालूम पड़ती थी, फिर सब कुछ शांत हो गया । महर्षिजी ने पहला वाक्य कहा- ‘अगर कोई कहते हैं कि दुनिया में ईश्वर नहीं है, तो - आप उनकी बात न मानें न मानें ...।’ हमने एक दूसरे की ओर देखा। सभी दंग थे। लगता था- जैसे वे हम साथियों के प्रश्नों का ही उत्तर दे रहे हो !
औरों की बात नहीं जानता। तबसे मैं बराबर समय निकालकर उनके पास जाने लगा। मुझे उपदेशों से शांति मिलती और लगता, जैसे हमारे भीतर ही कोई सोयी स्मृति जगती जा रही हो।
क्रमशः हमारा महर्षिजी से काफी परिचय बढ गया। न जाने कितनी घडियाँ उनके दर्शनों में बीती होंगी ! जब-जब मैं उनके पास पहुँचा हूँ, तब-तब उन्हें एक ही भाव में मैंने देखा है। शांत मुद्रा, निश्चल स्वभाव में मधुर-वाणी की निर्झरणी। सबसे बढ़कर उनकी सौम्य मुख-मुद्रा ने मुझे बहुत आकृष्ट किया है। मुझे उनके प्रत्येक दर्शन में एक नयी प्रेरणा और अंतर के शुभ संस्कारों के जगने का अनुभव हुआ। यों जटा बढ़ाए, गैरिक वस्त्र पहने हुए अनेक साधुओं से मेरी भेंट हुई है, पर महर्षिजी के पास ‘कुछ और है।’ जिसकी व्याख्या मैं नहीं कर सकता हूँ।
‘मैं जब भी दर्शन करने जाता, वे ‘वकील साहब’ कहकर मुझे पुकारते । इस भविष्यवाणी का मर्म मैंने उस दिन समझा, जिस दिन मैं सिर्फ सप्ताह भर किताब उलटा कर कानून की परीक्षा में बैठ गया और परीक्षा में उत्तम दर्जे में उत्तीर्ण होकर आश्चर्यचकित हो गया ! परीक्षा देने के वक्त मैं हतोत्साह होकर उनके पास गया था। मैं निराशाहत था। महर्षिजी ने हँसते हुए कहा- ‘जरूर परीक्षा दीजिए । यह एक मौका है, इसे चूकने मत दीजिए।’ वह दिन मुझसे भुलाये नहीं भूलेगा; क्योंकि मेरी आज की सारी सफलताओं का श्रेय उनकी कृपा का प्रत्यक्ष फल है। मैंने महर्षिजी के आशीर्वाद से एम॰ ए॰ परीक्षा में भी अच्छा स्थान प्राप्त किया। अपने विशेष पत्र की तैयारी मैंने महर्षिजी के आदेशानुसार उनके अनमोल ग्रन्थ तथा उनकी व्याख्या जो प्रायः ‘शांति-संदेश’ में निकलती रहती है- उन्हीं से की थी। स्पर्धी साथियों के शब्दों में अपनी इस ‘अप्रत्याशित सफलता’ का संपूर्ण श्रेय मैं महर्षिजी को ही देता हूँ।
मुझे उस अयाचित करुणा की सदा याद आती रहती है- जब मैं अपने एक साथी के साथ महर्षिजी को जमालपुर विदा करने, भागलपुर-जंक्शन गया था ! गत परीक्षा में असफल मेरे इस साथी को उन्होंने आश्वासन दिया था- ‘इस बार तो अवश्य सफलता मिलनी चाहिए।’ मुझे यह कहना न होगा कि वे साथी उस वर्ष की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए ! अब एक विद्यालय में व्याख्याता भी हैं ।
मेरा विश्वास है कि पूज्यपाद महर्षिजी, भगवान बुद्ध के ‘पंचनिकाय’ की गहराई तक जा चुके हैं , वे महात्मा कबीर के, ‘अष्ट कँवल दल चर्खा डोले’ का तत्त्व समझ चुके हैं , महा महिम गुरु नानक के ‘सत्तधाम’ का मर्म उन्हें ज्ञात हो चुका है, वे युगपुरुष गाँधीजी के ‘सत्य और अहिंसा’ का पूर्ण चिन्तन कर चुके हैं और उनका अपना सिद्धान्त है- ‘अयं निजः परोवेत्ति, गणना लध्धु चेतसाम् ।
उदार चरितानां तु, वसुधैव कुटुम्बकम् ।।’
-श्री रामेश्वर प्रसाद सिंह , एम॰ ए॰, बी॰ एल॰, वकील, पुर्णियाँ
मैं परमपिता परमात्मा को कोटिशः धन्यवाद देता हूँ-जिनकी कृपा से मैंने परमाराध्य श्री १०८ महर्षिजी महाराज का छोटा भाई कहलाने का सौभाग्य प्राप्त किया। मैं शैशव में उन्हें ‘बाबाजी भाय’ कहकर पुकारता था। उस समय मुझे क्या पता था कि वे मुझ जैसे झक्खी और सांसारिक जीवों के उद्धार के लिए ही सद्गुरु रूप में मेरे कुल में अवतरित हुए हैं! । मेरी पाशविक बुद्धि मुझे कुमार्ग की ओर खींचती थी। मनुष्यता मुझसे कोसों दूर थी। सत्संग में रुचि का नाम मात्र भी न था और आज मुझे आश्चर्य होता है कि मैं क्यों सत्संग में दिलचस्पी लेने लगा और सन्तमत का अनुगामी बन गया।
मुझे विश्वास है कि अब मैं मनुष्य बनने जा रहा हूँ, पर इसकी पूर्ण सफलता तो श्री गुरुदेव पर ही आश्रित है। कल्याण-पथ के प्रथम किनारे के दर्शन अवश्य ही मैं कर रहा हूँ और हमारी श्रद्धा है कि हमारे कुल में ‘संत’ का अवतार हुआ है, अतः हमलोगों की अनिच्छा रहने पर भी हमारी नैया अवश्य ही संसार-सागर के उस पार जा लगेगी। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने घोषित किया है-
‘सो कुल धन्य उमा सुनु, जगत पूज्य सुपुनीत ।
श्री रघुवीर परायण, जेहि नर उपज विनीत ।।
- श्री डोमनलाल दास , धरहरा, पुर्णियाँ
सन् १९३८ ईस्वी की बात है, जब मैं भागलपुर पहली ही बार गया था। वाराणसी विश्वविद्यालय में शास्त्री परीक्षा पास कर, वहीं से दस वर्षों में प्रयाग, हरिद्वार, विन्ध्याचल आदि पावन तीर्थों का पर्यटन कर चुका था। इतने स्थानों से परिचित होकर भी मैं अपने जिले के इस अज्ञात पावन स्थल से अपरिचित ही था । स्टेशन पर चंचल मानस की चहलकदमियों को देखती मेरी आँखें उन अपरिचितों के बीच अपने परिचितों को खोज रही थी।
शैशव काल की छिपी- आवरणित स्मृति ने एक परिचित का अवभास किया। समीप आकर उन्होंने मुझे नमस्कार किया। नमस्कार का प्रतिदान करते हुए अनायास मेरा हृदय-कुसुम उत्फुल्ल हो उठा। आनंद-सुरभि ने बाहर की ओर प्रसरित होने का उपक्रम किया । कान्तिवान शरीर को पुनीत रंगीन वस्त्रों से आच्छादित कर वे कर्तव्य-तत्पर थे। उनके विस्फारित नेत्र किसी के अन्वेषण में निमग्न थे।
वे मेरे विशाल अध्ययन एवं विश्व विद्यालय प्रदत्त उपाधियों से सुपरिचित थे। उन्होंने वार्ता के सिलसिले में मुझे कबीर, नानक, दादू, तुलसी आदि संत महाकवियों के पद्य एवं उसका आशय सुनाकर मुझे आश्चर्यचकित कर दिया । मैं सोचने लगा- साधारण अक्षरज्ञानवाले के हृदय में यह विशाल ज्ञान-भंडार? अवश्य ही इन्होंने किसी महान साधक या सद्गुरु से यह ज्ञान-रत्न उपलब्ध किया है। क्योंकि इनके सारे वागविलास साधनाश्रम के टकसाल के से प्रतीत होते हैं । मैं स्तब्ध था।
करीब पन्द्रह मिनट पर मेरा मौन भंग हुआ और पूछा- ये गुह्य ज्ञान-भेद तो महान् के पास मिलते हैं ?’
तुरत ही उन्होंने उत्तर दिया- ‘अवश्य । यह कृपा है मेरे प्रातः स्मरणीय सद्गुरु महाराज की, श्री महर्षिजी की ।’ मैं – कौन हैं वे महर्षिजी- महान आत्मा ?’
उत्तर में उनका पवित्र नाम सुनते ही उनसे मिलने की उत्कण्ठा तीव्र हो उठी । उन्हीं से पता लगा कि महर्षिजी परवत्ती सत्संग-मंदिर में अभी विराज रहे हैं । बस, तुरत ही उनके साथ दर्शन के लिए चल पड़ा। आकर देखा- कच्चा मकान, पुष्पों का उद्यान । आमोदित पवित्रता, सांध्यकालीन पक्षीशावकों के कलरव भी शांत हो रहे थे। चाञ्चल्य प्रसुप्त नीरवता गंभीर बनती जा रही थी। निस्तब्धता का अखण्ड साम्राज्य ! मेरे दिल में एक नयी उमंग और नया भाव उठ रहा था।
मुझे याद आई- महाकवि कालीदास के ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ रूपक के कण्व ऋषि का आश्रम ही तो मुझे नहीं दृष्टिगोचर हो रहा है !
मैंने पूछा- ‘महर्षिजी कहाँ हैं?
