श्री सद्गुरवे नमः

महर्षि मेँहीँ परमहंसजी

महाराज का जीवन-वृत्त

01. जीवन-वृत्त

क्रमविषय 
01कल्याण-भूमि भारत
02वंश-परिचय और अवतरण
03शैशव काल
04अज्ञात पथ की ओर
05साकेत-पथ में गुरुदेव
06वात्सल्य-धारा में अविचल चट्टान
07सन्त दरिया साहब की कुटी की ओर
08सुरत-शब्द-योग की खोज में
09प्रत्यागमन में आकुल अन्वेषणा
10मित्र द्वय
11छत्तीसगढ़ की दिशा में
12बल्ली बाबा के दर्शन
13जिज्ञासाकुल हृदय
14सन्तमत का अज्ञात आकर्षण
15सन्तमत के महाद्वार में प्रवेश
16पुराने गुरु के भाव बदल गए
17सद्गुरु के सर्वप्रथम दर्शन
18परकाय-प्रविष्ट योगी से भेंट
19पूर्णियाँ जिला सन्तमत-सत्संग का प्रथम अधिवेशन
20गुरु-आदेश से संन्यासी घर आए
21सद्गुरु की सेवा में 
22स्वावलम्बन और सद्गुरु
23स्वावलम्बन की तपस्या
24सत्संग-गढ़ का निर्माण
25ईसाई का बैपटिज्मा
26बाबा साहब का चरणामृत
27गोरखपुर और छपरा में 
28सत्संग-गढ़ की विविध कहानी
29सन्तमत-सत्संग की नियमावली
30सद्गुरु का महाप्रयाण
31सन्त-परम्परा के दर्शन
32आदर्श सत्संगाधिवेशन
33गंभीर साधना-कूप
34सत्संग-भ्रमण-मण्डली
35सत्संग-भ्रमण-मंडली की पुनर्यात्रा 
36रामायणाचार्य एवं भूतनाथ से वार्तालाप
37मित्रद्वय का चिर-वियोग
38ध्यानाभ्यासी मण्डली
39रामचरितमानस-सार सटीक तथा भारतव्यापी प्रचार
40धरहरा का सत्संग-मन्दिर
41सामूहिक ध्यानयोग की गंभीरता और महर्षि शिवव्रतलाल
42मुरादाबाद, स्वामीबाग एवं दयालबाग में
43आध्यात्मिक केन्द्रों के परिचय
44कुप्पाघाट की एकान्त गुफा में
45गुप्त शान्ति-केन्द्र और सन्तमत का सही निरूपण
46मनिहारी एवं विसहा में मासकालीन सत्संग
47अधिवेशनों में दिव्य निर्देश
48साहित्य में सन्तमत की चिरन्तन प्रतिष्ठा
49वार्षिक और विशेषाधिवेशन के पुनीत वचन 
50वार्षिक एवं विशेषाधिवेशन के विशेष प्रवचन 
51महर्षि मेँहीँ परमहंस की जयन्ती का प्रस्ताव 
52मानव की चिरन्तन स्वतंत्रता का सन्देश
53महात्मा गांधीजी के निधन पर शोक और सत्संग का अखिल भारतीय प्रसार
54आर्यसमाजी विद्वानों से वार्तालाप
55अखिल भारतीय सत्संगाधिवेशन
56केंद्र और एकविंदुता
57प्रवचन के प्रच्छन्न आलोक 
58सदाचार की अनिवार्यता
59सत्संग कराते हुए विक्रमशिला के खण्डहर में
60साहित्य-सम्मेलन को मंगल-निर्देश
61गीता-विषय पर आचार्य विनोबाजी से पत्राचार और एकान्त वार्ता
62ग्रीष्म के प्रचण्ड ताप में

ॐ श्री सद्गुरवे नमः

01.

कल्याण-भूमि भारत

इस विश्व के बाह्य विकास में पशु-वृत्ति से ऊपर उठकर मानव जाति की उद्भूति हुई, पर उसमें पंचेन्द्रिय विषय-भोग की लालसा पशुओं से भी अधिक उद्दाम और मर्यादाविहीन थी। मन-बुद्धि का विकास विषय-संयमन की अपेक्षा उसके विविध उपभोग और उपयोग की ओर ही उन्मुख और संलग्न था। पर, भारत-भूमि उस समय भी केवल बाह्य विकास के स्वाभाविक प्रभाव से मुक्त, अन्तरात्मिक कल्याण के तत्त्वों से मानव-जीवन को उत्प्राणित, संजीवित एवं संचालित कर रही थी। पावन अध्यात्म के दिव्यालोक से यहाँ का विचार, भाव एवं कर्म उज्ज्वलित होकर धर्म की पवित्र आभा प्रसारित कर रहा था। यहाँ का प्रत्येक क्रिया-कलाप धर्म से आप्लावित था। यहाँ के दर्शन, विज्ञान, कला, साहित्य, शासन एवं समाज-व्यवस्था, सभी में ऋषियों-आत्मद्रष्टाओं का निर्देश उपस्थित था। भारत की यह सांस्कृतिक परम्परा, सृष्टि के आदिकाल से अव्याहत रूप में प्रवाहित होती चली आई है। जब कभी इसमें दोष उत्पन्न हुए, भौतिक प्रकृति के वासनात्मक, राग-द्वेषात्मक आघात-प्रतिघातों से इसमें विकृति - आई, तभी कोई-न-कोई अवतार यहाँ हुआ । और उन दुष्ट-कलुषों का विनाश एवं सत्य और धर्म की रक्षा कर आध्यात्मिक संस्कृति की सर्वकल्याणमयी परम्परा की अविच्छिन्नता को संरक्षित कर उसे प्रगति प्रदान करता रहा। यह अवतार भगवान्, ऋषि, सन्त, बुद्ध, जिन, आदि अनेक नामों से समय और भाषा के प्रवाह और स्वरूप में अभिव्यक्त हुए। भगवान राम, पुरुषोत्तम कृष्ण, जिन महावीर, भगवान बुद्ध, आचार्य शंकर, चैतन्य महाप्रभु, स्वामी रामानन्द, सन्त कबीर, गुरु नानक, भक्त सूरदास, गोस्वामी तुलसीदास, सन्त तुकाराम, समर्थ स्वामी रामदास, सन्त रविदास, तुलसी साहब, बाबा देवी साहब, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ आदि सभी इस सांस्कृतिक श्रृंखला को अविच्छिन्न बनाये रखनेवाले चैतन्य-केन्द्र-अवतार एवं परमात्मा की विभूतियाँ हैं। महात्मा गाँधी ने राजनैतिक चेतना की आग प्रचण्ड कर देश को स्वतंत्र बनाया। महर्षि रमण एवं योगी अरविन्द ने देश भर में आध्यात्मिक आलोक का प्रसार किया। महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज आध्यात्मिक शांति की सुदृढ़ प्रतिष्ठा कर भारत और उसके साथ सारे जगत का कल्याण करने में संलग्न हैं। आज सारा संसार शान्ति के लिए व्याकुल है, जिसे राजनैतिक और सामाजिक बाह्य व्यवस्था नहीं, केवल आध्यात्मिक शक्ति की आन्तर प्रेरणा ही प्रदान करने में एकमात्र समर्थ है।

02.

वंश-परिचय और अवतरण

पूर्णियाँ जिले के काझी गाँव में एक सभ्य, सुशिक्षित, शिष्ट एवं भगवद्भक्तिपरायण मैथिल कर्ण कायस्थ अनेक वर्षों से निवास करते आ रहे थे। ये ही महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के सौभाग्यशाली पूर्वज थे।
फसली सन् १२९२ साल (सन् १८८५ ईस्वी ) को भगवत्प्रेरणावश आपके पूर्वज वहाँ का निवास छोड़कर एक कोस पश्चिम सिकलीगढ़ धरहरा में आकर बस गए। आपके पितामह श्री नसीबलाल दास एक प्रतिष्ठित व्यक्ति एवं पूर्णियाँ मंडलान्तर्गत बनैली राज्य के सुयोग्य कर्मचारी में से एक थे। आपके पूज्य पिता श्री बबूजनलाल दासजी भी उक्त राज्य के सुयोग्य कर्मचारी बने और अपने पिता के स्थान पर बहुत दिनों तक काम करते रहे। राज्य के कर्मचारी होते हुए भी इनके यहाँ पुश्तैनी खेती का काम होता चला आ रहा था।
ये (महर्षिजी के पिता) शाक्त थे, योगीश्वर शिवजी के परम भक्त और साथ ही कालिका माता के अनन्य उपासक भी। इनके कुलगुरु एक तान्त्रिक पंडित थे। काली और शिव-पूजन के साथ ये नियमित रूप से व्रत-उपवास भी किया करते थे। लौह-कील का शिवलिंग बनाकर उसकी विधिवत पूजा करके तब कालिका माता का ध्यान करते। फिर रामायण और गीता का अतीव श्रद्धा, प्रेम और भक्ति से पाठ करते। रामायण पाठ करते हुए इनकी आँखों से अविरल आँसू की धारा बहती रहती, फिर बिना अर्थ समझे ही अत्यन्त प्रेम से गीता का पाठ करके अपनी उपासना समाप्त कर देते। उस समय विदेशी शासन के नृशंस दमन से भारत की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, नैतिक, सामाजिक, साहित्यिक, राजनैतिक एवं आर्थिक विकास की धारा, अवरुद्ध ही नहीं, वरन् उलटी बहाने की कुचेष्टा से आक्रान्त थी; ऐसे समय यहाँ पुरुषोत्तम की अनेक विभूतियों का अवतरण होना आवश्यक हो गया। दर्दान्त तमिस्रा में प्रकाश का उदय कराना, अवश्य ही शक्तिशालिता का काम है, पर जहाँ मानव की मन-बुद्धि की भी पहुँच नहीं, उस क्षेत्र को आलोकित करना प्रकाश में लाना कठिन ही नहीं, दुरूहतम कार्य है। सभी क्षेत्रों में प्रकाश लाने के लिए केन्द्रों की अवतारणा हुई, यहाँ तक कि बौद्धिक अध्यात्मवाद के लिए भी अरुणोदय की संभावना बनी, पर विशुद्ध अनुभवात्मक अध्यात्म का क्षेत्र अभी खाली ही पड़ा था। जन साधारण ही नहीं, विद्वानों तक को भी परमात्मा के वास्तविक स्वरूप एवं उसे जीवन में उपलब्ध करने की सही विधियों का पता नहीं था। सभी नाम-रूप, अन्ततः सच्चिदानन्द की ही दिव्य गुणात्मक सीमाओं में आबद्ध थे। इसीलिए एक ऐसे अवतार की आवश्यकता थी, जो सच्चिदानन्द के पार का सही पता दे सके।
जिस प्रकार बुद्ध भगवान के अवतरण के पहले अध्यात्म और शिक्षा पर द्विजों का ही एकमात्र आधिपत्य था। यज्ञ, जो विश्व-कल्याण का प्रतीक था, वह वैयक्तिक स्वार्थ-पूर्ति का साधन बन रहा था। जीव-हिंसा यज्ञ का आवश्यक अंग बन गई थी। बुद्ध आए और मानव-जाति को विश्वस्त कल्याण का चिरन्तन मार्ग मिला। उसी भाँति जब आध्यात्मिकता केवल साधु और ब्राह्मण की ही एकमात्र सम्पत्ति बन रही थी और आश्चर्य कि वह अध्यात्म भी नकली ही था, तब सच्चे अध्यात्म को मानव जाति के बीच निष्पक्ष भाव से उपस्थित करना, उसके सर्वांगीण कल्याण और विकास के लिए अनिवार्य और अवश्यम्भावी था। बुद्ध भगवान के महानिर्वाण के चौबीस सौ वर्ष के बाद उनकी अवतरण-तिथि के एक दिन पूर्व ही वैशाख शुक्ल चतुर्दशी की सारी शिवत्वमयी उज्ज्वलता के गंभीर मौन में एक अद्भुत-प्रच्छन्न शक्ति का आविर्भाव हुआ, विक्रमीसंवत् १९४२, सन् १८८५ ईस्वी तथा फसली सन् १२९२ साल में । आविर्भूति की सौभाग्यशालिनी भूमि सिकलीगढ़ धरहरा नहीं, वरन् खोखसीश्याम नामक ग्राम था, जो सहरसा मंडलान्तर्गत (अब मधेपुरा) उदाकिशनगंज थाने में है। 

03.

शैशव काल

पुत्ररत्न प्राप्त कर पिता का वात्सल्य उमड़ पड़ा। मूक मंगलध्वनि की माधुरी सारे घर को आप्लावित कर रही थी। पंडित बुलाए गए, जन्म-संस्कार संपन्न कर शंख द्वारा प्रणव ध्वनि निनादित की गई। पुनः नामकरण संस्कार हुआ। ज्योतिष राशि के अनुसार नाम रखा गया ‘श्री रामानुग्रह लाल’। विद्यालय में भी इनका यही नाम रखा गया। पर आपके पिताजी के पवित्रमना चाचाजी ने इनका नाम रखा–‘बाबाजी मेँहीँ लाल’ और यही नाम आपके सद्गुरुदेव बाबा देवी साहब ने आपकी सूक्ष्म बुद्धि देखकर स्वभावतः उद्घोषित कर दिया था।
जब आप बाबा साहब के विशेष सम्पर्क में आए तो एक दिन मुग्ध भाव से आपकी बौद्धिक सूक्ष्मता देखकर वे कहने लगे- ‘इसकी बुद्धि बड़ी मेँहीँ है। अतः इसका मेँहीँ नाम ही सर्वोपयुक्त है’ और आप ‘महर्षि मेँहीँ नाम’ से लोक-प्रसिद्ध हुए।
जब ये चार वर्ष के हुए, तभी भगवदिच्छा से इनकी वात्सल्यमयी माताजी का देहावसान हो गया, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार शंकराचार्य (के जीवन में उपस्थित) ‘मातृ-स्नेह-बंधन’ से मुक्त हो गए थे या कर दिए गए थे। इनके साथ इनकी बहन भी सदा के लिए मातृ-स्नेह से वंचिता हो गई।
पिता नारिकेल फल की भाँति कठोर स्वभाव के थे, अतः इनके पूज्य चचेरे चाचाजी ने आपका पालन-पोषण इतने वात्सल्य-मधुर भाव से किया कि माता के लाड़-प्यार के अभाव की अनुभूति का अवसर ही नहीं आने दिया। अत्यधिक प्यार मिलने से आप माता की भाँति ही इन्हें तंग करते रहते, पर तंग करने पर चाचा के तरल हृदय में और भी वात्सल्य का सागर उमड़ने लगता।
पाँच वर्ष की अवस्था में कुल-पुरोहित द्वारा आपका विधिवत मुंडन संस्कार संपन्न कर माँ सरस्वती की मंगलमयी प्रार्थना संस्कृत के श्लोकों में लिखवाने के उपरान्त इनके विद्यारम्भ संस्कार का प्रारंभ हुआ। ग्राम्य पाठशाला के एक शिक्षक की निगरानी में आपको लिखना-पढ़ना सिखाने की व्यवस्था की गई, जहाँ उस समय कैथी वर्णमाला में ही है शिक्षा दी जाती थी। आप कैथी वर्णमाला सीखने लगे, पर घर में जब पूज्य पिताजी को नागरी लिपि में रामायण पाठ करते और अश्रु धारा बहाते हुए देखते, तो आपके हृदय में नागरी लिपि सीखकर रामायण पढ़ने की उत्कंठा क्रमशः बढ़ती ही चली जाती। आपकी बालसुलभ जिज्ञासा इसके लिए तीव्र होती जाती कि रामायण में ऐसी कौन सी बातें है, जिन्हें पढ़ने से पिताजी की आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगती है? फलस्वरूप आप पिताजी की अनुपस्थिति में चुपचाप सन्दूक से रामायण निकालकर, नागरी लिपि से अनभिज्ञ रहने पर भी येनकेन प्रकारेण पढ़ने का प्रयत्न करने लगे। आपकी प्रकाशमयी प्रतिभा ने कैथी अक्षरों की समता के सहारे नागरी लिपि को भली भाँति पहचान लिया और रामायण पढ़ने में सफल होकर आन्तरिक तृप्ति और प्रसन्नता की अनुभूति की।
अज्ञात प्रेमाकर्षण ने आपको भी रामायण-पाठ करने में अभिप्रेरित किया और आपने सर्वप्रथम किष्किन्धा काण्ड से अपना नित्य पाठ प्रारम्भ किया। कुछ ही दिनों में रामायण की अनेक चौपाइयाँ, दोहे और छन्द आपको कण्ठस्थ हो गए और अब आप प्रात:काल अपने कण्ठस्थ रामायण का पाठ करके ही लेखन-पाठन का कार्य आरम्भ करते। इस भाँति दिन-प्रतिदिन रामायण पाठ के प्रति आपकी अभिरुचि और प्रेम बढ़ते ही गए। ग्यारह वर्ष की अवस्था में आप पूर्णियाँ जिला स्कूल के पुराने अष्टम वर्ग (वर्तमान चतुर्थ वर्ग) में प्रविष्ट कराए गए। यहाँ आकर आप नागरी लिपि के पूर्ण ज्ञाता हो गए और रामायण-पाठ का प्रेम भी तीव्रतर हो चला। विद्यालय में फुटबाल का खेल हुआ करता। स्वभावतया आप उस खेल में सम्मिलित होने लगे और अपनी दिव्य प्रतिभा के कारण इसमें भी शीघ्र ही दक्षता प्राप्त कर ली। सभी ने आपके खेल-नैपुण्य से मुग्ध हो आपको दलनायक बना दिया, पर क्रमशः इस खेल से आपका मन उचटने लगा, क्योंकि इसमें लगे रहने से आपके रामायण-पठन और अध्ययन में समय का अभाव हो जाया करता। जब आपके साथीगण आपसे खेलने का आग्रह करने लगते तो आप उस प्रेमानुरोध को रामायण-पाठ की विघ्न-बाधा के रूप में देखते। इस भाँति एकान्त अध्ययन की ओर आपकी अभिरुचि बढ़ने लगी और रामायण के बाद सुखसागर, महाभारत आदि धार्मिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन में आप रत रहने लगे।
पूर्णियाँ में आपके पिता के एक वयोवृद्ध मित्र, जो आपके दादा के समवयस्क थे, श्री जगमोहन तिवारीजी मुख्तार साहब के मकान पर रहा करते थे। इनके और मुख्तार साहब के वात्सल्यमय प्रेम ने पूर्णियाँ को भी पिता और वात्सल्यहृदयी चाचा का घर ही बना दिया था। आदरणीय मुख्तार साहब तो अपनी सन्तान से भी बढ़कर आपको प्यार करते थे। उन्होंने आपके एकान्त अध्ययन के लिए अपने घर में एक खास कमरा दे दिया था, जहाँ आपका धार्मिक एवं आध्यात्मिक ग्रन्थों का अध्ययन और अनुशीलन क्रमशः वृद्धिगत हो रहा था। इन ग्रन्थों में आपकी अत्यधिक तल्लीनता देख कर आपके अभिभावकगण को आपमें संन्यासी होने की सम्भावना दिखायी पड़ने लगी। फिर तो उनलोगों का हृदय भयभीत और आशंकित हो उठा और वे लोग मनोवैज्ञानिक ढंग से ऐसा प्रयत्न करने लगे कि आपकी रुचि इस ओर से हट जाय। परम आदरणीय वयोवृद्ध मुख्तार साहब आपसे अवसर पाकर कहा करते- देखो, प्रातः उठकर महावीरजी का नाम लेना बहुत बड़ा अपशकुन है। ऐसा करने से बिना कारण ही दिन भर झंझटों में फँसा रहना पड़ता है। पर, इन बातों को सुनने से आपका आन्तरिक प्रेम प्रचण्ड अग्नि में दहकते हुए सोने की भाँति और भी अधिकाधिक दमकने लगता। इनका तल्लीन अध्ययन एवं मूक-अज्ञात साधना अविरल, अविरत जारी रही और क्रमशः सुदृढ़ एवं सुपुष्ट होती चली गयी।
जब आप एन्ट्रेस के चतुर्थ वर्ग (वर्तमान अष्टम वर्ग) के विद्यार्थी बने, तो अभिभावकों ने आवश्यक समझकर आपको तान्त्रिक कुलगुरु से दीक्षित करा दिया। पूज्य कुलगुरुदेव तान्त्रिक और शाक्त थे, फिर भी आपके संस्कार की सात्त्विकी दीप्ति से प्रभावित होकर उन्होंने जीव-हिंसा एवं आखेट करने की आप पर रोक लगा दी। कुलगुरु में आपके भावी सद्गुरु की गुप्त और अव्यक्त प्रेरणा मूक भाव से अपना काम कर रही थी।
मांस-मछली-आहार से आपकी रुचि बचपन में ही उचट गई थी। जब-जब आपके अभिभावकगण आपकी वृत्ति को राजसी और सांसारिक बनाने के लिए अनुरोध और आग्रह से मछली खाने को विवश करते, तब-तब बराबर ही आपके गले में मछली का काँटा अटक जाया करता। इससे आपको काफी कष्ट और तकलीफ उठानी पड़ती और वमन होने के वेग से तन-मन बेचैन हो जाया करता। एक बार दीपावली के अवसर पर आपकी सौतेली माताजी मछली पका रही थीं। पुण्य अवसर पर इस तामस भोजन की तैयारी देख आपको बहुत बुरा लगा और आविष्ट होकर माँ से कहने लगे- ‘माताजी! इस लक्ष्मी-पूजन के पवित्र समय में यह तुम क्या बना रही हो! यह ठीक नहीं है। माँ के अनसुनी करने पर आपने यह शिकायत पिताजी से कर दी।
एक बार मुख्तार साहब के घर पर आपने अपने सामने बकरे का गला काटते देखा। उस नृशंस दृश्य को देखने से आपके करुण कोमल हृदय को ऐसा भयंकर धक्का लगा कि विद्यालय जाते समय पाँव लड़खड़ाने लगे। पीड़ा के दंशन से शरीर शिथिल, बलहीन और श्लथ हो रहा था। इसी समय तीव्र गति से आते हुए आपके सहपाठी फौदीराम ने कहा- ‘वाह जी! और भी धीमी चाल से चलो। एक तो स्कूल पहुँचने में यों ही देरी हो रही है, उसपर भी तुम्हारी यह मन्थर ढीली चाल।’ यह सुनकर आपने बकरे की बलि का सारा वृत्तान्त कहकर अपनी मनः पीड़ाजन्य शिथिलता की दशा का वर्णन किया। यह सुनकर आपके सहपाठी बोले ‘मुझे एक ऐसा मन्त्र आता है, जिसे जप करने से तुम्हारी सारी पीड़ा, दुख, दर्द और कमजोरी नष्ट हो जाएगी।’ बारम्बार विनयपूर्ण आग्रह करने पर सहपाठी ने गंभीर विश्वास के साथ मन्त्र बताया। वह मन्त्र था -
‘राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्र नाम तत्तुल्यं श्री रामनाम वरानने।।’

मन्त्र सुनकर आपको बड़ी प्रसन्नता हुई और श्रद्धा-सहित इसे जप करते हुए विद्यालय पहुँच गए।
क्रमशः १९०२ ईस्वी में आप एन्ट्रेस के तृतीय वर्ग में पढ़ रहे थे, उसी समय एक हठयोगी पूर्णियाँ पधारे। योग के प्रति गुप्त आकर्षण से खींचकर आप उनकी सेवा में जा पहुँचे और योग-दीक्षा देने की उनसे प्रार्थना की। हठयोगी महाराज ने आपको उत्तर दिया- ‘यह योग विद्यार्थियों के लिए नहीं है। आप अभी विद्यार्थी हैं, अत: विद्यालय में पढ़ना ही आपका कर्त्तव्य है।’
आप वहाँ से निराश होकर विद्यालय लौट आये, पर आपकी अन्तरात्मा में योग-पथ जानने की व्याकुलता क्रमशः बढ़ती ही गई। ‘जाकर जापर सत्य सनेहू। तेहि ता मिलत न कछु सन्देहू।।’ इस सिद्धान्त के अनुसार जब आपकी प्रेमाकुलता उग्र हो गयी, तब भगवत्-इच्छा से खिंचे हुए-से एक दरियापंथी योगी श्री -श्री १०८ बाबा रामानन्द स्वामीजी पूर्णियाँ पधारे और आपने उनकी चरण-सेवा में उपस्थित होकर योग की दीक्षा ली। बाह्य दृष्टि-साधन और मानस जप यही दो क्रियाएँ आपको बतायी गयीं। आपने बड़े मनोयोग से पठन-पाठन से समय बचाकर उसे योग-क्रिया में लगाना प्रारम्भ किया। दिनानुदिन अध्ययन का समय घटाकर योग-प्रक्रिया में उसे लगाया जाने लगा।
सन् १९०३ ईस्वी में जब आप एन्ट्रेस के द्वितीय वर्ग (वर्तमान दशम वर्ग) में पढ़ रहे थे, तब पूर्णियाँ जिला स्कूल के सेकेण्ड मास्टर साहब, जो अंग्रेजी में एम॰ए॰ पास थे, आपको अंग्रेजी पढ़ाया करते। वे बराबर आपको अपना समय योग-साधना में लगाते देख कहा करते ‘इस वर्ष यदि तुम पास करोगे, तब तुम्हारे प्रिसेप्टर (गुरुजी) को देखेंगे।’ बीच-बीच में ये अपने वर्ग में ऐसी चर्चा छेड़ दिया करते; यहाँ तक कि शिक्षक-गोष्ठी में भी आपके विषय में सदा चर्चा हुआ करती। प्रधानाध्यापक को भी इसकी जानकारी प्राप्त हो चुकी थी। प्रधानाध्यापक सेकेण्ड मास्टर बड़े भद्र पुरुष थे। इन दोनों की विशेष कृपा आप पर रहा करती थी और उनलोगों को आपके वचन का पूरा विश्वास रहा करता था। योग-साधना में आपका मन अधिकाधिक खींचता जा रहा था। कभी-कभी ऐसा प्रवेग आपके अन्तर में उपस्थित हो जाता कि पढ़ना-लिखना छोड़कर एकमात्र योग-साधना में ही जीवन का सारा समय लगा दिया जाय। ऐसी उत्कट अभिलाषा बार-बार जगती और दबा दी जाती। मन में सदा रामायण की यह चौपाई प्रतिध्वनित होती रहती कि
‘देह धरे कर यह फल भाई।
भजिय राम सब काम बिहाई।।

अन्ततः, एक दिन ऐसा भावावेग आया कि आपने पढ़ना-लिखना छोड़ देने का संकल्प कर गंगा के किनारे योग-साधना करने के लिए प्रस्थान कर दिया। आप डेरे से सीधे गंगा की ओर जा रहे थे, रास्ते में एकाएक अपनी विधवा बहन की याद आ गई, जिन्होंने अपना सारा वात्सल्य एकमात्र अपने भाई पर उड़ेल दिया था। मेरे बिछोह से उनका ममतापूर्ण हृदय किस प्रकार फट जाएगा, अपने आँसुओं की अविरल, अजस्र बौछारों से उनका जीवन, पृथ्वी और आकाश किस भाँति हाहाकार कर उठेगा-इसकी स्मृति आते ही आपके हृदय में सोई अनन्त करुणा का उत्स फूट पड़ा और आप अबोध असहाय बच्चे की भाँति सड़क के किनारे बैठकर फूट-फूटकर रोने लगे। बहन के रोते-सिसकते मुखमंडल तथा हाहाकार भरी रुदन-ध्वनि जैसे प्रत्यक्ष ही आप देख-सुन रहे थे। फलतः अपने इस वर्तमानकालीन निश्चय को बदल देना ही आपको समुचित एवं श्रेयस्कर प्रतीत हुआ और आप मात्र गंगा-स्नान कर सीधे पूर्णियाँ की ओर लौट पड़े। अपने निवास स्थान पर आते-आते आपके सुकुमार तलवे में दो फोड़े निकल आए। फोड़े टीस मार रहे थे और अन्तर में सब कुछ छोड़कर योग-साधना के लिए भाग जाने की तीव्र अग्नि दहक उठती और शान्त हो जाती थी।
इसी बीच वात्सल्यसिन्धु मुख्तार साहब को यह पांचभौतिक शरीर छोड़कर दूसरे लोक में चला जाना पड़ा; फलतः आपको अब दूसरा निवास खोजने की आवश्यकता उत्पन्न हो गई। आपके सहपाठी श्री फौदीरामजी आबकारी डिप्टी साहब के डेरे पर रहकर उनके छोटे भाई को पढ़ाया करते थे और स्वयं भी पढ़ते थे। भोजन और डेरे का कुल प्रबन्ध उन्हीं के ऊपर था। पारिस्थितिक बेबसी से श्री फौदीरामजी को अपना पढ़ना बन्द कर घर चला जाना पड़ा था। अतः उक्त डिप्टी साहब के अनुरोध से यहीं आकर आप अध्ययन एवं अध्यापन करने लगे।
एक दिन फिर आपकी योग-साधना का प्रवेग तीव्र हो उठा और पढ़ना-पढ़ाना छोड़कर आप दरियापन्थी गुरुदेव के पास चले गए। आपके पिताजी को ज्योंही यह पता लगा, वे शीघ्रातिशीघ्र वहाँ गए और आपको समझा-बुझाकर लौटा लाए। स्वयं गुरु महाराज ने भी आपको अभी पढ़ने का ही आदेश दिया।
पुनः तीसरा प्रवेग उपस्थित हुआ। उस दिन डिप्टी साहब का डेरा परित्याग कर पूर्णियाँ के अरण्य में उपवासपूर्वक आप यह विचारते रहे कि अपनी चिर-अभिलषित वस्तु पाने का निश्चित एवं श्रेष्ठ साधन क्या है? कोई निर्णय न पाकर पुनः शाम में आप अपने निवास पर लौट आए।
कुछ ही दिनों में उक्त डिप्टी साहब की पूर्णियाँ से बदली हो गई। पूज्य पिताजी ने अपने फुफेरे भाई के डेरे पर आपके निवास की व्यवस्था कर दी। उनके मँझले लड़के एम॰ ए॰ की परीक्षा में अनुत्तीर्ण होकर मुख्तारशिप की तैयारी कर रहे थे। वे उम्र में आपसे बड़े थे और आपको पढ़ाया भी करते थे। एक दिन उन्होंने आपको धमकाकर योग-पथ से विरत करने के ख्याल से कहा- ‘तुमने दरियापन्थी गुरु के साथ खान-पान किया है, अतः हमलोग अपने चौके में तुम्हें भोजन करने नहीं दे सकते, क्योंकि दरियापन्थी महात्मा की जात-पाँत का कोई ठिकाना नहीं है।’ यह कहकर उन्होंने उस दिन आपको चौके से बाहर ही बरामदे पर भोजन कराया। उन्होंने सोचा था कि ऐसा करने से आप डरकर माफी माँगेंगे और हमलोग पुनः ऐसा नहीं करने की शपथ दिलाकर फिर साथ कर लेंगे, पर इस घटना ने आपके मन में यह भय उत्पन्न कर दिया कि कहीं आपके चलते पूज्य पिताजी के ऊपर भी संकट और झंझट न आ जाय, क्योंकि कोई पिता अपने पुत्र को चौके से अलग कैसे खिला सकते हैं ? इस समस्या को हल करने के लिए आपने सदा के लिए गुरुदेव के साथ ही रहने का विचार कर पूर्णियाँ से प्रस्थान कर दिया। उसी अवसर पर उक्त मुख्तारशिप की परीक्षा की तैयारी करनेवाले महाशय के बड़े भाई भी, जो उन्हीं महात्मा के शिष्य थे, घर छोड़कर गुरु के आश्रय में रहने के लिए चले आए। दोनों प्रसन्न भाव से गुरु की सेवा में रहने लगे।
आपके पूज्य पिताजी बाहर से जितने कड़े और कठोर दीख पड़ते थे, उनके भीतर में उतना ही अधिक ममता और वात्सल्य का भंडार था। जैसे ही उन्हें आपके भागने की खबर मिली, अविलम्ब वहाँ जा पहुँचे और संयोग से आपके फुफेरे भाई साहब भी उसी अवसर पर अपने लड़के को वापस लौटाने के लिए पहुँच गए। स्नेहिल स्वर में समझाकर आपको राजी कर लिया और दूसरे स्थान पर रखने का आश्वासन देकर वापस लौटा लाए। पुनः स्वर्गीय मुख्तार साहब के डेरे पर आपके रहने की व्यवस्था कर दी। मुख्तार साहब के भतीजे के साथ निवास करते हुए आप विद्याध्ययन करने लगे।
प्रधानाध्यापक की वृद्धा माता भी भगवद्भक्ति में मग्न रहा करती थीं। माता की छाप इनपर भी पड़ी थी, फलस्वरूप ये भी सात्विक वृत्तिसम्पन्न भद्र और योग्य व्यक्ति थे। ये और सेकेण्ड मास्टर साहब हृदय से आपको प्यार करते थे और आपकी उन्नति की अभिलाषा करते थे। सेकेण्ड मास्टर यदा-कदा अंग्रेजी पढ़ाने के समय बोल उठते थे- ‘बड़ा योगी बनने चला है! वार्षिक परीक्षा में इस बार उत्तीर्ण हो जाओगे, तब हम तुम्हारे गुरुजी को देखेंगे (यानी उनकी शक्ति को स्वीकार करेंगे)।’ वार्षिक परीक्षा हुई। द्वितीय वर्ग में उत्तीर्ण होकर आप एन्ट्रेस के प्रथम वर्ग (फर्स्ट क्लास) में दाखिल हुए।
पठन-पाठन की गति शिथिल पड़ रही थी। योगाभ्यास में सारा समय लगाने का वेग संवर्द्धित हो रहा था। उस समय विद्यालय में तीन परीक्षाएँ ली जाती थी-त्रैमासिक, अर्द्धवार्षिक और वार्षिक। संयोग से इस वर्ष (१९०४ ईस्वी में) त्रैमासिक परीक्षा न होकर ३ जुलाई, १९०४ ईस्वी से अर्द्धवार्षिक परीक्षा प्रारम्भ हुई। प्रथम दिन फारसी की परीक्षा हुई, क्योंकि संस्कृत और हिन्दी के स्थान पर फारसी और उर्दू - भाषा ही आपने ली थी।
दूसरे दिन ४ जुलाई, १९०४ ईस्वी (दिव्य अभियान-दिवस) को अंग्रेजी की परीक्षा थी। आप परीक्षा-भवन में जाकर बैठ गए। आज हृदय में दिव्य संवेग और मस्तिष्क में प्रगाढ़ शान्ति विराज रही थी। अंग्रेजी प्रश्नपत्र में प्रथम प्रश्न यह था :
“Quote from memory the poem ‘Builders’ and explain it in your own English”.
अर्थात् “निर्माणकर्ता’ शीर्षक पद्य को अपने स्मरण से लिखकर उसकी व्याख्या करो।”
आपने ‘निर्माणकर्ता’ शीर्षक कविता का प्रथम छन्द लिखकर उसकी व्याख्या संवेगित दशा में लिखना प्रारम्भ किया। वह छन्द निम्नलिखित है :
For the structure that we raise;
Time is with material’s field;
Our to-days and yesterdays
Are the blocks with which we build.

इस उपर्युक्त पंक्तियों की आपने विस्तारपूर्ण एवं मार्मिक व्याख्या इस भाँति की—
‘हमलोगों का जीवन-मंदिर अपने सुकर्म या कुकर्म-रूपी प्रतिदिन की ईंट से बनता या बिगड़ता है। जो जैसा कर्म करता है, उसका जीवन वैसा ही बन जाता है। इसीलिए हमलोगों को भगवद्भजनरूपी सर्वश्रेष्ठ ईटों से अपने जीवन-मंदिर की दीवार का निर्माण करते जाना चाहिए। जीवन-रूपी जिस इमारत को हमलोग तैयार (खड़ा) करते हैं, वह हमलोगों के आज और कल के शुभ-अशुभ, अच्छे-बुरे, नेकी-बदी, धर्म-अधर्म एवं पाप-पुण्यरूपी उपादानों से ही बनती है। हमलोगों के जीवन का वर्तमान स्वरूप, आज और कलरूपी समय में किए गए कर्मो की ही संहति है या एकत्रित संचयों से ही निर्मित हुआ है। इन बहुत-से आज और कल का सदुपयोग करने से यानी उन्हें सत्कर्मो में लगाने से ही हमारा जीवन सुन्दर, सुदृढ़ और अमर बनेगा। जिस भाँति सुन्दर सामान को व्यवस्थित और सुष्ठुतापूर्ण श्रृंखला में सजाकर, सदुपयोग कर हम सुन्दर, कलापूर्ण, सुदृढ़ एवं स्थायी महल बना लेते हैं, उसी भाँति अपने आज और कल-रूपी सामान का सदुपयोग करेंगे अर्थात् सदा-सर्वदा हम उसे पवित्र और पुण्य कर्मो में ही लगाएँगे तो निस्सन्देह हमारा जीवन भी सार्थक, सफल और अमर बन जाएगा। समय की सदुपयोगिता सत्कर्म में है और ईश्वर-भक्ति या भजन से श्रेष्ठतर और कोई भी सत्कर्म नहीं है।’ इसी प्रकार अपने पारमार्थिक उद्गारों को अनेक निर्मल शब्दों में अभिव्यक्त कर अन्त में यह लिख दिया—
‘देह धरे कर यह फल भाई।
भजिय राम सब काम बिहाई।।’

यह पद्य लिखते-लिखते आध्यात्मिक संवेग से आपके तन-मन, प्राण और अन्तरात्मा परिपूर्ण हो गए। मस्तिष्क में आध्यात्मिक शांति विराज रही थी, इसीलिए बड़े ही सौम्य, संयत एवं शान्त वाणी में आपने संरक्षक महोदय (guard) से (जो सेकेण्ड मास्टर साहब ही थे), आदेश माँगा- ‘May I go out, sir ?’
‘क्या मैं बाहर जा सकता हूँ , महाशय?’
शिक्षक महोदय ने व्यस्तता, अन्यमनस्कता या आपकी शान्तचित्तता के प्राचीरों का भेदन कर आपके आन्तर दिव्यावेश को देख-समझ सकने की असमर्थता के कारण आपको मुक्त भाव से बाहर जाने का आदेश दे दिया। उस समय भी परीक्षा-काल में परीक्षार्थियों को चपरासी के संग ही परीक्षा-भवन से बाहर जाने की अनुमति मिलती थी, पर आपके साथ कोई चपरासी नहीं लगाया गया। बाहर आते ही आपका संवेग उद्वेलित हो उठा और आपने अपने विद्या-मंदिर, शिक्षकगण, पिता, बहन एवं अन्य प्रेमीजनों को चिर-नमस्कार कर लिया और अपने सर्वोच्च लक्ष्य को पाने के लिए अज्ञात पथ में उद्दाम गति से चल पड़े। शरीर दार्जिलिंग-राजपथ से पूरी शक्ति एवं तीव्रता के साथ जा रहा है और मन है अपने लक्ष्य में केन्द्रित, अचल और प्रशान्त।

04.

अज्ञात पथ की ओर

महापुरुषों में अपने लक्ष्य को पाने के लिए कष्ट-सहन, अविराम साधना, अथक धैर्य, अटूट लगन, अविचल चित्तता एवं सर्वस्व-त्याग की वृत्ति स्वाभाविक ही होती है। बुद्ध, शंकर, कबीर, नानक, सूर, तुलसी, मीरा आदि सभी के जीवन में उक्त सद्गुणों की अवस्थिति उनके चरित्रों का अनुशीलन करने से देखा जा सकता है। इसीलिए महर्षि मेँहीँ के जीवन में इन दिव्य गुणों का प्रकाश सर्वत्र ही उद्भासित होता रहा है और आज तो उनकी कोई सत्ता ही नहीं रह गयी है।
आप दार्जिलिंग-राजपथ पर किसी संत के अन्वेषण में तीव्र गति से शरीर की सुध-बुध खोकर चले जा रहे हैं। अन्तर में भगवद्-मिलन की आतुरता बढ़ती जाती है-आतुरता, व्याकुलता, विह्वलता, बेचैनी। विरही को अपनी सुख-सुविधाओं से तीव्र अरुचि हो जाती है। कंकड़ियों के गड़ने की पीड़ा के भय से पद ने पदत्राण धारण किया है, यह ख्याल में आते ही उसे उतारकर फेंक देते हैं। यह कुर्ता, यह टोपी और यह धोती क्यों? क्या शरीर को शीत-उष्ण से बचाने के लिए? सभी को फेंककर केवल लज्जा-निवारण के लिए एक कौपीन मात्र धारण कर विरही, उन्मत्त या साधु का विचित्र वेश बनाकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते चले जाते हैं ।
डेढ़ बजे पूर्णियाँ छोड़े थे, संध्या होते-होते आप अठारह मील दूर किशनगंज के निकट पहुँच गए। सड़क के दोनों किनारे घनघोर जंगल था, बीहड़, सुनसान और भयानक। संध्या की घन-कालिमा के साथ इसकी भयानकता भी बढ़ती ही जा रही थी। भयाक्रान्त प्राण ने सहारे की अभिलाषा की। संयोग से उसी समय एक बैलगाड़ी वहाँ आई, पर वह आपके लक्ष्य की प्रतिकूल दिशा की ओर जा रही थी। फिर भी आपने गाडीवान से अपने साथ ले लेने का अनुरोध किया, पर आपका विक्षिप्त-सा वेश देखते ही वह इतना भयभीत हुआ कि उसने उत्तर में बैलों को इतनी तेजी से दौड़ाया, जितना वह दौड़ा सकता था। आपकी, चेतना में आघात लगा। आप सँभले और भय छोड़कर पुनः अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ते चले गए। अन्त में बहुत दूर आगे बढ़ने पर सड़क के पार्श्व में दो दूकानें मिली। वहीं निकट में एक वृक्ष के नीचे जाकर आप विश्राम करने बैठ गए, पर कुत्तों ने अपने भैरव नाद से आपको उस स्थान पर से भी खदेड देने का प्रयत्न किया। उन भैरव नादों से खींचकर दो पुलिस कर्मचारी आ धमके। उनकी शिक्षा कम होते हुए भी हृदय स्वच्छ था, इसीलिए आपको देखते ही वे अनायास बोल उठे- ‘इन्हें नया बाण लगा है।’ फिर आपसे अपने निवास स्थल पर चलने का अनुरोध करने लगे। भूख, श्रांति और थकावट से आप आकुल, व्यथित एवं चूर हो रहे थे। प्रसन्नता से उनका अनुरोध स्वीकार कर वहाँ आए।
तदुपरान्त दोनों पुलिस कर्मचारियों ने आपसे निवेदन किया- ‘हमलोग क्षत्रिय है। यदि आप हमारी बनाई रसोई ग्रहण करने की कृपा करें, तो यह सेवा करके हम अपने को धन्य समझेंगे।’ आपकी स्वीकृति पाकर बड़े प्रेम से उनलोगों ने रसोई तैयार की और थाली में परोसकर आपसे भोजन करने का निवेदन किया। आप भोजन करने के लिए बैठे। तीन या चार ग्रास ही आपने खाया होगा कि एक मरा पतंगा भोजन में मिल गया। आपने रसोई उठाकर श्वान को खाने के लिए दे दिया। उन कर्मचारियों को इस अयाचित घटना से बड़ा दुख हुआ। उनलोगों ने पुनः विनयपूर्वक चूड़ा-दही खाने का आपसे आग्रह किया। अनुरोध सुनकर आपने कहा- ‘परमात्मा की इच्छा नहीं है कि मैं भोजन करूँ, इसीलिए आपलोग इसके लिए आग्रह नहीं करें। जहाँ तक सेवा-सद्भावना मनुष्य को करनी चाहिए, उतनी तो आपने की ही ‘।
पुनः उन दोनों ने अपने साथ थाना चलने का अनुरोध किया, पर आप तैयार नहीं हुए। कुछ रात रहते ही पुनः आपने प्रस्थान कर दिया। भूख, प्यास और थकावट बढ़ रही है और पथिक भी आगे और आगे बढ़ रहा है। पहाड़ी नदी महानन्दा मिली। नाव पर चढ़कर पार उतर आए, किन्तु जब तहसीलदार साहब ने खेवा माँगा, तो आप चुप हो रहे। इनके वेश की विचित्रता देखकर वह उलटा-सीधा बकने लगा- ‘शरीर में धूल लगा ली है और पहलवान बनने चला है! खेवा लाओ।’
उत्तर में आप और कुछ देर ठहरकर खूब तेजी से भाग चले। तहसीलदार बोला ‘पागल है, जाने दो।’
आगे बढ़ते जा रहे हैं, पर भूख से प्राण बेचैन हो रहे हैं । सर्वेश्वर की करुणा-एक रसाल वृक्ष के नीचे पका हुआ अमृत फल (आम) मिल गया और फलाहार करके आप आगे बढ़ते चले गए।
कुछ और दूर जाने पर एक साधु मिले। उन्होंने सारी बातें आपसे पूछकर अवगत कर ली, फिर बोले- ‘बच्चे! तुम तो भवानी-पुत्र हो, कुछ दान करो।’
आपने सोचा- मेरे पास तो और कुछ नहीं है, शायद यह छाता लेने की इच्छा साधु को हो रही है। तुरत ही आपने साधु को छाता दे दिया। फिर साधु बोला- ‘बच्चे ! कुछ वस्त्र भी दान करो।’
कौपीन के सिवाय लपेटी धोती शरीर पर थी। आपने उसे भी उतारकर साधु के आगे फेंक दिया और भाग चले। पीछे से साधु पुकारते ही रह गए कि ऐ बच्चे ! तू नंगा हो गया, अपना वस्त्र वापस ले ले।
आपने भागते हुए ही उत्तर दिया ‘बाबा! जिनका था, उनको दे दिया।’
आगे जाने पर आपने हाथ में एक करची (बाँस की टहनी) ले ली। ग्रीष्म ऋतु, भूख और प्यास की त्रिविध ज्वालाएँ असह्य हो उठीं। कुछ दूर आगे बढ़ने पर एक कूप मिल गया, जहाँ पानी निकालने के सभी साधन मौजूद थे, पर स्नान करके फिर पहना क्या जाए? यह समस्या उठ खड़ी हुई। प्रत्युत्पन्न बुद्धि ने तुरन्त सूझ दी। कौपीन अधिक चौड़ी है, उसे दो से चार बना लो। एक मोटे तरुवर की आड़ में जाकर कौपीन को बीचोबीच फाडकर चार बना कूप के निकट आए और इच्छा भर स्नान किया। शरीर को तरावट प्रदान कर भूख और प्यास को भी जलांजलि ही प्रदान की और आगे बढ़ते ही गए।
दिन ढल रहा था। गर्मी, भूख, प्यास और श्रान्ति ने मिलकर आपको विश्राम करने के लिए विवश कर दिया। एक डाकबंगले के कूप के निकट आप बैठ गए। कुछ देर के बाद वहाँ का चपरासी जल लेने आया। आपने उससे बाल्टी माँगकर स्नान किया, फिर इच्छा भर जल पीकर डाकबंगले के बरामदे पर जा बैठे। चपरासी के आने पर आपने उनसे पूछा ‘यहाँ कौन ठहरे हैं?’
चपरासी ने कहा- ‘यहाँ सड़क के ठीकेदार साहब हैं।’
आपने पुनः चपरासी से कहा- ‘आप मुझे थोड़ी देर बरामदे पर विश्राम करने की अनुमति ठीकेदार साहब से दिलवा दें।’
चपरासी बोला- ‘अनुमति की आवश्यकता नहीं है। आप शान्ति से यहाँ विश्राम करें।’ थके होने के कारण इन्हें नींद आ गयी। कुछ देर के बाद नींद खुली और ये उठकर बैठ गए। उसी समय ठीकेदार साहब कमरे से निकलकर बरामदे पर आए। आपको देखते ही स्थिति को समझ लिया, फिर आपसे सारी बातें पूछकर अपनी जिज्ञासा शान्त की।
ठीकेदार साहब उदार और विवेकशील व्यक्ति थे। उन्होंने शीघ्र ही चावल, दाल एवं आवश्यक बर्तनादि, रसोई के कुल सामान आपको दे दिया और भोजन बना लेने के लिए कहा। आपने यथाशीघ्र खिचड़ी बनाकर संतुष्ट हो भोजन किया। अब संध्या आ रही थी। ये कृतज्ञता-ज्ञापनपूर्वक वहाँ से जाने की तैयारी करने लगे, पर ठीकेदार साहब ने आपको नहीं जाने दिया। बोले- ‘शाम हो रही है। आगे निवास का ठिकाना नहीं है। यहाँ बाघ-भालू के डर से लोग रात में कमरे के अन्दर सोते हैं। अत: आज रात्रि यहीं निवास कर प्रात:काल इच्छानुसार चले जावें।’
वार्तालाप करते हुए आपको पता लगा कि ठीकेदार साहब भी दरियापंथी ही हैं। फिर तो परस्पर अपनत्व की भावना घनीभूत हो गई और मुक्त भाव से बातें होने लगी। ठीकेदार साहब के भाई पूर्णियाँ जिला स्कूल के ही विद्यार्थी थे और कुछ दिन वहीं रहकर अध्यापन का कार्य भी किया था।
अब ठीकेदार साहब ने आपको अपना जानकर यह परामर्श दिया- “आप साधु-संतों की खोज में दार्जिलिंग मत जाइए। आप यहाँ से सीधे ठाकुरगंज थाना चले जाइए। वहाँ मेरा मित्र मुनिलालजी थाने के हेड-कॉन्सटेबुल हैं । वे कायस्थ कुल के हैं । उन्हें मेरा नाम बताने से वे आपको आदरपूर्वक पाताल-गंगा का मार्ग बता देंगे, उसी स्थान पर भीम ने कीचक का वध किया था। भीम के पदाघात से ही पाताल-गंगा प्रकट हुई थी। उसी पाताल-गंगा के तट पर आपको साधु-महात्माओं के दर्शन हो जायेंगे। फिर आपको जिनके साथ रहना अभीष्ट हो, उनके संग निवास करें।”
ठीकेदार साहब का निर्देश आपको अच्छा प्रतीत हुआ और सबेरा होते ही आपने ठाकुरगंज के लिए प्रस्थान कर दिया। मन सन्तों के दर्शन की पवित्र कल्पना में रत था और पाँव ठाकुरगंज के पथ पर तीव्र वेग से बढ़ते जा रहे थे।
चलते-चलते एक पहाड़ी नदी मिली, एक में पैदल तथा दूसरे में नाव पर; ये पैदल ही पार उतर गए, किन्तु घाटवाले ने वहाँ उतरने पर भी उनसे खेवा– नाव पर नदी पार करने का शुल्क माँगा। आपने उत्तर दिया- ‘मैंने तो नाव पर चढ़कर नदी-पार किया नहीं, फिर खेवा कैसा?’
घाटवाले ने उत्तर दिया- ‘चाहे कैसे भी पार उतरो, खेवा चुकाना ही पड़ेगा।’
फिर आपको घाट-तहसीलदार के पास ले गए। तहसीलदार ने भी आपसे खेवे की माँग की। फिर आपके मुख पर ध्यान जाते ही पूछा- ‘भोजन किया है या नहीं?’ आपके ‘नहीं’ कहने पर वह भोजन करने के लिए आग्रह करने लगा। कहा- ‘दूकान से चावल-दाल दिलवा देता हूँ। आप रसोई बनाकर भोजन कर लें, तब जाइए।’ पर आपने किसी भाँति उनका दिया आहार ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया। इसपर तहसीलदार ने कहा- ‘भोजन नहीं करना है, तो खेवा दे दो।’ इसपर बाँस की टहनी को आपने घाटवाले के आगे फेंककर कहा- ‘यही आप खेवे में ले लीजिए।’ -ऐसा कहकर आप आगे बढ़ गए।
आगे जाने पर पुनः एक पहाड़ी नदी मिली, उसकी धारा बड़ी तीव्र थी। यहाँ नाव पर पार उतरने के सिवाय और उपाय नहीं था, अतः आप नाव पर चढ़कर पार उतरे। दिन ढल चुका था। अभी तक आपने न स्नान किया था और न भोजन ही, जिसका आभास आपके चेहरे से ही हो रहा था। पार उतरने पर यहाँ भी तहसीलदार ने आपका चेहरा परखकर भोजन के लिए आग्रह किया। मन पर जमे पारिवारिक एवं सामाजिक विचार-व्यवहारों के संस्कार के कारण हीन वृत्तिवाले का अन्न ग्रहण करना आपको अरुचिकर प्रतीत हुआ। और आपने स्पष्ट कह दिया- ‘मैं भोजन नहीं करूँगा।’ तहसीलदार ने भी आपके मन को भाँप लिया था। उसने कहा- ‘या तो भोजन कर लो, मैं दूकान से चूड़ा-दही दिलवा देता हूँ, अन्यथा तुम्हें खेवा देना ही पड़ेगा।’
आपने कहा- ‘मेरे पास तो कौपीन के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, यही खेवे में ले लीजिए।’
घाटवाले ने कहा- ‘तो आप खेवे में दोनों कौपीन दे दें, तब मैं ले सकता हूँ।’
इसपर आपने कहा- ‘आप यदि माँगें, तो मैं पहना हुआ कौपीन भी खोलकर दे सकता हूँ।’ इसपर तहसीलदार बोले- ‘तो मैं जो-जो वस्तु माँगूंगा, आप दे देंगे?’
आपने उत्तर दिया- ‘अवश्य, जो वस्तु मेरे पास है, वह मैं जरूर दे दूँगा।’ इसपर तहसीलदार बोले- ‘यदि कोई ‘सिर ही माँगे, तो आप दे देंगे?’ आपने कहा- ‘सिर कैसे उतारकर दे सकता हूँ?’ इतना उत्तर देकर आप वहाँ से भागते हुए-से चले गए।
थाना घाट से निकट ही था। आपने वहाँ जाकर हेड-कॉन्स्टेबुल मुनिलाल को बुला देने का निवेदन सिपाहियों से किया। वे भोजन कर आराम कर रहे थे। उनलोगों ने पुकारकर कहा- ‘मुंशीजी! एक साधु आपसे मिलने के लिए खड़े हैं।’
मुन्शीजी घर से ही बोले- ‘हमको साधु-फाधु से क्या मतलब है?’
यह सुनकर आपने स्वयं कहा- ‘आपको मतलब हो या नहीं, परन्तु मुझे आपके मित्र ने, जो सड़क की ठीकेदारी करते हैं, आपके पास भेजा है।’
मित्र की बात सुनते ही मुन्शीजी ने तुरत ही आपको भीतर बुला लिया और आदरपूर्वक स्नान एवं भोजनादि की व्यवस्था करवायी। आपने अति निश्चिन्तता से इनारे पर जाकर भली भाँति स्नान किया और थाने में बैठकर चूड़ा, दूध, चीनी एवं मालभोग केले का भोग लगाया। अब आपको शान्ति और निश्चिन्तता मिली और मुन्शीजी से सारी बातों का वर्णन किया। मुन्शीजी ने दारोगाजी को इन बातों की खबर भेजी। दारोगाजी ने आदेश दिया कि उन्हें भोजन कराने के बाद मेरे पास भेज दीजिए। मुन्शीजी ने एक सिपाही के साथ आपको दारोगाजी के पास भेज दिया।
दारोगाजी ने आपसे पूरी स्थिति जानने की इच्छा प्रगट की। आपने भी सारी स्थितियों-सभी बातों का ठीक-ठीक और स्पष्ट वर्णन कर दिया। उसी समय पूर्णियाँ जिला स्कूल के आपके एक साथी श्री उदित नारायण सिंह वहाँ आए और आपको लगातार टकटकी लगाकर देखने लगे। उदित नारायण सिंहजी का निवास थाने के निकट ही था। आपने तो अपने साथी को पहचान लिया, पर वे आपके साधु-वेश के कारण अकचकाते ही रहे। दारोगाजी ने इनके अकचकाने और टकटकी लगाकर देखने की क्रिया से भावित होकर पूछा-क्या आप इन्हें पहचानते हैं?’ पर उदित बाबू ‘हाँ’ या ‘ना’ कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दे सके। जब आपकी वाणी सुनी, तब सहसा ख्याल हो आया और बोल उठे- ‘अरे, रामानुग्रह हो जी! तुम यहाँ कैसे आ गए और इस वेश में?’ फिर तो आगे बढ़कर मिले और आपसी स्नेह-वार्ता करने लगे। उदित बाबू बड़े तेज विद्यार्थियों में से थे, पर घरेलू परिस्थिति के कारण तीसरे वर्ग में ही पढ़ना छोड़कर घर में रहने लग गए थे।
उदित बाबू से आपका पूरा पता दारोगा जी एवं सभी थाना-निवासियों को लग गया। अतः दारोगाजी ने आपको समझाया- ‘माता-पिता की सेवा करना भी एक बहुत बड़ी तपस्या है। आपको अपना पठन-पाठन छोड़कर साधु नहीं बनना चाहिए।’ आपने बिना उत्तर दिए उनका सारा उपदेश सुन लिया।
दारोगाजी ने उदित बाबू से आपकी सारी वस्तु स्थिति जानकर कई थानों में आपकी हुलिया भेज दी और चुपचाप आपके पिताजी को एक पत्र भेज दिया। जबतक आपके परिवार के कोई व्यक्ति ठाकुरगंज थाना आ जायँ, तबतक आपको किसी कार्य के बहाने रोके रखने की योजना दारोगा साहब ने मन-ही-मन बना रखी थी। इस भाँति दस दिन तक आपको थाने में ही रोके रहे। तबतक पाताल-गंगा जाने के रास्ते के सम्बन्ध में भी कोई विशेष बातें नहीं की। जब इतने दिनों के बाद भी घर से कोई नहीं आए, तब लाचार और निराश होकर आपको अपने पथ पर जाने देना पड़ा। फिर भी पाताल-गंगा की ओर जाने देने से यह कहकर रोक दिया कि वर्षाकाल में वहाँ जंगल और झाड़ियाँ बढ़ जाती है, कीचड़-पानी की अधिकता के कारण सभी साधुगण अन्यत्र चले जाते हैं और शरद् ऋतु आने पर ही पुनः उस भूमि को शोभायमान करते हैं ।
थाने से छुटकारा पाते ही आप अपने लक्ष्य स्थान की ओर आगे बढ़ने लगे। मुन्शी मुनिलालजी ने आदर, आग्रह और यह समझाकर आपको एक कम्बल लेने के लिए बाध्य कर दिया, कि दार्जिलिंग में आजकल भी यहाँ के निवासियों को भयंकर जाड़े का समय ही प्रतीत होगा। बात जँची और उन्होंने कम्बल का दान स्वीकार कर लिया।
अज्ञात पथ के राही चलते-चलते नेपाल राज्य के विराटगढ़ पहुँच गए, वहाँ पूरे कुएँ में एक ही काठ का मोटा पाट देखकर आपको बड़ी विचित्रता मालूम हुई। कठिनाई, संकट, भूख, प्यास एवं थकावट सभी का साहसपूर्वक सामना करते हुए आगे बढ़ते जा रहे हैं, पर बिना भोजन के शरीर ने अब ‘आगे बढ़ना अस्वीकार कर दिया, लेकिन कहाँ स्नान-भोजन किया जाय? बुभुक्षा- भूख शरीर का- शरीर निवासी मन-प्राण की संचालिका बनकर उसे किसी के दरवाजे पर भीख माँगने, लिए जा रही है उस व्यक्ति को, जिसने जीवन में कभी किसी से कुछ नहीं माँगा। बलिहारी है इस भूख की।
एक परिवार का प्रधान व्यक्ति कुछ घंटे हुए मर गया है। घर और पड़ोस के लोग उसकी दाह-क्रिया करने के लिए तुरंत ही उसे श्मशान ले गए हैं। घर में अकेली उसकी वृद्धा माता बिलबिलाकर रो रही है। दरवाजे पर कोई भी नहीं है। तत्त्वज्ञान पाने के लिए जिन्होंने माता-पिता, भाई-बन्धु, कुल-परिवार, पढ़ना-लिखना-सब छोड़कर सर्वस्वत्यागी का बाना पहन लिया है, ऐसे महान त्यागी, वैरागी और संन्यासी को भूख-देवता या राक्षस खींचकर उस विषण्ण दरवाजे पर पहुँचा देता है और वे अपनी धुन में व्याकुल बने भोजन देने की रट लगाते हैं। दरवाजे पर कोई उत्तर नहीं मिलने से हवेली के अन्दर अपनी पुकार पहुँचाते हैं। बारंबार की पुकार सुनकर पुत्रहीना वृद्धा माता बाहर निकलती है और कहती है ‘हाय! तुममें जरा भी करुणा और विवेक नहीं।’
फिर कहती है- ‘मेरा बेटा मर गया है, उसे ला दो।’ पुनः विलपती हुई हवेली चली जाती है। स्थिति जानते ही ये काँप उठते हैं।
इस घटना ने आपके अन्तर में कितनी व्यथा, पीड़ा, ग्लानि और पश्चात्ताप के तूफान उठाए, इसकी सीमा नहीं। आपने उसी क्षण दृढ़ संकल्प किया कि अब कभी किसी से भीख नहीं माँगेंगे।
जिस मानव-जीवन को लेकर ईश्वर-भजन बन सकता है, उसकी रक्षा के लिए भोजन तो अनिवार्य है, फिर अब क्या हो? आगे बढ़ने का उद्दाम वेग शान्त हो रहा था। आप पूर्वनिर्दिष्ट विचार का परित्याग कर अन्तर में भोजन की व्यग्र लालसा लिए हुए पुनः ठाकुरगंज थाने की ओर ही लौट पड़े। कुछ दूर आने पर एक बंगाली का घर मिला। उन्होंने स्वतः आपको अपने दरवाजे पर बुलाया और मुखाकृति देखकर भोजन के विषय में पूछ दिया। आपने उत्तर दिया- ‘आज दिन भर कुछ नहीं खाया है।’ बंगाली महोदय ने यह सुनकर थोड़ा-सा ‘अनरसा’ नामक मिष्टान्न खाने के लिए दिया, जो इतना थोड़ा था कि जितना प्रचण्ड अग्नि में थोड़ा-सा घी। आगे बढ़ने में अपनी असमर्थता जाहिर करनेवाला शरीर अब अपनी बुभुक्षा की तृप्ति के लिए कम वेगपूर्ण नहीं था। संध्या होते-होते ठाकुरगंज थाना वापस लौट आए और यहाँ प्रेम से पूरा भोजन पाकर व्यग्रता-रहित हो विश्राम किया। थोड़ी देर के लिए अन्तरात्मा के दिव्य संवेग को भूख ने अवश्य ही आच्छादित कर लिया था, पर उसे नष्ट करने की सामर्थ्य किसी में नहीं। बाहर का स्थानिक लक्ष्य दार्जिलिंग से बदलकर अब अयोध्या बन गया था। उन्होंने थाने में सभी को संचित कर दिया कि अब वे दार्जिलिंग नहीं जाकर अयोध्या जाएँगे। इनका निश्चय जानकर मुन्शी मुनिलालजी ने इनसे कहा कि यहाँ के दारोगाजी की बदली हो गई है और कल ही उनका सामान गाड़ी से किशनगंज जा रहा है। अतः आप भी इसी के साथ चले जाइए। वहाँ के दारोगा मेरे चाचाजी बड़े उदार और दयालु हैं। मेरा परिचित जानकर वे आपको अयोध्या जाने के लिए ट्रेन का टिकट कटा देंगे और आप आराम से वहाँ चले जाएँगे। 

05.

साकेत-पथ में गुरुदेव

मुंशी मुनिलालजी का निर्देश स्वीकार कर दारोगाजी के सामान के साथ आप किशनगंज थाना चले। रास्ते में एक स्थान पर रात में बैलगाड़ी को ठहराना पड़ा। वहाँ आपको आरामदायी आवास और अनुकूल भोजन अनायास ही प्राप्त हो गया। किशनगंज थाना आने पर मुंशीजी के चाचा साहब ने पर्याप्त सुविधा के साथ आपको रखा। सारी स्थिति जानकर वे आपके वापस घर जाने की अभिलाषा करने लगे, पर आपका दृढ़ निश्चय जानकर उन्हें अयोध्या भेजने के लिए उद्यत होना पड़ा। जबतक आप थाने में रहे, पूरा आराम देने का प्रयत्न किया गया। दारोगा साहब का एक भतीजा जो यहीं रहकर पढ़ता था, वह आपसे पूरा हिल-मिल गया और सदा प्रेमपूर्ण वार्ता और बर्ताव करता रहा। आप दिन में नहीं सोते थे। एक दिन अचानक आप वहाँ दिन में ही सो गए। सोते ही स्वप्न देखने लगे कि आप अंधे हो गए हैं और अंधे हो जाने के बाद मनुष्य के अन्तर में जो दुख, पीड़ा, वेदना एवं व्याकुलता होती है, उसकी पूरी-पूरी अनुभूति आपको हुई। यह अनुभव जीवन्त अनुभव की भाँति आपके अन्तर में संरक्षित है।
दारोगा साहब ने आपके संकल्प को सुस्थिर जानकर अपने भतीजे को आपके साथ अयोध्या का टिकट कटाने के लिए भेज दिया। संयोगवश उस दिन अयोध्या का टिकट उस स्टेशन का समाप्त हो गया था, अतः छपरे का टिकट ही आपको लेना पड़ा। शेष किराये के पैसे आपको दे दिए गए। छपरे में गाड़ी लगते ही आप उतर गए। उस समय आपको ख्याल आया कि यहाँ से एक स्टेशन आगे रिविलगंज है, जहाँ हमारे दरियापंथी गुरुदेव का गुरुद्वारा है। वे यदा-कदा यहाँ आकर कुछ दिन निवास भी किया करते हैं। आपने रिविलगंज का टिकट कटाया और स्टेशन पर उतरकर सीधे गुरुद्वारा पधारे। कुटी का द्वार भीतर से बन्द देख आपको विश्वास हो गया कि अवश्य ही कोई कुटी में निवास कर रहे हैं। आपने पुकार की। फाटक खुलते ही देखा- साक्षात् गुरुदेव! प्रसन्नता के आवेग में आप गुरु-चरणों पर गिर पड़े और आपकी दशा एवं वेश देखकर गुरुदेव भी रो पड़े। तुरत एक धोती मँगाकर उन्होंने आपको पहनाया और तब कुटिया के भीतर ले गए। आपसे सारी बातें जानकर गुरुदेव को चिन्ता हुई और अपने साथ रहने का आपको आदेश दे दिया। फिर तो रिविलगंज ही महासाकेत-धाम बन गया और गुरु के करुण साया में आप अपनी साधना में संलग्न रहने लगे। कई महीने यहीं निवास कर पुनः गुरुदेव के साथ ही उनकी स्थायी कुटी जोतरामराय चले आए। यहाँ ही गुरुदेव का जन्मस्थान था और अपने घर को ही इन्होंने अपनी साधना-कुटी में परिणत कर दिया था। गुरुदेव के एक पुत्र थे, जो पिता के साथ ही भगवद्भजन किया करते थे।
आपने गुरु-सेवा में अपना जीवन न्योछावर कर दिया, दिन-रात, सदा-सर्वदा चिर-तत्पर। आप गुरुदेव की सारी परिचर्या अपने ही हाथों से ठीक समय पर कर लेते। इसमें कभी व्याघात उत्पन्न नहीं होने दिया। सदा सचेत और सावधान- कहीं सेवा में कोई त्रुटि न हो जाय! ऐसी सेवा से माता, पिता और गुरु कैसे प्रसन्न नहीं होते! गुरुदेव की आत्मा कल्याण और मंगलमय आशीर्वाद की वृष्टि मूक वाणी में सदा करती ही रहती, जो कभी-कभी वैखरी वाणी में भी स्फुटित हो पड़ती। इस भाँति अखण्ड-अभंग उपासना में आपके छह महीने बीत गए।
आपके पूज्य पिताजी, जिनका गुप्त वात्सल्य पुत्र-विरह के उत्ताप से पिघलकर तरल हो गया था- खबर मिलते ही जोतरामराय आ गए। पुत्र को देखकर कुछ अस्वस्थ हुए, पर अन्तर में ज्वाला धधक रही थी कि कैसे इसका वैरागी मन घर का स्वाभाविक जीवन बिताने के लिए राजी और उद्यत किया जा सके। इसी चिन्ता की अग्नि से सूखकर ये दुर्बल और जर्जर बन रहे थे। पुत्र ने प्रणाम किया। पिता ने स्नेह के अश्रु बरसाए।  

06.

वात्सल्य-धारा में अविचल चट्टान

पुत्र ने देखा कड़े स्वभाववाले पिता का माता से भी मृदुल, मधुर वात्सल्य; और पिता ने देखा मोह-ममता के तिमिर से मुक्त, धौत-उज्ज्वल, अपना आत्मज।
संयोग से उसी दिन जोतरामराय में एक बंगाली तांत्रिक आए। वियोग-विह्वल पिताजी उनके पास गए और बड़े ही विनीत-करुण स्वर में उनसे प्रार्थना की- ‘हे तांत्रिक महाराज! मेरे पास काफी सम्पत्ति है, पर पुत्र के बिना सब नीरस और फीकी ही नहीं, बल्कि दंशनकारी बन गयी है। अतः आप अपने तांत्रिक प्रयोगों से मेरे पुत्र का मन ऐसा बदल दीजिए कि वह स्वभावतया वैरागी-जीवन छोड़कर गार्हस्थ्य जीवन अंगीकार कर ले। मेरा एकमात्र यही पुत्र और एक विधवा पुत्री है। पुत्री का कारुणिक एवं अवलम्बहीन जीवन एवं दयनीय मुखमंडल देखकर हृदय में टीस उठती है, जिसे शान्त करने का कोई उपाय दिखाई नहीं देता। एक इसी का सहारा था, यह भी संन्यासी हो गया है। अतः जैसे भी हो, मेरा सहारा मुझे वापस दिलाकर मुझे सुखी बनाइये। इसके लिए मैं आपको अपनी सम्पत्ति न्योछावर कर दूँगा।’
तांत्रिक महाराज ने स्पष्ट कह दिया ‘ऐसा करने की मेरे पास शक्ति ही नहीं है। होती तो मैं आपकी सम्पत्ति लिए बिना ही, आपके व्याकुल-विह्वल हृदय को शान्ति प्रदान करने के लिए अवश्य ही आपके पुत्र का मन बदल देता, पर इनका संकल्प इतना दृढ़ और गम्भीर है कि मेरा उनपर कुछ वश ही नहीं चलता।’
लाचार होकर पिताजी स्वयं स्नेहसिक्त स्वर में पुत्र को प्रबोधने का प्रयत्न करने लगे। प्रेम, करुणा, वात्सल्य, ममता एवं अपनत्व की जितनी भी मधुर एवं आकर्षक वाणियाँ हो सकती है, सभी का पूरे हृदय से उपयोग हुआ, पर वैरागी का मन इस तीखी-संचारिणी धारा में भी अविचल चट्टान की भाँति निष्कम्प एवं सुस्थिर ही बना रहा। आपने श्रद्धा की शान्त-सौम्य वाणी में पिताजी से प्रार्थना की “हे पिताजी! आप मुझे यही आशीर्वाद दीजिए कि मैं आपकी रामायण में लिखे अनुसार इस मनुष्य-देह को सफल बना सकूँ।
‘देह धरे कर यह फल भाई।
भजिय राम सब काम बिहाई।।’

आप मुझे गुरुदेव के साथ रहकर ही जीवन को राम-भजन में लगाने का आदेश प्रदान करें।”
आपमें ‘भजिय राम सब काम बिहाई।’ की चट्टानीय दृढ़ता देखकर इस छह महीने में पुत्र-वियोग से जो व्यथा हुई थी, पिताजी उसका विस्तृत करुण-वर्णन आपसे करने लगे- “जिस दिन तुम पूर्णियाँ जिला स्कूल के परीक्षा-भवन से सबकी ममता को छोड़ भाग निकले थे, उसी दिन मैं तुम्हारे निवास-स्थल पर आया। बासे पर तुम्हें नहीं देख मन बड़ा व्यग्र हो उठा। तुरत तुम्हारे सहपाठियों तथा अन्य विद्यार्थियों से भी पूछा, पर किसी ने भी तुम्हारा कोई पता नहीं बतलाया। तुरत आकुल उद्वेग में जिला स्कूल के प्रधानाध्यापक के निवास स्थान पर मैं चला आया और मिलते ही व्यग्र स्वर में पूछ दिया-- ‘मेरा लड़का कहाँ है?’
प्रधानाध्यापक बोले-वह तो परीक्षा देकर चला गया है। क्या वह डेरे पर नहीं पहुँचा?’
मेरे ‘नहीं’ कहने पर तुरत ही वे मुझे साथ लिए ऑफिस आए और तुम्हारी परीक्षा-पुस्तिका निकालकर देखने लगे। परीक्षा-पुस्तिका में लिखे तुम्हारे उत्तर को आद्योपान्त पढ़कर मुझे सुना दिया और स्वयं करुणा के उद्वेग से बहुत देर तक रोते रहे। मेरे आँसू की धारा एवं रुदन का आवेग और भी बढ़ता जा रहा था। यह देख प्रधानाध्यापकजी ने धैर्य धारण कर अपने को सँभाला और मुझे समझाते हुए धैर्य दिलाने लगे- ‘देखिए, आपके पुत्र का नाम ‘रामानुग्रह’ पड़ा था। उनके ऊपर राम का पूरा अनुग्रह हो चुका। वह जिसके लिए आया था, उसकी खोज में निकल गया। अब आप धैर्य धारण कर शान्त होइए और परमात्मा से उसके कल्याण के लिए प्रार्थना कीजिए।’
बेबसी का धैर्य लेकर मैं हताश-सा घर आया। कहावत है- ‘विपत्ति अकेले नहीं आती।’ उसी समय सिकलीगढ़ धरहरा में महामारी का भीषण प्रकोप हुआ और गाँव के सैकड़ों बालक असमय ही माता-पिता की गोद से छीन लिए गए। तुम्हारा भी भाई (सौतेला) हम से सदा के लिए नाता तोड़कर चला गया। व्यथा के अथाह सागर में डूबते पिता को जो एक तिनके का सहारा था, वह भी छिन गया। कलेजा चकनाचूर हो गया। उस समय मेरे कण-कण में वेदना, पीड़ा और हाहाकार के जो दंशन चलते थे, वे मूक भाव से एकमात्र आँखों की राह से निकलते चले जाते थे। कौन हृदयवान् मेरी उस दयनीयता को देख कर नहीं रोया होगा-किसका कलेजा नहीं पसीजा होगा?’
मैं भी तभी से अशक्त और रोगी हो गया और मेरी अशक्तता तथा रोग बढ़ता ही गया। जिस समय ठाकुरगंज थाने से दारोगा साहब ने दया भाव से तुम्हारे वहाँ उपस्थित होने की खबर भेजी थी, उस समय मैं इतना असमर्थ हो गया था कि मन छटपटाते ही रह गया। महामारी की भयंकरता में दूसरा भी कोई वहाँ जानेवाला नहीं मिला।’
संसार की सारी सुख-सम्पत्तियों के होते हुए भी जिसके बिना मेरी यह दुर्दशा हो गई है, वह स्वयं मुझे छोड़ देने के लिए तुला हुआ है। यह मेरा दुर्भाग्य है।” (वर्णन करते हुए पिताजी की आँखों से आँसू बह रहे थे)।
पुत्र पिता की वियोग-व्यथा की सारी कहानी सुनने पर भी अपने ध्येय पर हिमगिरिवत् स्थिर एवं शान्त बने रहे। पिता ने विस्फारित आँखों से देखा- कमल-पत्र पर जल की स्वच्छ बूँद मोतीदाने के सदृश लुढ़क रही है और वे हाय मारकर वापस घर चले गए।
घर आने पर पिताजी का चित्त कुछ स्थिर हुआ। उन्होंने सोचा- ‘अवश्य ही ऐसे सुपुत्र के अवतरण से मेरा कुल पवित्र हो गया है, जननी का जीवन कृतार्थ हो गया, यह भूमि धन्य है, जहाँ ऐसी महान आत्मा का जन्म और पालन-पोषण हुआ और मैं पिता भी अवश्य ही सौभाग्यशाली हूँ।’ किन्तु ऐसा विचार करने पर भी इनका पवित्र वात्सल्य सदा सागर की भाँति भरा-पूरा ही रहा।
सन् १९०५ ईस्वी के आषाढ़ मास का प्रथम चरण था। पिताजी का पत्र आया- ‘एक बड़े महात्मा चम्पानगर बनैली ड्योढ़ी पधार हुए हैं। तुम आकर उनके दर्शन करो। मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा।’ पत्र पढ़कर आपने गुरुदेव का आदेश लिया और आदरपूर्वक उत्तर लिखकर पिताजी के पास प्रेषित कर दिया। उत्तर संक्षेप में लिखा गया था- ‘मैं आपके आदेशानुसार उक्त महात्मा का दर्शन-लाभ करने अमुक तिथि एवं अमुक दिवस को पहुँच रहा हैं। आप भी उक्त समय पर वहाँ पधारकर अपने श्री चरणों के दर्शन मुझे प्रदान करने की कृपा करें।’
उक्त महात्मा थे तिरहुत के भौरे ग्राम-निवासी श्री युत कृष्ण सिंह ठाकुर, षट्शास्त्री।
ये कुल से श्रोत्रिय ब्राह्मण और मिथिलाधिपति महाराजाधिराज रामेश्वर सिंहजी, के॰सी॰ आईस्वी ईस्वी के रिश्ते में चाचा लगते थे। साथ ही श्री युत कुमार कलानन्द सिंहजी तथा कुमार कृत्यानन्दजी के भी रिश्तेदारी में चाचा ही होते. थे।
निर्धारित तिथि को आप ड्योढ़ी पधारे और पुत्र-स्नेह से प्लावित पिताजी भी समय पर उपस्थित हो गए। वहाँ के कर्मचारीगण आपसे पूर्व परिचित ही थे, अतः आपके निवास एवं भोजन की यथाविधि पवित्र व्यवस्था की गई। भोजनोपरान्त पिता का अनुगमन करते हुए आप वयोवृद्ध महात्मा षट्शास्त्रीजी के पास पहुँचे। शास्त्रीजी भोजन कर कम्बल पर लेटे हुए थे। आप दोनों पिता-पुत्र को देखते ही शास्त्रीजी उठकर बैठ गए और आपलोगों से भी आदरपूर्वक बैठने की अभ्यर्थना की। आपलोगों के बैठते ही राजदरबार के सभी पण्डित, गुरुजन, राजपरिवार एवं अन्य सज्जन वहाँ जुट गए; क्योंकि आपके बाल-संन्यास की सभी को जानकारी और आकर्षण भी था।
सर्वप्रथम दरबार के पण्डितगण ने आपको फटकारना प्रारम्भ किया। उनलोगों ने कहा- ‘आपके ऊपर अभी देव-ऋण, पितृ-ऋण एवं ऋषि-ऋण-तीनों बाकी है। आपने बिना तीनों ऋण चुकाये ही जो सन्यास धारण किया है, वह सर्वथा अनर्थ है। आपको तो स्वर्ग में कभी स्थान नहीं मिलेगा, जैसा स्मृति कहती है—
पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता एव परन्तपः।
पितरिप्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्व देवताः।।

यह सुनकर षट्शास्त्रीजी बोले- ‘यथार्थ।’ इसका समुचित उत्तर देते हुए आपने नम्रता से कहा- “आदरणीय महानुभावगण! मैं स्वर्ग को प्राप्त करना नहीं चाहता; क्योंकि गोस्वामी तुलसीदासजी ने स्वर्ग के विषय में ऐसा कहा है –
‘स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई।।’
अतः मैं कभी स्वर्ग का अभिलाषी नहीं हुआ। मुझे तो परमपद को प्राप्त करना है।”
आपका उत्तर सुनते ही पुनः षट्शास्त्री जी ने कहा- ‘यथार्थ’।
फिर पण्डितजी बोले-- ‘आप स्वर्ग नहीं चाहते हैं, तो ठीक है। आप अपने लिए चाहे जो कुछ भी करें, पर मातृ-ऋण एवं पितृ-ऋण की चुकती तो आपको करनी ही पड़ेगी।’
शास्त्रीजी ने कहा-‘यथार्थ’।
आपने कहा- ‘सन्त लोग मनुष्य-शरीर को जिस काम में लगाने के लिए कहते हैं, मेरा तो एक मात्र वही प्रयत्न है। सूरदासजी ने कहा है –
जा दिन मन पंछी उड़े जइहैं।
ता दिन तेरे तन-तरुवर के, सभी पात झड़ि जइहैं।।
या देही का गर्व न करिये, स्यार काग गिध खइहैं।
तीन नाम तन विष्ठा कृमि होइ, नातर खाक उड़इहैं।।
कहाँ वह नैन कहाँ वह शोभा, कहँ रंग-रूप दिखइहैं।
जिन लोगन सों नेह करत हौ, सो तोहि देखि घिनइहैं।।
जिन पुत्रन को बहु विधि पाल्यो, देवी-देव मनइहैं।
तेहि ले बाँस दियो खोपड़ी में, शीश फाड़ि बिखरइहैं।।
घर के कहत सबेरे काढो, भूत होइ घर खइहैं।
अजहूँ मूढ़ करो सत-संगत, सन्तन में कछु पइहैं।।
नर-वपु धर जो जन नहिं गुरु के जम के मारग जइहैं।
सूरदास भगवन्त भजन बिन, वृथा सो जनम गॅवइहैं।।”

शास्त्रीजी ने कहा-‘यथार्थ’।
इस प्रकार आप तथा दरबार के पण्डितों की प्रत्येक उक्ति सुनकर शास्त्रीजी ‘यथार्थ’ कहते गए। बहुत देर तक शास्त्रीजी का ‘यथार्थ’ सुनते-सुनते आपके पूज्य पिताजी उकता कर बोले- ‘महाराज! मुझे तो आपके निर्णय का कुछ पता ही नहीं लगता। दोनों पक्षों की बात सुनकर आप ‘यथार्थ’ ही कहते हैं, फिर दोनों में ‘अयथार्थ’ कौन-सा है?’
शास्त्रीजी गंभीर विद्वान एवं सहनशील महात्मा थे, उन्होंने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया ‘स्मृति-धर्म के अनुसार तो पंडितों का कहना यथार्थ है और आपके पुत्र वेदान्त पढ़े हुए तो नहीं हैं, किन्तु वेदान्त की ही उक्ति कहते हैं, वह भी यथार्थ ही है। दोनों ही विचार काटने-योग्य नहीं है, तो मैं किसको यथार्थ और किसको अयथार्थ कहूँ?’
कुछ समय के बाद शास्त्रीजी और आपको छोड़कर सभी चले गए। अब दोनों महात्मा मुक्त कण्ठ से वार्तालाप करने लगे। शास्त्रीजी का अधिकांश समय नियमित समय पर पूजा-पाठ करने में लगता था। रात के चौथे प्रहर से दिन के प्रथम प्रहर तक और , संध्या में दिन के चौथे प्रहर से रात के प्रथम प्रहर तक का समय पूजा-पाठ तथा उसे सम्पन्न करने की अन्य आवश्यक प्रक्रियाओं में ही व्यय होता था। आज दोनों की वार्ता का प्रवाह अबाध-अखण्ड रूप से बह रहा है। दिन का चौथा प्रहर समाप्त हो रहा है। नौकर ने कई बार आकर सूचना दी-- ‘सरकार! चौका लगाया जा चुका।’ उत्तर में केवल ‘हूँ’ कह कर शास्त्रीजी उज्ज्वल वार्ता की अजस्रता को बनाए रखते। दिवस का अवसान होते देख आपने कहा- ‘महात्मन्! आज मेरी वार्ता के कारण आपके नित्य कर्म का क्रम भंग हो रहा है, अतः क्षमापूर्वक उसे पूरा करें।’
यह सुनकर शास्त्रीजी बोले- ‘आज मेरे समय का आपके साथ बहुत ही महत्त्वपूर्ण सत्संग में सदुपयोग हुआ है। पूजा और जप करने में मेरा मन कभी इतना शान्त और एकाग्र नहीं हुआ, जितना आपके साथ ज्ञान-चर्चा करने में हुआ। अतः आज ही मैंने सबसे श्रेष्ठ पूजा-पाठ किया है। यह मेरे लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समय हुआ।
यह सुनकर आपने उत्तर दिया-- ‘महाराज! आपका कथन ठीक ही है; क्योंकि कहा है—
पूजा कोटि समं स्तोत्रं, स्तोत्र कोटि समं जपः।
जप कोटि समं ध्यानं, ध्यान कोटि समो लयः।।

यह श्लोक श्रवण कर शास्त्रीजी आनन्द से गद्गद हो गए और आपकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। फिर ‘बिछुड़त एक प्राण हरि लेहीं। मिलत एक दारुण दुख देही।।’ की भाँति दोनों महात्माओं का प्रेममय वियोग हुआ।
अन्त में पूज्य पिताजी ने आपसे कहा ‘अच्छा, घर में नहीं रहोगे, तो कम-से-कम एक बार घर चलकर सभी से भेंट-मुलाकात तो कर लो।’ पिता का आदेश मानकर आप उन्हीं के साथ घर आए और सभी के दर्शन कर पुनः अपने गुरु के पास जोतरामराय चले गए।

07.