उत्तर मिला- ‘भीतर के कमरे में ध्यान कर रहे हैं ।’
करीब बीस मिनट बीते होंगे, उन्होंने आकर सूचित किया- ‘महर्षिजी आपको बुलाते हैं ।’
मैं सोल्लास चला। मन में प्रश्नों का जाल उमड़ आए। मैंने तर्कशास्त्र के प्रपंचर्थक-अवच्छेदकावच्छिन्नेत्यादि शब्द-जाल विखेर दिया उनके पुरस्सर । उन्होंने शांत चित्त से मेरे सारे प्रश्नों का उत्तर दिया।
मेरे अपने समाज के लोग उनसे मिलने की बात सुनकर मुझे दुरदुराते हैं, कहते हैं ‘घटरामायणी हैं वे। उनसे मिलना, नास्तिकता का निमंत्रण देना हैं, आदि कितनी ही ऐसी बातें ।’
इस प्रथम ‘पवित्र मिलन’ के एक युग । (बारह वर्ष) बीत गए। इसके उपरांत झण्डापुर विद्यालय में कई बार उनके शुभागमन हुए। सभी ने मेरे साथ उन शांत मूर्ति की शांति-पीयूषवर्षिणी वाणी भी सुनी। पर, कहीं भी नास्तिकता का पता नहीं चला ।
इस अवधि में मैंने उनके उपदेशों के अतिरिक्त अपने अध्यापन-काल में कबीर, नानक, सूर, दादू आदि संतों के काव्यों का गंभीर अध्ययन भी किया, सन्तमत-सत्संग से भी सम्पर्क स्थापित किया, सत्संगियों का सहवास किया और अब तो मैं दृढ़ विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि महर्षि मेँहीँ इस युग के ‘धर्म-मार्ग-प्रदर्शक’ हैं । वे नास्तिकता के पथ पर जानेवाले अबोध मानव को वैदिक धर्म या वेदांत-पथ पर लानेवाले ‘ऋषि’ हैं । ऐसा कहने में मुझे किसी सम्प्रदायवादियों के समक्ष कोई संकोच नहीं है, बल्कि मैं तो दावे के साथ कहता हूँ कि इस कोटि के महात्मा यदि भारत के चारों कोने में चार ही हो जायँ, तो भारतीय सद्ग्रन्थों की भली भाँति रक्षा हो जाय ।
ऐसे ही महात्मा युग-युग के अवतारी पुरुष कहलाते हैं । इसीलिए उस युग के लिए वे अभिनन्दनीय और अभिवन्दनीय होते हैं । अत: हे महान आत्मा ! मैं भी आपका अभिनन्दन करता हूँ और अभिवन्दन भी।
- श्री शुकदेव मिश्र ‘शास्त्राचार्य’, बी॰ ए॰, झण्डापुर (भागलपुर)
छोटी लाइन (बी॰ एन॰ डब्ल्यू॰) की रेलवे इसलिए विख्यात है कि इस लाइन में भीड़ अधिक रहा करती है। सन् १९३२ की बात है, एक दिन मैं अपने साथी के साथ जिनका नाम बताना मैं अच्छा नहीं समझता, कुरसला स्टेशन से नवगछिया जा रहा था । नियत समय पर गाड़ी आई, गाड़ी में भीड़ देखकर होश हवा हो गए। जिस स्थान पर हम दोनों खडे थे, उसी जगह गाड़ी में खिड़की के पास महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज बैठे नजर आए, हमारे साथी महोदयने, जिनके एक हाथ में एक छाता और दूसरे हाथ में झोला था, महर्षिजी से कहा- ‘बाबा जी! जरा हमारा छाता तो पकड़िए।’ महर्षिजी ने झट से उनका छाता पकड़ लिया। मैं तो एक बार सहम गया। सचमुच, महान लोगों के मन में गर्व नहीं होता और वे दूसरों की भलाई करने से चूकते भी नहीं हैं । खैर, किसी प्रकार गाड़ी पर चढ़कर खड़े-खड़े नौगछिया आए। गाड़ी से उतरने के बाद मैंने अपने साथी से कहा- जिस साधु महाराज को आपने छाता पकड़ाया, उनका नाम जानते हैं ? अगर
नहीं , तो सुनिए उनका नाम महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज है। यह सुनकर हमारे साथी महोदय का चेहरा उतर गया। मैंने कहा---चलो, बड़े लोगों की बात बड़ी होती है। मेरे साथी ने कहा, बात तो बड़ी नहीं, छोटी-सी है, परंतु है याद रखने के लायक ।
-श्री बलदेवलाल ‘तारापुरी’ , टीकापट्टी, पुरैनियाँ
मैं एलाइड प्रेस भागलपुर में ‘महर्षि मेँहीँ -अभिनंदन-ग्रन्थ’ का, ‘संस्मरण’ प्रकरण कम्पोजिंग कर रहा था। दिनांक २८.१२.१९६० ईस्वी को मुझे अनेक बार महर्षि शब्द निर्मित करना पडा। बनाते-बनाते मेरे अक्षर प्रकोष्ठ में “र्षि’ अक्षर समाप्त हो गए। मैं ऊबकर महर्षि शब्द के बदले बहर्षि ही बोल-बोलकर अपशब्दों से अभिहित करने लगा और कम्पोजिंग करना बंद कर टहलने लगा। पुनः मन कुछ शांत होने पर अन्य कम्पोजिटरों के अक्षर-प्रकोष्ठ में उक्त अक्षरों को ढूँढा । वहाँ कुछ अक्षर मिले, परंतु जब अपने स्थान पर लौटकर अपना वही खाली अक्षर प्रकोष्ठ देखा तो चकित रह गया; क्योंकि वहाँ काफी संख्या में उक्त अक्षर मौजूद थे। मैं सोचने लगा कि मेरी दृष्टि में विभ्रम तो नहीं हो गया था ! उसी समय अन्य कार्यवश मैं प्रेस-कार्यालय आया। वहाँ प्रेसाधिकारी ने एक-दो मिनट बात करते-ही-करते कह दिया कि आप कार्य बंद कर चले जाइए। उसी समय मैं भी आवेश में चला गया। दूसरे दिन अपना हिसाब कराने आया- पुनः तीसरे दिन आया, पर वह काम भी नहीं हुआ। इधर जीविका की समस्या दयनीय हो रही थी। अब मुझे चेत हुआ कि संत-महर्षि को अपशब्द कहने का ही बुरा परिणाम यह मेरे जीवन में उपस्थित हुआ है। फिर तो मैं बारंबार महर्षिजी का नाम-स्मरण करते हुए एकांत में खुब रोया, क्षमा माँगी और महर्षिजी का नाम-स्मरण करते हुए दूसरे दिन प्रेस आया। उस दिन प्रेसाधिकारी महोदय ने समझा-बुझाकर पुनः उसी काम पर नियुक्त कर लिया। मैं महर्षिजी की कृपा से पुनः खोयी हुई जीविका उपलब्ध कर सका । मेरा यह सुदृढ़ और अविचल विश्वास है । फिर मुझे याद आई कि उस दिन ‘र्षि’ अक्षरों से खाली प्रकोष्ठ भी उन्हीं की छिपी हुई कृपाशक्ति से ही भरपूर हो गए थे। हे महा महिम महर्षि ! आपको मेरा असंख्य प्रणाम है।
- श्री यमुनाकांत झा ‘व्यास’
ग्राम मधुसूदनपुर, पत्रालय- शाहजादपुर, जिला- भागलपुर
प्रेस में ‘महर्षि मेँहीँ -अभिनन्दन-ग्रंथ’ का अक्षर संयोजन कार्य करते हुए मेरे दिल में भी महर्षिजी के दर्शन की उत्कण्ठा तीव्र हो उठी । एक बार वे परवत्ती सत्संग-मंदिर पधारे और पुनः वहाँ से मोहद्दीनगर जाकर भी सत्संग कराए। मुझे एक समीपस्थ सत्संगी से उनके पधारने की खबर मिली, परंतु मैं जीविका या पैसे के लोभ के कारण वहाँ नहीं गया । रविवार को अवकाश था, पर घराऊ उलझनों में फंसकर उस दिन भी नहीं जा सका। उस दिन नहीं जा सकने के कारण मेरे मन में बड़ी पीड़ा हुई। व्यथा के आवेग में मैं सोचने लगा कि मैं बड़ा पापी हूँ कि एक महर्षिजी के दर्शन के लिए भी नहीं जा सका। उसी दुख और चिंता में ही रात को सोया। सपने में देखा कि महर्षिजी के दर्शन कर रहा हूँ, पर मैंने कभी उन्हें देखा नहीं था। दूसरे दिन सोमवार को मैं घर से प्रेस जा रहा था। सुजागंज के पुल पर लगा कि जैसे मेरे कानों में कोई बारंबार कह रहा हो कि वह देखो, महर्षिजी जा रहे हैं । मैंने दृष्टि उठाकर देखा कि एक फीटिंग पर तीन व्यक्ति बैठे जा रहे हैं, जिनमें एक स्वप्न में दर्शित महर्षिजी के सदृश ही थे। मेरा मन उन्हें प्रणाम करने के लिए आकुल हो रहा था, पर असमंजस था कि यदि वे महर्षिजी नहीं हों? शंकाकुल चित्त लिए प्रेस आया। वहाँ उक्त सत्संगी ने बताया कि हाँ वे महर्षिजी ही थे। यह जानकर मुझे बड़ी व्यथा हुई कि मैं असमंजस में पड़कर उनके चरण-स्पर्श से वंचित रह गया। उस दिन मुझे यह प्रत्यक्ष विश्वास हा गया कि उनमें ईश्वरीय अंश है- जहाँ उनका ध्यान कीजिए, वहीं प्रेम के कारण वे दर्शन दे देते हैं । मेरे एक-दो गोपनीय काम भी उनकी कृपा से अनायास ही पूर्ण हो गए हैं । आज हम हृदय से ही उन्हें प्रणाम कर रहे हैं ।
- जगदम्ब प्रसाद पाण्डेय , बैजानी फुलवरिया, भागलपुर
कहावत है- ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’, लेकिन महर्षिजी के बाल्यकाल की जीवनी को पढ़कर कोई ऐसी अनोखी बातें प्रकाश में नहीं आ रही थी , जिसमें उपरोक्त लोकोक्ति चरितार्थ हो। और इसलिए महर्षिजी के बाल्यकाल के विषय में कुछ जानने की उत्कण्ठा से जा पहुँचा उनकीपावन मातृभूमि धरहरा में।
पूजनीय महर्षिजी की बड़ी बहन, जो अभी जीवित हैं और जिन्होंने महर्षिजी को पाला-पोसा था, उनसे मिलने गया । मैने सीधा प्रश्न किया कि आपको महर्षिजी के बाल्यकाल की ऐसी घटनाएँ मालूम है, जो आपको बार-बार याद आती हो? वे बोली- हाँ, उनके सिर में जन्म से ही सात जटाएँ थीं । नित्य प्रति उन्हें तेल और कंघी से सुलझा देती थी और वह पुनः प्रात:काल जटा-रूप में बदल जाती थी। इस प्रकार उनके जटा को बार-बार सुलझाने का प्रयत्न करके भी मैं असफल रह जाती थी, तो यह सोचकर कि यह जटा नहीं सुलझेगी, मैंने उसे छोड़ दिया। और जब महर्षिजी कुछ बड़े हुए तो उनके सिर की वे सातो जटाएँ बड़ी भव्य मालूम होती थी , जैसे कोई बालक भक्त तपस्वी हो। और जब मैंने इन घटनाओं को सुना, तो मुझे उपर्युक्त लोकोक्ति की सत्यता का बोध हुआ।
१९५६ ईस्वी , मनिहारी में मैंने प्रश्न किया था- ‘मेरे मन में एक प्रश्न बराबर उठा करता है कि महात्मा गाँधी की छाया में फली-फूली संस्था काग्रेस में आज इतना असंतोंष, स्वार्थ, अर्थ व शासन लोलुपता क्यों है?’
वे कुछ देर तक मौन रहे और फिर बड़े ही गम्भीर और संयत वाणी में बोले- ‘जिस व्यापकता से महात्मा गाँधीजी न सत्य और अहिंसा का प्रचार किया, उस व्यापकता के साथ ‘संतोंष’ का प्रचार नहीं किया। यद्यपि वे स्वयं बड़े ही संतोंषी और साधु-जीवन बिताते थे। अगर वे सत्य, अहिंसा और संतोष का एक साथ प्रचार करते तो कांग्रेस की यह दशा नहीं होती।’ मैं प्रश्न का उत्तर सुनकर दंग रह गया।
१९६० ईस्वी के प्रथम पावन दिवस को धरहरा पहुँचा। प्रातः का सत्संग समाप्त होने पर मेरा व्यक्तित्व-जीवन, जो बड़े ही भयंकर प्रतिषोध से भर गया था और वैसी भयंकर मानसिक चपेट खाकर मेरी बुद्धि कुंठित हो गई और मैं आत्महत्या करने की सोच रहा था, उस दुष्ट की हत्या की कल्पना को मन में मजबूत कर रहा था। वहाँ महर्षिजी ने कहा कि अगर आप इस बार मेरे साथ मुरादाबाद चलें, तो मैं भी वहाँ के वार्षिक सत्संग महोत्सव में जाने के लिए तैयार होऊँगा, अन्यथा नहीं। और मुरादाबाद के सत्संगी भाइयों का प्रेम-पत्र पढ़कर मैं परमात्मा से प्रार्थना कर रहा था कि महर्षिजी अवश्य ही मुरादाबाद जाएँ। और जैसे ही मैंने उनका यह प्रस्ताव सुना, मैंने तुरत ही उसको सहर्ष स्वीकार कर लिया।
प्रथम श्रेणी के डब्बे में मैं महर्षिजी के साथ सफर कर रहा था और एकांत पाकर मैंने अपनी मानसिक व्यथा उनके सामने रखी। थोड़ी देर तक शांत भाव से बैठे रहे और फिर उन्होंने कहा कि महात्मा ईसामसीह के एक शिष्य ने उनसे प्रश्न किया था कि अगर कोई दुष्ट अपराध करे तो मैं क्या करूँ? ईसामसीह ने कहा कि उसे क्षमा कर दो। फिर उस शिष्य ने कहा कि अगर पुनः वह अपराध करे तो? उन्होंने कहा कि फिर क्षमा कर दो। इसी प्रकार वे बोले कि उसे ७ बार क्षमा करो। लेकिन उनके पुनः जिज्ञासा करने पर कि अगर वह फिर अपराध करे तो? इस पर महात्मा ईसामसीह ने कहा कि सात को सात से गुणा करो, उतनी बार क्षमा करो और अगर वह फिर अपराध करे, तो उसे फिर उसे सात सौ से गुणा करो और उतनी बार क्षमा करो। और मैं सोचता जा रहा था कि महात्मा ईसा आज स्वयं मुझे उपदेश दे रहे हैं।
- भागवत प्रसाद जायसवाल, बी॰ए॰ भागलपुर १
दिनांक २४.११.१९५९ । चारेक दिन हुए महर्षिजी भंगहा आए हुए हैं । सुबह सत्संग के बाद भक्त लोग चले गए हैं। महर्षिजी बाहर धूप में बैठे हैं । महर्षिजी एक आगन्तुक के विषय में पूछ रहे हैं । एक सत्संगी कहते हैं -...’यह उस बार भी आया था। दीक्षा लेना चाहता है, लेकिन जर्दा अभी तक छोड़ा नहीं।’
यह सब कुछ तो आपलोगों की भलाई के लिए ही छोड़ने को कहता हूँ, महर्षिजी आगन्तुक को सोचकर कह रहे हैं । ‘एक मुसलमान था। थोड़े-थोड़े के अभ्यास से ही वह काफी मात्रा में जर्दा खाने लगा। दूकानदार उसके लिए जो जर्दा रखता था, उससे सुगंध उठती थी। मैंने एक दिन पूछा तो कहा कि जर्दा है— फलाँ व्यक्ति के लिए मँगाया है। इस तरह जर्दा के सेवन से उसे थाइसिस हो गया और एक दिन उसकी मृत्यु हो गई।’
आगन्तुक- ‘जर्दा छोड़ना चाहता हूँ, लेकिन छूटता नहीं , दो दिन छोड़ने के बाद फिर खाने लगता हूँ।’
महर्षिजी मुस्कुराते हुए कहते हैं – ‘मन कमजोर है।’
‘मन तो खूब कमजोर है।’- आगन्तुक कहता है। ‘भजन-भेद लेना है तो मन को मजबूत कीजिए।’- क्षणेक बाद स्वामीजी कहते हैं –’नहीं तो जो प्रतिज्ञा कराएँगे, उसपर अमल नहीं कर सकेंगे, फिर भजन-भेद लेना क्या ?’ आगन्तुक- ‘स्वामी विवेकानंद ने कहा है- ‘बिना कृपा-प्रसाद के मन की मजबूती नहीं आती ।
महर्षिजी- ‘कृपा तो खूब है।’ वातावरण शांत-स्तब्ध । आगन्तुक का हृदय पिघल आता, आँखे छलछला उठती । साथ के सत्संगी कहते हैं –’पहले तो यह बहुत कुछ खाता था— मांस-मछली, तम्बाकू, जर्दा ।’
महर्षिजी- ‘तम्बाकू पहले की चीज है, जर्दा बहुत हाल की चीज है। फिर एकाएक कहते हैं - भजन-भेद लेना है तो सब कुछ छोड़ने के कम-से-कम तीन महीना बाद आएँ ।’
वातावरण मुग्ध सरस हास्य से भर आया। महर्षिजी भीतर हैं। भक्त लोग बैठे हैं । बीच में एक किनारे छोटी चौकी का सिंहासन रखा है। सारा वातावरण शांत-स्तब्ध ।
महर्षिजी प्रवेश करते हैं , “सारे भक्त श्रद्धावन्त खड़े हो जाते, महर्षिजी बैठकर आगन्तुक की ओर दृष्टिपात करते हैं - आपको कोई प्रश्न करना है ?
आगन्तुक संकोच से भर आता, वह साथी की ओर देखता है- ‘क्या प्रश्न करें ?’
आगन्तुक के मानस का जकड़ा हुआ प्रश्न उभर आता है –’बिना पात्रता के अध्यात्म का बीज निरर्थक जाता है, ऐसा स्वामी विवेकानंद ने कहा है। क्या ठीक है?’