सन्त दरिया साहब की कुटी की ओर

१९०६ ईस्वी के आषाढ़ मास की समाप्ति के समय आपको ज्वर हो गया। इस अवसर पर आपके गुरु-पुत्र गुरुभाई ने बड़ी सेवा की। इतनी सेवा की, जितनी सहोदर भाई भी नहीं करता। एक दिन रुग्णावस्था में ही आपने विविध सुहावने स्वप्न देखे। फिर क्रमशः रोग-मुक्त हो गए, पर शरीर कमजोर ही था। इसी दशा में दिवारात्रि आपके मन में भ्रमण करने का उद्वेलन होने लगा। चित्त बड़ा व्यग्र होता रहता, पर इस दुर्बल शरीर से न तो यात्रा ही हो सकती थी और न गुरुदेव ही जाने का आदेश दे सकते थे। फिर भी प्रतिक्षण यही चिन्ता, यही उधेड़-बुन आपके अन्तर में आँधी-सी चलती रहती थी। इस दशा में कई दिन बीत गए। अब उद्वेग ने तूफान का रूप धारण कर लिया, जिसे रोकना सम्भव नहीं था।
आपने सारी बातें अपने गुरु-पुत्र से स्पष्ट कर दी और उनसे अनुरोध किया कि यह बात गुरुदेव से नहीं कहें; क्योंकि वे अवश्य रोकेंगे और उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना महापाप होगा। मेरा उद्वेग इस दशा में है कि मैं स्वयं अपने आपको यात्रा से रोक सकने में असमर्थ हूँ। गुरु-पुत्र उम्र में आपसे बड़े थे और आपको बहुत प्यार करते थे। उन्होंने आपका अनुरोध मान लिया और चलते वक्त मार्ग-व्यय के लिए एक रुपया तथा भोजन के लिए कुछ सामग्री प्रदान कर स्नेहाश्रु-सहित विदा कर दिया।
उस समय गंगाजी की धारा भवानीपुर और बकिया गाँव के निकट थी। आप गंगा के पुलिन-पथ से चलते हुए काढ़ागोला रोड स्टेशन आए। यहाँ के स्टेशन मास्टर आपके पूर्वपरिचित थे। इन्होंने आपकी सारी कहानी सुनकर आपके इच्छानुसार कुरसेला स्टेशन के सहायक स्टेशन मास्टर ज्योतिन बाबू को फोन करके यहाँ बुला लिया। स्टेशन के निकट प्रयागलाल चौधरी भी समय पर आ गए। ये दोनों आपके गुरु-भाई थे। आपने सभी बातों से इनलोगों को अवगत कराते हुए कहा कि मैं सन्त दरिया साहब की कुटी धरकन्धा जा रहा हूँ, जो आरा जिले के डुमराँव स्टेशन के समीप है। ऐसा कहकर आप रात में प्रयाग लाल चौधरी के यहाँ जाकर ठहरे; किन्तु पेट-दर्द के कारण कुछ भोजन नहीं कर सके। प्रात:कालीन ट्रेन से आप सन्त दरिया साहब में मन गड़ाए उनकी कुटी की ओर रवाना हो गए। दोनों गुरुभाइयों ने डुमराँव तक का टिकट कटा दिया था।
सोनपुर में पटना के लिए गाड़ी बदलनी पडी। बड़ी तेज भूख लग रही थी, अतः आप भोजन करने के लिए दूकान पर गए । वहाँ सभी दुकानों में तेल की बनी भोजन-सामग्री देख वापस लौट आए, पर टिकट वहीं खो गया । अब बिना टिकट के ही ट्रेन पर चढ़ना पड़ा। पहलेजा घाट में स्टीमर पर चढ़े । पार होने पर टिकट-कलक्टर ने टिकट माँगा । आपने टिकट खो जाने की पूरी कहानी सुना दी, पर उसने सवा पन्द्रह आने पैसे लेकर ही जाने दिया। अब केवल तीन पैसे पास में रह गए ।
बिना टिकट और बिना खाए ही आप ई॰ आई॰ आर॰ की गाड़ी पर चढ़कर सन्त - दरिया साहब की कुटी की ओर चले। उसी डब्बे में आरा जानेवाला एक अन्य यात्री भी था। उसने आपकी सारी स्थिति जानकर आश्वासन दिया कि चिन्ता की कोई बात नहीं है। आप तो साधु हैं । डुमराँव स्टेशन पर उतर कर सीधे चले जाइएगा। कोई नहीं आपको रोकेगा। ठीक ऐसा ही हुआ। किसी ने आपसे टिकट नहीं माँगा और स्टेशन से बाहर चले आए। भूख बेचैन कर रही थी और स्नान भी नहीं किया था, अतः डुमराँव महाराज के तालाब में जाकर आपने अच्छी तरह स्नान किया। वहाँ एक साधु रहते थे। वे आपको स्नान करते देख कहने लगे- ‘स्नान तो यहाँ करते हैं, पर भोजन क्या कीजिएगा? जाइए, डुमराँव महाराज से सदाव्रत लेकर भोजन कर लीजिए ।’
आपने साधु महाराज से कहा- ‘आप भोजन की चिन्ता नहीं कीजिए । मैं स्नान के बाद कुछ भोजन कर लूंगा।’
आपने स्नान कर दो पैसे की मूढ़ी खरीदकर खा ली और एक पैसा दरिया साहब के स्थान पर चढ़ाने के लिए रख लिया। वहाँ से धरकन्धा बारह मील की दूरी पर था। आप वहाँ से अपना छाता और धोती लेकर रवाना हो गए। रास्ते में कई शाखा-नहरें आपको पार करनी पड़ी। भादो का महीना था। भगवान कृष्ण का जन्म हो चुका था; छठी बाकी थी। चलते-चलते थककर आप रास्ते में पड़नेवाले एक बगीचे की जमीन पर ही लेटकर आराम करने लगे।
एक आदमी आया। वह बोला- ‘आप यहाँ जमीन पर क्यों लेटे हुए हैं? बगीचे के बाहर निकट में ही गाँव है, आप वहीं जाकर विश्राम कीजिए।’ आप वहाँ से उठकर गाँव आए। बस्ती के बाहर देवीजी का मन्दिर था, वहीं आराम और रात्रि-निवास करने के विचार से चले गए। वहाँ एक वयोवृद्ध क्षत्रिय भद्र पुरुष तथा एक ब्राह्मण नवयुवक पहले से ही उपस्थित थे।
वृद्ध भद्र पुरुष ने आपसे पूछा- ‘महाराज! आज कहाँ से आ रहे हैं और कहाँ जाने का विचार है ?
आपने उत्तर दिया- ‘मैं दरिया साहब की कुटी धरकन्धा जा रहा हूँ। संध्या हो जाने के कारण इसी मंदिर में आराम करने की इच्छा है।’
यह सुनकर ब्राह्मण युवक ने कहा- ‘यहाँ आपको कौन खिलावेगा? गाँव में किसी के दरवाजे पर क्यों नहीं चले जाते? और उसकी बात सुनकर वृद्ध भद्र पुरुष बोले- ‘इस प्रकार क्यों बोलते हो? रहने दो, भोजन का प्रबन्ध हो जाएगा।
फिर आपसे कहा- ‘महाराज! आप थोड़ी देर यहीं ठहरिए। मैं नित्य कर्म से निवृत्त होकर आता हूँ, तब आपका कुल प्रबन्ध कर दूँगा।’
नित्य कर्म से निवृत्त हो वे आपको साथ लेकर अपने दरवाजे पर आए। वे जमींदार थे। -पक्का मकान और दरवाजे पर हाथी भी बँधा था। उनका एक पुत्र डुमराँव महाराज का तहसीलदार था और दूसरा जमींदारी तथा घर का सभी कारबार सँभालता था। जिस समय आप उनके दरवाजे पर पहुँचे, उनका लड़का बाहर की चौकी पर बैठ कर जलपान कर रहा था। उन्होंने आते ही चौकी खाली कर उसे बरामदे पर चढा देने के लिए कहा। लड़के ने तुरत अपने से चौकी बरामदे पर चढ़ाकर उसपर एक कम्बल बिछा दिया। फिर वृद्ध बोले ‘विराजिए महाराज!’ ।
वृद्ध का बिस्तरा भी इस चौकी की बगल में ही था। आज कृष्ण भगवान की छठी थी। उनके प्रसाद के लिए धनियाँ की मंजीरी बनी थी, वही आपको भी दी गई।
जमींदार साहब के दरवाजे पर उनकी ठाकुरबाड़ी थी, जिसमें ब्राह्मण पुजारी था। स्वयं जमींदार साहब भी ठाकुरबाड़ी का प्रसाद ही पाते थे। उन्होंने अपनी हवेली से भोजन का संबंध नहीं रखा था। वे अपना सात्त्विक जीवन बिताते थे। उनकी सेवा की भावना भी बड़ी श्रेष्ठ थी।
रात में कृष्ण भगवान को भोग लगा और आपकी चौकी पर बिछाये कम्बल का एक कोना हटाकर पानी से चौका लगाया और फिर पलाश के पत्तों से बनी पत्तल में भात, दाल, तरकारी, घी, दूध एवं चीनी इत्यादि भगवान का प्रसाद ही आपको भोजन कराया गया एवं स्वयं वृद्ध महाशय ने भी प्रसाद पाया।
इनमें धन का अभिमान नहीं था और वृद्ध होते हुए भी अपने हाथ से आतिथ्य सत्कार करने की पवित्र भावना थी।
भोजनोपरान्त आप दोनों अधिक देर तक वार्तालाप करते रहे। भद्र पुरुष ने कहा- ‘आप घबड़ाइए नहीं, मैं आपको सीधा रास्ता बता दूँगा, जिस होकर आप बिना किसी से पूछे ‘स्थान’ पर पहुँच जाइएगा।’
फिर आपलोग सो गए। ब्रह्म-मुहूर्त में आप वृद्ध भद्र पुरुष से पहले ही उठकर शौचादि कर्म से निवृत्त हो, मुख-ढाँक ध्यानाभ्यास करने लगे। सबेरा होते ही गृहपति बाहर चले गए। जब आप अभ्यास करके उठे, तब कर्मचारियों से उनके विषय में पूछा- ‘वे कहाँ गए हैं और कबतक लौटेंगे?’
कर्मचारियों ने बताया कि ‘कृष्ण भगवान की षष्ठी के उपलक्ष्य में वे ब्राह्मणों को भोजन का निमंत्रण देने गए हैं। यह काम वे अपने से ही करते हैं।’
ज्यों-ज्यों दिन चढ़ता जाता, आपमें जाने की व्यग्रता बढ़ती जाती थी। कुछ देर के बाद वे आये और आते ही आपने अपने प्रस्थान के लिए उनसे निवेदन किया।
वे बोले- ‘इतनी हड़बड़ी क्या है? ‘स्थान’ यहाँ से निकट ही है। आप स्नान-भोजन कर लें, तब मैं स्वयं जाकर सीधा रास्ता बता आऊँगा।’
दोनों ने स्नान किया और भगवान के भोग लगने पर आपको खिलाकर उन्होंने स्वयं भी प्रसाद पाया। अधिक वृद्ध होने के कारण वे बिना लाठी के चल ही नहीं सकते थे। अतः वे लाठी के सहारे आपको मार्ग बताने के लिए चल पड़े। कुछ रुक-रुककर टटोलते हुए चलने की क्रिया से साफ जान पड़ता था कि उनकी देखने की शक्ति भी क्षीण हो गई थी।
भद्र वृद्ध मार्ग-दर्शक बनकर आपके आगे-आगे चलने लगे। एक बगीचे की जमीन पानी से शराबोर थी और उसी होकर चलना था। टटोल-टटोलकर बगीचे के टीले एवं वृक्ष की जड़ पर सँभलकर पैर रखना होता था। वृद्धावस्था के कारण उनका हाथ भी काँपता था, अतः बड़ी कठिनाई से लाठी के सहारे वे बगीचा पार कर सके। बगीचा पार करने के बाद एक बड़े मैदान में पहुँचकर वृद्धदेव रुक गए और आपको आगे दूर में ताड़ के कई वृक्ष दिखलाते हुए बोले- “वही धरकन्धा का स्थान है। ताड़ वृक्ष वहीं है। ‘स्थान’ भी यहाँ से साफ दिखाई पड़ रहा है। आप यहाँ से उसे देखते हुए सीधे इस पथ से चले जाइए।”
इसके बाद वे कुछ पैसे आपको देने लगे, जिसे लेने से आपने इन्कार कर दिया। तब वे बोले- “ये पैसे मैं आपको नहीं दे रहा हूँ। इस पैसे से प्रसाद खरीदकर आप मेरी ओर से ‘स्थान’ पर प्रसाद चढ़ा दीजिएगा।”
तब आप पैसे ले लिये और उनसे बोले- ‘यदि आप मेरी अशिष्टता माफ करें, तो मैं आपसे एक प्रश्न पूछूँ ।’
वृद्ध देव बोले- ‘पूछने में क्या अशिष्टता? आप अवश्य पूछिए।’
आपने कहा- ‘आपके पास काफी धन है, नौकर है और हाथी भी है। आप चाहते तो किसी नौकर के द्वारा या हाथी पर चढ़-चढ़ाकर मुझे इस मैदान में लाकर रास्ता बता दे सकते थे, पर वैसा नहीं करके आप इस दुर्बल वृद्ध शरीर से कष्ट उठाकर मुझे मार्ग बताने क्यों आए?’
वृद्ध सदात्मा ने उत्तर दिया- ‘मरने पर यह शरीर न तो मेरे साथ जाएगा और न इसका संसार के किसी शुभ कार्य में उपयोग ही होगा, फिर इसको बचाकर- जीते-जी मुर्दा बनाकर रखने से क्या फायदा होगा? अतः जितना ही इससे शुभ-मंगल और भलाई का काम लिया जा सके, उतना ही उत्तम है। इस शरीर से यदि साधु-सन्तों की सेवा नहीं करूँगा, तो इसे रखकर ही क्या होगा? यही विचारकर मैं इसे धर्म और कल्याण के कामों में लगाया करता हूँ।’
वृद्ध देवता मनुष्य-शरीर का सदुपयोग करने की बात कहकर वापस लौटे और आप खिंचे हुए-से धरकन्धा पहुँच गए।
वहाँ दस-बारह साधु रहते थे, जिनमें एक वृद्ध थे। आपकी सारी बातें सुनने के बाद वे बोले- ‘हो, ई त मतिहीन के नु काम बा। तोहरा पास में जल-पात्रो नैखे, आसनों नैखे।’
इतना कहकर उन्होंने एक मिट्टी का जलपात्र लाकर आपको दे दिया। उन साधुओं से आपको पता लगा कि इस स्थान के महन्थ नासरीगंज चले गए हैं। आप ग्यारह दिन तक वहाँ रहे। यहाँ हुडहुड़ का साग तथा उबालकर सुखाये गए आलू की तरकारी बनती थी, जिसका विचित्र स्वाद था। बिना पूछे आपको पता ही नहीं लग सका कि साग किस वस्तु का बना है? ‘स्थान’ में आठ मन की एक चक्की थी, जिसे साँढ़ के द्वारा चलाया जाता था। वह साँढ़ भी इतना बदमाश था कि उसे वृद्ध साधु को छोड़ कोई दूसरा खोल भी नहीं सकता था।
दरिया साहब के स्थान धरकन्धा से उनकी जन्मभूमि आधे कोस की दूरी पर थी, जहाँ उनके परिवार के लोग रहते थे। आप वहाँ गए। उनकी जन्मभूमि के दर्शन किए।
वहीं उनका समाधि-मन्दिर भी था, उसके भी जाकर दर्शन किए। धरकन्धा के साधुओं से वहाँ की साधन-विधियों का पता सत्संग-चर्चा से लगा कि मानस जप और बाहरी त्राटक का अभ्यास ही उनकी एकमात्र साधना थी। सुरत-शब्द-योग के विषय में किसी ने कोई चर्चा नहीं की।
वहाँ के महन्थ का नाम श्री गोकुलदास साहब तथा अधिकारी का नाम श्री रघुनाथदास साहब था। ये दोनों साहबान स्थान से आठ-दस मील की दूरी पर कुछ साधुओं के साथ नासरीगंज में निवास करते थे। आप यहाँ की साधन-विधि की पूरी जानकारी प्राप्त करने के लिए महन्थ से मिलना आवश्यक समझ रहे थे। 

08.

सुरत-शब्द-योग की खोज में

आप दरिया साहब की वाणी पढ़कर जो समझ पाए थे, उसे उपलब्ध करने के लिए आपका अन्तर व्याकुल था। इसीलिए भ्रमण का उद्वेग उठा-- इसीलिए दरिया साहब का स्थान, उनकी जन्मभूमि, उनका समाधि-स्थान देखना आवश्यक हो गया तथा ‘स्थान’ के साधुओं से ग्यारह दिन तक सत्संग किया और इसीलिए अब नासरीगंज की ओर दरिया-पंथ के महन्थ और अधिकारी से मिलने की व्यग्रता उग्र हो उठी है।
नासरीगंज ले चलने के लिए एक साधु सन्त दरिया साहब के स्थान से आपके साथ हो गए। रास्ते में एक विचित्र घटना उपस्थित हो गई। भादो का महीना था और वर्षा जब-तब होती ही रहती थी। चलते हुए अचानक मूसलधार वृष्टि होने लगी। रक्षा के लिए आपलोग एक घर के पिछवाड़े की, ओलती में दीवार के सहारे खड़े रहे। बारिश बन्द होने के उपरान्त आपलोग बाहर निकल - कर अपने रास्ते की ओर जा ही रहे थे कि उस गाँव के कुछ क्षत्रिय लोगों ने आपके साथी साधु से पूछा- ‘महाराज! आप किस कुल के हैं?’
साधुजी ने उत्तर दिया- ‘साधु को कुल से क्या मतलब है?’
इस उत्तर को सुनकर वे लोग कहने लगे- ‘तब का रउवाँ भूमफोड़ हँई या आकाश से पड़ल हँई?’
उच्च वर्गों में अन्य जातिवाले को हेय दृष्टि से देखने का भाव था और ये साधु - अपने को छोटी जाति का मानकर अपनी जाति नहीं प्रगट करना चाहते थे। इसी कारण बात बढ़ते-बढ़ते बातों में सब कुछ हो गया, केवल प्रत्यक्ष मारपीट का खतरा किसी भाँति टल गया। फिर आप दोनों बस्ती से बाहर आए। अब आपके मन में भी इनकी जाति जानने का कुतूहल जाग उठा, परन्तु इसकी चर्चा कैसे की जाय? यही सोचने लगे- क्योंकि जाति नहीं बताने के लिए ही तो ये सारे बखेड़े इन्होंने उपस्थित होने दिए और इसे झेलने के लिए भी तैयार थे।
अन्त में कुछ सोचकर आपने साधु से पूछा- ‘साहब जी! आपको छोड़कर आपके घर में कोई नहीं है?
साधुजी ने उत्तर दिया- ‘हाँ, और भी कई लोग हैं।’ आपने फिर पूछा- ‘वे लोग कौन रोजगार करते हैं?’
साधुजी ने उत्तर दिया- ‘पहले तो बड़े काश्तकार थे, पर अब काश्तकारी नहीं है।’ आपने पूछा- ‘तो उनकी जीविका अब कैसे चलती है?’
साधुजी बोले- ‘यही माला इत्यादि बनाकर।’
इस भाँति आपने जान लिया कि ये मालाकर कुल के हैं । और यही नहीं बताने में इतना झमेला उठा।
नासरीगंज जाते हुए मन में विचार चल रहा है- ये क्यों नहीं अपनी जाति बता रहे थे? इसीलिए न कि सुनकर उच्च वर्ण कहलाने वाले हमें हेय दृष्टि से क्यों देखते हैं? यदि इनका संस्कार, चरित्र एवं ज्ञान उच्च और श्रेष्ठ हो जाय, क्या तब भी वे लोग हेय दृष्टि से ही देखेंगे? दरिया साहब को उच्च वर्णवाले क्या उसी दृष्टि से देखते हैं? केवल जन्म लेने से ही कोई श्रेष्ठ नहीं हो सकता- इसी भाँति तर्क-वितर्क करते हुए आप नासरीगंज पहुँच गए।
यहाँ के ‘स्थान’ में लगभग पचास साधु निवास करते थे। महन्थ बाबा गोकुलदास का आसन अलग कमरे में था और अधिकारी बाबा रघुनाथदास का दूसरे कमरे में। आपने अपना स्थान एक वृद्ध साधुजी के निकट रखा।
नित्य प्रति साधु लोग महन्थजी के पास जाकर बैठते और सन्त दरिया साहब के ग्रन्थों का पाठ करते। पाठ करनेवाले ने एक दिन गलत ही पाठ किया, पर महन्थजी ने इस ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया। आपको यह अशुद्ध पाठ बड़ा खटका। वह अशुद्ध पाठ यह था,- ‘चेतन चित को चेतिये, चतुरानन्द है पास।’ सत्संग समाप्त होने के बाद एकान्त पाकर आपने पाठ करनेवाले से पूछा- ‘चतुरानन्द’ शब्द का क्या अर्थ है?
पाठ करनेवाले साधुजी बोले- ‘ब्रह्मा।’
तब आपने उनसे निवेदन किया- ‘वह शब्द ‘चतुरानन्द’ नहीं, ‘चतुरानन’ होना चाहिए।’ यह सुनकर वे साधुजी आप पर बिगड़ गए और कहने लगे- ‘बड़ा पढ़आ नु बानी, रउएँ पढ़आ हँई, ग्रन्थ लिखनिहार गलतिये लिखले बा?’
तब आप उस साधु को महन्थजी के पास ले गए और ‘चतुरानन्द’ शब्द के संबंध में स्पष्टीकरण करने का उनसे निवेदन किया। महन्थजी बोले- “नहीं साहब! ‘चतुरानन्द’ नहीं ‘चतुरानन’ शब्द है।” यह सुनकर साधु का विद्याभिमानी सर शर्म से नीचे हो गया।
एक सप्ताह ठहरकर आपने देख लिया कि यहाँ भी आपकी आन्तर जिज्ञासा का समाधान करनेवाले कोई नहीं है। फिर सुना कि यहाँ से कुछ ही दूरी पर बलिया में एक दरियापंथी साधु रहते हैं। वहाँ भी ‘स्थान’ है। एक दिन बुखार आ जाने के कारण कमजोरी अधिक बढ़ गई थी, फिर भी आप बलिया चले आए और यहाँ एक सप्ताह तक निवास किया। ‘स्थान’ के वृद्ध साधु के अलावा एक दूसरे साधु से भी आप प्रति दिन मिलकर वार्ता किया करते थे।
यहाँ भी आपको संतोष नहीं हुआ। अब आपको छपरा के साथी श्री महावीर रामजी के यहाँ चले जाने की उत्कंठा उत्पन्न हो गयी और वृद्ध साधु को इसकी सूचना कर दी । वे कहने लगे- ‘आप तो अभी बहुत कमजोर हैं, कैसे जा सकेंगे।’ पर आपका निश्चय दृढ़ जानकर वे करुण भाव से आपकी सुख-सुविधा का प्रबंध करने लगे। निकट में ही एक अंग्रेज़ साहब की कोठी थी, वृद्ध साधु ने आपकी सारी कहानी और स्थिति उन लोगों को सुनाकर कहा कि यदि आपलोग थोड़ा-थोड़ा चंदा प्रदान करें तो वे सुखपूर्वक छपरा जा सकेंग।
कर्मचारियों ने उन वृद्ध साधु से कहा- ‘आप उनको एक बार यहाँ लाइए, तब हमलोग उनके जाने का प्रबंध कर देंगे।’
वृद्ध साधु ने सारी बात सुनाकर आपको वहाँ जाने की सम्मति दी।
कर्मचारियों ने विस्तारपूर्वक आपसे सारी कहानी सुनी और बोले- ‘आप तो अभी कोमल अवस्था के ही हैं। आप कहते हैं कि आप अंग्रेजी के विद्यार्थी थे, परंतु अंग्रेजी की किस पुस्तक को पढ़कर आपको योगी बनने की प्रेरणा मिली, जो आप योगी बन गए।’
आपने उत्तर में कहा- ‘आपलोगों ने ‘फर्स्ट बुक ऑफ रीडिंग’ नामक पुस्तक के आरंभ में ही नहीं पढ़ा- ‘All men must die.’ सभी मनुष्यों की मृत्यु निश्चित है। सोचिये, इससे क्या शिक्षा मिलती है।’
तत्पश्चात् आप बलिया स्थान पर लौट आए और कर्मचारीगण ने आपस में चन्दा संग्रह कर वृद्ध साधुजी के द्वारा आपके मार्ग-व्यय के लिए रुपये भेज दिए।
नासरीगंज होकर डेहरी-ऑन-सोन से एक प्रधान नहर बहती है। उसी होकर छोटे स्टीमर के द्वारा आरा तक आवागमन होता था। स्टीमर ठहरने के स्थान का नाम लॉक (Lock) है। वहाँ लोहे के फाटक को बन्द कर पानी को रोक रखा जाता है। जब स्टीमर लॉक तक पहुँचता है, तब फाटक खोल दिया जाता है और उसी जल-प्रवाह में स्टीमर दूसरे लॉक तक पहुँच जाता है। इसी भाँति स्टीमर एक लॉक से दूसरे लॉक होता हुआ चला जाता है। नासरीगंज में भी एक लॉक था। आपने स्टीमर द्वारा ही आरा जाने का विचार किया और नासरीगंज लॉक पर पहुँचे। संयोगवश उस दिन स्टीमर आया ही नहीं। आपने सोचा; व्यर्थ बैठकर समय खोने से चलकर आगे के दूसरे लॉक तक पहुँचना ही ठीक है। यह सोचकर पैदल ही नहर के किनारे-किनारे चलने लगे। किनारे के पथ से लोग कम ही चलते थे, इसी कारण रास्ता मँजा हुआ नहीं था। आप नहर-तट की हवा में चलते रहे। किसी से भी भेंट नहीं हुई। बहुत दूर निकल जाने के बाद करीब तीन बजे आपको बुखार हो आया। अगल-बगल में देखा- कोई मनुष्य नहीं दिखाई पड़ा। आधे कोस की दूरी पर एक बस्ती थी, पर वहाँ जाने की अब सामर्थ्य ही नहीं रही। नहर के दूसरे किनारे की बस्ती निकट में थी, पर पार करनेवाला बेड़ा भी उसी पार में था। बेड़ा पार करने के लिए इस किनारे से उस किनारे तक जो जंजीर बँधी थी, वह भी बीच में टूटी हुई थी। लाचार हो आपने धरकन्धा के साधु की दी हुई चार हाथ की गमछी बिछाई और लगभग सात हाथ लम्बी धोती से सारे शरीर को ढंक लिया। धूप से बचाव के लिए छाता तानकर उपयुक्त दिशा की ओर रख लिया। इस भाँति लेटे हुए आधा घंटा बीता होगा कि पानी में मनुष्य के चलने की आवाज सुनाई पड़ी। आपने देखा एक अट्ठारह-उन्नीस वर्ष का युवक उस पार की बस्ती से इस पार आ रहा है। उसके हाथ में घास काटने की कचिया (हँसुआ) थी। उसने आते ही आश्चर्यपूर्वक आपको देखकर कहा- ‘के हँई जी?’ ..
आपने कोई उत्तर नहीं दिया। पर, उसने पूछना बन्द नहीं किया। कई बार पूछे जाने पर आपने मुख उघारकर कहा- ‘जो है सो देखो।’
उसने कहा- ‘बाबा हँई?’
आप बोले- ‘जो समझो।’
फिर उसने कहा- ‘ए जगह काहे पड़ल बानी।
आपने कहा- ‘ज्वर हो गया है।’‘
इतना सुनकर वह घास काटने चला गया। कुछ देर में एक बोझा घास काटकर ले आया और आपके निकट रखकर कहने लगा- ‘ऐ बाबा! एजवाँ रउआँ कैसे रहब? एजवाँ त के हूँ नैखे, रउआँ कैसे रहब?’
आप बोले- ‘सबको देखनेवाले परमेश्वर हैं। वे जैसे रखेंगे, वैसे रहेंगे। जब शरीर चलने योग्य होगा, तब चलूँगा।’
युवक बोला- ‘रउआँ हमरे घर पर चलीं।’ आपने पूछा- ‘तुम कौन हो और तुम्हारे घर पर तुम्हारे कितने आदमी हैं, यदि तुम मुझ बीमार को घर ले चलोगे तो घरवाले तुमपर बिगड़ेंगे।’
उसने कहा- ‘हम कोइरी हँई, समांग की कमी नैखे। हमार घर पर पिता हँई, चाचा हँई, बहुत समांग हँई। कोई ना खिझिहँई। राउर बड़ी सेवा करिहैं। हमार चाचा बड़े भक्त हँई। हमनी कबीर-पन्थी हँई।’
आप युवक के सरल निश्छल आग्रह पर जाने के लिए तैयार हो गए। युवक ने उस पार से बेड़ा लाकर आपको नहर के पार उतारा और आदरपूर्वक अपने घर ले गया। उसके परिवार के लोग बड़े विनम्र थे। आपके दरवाजे पर पहुँचते ही सभी ने उल्लासपूर्वक आपका सत्कार किया और बिछावन दिया। जब भोजन का समय हुआ तो उसके चाचा जी आकर आपसे भोजन करने का आग्रह करने लगे।
आपने कहा- ‘मुझे तो बुखार है। मैं कैसे भोजन करूँगा?’ उसके चाचाजी बोले- ‘यदि आप नहीं भोजन करेंगे, तो मेरे परिवार के सभी लोग भूखे ही रह जाएँगे, अतः कुछ पा लेने की कृपा करें।’
‘अच्छा लाओ, कुछ पा लें’ कहकर आपने रोटी का छोटा-सा टुकड़ा मुख में डाल लिया और शेष भोजन वापस कर दिया। रात भर वहीं आराम किया। सबेरे पता लगा कि पास में ही एक दरिया-पंथी साधु का स्थान है। आप वहीं जाने लगे। उनलोगों ने अपने यहाँ और दो-तीन दिन ठहरने का बहुत आग्रह किया, पर आप उन्हें विनयपूर्वक समझाकर ‘स्थान’ पर चले आये। वहाँ से कुछ ही दूर पर मेघरिया ग्राम में एक भक्त थे। आपको बलिया स्थान में रहते हुए ही उनसे परिचय हुआ था और उन्होंने आपको अपने घर पर पधारने की बड़ी प्रार्थना की थी। आप उस स्थान के साधु के साथ ही उस भक्त के घर पर गए और तीन-चार दिनों तक ठहरे । वहाँ से एक लॉक निकट ही पड़ता था। आप वहीं जाकर स्टीमर पर चढ़े और आरा पहुँच गए आरा में एक ब्राह्मण महोदय ने आपको भोजन करने के लिए बड़ा आग्रह किया और अपने पास का पक्वान्न (खबौनी) दिया । उन्हीं से पता चला कि बिहटा से तीन कोस पर देकुली ग्राम में एक मठ है, जहाँ एक साधु रहते थे। बस आप अपनी खोज के आवेग में तुरत बिहटा का टिकट कटाकर वहाँ से देकुली मठ पहुँच गए। यहाँ दो-तीन दिन ठहरकर पुनः बिहटा से छपरा चले आए। महावीर रामजी ने बड़ी प्रसन्नता से आपका स्वागत और अभ्यर्थना की। आपने वहाँ एक महीने तक रहकर सत्संग किया और पुनः उनसे भी विदाई लेकर वापस गुरुदेव की ओर उन्मुख हुए।

09.

प्रत्यागमन में आकुल अन्वेषणा

सन् १९०६ ईस्वी में आप छपरा से जोतरामराय आकर गुरुदेव के आश्रम में चले गए और गुरुदेव की चरण-वन्दना की।
१९०७ ईस्वी से १९०८ ईस्वी तक आपके अन्तर में योग-पथ का सुनिश्चित-सुनिर्दिष्ट स्वरूप जानने की जो आग जल रही थी, उसकी छटपटी- उसकी आवेग-भरी हलचल में जो कार्य किए गए- उसका वर्णन इस प्रकार है-
दरियापंथी गुरुदेव के स्थान में एक माताजी रहती थीं। गुरुदेवजी कहा करते कि कुछ देर ध्यान करने के बाद माताजी में गुरुदेव के गुरु की आत्मा आविष्ट हो जाती है। और वे उस आविष्ट दशा में गद्य और पद्य में प्रवचन किया करती हैं। यह प्रवचन ‘गुरुवाणी’ कहकर गुरुदेवजी उल्लेख करते थे और आपसे कहते-- ‘मेरे गुरुदेव स्वयं प्रभु के अवतार थे।’
आपको अन्वेषण में सारी बातें निस्सार-सी प्रतीत हुई और क्षोभजन्य असन्तोष की ज्वाला और भी बढ़ गई।
आपको दरिया साहब के ग्रन्थों का सही अर्थ जब समझ में नहीं आता, तब गुरुदेव के पास जाकर जिज्ञासा करने लगते । गुरुदेव के उत्तर और व्याख्या से जब आपको जरा भी संतोष नहीं होता, तब आपके अन्तर में वास्तविक अर्थ जानने की अभिलाषा व्याकुलता और बेचैनी का रूप धारण कर लेती। आप सोचने लगते- ‘कहाँ, किनके पास जाऊँ, जिससे मुझे सच्चा ज्ञान मिले ।’ इसी अज्ञात-ज्ञात लालसा ने प्रथम आश्रम छोड़कर आपको गुरुदेव की बिना आज्ञा लिए ही भाग जाने के लिए विवश कर दिया था। और आज उस लालसा की प्रच्छन्न ज्वाला ने आवरण को जलाकर बाहर में झाँकना प्रारम्भ कर दिया था । गुरुदेव आपके बारम्बार पूछने की क्रिया से तंग आ गए थे और सदा आपके प्रश्नों को टाल देने का प्रयत्न किया करते थे।
एक दिन आपने ‘परिमल’ शब्द का अर्थ गुरुदेवजी से पूछा। उन्होंने कहा- “परिमल’ का कुछ अर्थ नहीं होता है। ‘वाणी’ से अर्जी करो।” ‘वाणी’ का अर्थ ‘गुरुवाणी’ से था, जो गुरुदेव क कथनानुसार आविष्ट दशा में उक्त माताजी के मुख से निकलती थी ।’
आपने ‘वाणी’ से ‘परिमल’ शब्द के अर्थ के स्पष्टीकरण के लिए अर्ज किया। वाणी से आपको निर्देश मिला- “परिमल’ शब्द ही गलत है। उसे परवल पढ़ो । ग्रन्थ की लिखावट में अशुद्धि है, उसके स्थान पर परवल’ शब्द ही होना चाहिए। सन्तों की वाणी का अर्थ जानने के लिए उनकी ‘वाणी’ से ही प्रार्थना करो।” वाणी के निर्देशन से ‘वाणी’ के प्रति आपकी आस्था की इतिश्री हो गई और शब्दार्थ के विषय में भी असमंजस की वृद्धि हुई या यह विश्वास उठ गया कि यहाँ से आपको कभी सही अर्थ की प्राप्ति हो सकती है।
आप तो जानते ही थे कि ‘परिमल’ शब्द का अर्थ सुगन्ध होता है। गुरुदेवजी दृष्टि-साधन की कुछ चर्चा तो अवश्य कर लेते थे, पर शब्द-साधना के विषय में उन्हें कुछ भी जानकारी नहीं थी।
ऐसी दशा में--ऐसे गुरु के प्रश्रय में रह कर उनको कब शान्ति मिल सकती थी, जिन्होंने इसी जन्म में पूर्ण तत्त्व-ज्ञान उपलब्ध करने के लिए ही मनुष्य-शरीर धारण किया था। अब आपकी आन्तर चेतना ने दरियापंथ के अतिरिक्त अन्य पन्थों की ओर भी निहारना प्रारम्भ कर दिया था ।
उसी अवसर पर एक कबीरपन्थी साधु गुरुजी के डेरे पर आए । गुरुजी ने उनका पूरा आदर-सत्कार किया और वे इस ‘स्थान’ पर कुछ दिनों के लिए ठहर गए । गुरुदेव को पूरा आवभगत करते देख आपके मन में भी पूर्वसंचित आशा अंकुरित हो उठी और उनकी सेवा में तत्पर रहने लगे। उनके आदेश के अनुसार उनका काम कर देना, अपनी इच्छा से उन्हें सुख पहुँचाने का प्रयत्न करना, उनके शरीर की मालिश कर देना आदि सभी भाँति की सेवा में लगे ही रहते थे। आपकी श्रद्धा, भक्ति और सेवा से साधुजी प्रसन्न और मुग्ध होकर एक दिन कहने लगे–’बच्चा ! तुमको लोटा मलने, दंतवन करने, स्नान करने आदि का मन्त्र आता है?’ आपने उत्तर दिया- ‘जी नहीं आता है।’
फिर वे बोले- ‘यदि तुम मेरे साथ चलो तो मैं इन सभी चीजों का मन्त्र तुम्हें सिखा दूँ ।’ यह सुनकर आपने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। आपने समझ लिया कि ये महाराजजी मुझे चेला बनाने की चिन्ता में लगे है। साधु महाराज ने कई दिन यह प्रस्ताव आपके सामने रक्खा । तब एक दिन आपने उत्तर दिया- ‘महाराजजी ! मैं लोटा मलने, मिट्टी लेने, पानी पीने, तेल लगाने, स्नान करने, भोजन करने आदि भिन्न-भिन्न कामों के लिए अलग-अलग मन्त्रों की कोई जरूरत नहीं समझता। मैं एक ही नामवाला मन्त्र जानता हूँ. जिसमें सभी मन्त्र आ जाते हैं। आप अपने मन्त्र अपने ही पास रक्खें ।’ . इसके बाद साधु ने कभी आपसे ऐसा प्रस्ताव नहीं रखा और वे शीघ्र ही यहाँ से चले गए। पुनः दो वर्षों के बाद वे आए; किंतु फिर उन्होंने ऐसी चर्चा नहीं की, क्योंकि चेला बनाने का उनका साहस नष्ट हो गया था। 

10.

मित्र द्वय

श्री धीरजलाल गुप्त का घर कमालपुर में था और श्री रामदास चौधरीजी काढ़ागोला ग्राम के निवासी थे। ये सितार बजाने में बड़े प्रवीण थे। श्री रामदासजी जोतरामराय विद्यालय के अध्यापक तथा वहीं के शाखा-डाकघर के सब-पोस्टमास्टर थे। श्री धीरजलाल गुप्तजी काढ़ागोला विद्यालय के अध्यापक तथा यहीं से सब-पोस्टमास्टर थे। दोनों मित्रों में बड़ी घनिष्ठता थी। आप दोनों भी भगवत्प्राप्ति के सच्चे मार्ग की खोज में क्रमशः शाक्त, वैष्णव, नानकपन्थ आदि की दीक्षा ग्रहण कर उनके बताये साधन-भजन से सन्तुष्टि नहीं मिलने पर क्रमशः आगे बढ़ते चले जाते थे।
एक बार दोनों मित्र एक कबीरपन्थी साधु के कहने पर कबीर धर्मनगर दामाखेड़ा चले गए और वहाँ वंशडोरी कबीर-पन्थ के सबसे बड़े महन्थ श्री धर्मदासजी के वंशज उग्रनाम साहबजी के शिष्य हो गए। आप गुरुदेवजी का पत्र लाने तथा उसे गिराने के लिए बराबर डाकघर जाया करते थे। वहाँ रामदासजी से वार्ता का अवसर मिलता ही रहता था। अध्यात्म-पथ के अन्वेषण की भावना के कारण परस्पर वार्तालाप करने में दोनों को कुछ आनन्द भी मिलता था। श्री रामदासजी ने उपर्युक्त कबीरपन्थी साहब की बड़ी प्रशंसा की, जिसे सुनकर आपकी खोजी वृत्ति ने आपको छत्तीसगढ़ जाने के लिए धक्का देना प्रारम्भ कर दिया । साधु के कहने पर कबीर धर्मनगर दामाखेड़ा चले गए और वहाँ वंशडोरी कबीर-पन्थ के सबसे बड़े महन्थ श्री धर्मदासजी के वंशज उग्रनाम साहबजी के शिष्य हो गए। आप गुरुदेवजी का पत्र लाने तथा उसे गिराने के लिए बराबर डाकघर जाया करते थे। वहाँ रामदासजी से वार्ता का अवसर मिलता ही रहता था। अध्यात्म-पथ के अन्वेषण की भावना के कारण परस्पर वार्तालाप करने में दोनों को कुछ आनन्द भी मिलता था। श्री रामदासजी ने उपर्युक्त कबीरपन्थी साहब की बड़ी प्रशंसा की, जिसे सुनकर आपकी खोजी वृत्ति ने आपको छत्तीसगढ़ जाने के लिए धक्का देना प्रारम्भ कर दिया । 

11.

छत्तीसगढ़ की दिशा में

छत्तीसगढ़ मध्य प्रान्त के रायपुर जिले में और बंगाल, नागपुर रेलवे के हथबन्द स्टेशन से छह मील दूर धर्मदास नगर है, जिसका पुराना नाम दामाखेड़ा था। यहाँ कबीर साहब के प्रधान शिष्य धर्मदासजी के वंशज रहते थे। महानुभाव उग्रनाम साहबजी उस परम्परा के (धर्मदासजी के बाद के) बारहवें गुरु थे। रामदासजी ने निम्नलिखित कविता सुनाकर उस ओर आपका मन विशेष रूप से आकर्षित कर लिया था -
‘तेरह पीढ़ी वंश अवतरिहैं, चूडामणि अवतारा हो।
जिनके देह छाया नहीं होइहै, देह विदेह अपारा हो।।

परीक्षा-भवन से आप सन्त की खोज में निकले थे, पर अभी तक आपको ऐसे ऋषि नहीं मिले थे, जो आपकी जिज्ञासा का समाधान कर शान्ति प्रदान करते। इसीलिए जहाँ भी आपको किसी साधु की विशेषता सुनने को मिलती, तुरत कष्ट-कठिनाई, दुख एवं रोगों की परवाह छोड़कर आप दौड़ पड़ते
और जबतक उनके बारे में ठीक-ठीक जान नहीं लेते, तबतक उनके सेवा-सत्संग में लगे ही रहते।
आज भी उसी संवेग में आप धर्मदास नगर की ओर चल पड़े है। काढ़ागोला से सीधे छपरा और वहाँ से लौटकर सहदेई बुजुर्ग, श्री विजय गोविन्द सहायजी की मुलाकात करने चले आए। ये पहले छपरा में आपसे मिले थे और उपने घर पर पधारने के लिए इन्होंने विशेष अनुरोध किया था।
श्री विजय गोविन्द सहायजी ने छपरे में आपसे स्वर्गीय मुन्सिफ साहब की भक्ति-संबंधी विचित्र घटना सुनायी थी। इसलिए भी आप उनकी जन्मभूमि के दर्शन करने के लिए यहाँ पधारे थे।
सहदेई बुजुर्ग की सौभाग्यवती धरती पर ही भक्तवर मुन्सिफ साहब का जन्म हुआ था। ये घर के सुखी-सम्पन्न व्यक्ति थे, पर एक भी सन्तान नहीं थी। दोनों पति-पत्नी सदैव भगवान की भक्ति, पूजा-आराधना तथा सन्त-साधुओं की सेवा करने में तत्पर रहते थे। उनके यहाँ जब कोई कुछ माँगने आता, तो उसे कुछ-न-कुछ दे ही देते। दान करते समय अपनी आर्थिक स्थिति की मर्यादा को ये भूले रहते थे। फलतः धीरे-धीरे सम्पन्नता परिवर्तित होकर विपन्नता बन गई। अब वेतन ही आधार था। पुनः अवकाश-प्राप्त हो गए और सरकार से पेन्शन मिलने लगा। इसमें भी अपने अभाव में रहकर साधु-सन्तों को खिलाते तथा दीन-दरिद्रों को यथासंभव दान करते रहते। इनकी पत्नी को स्वर्ण के कई अलंकार थे। ये आभूषण भी क्रमशः बिकते गए, केवल पत्नी के हाथ में सोने का बाला ही रह गया था। गाँव के लोग भी किन्हीं साधु-सन्त के आने पर सीधे इन्हीं के यहाँ भेज देते थे और ये भी उनकी सेवा में लगे ही रहते । बाहरी परिस्थितियों की इन्हें चिन्ता नहीं थी। ये एकमात्र भगवान का ही भरोसा रखते थे। ये सदा तैयार थे कि भगवान जिस भी हालत में रखेंगे, उसी में हम प्रसन्नता से रहेंगे और उनसे कभी अभाव की कोई शिकायत नहीं करेंगे। फिर उनकी जैसी कृपा होगी, वैसा वे करेंगे।
एक दिन ये स्नान करने जा रहे थे, उसी समय गाँववालों ने पचास साधुओं को इनके यहाँ भेज दिया। उतने लोगों को खिलाने की घर में स्थिति थी नहीं; सोचा- पत्नी को एक ही आभूषण बच रहा है, यह लेकर उसे बेचेंगे नहीं, कहीं बन्धक रखकर आवश्यक सामान ले आवेंगे और पीछे पेन्शन से बचा बचा कर बाला छुड़ा लेंगे। यही सोचकर ये पत्नी के पास जा खड़े हुए। उनकी भक्तिमती पत्नी उस समय पूजा की तैयारी कर रही थीं। आपने दरवाजे पर पधारे हुए साधुओं - की चर्चा करते हुए कहा- ‘तुम यह स्वर्ण-बाला दे दो। इसे बन्धक रखकर अभी साधुओं की भोजन-सामग्री ले आता हूँ, पीछे छुड़ाकर तुम्हें वापस दे दूँगा। पत्नी ने तुरत ही बाला खोलकर दे दिया और उन्होंने साधुओं को भोजन से तृप्त किया । ।
थोड़े-से पेंशन में उदारतापूर्ण दान के कारण पैसे बचते ही नहीं थे, जो बाला छुड़ाया जा सके। पति-पत्नी में जब-तब यह चर्चा चल जाती कि आपने तो कहा था कि बाला छुड़ाकर दे देंगे, पर दे कहाँ रहे हैं ? मुन्सिफजी को बड़ी चिन्ता हो जाती कि कैसे अपनी बात की पूर्ति करूँगा? एक दिन मुन्सिफजी स्नान करने जा रहे थे, उसी समय पत्नी ने बाला वापस देने की चर्चा की। आज भगवत्-चिंतन में बाले का भी चिंतन साथ ही चल रहा था। करुणागार भगवान से भक्त की व्यथा सही नहीं गई। वे स्वयं मुन्सिफजी के रूप में पधारे और दुकानदार से बाला छुड़ाकर उनकी पत्नी को वापस देने आए। आज भी उनकी पत्नी पूजा के लिए चौका लगा रही थीं। उन्होंने कहा- ‘मेरे हाथ में तो कीचड़ लगे है, आपही पहना दीजिए न।’ और भगवान उसे अपने हाथों से बाला पहनाकर चले गए।
मुन्सिफजी स्नान कर आए, तो पत्नी के हाथों में बाला देख आश्चर्यचकित हुए और पूछा- ‘यह बाला तुम कहाँ से ले आई?’ पत्नी बोली- ‘आप ही ने तो अभी तुरत दिया है और आप ही पूछते हैं ? पर यह सुनकर मुन्सिफजी सीधे दुकानदार के पास गए और कहा- ‘मेरा बाला वापस करो ।’
दुकानदार बोला- ‘अभी तो आप रुपये देकर बाला ले गए हैं और फिर कहते हैं कि बाला वापस करो!’
प्रभु की अहैतुकी कृपा की याद कर मुन्सिफजी रोने लगे और भगवान की करुणाभरी लीला आकर पत्नी से कह सुनाई। सुनते ही दोनों का प्रेमावेश सागर की भाँति उमड़ने लगा और उन्हें अन्तर और बाहर सर्वत्र प्रभुही-प्रभु दिखाई पड़ने लगे।
ये दोनों भक्त पति-पत्नी स्थूल देह छोड़कर प्रभुधाम चले गए, पर इनके पवित्र निवास-स्थल को देखने के लिए सहृदय भक्त आते ही रहते हैं। आप इसी पवित्र भूमि के दर्शनार्थ ही छपरा से वापस सहदेई बुजुर्ग पधारे थे।
यहाँ से स्टेशन मास्टर साहब को आपसे बातें करने में बड़ी दिलचस्पी हुई। उन्होंने अपने अयोध्या-निवासी गुरुदेव की साधना संबंधी विशेषताओं की आपसे चर्चा की। इस वार्ता के सिलसिले में उन्होंने गोस्वामी तुलसीदासजी की ‘विनयपत्रिका’ के एक पद का बड़ा ही सुन्दर अर्थ बताया। इससे आपको ये अनुभवी विद्वान एवं सुयोग्य व्यक्ति जान पड़े।
सहदेई बुजुर्ग से आपने सीधे हथबन्द का टिकट कटाया। ट्रेन में चढ़ते समय आसनसोल के एक साधु भी आपके साथ हथबन्द तक आए।
हथबन्द से धर्मदास नगर छह मील दूर रहने के कारण आप रात में भोजन करने बाजार गए और वहीं विश्राम किया। बाजार में सरसों तेल का कहीं नाम भी नहीं था। यहाँ उसके स्थान पर तिल के तेल का ही उपयोग होता था ।
छुआछूत की भावना यहीं बड़ी व्यापक थी। कार्यवश आप कुएँ पर गए थे। वहाँ एक पनिहारिन पानी भर रही थी। आपके जाते ही उसने कहा- ‘मेरा घड़ा छुआ गया, इसका मूल्य दे दो ।’ आपके चरण से उस रस्सी का स्पर्श हो गया था, जो उसके घड़े से बँधी हुई थी। पनिहारिन ने आपसे घड़े का दाम चुका ही लिया ।
प्रातः ही आपने दामाखड़ा के लिए प्रस्थान कर दिया। रास्ता पूछने पर एक आदमी ने बताया कि अभी तो वहाँ के मैनेजर साहब बैलगाड़ी पर चढ़कर जा रहे थे। वे बहुत दूर नहीं गए होंगे। आप तीव्र गति से चलकर गाड़ी के निकट जा पहुँचे और मैनेजर साहब से बातें की। आपका परिचय प्राप्त कर उन्होंने आपको बैलगाड़ी पर बिठा लिया। अपने यहाँ आने के प्रथम ही पत्र द्वारा सूचित किया था, जिससे मैनेजर साहब अवगत थे, अत: ‘पूर्णियौं’ का नाम सुनते ही वे आपको भलीभाँति पहचान गए । वार्तालाप के सिलसिले में मैनेजर साहब बोले- ‘हमलोगों के साहबजी बड़े दयालु है। हो सकता है, वे आपको किसी अखाड़े का महन्थ बना दें। बहुतों को उन्होंने महन्थ बना दिया है।’
आपलोग अखाड़े पर पहुँचे और वहाँ बड़े साहब तथा छोटे साहब क दर्शन किए। छोटे साहब की उम्र तेरह वर्ष की थी। साहबजी ने आपके निवास एवं भोजन की व्यवस्था कर दी। वहाँ रसोई के दो भंडारगृह थे। एक में साहबजी भोजन करते थे और दूसरे में वहाँ निवास करनेवाले अस्सी साधुगण। भंडार के प्रबंध का कुल उत्तरदायित्व साधु संभालते थे।
आप अपनी अभीप्सित वस्तु की खोज में लगे। सन्त ही तो अपनी अनुभूति के द्वारा दृष्टि-साधन और सुरत-शब्द-योग का सुनिर्दिष्ट - पथ बता सकते हैं।
यहाँ दोनों साहबों की आरती होती थी। पहले बड़े साहबजी की और तत्पश्चात छोटे साहबजी की। पिता-पुत्र दोनों की अलग-अलग आरती उतारी जाती थी।
आपको मित्रद्वय की कविता याद आई ‘ताके देह छाया नहिं होइहै, देह विदेह अपारा हो ।’ पर, यहाँ तो दोनों साहबों की देह छाया-सहित थी।
आप वहाँ ग्यारह दिन रहे, पर कभी साधन-भजन की चर्चा नहीं सुनी। एक दिन उग्रनाम साहब ने आपसे पूछा-- ‘आप किस उद्देश्य से भ्रमण कर रहे हैं ?’
आपने उत्तर दिया- ‘सारशब्द की जिज्ञासा के लिए।’
उत्तर में उग्रनाम साहब ने एक साधु को आदेश दिया कि ये पाठ करने के लिए जो-जो ग्रन्थ माँगें, इन्हें दे दिया करना। आपने समझ लिया कि अपनी अनुभूति की कमी को ये ग्रन्थों के आवरण में छिपाना चाहते हैं। ज्ञान-संबंधी विशेषता नहीं पाने के कारण यहाँ रहने का कोई आकर्षण आपमें नहीं रहा। आपको आश्चर्य हो रहा था कि अन्वेषण-वृत्तिवाले मित्र-द्वय ने कैसे इनकी इतनी प्रशंसा की थी? आपने यह स्थान छोड़ देने का संकल्प कर लिया और साहब के पास विदाई के लिए गए ।
उसी समय साहब के पास और दो साधु आए और कहने लगे–‘हमलोग बाहर जाना चाहते हैं ।’ - इसपर साहबजी बोल- ‘नहीं , अगर आपलोग बाहर जाना चाहते हैं, तो एक ही बार दोनों साहबान नहीं जायें, अन्यथा लोग शिकायत करने लगेंगे कि खर्च बचाने के लिए साहबजी ने एक ही बार सभी साहबान को बाहर चले जाने दिया। ‘स्थान’ की शिकायत नहीं हो, इसीलिए आपलोग बारी-बारी से बाहर निकलें ।’
उन दोनों के बाद आपने भी साहबजी से प्रस्थान की अनुमति मांगी। उन्होंने कहा- ‘आपके लिए तो मैंने कुछ दूसरा ही सोच रखा था।’
आपने उत्तर दिया- ‘आपका ही उपदेश है कि गुरु की सेवा करो, अतः गुरु की सेवा करने के लिए ही मैं वापस जा रहा हूँ।’
उन्होंने मार्ग-व्यय के लिए पाँच रुपये देकर आपको विदा कर दिया ।

12.

बल्ली बाबा के दर्शन

धर्मनगर से आप गुरुजी के पास लौट आए। रामदासजी से मिलने पर आपने अपनी सारी कहानी उन्हें सुनायी और बोले-- ‘आपलोग तो उग्रनाम साहबजी की बड़ी तारीफ करते थे, किन्तु मुझे तो उनमें कोई विशेषता नहीं नजर आयी।’
यह सुनकर वे बिगड़ गए और बोले –
“जाकी रही भावना जैसी ।
प्रभु मूरति देखी तिन तैसी ।।”

कुछ दिनों के बाद आपने दोनों मित्रों के संबंध में सुना कि अब वे ऐसे मत में चले गए हैं, जो गुरु को नहीं मानता। आपके मन में उन दोनों के प्रति और भी अविश्वास बढ़ गया कि गुरु को नहीं मानते हैं, तो कैसे काम चलेगा?
एक बार आपने एक कबीरपंथी साधु बल्ली बाबा की प्रसिद्धि सुनी। वे विचित्र ढंग के महात्मा थे। उनकी सिद्धि के अनेक चमत्कार लोगों ने देखे थे। पूर्णियाँ जिले के बरबन्ना गाँव में उनकी कुटी थी। कुछ दिन - उन्होंने वासुदेवपुर (बड़हरा) की कुटी में भी निवास किया था। यह कुटी श्री वंशी साहुजी ने बना दी थी और उनकी सेवा की सारी व्यवस्था भी साहुजी के द्वारा ही होती थी।
जहाँ कहीं भी आप सन्त या विशेष महात्मा होने की बात सुनते, आपकी ब्रह्म-जिज्ञासा खींचकर आपको वहाँ ले जाती। आपने कार्तिक मास में उनके दर्शन के लिए प्रस्थान किया। आकर धमदाहा थाने के दारोगाजी के यहाँ ठहरे। ये दारोगाजी पहले बरारी थाने में थे और जोतरामराय जाने-आने में आपसे घनिष्ठ परिचय हो गया था। नाम था कान्ह बिहारी प्रसाद ।
आप दारोगाजी के साथ ही बल्ली बाबा के दर्शन करने धमदाहा से बड़हरा आए और एक मारवाड़ी के यहाँ ठहर गए। प्रात:काल उनकी कुटी पर आप पधारे। आपने उन्हें विचित्र स्वभाववाला साधु पाया। आपने देखा कि बहुत-से लोग बाहर बैठे हुए हैं और बाबाजी कुटी के अन्दर से ही बातचीत कर रहे हैं। आपने भी बाहर बरामदे से ही बाबाजी को प्रणाम किया। बाबाजी बोले- ‘के छिको हो, गोसाँय छिको हो ।’
आपने कहा- ‘जी, हाँ ।’ फिर बाबाजी ने आपकी जाति पूछी। आपने अपना कुल बता दिया। इसके उपरान्त फिर कुछ नहीं पूछा। आप एकान्त-वार्तालाप करने की इच्छा से वापस लौट आए और लोगों से पूछने पर पता लगा कि दस बजे रात में वहाँ कोई नहीं रहता।
दस बजे रात को आप अपना आसन लेकर बाबाजी की कुटी पर पहुँच गए। आपके पहुँचने के पूर्व ही बाबाजी ने कुटी का दरवाजा बन्द कर लिया था और खिड़की पर भी परदा डाल दिया था। आपके पहुँचते ही कुत्ता जोर-जोर से भूँकने लगा, किन्तु निकट आते ही वह अनायास ही शान्त हो गया। आप कुटी के बरामदे पर अपना आसन बिछा कर बैठ गए और साधुजी को बाहर से ही प्रणाम किया। आपकी बोली उन्होंने पहचान ली और पूछा- ‘के छिको हो, गोसाँय छिको।’
आपने उत्तर दिया- ‘जी, हाँ।’
वे बोले- ‘यहाँ रात में कि कोय रहै छै। यहाँ हमरा पास की भोजन करभे! चल जा, बोध बाबू के बेटा भेल छैक, वोतै नाच-गान भै रहल छै। यहाँ से चल जा, नाच देखऽगऽ। आपने कहा- ‘महाराज! मैं यहीं रहूँगा।’ । कुछ देर बाद फिर वे बोले- ‘गेलो हो?’
आपने कहा- ‘जी, नहीं ।’ वे बोले- ‘हमरा ओते कि कुछ छैक, भोजन की करभे, चल जा, वोतै जाके रह ।’
आपने कहा- ‘नहीं महाराज! मैं यहीं रहूँगा। मैं भोजन करके आया हूँ।’ वे बोले- ‘गेलो हो?’
आपने कहा- ‘जी, नहीं।’ वे फिर बोले- ‘हो गोसाँय रहतिहत बात नै मानतिह, तू केहन गोसाँय छ ? यहाँ कि हमरा पास बिछौना छै, बिछैभे की ?’ .... आप बोले- ‘महाराज! मेरे पास आसन है। मैं आपके दर्शन चाहता हूँ।’ कुछ देर के बाद फिर वे बोले- ‘गेलो हो?’
आपने कहा- ‘जी नहीं।’
उन्होंने कहा- ‘हो, तू कैसन गोसाँय छ - हो ? गोसाँय के बात मानना चाही, अच्छा त जा, दूसर घर में जाकेऽ आराम करऽ ।’
आप बोले- ‘नहीं महाराज! मैं आपसे कुछ उपदेश लेने आया हूँ।’
इसपर उन्होंने खिड़की से हाथ निकाल कर आपको एक मुट्ठी जलेबी दी और कहा ‘जा, खाय के पानी पी ल, फिर दूसर घर में जाके आराम करऽ ।’
आपने जलेबी ले ली। ... उन्होंने फिर पूछा- ‘गेलो हो ?’
आप बोले- ‘जी नहीं, मैं यहीं रहूँगा। भक्ति के विषय में आप कुछ बताने की कृपा करें।
इसपर वे गाली बकने लगे और जोर-जोर से चिल्लाने लगे- ‘दौड़ऽ हो, हायरौ बाप! मारलक रौ, लूटलक रौ, दाँत तोडलक रौ ।’ ऐसे ही कितने शब्द बोलकर हल्ला करने लगे। इसके बाद आपको बेछूट (सतत) गाली देने लगे। किन्तु आप शान्त भाव से गाली सुनते हुए बरामदे पर डटे रहे। इस भाँति सबेरा हुआ और वंशी साहु की बहन आई। उसने बाबाजी से कहा- ‘दरवाजा खोल देल जाय सरकार !’
उन्होंने कहा- ‘जा, एखन चल जा ।’ इसपर वह बोली- ‘गन्दगी में कोना रहब सरकार ! साफ करके हम चल जायब।’ वे बोले- ‘गोसाँय बैसल छै, गन्ध लगतै-गन्ध ।’
आपने कहा- ‘नहीं महाराज ! गन्ध नहीं लगेगी।’
इसपर उन्होंने दरवाजा खोल दिया। बाबा जी रोटी पकाने के तवे में राख डालकर उसी में पाखाना फिरते थे और पेशाब के लिए एक दूसरा बर्तन था। उसने घर से दोनों बर्तन - निकालकर बाहर फेंक दिए और बाबाजी से कहने लगी- ‘सरकार! कई-एक दिन से घर साफ नै कैल गेल छैक, कमरा में झाडू दे दियै?’ बाबाजी बोले- ‘बाप रौ बाप, कतेक चीज घर में छैक, झाडू कोना लगैभैं ? जा चैल जा, चीज सब फोड़-फाड़ देभै ।’ यह सुनकर वह चली गयी। कुछ देर के बाद एक आदमी दूध लेकर आया और बोला- ‘बाबा ! दूध लै लेल जाय ।’ उन्होंने कहा- ‘दूध केकरा ले आनने छ ?’ उसने कहा- ‘बिल्ली के लिए।’
इसपर वे बोले- ‘बिल्ली दूध नै पिवैत छेक, चल जा ।’
फिर भीतर से ही कहा- ‘बाहर में गोसाँय के दे देहो ।”
फिर आपसे उन्होंने कहा- ‘ले गोसाँय दूध ल के पी ल ।’
आपने दूध ले लिया। पास में चीनी थी ही। दूध में पानी और चीनी मिलाकर पी लिया और रात में बाबा द्वारा बताये गए दूसरे मकान में अपना आसन लेकर चले आए। सूर्योदय के कुछ देर उपरान्त एक आदमी भंडार (रसोई) बनाने आया । बाबाजी ने उससे कहा- “जा गोसाँय के पूछऽ हमर भंडार बनायल ऊ ग्रहण करता ?’
उस आदमी ने आकर उनके कथनानुसार आपसे पूछा। आपने कहा- ‘बाबाजी वृद्ध हैं। उनसे कहिए, मैं ही भंडार बना दूँगा और दोनों आदमी भोजन कर लेंगे।’
यह कथन सुनकर बाबाजी ने कहा- ‘नै, हम अपनें भेजन बना लेब ।’
उन्होंने स्वयं रसोई बनाकर आपके लिए उसी मकान में भिजवा दिया।
फिर आपसे कहा-‘तू दासिन कर ले, दोनों भाय के सेवा करऽत ।’
सबेरे जो-जो आदमी उनके पास आए, सभी से उन्होंने कहा- ‘हो, ऐ गोसाँय के ले जा। रात में ई हमरा के मारलक ए, दाँत तोडलक ए।’ फिर आप तिवारीजी के दरवाजे पर जाकर रहे। दूसरे दिन प्रातः ही पुनः आप बाबाजी के पास आए। बाबाजी ने आपको देखते ही कहा–’छी ! छी! ! देह में की लगा के ऐल छऽक । जा, नहा लऽ।’ आपने कहा- ‘मैं स्नान करके आया हूँ।’ उन्होंने कहा- ‘अच्छा, तब बैठऽ।’ पुनः बोले- ‘हाँ, एक बात सुननें छह ।’
जैसे मृगा नाद सुनि धावै। मगन होय व्याधा ढिग आवै।।
चित कछु शंक न मानै सोई। देत शीश सो नहीं डराई।।
औ पतंग को जैसा भाऊ। ऐसा अनुरागी उर आऊ।।
(यह पद ‘अनुराग सागर’ का है)

यह पद कहकर वे बहुत जोर से हँसे और कहने लगे– ‘के कहले रहै, कबीर कहले रहै ।’
दूसरे दिन आप धमदाहा थाने पर लौट आए। वहाँ दारोगा श्री कान्ह बिहारीजी ने आपसे कहा- ‘आप जिज्ञासु हैं । आपको तो अवश्य ही प्राप्त हो जाएगा। प्राप्त होने पर आप हमको भी बता देंगे।’
कुछ दिनों के उपरान्त आप पुनः बल्ली बाबा के दर्शन करने गए, परन्तु वे तिवारीजी की हवेली में निवास कर रहे थे, अतः चुपचाप लौट आए। इसके बाद बल्ली बाबा ने अपने शरीर को त्याग दिया।

13.

जिज्ञासाकुल हृदय

१९०७ ईस्वी से ही प्रायः ऐसा होता रहा कि जब-जब आपने ग्रन्थों का वह अर्थ, जो आप नहीं समझ पाते थे, गुरुजी से पूछा करते। पहले तो उत्तर देने में असमर्थ होने से गुरुजी किसी भाँति टाल दिया करते, पर बारम्बार ऐसी जिज्ञासा करते रहने के कारण वे खीझकर आप पर बिगड़ने लग गए थे। १९०९ ईस्वी में आपकी जिज्ञासा का वेग पराकाष्ठा को स्पर्श करने लगा। समाधान नहीं होने पर इतनी बेचैनी हो जाती कि भोजन और नींद दोनों से अरुचि हो जाती थी। अतः विवश होकर ग्रन्थों का वह अर्थ, जो समझ में नहीं आता, गुरुजी से पूछ ही बैठते और गुरुजी बिगड़ ही जाते । मीरा की विह्वलता भी एक दिन संगीत की स्वर-लहरी बन गई थी
मीरा मनमानी, सुरत शैल असमानी।।
जब-जब सुधि आवे वा घर की, पल-पल नैन में पानी।
ऐसी पीर विरह तन भीतर, जागत रैन बिहानी।।
दिन नहिं चैन रैन नहिं निंदिया, भावत अन्न न पानी।
ज्यों हिय पीर तीर सम सालत, कसक-कसक कसकानी।।
खोजत फिरौं भेद वा घर की, कोइ न राह बतानी।
रैदास संत मिलै मोहि सतगुरु, दिन्ही सुरत सहदानी।।
मैं मिल जाऊँ पाय पिय अपना, तब मोरि पीर बुझानी।
मीरा खाक खलक शिर डारी, मैं अपने घर जानी।।

१९०९ ईस्वी का अप्रैल मास। आज अपने प्रियतम का मिलन-पथ जानने के लिए हृदय विहल हो रहा है। किसी भाँति कहीं चैन नहीं मिलता। कहाँ, किनके पास जाऊँ ? सारी दुनिया छान डाली, कहाँ-कहाँ न भटकता फिरा, दुख को दुख नहीं समझा, जहाँ भी सन्त मिलन की संभावना जान पड़ी, वहाँ दौड़ा गया, पर क्या यह भारत-भूमि सन्तों से विहीन हो गई? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।
सन्त दरिया साहब की वाणी पढता हूँ। बिना ‘सारशब्द’ के कभी परमात्मा को पाया नहीं जा सकता, पर यह ‘सारशब्द है कहाँ। कैसे इसको पाया जाता है ? कौन विधि, कौन-सा रास्ता है इसे उपलब्ध करने का ? यह बात किनसे पूछूँ ? गुरुदेव से पूछता हूँ, तो वे बताने के बदले बिगड़ने ही लगते हैं , पर आज वे कितने ही क्यों न बिगड़ें, पूछे बिना नहीं रहूँगा।
इस विह्वल संवेग में आकर आपने सन्त दरिया साहब की उक्त वाणी का अर्थ पूछ ही दिया। उत्तर में गुरुजी आज इतने बिगड़े, जितने कभी नहीं बिगड़े थे। पर अब न सोना सुहाता है और न भोजन ही। रात बीती जा रही है, पर आँसुओं की धारा रुकती ही नहीं। बाहर निस्तब्ध है, हृदय सिसक रहा है। अन्तरात्मा हाहाकार कर रही है। ब्रह्म-मुहूर्त्त झाँकने लगा था। सहसा आप की चेतना नींद में प्रवेश कर जाती है। प्रभु की करुणा, आप स्वप्न देख रहे हैं- ‘दो साधु आए हैं । प्रसन्न और शान्त मुद्रा है। उनके हाथ आश्वासन देने के लिए ऊपर उठे हुए हैं। आकुल करनेवाले सारे प्रश्न आप उनके समक्ष रखते जा रहे हैं और उधर से तृप्तिदायी और शान्तिप्रसारक समाधान किया जा रहा है। विरह-ज्वाला से जलते तन-मन-प्राण में जैसे सुधा का संचार हो रहा हो। सहसा वे दोनों अन्तर्धान हो जाते हैं और आप विह्वल होकर कर रुदन करने लगते हैं।’
उसी समय आपके गुरुजी आपको उठा कर दूसरा गाँव अपना कोई खास कार्य करने के लिए भेज देते हैं, और आप अन्तर की व्यथा दबाए चुपचाप आदेश-पालन में तत्पर हो जाते हैं। स्वप्न-द्वारा आन्तर बेचैनी की शान्ति के कारण आपको नींद के झोंके आ रहे हैं । और आप आज्ञा-पालन के लिए ऊँघते हुए भी आगे बढ़ते जा रहे हैं। उस गाँव में पहुँचकर गुरुदेव का कार्य सम्पन्न कर उषा की अरुणिमाके स्निग्ध कोमल प्रकाश में सुषुप्ति या स्वप्न में भँसते हुए-से वापस लौट रहे हैं। विद्यालय के समीप आते-आते सूर्य की तीव्र किरण-धारा पलकों का उष्णिल चुम्बन करती है और आप देखते हैं- विद्यालय के प्रांगण में श्री रामदासजी खड़े हैं।
आपकी जानकारी में इतने सबेरे श्री रामदासजी कभी भी विद्यालय नहीं आए। वे आपको देखते ही समीप बुलाकर आदर से बैठा लेते हैं और आपको सुयोग्य पात्र जानकर सन्तमत-सिद्धान्त की बातें आपके आकुल मस्तिष्क एवं अशान्त हृदय में प्रवेश कराने का प्रयत्न करने लगते हैं। आपकी तर्क-प्रवण बुद्धि एवं सूक्ष्म अन्वेषी मन ने प्रथम ही यह सुदृढ़ धारणा उनके प्रति बना रखी थी कि ‘ये उग्रनाम साहब जैसे कबीरपन्थी को परखने में अयोग्य सिद्ध हुए और इनके वर्तमान मत में गुरु का कोई महत्त्व नहीं है। भला ऐसे व्यक्ति के द्वारा स्वीकार किए गए मत में शुद्ध-सही ज्ञान की बातें कैसे हो सकती हैं ?’
किसको पता है कि इसी मित्र द्वय की चेतन आत्मा ही आपके स्वप्न के दोनों शान्ति-प्रदान करनेवाले साधु थे?
श्री रामदासजी ने विविध तर्कों, विधियों, विचारों एवं भावों के द्वारा सन्तमत की सुनिर्दिष्ट ज्ञान-पद्धति आपको अंगीकार कराने का प्रयत्न किया, पर आप उसे शंकाकुल मन से खण्डित करने में ही लगे रहे। जरा भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए।
श्री रामदासजी ने कहा- ‘आप कितना भी मानस जप और मानस ध्यान कीजिए, पर सारशब्द की प्राप्ति इससे नहीं हो सकती और बिना सारशब्द के परमात्मा की उपलब्धि सर्वथा असम्भव है।’
तर्क-वितर्क वाद-विवाद में बदल गया। वाद-विवाद गरमागरम बहस में, गरमागरम बहस आवेशित वाणी में और आवेशित वाणी क्रोध की अग्नि में परिणत हो गई।
रामदास ने कहा- ‘आपके गुरु सारशब्द से अनभिज्ञ हैं।’
आपने कहा- ‘खबरदार ! फिर जो कभी गुरु-निन्दा की!’ दोनों प्रतिकूल दिशा में चल पड़े। आपने सारी बातें अपने गुरुदेव से निवेदित कर दी। गुरुजी ने कहा- ‘मैं तो तुमसे पहले ही कहते आया हूँ कि किसी के पास मत बैठा करो।’ इस घटना के बाद रामदासजी से वार्तालाप होना बन्द हो गया और उन्होंने भी आपकी कुटी होकर आने-जानेवाले पथ से आवागमन परिवर्जित कर दिया। पर श्री रामदासजी ‘गुरु ग्रन्थ साहब’ का पाठ बड़े ही ऊर्ध्वसित एवं लय-माधुर्य-स्वर में किया करते थे। इनका पाठ बाबा देवी साहब को बड़ा पसन्द था। उन्होंने मुरादाबाद में इनको आदेश किया था- ‘जब मैं सन्तमत-सत्संग के प्रचारार्थ पंजाबादि प्रान्त भ्रमण करने निकलूंगा, तब तुम्हें बुलाऊँगा। तुम खबर मिलते ही यहाँ आ जाना ।’ इस आज्ञा को इन्होंने शिरोधार्य कर लिया था। समय पर बाबा साहब ने आपको पत्र लिखा और आप निर्देशानुसार भ्रमण में गुरुदेव की सेवा में संलग्न रहने लगे।
विरोध के बावजूद उनके चले जाने से आपको अभाव की अनुभूति हुई, जिससे आपके मन में कुछ उदासी-सी आ गई। आपके बाहरी मन ने अवश्य ही उनके विचारों को अमान्य कर दिया था, पर उनकी वाणी ने आपके आन्तर मन में सन्तमत के प्रति रुचि का बीज बो दिया, जो समय पाकर मिट्टी में ढंके बीज की भाँति अंकुरित होने लगा था। 

14.

सन्तमत का अज्ञात आकर्षण

श्री रामदासजी के चले जाने से जोतरामराय निवासी श्री मोहनलाल चौधरीजी के दादा बाबू मंचन चौधरीजी ने श्री धीरजलाल गुप्तजी को
अपने गोले (अनाज और किराने की दूकान) का कार्य-भार संभालने एवं चलाने के लिए बुला लिया। इस समय तक बाबू शीतल प्रसाद चौधरी, बाबू यदुनाथ चौधरी तथा उनके परिवार के अन्यान्य महानुभावों ने सन्तमत ग्रहण कर लिया था और नियमित रूप से शीतल बाबू के गोले के अहाते के एक घर में सत्संग भी किया करते थे। श्री धीरजलालजी गोले का काम करते तथा सत्संग भी करवाते थे।
श्री रामदासजी के डाले गए बीज अन्तर से बाहर आने के लिए कसमसा रहे थे और एक दिन अवसर पाकर आप उनके मित्र श्री धीरजलालजी से आकर पूछने लगे- ‘आपलोग जिस सन्तमत की उद्घोषणा करते हैं, वह सन्तमत क्या है?’
श्री धीरजलालजी को रामदास से हुए वार्तालाप के संबंध में पूरा पता था ही, अत: प्रेम के साथ आपको उन्होंने बैठाया और सौम्य वाणी में समझाने का प्रयत्न करने लगे--
“संसार में जहाँ-कहीं भी जो सन्त हुए हैं, उनका जो मत है, वही सन्तमत है।” यह उत्तर आपको इतना पसन्द आया कि आपका हृदय आशापूर्ण उत्साह से भर उठा, जैसे चिरकाल के अन्वेषण की वस्तु ही मिल रही हो। आपने पूछा- ‘तब तो सन्तमत में सन्त दरिया साहब का भी मत समाविष्ट होगा?’
उन्होंने कहा- ‘अवश्य ।’
आप दरिया साहब के ग्रन्थों का अध्ययन करते समय जब-जब अन्तर्नाद के संबंध में पढ़ते, उसे जानने की उत्कण्ठा तब-तब आपको व्याकुल कर देती। आपको इसी जानने की व्याकुलता ने ही इतने स्थानों का भ्रमण कराया तथा अनेक साधुओं की सेवा और संगति करने का अवसर जीवन में ला उपस्थित किया। इसी की जानकारी के लिए आप गुरुदेव से पूछ-पूछकर उनका बिगड़ना-रंज हो जाना भी सहन करते रहे। आज उसे जानने की संभावना उपस्थित पाकर आप अगाध प्रसन्नता से भर रहे थे। आपने पूछा- ‘तो क्या आप दरिया साहब के ग्रंथों का भी अर्थ समझा सकते हैं ?
उन्होंने कहा– ‘अवश्य ।’ आपने उस समय सन्तमत में ‘घटरामायण’ की सुप्रसिद्धि सुन रखी थी, अत: आपने उनसे ‘घट-रामायण’ पढ़ने के लिए मांगा।
परन्तु उन्होंने कहा- “अभी ‘घटरामायण’, नहीं, आप पूज्य बाबा साहब का टीका किया हुआ ‘बाल का आदि और उत्तर का अन्त’ मानस रामायण ले जाइये। उसी को शान्त चित्त से अध्ययन-मनन कीजिए।”
आपने बड़ी उत्सुकता से उस ग्रन्थ को -लाकर मनोयोग-सहित अध्ययन किया, पर बारम्बार पढ़कर भी उसे नहीं समझ सके। फिर समझने में अपने को असमर्थ जानकर - आपने वह ग्रंथ कुछ दिन के बाद वापस कर दिया और धीरजलालजी से बोले- ‘यह पुस्तक तो मेरी समझ में कुछ भी नहीं आई, वरंच मेरा संशय और भी बढ़ ही गया। आप कब मुझे समय देंगे।
उन्होंने कहा- ‘आप सत्संग में आइए।’
आपने कहा- ‘सत्संग में आने का समय मुझे नहीं मिल सकेगा। मेरा बारह बजे रात तक का समय तो गुरु की परिचर्या में ही बीत जाता है। आप उसके बाद का समय दें।’ वे बोले- ‘आपकी जब इच्छा हो, चले आवें।’
उसी दिन से कुटी और गुरु-परिचर्या का सब काम समाप्त कर बारह बजे निशीथ में आप धीरजलालजी के निवास पर चले आते और दो-ढाई-तीन बजे तक ग्रन्थों का अर्थ, सन्तमत-साधना की विधि, उसके संयमन, सभी सन्तों द्वारा प्रगट किए गए विचारों की एकता सामंजस्य, आत्मकल्याण और संसार के मंगल के संबंध में उसका दृष्टिकोण आदि एक-एक बात आप उनसे पूछते और वे अपनी प्राप्त चेतना के प्रकाश में उसका उत्तर देते। आपके शंकाशील मन और पुराने विचारों के संचित प्रभाव को उचित दिशा में ले जाने का शांत प्रेरण करते ।
एकान्त और गंभीर भाव से सत्संग कर जब आप वापस अपनी कुटी जाते, तो वहाँ अपने गुरुदेव को जगे हुए या टहलते हुए पाते। आपकी सेवा और सदाचार से गुरुदेव इतने मुग्ध और प्रसन्न थे कि आपको इस विषय में कभी भी कुछ नहीं कहा ।
आप प्रतिदिन उस गंभीर निस्तब्ध निशा में जब श्री धीरजलालजी के यहाँ पधारते, तो उन्हें बराबर जगा हुआ-पढ़ने-लिखने में तल्लीन पाते या कभी-कभी लेटे भी रहते तो जगे हुए ही रहते। सम्भवतः वे चुपचाप आपकी प्रतीक्षा करते रहते थे और जैसे ही आप पहुँचते, तुरत उठकर बैठ जाते और आपसे वार्तालाप करने में निमग्न हो जाते।
तीन बजे आपके चले जाने के उपरान्त ये अपनी ध्यानोपासना के नियमित क्रम को पूरा करने में लग जाते और दिन भर गोले तथा सत्संग को सुनियमित ढंग से चलाते रहने के कार्यों में संलग्न रहते । आप भी तीन बजे यहाँ से जाकर अपने नित्य कर्म एवं ध्यान-भजन को पूरा कर कुटी की व्यवस्था तथा गुरुदेव की परिचर्या करने में लग जाते। इस भाँति मई, १९०९ ईस्वी से जुलाई, १९०९ ईस्वी तक लगातार तीन महीने आप दोनों कभी नहीं सोये। इस भाँति सत्संग करते हुए आपका मन क्रमशः सन्तमत की ओर आकर्षित होता चला गया और अन्ततः आप श्री धीरजलालजी से भजन-भेद देने का आग्रह करने लगे। नींद सभी के निज विश्राम के लिए प्यारी दशा है। माता के तरल वात्सल्य और तरुण मोहासक्ति के तीक्ष्ण आवेग में क्या इसे वर्जित करने की सामर्थ्य है ?
इसका ख्याल करते हुए जब सोचते हैं, तो लगता है- भावी ऋषियों, सन्तों या भक्तों के विशाल और महान् हृदय में जिस प्रेम का अवस्थान होता है, वह अवश्य ही अपने प्रच्छन्न अस्तित्व में असीम, सर्वसमर्थ, व्यापक और प्रतिक्षण सर्वस्व उत्सर्ग करने की भावनावाला होता है। क्या किसी सांसारिक प्रेम में ऐसी प्रचण्डता, असीमता एवं सर्वसमर्थता हो सकती है ? भगवान बुद्ध उनचास दिनों तक उसी प्रेम के कारण बिना खाए और बिना सोए उपासना करते रहे और आप नब्बे दिनों तक अपने सर्वोच्च लक्ष्य को पाने के लिए सभी सुख-सुविधा, आराम एवं नींद का विसर्जन कर नीरव निशा में धीरजलालजी के साथ सत्संग करते रहे।
तीन महीने तक आपने इतनी तत्परता से कष्ट सहन-पूर्वक महानुभाव श्री धीरजलालजी के साथ एकान्त सत्संग किया, पर अभी तक आपको अपने इष्ट को उपलब्ध करने के मार्गों का पता नहीं लग सका था। फिर प्रियतम तो अभी दूर है। यह सोचकर आपकी बेकली (व्याकुलता) इतनी बढ़ गई कि आपने नींद को तो छोड़ा ही था, अब भोजन का भी परित्याग करने पर तुल गए, पर बिना आहार दिए शरीर से गुरुदेव की परिचर्या का कार्य कैसे सम्पन्न हो पाता, यही सोचकर नाममात्र का भोजन कर लिया करते थे।
मन-गगन में शैशव काल से आजतक की सारी कार्यावली चलचित्र की भाँति चक्करकाट रही थी- ‘घर-परिवार, पिता, पढ़ना-लिखना, सुख-वैभव आदि सभी से संबंध तोड़कर जिस वस्तु के लिए मारा-मारा फिरा, समाज से उपेक्षित हुआ, जिसके लिए सब कुछ सहा-सब कुछ किया, हाय ! आज भी वह मुझसे कितनी दूर है ? यहाँ तक कि उसे उपलब्ध करने की सदयुक्ति का भी मुझे कोई ज्ञान नहीं।’ यह सोचकर आप विह्वल आग्रहपूर्वक श्री धीरजलालजी से भजन-भेद देने की प्रार्थना करने लगे।
श्री धीरजलालजी ने जब महर्षिजी को सन्तमत की ओर आकर्षित और अनुकूल पाया, तब इन्होंने श्री रामदासजी को पंजाब के पते से पत्र लिख दिया। वे इस समय बाबा साहब के साथ सन्तमत के प्रचार-कार्य में संलग्न थे। बराबर पत्राचार होते रहने के कारण उनका पता ये सदैव अवगत करते रहते थे।
वहाँ से श्री रामदासजी का पत्र आया, जिसमें आपके संबंध में यह वाक्य उन्होंने लिखा था- ‘आप जानते ही हैं कि मुझसे और उनसे सन्तमत समझाने-समझने में विवाद हो गया था। आप उनको भजन-भेद नहीं बतावें। वे अपने वर्तमान गुरु के बड़े कट्टर भक्तों में से हैं । दूसरे की कुछ सुनते ही नहीं हैं ।’
महानुभाव धीरजलालजी ने वह पत्र आपको पढ़ने के लिए दे दिया और आपसे अनुरोध किया कि आप भी एक पत्र उनको सन्तमत के प्रति अपनी आस्था के संबंध में लिख दें, तब उन्हें विश्वास हो जाएगा।
श्री धीरजलालजी के अनुरोध से आपने श्री रामदासजी को पत्र लिखा- ‘मैं आपके सन्तमत से सहमत हूँ। अतः यदि बाबा साहब की आज्ञा हो, तो मैं जाकर उनके चरणकमलों के दर्शन करूँ और उनकी सेवा करता रहूँ।’ महानुभाव श्री धीरजलालजी ने भी आपके संबंध में विस्तृत-पूर्ण विवरण-सहित पत्र लिखा । इन दोनों को पढ़कर श्री रामदासजी को आपके प्रति पूरा विश्वास हो गया और उन्होंने पूज्यपाद बाबा देवी साहब से आपके जीवन की पूरी कहानी सुनाकर निवेदन किया कि यदि सरकार की आज्ञा हो, तो उन्हें श्री चरण-सेवा में बुला लिया जाय। श्री रामदासजी का सारा निवेदन सुनकर बाबा साहब उस समय कुछ भी नहीं बोले, पर दूसरे दिन अपने-आप उनसे कहने लगे– ‘अरे, तुमने किस मेँहीँ लाल का नाम कल ले लिया, जो मेरा मन रह-रहकर उसी के विषय में विचार करने लगता है और मैं उसको प्रत्यक्ष की भाँति देखने लगता हूँ।’
फिर बोले- ‘अच्छा, अभी तो उसे यहाँ मत बुलाओ। धीरज को लिख दो कि वह उसको भजनभेद बतला देगा। मैं विजया दशमी में भागलपुर जाऊँगा, वह वहीं आकर मुझसे मिलेगा।
श्री रामदासजी ने सारी बातें स्पष्टतः लिखकर पत्र श्री धीरजलालजी के पास भेज दिया। वह पत्र आपने भी पढ़ा। पढ़कर हृदय आश्वस्त हुआ और सोचा- “अब सदयुक्ति तो मिल ही जाएगी।” पर धीरजलालजी अपने को गृहस्थाश्रमी जानकर एक वैरागी को भजन-भेद देने में सकुचाने लगे।
श्री धीरजलालजी को भजन-भेद देने में संकोच करते देख आपने उनसे कहा- “आपको यह विचार करके संकोच होता है कि मैं गृहस्थाश्रम में रहकर कैसे एक वैरागी-संन्यासी को दीक्षा प्रदान करूँ, परन्तु मुझे तो एक कुत्ता - भी सही रास्ता बता दे, तो मैं उसे भी गुरु मानने के लिए तैयार हूँ और आपने तो मेरा असीम उपकार किया है; अपना बहुत समय दिया है, कष्ट उठाया है और मुझे सन्तमत समझा दिया है। आपको तो मैं गुरु ही मानता हूँ।”
परन्तु महानुभाव धीरजलालजी संकोच का परित्याग कर आपको भजन-भेद नहीं प्रदान कर सके। सम्भवतः उन्होंने और भी कुछ सोचा हो कि बिना अनुभव किए सदयुक्ति बताने की पद्धति उपयुक्त नहीं। चाहे जो भी कारण रहा हो, पर उन्होंने आपको भजन-भेद नहीं देकर कहा- ‘आप भागलपुर जाइए। मैं वहाँ के श्री राजेन्द्रनाथ सिंहजी, वकील के नाम एक पत्र लिखकर आपको दे दूँगा और पत्र पढ़कर वे आपको भजन-भेद बता देंगे।’
आप इसको भगवदिच्छा समझकर तैयार हो गए। मन में परिस्थिति-संबंधी आलोचना चलने लगी- ‘आखिर धीरजलाल जी मेरे सदयुक्ति - बतानेवाले गुरु क्यों नहीं बन सके? उन्हें भजन-भेद बताने का आदेश भी प्राप्त था, उन्हीं के निरन्तर समझाने-बुझाने से मैं सन्तमत को ग्रहण करने के लिए तैयार भी हो सका, फिर ऐसी स्थिति क्यों उत्पन्न हुई? गुरु के बताए निर्देश को नि:शंक हृदय से स्वीकार कर लेना चाहिए, पर मैं महानुभाव श्री धीरजलालजी द्वारा बताये गए कतिपय पद्यों के अर्थ और भाष्यों से पूर्ण रूपेण सन्तुष्ट और निःशंक नहीं हो सका था और वह बात अभी भी मेरे अन्तर में स्थित है। इसीलिए यह दूसरी सम्भावना निर्मित हो गई है। सम्भव है, उन (श्री राजेन्द्र बाबू ) से ग्रन्थों का अर्थ ठीक-ठीक समझकर मेरी शंका पूर्ण रूपेण नष्ट हो जाय।’ यह सोचकर आप भागलपुर जाने के लिए प्रस्तुत हो गए। इस बार गुरुजी से बिना आदेश लिए यह शुभ यात्रा करना आपने अच्छा नहीं समझा। गुरु-भाई और आपमें परस्पर बड़ा स्नेहिल सौहार्द था। आपने भागलपुर यात्रा-संबंधी सम्पूर्ण विवरण उन्हें सुना दिया। एक दिन आप ब्राह्म वेला में सब नित्य कर्मों से निवृत्त हो भागलपुर जाने के लिए सब सामान दुरुस्त कर तैयार हो गए।
अरुणोदय हो रहा था। आप गुरुजी के पास गए और चरण-वन्दना कर निवेदन किया ‘शुभादेश मिले, तो मैं जिज्ञासा के लिए भागलपुर जाऊँ ?’
गुरुदेव मुँह ढाँककर लेटे हुए थे। यह विनय सुनते ही कहने लगे- ‘क्यों व्यर्थ इधर-उधर भटकेगा ? सबके साथ मन नहीं लगे, तो मेरे बगीचे के एकान्त स्थल में निवास करो। वहीं तुम्हारे रहने की सारी सुव्यवस्था कर देता हूँ। इतना कहते-कहते ममता या वात्सल्य से उनकी आँखों से अविरल आँसू की धारा बहने लगी। उसे देख आपकी आँखों से भी प्रेम-भक्ति की धारा बह चली और इस बार की यात्रा स्थगित रह गई। आपको विश्वास हो गया कि गुरुदेव का आदेश प्राप्त कर भागलपुर जाने की संभावना नहीं है। सर्वोच्च मंगलमयता का विश्वस्त पथ प्राप्त करने की व्यग्रता एक क्षण के लिए भी चैन नहीं लेने दे रही थी। आपने अपनी अन्तर्व्यथा गुरु-पुत्र श्री सन्त प्रसादजी से कह सुनाई। अति भ्रातृ-स्नेहवश ये आपके लिए सबकुछ सहने को तैयार रहते थे।
आज अज्ञात मंगल मुहूर्त है। चिरआबद्ध सरिता (दरिया) आज मुक्त होकर सागर से मिलने के लिए चल पड़ेगी और समय की अवधि पूरी कर वह समुद्र से मिलकर एक हो जाएगी। फिर दरिया के कगारों की सीमा में उसका अटाव असम्भव हो जाएगा। कगार टूटने के भय से कोई स्रोतस्विनी भी इसे ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत नहीं होगी। समुद्र अब सदा के लिए समुद्र ही रह जाएगा, कभी नदी का रूप नहीं ग्रहण कर सकेगा।
आज जोतरामराय से तीन कोस दूर कान्तनगर में एक आवश्यक कार्य सम्पन्न करने के लिए श्री गुरुदेवजी आपको भेज रहे हैं। आपने अपने गुरुभाई सन्तप्रसादजी से स्पष्ट कह दिया है कि यह यात्रा भागलपुर की ही शुभ यात्रा है। स्नेहिल गुरुभाई ने आपकी मंगलमयी यात्रा को सुविधापूर्ण बनाने के लिए मार्ग-व्यय के साथ अपनी सद्भावना भी प्रदान कर दी है। कान्तनगर में गुरुदेव का काम भली भाँति पूरा करके आप वहाँ से चलकर काढ़ागोला रोड स्टेशन चले आए। टिकट कटाकर आप भागलपुर पधारे।

15.

सन्तमत के महाद्वार में प्रवेश

भागलपुर स्टेशन से आप सीधे मायागंज श्री राजेन्द्र बाबू के निवास स्थान पर आ गए। उनके पूज्य वृद्ध पिताजी भीतर के कमरे में बैठे हुए थे। वे स्वयं भी वकील थे। आपने उन्हीं से पूछा- ‘राजेन्द्र बाबू का यही मकान है?’ वे बोले- ‘हाँ, क्या काम है?’ आपने उत्तर दिया- ‘मैं उनसे मिलना चाहता हूँ।’ यह सुनकर उन्होंने राजेन्द्र बाबू को पुकारा । पुकार सुनते ही वे बाहर आए और आपने आते ही चरण छूकर प्रणाम किया। प्रणाम करते समय वे यह कहकर रोकने लगे-- ‘साधु होकर आप क्यों मेरा पैर छू रहे हैं?’
उस समय आप साधु-वेश में एक उजला लम्बा कुरता धारण किए हुए थे, जो गले से घुटने तक लटक रहा था।
राजेन्द्र बाबू आपको अपने घर के निकटवर्ती नवनिर्मित सत्संग-मंदिर में ले गए, जिसके पूर्ण निर्माण में जहाँ-तहाँ कार्य करना बाकी था। उनकी आँखें उठ आयी थीं, अत: रंगीन चश्मा धारण किए हुए थे। वहीं आपने श्री धीरजलालजी द्वारा लिखित पत्र उन्हें दिया । पढ़कर उन्होंने वहीं आपके निवास की व्यवस्था कर दी।
तीन दिवस तक अपनी सूक्ष्म एवं तर्कप्रवण बुद्धि, शंकाशील-मन एवं जिज्ञासु हृदय को पूरा सावधान कर आपने राजेन्द्र बाबू के साथ सत्संग किया। श्री धीरजलालजी के जिन-जिन पदों और उनके अर्थों एवं रहस्यों का संतोंषकारी समाधान और उद्घाटन नहीं हुआ था, उन सभी को एक-एक करके आपने उनके सामने रखा और उनके द्वारा सही और जँचनेवाला उत्तर प्राप्त कर परितृप्त हो गए। वे बड़े शान्ति, प्रेम और अनुक्रमिक ढंग से आपको समझाते थे। शौचादि नित्य कर्म, भोजन एवं शयन के अतिरिक्त रात-दिन दोनों साथ ही रहकर सत्संग करते रहे। सन्त-वाणी की सुन्दर व्याख्या के साथ विशेष में आपको बाबा देवी साहब की विशेषता, उनके गुण, प्रभाव और अद्भुत योग्यता की बातें सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मन-ही-मन आपने संतमत और बाबा साहब पर अपने-आपको पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया।
तीसरे दिन सान्ध्यकालीन उपासना-वेला में आपको श्री राजेन्द्र बाबू ने दृष्टियोग की भजन-भेद-विधि बतला दी। भजन-भेद लेने के उपरान्त आपने उनका चरण स्पर्श करके प्रणाम किया, परन्तु उन्होंने आपका हाथ पकड़ लिया और बोले- ‘आप साधु होकर मुझे क्यों प्रणाम करते हैं ? आपका गुरु मैं नहीं, बल्कि बाबा देवी साहब हैं।’
आपने उत्तर दिया- ‘अभीतक तो मैंने बाबा साहब के दर्शन भी नहीं कर पाए हैं, और भजन करने की युक्ति तो मुझे आपसे मिली है, इसीलिए अभी मैं आपको ही गुरु मानता हूँ।आपके आदेश के अनुसार अवश्य ही वे मेरे गुरु हैं तथा अन्य सब लोगों के भी। फिर आपने पूछा- ‘दरियापंथी गुरुदेव से मुझे मानस जप और मानस ध्यान करने का निर्देश मिला था, क्या वह भी करता रहूँ ?’
श्री राजेन्द्र बाबू ने कहा- ‘हाँ, वह भी किया कीजिए। इसमें कोई प्रतिकूलता और हर्ज नहीं है।’ इसके उपरान्त आप मिरजानहाट पनहट्टा के एक वृद्ध दरियापंथी साधु के पास चले गए और वहाँ एक महीने तक विधिवत ध्यानाभ्यास करते हुए सन्त दरिया साहब के ग्रन्थों की प्रतिलिपि तैयार करते रहे। सन्त दरिया साहब के कई ग्रन्थ आपके पुराने गुरुदेव के पास नहीं थे। इसीलिए उन पुस्तकों की प्रतिलिपि करना आपको आवश्यक जान पड़ा। वृद्ध साधुजी बड़े दयालु थे। आपके साथ उनका व्यवहार बड़ा ही भद्रतापूर्ण रहा। वहाँ बढ़ईकुल के एक भक्त थे, जो बड़े ही सज्जन और उदार थे। उक्त सत्संग-मंदिर का सारा खर्च वे ही वहन करते थे और सदा साधु-सन्तों की सेवा में तत्पर रहते थे। एक महीने के बाद जब आप वहाँ से चलने लगे, तो वे आपको और भी कुछ दिन ठहराने का प्रयत्न करने लगे और बोले- ‘इतनी जल्दबाजी क्यों कर रहे हैं ? कुछ दिन और भी ठहर जाने की कृपा कीजिए।’
आपने बड़े प्रेम से उनको समझाया और वहाँ से मायागंज के लिए प्रस्थान किया। एक साधु आपको मायागंज तक पहुँचाने के लिए आए थे। यहाँ आपने एक दिन निवास कर सत्संग किया और दूसरे दिन आप नए पूज्य गुरुदेव को प्रणाम कर जोतरामराय चले आए।

16.

पुराने गुरु के भाव बदल गए

यहाँ आकर आप धीरजलाल गुप्त प्रभृति संतमत-सत्संगियों से मिलकर पुराने गुरुजी के पास जाकर रहने लगे। छपरा के रिविलगंज गुरुद्वारे में जिनको साधु-वेश में देखकर गुरुदेव की आँखों में करुणा के आँसू बहने लगे थे, उन्हीं गुरुदेव ने आज अपने प्यारे शिष्य को मौन उपेक्षा या उदासीनता-भरी शिष्टता दिखलाई। आपकी सूक्ष्मदर्शी चेतना को तुरत ही यह बात खटक गई और छह महीने तक प्रेमपूर्वक साथ रहनेवाले गुरुदेव के साथ तीन दिन भी रहना दुःसह हो गया। इस दशा में ध्यानाभ्यास एवं सत्संग में भी शान्ति, निश्चिन्तता एवं एकाग्रता नहीं रही। पता नहीं, गुरुदेव का पूर्व प्रेम आपके प्रति था या दरियापंथी सम्प्रदाय के प्रति?
इन असुविधाओं के समाधान के लिए आपने श्री धीरजलाल गुप्त आदि सभी सत्संगी भाइयों से इस स्थिति की चर्चा की। उनलोगों ने परिस्थिति समझकर आपसे अनुरोध किया कि आप यहीं आकर हमलोगों के साथ रहिए और अपना भजनाभ्यास एवं सत्संग किया कीजिए। अनुरोध को स्वीकार कर पाँच-सात दिन तक उन्हीं लोगों के यहाँ निवास कर आप सत्संग-भजन करते रहे, लेकिन यहाँ रहते हुए भी नित्य उन गुरुदेवजी की कुटी पर जाते और चरण-कमल छूकर प्रणाम करते। एक दिन उक्त गुरुदेवजी ने कहा- ‘अब मेरे पैर छूकर तुम्हें प्रणाम करने की जरूरत नहीं है।’ फिर भी आप जबतक वहाँ रहे, अलग से ही धरती स्पर्श कर उन्हें प्रणाम करते रहे। पाँच दिन के उपरान्त श्री धीरजलालजी प्रभृति सभी सत्संगी भाइयों ने आपको परामर्श दिया कि आप तबतक घर लौटकर पिताजी के साथ रहकर ही अपना सत्संगाभ्यास करें, जबतक बाबा देवी साहब भागलपुर नहीं आ जाते हैं । उनके पधारते ही हमलोग आपको इसकी खबर भेज देंगे। फिर तो सद्गुरु-करुणा-छाया में आपके लिए सब कुछ कल्याणमय ही होगा।
अगस्त, १९०९ ईस्वी में आप घर पर चले आए। पिताजी के आनन्द का पारावार नहीं था। उन्होंने बड़े ही प्रेम से आपके निवास और साधना के लिए बरामदे पर एक स्वतंत्र-शान्त कमरा बनवा दिया। आप उसी में रहकर अपने साधन-भजन-ध्यान एवं ग्रंथों के अध्ययन में तल्लीन रहने लगे।
गाँव के लोग आपके पास नहीं आते थे। वे कहते- ‘इसका मत बिगड़ गया है। पढ़ता था सो भी छोड़ दिया और दरियापंथी गुरु के साथ रहकर अपनी जाति भी गँवा दी है।’ इस वाणी और व्यवहार से आपके मन में चिंता उत्पन्न होती रहती थी।
दुर्गापूजा का समय निकट था। बाबा देवी साहब ने श्री धीरजलाल को विजया दशमी में भागलपुर पधारने की सूचना पत्र द्वारा प्रेषित की। उनलोगों ने यात्रा करने का समय स्थिर कर आपको पत्र लिखा- ‘बाबा देवी साहब दशहरा में भागलपुर पदार्पण कर रहे हैं। आप अमुक तिथि और समय पर कटिहार आइए और हमलोगों के साथ ही भागलपुर के लिए मंगलमय प्रस्थान कीजिए।’ पत्र पाकर आप ठीक समय पर कटिहार चले आए और सभी के साथ में बाबा देवी साहब के दर्शनार्थ भागलपुर पधारे ।

17.

सद्गुरु के सर्वप्रथम दर्शन

विक्रमीय संवत् १९६६ तदनुसार सन् १९०९ ईस्वी की पवित्र विजया दशमी। जिन आँखों से देखा था यक्षलोक में बैठे हुए ऋषि विश्वामित्र ने असुरध्वंसक राम को, जिन आँखों से देखा था समर्थ स्वामी रामदासजी ने अत्याचार-विनाशक खड्गहस्त वीर शिवाजी को, जिन आँखों से देखा था भगवान् बुद्धदेव ने अगणित भिक्षु-समुदाय में बैठे आनन्द को, जिन आँखों से देखा था इरावती के तट पर आसीन भारत के सिंह गुरु गोविन्द सिंहजी महाराज ने गोदावरी-तीर-निवासी सन्त बन्दा बैरागी को, जिन आँखों से देखा था प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्दजी ने वेदोद्धारक ऋषि दयानंद को, जिन आँखों से देखा था स्वामी श्री रामकृष्ण परमहंसजी ने अध्यात्म-ज्ञान-प्रसारक स्वामी विवेकानन्द को, आज मायागंज (भागलपुर) सत्संग-मंदिर में दिव्यासीन परम संत बाबा देवी साहब की वे ही आँखें विस्फारित होकर निहार रही थी, एक ऐसे भावी संत और महर्षि को, जिनके द्वारा अपढ़-विद्वान्, गरीब-धनी, जाति-सम्प्रदाय-सभी को मुक्त भाव से युग-युगकालीन संतों, ऋषियों, बुद्धों, जिनों और गुरुओं के संदेश, परमात्मा का वास्तविक स्वरूप और उन्हें उपलब्ध करने का सुनिश्चित एवं प्रशस्त मार्ग मिल सके।
आपके पथ-प्रदर्शक गुरु श्री राजेन्द्रनाथ जी ने आपका हाथ पकड़कर बाबा देवी साहब के निकट ले जाकर कहा- ‘लीजिए, मैंने आपको सद्गुरु के हाथ पकड़वा दिया।’ आपने चरण-स्पर्श कर सद्गुरु को प्रणाम किया और मन-ही-मन अपने को उनपर न्योछावर कर दिया। फिर नजर उठाकर गुरुदेव के दर्शनामृत का आँखों के पथ से पान करने लगे। कैसा दिव्य और भव्य स्वरूप ! शरीर और मुख-मंडल के सौन्दर्य एवं आलोक से सत्संग-भवन भी उद्दीप्त और शोभायमान हो रहा था। सच्चे सद्गुरु पाकर आपकी असीम-गंभीर श्रद्धा उन्मुक्त भाव से अर्चना में लीन हो गई। आज आपने अपने को सनाथ एवं सौभाग्यशाली तथा जीवन को सफल और सार्थक जानकर असीम आनन्द की अनुभूति की।
आपने देखा कि प्रातः छह बजे ही बाबा देवी साहब शौच-स्नान से निवृत्त होकर आसन पर विराजमान हो जाते थे और तभी से लगातार सत्संग, प्रवचन, उपदेश, शंका-समाधान, जिज्ञासा-पूर्ति आदि करते ही रहते थे। जब रात के दो-ढाई-तीन बजते और एक भी सुननेवाला नहीं रह जाता, तब कहते-लो साहब ! अब सब लोग लेट गए, मैं भी लेट जाता हूँ।’ ऐसा कहकर वे लेट जाते थे। यदि एक भी सुनने-समझनेवाला बैठकर सुनता रहता, तो वे नींद की भी परवाह नहीं करते। संतमत के प्रचार-प्रसार के लिए अविश्रांत परिश्रम, निद्रा-वर्जन एवं कष्ट-सहन करने में ही वे आनन्द अनुभव करते थे। लोगों को समझाने में वे युक्तिवाद का उपयोग किया करते थे। वाणी-प्रवाह सदा शान्त, शिष्ट, कोमल तथा मधुर रहता था।
उस बार मायागंज के सत्संग-मंदिर में रहते हुए ही एक बार बाबा देवी साहब ने आपसे पूछने की कृपा की- ‘इतने दिनों तक पहले तुम क्या भजन करते रहे?’
‘मैं गुरु-मंत्र का जप और त्राटक-सहित गुरु-मूर्ति का ध्यानाभ्यास करता था।’ आपने विनीत स्वर में उत्तर दिया।
बाबा साहब ने पूछा- ‘क्या तुमनें गुरु-रूप को ध्यान में हू-ब-हू उगा लिया है ?’
आपने कहा- ‘वैसा नहीं कर सका हूँ। यत्न करने पर अत्यन्त स्वल्प काल तक धुंधला रूप देख सकता हूँ।’
इसपर बाबा देवी साहब ने यह कहने की कृपा की- ‘गुरु-रूप के ध्यान की महिमा मैंने भी सुनी, तब मैने अपने मन में सोचा, अच्छा, मैं भी गुरु-रूप का ध्यान करूँ। तब मैंने अभ्यास करके ध्यान में राय साहब (रायबहादुर सालिग्राम साहब, राधास्वामी सन्तमत के द्वितीय सद्गुरु) के रूप को हूबहू उगा लिया। मैंने रायसाहब के सत्संग में जाकर बहुत शिक्षा पायी है, किन्तु मैंने उनसे भजन-भेद नहीं लिया है।’
भागलपुर में विज्ञापन बँटवाकर एक दिन टी॰एन॰ जुबली कालेज में सन्तमत-प्रचारार्थ बाबा देवी साहब ने भाषण दिया था। उसी दिन आपके साधु-वेश को देखकर उन्होंने कहा- ‘तुम मेरे सत्संग में शामिल हुए हो। इसमें लोगों को सेल्फ-सपोर्टर (स्वावलम्बी) बनकर रहना पड़ता है। दूसरा नियम है तुलसीसिस्टम (तुलसी साहब, हाथरसवाले) का यानी मधुकरी वृत्ति से जीवन बिताना। तुम अपना जीवन कौन-सा काम करके बिताओगे?’ आपने उत्तर में निवेदन किया- ‘मैं तुलसी सिस्टम पर रहना चाहता हूँ।’
यह सुनकर बाबा देवी साहब बहुत हँसे और उपस्थित सत्संगी सज्जनों से कहा ‘देखो, यह क्या कहता है ?’
पुनः एक दिन मायागंज सत्संग-मंदिर में उन्होंने कहने की कृपा की- ‘आजकल लोग जिस प्रकार राजनीतिक सुधार करना चाहते हैं, उस प्रकार से उत्तम सुधार नहीं होगा। उत्तम आध्यात्मिकता को ग्रहण करने के लिए उत्तम सदाचार का धारण करना आवश्यक होगा। जिस समाज के लोग उत्तम सदाचार को धारण किए रहेंगे, उस समाज की सामाजिक नीति उत्तम होगी । और उत्तम सामाजिक नीतिवालों के लिए अनुत्तम राजनीति ठहर न सकेगी-वह बदल जाएगी, अतः राजनीति भी उत्तम हो जाएगी। लोग आजकल हिंसात्मक भावना से काम करके राजनीति में परिवर्तन करना चाहते हैं। ऐसी भावना उत्तम नहीं है। लोगों को चाहिए कि वे हिंसात्मक भावनाओं को छोड़ दें। उत्तम आध्यात्मिकता की ओर आवें, उत्तम सदाचार का पालन करें और अपनी सामाजिक नीति उत्तम बनावें, तो अनुत्तम राजनीति सहज ही बदलकर उत्तम हो जाएगी।’
उस बार बाबा साहब ने संभवतः पन्द्रह-सत्रह दिनों तक भागलपुर में ठहरकर सत्संग का विस्तार किया। भागलपुर से प्रस्थान करके मुंगेर आए। वहाँ गंगा-किनारे कष्टहरनी घाट पर अपना निवास स्थिर किया। भागलपुर से रवाना होते समय आपने अपने साथ रखने के लिए गुरुदेव से प्रार्थना की। आदेश मिल जाने पर आप इस यात्रा में मुरादाबाद तक सेवा करने में तत्पर रहे। दो दिनों तक मुंगेर में ठहरकर बाबा साहब ने ‘चिता में जलने और कब्र में दाखिल होने के पहले योग और भक्ति द्वारा मोक्ष की प्राप्ति’ विषय पर व्याख्यान दिया। इस अवसर पर भजन-भेद लेनेवाले जिज्ञासुओं को भजन-भेद, दुआ और आशिष माँगनेवालों को आशीर्वाद देते जाते थे। इस यात्रा में बाबा देवी साहब जहाँ कहीं भी गए, उपर्युक्त विषय पर ही भाषण करते रहे और आशीर्वाद चाहनेवालों को आशिष तथा जिज्ञासुओं एवं भजन-भेद चाहनेवालों को भजन-भेद देते गए।
पुनः आप बाबा साहब के साथ मुंगेर से बाँकीपुर और लहेरियासराय होते हुए मुजफ्फरपुर पहुँचे। वहाँ धर्मशाला में ठहरे। दोपहर को बाबा साहब अपने आसन पर लेट गए और कपड़े से अपना मुखमंडल ढँक लिया। फिर आच्छादन में मुख रखते हुए आपसे पूछने लगे–‘तुम दरिया साहब की पुस्तक अपने साथ रखते हो ?’ आपने कहा- ‘जी, हाँ। (आपके पास दरिया साहब की छोटी-सी पुस्तक थी।)
‘हाँ’ कहने के उपरान्त बाबा साहब ने आपको उक्त पुस्तक पढ़कर सुनाने का आदेश दिया और आप पढ़ने लगे। बाबा साहब बीच-बीच में कुछ पंक्तियों को चिह्नित करवाते जाते थे और कभी-कभी खर्राटे भी लेने लगते थे। मुख तो ढँका था ही, अतः खर्राटा सुनकर आपने समझा कि बाबा साहब को नींद आ गई और पढ़ना बन्द कर दिया। पढ़ना बन्द करते ही तुरत वे बोले- ‘चुप क्यों हो गए ? पाठ क्यों नहीं करते ? क्या तुमने यह समझ लिया कि मैं सो गया ? मैं सब सुन रहा हूँ, तुम पढ़ते चलो ।’ अब आदेशानुसार आप बराबर पढ़ते रहे और बाबा साहब पूर्व की भाँति ही बीच-बीच में खर्राटे लेते हुए भी चिह्नित करनेयोग्य पंक्तियों को आपसे चिह्नित करवाते गए।
आप सद्गुरु की सेवा में संलग्न रहते हुए पुनः उनके साथ यहाँ से छपरा, बलिया आदि होकर गाजीपुर पहुँचे। छपरा आने पर अतीत की स्मृतियाँ एक बार मानस पटल पर चलचित्र की नाई दौड़ गई। गाजीपुर में राधास्वामी मत के चतुर्थ सन्त सद्गुरु श्री कामताप्रसाद साहब, जो सरकार साहब कहलाते थे, गाजीपुर में वकालत करते थे और प्रतिदिन संध्याकाल में अपने निवास स्थान पर नियमित रूप से सत्संग भी करते थे। सायंकाल होने पर रसोइए और नौकर को बासे पर रखकर मुरादाबाद के पंडित कन्हैयालालजी, भागलपुर के श्री रामदासजी तथा आपको साथ लेकर बाबा साहब सरकार साहब के संध्याकालीन सत्संग में पहुँचे । सरकार साहब को जैसे ही यह विदित हुआ, तुरत ही उन्होंने सभी के साथ बाबा साहब को अपने समीप में आसन दिया। सरकार साहब आराम कुर्सी पर बैठे हुए थे और लगभग डेढ़-दो सौ सत्संगी सामने बिछावन पर नीचे बैठे थे। पहले दो सत्संगियों ने कोमल, मधुर एवं करुण स्वर में विनती गाई। सुनकर आपको अति प्रसन्नता हुई। फिर सरकार साहब का प्रवचन हुआ। प्रवचन का खास विषय था कि सन्तमत स्टेशनरी (Stationary) धर्म है, मिशिनरी (Missionary) धर्म नहीं है अर्थात् संतमत घूम-घूमकर प्रचार करने का धर्म नहीं है, केवल एक स्थान पर ही ठहरकर प्रचार करने का धर्म है ।’ उनकी ये बातें आपको विचित्र-सी लगी; क्योंकि भगवान बुद्ध और उनके शिष्यगण, सन्त कबीर साहब, गुरु नानक साहब आदि संतों की जीवनी से मालूम होता है कि वे लोग संतों के सर्वकल्याणकारी ज्ञान का घूम-घूमकर भी प्रचार किया करते थे।
गाजीपुर से बाबा साहब के साथ सभी गोरखपुर होते हुए मुरादाबाद पहुँचे। वहाँ बाबा साहब की कोई खास कुटी नहीं थी। मुरादाबाद अताई मुहल्ले के मुंशी बुलाकीलाल साहब वकील बाबा साहब के एक परम भक्त शिष्य थे, उन्होंने अपनी हवेली से अलग एक सुन्दर दोमंजिला भवन बना रखा था, जिसमें जब कभी बाबा साहब आते, निवास करते और वहीं सत्संग भी हुआ करता था। इस सौभाग्यशाली भवन में आकर बाबा साहब ने सभी सत्संगियों सहित निवास किया। नित्यप्रति सायंकाल में सार्वजनिक सत्संग होता था, जिसमें वहाँ के सभी सत्संगी एवं अन्य प्रेमीगण सम्मिलित हुआ करते थे। श्री रामदासजी जो बाबा साहब के आदेशानुसार ही भागलपुर से उनके साथ सत्संग करते हुए आए थे, मुरादाबाद में दो दिन सत्संग कर वापस जाने लगे। आप उन्हें स्टेशन तक पहुँचाने आए। ट्रेन जब खुल गई, तो दोनों ने एक-दूसरे को हाथ जोड़ा। अपनत्व की ममता से रामदासजी की आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। यह देखकर आपका हृदय भी स्नेह-विगलित होकर दृष्टि-पथ से बहने लगा। ट्रेन खुल गई और आप वापस अपने निवास-स्थल पर आकर उदासी का अनुभव करने लगे। जिस दिन सभी मुरादाबाद आए, उस -दिन रात्रि-सत्संग में वहाँ के अधिकतर सत्संगी पधारे थे। जब सत्संग समाप्त हो गया, तब बाबा साहब ने सभी को सम्बोधित करते हुए ! आपके संबंध में कहा- ‘देखो, यह साधु हमलोगों के सत्संग में तुलसी-सिस्टम अर्थात् मधुकरी वृत्ति से जीवन निर्वाह कर रहने के लिए आया है। क्या आपलोग इसको ऐसा करने की सलाह देते हैं ?’
उनलोगों ने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया- ‘नहीं हुजूर ! अपने सत्संग में भीख माँगने का कायदा नहीं है।’
उन सत्संगियों में श्री विशननारायण महोदयजी भी थे, जो बी॰ए॰ पास करके वकालत करने की तैयारी कर रहे थे। वे बोले- ‘यदि मैं देखूँगा कि तुम भिक्षा माँगकर कुछ ले आए हो, तो मैं उस भिक्षा को तुमसे छीनकर फेंक दूँगा, तुमको खाने नहीं दूँगा; क्योंकि भीख माँगकर खाना आलसी और निकम्मों का काम है। हमलोगों के सत्संग में यह वर्जित है । यदि कोई हमारा सत्संगी होकर भिक्षा माँगकर पेट पाले, तो वह हमारे सत्संग को लजावेगा। तुमको अपने शरीर के परिश्रम से अपना भोजन और वस्त्र उपलब्ध करना चाहिए।’
बाबा साहब के समय संतमत-सत्संग में उनके प्रवचन के सिवाय अन्य संतों के ग्रंथों का पाठ भी होता था। ग्रंथों में ‘गुरु ग्रंथ साहब’ यानी गुरु नानक और अन्य सभी गुरुओं के वचनों के संग्रह-ग्रंथ, तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’, ‘घटरामायण’ तथा ‘धम्मपद’ का विशेष रूप से पाठ होता था। बाबा साहब के सत्संग में आप बराबर उपर्युक्त तरीके को बर्ताव में लाते हुए देखते रहे।
दूसरे दिन बाबा साहब ने आपसे पूछा ‘क्या तुम नागरी लिखना जानते हो?’ तो आपने नम्रता से उत्तर दिया- ‘नहीं,
आपने भारती भाषा में रामायण पाठ करते हुए नागरी लिपि सीख ली थी; किन्तु नागरी लिपि में लिखने का अभ्यास अभी तक नहीं किया था।
बाबा साहब ने आदेश दिया- ‘सीख लो।’
पुनः उन्होंने पूछने की कृपा की- ‘क्या तुम गुरुमुखी पढ़ना जानते हो ?’ आपने विनय के साथ उत्तर दिया- ‘नहीं, हुजूर !’
इसपर बाबा साहब ने पुनः आपको आदेश दिया- ‘सदराला साहब (सब-जज) के पास प्रतिदिन जाया करो, वे तुम्हें गुरुमुखी पढ़ने के लिए सिखलाएँगे। उनसे कहना कि बाबा साहब की आज्ञा है। कृपया आप मुझे गुरुमुखी पढ़ने के लिए सिखाइये ।’
बाबा साहब के आदेशानुसार आप प्रतिदिन नागरी लिपि लिखने का अभ्यास करते हुए गुरुमुखी अक्षर पढ़ना सीखने के लिए सदराला साहब के पास जाने लगे।
सदराला साहब बाबा देवी साहब के मित्र और शिष्य दोनों ही थे। ये वृद्ध थे और ब्रिटिश सरकार से पेंशन पाते थे। सत्संग में ये सदा उपस्थित होते और बाबा साहब भी कभी-कभी इनके घर पर जाकर बैठा करते थे। ये अपना विशेष समय ध्यानाभ्यास में लगाते थे। इनकी बुद्धि तीव्र एवं हृदय श्रद्धा-भक्ति से ओत-प्रोत था। घर के भी सम्पन्न थे। इनका शुभ नाम लाला ईश्वरी प्रसादजी साहब था। ये कभी-कभी बाबा साहब से कहा करते थे—‘साहब ! तुम तो खुदा हो ।’
जिस दिन श्री रामदासजी ने मुरादाबाद से घर के लिए प्रस्थान किया था, उस दिन संध्याकालीन सत्संग में लाला बलभद्रदासजी ने टंडन साहब से पठित गुरु नानक साहब के वचनों का आशय पूछा। बाबा देवी साहब ने इसपर आपसे पूछ दिया कि तुमने क्या समझा ? उत्तर में आपने कुछ कहा, पर वह अपूर्ण था । यही बात लेकर बाबा साहब ने कम समझने तथा अल्प स्मरण-शक्तिवाला कहकर आपको खूब धिक्कारा, फटकारा और भला-बुरा कहा। इस भर्त्सना से आपका चित्त दुःखी हुआ। पुनः बाबा साहब उपस्थित लोगों से कहने लगे- देखो, यह अपने पिता और अपना पढ़ना-लिखना छोड़कर कुछ वर्षों से साधु-वेश में है। अब यह मेरे पास आया है। मैं इसे अपना लड़का और छोटा भाई समझता हूँ , इसीलिए इसपर अधिक कडाई करता हूँ और डाँटता हूँ, जिससे यह शीघ्र ही योग्य बन जाए।’ यह शब्द सुनते ही आपका दुख आनन्द में परिणत हो गया।
इस बार मुरादाबाद में एक महीने से कुछ अधिक समय आपको बाबा देवी साहब की सेवा में रहने एवं सत्संग करने का दुर्लभ अवसर मिला। प्रतिदिन सायंकाल में नियमित रूप से डेढ़-दो घंटे तक सत्संग होता था और उचित समय पर ध्यान का अभ्यास एवं जिज्ञासुओं की जिज्ञासा की परिपूर्ति बाबा साहब करते रहते थे। वे रात में कब सोते और कब जागते थे, इसका पता आपको कभी लगा ही नहीं ।
उसी समय आपके पिताजी का एक पत्र बाबा साहब को मिला, जिसमें बाबा साहब से प्रार्थना की गई थी कि आप मेरे पुत्र को घर में ही रहकर साधन-अभ्यास करने का आदेश प्रदान करें। पत्र सुनाकर बाबा साहब बोले ‘देखो, तुम्हारे पिताजी की ऐसी प्रार्थना है। अब तुम उनके पास लौट जाओ। उनसे पूछकर उनके बताए हुए घर के कामों को करो, तब घर का अन्न भोजन करो। बिना काम किए भोजन नहीं करना और वहीं अपना सत्संग भजन भी करना।’
बाबा साहब का आदेश मिलते ही आपने जोतरामराय के धीरजलालजी तथा शीतल प्रसादजी प्रभृति महानुभावों को इस आशय का पत्र लिखा। उनलोगों ने मुरादाबाद से लौटने का खर्च वहाँ से भेज दिया।

18.

परकाय-प्रविष्ट योगी से भेंट

सन् १९१० ईस्वी की जनवरी में आप मुरादाबाद से चले और छपरा आकर महावीर रामजी से मिले। ये गृहस्थ थे। यहीं रहकर आपने एक महीने तक सत्संग-भजन किया और इन्हें अच्छा जिज्ञासु जानकर भजन-भेद भी बतला दिया।
यहाँ बाबा देवी साहब के एक शिष्य विद्यालय के सब-इन्सपेक्टर साहब रहते थे। उनका पुत्र एक दूसरे महात्मा का शिष्य था। संयोग से वे महात्मा भी उस समय शिष्य के घर पर पधारे हुए थे। महात्माजी बड़े गम्भीर थे। उनकी विशेषता सुनकर आप भी एक दिन उनके दर्शन करने गए। आपके निवास से करीब पौने माइल की दूरी थी। महात्माजी ने आपका बड़ा सत्कार किया तथा प्रेमपूर्वक वार्तालाप किया। उम्र छब्बीस-सत्ताइस की थी, किन्तु लोग कहा करते कि ये बहुत दिनों के योगी है और दूसरे के मृत तरुण शरीर में प्रवेश कर तरुण बने हुए है। एक दिन किसी महाशय ने यह बात उनसे पूछ दी कि यह बात सही है कि आप दूसरों के मरे हुए तरुण देह में प्रवेश कर अभी तरुण बने हुए हैं ? उत्तर में महात्माजी ने हँस दिया और मौन बने रहे। आप परकाय-प्रवेश को असम्भव नहीं समझते हैं और आपको यह भी विश्वास हो गया कि ये परकाय को धारण किए बहुकालीन योगी हैं। उनमें योगबल प्रत्यक्ष ही लक्षित हो रहा था और आपने उनमें अद्भुत योग्यता, विद्वत्ता तथा शारीरिक बल पाया। उनके पास बैठे हुए एक सज्जन ने आपकी ओर संकेत करते हुए योगीजी से पूछा- ‘ये कहते हैं कि शरीर के अन्दर में बिजली चमकती है, तारे चन्द्र और सूर्य के दर्शन होते हैं । सो क्या इनका कथन सत्य है ?’
महात्माजी ने उत्तर दिया- ठीक ही तो कहते हैं।’ और इसकी पुष्टि में उन्होंने बहुत से योगशास्त्रों एवं उपनिषदों के श्लोक पढ़कर सुना दिए। उनकी योग्यता देखकर महावीर रामजी ने आपसे निवेदन किया कि आप महात्माजी को मेरे घर पर सत्संग करने के लिए राजी करें। आपने योगिराजजी से निवेदन किया और वे प्रसन्न भाव से जाने के लिए तैयार हो गए। तदनुसार एक दिन योगिवरजी ने श्री महावीर रामजी के दरवाजे पर आकर सत्संग किया और यहीं भोजन भी किया। आप जबतक छपरा में रहे, बराबर योगीजी से मिलने जाया करते थे और वार्तालाप किया करते थे।

19.

पूर्णियाँ जिला सन्तमत-सत्संग का प्रथम अधिवेशन

एक महीने छपरा में सत्संग कर आप जोतरामराय चले आए। यहाँ के सभी सत्संगियों ने आपके आने के पूर्व ही इस गाँव में पूर्णियाँ जिला सन्तमत-सत्संग का वार्षिक अधिवेशन करने का निर्णय कर लिया था। आपके आने पर उन्होंने निवेदन किया कि आप घूम-घूमकर सभी सत्संगी भाइयों को इस अधिवेशन में पधारने का अनुरोध करें। यह इसलिए अत्यावश्यक है कि संतमत-सत्संग के कट्टर विरोधियों की संख्या अत्यधिक है, वे अधिवेशन को नहीं होने देने की स्थिति लाने का प्रयत्न कर सकते हैं। अतः सत्संगियों को निर्भीक भाव से साहसपूर्वक इसमें सम्मिलित होने के लिए प्रेरण करना जरूरी है। अधिवेशन की तिथि माघ पूर्णिमा, १९१० ईस्वी निर्धारित हुई थी। आपको यह निवेदन उचित जान पड़ा और प्रचार-कार्य में निकल पड़े।
समैली पधारे। यहाँ सन्तमत-सत्संग के विरोधियों की कमी नहीं थी। प्रचार के दौरान में समैली गाँव के कबीरपंथी की जागोपंथी शाखा के प्रचारक से भेंट हो गई। ये महाशय सत्संगियों से कहा करते थे- ‘मैंने ‘घटरामायण’ को भली भाँति पढ़कर देख लिया है। उसमें सार कुछ भी नहीं है।’‘ इसी प्रकार संतमत के संबंध में और भी अनुचित बातें कहकर इसकी खिल्ली उडाया करते ।
‘घटरामायण’ तुलसी साहब कृत एक प्रसिद्ध पुस्तक है, जिसमें अपने घट में ही साधन करके ईश्वर तथा मोक्ष को पाने के भेदों का सुन्दर वर्णन है। इसे बाबा देवी साहब ने हाथरस के एक साधु से लिखवाकर नवल किशोर प्रेस, लखनऊ में छपवाया था ।
सत्संगियों द्वारा सारी बातें जानकर आपने उक्त प्रचारक को बुलवाया और उनसे निवेदन किया कि महाशयजी! सुनने में आया है कि आपने ‘घटरामायण’ का गम्भीर अध्ययन किया है और उसे अच्छी तरह समझ गए हैं। मैं नया आदमी हूँ। आप यदि मुझे भी ‘घटरामायण’ का सही अर्थ समझा देने की कृपा करें, तो मैं आपका चिर-अनुगृहीत होऊँ।
उक्त महाशय ने दो बजे दिन से आपको समझाना प्रारम्भ किया और सात बजे तक अबाध गति से समझाते रहे। जब आपने जान लिया कि ये कोरा बकवास कर रहे हैं और ‘घटरामायण’ के विषय-ज्ञान से एकदम शून्य है, तब आपने पहले उसे कुछ दुत्कारा और बाद में योग्यतापूर्वक ‘घटरामायण’ के वास्तविक मर्मों का उद्घाटन किया। आपका विशाल ज्ञान देखकर वह लज्जित और स्तब्ध हो गया । फिर रात को जब वह सत्संग में उपस्थित हुआ, तो मौन भाव से केवल सुनता रहा। फिर उसने कभी भी सत्संगियों के समक्ष ‘घटरामायण’ की चर्चा नहीं की।
प्रचार के सिलसिले में आपको एक बाह्मण पंडित से मुलाकात हुई। उन्होंने आपसे कहा–‘महाशयजी ! धर्म-प्रचार करना तो हम ब्राह्मण पंडितों का काम है, फिर आप जाति-पेशा छोड़कर यह प्रतिकूल काम क्यों कर रहे हैं ?
आपने तुरंत ही उत्तर दिया- ‘पंडितजी ! सचमुच यह, ब्राह्मण-जाति का ही काम था, परन्तु आपकी गद्दी खाली देखकर हमलोग उसपर बैठ गए हैं और आपके स्थान पर अब हमलोग आपका काम करने लगे हैं।’
उत्तर सुनकर पंडितजी की स्फुरणा गुम हो गई और वे शान्त भाव से चले गए।
इसके बाद आप कौशिकीपुर आकर प्रचार करने लगे। यहाँ के लोग सत्संगीगणों से यह कहकर असन्तुष्ट थे कि सत्संगी लोग देवी-देवताओं को नहीं मानते हैं और उनकी पूजा करनेवालों की निन्दा किया करते हैं। आपके पधारने पर गाँव के लोग आपके पास आए और शिकायत की कि आपके सत्संगी लोग हमारे देव-पूजन की निन्दा करते हैं कि मिट्टी को क्यों प्रसाद चढ़ाते हो? इससे क्या लाभ होगा?
इसपर सखीचन्दजी सत्संगी बोले- ‘नहीं, ऐसी बात नहीं है। कौशिकीपुर बस्ती के बाहर एक देव-स्थान है। वहाँ गाँव के लोग प्रतिवर्ष अपना-अपना प्रसाद अलग-अलग बर्तन में चढ़ाते हैं, किन्तु दूध को बर्तन में नहीं चढ़ाकर मिट्टी में ही डाल देते हैं। इसी पर मैंने बस्तीवालों से निवेदन किया था कि आपलोग मिट्टी में चढ़ाकर दूध बर्बाद नहीं करें। अन्य प्रसाद की भाँति उसे भी बर्तन ही में चढ़ावें, जिससे वह प्रसाद भी सभी को मिले।’
सखीचन्दजी की बात सुनकर आपने बस्तीवालों को प्रेम से समझा दिया कि ये ठीक ही तो कहते हैं। प्रसाद फेंकने की वस्तु नहीं, वरन् ग्रहण करने की चीज है। उसे फेंकना नहीं चाहिए। सभी शान्त हो गए। वहाँ का प्रचार-कार्य पूरा कर पुनः आप समैली लौट आए।
आपको पैदल चलने का पूरा अभ्यास था। इसी भाँति घूम-घूमकर प्रचार करते हुए आप जोतरामराय वापस आ गए। निर्धारित समय पर पूर्णियाँ जिला-संतमत-सत्संग का प्रथम वार्षिक अधिवेशन प्रारम्भ हुआ। इसकी सूचना बाबा देवी साहब के पास भी भेज दी गई। इस अधिवेशन में कुल बत्तीस दीक्षित सत्संगी तथा अठारह सत्संग-प्रेमी, जो इन लोगों के साथ पधारे थे कुल पचास सज्जन सम्मिलित हुए। काढ़ागोला संगत के नानक शाही साधु लोग भी अधिवेशन देखने के लिए जोतरामराय आए। उनलोगों के साथ एक पंजाबी नानकपंथी उदासी साधु थे, जो बड़े लम्बे-तगड़े जवान थे। जोतरामराय के सम्पन्न लोग पहले नानकपंथी उसी संगत के सेवक थे, जिससे उनलोगों का आवागमन बराबर जोतरामराय हुआ करता था। अब अपनी शिष्य-मंडली के परिवारों को संतमत-सत्संग में सम्मिलित देखकर वे लोग चिढ़े हुए थे, अतः वे लोग अपनी पूरी तैयारी के साथ यहाँ वाक्-युद्ध ही करने के लिए आए थे। उनमें श्री मुक्ताराम उदासीजी भी थे, पर वे सदा शान्त रहते और कुछ नहीं बोलते थे। केवल पंजाबी नवागंतुक बाबा लालदास ही वाद-विवाद किया करते थे । उन्होंने बहुत सारे प्रश्न पूछे। सभी के उपयुक्त उत्तर आप देते रहे । अन्त में आपने पूछा- “अच्छा बाबा ! आप केवल ‘सत्नाम’ का अर्थ हमलोगों को समझा दीजिए।”
अपने में समझाने की योग्यता नहीं देख वे चुप हो गए। उनलोगों के साथ जोतरामराय के ब्रह्मदास नामक साधु भी थे, जो कुछ-कुछ पागल-से मालूम पड़ते थे। ये अपने स्थान से काढ़ागोला गए थे और उनलोगों के साथ ही लौटे थे। जब लालदासजी ने कुछ जवाब नहीं देकर चुप्पी साध ली, तब ब्रह्मा दासजी कहने लगे- ‘तुमलोग क्या बोलने आए हो? तुमलोगों ने जितन प्रश्न पूछे, सबके माकूल उत्तर उनलोगों ने दे दिए, पर तुमको चार अक्षरों का सवाल पूछा, तो उसका भी जवाब तुमलोगों से नहीं बन सका।’
फिर दूसरे दिन बाबू लक्ष्मीप्रसाद चौधरीजी (वर्तमान प्रधान मंत्री, अखिल भारतीय संतमत-सत्संग) के पूज्य पिता बाबू गेनालाल चौधरीजी के दरवाजे पर श्री धीरजलाल गुप्त, बाबू रामदास चौधरी, बाबू शीतल प्रसाद चौधरीजी प्रभृति सत्संगीगण तथा आप भी बुलाए गए। आज भी वे लोग ‘गुरु ग्रंथ साहब’ साथ लेकर विशेष रूप से वाद-विवाद करने आए थे। आते ही वाद-विवाद छेड़ दिया । वाद-विवाद के क्रम में ही उनलोगों ने ‘गुरु ग्रंथ साहब’ से कबीर साहब का यह शब्द पढ़ा- ‘कक्का किरण कमल में वास’ इत्यादि । आपने लालदास से कहा- ‘आप केवल इसी का अर्थ समझा दीजिए।’ समझाने की बात सुनते ही वे अगल-बगल झाँकने लगे। अन्त में बोले- ‘दूसरी बार आकर समझा देंगे।’ पर वे आजतक समझाने के लिए जोतरामराय नहीं आए।

20.

गुरु-आदेश से संन्यासी घर आए

अधिवेशन का काम सुसम्पन्न कर आप घर आ गए और आदरणीय पिताजी के चरणों में प्रणाम कर बाबा साहब की आज्ञा कह सुनाई। पिताजी आश्वस्त हुए और बोले- ‘तुम खेत पर जाकर काम करो, यह मुझे जरा भी पसन्द नहीं है। दरवाजे पर रहकर यहाँ के आवश्यक कामों की देख-भाल करते रहो।’ पिताजी के वात्सल्यपर्ण आदेश को पालन करते हुए आप घर में ही संन्यास-जीवन अतिवाहित करने लगे। आपके पिताजी ने अन्न रखने के लिए दो कमरे (मुनहर) बनवाए थे, जिनमें एक खाली ही पड़ा था। आपने उसी को साधन-कुटीर में परिणत कर अपनी उपासना को नियमित क्रम से चलाना आरम्भ कर दिया ।
पूर्व की भाँति इस बार भी गाँव के लोग आपसे मिलने नहीं आते थे। कुछ दिन की एकान्त साधना के उपरान्त सद्गुरु महाराज की इच्छा से एक गोप-बन्धु श्री रामीदासजी आपके पास आने लगे। आपकी मंगल और कल्याण करनेवाली सरल वाणी सुनकर दिनानुदिन इनका आकर्षण बढ़ने लगा। अब रामीदासजी जब गाँव के अन्य लोगों से मिलते, तो वे लोग कहने लगते कि तुम कैसे उस विचारहीन के पास जाकर बैठा करते हो, जिसको अपनी भी भलाई और उन्नति का ज्ञान नहीं और जिसकी जाति-पाँति का अब कोई ठौर-ठिकाना नहीं रह गया है। यह सुनकर रामीदासजी ने उनलोगों को समझाया- ‘केवल दूर-दूर से किसी के विषय में अटकल और अनुमान लगाना सच्ची हालत जानने का रास्ता नहीं है। आपलोग उनसे मिलकर बातें करें । मेरा विश्वास है, आपलोग उनकी ज्ञान-भरी बातें सुनकर स्वयं ही निर्णय कर लेंगे कि वे नासमझ हैं या विवेकशील साधु हैं।’
रामीदास के कथन से लोगों की उत्सुकता बढ़ी और उनसे मिलने के लिए मन उद्वेलित होने लगा। गाँव में कुछ कबीर-पंथी थे, जिनमें वयोवृद्ध श्री कालीचरण दासजी पर सभी को पूरी आस्था थी। आपकी चर्चा और प्रशंसा से प्रभावित होकर वे एक दिन दोपहर के उपरान्त आपसे मिलने के लिए आए। बहुत देर बैठकर उन्होंने आपसे साधना-संबंधी विविध विषयों पर वार्तालाप किया। इससे वे इतने मुग्ध हुए कि स्वयं आपकी महत्ता का बखान करने लग गए। अपने सभी कबीर-पंथी साथियों को बुलाकर उन्होंने गम्भीरता से कहा- ‘हमलोगों के गाँव में पहले भीमदास नामक एक अत्यन्त वृद्ध साधु रहते थे। वे कहते थे कि साधन-भजन करने की भी एक ‘जुगुत’ है । सो वह ‘जुगुत’ साधु में ही बाबा को किसी भेदी से मिल गई है। वे उसी ‘जुगुत’ के मुताबिक ही अपना भजन-ध्यान करते हैं। सो हमलोगों को भी अपना मनुष्य-जनम सुधारने के लिए उनसे मिलकर, उनकी सेवा-भक्ति कर वह ‘जुगुत’ सीख लेनी चाहिए।
उनकी बात सुनकर सभी बड़े प्रभावित हुए और उसी दिन से वृद्ध कालीचरणजी के साथ अन्य सज्जन भी सत्संग करने के लिए वहाँ जाने लगे। कुछ दिन सत्संग करने के उपरान्त वृद्ध कालीचरण दासजी, श्री लालीदासजी आदि कितने ही सज्जनों ने आपसे भजन-भेद प्राप्त कर लिया और बराबर सत्संग में आने लगे। इस भाँति सत्संगियों की संख्या बढ़ने लगी।
अब आपका प्रभाव सिकलीगढ़ धरहरा तक ही सीमित नहीं रहा। दूसरे-तीसरे अनेक गाँवों के धर्मप्रेमी सज्जन लोग यहाँ आकर सत्संग में सम्मिलित होने लग गए। जो भी एक बार आपके सत्संग में आए, उन्होंने अपने सभी संबंधित व्यक्तियों से इसकी चर्चा की, फलतः सत्संगियों की संख्या का विस्तार बढ़ता ही गया। भजन-भेद लेनेवालों की संख्या भी बढ़ने लगी। उदारमना पिताजी ने मुनहर में इतने सत्संगियों का अटाव होता नहीं देखकर अलग में एक स्वतन्त्र सत्संग-कुटीर बनवा दिया । कुछ ही दिनों में वहाँ भी स्थान की कमी होने लगी। बाहर के सत्संग-प्रेमियों की असुविधा और कष्ट देखकर गाँव के सभी सत्संगियों ने मिलकर एक बड़ा-सा सत्संगभवन बनाने का संकल्प किया। गाँव के एक धर्मप्रेमी सज्जन श्री छुतहरू भगतजी ने सत्संग-भवन बनवाने के लिए अपनी दस कट्ठे जमीन सदा के लिए दान कर दी और बोले ‘मैंने सदा के लिए यह जमीन सत्संग-मंदिर को दे दी, कदाचित् बेचने का भी विचार हो जाय, तो आपके ही हाथ बेचेंगे।’
उसी जमीन में सभी ग्रामीण सत्संगियों ने मिलकर एक फूस का घर बना लिया। आप भी वहीं निवास करते हुए मुक्त भाव से संतमत-सत्संग का प्रचार-प्रसार करने लगे। वह जमीन वर्तमान सत्संग-मंदिर से पश्चिम है।।
इस समय आप केवल एक संध्या ही प्रतिदिन घर आकर भोजन कर आते थे।
भोजन करने के बाद सदा सत्संग-भवन में ही निवास करते थे। एक संध्या भोजन करने के विचार और क्रम को आपने १९१७ ईस्वी में छोड़ दिया। घटना यह हुई कि सन् १९१७ ईस्वी में आप मुरादाबाद से राय साहब पंडित किशोरीलालजी, जो अब बाबा साहब के शिष्य तथा कश्मीर, ग्वालियर एवं जयपुर तीनों देशी रियासतों के फौजी कर्मचारी थे, के साथ जम्मू गए। वहाँ महाराज कश्मीर की फौज के जमादार साहब रहते थे, उन्होंने अपने निजी अनुभव की बात सुनाते हुए आपसे कहा- ‘एक ही संध्या भोजन करने से देह की आवश्यकता या भूख के कारण एक ही बार अधिक मात्रा में भोजन की सामग्री ग्रहण करनी पड़ती है, फलतः अँतड़ी और पाचन-यंत्र पर अधिक भार पड़ जाता है। इससे अंतड़ी कमजोर हो जाती है।’
इस कथन में सत्य का अंश था और यह बात आपको जँच गई। उसी दिन से पुनः आप दोनों समय भोजन करने लग गए।
१९१० ईस्वी में सत्संग-भवन में निवास करते हुए आपके माध्यम से संतमत-सत्संग का इतना अधिक प्रचार हुआ कि दूर-दूर के लोग आपके पास आकर सत्संग करने लगे और सत्संग-प्रेमी जनों ने दीक्षा या भजन-भेद भी लेना प्रारम्भ कर दिया।
१९११ ईस्वी में आप दस-बारह सत्संगियों के साथ बाबा साहब की सेवा में मुरादाबाद गए। वहाँ करीब एक सप्ताह तक उनकी सेवा तथा सत्संग करने का पवित्र अवसर मिला।
पूर्णिया जिले के वार्षिक अधिवेशन के संबंध में वे बोले– ‘तुमलोगों ने पूर्णियाँ जिल का वार्षिक सत्संगाधिवेशन करके बड़ा अच्छा किया।’
तदुपरान्त आपसे उन्होंने पूछा- ‘क्या तुम अपने पिताजी का काम करके उनका अन्न खाते हो ?’
आपने उत्तर में निवेदन किया- ‘पिताजी ने कोई काम मुझे नहीं दिया है।’
इसपर बाबा साहब निर्देश के स्वर में बोले- ‘मुफ्त भोजन करने से तुम्हारा खून खराब हो जाएगा।’
मुरादाबाद से और सब आदमी लौट गए और आप तीन साथियों-सहित दिल्ली, मथुरा, आगरा, हाथरस, इलाहाबाद, बनारस आदि नगरों का परिदर्शन करते हुए धरहरा आए ।
जब आप अपने पिताजी के दरवाजे पर ही रहकर सत्संग-भजन करते थे, उसी समय एक बार पूर्णिया जिले के खगहा ग्राम निवासी श्री बच्चीदासजी को साथ लेकर मनिहारी एवं नवाबगंज पधारे । यहीं बच्चीदास की ससुराल थी। यहाँ एक विद्यालय-भवन में आपने गाँववालों के साथ सत्संग किया। सत्संग के समय ही सहसा आपको ज्वर हो आया। इस ज्वर की दशा में ही दूसरे दिन आप शाम की गाड़ी से कटिहार चले आए। धरहरा के लालीदासजी आपके साथ थे। ज्वर की अधिकता के कारण आप कटिहार में ही ठहर गए। कटिहार के एक प्रेमी सत्संगी श्री मदनजी ने तन-मन-धन से आपकी पूरी सेवा की। अपने जानते उन्होंने कोई त्रुटी नहीं आने दी। दवा-दारू, चिकित्सक-चिकित्सा अन्य आवश्यक खर्च, व्यवस्था आदि का सम्पूर्ण भार वहन करते हुए। उन्होंने आपको नीरोग दशा में ला दिया, तभी आपके विशेष आग्रह पर उन्होंने आपको धरहरा जाने दिया।
धरहरा पहुँचते ही आपके मन में स्वाद लेने की विविध लालसाएँ जाग उठी। जिन चीजों को खाने की आप कभी भी इच्छा नहीं करते थे, वे ही वस्तुएँ खाने के लिए मन उद्विग्न होने लगा। इसी उद्वेग में एक दिन आपने लाल मिरचाई खा ली। ज्वर-निवारण के लिए अधिक मात्रा में आपको कुनैन खिलाया गया था, अतः लाल मिर्च का असर तुरत आपके शरीर पर हो गया। इस बार जडैया बुखार ने तीव्र वेग से आक्रमण किया।
कुनैन-सेवित शरीर से जडैया का निवारण करना दुष्कर होता ही है। इस पीड़ा ने आपको अधिक व्यथित कर दिया। एक रात ज्वर की दशा में ही आपको नींद आ गयी और स्वप्न देखने लगे-“आपको ज्ञात हुआ कि बाबा देवी साहब भागलपुर पधारे हैं । जानते ही भागलपुर जाने के लिए अन्तर छटपटाने लगा। (स्वप्न में भी ज्वर की याद ज्यों की त्यों थी।) सोचने लगे—’इस ज्वर की हालत में कैसे वहाँ जा सकूँगा? उसपर भी शरीर अत्यधिक कमजोर हो गया है। ट्रेन पकड़ने के लिए धरहरा से पूर्णियाँ तक पैदल ही जाना पड़ेगा, वहाँ भी एक गहरी नदी पार करनी पड़ेगी।” (उस समय मुरलीगंज से पूर्णियाँ जाने के लिए रेल-पथ नहीं बना था।) सद्गुरु-मिलन की तीव्र लालसा के कारण आप उस ज्वराक्रान्त दशा में ही भागलपुर पहुँचने के लिए चल पड़े। किसी भाँति चलते हुए आप पूर्णियाँ के निकटस्थ उस गहरी नदी के पश्चिमी तट पर पहुँच गए हैं । आपके पहुँचते-पहुँचते नाव खुल गई। आप खड़े-खड़े पुनः नाव के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं । उस पार के पथिकों को नाव पर चढ़ाकर मल्लाह ने नैया को खेवकर पुनः पश्चिमी तट पर लगा दिया है। यात्री उतर रहे हैं, पर दो व्यक्ति स्थिर भाव से नाव पर बैठे हैं । सभी के उतर जाने पर वे दोनों महानुभाव भी नाव से उतरकर सीधे आपके पास चले आते हैं ।
आप विस्फारित नेत्रों से देखने लगते हैं ये तो मुरादाबाद-निवासी बाबू रघुवरदयालजी तथा पूर्णियाँ जिला-स्कूल के शिक्षक एवं राधास्वामी-मत के सत्संगी श्री जंगबहादुरजी हैं। आपने उन्हें प्रणाम किया और ‘आप अचानक यहाँ कैसे ?’ यह आपके पूछने के प्रथम ही बाबू रघुवर दयालजी ने आपसे पूछ दिया–’तुम कहाँ जा रहे हो?’
आपने उत्तर दिया- ‘पूज्यपाद बाबा साहब के दर्शन करने के लिए भागलपुर जा रहा हूँ।’
यह सुनते ही बाबू रघुवरदयाल ने कहा–’तुम वापस लौट जाओ। बाबा साहब को यह मालूम हो गया है कि तुम बीमार हो। इसीलिए उन्होंने मुझे तुमको देखने के लिए भेजा है।’
सद्गुरुदेव की अहैतुकी करुणा और वात्सल्य की बात जानते ही आप प्रेमाकुल हो रोने लग गए। स्वप्न भंग हो गया और आँखें खुल गईं। आपने जगकर देखा, आँसू और पसीने से सारा शरीर और सारे वस्त्र भींग गए हैं । आपने उठकर सारे शरीर को सूखे वस्त्रों से पोंछा और भींगे वस्त्रों को उतार सूखे वस्त्र पहन लिए। उसी दिन से बहुत दिनों के लिए ज्वरासुर ने आपसे विदाई ले ली।
पिताजी के दरवाजे पर निवास करते समय ही एक बार एक कबीरपंथी साधु आपके पास आए। साधु-वेश के कारण आपने उनको आदरपूर्वक ठहराया। भोजनादि की सुख-सुविधा पाकर ये यहाँ अटक गए । इनका भोजन आपके पिताजी के ही घर से बनकर आता था। कभी-कभी अन्य सत्संगी भाई भी इन्हें खिला दिया करते ।
सोने के लिए आपके पिताजी ने एक खाट दी थी, जिसपर बाँस का चचार देकरं आप सोते थे । इसके सिवाय और दो छोटी-छोटी चौकियाँ थीं, जिन्हें सटाकर बिछाने से एक आदमी भली भाँति उसपर बैठकर ध्यान कर सकता था। साधु के रह जाने पर खाट तो आपने उनको शयन करने के लिए दे दी और स्वयं दोनों छोटी चौकियाँ बिछाकर घर की टट्टी से सटकर किसी भाँति सो लेते थे। अकर्मण्य और आलसी साधु ने सुख-सुविधापूर्ण आराम की व्यवस्था देखकर दो-ढाई महीने तक यहाँ से हटने का नाम नहीं लिया। यहाँ नित्यप्रति नियमित रूप से सत्संग हुआ करता, पर साधुजी महाराज खाट पर चार-चित लेटे-ही-लेटे सत्संग किया करते।
एक दिन दोपहर के समय सत्संग हो रहा था। साधुजी उसी भाँति चार-चित लेटकर ‘आराम के साथ’ सत्संग कर रहे थे। आज सत्संग समाप्त होने के उपरान्त संचित संक्षोभ ने वाणी का रूप धारण किया। आप बोले- ‘साधुजी महाराज ! आपके सामने एक गृहस्थाश्रमवाले श्रद्धापूर्वक बैठकर सत्संग करते हैं और आप विरक्त होकर भी सत्संग के समय खाट पर लेटे हुए आराम करते रहते हैं ? क्या ऐसा बरतते हुए आपको जरा भी संकोच नहीं होता ? आपमें तो भक्ति-भाव और उपासना एवं सत्संग के प्रति आस्था का एक कण-मात्र भी नहीं है। आपसे तो ये गृहस्थाश्रमी ही लाख गुना श्रेष्ठ हैं। आप यदि मुंडन कराकर गृहस्थ-वेश में आ जाते, तो साधु-समाज और साधु-वेश का कलंक धुल जाता ।’
सच्ची आलोचना के आघात से साधु तिलमिला उठे और तुरत ही वहाँ से भाग खड़े हुए और सर्वत्र यह प्रचार करने लगे कि ‘यह संतमतवाला साधु मेँहीँ मेरा सिर मुंडित करवाकर साधु-वेश उतरवाना चाहता था।’
उसी अवसर पर देवोत्तर ग्राम में कबीरपंथियों का एक भंडारा हुआ, जिसमें आपको भी आमंत्रित किया गया। आपने कहा- ‘भाई ! मैं तो भंडारे का निमंत्रण नहीं लेता हूँ, हाँ, जहाँ सत्संग होता है, वहाँ जाता हूँ।’ पीछे फिर खबर आई, हाँ, सत्संग भी होगा।
भंडारे में सम्मिलित होने की आपमें रुचि नहीं थी, पर धरहरा के सत्संगियों ने निवेदन किया कि नहीं जाने से वे लोग समझेंगे कि इनके पास अध्यात्म-पथ या संतों के मार्ग का सही उत्तर नहीं है, इसी डर से नहीं आए। अतः आप अवश्य ही चलने की कृपा करें। इस भाँति सभी का आग्रह मानकर आप दस-बारह सत्संगियों के साथ देवोत्तर गाँव गए। वहाँ उक्त साधु की बात पर विश्वास कर सभी आप पर यह दोषारोपण करने के लिए तुले हुए थे कि आप एक साधु का केश मुंडित करा उसे पथभ्रष्ट करना चाहते थे। वहाँ जाने पर यही विशेष प्रश्न आपसे पूछा गया ।
आपने उत्तर दिया-आपलोग पहले उन साधु महाराज को ही बुलाकर पूछिए कि मैंने क्या कहा था ?’ पुनः आपने उन अकर्मण्य एवं आलसी साधु की पूरी कहानी सभी को कह सुनाई। आपने कहा- ‘जब ढाई महीने मेरे साथ रहकर भी उन्होंने एक दिन भी बैठकर सत्संग नहीं किया और न कभी ध्यान-भजन ही किया, तो एक दिन दोपहर के सत्संग में सदा की भाँति उन्हें खाट पर चार-चित देखकर मुझे क्षोभ हुआ और सत्संग समाप्त होने के उपरान्त मैंने उनसे कहा- ‘आप साधु-वेश को क्यों कलंकित करते हैं ? इससे सारे साधु समाज को लोग बदनाम करेंगे। अच्छा हो कि आप साधु-वेश छोड़कर गृहस्थ-वेश धारण कर लें।’ .
सच्ची बात सबके सामने प्रगट हो जाने से सभी साधु एवं अन्य लोग भी उन्हीं साधु को दुत्कारने लगे। बेचारे ने दूसरे पर दूषण लगाकर अपने को बड़ा भला साधु सिद्ध करने का प्रयत्न किया था, पर पासा पलट गया और सभी ने उनकी पूरी तौहिनी की।
फिर तो बड़ी धूमधाम से सत्संग प्रारम्भ हुआ। सभी साधुगण एवं अन्य श्रोता निस्तब्ध होकर आपके प्रवचन सुनते रहे। सुनकर सभी मन्त्र-मुग्ध-से हो गए आर सन्तमत-सत्संग के प्रति सभी को पूरी श्रद्धा और विश्वास हो गया।
एक बार जब आप मुरादाबाद गए, तो धरहरा के कुछ दुर्जनों ने यह अफवाह फैलाने का प्रयत्न किया कि सत्संगी लोग रात में सत्संग-घर में दुष्कर्म करते हैं । आप जब लौट कर आए, तो यह सुनकर बड़े दुःखी हुए। श्री जयलाल दासजी को, जो जाड़ा, बरसात और गर्मी में कभी सत्संग में अनुपस्थित नहीं रहते थे, ऐसी बात सुनकर बडा क्रोध हुआ। उन्होंने गाँव के प्रमुख जनों से जाकर निवेदन किया कि ऐसा झूठा अपवाह फैलानेवालों पर ग्रामपंचायत से शासन होना चाहिए। प्रमुख जनों ने कल पंचायत करने की बात स्थिर की।
रात में एक नारी को दुर्जनों का सिखाया भूत लगा। वह बयान करने लगा कि मुझे इस स्त्री पर मेँहीँ साधु के चेले जयलाल ने भेजा है। इसपर उसका पति क्रोध से एक लाठी लेकर चिल्लाने लगा- ‘अभी जाकर हम मेँहीँ और उसके चेले को ठीक करते हैं ।’
कुछ सत्संगियों ने ये सारी बातें सुनकर आपसे कहा और आपकी रक्षा के लिए सत्संग-भवन में रहने की इच्छा प्रगट की।
आपने सभी से कहा- ‘आपलोग सभी घर चले जाइये। मारपीट करने के लिए जब वे लोग आ जाएँगे, तब देखा जाएगा।’
सत्संगियों ने पूछा- ‘कल गाँव के लोग पूछेगे, तो हम क्या उत्तर देंगे?’
आपने कहा- ‘जो इच्छा हो, ‘उत्तर दे देना।’
पुनः उनलोगों ने पूछा- ‘सत्संग करने के लिए हमलोग आवें कि नहीं ?’
आपने उत्तर दिया- ‘आने की इच्छा हो, तो आइए, नहीं इच्छा हो, तो नहीं आइए ।’
पुनः लोगों ने पूछा- ‘कल पंचायत बैठावें कि नहीं?’
आप बोले- ‘जब भूत भी दोषारोपण करता है, तो मनुष्यों की बात ही क्या, अतः पंचायत कराने की कोई जरूरत नहीं है।’
प्रात:काल श्री अमृतदासजी नामक एक ग्रामीण भूत-लीलावाले के दरवाजे पर गए । वहाँ की सारी कहानी सुनकर वे खूब हँसे और उनलोगों की नासमझी पर दया भी आयी। उन्होंने उनलोगों को फटकारा और समझाया ‘महात्मा मेँहीँ जी तो केवल परमात्मा की भक्ति, भजन एवं सत्संग की बातें कहते-सुनते हैं। वहाँ यन्त्र, मन्त्र, ओझा-डायन की कैसे तुम लोग कल्पना कर लेते हो ! जरा सत्संग में जाकर एक दिन सुन भी तो आओ और श्री जयलालजी, जो कि सत्संग के लिए जान देते हैं, भला इस ओछे काम की ओर कैसे ख्याल कर सकते हैं ?’ सभी पर इनके कहने का सम्यक प्रभाव पड़ा और वे लोग शान्त हो गए। शाम के सत्संग में ये सारी चर्चाएँ आपको भी सत्संगियों के द्वारा मालूम हुई। लोगों की अज्ञान दशा-निवारण के लिए आप विचारते रहे।
एक बार आपकी अनुपस्थिति में धमदाहा थाने से दारोगाजी वहाँ आए। सत्संग-विरोधी लोगों ने उनसे शिकायत की ‘सत्संगी लोग रात को सत्संग-भवन में बैठकर गुप्त मंत्रणा किया करते हैं, न जाने वे लोग ऐसा करके एक दिन गाँववालों की कोई नुकसानी नहीं कर डालें, अतः उनके एकान्त षड्यंत्र को रोका जाना चाहिए।’
ऐसी बात सुनकर दारोगाजी ने सत्संग करनेवालों को बुलाया और पूछा- ‘रात को तुमलोग सत्संग-भवन में क्या सब बातें करते हो?’
सत्संगी लोगों ने उत्तर में कहा- ‘हमलोग रात में निश्चिन्त होकर परमात्मा को पाने, उनकी भक्ति, भजन एवं ध्यान करने के संबंध में चर्चा करते हैं तथा चोरी, जारी, नशा, हिंसा एवं झूठ को छोड़ देने का संकल्प करते हैं ।’
सत्संगीगणों की बात सुनकर दारोगाजी बोले- ‘ये लोग खूब अच्छा काम कर रहे हैं ।’ यह सुनकर विरोधी लोग निराश होकर चले गए।
सन्तमत-सत्संग के विरोध में ऐसे छोटे-बड़े अनेकों काण्ड रचे गए और वे एक-एक कर समाप्त होते गए। ऐसी कितनी ही कहानियाँ है ।
इन घटनाओं के आघात-प्रतिघात से आपकी बौद्धिक प्रखरता, कोमल विनयशीलता, निर्भीक-नि:संकोच स्पष्टवादिता और विचार-वाणी की एकता के स्वरूप और भी अधिक प्रकाश में आते गए। संयत और संतुलित वार्ता और कार्य आप विशेष पसन्द करते हैं।

21.