महर्षिजी अपने नयन मुँद-से लेते, फिर क्षणेक बाद कहते हैं –’ठीक है।’
‘फिर बिना पात्रता के लोग दीक्षा लेकर क्या दीक्षा और संस्था की बदनामी नहीं करते ?’ आगन्तुक का प्रश्न हठ पकड़ता है- ‘साधु-संतों का द्वार तो सबके लिए खुला है। किसी के निकट आने पर उसे भगा तो नहीं सकते । फिर जो नियम का पालन नहीं कर सकता, वह डर जाता है और अपने-आप अलग हो जाता है- ऐसा मैंने देखा है।’
‘सरकार ! वैद्यनाथ भगत (सीमड़ा) के श्राद्धकर्म पर उसके यहाँ भोजन के लिए गए, इससे लोगों में क्षेाभ है।’ भक्त रविकांत कहता है-
‘वैद्यनाथ भगत पहले बहुत सत्संगी था। बीच में कुसंगति में पड़ गया था, लेकिन उसमें विश्वास बहुत था। वह फिर सुधर रहा था ।’ महर्षिजी कहने लगे- एक नमाजी था । पाँचो वक्त नमाज पढ़ता। नमाज पढ़ने के पत्थर पर गड्ढ़े हो गए थे और एक शराबी था- रात-दिन शराब में गर्क रहता । उस रास्ते से गुजरा एक फकीर, जो परमात्मा से बात करता था और परमात्मा की ओर से उसके प्रश्न का उत्तर मिलता था। नमाजी ने फकीर से कहा- भाई ! मेरे लिए खुदा से पूछना कि मुझे कैसा वहिश्त मिलेगा? जब फकीर शराबी के निकट से गुजरा तो शराबी ने कहा कि बाबा ! मेरे लिए इश्वर से पूछना कि मुझे कौन-सा नर्क मिलेगा? फकीर ने परमात्मा के सामने दोनों की आरजू कही, तब उसे उत्तर मिला कि नमाजी को अमुक नरक और शराबी को अमुक स्वर्ग मिलेगा। फकीर आश्चर्यचकित -रह गया।
‘ऐसा क्यों?’
‘उन दोनों से कहने पर ही उसका पता चलेगा।’ फकीर के प्रश्न का पुनः उत्तर मिला-
फकीर नमाजी के निकट आया तो उसने व्यग्रता से अपने संबंध में पूछा। और जब उसे पता चला कि खुदा से उसे दोजख मिलेगा तो वह बहुत झल्लाया और उसने उसी समय से नमाज पढ़ना छोड़ा और कहा कि ऐसे अन्यायी खुदा की नमाजें अब कभी नहीं पढूँगा।
फकीर शराबी के निकट पहुंचा। शराबी ने जब सुना कि ईश्वर उसे स्वर्ग देंगे तो भगवान की इस आयाचित कृपा से वह दिग्मूढ़ हो गया। उसकी आँखें बरसने लगी और उसने हाथ के बोतल को उसी जगह पटका। भगवान तुम्हारी इतनी कृपा !
उसका रोम-रोम पुलक हो उठा और आगन्तुक के दृष्टि-पथ में स्वामी रामकृष्ण परमहंस की मूर्ति उद्भासित हो उठी ।
पुनः महर्षिजी कहते हैं- ‘विश्वास एक बड़ी चीज है। यदि दुर्व्यसनी में भी ईश्वर का विश्वास है तो वह श्रेष्ठ है।’
- तूफान , टीकापट्टी (पुरैनियाँ)
बारहमसिया निवासी श्री अजबलाल मंडलजी सत्संगी के आग्रह से मैं उनके साथ बरौनी सत्संग में सम्मिलित हुआ। मैं यह देखकर चकित हो रहा था कि इतनी रेल-पेल में ये हजारों सत्संगी कैसे एक साथ प्रेम सहित निवास कर रहे हैं?
चार बजे दिन से श्री महर्षिजी का प्रवचन आरम्भ हुआ। कितने सरल तरीके से सीधी-सादी भाषा में उन्होंने ईश्वर और उनकी भक्ति करने का उपाय बताया, जिसे मेरे जैसे कम पढ़े-लिखे व्यक्ति ने भी भली भाँति समझ लिया। फिर तो मेरी उत्कण्ठा इतनी बढ़ी कि मैं उनकी लिखी हुई एक पुस्तक खरीदकर नित्य अध्ययन करने लगा और सत्संग में भी जाने-आने लगा।
एक दिन उनकी कृपा हुई और मुझे भी अज्ञान-अंधकार से निकलने का मार्ग बता दिया गया, वह वागेश्वरी सत्संगाधिवेशन का पवित्र मुहूर्त था। मैं ज्यों-ज्यों उस मार्ग पर चलता हूँ, त्यों-त्यों शांति बढ़ रही है। उन शांति-पथ प्रदर्शक के पवित्र चरणों में मेरा असंख्य प्रणाम है।
- श्री अनूपलाल मंडलजी, कुआँडी पुरैनियाँ
सदा चिन्ता होती रहती कि मेरे जैसे दुराचारी और पतित का भी क्या उद्धार हो सकता है ? यही आशा लेकर मैंने महर्षिजी से भजन-भेद ले लिया।
मुझे लड़की तो थी, पर लड़का एक भी नहीं, इसीलिए मैं दूसरा विवाह करना चाहता था। इसको लेकर पत्नी से झगड़ा भी हो जाया करता। किसी भाँति उनको भी यह खबर मिल गयी और उन्होंने मुझे दूसरी शादी करने की मनाही की और आज मैं भी पुत्रों का पिता हूँ।
चंचल मन के कारण उपासना बनती ही नहीं थी। एक दिन इसके लिए विलख-विलख कर रोया, यहाँ तक कि आत्महत्या करने के लिए उतारू हो गया। उस अवसर पर महर्षिजी कोशिकीपुर सत्संग-मंदिर में थे । उन्होंने मुझे एकांत कमरे में बुलाकर कुछ निर्देश किया और प्रकाश स्थित शब्दों के श्रवण से मेरा रोम-रोम आनंदविह्वल होने लगा।
- दुर्गा साह , कोशिकीपुर,भागलपुर
मैं एक उच्चवंशीय क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होने के कारण तथा साइंस (विज्ञान) का छात्र होने के कारण जातिमद, मानमद आदि के नशे में चूर ईश्वरभक्ति से अपने आपको बहुत ही दूर कर रखा था। लगभग सन् १९४८ या ४९ ईस्वी की बात है, जब पूज्य महर्षिजी का प्रथम दर्शन भागलपुर के परवत्ती सत्संग-मन्दिर में करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। ईश्वर क्या है, यह जानने की लालसा मुझे बचपन से ही थी। अतः मैं भिन्न-भिन्न मतावलम्बी महात्माओं का भी कभी-कभी दर्शन किया करता और जानने की इच्छा करता था। मन में कहीं सन्तोष न हुआ । कहीं जातिवाद, तो कहीं वर्णवाद, तो कहीं ऊँच-नीच के चलते आपस में द्वेष और संघर्ष होते देखा। बार-बार पूज्य महर्षिजी के सत्संग में जाने से मैंने पाया कि अभी वर्तमान युग में एक यही संत हैं , जो सभी ऋषियों, मुनियों एवं लोगों की विचारधारा को समन्वय करते हुए बड़े ही जोरदार शब्दों में कहते हैं कि सभी सन्तों का मार्ग ईश्वर-प्राप्ति के लिए एक है। यहाँ न जातिवाद का झगड़ा, न वर्णवाद का बखेड़ा, न लोगों को आपस में किसी तरह का पद या मान के लिए द्वेष और राग के आग में जलते देखा। अन्ततोगत्वा मैंने १९५३ ईस्वी में कहलगांव के निकट बटेश्वर स्थान में पूज्य महर्षिजी से भजन-भेद लिया। परन्तु जब मैं १९५५ ईस्वी में वार्षिक अधिवेशन में शामिल होने मनिहारी गया और वहाँ पर पूज्य महर्षिजी की सहनशीलता और नम्रता को देखकर मेरे मन (जो दिन-रात काम और क्रोध की अग्नि में झुलसता रहता था) पर कैसा असर हुआ, वह वर्णनातीत है।
मैं उस समय कहलगाँव सर्कल ऑफिस के प्रधान लिपिक के पद पर नियुक्त था । वहाँ के श्री कुलदानन्द तापस आश्रम के आचार्य श्री श्री १०८ नरेश ब्रह्मचारीजी महाराज से भी मेरा घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया था। आप भी एक उच्च कोटि के महात्मा हैं तथा राजसी वेष में रहा करते हैं । महर्षिजी का निमंत्रण पाकर खुद मनिहारी वार्षिक अधिवेशन में जाने के लिए तत्पर हो गए। उनके साथ कहलगाँव के कुछ उनके प्रमुख शिष्यगण भी साथ थे। मैंने भी उनके साथ हो लिया । साहेबगंज पहुँचकर पूज्य ब्रह्मचारीजी ने मुझसे कहा कि वहाँ तो इस अवसर पर हजारों की भीड़ होगी, हो सकता है मुझे ठहरने में असुविधा हो, तो ऐसी हालत में मैं वहाँ पर अपने शिष्य के मकान पर ही ठहर जाऊँगा। मैं भी असमंजस में था; क्योंकि मुझे भी वार्षिक अधिवेशन का अनुभव नहीं था । फिर भी मैंने कहा, जब महर्षिजी निमंत्रण दिए हैं, तो आपके ठहरने का भी खास प्रबन्ध अवश्य किए होंगे। मनिहारी स्टेशन पर ही वहाँ के स्वागताध्यक्ष की ओर से ब्रह्मचारीजी का भव्यस्वागत हुआ। यद्यपि सवारी का इन्तजाम था, फिर भी ब्रह्मचारीजी ने कहा कि यह तो बिल्कुल पास है, मैं तो पैदल जाऊँगा। हमलोग पचासों आदमी रात ग्यारह बजे के लगभग ब्रह्मचारीजी को आगे कर पैदल महर्षिजी की कुटी की ओर बढ़े !