सद्गुरु की सेवा में 

१९१२ ईस्वी के अन्त में पूज्यपाद बाबा साहब नन्दन साहब को साथ लेकर भागलपुर पधारे। आप अन्य प्रेमी सत्संगीगणों के संग उनकी सेवा में उपस्थित हुए। सत्संग का पूर्णियाँ जिले में प्रचार-प्रसार करने के लिए आपने समय प्रदान करने की गुरु-चरणों में प्रार्थना की। प्रार्थना सानन्द स्वीकृत कर ली गयी। कुछ दिन भागलपुर में ही सत्संग किया गया और इसी अवसर पर पूज्य बाबा देवी साहब ने वार्षिक सन्तमत-सत्संगाधिवेशन का सुन्दर संविधान तैयार कर दिया और नियत समय पर पूर्णियाँ पधारे । पूर्णियाँ के मधुबनी मुहल्ले में उनलोंगों के निवास का प्रबन्ध किया गया। तीन दिनों तक नियमित रूप से यहाँ सत्संग हुआ। इसमें साम्प्रदायिक भेद और विद्वेष की भावना छोड़कर सभी वर्गों, जातियों एवं सम्प्रदायों के लोग सम्मिलित हुए। अज्ञात आध्यात्मिक प्रभाव से खींचकर सभी लोग सत्संग में सम्मिलित होते और बाबा साहब के दिव्य दर्शन के लिए भीड़ लगाए रहते ।
इस बार पूज्य बाबा साहब तथा उनके साथ रहनेवाले सभी सत्संगी भाइयों के चौके एवं भंडार का सम्पूर्ण भार आपने उत्साह से अपने ही ऊपर ले लिया था। रसोई तैयार कर भोजन कराना, उनलोगों के जूठे बर्तनों को अपने ही हाथों से साफ करना, उच्छिष्ट भोजन को उठाकर चौका लगाना आदि सारे कार्यों को पूरी प्रसन्नता और उत्साह से करने में लगे ही रहते । इसमें किसी के सहयोग की जरा भी अपेक्षा या आशा नहीं रखते थे।
बाबा साहब पूर्णियाँ के उपरान्त कटिहार पधारे। यहाँ भी तीन दिनों तक उत्साह और शान्ति से सत्संग सम्पन्न हुआ। फिर सभी सत्संगियों के साथ बाबा साहब जोतरामराय आए। यहाँ बाबू शीतल प्रसाद चौधरीजी के गोले में सभी के निवास की व्यवस्था की गयी। यहाँ पर्याप्त संख्या में लोगों के बैठने के लिए स्थान था। बाबू मंचन चौधरी, बाबू धीरज लाल गुप्त, बाबू यदुनाथ चौधरी एवं अन्य सत्संगीगणों के प्रेमानुरोध से बाबा साहब ने पन्द्रह दिन ठहरकर प्रतिदिन नियमित रूप से यहाँ सत्संग कराया। इनके गुप्त प्रभाव से सभी वर्गों के लोग पर्याप्त संख्या में प्रति दिन उपस्थित होते रहे। इस बार कटिहार में बाबा देवी साहब की अध्यक्षता में सम्पन्न होनेवाले इस त्रिदिवसीय पवित्र सत्संग को पूर्णियाँ जिले का वार्षिक सन्तमत-सत्संगाधिवेशन मान लिया गया ।
पूर्णियाँ से जोतरामराय तक भोजन-प्रबन्ध संबंधी कार्यावली आपने बडी ही योग्यता के साथ पूरी की और सेवा के किसी भी कार्य का त्रुटि होने का अवसर नहीं आने दिया, पर सद्गुरु की लीला विचित्र है। एक दिन सभी के भोजन कर लेने के बाद बाबा साहब बोले- ‘आज लाला ने इतनी मीठी दाल बनायी कि सभी ने अघाकर खायी।
आपने इस वाणी का रहस्य नहीं समझा। सबके भोजन कर चुकने पर जब आपने दाल खायी, तब उक्त संकेत का मर्म आपने समझा । स्मरण-शक्ति पर आज अपना संयमन नहीं रहने से दाल में दुबारा नमक आपने डाल दिया था। आपको अपनी इस भूल के लिए बड़ा पश्चात्ताप और ग्लानि हुई, पर सदा सचेत और सावधान मन को आज किसने विस्मृति से आच्छादित कर दिया था ?
जोतरामराय में अपनी अन्तर्हित शक्ति से आयोजित सन्तमत-सत्संगाधिवेशन को पूर्ण कर बाबा देवी साहब लक्ष्मीपुर (भागलपुर) आ गए और यहाँ श्री सुरजूदास एवं श्री चेथरू दासजी के मकान पर ठहरकर तीन दिनों तक सत्संग कराया। ये दोनों सत्संगी परस्पर मित्र थे तथा लक्ष्मीपुर एवं निकट के गाँवों में संतमत-सत्संग के प्रचार में संलग्न रहा करते थे।
श्री सुरजूदासजी को बाबा साहब ‘महन्थ’ कहा करते थे।
लक्ष्मीपुर में सत्संग कराने के बाद बाबा साहब सीधे मायागंज (भागलपुर) के सत्संग-मंदिर में आ गए। प्लेग के भय से सारा मुहल्ला सूना हो गया था। सभी घर छोड़कर बगीचे में झोपड़ा बनाकर रह रहे थे। बाबा साहब ने आते ही श्री राजेन्द्र बाबू को बुलाया और बोले- “मुहल्ले में प्लेग होने के कारण क्या तुमने भी डरकर बगीचे का आवास अपना लिया ? क्या ‘देवी’ मर गया है ?”
आश्वासन-वाणी को सुनते ही राजेन्द्र बाबू के साथ सभी सत्संगीगण तथा मुहल्ले वाले भी निर्भीक होकर अपने-अपने घर आ गए। इस घटना ने अनेक लोगों का ध्यान अनायास ही सत्संग की ओर आकर्षित कर लिया।
बाबू श्री राजेन्द्रनाथ सिंहजी, बी॰ए॰, बी॰ एल॰, बाबू खूबलालदासजी, बाबू मिट्ठूलाल दासजी, बाबू रामदासजी, बाबू सन्तकुमार दासजी आदि सत्संगीगण सत्संग-प्रचार में तत्पर रहा करते थे और इनमें श्री राजेन्द्र बाबू तो एक विशेष प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। बिहार प्रान्त में सत्संग-प्रचार-कार्यों का संचालन इन्हीं के द्वारा होता था और आपका बौद्धिक मार्ग-दर्शक गुरु बनने का सौभाग्य भी इन्हीं को उपलब्ध हुआ था।
लगातार सेवा में तत्पर और व्यस्त रहने के कारण भागलपुर आते-आते आपकी परिश्रांति अधिक बढ़ गयी थी। इस अत्यधिक थकावट के कारण ही एक दिन आप सत्संग में विनती करने के उपरान्त दीवार से उठँग गए और आपकी बाह्य चेतना सहसा ही निद्रा में प्रवेश कर गई। आरती-गान के समय आप जागे और मन में डर हुआ कि इस असँभाल के कारण बाबा साहब आप पर बिगड़ेंगे, पर उस दिन उन्होंने आपसे कुछ नहीं कहा। सद्गुरु के मूक वात्सल्य ने किसी हृदय को अनुप्रेरित कर दिया और उसी दिन से जोगसर मुहल्ले के श्री यदुलाल गुप्तजी ने रसोई तथा तत्संबंधी सभी आवश्यक सेवाओं में आपको सहयोग देना प्रारम्भ कर दिया। यद्यपि अब भी सेवा का उत्तरदायित्व और कार्यभार आप ही वहन एवं सम्पन्न करते थे, फिर भी इनके सहयोग से उतनी थकावट नहीं हो पाती और कुछ विश्राम मिल जाता था।
मायागंज सत्संग-मंदिर में कई दिनों तक सत्संग कराने के बाद बाबू सन्तोषीरामजी के प्रेमाग्रह से बाबा साहब कोरका (संतालपरगना) चले आए और यहाँ सन्तोषीरायजी के घर पर रहकर तीन दिनों तक सत्संग कराया।
सद्गुरु के मार्ग-दर्शन के रूप कभी-कभी बड़े विचित्र हुआ करते हैं। एक दिन कोरका में आपने सभी के लिए भात, दाल एवं साग बनाया। चावल नया था। भात गीला नहीं होने देने के लिए आपने उसमें पहले और फिर भात होने के उपरान्त उपयुक्त मात्रा में घी मिला दिया था। बाबा साहब ने आज दाल और शाक तो खा लिया, पर भात को ज्यों-का-त्यों छोड़ दिया । भात छोड़ देने का कोई कारण समझ में नहीं आ रहा था और न उनसे पूछने की ही हिम्मत होती थी। सायंकाल खीर बाँटते समय पूज्य बाबा साहब ने बिना पूछे ही कहा- ‘आज तुमने मेरे लिए परोसे गए भात में पूरा घी डाल दिया था। यह देखकर मेरे मन में विचार हुआ कि तुमने मुझे विशेष जानकर मेरे भात में घी डाल दिया है और अन्य सत्संगीगणों के भात में घी नहीं दिया होगा यही सोचकर आज मैंने भात नहीं खाया।’
आपने उत्तर दिया- ‘सरकार ! मैंने तो सभी भात में समान रूप से ही घी दिया था और भात गीला नहीं होने देने के ख्याल से ऐसा किया था।’
यह सुनकर बाबा साहब बोले- ‘तो पहले क्यों नहीं बोला था? ऐसा जानता, तो मैं भी भात खा ही लेता।’
बाबा साहब अपने साथ प्रचुर मात्रा में मेवा मुरादाबाद से लाए थे। उसे ही सिल पर पिसवाकर दूध में सिद्ध करा मेवा-खीर बनवाते थे और सभी को एक-एक कटोरा उक्त खीर प्रदान कर आप भी खाते थे।
‘सभी में निष्पक्ष भाव से वितरण कर आप भी खाओ।’ इसी उपदेश को जीवन में चरितार्थ करने के लिए आपने खीर- वितरण के समय भात नहीं खाने के कारण का उल्लेख किया था। यह करुणामय सद्गुरु का प्रसाद था। महात्मा गाँधी एवं आचार्य विनोबा भावे के ‘सर्वोदय’ में भी इसी आदर्श की प्रतिध्वनि जान पड़ती है और ‘बाइबिल’ के ‘जिओ और जीने दो’ के आदर्श का संकेत भी मिलता है।
कोरका में सत्संग कराने के बाद बाबा साहब सत्संगीजनों के श्रद्धापूर्ण आग्रह से पुनः भागलपुर जिले के बभनगामा ग्राम पधारे और वहाँ भी दो-तीन दिन सत्संग करवाकर भागलपुर चले आए।
सन् १९१२ ईस्वी का स्वर्णिमकाल । आपकी सेवा के वशीभूत सद्गुरु ने एक दिन शान्त-एकान्त में आपको ‘सुरत-शब्द-योग’ की साधन-विधि बतलाकर आदेश दिया- “अभी दस वर्ष तक तुम केवल दृष्टि-योग का ही अभ्यास करो। मैंने बत्तीस वर्षों तक लगातार केवल दृष्टियोग का ही अभ्यास किया है। दृष्टि-योग-अभ्यास में मजबूत हुए बिना ‘शब्द-साधन’ करना ठीक नहीं है। यह अभी तुमको इसलिए बतला दिया कि यह तुम्हारे ज्ञान (जानकारी) में रहेगा, परन्तु इसका अभ्यास अभी नहीं करना।”
सद्गुरु की अयाचित करुणा निरुद्देश्य नहीं होती है। उन्हें पता था कि आपने इस ‘सुरत-शब्द-योग’ को जानने के लिए कितने कष्ट उठाये हैं, मारे-मारे फिरे हैं, सेवा की है और पाने की व्याकुलता और विह्वलता जब पराकाष्ठा पर पहुँच गयी है, तो भूख-प्यास, विश्राम यहाँ तक कि नींद को भी तिलांजलि दे दी है।
आज अपना चिर अभीष्ट पथ जानकर आपके अन्तर की प्रचण्डाकुल ज्वाला शान्त हो गयी है और आप गुरुदेव के स्नेह-सागर में निमग्न हो रहे हैं ।
भागलपुर में आपको अलभ्य आशीर्वाद प्रदान कर बाबा साहब ने मुरादाबाद के लिए प्रस्थान कर दिया और आप अपने जीवन को स्वावलम्बी बनाने के लिए खेती करने का विचार लेकर धरहरा चले आए। पिताजी ने आपके निवेदन पर पौने दो बीघे जमीन जीविका-अर्जन के लिए दे दी। इस जमीन में तीन वर्षों तक आपने पर्याप्त परिश्रम किया, पर सत्संग का खर्च विशेष बढ़ जाने के कारण आपने अपर्याप्त मानकर खेत पिताजी को वापस कर दिया। आपने स्वावलम्बी बनने का जो संकल्प किया था, उसकी पूर्ति भी पिताजी की जमीन से नहीं की जा सकती थी।

22.

स्वावलम्बन और सद्गुरु

श्री गुलाबदासजी परोरा (पूर्णियाँ) के एक कबीर-पंथी साधु थे। साधना की सच्ची अभिलाषा के कारण इन्होंने बाबा साहब का शिष्यत्व ग्रहण कर उससे मानस जप, मानस ध्यान तथी दृष्टि-योग-साधन का भेद प्राप्त कर लिया था। यह भजन-भेद देकर बाबा साहब ने इन्हें आदेश दिया था कि समय आने पर तुम ‘शब्द-साधन’ का भजन-भेद ‘लाला’ से ले लेना। बाबा साहब आपको कभी पूरा नाम लेकर पुकारते और कभी केवल ‘लाला’ शब्द से ही सम्बोधित करते थे।
१९१२ ई. के श्रावण मास में आपके हृदय में एक अभिलाषा जगी कि छह महीने तक सद्गुरु के संग-निवास कर उनकी चरणार्चना करूँ। आपने इस अभिलाषा को श्री गुलाब दासजी से प्रगट किया और छह महीने के भोजन-खर्च के लिए पचास रुपये पैंचा देने का अनुरोध किया। यह सुनकर गुलाबदासजी ने स्वयं भी जाने की इच्छा प्रगट की और आपको उन्होंने पचास रुपये दे दिए।
दूसरे ही दिन आप गुलाबदासजी को साथ लेकर मुरादाबाद की ओर चल पड़े। उस समय बाबा साहब अताई मुहल्ले में सत्संग करा रहे थे। आपलोगों के वहाँ पहुँचने के दूसरे ही दिन उन्होंने आपलोगों से पूछा - ‘तुमलोग कितने दिनों तक यहाँ ठहरोगे?’
आपने निवेदन उपस्थित किया- ‘छह महीने तक ठहरने की इच्छा करके यहाँ आया हूँ ।’
बाबा साहब ने पूछा- ‘खर्च का क्या प्रबन्ध है?’
आपने विनीत स्वर में उत्तर दिया- ‘पचास रुपये साथ लेकर चला था, जिसमें कुछ रुपये ट्रेन से आने में खर्च हो गए हैं।’
बाबा साहब ने पूछा- ‘ये पचास रुपये तुम्हारे पास कहाँ से आए ?’
आपने गुलाबदासजी की और संकेत करते हुए कहा- ‘ये रुपये इन्हीं से पैंचा लेकर आया हूँ।’
यह सुनकर बाबा साहब बोले- ‘तुमने बड़ा बुरा काम किया है। उधार लेना बहुत बुरी बात है। यदि तुम अभी मर जाओ, तो ये उधार रुपये कौन चुकावेगा ? तुम अभी यहाँ से वापस लौट जाओ और इसके रुपये वापस कर दो।’
आपने प्रार्थना की- ‘मैं श्री चरण के आदेश का ही पालन करूँगा, किन्तु चार दिन भी साथ में रहने का पुनीत अवसर दिया जाय ?’
चार दिन रहने की स्वीकृति प्राप्त कर आप अतीव प्रसन्न हुए। फिर एक दिन बाबा साहब ने आपसे पूछा- ‘तुमने अपने निर्वाह के लिए क्या स्थायी प्रबन्ध किया है ?
आपने उत्तर दिया ऐसा कुछ स्थायी प्रबन्ध नहीं कर सका हूँ, परन्तु अपना खर्च चलाने के लिए करीब पौने दो बीघे जमीन पिताजी से लेकर उसे आबाद कराया है।’ यह सुनकर बाबा साहब ने आदेश दिया- ‘इस तरह साल-साल की खेती तुमसे ठीक-ठीक नहीं चल सकेगी। तुम ऐसी खेती करो, जिसमें कई साल तक मेहनत करो और बाद को वह मेहनत करना छूट जाय एवं वही तुम्हारी जीविका के लिए स्थायी सम्पत्ति बन जाय । इसलिए तुम जाकर दो बीघे में बाँस और एक बीघे में केले का बाग लगाओ ।’
यह आदेश सुनकर आप कुछ गंभीर हो गए और विचार करने लगे– ‘इस आदेश को कैसे पालन करूँगा? एक तो अपनी जमीन नहीं है और किसी भाँति जमीन मिल भी जाए, तो बाँस लगाने से करीब दस वर्षों में जाकर उससे आमदनी हो सकेगी। इस बाँस लगाने के बीच ही में अगर शरीर छूट जाय, तो इससे जीवन को क्या लाभ पहुँचेगा? केवल परिश्रम मात्र। ‘ इस भाँति मौन भाव से विचार करते देख पुनः बाबा साहब ने आपसे कहा- ‘तुम चुप क्यों हो गए? बोलते क्यों नहीं?’
आपने प्रार्थना की- ‘आठ-दस वर्षों के पहले बाँसों से आमदनी नहीं आ सकती है। मेरे मन में आता है कि यदि इसके पूर्व ही यह शरीर छूट गया, तो बाँस लगाने का यह परिश्रम किस काम में आएगा?’
यह सुनकर बाबा साहब ने डाँटते हुए कहा- “अरे, तू मुझको ज्ञान सिखलाता है ? तू कहता है, ‘यदि मैं इसके अन्दर मर गया ।’ और मैं कहता हूँ, यदि तू सौ वर्ष जीवित रह गया, तो क्या खाएगा? किस तरह अपना निर्वाह करेगा ?” इसपर आपने निवेदन किया- ‘इस संबंध में मेरे लिए और भी कई अड़चने हैं । एक तो मैं पिताजी से जमीन नहीं माँग सकता; दूसरी बात बाँस लगाने में जो खर्च होगा, सो भी मेरे पास नहीं है। यही सोचकर हृदय में इस काम को पूरा करने का साहस नहीं हो रहा है।’
यह सुनते ही बाबा साहब ने अस्सी रुपये गिनकर आपके सामने रख दिए और बोले- ‘लो, इन रुपयों को ले जाओ। इन्हें अपने काम में लगाओ। कम जाय तो मुझसे फिर माँग लेना और जब बाँसबाड़ी से आमदनी आ जाय, तब इन्हें लौटा देना ।’
स्वावलम्बी बनाने के लिए गुरुदेव का यह आग्रह और सहायता प्रदान देखकर आपका हृदय कृतज्ञता से भर आया और अन्तर में विश्वास और उत्साह की बाढ़-सी आ गयी। आपने हाथ जोड़कर विनय किया-- ‘जब सद्गुरु महाराज की मेरे लिए यह दया और शुभेच्छा है, तब आपके आदेश के अनुसार अवश्य ही मैं करूँगा और कर सकूँगा। गुरु महाराज की शुभेच्छा के प्रसाद से इस कार्य को पूरा करने के लिए पूर्णियाँ में ही रुपयों का भी प्रबन्ध हो जाएगा, अतः इन रुपयों को ले जाने की भी आवश्यकता मुझे नहीं है।’
आपकी श्रद्धा एवं विश्वास-भरी वाणी सुनकर गुरु महाराज अति प्रसन्न हुए और सहसा वरदान के स्वर में बोल गए–’अच्छा, ऐसा ही होगा।’
चार सत्संगमय दिवस बीत जाने के बाद सद्गुरु के चरणों में श्रद्धा-सहित प्रणाम कर आपने वापस लौट जाने का निवेदन किया । उत्तर में सद्गुरुदेव ने बत्तीस रुपयों के मूल्य की ‘घटरामायण’ तथा ‘बाल का आदि और उत्तर का अन्त’ नामक दो पुस्तकें देकर विदा किया और कहा– ‘इनको बेच लीजियो और इन रुपयों से अपना काम चलाइयो। आमदनी हो जाने पर फिर इसे वापस कर दीजियो ।’
‘जो आज्ञा’ कहकर आपने गुरुदेव का प्रसाद ग्रहण कर लिया और रास्ते भर करुणा के इस ‘सम्पत्ति-बीज’ की याद से स्नेहिल बने श्री गुलाब दासजी के साथ धरहरा पहुँच गए। 

23.

स्वावलम्बन की तपस्या

धरहरा आकर आप बाँस और केले का बाग कहाँ-कैसे लगे, इस विषय पर सोचने लगे। अपने प्रेमी सत्संगीगणों से भी यदा-कदा इस विषय की चर्चा करने लगते। पिताजी की जमीन आपको बगीचा लगाने के उपयुक्त नहीं जँच रही थी।
सद्गुरु की अज्ञात प्रेरणा से गाँव के एक सम्पन्न और प्रतिष्ठित व्यक्ति बाबू श्रवण सिंहजी ने आपकी इच्छा से अवगत होकर एक दिन अनायास आपसे पूछा- ‘क्या आपको बगीचा लगाने के लिए जमीन मिल गई ?’
आपने उत्तर दिया- ‘अबतक तो नहीं मिली है।’
श्री श्रवण सिंहजी दो भाई थे। छोटे भाई मित्रजीत सिंहजी महाराज दरभंगा के एक कर्मचारी के नील महकमे के दीवान थे और बराबर सत्संग में आया करते थे।
पुनः श्रवण सिंहजी ने आपसे पूछा- ‘बगीचे के लिए कितनी जमीन आप चाहते हैं ?’
आपने उत्तर दिया- ‘तीन बीघे।’
जानकीनगर मिलिक की पत्नीवाली उनकी अपनी जमीन सत्संग-मंदिर के निकट में ही थी।
उन्होंने कहा- ‘तीन बीघे तो नहीं, परन्तु मैं आपको एक शर्त पर दो बीघे जमीन दे सकता हूँ । शर्त यह है, मेरी चारों बीघे जमीन के चारो ओर आप अहाता बनवाकर ठीक बीच में एक निशान चिह्नित कर दें। उत्तर - पार्श्व का खण्ड आप ग्रहण करना स्वीकार करें और दक्षिण तरफ का टुकड़ा मेरे लिए छोड़ दें। अहाता घेरने का आधा खर्च मैं दूँगा और आधा आपका लगेगा। इस जमीन का खजाना प्रति बीघे दो रुपये की दर से देना होगा।
आपने इस अकल्पनीय संभावना को अनायास उपस्थित देखकर स्वीकार कर लिया। आप इसमें अज्ञात प्रेरणा का आभास पा रहे थे।
आपके पिताजी को जब यह बात मालूम हुई, तो उन्होंने आपसे कहा- ‘अभी तक तो ज्यादा-से-ज्यादा मालगुजारी सवा रुपये प्रति बीघे थी। तुम इतनी अधिक दोगे मालगुजारी ?’
आपने उत्तर देना उचित नहीं समझा और पिताजी के समक्ष मौन बने रहे। उनके चले जाने के बाद आपने सोचा- ‘बाँस लग जाने पर तो दो रुपये प्रति बीघा मालगुजारी देना कठिन न होगा।’ ऐसा मन ही मन निर्णय कर आपने उसी दर से जमीन की रसीद कटवा ली। जब बन्दोबस्ती का कागज लिखा जाने लगा, तो बाबू श्रवण सिंह ने ‘नजराना’ माँगा।
आपने पूछा- ‘क्या नजराना चाहिए ?’
उन्होंने कहा- ‘एक घौर केला दे दीजिएगा।’
आपने कहा- ‘जबतक उस जमीन में केले रहेंगे, तबतक प्रति वर्ष दो घौर केले आपके पास भिजवा दिया करूँगा।’
आपने जमीन लेकर निर्दिष्ट विधि से उसे दो खण्डों में बाँट दिया और उसमें अक्लान्त परिश्रम करने लगे। एकाकी परिश्रम से काम पूरा नहीं होते देख आपने नौकर भी रक्खा तथा मजदूर भी लगाए। इस भाँति केवल खर्च-ही-खर्च होता गया। जमीन को घेरने तथा बगीचा लगाने में कुछ कर्ज भी हो गया। अभी कई वर्षों तक आमदनी की कोई संभावना नहीं थी, अतः आपने इस माध्यमिक काल में अध्यापन करने का निश्चय किया और बगीचे की व्यवस्था एवं सुरक्षा का भार एक सत्संगी श्री जानकी दासजी को दे दिया । शर्त यह हुई कि बगीचे की आधी आमदनी जानकी दासजी लेंगे, पर इसमें इनको सत्संग-मंदिर में पधारे हुए सत्संगियों को भोजनादि की सारी व्यवस्था भी करनी पड़ेगी। शेष आधी आमदनी अक्षुण्ण रूप से आपकी रहेगी। इस काम को श्री जानकी दासजी ने पूरी ईमानदारी से निबाहा और आपके यहाँ से चले जाने पर भी ठीक-ठीक हिसाब-किताब रखा। अध्यापन-कार्य से यदा-कदा आकर आपने इनके कार्यों का निरीक्षण-परीक्षण भी किया था, जिससे इनकी सच्चाई का आपको पता लग सका।
श्री जानकी दासजी दो भाई थे। छोटे भाई का नाम विपतूदास है। ये जाति के धोबी थे और सत्संग करते हुए इनका मन भी पर्याप्त रूप से धुल चुका था।
अध्यापन कार्य के लिए आपको सर्वप्रथम जोतरामराय के शीतल बाबू ने आह्वान किया, पर भंगाहा के श्री मिसरी मंडलजी के अति प्रेमाग्रह से आपने यहीं पन्द्रह रुपये मासिक पर अध्यापन कार्य प्रारम्भ कर दिया। भंगाहा गाँव को अध्यापन-कार्य के लिए चयन करने में स्थान की दूरता-निकटता का भी सवाल था । धरहरा से जोतरामराय की दूरी पचास मील है और भंगाहा की चौबीस मील । श्री मिसरी दासजी ने कहा कि जब आप आवश्यक समझें, तो अपने बगीचे की देख-रेख करने के लिए यहाँ से अपेक्षाकृत सुविधापूर्वक आ जा सकेंगे। उस समय ट्रेन और बस की कोई सुविधा नहीं थी, अतः भंगाहा ही आपको अध्यापन-कार्य के लिए अधिक अनुकूल प्रतीत हुआ ।
१९१२ ईस्वी के दिसम्बर मास में आपने भंगाहा में अपना अध्यापन-कार्य प्रारम्भ किया । आपने मिसरीदासजी से कहा- ‘पन्द्रह रुपये मासिक वेतन लेकर मैं केवल छह ही लड़कों को पढ़ाऊँगा। इनके सिवाय जो कोई और लड़के पढ़ने के लिए यहाँ आवेंगे, उन्हें निःशुल्क ही पढ़ाया करूँगा।’
भंगाहा-निवासियों को तो आपकी इस उदारता से लाभ-ही-लाभ था, फिर क्या आपत्ति होती?
यहाँ आपने पौने दो वर्ष तक निवास कर अध्यापन का कार्य सम्पन्न किया। डेढ़ वर्ष तो उस समय के सत्संगालय में निवास किया और शेष समय आपने आम्र-वाटिका की एक कुटी में बिताया।
अध्यापन करते हुए भी आप सत्संग का प्रचार-प्रसार कार्य किया करते थे। जब कभी कहीं से सत्संग करने-कराने की पुकार होती, तो अध्यापन स्थगित कर आप सत्संग कराने के लिए चले जाते और साथ में आपके तथा दूसरे भी कोई विद्यार्थी जाना चाहते, तो उन्हें भी साथ लिए जाते ।
भंगाहा के सत्संगी श्री श्यामसुन्दर दासजी का संबंध दुर्गापुर में था। इन्होंने स्वयं वहाँ जाकर सत्संग का प्रचार किया। सत्संग से परिचित होने से वे लोग भंगाहा आकर सत्संग करने लगे और कई बार आपको भी वहाँ बुलाकर सत्संग करवाया। आज वहाँ भी काफी सत्संगी हो गए हैं और उनलोगों ने नियमित रूप से सत्संग करने के लिए एक इंटों का सत्संग-मंदिर भी निर्माण कर लिया है।
भंगाहा के अध्यापन-काल में आप एक बार अररिया इलाके के बेतौना ग्राम में सत्संग कराने गए थे। वहाँ भी अब सत्संग-मंदिर में नियमित रूप से सत्संग हुआ करता है। भंगाहा के मिसरी मंडलजी की ससुराल वहीं थी और इन्हीं के आग्रह से आपने बेतौना में जाकर सत्संग-प्रचार किया था। इस भाँति अध्यापन के साथ-साथ सत्संग-प्रचार करते हुए आप चौदह-पन्द्रह दिनों में एक बार धरहरा जाकर वहाँ के कुल कार्यों का प्रबन्ध-निरीक्षण कर आया करते थे।
आपने पन्द्रह रुपये मासिक वेतन में से पाँच रुपये दूध, घी, जलपान एवं भोजन में व्यय कर दस रुपये बचा लिया करते थे। इस भाँति संग्रह करके आपने खेती में लिए गए सभी कर्जों का परिशोध कर दिया और अध्यापन-कार्य छोड़ कर पुनः सिकलीगढ़ धरहरा में रहकर इसे सत्संग-गढ़ बनाने का प्रयत्न करने लगे।

24.

सत्संग-गढ़ का निर्माण

धरहरा से उत्तर-पश्चिम छह मील दूर पिपरा गाँव में श्यामसुन्दर नामक एक साधु निवास करते थे। वे कभी-कभी धरहरा भी आ जाते थे और आने पर सत्संगीगणों के बीच ऐसी घोषणा करते-- ‘मैं महर्षि मेँहीँ परमहंसजी को शास्त्रार्थ में अवश्य ही पराजित कर दूँगा। इसके लिए २५० (ढाई सौ) रुपये मैं बाजी के रूप में रखने के लिए तैयार हूँ। यदि वे मुझे हरा देंगे, तो मैं ढाई सौ रुपये उन्हें दे दूँगा या उनका शिष्य बन जाऊँगा और यदि मैंने उन्हें हरा दिया, तो उनको ढाई सौ रुपये देने पड़ेंगे या उनको मेरा शिष्य बन जाना पड़ेगा।’
उनकी घोषणा को सत्संगीगण आकर आपको सुनाने लगते । सुनकर आप सदा यही कहते–’न तो मेरे पास बाजी लगाने के लिए ढाई सौ रुपये हैं और न किसी भाँति सद्गुरु के सिवाय मैं किसी दूसरे का शिष्य ही बन सकता हूँ; हाँ, इतनी बात मैं बिना उनसे शास्त्रार्थ किये ही कह सकता हूँ कि उनकी जीत और मेरी हार है।’
साधारण मनुष्यों के मन में एक-दूसरे को लड़ा-भिड़ाकर वाक्-युद्ध देखने का तीखा स्वाद लगा रहता है और वे ऐसे अवसर खोजने या बनाने की ताक में लगे रहते हैं। इसी भाँति किसी को हरा देने में भी एक तीक्ष्ण सुख का अनुभव होता है।
१९१४ ईस्वी में जब फूस का नया और बड़ा सत्संग-भवन बन रहा था, उसी अवसर पर साधु श्यामसुन्दरजी दो-तीन व्यक्तियों के साथ शास्त्रार्थ करने के लिए सत्संग-स्थल पर आ धमके। उस समय आप नित्यप्रति के सत्संग की भाँति अन्त में ‘धम्मपद’ का पाठ कर रहे थे। पाठ समाप्त होने पर आपके पास शास्त्रार्थ करने की ललकार प्रेषित की गयी। सुनकर आप बोले- ‘न तो मेरे पास बाजी लगाने के लिए ढाई सौ रुपये ही हैं और न किसी भाँति मैं उनका शिष्य ही बन सकता हूँ। मुझमें इतनी योग्यता भी नहीं है कि मैं उन्हें अपना शिष्य बनाकर रख सकूँ। हाँ, वे यदि जीतने की अभिलाषा लेकर पधारे हैं, तो मैं घोषित कर देता हूँ कि उनकी जीत और मेरी हार है।’
ऐसी विनम्र आत्मा से, जो अनायास ही अपनी हार स्वीकार कर लेते हैं, वाक्-युद्ध हो ही नहीं सकता और ऐसों के विरुद्ध जयघोषणा करने में वह तीखा स्वाद ही कहाँ है, जिसके लिए ऐसे लोग लालायित रहा करते हैं ।
यहाँ कबीर साहब की वाणी जीवन में साक्षात् रूप से चरितार्थ होती हुई नजर आ रही है।
‘हरिजन तो हारा भला, जीतन दे संसार।
हारा तो हरि से मिले, जीता जम के लार।।’

यहाँ से विजय पाने की लालसा मन में तड़पती ही रह गयी और वह धरहरा गाँव जाकर सत्संगीगणों से जा टकरायी; पर यहाँ उनके ललाट में विजयश्री नहीं लिखी थी, फलतः पराजित होकर वे ऐसे भागे कि फिर उन्हें ‘शास्त्रार्थ’ शब्द का उच्चारण करना भी घृण्य प्रतीत होने लगा।
वर्तमान सत्संगालय के पास एक बीघा दो कट्ठे एक और जमीन थी, जो खाली ही थी। वह सर्वे के समय गाँव के सज्जन श्री फेंकू मंडलजी के नाम से दर्ज हो गयी थी, पर न तो वे इसका खजाना ही देते थे और न इस जमीन से किसी भाँति का कोई संबंध ही रखते थे। सत्संग-मंदिर का आसन्नवर्ती होने तथा सत्संग-प्रचार में आपकी अविश्रान्त कर्मण्यता देखकर एक दिन स्वतः उन्होंने आकर आपसे कहा- ‘सत्संगालय की आसन्नवर्ती जमीन का सर्वे मेरे नाम से हो गया है, पर मैंने उसपर कभी अधिकार नहीं किया और न कभी उसका खजाना ही दिया है। आप उस जमीन का खजाना पत्नीदार को देकर अपने नाम से रसीद कटा लें।’
तदनुसार आपने पत्नीदार के कर्मचारी से इस संबंध में बातचीत की। उन्होंने कहा कि आप सर्वेदार से खानगी तौर पर ही एक कबाला लिखवा लें। तब मैं आपसे खजाना लेकर आपके नाम रसीद काटकर दे दूँगा । सर्वेदार ने प्रसन्नता से कबाला लिख दिया और आपने दस आने प्रति बीघे की दर से तेरह वर्ष की रसीदें कटाकर रख लीं।
अब आपका मन उस रिक्त जमीन की ओर आकर्षित होने लग गया था, जिसपर आज सत्संग-मंदिर है। आप प्रतिदिन उधर टहलने जाया करते थे और उस जमीन को देखते ही आपके हृदय में यह अभिलाषा जग उठती कि यदि इसी जमीन में सत्संग-सदन निर्मित हो जाय, तो अति उत्तम हो; क्योंकि निकट की जमीन अब अपनी हो ही चुकी थी। यह जमीन छुतहरू भगत की थी और जिस जमीन की रसीद कटायी थी, उस जमीन के तीनों ओर उन्हीं की जमीन थी। एक दिन छुतहरू भगतजी ने स्वतः प्रेरित होकर आपसे निवेदन किया- ‘आप वर्तमान सत्संगालय-वाली जमीन से इस जमीन की बदली कर लें, तो एक तरफ आप रह जाएँगे और दूसरी ओर मैं। यह दोनों के लिए अच्छा रहेगा।’
आप इस विचार से सहमत हो गए और विधिवत् लिखा-पढ़ी कर पूर्व सत्संगालय-वाली जमीन से इसकी अदला-बदली कर ली। अब आपकी दृष्टि उससे पूरब और दक्षिणवाली जमीन पर पड़ रही थी। यह जमीन पत्नीदार की थी और यों ही परती पड़ी हुई थी।
पत्नीदार के भगिने के साले बाबू बालमुकुन्द पाण्डेयजी धरहरा के पोस्टमास्टर थे। अचानक उन्हें तीव्र ज्वर हो आया, पर पोस्ट-ऑफिस का काम तो रुक नहीं सकता था। उन्होंने आपसे पोस्ट-ऑफिस का कार्य सँभाल देने की प्रार्थना की। आपने उत्तर दिया- ‘मैं तो उस कार्य के विषय में कुछ जानता नहीं, अतः एक बार बता दें, तो अच्छा होगा।’
वे बात करने में भी असमर्थ हो रहे थे। कहा- ‘आप तो अंग्रेजी जानते ही हैं । छपे फार्म में कार्यविधि पढ़कर जैसा समझ में आए, कार्य सम्पन्न करते रहें ।’ उनकी लाचारी देख आपने यह उत्तरदायित्व स्वीकार कर लिया।
उनकी बीमारी बढ़ती ही गयी। अन्त में उनके पिताजी आए और उन्हें लेकर यहाँ से चले गए।
आपने पन्द्रह दिन उनके स्थान पर काम चलाया। इसी बीच में पोस्टल विभाग के एक निरीक्षक जाँच करने के लिए आए। उन्होंने आपके कामों में कहीं कोई त्रुटि नहीं पायी ।
पोस्ट-ऑफिस में यदि कोई मनिऑर्डर फार्म आदि लिखवाते, तो पोस्टमास्टर साहब को कुछ नजराना दे दिया करते थे। एक बार एक व्यक्ति रुपया मनिऑर्डर करने आया। आपसे ही मनिऑर्डर फार्म भरवाकर उसने रुपया मनिऑर्डर कर दिया। प्रथम के अभ्यस्त तरीके के अनुसार नजराने के रूप में एक पत्र के दोने में नारियल की गरी तथा कुछ किशमिश-मुनक्का भरकर वे देने लगे। आपने उसे लेना अस्वीकार कर दिया और कहा ‘जब पुराने पोस्टमास्टर साहब आवें, तब आप पूर्व की भाँति उन्हें ही दिया करेंगे।’
आपकी ऐसी नि:स्वार्थ भावना देखकर जनता की श्रद्धा आपके प्रति बढ़ गयी और आप सदा इसी भाँति पोस्ट-ऑफिस के सभी काम पूरे करते रहे । वहाँ का काम पूरा कर आप सत्संगालय चले आते थे और अपने नियमित साधन-भजन, सत्संग एवं गृह-कार्यों में लग जाते थे। यहाँ किसी के बारम्बार अनुरोध करने पर भी पोस्ट-ऑफिस का कोई काम नहीं करते थे।
इस भाँति कार्य की न्यायपूर्ण मर्यादा स्थिर कर उसे ठीक-ठीक निभाना आपका ही काम था। यह मानव-कर्तव्य-विधान का एक सुन्दर आदर्श है ।
जब बालमुकुन्दजी स्वस्थ होकर पुनः अपना कार्य-भार संभालने के लिए आए, तो उन्होंने आपके प्रति बड़ी कृतज्ञता प्रगट की और पन्द्रह दिनों का वेतन आपको देने लगे।
आपने वेतन नहीं लिया और उनसे कहा- ‘मैंने तो असहाय अवस्था में आपकी सहायता कर दी, जो मनुष्यता का पुनीत कर्तव्य है, फिर वेतन कैसा ?’
आपके इस स्वार्थ-त्याग का प्रभाव श्री बालमुकुन्द पाण्डेय तक ही सीमित नहीं रहा । उनके बहनोई श्री वासुदेव चौबे तथा उनके परिवार के सभी लोग इस स्वार्थ-त्याग को देखकर चकित हो गए। श्री वासुदेव चौबेजी पत्नीदार के भागिनेय ही नहीं, तहसीलदार भी थे और रैयत-वर्ग उन्हीं को ‘मालिक बाबू’ कहा करते थे। ये सभी लोग आपकी कृतज्ञता का ऋण चुकाने के विषय में सोचते रहते थे।
वे लोग यदा-कदा आपके दर्शन करने सत्संगालय आते थे। एक दिन उक्त जमीन को, जिसे उपलब्ध करने की आपके मन में अभिलाषा जगी थी, सत्संगालय के निकट देखकर उनलोगों के मन में वही जमीन आपको बन्दोबस्त देने की इच्छा उत्पन्न हो गई और इसे ग्रहण करने के लिए वे लोग आपसे अत्यन्त आग्रह करने लगे। आपकी स्वीकृति मिलने पर उनलोगों ने वह जमीन आपके नाम से बन्दोबस्त कर दी। अब सत्संगालय के लिए सुन्दर अहाता बन गया और उसमें कलात्मक योजना के अनुसार सत्संग-मंदिर, भोजनालय, अन्य कुटी और आवास-गृह, पुष्प-उद्यान, आम्र-वाटिका एवं बाँस-निकुंज विनिर्मित किए गए। आज यह सत्संग-मंदिर लाखों आत्माओं की आध्यात्मिक प्रेरणा का दिव्य केन्द्र बन गया है।

25.

ईसाई का बैपटिज्मा

निज निर्मित नियमावली के अनुसार १९१३ ईस्वी को १३ जनवरी को वार्षिक अधिवेशन सम्पन्न कराने के लिए बाबा साहब स्वयं कटिहार पधारे।
अंग्रेजी और भारती भाषा में ‘Cheerful news’ और ‘खुश खबरी’ शीर्षक का विज्ञापन छपवाकर जन साधारण में दूर-दूर तक खूब प्रचार किया गया। उस वर्ष का वार्षिक संतमत-सत्संगाधिवेशन (गुरु-मिलाप मेला) उन्होंने अपनी उपस्थिति में सुसम्पन्न किया और यह पूर्णियाँ जिलाधिवेशन बिहार प्रान्तीय सत्संगाधिवेशन में परिणत हो गया। इसमें लगभग दो सौ सत्संगियों तथा एक सहस्र श्रोताओं ने भाग लिया। बाबा साहब की उपस्थिति एवं प्रभाव के कारण इस वर्ष आध्यात्मिक संवेग एवं उल्लास की तरंगे प्रत्यक्ष ही दृष्टिगोचर होती रहीं।
‘जीवनकाल में ही ईश्वर-भजन कर मुक्ति प्राप्त करनी चाहिए।’ इस विषय पर उनका बड़ा ही प्रभावोत्पादक भाषण हुआ। श्रोताओं ने मंत्र-मुग्ध होकर व्याख्यान सुना और सभी शान्तचित्त होकर घर लौटे। इस बार नंदन साहब भी उनके साथ थे। केवल दो-तीन दिन तक ठहरकर पुनः वे मुरादाबाद लौट गए।
मुरादाबाद जाते समय भागलपुर तक आप भी उनके साथ आए। जब वहाँ से आप लौटने लगे, तो बाबा साहब ने पूछा- ‘तुम भी मेरे साथ मुरादाबाद तक चलोगे?’
आपने अर्ज किया- ‘जब गुरु महाराज की आज्ञा हो रही है, तब मैं अवश्य ही जाऊँगा।’
फिर उन्होंने पूछा- ‘तुम कितने दिनों तक वहाँ ठहरोगे?’ आप बोले- ‘माघ महीने तक मैं वहाँ ठहरूँगा।’ इतनी वार्ता के बाद आप भी उन्हीं के साथ मुरादाबाद चले गए। वहाँ एक दिन सायंकालीन उपासना में आपको दीवार से सटकर ध्यान करते उन्होंने देखा । देखकर उन्होंने आपको कडा आदेश दिया- दीवार से उठँग कर मत बैठो। बिना सहारा लिए ही अपने शरीर को सीधा रखकर भजन-अभ्यास किया करो।’
तीसरे दिन दोपहर के उपरान्त शौच-काल में आपके मन में यह विचार उपस्थित हुआ ‘यहाँ तो कोई विशेष सेवा-कार्य है नहीं और न कुछ करना ही पड़ता है, अतः अच्छा होता कि मैं अपने यहाँ चला जाता और बाँस लगाने का प्रारम्भिक कार्य करता।’ । शौचादि कर्म से निवृत्त होकर आप जैसे ही बाबा साहब के सामने उपस्थित हुए कि तुरत उन्होंने आदेश और आवेश के स्वर में कहा- ‘बस, तुम अब यहाँ से चले जाओ।’
यह सुनते ही आप उसी दिन सिकलीगढ़ धरहरा के लिए रवाना हो गए। यहाँ आने के बाद शीघ्र ही डाक के द्वारा बाबा साहब का पत्र आया, जिसमें लिखा था- ‘तुम अपने कहे मुताबिक यहाँ माघ महीने भर ठहरे नहीं।’
यह पत्र पढ़कर आपका दिल भयभीत हुआ तथा घबड़ाया। आपने अनुनय-विनयपूर्वक एक क्षमापत्र लिखकर गुरु महाराज की सेवा में भेज दिया । कई महीनों के बाद वहाँ से उत्तर आया- ‘मैने तुमको क्षमा कर दिया है। अब तुम्हारा दिल जब चाहे, तब तुम यहाँ आ जाओ ।’
यह क्षमा-दान मिलने पर इस वर्ष आप दो बार वहाँ गए और कुछ दिन सत्संग कर वापस लौट आए।
१९१४ ईस्वी में बाबा साहब पुनः भागलपुर पधारे। इस बार बिहार प्रान्त में उनका अन्तिम शुभागमन था। इस बात से अवगत होकर इस प्रान्त के प्रेमी सत्संगी लोग बाबा साहब के दर्शन और सत्संग कर कुछ-कुछ दक्षिणा श्री चरणों में चढ़ाकर घर लौट जाते थे। आपने भी जोतरामराय-निवासी बाबू मंचन चौधरीजी से पंद्रह रुपये पैचा लेकर चरण-पूजा में निवेदित कर प्रणाम किया। आपको रुपये चढ़ाते देख तुरत ही बाबा साहब ने आपसे पूछा- ‘ये रुपये तुम कहाँ से लाए ?’
आपने उत्तर दिया- ‘मैं अर्ज कर चुका हूँ कि मैंने पिताजी से थोडी जमीन लेकर खेती की है, उसी के ये रुपये हैं।’
दूसरे दिन बाबा साहब ने फिर पूछा- ‘तुम ठीक-ठीक बताओ कि ये रुपये तुम कहाँ से लाए ?
तब आपने बाबू मंचन चौधरी से रुपये पैचा लेने की बात सुनकर कहा–’खेती की फसल अभी खेत में लगी है। फसल तैयार हो जाने पर उसको बेचकर श्री बाबू मंचन चौधरीजी को रुपये लौटा दूँगा। इसीलिए अर्ज किया था कि खेती के रुपये हैं।’
इसपर बाबा साहब ने कहा- “तुम नहीं जानते हो कि ‘गुरु से कपट मित्र से चोरी। की होइ निर्धन की होइ कोढ़ी ।।’ अच्छा इस बार मैंने तुम्हें क्षमा कर दिया। फिर कभी - ऐसा नहीं करना ।”
इस प्रकार सद्गुरुदेव अपने शिष्य का परिमार्जन करते जाते थे।
आप प्रतिवर्ष कम-से-कम एक बार मुरादाबाद अवश्य जाते थे और सदगुरु के दर्शन एवं सत्संग कर लौट आते थे। १९१५ ईस्वी में आप श्री धीरजलाल गुप्त एवं बाबू यदुनाथ चौधरीजी के साथ मुरादाबाद पहुँचे। वहाँ जाकर देखा कि सत्संग में तीन विद्वान् ईसाई पादरी पहुँचते हैं और अपना-अपना व्याख्यान सुनाकर चले जाते हैं। बस, इतना ही सत्संग होता था। पादरियों के चले जाने के बाद बाबा साहब ने आपलोगों से कहा ‘आजकल यहाँ यही सत्संग होता है। पादरी लोग पूरे एक महीने तक अपना व्याख्यान सुनावेंगे। अब उसमें केवल तीन दिन बाकी है। उस दिन उनके सामने मैं तुमलोगों से पुछूँगा कि मैं क्रिश्चियन होऊँगा। क्या तुमलोग भी क्रिश्चियन बनोगे? तो तुमलोग भी कहना कि हाँ, आपके बनने पर हमलोग भी बनेंगे।’ तीसरे दिन सायंकाल में जब पादरी लोगों का एक मासव्यापी व्याख्यान देना समाप्त हो गया, तब बाबा साहब ने उनलोगों से कहा ‘अच्छा, तो अब मुझे क्रिश्चियन बनाइए, लेकिन कैसे बनाइएगा, यह पहले बतला दीजिए।’
पादरियों ने कहा- ‘मैं आपको बैपटिज्मा दूँगा।’
बाबा साहब ने पूछा- ‘किस वस्तु से बैपटिज्मा दीजिएगा?’
पादरियों ने कहा-‘पानी से’।
बाबा साहब बोले- ‘प्रभु ईसा मसीह का तो पानी का बैपटिज्मा नहीं है। पानी का बैपटिज्मा तो युहन्ना का है, जो उनसे पहले के धर्म-प्रचारक थे। प्रभु ईसा मसीह का बैपटिज्मा तो पवित्र आत्मा और अग्नि से प्रदान किया जाता है, जैसा कि बाइबिल में लिखा है। आपलोग युहन्नियन बनाते हैं या क्रिश्चियन बनाते हैं? मैं युहन्ना का अनुयायी युहन्नियन नहीं बनूँगा। मैं क्रिश्चियन बनूँगा और प्रभु ईसा मसीहवाला बैपटिज्मा (गुरुदीक्षा) लूँगा।’
पादरी लोगों ने कहा- ‘पवित्र आत्मा और अग्निवाला बैपटिज्मा तो प्रभु ईसा मसीह स्वयं प्रदान करेंगे।’
इसपर बाबा साहब ने कहा- ‘तो मैं पानी का बैपटिज्मा लेकर युहन्नियन नहीं बनूँगा। आपलोग पानी का बैपटिज्मा देकर लोगों को धोखा देते हैं कि मैं तुम्हें क्रिश्चियन बनाता हूँ। आपलोग कृपा कर जाइए और भविष्य में लोगों को इस भाँति ठगने का काम मत किया कीजिए।
पादरी महाशयगण निरुत्तर होकर चले गए और फिर कभी लौटकर नहीं आए। उस दिन के उपरांत फिर पूर्ववत् विधिपूर्वक सत्संग होने लगा। आपलोग लगभग एक सप्ताह सत्संग कर लौट आए। 

26.

बाबा साहब का चरणामृत

१९१५ ईस्वी में एक बार आप छपरा-निवासी श्री महावीर रामजी के साथ मुरादाबाद गए। उस समय बाबा साहब के पास कोई प्रसाद लेकर नहीं जाते थे। कदाचित् कोई भूल, भ्रम या जान-बूझकर ले भी जाते, तो बाबा साहब ले जानेवाले पर बहुत बिगड़ते और प्रसाद उठाकर फेंक देते थे। वह प्रसाद वहाँ रहनेवाले एक सौभाग्यशाली श्वान को मिल जाता था।
सद्गुरु के एक जिद्दी अविचल श्रद्धालु शिष्य श्री रामचन्द्रजी थे। बाबा साहब ने कितनी ही बार उनका दिया प्रसाद फेंककर कुत्ते को खिला दिया, पर इनके श्रद्धाभरे पूजन में कोई कमी नहीं आयी। अंत में गुरुदेव ने इनकी अचल भक्ति देखकर इनका दिया प्रसाद स्वीकार कर लिया। इनके सिवाय और किसी का प्रसाद देखते ही बाबा साहब बिगड़ जाते और उसे उठाकर फेंक देते और कुत्ते का सौभाग्य जाग उठता।
आपके मना करने पर भी श्रद्धालु महावीर राम ने प्रसाद खरीदकर बाबा साहब के श्री चरणों में निवेदित कर दिया और बाबा साहब ने तुरत उठाकर उसे भैरववाहन को अर्पित कर दिया। इससे महावीर राम की कोमल श्रद्धा-भावना पर आघात लगा। जब दर्शन-सत्संग कर वापस लौटे, तो उन्होंने आपसे दुःखी होकर कहा- ‘आखिर बाबा साहब ने चढ़ाया प्रसाद कुत्ते को ही खिला दिया ।’
आपने उत्तर दिया- ‘मैंने तो पहले ही सारी स्थिति सुनाकर मनाही कर दी थी, पर आपने नहीं माना; परन्तु इसमें दुख की तो कोई बात नहीं है। आपने प्रसाद चढ़ा दिया। अब उस प्रसाद को लेकर वे चाहे जिसको प्रदान करें। प्रसाद-वितरण करने में आपकी इच्छा का अनुसरण करना क्या ठीक होगा? और तब आपने प्रसाद चढ़ाया ही कहाँ ?’
महावीर रामजी को अपनी त्रुटि झलक गई और उनकी श्रद्धा प्रांजल हो उठी। वे बोले- ‘पूज्य बाबा साहब न तो किसी को प्रसाद ही देते हैं और न चरणामृत ही लेने देते हैं। चलिए, आज इन दोनों की माँग उनसे की जाय।’ आपने कहा- ‘फिर तो वे बिगड़ ही पड़ेंगे। बाबा साहब ये दोनों वस्तुएँ किसी को भी नहीं देते।’
सच्ची श्रद्धा ने किसी भी भय और संकट के आगे झुकना सीखा ही नहीं। आपके समझाने पर उनका आग्रह और बढ़ता ही गया। अन्त में जब आप दोनों बाबा साहब के निकट पहुंचे और वहाँ भी महावीर राम ने आपसे इस विषय की चर्चा की, तो बाबा साहब ने आपसे पूछा- यह क्या बोलता है?’
आपने कहा- ‘ये चरणामृत और प्रसादी माँगते हैं।’
आश्चर्य ! आज बाबा साहब जरा भी न बिगड़े और कहा–’इन दोनों चीजों के लिए पचीस रुपये लगेंगे, कहो उसे, देगा?’
महावीर रामजी यह सुनकर आपकी राय जानने के लिए आपकी ओर निहार रहे थे। आपका संकेत पाते ही उन्होंने बाबा साहब के चरणों में पचीस रुपये रख दिए ।
सच्चे भक्त के लिए भगवान् अपना विधान भी बदल देते हैं। यह देख बाबा साहब हँसने लगे और बोले- ‘देखो, यह बात तो मैंने इसलिए कही थी कि यह बनियाँ है, रुपये का नाम सुनते ही भाग जाएगा; परन्तु इसने तो पहले ही रुपये चुका दिए। अब तो इसकी जीत हो गई।’
जिसे अबतक किसी ने नहीं पाया था, वह दुर्लभ वस्तु आज महावीर रामजी को बात-ही-बात में मिल रही थी। सभी सोच रहे थे कि सन्त और सद्गुरु की लीला का रहस्य सदा अगम्य है। महावीर रामजी चरणामृत और प्रसादी उपलब्ध कर आनन्द से बेसुध हो रहे थे।
आपने इस घटना के प्रथम ही महावीर रामजी को समझाया था कि बाबा कहते हैं-- प्रसादी और चरणामृत इसलिए दिए जाते हैं कि सद्गुरु के शरीर में स्थित आध्यात्मिक ताप या ज्योति, उसके साथ भक्तों के शरीर में विद्युत् रूप में प्रविष्ट कर उसके तन-मन एवं प्राण को रूपान्तरित कर दे, किन्तु निकट में बैठने से तथा आँखों से आँख मिल जाने पर भी गुरुदेव की आध्यात्मिक शक्ति एवं ताप विद्युत् बनकर शिष्यों के सर्वांग में प्रवेश कर जाते हैं। तब फिर उच्छिष्ट, प्रसाद और चरणामृत देने से क्या प्रयोजन ? 

27.

गोरखपुर और छपरा में 

१९१६ ईस्वी में एक बार बाबा साहब गोरखपुर पधारे और आपको पत्र लिखा कि गोरखपुर आकर मेरी मुलाकात करो। आदेश पाकर आपने गोरखपुर में बाबा साहब के दर्शन किए और वहाँ कुछ दिन ठहर कर सत्संग करते रहे।
गोरखपुर-निवासियों ने श्रद्धापूर्वक दो महात्माओं को अपने यहाँ बुलाया था! एक थे गोरखपंथी श्री गंभीरनाथजी और दूसरे एक विचित्र महात्मा ‘बँसुरिया बाबा’ थे। आपने दोनों महात्माओं के जाकर दर्शन किए। दोनों में ‘बँसुरिया बाबा’ की ओर आपका चित्त विशेष आकर्षित हुआ। ये वैष्णव रामानन्दी सम्प्रदाय के थे और अपने शिष्य अदालत के एक हेड क्लर्क के यहाँ ठहरे हुए थे। उनके पास तीन बाँसुरियाँ थीं। यदि कोई एक बाँसुरी छिपाकर रख ले, तो वे बिना लिये वहाँ से टलते नहीं थे। बाँसुरी बजाने की कलापूर्ण माधुरी की सभी बड़ी प्रशंसा करते थे, अतः आपने भी बाँसुरी सुनाने के लिए उनसे प्रार्थना की।
वे बोले- ‘बाँसुरी दिलवा दो, तो फिर सुन लो ।’
आपके शान्त अनुरोध करने पर मकानवाले की दाई ने एक बाँसुरी निकाल कर दे दी। आपने बाँसुरी सुनी और बड़े प्रसन्न हुए ।
पुनः शेष दो बाँसुरियाँ दे देने के लिए आपने दाई से कहा; पर उसने यह कहकर बाँसुरियाँ नहीं दी कि तीनों बाँसुरियाँ मिलते ही इसी क्षण ये यहाँ से चले जाएँगे। ‘बँसुरिया बाबा’ बड़े ही मधुरभाषी वृद्ध महात्मा थे। उनकी वाणी इतनी अपनत्वभरी होती थी कि बातचीत करनेवाले को वे पूर्व परिचित जैसे ही जान पड़ने लगते थे। उन्होंने अपने भाव की माधुरी में राग-लय के स्वर में कबीर साहब का एक पद्य गाकर आपको सुनाया-
‘साधो शब्द साधना कीजै।’
सम्भव है, आपने पहले भी यह पद्य पढ़ा या सुना हो, पर इनके गाने में इतना आकर्षण था कि उसी समय वह पद्य आपने इनसे लिखवा ही लिया और बाद में इसे ‘सत्संग-योग’ में प्रकाशित कराया।
एक दिन बाबा साहब ने आपसे पूछा ‘तुम तम्बाकू भी पीते हो ?’
आपने उत्तर दिया- ‘जी, नहीं।’ यह सुनकर वे कहने लगे- ‘अच्छा करते हो। यह चीज अच्छी नहीं है। देखो, मेरा नन्दन भी नहीं पीता है।’
बाबा साहब के दर्शन के लिए आप जब-जब आए, प्रत्येक बार आते ही इन्होंने आपसे पूछ दिया–’यहाँ कितने दिन ठहरोगे?’
जब आप ठहरने की अवधि अपनी ओर से बता देते, तो वे इसे पूरा होने के तीन दिन प्रथम से ही आप पर इतना बिगड़ने लगते कि प्रत्येक बार आप अवधि बिना पूरा किये ही वापस चले जाते । बारम्बार ऐसा होते देखकर आपने यह निश्चय कर लिया कि अब बाबा साहब को जाने की अवधि के विषय में कुछ कहूँगा ही नहीं। अब आने पर जब भी बाबा साहब पूछते कि कितने दिन यहाँ रहोगे, तो आप इसका कोई उत्तर नहीं देकर उसी जगह मौन धारण किये रहते । फिर जिस दिन जाने की इच्छा होती, उस दिन जाकर प्रणाम कर जाने का आदेश माँग लेते ।
इस बार जब गोरखपुर से जाने की इच्छा हुई, तो अपना सारा सामान बाँधकर बाबा साहब के पास आज्ञा लेने के लिए गए। देखते ही बाबा साहब ने पूछा- ‘क्या जा रहे हो ?’
आपने कहा- ‘जी हाँ ।’
आपके ‘जी, हाँ’ कहते ही बाबा साहब आपकी पीठ पर बैठ गए और बोले- ‘मैं नहीं जाने दूँगा। जाओ, तो कैसे जाते हो?’
आपने कहा- ‘तो नहीं जाऊँगा।’ ऐसा कहकर उस दिन आप ठहर गए। दूसरे दिन प्रणाम करते ही बाबा साहब ने कहा- ‘अच्छा अब तुम चले जाओ।’
इससे यह अवगत होता है कि शिष्य को सद्गुरु के समक्ष अपनी इच्छा का अनुगमन नहीं करना चाहिए। सदा उनके निर्देश का ही परिपालन करना श्रेयस्कर है।
एक बार १९१६ ईस्वी में ही आप यदुनाथ झा जी के साथ छपरा पधारे। वहाँ इस बार महावीर रामजी ने आप दोनों को हथुआ महाराज की मैनेजरी छावनी में निवास दिया । वहाँ नित्य प्रति सत्संग एवं रामायण-पाठ हुआ करता था। कुछ लोग सत्संग में अवश्य ही सम्मिलित होते थे, पर अधिकतर लोग आप लोगों को सी॰आई॰ डी॰ समझकर आशंकित होते रहते । बाबू नरसिंह नारायण नाम के एक सज्जन रामायण के बड़े प्रेमी थे। बराबर नवाह्न पाठ करते रहने के कारण उन्हें सम्पूर्ण रामायण कण्ठस्थ हो गयी थी। वे भी उसी भय के कारण आपके पास नहीं आते थे। एक दिन श्री महावीर रामजी उन्हें समझा-बुझाकर आपके सत्संग में लाए। सत्संग करने के बाद वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उसी बार आपसे छपरा में ही भजन-भेद ले लिया।
एक रात राजमैनेजर के एक नौकर को अनरस की बीमारी हो गई। बेचारा बाहर के कमरे में विवशता से पड़ा हुआ कराह रहा था और मैनेजर साहब हवेली में निश्चिन्तता से सोये थे। उसके कराहने की ध्वनि ने आपके हृदय को करुणा से द्रवित कर दिया और आपने श्री यदुनाथजी को हल्ला करके मैनेजर साहब को जगा देने के लिए कहा। आपकी प्रेरणा से श्री यदुनाथ झा ने उनके बासे पर जाकर खूब जोर-जोर से मैनेजर साहब को पुकारा। आपने कहा- ‘मैनेजर साहब ! आप घर में निश्चिन्त होकर सोये हैं और यहाँ आपका नौकर बीमारी से मर रहा है।’ बहुत हल्ला करने पर मैनेजर साहब जागे और तुरत डॉक्टर के यहाँ से दवाई मँगाकर उसे दिया। नौकर के आराम हो जाने पर वे आपलोगों के पास कृतज्ञता प्रगट करने आये कि आपलोगों की कृपा से ही मेरे नौकर के प्राण उस रात में बच सके । फिर उन्होंने भी तीन-चार बार अपने निवास पर आपको ले जाकर सत्संग करवाया।
पन्द्रह-बीस दिनों के बाद आपलोग एक जैन धर्म माननेवाले अग्रवाल के बगीचे के मकान में चले आए। यहाँ का निवास आपलोगों को बहुत ही पसन्द आया और एक महीने तक यहाँ सत्संग-भजन कर धरहरा लौट आए। 

28.

सत्संग-गढ़ की विविध कहानी

१९१६ ईस्वी में आपने धरहरा सत्संग-मंदिर के उत्तर-पश्चिम की कोठरी में एकान्त-वास किया था। जिनके मन में किसी भी पंचेन्द्रियगत वस्तओं की प्राप्ति के लिए कोई चाह नहीं है, वे जब बाहर से अपना संबंध तोड़ लेते हैं, तब उनकी वृत्ति स्वतः ही सिमटकर केन्द्रित हो जाती है और ऊर्ध्व गमनातुरा होकर अपने घर तक जा पहुँचती है।
उस समय सन्तमत-सत्संग के प्रति अनायास लोगों का आकर्षण बढ़ रहा था। धरहरा के आसपास की जनता अन्य साधुओं का शिष्यत्व परित्याग कर सन्तमत की अनुयायिनी बनती जा रही थी, इस कारण आसपास के साधुगण सत्संगीजनों से बहुत नाराज हो रहे थे।
उसी अवसर पर काशी के एक अर्द्ध बधिर साधु मित्रजीत सिंह के दरवाजे पर आये और बोले- ‘मैं यहाँ महर्षि मेँहीँ से शास्त्रार्थ कर उन्हें परास्त करने के लिए आया हूँ, अतः आप मुझे उनके पास ले चलें ।’
साधु को लेकर मित्रजीत सिंह आपके पास आए और कहा- ‘ये महात्मा आपसे कुछ बातचीत करेंगे?’
आपने पूछा- ‘किस विषय पर बातचीत करेंगे ?’ इसके उत्तर में साधु महाराज बोले- ‘मेरे मन में कुछ संशय है, उसी का समाधान कराने आया हूँ।’
आप बोले- ‘मेरा शरीर तो स्वयं संशय से भरा हुआ है, अतः मैं स्वयं ही उसका समाधान कराने के लिए आतुर हूँ। आप यदि समाधान कर दें, तो बड़ी कृपा हो ।’
साधु महाराज के पूरा नहीं सुनने पर मित्रजीत सिंह चिल्लाकर उनके कानों के निकट उन्हें आपकी बात सुना देते थे।
साधु महाराज ने कहा- ‘पूछिए ।’
आपने प्रश्न किया ‘सृष्टि कहाँ हुई? यह जीव यहाँ क्यों आया? यदि इसको ईश्वर ने यहाँ भेजा तो क्यों भेजा?’
साधु निरुत्तर हो गए और बोले- ‘इन प्रश्नों के उत्तर तो मैं स्वयं खोजता हूँ, फिर आपकी शंका का क्या समाधान करूँगा?’
आप बोले- ‘तब आपके गुरुदेव ने जो बताया है, उसके अनुसार आप चलें और मेरे गुरुदेव ने जो बताया है, उसके अनुसार मैं चलूँ । दोनों में कोई किसी का शंका-समाधान क्या करेंगे?’
उस दिन वह साधु चुपचाप चले गए। दो दिनों के बाद पुनः सत्संग-मंदिर आए । उस दिन भी आपसे कुछ बातें कर पराजित भाव से लौट गए। तब संतमत-सत्संग की मनमानी निन्दा इधर-उधर करने लगे।
साधु-वेश धारण करने पर भारतीय जनता की अंधी श्रद्धा के कारण जिनकी जीविका मजे में बिना प्रयास किए ही चल जाती है, ऐसे साधुओं के द्वारा संतमत-सत्संग का विरोध होना स्वाभाविक ही है। ऐसे लोग तथा इनके प्रभाव से अंध बने लोगों ने सन्तमत-सत्संग की निन्दा कर जनता को इससे अलग रखने का प्रयत्न किया और करते ही रहते हैं।
उक्त काशी के साधु जहाँ भी जाते, वहाँ सन्तमत-सत्संग का निन्दात्मक प्रचार करते हुए आपके प्रति अनेक अपशब्दों का प्रयोग करते थे। इसी कारण एक बार धरहरा के सत्संगीगण इन्हें पीटने के लिए उद्यत हो गए थे, पर आपने निषेध कर दिया, कहा- ‘संतमत के अनुसार निन्दक से क्रोधित होने की जरूरत नहीं। यदि वह हमलोगों में रही निन्दनीय बातों के लिए निन्दा करता है, तो उससे हमें अपना परिमार्जन करने का प्रकाश मिलता है और यदि झूठी निन्दा करता है, तो उससे हमारी सहनशीलता की जाँच और परख होने का अवसर मिल जाता है। हमलोगों को सन्त कबीर साहब का निर्देश आचरण में लाना चाहिए “निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय। बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करें सुभाय।।” परौरा गाँव के सत्संगी श्री गुलाबदासजी कंजूस और उदार दोनों थे। हजारों रुपये रहते हुए भी अपने खाने-पीने में खर्च करना उनके लिए संभव नहीं होता था। पर एक बार भंडारा कर पचास रुपये साधुओं के भोजन में उन्होंने खर्च कर दिए थे। दूसरी बार अपने छह सौ रुपये खर्च कर सन्तमत:सत्संग का वार्षिक अधिवेशन परौरा में करवाया था। उनसे तथा उक्त काशी-निवासी साधु से एक दिन साधुओं के भण्डारे में बहस चल गयी। श्री गुलाबदासजी ने सद्गुरु का महत्त्व-वर्णन कर मानव-जीवन के कल्याण के लिए उनकी अनिवार्यता बतायी ।
यह सुनकर काशी-निवासी साधु ने पूछा ‘सद्गुरु कैसा होता है?’
गुलाबदासजी बोले-वे बहुत मीठे होते हैं।
फिर साधु ने पूछा-क्या उनकी सभी वस्तुएँ मीठी ही होती है ?’
गुलाबदासजी ने कहा-अवश्य ।’ फिर साधु बोले- ‘तब तो उनका पेशाब भी मीठा ही होता होगा?’
फिर गुलाबदासजी बोले ‘अवश्य ।’
यह सुनकर वे साधु कुप्रचार करने लगे कि सत्संगी लोग तो औघड़ है, वे लोग गुरु का पेशाब पीते हैं; और इसके साथ वे महर्षि मेँहीँ की निन्दा भी अपशब्दों में करते रहते थे।
एक बार उक्त साधु महाराज अररिया इलाके के खौजरी पोठिया ग्राम-निवासी कल्याण दास सत्संगी के दरवाजे पर गए और जाते ही सत्संगीगणों की निन्दा के साथ आपकी भी अपचर्चा करने लगे। कल्याण दास ने गुरु-निन्दा-श्रवण को महापाप समझा और उन्हें दरवाजे पर से भगा दिया।
एक बार इस भाँति झूठी निन्दा करते हुए एक भले साधु से ही इनको तकरार हो गयी और इससे सभी साधुओं ने इन्हें अपने समूह में रखना नापसन्द कर दिया।
संयोगवश कुछ दिनों के बाद काशी-वासी साधु सख्त बीमार पड़ गए और बीमारी भी घटने के बजाय बढ़ती ही चली गई। अन्त में वे चम्पानगर बनैली अस्पताल में जाकर इलाज कराने लगे, पर लाभ नहीं हुआ । एक दिन किसी के कहने पर उन्होंने लहसुन खा लिया । इससे बीमारी और भी भयंकर हो गयी तथा उनका मुँह भी सूज गया । विवश होकर वे काशी चले गए और फिर कभी लौट कर नहीं आए।
संतमत-सत्संग का जिला-अधिवेशन १९१० ईस्वी में जोतरामराय में, १९११ ईस्वी तथा १९१२ ईस्वी में कटिहार में सम्पन्न हुआ। १९१३ ईस्वी में यह बिहार प्रान्तीय अधिवेशन में परिणत हो गया और इस अधिवेशन की सौभाग्यशालिनी भूमि कटिहार ही रही । १९१४ ईस्वी तथा १९१५ ईस्वी में यह अधिवेशन जोतरामराय में हुआ। पुनः १९१६ ईस्वी में यह अधिवेशन कटिहार में ही हुआ। यह अधिवेशन ठीक समय पर नहीं होकर १३-१४ अप्रैल को सम्पन्न हुआ। इस विलम्ब के निम्नलिखित कारण थे-
श्री धीरजलाल गुप्तजी अधिवेशन के प्रधान संचालक थे। १९१६ ईस्वी में, काँग्रेस-संगठन की तेजी तथा देश के लिए सर्वस्व न्याछावर करने की भावना को देखकर इन्होंने मान लिया कि काँग्रेस और सन्तमत-सत्संग का सम्पूर्णतः एक ही ध्येय और लक्ष्य है। बुद्धि में यह निर्णय उपस्थित होते ही ये सारी शक्ति लगाकर काँग्रेस का संगठन करने में लग गए।
श्री धीरजलाल गुप्त के अभिन्न मित्र श्री रामदासजी ने जब अपने चिर-संगी को विभिन्न पथ पर चलते देखा, तो उन्हें यह अच्छा नहीं लगा। उन्होंने पहले उनसे पत्राचार किया, फिर उन्हें मिलने के लिए बुलाया। वे आए और दोनों ने मिलकर घमासान विचार-संघर्ष किया तथा पुनः दोनों एकमत हो गए।
लक्ष्य का स्पष्टीकरण किया गया । एक का लक्ष्य है-बाह्य, स्थूल, युग की माँग पर आधारित और परिवर्तनशील तथा दूसरे का है अन्तर, सूक्ष्मतम, सनातन एवं अपरिवर्तनशील । हाँ, मानवता की भलाई और कल्याण के लिए दोनों की उपयोगिता है।
धीरजलालजी बड़े उत्साही, पुरुषार्थी, लगनशील एवं कर्मठ व्यक्ति थे। ये पूरी मुस्तैदी से अधिवेशन की तैयारी में लग गए और उक्त तिथि पर अधिवेशन सम्पन्न हो गया । इस अधिवेशन में मुरादाबाद से श्री रघुवर दयालजी साहब तथा ईश्वरी प्रसादजी साहब पधारे थे। अधिवेशन के उपरान्त आप इन्हें आदरपूर्वक धरहरा सत्संग-मंदिर लिवा लाए। फिर ये लोग यहाँ से जोतरामराय होते हुए मुरादाबाद चले गए।
भयंकर विरोध की दशा में उन्नयनकारी विचारों को ग्रहण कर चलनेवालों में अपने आदर्श के प्रति आत्मिक श्रद्धा का बल आविर्भूत होता है। धरहरा से छह मील उत्तर भटगामा ग्राम में दो गोपबन्धुओं ने भी सन्तमत की दीक्षा ली थी। एक का नाम था शनीचर दास तथा दूसरे का रीतो दास । श्री शनीचर दासजी एक धनी व्यक्ति के बैल चराया करते थे। एक दिन उस धनी व्यक्ति के भाई ने इन दोनों के साथ अन्य स्थानीय सत्संगियों को बुलाकर पूछा ‘क्या तुमलोगों के गुरुजी तेली का छुआ पानी भी पी लेते हैं ?’
धन की दहशत से उनलोगों ने चुप्पी साध ली। उत्तर नहीं पाकर उनके क्रोध की सीमा नहीं रही। उन्होंने क्रोधित होकर पूछा ‘तुमलोगों के गुरुजी जो-जो काम करने कहेंगे, क्या तुमलोग वे सभी काम करोगे?’ इसपर शनीचर दासजी ने साहस के साथ उत्तर दिया-अवश्य करूँगा ।
फिर वे बोले तो गुरु के वास्ते मैं जो कहूँगा, वह कर सकोगे ? फिर शनीचर दासजी ने कहा-अवश्य ।’
इस पर उन्होंने कहा-अच्छा, तो गुरु के वास्ते तुम कुएँ में कूद जाओ।’
यह सुनते ही शनीचर दासजी तुरत ही फेंटा बाँधकर कूप में कूदने के लिए तैयार हो गए। जब उन्होंने देखा कि यह गुरु के नाम पर कूप में कूदना ही चाहता है, तो भयभीत होकर उसे रोक दिया और बोले-कहीं कूप में कूदने से तुम घायल हो गये, तो व्यर्थ में मैं फौजदारी मुकदमे के फेर में पड़ सकता हूँ, तुम मत कूदो ।’
उसका साहस और गुरु के लिए उत्सर्ग होने की उसकी तैयारी देख सभी चकित और स्तम्भित हो रहे। फिर भी उनलोगों ने इन्हें भयभीत करने के लिए कहा-इसको रस्सी में बाँधकर कुएँ में लटका दो और डुबाकर मार डालो ।’
शनीचार दास ने निर्भीक होकर कहा ‘मैं ऐसा कदापि नहीं करने दूँगा। हाँ, गुरु के लिए मैं स्वेच्छा से कुएँ में अवश्य कूद सकता हूँ।
उक्त महाश्य ने उन्हें कूप में कूदने से रोक दिया। शनीचर दास ने देखा कि जाति-पाँति का विचार लेकर समाज क्षुब्ध हो रहा है, अतः तत्काल यहाँ से टल जाना ही बेहतर है। यह सोचकर उन्होंने कटिहार के लिए प्रस्थान कर दिया ।
शनीचर दास के चले जाने पर सभी का क्रोध केन्द्रित होकर रीतोदास पर टूट -पडा। आरोप यह लगाया गया कि इनके गुरुदेव जाति-पाँति नहीं मानते हैं, अतः इन सत्संगियों की भी जाति-पाँति का कोई ठिकाना नहीं है। इनलोगों को अवश्य दण्डित करना चाहिए, नहीं तो समाज भ्रष्ट हो जाएगा। सभी ने मिलकर रीतोदास को ईख के कोल्हू में बैल की भाँति एक बार फेरा लगवाया, तब उनलोगों का गुस्सा शान्त हुआ । आज शरीचर दासजी उसी गाँव का प्रतिष्ठाभाजन बनकर गाँव के ही सत्संग-मंदिर में साधु बनकर निवास कर रहे हैं।
यह समाचार मिलने पर धरहरा गाँव के प्रतिष्ठित सज्जनों से एक पत्र लिखवाकर भटगामा-निवासियों को दिया गया, जिसमें सत्संग का वास्तविक स्वरूप समझाते हुए उसे यहाँ पधारकर जाँच करने के लिए निवेदन किया गया था, पर वे लोग न तो स्वयं सत्संग करने आये और न आपलोगों को ही वहाँ सत्संग कराने के लिए बुलाया।
इन सब निराधार होनेवाली घटनाओं की शान्ति के लिए धरहरा में एक बृहत् सत्संग का आयोजन किया गया। दूर-दूर तक के गाँवों में काफी प्रचार किया गया । फलस्वरूप दूर और निकट, सभी गाँवों के प्रतिष्ठित एवं बुद्धिशील लोग इस सत्संग में पधारे। इसमें महर्षि मेँहीँ का सत्संग के वास्तविक स्वरूप पर लिखित भाषण हुआ, जिसके प्रभाव से लोगों की सत्संग के प्रति भ्रामक धारणाओं का निवारण हो गया और सत्संग-प्रचार की बाधा और विघ्नों का बाहुल्य नष्ट हो गया । यह सत्संग १९१८ ईस्वी के सात मार्च को सम्पन्न हुआ था। उक्त सत्संग के अवसर पर ही महानुभाव रामदासजी धरहरा पधारे और आपसे वार्तालाप करते हुए निवेदन किया ‘अब मेरा मन गृहस्थाश्रम में नहीं लग रहा है। मैं घर से अलग रहकर साधु-वेश धारण करना चाहता हूँ, अत: आप ही मुझे यह वेश प्रदान करने की कृपा कीजिए।’
स्वामीजी इस पर सहमत नहीं हुए और उनसे कहा-मैं आपको साधु-वेश देने योग्य नहीं हूँ।’
पर उनका आग्रह जारी ही रहा । जब आपने देखा कि वे किसी तरह समझाये नहीं मान रहे हैं। तब आपने कहा-यदि आपकी ऐसी ही जिद्द है, तो एक काम कीजिए। आप ध्यानाभ्यास में बैठकर बाबा साहब का ध्यान कीजिए। जब वे ध्यान में आ जायँ, तो उनसे साधु-वेश प्रदान करने की प्रार्थना कीजिए। फिर ध्यान में लाइये कि वे आपको साधु-वेश प्रदान कर रहे हैं । तब मेरा दिया हुआ साधु वस्त्र आप धारण कर लीजिए।’ आपका निर्देश मानकर उन्होंने वैसा ही किया और ६ मार्च, १९१८ ईस्वी को वे पवित्र संन्यासी-वेश धारण कर साधना में ही सारा जीवन-यापन करने लगे। आपने उनका नवीन एवं शुभ नामकरण किया ‘परमहंस ध्यानानन्द’। संक्षेप में सत्संगीगण उन्हें केवल ‘परमहंसजी’ कहकर ही संबोधित करते थे ।
१९१८ ईस्वी में आपके अन्तर में एकान्त-वास-पूर्वक ध्यानाभ्यास करने का दिव्य संवेग हुआ। इसकी संपूर्ति के लिए आपने सत्संगालय से कुछ दूर हटकर दक्षिण-पूर्व कोने में उपासना-कुटी बनायी और फरवरी से अप्रैल मास तक का संकल्प लेकर उसमें प्रवेश किया। शरीर की आवश्यकता-पूर्ति तक के लिए आपने बाहर से सम्पर्क रखा और प्राण-मन की अभिलाषा, कामना, इच्छा, संकल्प, लालसा, एषणा, तृष्णा, वासना, राग, आसक्ति, मोह, ममता आदि की एक-एक कर आप चार महीनों तक अहोरात्रि ज्ञानयज्ञ के प्रचण्डानल में आहुति प्रदान करते रहे। इस यज्ञ को पूरा कर फिर आप सत्संग-प्रचार-प्रसार की नियमबद्ध योजना के निर्माण में लग गए।
इस अवधि में सत्संग-मंदिर के नियमित सत्संग तथा अन्य स्थानों में प्रचार का कार्य परमहंस ध्यानानन्दजी सँभालते रहे ।
इस एकान्त-वास के समय आप एक ही संध्या भोजन करते थे, जिसकी व्यवस्था का भार श्री रामलाल दासजी ने उठा लिया था। वे अपने घर में पवित्रता से रसोई तैयार कर नियत समय पर एकान्त कुटीर में पहुँचा दिया करते थे। करीब सवा महीने तक यही क्रम चालू रहा। इसके उपरान्त श्री महगूदासजी की निष्काम अनवरत सेवा के फलस्वरूप उन्हें ही आपकी रसोई बनाकर खिलाने तथा अवशेष प्रसाद पाने का कल्याणपूर्ण अवसर मिल गया और यही दुर्लभ गुरु-सेवा उनकी जीवन-साधना बन गयी।
श्री महगूदासजी पहले सत्संग-मंदिर में ही मजदूरी कर वहीं रसोई बनाकर खाते एवं सत्संग और निवास भी करते थे। कभी-कभी यहाँ काम नहीं रहने पर ही अन्यत्र मजदूरी करने जाते, पर सत्संग और निवास सदा सत्संग-मंदिर में ही किया करते थे। इस भाँति स्वाबलम्बनपूर्ण जीविका अर्जित कर वे सत्संग में संलग्न रहा करते। रोजी कमाना, रसोई बनाकर खाना, सत्संग-मंदिर साफ करना, नियमित रूप से सत्संग एवं ध्यानाभ्यास करना इन सारे कामों को करते हुए भी आप अपने पूज्य गुरुदेव को नित्य प्रति, नियमित रूप से पवित्र-स्वच्छ जल उपासना-कुटी पर पहुँचा आते थे। इनकी श्रद्धा और भक्ति-भरी निष्कामनिश्छल सेवा ने ही इनमें उस पात्रता का उदय कर दिया, जिससे सद्गुरुदेव ने स्वेच्छा से अपनी रसोई बनाने एवं अवशिष्ट प्रसाद पाने का उत्तरदायित्व और अधिकार इन्हें प्रदान कर दिया। बहुत दिनों तक ये ऐसी दुर्लभ सेवा करते रहे और तभी से बराबर सत्संग-मंदिर में ही ये निवास कर रहे हैं। अब ये वृद्ध हो गए हैं और सद्गुरु की कृपा से साधना छोड़कर और कोई अन्य कार्य-भार इनके ऊपर नहीं है ।  

29.

सन्तमत-सत्संग की नियमावली

चार महीने का आन्तर-बाह्य तप पूर्ण कर आप पूर्ववत् सत्संग-मंदिर में सत्संग कराने लगे। एक दिन परमहंस ध्यानानन्दजी के साथ आपने विचार-विमर्श किया कि सत्संग-प्रचार को व्यवस्थित एवं प्रतिष्ठित करने के लिए सन्तमत-सत्संग की एक नियमावली का निर्माण होना अत्यावश्यक है। नियमावली बनाने का निश्चय कर ता॰ ७, ८ एवं ९ जून, १९१८ ईस्वी को सिकलीगढ़ धरहरा में एक विशेष सत्संग की आयोजना की गयी और इसमें पधारने के लिए पूर्णियाँ जिले के सभी विशिष्ट सत्संगियों को आमंत्रित किया गया। समय पर सभी आमंत्रित सत्संगीगण उपस्थित हुए। चार लिखी हुई नियमावलियाँ उस सत्संग-सभा में विचार-विमर्श के लिए उपस्थित की गयीं, जिनके लेखक थे, श्री यदुनाथ चौधरीजी, श्री धीरजलाल गुप्तजी, परमहंस ध्यानानन्दजी तथा एक स्वयं महर्षिजी ।
चारो नियमावलियों से मंगल-सूत्रों का चयनकर एक नियमावली बनायी गयी और उसे स्वीकृत कराने के लिए आपके साथ श्री परमहंस ध्यानानन्दजी तथा श्री धीरजलाल गुप्तजी को बाबा साहब के पास मुरादाबाद इस सत्संग-सभा की ओर से भेजा गया। इस नियमावली के साथ निम्नलिखित व्यक्तियों के हस्ताक्षरों से एक पत्र भी प्रेषित किया गया। श्री धीरजलाल गुप्त, परमहंस ध्यानानन्द, यदुनाथ झा, मधुसूदन पाल, चिन्तामणिजी, रामचरणजी, मिसरीदास, दिगम्बरदास, रघुनन्दन झा, परमानन्द पोद्दार, अजबलाल दास, नकछेदी दास, पहलूदास, भजनानन्दजी, करमचन्दजी, यदुनाथ चौधरी, प्रयागलाल चौधरी तथा सत्संग-सेवक मेँहीँ ।
आपलोग पत्र एवं नियमावली लेकर मुरादाबाद पहुँचे। वहाँ जाकर देखा ‘बाबा साहब का चित्त बाहर के सभी कार्यों से उदासीन हो गया था। ऐसा प्रतीत होता था कि अब ये अपने शरीर को धारण करना नापसन्द कर रहे हैं, यहाँ तक कि शरीर की सुधि भी नहीं रखते थे। उन्होंने सत्संग करने-कराने के विचार से भी संबंध तोड़ लिया था। जहाँ और जब इच्छा होती, ध्यान करने के लिए बैठ जाते । पूछने पर कुछ बहकी-बहकी-सी बातें करने लगते थे।’
आपलोगों ने पत्र और नियमावली सेवा में उपस्थित कर दिए। पत्र और नियमावली देखकर उनका बहकना और बेसुधि जैसे दूर हो गयी और उन्होंने नन्दन साहब को आदेश दिया- ‘तुमलोग सत्संग में इस नियमावली को देख-समझकर ठीक कर दो ।’
बाबा साहब के आदेशानुसार सदराला साहब के निवास-स्थल पर ही सत्संग की बैठक ता॰ २३.०७.१९१८ ईस्वी की रात में आठ बजे से प्रारम्भ हुई। उसमें निम्नलिखित सन्तमत-सत्संग के सत्संगीगण उपस्थित थे-
(१) सब-जज ईश्वरीप्रसाद साहब
(२) बाबू साहू हरगूलाल साहब
(३) रईस बाबू बृजनन्दनप्रसाद साहब, एम॰ए॰, एल-एल॰बी॰, वकील-हाईकोर्ट
(४) बाबू मोहनलालजी
(५) बाबू रामस्वरूपजी
(६) बाबू रघुवर दयालजी
(७) बाबू बलभद्र दासजी
(८) बाबू बनवारीलालजी
(६) बाबू शान्ति प्रसादजी
(१०) बाबू लक्ष्मीनारायणजी
(११) बाबू हरिश्चन्द्रजी
(१२) बाबू धूम सिंहजी
(१३) बाबू आनन्दस्वरूपजी
(१४) बाबू ईश्वरी प्रसादजी
सभी ने सन्तमत-सत्संग की नियमावली पठन-श्रवणकर बड़ी प्रसन्नता प्रगट की। उक्त नियमावली में गुरु के विषय में न॰ २ तथा न॰ १० को गुरुतर समझकर स्वीकृत नहीं किया गया तथा न॰ १४ में लाल स्याही से संशोधन किया गया। साढ़े दस बजे रात में बैठक समाप्त हुई। बैठक समाप्त होने पर बाबू रघुवर दयाल ने नियमों की संख्या में कुछ और वृद्धि की, जिसे सभी ने उपयुक्त मानकर स्वीकार कर लिया।
तदुपरान्त सम्पूर्ण नियमावली पढ़कर बाबा साहब को सुनायी गई। सुनकर उन्होंने प्रसन्न भाव से इसे स्वीकृति प्रदान की।
फिर वहाँ के सत्संगी भाइयों ने आपलोगों से यह निवेदन किया-- “आपलोगों ने संतमत के उन्नयन के लिए ‘प्रबन्धक सत्संग’ में जो चन्दा दिया है, उससे जमीन-जायदाद लेने का ख्याल है। हमलोगों की समझ से ऐसा करना मुनासिब मालूम होता है। उम्मीद है, आपलोग संतमत के विकास और प्रसार के लिए हमेशा इसी भाँति सहायता प्रदान करते रहेंगे।” उपर्युक्त पत्र और नियमावली आपलोग बाबा साहब से स्वीकृत कराने के बाद अपने ही साथ ले आए और वह अद्यावधि संतमत-सत्संग- मंदिर मनिहारी, पूर्णियाँ, बिहार में सुरक्षित है। 

30.

सद्गुरु का महाप्रयाण

तारीख २९, ३० और ३१ दिसम्बर, सन् १९१८ ईस्वी को दुर्गापुर में सन्तमत-सत्संग का दशम वार्षिक अधिवेशन उदारतापूर्ण उल्लासों के बीच सम्पन्न हुआ। इसमें करीब चार सौ दीक्षित तथा अदीक्षित सत्संगी जनों ने भाग लिया। लगभग पन्द्रह सौ श्रोतागण भी प्रवचन सुनने के लिए प्रतिदिन आते रहे ।
स्थानीय सत्संगी श्री टूकन दासजी तथा उनके सुपुत्र श्री महगू दासजी ने अत्यधिक आग्रह एवं श्रद्धानुरोध से स्वीकृति प्राप्त कर तीनों दिनों तक सभी सत्संगियों को भोजन कराया।
वहाँ से धरहरा आने के बाद आपको एक भयंकर फोड़ा निकल आया। आपके जीवन में प्रथम बार ही फोड़े के भीषण दर्द, टीस और पीड़ा का अनुभव हआ था। इस असह्य कष्ट के साथ ज्वर ने भी आप पर आकमण कर दिया। इसी अवसर पर बाबा नंदन साहब का पत्र आपको मिला। जिसमें लिखा था- ‘हमारे सद्गुरु महाराज बीमारी के कारण हमलोगों से सदा के लिए विदाई लेने की तैयारी में हैं।’
शरीर की दुस्सह यंत्रणा ने मानसिक वेदना से मेल कर आपको मर्माहत कर दिया और आप अपने को असमर्थ पाकर अन्तर से कराहते रह गए।
फिर एक दूसरा शोला आया, जो आपके मन-प्राण को छेदते और दग्ध करते हुए निकल गया। फिर तो आपमें जैसे कुछ भी करने की शक्ति ही नहीं रह गई। यहाँ तक कि उस वर्ष वार्षिक सन्तमत-सत्संगाधिवेशन के लिए भी आपने जरा-सा हाथ-पैर तक नहीं हिलाया । वह वर्ष सूना ही नहीं, शोकाच्छन्न बना रह गया। नन्दन साहब ने पत्र प्रेषित किया था- ‘आपको पत्र दिया था, पर नहीं आए। १९ जनवरी, १९१९ ईस्वी के १० बजे प्रात:काल बाबा साहब ने इस कलेवर को छोड़ दिया।
१८ जनवरी को उन्होंने अपने सभी शिष्यों को बुलाया, पर आप नहीं थे। सभी को एक-एक कर अपने समीप बुलाकर उन्होंने हाथ मिलाया और सभी का नाम ले-लेकर आशीर्वाद दिया। श्री धीरजलाल, राजेन्द्र बाबू, रामदास, यदुनाथ चौधरी तथा आपसे मिलने की उनकी लालसा पूरी नहीं हुई, फिर भी सबको - अलग-अलग आशीर्वाद दिया। उन्होंने शरीर छोड़ने की सूचना देकर कहा- ‘दुनियाँ वहम (भ्रम) है। आवागमन होता है। अभ्यास करो।’
एक सत्संगी ने निवेदन कर दिया- ‘अभ्यास की निस्बत कुछ कह दीजिए।’
वे बोले- ‘मैं अभी सीखता हूँ।’ पर दूसरे दिन यही सीखना चिर-समाधि में परिणत हो गया।
आपने पत्र पढ़कर उसे चुपचाप रख दिया। करुणा, रुदन और सिसक की वाणी - अन्तर में ही रुद्ध रह गयी। अविरल आँसू - की धारा बनकर उसने अपना परिचय दिया। 

31.

सन्त-परम्परा के दर्शन

स्वामी रामकृण परमहंस ने अपने जीवनकाल में ही आध्यात्मिक शक्ति विवेकानन्द को प्रदान कर संत-परम्परा की रक्षा की थी; क्योंकि भारत की सांस्कृतिक जीवनधारा को आध्यात्मिकता ने ही अमरत्व प्रदान किया है।
बाबा साहब नहीं रहे, फिर बिना संत के संतमत-सत्संग का पूर्ण अस्तित्व कहाँ ? पर महासमाधि में चिरलीन होने के पूर्व उनके लोक-हितैषी मानस एवं सर्वकल्याणकामी हृदय ने क्या लोक-संग्रह के लिए कोई अभिलाषा नहीं की थी? वह अज्ञात अभिलाषा महर्षि मेँहीँ के व्यक्तित्व में परिव्याप्त होकर उत्प्रेरणा बन रही है और संतमत का प्रभाव तीव्र गति से विस्तार को प्राप्त करता जा रहा है।
बारहवाँ अधिवेशन १ और २ जनवरी, १९२१ ईस्वी को काढ़ागोला में हुआ। इस अधिवेशन में उदार श्रद्धालु सत्संगी छपरा-निवासी श्री महावीर रामजी डेढ़ सौ रुपये खर्च कर जरीदार चोगा तथा जरीदार साफा लाए थे। स्वामीजी उस समय अधिवेशन में खड़े होकर ही प्रवचन दिया करते थे। जब भाषण करने का अवसर आया, तो महावीर रामजी ने आपसे उक्त चोगा एवं साफा धारण कर ही व्याख्यान देने का अनुनय किया, पर आप किसी भाँति सहमत नहीं हुए। बाबा साहब की कठोरता को पिघलाकर प्रसादी एवं चरणामृत ले लेनेवाला श्रद्धालु हृदय आपकी इस नि:स्पृहता को देखकर रो पड़ा। आखिर, आप भी करुणार्द्र हो ही उठे। फिर चोगा और साफा धारण कर ही आपने उस अधिवेशन में प्रवचन दिया । यहाँ भी श्रद्धा की विजय हुई। अधिवेशन समाप्त हो जाने पर वह पवित्र हुआ मूल्यवान चोगा और साफा आपने परमहंस ध्यानानदजी को दे दिए। फिर उन्हें कभी धारण नहीं किया। महावीर रामजी का हृदय तृप्त हो गया था।
तेरहवाँ वार्षिक अधिवेशन संतमत-सत्संगाश्रम, नवाबगंज (पूर्णियाँ) में २८ और २९ दिसंबर, १९२१ ईस्वी को हुआ। इसमें मुरादाबाद से बाबा नंदन साहब, महात्मा रघुवरदयाल साहब, बाबू हरिश्चंद्रजी, बाबू शांतिप्रसादजी, बाबू मोहनलालजी और बहोरनलालजी भी पधारे थे। इस अधिवेशन में संतमतानुकूल भारती-संकीर्तन का प्रवेश या प्रारंभ भी आपके द्वारा किया गया ।
अधिवेशन के संचालक और प्रबंधक श्री धीरजलाल गुप्त एवं श्री रामदासजी १९१६ ईस्वी से ही धीरे-धीरे यह कार्यभार आप पर डालते जा रहे थे, पर सहयोग बराबर करते ही रहते थे। 

32.

आदर्श सत्संगाधिवेशन

पंद्रहवाँ अधिवेशन सन् १९२३ ईस्वी के २८-२९ दिसंबर को सत्संग-मंदिर सिकलीगढ़ धरहरा में हुआ । श्री धीरजलाल गुप्त एवं परमहंस ध्यानानंदजी ने सारा भार आपके ऊपर ही छोड़ दिया था। उस समय जाति-पाँति और छुआछूत की विभीषिका भारतीय समाज के कण-कण में व्याप्त हो रही थी और यही आधार लेकर विरोधी लोग संतमत-सत्संग के विरुद्ध दुष्प्रचार किया करते थे । ‘मनुष्य ही दूसरे मनुष्य को अस्पृश्य कहे और माने-यह समाज का कलंक है ।’ ऐसा कहनेवाला कोई नहीं दिखाई पड़ता था। उस समय तो इसे ही कलंक के बदले गौरव और पाप के बदले पुण्य माननेवालों की संख्या प्रचुर थी। ऐसे तमसाच्छन्न मानस में संतमत का निष्पक्ष एवं सर्वकल्याणमय प्रकाश कैसे प्रविष्ट कराया जाय, यह एक असमाधेय समस्या थी।
उसी का समाधान उपस्थित करने के लिए ही आपने इसे एक विशेष स्वरूप प्रदान किया, जिससे छुआछूत को पाप और धर्म माननेवाले दोनों समुदाय, प्रेम और पवित्रता से ग्रहण कर सकें। अधिवेशन का यह रूप सर्वग्राह्य आदर्श एवं दिव्यता से परिपूर्ण था।
आपके ऐसे संकल्प से सैकड़ों सत्संग-प्रेमियों के हृदय में उत्साह और सर्वस्व-त्याग की भाव-ऊर्मियाँ लहराने लगीं। बिना आह्वान किए ही स्वेच्छा से हृदयवानों ने तन-मन-धन उत्सर्ग कर दिए और अधिवेशन को सर्वांगपूर्ण बनाने के लिए वे असीम कर्म-शक्ति लेकर पिल पड़े। सभा का पंडाल विस्तृत रूप में सुव्यवस्थित किया गया था । ऊपर में शामियाने और फूस की टट्टियों के आच्छादन दिए गए थे। मध्य स्थल में एक श्री -शोभा-संपन्न भव्य मण्डप का निर्माण किया गया था, जिसकी झलक आँखों पर पड़ते ही दर्शकगण बरबस उस ओर खिंचे चले जाते थे। पंडाल के सभी द्वार हरी पत्तियों एवं पुष्पों से सजाए गए थे। स्थान-स्थान पर ऋषियों एवं संतों की प्रेरणा देनेवाली वाणियाँ लिखकर कलात्मक ढंग से सजा दी गईं थीं। कुछ स्थानों में पिण्ड-ब्रह्मांड के रहस्योद्घाटक चित्र भी सजा दिए गए थे, जिनके सहारे भजन करनेवालों को भजन-संकेत प्राप्त हो जाता था। अन्न-भंडार, रसोईघर, आहार-गृह, नारी-निवास, सत्संग-स्थल आदि सबकी शोभा, व्यवस्था और स्वच्छता देखकर हृदय में सात्त्विक भावों का संचार होने लगता था ।
ट्यूबवेल की सुविधा नहीं थी। एक कूप से ही उतने सारे मनुष्यों के खान-पान-स्नान तथा पशुओं के लिए भी जल पिलाने की सुव्यवस्था थी। यह कूप मूसापुर के सत्संगी श्री डोमन मंडलजी के रुपये तथा श्री टीकमलालजी के अविश्रांत परिश्रम से निर्मित हुआ था।
कूप के निकट दो टब (गंगाजली) व्यवस्थित क्रम से रखे गए थे-एक कूप के समीप में और दूसरा उससे छह गज की दूरी पर। एक टब से दूसरे टब तक बाँस की नली लगा दी गयी थी, जिसका मुँह एक पीपे (रिक्त टीन के बर्तन) से जोड़ दिया गया था। टब से पानी लेकर पीपे में डालने से वह बाँस की नली के द्वारा दूसरे टब में चला जाता था। दूसरे टब में भी बाँस की नलियाँ लगा दी गयीं थीं। एक नली के द्वारा जल सीधे रसोईघर के एक बर्तन में गिरता था और दूसरी बाँस की नली बाहर कुछ दूर तक चली गयी थी, उस नल के छोर पर बाल्टियाँ रखी हुई थीं।
इन सारी व्यवस्थाओं के उपर्युक्त क्रमों की योजना स्वामीजी ने ही बनायी थी।
अधिवेशन की सारी तैयारी करीब डेढ़ सौ सत्संगियों ने दो-तीन महीनों तक अपने शरीर-श्रम, बुद्धि एवं संपत्ति का व्यय करके की थी। कलात्मक सौन्दर्य-निर्माण में विशेष कर मंडप के सौंदर्य-विधान में जोतरामराय के रमाकांत चौधरी, मनिहारी नवाबगंज के जीतेन्द्रनाथ मालाकार तथा मोहनलाल मालाकार का विशेष निर्देशन तथा कौशलपूर्ण परिश्रम ओतप्रोत था।
जल-संबंधी व्यवस्थाओं एवं आवश्यकताओं का संपूर्ण भार झालीघाट के यादव सत्संगियों ने स्वेच्छा से ग्रहण किया था। जल की व्यवस्था करनेवाले सत्संगियों के अतिरिक्त किसी भी व्यक्ति के लिए कूप, टब एवं नलियों को छूने की सख्त मनाही थी। जल भरने के लिए दो ढेकुल थे। प्रत्येक ढेकुल खींचने में दो सत्संगी लगे रहते थे। पहले टब में पानी भरते ही उसे दूसरे सत्संगी बाल्टी से निकालकर टीन में डालते जाते थे। इस भाँति दूसरा टब भी बाँस की नली के द्वारा जल से भर जाता था। दूसरे टब के निकट के सत्संगी उससे बाल्टी के द्वारा जल निकाल- कर वितरण करते जाते थे और इस दूसरे टब से बाँस की नली द्वारा जल बहकर दूर रखी बाल्टियों में गिरता था, जिसे वहाँ नियुक्त सत्संगी दूसरी बाल्टी से लोगों में वितरित करते थे। जल भरने और वितरण करने का यह क्रम लगातार रात-दिन चलता ही रहता था। मनुष्य और आए पशुगणों की जल-संबंधी आवश्यकताओं की सदा परिपूर्ति होती ही रहती थी। यद्यपि सभी के लिए अनिवार्य रूप से कूप, टब-नली आदि स्पर्श करने की मनाही थी, फिर भी एक परिचित मैथिल ब्राह्मण अपने को सर्वथा पवित्र समझकर स्वयं ही टब से पानी लेने के लिए आगे बढ़े। सेवा करनेवाले उपस्थित सत्संगियों ने उनसे निवेदन किया-- ‘महाराज ! हमलोग यादव-वंशीय हैं । आप जितना जल चाहें, हमलोग देने के लिए तैयार है ।’
इसपर उन्होंने कहा- ‘मैं ब्राह्मण हूँ। मुझको अपने से ही जल लेने दो ।’
उत्तर में सत्संगीगणों ने निवेदन किया- ‘हाँ, महाराज ! यह तो मैं जानता ही हूँ कि आप ब्राह्मण हैं, पर हमारे गुरु महाराज की अविचल आज्ञा है कि हम सेवकों को छोड़कर कोई भी अन्य व्यक्ति कूप, टब एवं नल का स्पर्श नहीं करे और आप यदि छू देंगे तो ब्राह्मण के स्पर्श किए हुए जल से अन्य लोग अपना पाद-प्रक्षालन किस भाँति करेंगे?’
यह व्यवस्था देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए और सभी से कहने लगे- ‘लोग झूठ-मूठ ही अफवाह फैलाते हैं कि महर्षि मेँहीँ छुआछूत नहीं मानते हैं। वे तो पवित्रता का इतना ख्याल रखते हैं कि ब्राह्मणों को भी जल-स्पर्श नहीं करने देते हैं। अब इससे बढ़कर और कैसा पवित्र प्रबंध हो सकता है ?
इस अधिवेशन में पधारकर सत्संग का सही रूप जानने, उसमें पवित्रता-संबंधी क्रियाओं की व्यवस्था एवं संयमन को परखने के लिए गाँव-गाँव में काफी प्रचार किया गया था। अत: सत्संगियों के अलावा ऐसे लोग भी करीब डेढ़ सौ गाँवों से पधारे थे, जो सत्संग के वास्तविक रूप को देखने के अभिलाषी थे। बाहर से पधारे सज्जनों में ५१७ भेदी तथा ५२३ व्यक्ति अनभेदी, आलोचक एवं विरोधी थे। इनके अतिरिक्त हजारों श्रोता नित्यप्रति आते और प्रवचन श्रवण कर वापस चले जाते थे।
मुरादाबाद से नंदन साहब, महात्मा रघुवर दयाल, बाबू मोहनलालजी, बाबू विश्वेश्वर नारायण सिंहजी, परमहंस परिव्राजकाचार्य स्वामी सहजानंदजी तथा बाबू हरिश्चन्द्रजी पधारे थे।
इतने सारे लोगों के निवास, भोजन एवं जल-प्रदान की संतुलित, संगठित एवं व्यतिक्रमविरहित व्यवस्था देखकर पूर्णियाँ के एक वकील रामप्रसाद बाबू ने कहा-आदमी का कल देखा, तो यहीं देखा ।’
इस अधिवेशन में लगभग दो हजार रुपये खर्च हुए, पर इसे संगृहीत करने के लिए किसी को न कहीं जाना पड़ा और न माँगना ही पड़ा। ‘बिन मांगे सो दूध सम, मांगे मिले सो पानि। कह कबीर वह रक्त सम, जामें ऐंचातानि ।।’
अधिवेशन में पधारे भेदी-अनभेदी, ब्राह्मण पंडित सभी के भोजन-व्यय का भार आपने ही वहन किया और सत्संग-महायज्ञ से बचे द्रव्यों एवं सामग्री को ग्रामीण जनता में वितरित कर उनलोगों को प्रसन्न एवं संतुष्ट किया। इस अधिवेशन की आदर्शपूर्ण सफलता में उन डेढ़ सौ सत्संगियों के नि:स्वार्थ त्याग एवं बलिदान तथा अनवरत सेवा और श्रम सन्निहित था।
इस अधिवेशन की सफलता से जनता की संतमत-सत्संग के प्रति भ्रामक धारणा दूर हो गयी और झूठे प्रचारकों की हस्ती मिट गयी। 

33.

गंभीर साधना-कूप

‘मैं मरजीवा समुंद का, डुबकी मारी एक ।
मूठी लाया ज्ञान का, जामें वस्तु अनेक ।।’ -संत कबीर ।

बाह्य कोलाहल से मुक्त हो एकांत स्थान में भजन-अभ्यास करने के लिए महर्षि मेँहीँ ने अपने परिश्रम से एक उपासना-कूप का निर्माण किया । धूप, वर्षा आदि से सरक्षित रहने के लिए कूप के ऊपर उन्होंने एक आच्छादन डाल दिया था। छह महीनों तक उसी एकान्त कूप में बैठकर आप उपासना करते रहे। इसके बाद जब कूप से बाहर आए, तो आपके चेहरे की कान्ति के साथ शरीर की कृशता भी बढ़ गयी थी। भूगर्भशास्त्रियों ने बताया कि आषाढ़ महीने में धरती के नीचे वाष्प निकला करता है, उसी के प्रभाव से आपके शरीर में शीर्णता आ गयी है।
शारीरिक दुर्बलता को दूर करने के लिए पुनः तीन महीनों तक जलालगढ़ के सत्संग-मंदिर में निवास कर आप भजन-अभ्यास करते रहे।
वहाँ श्री बुद्धकुंवरजी तथा श्री बिहारी साहुजी ने आपकी बड़ी सेवा की। श्री बुद्धकुंवरजी पुराने सुशिक्षित सत्संगी हैं और पूर्णियाँ बोर्ड के उच्च प्राथमिक विद्यालय के प्रधानाध्यापक पद को सुशोभित कर रहे हैं। सत्संग के प्रति इनकी सेवा प्रशंसनीय है। ये एक प्रतिभाशाली, कर्मठ शिक्षक एवं सत्संग-प्रेमी हैं। इन्होंने सन्तमत-सत्संग के सभी वार्षिक अधिवेशनों का सुन्दर इतिहास तैयार किया है।
इन्हीं लोगों की प्रेमभरी सेवा लेकर आपने शरीर को सबल-स्वस्थ बनाया और फिर सत्संग-प्रचार की दिशा में विचार करने लगे। इसी अवसर पर पिपरा के धनसम्पन्न व्यक्ति श्री ढोढ़ाई दासजी के मन में आपसे भजन-भेद लेने का तीव्र प्रेरण हुआ। इन्होंने इस संबंध में अपने मित्रों एवं परिवार के लोगों से चर्चा की। उस समय रामानन्दी एवं कबीरपन्थी साधुओं ने ब्राह्मण कुल-गुरु की भाँति कुल-गुरु बनने का क्रम जारी कर रखा था। इस गुरुडम (गुरुआई) की प्रथा से भारतीय जनता की रुचि अध्यात्म के प्रति अवश्य ही जान पड़ती है, पर इसके प्रति अन्धी श्रद्धा रखने के कारण अयोग्य गुरुओं ने केवल असत्य और ढोंग का ही प्रचार किया है। जनता तो समझती है कि हमें परमात्मा की ओर ले जानेवाले एक सहायक और मार्गदर्शक मिल गए और ये समझते हैं कि हमें अपनी जीविका चलाने का अवलम्ब मिल गया । तभी तो संत कबीर साहब ने ढोंगियों के ढोल की पोल खोलते हुए कहा है- ‘घर-घर मंत्र जो देत फिरत है, महिमा के अभिमाना । गुरुवा सहित शिष्य सब बुड़े, अन्तकाल पछताना ।।’
ऐसे गुरुओं का ध्यान, धनसम्पन्न व्यक्तियों पर अधिक रहा करता है। वे अपने प्रभाव से इन्हें बाहर होने देना नहीं चाहते । ज्यों ही उनलोगों को ढोढ़ाई दास के विचारों की खबर मिली, सभी दौड़ पड़े। इनको मनाने के लिए। उन्होंने कहा- आपके कुल में परम्परागत जो गुरु होते आए हैं, आपको भी उसी पन्थ में रहकर उसी में से योग्य गुरु कर लेना चाहिए। अपनी वंशावली के द्वारा मान्य पंथ छोड़कर नए सन्तमत में नहीं जाना चाहिए।’ ऐसी-ऐसी अनेक तरह की बातें उन्हें समझायी गयी, पर उनके अन्तर्मन ने किसी की भी नहीं मानी। ढोढ़ाई दास ने कहा- ‘मैं एक बात कर सकता हूँ। आपलोग सभी पंथ-पंथाइयों के साधु मेरे यहाँ पधारें। मैं सभी के भोजन और आवास का प्रबन्ध करूँगा। सभी भगवान और परमात्मा को पाने का सच्चा रास्ता बताने का प्रयत्न करें। फिर जिनकी बातें मुझे अँच जायँगी, मैं उन्हें निःसन्देह अपना गुरु बना लूँगा।’
साधु लोगों ने भी इसे स्वीकार किया और सभी ने एक निश्चित तिथि ‘भण्डारा’ करने का सुस्थिर कर सभी पंथों और मतों के साधुओं को समय पर पधारने के लिए निमंत्रण भेज दिया।
सभी मतों के साथ सन्तमतवालों को भी निमंत्रण भेजा गया। इसमें किसी कारणवश श्री परमहंस ध्यानानन्द एवं धीरजलाल गुप्त नहीं पधार सके थे। समय पर साधुओं की जमात एकत्र हुई। अन्य साधुओं को भाषण करने के लिए उद्यत नहीं देखकर महर्षि मेँहीँ ने सन्तमत का भली भाँति विश्लेषण कर सभी को समझाने का प्रयत्न किया। साधुगणों के साथ अन्य श्रोता भी ध्यानस्थ होकर आपका प्रवचन सुन रहे थे। सत्संग समाप्त हो गया। अन्य किसी भी पंथ के साधु भाषण करने नहीं आए और श्री ढोढ़ाई दासजी ने श्रद्धा और उल्लास के साथ आपसे भजन-भेद ले लिया। सत्संग समाप्त हो जाने पर कुछ साधु लोग सन्तमत के विरोध में इधर-उधर बातें कर रहे थे। यह देख झालीघाट के एक सत्संगी को बड़ा आवेश आया । उन्होंने आकर स्वामीजी से निवेदन किया कि ‘ साधु लोग बढ़-बढ़कर बातें करते हैं, आपकी आज्ञा हो, तो मैं उनलोगों को जवाब दूँ ?’ आपने कहा-क्या जरूरत है। हमारे सामने तो वे लोग कुछ बोलते नहीं। सूने में बोलते हैं, तो बोलने दीजिए।’
परन्तु कारेलाल सिंह के बार-बार आग्रह करने पर आपने कहा- ‘यदि बोलना ही चाहते हैं, तो उनसे संयत भाषा में बातचीत कीजिए।’
कारेलालजी ने भी उनलोगों को उत्तर देने की आवश्यकता नहीं समझी।
१४-१५ जनवरी, १९२५ ईस्वी में सोलहवाँ वार्षिक अधिवेशन टिकैली (पूर्णियाँ) में हुआ । इसमें मुरादाबाद से बाबा नन्दन साहब के साथ अन्य सत्संगी भी पधारे थे। इसमें परमहंस ध्यानानन्द तथा आपका योग और ईश्वर-भक्ति पर -प्रवचन हुआ था। 

34.

सत्संग-भ्रमण-मण्डली

लोकसंग्रह के लिए ही जिनका अवतार हुआ है, उनमें अविच्छिन्न रूप से आध्यात्मिक वेग होते रहते हैं। अधिवेशन समाप्त होते ही आपने एक भ्रमण-मंडली कायम कर लगातार कुछ दिनों तक सत्संग-प्रचार करने की योजना सभी प्रमुख सत्संगियों के समक्ष उपस्थित की। सभी ने सहर्ष इसका समर्थन एवं अनुमोदन किया। आपका विचार था कि सत्संग-भ्रमण मंडली संगठित कर पूर्णियाँ, भागलपुर, मुंगेर बरौनी, छपरा, लखनऊ आदि स्थानों में होते हुए मुरादाबाद तक सन्तमत-सत्संग को प्रसारित किया जाय और इस मंडली के खर्च के लिए आपने पिपरा के ढोढ़ाई दास से चार सौ, पोठिया के कल्याण दास से दो सौ, दुर्गापुर के महगू दास से एक सौ, गेड़ाबाड़ी के सौखी दास से पचास तथा मोहिनियाँ के चेथरू दास से पचास रुपये पैंचा (बिना सूद का कर्ज) माँगे और उनलोगों ने उल्लास के साथ आपको दे दिए। पीछे नन्दन साहब ने इसे भागलपुर तक ही सीमित रखने का परामर्श दिया और उसी को मान लिया गया। प्रचार की सीमा छोटी-सी हो जाने के कारण इतने रुपयों की आवश्यकता नहीं जान पड़ी और ढोढ़ाई दासजी के चार सौ में दो सौ रुपये पैंचा रखकर सभी के रुपये वापस कर दिए गए। इससे अवश्य ही उनलोगों के उत्साह और उल्लास में आघात-सा लगा, विशेषकर श्री ढोढ़ाई दास तो अत्यधिक दुःखी हो गए। वे सोचने लगे- ‘मेरी अपात्रता और दुर्भाग्य से ही ये रुपये स्वीकार नहीं किए गए।
सन्तमत-सत्संग-प्रचार की विस्तृति को सीमित करने के परामर्श में चाहे जितनी भी अच्छाइयाँ रही हों, पर इससे कुछ सत्संगियों के मन में बाबा नन्दन साहब के प्रति क्षोभ भी हो गया। वे सोचने लगे कि महर्षिजी ने भी तो लोक-कल्याण के लिए ही सत्संग-प्रचार की सुविस्तृत योजना बनायी थी, इसे सीमित करने से सन्तमत को कौन-सा लाभ हुआ?
बत्तीस विशेष सत्संगियों की भ्रमणमण्डली बनी, जिनमें आप, बाबा नन्दन साहब, परमहंस ध्यानानन्द, धीरजलाल गुप्त, हरंगी दास, यदुनाथ चौधरी, मोहनलालजी (मुरादाबाद), हरिश्चन्द्रजी (मुरादाबाद) तथा त्रिचनापल्ली के एक साधु महाराज भी थे।
चन्दा से प्राप्त २५० रुपये को लेकर ही भ्रमण-मण्डली का कार्यारम्भ कर दिया गया । मण्डली के सभी सदस्यों पर अलग-अलग उत्तरदायित्व था। बाजार से सामान लाना, रुपये-पैसे का हिसाब रखना, रसोई बनाना, चौका लगाना, बर्तन माँजना, कीर्तन-भजन गाना, वाद्य यंत्र बजाना, उपदेश करना आदि सभी कार्य निर्धारित कर दिए गए थे।
पूर्णियाँ नगर से इसका शुभारम्भ हुआ । बाबू रामप्रसादजी वकील के सुप्रबन्ध से पूर्णियाँ टाउन हॉल में निवास एवं सत्संग करने के लिए स्थान मिला। १८ जनवरी, १९२५ ईस्वी को श्रोताओं की प्रतीक्षा में एक बजे तक ठहरना पड़ा। प्रथम वाद्य यंत्र पर आध्यात्मिक संगीत गाए गए। तबतक श्रोतागण भी आ गए। लगभग एक सौ सत्संगी तथा डेढ़ सौ अन्य श्रोतागण पधारे। उस दिन एक घण्टे बाबा नन्दन साहब का ‘सन्तमत-सत्संग’ पर तथा एक घंटे महर्षि मेँहीँ का ‘योग और भक्ति’ पर भाषण हुआ। पुनः कीर्तन-भजन कर सत्संग समाप्त कर दिया गया।
दूसरे दिन प्रात:काल के सत्संग में श्री धीरजलाल गुप्तजी का ‘कर्म’ विषय पर भाषण हुआ। पुनः महर्षिजी ने डेढ़ घंटे तक ‘ईश्वर-भक्ति’ पर व्याख्यान दिया । कीर्तन-भजन के बाद सत्संग समाप्त हो गया। आज सत्संग के प्रति लोगों में आकर्षण प्रतीत होता था।
आज ही बाबा साहब का महाप्रयाण दिवस था। इस अवसर पर सत्संगी भाइयों ने बीस मन अन्न तथा अट्ठाईस रुपये ग्यारह आने नगद एकत्र किए थे। इन्हें दरिद्रनारायण के बीच वितरण किया गया। अवशिष्ट द्रव्यों को किसी शुभ कार्य में लगाने के लिए रखा गया।
२० जनवरी को सत्संग-प्रचार मंडली पूर्णियाँ से जलालगढ़ आयी । यहाँ सत्संग-मंदिर तथा कुछ रावटियों में मंडली को निवास मिला । भोजन-व्यवस्था की जिम्मेवारी स्थानीय सत्संगी श्री बिहारी साहजी ने उठा ली।
२१ जनवरी के एक बजे दिन से सत्संग आरम्भ हुआ। आधे घंटे परमहंस ध्यानानन्द का ‘अहिंसा’ पर, तीन मिनट हरंगी दासजी का ‘गुरु-गुण’ पर, पन्द्रह मिनट श्री धीरजलालजी का ‘सुख’ पर तथा सवा घंटे बाबा नन्दन साहब का ‘सत्संग’ पर व्याख्यान हुआ।
२२ जनवरी को यदुनाथ चौधरी का ‘कर्म’ पर, बाबा नन्दन साहब का ‘जीवों के निर्बन्ध होने पर’ तथा डेढ़ घंटे स्वामीजी का ‘ईश्वर-भक्ति क्या है’ तथा ‘जीवों को सुख कैसे मिल सकता है’ विषय पर प्रवचन हुआ। कीर्तन-भजन कर यहाँ का सत्संग समाप्त हुआ।
२३ जनवरी को जलालगढ़ से बारह बजे रेलगाड़ी से प्रस्थान कर एक बजे सभी अररिया कोर्ट आए। भीषण शीत को धारण कर पश्चिमी वायु आँधी से होड़ ले रही थी। सवारी के लिए एक ही घोड़ागाड़ी मिली, जिसमें बाबा नन्दन साहब, मोहनलालजी तथा किसी भाँति दो और सत्संगी चढ़ाए गए। शेष सभी ने पैदल ही प्रस्थान किया। दो मील का रास्ता तय कर सभी मुख्तार साहब के निवास स्थान पर पहुँचे । नौकरों ने ही अपलोगों का स्वागत किया। कचहरी से मुख्तार साहब आए और कष्ट के लिए क्षमा याचनापूर्वक अपनी रसोई में आपलोगों के लिए भोजन तैयार कर सभी को तृप्त किया। दूसरे दिन २४ जनवरी को राज दरभंगा के कारपरदाज श्री नरसिंह सहायजी के प्रेमानुरोध से वहीं आपलोगों को भोजन कराया गया। तीन बजे अपराह्न से सत्संग आरम्भ हुआ। कचहरी, विद्यालय, डाकघर के कर्मचारियों एवं अन्य श्रोताओं को लेकर सौ से अधिक की उपस्थिति हुई। आध्यात्मिक गान के उपरान्त श्री धीरजलालजी का ‘कर्म’ पर डेढ़ घंटे, नन्दन साहब का ‘भक्ति’ पर एक घंटा तथा आपका ‘ईश्वर के वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक नाम’ पर अधिक देर तक प्रवचन होता रहा।
आपका प्रवचन सुनकर वहाँ के पुलिस इन्स्पेक्टर साहब बिगड़कर आपसे कहने लगे तब तो हमलोग जो नाम जपते हैं, सो व्यर्थ ही है ?’
आपने अनुरोध के स्वर में कहा- ‘इस विषय को अधिक स्पष्ट समझने के लिए आप कल के सत्संग में भी पधारिये ।’
२५ जनवरी को बारह बजे से सत्संग प्रारम्भ हुआ। पन्द्रह मिनट धीरजलालजी का हिन्दू-धर्म’ पर, एक घंटे बाबा नन्दन साहब का ‘सत्संग’ पर तथा तीन घंटे तक आपका भक्तिः, दृष्टि-साधन एवं सुरत-शब्द-योग’ पर प्रवचन हुआ। पुलिस इन्स्पेक्टर तथा पुलिस सब-इन्स्पेक्टर साहब ने आपसे कुछ प्रश्न भी पूछे। सन्तोषजनक उत्तर पाकर उनका हृदय शान्त हो गया। इन्स्पेक्टर साहब की आँखों में आपके प्रवचनों से प्रेम के आँसू उमड़ आए। वे वेग को रोक नहीं सकने के कारण अन्त में रो पड़े ।
उस समय अररिया में कोई भजनभेदी सत्संगी नहीं थे, पर अध्यात्म की ओर स्वाभाविक आकर्षण रहने के कारण अन्तिम दिन भी दो-ढाई सौ श्रोतागण पधारे थे।
यहाँ सत्संग-भ्रमण-मंडली के आने का और भी एक कारण था। श्री पंचानन भट्टाचार्य के शिष्य बाबू महादेव लाल फौजदारी के सब-डिप्टी थे। उन्होंने दो बार अपने निवास पर सत्संग कराया था। उन्हीं के आह्वान पर यहाँ मंडली आयी थी, पर आने के प्रथम ही उनकी बदली हो गयी। जाते समय भी उन्होंने सत्संग कराने की व्यवस्था का भार लोगों को समझाकर सौंप दिया था।
मुख्तार तथा कारपरदाज साहब के यहाँ दोनों समय भोजन करने के बाद मंडली के एक सदस्य बाबू यदुनाथ चौधरीजी ने इस बात पर आपत्ति की और बोले- ‘जब मंडली का यह संकल्प है कि दीक्षित सत्संगी के यहाँ का अन्न ही ग्रहण करेंगे, तो अन्य जनों का भोजन क्यों स्वीकार किया गया?’
आपने कहा- ‘उनलोगों के विशुद्ध प्रेम और आग्रह को टालना शोभनीय नहीं था। अब अपने संगृहीत रुपयों में से उतने रुपयों का हलुआ और मोहनभोग बनवाकर श्रोताओं में वितरित कर दीजिए।’
तीसरी शाम से मंडली की अपनी भोजनव्यवस्था हुई, पर मुख्तार साहब ने मेवा और फल प्रति शाम भेजना नहीं छोड़ा ओर मंडली ने भी उनके प्रेम के कारण उसे ग्रहण कर लिया।
ता॰ २६ जनवरी को बेतौना से सात बैल-गाडियाँ मंडली को ले जाने के लिए आयी। चार बजे वहाँ पहुँचकर सत्संग-मंदिर में आवास किया गया। भोजनादि का सम्पूर्ण भार सत्संगी गंगा दासजी ने प्रसन्नता से ग्रहण कर उसे प्रेम-सहित निभाया ।
२७ जनवरी के एक बजे दिन से सत्संग आरम्भ हुआ। एक घंटे परमहंस ध्यानानन्दजी का सन्तमत’ पर, धीरजलालजी का पौन घंटे अहिंसा’ पर तथा एक घंटे तक बाबा नन्दन साहब का “परहित तथा अहिंसा’ पर भाषण होकर” उस दिन का सत्संग समाप्त हो गया। । इस सत्संग में विभिन्न सम्प्रदायों के सज्जन पधारे थे। उपस्थिति लगभग चार सौ की थी।
दूसरे दिन २८ जनवरी को एक बजे से सत्संग का समारम्भ हुआ। आध्यात्मिक गान तथा ग्रंथ-पाठ के उपरान्त श्री यदुनाथ चौधरीजी का आधे घंटे तक ‘शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक; तीनों शक्तियाँ मनुष्य में हैं’ पर, बाबा नन्दन साहब का एक घंटे तक “सत्संग’ पर और आपका दो घंटे तक ‘ईश्वर-भक्ति’ पर व्याख्यान हुआ। कीर्तन-भजन के बाद छह बजे सत्संग समाप्त हुआ।
२९ जनवरी को बेतौना से मंडली आठ बजे रात के करीब फारबिसगंज पहुँच गयी। उस रात ठाकुरबाड़ी के हरि-कीर्तन-भवन में निवास करना पड़ा। यहाँ कभी सन्तमत का प्रचार नहीं हुआ था और एक भी दीक्षित सत्संगी नहीं थे। ३० जनवरी के प्रातः श्री राजेन्द्रनाथ दत्तजी यहाँ पधारे। ये पूर्णियाँ के रामप्रसाद बाबु वकील के परिचित थे और उन्होंने इन्हीं को मंडली की व्यवस्था कर भार वहने करने का अनुरोध किया था। इन्होंने बाजार में काफी छानबीन कर रामवरन साह के दोमंजिले मकान को मंडली के निवास तथा सत्संग के लिए ठीक किया। बाजार में सत्संग श्रवण करने के लिए घूम-घूमकर प्रचार किया गया।
रात में जिस ठाकुरबाड़ी में निवास किया गया था, उसके पुजारीजी सन्तमत-सत्संग के कट्टर विरोधी थे। वे भी घूम-घूमकर सत्संग में सम्मिलित नहीं होने का प्रचार करते थे।
जब मंडली ठाकुरबाड़ी से रामवरन साह के दोमंजिले मकान में जा रही थी, तब उसके एक सदस्य त्रिचनापल्ली के साधु कुछ देर और वहीं ठहर गए। वे रात से ही पुजारीजी की सत्संग-विरोधी वाणी सुनकर कसमसा रहे थे, केवल आपके लिहाज से मौन थे। आप सभी के जाने के उपरान्त उक्त साधु ने पुजारीजी को फटकारना प्रारम्भ कर दिया, बोले- ‘तुम क्या जानते हो? सबेरे उठकर स्नान करते हो और कुछ मन्त्र पढ़कर चुल्लू भर पानी इधर और चुल्लू भर पानी उधर फेंक देते हो। इसके अलावे तुम और कौन-सा काम करते हो? और ऐसा करने से तुमको मिलता क्या है ? मैंने भयंकर शीत में कश्मीर-जैसे ठंढ प्रदेश में खुले बदन रहकर देख लिया है कि इससे कुछ भी नहीं मिलता।’
इस भाँति पुजारीजी को फटकारकर पुनः ये अपने दल में सम्मिलित हो गए।
त्रिचनापल्ली के ये जिज्ञासु साधु ज्ञान की खोज में घूमते-घूमते कश्मीर चले गए थे। वहाँ कठिन शीतकाल में भी ये शरीर पर वस्त्र नहीं रखते थे, किन्तु शरीर से शीत-उष्ण सहने से इनके अन्तर में शान्ति नहीं हुई। फिर ये अन्वेषण में भ्रमते हुए धरहरा आए। यहीं रहकर कुछ दिन सत्संग करने पर इनकी श्रद्धा आप पर टिक गयी और इनके सच्चे आग्रह पर आपने इन्हें भजन-भेद बतला दिया। १९२४ ईस्वी में ये धरहरा आए थे और दो वर्ष तक लगातार सत्संग कर अपने प्रान्त चले गए थे। पुनः मध्य में दो बार यहाँ आए और पुनः वापस चले गए। इधर कई वर्षों से उनका कोई पता नहीं है।
यहाँ दो बजे से सत्संग आरम्भ हुआ । भजन-कीर्तन के उपरान्त धीरजलालजी का ‘कर्म’ विषय पर शाम तक भाषण होता रहा । प्रथम दिन की उपस्थिति बहुत कम रही, पर जिन लोगों ने आज का सत्संग सुना, उनके कहने से दूसरे दिन के सत्संग में लोगों की उपस्थिति अधिक हुई। राजेन्द्र दत्तजी भी प्रथम दिन उदासीन ही थे। दूसरे दिन से पूर्ण दिलचस्पी लेने लगे।
दूसरे दिन ३१ जनवरी को दो बजे दिन से सत्संग प्रारम्भ हुआ। धीरजलाल का ‘कर्म’ पर पचास मिनट, बाबा नन्दन साहब का ‘सत्संग’ पर एक घंटे तथा आपका ‘ईश्वर-भक्ति’ पर दो घंटे भाषण हुआ। श्रोताओं ने बड़े ही तल्लीन भाव से प्रवचन श्रवण किया।
०१ फरवरी के प्रातः ही दभड़ा शरणपुर से छह बैलगाड़ियाँ मंडली को लेने आयीं । उसी समय प्रस्थान कर मंडली ने चार कोस पर जाकर स्नान, भोजन एवं विश्राम किया । पुनः चलकर छह बजे शाम में मंडली वहाँ पहुँच गयी। सत्संगी नेतीलालजी के दरवाजे पर निवास एवं सत्संग की व्यवस्था की गयी थी। शामियाना पहले से ही विधिवत् व्यवस्थित एवं सुसज्जित था। रात में भोजनोपरान्त थोड़ी देर सत्संग कर सभी सो रहे।
दूसरी फरवरी को डेढ़ बजे दिन से सत्संग प्रारम्भ हुआ। गान-वाद्य-विनती एवं ग्रन्थपाठ के उपरान्त पौने तीन घंटे तक धीरजलाल गुप्त का व्याख्यान हुआ। पुनः कीर्तन-भजन कर सत्संग समाप्त कर दिया गया। आज की उपस्थिति लगभग दो सौ की थी। श्रोताओं ने बड़ी ही एकाग्रता से भाषण श्रवण किया।
तीसरी फरवरी को भी डेढ़ बजे से सत्संग आरम्भ हुआ। आज बाबा नन्दन साहब का ‘सत्संग’ पर सवा घंटे भाषण हुआ। तत्पश्चात् आपने ढाई घंटे तक ‘ईश्वर-भक्ति’ पर प्रवचन दिया। सभी ने मंत्रमुग्ध होकर सुना और कोई शंका-समाधान कराने नहीं आए। इसी भाँति यह मंडली कटिहार तथा भागलपुर के मिरजानहाट आदि अनेक स्थानों में सत्संग का प्रचार करती हुई घूमती रही। एक मास से अधिक समय बीत जाने पर बाबा नन्दन साहब तथा परमहंस ध्यानानन्दजी के अनुरोध पर मंडली का कार्य कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया गया। लोगों के घर के विविध कार्यों की पूर्ति के विचार से आप दोनों ने यह अनुरोध उपस्थित किया था। भ्रमण-कार्य स्थगित होने पर सभी अपना-अपना कार्य सँभालने चले गए। 

35.

सत्संग-भ्रमण-मंडली की पुनर्यात्रा 

बाइस दिनों तक अविश्रान्त परिश्रम कर आपने सन्तमत-सत्संग का सत्रहवाँ अधिवेशन समैली (पूर्णियाँ) में सुसम्पन्न किया। प्रथम दिन की उपस्थिति ढाई सौ के लगभग और द्वितीय दिवस की तीन सहस्र रही। परमहंस ध्यानानन्दजी रुग्ण और अशक्त होते हुए भी दोनों दिन तक सत्संग में उपस्थित रहे । श्री धीरजलालजी तथा महर्षिजी ने ग्रन्थ-पाठ एवं प्रवचन कर अधिवेशन को सफल बनाया। इस बार की अधिवेशन-तिथि २० तथा २१ दिसम्बर, १९२५ ईस्वी थी। अधिवेशन पूरा कर २२ दिसम्बर को ही भ्रमण-मण्डली ने अपनी यात्रा प्रारम्भ कर दी। मंडली में २५ सत्संगी थे। बाबा नन्दन साहब अधिवेशन में नहीं आए थे, अतः इसमें भी सम्मिलित नहीं हो सके। इस बार की मंडली का यात्रा-व्यय एवं भोजनादि का खर्च सत्संगी श्री मिसरी दासजी तथा श्री मौजी दासजी ने अपनी प्रसन्नता से वहन किया।
भ्रमण-मंडली २२ को ही प्रस्थान कर मुंगेर जिलान्तर्गत फुलवड़िया (बरौनी) पहुँच गयी। २३ दिसम्बर को मध्याह्न के बाद सत्संग प्रारम्भ हुआ। स्थानीय सब-इन्स्पेक्टर साहब भी सत्संग में सम्मिलित हुए। श्री धीरजलाल गुप्तजी ने ‘कर्म’ पर देर तक व्याख्यान दिया। कीर्तन-भजन होते-होते संध्या हो गयी और सत्संग समाप्त कर दिया गया। पुनः रात में आठ से दस बजे तक तुलसीकृत रामचरितमानस का पाठ तथा कीर्तन-भजन होकर सत्संग समाप्त हो गया।
प्रथम दिवस के सत्संग में आप फुलवड़िया (बरौनी) नहीं आ सके, कारण, समैली अधिवशन में आपने ही जहाँ-तहाँ से आवश्यक सामान आदि मँगाए थे, उसे सभी को वापस भेज देना तथा अधिवेशन का आय-व्यय साफ कर देना आवश्यक कार्य था। उसे पूरा करके तब आप दूसरे दिन के सत्संग में सम्मिलित हुए।
दूसरे दिन ता॰ २४ दिसम्बर को एक बजे से सत्संग प्रारम्भ हुआ। आज के सत्संग में लगभग चार सौ श्रोताओं की उपस्थित हुई। और उनमें पुलिस सब-इन्स्पेक्टर साहब विशेष रूप से दिलचस्पी ले रहे थे। ये मुस्लिम मतानुयायी थे।
कीर्तन-भजन के उपरान्त आपने ‘ईश्वर-भक्ति’ पर भाषण दिया। आपके प्रवचनों से पुलिस सब-इन्स्पेक्टर साहब इतने प्रभावित हुए कि वे अपनी टोपी शिर से उतारकर नम्र भाव से प्रवचन सुनने लगे। सारी जनता स्तब्ध थी। सत्संग के निर्धारित समय से साढ़े चार घंटे बाद तक आपका धारा-प्रवाह प्रवचन होता रहा। सभी श्रोता निस्तब्ध होकर अपने कार्यों की सारी सुधि भूलकर सुनते रहे । प्रवचन समाप्त होने के बाद कोई किसी प्रकार का शंका-समाधान कराने नहीं आए। सत्संग समाप्त हो गया। जनता में ‘सन्तमत-सत्संग के प्रति काफी श्रद्धा और अभिरुचि उत्पन हो गयी।
विभिन्न कार्यों की आवश्यकता का विचार कर भ्रमण-मंडली को अवकाश के अनुसार ही प्रचार करने का भार दिया गया । पुनः सभी सत्संगी अपने-अपने कार्यों पर चल गए। 

36.

रामायणाचार्य एवं भूतनाथ से वार्तालाप

१९२६ ईस्वी में अधिवेशन का समय निकट आ गया था। आपने पूर्णियाँ में अधिवशन करने के लिए श्री ज्योतिषचन्द्र भट्टाचार्य, एम॰ए॰, बी॰एल॰, वकील, श्री ब्रजनन्दन प्रसाद बी॰ए॰, बी॰एल॰, एडवोकेट तथा श्री अम्बिका प्रसाद मुखर्जी वकील तथा ऐसे ही अन्य धर्मप्रेमी सज्जनों से बातें की। उनलोगों की स्वीकृति से बनैली के राजकुमार श्री गंगानन्द सिंहजी से उनका पूर्णियाँ स्थित निवास और अहाता अधिवेशन करने के लिए मांगा गया। उन्होंने निवास और अहाता प्रदान कर स्वयं भी अधिवेशन की सफलता के लिए कार्यारम्भ कर दिया । पाल, चट्टी, शतरंजी, दरी, त्रिपाल, शामियाना, बाँस, जलावन, बर्तन, खर, रस्सी एवं ट्यूबवेल आदि सभी आवश्यक वस्तुओं का घूम-घूमकर संग्रह करने में उत्साहपूर्वक उन्होंने भाग लिया। धरहरा, पिपरा, मोहिनियाँ, झालीघाट, तेतराही, मधुवन तथा पूर्णियाँ के मधुबनी मुहल्ले के टूरी दास आदि सत्संगियों ने उदारतापूर्वक चन्दा प्रदान किया।
अधिवेशन की तिथि २७ एवं २८ दिसम्बर नियत हुई। उत्साहपूर्ण आयोजन हुआ। प्रथम दिन के सत्संग में बाबा नन्दन साहब का ‘धर्म और भिन्न-भिन्न मतों के इतिहास’ पर तथा राधास्वामी-मत के एक डॉक्टर साहब का ‘नाम’ पर विस्तृत सम्भाषण हुआ ।
दूसरे दिन प्रातः के सत्संग में भजन-कीर्तन एवं ग्रंथ-पाठ आदि का कार्यक्रम रहा। साढ़े ग्यारह बजे के उपरान्त पुनः सत्संग आरम्भ हुआ, उसमें बाबा नन्दन साहब का ‘सन्तमत’ पर, मुंगेर-निवासी पंडित शिवनन्दन मिश्र एवं मसुरिया (पूर्णियाँ)-निवासी पंडित रघुनन्दन झाजी का ‘अहिंसा’ पर तथा आपका ‘ईश्वर-भक्ति’ पर भाषण हुआ।
तीसरे दिन गुरुपूजा के लिए ‘अर्थ-संग्रह’ किया गया। यह गुरुपूजा का ‘अर्थ-संग्रह’ बाबा देवी साहब के जीवनकाल में उनके अर्चन के लिए होता था। उनके समाधिस्थ होने पर इसे बन्द कर दिया गया । इस वर्ष पुनः बाबा नन्दन साहब के आवागमनादि व्यय के लिए इसे पुनः चालू किया गया।
इस अधिवेशन में मूसापुर निवासी श्री डोमन मंडलजी ने १८७ रुपये खर्च कर ‘संतमत-सिद्धान्त एवं गुरु-कीर्तनादि संग्रह’ नामक पुस्तिका की दो हजार प्रतियाँ छपवाकर वितरित की थीं तथा श्री झब्बू भगतजी ने आपके निवास-सदन पर रहे हुए सभी सत्संगियों का भोजन-व्यय वहन किया एवं १२५ रु॰ का प्रसाद श्रोताओं में वितरित किया। टूरी दासजी एवं सत्यनारायण केशरीजी आदि सत्संगियों ने अधिवेशन को सफल बनाने में पूरा सहयोग दिया।
अधिवेशन की तैयारी के समय ही श्री युगल किशोरजी एडवोकेट ने आपसे कहा था कि यहाँ एक साधु आए है, जो रामायण के अच्छे ज्ञाता है तथा वे अपने को गोस्वामी तुलसीदासजी की तेरहवीं पीढ़ी की संतति बतलाते हैं। उस समय अवकाश के अभाव में आप उनसे नहीं मिल सके। अवकाश मिलने पर एक दिन जाकर आपने उनके दर्शन किए। कुछ वार्ता के उपरान्त आपने उनसे कुछ प्रश्न पूछने की आज्ञा माँगी। उनकी स्वीकृति पाकर आपने प्रश्न किया ‘श्री मद्भागवत पुराण में वर्णित नवधा भक्ति तथा गोस्वामी तुलसीदासजी के रामचरितमानस (रामायण) में वर्णित नवधा भक्ति, दोनों एक ही है या दोनों में कुछ अन्तर है ?’
उन्होंने कहा- ‘कुछ अन्तर है।’ आपने कहा- ‘उस अन्तर को मैं जानना चाहता हूँ।’
उन्होंने इसपर उत्तर दिया- ‘गोस्वामीजी की नवधा भक्ति विशेष आध्यात्मिक है।’ पुनः आपने प्रश्न किया- ‘द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, त्रैत आदि वेदान्त के सिद्धान्तों में गोस्वामीजी का कौन-सा सिद्धान्त है ?’ उन्होंने उत्तर दिया- ‘गोस्वामीजी का सिद्धान्त विशिष्टाद्वैती है।’
तब फिर आपने प्रश्न किया- “क्या समायण की इस चौपाई- ‘जो गुण रहित सगुण सोइ कैसे। जल हिम उपल विलग नहिं जैसे।।’ से विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त ही व्यक्त होता है ?” उन्होंने उत्तर दिया- ‘हाँ ।’
आपने पूछा- ‘इस चौपाई के अर्थ से ब्रह्मतत्त्व के अतिरिक्त और दूसरा विशेष कौन-सा तत्त्व व्यक्त होता है ? उन्होंने उत्तर दिया- ‘इससे दूसरा जो हिम है, वही दूसरा पदार्थ विशेष व्यक्त होता है।’
फिर आपने पूछा- ‘हिम को पाँच तत्त्वों में से किस तत्त्व में रखेंगे ?’ इस प्रश्न को सुनते ही रामायण के ज्ञाताजी उत्तेजित हो उठे और उन्होंने आपको उत्तर दिया- ‘इससे क्या ?’
आपने नम्र वाणी में कहा- ‘नहीं महाराज! और कुछ नहीं।’ और उस प्रसंग को यहीं छोड़ दिया । एक बार आप भागलपुर के एक प्रेस में गुरु-कीर्तन मुद्रित कराने गए थे। आपने अपना निवास मायागंज मुहल्ले के पुराने सत्संगी श्री खूबलाल दास के घर पर रखा था। एक दिन आप प्रेस के मुद्रण-व्यय का हिसाब करने शीघ्रता से वहाँ जा रहे थे। खंजरपुर मुहल्ले में सड़क के किनारे पंडित भूतनाथजी एक दूकान पर बैठे आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे। आप शीघ्रता में उस दूकान से आगे बढ़ गए, तब भूतनाथजी ने एक आदमी से आपको पुकारने के लिए कहा। आदेशानुसार वह व्यक्ति आपको ‘ऐ साधु बाबा ! ऐ साधु बाबा !! कहकर पुकारने लगा। आपने यह पुकार सुनकर शीघ्रता में सोच लिया कि किसी दूसरे साधु को ही पुकार रहे होंगे। अतः आप उसी गति से आगे बढ़ते गए। अन्त में उस व्यक्ति ने आपको लौटते नहीं देख आपका नाम लेकर पुकारा। सुनते ही आप लौटकर वहाँ आ गए और देखा कि एक वयोवृद्ध भद्र सज्जन आपके लिए सड़क पर खड़े हैं। आप उन सज्जन को शरीर से नहीं पहचानते थे, पर आपने सुना था कि वे मन की बातें बतला देते हैं और विद्यार्थी लोग परीक्षा के उपरान्त परीक्षाफल जानने के लिए उनके पास जाकर निवेदन किया करते हैं ।
उन्होंने आते ही आपसे पूछा- ‘आप हमसे नाराज हो गए ?’
आप बोले- ‘नहीं, नाराज होने का कोई कारण भी तो नहीं है। मेरे ख्याल में आया कि किसी दूसरे साधु को पुकार रहे हैं, इसीलिए मैं कार्य की शीघ्रता का विचार कर तीव्रता से जा रहा था। मुझे प्रेस का हिसाब चुकती देकर छपी पुस्तक लेकर वापस आना था ।’ वे बोले- ‘मैंने आपका नाम लेकर पुकारने के लिए कहा, इसीलिए शायद आप नाराज हो गए !’
आपने कहा- ‘पहले तो नाम लेकर पुकारा भी नहीं गया था और यदि नाम लेकर नहीं पुकारा जाता, तो दूसरे साधु के पुकारने का ख्याल लेकर मैं चला ही जाता। नाम लेकर पुकारने से ही तो मैं आया। इसमें नाराज होने की क्या बात है?’
इस भाँति कुछ देर ‘आप नाराज हो गए’ और ‘नहीं हुआ’ यही बातें होती रहीं।
फिर वे बोले- ‘अभी तो आप जल्दी में है, आपके पास समय नहीं है, इसीलिए जाइए। फिर कभी मिलेंगे।’ आपने उत्तर दिया- हाँ, काम तो वैसा ही है ।
इतना कहकर परस्पर नमस्कारादि कर आप प्रेस चले आए। पीछे आपको पता लग गया कि भागलपुर के प्रसिद्ध भूतनाथजी उन्हीं का नाम था। ऐसा जानकर आपने सोचा कि प्रेस का कार्य पूरा करके तब अवकाश रहेगा, तो लौटती बार उनके फिर दर्शन करूँगा।
प्रेस का कार्य समाप्त होते-होते सात बजे संध्या हो गयी और पं॰ भूतनाथजी के निवास का भी आपको पता नहीं था। संयोग से स्थानीय सत्संगी श्री सन्तकुमार दासजी मिल गए। वे भूतनाथजी के निवास से भली भाँति परिचित थे। अत: उनको साथ लेकर आप पंडित भूतनाथ के यहाँ जा पहुंचे। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक आपका सत्कार किया और बैठने का आग्रह किया। वार्तालाप में उन्होंने श्री मद्भगवद्गीता की बड़ी प्रशंसा की और बोले- ऐसी कोई आध्यात्मिक बात नहीं, जो भगवद्गीता में न हो।’ आप बोले- “महाराज! आपको भगवद्गीता में कहीं ‘नादानुसन्धान’ के विषय में कुछ मिला है या नहीं; क्योंकि सन्तों ने इसकी बड़ी तारीफ की है।”
कुछ देर तक ख्याल कर वे बोले- ‘हाँ, है तो जरूर, परन्तु अभी वह श्लोक याद नहीं आ रहा है।’ पुनः आपने पूछा- ‘क्या प्रेम सीखने के लिए कोई विद्यालय है?’ उन्होंने कहा- ‘नहीं है।’
यह सुनकर आपने मन में सोचा- “हाँ विद्यालय तो नहीं है, परन्तु ‘सत्संग’ इसके लिए विद्यालय ही है।” आपके इतना सोचने पर उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया, अतः आपके ख्याल में आया कि मन की बात यदि वे जानते होते, तो इसका उत्तर कुछ अवश्य ही देते। ऐसा विचार आने के उपरान्त आपका श्रवण-जन्य विश्वास मन से दूर हो गया। पुनः थोड़ी-सी वार्ता के बाद आप अपने निवास-स्थान पर चले आए। 

37.

मित्रद्वय का चिर-वियोग

आपकी यह तीव्र अभिलाषा है कि मानव मात्र को यह अवगत हो जाय कि परमात्मा पंच ज्ञानेन्द्रियों एवं चारों अन्तरिन्द्रियों के ज्ञान से परे हैं । इन इन्द्रियों के द्वारा चाहे जितने भी सूक्ष्म और दिव्य नाम-रूपों के ज्ञान क्यों न हो जायँ, पर वे सब माया-मंडल या प्रकृति-मंडलगत वस्तुएँ ही हैं । परमात्मा सदा उनसे परे हैं । उन्हें जीवात्मा तभी पा सकता है, जब वह इन सारे नाम-रूपों से अपने को अलग कर अकेला आप-ही-आप रह जाय । ऐसा हो जाने के लिए सद्गुरु की युक्ति द्वारा सदाचार-पालनपूर्वक अभ्यास करना ही एकमात्र उपाय है।
वेद, उपनिषद्, गीता, सन्तवाणियों आदि के अध्ययन, मनन एवं निदिध्यासन से आपको यही सत्य मिला है, जिसे आप मानव-जाति को उसके कल्याणार्थ अकारण करुणावश प्रदान करते रहते हैं। बचपन से ही आपकी वृत्ति इसके अन्वेषण में आकुल और तत्पर थी। स्वर्गीय श्री रामदासजी (परमहंस ध्यानानन्द) तथा स्वर्गीय श्री धीरजलाल गुप्तजी ने आपको सन्तमत से परिचय कराया। एक बार तीन महीनों तक रात-रात भर जगकर वे आपको सन्तमत की बारीकियाँ बताते रहे थे। सत्यान्वेषण के पथ पर उनके हार्दिक सहयोग को महर्षि मेँहीँ क्या कभी भूल सकते हैं?
सन् १९२७ ईस्वी के २७ एवं २८ दिसम्बर के कमलाकुण्ड वार्षिक सत्संगाधिवेशन में तथा वैकटपुर दियारे में सत्संग-भ्रमण-मंडली के साथ ३० एवं ३१ दिसम्बर के सत्संग में प्रवचन करते हुए आपको उन मित्रद्वय की याद बारम्बार आ जाती थी। प्रवचन-क्रम में वाणी की धारा अवरुद्ध हो जाती और आपकी आँखों में अश्रु मँडराने लगते उन मित्रद्वय के देहावसान से जो अभाव और विछोह की करुण-विकल लहरियाँ उठतीं, वे सत्संग-प्रेमियों के भावुक हृदय को भी प्रकम्पित कर देती थीं।
कमलाकुण्ड का सत्संगाधिवेशन एक गरीब सत्संगी श्री चतुरी दासजी के श्रद्धा-बल का परिणाम था। इनकी श्रद्धा, भक्ति और प्रेम के कारण ही स्थानीय सभी गाँवों के सत्संगियों ने इसे सफल बनाने में सहायता और सहयोग दिया। जोतरामराय के श्री रमाकान्त चौधरी, काढ़ागोला के श्री कालीचरण साह तथा मुंगेर जिले के श्री टीकमलाल साहब ने पाँच दिन प्रथम ही आकर इसमें पूर्ण सहयोग दिया।
इस अधिवेशन में मंडप, पंडाल, भोजन, आवास, बाजार आदि सभी की व्यवस्था बड़ी सुन्दर हुई। इसमें मुरादाबाद से बाबा नन्दन साहब एवं बाबू मोहनलालजी, लखनऊ से श्री गंगाचरणजी बी॰ ए॰ (जो १९५० में ईस्वी आईस्वी रेलवे के डी॰टी॰एस॰ के उच्च पद पर रायबरेली में आसीन थे) तथा पंजाब से श्री किशोरीलालजी साहब भी पधारे थे। अधिवेशन में भेदी सत्संगी ५०६ तथा अनभेदी ३०८ आए थे तथा श्रोताओं की संख्या लगभग तीन हजार की थी।
आपके आदेशानुसार मोरपंडा के श्री हरंगी दासजी घंटी बजा-बजाकर तीन बजे ब्रह्ममुहूर्त में सभी सत्संगियों को जगा दिया करते थे, जिससे सभी शौचादि से निवृत्त हो कम-से-कम डेढ़ घंटे ब्रह्ममुहूर्त में ध्यानाभ्यास कर सके। फिर प्रातःकालीन सत्संग साढ़े पाँच से प्रारम्भ होकर साढ़े आठ बजे समाप्त हो जाता था।
२७ दिसम्बर को नियमानुसार प्रात: सत्संग समाप्त हुआ। दोपहर के सत्संग में भजन, कीर्तन एवं ग्रन्थ-पाठ के बाद बाबा नन्दन साहब का प्रवचन हुआ । आज के सत्संग में पचीस-तीस की संख्या में रामानन्दी वैष्णव सम्प्रदाय के यादव-कुल के सज्जन पधारे थे। उनलोगों ने अपने दल के प्रधान श्री शीतल दासजी के भाषण के लिए दो घंटे का समय मांगा। विचारपूर्वक उन्हें एक घंटा समय दिया गया। शीतल दासजी के भाषण का सारांश यही था- ‘ईश्वर केवल सगुण हैं, मूर्ति-पूजा करने, ब्राह्मण साधुओं को भोजन कराने, तीर्थ-यात्रा एवं व्रतादि करने से ही मनुष्यों को मोक्ष मिलता है, उनका नाम जपना, भजन-कीर्तन करना ही सार वस्तु है, ‘आदि-आदि ।’
आधे घंटे भाषण करने के बाद शीतल दास बारंबार कही हुई बातों की ही आवृत्ति करने लगे। ऐसा करते देख सैदपुर के एक वृद्ध बुद्धिमान् भूमिहार ब्राह्मण ने उन्हें बैठ जाने के लिए कहा और शीतल दासजी बैठ गए।
तदुपरान्त विषयानुकूल एक आध्यात्मिक संगीत गाया गया। गान समाप्त होने पर आपने ‘ईश्वर-भक्ति’ पर अपना प्रवचन प्रारम्भ किया। आप गोस्वामी तुलसीदासजी के रामचरितमानस में ‘अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेमबस सगुन सो होई।।’ ऐसे अनेक पद्यों को संगीत की लहरियों में उपस्थित कर, उसी के आधार पर भगवान के निर्गुण, सनातन रूप का वर्णन कर उनके सगुण रूप धारण करने वाले कारणों एवं कथाओं को कहने लगे। इसी अनुक्रम में जलन्धर की कथा भी कही गयी। इस कथा में विष्णु भगवान के आचरण का वर्णन सुनने के भय से वैष्णव सम्प्रदायवाले सभा से बाहर निकल गए। आपका प्रवचन अविरल गति से चलता रहा। आपने श्रोताओं के मन और बुद्धि पर भली भाँति यह बैठा दिया- ‘परमात्मा का मूल स्वरूप निर्गुण ही है। कोई कारण उपस्थित होने पर वे माया से सगुण रूप धारण करते हैं । सगुण रूप मायामय होने के कारण सदा बने नहीं रहते हैं; किन्तु निर्गुण रूप अपरिवर्तनशील और सनातन है। भगवान की भक्ति का प्रारम्भ उनके सगुण रूप से ही होता है। सगुण रूप के धारण करने की योग्यता हो जाने पर भक्त को अन्तर्मार्गी बनकर अन्तर-पथ में प्रवेश कर अन्तर की अन्तिम पराकाष्ठा तक पहुँचना चाहिए, तभी भक्ति पूरी होती है और सनातन निर्गुण स्वरूपी परमात्मा की प्राप्ति होती है। निर्गुण स्वरूप स्वाभाविक और प्रथम का है। सगुण रूप बाद का और माया ही है। मायिक रूप से भक्ति प्रारम्भ कर उनके निर्मायिक स्वरूप उपलब्ध करने पर ही भक्ति पूरी होती है। बाहरी पूजा मायिक रूप की ही होती है। निर्मायिक रूप पाने के लिए अन्तर-मार्गी बनकर उसके अन्त तक पहुँचना होता है। यही पूर्ण भक्ति है।’ इसी भाँति विभिन्न शब्दावलियों में ईश्वर के सगुण-निर्गुण स्वरूप एवं भक्ति की पूर्णता भली भाँति प्रतिपादित की गयी।
पंथाई भाव के कारण वैष्णव सम्प्रदायवालों ने महर्षि के महत्त्वपूर्ण कथन की ओर ध्यान नहीं दिया। केवल अपने मत की जीत ही उनका लक्ष्य था, अतः प्रवचन के बाद जब भजन-कीर्तन हो रहा था, उसी समय वे लोग आए और क्रोधित हो कहने लगे-आपने तो हमलोगों से पहले ही भाषण दिलवाकर हमारा गला काट लिया। कीर्तन बन्द कर हमसे शास्त्रार्थ कीजिए।’
आपने नम्रता के स्वर में कहा- ‘कीर्तन समाप्त होने पर आप हमसे वार्ता करें ।’ उनके नहीं मानने पर आपने उनके पैर पकड़ लिए और उनसे कुछ देर ठहर जाने की प्रार्थना की; पर उनकी धधकती क्रोधाग्नि में उनका मानवोचित विवेक मानो जलकर भस्म हो गया था। गाँव के कुछ धनी-मानी यादव भाइयों ने उन्हीं लोगों का पक्ष लिया। आपने शान्ति के लिए कीर्तन बन्द कर दिया और कहा-- ‘आइए, मेरे पास बैठिए। आपको जो पूछने की इच्छा हो, पूछिए।’ पूर्व व्याख्यानदाता शीतलदासजी आपके समीप आकर बैठ गए और आपसे पूछा- ‘आपने जलन्धर की कथा क्यों सुनाई ?’
आपने उत्तर दिया- ‘मैं भगवान के अवतारों का कारण तुलसीकृत रामायण में लिखे अनुसार ही बतला रहा था, उसी में एक अवतार का कारण जलन्धर से संबंधित है, इसीलिए उसे भी कहा ।’
उत्तर सुनकर शीतल दासजी चुप हो बैठ गए। उन्हें चुप देखकर दूसरे ने प्रश्न किया- ‘आपने यह क्यों कहा कि वेद को नहीं जाननेवाले लोग केवल भेड़ियाधसान की रीति से ही उसे मानते हैं और नहीं जानने पर भी लोक-निन्दा के भय से कहते हैं कि हम वेद को मानते हैं ?’
आपने उत्तर दिया जो सत्य है, उसे ही तो मैंने कहा है। अच्छा, आप ही कहिए- क्या आपने वेद पढ़ा है?’
उक्त वैष्णव ने कहा- नहीं।’
फिर आपने पूछा- ‘तो आप वेद को बिना जाने ही मानते हैं न?’ वैष्णव ने कहा- ‘हाँ।’ आपने फिर पूछा- ‘आप क्यों वेद को मानते हैं ?’
वैष्णव ने कहा- ‘सभी हिन्दू वेदों को मानते हैं, इसीलिए हम भी मानते हैं।’ इसपर आपने कहा- ‘यदि आप कहें कि मैंने वेद नहीं पढ़ा है और पढ़कर बिना जाने ही हम वेद को मानते हैं, तो यह कैसे कहा जाएगा कि आप वेद को मानते हैं अथवा नहीं मानते हैं? आपका ऐसा कथन सुनकर क्या आपको वेद-विमुख कहकर साधारण हिन्दू लोग नहीं हँसेंगे ?’
वैष्णव ने कहा- ‘हाँ, हँसेंगे।’ इसपर आपने कहा- ‘तो आप समझ जाइए कि मैंने जो कहा है, वह ठीक ही कहा
यह सुनकर सभी वैष्णवगण चुपचाप हो रहे। पुनः विधिवत् भजन एवं कीर्तन होकर सत्संग समाप्त हो गया।
यहाँ का सत्संग समाप्त कर भ्रमणमंडली का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। बँगला और हिन्दी दोनों कीर्तन-मंडलियों सहित सत्संग-भ्रमण-मंडली में कुल चालीस व्यक्ति थे। गंगाजी के कटाव के कारण दुधैला गाँव छोड़कर वैकटपुर दियारे में बस जानेवाले सत्संगी श्री टेका दास तथा श्री दरबारी दास के श्रद्धाभरे आह्वान पर सत्संग-भ्रमण-मंडली गंगा को पार कर वैकटपुर दियारे पहुँच गयी। वैकटपुर की उत्तर तरफ गंगा प्रवहमान और दक्षिण की ओर एक छाड़न है। इसी के मध्य करीब दो कोस के विस्तार में यह गाँव बसा हुआ है।
इस गाँव के उत्तर में ही दुधैला नामक गाँव है। वहाँ के सत्संगी श्री तेतर दासजी ने भागलपुर के महेन्द्रबाबू को १९११ ईस्वी में बुलाकर एक बार सत्संग कराया था। इसमें गाँव के सत्संगविरोधी लोगों ने बड़ा उपद्रव किया था, जिस कारण उनलोगों पर सत्संगियों की ओर से फौजदारी मुकदमा किया गया था। उसमें सरकार ने उपद्रवी लोगों से तीन-तीन वर्ष का मुचलका लेकर उन्हें रिहा किया था। इस घटना को लेकर विरोधी लोगों ने प्रचार कर रखा था कि सन्तमत बहुत ही बुरा मत है । दुधैला गाँव के कट जाने पर वे लोग ही वैकटपुर दियारे में आकर बसे हुए थे और सत्संग के प्रति पूर्व का दुर्भाव उनलोगों के हृदय में विराजमान था। वहाँ के सत्संगी श्री टेका दास एवं दरबारी दासजी की तीव्र इच्छा थी कि संतमत-सत्संग के सर्वकल्याणकारी स्वरूप का लोगों को परिचय मिले और इसका यहाँ भी प्रचार-प्रसार हो। इसी अभिलाषा की पूर्ति के हेतु उन दोनों ने मंडली को अपने यहाँ बुलाया था। यहाँ ब्राह्मण, भूमिहार एवं गंगोत्री जाति के लोगों की अधिकता है। पूर्वोक्त अपप्रचार के कारण ये लोग सत्संग के विरोधी ही बने हुए थे। इसीलिए मंडली से गंगापार होते समय उनलोगों ने दुगुना खेवा तहसील लिया था। अवशिष्ट दुधैला गाँव में भी लोग अधिक संख्या में हैं और उनलोगों का भी ऐसा ही विचार था।
वार्षिक अधिवेशन के कार्यक्रम के अनुसार ही यहाँ भी सत्संग का क्रम रखा गया था। विरोधी लोग भी दुधैला से तथा दियारे से काफी संख्या में सत्संग सुनने के लिए आए हुए थे। लगभग छह सौ की उपस्थिति थी। सत्संग में पूरी शान्ति छायी रही। आपके प्रवचन से जनता का भ्रम नष्ट हो गया और सभी इस ओर आकृष्ट हो गए। सत्संग के प्रवचनों को सुनकर प्रभावित हुए एक पंडितजी ने जनता की ओर से भाषण दिया। उन्होंने कहा- कहनेयोग्य तो सारी बातें इन महात्माओं ने कह ही दी हैं। उन विषयों में मुझे कुछ नहीं कहना है। हमलोगों को यह पता ही नहीं था कि सत्संग में भगवान और उनकी भक्ति के संबंध में अनुभव की हुई सुनिश्चित बातों की चर्चा होती है। हमलोगों को पहले से ही यह पता रहता कि इसमें भक्ति और ज्ञान के श्रेष्ठतम उपदेश किए जाते हैं, तो १९११ ईस्वी की दुर्घटना ही नहीं हुई होती। हमलोगों को इस सत्संग से बड़ी प्रसन्नता हुई है। हमलोग उनलोगों को हृदय से अनेक धन्यवाद देते हैं, जिन लोगों ने सत्संग-मंडली को यहाँ बुलवाकर हमलोगों को सत्संग सुनने का पवित्र अवसर दिया है।’ ऐसी ही और बातें कहकर पंडितजी बैठ गए।
सत्संगी टेका दास तथा दरबारी दास ने श्रोताओं के लिए भी यथाशक्ति सुन्दर व्यवस्था कर रखी थी और वे सदा उनकी सेवा में लगे रहते थे। मंडली के भोजन एवं निवास का भी उन्होंने अच्छा इन्तजाम किया था। जाने-आने दोनों ओर के मार्ग-व्यय उन्होंने दिए थे तथा महर्षिजी और बाबा नन्दन साहब को द्रव्य एवं वस्त्र के रूप में अपनी श्रद्धा की भेंट चढ़ा वे कृतकृत्य हुए थे। निस्सन्देह, सत्संग के इस सम्मिलन में सुख और आनन्द, मूर्त होकर हँस रहे थे। 

38.