इधर यद्यपि महर्षिजी रात्रि के नौ बजे ही शयनागार में चले जाया करते थे, लेकिन उस दिन ब्रह्मचारीजी का स्वागत करने की प्रतीक्षा में कुटी के आँगन में खड़ाउँ पर टहल रहे थे, साथ ही लगभग २०-२५ आश्रमवासी भी तबतक जगे हुए थे। हमलोग तबतक कुटी के फाटक पर आ पहुँचे। संत-मिलन का अपूर्व हृदय उपस्थित हो गया। एक ओर फाटक पर चप्पल पहने बह्मचारीजी और इनके दल के ५०-६० अन्यान्य व्यक्ति, दूसरी ओर आँगन में आमने-सामने करीब १० हाथ के फासले पर महर्षिजी अपने दल के २५-३० व्यक्ति के साथ खड़े हैं । संत-मिलन की विनम्र औपचारिकता शुरू हो गयी। दोनों संत एक क्षण के लिए एक दूसरे को मूक भाव से देखते रहे। हमलोग भी स्तब्ध थे। इतने में ज्योंही महर्षिजी अपने खड़ाउँ पर से उतर कर आगे की ओर बढ़े कि त्योंही ब्रह्मचारीजी भी अपने चप्पल पर से उतरकर आगे बढ़ चले और ठीक दो हाथ के फासले पर एकाएक रूक गए। दोनों बिल्कुल मौन; मालूम पड़ता था कि केवल नैनों से ही बातें हो रही थीं। हमलोग तो किंकर्तव्यविमूढ़ थे। संतों की गति समझ नहीं पा रहे थे। इतने में एकाएक दोनों संत एक दूसरे की ओर बढ़ते हुए जमीन की ओर बड़े वेग से झपटे । महर्षिजी ने चाहा कि मैं पहले झपटकर ब्रह्मचारीजी का पैर पकड़ लूँ और ब्रह्मचारीजी ने चाहा कि मैं पहले झपटकर महर्षिजी का पैर पकड़ लूँ। दोनों ओर की झपट की गति कुछ कम न थी। अत: दोनों संत एक दूसरे के चरण पकड़ने के बजाय एक दूसरे के हाथ ही पकड़ पाए । पुनः आँखों में जल भरे एक दूसरे से गले-गले मिले । हमलोगों में सभी मूक-स्तब्ध प्रेमाश्रु लिए हुए आनन्द विभोर थे। वहाँ का सभी तरह का खास और सुन्दर प्रबन्ध देखकर ब्रह्मचारीजी विमुग्ध थे। उन्हें जाते समय हमलोगों के समक्ष कहना पड़ा कि ‘महर्षिजी विनय के अवतार हैं । मैंने उनसे जो आदर और प्रेम पाया, वह जीवन में कहीं नहीं पाया ।’
- श्री रामसुन्दर सिंह, पहाड़पुर (मुंगेर)
ब्रह्मा-- ब्रह्मा सृष्टि का देवता है। इसलिए उसे सृष्टिकर्ता कहते हैं। प्रत्येक मनुष्य में यह सृष्टिकर्ता विद्यमान है, उसकी आन्तरिक सृजन शक्ति के रूप में।
मैंने अनेकों बार अपने गुरुदेव पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज में इस ब्रह्मा के शुभदर्शन किए हैं, अनेक रूप में। लेकिन औरों की तरह महर्षिजी के क्रिया-कलाप का विभाजन करना उतना आसान नहीं है। इसलिए मैं उनके ब्रह्मा, विष्णु और शिव के मिश्रित स्वरूप का ही वर्णन कर रहा हूँ।
एक रूप -- मेरी पुत्री ‘रूसी’ की मृत्यु मेरी गोद में ही हो गई थी। जीवन-प्रकाश का विलीनीकरण धीरे-धीरे मृत्यु के अंधकार में कैसे हो रहा था, इसका साक्षात्कार मैंने कर लिया था । इसलिए यद्यपि मृत्युकाल में मैं धीर-स्थिर गंभीर-सा ही रहा, आँसू को अंतर में ही रोक रखा; फिर भी संसार की नश्वरता मुझे पल-पल खाए जा रही थी। मैं व्याकुल हो गया, दौड़ा महर्षिजी के पास । दर्शन मनिहारी सत्संग-आश्रम में मिले। कुछ ही समय के आध्यात्मिक वातावरण से मेरी विरक्ति दूर हो गई। ... बाद में करीब ७६ वर्षीय वृद्ध स्वामीजी ने ‘कच्छा कसकर’ एक नवयुवक की तरह मुझे जप और ध्यान करने का जो आसन सिखाया, वह रूप शायद ही किसी ने देखा होगा !
दूसरा रूप-- कवि के रूप में मेरी जितनी प्रख्याति नहीं हुई है, उससे कहीं ज्यादा हुई है ‘वैयाकरण अथवा राष्ट्रभाषा-संस्कारक’ के रूप में । मेरे ‘लड़की जाता है-शुद्ध’ आन्दोलन से प्रायः संपूर्ण भारत के प्रसिद्ध भाषाविदों की बुद्धि चकरा गई है। ... क्या इस आंदोलन का विशुद्धकर्ता मेरा ‘मैं ‘ है? नहीं, इसमें पूज्य गुरुदेव के भी सूक्ष्म आशीर्वाद का फल है। नहीं तो, एक छोटा-सा बच्चा मैं उधर भारत के प्रायः सभी विद्वान- साथ में पं॰ जवाहरलाल नेहरू, राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य विनोबा भावे, श्री जयप्रकाश नारायण आदि राष्ट्र के कर्णधार ।
वैयाकरण होने के नाते मैं महर्षिजी के कुछ शब्द संबंधी सुझावों को साहित्यिकों के समक्ष रखने का प्रयास करता रहा हूँ। जैसे - हिन्दू, हिन्दी, हिन्दुस्तानी और हिन्दुस्थानी’ शब्दों का बहिष्कार और ‘भारती’ शब्द के ग्रहण का आग्रह । ‘पूर्णियाँ’ के ‘पुरैनियाँ’ के ग्रहण का आग्रह ।
हिन्दी-हिन्दुस्तानी आदि -- इन शब्दों का प्रयोग किसी भी धर्मग्रन्थ या प्राचीन पुस्तक में नहीं किया गया है, यह फारसी भाषा के शब्द-कोश में मिलता है। जिसमें ‘हिन्दु’ का अर्थ दिया गया है- ‘गुलाम’ । यह है महर्षिजी का मंगलमय अन्वेषण और निर्देश। की,
तीसरा रूप-- एक दिन लोगों ने आश्चर्य से देखा कि इतने बड़े महात्मा और एक पागल साहित्यिक के घर की पहली ईंट एक गंदी और जंगली जगह गाड़ने जा रहे हैं , रिक्शा पर नहीं, पैदल ही। ठीक बगल में ही नगरपालिका के मल की गाड़ी दुर्गन्धी बिखेर रही थी। ... सत्संग हुआ । महर्षिजी ने दो ईंटें गाड़ दी ।...
मैं मकान दूसरी जगह बनवा रहा था। कुछ खर्च भी हो गया था। किंतु अंत में देखता हूँ कि वह मकान तो असंपूर्ण रहा और घर वहाँ पर बनकर तैयार हो गया है, जहाँ पर महर्षिजी ने ईंटें गाड़ी थी।
मुझे इसमें भी महर्षिजी की दिव्यता का अनुभव होता है।
- सौरभ कवि निराला, पल्ली , कटिहार (पुरैनियाँ)
सौभाग्य ने अवश्य ही मुझे ब्राह्मण कुल में जन्म दिया था, पर जब मैंने शिक्षा प्राप्त कर ब्राह्मणत्व को समझा, तो उसे पाने के लिए व्याकुल हो उठा। परमात्मा की अयाचित कृपा ने श्री महावीरदासजी सत्संगी (देशरी) द्वारा मुझे सत्संग-प्रेम के माध्यम से पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी के चरणों में उपस्थित कर दिया । मैंने प्रत्यक्ष देखा ब्राह्मणत्व की दिव्य मूर्ति- और मैंने अपने को उनके चरणों पर न्योछावर कर दिया।
१९६० ईस्वी । माध्यमिक परीक्षा बोर्ड में मुझे बैठना था। उसी अवसर पर पूज्य गुरुदेव १५ दिन के लिए भागलपुर पधारे हुए थे। मैंने अपना अध्ययन छोड़ सत्संग में सारा समय लगा दिया। परीक्षा की तिथि उपस्थित हो गई। बिना पढ़े ही मैं क्या लिखता? पर सद्गुरु की गुप्त कृपा ने प्रेरणा दी और मैं पावन पाद पद्मों में प्रणाम कर परीक्षा हॉल चला गया । जाते समय सद्गुरु ने एक कृपा-कटाक्ष मुझपर डाली थी, जिसकी याद मुझे आज भी नहीं विसरती। क्या लिखा, मैं नहीं जानता। सभी की शंकाओं को तोड़कर मंगलमयी सफलता ने मुझे अपना लिया और मेरे सहित सभी के आश्चर्य स्वयं ही चकित हो रहे थे !