ध्यानाभ्यासी मण्डली

बिहार प्रान्तीय सन्तमत-सत्संग का बीसवाँ वार्षिक अधिवेशन हरचन्दपुर गेहुमा (पूर्णियाँ) में ता॰ २७ एवं २८ दिसम्बर, १९२८ ईस्वी को सम्पन्न हुआ। इसमें ४५१ भेदी तथा ३११ अनभेदी सत्संगी एवं लगभग तीन हजार श्रोता प्रतिदिन सम्मिलित होते रहे। जलालगढ़ के निकट पन्द्रह गाँव के सत्संगियों के दान से इसकी व्यवस्था की गई थी। एक निर्धन सत्संगी, जिनका नाम कंचन दास था, रुग्ण अवस्था में थे। घर में खाने का भी पूरा प्रबन्ध नहीं हो पाता था। इन्होंने अधिवेशन के लिए पैंचा-उधार कर पाँच रुपये का दान दिया था। इन्होंने कबीर साहब की इस वाणी को मानो चरितार्थ कर दिया–’टोटे में भक्ति करे, ताका नाम सपूत।।’ भगवद्भक्ति के प्रचार के लिए ऐसा उत्सर्ग और महत्त्वपूर्ण दान एक श्रेष्ठ आदर्श है। इसका अनुसरण करनेवालों की संख्या अधिक नहीं है। कंचन दासजी का घर लहनारामपुर (पूर्णियाँ) में है।
अधिवेशन को सफल एवं पूर्ण बनाने के लिए महर्षिजी पन्द्रह दिन पूर्व से ही उस गाँव में उपस्थित रहकर कार्यों की देखभाल कर रहे थे।
अधिवेशन में मुरादाबाद से बाबा नन्दन साहब एवं मोहनलालजी लखनऊ से साधु शीतल दासजी साहब तथा सहारनपुर से स्वामी सहजानन्दजी पधारे थे। सत्संग में नन्दन साहब ने ‘सुरत-शब्द-योग और अन्तर-मार्ग’ पर भाषण दिया । रात्रि के सत्संग में एक मारवाड़ी पंडित रायसाहब रामशरण दूबे जी, बी॰ए॰ ने “सदाचार और अहिंसा” पर तर्कपूर्ण सम्भाषण किया। मसुरिया (पूर्णियाँ)-निवासी श्री रघुनन्दन झाजी ने दूसरे दिन के सत्संग में ‘अहिंसा’ पर तथा महर्षिजी ने ‘ईश्वर-भक्ति’ पर प्रवचन दिया ।
२८ को अधिवेशन समाप्त कर पुनः सत्संग-प्रचार-मंडली भटगामा (भागलपुर) सत्संग करने के लिए पहुँच गयी। यहाँ ३० एवं ३१ दिसम्बर को सत्संग हुआ। पुराने सत्संगी श्री चेथरू दासजी के अनुरोध पर तथा उनके व्यवस्थापन में सफलतापूर्वक यहाँ का सत्संग समाप्त हुआ। यहाँ से मंडली आठ-दस सत्संगियों के अनुरोध से बगहा (मुंगेर) आयी। सत्संग के लिए यहाँ उत्तम प्रबन्ध किया गया था। लगभग तीन सौ श्रोतागण यहाँ सत्संग-श्रवण में प्रतिदिन आते रहे। मंडली छब्बीस की संख्या में थी। यहाँ ईश्वर-भक्ति, योग, मोक्ष, धर्म एवं सदाचार पर प्रवचन दिए गए।
‘पर उपदेस कुसल बहुतेरे।
जे आचरहिं ते नर न घनेरे।।’

आपके मन में संकल्प उठा–’उपदेशक और जो सन्तमत-सत्संग के गूढ़ प्रेमी हैं, वे यदि सामूहिक रूप में नित्य युक्ताहार-विहारपूर्वक कम-से-कम एक महीने तक एक स्थान पर निवास कर गंभीर ध्यानाभ्यास और सत्संग करें, तो उनलोगों के आत्मिक कल्याण के साथ सन्तमत-सत्संग के प्रचार की संभावना भी विस्तृत हो जाएगी।’
आपने बीसवें अधिवेशन में ही अपना यह विचार बाबा नन्दन साहब के समक्ष रखा था। उनकी स्वीकृति मिल जाने पर आपने उसी अधिवेशन में इस विचार को विज्ञापन द्वारा प्रचारित कर दिया था। ध्यानाभ्यास के लिए धरहरा सत्संग-मंदिर को ही उपयुक्त माना गया तथा इस व्यवस्था में होनेवाले सभी खर्चों का उत्तरदायित्व आपने ग्रहण कर लिया था। अतः बगहा में सत्संग समाप्त कर आपलोग ७ जनवरी, १९२९ ईस्वी को धरहरा पहुँच गए। ध्यानाभ्यासी मंडली को ८ जनवरी तक धरहरा पहुँच जाने का निर्देश था।
इस मंडली में सम्मिलित होने के अभिलाषी समय पर पहुँच गए। बाबा नन्दन साहब, परिव्राजकाचार्य स्वामी सहजानन्द एवं साधु शीतल सहाय भी इसमें सम्मिलित हुए।
इन उपासकों की कुल संख्या चालीस थी। श्री मोहनलालजी तीन-चार दिनों के बाद मुरादाबाद चले गए। बाहर के अनेकों सत्संगी यहाँ आते और दो-एक दिन निवास कर चले जाते। यह क्रम जारी रहा। बीच-बीच में एक-एक समय का भोजन धरहरा के सत्संगी श्री जैलाल साह तथा श्री गिरिवर भगतजी ने भी दिया। खर्च का सम्पूर्ण भार तो आप वहन कर ही रहे थे, फिर भी कुछ सत्संगी आलू-गोभी-साग-सब्जी पहुँचा दिया करते थे। रसोई का सारा भार श्री युत वासुदेव झाजी सत्संगी ने उठा लिया था और उसे अन्त तक निबाहा भी। इस भाँति मासिक ध्यानाभ्यास का यह गूढ कार्यक्रम चलने लगा।
ध्यानाभ्यासियों का दैनिक कार्यक्रम विज्ञापन में ही छपवा दिया गया था। उसी के अनुसार सभी बरत रहे थे। कार्यक्रम का निम्नलिखित स्वरूप था—
१. तीन बजे ब्रह्ममुहूर्त में अनिवार्य रूप से जग जाना।
२. तीन बजे से पौने चार बजे तक शौचादि क्रिया से निवृत्त होना।
३. पौने चार बजे से साढे पाँच बजे तक उष:कालीन ध्यानाभ्यास ।
४. साढे पाँच से साढ़े छह बजे तक प्रात:कालीन सत्संग ।
५. साढ़े छह बजे से पौने आठ बजे तक प्रात:कालीन ध्यानाभ्यास ।
६. पौने आठ बजे से एक बजे तक स्नान, ध्यान , रसोई, भोजन एवं विश्राम।
७. एक बजे से दो बजे तक मध्याह्नकालीन ध्यानाभ्यास।
८. दो बजे से साढ़े तीन बजे तक अपराह्नकालीन सत्संग।
९. साढ़े तीन बजे से साढ़े चार बजे तक अपराह्नकालीन ध्यानाभ्यास।
१०. साढ़े चार बजे से साढ़े पाँच बजे शाम तक शौचादि क्रिया।
११. साढे पाँच बजे से साढे छह बजे तक संध्याकालीन ध्यानाभ्यास ।
१२. साढ़े छह बजे से आठ बजे रात तक रसोई तथा भोजन ।
१३. आठ बजे से दस बजे रात तक रात्रिकालीन सत्संग।
१४. दस बजे रात से तीन बजे भोर तक शयन ।

ध्यानाभ्यास में चालीस उपासकों ने भाग लिया। बाहर से देखकर कोई क्या निर्णय करे कि इस दिव्य यात्रा में किसने कितना पथ तय किया और किसको क्या उपलब्ध हुआ?
पर इतना तो अवश्य हुआ कि एक मास बीत जाने पर सबने अत्यन्त आनन्द का अनुभव किया। इस आध्यात्मिक महायज्ञ की पूर्णाहुति में सद्गुरु बाबा देवी साहब के नाम पर गरीबों को अन्न-वस्त्र दिए गए | तथा ३०॰ के लगभग सत्संगी जनों को भोजन कराया गया। बाबा नन्दन साहब, परिव्राजकाचार्य स्वामी सहजानन्द एवं साधु शीतल दासजी को आवश्यक वस्त्र, द्रव्य एवं मेवादि से सत्कार किया गया तथा अपने-अपने स्थान तक पहुँचने के लिए उन्हें आवश्यक मार्ग-व्यय भी दिए गए।
०८.०२.१९२९ को ध्यानाभ्यासी मंडली भ्रमण-मंडली का रूप धारण कर भटगामा (पूर्णियाँ) पहुँच गयी। वहाँ ६ फरवरी से १० फरवरी तक दो दिन सत्संग कर पुनः घरबन्धा आयी और यहाँ ११ से १३ फरवरी तक विधिवत् सत्संग करती रही। तत्पश्चात् १४ एवं १५ फरवरी को बेतौना में सत्संग की पवित्रता प्रसारित की गयी। बेतौना से बाबा नन्दन साहब, स्वामी सहजानन्द एवं साधु शीतल दासजी अपने-अपने स्थान पर चले गए और मंडली का भ्रमण भी स्थगित हो गया।
बिहार प्रान्तीय सन्तमत-सत्संग का इक्कीसवाँ अधिवेशन ता॰ ३० एवं ३१ दिसम्बर, सन् १९२९ ईस्वी में कुसापुर (भागलपुर) में सम्पन्न हुआ। इसमें ४६० भेदी एवं ३५७ अनभेदी सत्संगी पधारे थे। श्रोतागणों की उपस्थिति लगभग दो हजार की थी। इस अधिवेशन का सारा प्रबन्ध साधु बंसी दासजी तथा स्थानीय सत्संगी श्री बाबू श्री धर मंडल आदि ने किया था। जोतरामराय निवासी श्री रमाकान्त चौधरी एवं नवाबगंज निवासी श्री जितेन्द्रनाथ मालाकारजी ने कुछ प्रथम ही कुसापुर पधारकर मंडप को कलात्मक ढंग से सजाया-सँवारा था।
अधिवेशन में मुरादाबाद से बाबा नन्दन साहब एवं बाबू मोहनलालजी तथा स्यालकोट से रायसाहब पंडित किशोरीलालजी पधारे थे। दोनों दिनों के सत्संग में बाबा नन्दन साहब, रायसाहब पंडित किशोरीलालजी, पंजवारा निवासी श्री सूर्यनारायण मिश्रजी तथा आपके भाषण ‘सत्संग एवं ईश्वर भक्ति’ आदि विषयों पर हुए।
इस अधिवेशन में राय साहब किशोरीलाल ने प्रस्ताव रखा कि संतमत-सत्संगाधिवेशन जो दो दिनों तक होता आ रहा है, उसकी अवधि तीन दिनों तक के लिए कर दी जाय। उनके इस प्रस्ताव को सर्वसम्मति से स्वीकृति मिली। 

39.

रामचरितमानस-सार सटीक तथा भारतव्यापी प्रचार

अधिवेशन, भ्रमण-मंडली आदि कार्यक्रमों से संतमत-सत्संग का प्रचार तो हो रहा था, पर इसमें गति की क्षिप्रता नहीं थी। यही सोचकर महर्षि मेंही ने अध्यात्म-संबंधी सच्चे ज्ञान से वंचित मानव के लिए साहित्य का सृजन करना आवश्यक समझा। कार्यों में व्यस्त रहते हुए भी आपने अवकाश निकाल-निकालकर साहित्य-प्रणयन किया। साहित्य के माध्यम से विचार, भाव और ज्ञान उतने स्थानिक विस्तार में व्याप्त और प्रसार हो सकते हैं, जितने शरीर के सम्पूर्ण जीवन को उपयोग में लाने पर भी कभी संभव नहीं है और समय की दूरता का तो हिसाब लगाना भी कठिन है । वेद न जाने प्रागैतिहासिक काल के किस पवित्र समय में वैखरी वाणी के रूप में अभिव्यक्त हुआ था, वह भी साहित्य का रूप धारण करके ही आज तक रूपायमान है। रामायण, महाभारत आदि के उपदेश. साहित्य के द्वारा चिर-जीवन लाभ करने के प्रमाण-रूप में उपस्थित हैं।
आपने भी अपने विचार को भारत में पूजित, सम्मानित एवं अति प्रसारित गोस्वामी तुलसीदासजी के रामचरितमानस के माध्यम से साहित्य-जगत में उपस्थित करने का मौन संकल्प किया और अपने अध्ययन, मनन एवं निदिध्यासन के प्रकाश में आपने जो कुछ देखा, उसे रामचरितमानस के उपदेशात्मक, साधनात्मक एवं अनुभव-प्रकाशक पद्यों को चुनकर उनकी टीका और व्याख्या के द्वारा अभिव्यक्त किया। उसका नाम रखा- ‘रामचरितमानस-सार सटीक ।’ इस साहित्य का प्रथम प्रकाशन १९३० ईस्वी के २९ अगस्त को हुआ। कुल एक सहस्र प्रतियाँ ही छपवायी गयी थी। रामचरितमानस या रामायण पढ़नेवाली जनता की व्यापक धारणा थी कि गोस्वामी तुलसीदासजी सगुण साकार भगवान की ही भक्ति करते थे और उसे ही सर्वोपरि समझते थे।
आपने उन्हीं के लिखे पद्यों का बुद्धिसंगत, तर्कपूर्ण तथा सही अर्थ और व्याख्या कर बतला दिया कि स्वयं तुलसीदासजी भगवान के सगुण रूप को माया और उनके निर्गुण निराकार रूप को ही उनका स्वाभाविक, सनातन एवं सच्चा स्वरूप मानते थे। आपने यह भी बतलाया कि केवल बाहरी भक्ति परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिए कभी पर्याप्त नहीं है, चाहे वह मनु-शतरूपा जैसी कठिन-कठोर तपस्या ही क्यों न हो। गोस्वामी तुलसीदासजी की नवधा भक्ति में अन्तर्निहित तथ्यों को खोलकर आपने खुलासा कर दिया कि बिना अन्तर-पथ का अनुगमन किए भक्ति की पूर्णता कभी नहीं हो सकती।
‘रामचरितमानस-सार सटीक’ प्रकाशित हो गया। यह देखने-सुनने में तो अति साधारण-सा ही लगता है, पर इससे घाव इतना गंभीर होता है कि अध्यात्म-जिज्ञासुओं और मानस के पाठकों के लिए यह ‘नावक का तीर’ ही सिद्ध हुआ। इससे साहित्य-जगत में भीषण हलचल मच गयी । महर्षिजी ने भारत के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध नगरों एवं स्थानों में सन्तमत-सत्संग के प्रचारार्थ व्यक्तियों का चयन कर उनका मंडली में सम्मिलित होने के लिए आह्वान किया । आह्वान-पत्र में यह स्पष्ट लिख दिया गया था कि अमुक तिथि को संतमत-सत्संग का प्रचार करने के लिए मुरादाबाद, कश्मीर, लाहौर, मुल्तान, सिन्ध, कराँची आदि स्थानों की यात्रा करनी है, आपलोग उक्त तिथि को ठीक समय पर धरहरा पहुँच जायें। वे सौभाग्यशाली सत्संगी थे—पूर्णियाँ जिले के काढ़ागोला-निवासी कालीचरणजी, भंगाहा के कालाचाँदजी, मोरसण्डा के गुसाईं श्री हरंगी दासजी एवं पिपरा के श्री ढोढ़ाई दासजी।
आह्वान किए गए सभी सत्संगी तो आपका अनुगमन करने के लिए ठीक समय पर पहुँच गए, पर श्री कालीचरण साहजी की गाड़ी इनके पहुँचने के पूर्व ही छूट चुकी थी।
महर्षिजी ने अनुगामियों-सहित अपनी यात्रा प्रारम्भ कर दी। प्रथम रात्रि आपने मायागंज (भागलपुर) के खूबलाल दास के घर पर भोजन एवं विश्राम किया। दूसरे दिन आप सीधे मुरादाबाद चले आए। यहाँ छह दिन बाबा नन्दन साहब के यहाँ निवास करते हुए सत्संग-भवन में नित्यप्रति सत्संग करते रहे। तबतक छूटे हुए कालीचरणजी भी मायागंज में आपकी टोह लेते हुए मुरादाबाद पहुँचकर मंडली में सम्मिलित हो गए। मुरादाबाद से श्री बाबा नन्दन साहब, बाबू मोहनलालजी एवं बाबू हरिश्चन्द्रजी भी इस पवित्र मंडली में सम्मिलित हो गए। मुरादाबाद से मंडली अमृतसर आयी। रात्रि धर्मशाला में निवास कर प्रात:काल सभी भ्रमण के लिए निकले और लक्ष्मीनारायणजी के मंदिर के दर्शन कर ‘दरबार साहब’ आये। वहाँ ‘ग्रंथ साहब’ का पाठ हो रहा था। सब आदर-सहित पाठ श्रवण कर ‘जालियाँवाला बाग’ देखने गए। अंग्रेजी शासन के काले कारनामों का परिचय उस समय भी वहाँ दीवार में अंकित गोलियों के चिह्न दे रहे थे। अमृतसर का अन्य दृश्य देखते हुए बाजार होकर पुनः सभी धर्मशाला लौट आए। उस दिन मध्याह्न के उपरांत धर्मशाला में ही सत्संग हुआ। वहाँ प्रचार कर संध्याकालीन ट्रेन से सबने लाहौर के लिए प्रस्थान कर दिया। सबेरा होने के बाद ट्रेन लाहौर पहुँची और सभी उतरकर धर्मशाला आए। वहीं आवश्यक कर्मों से निबटकर सत्संग किया ।
बाबा नन्दन साहब के भाई वहीं पर एक विद्युत के कारखाने में इन्स्पेक्टर-पद पर काम करते थे। आपलोगों की इच्छा उनके दर्शन करने की हुई। सभी वहाँ पहुँचे, परन्तु वे कार्यवश बाहर चले गए थे, अतः सभी वापस लौट आए।
दोपहर में सत्संग हो रहा था, उसी समय इन्स्पेक्टर साहब स्वयं यहाँ पहुँचकर सत्संग में सम्मिलित हो गए। सत्संग समाप्त होने पर उन्होंने बड़े ही आग्रह के स्वर में आपलोगों को अपने निवास स्थान पर सत्संग एवं भोजन करने की प्रार्थना की। उनका प्रेम देखकर आपलोगों ने इसे स्वीकार कर लिया और दूसरे दिन प्रातः वहीं जाकर सत्संग एवं भोजन कर पुनः धर्मशाला लौट आए ।
संध्या की गाड़ी से प्रस्थान कर आपलोग दूसरे दिन प्रात:काल स्यालकोट पहुँच गए ।
यहाँ के सत्संगियों को पहले ही आने की तिथि एवं समय की सूचना आपलोगों ने भेज दी थी, अत: स्टेशन पर आपलोगों का स्वागत करने के लिए सैकड़ों सत्संगी उपस्थित थे। बड़े उत्साह से सभी ने आपलोगों को एक सत्संगी डॉक्टर साहब के निवास स्थान पर ले जाकर ठहराया । यहाँ विश्राम के लिए उपयुक्त स्थान अवश्य था, पर सत्संग करने के लिए अवकाश नहीं था। स्वामीजी के आदेश से श्री कालीचरण दास एवं श्री मोहनलालजी ने एक धर्मशाला सत्संग करने के लिए पसंद की। डॉक्टर साहब ने अपना नौकर भेजकर धर्मशाला की सफाई करवाई। फिर आप सभी वहीं जाकर नित्य नियमित रूप से दोनों समय सत्संग करने लगे। धर्मप्रेमी सज्जन आपलोगों को अपने-अपने घर ले जाकर भोजन कराते थे।
यहाँ ब्रह्मसमाजवालों की भी पर्याप्त संख्या थी। वे लोग प्रेमभाव से सत्संग में आकर सम्मिलित होते थे। सत्संग से प्रभावित होकर एक दिन उनलोगों ने अपने यहाँ मंडली को बुलाकर सत्संग करवाया और बड़ी प्रसन्नता का अनुभव किया। दूसरे दिन बारह बजे की ट्रेन से प्रस्थान कर आपलोग जम्मू पहुँच गए। वहाँ श्री हरगोविन्द सिंहजी की धर्मशाला में आपलोगों ने निवास किया। उसी धर्मशाला में सिक्ख धर्मावलंबियों का एक गुरुद्वारा भी था। उस दिन वहीं पर सत्संग, भोजन एवं विश्राम किया गया। आज एकादशी थी, अत: श्री माहनलालजी तथा श्री कालीचरणजी जब आगे की यात्रा के लिए मोटर ठीक करने गये, तो वहाँ से आपके लिए फल खरीदकर लेते आए। आपने बस स्टेंड पर ही फलाहार किया और ठीक दो २ बजे वहाँ से मोटर द्वारा प्रस्थान कर दिया।
आपलोग सात बजे संध्या समय रामनगर चट्टी पहुँचे और रात्रि वहीं बितायी। यों तो आपलोग नित्य उपासना के ब्राह्म मुहूर्त में उठकर ध्यानाभ्यास करते ही थे, फिर उस दिन मोटरवाले ने भी आकर आपलोगों को सावधान किया कि आपलोग छह बजे के अंदर ही अपने नित्यकर्मो से निवृत्त हो जाइए. क्योंकि ठीक छह बजे ही यहाँ से मोटर खुल जाएगी। अत: आपलोग ठीक समय पर तैयार हो गए और वहाँ से प्रस्थान कर ग्यारह बजे दूसरी चट्टी पर पहुँच गए। वहाँ स्नान, भोजन, सत्संग एवं ध्यानाभ्यास कर ठीक दो बजे मोटर पर चढ़कर पुन: आपलोगों ने प्रस्थान किया। रास्ते में हिमगिरि का एक प्रखंड था, जिसे पार करने में आपलोगों ने मोटर से आठ परिक्रमा लगायी, फिर उस पार जाने पर संध्या तक अनन्तबाग बाजार (कश्मीर) पहुँच गए। वहाँ से आपलोग प्रात:काल कश्मीर की केसर क्यारियों की स्वर्णिम छटा का अवलोकन करते हुए संध्या-समय श्री नगर पहुँच गए। वहाँ बाबा नन्दन साहब के परिचित एक डॉक्टर साहब से मिले । उन्होंने आपलोगों को एक पथ-प्रदर्शक के द्वारा रायसाहब पंडित किशोरीलाल की कोठी पर पहुँच जाने में सहयोग दिया। वे अनुपस्थित थे, फिर भी उनकी पत्नी और सुपुत्र ने पूरी शिष्टता और श्रद्धा के साथ आपलोगों का सत्कार कर सुखद आवास एवं भोजन की व्यवस्था की। भोजन के बाद पंडित किशोरीलालजी आए और आपलोगों के अप्रत्याशित दर्शन कर हर्ष और आनन्द से फूले न समाये ।
रायसाहब की कोठी पर सरकारी ऑफिसर आनेवाले थे, अत: प्रात:काल आपलोगों को प्रकाश-पुस्तकालय में तत्कालीन आवास दिया गया । अपराह्न तक आपलोग वहाँ एक चिनार वृक्ष की छाया में ठहर श्रोताओं में अपना वचनामृत बाँटते रहे । संध्याकाल में सत्कारपूर्वक आपलोगों को कोठी में ही विश्राम करने के लिए आह्वान किया गया । आठ दिनों तक इस सौन्दर्य के देश का आपलोगों ने इस केन्द्र से सत्संगामृत द्वारा अभिसिंचन किया। आठवें दिन रायसाहब के सुपुत्र के साथ गुलमर्ग की शोभा देखने के लिए पधारे। स्वच्छता में कुंकुमी लालिमा का निखार देखते हुए संध्या की अरुणाई में लौट आए। नौवें दिन रायसाहब के अनुरोध को स्वीकार कर आपलोग वहीं रह गए। दसवें दिन आपलोगों ने रावलपिण्डी के लिए प्रस्थान किया। रास्ते में मरी गिरि पर ही एक रात निवास करना पड़ा। जल के अभाव में वह पर्वत मानों मरी हुई दशा को ही भोग रहा था। दूसरे दिन ग्यारह बजे के लगभग आपलोग रावलपिण्डी पहुँच गए। यहाँ स्नान-भोजन से निवृत्त होकर उपयुक्त समय पर सत्संग किया। उसी अवसर पर वहाँ तक्षशिला की खुदाई का कार्य हो रहा था। आपलोगों ने प्राचीन शिक्षा एवं संस्कृति की पवित्र दर्शन-भावना से वहाँ जाकर उसका परिदर्शन किया। दूसरे दिन आपलोगों ने मुल्तान के लिए प्रस्थान किया। यहाँ श्री नन्दलालजी सत्संगी के यहाँ निवास कर दिन तथा रात्रि में भी सत्संग किया। नन्दलालजी ने कहा- ‘यहाँ आपलोगों की गंगाजी के गुरु का अवस्थान है।’
आपलोगों ने जाकर उस कुण्ड के दर्शन किए। उस कुण्ड का जल एक ओर प्रवाहित होता जा रहा था। इसके सिवाय आपलोगों ने शम्स तवरेज का मजार, प्रह्लाद का गढ़ तथा नरसिंहजी के मंदिर के दर्शन किए। यहाँ के सुप्रसिद्ध गायक श्री पुरुषोत्तमजी ने बाबा साहब से भजन-भेद लिया था। उनसे मिलकर आपलोगों को बड़ी प्रसन्नता हुई।
यहाँ सत्संग करके पुनः आपलोगों ने सिन्ध प्रान्त की यात्रा की। शिकारपुर आकर श्री ताराचन्दजी सत्संगी की मनोरम वाटिका में आपलोगों ने निवास किया। यहाँ के सत्संग में श्री विजय सिंह नामक एक प्रेमी सत्संगी भी पधारे । ताराचन्दजी का घर दूर रहने के कारण दूसरी संध्या से आपलोगों ने वाटिका में ही भोजन एवं सत्संग कर उसे पवित्र बनाया । प्रातः और अपराह्न का सत्संग-कार्य सम्पन्न कर दूसरे दिन आपलोग वहाँ से कराँची पधारे। कराँची में श्री निर्मल दासजी सत्संगी ने नगरपालिका के एक उद्यान में आपलोगों को निवास दिया। यहाँ के सत्संग में कच्छ-निवासी बड़े उत्साह से सम्मिलित होते थे। एक दिन उनलोगों ने कहा- “हमलोग वेदान्त-सिद्धान्त के अनुसार बहुत दिनों से अपने को ‘ब्रह्म’ मानते आ रहे हैं, पर हमलोग कहाँ ‘ब्रह्म’ हो सके ?”
आपलोगों ने सन्तमत पर प्रकाश डालते हुए उनलोगों से कहा- “ब्रह्म’ तो आत्मरूप से आपलोग अवश्य ही हैं, पर साधन की युक्ति सद्गुरु से सीखकर तदनुसार अभ्यास करने से ही आपलोग ‘ब्रह्म’ हो सकेंगे। केवल मानने से ऐसा होना सम्भव नहीं है।”
कराँची में छह दिनों तक नियमित रूप से सत्संग होता रहा । वहाँ के तथा कच्छ के निवासी सन्तमत से बहुत प्रभावित हुए । उनलोगों ने आपसे दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की। आपने स्थान की निकटता का विचार कर उनलोगों से बाबा नन्दन साहब से ही भजन-भेद लेने का परामर्श दिया। आपके निर्देशानुसार जिज्ञासुओं ने उन्हीं से युक्ति प्राप्त कर अपने को धन्य-धन्य अनुभव किया ।
एक दिन एक मेस्मेरिज्म करनेवाले वहाँ आए। गोसाईं श्री हरंगी दासजी से उसने दृष्टियोग की चर्चा करते हुए कहा- आपका दृष्टियोग तो शक्तिहीन है। आपमें से किसी दृष्टियोगी की मजाल है, जो मुझसे आँखें मिला सके ?’ उसकी उपेक्षाभरी वाणी सुनकर गोसाईं हरंगी दासजी ने कहा, ‘तो मुझसे आप आँखें मिला लीजिए
दोनों ने दोनों से दृष्टि मिलाई। दोनों में से किसी की पलक झँपती ही नहीं थी। काफी समय बीत गए, पर किसी की हार नहीं हुई।
आपलोगों को इसकी सूचना मिलने पर बाबा नन्दन साहब ने गुसाइंजी को वापस बुला लिया।
कराँची में सागर के विशाल प्रसार एवं उसकी अतल गंभीरता में उच्छ्वसित सुमधुर ऊर्मियों की नर्त्तन लीला देख आपलोग अति आनन्दित हुए। कराँची से लौटकर आपलोग सीधे लाहौर चले आए। मांसाहारियों की संख्या अधिक होने के कारण इस स्टेशन पर बहुत खोज करने से एक वैष्णव भोजनालय मिला। वहीं भोजन कर रातभर स्टेशन में ही आपलोगों ने भजन एवं विश्राम किया। प्रात: की ट्रेन से सभी हरिद्वार आए। रात में यहीं सत्संग और विश्राम किया।
हरिद्वार से सभी ऋषिकेश पधारे । ऋषिकेश हिमालय पर्वत की सुरम्य तलहटी में बसा हुआ है। ‘यहाँ प्राचीनकाल में सहस्रों ऋषि-मुनियों ने भगवत्-प्राप्ति के लिए तपस्या एवं विविध साधनाएँ की थीं’ इस भावना से हृदय पुलकित हो रहा था। यहाँ आकर आपलोगों ने गंगा के पुनीत तट-स्थित एक शुभ स्थान में निवास कर सत्संग किया । भोजनादि से निवृत्त हो सभी स्वर्गाश्रम देखने चले। वहाँ बाबा नन्दन साहब के पूर्वपरिचित एक महात्मा के दर्शन हुए। स्वर्गाश्रम में आपलोगों ने नैतिक सदाचार के प्रचार की व्यवस्था को देखते हुए लक्ष्मण-झूला के शुभ दर्शन किए। रात में ऋषियों के पावन ज्ञान, भक्ति एवं योग की गंगा में अवगाहन करते हुए सबेरे आपलोग भागीरथी गंगा में स्नान कर हरिद्वार चले आए। यहाँ एक सत्संगी ने धर्मशाला में आपलोगों के निवास की व्यवस्था की। उस दिन यहीं पर सत्संग एवं विश्राम किया गया । हरिद्वार से मुरादाबाद पधारकर वहाँ आपलोगों ने दो दिनों तक सत्संग किया, फिर वहाँ से लखनऊ होते हुए सभी धरहरा चले आए और वहाँ से मंडली के सभी सत्संगीगण भी अपने-अपने घर चले गए। 

40.

धरहरा का सत्संग-मन्दिर

सन् १९३० ईस्वी में भारत को स्वतन्त्र करने के लिए महात्मा गाँधी द्वारा अहिंसात्मक संग्राम का प्रारम्भ हुआ और धरहरा में भारत की चिर आध्यात्मिक उन्नति के लिए एक सुदृढ़ केन्द्र की स्थापना की जा रही थी। पुराने सत्संग भवन को तोड़कर प्रच्छन्न नींव पर आधारित एक नए सत्संग-मंदिर की नींव दी गयी। इसे कलात्मक ढंग से निर्मित करने का विचार किया गया। इसमें तीन सहस्र रुपये खर्च करने की योजना बनायी गयी, जिसमें आधा खर्च पीपरा (पूर्णियाँ) ग्राम निवासी श्री ढोढ़ाई दास ने दिया। शेष खर्च पूर्णियाँ जिले के धरहरा, मोहिनियाँ, झालीघाट, मधुवन, तेतराही, बेलाचन्द, पिपरा, भटगामा, खौजरी, पोठिया, कुसमौल, घरबन्धा, बेलसरा, बैरख, धीमा, चकला, बनमनखी आदि गाँवों के सत्संगियों के दान से पूरे हुए ।
सत्संग-मन्दिर में ईंट की दीवार पर शाल के तख्तों के आस्तरण बिछा टीन का आच्छादन चतुष्खण्ड (चौछपरा) के रूप में दिया गया। आच्छादन के नीचे धरनों या शहतीरों पर कच्ची छतें बना दी गयीं, जिससे गर्मी-सर्दी का प्रभाव नीचे नहीं आ सके। मंदिर के दक्षिण पार्श्व में विश्राम-कुटी तथा पुस्तकालय के लिए दो कमरे बनाए गए। पुस्तकालय के नीचे गुफा बनायी गयी, जिसमें बरामदे के साथ दो कमरे बनाए गए। गुफा में जाने के लिए ऊपर से नीचे तक पक्की सीढ़ियाँ लगायी गयीं। विश्राम-कुटी और पुस्तकालय से सटा हुआ लगभग चार सौ सत्संगियों के बैठने योग्य एक बड़ा हॉल बनाया गया। भवन के पश्चिम, उत्तर एवं पूर्व की ओर फूस के तीन घर बनवाये गए थे, जिन्हें बाद में बरामदे के रूप में परिणत कर दिया गया। उसमें पश्चिम तरफ महिलाओं के बैठने के लिए चीक और परदे लगाकर सुन्दर प्रबन्ध किया गया। इनमें भी लगभग छह सौ सज्जनों के बैठने योग्य स्थान बनाए गए । उक्त तीनों बरामदों के ऊपर भी शाल की लकड़ी के आस्तरण पर टीन की छाजन दी गई। बरामदे के तीनों ओर इस भाँति तख्ते लगाये गए, जिन्हें जरूरत के अनुसार खोला और लगाया जा सके और तख्ते खोल लेने पर मध्य का विशाल कमरा तीनों बरामदों के साथ एक होकर हजार व्यक्तियों को बैठकर सत्संग करने लायक बन जाय ।
मंदिर के मध्य में खड़ा होकर देखने से ऐसा जान पड़ता, मानो यह टीन का नहीं, पक्की छत का मकान है। कच्ची छतों के ऊपर मजबूत मोटे कपड़े देकर इस भाँति रंगसाजी की गयी कि उसे देखकर कभी कच्ची - छत होने का भान नहीं किया जा सकता।
इस मंदिर में गुफा बनवाने की विशेष प्रवृत्ति उक्त ढोढ़ाई दासजी तथा मोहनियाँ निवासी श्री चेथरू दासजी की थी। सम्पूर्ण भवन-निर्माण में उक्त दोनों सत्संगियों के सिवाय श्री चुनचुन दास (भागलपुर), श्री लाली दास (मोहनियाँ) एवं श्री छुतहरू दासजी (धरहरा) ने विशेष रूप से भाग लिया था।
सत्संग-मंदिर पूरा बन जाने के बाद पुनः धरहरा में ही बाइसवाँ संतमत-सत्संग का प्रान्तीय अधिवेशन करने का प्रस्ताव स्वीकृत किया गया। इस बार विस्तृत पैमाने पर सत्संग पण्डाल बनाए जाने का निश्चय हुआ। अधिवेशन को सुसम्पन्न और सफल-सुन्दर बनाने का सारा व्यय-भार श्री ढोढ़ाई दासजी ने अपने ऊपर लिया। सारे देश में विज्ञापन वितरित किए गए। विशेष-विशेष सत्जनों को आमंत्रित किया गया। पंडाल का विस्तार अस्सी गज लम्बा तथा चालीस गज चौड़ा किया गया। ऊपर में शामियाने का आच्छादन दिया गया। श्री रमाकान्त चौधरी, श्री कान्तजी, श्री मोहनलालजी, श्री जीतेन्द्र मालाकार आदि सत्संगियों ने इसके निर्माण में तन-मन से सहयोग दिया। अतिरिक्त निवास के लिए अनेक खेमे भी गड़वाए गए।
दोनो नियत समय पर सत्संग कराने एवं इस अधिवेशन में प्रवचन करनेवालों में श्री बाबा नन्दन साहब, ज्योतिषी गोविन्दलाल झा (भागलपुर), श्री भगतजी साहब (पंजाब), श्री निर्मल दासजी (मुल्तान), श्री विजय सिंह (सिक्ख) कराँची बन्दर, स्वामी सहजानन्दजी तथा स्वयं महर्षि जी थे। अध्यात्म के विविध विषयों पर भाषण हुए और इसमें पधारे १००६ दीक्षित तथा ७५० अनभेदी सत्संगियों को अंतिम दिन श्री ढोढ़ाई दासजी ने आदरपूर्वक भोजन कराया । बाहर से पधारे प्रवचनकर्ताओं को आने-जाने का खर्च दिया गया। इस अधिवेशन में सत्संगियो को छोड़कर श्रोताओं की उपस्थिति सात-आठ हजार के लगभग होती रही। अधिवेशन १९३० ईस्वी के २७ से २९ दिसम्बर तक पूर्णता एवं त्रुटिविहीनता के साथ सम्पन्न हुआ ।
सन् १९३१ ईस्वी में महर्षि मेँहीँ ने गोस्वामी तुलसीदासजी की ‘विनय-पत्रिका’ से कुछ पद्यों का चयनकर ‘विनय-पत्रिका-सार सटीक’ नामक एक पुस्तक प्रकाशित करवायी । ‘विनय-पत्रिका’ गोस्वामीजी की अंतिम और प्रौढ़ रचना है। प्रार्थनाओं का मधुर संचयन होने के कारण भक्ति-वृत्ति के सज्जनों में इसका बड़ा ही आदर और प्रसार भी है। ये भक्तगण ‘विनय-पत्रिका’ का अध्ययन कर तथा उसे भजनरूप में गाते हुए समझते थे कि गोस्वामी तुलसीदासजी सगुण रूपधारी भगवान को ही सर्वोपरि मान उन्हीं की प्रार्थना कर भगवद्धाम पधारे थे। ऐसी भ्रामक धारणाओं का मूलोच्छेदन कर सच्ची भगवद्भक्ति के प्रचार की आवश्यकता थी। इस प्रकार ‘रामचरितमानस-सार सटीक’ में जो कुछ प्रतिपादित किया गया था, उसके परिपोषण और अनुपूरक रूप में ‘विनय-पत्रिका-सार सटीक’ की रचना हुई। महर्षिजी ने बतलाया कि भगवान की भक्ति सगुण से प्रारम्भ होती है, पर सगुण भक्ति को ही भक्ति की पूर्णता मान लेना तुलसीदासजी के मत के विपरीत है। अत: तुलसीदासजी पर श्रद्धा रखनेवालों को चाहिए कि उनके द्वारा बताये गए भगवान की सगुण भक्ति से साधना आरम्भ कर उनकी निर्गुण भक्ति तक पहुँचकर परमात्मा के माया-रहित रूप की उपलब्धि करें। उनके ऐसे रूप की प्राप्ति के लिए अन्तर-मार्गी बनना अनिवार्य है; क्योंकि इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा रास्ता है ही नहीं। 

41.

सामूहिक ध्यानयोग की गंभीरता और महर्षि शिवव्रतलाल

प्रान्तीय “सन्तमत-सत्संग का तेइसवाँ अधिवशन १९३१ ईस्वी में कुछ अनिवार्य कारणों से नहीं होकर २९.०१.१९३२ ईस्वी से ३०.०१. १९३२ तक गुरमेला (पूर्णियाँ) में हुआ । इस अधिवेशन का पूरा खर्च स्थानीय सत्संगी श्री युत कुंजल साहजी ने दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने अधिवेशन तक के लिए एक भोजनालय में ऐसी व्यवस्था कर रखी थी कि जिन सत्संगियों को अपनी भोजन-सामग्री नहीं थी, वे इनके नाम पर उक्त भोजनालय में भोजन कर लिया करते थे और साहजी उसकी चुकती कर देते थे।
इस अधिवेशन में बाहर से कोई प्रवचनकर्ता नहीं पधार सके, अत: सारा भार स्वामीजी को अकेले ही वहन करना पड़ा। दूसरे दिन सत्संग-समाप्ति के कुछ पहले नानकशाही उदासी पन्थ के एक युवक साधु ने आपसे प्रश्न करने की व्यग्रता दिखायी। उसकी व्यग्रता देखकर आपने कहा- ‘अब तो नित्य कर्म एवं संध्योपासना का समय हो गया है, अतः आप रात में ठहरकर अपने प्रश्नों का समाधान करके तब जायँ ।’ उत्तर जानने के लिए वह युवक साधु इतना आतुर था कि वह अपने को रोकने में जैसे असमर्थ हो । उसकी ऐसी आतुरता देखकर भसदीरा-निवासी पंडित बलभद्र झा ने कहा- ‘बाबाजी नहीं बोलना चाहते हैं, तो आप मुझसे प्रश्न पूछिये। मैं उसका समुचित उत्तर दूँगा।’
तरुण साधु ने इसपर कहा- ‘मेरे प्रश्नों का उत्तर देना आपके लिए कभी संभव नहीं है । इनका उत्तर केवल महर्षिजी ही दे सकते हैं।’
पंडितजी ने आवेश में कहा- ‘मैं अवश्य उत्तर दूँगा। आप प्रश्न करें ।’
मन में उत्तर पाने का अविश्वास रहते हुए भी तरुण साधु ने प्रश्न पूछ दिया- “योगदर्शन’ में लिखा है- ‘साधक का श्वास जब सुषुम्ना में आता है, तब ब्रह्मज्योति के दर्शन होते हैं ।’ मैं पैदल चलकर यहाँ आया हूँ और अभी मेरा श्वास सुषुम्ना में है, तब मुझे ब्रह्मज्योति के दर्शन क्यों नहीं हो रहे हैं ?”
पंडितजी बोले- “आपने ‘योगदर्शन’ का प्रश्न पूछा है, अतः आपको मुझसे संस्कृत में ही बोलना पडेगा।”
बेचारा युवक साधु कुछ-कुछ संस्कृत भाषा का ज्ञान रखता था, अतः उसने किसी भाँति वाक्य-गठन कर उनसे कुछ बातें कीं, पर पंडितजी के धारावाही संस्कृत-भाषण को सुनकर उन्होंने मौन धारण कर लिया। प्रश्न का सही उत्तर हो या नहीं, पर पंडितजी के भाषण का अजस्र प्रवाह पहाड़ी सरिता की भाँति बहता जा रहा था।
बेचारे जिज्ञासु को अपने प्रश्न का उत्तर पंडितजी के महाभाषण में नहीं मिल सका । महर्षि मेँहीँ से कुछ दिनों के बाद ऐसा ही प्रश्न पूछे जाने पर महर्षि मेँहीँ ने बताया- ‘ब्रह्म-ज्योति के दर्शन श्वास-प्रश्वास द्वारा नहीं होते । किसी भी पदार्थ के दर्शन तो दृष्टि से ही होते हैं; अतः प्राणवायु और दृष्टि जब दोनों ही सुषुम्न-विन्दु पर स्थिर होते हैं, तभी ब्रह्म-ज्योति के दर्शन होते हैं । जब दृष्टि सुषुम्ना में स्थित होती है, तो प्राणवायु को भी वहाँ ठहर जाना पड़ता है। किन्तु जब प्राणवायु सुषुम्ना में हो और दृष्टि सुषुम्ना में नहीं हो, तब ब्रह्मज्योति के दर्शन नहीं होंगे।’ । १९३१ ईस्वी का तेइसवाँ अधिवेशन १६३२ की ३० जनवरी को समाप्त कर इस वर्ष का वार्षिक अधिवेशन भी आपने पहली से दूसरी फरवरी तक कोशिकीपुर (भागलपुर-पूर्णियाँ संगम) में सुसम्पन्न कर दिया। इस चौबीसवें प्रान्तीय अधिवेशन का भी सारा उत्तरदायित्व आपको ही अकेले सँभालना पड़ा। इस अधिवेशन का सारा खर्च उदारमना श्री बैजनाथ भगतजी (सिमड़ा, पूर्णियाँ) ने अपने ऊपर उठाया था।
ता॰ ०७.०२.१९३२ से ०७.०३.१९३२ तक आपने ध्यानयोगियों को ध्यान-मंडली में सम्मिलित होने के लिए धरहरा आह्वान किया। अपनी कमाई का भोजन ग्रहण कर उपासना करने से उसका कोई हिस्सा बँटता नहीं , इसीलिए इस बार आपने सभी को अपने-अपने उत्तरदायित्व पर ही पधारने की सूचना दी थी, फिर भी जलावन, मिट्टी के बर्तन, रोशनी और सभी के आवास की व्यवस्था सत्संगालय की ओर से कर दी गई थी। प्रारम्भ में पचासी सत्संगियों ने इस योगाभियान में भाग लिया था, जिनकी संख्या क्रमशः बढ़ती ही गयी और समाप्ति काल में यह संख्या दो सौ से भी अधिक था। जिन सत्संगियों का खर्च बीच में ही समाप्त हो गया, उन्हें समाप्ति तक का पूरा खर्च भी आपने दिया। इस एक मासकालीन योग में पूर्व की भाँति सभी कार्यों के समय सुनियत किए हुए थे। प्रतिदिन पौने छह घंटे ध्यानाभ्यास तथा साढ़े चार घंटे सत्संग करने में अनिवार्यतया व्यतीत होते थे।
इस गंभीर ध्यानयोग के सामूहिक व्यवस्थापन के लिए बाबा नन्दन साहब से भी राय ले ली गयी थी, अस्वस्थ होने के कारण वे इसमें नहीं सम्मिलित हो सके। मुलतान निवासी बाबू सूर्यनारायण गुप्तजी केवल एक सप्ताह इसमे भाग ले सके । बवासीर रोग से विवश होकर उन्हें घर लौट जाना पड़ा। महर्षि शिवव्रतलालजी एम॰ए॰ राधास्वामीमत के द्वितीय सद्गुरु के शिष्य थे। ये वयोवृद्ध तथा महान व्यक्ति थे। ये भी इस गंभीर ध्यान-योग की प्रारंभिक ता॰ ०७.०२.१९३२ को ही इसमें सम्मिलित हुए थे। स्वामीजी ने इनसे मासभर रहने की प्रार्थना की। इसपर इन्होंने उत्तर दिया- ‘मैं यहाँ केवल थोड़े दिनों के लिए ही सत्संग करने आया था और दूसरा कारण यह भी था कि मैं अपने यहाँ (राधास्वामी सन्तमत, दयालबाग, आगरा में) होनेवाले भंडारे में आपको विशेष रूप से निमंत्रण देने के लिए आया था। आप कृपया मेरे निमंत्रण को स्वीकार कीजिए।’
आपने निमंत्रण स्वीकार कर लिया । महर्षि शिवव्रतलालजी यहाँ नित्यप्रति होनेवाले सत्संग एवं ध्यानाभ्यास को देखकर एक दिन बोले- ‘यह पिपीलक-मार्ग है। इसमें धीरे-धीरे काम होता है।’
आपने यह सुनकर कहा- ‘महाराज ! कबीर साहब ने कहा है- ‘मारग विहंग बतावे सन्तजन। उन्होंने कहा- ‘हाँ, यह भी है।
पुनः दृष्टियोग-साधन की बात सुनकर उन्होंने कहा- ‘ज्योतिमार्ग बड़ा कठिन है; क्योंकि देखिए, तुलसीकृत रामायण में वर्णन है कि जटायु और सम्पाति दोनों सूर्य की ओर बढ़े तो उन्हें अपार कष्ट हुआ। जटायु तो रास्ते से ही लौट आए और सम्पाति कुछ और आगे बढ़े, तो उनके पंख ही जल गए और वे पृथ्वी पर आ गिरे। इसका यही मतलब है कि प्रकाश में दूर तक जाना बहुत कठिन है।’
यह सुनकर आपने कहा- ‘रामायण में ही कागभुशुण्डजी ने कहा है-
‘जबतें राम प्रताप खगेसा ।
उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा ।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका ।

बहुतन्ह सुख बहुतन्ह मन सोका ।।
जिन्हहिं सोक ते कहउँ बखानी ।

प्रथम अविद्या निसा नसानी ।।
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने ।

काम क्रोध कैरव सकुचाने ।।
विविध कर्म गुन काल सुभाऊ ।

ये चकोर सुख लहहिं न काऊ ।।
मत्सर मान मोह मद चोरा ।

इन कर हुनर न कवनिहूँ ओरा ।।
धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना ।

ये पंकज विकसे विधि नाना ।।
सुख संतोष विराग विवेका ।

विगत सोक ये कोक अनेका ।।

यह प्रताप रवि जाके,

उर जब करइ प्रकास।
पछिले बाढहिं प्रथम जे,

कहे ते पावहिं नास।।”

यह सुनकर उन्होंने कहा- ‘हाँ, यह भी है।’
एक दिन के प्रातःकालीन सत्संग में उन्होंने कहा- “आपलोग समझते होंगे कि यह बुड्ढा साधु रातभर सोया रहता है और सत्संग में भी सम्मिलित होने नहीं आता, इसके लिए कबीर साहब का एक शब्द सुनिये--
“सोये जागे खड़े उताने ।
कहे कबीर हम उसी ठिकाने ।।”

जाने के दिन वे कहने लगे- ‘मैं तो थोड़े दिनों के लिए ही यहाँ सत्संग करने आया था, अतः अब मुझे क्षमादान कर जाने दीजिए। इस प्रकार का मैंने उत्तम सत्संग और कहीं नहीं देखा। इसे देखकर मुझे काफी प्रसन्नता है।’
जाने के समय महर्षि शिवव्रत लालजी को यथोचित भेंट और विदाई देकर आदरपूर्वक प्रस्थान कराया गया।
इस ध्यानयोग के मध्य में भण्डारा देने का पूर्ण निषेध था, अतः एक मास की अवधि बीत जाने पर श्री मुनिलाल साह, श्री लाली साह, श्री ढोढ़ाई साह तथा आपने भी भण्डारा देकर सभी को तृप्त किया।
ध्यानयोग का गंभीर पारायण समाप्त कर ज्ञान और कल्याण का आलोक फैलाने के लिए भ्रमण-मंडली का अभियान प्रारम्भ हुआ।
कोरका-निवासी सन्तोषीराम तथा रमलानिवासी श्री रामकृष्ण दासजी के अनुरोध पर इस बार मंडली ने संताल परगना के सोलह गाँवों में पैदल घूम-घूमकर सत्संग का खूब प्रचार किया। ता॰ ०१.०४.१९३२ से २८.०४.१९३२ ईस्वी तक बभनगामा, औरिया, मनियारपुर, कसवा, मड़रडीह, बकसरा, रमला, कुरमीचक, चीलरा, कोरका, जमुनीकोला, हिलावे, शरबा, भारतीकित्ता, पथरा और कुमरडीह गाँवों में विज्ञापन वितरित कर एवं खूब प्रचार कर सत्संग किया गया ।
पंजवारा के निकट भारतीकित्ता में जिस दिन सत्संग हो रहा था, उस दिन यहाँ एक विद्यालय के अध्यापक भी आए थे। उन्होंने महर्षिजी से पूछा-- ‘गीता में लिखा है कि छह महीने जब सूर्य दक्षिणायन में रहते हैं, तो उस समय मृत्यु होने से मोक्ष नहीं मिलता और छह महीने जब सूर्य उत्तरायण में रहते हैं, तो उस समय मृत्यु होने से मनुष्य को मोक्ष मिल जाता है। इसका वास्तविक तात्पर्य आप क्या समझते हैं ?
आपने उत्तर दिया- “सन्तमत के अनुसार ‘दक्षिणायन’ का अर्थ होता है-नीचे के छह चक्र यानी मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्धाख्य और आज्ञा । जबतक जीव का निवास आज्ञाचक्र में रहता है, तबतक आवागमन के चक्र से उसे छुटकारा नहीं मिलता । ‘उत्तरायण’ के अर्थ हैं- ऊपर के छह चक्र यानी सहस्रदल कमल, त्रिकुटी, शून्य, महाशून्य, भंवरगुफा और सतलोक । जब इस ऊर्ध्व पथ पर चलकर जीवात्मा सतलोक पहुँच जाता है, तो उसकी मृत्यु हो जाने पर उसे मोक्ष मिल जाता है। अर्थात् सन्तों ने पिण्ड के छहो चक्रों को ‘दक्षिणायन’ तथा ब्रह्माण्ड के छहो चक्रों को ‘उत्तरायण’ नाम से अभिहित किया है। आप शिक्षक लोग जिस भाँति नक्शे के निचले भाग को दक्षिण एवं ऊपर की दिशा को उत्तर मानते हैं, उसी भाँति सन्तों ने भी नीचे की ओर पिण्ड और ऊपर की तरफ ब्रह्माण्ड की अवस्थिति स्वीकार की है।”
शिक्षक महोदय यह सुनकर अति प्रसन्न हुए और बोले- ‘हाँ, मुझे भी यही अर्थ उपयुक्त जँचता है।
रामचरितमानस-सार सटीक की पाण्डुलिपि कोढ़ा प्रशिक्षण विद्यालय के प्रधानाध्यापक श्री सूर्यनारायण मिश्रजी को संशोधन कार्य के लिए आपने दी थी। उनकी बदली कोढ़ा (पूर्णियाँ) से बरहरवा (संताल परगना) प्रशिक्षण विद्यालय में हो गयी। उनके अनुरोध से एक बार आप अपने समक्ष संशोधन कार्य को देखने के लिए बरहरवा प्रशिक्षण विद्यालय पधारे । उस अवसर पर श्री सूर्यनारायण मिश्र जी बाहर गए हुए थे। उनकी अनुपस्थिति में सहायक शिक्षक तथा वहाँ के छात्रों ने आपकी सेवा और अभ्यर्थना की। शिक्षार्थी श्री गंगाराम ठाकुर बड़ी ही श्रद्धा से आपकी सेवा में लगे रहते थे और ध्यानपूर्वक आपके प्रवचनों को सुनते थे। प्रशिक्षण की परीक्षा में उत्तीर्ण होकर वे अपने ही गाँव कर्माटाँड़ लो॰प्रा॰ विद्यालय के शिक्षक बने । कर्माटाँड़ कुर्मीचक से डेढ़ मील पर है। कुर्मीचक के सत्संग में आकर इन्होंने भजन-भेद लिया और तबसे तन, मन एवं धन से संताल परगना में वे सत्संग का प्रचार कर रहे हैं। आप गंगाराम की याद वात्सल्य भाव से कर लिया करते हैं।
महर्षि मेँहीँ परमहंसजी एक समय गाँव-गाँव घूमकर सत्संग का प्रचार कर रहे थे। उस समय काँग्रेस के स्वातन्त्र्य-आन्दोलन पर ब्रिटिश सरकार का दमनचक्र न्याय-विवेक छोड़कर चल रहा था। महर्षिजी के सत्संग में यह गीत गाया गया- ‘आओ वीरो मर्द बनो अब, जेल तुम्हें तजना होगा।’
यह गाना सुनकर संताल परगना के सरदार (दफेदार) ने महर्षिजी को गिरफ्तार करने की धमकी दी; पर आपने सम्पूर्ण गान सुनाकर उसे समझाया। पहले वह मानता ही नहीं था, पीछे समझ जाने पर सरदार ने महर्षिजी से क्षमा प्रार्थना की। 

42.

मुरादाबाद, स्वामीबाग एवं दयालबाग में

बाबा साहब के महानिर्वाण के उपरान्त उनकी अस्थियाँ समाधि-मंदिर बनाने के विचार से वहाँ सत्संगियों ने सुरक्षित रूप से रख दी थीं। महर्षिजी ने सत्संग-मंदिर के ही एक पार्श्व में अस्थियों की प्रतिष्ठा कर देने का सुझाव रखा था, पर बलभद्र दासजी ने कहा कि बाबा साहब स्वयं ही समाधि मंदिर बनाने का आदेश देते गए हैं ।
१९३२ ईस्वी में समाधि-मंदिर के उद्घाटन के पुण्य अवसर पर भण्डारा किया गया । अस्थियों को समाधि में स्थापित करने के कुछ पूर्व महर्षिजी को मुरादाबाद आने के लिए तार दिया गया था, पर आप उस समय संताल परगना में सत्संग का प्रचार कर रहे थे, अतः नहीं आ पाये। प्रचार समाप्त कर आप मुरादाबाद पधारे । वहाँ कुछ दिन सत्संग कर बाबा नन्दन साहब तथा काला चाँदजी के साथ मथुरा-हाथरस के दर्शन करते हुए आप आगरा आए। वहाँ आपलोगों ने राधास्वामीबाग के सत्संग-मंदिर तथा अन्यान्य स्थानों के दर्शन किए। इसके उपरान्त दयालबाग का सत्संग-मंदिर देखने गए। वहाँ जाकर एक सत्संगी से आपलोगों ने सत्संग-मंदिर देखने की इच्छा प्रगट की। उसने रोब से पूछा- ‘क्या देखेंगे?’
महर्षि मेँहीँ परमहंसजी ने कहा-‘सत्संग मंदिर देखूँगा ।’
उन्होंने पूछा- ‘क्या देखकर ऐसा ही सत्संग-मंदिर बनाओगे ?’
आपने कहा- ‘नहीं, महाराज ! केवल देखने आया हूँ ।’
तब वे आपलोगों को एक जमादार साहब के पास ले गए और उनसे कहा- ‘ये लोग सत्संग-मंदिर देखने आए हैं।’
जमादार साहब ने आपलोगों के साथ एक सिपाही लगा दिया और उससे कहा- ‘इनलोगों को पूछताछ-दफ्तर में ले जाओ।’
दयालबाग में उनलोगों की एक राज्यशासन जैसी व्यवस्था आपलोगों को देखने में आयी। पूछताछ-कार्यालय जाने पर वहाँ के कर्मचारी ने आपलोगों से पूछा- ‘आपलोग क्या चाहते हैं? , आपने कहा- ‘साहबजी तथा सत्संग-मंदिर के दर्शन की अभिलाषा से हमलोग आये हैं।’
कर्मचारी ने कहा- ‘अभी साहबजी को फुर्सत नहीं है। कुछ विशिष्ट सज्जनों के साथ वे वार्तालाप कर रहे होंगे। यदि अभी कार्यालय से आपलोगों को दर्शन करने का आदेश-पत्र भी दे दिया जाय, तोभी आपलोग उनसे मिल नहीं सकेंगे।’
यह सुनकर आपने कहा- ‘तब सत्संग-मंदिर ही हमलोग देखेंगे।’
कर्मचारी ने यह सुनकर आपलोगों से कहा- ‘आपलोग कारखाना देख सकते हैं, गोदाम देख सकते हैं। क्योंकि इसमें आपको टिकट नहीं लगेगा, पर साहबजी तथा सत्संग-मंदिर के दर्शन नहीं हो सकते ।’
आपने उत्तर दिया- ‘हमलोगों को और कुछ देखने की इच्छा नहीं है, केवल साहबजी तथा सत्संग-मंदिर के दर्शन की ही अभिलाषा से हमलोग यहाँ आए थे।
वहाँ से वापस होकर आपलोग दयालबाग सत्संग-मंदिर के समीपस्थ सड़क से जा रहे थे, वहीं एक दूसरे सत्संगी मिले। उनसे आपने कहा- ‘हमलोग यहाँ का सत्संग-मंदिर देखने आए थे।’ उन्होंने उत्तर दिया-सत्संग तो समाप्त हो गया । ‘
दयालबाग आकर आपलोगों को लगा कि जैसे यह रोबीले साहबों का ही बाग हो । पूछताछ-अफसर के सिवाय सभी सत्संगियों की बोलियाँ रोब से भरी हुई थीं। संयत और मधुर भाषण का वहाँ नितान्त अभाव था । आपलोग वापस लौट गए।
उसी वर्ष बेगुसराय के निकट बगहा के सत्संगियों ने आपको सत्संग कराने के लिए बुलाया । आपके साथ मुन्शी गोविन्दलालजी (कौशिकीपुर), श्री ब्रह्मदेवलालजी (फुलवरिया, बरौनी) तथा राधास्वामीमत के मुन्शी साहब थे। वहाँ के सत्संग में आपको पता लगा कि राधास्वामीमत की उक्त दयालबागी संस्था के प्रथम गुरु पटना सत्संग-समारोह में पधारे हैं । उनके दर्शन तथा उनसे वार्ता करने का ख्याल लेकर आपलोग बगहा का सत्संग समाप्त कर पटना पधारे । एक उपयुक्त स्थान पसन्द कर वहाँ आपलोगों ने डेरा डाला ।
सत्संग-स्थल शामियाने के आच्छादन से बनाया गया था। उससे कुछ दूर पर दयालबाग में बनी वस्तुओं की प्रदर्शनी थी, जिसमें वस्तुओं का विक्रय भी होता था। आपलोग सत्संग में कुछ देर से आए, इस कारण पीछे ही बैठना पड़ा। साहबजी के भाषण से आपको जानने में आया कि उनको इस विषय का उत्तम ज्ञान है तथा वे प्रवचन भी सुन्दर देते थे। उन्होंने कहा- ‘आत्मा का निवास हृदय में है; किन्तु राधास्वामीमत के ग्रन्थ ‘प्रेम-पत्र’ में लिखा है कि आत्मा का निवास दोनों आँखों के मुकाबले अन्दर में है।’
आपने पूछा- ‘मोक्ष-धाम में जाने का साधन क्या है ?’
उन्होंने कहा—’साधन क्या ? गठरी-मोटरी बाँध ली, तब चल दिए।’ फिर बोले- ‘इसके लिए सुमिरन होता है, भजन होता है और ध्यान होता है। इसके विषय में विशेष कल कहूँगा। अब समय समाप्त हो गया ।’
पुनः संध्याकाल में सत्संग प्रारम्भ हुआ । इस समय साहबजी ने ‘ईश्वर की कृपा सब लोगों पर है और लोग किस तरह उनके द्वारा पाले-पोसे जाते हैं?’ इस विषय पर बहुत सुन्दर प्रवचन दिया। आपको उनका विषय पर प्रकाश डालने का ढंग बड़ा अच्छा लगा।
दूसरे दिन के प्रात:कालीन सत्संग में आपलोग सबेरे ही पधारे और साहबजी के समीप में जाकर बैठे। आपने साहबजी से विनय किया- ‘आप जितनी बात अंग्रेजी में कहते हैं, उसका अनुवाद यदि हिन्दी में भी सुना दें, तो जनता को समझने में अधिक सुविधा हो ।’ उन्होंने उत्तर दिया- ‘मैं क्या करूँ ? श्रोताओं में ईसाई, बंगाली, मुसलमान आदि लोग भी आ जाते हैं, अतः अनुवाद करने में बँगला, उर्दू एवं हिन्दी तीनों का अनुवाद करना पड़ेगा, इसीलिए सबकी सुविधा के विचार से अंग्रेजी शब्द मिलाकर कहना पड़ता है।’
पुनः सुमिरन, भजन और ध्यान पर उनके प्रवचन होने लगे। शब्द-ध्यान पर उन्होंने बहुत जोर दिया और कहा- ‘इससे मन शीघ्र ही स्थिर हो जाता है।’
आपने प्रश्न किया- ‘महाराज ! सुमिरन क्या है ? इससे आपका मतलब क्या किसी वर्णात्मक शब्द के जप से है?’ उन्होंने कहा- ‘हाँ, जो वर्णात्मक नाम गुरु बता दें।’
फिर आपने पूछा- ‘ध्यान क्या ? ध्यान से आपका आशय किसी स्थूल रूप के ध्यान से है क्या?’
उन्होंने फिर कहा- ‘हाँ, जो गुरु बता दें ।’
फिर आपने पूछा- ‘भजन क्या ? क्या इसमें आपका अभिप्राय अनहद शब्द में ध्यान लगाने से है?’
उन्होंने उत्तर दिया- ‘हाँ।’
पुनः आपने पूछा- ‘मूर्ति-ध्यान और शब्द-ध्यान के बीच में क्या कोई दूसरा भी साधन करना पड़ता है अथवा मूर्ति-ध्यान करने के बाद ही अनहद शब्द का ध्यान होने लगेगा ? यदि कोई दूसरा साधन है, तो उसका नाम क्या है?’
उन्होंने कहा- ‘नहीं, स्थूल मूर्ति के ध्यान के बाद से ही अनहद शब्द का ध्यान होता है। बीच में और कोई दूसरा साधन नहीं है।’
फिर आपने कहा - ‘सन्तों ने तो प्रकाश-मंडल के अनहद नादों का ध्यान करने के लिए कहा है। मूर्ति-ध्यान तो अन्धकार-मंडल में ही होता है। अन्धकार में ही रहकर प्रकाश-मंडल का शब्द कैसे पकड़ा जाएगा?’
उन्होंने उत्तर दिया- ‘गुरु पकड़ा देगा।’
इसपर आपने कहा- ‘इस कथन का विश्वास दिलाना चाहिए।’
यह सुनकर वे चुप हो गए। उनको मौन देखकर आपने कबीर साहब की एक साखी कहकर सुनायी-
‘सुरत निरत एक अंग कर, देखो विमल बहार।।
मध्य सुषुम्ना तिल बरो, तिल में ज्योति अपार।।’
यह साखी सुनाकर आपने पूछा- ‘यह क्या बात है?’
इसपर वे बिगड़कर कहने लगे- ‘आप भेद खुलवाना चाहते हैं क्या? यहाँ भिखमंगों को भेद नहीं मिलता है।’
सम्भवतः आपका साधुवेश देखकर ही उन्होंने समझ लिया कि ये भीख माँगकर अपनी जीविका चलानेवाले साधु हैं ।
आपने शान्त भाव से कहा- ‘देखिए, भगवान बुद्ध ने भी भीख माँगी थी। तुलसी साहब ने भी भीख माँगी।’
उन्होंने कहा–’पहले वैसे बुद्ध हो लो, तब भीख माँगना ।’ आपने कहा- ‘बुद्ध भगवान ने तो बुद्ध होने के प्रथम तथा उसके बाद भी भीख माँगी थी।’
पुनः आपने उन्हें आश्वस्त करने के लिए कहा- ‘महाराज ! मैं आपसे भजन-भेद लेने नहीं आया हूँ। इसे मैं पहले से ही जानता हूँ ।’
यह सुनकर वे बोले तो फिर आप पूछते क्यों हैं?’ आपने उत्तर दिया- ‘मैं यह जानना चाहता हूँ कि आपके पास इसका क्या उत्तर है?’
यह सुनकर वे चुपचाप बैठे रहे। उन्हें मौन देखकर उनके एक बंगाली शिष्य, जो रिटायर जज थे, बोले- ‘ऐसी बात इस तरह कैसे बतलायी जाय? यह गोपनीय बात ऐसे ही किसी को नहीं बतलायी जाती है।’
आपने कहा- ‘मैं यह तो नहीं पूछता कि इसके करने की विधि क्या है ? मैं तो केवल उस सद्युक्ति का नाम जानना चाहता हूँ। नाम बताने में आपत्ति क्या है? सभा के अन्दर नाम बताने में तो कोई बात नहीं है?’
यह सुनकर साहबजी ने मौन भंग कर कहा- ‘One-pointedness’ अर्थात एकविन्दुता।’
यह सुनते ही ब्रह्मदेवजी बोल उठे तो आप छिपाते क्यों हैं ?’
उन्होंने कहा- ‘मैं छिपाता कहाँ हूँ? मैंने तो बाइस हजार आदमियों को उपदेश दिया है।’ इसपर आपने ब्रह्मदेवजी से कहा- ‘ब्रह्मदेवजी ! उसका नाम है ‘One-pointedness’ (एकविन्दुता)। अब बस करो।’
दो-तीन मिनट के बाद आपलोग वहाँ से चले आए, पर राधास्वामीमतवाले साथी वहीं बैठे रहे। उनके आने पर आपने पूछा- ‘हमलोगों के चले आने के बाद क्या साहबजी ने हमलोगों के विषय में कुछ कहा भी था ?’
उन्होंने उत्तर दिया- ‘कुछ नहीं बोले थे। आपलोगों के आने के कुछ देर बाद ही सत्संग समाप्त कर दिया गया।’ 

43.

आध्यात्मिक केन्द्रों के परिचय

महर्षि शिवव्रतलालजी के निमंत्रण के अनुसार आप राधास्वामी मत के सत्संग-मंदिर में उचित समय पर पहुँच गए। वहाँ के सत्संग की व्यवस्था, भावना एवं स्वरूप देखकर आपको बड़ी प्रसन्नता हुई। आगरा (दयालबाग) में ही राधास्वामी सन्तमत के नाम पर एक ओर साहबी रोब है और दूसरी ओर सौम्य नम्र वातावरण।
वहाँ का सत्संग-समारोह सम्पन्न कर आप देवघर पधारे । यहाँ बालानन्द ब्रह्मचारी की प्रशंसा सुनकर आप उनके दर्शन करने गए। अपराह्नकाल में उनके दर्शन के बाद वार्तालाप होने लगा। बातचीत के सिलसिले में ब्रह्मचारीजी बोले- ‘जब बालकों के ओष्ठों में मधु लगा दिया जाता है, तो एक बार उसकी मिठास जान लेने पर वह स्वभावतया ही उस ओर प्रवृत्त हो जाता है।’ । यह सुनकर आपने कहा-यह तो आपने ठीक ही कहा महाराज ! किन्तु फिर भी बालक को मधु चाटने के लिए अपनी जीभ स्वयं ही निकालनी पड़ेगी ।’
इसी भाँति की और कई बातों का आपने समुचित उत्तर दिया, जिसे सुनकर उन्हें अपने पराजय का भान हुआ। ऐसा बारंबार होते देखकर ब्रह्मचारीजी ने अपने स्वरोदय योग के अनुसार अपनी स्थिति का भास किया । उसके अनुसार उन्होंने अवगत कर लिया कि इस समय मेरी वाणी का प्रभाव सदा पराजयाभिमुखी ही रहेगा। यह जानकर उन्होंने तर्क-वितर्क छोड़कर कहा- ‘हाँ, कहिए, आप बहुत अच्छा कह रहे हैं।’
बालानन्द ब्रह्मचारीजी स्वरोदय योग के जाननेवाले एक अच्छे योगी थे, पर मन में विजय पाने की अभिलाषा का विसर्जन नहीं कर सके थे।
वहाँ से आप बिहारी साहु (जलालगढ़) तथा श्री कान्तजी (गेहुमा हरचन्दपुर) के साथ कलकत्ता आए । कलकत्ते का वातावरण और उसकी गति-विधि आपको पसन्द नहीं आयी। वहाँ से आप स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रस्थापित सुप्रसिद्ध बेलूर मठ आए। वहाँ उनके गुरुभाई महन्थ शिवानन्दजी के दर्शन किए। वे रोगग्रस्त थे, अतः विशेष वार्तालाप की संभावना नहीं थी। एक श्वेतवस्त्रधारी संन्यासी ने आपलोगों से भोजन करने का अनुरोध किया, पर आपलोगों ने वहाँ ठहरने की आवश्यकता नहीं समझकर प्रेमपूर्वक उनसे क्षमा माँगते हुए धरहरा के लिए प्रस्थान कर दिया।
बिहार प्रान्तीय सन्तमत-सत्संग का पचीसवाँ वार्षिक अधिवेशन १९३३ में १५ जनवरी से १७ जनवरी तक रमला ग्राम (संथालपरगना) में हुआ। प्रथम दिन के सत्संग में बाबा नन्दन साहब ने ‘सन्तमत क्या है?’ पर पौने दो घंटे तथा महर्षिजी ने ‘ब्रह्म-निरूपण’ पर डेढ़ घंटे प्रवचन दिए। दूसरे दिन के सत्संग में बाबू महेन्द्रनाथ सिंहजी (मायागंज) ने तीन विषयों पर तीन घंटे तक भाषण दिया। वे तीनों विषय ये थे-
१. गुरु मानने तथा उनकी पूजा करने के सिद्धान्त को बाबा देवी साहब नहीं मानते थे और यह सिद्धान्त अनुपयोगी ही नहीं, बल्कि हानिकारक भी है।
२. ‘रामचरितमानस’ संतमत के लिए उपयोगी ग्रन्थ नहीं है।
३. संतमत सत्संग में कीर्तन करना मनोरंजन का ही एक साधन है।

तीसरे दिन दोपहर के सत्संग में बाबा नन्दन साहब ने ‘बाबा देवी साहब किस भाँति सन्तमत-सत्संग का प्रचार करते थे?’ पर प्रवचन दिया । इसी अनुक्रम में उन्होंने श्री महेन्द्रनाथ सिंहजी के प्रथम दिन के भाषण का भी समुचित उत्तर उपस्थित कर दिया, जिसे सुनते-सुनते श्री महेन्द्रनाथ सिंहजी की आँखो से आँसू टपकने लगे। तदनन्तर महर्षिजी ने ‘ईश्वर-भक्ति’, ‘गुरु-पूजा’, ‘रामचरितमानस’, ‘सम्प्रदाय’, ‘आध्यात्मिक गान’, ‘सत्संग’ और ‘ध्यानाभ्यास’ आदि विषयो पर इतना सुन्दर, मधुर, सुस्पष्ट एवं विश्लेषणपूर्ण प्रवचन दिया कि जिसे श्रवण कर सभी श्रोताओं के साथ बाबू महेन्द्र सिंहजी भी गद्गद हो गए और अनायास उनके मुख से ये शब्द निकल पड़े ‘इससे अधिक और क्या कहा जा सकता है!’|
सत्संग-समाप्ति के बाद जब तीनों प्रवचनकर्ता सान्ध्य भ्रमण के लिए निकले, तो बाबा नन्दन साहब ने कहा- ‘आपस में समालोचनात्मक वाद-विवाद के बाद भी हमलोगों में पूर्ववत् सद्भाव बना रहा, यह अति प्रसन्नता की बात हुई ।
आज के सत्संग में एक दारोगा साहब भी पधारे थे। ‘आओ वीरो! मर्द बनो अब, जेल तुम्हें तजना होगा।’ – यह संकीर्तन सुनकर पहले तो वे अकचकाए, पर पूरा-पूरा, सुन लेने के बाद वे शान्त-चित्त होकर महर्षिजी से बाते करने लगे। आपने उनसे गत वर्ष भारतीकित्ता के सत्संग में घटित सरदार साहब की गिरफ्तारीवाली घटना भी कह सुनाई और आपने समझाया ‘हमारा कार्य शुद्ध रूप में आध्यात्मिक है। वर्तमान राजनीतिक आन्दोलन से हमारा कोई संबंध नहीं है।’
अधिवेशन पूर्ण कर प्रचार-मंडली के रूप में आपलोग आठ बैलगाड़ियों पर चढ़कर जमुनीकोला चले। रात में कोरका में ही विश्राम करना पड़ा। यहाँ पहले से ही सत्संग करने की सुव्यवस्था की गयी थी। श्री सन्तोषी राम तथा श्री दीनदयाल राम ने भोजन और निवास का बहुत ही उत्तम प्रबन्ध किया। रात में दो घंटे तक यहाँ सत्संग हुआ, पुनः अरुणोदय की पुनीत वेला में यहाँ से प्रस्थान कर मध्य दिवस को सभी जमुनीकोला पहुँच गए। यहाँ तीन बजे से सत्संग आरम्भ हुआ। आसपास के गाँवों में विज्ञापन वितरण कर पहले ही १९एवं २० जनवरी, १९३३ ईस्वी में सत्संग होने की खबर प्रसारित कर दी गयी थी। प्रथम दिन बाबा नन्दन साहब ने ‘सन्तमत क्या है ?’ तथा महर्षिजी ने ‘संतमत’, ‘प्रकृति’, ‘शान्ति’ तथा ‘ब्रह्म-निरूपण’ आदि विषयों पर प्रवचन दिया। दूसरे दिन एक बजे से सत्संग आरम्भ हुआ। आज बाबा नन्दन साहब ने काम, क्रोध’, ‘लोभ’, ‘मोह’, ‘मद’ और ‘अहंकार’ पर बड़ा ही सुन्दर और विश्लेषणात्मक भाषण दिया। उन्होंने प्रत्येक को कथा के रूप में वर्णन कर सुननेवालों को उनके पारस्परिक भेद और स्वरूप से अवगत कराया। महर्षिजी ने ‘संतमत में भक्ति, ज्ञान एवं योग के सामंजस्य और एकता’ पर प्रवचन करते हुए सात प्रकार के गुरुओं का परिचय दिया। श्रोताओं में संथाल लोगों की उपस्थिति सबसे अधिक थी, अत: देहात की साधारण बोल-चाल की भाषा में चोरी, जारी, नशा, झूठ तथा हिंसा छोड़ने के लिए आपने उनलोगों को समझाया ।
इस बार की मंडली में ५२ सत्संगी थे। जमुनीकोला का सत्संग सम्पन्न कर आपलोग ‘अस्सी’ नामक स्थान में रात्रि-निवास किया । वहाँ के भोजन और आवास की सारी सुव्यवस्था महेन्द्र बाबू ने की। दूसरे दिन वहाँ से बारह मील चलकर सभी घोघा स्टेशन पहुँचे । वहाँ भी महेन्द्र बाबू ने ही सभी के भोजन की व्यवस्था की। घोघा में भोजन कर ट्रेन से सभी भागलपुर पधारे। यहाँ एक धर्मशाला में श्री तिलक मोदीजी आदि सत्संगियों ने सत्संग एवं निवास की भी व्यवस्था की थी। विज्ञापन वितरण कर सबको पहले ही सत्संग होने की सूचना दे दी गयी थी। २१ तथा २२ जनवरी को यहाँ सत्संग हुआ । बाबा नन्दन साहब ने क्रमशः ‘संतमत’ और ‘योग’ तथा महर्षिजी ने ‘ब्रह्म-निरूपण’, ‘अन्तर्मार्गी बनने की आवश्यकता’ तथा ‘ध्यानयोग के द्वारा स्वाभाविक प्राणायाम’ पर प्रवचन दिया। विज्ञापन की सूचना के अनुसार ही २४ जनवरी को आसानन्दपुर परवत्ती में बारह बजे से सत्संगारम्भ हुआ । प्रवचन समाप्त कर रात्रि वहीं विश्राम किया गया। ता॰ २५ जनवरी को मंडली विघटित कर दी गयी और सभी अपने-अपने घर चले गए। आप वहाँ से श्री ईश्वरी प्रसादजी एवं श्री मूलचन्दजी को साथ लेकर कौशिकीपुर सत्संगालय चले आए। यहाँ दो दिन निवास कर सत्संग किया। पुनः यहाँ से २८ जनवरी को भंगाहा आकर यहाँ भी सत्संग करा धरहरा चले आए। धरहरा में चार दिन विश्राम किया।
संताल परगना में इस वर्ष वार्षिक अधिवेशन होने के कारण पूर्णियाँ के सभी सत्संगी नहीं जा सके थे; अतः यहाँ के सत्संगियो ने सरसौनी बिजलिया में अधिवेशनकी भाँति ही प्रबन्ध कर रखा था। यह प्रबन्ध आपसे परामर्श लेकर ही किया गया था। उसके विज्ञापन भी प्रचारित कर दिए गए थे। ता॰ ४ से ५ फरवरी, १९३३ ईस्वी को यह विशेष सत्संगाधिवेशन किया गया। प्रथम दिन बाबा नन्दन साहब का ‘संतमत क्या है ?’ तथा आपका ‘ब्रह्म-निरूपण’ पर भाषण हुआ। दूसरे दिन बाबा नन्दन साहब ने ‘काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार’ पर डेढ़ घंटे तक प्रवचन किया। पुनः एक आध्यात्मिक संगीत के उपरान्त आपने ‘ध्यानयोग के द्वारा ईश्वर-भक्ति की पूर्णता’ पर सुन्दर प्रवचन दिया। सत्संग समाप्त कर बाबा नन्दन साहब मुरादाबाद चले गए। 

44.

कुप्पाघाट की एकान्त गुफा में

जिन्होंने इतने सारे सत्संग कराये, प्रवचन दिये, दो बार सामूहिक ध्यानयोग की सुनियमित उपासना कराई और स्वयं भी एक बार महीने भर एकान्त कुटी में निवास कर योग-साधना की और दूसरी बार कप बनाकर उसके निःशब्द तल में बैठकर गंभीराभ्यास किया, उन्हें पुनः एकान्त, शान्त, गंभीर उपासना करने की व्याकुलता ने क्यों उपयुक्त स्थान की खोज में भटकने के लिए बाधित कर दिया ? इसका उत्तर कौन देगा?
बाबा साहब की महानिर्वाण-तिथि को प्रति वर्ष मुरादाबाद में वार्षिक समारोह हुआ करता था। इस शुभोत्सव को साधु-समाज की भाषा में ‘भण्डारा’ कहकर ही अभिहित किया जाता रहा है। १९३३ ईस्वी में महर्षिजी भी श्री धर सिंहजी एवं छतरूदासजी के साथ वहाँ पधारे और उत्सव में जाकर सम्मिलित हुए। बाहर के इन विविध एवं विस्तृत कर्मों के अन्तराल में एक अग्नि सुलगती जा रही थी, जिसने आपको चुपचाप आवश्यक खर्च के लिए रुपये लेकर गढ़ मुक्तेश्वर में रहकर साधना करने के लिए उकसाया था। मुरादाबाद का समारोह समाप्त होते ही आप गढ़ मुक्तेश्वर चले गए और वहाँ भगवती भागीरथी के पावन पुलिन पर एक पण्डे के घर में रहकर उपासना करने लगे। कुछ ही दिनों में आपको स्थान अनुकूल नहीं प्रतीत हुआ, अत: वहाँ से मुरादाबाद होते हुए आप छपरा आ गए।
छपरा में निर्मल सरयू नदी के मनोरम तट पर एक कुटी में तीन दिनों तक रहकर आपने साधना की। पुनः आपने महावीर रामजी के पुत्र से पूछा- ‘आपके पिताजी ने रक्सौल में जो धर्मशाला बनवायी है, क्या वहाँ एकान्त स्थान मिल सकेगा?’
उन्होंने उत्तर दिया- वह बराबर खाली ही रहती है। केवल शिवरात्रि के अवसर पर मेले में बहुत लोग वहाँ आकर निवास करते हैं और मेला समाप्त होने पर सभी चले जाते हैं । फिर वह सूनी ही रहती है। मेरे पिताजी की इच्छा थी कि आप वहीं जाकर अपनी एकान्त साधना करते ।’
रक्सौल में महावीर रामजी की एक दूकान भी थी। आपके वहाँ निवास करने की इच्छा जानकर उनके पुत्र ने अपने कर्मचारियों को धर्मशाला साफ-सुथरा करने के लिए एक पत्र लिख दिया था। पत्र पाते ही उनलोगों ने धर्मशाला को भली भाँति साफ करवा दिया। आप एकान्त-वास करने का विचार लेकर रक्सौल चले आए। यहाँ आकर तीन दिनों तक आपने एकान्त-वास किया। धर्मशाला वास्तव में खाली ही रहती थी और सफाई भी भली भाँति कर दी गई थी, पर वहाँ की नगरपालिका की कर्तव्यहीनता के कारण नालियों और मोरियो की सड़ी हुई दुर्गन्धि से सारा वायुमंडल दूषित हो रहा था। इसी कारण आपने वहाँ का भी निवास छोड़ दिया और भागलपुर चले आए। यहाँ आकर आपने कुछ सत्संगियों के साथ जाकर कुप्पाघाट के शान्त-एकान्त स्थल को देखा। यहाँ की गुहा आपको उपासना के लिए अनुकूल प्रतीत हुई।
भागलपुर के बरारी मुहल्ले में स्थित इस गुफा के समीप गंगा की धारा पूर्व-दिशा-वाहिनी हो गयी है। ताल वृक्षों के साथ अन्य विभिन्न तरुओं एवं झाड़ियों ने इस पथरीली भूमि को भी प्राचीन ऋषियो के पवित्र अरण्याश्रम के रूप में परिणत कर दिया है। यहाँ आते ही मन आध्यात्मिक भावों से भर जाता है।
इस गुफा का प्रवेश-द्वार ईंट के प्राचीरों से आवेष्टित है। जनश्रुति है कि ‘इसे भागलपुर जिले के न्यायाधीश सैण्डिस साहब ने विनिर्मित कराया था।’ आपने गुफा में उतरने के लिए ईंटो की सीढ़ियाँ बनवा दी तथा सुरक्षा के लिए द्वार पर मजबूत कपाट लगवा दिया।
उक्त सोपान से नीचे उतरने पर एक छोटा-सा कमरा मिलता है, जिसकी छत मेहराव के आकार में मिट्टी काटकर बनायी गई है। आपने इस कमरे को पाकशाला तथा भण्डार-गृह के काम में लाने के लिए मध्य में एक ईंट की दीवार बनाकर उसे दो भागों में विभक्त कर दिया। इस कमरे से पश्चिम एक सुरंग है, जिसमें जाने के लिए बहुत संकीर्ण मार्ग है। बहुत कठिनाई से लोग इस रास्ते से जाकर एक चतुष्कोणाकार कमरे में उपस्थित हो सकते हैं । आपने इसके मुखद्वार पर एक जालीदार कपाट लगवा दिया। इसके पश्चिम एक बड़ा कमरा है। इस कमरे की उत्तर ओर दूर तक एक सुरंग चली गयी है, जो गंगा नदी के पुलिन पर जाकर समाप्त हो गयी है। लोग इस सुरंग-पथ से चलकर गंगा-दर्शन कर सकते हैं । बड़े कमरे की पश्चिम दिशा में भी एक सुरंग है। इस सुरंग-पथ से जाने पर पश्चिम में पुनः एक कमरा मिलता है। जनश्रुति थी कि इस कमरे से और पश्चिम सुरंग-पथ से जाने पर एक सुन्दर कमरा है, पर जब आपने उस बन्द सुरंग को साफ करवाया, तो देखा कि इसके बाद कोई कमरा नहीं है। केवल उस सुरंग के अन्तिम छोर पर जाने से बाहर का दृश्य देख सकने के लिए एक सुरंग-मार्ग बना हुआ है ।
दूसरी सुरंग दक्षिण की ओर एक छोटे कमरे तक चला गयी है। पहले आपने इसे ही साफ करवाकर इसमे शब्द-साधन का गंभीर अभ्यास प्रारम्भ किया, पर यहाँ बाहर की ध्वनियाँ किसी भाँति पहुँच ही जातीं और आपकी चेतना को बाहर खींचने का प्रयत्न करने लग जाती ; अत: आपने उत्तरी सुरंग के पश्चिम पार्श्व में स्थित दोनो कमरों को छतरू दासजी के द्वारा साफ करवाया। साफ करते हुए छतरू दासजी को मनुष्य की हड्डियाँ मिली और उन्होंने इसकी सूचना आपको दी। आपने उन कमरों से हड्डियों को बाहर करवा दिया, पर उन कमरों को भी छोड़ ही दिया।
पश्चिम सुरंग-पथ के कमरे में नादानुसन्धान करना तो विघ्नों के लिए खुला रास्ता प्रदान करना ही था, अत: आपने भोजन-गृह की पूर्वस्थित गुफा को साफ करवाना प्रारम्भ किया। गुफा को यहाँ ‘कुप्पा’ कहकर ही पुकारा जाता है। पाकशाला की पूर्व ओर बहुत दूर तक एक संकीर्ण सुरंग चली गयी थी, जिसमे मनुष्य लेटकर ही प्रवेश कर सकते थे। आपने खुदवाकर उसे ऐसा बना दिया, जिससे अब बैठे-बैठे चलकर मनुष्य सुरंग के छोर तक जा सकते हैं। इस सुरंग के छोर पर एक बड़ा कमरा है। इस बड़े कमरे से दक्षिण दिशा में पुनः एक सुरंग दूर तक गयी है। इस सुरंग के अन्त में फिर एक कमरा है। इस कमरे की दक्षिणी दीवार से सटकर एक चबूतरा बना हुआ है। इस चबूतरे पर आप अपने स्वाध्याय के लिए माँगलिक पुस्तकें रखा करते थे। इस कमरे से पुनः एक सुरंग और भी दक्षिण चली गयी है। वहाँ भी एक कमरा तथा एक चबूतरा था । आपने इन सभी सुरंग-पथों एवं कुप्पाओं को साफ करवाया । इस कमरे से भी दक्षिण दिशा में दूर तक एक और सुरंग चली गयी थी, जिसके अंतिम छोर पर एक शान्त निस्तब्ध कमरा था। इस सुदृढ़ किले में बाहर की ध्वनियों का आक्रमण और प्रवेश होना असम्भव ही था। आपने इसे ही साफ, स्वच्छ और पवित्र बनाकर इसी में गंभीर नादानुसन्धान (सुरत-शब्दयोग) की दिव्यतम उपासना का शुभारम्भ किया। यह मंगलविधायिनी गुहा शीतकाल में उष्णता और ग्रीष्मकाल में शीतलता का संचार करती थी। पर वर्षाकाल में वहाँ उमस बढ़ जाती थी और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए वह उमस प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न करती थी-ऐसा अनुभव किया गया है। सन् १९३३ ईस्वी के मार्च एवं अप्रैल की मिलन-वियोग वेला में आपका यहाँ पदार्पण हुआ था। ध्यान-गुहा से पूर्व एक और सुरंग एवं छोर-स्थित कमरा है, जिसे आपने साफ नहीं करवाया ।
सोने, बैठने, विश्राम एवं जिज्ञासुओं के साथ वार्तालाप करने के लिए आपने पुण्य सलिला भागीरथी के तट पर एक फूस का मकान चतुष्खण्डी रूप में बनवाया था। देहात में इस भाँति बने फूस के मकान को लोग चौखण्डी कहा करते हैं । इसमे दो चौकियाँ बिछायी रहती थीं। एक पर आप आसीन रहा करते तथा अन्य पर वार्ता करनेवाले जिज्ञासुओं के बैठने की व्यवस्था थी। यह फूस की कुटिया चारों ओर जाफरियों से घिरी हुई थी। दक्षिण पार्श्व के घिरे प्रांगण में रंग-बिरंगे फल एवं क्रोटन के पौधे लगे हुए थे। इसमे लोग सत्संग करने के लिए आते थे। यहाँ से कुछ पूर्व की ओर हटकर स्नान करने एवं जल लाने के लिए मनोरम घाट बनाए गए थे। घाट से गुहा तक जाने के लिए प्रशस्त पथ बना हुआ था।
गुफा की मरम्मती, सफाई, दीवार एवं सोपान आदि बनाने में लगभग दो सौ रुपये आपने खर्च किए । कुटीर, उसके आवेष्टन एवं उद्यान-प्रांगण के घेरे में जितने बाँस लगे, सभी श्री महेन्द्रनाथ सिंहजी ने दान में दिए थे। इस महासाधना के प्रारम्भ में छतरू दासजी ने आपकी पूरी सेवा की। कुछ दिनों के बाद सिद्धू दासजी सेवा करने का ख्याल लेकर यहाँ आए। इनके आने पर छतरू दासजी ने इनको योग्य समझकर सेवा का उत्तरदायित्व इनके ऊपर डाल स्वयं विश्राम लेने चले गए। सिद्धू दासजी ने यहाँ रहकर अन्त तक आपकी सेवा की। आज उम्र ढल जाने के कारण मनिहारी सत्संग-मंदिर की सेवा का मंगल-भार इनको दिया गया है।
आपके वहाँ कुछ दिन निवास करने के बाद एक साधु महाराज आए। पहले वे यहाँ आते और गुहा के भीतर इधर-उधर देखकर लौट जाते। कई दिनों तक ऐसा करते देख एक दिन आपने ही उनसे पूछा- ‘क्यों महाराजजी ! आप मुझसे कुछ पूछना चाहते हैं ?’ उन्होंने कहा- ‘हाँ, महाराज ! मुझे आपसे पूछने की जरूरत पैदा हो गयी है।’
इसपर आपने कहा- ‘पूछिए, क्या कहना चाहते हैं ?’
आपकी वाणी से आश्वस्त होकर उन्होंने पूछा- ‘महाराज ! मैंने इस गुफा की दीवार में कुछ वस्तु छिपाकर रखी थी। आपकी आज्ञा हो, तो मैं अन्दर जाकर उसे ले लूँ ।’
उस समय भीतर में राजमिस्त्री चबूतरे पर पलस्तर कर रहे थे। आपने कहा- “निस्सन्देह आप भीतर जाकर अपनी रखी वस्तु निकाल लीजिए। चबूतरे के अन्दर भी कुछ हो, तो उसे भी निकाल लीजिए। मैं पीछे उसे मरम्मत करवा लूँगा।’
साधु ने गुफा की दीवारों में जगह-जगह रुपये गाड़ रखे थे । आपका आदेश पाकर वे भीतर गए और अपने चिह्नों को परख-परखकर रुपये निकालते गए। रुपये निकालकर वे आपके पास आए । आपने पूछा-क्या आपके सभी रुपये मिल गए?’
साधु ने कहा- ‘नहीं, कुछ रुपये नहीं मिल रहे हैं ।’
इसपर आप बोले- ‘गुफा साफ कराते समय सत्रह रुपये निकले थे। मैंने उन रुपयों से कपाट (किवाड़ी) बनवाकर इसके दरवाजे पर लगा दिया है। यदि आप चाहें, तो वे रुपये दे दूँ।’ साधु ने कहा- ‘नहीं , वे रुपये तो काम में लग ही गए। वे नहीं चाहिए।’
आपने पूछा- ‘तो क्या और रुपये नहीं मिल रहे हैं ?’
साधु बोले- ‘हाँ, एक स्थान के रखे रुपये अच्छी तरह खोजने पर भी नहीं मिले ।’
आपने यह सुनकर कहा- ‘दीवार बनवाते समय किसी ने मुझसे कहा था कि राजमिस्त्री को कुछ रुपये मिले हैं , पर मेरे पूछने पर उसने इसे कबूल नहीं किया ।’
साधु ने इतने रुपये निकाले कि एक गठरी ही बन गई। उसे देखकर आपने कहा- ‘महाराज! आप साधु होकर इतने रुपये क्या करेंगे? इसे किसी धर्म-कार्य में लगा दीजिए।’
साधु बोले- ‘देखा जाएगा।’
आपने कहा- ‘आप साधु होकर इसे कहाँ रखेंगे? जिसके पास रखेंगे, वही ले लेगा । अच्छा, आप ऐसा कीजिए। पोस्ट-ऑफिस में जमा कर दीजिए। वहाँ यह सुरक्षित रहेगा और समय पर काम देगा।’ ‘तुलसी सन्त सुअम्ब तरु, फूले फलहिं पर हेत। इतते ये पाहन हनें, उतते वे फल देत।।’
सन्तजन उदासीन, विरोधी एवं मित्र सभी के लिए कल्याण की ही बातें कहते और करते हैं । यह उनका स्वभाव ही हो जाता है।
साधु महाराज आपकी हित-भरी वाणी सुनकर चले गए।
कुछ दिन बाद प्रसिद्ध हनुमानवाला बाबाजी कहलगाँव से यहाँ आए। उन्होंने कुछ दिन इसी गुफा में निवास किया था। आपने उनसे आदरपूर्वक बैठने के लिए कहा।
वे बोले- ‘ मैं क्या बैठूँगा ? मेरे ऊपर एक बड़ी विपत्ति आ गयी है। मेरा हनुमान डूब गया।’
आपके आग्रह पर कुछ देर चिन्तित-से वे खड़े रहे और बाद में चले गए।
जिस प्रकार पुष्पों के सौरभ से खींचकर भ्रमरगण वहाँ पहुँच जाते हैं , उसी प्रकार आपके एकान्तवास में भी सत्संगी लोगों के आने का ताँता लगा ही रहता था।
गुप्त रूप में विरोधी शक्तियों द्वारा मित्र और शत्रु के रूप में आपके एकान्त वास की गम्भीर साधना में व्याघात की परिस्थितियाँ भी आती रही ।
एक दिन एक भद्र पुरुष आपसे वार्तालाप कर रहे थे। उसी समय बाबू महेन्द्रनाथ सिंहजी भी आ गए। उनके आने पर उन्हीं से उक्त भद्र पुरुष की वार्ता होने लगी। वार्तालाप के सिलसिले में महेन्द्र बाबू ने उन्हें एक अपशब्द कह दिया। उनकी श्रद्धालु भावना को इससे बड़ी चोट लगी । वे इससे क्षुब्ध होकर दुःखी और व्यथित हो गए । आपने अपनी मधुर वाणी से उस आघात को बहुत सहलाया, फिर भी वे इस पीड़ा को विस्मृत नहीं कर सके और चले गए।
आपने महेन्द्र बाबू से भी ऐसी कटु वाणी आश्रम में बोलने की कोई शिकायत नहीं की। दोनों ओर के आघातों को चुपचाप आपने पी लिया ।
उत्तरी सुरंग के बगलवाले कमरे से जो मनुष्य की हड्डियाँ निकली थी , उसकी चर्चा एक दिन आपने किसी सत्संगी से कर दी । यह बात धीरे-धीरे फैलकर स्थानीय दारोगा साहब के कानों तक पहुँच गयी। दारोगा साहब तुरन्त पुलिस-दल के साथ कुप्पाघाट पर आ धमके और धमकी के स्वर में ही आपसे पूछताछ करने लगे। बोले- ‘बतलाइए, ये हड्डियाँ कहाँ से निकली है ?’
प्रश्न का उत्तर बिना लिए ही क्रोधावेश में वे कुप्पा के अन्दर चले गए और वहाँ से दो मनुष्यों की हड्डियाँ निकाल लाए। उसे टोकरी में रखवाकर आपसे पूछने लगे- ‘आप यहाँ सूनसान में अकेले क्यों रहते हैं ? यहाँ क्या करते हैं ?’
आपने कहा- ‘जो करता हूँ, वह आप देख ही रहे हैं ।’
यह सुनकर वे बिगड़ते हुए चले गए और हड्डियों को ले जाकर रसायन-विज्ञ से जाँच कराया। वहाँ से रिपार्ट मिली कि हड्डी बहुत पुरानी है और सड़ गयी है। फिर दारोगा साहब इस संबंध में पूछ-ताछ करने नहीं आए।
इस कुप्पाघाट की गुहा का निर्माण कराने में चाहे जिसका हाथ रहा हो, पर उसे खाली पाकर चोर-डाकू उसका उपयोग करने ही लगे थे। आपको वहाँ निवास करते देख उनलोगों ने समझ लिया कि ये सच्चे साधु हैं ; क्योंकि वे लोग जानते थे कि साधारण मनुष्य वहाँ एकाकी निवास करने का साहस नहीं कर सकते । फिर भी वे आपकी वास्तविकता की टोह लिया करते थे। वे लोग कभी-कभी दस या सौ रुपये का नोट लेकर आपके पास भुनाने के लिए आते थे। आप इसपर कहते मैंने तो रुपये इम्पिरियल बैंक में रख दिए हैं । वहाँ से अपनी जरूरत-लायक मँगा लिया करता हूँ।
काँग्रेस के स्वातन्त्र्य-आन्दोलन एवं क्रान्तिकारियो के गुप्त षडयंत्रों से भयभीत ब्रिटिश सरकार की पुलिस और गुप्तचर विभाग को आप पर क्रान्तिकारी होने का सन्देह हुआ करता था। अतः बराबर एक-न-एक जासूस आपका वास्तविक भेद जानने के लिए वेश बदलकर आया करते थे और आपके निकट बैठकर वार्ता करते तथा सुनते थे। इस भाँति छह महीनों तक आपकी छिपी-छिपी जाँच-पड़ताल होती रही। दो बार स्वयं भागलपुर के कमिश्नर साहब भी कुटिया पर पधारे और चारों ओर घूम-फिर कर देखने के बाद उन्होंने आपसे पूछा- ‘महाराज ! आप यहाँ क्या करते हैं ?’
आपने उत्तर दिया- ‘भजन करता हूँ।’
फिर वे बोले- ‘यह बहुत पवित्र स्थान है। गंगा के किनारे इस जनशून्य जगह में आपकी कुटी बड़ी ही सुन्दर और आकर्षक जान पड़ती है।’
इतना कह वे चले गए और फिर कभी नहीं आए ।
आपके क्रान्तिकारी होने का गुप्त प्रचार सरकारी विभागो में दूर-दूर तक फैल गया था। कुरसैला के सत्संगी श्रोमोतीदासजी जब पूर्णियाँ जेल कम्बल खरीदने गए थे, तो वहाँ जेल के वार्डरों ने उनसे आपके क्रांतिकारी होने तथा छह महीनों तक आपकी गोप्य जाँच करने की बात बतायी थी। यह जानकारी आपको मोती दास से मिलने पर बहुत दिनो के बाद हुई थी।
इस प्रकार अनेक बाधाओं से निरपेक्ष रहकर भी आपने अपनी अविरल गंभीर साधना जारी ही रखी, तब मानवी तप:शक्ति को देखकर भयभीत होनेवाले विषयी देवों के सर्वोच्च अधिष्ठाता स्वयं इन्द्र महाराज ने सरस्वतीजी को विनयपूर्वक कुछ उद्धत नौजवानों की बुद्धि को उपद्रव कराने की प्रेरणा देने के लिए भेजा।
अब ऐसे अनुप्रेरित उद्धत नवयुवकगण आपकी कुटी पर आने लगे। जिस समय आप द्वार का कपाट लगाकर निस्तब्ध कुप्पे में बैठकर अनाहत नाद का अनुसन्धान करने लगते, उस समय ये लोग आकर दरवाजे में धक्का देते और हल्ला करते थे कि दरवाजा खोलो। नहीं खोलने पर अनेक भद्दी-भद्दी गालियाँ बकने लगते। कपाट खुल जाने पर वे लोग जूते पहने हुए ही आपके आसन के निकट चले जाते थे। वर्जन करने पर उलटी डाँट बताते । कहते–’यह तो सार्वजनिक स्थान है। जो जहाँ आना चाहेगा, आएगा। आप उसे रोक नहीं सकते। यह आपकी कोई मौरूसी जायदाद है नहीं , जो आपका इसपर दावा चले ।’
एक दिन कुछ उद्धतों ने आपके ध्यानाभ्यास के समय भीतर घुसकर साइकिल का पुराना टायर जलाया। उसकी दुर्गंधि से ‘कुप्पा’ भर गया।
एक दिन कुछ मुस्लिम सम्प्रदायवाले उद्धत नवयुवक आए और आपसे कहने लगे- ‘यह तो हमलोगों का पुराना कब्रिस्तान है ।
आपने हमलोगों की कब्र कहाँ उखाड़कर फेंक दी है और आप क्यों इस कब्रिस्तान पर दखल जमाकर निवास कर रहे हैं ?’
सद्गुरु की करुणा से उस दिन आपकी कुटी पर कलक्टर साहब के पेशकार पधारे हुए थे। उन्होंने उद्धत नौजवानों को डाँटा और कहा- ‘यह कबसे कब्रिस्तान बन गया ? मैं बूढ़ा हो चला, पर आजतक कभी यहाँ कब्रिस्तान होने की बात नहीं सुनी। जाओ, भागो यहाँ से ।’
इसके बाद फिर वे उपद्रवीगण नहीं आए। इसी भाँति तरह-तरह के उपद्रव विरोधी शक्तियों की अनुप्रेरणा से हुए, पर आप सभी कष्टों को शान्त भाव से सहते रहे । आपकी अविकृत सहनशीलता के कारण या सद्गुरु की दया से ये सारे उपद्रव हो-होकर अनायास शान्त हो जाते । इस भाँति विघ्न-बाधाओं की भयंकर आँधियों के बीच में निवास करते हुए भी अपनी साधना से आप जरा भी विचलित नहीं हुए।
आपने सोच लिया था कि महासाधना की इस अवधि में सत्संग कराने यहाँ तक कि वार्षिक सत्संगाधिवेशन में भी मैं नहीं जाऊँगा ।। इसी बीच लक्ष्मीपुर (भागलपुर)-निवासी श्री महावीर दासजी ने अपने गाँव में छब्बीसवाँ वार्षिक सत्संगाधिवेशन करने का आयोजन किया । इसके लिए आपसे कोई परामर्श या स्वीकृति नहीं ली गयी थी। विज्ञापन वितरित कर दिए गए थे और समय पर सभी प्रेमी सत्संगीगण वहाँ पधारे, पर आप नहीं गए थे। मुरादाबाद से बाबा नन्दन साहबजी नहीं आए और श्री महेन्द्रनाथ सिंहजी भी उसमें नहीं पधारे, अत: अधिवेशन शून्य-सा प्रतीत हुआ। भला संतमत-सत्संग का अधिवेशन बिना सन्तों की उपस्थिति के कैसे सर्वांगपूर्ण हो सकता है ? आध्यात्मिक रसलोलुपों को जरा भी मन नहीं लगा और उनमें से अधिकांश सत्संगियों ने शीत के कष्टों की परवाह नहीं कर सीधे कुप्पाघाट की ओर प्रस्थान कर दिया और खुले आकाश के नीचे कुटी के प्रांगण एवं गुफा के मैदान में रातभर निवास किया। आपके दर्शन और आपकी एक वाणी मात्र से सभी ने अपने अभाव की झोली भर ली, तब सभी अपने-अपने निवास की ओर वापस लौटे। छब्बीसवें अधिवेशन के होने की लालसा मौन भाव से आपके श्री चरणों में सभी निवेदित करते गए। क्या भक्त के लिए भगवान अपने पूर्व नियत विधानों का उल्लंघन नहीं करेंगे?
प्रेरणा जोतरामराय (पूर्णियाँ)-निवासियों के हृदय में जाग उठी। गाँव के सभी सत्संगियों ने एकमत और एकराय होकर छब्बीसवें वार्षिक सत्संगाधिवेशन के लिए अपने तन, मन और धन न्योछावर कर दिए। भक्तों ने परम गुरु को उपयुक्त अवसर पर पधारने के लिए आवाहन किया। कुप्पाघाट को एक दिन भी नहीं छोड़ने का मौन-विधान परित्याग कर दिया गया। आपकी स्वीकृति पाकर सत्संगियो का हृदय उल्लास से नाच उठा। अधिवशन की तिथि नियत की गयी ता॰ १३, १४ एवं १५ जनवरी, १९३४ ईस्वी ।
अवसर उपस्थित हो गया। प्रतीक्षा-भरे आह्वान से प्रेमवश खिंचे हुए महर्षिजी ने कुप्पाघाट से प्रस्थान कर दिया। ट्रेन से पीरपैंती आकर वहाँ से एक मील दूर ओलापुर के सत्संग-भवन में आपने रात्रि-निवास किया और वहाँ से स्थानीय सत्संगी श्री बंसी दासजी तथा श्री भृगु भगतजी की व्यवस्था में नाव पर चढ़कर आप १२ जनवरी की आठ बजे रात में भवानीपुर घाट-गंगा के दक्षिणी तट पर ठहर गए। रात की वर्षा से पंडाल में ठहरे हुए सत्संगियों को काफी दिक्कतें उठानी पडी । आपको लाने के लिए ब्राह्म मुहूर्त में ही श्री शीतल बाबू के सुपुत्र श्री चन्द चौधरीजी शम्पनी गाड़ी लिए प्रतीक्षा कर रहे थे। आप सत्संग-समय के कुछ पूर्व ही पहुँच गए। छह बजे प्रातः सत्संग आरम्भ हो गया। विनती और भजन के बाद आपका प्रवचन प्रारम्भ हुआ।
‘सभी सत्संगियों को अवश्य ही तपस्या करनी चाहिए, यह अति पुनीत कर्तव्य है। शरीर और मन के सुखों को छोड़ देने का नाम ही तप है।’
‘सन्तमत-सत्संग में सम्मिलित होनेवाले सभी सत्संगियों को चाहिए कि वे अपने भोजन और आवास-संबंधी सारी जिम्मेवारी स्वयं ही वहन करे । इसका भार कभी दूसरे पर नहीं डालें । सत्संग करने में बादशाही ठाट-बाट की जरूरत नहीं है। वृक्ष के नीचे घास बिछाकर भी सत्संग करने के लिए सदा तैयार रहना चाहिए।’
‘चाहे किसी आश्रम, वेश और सम्प्रदाय में ही क्यों न हो , यदि वे सदाचारी और एकविन्दुता प्राप्त कर सुरत-शब्द-योग का साधन करते हों , तो अवश्य ही सद्गुरु बनाने के योग्य हैं ।’
प्रातः सत्संग समाप्त होने पर सभी सत्संगियों ने मिलकर आपसे प्रार्थना की- ‘आपने अपना निवास पंडाल से दो मील की दूरी पर नाव में रखा है, इससे हमारे मन में अभाव के साथ ही काफी पीड़ा और कष्ट है। अत: हमारी प्रार्थना स्वीकार कर आप पंडाल के समीप ही अपना आवास ग्रहण करे ।’
आपने उत्तर में कहा- ‘मुझे यहाँ निवास करने में कोई आपत्ति नहीं है, पर शर्त यह है कि आपलोग मेरे लिए सत्संग-कोष से मेरे भोजनादि में एक पैसा भी खर्च नहीं करें। पहले भी इस तरह की बात नहीं थी, पर बीच में ऐसा रिवाज हो गया। इस रीति को उठा देने से ही भविष्य में सत्संग को लाभ है। सत्संग-प्रबन्ध-कोष पर भार डालने से ऐसा और इससे भी विशाल सत्संग का आयोजन करना कठिन ही नहीं, असम्भव हो जाएगा। आप इस विचार के अनुसार बरतने में मुझे स्वतंत्रता दें, तभी मैं आ सकता हूँ।’
सत्संगाधिवेशन के भविष्य की उन्नति को सोचकर सभी सत्संगियों ने आपके विचार का सहर्ष अभिनन्दन किया और आपने रात्रि में यहीं निवास करने की स्वीकृति दे दी।
दोपहर में एक बजे से सत्संग शुरू हुआ। भजन एवं विनती के बाद जालन्धर पंजाब) निवासी श्री वैद्यनाथ तालवाड़ ने ‘गुरु ग्रन्थ साहब’ का जबानी पाठ कर ‘ईश्वर-गुणानुवाद’ पर तीन बजे तक भाषण दिया ।
इसके उपरान्त आपका प्रवचन आरम्भ हुआ। आपने कहा - ‘इस अधिवेशन में बाबा नन्दन साहब नहीं आए है। इससे किसी को दु:खी या उत्साहहीन नहीं हो जाना चाहिए । सन्तमत-सत्संग का प्रथम वार्षिक अधिवेशन जोतरामराय से ही १९१० ईस्वी में प्रारम्भ हुआ था। इसमें बाबा साहब से भी ऐसा करने के लिए आदेश नहीं लिया गया था और न किसी सुदूर निवासी साधु-महात्मा के भरोसे पर ही इसका आरम्भ हुआ था। सोचा गया था कि अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार जितने भी लोग इसमें सम्मिलित हो सकेंगे, सभी मिलकर आपस में ही सत्संग सम्पन्न कर लेंगे। पीछे से अवश्य ही बाबा साहब की सम्मति और आशीर्वाद भी इस कार्य को मिल गया था। स्वयं १९१३ ईस्वी में उन्होंने भी बाबा नन्दन साहब सहित आकर इसे सुशोभित और सार्थक किया था। सन् १९२२ ईस्वी से बाबा नन्दन साहब तथा वहाँ के अन्य सत्संगीगण अधिवेशन में आकर सहयोग और प्रकाश देते थे। यह उत्तम बात है। बीच में भी वे दो-तीन वर्ष तक नहीं आए थे और इस वर्ष भी नहीं आए हैं । शायद भविष्य में भी नहीं आएँ, तो किसी को हतोत्साह नहीं हो जाना चाहिए। सदा सभी सत्संगियों को मिल-जुलकर वार्षिक सत्संगाधिवेशन करते ही रहना चाहिए।’
बीच में मोती दासजी के लिखित तथा श्री डोमनलालजी के मौखिक भाषण हुए। तदुपरान्त आपने कहा- “विज्ञापन के अनुसार इस सत्संग में ‘मोक्ष’ विषय को समझाना आवश्यक है, पर बिना बन्धन को समझे मोक्ष को नहीं समझा जा सकता है, अत: आज मैं बन्धन को ही समझाने की कोशिश करूंगा।
शरीर और संसार यही आवरण है, पर इसके स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण चार और भी क्रमशः सूक्ष्म स्तर हैं । ये सभी जड़ात्मक ही हैं । इन चारों प्रकार के शरीरों से या आवरणों से मुक्त हो जाना ही मुक्ति। है। उनसे मुक्त हो जाने पर शान्ति मिलती है। जिसने जीवन में इस शान्ति को प्राप्त कर लिया है, उसे ही सन्त कहते हैं। सन्तों के विचारों का नाम ही ‘सन्तमत’ है। सन्तमत मोक्ष पाने का रास्ता बतलाता है।”
फिर १४ जनवरी के प्रात:कालीन सत्संग में तुलसी साहब के पद्य का अर्थ बतलाते हुए आपने कहा- ‘प्राणायाम को छोड़कर अष्टांगयोग के सातो अंग भक्तियोग में प्रत्यक्ष ही पाए जाते हैं , पर यह नहीं समझना चाहिए कि भक्त प्राणायाम करते ही नहीं है। कुछ भक्त तो प्रत्यक्षतः पूरक, रेचक एवं कुम्भक प्राणायाम करते हैं , पर कुछ केवल ध्यानयोग ही करते हैं। ध्यानयोग में अनायास ही प्राणायाम हो जाता है। यह मार्ग सरल और निरापद है। इसीलिए भक्तियोग में ध्यानयोग की प्रधानता है। अष्टांगयोग या भक्तियोग कोई योग करो, दोनों के अभ्यासियों को ब्रह्मचर्य का पालन करना आवश्यक है।’
पुनः दोपहर के सत्संग में आपने प्रवचन दिया ‘मनुष्य होकर ईश्वर पाने का रास्ता खोजना चाहिए। वह रास्ता सबके अन्दर में ही है। इस रास्ते पर चलकर जो दूसरे को रास्ता बतावे, वह गुरु है। सभी को यह रास्ता जानकर उसपर चलने का प्रयत्न करना चाहिए।’
१५.०१.१९३४ के प्रात:कालीन सत्संग में आपने ‘घटरामायण’ का प्रथम छन्द गाकर उसका अर्थ समझाते हुए कहा- ‘घटरामायण’ से केवल भजन-भेद-संबंधी वाणियों का ही सत्संग किया जाना चाहिए। वाद-विवाद के प्रसंगों से कोई लाभ नहीं है। इसलिए उनमें से विवादात्मक चर्चाओं को छोड़ केवल अन्तर-पथ को प्रशस्त करनेवाले विषयों का चयन कर उनकी टीकाएँ और व्याख्याएँ करनी आवश्यक है ।
इस प्रवचन के कुछ दिन बाद ही आपने ‘घटरामायण-सार सटीक’ लिखकर उसे सन्तमत-सत्संग के लिए उपयोगी और सुलभ बना दिया। पुनः बाबा नन्दन साहब-द्वारा प्रेषित पत्र सबको पढ़कर सुनाया और तदुपरान्त योगांगों का स्वरूप बतलाने लगे- “मनुष्य की चैतन्य-वृत्तियाँ इधर-उधर फैलती रहती है , बारम्बार उनका सिमटाव करना ही ‘प्रत्याहार’ है। जब चैतन्य-वृत्तियों का सिमटाव होकर अल्पकालिक ठहराव होता है, तो उसे ही ‘धारणा’ कहकर बोध किया जाता है। जब धारणा की स्थिति अधिक समय तक रहने लगती है, तो उसे ‘ध्यान’ कहा जाता है। आनुक्रमिक ढंग से इसका अभ्यास होता है। इस सिलसिलेवार अभ्यास के लिए अडिग आसन की जरूरत है। इस अभ्यास की सफलता के लिए सदाचार का पालन करना जरूरी है। चोरी, जारी, नशा, हिंसा एवं झूठ इन पाँच पापों को छोड़ देने से ही सदाचारी बना जा सकता है।”
दोपहर के सत्संग में पुनः आपने प्रवचन दिया- ‘चंचलता में अनेकता का भास होता है, यह दुख का कारण है। अचंचल दशा का नाम ही एकाग्रता है, इससे सुख मिलता है। जो अपने चित्त को एकाग्र करता है, वही भक्ति करता है ।’
इस अधिवेशन में गुरुपूजन-कोष को धर्म-कोष में परिणत कर दिया गया। इससे सत्संग-प्रसार के लिए सभी आवश्यक कार्य करने का निश्चय किया गया।
आज सत्संग के उपरान्त करीब दो सौ स्त्री-पुरुष महर्षिजी से भजन-भेद लेने के लिए एक कमरे में अलग-अलग एकत्र थे, उसी समय १९३४ ईस्वी का प्रलयंकर भूकम्प हुआ । भूकम्प से भयभीत होकर तीन चौथाई पुरुषवर्ग कमरे से बाहर भाग गए, पर सब-की-सब महिलाएँ श्रद्धापूर्वक अविचलित भाव से बैठी ही रही । यह देखकर आपने सभी के आने पर कहा- आप पुरुषों से तो ये महिलाएँ ही अधिक श्रद्धालु और वीरांगनाएँ हैं , जो भूकम्प के खतरों को जानती हुई भी अविचलित चित्त से ज्यों-की-त्यों बैठी ही रह गयी और आपलोग तो कायर बनकर बाहर भाग गए।’
सत्संगाधिवेशन पूर्ण कर आप श्यामाचरण लाहिड़ीजी के एक गृहस्थ शिष्य योगी भूपेन्द्रनाथ सान्यालजी के दर्शन के लिए तेजनारायण जुबली कॉलेज, भागलपुर के प्रोफेसर बाबू नारायण दासजी के निवास स्थान पर पधारे । योगी भूपेन्द्रनाथ सान्यालजी अपने परिवार के साथ रहते हुए भी साधना करके सिद्ध पुरुष बन गए है। इनके अनेक शिष्य हैं, जिनमें द्विज वर्गों के लोगों की संख्या अधिक है। इन्होंने अपने निर्वाणप्राप्त सद्गुरु के स्मारक में मन्दार पर्वत से एक कोस की दूरी पर एक गुरुधाम की स्थापना की है। मंदिर में उनके पूज्य सद्गुरुदेव की प्रतिमा तथा शिवलिंग की प्रतिष्ठा की गयी है। प्रोफेसर नारायण दासजी भी उनके शिष्य हैं।
दोनों ने दोनों का अभिनन्दन किया । फिर पारस्परिक वार्तालाप के सिलसिले में महर्षिजी ने उनसे पूछा- ‘प्राणायाम का विधिवत् अभ्यास करके ध्यान-योग करना चाहिए अथवा बिना प्राणायाम किए ही ध्यानयोग करना चाहिए ?’
योगी सान्यालजी ने उत्तर दिया- ‘प्राणायाम करके ही ध्यानयोग करना चाहिए।’
इसपर आपने कहा- ‘गीता के छठे अध्याय में लिखा है कि समतल स्थान में आसन बिछाकर, उसपर शरीर, गर्दन और शिर को एक सीध में रखकर बैठना चाहिए और ध्यान करना चाहिए। परन्तु प्राणायाम या श्वास का व्यायाम करके तब ध्यानयोग करना चाहिए, ऐसा तो उसमें भी नहीं लिखा है।’
वे बोले- ‘ऐसा करने से भी प्राण-स्पन्दन रुक सकता है, अतः वह तो प्राणायाम ही हो गया।’
आपने पूछा- ‘प्राण का वायु से क्या संबंध है?’
उन्होंने उत्तर दिया- ‘जैसे दूध में मक्खन रहता है, वैसे ही वायु में प्राण का निवास है।’
फिर आपने पूछा- ‘ध्यानयोग से प्राणायाम का क्या संबंध है ?’
इस प्रश्न का उत्तर नहीं देकर वे कहने लगे- ‘आप तो संन्यासी हैं और मैं गृहस्थ हूँ।’
यह सुनकर आपने कहा- ‘आप अच्छे हैं, किन्तु मैं अच्छा नहीं हूँ।’
उन्होंने पूछा- क्यों?’
आपने उत्तर दिया-आपके नमूने को देखकर लोगों को विश्वास होता है कि पारिवारिक जीवन में रहकर भी लोग योगी, ज्ञानी और भक्त हो सकते हैं, पर मेरे नमूने को देखकर लोग समझते हैं कि बिना घर-परिवार का त्याग किए योगी, ज्ञानी, भक्त बनना संभव ही नहीं है। आपका आदर्श जनसाधारण के लिए प्रसाद और आश्वासन-जैसा है, पर मेरे नमूने से संसार को भय होता है और वे इससे भड़कते हैं।’
यह सुनकर वे मुस्कुराने लगे और बोले- ‘मैं तो अभी यात्रा ही कर रहा हूँ।’
पुनः आप कुप्पाघाट की गंभीर गुहा में प्रविष्ट हो गए।
सन् १९३४ ईस्वी का कार्तिक मास है। कुप्पाघाट से करुण विदाई ली जा रही है, पर यह विदाई है यहाँ प्राप्त अनन्त-मधु को सारे संसार में बिखेरने के लिए बाँटने के लिए ।
गुफा में लालटेन जलाने से वह गैस से भर जाती थी, अतः आपने उसे छोड़ सर्वप्रथम यहीं से टॉर्च का व्यवहार करना आरम्भ किया था। गुफा में विश्राम करने के लिए एक ऐसी कब्जेवाली चौकी आपने बनवायी थी, जिसे मोड़कर भीतर ले जाते और अन्दर के अवकाश में उसे विश्राम करने के लिए फैला दिया जाता था। आज उस टॉर्च और कब्जेवाली चौकी की भी उस गुहा से विदाई हो रही थी।
इन दोनों की मूक वाणी करुणा-विकल थी और अलग होते समय आपके हृदय में ममता की लहरियाँ उठ रही थीं । 

45.

गुप्त शान्ति-केन्द्र और सन्तमत का सही निरूपण

शान्ति एवं कल्याण के प्रसार के लिए आपने गंगा के पावन तट पर एक केन्द्र प्रतिष्ठापित करने का संकल्प किया । कुप्पाघाट से विदाई लेने के बाद आपने साहबगंज के पर्वत को जाकर देखा। वहाँ जल-प्राप्ति की कठिनाई दीख पड़ी और वहाँ से आकर आपने लगभग डेढ़ महीने तक नवाबगंज-निवासी श्री रघुनाथ साहुजी के बगीचे में निवास किया । यहाँ उपासना करते हुए आप इस अन्वेषण में लगे रहे कि कौन-सी ऐसी भूमि है, जहाँ शान्ति-स्तम्भ की चिरस्थापना हो । समय आया और आपने मनिहारी के गंगा-पुलिन पर फूस के साधना-कुटीर का निर्माण किया।
उपासना-कुटी के साथ एक पाकशाला बनाकर आपने सोचा था कि सत्संग आम्रकुंजों की सघन छाया में बैठकर कर लिया करेंगे, किन्तु नवाबगंज के श्रद्धालु सत्संगियों ने उसी जगह तेरह हाथ का सत्संग-घर भी बनवा दिया। इन सभी कुटियों का निर्माण सन् १९३५ ईस्वी के फरवरी मास में हुआ। अब यहाँ नित्य नियमित रूप से सत्संग होने लगा। इस तरह यहाँ एक शान्ति-केन्द्र की सुदृढ़ स्थापना हो गई। आज उसका रूप-रंग क्रमशः विस्तृत और भव्य होता जा रहा है। १९५० ईस्वी में वह कुटीर मंदिर में परिणत हो गया है, पर आप अपनी उसी फूस की कुटिया में ही निवास करते हैं ।
बिहार-प्रान्तीय सन्तमत-सत्संग का सत्ताइसवाँ वार्षिक अधिवेशन कनखुदिया में आपके शान्त संयोजन में ता॰ १८ से २० जनवरी तक १९३५ ईस्वी में हुआ। इसमें श्रोताओं की अपार भीड़ देखकर आपने ध्वनिवर्द्धक यंत्र की आवश्यकता महसूस की और कनखुदिया (पूर्णियाँ) अधिवेशन में ही इसे खरीदने का विचार स्थिर कर लिया। इस अधिवेशन में हाथरस से दो महात्मा भी पधारे थे।
अक्टूबर, १९३५ ईस्वी में आपने संतमत के शुद्धतम स्वरूप को निर्धारित करने के लिए अपनी उपलब्धि के प्रकाश में एक प्रश्नावली तैयार की और उसे लिखकर उसकी एक-एक प्रति बाबा नन्दन साहब, मुरादाबाद; बाबू महेन्द्रनाथ सिंहजी, मायागंज, भागलपुर; श्री गोपी दासजी, संतालपरगना तथा भवानीपुर जोतरामराय के सभी सत्संगियों के नाम से भेज दी। यह प्रश्नावली ‘घटरामायण’ तथा सद्गुरु बाबा देवी साहब के शब्द-साधन-पथ के ख्याल पर लिखी गयी थी।
इस प्रश्नावली ने अवश्य ही सभी के हृदयों में विचार-मन्थन प्रारम्भ कर दिया, पर केवल बौद्धिक ज्ञान से इसका संतोषपूर्ण उत्तर नहीं दिया जा सकता था, अतः सभी चुप रह गए, केवल गोपी दासजी ने उसका उत्तर लिखकर भेज दिया और उसके साथ उन्होंने एक पत्र भी लिखकर दिया। पत्र में लिखा था- ‘हम जैसे अल्पज्ञों से इनका खुलासा उत्तर लिखना जरा टेढ़ी खीर है। अपनी त्रुटियों के लिए क्षमा-प्रार्थी हूँ।’ यह उत्तर-पत्रक और पत्र- दोनों महर्षिजी ने सुरक्षित रूप से रख दिए हैं ।
चतुर्दश इन्द्रियों के ज्ञान से परे, अति ऊर्ध्व में जो ज्ञान स्थित है, उसे यदि बुद्धि अपनी कल्पना से जान ही ले, तो उसे बौद्धिक ज्ञान से परे कहना कोरा बकवास और कल्पना मात्र है, गोपी दासजी ने इसका बिना विचार किए ही उत्तर लिखकर अपनी बालबुद्धिता का परिचय दिया। इस घटना ने आपको एक विशेष दिशा की ओर देखने के लिए बाध्य कर दिया। आप सोचने लगे ‘भारत आध्यात्मिक देश है। ईश्वर के प्रति, अध्यात्म के प्रति यहाँ के निवासियों में स्वभावतया ही श्रद्धा और आस्था है, पर उसके सच्चे और वास्तविक स्वरूप को पहचानने की उनके पास बुद्धि नहीं है और ऐसी स्थिति में अनुभूति-जन्य ज्ञान से रहित, केवल बौद्धिक बकवास द्वारा क्या उन्हें सन्तों के बताए सही रास्ते पर लाया जा सकता है ?’
इस तरह की अनेक बातें सोचकर आपके मन में उसे प्रत्यक्ष रूप से देखने की ईप्सा उत्पन्न हो गई। आपने मन-ही-मन संकल्प कर लिया कि आगामी वार्षिक अधिवेशन में केवल श्रोता बनकर ही मैं रहने का प्रयत्न करूँगा और वास्तविकता से परिचित होऊँगा। आपने जोतरामराय के सत्संगियों को लिख दिया कि मुझे बिहार प्रान्तीय सन्तमत-सत्संग के वार्षिक अधिवेशन से अब कोई संबंध नहीं है। आपलोगों की इच्छा हो, तो इसे कीजिए अथवा नहीं कीजिए। मेरा इसपर किसी तरह का कोई दबाव या अन्य कोई प्रयत्न नहीं रहेगा।
बिहार प्रान्तीय संतमत-सत्संग का अट्ठाइसवाँ अधिवेशन मुंगेर जिले के कोल्हवारा गाँव में १८ जनवरी से २० जनवरी, १९३९ ईस्वी तक हुआ। इसमें सहस्रों श्रोताओं के सिवाय ११९६ दीक्षित तथा ३९९. अदीक्षित सत्संगी सम्मिलित हुए। इस बार मुरादाबाद से बाबा नन्दन साहब, बाबू रघुवर दयाल साहब, लाला बलभद्र दास, बाबू मूलचन्दजी, बाबू लक्ष्मी नारायणजी, शिकारपुर (सिन्ध) से श्री ताराचन्द साहब तथा मायागंज (भागलपुर) से बाबू महेन्द्रनाथ सिंहजी पधारे थे। बाबू महेन्द्रनाथ सिंहजी सम्पन्न, आई॰ ए॰ उत्तीर्ण एवं सुयोग्य वक्ता हैं । इन्होंने बचपन में ही बाबा साहब से दीक्षा पायी थी तथा महर्षिजी के दृष्टियोग-पथदर्शी गुरु राजेन्द्रनाथ सिंहजी के ये विमात्र भाई है।
१८ जनवरी को छह बजे सत्संग प्रारम्भ हुआ। भजन-कीर्तन के बाद विनती हुई । विनती के उपरान्त चार-पाँच मिनट तक सभी मौन बैठे रहे। सभी को यों चुपचाप बैठे देखकर श्री महेन्द्र बाबू ने आपसे ग्रंथ-पाठ करने का अनुरोध किया । आपने उत्तर दिया- ‘मैं इस वर्ष केवल सुनूँगा। आपलोगों को जो कुछ पढ़ने और कहने की इच्छा हो, वह पढ़िए और कहिए।’
उन्होंने कहा- ‘आप क्यों नहीं पढ़ना और कहना चाहते हैं ?’
आपने कहा- ‘इस बार तो अधिवेशन में भी सम्मिलित होने की मेरी इच्छा नहीं हो रही थी; किन्तु गत वर्ष मेरे सामने ही इस अधिवेशन का निश्चय हुआ था और सत्संगियों का अति आग्रह देखकर मैंने आना स्वीकार कर लिया था, इसीलिए आना पड़ा। गत अक्टूबर मास में ही मैंने जोतरामराय के सत्संगियों को लिख दिया था कि मुझे अब अधिवेशन से कोई संबंध नहीं है।’
इसपर उन्होंने पूछा-आपने कबसे यह संबंध-विच्छेद कर लिया ?’ आपने कहा- ‘जबसे आपको प्रश्नावली लिखकर दी।’
आपके संबंध-विच्छेद की बात सुनते ही सभी के मन में हड़कम्प मच गया और श्री रघुवर दयाल साहब आपसे कहने लगे– ‘इतनी बड़ी फुलवारी लगाकर इससे अलग हो जाओगे, तो फिर इसकी क्या दशा होगी?’
आपने कहा- ‘जो इसका मालिक है, वह इसका इन्तजाम करेगा। इसके लिए कोई दूसरा माली रख लेगा।’ यह सुनकर बाबा नन्दन साहब ने कहा- ‘यहाँ तो जो माली है, वही मालिक भी है।’
इसपर आपने कहा- ‘सो बात नहीं है। मालिक आप हैं; क्योंकि आप बाबा साहब के उत्तराधिकारी एवं परम शिष्य हैं, और मैं तो श्रोता बनकर आया हूँ, अतः मैं केवल सुनूँगा ही।’
आपका ऐसा विचार देखकर लाला बलभद्र दासजी ने ‘गुरु ग्रन्थ साहब’ का पाठ कर उसका अर्थ भी समझाया। पुनः ‘रामचरितमानस’ का पाठ किया गया और उसका अर्थ समझाते हुए महेन्द्रनाथ सिंहजी ने शब्द-साधन पर सुन्दर, युक्तियुक्त भाषण दिया । पुनः कीर्तनादि के बाद प्रात:काल का सत्संग समाप्त हो गया।
१९३५ ईस्वी में फतुहा स्थान (पटना) के एक कबीरपंथी साधु श्री गोविनद दासजी ने आपके सत्संग से प्रभावित होकर आपसे भजन-भेद लिया था, इसलिए कबीरपंथी समाज भीतर-ही-भीतर आपसे बहुत रंज थे। भजन-भेद लेने के बाद फतुहा स्थान के अधिकारी गोविन्द दासजी पर बहुत बिगड़े और उनसे कहा- ‘तुम्हें चाहिए था कि तुम अपने मत में दूसरों को लाते, पर तुम स्वयं ही दूसरे के शिष्य बन गए।’
गोविन्द दासजी ने यह सुनकर उत्तर दिया- “मैं जिस पंथ और वेश में था, अभी भी उसी में हूँ, केवल कबीर साहब के पंथ का ‘भजन-भेद’ मुझे नहीं मालूम था; उसे मैने पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी का शिष्यत्व ग्रहण कर जान लिया और अब उसका अभ्यास करता हूँ। मैं तो नहीं समझता कि ऐसा करके मैंने कबीर-पंथ को ही छोड़ दिया है।”
यह सुनकर अधिकारी ने कहा- ‘क्या मैं तुमको भजन-भेद नहीं बता देता?’
गोविन्द दासजी ने कहा- ‘मैं तो वर्षों से आपके साथ ही था, यदि आप जानते ही थे, तो अबतक मुझे क्यों नहीं बताया था ?’ इस घटना के कारण इस बार काफी संख्या में कबीरपंथी लोग अधिवेशन में पधारे थे। प्रात: दस बजे सत्संग समाप्त होते ही कबीरपंथी समाज का संदेशवाहक बनकर एक स्थानीय रईस ने आपकी कुटी पर आकर निवेदन किया ‘कबीरपंथी महात्मा लोग भी अधिवशन में पधारे हैं, अतः उनलोगों को इसमें भाषण करने के लिए समय मिलना चाहिए।’
यह सुनकर आपने कहा- ‘अधिवेशन में सत्संग के लिए थोड़ा ही समय है, अतः इसमें आधा घंटा उन्हें दिया जा सकता है। यदि वे लोग और भी अधिक समय चाहते हों, तो सत्संग से अतिरिक्त समय का उपयोग करें।’
अन्त में उक्त महाशय ने बारह से दो बजे तक के रिक्त समय में कबीरपंथी समाज के भाषण करने की योजना बनायी और आपलोगों से भी उसमें पधारने के लिए विशेष आग्रह किया।
आपने कहा- ‘हमलोग नौ बजे के बाद सत्संग से आए हैं । अब स्नान-भोजनादि के बाद जिनको बारह बजे फुरसत रहेगी, वे उसमें सम्मिलित हो जाएँगे।’
बारह बजे कबीर-पंथी समाज के महन्तजी अपने अनुचरों एवं करीब पाँच सौ अनुयायियों के साथ सत्संग-पंडाल और मंडप में पधारे । एक वृद्ध साधु, जिन्हें वे लोग परमहंसजी कहते थे, ‘सदाचार’ पर संस्कृत-श्लोकों का उल्लेख करते हुए भाषण देने लगे। सत्संग प्रारम्भ होने का संवाद पाकर आप भी उसमें पधारे । उनलोगों ने बड़े ही आदर से आपकी वन्दना की और आसन पर बैठाया। इसके बाद महेन्द्र बाबू तथा मुरादाबाद के सभी सत्संगीगण भी वहाँ पहुँच गए। परमहंसजी के बाद एक युवक साधु ने भाषण दिया और ठीक दो बजे उनलोगों ने अपना सत्संग समाप्त कर दिया। पर उनलोगों ने अन्त तक अपने भाषण में यह नहीं बतलाया कि कबीर साहब का क्या मत है ?
दो बजे संतमत सत्संग का समारम्भ हुआ। भजन-कीर्तन एवं विनती के बाद सभी के आग्रह से आप कुछ कहने के लिए तैयार हुए और बोले- ‘विज्ञापन के अनुसार अभी ग्रन्थ-पाठ करना चाहिए, अतः मैं कुछ सन्तों के भजन गाकर सुनाता हूँ।’ .
ऐसा कहकर आपने कबीर साहब, नानक साहब तथा चरणदासजी के भजन पढ़कर सुनाए और कहा- ‘इस वर्ष मैं कुछ विशेष बात नहीं कहना चाहता हूँ, बल्कि बैठकर केवल सुनना ही चाहता हूँ।’ इतना कहकर आप बैठ गए ।
आपके कथन के बाद बाबा नन्दन साहब भाषण देने के लिए खड़े हुए और उसी समय महर्षिजी जल पीने के लिए अपने निवास-स्थान पर चले गए। बाबू महेन्द्रनाथ सिंहजी भी किसी जरूरी कार्य से अपने बासे पर चले आए। बाबा नन्दन साहब ‘संतमत और उसके अन्तर साधन’ पर भाषण करने लगे। शायद उनकी आवाज दूर तक के श्रोताओं को सुनाई नहीं पड़ती थी या किसी अन्य कारण से पन्द्रह मिनट के बाद ही लोगों ने हल्ला करना शुरू कर दिया। यह देखकर बाबा नन्दन साहब भाषण देना बन्द कर बैठ गए और हल्ले की शान्ति के लिए भजन-कीर्तन प्रारम्भ कर दिया गया। कबीर-पंथी साधु-समाज के चार-पाँच सज्जनों को छोड़कर सब-के-सब उठकर चले गए। थोड़ी देर के बाद महर्षिजी तथा उनके पीछे बाबू महेन्द्रनाथ सिंहजी भी पंडाल आ गए। उनलोगों के आते ही अनायास हल्ला शान्त हो गया और कीर्तन बन्द कर दिया गया ।
उसी समय संताल परगने के सत्संगी श्री चन्द्रजीत पुरवे ने कहा- ‘न मालूम क्यों इस बार महर्षिजी महाराज हमलोगों से रुष्ट हो गए हैं, जिस कारण इस अधिवेशन में आप हमलोगों को कोई उपदेश देना नहीं पसन्द करते हैं । हमलोग दूर-दूर से अपना समय और पैसा खर्च करके आपके उपदेश सुनने के लिए ही आए हैं । कम-से-कम आपने जिन सन्तों के भजन गाकर सुनाए हैं, उनके अर्थ भी तो हमलोगों को समझा देने की दया करें।’
इस प्रार्थना ने आपके करुण हृदय को कुछ कहने के लिए विवश कर दिया और आप कहने लगे श्री चन्द्रजीतजी एवं आपलोग मुझे बोलने के लिए मजबूर कर रहे हैं, अतः उन भजनों के अर्थ आपलोग श्रवण करें।’
इतना कहकर आपने हृदयस्पर्शी शब्दों में उनके अर्थ व्याख्या करके समझाए। सभी शान्त एवं निस्तब्ध होकर श्रवण करते रहे एवं वे लोग हृदय से आश्वस्त और प्रसन्न हो गए।
इसके उपरान्त बाबू महेन्द्रनाथ सिंहजी ‘संतमत’ पर भाषण करते हुए कहने लगे-
“मुरादाबाद के बाबा देवी साहब ने जिस मत का प्रचार किया है, उसे ही ‘सन्तमत’ कहते हैं । यह सन्तमत योगमत है।
चाहे आप ईश्वर की भक्ति करते हुए साधन कीजिए, चाहे आप बिना ईश्वर की भक्ति किए हुए ही साधन कीजिए; आपको वैज्ञानिक प्रयोग की भाँति ही इसका भी सुनिश्चित परिणाम प्राप्त होगा। इसीलिए यह मत वैज्ञानिक मत है या विज्ञानानुकूल मत है। इस मत को छोड़कर अन्य कोई भी मत विज्ञानानुकूल नहीं है। इस मत में वाक्य-प्रमाण नहीं , प्रत्यक्ष प्रमाण ही माना जाता है। मैं सभी को चुनौती देता हूँ कि मेरे कथन को असत्य या गलत सिद्ध करें।”
ऐसी ललकार के साथ बाबू साहब ने दृष्टियोग और शब्द-साधन पर प्रकाश डाला और कबीर साहब के प्रति अनादर-सूचक शब्दों का प्रयोग किया ।
बाबू महेन्द्रनाथ सिंहजी का भाषण सुनते हुए आपके मन में भी विचारों के रूप अप्रकट वाणी में बनते जा रहे थे -
“बाबू साहब ने ब्रह्मज्योति एवं अनाहत नाद पर तो सुन्दर प्रकाश डाला, पर उन्होंने ‘सन्तमत’ की जो परिभाषा बतलायी, वह यथार्थ नहीं है। संतमत में तो कबीर साहब, गुरुनानक साहब आदि संतों ने ‘ईश्वर-भक्ति’ को सर्वप्रधान स्थान दिया है, परन्तु इन्होंने उनके विपरीत बातों का ही प्रतिपादन किया ।
‘सन्तमत’ तो सभी सन्तों का मत है, किन्तु बाबू साहब ने इसे केवल बाबा देवी साहब का मत कहकर असत्य और संकीर्ण साम्प्रदायिक वृत्ति का परिचय दिया तथा इसे विज्ञानसम्मत तथा अन्य सन्तों के मतों को अवैज्ञानिक मत कहकर घृणा-द्वेष के साथ असत्य का भी प्रचार किया। कबीर साहब जैसे महान संत के प्रति अपशब्दों का प्रयोग कर कबीरपंथी समाज के मन में क्रोध और द्वेष-भाव को पैदा किया और अपने साथ सभी सत्संगियों को भी उनलोगों का कोपभाजन बना दिया ।”
बाबू साहब का व्याख्यान समाप्त होते ही कबीरपंथी लोग आवेशित होकर बहुत-सी बातें कहने लगे। हल्ला होने लगा। दोपहर के सत्संग में भाषण करनेवाले कबीर-पंथी युवक साधु ने बाबू साहब के भाषण से कुछ नोट कर लिया था और वे आविष्ट स्वर में बोलने लगे- ‘यह कैसी सभा है, जिसमें कोई सभापति नहीं, जो अनुचित और अपशब्द भाषण करनेवाले को रोके ? कल ऐसे कथनों का जवाब लिया जाएगा।’ शोरगुल बढ़ जाने के कारण आज बिना आरती किए ही सत्संग समाप्त कर देना पड़ा। आज के सत्संग में श्रोताओं की उपस्थिति लगभग आठ हजार थी।
१९ जनवरी के प्रातः सत्संग में भजनकीर्तन एवं विनती के बाद आपने प्रवचन प्रारम्भ किया -
“आज १९ जनवरी है। सद्गुरुदेव बाबा देवी साहब ने इसी दिन निर्वाण में प्रवेश किया था। उन्हीं के स्मृति-दिवस के उपलक्ष में ही इसी तिथि को सत्संग का वार्षिक अधिवेशन किया जाता है। उनकी शिक्षा को याद रखना तथा उसी के अनुसार अपने जीवन का निर्माण करना ही उनका वास्तविक स्मारक है। जिन शिक्षाओं को उनकी खास शिक्षा कहकर माना जा सके, वह ‘घटरामायण’ में लिखी हुई उनकी भूमिका है। वह अभी यहाँ मौजूद है। मैं उसी का पाठ करता हूँ।
आपलोग ध्यानपूर्वक सुनें तथा इनमें मुझे जो शंकाएँ हैं, उनका समाधान करें । इतना कहकर आप भूमिका का पाठ करने लगे तथा बाबू महेन्द्रनाथ सिंहजी आज की शंकाओं का समाधान अपनी बौद्धिक जानकारियों के द्वारा करने लगे। भला अनुभूति की दशा का परिशुद्ध विवेचन बौद्धिक परिकल्पनाओं से कैसे हो सकता है ? बाबू साहब के बौद्धिक तर्क असफल रहे। इस भाँति बारंबार विफल प्रयत्न करते देख लाला बलभद्र दासजी तथा बाबा नन्दन साहबजी ने कहा- ‘शंका-समाधान की बात सत्संग में नहीं , अलग होनी चाहिए।’
यह सुनकर आपने कहा- ‘आपलोगों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि मेरी शंकाओं का समाधान करने के लिए आपलोग कष्ट और कृपापूर्वक जोतरामराय, मनिहारी या धरहरा सत्संग-मंदिर पधारें और वहाँ तीन-चार दिन रहकर इन्हें समाधानित करें ।’
आपका उक्त निवेदन सुनकर किन्ही में यह कहने का साहस नहीं हुआ कि वे जाकर आपकी शंकाओं का निराकरण करेंगे। सभी ने एक साथ चुप्पी साध ली। उत्तर नहीं पाकर आपने शंका-समाधान की चर्चा छोड़कर ‘घटरामायण’ का पाठ कर लोगों को सुनाना प्रारम्भ किया। सुनाने के बाद थोड़ा-सा प्रवचन दिया -
“ मैंने ‘संतमत’ को जैसा समझा है उसके अनुसार वह अवश्य ही भक्ति-मार्ग है। संतमत के साधन में ध्यानयोग उसका महत्त्वपूर्ण अंग है, पर भक्ति को छोड़कर इसका अभ्यास करना नहीं ठहराया गया है। मैं सन १९०९ ईस्वी में सन्तमत में आया हूँ, परन्तु तबसे कल के पहले तक यह बात कभी जानने में नहीं आयी कि केवल बाबा देवी साहब का मत ही ‘संतमत’ है। यदि पहले यह बात जानने में आती, तो कदाचित् मैं इसमें सम्मिलित भी नहीं होता। मैं तो यही जानता हूँ कि कबीर साहब, गुरु नानक साहब, दरिया साहब आदि सभी संतों के मत को ही ‘संतमत’ कहते हैं और यह मत प्राचीन काल के महर्षिगणों का ही मत है, जिसका वेदों और उपनिषदों में वर्णन किया गया है।”
आपकी प्रवचन-समाप्ति के बाद आरती आदि होकर सत्संग समाप्त हो गया।
महेन्द्र बाबू के भाषण से कबीर-पंथी समाज में जो क्षोभ व्याप्त हो रहा था, उसे उनलोगों ने खूब प्रसारित किया और प्रातः सत्संग के समाप्त होने के उपरान्त बारह बजते-बजते हजारों लोगों से पंडाल खचाखच भर गया। इतना भर गया कि बाहर के अन्य व्यक्तियों के लिए भीतर प्रवेश करना असम्भव नहीं , तो कठिन अवश्य हो गया । बहुत सारी जनता तो पंडाल से बाहर ही खड़ी रह गयी । शोरगुल, हल्ला-गुल्ला, गर्जन-तर्जन एवं क्रोधाविष्ट वाणियों से वातावरण निनादित हो रहा था। क्षुब्ध कबीर-पंथी लोग संतमत के उपदेशकों को - खासकर महेन्द्र बाबू को मंडप में पधारने के लिए ललकार-भरी आवाज में पुकार रहे थे -कहाँ है चुनौती देनेवाला ? आज और अभी यहाँ आए और हमारे प्रश्नों का सही रूप में समाधान करे ।
इन सारे वातावरणों को देखकर स्थानीय बाबू चामालाल मण्डलजी आपके पास आए और कहने लगे- ‘सभा में चलकर कबीर-पंथी साधु लोगों के प्रश्नों के जवाब देने चाहिए।’
आपने उत्तर दिया- ‘अभी थोड़ी देर हुई है कि मैंने भोजन किया है, अत: कुछ आराम करने के बाद विज्ञापन में लिखे अनुसार दो बजे सत्संग में जाऊँगा। कबीर-पंथी साधु साहबान बाबू महेन्द्रनाथ सिंहजी के वचनों से चिढ़े हुए हैं। आप उन्हीं बाबू साहब को बुलाकर ले जाइए। उन्होंने जो कुछ कहा है, उसका उत्तर वे ही देंगे। मुझे उनकी कही हुई बातों से कोई संबंध नहीं है।’
बाबू चामालालजी के चले जाने के बाद एक कबीर-पंथी साधु बाबू महेन्द्रनाथ सिंहजी के बासे पर पहुंचे और उनसे बोले- ‘कल आपने चुनौती दी है, अतः अभी आप सभा में चलकर हमलोगों के प्रश्नों के उत्तर दीजिए।’
बाबू साहब ने कहा- ‘मैं आपलोगों के प्रश्नों के उत्तर यहाँ नहीं दूँगा। आपलोग मुझसे एक सौ रुपये ले लीजिए और भागलपुर चलिए। आपलोगों का सभी खर्च मेरे ऊपर रहेगा। मैं वहाँ आपलोगों की सभी शंकाओं का समाधान कर दूँगा।’
साधु ने उनकी बात नहीं मानी और सभा में चलकर उत्तर देने का अपना आग्रह पूर्ववत् जारी रखा, पर बाबू साहब किसी भी तरह जाने के लिए राजी नहीं हुए। अन्त में साधु ने कहा- ‘यदि आप हमारे प्रश्नों के उत्तर देने में समर्थ नहीं है, तो सभा में चलकर केवल हार ही मान लीजिए ।’
बाबू साहब ने कहा- ‘मैं यहीं कह देता हूँ कि मैं हार गया ।’ पर इनके नहीं जाने पर साधु वापस चले गए। बुद्धि के विकास से ज्ञान चाहे जितना भी प्रखर और प्रचण्ड क्यों न हो जाय, पर उसमें आत्मानुभूतिजन्य सर्वव्यापी प्रेम का माधुर्य, निर्भयता और निश्छल उदारता नहीं आ पाती।
आज किसी कार्य से बाहर गए सत्संगियों के लिए पुनः पण्डाल में प्रवेश पाना कठिन ही था, अतः ऐसे प्रवासी और निर्वासित से बने सत्संगीगण महर्षिजी के निवास के निकट आ-आकर एकत्रित होने लगे। एक बजे करीब चार सौ सत्संगी वहाँ उपस्थित हो गए। आपने उनलोगों को यों खड़े हुए कष्ट पाते देख वात्सल्य भाव से कहा- ‘आपलोगों को इस भाँति खड़े रहने में तकलीफ हो रही है, अतः मैं भी बाहर वृक्ष के नीचे आता हूँ, आपलोग सभी वहीं चलें ।’ ऐसा कह आप एक वृक्ष के नीचे स्थित एक चौकी पर आकर बैठ गए। आपके पधारते ही बाबा नन्दन साहब भी वहीं आकर विराजमान हो गए।
कुछ वार्ता करते हुए दो बजे का समय हो गया। लोगों ने कहा- ‘पंडाल में किसी के समाने का भी स्थान नहीं है।’
आपने कहा- ‘जब कबीर-पंथी साहबान अपनी सभा समाप्त करेंगे, तब हमलोग जाकर विधिवत् सत्संग प्रारम्भ करेंगे। आपकी बात सुनकर पुनः लोगों ने अपना अनुमान प्रगट किया- ‘लगता है कि आज कबीर-पंथी लोग शाम तक पंडाल खाली नहीं करेंगे। वे लोग प्रतिशोध-भावना और क्रोध के कारण हमलोगों का सत्संग नहीं होने देना चाहते हैं ।’
यह सुनकर आपने कहा- ‘यों तो हमलोग इस स्थान पर भी सत्संग कर सकते हैं; पर निकट में ही जो गेहूँ की फसल है, वह अधिक लोगों के उपस्थित होने से रौंदी चली जाएगी। ऐसा करने से अपराध और बदनामी भी होगी। अतः जो लोग यहाँ आ गए हैं, वे सुनें।’
उसी समय बाबू चामालालजी आ गए और आपसे कहने लगे - ‘दो बजे का समय हो गया । अब आपलोग पण्डाल चलकर अपना कार्यारम्भ करें।
यह सुनकर आप बोले- ‘अधिवेशन का कार्य विज्ञापन में लिखे अनुसार ही होना चाहिए, अतः आप पहले भजन-कीर्तन करनेवालों को ले जाकर मंडप पर बैठावें। बाद में हमलोग भी चले जाएँगे।’
बाबू चामालालजी के प्रयत्न करने पर भी कबीर-पंथी समाज ने एक भी कीर्तन मंडली को नहीं घुसने दिया। वे लोग तो जानबूझकर किसी भाँति तकरार करने पर तुले हुए थे। उन्होंने आकर सारा समाचार आपको सुना दिया।
आप वृक्ष के नीचे बैठे सत्संगियों में प्रवचन करने लगे-
“तीनों तिलों के बीच में तुम्हारा सकल पसार है। जिस केन्द्र से शक्ति प्रसारित होती है, वही तीसरा तिल है। दृष्टि की दोनों धारों का मिलन जिस नोक या विन्दु पर होता है, वही तीसरे तिल का स्थान है। यदि इसे एक बार भी प्रयत्न करके देख लो, तो इसका ख्याल बना रहेगा । ‘घटरामायण’ में है -
‘निशिदिन रहै सुरत लौ लाई। पल-पल राखो तिल ठहराई।।
इसी का ख्याल बनाए रखना पल-पल तिल में अपनी सुरत को ठहराना है। इसी को ब्रह्म-चिह्न कहते हैं । जो उपासक सदा इस चिह्न का ध्यान रखेगा, वह पापों से बचता रहेगा। इस चिह्न को भगवद्गीता के आठवें अध्याय में आदित्यवर्णवाला एवं अणु से भी अणु कहकर वर्णित किया गया है। ‘कल्याण’ के ‘योगांक’ में ‘योग-वाशिष्ठ’ का यह साधन बतलाया गया है कि आकाश में जहाँ कोई कलना (चिह्न) नहीं है, वहाँ संवित् (सुरत) को स्थिर रखे। इसी को हमलोग दृष्टियोग कहते हैं - यही शाम्भवी मुद्रा है।”
साढ़े तीन बजे का समय हो रहा था। आपको मालूम हुआ कि उस इलाके के सब-इन्स्पेक्टर साहब निरीक्षण के लिए पंडाल आए हैं। उनके आते ही कबीर-पंथी साधु-समाज एवं महंत पंडाल छोड़कर चले गए एवं सभी सत्संगी अपने-अपने स्थान पर आसीन हुए। आप तथा बाबा नन्दन साहबजी मंडप में आकर विराजमान हुए। सत्संग का कार्य विज्ञापन-निर्दिष्ट विधि से किया जाने लगा। भजन-कीर्तन एवं विनती के बाद आपने कबीर साहब का एक भजन-
‘मोरे जियरा बड़ा अन्देसवा मुसाफिर, जैहौ कौनी ओर।’
गाकर सुनाया और इसका अर्थ समझाना प्रारंभ किया- ‘संसार के सब लोग मुसाफिर हैं। ये अपने घर का रास्ता भूल गए हैं। अतः मन में असमंजस हो रहा है कि हम किस मार्ग से अपने घर की ओर जायें ? इस मोह की नगरी में स्त्री और पुरुष रूप दो ऐसे फाटक हैं, जिनमें होकर प्रवेश करनेवाली आत्मा भयंकर विपत्तियों में फंस जाती हैं । यहाँ कुबुद्धि-नायक फाटक रोककर खड़ा है, जो इस द्वार से बाहर निकलनेवालों को अत्यधिक वेग से झकझोरता है। आगे संशयरूपी सरिता बह रही है, जिसकी जलधारा बड़ी ही भयंकर वेगवाली है। हे मन ! ऐसी स्थिति में तुम क्यों गाफिल होकर सो रहे हो? यहाँ सहायता करनेवाला तुम्हारा और मेरा अपना कोई नहीं है। यदि तुम दयालु सर्वेश्वर से रात-दिन प्रेम करते रहो, तो इस राज्य में रहकर भी तुम्हारा कल्याण होना कुछ कठिन नहीं है। इस मोह-साम्राज्य का महाराजा क्रोध है। काम उसका दीवान है। पाँचों तत्त्वों के पाँच-पाँच स्वभावरूपा पचीसो प्रकृतिरूप चोर यहाँ निवास करते हैं ।
इन आपदाओं के राज्य से बाहर निकलने के लिए ऐसे महापुरुष का आश्रय ग्रहण कर उनसे प्रार्थना करो, जो अन्धकार से पार होकर प्रकाश में अपनी सुरत को रखते हैं । तुम्हारी प्रार्थना से उनमें करुणा उत्पन्न होगी, तब वे तुम्हें अपने घर के रास्ते पर ले आवेंगे। अपने पसरे हुए मन को समेटो और उलटकर पिछला रास्ता पकड़ो यानी जिस मार्ग पर चलकर तुम इस स्थूल शरीर में आए हो, पुनः उसी पथ को पकड़कर लौट जाओ। बहिर्मुख से अन्तर्मुख बनो- इस शरीर के नवो दरवाजों से विमुख होकर दसवें गुप्त द्वार में प्रवेश करो। ऐसा करने से तुम पुनः अपने ‘निजस्थान’ को पा जाओगे।’
‘यह कबीर साहब के गाए गए पद का अभिप्राय है। केवल कबीर साहब का ही ऐसा विचार है, सो नहीं -सब संतों का ऐसा ही विचार है। वास्तविक भक्ति का रूप यही है; ‘क्योंकि जिस मार्ग पर चलकर परम प्रभु तक पहुँचा जा सके, उस पथ पर चलने का नामही सच्ची भक्ति है। यह बात युक्तियुक्त और परमोचित है। हमारा डेढ़ घंटे का समय नष्ट कर दिया गया, नहीं तो और कुछ विस्तार से आपलोगों को सुनाता ।’
इसके उपरान्त बाबा नन्दन साहब भाषण करने के लिए उठे, पर उनकी आवाज शायद दूर तक नहीं जा सकने के कारण हल्ला होने लगा और वे बैठ गए । तदुपरान्त भजन-कीर्तन एवं आरती करके सत्संग समाप्त कर दिया गया। आज श्रोताओं की संख्या लगभग ग्यारह हजार थी। पुलिस इन्स्पेक्टर साहब ने आग्रह करने पर भी खड़े-खड़े पहले प्रवचन सुना; पीछे अति आग्रह करने पर बैठे । सत्संग के बाद सभी अपने-अपने स्थान पर चले गए।
२०.०१.१९३६ ईस्वी के प्रातः सत्संग में लाला बलभद्र दासजी ने ‘गुरु ग्रन्थ साहब’ का पाठ कर उसका अर्थ समझाया-
‘हमारे बाहर शून्य मौजूद है और भीतर में भी शून्य है। तीनों भुवनों के तीन शून्य हैं, इन तीनों को पार कर जो चौथे शून्य में पहुँच जाते हैं, वे पाप-पुण्य के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं । चौथे शून्य को ही सत्तलोक कहते हैं । जो घट-घट के सभी भेदों को जानते हैं, वे ही निरंजन देव हैं । अन्तर में अखण्ड अनाहत नाद है। गुरुमुख इस नाद को जानते हैं। मनमुख इस नाद को कभी नहीं जान सकता। शरीर के नवो द्वारों से सुरत सदा बाहर जाती रहती है, जो उधर से इसकी धार को मोड़कर दसवें द्वार में प्रवेश कराते हैं, उनकी ऊर्ध्वगति होती है और वही अन्तर के अनाहत नाद को सुन सकते हैं ।’
तदुपरान्त बाबा नन्दन साहब ने ‘घटरामायण’ का एक छन्द गाकर उसका अर्थ समझाया। पुनः कहने लगे- “सभी सन्तों का यही उपदेश है कि घट के अन्तर में चलो। अन्तर में जाने से ही शान्ति मिलती है। ‘घटरामायण’ में बहुत-सी बातें बाहरी जैसी लगती है, किन्तु वह भी घट के भीतर की ही वार्ता है। गगन-गंगा में सुरत-यमुना को मिलाकर अन्तर के आनन्द को प्राप्त करो।”
इसके बाद बाबू महेन्द्रनाथजी भाषण करने लगे। उन्होंने कहा- ‘घटरामायण’ गोस्वामी तुलसीदासजी की बनायी हुई नहीं है। इसका बहिरंग बहुत बेढव है। इसकी भाषा अच्छी नहीं है। कब लिखी गयी है और किसने लिखी है, इसका कोई पता नहीं है। हमलोगों को इस बहिरंग बातों से फायदा नहीं है। ‘घटरामायण’ में तीन साधन प्रधान है - सत्संग, दृष्टियोग और शब्द-साधन। इसमें गुरु-शिष्य का बराबरी वाला संबंध माना गया है। गुरुआई का दावा नहीं रखकर केवल भेद बता दिया जाय, तो क्या हर्ज है? जो सन्त हैं , उनको क्या गरज है कि हमें लोग गुरु का सम्मान प्रदान करे ? वे तो निन्दा-स्तुति को समान समझते हैं । बाबा देवी साहब का भी ‘घटरामायण’ के अनुकूल ही गुरु-शिष्य के संबंध में बराबरी वाला ख्याल था।”
इसके बाद महर्षिजी ने संतमत की प्रतिकूल बातों के उत्तर-रूप में बाबा नन्दन साहब लिखित ‘बाबा देवी साहब की जीवनी’ से पढ़कर सभी लोगों को सुनाया, जिसमें बाबा देवी साहब का आदेश है- ‘इस मत में गुरु की उपासना होनी चाहिए । ‘
पुनः आपने बाबा देवी साहब की लिखी हुई चिट्ठियों को पढ़कर सुनाया, जिसमें उन्होंने लिखा था- ‘गुरु को याद रखो। गुरु की तन-मन-धन से सेवा करो। तन-मन और धन से गुरु की सेवा किये बिना संतमत में सफलता नहीं मिल सकती है।’ इन सब बातों को सुनकर बाबू साहब कुछ नहीं बोले। इसके उपरान्त कीर्तन-भजन होकर सत्संग समाप्त हुआ। आज पुलिस इन्स्पेक्टर साहब आदि से अन्त तक सत्संग में बैठे रहे।
दोपहर को भोजन करके बाबू महेन्द्रनाथ सिंहजी अपने घर चले गए। विज्ञापन में रात के सत्संग में उनके सम्मिलित होने की सूचना छपी थी, पर बारंबार अनुरोध करने पर भी वे चले ही गए।
आज एक सौ से अधिक आदमी भजन-भेद लेने के लिए तैयार थे, पर आपने कहा- ‘इस सत्संग के खास मालिक बाबा देवी साहब के उत्तराधिकारी बाबा नन्दन साहब मौजूद हैं । सब कोई उन्हीं से भजन-भेद लें।’
इस अधिवेशन के अवसर पर किसी ने भी भजन-भेद नहीं लिया। सुनने में आया कि कुछ उपद्रवी लोग भजन-भेद के समय उपद्रव करना चाहते थे। बाबू यदुनाथ चौधरीजी ने आपके निवास में जाकर आपसे पूछा- “रात्रिकालीन सत्संग में धन का संचय ‘गुरु-पूजा’ के लिए किया जाय अथवा ‘धर्म-कोष’ के लिए ?”
आपने कहा- ‘यह बात आप मुरादाबाद से पधारे हुए साहबान से जाकर पूछिए। वे जो कहें, सो कीजिए।’
यदुनाथ बाबू ने उनलोगों से पूछकर पुन: आपसे कहा- “लाला बलभद्र दास ने कहा कि अभी मुरादाबाद में बाबा साहब के समाधि-मंदिर का काम अधूरा पड़ा है, अतः अभी दो साल तक ‘गुरु-पूजा का नियम’ ही चालू रखा जाय।”
आपने कहा- ‘वे लोग जो कहते हैं, वही कीजिए।’
पुनः बाबू चामालाल मंडलजी आपके पास आकर विनय करने लगे—’मैं तो प्रबंध के विविध कार्यों में इतना व्यस्त रहा कि आपका प्रवचन सुन ही नहीं सका। आपने कहा-- ‘तो आप मुझसे क्या चाहते हैं ? यदि आपकी अभिलाषा हो, तो एक दिन और ठहरकर मैं संतों के उपदेश आपको सुना दूँ।’, मंडलजी ने गद्गद होकर कहा- ‘हाँ, यही प्रार्थना करने आया था।’ कहकर वे चले गए।
संध्या-समय भागलपुर के वयोवृद्ध सत्संगी श्री बेनी दासजी आपसे कहने लगे- ‘बाबू महेन्द्रनाथ सिंहजी की बातों से कबीर-पंथी लोग बड़े नाराज हैं , अतः वे लोग आज रात में पंडाल और आवास-गृह में आकर सभी सत्संगी लोगों को लूट लेने, कष्ट देने की योजना बना रहे हैं ।’ आपने कहा- ‘महेन्द्र बाबू तो यहाँ से चले गए। अब वे लोग किनपर नाराज हो रहे हैं ?’
बाबू बेनी दास ने कहा- ‘वे लोग कहते हैं कि महर्षि मेँहीँ परमहंसजी अपने तो कोई बात नहीं बोलते हैं , पर वकील को बुलाकर कटु भाषण सुनाते हैं । अतः इसे आपके द्वारा कराया गया मानकर उनलोगों का सारा गुस्सा आप पर ही उतर आया है।’
आपने कहा- ‘अच्छा, प्रभु की जैसी मौज होगी, वही कार्य होगा। आप इसके लिए चिन्ता नहीं करें । पुनः तीन-चार बार महर्षिजी के पास लूट लेने की खबर आयी और चालीस-पचास सत्संगी इस उड़ती हुई सूचना से घबड़ाकर आपके पास एकत्र हो गए। आपने उनलोगों को आश्वासन दिया- ‘घबड़ाने की कोई बात नहीं है। आज रात पंडाल में लूट-मार होना नितान्त असम्भव है। हमलोगों के बीच घबड़ाहट और हलचल पैदा करने के लिए किसी ने यह झूठी खबर उड़ायी है। फिर भी यदि आपलोगों में डर हो, तो सचेत और सावधान रहिए। कदाचित् आप पुरुषवर्ग को वे उपद्रवीगण कुछ कष्ट दें, तो उसे शान्ति से बरदाश्त कीजिए; किन्तु जब ऐसा मालूम हो कि उपद्रवी लोग किसी महिला पर आक्रमण करनेवाला है, तो डटकर उसका सामना कीजिए और इसके लिए अपना खून तक बहा दीजिए।’
रात्रिकालीन सत्संग में आगामी वार्षिक अधिवेशन होने के संबंध में विचार-विमर्श होने लगा। पाँच स्थानों से निमंत्रण आए। अन्त में निर्णय हुआ कि आगामी संतमत-सत्संग का वार्षिक अधिवेशन भागलपुर में ही किया जाय। उसी समय भागलपुर के सत्संगी श्री डोमन दासजी चिल्लाकर बोल उठे–’यदि महर्षिजी वार्षिक अधिवेशन में नहीं पधारेंगे, तो भागलपुर में सत्संग नहीं होगा, चाहे अन्य कोई साधु-महात्मा ही क्यों न पधारें।’
सत्संगीगणों ने बाबू डोमन दासजी को समझाया और आश्वासन दिया कि आप भागलपुर में ही सत्संगाधिवेशन होने दीजिए। हमलोग सभी महर्षिजी को विनय करके अवश्य ही उसमें उपस्थित होने के लिए बाध्य कर देंगे। हमलोगों की सच्ची श्रद्धा उनको अवश्य ही खींचकर सत्संग में ले आएगी। सच्ची श्रद्धा के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।
गुरुपूजा में एक सौ दस रुपये एकत्र हुए। उसे बाबा नन्दन साहब मुरादाबाद ले गए। रात्रि-सत्संग समाप्त कर सभी अपने आवास आए। बहुत सत्संगियों ने रातभर जग कर पंडाल और आवासगृह का कड़ा पहरा किया। भगवत्कृपा से कोई उपद्रव नहीं हुआ। प्रात: होते ही सभी ने अपने-अपने घर की ओर प्रस्थान किया । केवल महर्षिजी के साथ में जोतरामराय के श्री बाबू रमाकान्त चौधरी तथा अन्य तीस-पैंतीस सत्संगी बाबू चामालालजी के यहाँ सत्संग करने के लिए ठहर गए। उन्होंने बड़े ही आदर से सभी के आवास एवं भोजनादि की व्यवस्था की। प्रात: का सत्संग महर्षिजी के आवास में होकर समाप्त किया गया। पुनः चामालाल बाबू के यहाँ ही सत्संग हुआ। उन्होंने बड़े प्रेम से सभी को भोजन कराया। प्रात:काल महर्षिजी का छायाचित्र (फोटो) लिया गया। पुनः आदर-विनय एवं सत्कार-सहित आपको विदा किया।
इस अधिवेशन में आपने देख लिया कि सत्संगीगणों में बौद्धिक शिक्षा एवं विकास की चाहे कितनी भी कमी हो, पर हृदय में संत और संतमत के प्रति श्रद्धा का अभाव नहीं और इसी श्रद्धापूत हृदय से वे लोग बौद्धिक अध्यात्मवाद की तर्कभरी वार्ता और सच्चे अध्यात्म की अनुभवात्मक वाणी का मर्म और विभेद भी समझने में समर्थ थे। इस अधिवेशन में केवल श्रोता बनकर आप जो कुछ जानना चाहते थे, वह वक्ता बनकर भी जान सके और प्रसन्न मन से विदा हुए।  

46.