- नन्दलाल झा , ग्राम+पो॰-जगदीशपुर, मण्डल-भागलपुर
स्वामी रामानन्दजी दरियापंथी प्रथम मेरे परिवार में व्यवस्थापक (मैंनजर) का कार्य करते थे। पूज्यपाद महर्षिजी अपने आध्यात्मिक आवेग में सर्वप्रथम उन्हीं के शिष्य बने। मेरे गाँव एवं परिवार के अनेकों शिष्ट-सज्जन उनलोगों को प्रणाम करते थे, पर मेरी थोड़ी भी रुची उस ओर नहीं जाती थी। बत्तीसों वर्ष उनके सम्पर्क और सत्संग को देखते हुए बीत गए, पर मेरे ऊपर कोई असर नहीं हुआ- तबतक महर्षिजी अपनी आध्यात्मिक यात्रा में बाबा देवी साहब का शिष्य बनकर सन्तमत के प्रसार में लग गये थे।
सम्भवतः १९४५ ईस्वी का समय था। मैं उस समय कटिहार में था। सुना, महर्षिजी मरे गाँव में पधारे हैं। नहीं प्रभावित होनेवाले मेरे वज्रकठोर हृदय में सहसा तूफानी आवेग आये और दो माइल भी कठिनाई से पैदल चलनेवाला मैं न जाने कैसे जीवन में पहली बार १२ मील पैदल चलकर जोतरामराय जा पहुँचा और उनके चरणों पर अपना शिर रख दिया। यह प्रणमन भी सर्वप्रथम ही था ।
चुम्बक का अज्ञात प्रभाव मुझमें संचित हो गया था, जिसने मुझे सत्संग में ला उपस्थित कर दिया। कुछ ही दिनों के बाद मैं अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग महासभा का प्रधानमन्त्री बनाया गया और आज भी वह उत्तरदायित्व मेरे ही ऊपर रखा हुआ है। यह है सन्तों का प्रच्छन्न आकर्षणकारी व्यक्तित्व ।
दूसरी कृपा ! मेरे हजारों बीघे जमीन पर बटेदारों ने सरकारी विधान के अनुसार सर्वे में अपना-अपना नाम दर्ज करा लिया। मैंने गुरुदेव से पत्र द्वारा प्रार्थना की और समय आने पर सभी ने सद्भाव से सभी जमीन मुझे वापस कर दी। ऐसे अपार दयालु गुरुदेव के हम सदा कृतज्ञ हैं ।
-लक्ष्मी प्रसाद चौधरी ‘विशारद’ , जोतरामराय (पुरैनियाँ)
पूर्वजन्म का संस्कार था, सम्भवतः इसी कारण जैसे ही मैंने महर्षि मेँहीँ परमहंसजी का नाम सुना, वैसे ही मेरे मन में उनके प्रति अजीब आकर्षण पैदा हुआ और उनसे मिलने की अभिलाषा से बराबर सन्तमत-सत्संग में सम्मिलित होने लगा। इस भाँति लगभग एक वर्ष सत्संग करते हो गए। अब दीक्षा प्राप्त करने के लिए मन विह्वल होने लगा। हमारे सौभाग्य से गाँव के समीप- परेल कोदराभित्ता के सत्संग-मन्दिर में पूज्यपाद महर्षिजी पधारे हुए थे। सुनते ही मैं दौड़ा हुआ-सा वहाँ गया । सत्संग के बाद दीक्षा देने की प्रार्थना की। उन्होंने मेरे शरीर को ऊपर से नीचे तक भली भाँति निहारा और दीक्षा पाने की स्वीकृति मिल गई। मेरी प्रसन्नता की सीमा न रही। दीक्षा पाने के उपरान्त दो वर्ष तक मुझे सिवाय ध्यानाभ्यास के और कुछ भी नहीं रुचता था- यह उनकी मेरे ऊपर अगाध कृपा ही थी।
मैंने अपनी थोड़ी-सी जमीन में ही सत्संग-मंदिर बना रखा था। उसी में मिट्टी खोदकर एक गुफा बनाकर मैं भजन करता था। एक रात्रि में एक सर्प मेरे बैठने के आसन को चारों ओर से घेरे बैठा था। मैं अन्धकार में जैसे ही जाकर बैठा कि साँप ने अत्यन्त जोरों से फुत्कार किया। उस भयावह आवाज को सुनकर मैं बाहर चला आया। वहाँ कुछ लोग जुट गए। उनलोगों ने साँप को मारने का विचार किया। मैंने उनलोगों से नहीं मारने के लिए विनय की, परन्तु लोगों ने नहीं मानी और सियाचरणजी ने उस सर्प को मार डाला । साँप मरने के बाद दो वर्ष तक मरे शरीर में रोग और कष्टों की बाढ़ आ गयी और सियाचरणजी के ऊपर तो दुख के पहाड़ ही टूट पड़े, जिसने उसका विनाश करके ही दम लिया । इन घटनाओं में हम सद्गुरु का भीतरी और पाँचों पापों को छोड देने का प्रत्यक्ष संकेत पाते रहे और तब से पंचपाप-त्याग का नियम अति दृढ़ता से धारण किया।
सन् १९५५ ईस्वी में सन्तमत-सत्संग के वार्षिक अधिवेशन में हम छपरा जा रहे थे। रास्ते में ट्रेन पर एक विद्वान प्रोफेसर से सत्संग-वार्ता हुई। उन्होंने बताया कि मेरे गुरु श्री देवरिया बाबा है। वे तो अनेकों प्रेमियों को मुँहमाँगा वरदान दे देते हैं । यह सुनकर मेरे मन में भी देवरिया बाबा से मिलने की इच्छा पैदा हो गई। सोचा, सत्संग-अधिवेशन समाप्त होने के बाद मिलूँगा। किन्तु अधिवेशन में महर्षिजी के प्रवचन में मैंने यह सुना कि लोग समझते हैं कि सन्तमत में कुछ है ही नहीं । जो सन्तमत की बात भली भाँति देखना-समझना चाहते हैं , उनको इसका पात्र बनना चाहिए। सद्गुरु की कृपा से मैं उनकी वाणी का प्रत्यक्ष अनुभव करता जा रहा था, फिर तो मैंने देवरिया बाबा की ओर भूलकर भी नहीं झाँका।
-श्री अघारी दासजी , सत्संग-मन्दिर, पनसलवा पत्रालय-डुमरी (मुंगेर)
मैं पूज्यपाद महर्षि जी को इस संक्रमणकालिक समय का ‘युग-पुरुष’ मानता हूँ क्योंकि मैं देखता हूँ कि विभिन्न जातियों, सम्प्रदायों, भाषा और प्रान्तभेदों से आक्रान्त भारतवासियों में इनका प्रवचन सुनने में समान रूप से ही आकर्षण होता है, सिवाय उनके जो मानव शरीर में रहते हुए भी वस्तुतः पशुओं की चेतनावाले हैं । यह देखकर मेरा विश्वास दिनोंदिन सुदृढ़ होता जाता है कि आज के डाह-द्वेष से भरे हुए विश्व में एक मात्र आध्यात्मिकता के द्वारा ही उस शान्ति की स्थापना हो सकती है, जिसके लिए आज सभी राष्ट्र हाहाकार कर रहे हैं।
मैं स्वयं ही एक नमूना हूँ कि कैसे मैं सन्तमत-सत्संग में आकर इनसे दीक्षा प्राप्त कर विषय-जाल के भयंकर उलझनों से क्रमशः छूटकर विमुक्त हो कल्याण-गगन में विहार करने की ओर बढ़ता जा रहा हूँ। भला मेरे जैसा मूर्ख-अज्ञानी को इस दिव्य ज्ञानालोक की क्या आशा थी?
मेरा मन घरेलू झंझटों को छोड़कर साधु का वेष धारण करना चाहता था, परन्तु महर्षिजी के उपदेश ने मुझे सांसारिक कर्तव्य-पालन और सदाचार का महत्व बतलाकर अकर्मण्य होने से बचा लिया । आज उनकी कृपा से पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों को करते हुए आध्यात्मिक साधना करने में कोई बाधा नहीं मालूम पड़ती, न कोई कष्ट है, न झंझट है। अत्यन्त प्रसन्नता से दिनोंदिन गुरु-निर्देशित पथ पर आगे बढ़ता जा रहा हूँ। मेरे जन्म-जन्मान्तर के पाप नष्ट होते जा रहे हैं - मैं इसका अनुभव कर रहा हूँ। इसीलिए हम मानव-मात्र से प्रार्थना करते हैं कि समाज, विश्व और आत्मा का एक साथ कल्याण करने के लिए हमें ऐसे युग-पुरुष का ही आश्रय लेना चाहिए। हम अपने सद्गुरु रूप महामहिम युग-पुरुष को इस धरती पर अवतरित होने के लिए धन्यवाद देते हैं और बारम्बार प्रणाम करते हैं ।
-सन्त-शरणाश्रित, मनचन मिरजानहाट (भागलपुर)
सन् १९५९ ईस्वी । टीकापट्टी में सत्संग के विशेषाधिवेशन की तैयारी हो रही थी। संयोग या सौभाग्य से मैं उसी अवसर पर टीकापट्टी प्रशिक्षण विद्यालय के आचार्य पद पर था। सत्संगीगण जिस विशाल घेरे में पण्डाल का निर्माण कर रहे थे, उसे देखकर मुझे इन लोगों के सीधेपन और अति भावुक श्रद्धा पर तरस आती। सोचता, भला आज के भौतिकवादी बाह्य वैभव-मद में उन्मद मानवों को नीरस और शुष्क अध्यात्म में कौन-सा आकर्षण होगा, जो ये लोग तीसों हजार लोगों के बैठने योग्य यह विशालकाय पण्डाल तैयार कर रहे हैं !
अधिवेशन के एक दिन प्रथम सन्ध्याकाल में दो-चार सौ बाहर से आए व्यक्तियों को देखकर मेरा पूर्व-विचार अधिकाधिक पुष्ट हो रहा था; किन्तु आश्चर्य ! कुछ रात होते-होते कई एक हजार लोगों को पण्डाल में अपना-अपना स्थान व्यवस्थित करते देखा और प्रातः देखा- पण्डाल मनुष्यों से खचाखच भरा हुआ था और इस संख्या में भी क्रमशः वृद्धि होती जा रही थी। महर्षि मेँहीँ परमहंसजी भी रात में ही पधारे थे। उन्हें देखकर विस्मय से मन-बुद्धि भर उठते कि भला इन गेरुए वस्त्रधारी वृद्ध शरीर में कौन-सा आकर्षण निवास करता है, जो इतने सारे लोग दूर-दूर से खींचकर यहाँ एकत्रित हो रहे हैं ?
प्रथम दिन के अधिवेशन में तीसों हजार व्यक्तियों को शान्त-निस्तब्ध होकर उनका प्रवचन सुनते देखकर इन आँखों को विश्वास नहीं हो रहा था ! दूसरे दिन जीर्णकाय महर्षिजी का प्रवचन सुनने के लिए श्रोताओं की संख्या दूनी से भी अधिक हो गयी और पण्डाल की सीमा में अँटाव नहीं होने के कारण इसके बाहरी घेरे को श्रोताओं ने स्वयं ही हटा दिया। इस अवसर पर प्रकाण्ड विद्वान श्री धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी, शास्त्री एवं बिहार सरकार के कल्याण विभाग के मंत्री श्री भोला शास्त्री भी पधारे। उस दिन महर्षिजी का विशेष अभिनन्दन किया गया। स्वागत-संगीत के उपरान्त अभिनन्दन पत्र सुनाकर उन्हें समर्पित किया गया। पता नहीं, देहात के इन भावुक सत्संगियों ने इस स्वागत-गान और अभिनन्दन-पत्र में कौन-सा माधुर्य भरकर दिया था, जिसकी प्रशंसा किए बिना उन गम्भीर महर्षिजी को भी नहीं रहा गया। जब उन्होंने स्वयं ही उनपर अच्छाई की मुहर लगा दी तो फिर कहना ही क्या रहा?
हमने जीवन में पहली बार उस दिन महसूस किया कि अवश्य ही ये विनाश की ओर ले जानेवाले भौतिकवादी युग में मानवता के उद्धारक के रूप में अवतरित हुए हैं। हम उस स्वागत-गान और अभिनन्दन पत्र के स्वर में ही अपना स्वर मिलाकर उन महामहिम महर्षिजी का अभिनन्दन और वन्दन करते हैं। स्थानाभाव से अभिनन्दन पत्र तो यहाँ नहीं दिया जा सकता, पर ‘स्वागत-संगीत’ में मानवता और अध्यात्म के सभी प्रेमीगण मेरे स्वर-में-स्वर मिलाकर महर्षिजी को केन्द्रीय लक्ष्य बना सभी सन्तों, ऋषियों का स्वागत इन स्वर-लहरियों से करेंगे--
“स्वागत बारम्बार, तुम्हारा स्वागत बारम्बार ।।
युग युग से प्यासा तन-मन है, आकुल पीड़ित जन-जीवन है।
विषय दंश से छटपट करता, रोता तेरे द्वार ॥ तुम्हारा स्वागत बारम्बार ॥
इस जगती में स्वार्थ भरा है, डाह-द्वेष से त्रस्त धरा है।
अणु, उद्जन बम से भय खाकर, आया शरण गुहार ॥ तुम्हारा स्वागत बारम्बार ।।
मन्दर-मन्थन-सा आकुल बन, प्राण-सिन्धु आन्दोलित क्षण-क्षण।
अमित काल से सुधा-आश ले, करता रहा पुकार ।। तुम्हारा स्वागत बारम्बार ॥
गुरु आदेश लिये निज मन में, करती हुई प्रतीक्षा वन में।
लेकर जूठे बेर प्रेम-पथ, अविरल रही निहार ॥ तुम्हारा स्वागत बारम्बार॥
विप्र सुदामा के लघु तण्डुल, झाँक रहे काँखों से घुल घुल।
उसे छीन कब खाओगे है, निर्मम ! करुण !! उदार !!! तुम्हारा स्वागत बारम्बार ॥
विदुर-प्रिया ले कर में पल-पल, कदलीफल के छिलके कोमल।
भूल रही है तन-आच्छादन, आओ जगदाधार! तुम्हारा स्वागत बारम्बार ॥
आओ भगवन्! गुरू रूप धर, सन्त, ब्रह्म-ऋषि, जिन, पैगम्बर।
बुद्ध, सेण्ट बनकर बरसाओ, दिव्य प्रेम-रस-धार ॥ तुम्हारा स्वागत बारम्बार ॥
देव, मनुज, पशु, खग, तरु, तृण गण, गिरि, सरिता, सागर, वन, उपवन।
लोक-लोक में लहरायित हो, परमानन्द अपार ॥ तुम्हारा स्वागत बारम्बार ।।
-श्री तपेश्वरी प्रसाद चौधरी, एम॰ ए॰
वरीय प्रशिक्षण विद्यालय, टीकापट्टी (पुरैनियाँ)
बचपन के संस्कार ने मुझसे अनायास फकीरों की सोहबत कराया। अनेक साधु-फकीरों के दर्शन हुए एवं उनसे सत्संग हुआ। एक बार चम्पानगरवासी तेतरदासजी ने मुझे महर्षि मेँहीँ परमहंसजी से साक्षात्कार कराया। मैं चुपचाप सत्संग में बैठा था । अन्तरदर्शी मुर्शिद ने उसी समय गाया-
‘नकली मन्दिर मसजिदों में, जाय सद अफसोस है।
कुदरती मसजिद का साकिन, दुख उठाने के लिये ॥’
इस शब्द-वाण ने मेरे हृदय को बेध दिया और मैंने उसी समय पूछ दिया- ‘हुजूर! कुदरती मसजिद में कैसे नमाज पढ़ा जाता है? वह मुझे बता दीजिए।’
उस समय मैं तसबी (माला) फेरता था और वह मेरे साथ ही था। उन्होंने मुझे एकान्त में बुलाकर समझाया कि जिक्र और फिक्र दोनों करो यानी बाह्य- वर्णात्मक नाम जप और अन्तर-साधन दोनों करो। ऐसा कहकर उन्होंने मुझे कुदरती मसजिद में नमाज पढ़ने की युक्ति बता दी। मैंने उस तरीके से नमाज पढ़ा तो जैसा कि उन्होंने बताया था, वैसा सबूत मुझे मिल गया। अब मुझे धर्म और मजहब के नाम पर झगड़ा करनेवाले को देखकर हँसी और दया, दोनों आती है।
-मुहम्मद खलील रहमान उर्फ खलील साहब
ग्राम+पो॰-चम्पानगर, मुहल्ला-बागबाड़ी (भागलपुर)
गंगा-स्नान की एक घटना मुझे स्मरण होती रहती है, जिसे व्यक्त करते हुए मेरा हृदय काँपता है। मेरी लेखनी में वह ओज नहीं, जो यह व्यक्त कर सके कि सन्तों की अहैतुकी कृपा किस समय, किस पर तथा किस भाँति होती है ?
सन् १९४८ ईस्वी के पुण्यमास कार्तिक में महर्षिजी महाराज ने सत्संग-मन्दिर मनिहारी में निवास करते हुए गंगा-स्नान किया था । मुझे यह आज्ञा प्रदान करने की कृपा की थी कि मैं उन्हें तीन बजे रात्रि में जाकर जगाया करूँ। एलार्म- टनटनानेवाली घड़ी को सिरहाने रखकर मैं उसकी टनटनाहट से जगकर महर्षिजी को तीन बजे नित्यप्रति जगाने जाता। ज्योंही मैं उनकी पावन कुटी के बरामदे पर पहुँचता, त्योंही वे मुझे सम्बोधन करते - ‘कौन, महावीरजी?’
मैं—’जी हाँ !’ कहकर चुप हो जाता।
पुनः वे कहते- ‘अच्छा, आप जाकर ध्यानाभ्यास कीजिए।’ मैं आकर सत्संग-मन्दिर में ध्यानाभ्यास करने लगता और वे त्रिपथगा में स्नान करने चले जाते । यह क्रम अविकल रूप में कार्तिक महीने भर जारी रहा। नित्य प्रति उपयुक्त समय पर मैं जब भी उन्हें जगाने गया, वे बराबर जगे हुए ही मिले और मुझे जाकर ध्यानाभ्यास करने का आदेश देते रहे। मुझे आश्चर्य होता कि वे कब सोते हैं और कब जगकर भजन करने लगते हैं ?
क्रम चलता रहा। कुछ दिनों के बाद मेरी अन्तरात्मा बोल उठी– ‘अरे ! तू किसे जगाने जाते हो? भला ! जिन्होंने मोह-निशा में सोये अखिल विश्व को जगाने के लिए ही मनुष्य-शरीर धारण किया है, उसे तुम जैसा अज्ञानान्धकार से आच्छादित प्राणी जगावे- यह कब सम्भव है ?’ अन्त में मैंने समझा कि- निज परिताप द्रवइ नवनीता । पर दुख द्रवहिं सन्त सुपुनीता ॥
करुणामय महर्षिजी ने इसी को पूर्ण रूप से चरितार्थ करने, मुझ जैसे भाग्यहीन के भाग्य को समुज्ज्वल करने– मेरी सुषुप्त आध्यात्मिक शक्ति को जाग्रत करने–ब्राह्ममुहूर्त में ध्यानाभ्यास कर अज्ञानान्धकार से मुझे मुक्त करने और ज्ञान का प्रकाश प्रदान करने के लिए ही यह गंगा-स्नान की पुनीत लीला की थी। मैं निःसंकोच भाव से कहूँगा- ‘श्री महर्षिजी महाराज का यह गंगा नहाना नहीं , बल्कि बहाना था ।’
ठीक इसी भाँति दूसरी बार सन् १९५३ ईस्वी में वैकुण्ठपुर दियारा के कार्तिक-गंगा-स्नान को भी जानना चाहिए ! वैकुण्ठपुर में श्री महर्षिजी महाराज लोक दृष्टि से तो गंगा-स्नान करते थे, परन्तु मेरी दृष्टि से वे अध्यात्म-गंगा की प्रखर धारा की अवतारणा करते थे, जिसमें निकट और दूर-दूर के धर्म-प्रेमीगण, धनी-निर्धन, विद्वान। अविद्वान, ऊँच-नीच सभी वर्गों के वैदिक, धर्मावलम्बी तथा मुसलमानादि सभी सम्प्रदायों के लोग अवगाहन कर अपने-अपने अज्ञान-मल का प्रक्षालन करते थे। यहाँ त्रिवेणी संगम था।
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग-जंगम तीरथराजू ॥
अकथ अलौकिक तीरथ राऊ । देई सद्यफल प्रगट प्रभाऊ ॥
मज्जन फल देखिये तत्काला। काक होहिं पिक बकउ मराला ॥
प्रत्यक्ष में सुरसरिता प्रवाहित हो रही थी। दूसरी सन्त-संग-पूर्ण सत्संग की कल्याणकारिणी धारा यमुना लहरा रही थी और तीसरी अन्तरस्थ ज्ञान-प्रवाहिनी मन्दाकिनी उर्म्मिता हो रही थी। तीनों धाराओं-त्रिपथगा का अभूतपूर्व संगम यहाँ उपस्थित हो गया और मैं उसमें अवगाहन कर निहाल हो रहा था और न जाने कितने निहाल हो रहे थे- उसका क्या पता ?
- महावीर ‘सन्तसेवी’ ,सन्तमत-सत्संग मंदिर, मनिहारी (पुरैनियाँ)
जिसके जीवन का सार-सर्वस्व ही वासनात्मक सुख है, जिसके सोचने-विचारने, पढ़ने-लिखने, पुण्य कर्म करने, प्रत्येक गति विधि में- सब क्रियाओं में एकमात्र भोग-सुख ही प्रच्छन्न है, जिसने भगवान की भक्ति भी मोक्ष-कामना-परित्यागपूर्वक विषय-सुख-प्राप्ति के उद्देश्य से ही की; ऐसे महापतित मानव के अन्तर में भी अपनी करुणा की गोप्य वृष्टि कर उसे उद्धारने का प्रयत्न करना कैसी महान और अप्रतिम उदारता है ! हम ‘कृपासिन्धु नर रूप हरि’, जो हमारे एकमात्र माता-पिता, गुरु और प्रभु हैं - उन महामहिमान्वित महर्षिजी में, इसे ही प्रत्यक्ष कर रहे हैं ।
नम्रता की पराकाष्ठा -- दीक्षा देने के बाद वे बोले- ‘आज से तुम्हारा हमारा गुरु-शिष्य का सम्बन्ध हुआ । अब हमारा कर्तव्य है तुम्हारा सुधार करना और तुम्हारा कर्तव्य है मेरा सुधार करना ।’
एक महान सद्गुरु अपने शिष्य से अपने सुधार की याचना करे, क्या इससे बढ़कर भी कोई नम्रता और विनय है या हो सकती है?
भावनात्मक एवं विचारात्मक अध्यात्म -- मैं सोचता था कि सृष्टि की दृश्य-अदृश्य सारी वस्तुओं को जिस बुद्धि से आकलन किया जाता है, उस बुद्धि को देखनेवाला जो मैं या मेरा अहं है, वह अवश्य ही आत्मा है; अतः इस भाँति तो आत्मा का ज्ञान मुझमें अवश्य है। स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ एवं स्वामी शिवानन्द की वाणियों को पढ़कर यह विश्वास जम गया था कि यदि मैं बारंबार ‘अहं ब्रह्मास्मि’ या मैं ही ब्रह्म हूँ का संकल्प बराबर करता रहूँगा, तो एक दिन इस भावनात्मक अभ्यास के द्वारा अवश्य ही ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लूँगा।
एक दिन अपनी इस भावना और विचार को और भी सुदृढ़ एवं सुपुष्ट बनाने के लिए श्री पादपद्म में जिज्ञासा उपस्थित की गयी- ‘बुद्धि को जिसके द्वारा हम देखते या जानते हैं , वह तो अवश्य ही आत्मा है ?’
इसका अप्रत्याशित उत्तर मुझे मिला- ‘बुद्धि के एक कोने (हिस्से) से ही बुद्धि को देखा जाता है।’ ‘जब विचार और भाव निस्पन्द और स्थिर होकर अपने केन्द्र में स्थित होते हैं , तब तुरीय दशा में प्रवेश होता है और फिर तुरीय में कितनी दूर तक चलना पड़ता है, तब कहीं जाकर तुरीयातीत दशा में आत्मा के दर्शन-ज्ञान होते हैं ।’
दिव्यता के अवतरण हो सकते हैं ! -- पुनः प्रश्न उपस्थित किया गया- ‘क्या शरीर, प्राण और मन को दिव्य बनाया जा सकता है?’
प्रश्न के समय बहुत-से श्रोता उपस्थित थे। उस समय बिना कोई उत्तर दिए वे आसन पर से उठकर बाहर चले गए। सभी श्रोतागण भी उनके चले जाने पर चले गए। मैं अपने सहयोगी के साथ उसी स्थान पर चुपचाप बैठा रहा। सभी के चले जाने के बाद वे आये और अपनी वाणी में जैसे सम्पूर्ण बल उड़ेलते हुए बोले- ‘अवश्य, शरीर को दिव्य बनाया जा सकता है, प्राण को दिव्य बनाया जा सकता है और मन को भी दिव्य बनाया जा सकता है।’
विनय की प्रतिमा -- एक बार वे मनिहारी से कटिहार जा रहे थे। मनिहारी स्टेशन पर गाड़ी की प्रतीक्षा में बैठे थे। उसी समय एक तेजस्वी वृद्ध सज्जन लाल वस्त्रों को धारण किए हुए आए और आपसे पूछा- ‘क्या आप ही सन्त मेँहीँ दास हैं?’
महर्षिजी ने उत्तर में कहा– ‘मैं सन्त तो नहीं; हाँ, सन्तों का सेवक बनने के योग्य होने के लिए प्रयत्न कर रहा हूँ।’
संस्मरणीय स्मृतियाँ -- अधिकतर यही हुआ है कि बुद्धिशीलता और सुपात्रता को देखकर ही उसमें ब्रह्मज्ञान के अमृत-बीज डाले जाते रहे हैं ; परन्तु स्वयं ही धरती खोदकर उसमें से निकले बहुविध मलपूरित लौहचूर्ण को निकालकर उसे परिशुद्ध कर लौह में परिणत करना और पुनः उसे आलोकधातु-स्वर्ण बना देना-ऐसा बहुत ही कम सन्त-महर्षियों ने किया है। भगवान बुद्ध के समय सहस्रावधि संख्या आत्मज्ञानियों की हो गयी थी, पर वहाँ भी उर्वर भूमि में ही बीज डालने की वृत्ति पूर्ववत् रही है और आज खानों से निकालकर गन्दे और विमिश्रित धातुओं को स्वर्ण-प्रभा में अभिरूपित किया जा रहा है।
वैदिक काल से आजतक सहस्रों महर्षियों ने आविर्भूत होकर इस अन्धकारमयी धरणी पर दिव्याकाश से आलोक-पुष्पों की वृष्टि की, किन्तु इन सभी ऋषियों वा सन्तों का एक ही मत वा सिद्धान्त है- इसे तो महर्षि मेँहीँ परमहंसजी ने ही गूँथकर मानवता के गले का हार बना दिया।
पूछ गया था -- ‘क्या जानते हो कि तेली जाति का छूआ हुआ जल ग्रहण करना क्यों वर्जित किया गया?’
श्रोता ने सुना-सुनाया धुंधला-सा उत्तर दिया- ‘सुनते हैं कि वे कोल्हू में बैल जोतते हैं -इसीलिए।’ इसपर पूज्यपाद महर्षिजी ने जो बताया था, वह अविकल शब्दरूप में तो याद नहीं है, पर उसका अर्थ यह था। बौद्धधर्म के प्रचार में तेली जाति ने पूरी आर्थिक सहायता दी थी- यहाँ तक कि नालन्दा विश्वविद्यालय का सम्पूर्ण खर्च ये ही लोग वहन करते थे। इस जाति को बुद्ध भगवान के उदार मानवोचित धर्म से हार्दिक प्रम था। जब हिन्दू धर्मी कहलानेवाले लोगों का प्राबल्य और शासनाधिकार हुआ, तो उन लोगों ने एक-एक बौद्ध भिक्षु का शिर काट लानेवाले को पाँच सौ अशर्फी (स्वर्ण-सिक्के) पुरस्कार देने की अवघोषणा की और बौद्धधर्म को भारत से उखाड़ फेंकने के लिए किसी कर्म-दुष्कर्म की परवाह नहीं की। शायद मुस्लिम धर्म-प्रचारकों ने भी इतना जुल्म मूर्ति-पूजकों पर नहीं किया होगा। इतने अत्याचारों के बावजूद भी तेली जाति ने बौद्ध धर्म के संरक्षण के लिए सर्वस्व-त्याग किया । इसी कारण जन्मना उच्चवर्ण की पद्धति को जीवित रखने की इच्छा करनेवालों ने इस जाति के प्रति घृणा फैलाने के लिए भाँति-भाँति के अपप्रचार कर उन्हें अस्पृश्य शूद्र बना दिया और ...।’
किसी ने प्रश्न किया- ‘अध्यात्म के निगूढ़तम गम्भीर तत्त्वों का इन अपढ़ मूर्खों के समक्ष कथन करना या उपदेश करना तो व्यर्थ ही है न ?’
महर्षिजी ने उत्तर दिया- ‘कोई बात सुनते-सुनते ही तो समझ में आने लगती है। यदि इन लोगों को नहीं समझाया-बुझाया जाय, तो फिर ये कैसे और कब इन बातों को समझ सकेंगे?’
आज निखट देहात के हजारों अपढ़ मूर्खों ने वेदान्त का निगूढ़तम रहस्य कितनी दूर तक समझ पाया है- इसे वार्तानुशीलन कर भली भाँति जाना जा सकता है।
- तदात्मज
ॐ