मनिहारी एवं विसहा में मासकालीन सत्संग

संतों को अपने लिए कोई कर्म करने की आवश्यकता नहीं रहती, पर जिस भाँति पावन उत्सा गंगोत्री से निरन्तर गंगा की निर्मल धारा प्रवाहित होती रहती है, उसी भाँति संतों से लोक-कल्याण की भागीरथी निसर्गतः ही कर्म-रूप में बहती रहती है।
साधक जबतक ऋषित्व या संत-पद की “प्राप्ति नहीं कर लेते हैं , तबतक उनके अन्तर में आतुरता, उद्वेग, आकुलता, छटपटाहट. विह्वलता, उद्विग्नता, बेचैनी, अधीरता, असन्तुष्टि, अतृप्ति, अशान्ति एवं व्यग्रता आदि संवेगों का होना स्वाभाविक और अनिवार्य है। आत्मतृप्त, आत्मतुष्ट, सच्चिदानन्दनिमग्न एवं परमात्मदर्शी में ऐसे वेगों का उत्पन्न होना संभव ही नहीं और न इनकी आवश्यकता ही है। लोकसंग्रह या सर्व-कल्याणकारी कर्म उनसे वैसे ही उद्भूत होते हैं, जैसे सूर्य से आलोक-रश्मियाँ ।
बिहार प्रान्तीय सन्तमत-सत्संग का उनतीसवाँ वार्षिक अधिवेशन कई कारणों से भागलपुर में नहीं हो सका। उसी अवसर पर महर्षिजी ने मनिहारी में मासकालीन ध्यान एवं सत्संग की गंभीर, प्रच्छन्न एवं प्रशान्त आयोजना की थी, जिसे सम्पन्न करने के लिए गंगातट पर फूस की कई कुटियाँ बनायी गयी थीं। विन्दु में सिन्धु समाने के सदृश ता॰ २० से २१ फरवरी तक मासव्यापी सामूहिक ध्यानाभ्यास के अंतिम अवसर को आपने उनतीसवें वार्षिक अधिवेशन के रूप में आयोजित कर दिया। विज्ञापन के अनुसार बीस फरवरी १९३७ ईस्वी को प्रातः पाँच बजे से सत्संग आरम्भ हुआ। भजन-कीर्तन एवं विनती के बाद आपने कबीर साहब का एक पद ग्रंथ से पाठ कर उसकी व्याख्या करते हुए प्रवचन दिया -
“हम देह में निवास करते हैं, परन्तु नवो द्वारों में सुरत का प्रसार रहने के कारण हम अपने आपको नहीं जानते हैं। इस नहीं जानने की दशा को ही सोना (शयन करना) कहते हैं। शब्द जिस केन्द्र से उत्पन्न होता है, उस केन्द्र में जो गुण और तत्त्व है, उससे वह ओतप्रोत रहता है और वही गुण वह पैदा भी करता है। अन्तर की ध्वनि ब्रह्म की ध्वनि है। उस ध्वनि में सुरत को जोड़ने का नाम ‘सुरत-शब्द-योग’ है। ज्ञानमार्गी अपने को पहचानने के लिए अन्तर-पथ से चलता है और भक्तिपथी परमात्मा को पाने के लिए उसी मार्ग पर चलता है। दोनों अन्त में एक ही परम तत्त्व को पाते हैं। यह संसार कम्पमय है और यह कम्प ईश्वर से उत्पन्न हुआ है। ईश्वर की मौज से संसार है। उसी मौज को कम्प कहते हैं । रचना का आरम्भ अत्यन्त सूक्ष्मता से होता है और उसकी समाप्ति स्थूलता में जाकर होती है। जो स्थूल शरीर के नवो द्वारों से अपने को समेटकर दशम द्वार में स्थिर रखता है, वही जगत से पीठ देकर भागता है।’
हमलोग मुख से जो बोलते हैं , उसका आरम्भ नाभि से है। उसका नाम ‘परा वाणी’ है। वही ध्वनि जब हृदय में जाती है, तो उसे ‘पश्यन्ती वाणी’ कहते हैं। इसके बाद वह आवाज कण्ठ में आने पर ‘मध्यमा वाणी’ कहलाती है। मुख से प्रगट हो जाने पर इसी शब्द को ‘वैखरी वाणी’ कहा जाता है। ये सभी वाणियाँ रामनाम अर्थात् सर्वव्यापी नाम या ध्वनि नहीं है।
ज्ञान देनेवाले को ‘गुरु’ कहते हैं । आदि में ज्ञानदाता परमात्मा हैं और परमात्मा अनादि का आदि है। प्राण स्थिर होने से मन स्थिर होता है। मन स्थिर हो जाने पर ऊर्ध्व-गमन होता है। भक्तिपथ पर चलनेवाले ध्यानयोग के द्वारा ही अपना इष्ट साधन करते हैं।”
२० फरवरी के सत्संग में आपने प्रवचन दिया- “सत्पुरुषों के संग, संतों की वाणियों के पाठ एवं श्रवण करने का नाम सत्संग है। जाग्रत् अवस्था में चैतन्य (सुरत) सारे शरीर एवं उसके नवों द्वारों में फैला हुआ रहता है। यह पसार यदि हमेशा बना ही रहे, तो स्वप्न और नींद की अवस्था नहीं होगी, सदा जाग्रत् दशा ही रहेगी। जाग्रत्, स्वप्न एवं सुषुप्ति- इन तीनों से परे चौथी अवस्था का नाम ‘तुरीय’ है। जिस स्थान से तुरीयावस्था का आरम्भ होता है, उस स्थान को ‘शिवनेत्र’ कहते हैं । जिसकी सुरत ‘शिवनेत्र’ में चढ़ जाती है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है, तथा उसके विषय-विकारों का दमन हो जाता है। केवल विचार-ही-विचार से यह नहीं होता है। ध्यानयोग से सुरत की ऊर्ध्वगति होती है। जैसे-जैसे ऊर्ध्वगमन होता है, वैसे-वैसे सुन्दर से सुन्दरतर दृश्य देखने में आते हैं । श्रवण-ज्ञान अग्नि है, मनन-ज्ञान बिजली है, निदिध्यासन-ज्ञान बड़वानल है और अनुभव-ज्ञान प्रलयाग्नि है। यह अनुभव-ज्ञान समाधि लगने पर प्राप्त होता है।
रचना में शब्द के पाँच केन्द्र हैं । इसी अन्दर की ध्वनि-धार को परखानेवाले को सद्गुरु समझना चाहिए । भक्ति-मार्ग में नाम-भजन का विशेष स्थान है। सद्गुरु से सद्युक्ति प्राप्त कर सभी मनुष्यों को अपने कल्याण के लिए नाम-भजन करना चाहिए।
चेतन अथवा सुरत की धार से ही बल पाकर इन्द्रियाँ अपने-अपने कार्य को कर सकने में समर्थ होती है। यदि इन्द्रिय-गोलकों से चेतन-धार को निकाल लिया जाय, तो वे बलहीन हो जायँगी।
शान्ति प्राप्त किए हुए महान आत्माओं को ही ‘सन्त’ कहते हैं । उनका जो विचार है, वही सन्तमत है । शान्ति क्या है? यह अत्यन्त गहरी बात है। ईश्वर को पा लेने पर ही शान्ति मिलती है। सब सन्तों का मत ईश्वर को पाने के लिए है। परमात्मा को पाने के लिए एक ही रास्ता है। जगने की दशा में चेतन की जहाँ बैठक है, वहीं से इस मार्ग का आरम्भ होता है। इस पथ पर चलने का नाम ही ईश्वर की उपासना या भक्ति है। इस रास्ते के आखिर तक जो चलते हैं, उन्हें ही ईश्वर मिलते हैं । इस सूक्ष्म पथ पर चलने के लिए सन्तों ने नाम-भजन बताया है। ‘ब्रह्मनाद’ ब्रह्म का असली नाम है और बिना दृष्टियोग के यह नाम-भजन नहीं किया जा सकता। अतः नाम-भजन करनेवालों के लिए दृष्टियोग करना आवश्यक है।
स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना के बाद पुनः विषय-सुख में उलझ जाना ठीक नहीं है । नवो द्वारों की तरफ सुरत को लगाए रखने से विषय के सुखों में फँस जाओगे, अत: अपने सुरत की धार उधर से मोड़कर दसवें द्वार की ओर करो। ऐसा करने से ही ईश्वर की ओर जा सकेंगे। मनुष्य-शरीर प्राप्त कर ईश्वर को पाने का यत्न करो ।
बारंबार याद करते रहने का नाम ‘सुमिरन’ है। निष्काम सुमिरन सब सुमिरनों से श्रेष्ठ है। जिस रूप को देख लिया है, उस रूप का बारंबार स्मरण करना-उसे ख्याल में लाना मानस ध्यान है। मानस ध्यान को भी सुमिरन कहते हैं। मानस ध्यान के बाद दृष्टियोग करने से ज्योति के दर्शन होते हैं । शब्द-साधन अन्त की उपासना है।
२१ फरवरी को बारह बजे से सत्संग आरम्भ हुआ । आध्यात्मिक गान के उपरान्त विनती की गयी। विनती समाप्त होते-होते वृष्टि आरम्भ हो गयी। यह देखकर आपने कहा- देखिये, इन्द्रदेवजी सत्संग से प्रसन्न होकर पुष्प-वृष्टि करने लगे। थोड़ी ही देर में वृष्टि बन्द हो गयी और आप प्रवचन करने लगे- “उड़िया साहब शाम्भवी मुद्रा द्वारा पूर्ण शान्ति की प्राप्ति होना बतलाते हैं। यह ठीक ही है। जो अपने अन्दर में देख सकेगा, वही परमात्मा को पा सकेगा। घर के अन्दर नूर इलाही या ब्रह्म-प्रकाश भी परमात्मा ही है । जब सुरत को शाम्भवी मुद्रा द्वारा केन्द्रित करोगे, तभी भीतर जाने की चाल शुरू होगी। मन को समेटने में ही सुख मिलता है। पसरे हुए मन से सुख नहीं मिलता।
हम अपने को पूछते हैं कि क्या चाहते हो? तो उत्तर मिलता है, सुख; पर यह सुख कैसे मिलेगा? इन्द्रियों को विषयों में बरतने से क्षणिक सुख जान पड़ता है, पर वह सुख दुख स्वरूप है। सुख केवल भक्ति में है। ‘भक्ति’ सेवा करने का नाम है। प्रश्न उठता है, किसकी सेवा? इसका उत्तर है, ईश्वर की सेवा; पर ईश्वर की सेवा करने के लिए पहले उनके स्वरूप को समझना आवश्यक है। जिसमें अपरम्पार शक्ति हो, वह ईश्वर है। वह न किसी प्राणी के ऐसा रूपवाला है और न वह किसी भी ससीम पदार्थ के समान है। वह असीम, अनन्त, अव्यक्त और सर्वशक्तिमान है। ऐसे अव्यक्त असीम तत्त्व में एकाएक दिल लगाना असम्भव है। इसलिए प्रथम स्थूल रूप से उपासना का प्रारम्भ करना होता है। स्थूल उपासना के लिए पंचदेव या सद्गुरु के रूप का मानस ध्यान करना चाहिए। इस भाँति स्थूल रूप की भक्ति करके फिर सूक्ष्म रूप की भक्ति, फिर कारण रूप की भक्ति करनी चाहिए। यह भक्ति क्रम-क्रम से पूरी होगी। जो इस भक्ति को छोड़कर स्थायी सुख पाने की अभिलाषा करते हैं , वे इस विस्तृत सागर को तैरकर पार करना चाहते हैं ।”
वार्षिक अधिवेशन की आवश्यकता और उपस्थिति के कारण मनिहारी का मासकालीन सामूहिक ध्यानाभ्यास बाईस दिन में ही समाप्त कर दिया गया ।
१९३७ ईस्वी में ही पुनः संताल परगना के विसहा ग्राम में एक मासकालीन सत्संग एवं ध्यानाभ्यास की आयोजना की गयी। प्रथम पन्द्रह दिन तक इस कार्य का संरक्षण श्री श्री धर सिंहजी ने किया। शेष के पन्द्रह दिवस की उपासना आपकी पवित्र उपस्थिति से उज्ज्वलित और परिपूर्ण हुई। इस सत्संग में आर्यसमाजी लोग भी आए थे। वे भी कुछ भाषण देना चाहते थे। इसपर बाबू महेन्द्रनाथ सिंहजी ने कहा- ‘आपलोग दूसरों के घर में आकर घर बनाना चाहते हैं । आपलोग भी अपना अलग सत्संग कीजिए तथा हमलोगों को भी निमंत्रण दीजिए। हमलोग उसमें चलेंगे ।’ दूसरी बार साधु गरभू दासजी ने बाबू श्री शशिभूषण सिंहजी जमींदार की सहायता से तीन दिनों तक सत्संग कराया था।
इस मासकालीन सत्संग में एक बार कुछ काँग्रेसी कार्यकर्ता आए । जिस समय कीर्तन-भजन हो रहा था, उस समय वे लोग आपस में बातचीत कर सत्संगियों की एकाग्रता भंग कर रहे थे। उनकी ऐसी उपेक्षा वृत्ति देखकर आपने उनलोगों से पूछा- ‘आपलोग काँग्रेस के कार्यकर्ता हैं । क्या आपलोग बता सकते हैं कि काँग्रेस का झण्डा किन्होंने इतना ऊँचा किया ?’ उनलोगों ने कहा- ‘महात्मा गाँधीजी ने ।’
इसपर आपने कहा- ‘ठीक है, महात्मा गाँधीजी ने ही काँग्रेस का झंडा ऊँचा किया है। अगर कोई प्रश्न करे कि महात्मा गाँधीजी भक्त हैं या अभक्त ? तो कोई नहीं कहेगा कि वे अभक्त हैं। सभी कहेंगे कि वे अवश्य ही भक्त हैं। आपलोग तो उन्हीं के अनुयायी हैं, फिर शान्तिपूर्वक रामनाम सुन भी नहीं सकते? यह कैसी बात है ?’ यह सुनकर वे लोग अति लज्जित हुए और फिर शान्तिपूर्वक सत्संग करते रहे।
उस समय काँग्रेस संस्था के प्रति आप का भी बड़ा प्रेम और विश्वास था। आपने भी अंग्रेजी शासन के विरुद्ध निर्वाचन में काँग्रेस की विजय के लिए प्रेरणा प्रदान की थी । एक दिन काँग्रेसी कार्यकर्ताओं ने भाषण के लिए समय माँगा । आपने उन्हें बोलने का अवसर दिया । उनलोगों ने चुनाव-संबंधी बातों पर प्रकाश डालना आरम्भ किया । उनलोगों का भाषण सुनकर जमींदार लोग एक-एक कर सत्संग से उठकर जाने लगे और अन्त में एक भी जमींदार वहाँ नहीं रह गये।
इस मासव्यापी सत्संग के बाद सैदाबाद (पूर्णियाँ) में ता॰ २६.१२.१९३७ ईस्वी से ता॰ ०१. ०१.१९३८ ईस्वी तक साप्ताहिक सत्संग का आयोजन वहाँ के सत्संगियों ने किया। आपसे भी इसमें उपस्थित रहने की प्रार्थना की गयी, पर आप इसमें ३० दिसम्बर के साढ़े चार बजे पधारे और ता॰ ०१ जनवरी तक अपने पवित्र संरक्षण से सत्संग को सफल एवं पूर्ण बनाया । यहाँ पर चौसठ भाग्यशालियों ने आपसे भजन-भेद प्राप्त किया। 

47.

अधिवेशनों में दिव्य निर्देश

बिहार प्रान्तीय संतमत-सत्संग का तीसवाँ वार्षिक अधिवेशन कौशिकी नदी के पुनीत तट पर काँप गाँव (पूर्णियाँ) में ता॰ ३० जनवरी से १ फरवरी, १९३८ ईस्वी तक हुआ । इसी अधिवेशन में सर्वप्रथम ध्वनि-वर्धक यंत्र का उपयोग किया गया था। यह यंत्र सत्संगीगणों के उदार दानों से खरीदा गया । इसमें सत्संगियों के सिवाय गाँवों की सहस्रों जनता सत्संग का प्रवचन सुनने के लिए उमड़ पड़ी थी। इस अधिवेशन में मुरादाबाद से बाबा नन्दन साहब एवं बाबू रघुवर दयाल साहब एवं हाथरस के बाबा सन्तोष दासजी भी पधारे थे। पंडाल सजाने के लिए बाबू रमाकान्त चौधरीजी तथा श्री मोहनलालजी (नवाबगंज) एक सप्ताह पूर्व ही काँप आ गए थे। बाबा नन्दन साहब ने कबीर साहब की साखी का अर्थ समझाया- “जब हमलोग अपने चित्त को भली भाँति समेटकर उसे उत्तम कार्यों में लगाये रहते हैं , तब हमलोग काल को जीतते हैं और जब हमारा चित्त चंचल होकर अशुभ कामों में लगा रहता है, तब काल ही की विजय हो जाती है। हमलोगों को हमेशा काल को जीतने का प्रयत्न करना चाहिए ।
जिसने चौथा पद प्राप्त कर लिया है, वे ही सद्गुरु है । सद्गुरु अपने शिष्य को सत्तनाम का दान करते हैं । इस महान उपकार के बदले सद्गुरु को क्या दिया जाय ? मन से ही सारे संकल्प-विकल्प हुआ करते हैं, अतः यदि उनके पावन चरणो में अपने मन को ही चढ़ा दिया जाय, तो सब कुछ अर्पित हो जाता है। मन के दो रूप हैं -एक तन-मन और दसरा निजमन । तन-मन शरीर-मुखी रहता है और निजमन आत्ममुखी, इन दोनों मनों को ही गुरु-चरणों में अर्पित कर देना चाहिए। बाहरी पैरों और आँखों से हम बहुत दूर तक नहीं जा सकते, पर सुरत के पद और आन्तरिक ध्यान से हम असंख्य योजनों की दूरी क्षण में पार कर सकते हैं । शब्दरूपी घोड़े पर सुरत को चढ़ाकर हम लाखों कोसों की दूरी पर स्थित सद्गुरु के पास भेज सकते हैं ।”
बाबा नन्दन साहब के बाद आपका प्रवचन हुआ- “लोग रात में सोते तथा दिन में जागते हैं । यदि इस जागतिक जीवन को ही रात मान लिया जाय, तो जाग्रत्, स्वप्न एवं सुषुप्ति- इन तीनों दशाओं को जीव का सोना ही समझना चाहिए। जाग्रत् अवस्था में जीव का निवास स्थान नेत्र है, स्वप्न में कण्ठ तथा सुषुप्ति में हृदय में उसका निवास रहता है। सुरत का सिमटाव करके इन तीनों अवस्थाओं को छोड़ चौथी तुरीय दशा में प्रवेश होता है। यही इस जगत् के जीवनरूपी रात्रि में जीवों का जगना है। उक्त तीनों अवस्थाओं से बाहर निकलने के लिए जो निशाना, द्वार एवं रास्ता दिखावे, वही सद्गुरु हैं । चौदह विद्याओं एवं छहो शास्त्रों को पढ़कर भी यदि इस भेद को नहीं जान पाया, तो वह सारी समझ धूलवत् - व्यर्थ ही है।
नाम और रूप-दोनों ईश्वर की उपाधि है। उपाधि होते हुए भी यह कहने की शक्ति से परे है, इसका कथन नहीं किया जा सकता और इसका प्रारम्भ भी नहीं है, यह अनादि है। रामनाम सगुण और निर्गुण दोनों है। जो उत्पत्ति, पालन एवं नाश से परे है, वह निर्गुण रामनाम है। जो अच्छी तरह साधन करता है, वही इसे प्राप्त कर सकता है। निर्गुण नाम पा लने पर ही पूरी तरह से जगना होता है । ध्यान करने के लिए पहले स्थूल सहारा जरूर लेना चाहिए, तभी सूक्ष्म में प्रवेश करने की भी आशा और सम्भावना होती है।”
प्रवचन के मध्य आवाजों की बाधा पाकर आपने कहा- “यह जो चारों ओर से ‘खों-खों’ की आवाज आ रही है, सब तम्बाकू की फसाद है। तम्बाकू-सेवन करने से फेफड़े और गले पर बुरा प्रभाव पड़ता है, अतः सभी सत्संग करनेवालों को और अन्य लोगों को भी सर्वथा तम्बाकू का परित्याग कर देना चाहिए।”
दोपहर के सत्संग में ‘रामचरितमानस’ की चौपाइयों को गाकर उनके अर्थ समझाते हुए आप कहने लगे–’कागभुशुण्डिजी कहते हैं कि हे गरुड़जी ! जबतक मैं अन्तर्मार्गी नहीं हुआ, तबतक अन्तर की बातों को मैंने नहीं जाना, केवल बाहर-बाहर ही भटकता रहा । जब मैंने अन्तर की साधना की, तब एक सौम्य-शीतल प्रकाशवाले सूर्य के दर्शन मिले, जिसकी किरणों से तीनों लोक प्रकाशित हो रहे हैं । इस ज्योतिर्मय के दर्शन से मेरे भीतर के काम, क्रोध, लोभ, अहंकारादि दुर्गुणों का विनाश हो गया ।’
बारि मथे घृत होय बरु, सिकता तें बरु तेल।
बिनु हरि-भजन न भव तरिय, यह सिद्धान्त अपेल।।
वैदिक धर्म, ईसाई धर्म, इस्लाम धर्म आदि सभी धर्ममतों की राय है-ईश्वर को पाना । प्रेम-भक्ति बिना परमात्मा को नहीं पाया जा सकता और यह भक्ति सत्संग करने से मिलती है। भगवान की दया होने पर ही सन्तों के दर्शन होते हैं। सन्तों का संग करने से द्वैत-बुद्धि का नाश हो जाता है। पहले सगुण ब्रह्म की भक्ति करके तब निर्गुण ब्रह्म की भक्ति की जाती है। भक्ति की गहराई भीतर में चलने से ही होती है। इसके लिए चोरी, व्यभिचार, नशा, हिंसा एवं झूठ का परित्याग कर नित्य सत्संग करते रहना चाहिए। बिना पापों को छोड़े इस मार्ग में कभी सफलता नहीं मिलेगी और न भक्ति ही प्राप्त होगी।”
३१ जनवरी के प्रातः सत्संग में आप “विनय-पत्रिका’ से गोस्वामी तुलसीदासजी की आरती- ‘ऐसी आरती राम की करहिं मन’ का पाठ कर उसका अर्थ समझाने लगे- “अपने को जान लेना ही आरती और दीप जलाना है। जो प्रेम-सहित अपने आपको भगवान के चरणों में सौंप देता है, उसपर परमात्मा प्रसन्न होते हैं । जबतक सुरत की धार दसो इन्द्रियों में रहती है, तबतक अच्छा और बुरा काम होता ही रहता है। सुरत का सिमटाव करना, उसे इन्द्रियों के पसारों से अलग कर लेना ही त्यागरूपी आग है, जिससे शुभ-अशुभ सब कर्म जल जाते हैं। तमोगुण में अन्धकार है, रजोगुण में चन्द्र-किरण है और सतोगुण में दिवस का प्रकाश है। यह सूक्ष्म ध्यान करने से प्रत्यक्ष जाना जाता है। शान्ति के पलंग पर भगवान को शयन कराकर क्षमा, दया आदि दासियों को सेवा के लिए नियुक्त रखे। यह आरती तत्त्वदर्शी नारद, सनकादि महर्षिगणों ने किया है। ऐसी आरती केवल ख्याल-ही-ख्याल से नहीं होती। गुरुदेव के मार्गदर्शन करने पर ऐसा करना संभव है। गुरुदेव की प्राप्ति सत्संग करते रहने से होती है।”
मध्याह्न के सत्संग में आपका यह शुभ प्रवचन हुआ- “सत्संग का अवलम्ब सन्तों की वाणी है। सन्त, सत्पुरुष, साधु एवं सज्जन पुरुषों के संग का नाम ‘सत्संग’ है। अतीत काल के महान ऋषियों एवं सन्तों की वाणियाँ उनकी चिट्ठियाँ है । सत्संग में श्रद्धा के साथ उनकी वाणियों का पाठ करना चाहिए और पाठ करते हुए ख्याल करना चाहिए कि वाणीरूप में वे सन्त स्वयं ही यहाँ विराजमान हैं ।
नाम शब्द है। शब्द दो प्रकार के हैं - वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक। ध्वन्यात्मक शब्दों का उच्चारण वैखरी वाणी से नहीं किया जा सकता। ध्वन्यात्मक शब्दों के सर्वोत्कृष्ट रूप का उद्गम-स्थान स्वयं परमात्मा हैं । यह भाषातीत और निर्गुण शब्द है। इस पावन ध्वनि को पारस कहा जाता है; क्योंकि इसका स्पर्श हो जाने से सुरत निर्मल होकर परम प्रभु में लीन हो जाती है।
पहला पद अन्धकार-मंडल, दूसरा पद प्रकाश-मंडल एवं तीसरा पद शब्द-मंडल है। ये भी प्रत्यक्ष है। इन तीनो मंडलों के पार में परमात्मा का परमधाम है। अन्तर में प्रवेश करने के लिए मन की चंचलता का त्याग कर उसे एकाग्र करो, तब शान्ति आएगी और उस पर भला रंग चढ़ जाएगा। इसकी विधि सद्गुरु से जानकर मन को इन्द्रियों के घाट से हटाकर वहाँ केन्द्रित करो, जहाँ से चेतन की धारा बिखरकर सभी इन्द्रियों में प्रसरित हो जाती है। बहिर्मुख मन को अन्तर्मुख करो, उसे नवो द्वारों से समेटकर दसवें द्वार में प्रवेश कराओ। वहाँ चेतन-रूपा गंगा की निर्मलधारा है। वही अमृत है। उसमें स्नान करो। उसमें डुबकी लगाने से परमात्मा का ध्वन्यात्मक नाम मिलेगा और पवित्र बनकर परमात्मा को भी पा सकोगे।
शरीर और संसार का बड़ा घनिष्ठ संबंध है। ये दोनों ही बंधन है। इनसे पार हो जाना ही मोक्ष है। शरीर और संसार-दोनों के ही पाँच प्राकृतिक मंडल हैं । स्थूल मंडल के ऊपर सूक्ष्म, सूक्ष्म मंडल के ऊपर कारण, कारण मंडल के ऊपर महाकारण और महाकारण मंडल के ऊपर कैवल्य मंडल है। इनमें से प्रथम के चारो मंडल जड़ या अपरा प्रकृति के मंडल हैं । शेष पिछला कैवल्य मंडल परा प्रकृति का मंडल है। यह विशुद्ध चेतन स्वरूप है। जब आप शरीर के स्थूल स्तर में निवास करते हैं, तब इस विशाल संसार के स्थूल स्तर पर ही आप रहते हैं । जब आप शरीर के इस दर्जे को छोड़ देते हैं, तब संसार का भी यह स्थूल मंडल आप परित्याग कर देते हैं या वह भी स्वभावतः ही छूट जाता है। इसी भाँति चलते-चलते जब आप शरीर के सभी मंडलों को पार कर जाते हैं , तो संसार के सभी मंडलों से भी आप ऊपर उठ जाते हैं । सद्गुरु की बताई युक्ति से चलकर आप सभी मंडलों से ऊपर उठ जाइए और परम प्रभु परमात्मा में लीन होकर मोक्ष प्राप्त कर लीजिए। आप स्थूल में जहाँ निवास करते हैं, वहाँ से यात्रा आरम्भ कीजिए। बढ़ते चलिए । हिम्मत मत हारिए। निराशा को छूने मत दीजिए। इस भाँति पुरुषार्थ करते रहने से एक दिन चलने का काम अवश्य ही समाप्त हो जाएगा। सुरत को विन्दु पर एकत्रित करने से ही यह अन्तर की यात्रा प्रारम्भ होती है। अपने घर में बराबर सत्संग करते रहिए। इससे बड़ा लाभ है। सत्संग के लिए दो-चार रुपये खर्च होने से भय मत खाइए।’
सत्संग के अंतिम दिन तीन सौ जिज्ञासुओं ने आपसे भजन-भेद लिया। यहाँ के सत्संगियों के आग्रह पर पुनः आप दूसरी बार काँप आए, तो एक प्रेमी व्यक्ति ने आपको एक तान्त्रिक ग्रंथ लाकर दिखलाया। उसके कुछ श्लोक आपको बहुत पसन्द आए और उसी समय आपने उसकी प्रतिलिपि कर उन्हें अपने पास रख लिया, जिन्हें पीछे ‘सत्संग-योग’ में छपवा दिया।
बिहार प्रान्तीय सन्तमत-सत्संग का इकतीसवाँ वार्षिक अधिवेशन ता॰ २८.०१.१९३९ से ३०.०१.१९३९ तक ओलापुर (भागलपुर) में हुआ। ता॰ २८.०१.१९३९ के प्रातः पाँच बजे आध्यात्मिक गान के उपरान्त आपने कबीर साहब के पद ‘मेरी सुरत सुहागिनी जाग री’ का अर्थ विविध भाँति से समझाया। अनेक सन्तों की वाणियों का उल्लेख किया और उनके द्वारा इस वाणी की परिपुष्टि की। उसी सिलसिले में आपने कहा-
“सुरत-विहीन शरीर अग्निहीन लोहे के समान है। यहाँ सभी मोह-निशा में सोए हुए विविध भाँति के सपने देख रहे हैं। स्वयं जागे बिना स्वप्न के दुःखों से छुटकारा नहीं मिल सकता। अपने घर की कोमल शय्या पर सोया हुआ मनुष्य समुद्र में डूब जाने का सपना देख रहा है। उसके अनेक नाव बाहर में बँधे पड़े है, पर उससे कोई सहायता नहीं मिलती। केवल जगने पर ही उसका समुद्र में डूबने का दुख दूर हो सकता है, और कोई उपाय नहीं है। इसी भाँति सुरत को संसार का सपना छोड़कर अपने शुद्ध स्वरूप में जागने की जरूरत है । ‘जगत पीठ’ का अर्थ ममता-रहित होना है। क्षत्रिय का पीठ देना निन्दनीय है और साधुओं का पीठ देना प्रशंसनीय है। दोनों तरफ बहादुर होना अति उत्तम है। श्री कृष्ण भगवान एवं राजर्षि जनक इसके आदर्श-स्वरूप है ।”
दोपहर के सत्संग में बाबू महेन्द्रनाथ सिंहजी ने अपने ओजस्वी भाषण से उपनिषदों के सनातन सिद्धान्तों द्वारा सन्तमत की परिपुष्टि की तथा वाल्मीकि रामायण से संतमत की प्राचीनता का दिग्दर्शन कराया। पुनः आपने कबीर साहब की वाणी ‘पाँचो नौबत बाजती, होत छतीसो राग’ की विशद व्याख्या करते हुए बतलाया- “स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण तथा कैवल्य, इन पाँचो मंडलों के केन्द्रीय शब्द ही पाँचो नौबतें है। इन सभी शब्दो में अपनी ओर खींच लेने का गुण है। उपनिषदों तथा ‘शिव-संहिता’ में मन को लय करने का सर्वोत्तम मार्ग इस नादोपासना को ही बतलाया गया है।
उपासना करनेवाले को ठीक समय पर जगकर साधना नहीं करने से महान हानि होती है और नियमित समय पर ध्यानाभ्यास करते रहने से महान लाभ भी होता है।”
मध्याह्न के सत्संग में आपने परमात्मा के नाम का परिचय कराने के लिए अनेक सन्तों की वाणियों को सुनाते हुए कहा- “जिस शब्द से जिसका परिचय हो, वह शब्द उसका ‘नाम’ कहा जाता है। परमात्मा रूप एवं अरूप दोनों से परे और दोनों में व्यापक भी है। उनका नाम भी ऐसा ही सर्वव्यापक है। अपने को सभी आवरणों से छुड़ाकर उस सर्वव्यापी नाम से मिलना या उस शब्द को अवगत करना ही नाम-भजन है। इसी भाँति नाम-भजन करने से ही परमात्मा की प्राप्ति होकर शान्ति मिलेगी। रूप या आवरणधारी भगवान के दर्शन से रावण आदि की भाँति आपके स्वभाव में कोई परिवर्तन और शुद्धीकरण नहीं हो सकेगा।
विषयों की तरफ से उदास रहना ही भजन की तरफ बढ़ना है। केवल कीर्तन करने और संगीत-भजन गाने से ही मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती है।”
पुनः तम्बाकू पीने और किसी भाँति उसके सेवन करने की मनाही करते हुए आपने कहा- “जब साधारण तम्बाकू ही आपके वश में नहीं हो सकता है, तो मन पर कैसे आप का वश होगा?
गुरु ईश्वर-स्वरूप हैं । साधक को ईश्वर के समान जानकर ही श्रद्धापूर्वक उनकी भक्ति करनी चाहिए। उनकी आज्ञा का पालन करना ही उनकी भक्ति है।
‘घटरामायण’ के ‘पार पलंग बिछाय’ का विकृत अर्थ करनेवाले विषयानुगामियों से सभी सत्संगियो को बचकर रहना चाहिए।”
रात्रि सत्संग के बाद यहाँ का अधिवेशन समाप्त हो गया। 

48.

साहित्य में सन्तमत की चिरन्तन प्रतिष्ठा

भारत की अन्त:स्थित स्वतंत्रता की प्रच्छन्न अग्नि को प्रज्वलित करने का मौन तप महात्मा गाँधीजी कर रहे थे और आप सभी की भक्ति का पथ प्रशस्त करने के लिए अपने समाधि-जन्य दिव्य ज्ञान के आलोक में वेद, उपनिषद, गीता, श्रीमद्भागवत, अध्यात्म-रामायण, शिव-संहिता, ज्ञानसंकलिनी तंत्र, बृहत्तन्त्रसार, ब्रह्माण्ड पुराणोत्तर गीता, उत्तरगीता, महाभारत, दुर्गा सप्तशती, पद्मपुराणांक (कल्याण), स्कन्द पुराण, धम्मपद, योगवाशिष्ठ तथा शंकराचार्य, गोरखनाथ, ईसा मसीह, कबीर साहब, गुरु नानक साहब, दादू साहब, चरणदासजी, दरिया साहब, पलटू साहब, गरीबदासजी, सुन्दरदासजी, शिवनारायण स्वामी, गोस्वामी तुलसीदासजी, भक्त सूरदासजी, श्री काष्ठजिह्वा स्वामी, कविरंजन रामप्रसाद सेन, तुलसी साहब, राधास्वामी, सालिग्राम साहब, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक (गीतारहस्य), बाबा देवी साहब, कीनारामजी, ब्रह्मानन्दजी, श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्दजी, मीराबाई, जैन योगी आनन्दघनजी, उड़िया स्वामी, स्वामी रामानन्द, योगी भूपेन्द्रनाथ सान्याल, महात्मा गाँधी, पाइथागोरस आदि अनेक संतों एवं योगियों की वाणियों का अपनी अनुभूतियों से मिलान, समन्वय तथा एकत्व-विधान कर रहे थे। आपने पाया कि आदिकाल से लेकर आज तक के सभी ऋषियों एवं संतों ने परमात्मा के स्वरूप, उन्हें पाने के रास्ते और साधना और अनुभूति के जो भी चित्रण किए है, सभी में एकता है। केवल अभिव्यक्त करने के तरीके और भाषा में ही भिन्नता है। अर्थ और अभिप्राय में कोई अन्तर नहीं ।
इस अनुभूत निर्णय को सभी के लिए सुलभ बनाने की अभिलाषा आपके महान हृदय में रूप धारण करने की ओर प्रवृत्त हो गयी और आपने सभी ऋषियों, सन्तों, योगियों, महात्माओं एवं विद्वानों की वाणियों का संग्रह कर उसे सौष्ठवपूर्ण सुन्दरता में सजाया और अपने अनुभव के सूत्रों में पिरोकर विविध सुमनों का एक मनोहर हार तैयार कर दिया।
महात्मा गाँधीजी के १९४२ ईस्वी , के स्वतंत्रता-आन्दोलन का डंका सारे विश्व में निनादित हो उठा, पर आपकी मानव-मुक्ति की प्रच्छन्न क्रांति की सूक्ष्म ध्वनि सर्वव्यापिनी एवं चिरन्तना होती हुई भी बहुत ही कम कर्ण-रन्ध्रों में प्रवेश पा सकी है।
महासमन्वय के अद्वितीय ग्रंथ ‘सत्संग-योग’ चार खण्डों में विभाजित है। प्रथम खण्ड में वेद, उपनिषद्, गीता, भागवत, अध्यात्म-रामायण, महाभारत, पद्मपुराणादि में वर्णित महर्षियों की आप्त वाणियाँ है। द्वितीय खण्ड में भगवान बुद्ध एवं शंकराचार्य से लेकर आज तक के निर्वाणप्राप्त सदात्माओं एवं संतों की दिव्य वाणियाँ है। तृतीय खण्ड में जीवन्त सन्तों, आप्तों, ऋषियों, योगियों, महात्माओं एवं विद्वानों की निर्मल-प्रोज्ज्वल वाणियाँ है और चौथे खण्ड में आपकी अनुभूतियाँ वाणी में प्रस्फुटित होकर सर्वोच्च चेतना के सूत्रों में पिरोई चली गई है। कुप्पाघाट एवं शान्ति-केन्द्र मनिहारी की गोप्य, प्रच्छन्न अनुभूतियाँ इसमें स्वतः ही प्रकट होकर अपने दर्शन करा रही है। बुद्धि की अनिश्चित कल्पनाओं से रचे गए ग्रन्थों में समन्वय के सूत्रों को ढूंढ़ निकालना अवश्य ही दुर्गम है, पर समाधिजन्य अनुभवों के गंभीरतम विषयों का सामंजस्य उपस्थित करना बुद्धि के लिए दुरूहतम ही नहीं अकल्पनीय कार्य है। और आज मानवता के सौभाग्य से महर्षिजी का यह “दिव्य दान’ साहित्य विश्व के लिए दुर्लभतम और सर्वोच्च वरदान ही हो गया है। ये वरदान युग-युगान्तर तक मानवता के कल्याण का पथ आलोकित और प्रशस्त करते रहेंगे। इसके लिए हे महामहिम महर्षि! वर्तमान और भविष्य के गणनातीत मानव तुम्हारे चिर-कृतज्ञ और चिराभारी होकर तुम्हारा मंगलमय गुणगान करते रहेंगे।
इस शान्त, कान्त एवं दिव्य साहित्य के प्रकाशित हो जाने की प्रथम उद्घोषणा घरबन्धा के बत्तीसवें वार्षिक अधिवेशन सन् १९४० ईस्वी में हुई थी। यह बिहार प्रान्तीय संतमत-सत्संगाधिवेशन ता॰ २८, २९ एवं ३० जनवरी को स्थानीय निवासी श्री हर्षानन्दजी ने कौशिकी नदी के पुण्य-तट पर घरबन्धा से तीन मील उत्तर दिशा में कराया था।
इस अधिवेशन में श्रोताओं की उपस्थिति लगभग नौ हजार थी। सत्संग में छपरानिवासी पं॰ वैदेहीशरण दूबेजी सत्संगी ने निज रचित ‘वैदिक विहंगम-योग’ नाम की पुस्तिका को समझाते हुए कहा- “जो कोई ‘सन्तमत’ को अवैदिक मत कहते या कहना चाहते हैं, वे आकर मुझसे शास्त्रार्थ करें। सन्तमत, ऋषिमत या वेदमत एक ही बात है। वेदों और उपनिषदों में प्रथम के ऋषियों एवं संतों ने संस्कृत भाषा में जो ज्ञान कहा, बाद के संतों और ऋषियों ने जनता की साधारण भाषा में उसी का वर्णन किया। इन दोनों के अर्थों और अभिप्रायों में कोई भेद-भिन्नता नहीं है।”
जोतरामराय के वयोवृद्ध सत्संगी श्री बाबू यदुनाथ चौधरीजी का ईश्वर के प्रति प्रेम-भक्ति उत्पन्न करने एवं बढ़ानेवाला बड़ा ही सुन्दर और प्रेरणादायक भाषण हुआ।
महर्षिजी ने भी साररूप में कुछ प्रवचन दिए-
‘सन्तमत-प्रदर्शित आत्म-कल्याण के पथ पर दृढ़ता से चलने और उस लक्ष्य को इसी जीवन में उपलब्ध करने के लिए शम-दम-नियम का अखण्ड और विशुद्ध रूप से पालन करते हुए नित्य-नियमित रूप से गंभीर-ध्यानोपासना करना आवश्यक है।’
सत्संग शान्तिमय समारोह के साथ सम्पन्न हुआ।
बिहार प्रान्तीय संतमत-सत्संग का तैंतीसवाँ वार्षिक अधिवेशन सन् १९४१ ईस्वी की चार जनवरी से छह जनवरी तक मल्लडीहा (पूर्णियाँ) में हुआ। सत्संग में आपने प्रवचन दिया- ‘संतों की चाल छिपी हुई होती है। उनकी चाल की पहुँच अविगत-सर्वव्यापी तक होती है। वह अविगत अन्तर के अन्तिम पट में है । सन्त लोग निराली चाल से चलकर उस अविगत तक पहुँचकर उनके दर्शन करते हैं ‘
“जैसे हमलोग सोए हुए मनुष्यों को वाणी या हाथ की ठोकर देकर जगाते हैं , उसी भाँति सुरत को जगाने के लिए भी ठोकर की आवश्यकता होती है। ये ठोकर हैं - मानस जप, मानस ध्यान एवं दृष्टियोग तथा सत्संग की ठोकर । अन्तर्नाद सुनने के बाद पूरा जागना होता है। सुरत-शिरोमणि घाट दशम द्वार को ही कहते हैं। वहाँ पहुँच जाने पर ही जीवात्मा या सुरत का जगना प्रारम्भ होता है।’
“भक्ति’ सेवा को कहते हैं । जिसकी सेवा आपलोग करेंगे, पहले उसका स्वरूप जान लीजिए। सब सान्तों के पार में अवश्य ही अनन्त है। अनन्त सदा एक ही हो सकता है। वह अनन्त ही परमात्मा है। शुद्ध चेतन या सुरत का ही प्रभु से मिलाप होता है। नाद-विन्दु उपनिषद् में कहा है कि नादानुसंधान करके ईश्वर को पाया जा सकता है। सृष्टि के आदि में कम्प होता है। कम्प से शब्द पैदा होता है, अतः कम्प का नित्य सहचर शब्द है। सृष्टि के आदि में शब्द होने के कारण वह आदिशब्द या आदिनाम कहकर प्रसिद्ध है। उसी शब्द को नाद भी कहते हैं । नाम दो तरह के होते हैं- सिफाती नाम (वर्णात्मक सगुण) तथा जाती नाम (ध्वन्यात्मक निर्गुण)। नाम-भजन या नादानुसंधान करने के लिए अपने अन्दर में चलिए, तभी ईश्वर की प्राप्ति होगी। पूजा-पाठ करना व्यर्थ नहीं है। पहले स्थूल भक्ति है। स्थूल से अति सूक्ष्म में जाकर भक्ति पूरी होती है।”
‘वेद भी सद्गुरु की आवश्यकता बतलाते हैं। जो दृष्टियोग एवं नादानुसन्धान का अनुभूत मार्ग बता सकते हैं, वे ही सद्गुरु हैं।’
‘भगवान बुद्ध ने कहा है कि सब दानों में धर्म का दान उत्तम है, सारे रसों में धर्म का रस मीठा है एवं सारे आनन्दों में धर्म का आनन्द श्रेष्ठ है। अतः नित्य प्रति सत्संग करना चाहिए और वार्षिक सत्संगाधिवेशन में सभी सत्संगियों को अवश्य आना चाहिए।’
‘आपलोग बैठते हैं , तो खो-खों करते रहते हैं। यह तम्बाकू-सेवन का दुष्परिणाम है। सत्संगियों के लिए ऐसा करना घृणा की बात है। इसको कभी भी अमल में नहीं लाना चाहिए ।’ ‘संतमत में कोरे (बौद्धिक) ज्ञान की मर्यादा या पूछ नहीं है। साधन से ही इसकी मर्यादा होती है। सुगमता और उत्तमता से योग-साधन करने के लिए शब्द-साधन का अभ्यास जरूरी है।’
‘सभी सीमितों के पार में असीम और अनन्त अवश्य ही है । उन्हीं की भक्ति करनी चाहिए। भक्ति करनेवाला चेतन है। जाग्रत् दशा में चेतन का निवास आँखों में रहता है। इसी केन्द्र में चेतन को एकाग्र करने का नाम दृष्टियोग है। दृष्टियोग के बाद नादानुसंधान से भक्ति पूरी होती है।’
छह जनवरी के प्रातः सत्संग में योगशिखोपनिषद् एवं मुक्तिकोपनिषद् के श्लोकों के अर्थ समझाते हुए आपने कहा- ‘नाद से बढ़कर कोई मंत्र नहीं है।’
बायीं और दाहिनी धारों को रोकने से सुषुम्ना में प्रवेश होता है। सुषुम्ना में ज्योति मिलती है, तब ग्रन्थि (तमावरण) टूट जाती है। गंगासागर में स्नान कर मणिकर्णिका में प्रणाम करने से हजारों गुना अधिक फल केवल सुषुम्ना में स्नान करने से होता है।’
“विषय-वासना ही अन्तर की मलिनता है। सद्गुरुरूपी कर्णधार प्राप्त कर उनके वचनरूपी नाव पर चढ़ने से ही वासना का नाश होता है। उनके वचन के अनुसार आचरण और अभ्यास करना ही उक्त नाव पर सवार होना है। इस भाँति विषय-वासना का परित्याग कर अन्त:करण को निर्मल बनाइए, तभी आप शान्ति पाने के अधिकारी बन सकेंगे। शान्ति पानेवाले को ही ‘सन्त’ कहते हैं और उनके विचारों को ‘सन्तमत’। सभी संतों का एक ही मत है। जिस मत में ‘नादानुसंधान’ नहीं है, वह मत संतमत कहकर माननेयोग्य नहीं है।”
मध्याह्न के सत्संग में मल्लडीहा के निवासी भक्त श्री बाबू महावीर सिंह ने गीता-पाठपूर्वक ‘भक्ति’ विषय पर अपना भाषण प्रारम्भ किया । महर्षिजी भाषण की चौकी से नीचे उतर आए ।
आपको चौकी से नीचे उतरते देख भक्त महावीर बाबू ने आपसे वहीं बैठे रहने का अनुरोध किया कि आप चौकी के ऊपर आकर विराजिए । आपने उत्तर दिया- ‘वक्ता के लिए ही वह आसन रखा गया है। मैं अभी वक्ता नहीं हूँ, अतः मैं नीचे ही बैठूँगा । अभी आपके लिए ही वह आसन उपयुक्त है; क्योंकि अभी आप वक्ता हैं।’ ऐसा कहकर आप नीचे ही बैठ गए। उक्त भक्तजी ने अपने भाषण में सार रूप से यही बतलाया कि सगुण-शरीरधारी अवतारी भगवान की भक्ति करने से ही भक्तिविषयक सारा काम समाप्त हो जाता है। उनका भाषण समाप्त होने पर सभी श्रोताओं के आग्रह करने पर महर्षिजी ने ‘भक्ति’ विषय पर पूरा प्रकाश डाला। आपने कहा- ‘केवल स्थूल रूप की भक्ति करने से ही भक्ति पूरी हो गयी, यह बात बुद्धि को जँचती नहीं है। जब परमात्मा स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण एवं कैवल्य के आवरणों के पार में हैं, तो स्थूल भक्ति के बाद सूक्ष्म, कारण, महाकारणादि भक्ति करके ही आवरणहीन परमात्मा के स्वरूप का दर्शन किया जा सकता है। सगुण रूप को जिन्होंने धारण किया है, भक्ति करके उनका दर्शन पाने से ही भक्ति पूरी होगी, पहले नहीं। पर भक्ति का प्रारम्भ सगुण साकार से ही करना पड़ता है।’
इस अधिवेशन में दस हजार श्रोताओं की उपस्थिति थी। इस अधिवेशन को पूरा कर धरहरा के सत्संग-मंदिर में एक साप्ताहिक सत्संग की आयोजना की गयी, जिसमें आपने ‘सत्संग-योग’ में संगृहीत सभी ऋषियो सन्तों की वाणियों के अर्थ समझाते हुए बताया कि भाषा और उसे प्रगट करने के तरीके को छोड़कर तथ्यरूप में सभी के विचार एक ही हैं।
बिहार प्रान्तीय संतमत-सत्संग का चौंतीसवाँ वार्षिक अधिवेशन ता॰ २५.०१.१९४२ से २७.०१.१९४२ तक पिपरा (पूर्णियाँ) में हुआ । इस अधिवेशन की सुव्यवस्था का सारा खर्च पिपरा-निवासी श्री ढोढ़ाय दासजी की विधवा चाची ने दिया ।
आप २४ जनवरी को ही यहाँ आए । रात्रि-सत्संग में लगभग चार हजार की उपस्थिति हुई। आपने इसमें प्रवचन दिया- ‘सर्वेश्वर की असीम कृपा से हमलोग एक वर्ष के बाद परस्पर मिले हैं । इस मिलाप के चौंतीस वर्ष बीत चुके हैं । हमलोगों का यह मिलन किसी मनोरंजन या आमोद-प्रमोद के लिए नहीं होता। एकमात्र सत्संग करने का ख्याल लेकर ही हमारा आना होता है। हमें फजूलखर्ची नहीं बनना चाहिए। नियमित खर्च के साथ रहते हुए ठीक समय पर संध्योपासना करनी चाहिए। भजन के शौकीनों को चाहिए कि आधी रात से ही भजन-ध्यान में लग जायें। नहीं बन पड़े, तो पिछले पहर रात्रि से अवश्य ही ध्यानाभ्यास में लग जाना चाहिए।’ । २५.०१.१९४२ के सत्संग में आपने प्रवचन दिया- ‘संतों की चाल गुप्त है। जिस पथ पर वे चलते हैं , लोग उसे नहीं जानते, पर संत लोग जानते हैं । संतों की यह चाल अन्दर में है। इसमे पैर से नहीं, सुरत से चलते हैं। यह छिपी हुई चाल है। इस छिपी चाल से वे सतलोक पहुँच जाते हैं या शरीर के अन्दर जितने आवरण है , उनके अन्त तक । संतों की यह गुप्त चाल है। चेतन के असीम सिन्धु को सतलोक कहते हैं और यहीं की ध्वनि को ‘सतशब्द’ कहते हैं । परमात्मा के न रूप हैं, न रंग है, न जाति है, न उनका जन्म होता है। यदि उनका कोई चिह्न है, तो सतशब्द या सत्तनाम ही एकमात्र चिह्न है। ऐसे परमात्मा पर अपने को न्योछावर कर देना चाहिए।”
“अनन्त पुरुष अपने एक ही अंश से सारे विश्व में व्याप्त है। सदा रूप बदलनेवाली जड़ात्मक प्रकृति को ‘क्षर’ कहते हैं । सदा अपरिवर्तनीय परा या चेतन प्रकृति ‘अक्षर’ कहलाती है। कार्यब्रह्म को हिरण्यगर्भ कहते हैं। सृष्टि के आदि में जो मधुरतम व्यापक ध्वनि उत्पन्न हुई, उसे ही महर्षियों ने स्फोट या ॐ कहा है।”
‘मुर्शिद रसीदा या पहुँचे हुए गुरु से युक्ति प्राप्त करके ध्यानाभ्यास करना चाहिए। हमारी चेतन-वृत्ति अन्धकार में फैली हुई है। उस ओर से सिमटाव करने पर वह स्वभावतः ही प्रकाश या परमात्मा की ओर बढ़ जाएगी। पूर्ण सिमटाव एकविन्दुता में होता है। शून्यगत मन ही ध्यान है, उसमें अणोरणीयाम् रूप का ग्रहण होता है।’
२६ जनवरी के सत्संग में आपने कहा- “यह चौकी, जिसपर मैं बैठा हूँ गुरुआई की चौकी नहीं है। जो वचन द्वारा सेवा करें, वे सभी इस चौकी पर बैठ सकते हैं । आपने संतों के जो वचन सुने हैं , उसे ही समझाने की मैं सेवा करता हूँ। आपने यह पद सुना है- ‘अवधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भावै।’ इसका अर्थ सुनिए । ‘अवधू’ जीव को कहते हैं । हम अपने स्वरूप को भूल गए है। युग-युगों से हमारा इस संसार में आना-जाना हो रहा है। हमको यह पता नहीं है कि संसार बनने के पहले हम कहाँ थे? उस समय हम जहाँ थे, वहीं हमारा आदिघर है। यह आदिघर परमात्मा है। वहाँ इस पग से चलकर कोई नहीं जा सकता। इसपर सुरत चलती है। एक ऐसी खिड़की है, जिस होकर सुरत जाती है। पहले सुरत और मन साथ-साथ चलते हैं । सुरतरूपी घी दूधरूपी मन में मिला हुआ है। सुरत के संग मन उन्मनी घाट तक जाता है। इसके बाद मन पीछे ही छूट जाता है। तब केवल सुरत ही चलती है। अपरा प्रकृति के मंडलों को टपते हुए परा प्रकृति के मंडल को भी पार कर जाती है। पाँचो कोषों को छोड़कर केवल सुरत ही घर तक जाती है। जो जीवों को यह घर जाने का मार्ग बताता है, वह जन हमें बड़े अच्छे लगते हैं। वहाँ जाने के लिए योग-युक्ति है। कबीर साहब ने इसे केवल कहा ही नहीं है, बल्कि स्वयं करके दिखला दिया है। कबीर साहब गरीब आदमी थे। अपने से कपड़ा बुनकर गुजर करते थे और घर में ही रहकर योग भी करते थे। बड़े लोगों ने यदि बड़ा काम किया, तो इसमें क्या तारीफ? यदि छोटे लोग बड़ा काम कर डालें, तब तारीफ की बात है। सन्तों की हैसियत से कबीर साहब जगद्गुरु थे। मैं सब संतों को जगद्गुरु मानता हूँ, चाहे लोग माने या नहीं मानें। गुरु नानक साहब को ही देखिए। वे बाल-बच्चे रहते हए पूर्ण योगी थे। एक बार गुरु नानकजी के पुत्र श्री चन्द्रजी कामरान गए। वहाँ एक ब्राह्मण-कुमार को जबरदस्ती इस्लाम धर्म ग्रहण कराया जा रहा था। श्री चन्द्रजी ने उसे एक चुटकी भस्म देकर उससे कहा– ‘तुम निडर होकर कह दो, मैं वैदिक धर्मावलम्बी हूँ। इस्लाम धर्म नहीं कबूल करूँगा।’ उस लड़के के ऐसा कहने पर जल्लाद तलवार लेकर उसका शिर काटने लगा, पर उसके हाथ जकड़ गए और वह पत्थर की भाँति अचल हो गया ।”
उसी समय एक आदमी ने आपसे एक प्रश्न पूछ दिया- ‘राम और कृष्ण की आत्मा एक है या दो?’ आपने उत्तर दिया- ‘एक है।’ पुनः उक्त सज्जन ने पूछा- ‘राम और कृष्ण किसके हुकुम से इस दुनिया में आते और जाते हैं ?’
आपने कहा- ‘वायसराय को अपना वीटो (विशेष) पावर होता है, उसी तरह से जानिए ।’
यह सुनकर उक्त सज्जन सन्तुष्ट होकर चुप हो गए।
मध्याह्न के सत्संग में आपने विस्तृत प्रवचन दिया- “आपलोग विज्ञापन में ‘परा भक्ति’ पढ़कर आए हैं । किन्तु ‘परा’ को छोड़कर पहले ‘भक्ति’ को समझिए। ‘भक्ति’ का परिचय अनेक संतों ने दिया है। कबीर साहब ने कहा है- ‘भक्ती का मारग झीना रे।’ गुरु नानक साहब की वाणी है- ‘भक्ता की चाल निराली।’ गोस्वामी तुलसीदासजी का कथन है- ‘रघुपति भगति करत कठिनाई।’ ये तीनो संतों की वाणियाँ हैं । भक्ति का रास्ता बहुत ही झीना, महीन या सूक्ष्म है। इस सूक्ष्म मार्ग को जानने के लिए सत्संग का सहारा लेना पडता है। संत लोग भक्ति के इस महीन पथ पर चलने के लिए कहते हैं, पर किसकी भक्ति? इस भक्ति-पथ पर कौन चलता है और चलकर कहाँ तक पहुँचता है ? भक्ति परमात्मा की करनी है, इसके लिए परमात्मा के स्वरूप को जानना चाहिए और वही जीवात्मा का निज घर है। जीवात्मा को ही भक्ति करके अपने घर तक पहुँचना है। परमात्मा अनन्त हैं , असंख्य नहीं । अनन्त में एकता या अकेलापन है, किन्तु असंख्य में बहुविधता, भिन्नता और अनेकता है। जो जितना ही अधिक बारीक या सूक्ष्म होता है, वह उतना ही अधिक विस्तृत और व्यापक होता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा ‘राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर। अविगत अकथ अपार, नेति-नेति नित निगम कह।।’
राम के इस स्वरूप को कोई इन स्थूल आँखो से कैसे देख सकते हैं ? इस राम के पास जाने के लिए ये स्थूल पदद्वय किस काम में आ सकते हैं ? यह राम, यह अनन्त सभी के अन्दर है और सब इनके अन्दर है । उनसे मिलने का रास्ता भी सभी के अन्दर में ही है। अन्दर होने के कारण यह मार्ग भी अत्यन्त बारीक है। इस मार्ग पर चलना ही भक्ति करना है। शरीर तो इस सूक्ष्म पथ पर चल नहीं सकता, तो फिर इसपर कौन चलेगा ? भक्ति का आरम्भ स्थूल उपासना से होता है। इसके लिए मानस जप और मानस ध्यान है। शुरू की भक्ति मन और चेतन दोनों मिलकर करते हैं । इसे अपरा भक्ति कहते हैं । भक्ति के इस सूक्ष्म से सूक्ष्मतर मार्ग पर चलते हुए मन भी पीछे छूट जाता है, तब मनविहीन चेतन ही केवल इस मार्ग पर चलता है। मन से विहीन हो जाने पर भी चेतन के ऊपर प्रकृति के आवरण छाए रहते हैं । जब चेतन सब आवरणो से छूटकर स्वयं अकेले ही रह जाता है, तब पराभक्ति की जाती है। उस समय भक्त को प्रभु का राम-नाम, ॐ या आदि-नाम प्राप्त हो जाता है और वह नाम-भजन करते हुए परमात्मा का साक्षात्कार कर लेता है। यहाँ आकर भक्ति समाप्त हो जाती है।’
“गोस्वामी तुलसीदासजी ने भक्ति के नौ प्रकार कहे हैं । पहली भक्ति संतों की संगति करनी है, दूसरी भक्ति भगवत्कथा-प्रसंग में रति और प्रीति होने को कहते हैं । तीसरी भक्ति अपना मान-सम्मान बिसारकर सद्गुरु के चरणकमल की सेवा करनी है। चौथी भक्ति अन्त:करण से छल-कपट निकालकर निर्मल प्रेम भाव से सद्गुरु और भगवान के गुणों का गान एवं वर्णन करना है। भगवान की स्थिति एवं उनके दर्शन से अपना सर्वांगपूर्ण कल्याण होगा, इन बातों पर सुदृढ़ एवं अटूट विश्वास रखकर उनका नाम-जप करना पाँचवी भक्ति है। मन को चंचल करनेवाले बहुत सारे जो कर्म हैं , उनसे विरक्त होकर सदा सज्जनों के आचरण में अपने को स्थिर रखते हुए इन्द्रियों को दमन करनेवाला स्वभाव बनाना ही छठी भक्ति है। इन्द्रियों को दमन करनेवाला स्वभाव कैसे बनाया जाता है ? मन की धारा इन्द्रियों में है और मन एवं चेतन दोनो साथ-साथ है , जिस भाँति दूध में व्याप्त घी। बिना चेतन के मन संकल्प-विकल्प नहीं कर सकता है और न इन्द्रियाँ ही अपना कार्य कर सकती हैं । फैली हुई वस्तुओं को समेटने पर उसकी ऊर्ध्व गति होती है, यह स्वाभाविक है। जागने की दशा में चेतन का निवास आँखों में रहता है। आँख के जिस केन्द्र से चेतन अपना फैलाव इन्द्रियों तक करता है, उस पसार को समेटकर यदि उसी केन्द्र में जमा कर दिया जाय, तो चेतन या सुरत की गति ऊर्ध्व हो जाएगी। इस भाँति उसका प्रवेश सुषुम्न-विन्दु में हो जाता है, तभी इन्द्रियों का दमन करनेवाला स्वभाव बनता है। जो ऐसा करता है, वही छठी भक्ति करता है।
सातवीं भक्ति समता प्राप्त कर सर्वत्र ईश्वर के दर्शन करना है। जो छठी भक्ति कर अपने चेतन को इन्द्रिय-विषयों से रोककर सुषुम्ना में प्रवेश करा सकता है, वही क्रमशः ऊर्ध्व-गमन कर ईश्वर तक पहुँच सकता है। परमात्मा के दर्शन होने के बाद ही समता मिलती है और तभी बाहर और भीतर सर्वत्र ही ईश्वरमय देखने की क्षमता प्राप्त होती है। आठवीं एवं नवमी भक्ति तो सातवीं भक्ति का फल और परिणाम है। इन तीनों भक्ति को परा भक्ति कहते हैं ।”
“आँख के अन्दर जो शून्य है, वही नयनाकाश है। योगियों ने कहा है- ‘आँख में जहाँ से रोशनी आती है, उसी केन्द्र से देखे ।’ अन्धकार में अन्धकार का रास्ता, प्रकाश में प्रकाश का मार्ग और शब्द में शब्द का पथ है। जिसने इन्द्रिय भोग-जन्य सुखों को भली भाँति देख लिया है, उसे उनमे रुचि नहीं रह जाती। ऐसा विषय-विरक्त मनवाला जब चोरी, व्यभिचार, नशा, हिंसा एवं झूठ का परित्याग कर नित्य नियमित रूप से गुरुसेवा, सत्संग एवं ध्यानाभ्यास करता है, तो अवश्य ही उसकी साधना में उन्नति होती है।”
२७ जनवरी के प्रात: सत्संग में आपने प्रवचन दिया- ‘सुरत चेतन-धार को कहते हैं । सभी जानते हैं कि हम जड़ नहीं, चेतन हैं । सोने में शरीर का ज्ञान नहीं रहता है। जब नींद टुट जाने पर शरीर का ज्ञान होता है, तब उसे जागना कहते हैं। एक बिना पहचानवाला ज्ञान तथा दूसरा पहचानवाला ज्ञान होता है। पहचानवाले ज्ञान को ‘जगना’ कहते हैं। जब तक यह पहचानवाला ज्ञान नहीं होता, तबतक सभी को सोया हुआ ही मानना चाहिए। यह ज्ञान बाहर में नहीं मिलता। सद्गुरु से सद्युक्ति जानकर जब ठीक-ठीक उपासना होगी, तभी यह जगना प्रारम्भ होगा और जब अन्तर-पथ पर चलते-चलते मार्ग समाप्त हो जाएगा, तभी पूर्ण रूप से जगना हो सकेगा। यह जागरण, यह चित्त-वृत्ति-निरोध, यह सुरत का केन्द्र में सिमटाव और यह सुषुम्ना-प्रवेश प्राणायाम और ध्यानयोग से होता है। प्राणायाम सापद है और ध्यानयोग निरापद एवं सुगम है।’
प्रातः सत्संग समाप्त होने पर आपने अधिवेशन के प्रबन्धक की ओर से निवेदन किया- ‘अधिवेशन-प्रबन्ध-समिति की ओर से सभी पधारे हुए सत्संगीगणों को निमंत्रण दिया जाता है, आपलोग इसे ग्रहण करने की कृपा करें।’ आपके अनुरोध से सभी सत्संगी सज्जनों ने मध्याह्न में प्रेमपूर्वक चूड़ा-दही-चीनी से अपनी परितृप्ति की। पुनः साढ़े चार बजे सत्संगारम्भ हुआ। आपने प्रवचन दिया- ‘गुरु नानकदेव ने जो भक्ति-मार्ग में फाँदने की बात कही है, वह फाँदना शरीर से नहीं होता है। सुरत से यह फाँदना होता है। नीचे के चक्रों को छोड़ छठे चक्र पर चढ़िए, यही फाँदना है। केवल आज्ञाचक्र की साधना से ही नीचे के पाँचो चक्रों के काम भी समाप्त हो जाते हैं । ‘शिव-संहिता’ में कहा गया है कि दृष्टि की धारों को एक विन्दु पर मिलाना ही सुषुम्ना है। यही ऊपर का फाँदना है।’
बिहार प्रान्तीय संतमत-सत्संग का पैंतीसवाँ वार्षिक अधिवशन तोफीर दियारे (मुंगेर) में ता॰ १४ फरवरी से १६ फरवरी, १९४३ ईस्वी तक हुआ । प्रात:कालीन सत्संग में आपने अपने प्रवचन में कहा - ‘यह सत्संग सन्तमत-सत्संग है। हमलोग सभी सन्तों को बराबर मानते हैं । भारती (हिन्दी) के पद्यो में ज्ञान, योग आदि का वर्णन बाबा गोरखनाथजी से हुआ-सा जान पड़ता है, पर कबीर साहब ने बड़ा साफ-साफ कह दिया, तबसे मनुष्यों का अत्यन्त उपकार हुआ ।’
“मन और इन्द्रियों के संग रहने के कारण अपने शुद्ध स्वरूप को यह सुरत भूल गयी है। इसे विषयेन्द्रियों से हटाकर अपने केन्द्र में स्थिर करने से ज्योति का उदय होता है। यही गुरु की साक्षी है। गुरु ज्ञान देनेवाले को कहते हैं । संगीत की लय में जिस प्रकार की मस्ती आती है, वैसी ही मस्ती ध्यान में जिस व्यक्ति को होती है, वह व्यक्ति योगी कहलाता है। जब संसार की प्रत्यक्षता सम्पूर्ण रूप से छूट जाती है, तब ब्रह्म-सुख की प्राप्ति होती है। चेतन-धारा के शुद्ध रूप को परा प्रकृति और आदिनाम कहते हैं । स्वामी दयानन्दजी ने इसे ‘ॐ’ कहा है, कबीर साहब एवं गुरु नानक साहब उसे ‘सत्तनाम’ कहते हैं – दोनो एक ही बात है।”
“प्यारे धर्मप्रेमीगण ! यह सत्संग-सभा है। इसमें मुझ-जैसे साधारण मनुष्यों के कहने का कोई मोल नहीं है। इसमे संत लोगों के ग्रन्थो का पाठ होना चाहिए ।
उपनिषद् का अर्थ सुनिए- ‘ब्रह्म के दो रूप हैं -शब्दब्रह्म और परब्रह्म । जो शब्दब्रह्म में निपुण होता है, वह परब्रह्म को प्राप्त करता है।’ बाबा गोरखनाथ की वाणी है- ‘बस्ती न शून्यं, शून्यं न बस्ती।’ परमात्मा के स्वरूप को बस्ती कहे , तो वह भर्ती है और शून्य कहे , तो वह खाली है, परन्तु वह न भर्ती है और न खाली ही है। जहाँ तक आकाश-संकल्प है, वहाँ तक नाम की स्थिति है। श्ब्दातीत पद ही परम तत्त्व है। जहाँ स्पन्दन है, वहाँ ध्वनि है। ध्वनि स्पन्दन का सहचर है। यह ध्वनि ही चेतन और अमृत है। चेतन-धार शब्दरूप है। यही सबको क्रियाशील बनाती है। यह सभी के अन्दर है, पर यह वर्णात्मक शब्द नहीं है। जो सगुरा है, वह इसे अपने अन्दर में प्राप्त करता है। निगुरा को इसकी प्राप्ति नहीं होती। जिसने सद्गुरु से सद्युक्ति प्राप्त कर, अपनी फैली हुई चेतन-वृत्ति को अंधकार से समेट कर प्रकाश में पहुँचा दिया है, वही सगुरा है। उसे ही अन्तर के नामामृत की प्राप्ति होती है। जो गुरुप्रदत्त युक्ति का पालन करने में असमर्थ होकर अन्धकार में ही अपनी चेतन-वृत्ति को उलझाए हुए हैं, वह भजन-भेद लेने पर भी निगुरा ही हैं ।
पाँचो विषयों को छोड़कर चलो। आत्मा को जाने । इच्छारूपी अग्नि में भोगरूपी घृत नहीं पड़े, तब विषय हटेंगे। पहले समझने-बूझने से ईश्वर का परोक्ष ज्ञान होता है। पीछे साधना और समाधि के द्वारा उसका अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) ज्ञान होता है। बिना भक्ति किये क्लेशो का निवारण नहीं हो सकता और भक्ति करने के लिए ईश्वर का स्वरूप जानना आवश्यक है। जो स्वरूप से अनन्त और शक्ति से अपरिमित है, वही परमात्मा हैं । स्थूल यंत्रो से सूक्ष्म वस्तुएँ नहीं पकड़ी जा सकतीं, उसी भाँति स्थूल इन्द्रियों से सूक्ष्म परमात्मा को नहीं पाया जा सकता। शरीरस्थ चेतन ही इस देह का स्वामी है। इन्द्रियाँ उसके नौकर-चाकर हैं । परमात्मा की भक्ति नौकर-चाकर से नहीं हो सकती। यह भक्ति स्वयं सुरत को ही करनी पड़ती है। जो अपनी वृत्ति-धारों को चेतन-केन्द्र में एकत्र करता है, वह चैत्याग्नि में प्राणिक वासनाओं का हवन करता है। स्थूल भक्ति अर्थात् मानस जप और मानस ध्यान से हृदय पवित्र होता है। अतः प्रारम्भ में स्थूल भक्ति करनी अत्यावश्यक है।
‘परम पुरुष परमात्मा दृश्य नहीं हैं, जो इन्द्रियों से उन्हें देखा जा सके । उनका न रंग है, न रूप है, न किस्म है, न जाति है, न काल है, न कर्म है। जहाँ तक आप जानते हैं, वे सबके परे हैं । द्वैत या अद्वैत भी उसके लिए एक संकेत मात्र है। उस मायातीत, सर्वातीत प्रभु को पाने के लिए आत्मसमर्पण कीजिए, शब्द की कमाई कीजिए। इसी भक्ति से उनकी उपलब्धि हो सकती है।’
‘आपलोग अपने-अपने हृदय से प्रश्न कीजिए कि आप क्या चाहते हैं ? उत्तर मिलेगा- ‘शान्तिमय सुख या चिरन्तन आनन्द । इस नित्य सुख को सभी चाहते हैं । यह अविनश्वर आनन्द संतों को प्राप्त है। सन्त लोग इसे कैसे पाते हैं ? उत्तर मिलेगा- ‘ईश्वर-भक्ति से ।’
“योगहृदय, आधारचक्र, आज्ञाचक्र और छठा चक्र- ‘ये सभी एक ही वस्तु के नाम है । अपनी कमाई खाकर जीना, चोरी, जारी, नशा, हिंसा एवं झूठ का परित्याग करना, सत्संग, गुरु-सेवा एवं गुरु-ध्यान करना तथा गुरुदेव की बताई हुई युक्ति से ऊपर-नीचे, दाएँ-बाएँ एवं पीछे का त्याग कर तेजस् विन्दु को उदित करना चाहिए। तब अन्धकाराकाश से ज्योति के आकाश में गमन होगा । पुनः आलोकाकाश से शब्दाकाश में यात्रा करनी होगी। इस रास्ते को ‘विहंगम मार्ग’ कहते हैं। संकल्प-विकल्प का नाश हो जाने पर उन्मनी मुद्रा में स्थिर रहकर उद्गीथ या प्रणवनाद को सुनना ही ‘मीन-मार्ग’ है, यही परमात्मा को पाने का एकमात्र रास्ता है।” ‘वारि मथे घृत होइ बरु, सिकता तें बरु तेल। बिनु हरि भजन न भव तरिय, यह सिद्धान्त अपेल।।’
‘अतः परमात्मा को पाने के लिए भक्ति अनिवार्य है। परमात्मा अनन्त, अव्यक्त एवं सूक्ष्मातिसूक्ष्म हैं । उसे केवल विशुद्ध चेतन के द्वारा ही भक्ति करके पाया जा सकता है। इन्द्रियों के संग में रहते हुए यह चेतन भी प्रभु के पास जाने में समर्थ नहीं है। इसे इन्द्रियों के संग एवं सभी शरीरो से छुड़ाना होगा, तभी यह सुरत या चेतन परमात्मा के पास जा सकेगा।’
“शरीर में जितने स्तर हैं , ब्रह्माण्ड में भी उतने ही स्तर हैं । सतोगुण, रजोगुण एवं तमोगुण का समन्वित या सम्मिश्रणरूप ही प्रकृति अक्षोभ्य है। तीनों गुण समान मात्रा में अपनी-अपनी शक्ति को धारण और आकर्षण किए हुए रहते हैं, इसीलिए प्रकृति क्षोभरहित है। जब सृष्टि-रचना की प्रभु-मौज प्रकृति के किसी भाग पर क्रिया करती है, तो वह भाग क्षुब्ध हो जाता है, उसकी स्थिरता भंग हो जाती है। तीनों गुणों में किसी की न्यूनता और किसी का आधिक्य हो जाता है। त्रयगुणों के उत्कर्ष एवं अपकर्ष से प्रकृति का वह अंश क्षोभित, कम्पित, चलायमान हो जाता है। प्रकृति के इस भाग को ‘विकृति’ कहते हैं। यही माया भी कहलाती है। प्रकृति के इसी क्षुब्ध भाग से असंख्य ब्रह्माण्डों एवं पिण्डों की रचना हो जाती है। यह पिण्ड ब्रह्माण्ड का ही लघु स्वरूप है, अत: इस पिण्ड के जिस स्तर पर जो रहेगा, वह ब्रह्माण्ड के भी उसी लोक या दर्जे में रहेगा। इस पिण्ड के जिस दर्जे को जो छोड़ेगा, ब्रह्माण्ड का भी वह दर्जा या स्तर उसका छूट जाएगा। पिण्ड या ब्रह्माण्ड का यह स्तर और दर्जा छोड़ने या भेदन करने के लिए अन्तर में चलना पड़ता है। अन्दर में चलना कैसे होता है ? यह समझिए। जब हम जाग्रत् अवस्था से नींद में जाने लगते हैं, तो मध्य में अर्द्धनिद्रा की दशा आती है। उस समय हमारी चारो तरफ के फैले हुए ख्याल सिमटने लगते हैं। ये ख्याल ज्यो -ज्यों सिमटते जाते हैं , त्यो-त्यों हम अर्द्धनिद्रा से पूरी नींद की दशा में प्रवेश करते चले जाते हैं । अभिप्राय यह है कि अन्दर में जाने के लिए हमे अपने ख्यालों और वृत्तियों को समेटना पड़ता है। यह चित्त- वृत्तियों की एकाग्रता ही अन्दर में चलने का साधन है। सद्गुरु द्वारा बतायी गयी सद्युक्ति से प्रथम मानस जप तथा मानस ध्यान के द्वारा वृत्ति को एकाग्र करने का अभ्यास कीजिए। जप तीन प्रकार के हैं - वाचिक, उपांशु तथा मानसिक। मानस जप सभी जपों में श्रेष्ठ है। मानस जप और मानस ध्यान के द्वारा एकाग्रता का अभ्यास करके तब दृष्टियोग-साधन कीजिए। दो रेखाओं के मिलन-छोर या विन्दु पर दृष्टि स्थिर करने से ज्योति मिलती है। ज्योति में शब्द की धारा है। सुरत-शब्द-योग की युक्ति से नाद का ध्यान कीजिए। इस भाँति आनुक्रमिक रूप में भक्ति करने से भक्ति पूरी होगी। यही भक्ति करने का रास्ता है।”
‘जितनी इन्द्रियाँ हैं , सभी में सुरत की धारें हैं । स्वाद लेने, गन्ध लेने आदि की क्रियाएँ चेतन के कारण ही इन्द्रियाँ कर पाती हैं । यह स्वाद और गन्ध लेनेवाला चेतन ही है।’
‘परमात्मा अव्यक्त और अन्तर में है । | चौदहो इन्द्रियाँ उन्हे जानने में असमर्थ है। गुरु से युक्ति प्राप्त कर अभ्यास कीजिए । सभी इष्ट देवों की आत्मा एक ही है, अत: मानस ध्यान के लिए इच्छानुसार जो रूप लीजिए, सभी के स्थूल, सूक्ष्म, कारण महाकारणादि रूपों के दर्शन करते हुए उनके आत्मस्वरूप के भी दर्शन कीजिए। तब आपको सभी की एकता का ज्ञान हो जाएगा।’
“आपलोगो ने अभी जो डॉक्टर साहब के भाषण में सुना- ‘शुभ्र हंस पर वीणा लेकर सरस्वती देवी सवार है । उनके श्वेतोज्ज्वल अंग से सुषमा विकीर्णित हो रही है।’ यह बड़ी सुन्दर बात है। यह प्राणायाम का सुमधुर रूपक है। सरस्वतीजी के उपासकों को श्वासरूपी हंस पर सवार होकर ॐ ध्वनिपूर्ण वीणा को पाणि-पल्लव में धारण करने का पवित्र संकेत किया गया है। यह आदिनाम है। ऋषियों ने सृष्टि के इस आदिकंपन को समाधि-साधन से प्राप्त किया और इसे ‘ॐ कहकर अभिव्यक्त किया। यह पुनीत ध्वनि परमात्मा का प्रतीक है। मानव-भाषा में इसका उच्चारण नहीं किया जा सकता। एक संन्यासी का लेख सुनिए- ‘प्रणव से ब्रह्मा है, प्रणव से विष्णु है और प्रणव से ही शिव है । प्राण, ॐ, उद्गीथ और स्फोट; ये चारो नाम एक ही है ।’ यह ‘ॐ’ ध्वनि वर्णात्मक नहीं , ध्वन्यात्मक है।”
“आस्तिक हो या नास्तिक, सत्संग करना सभी को मंजूर है। अब सुनी हुई संतों की वाणियों के भाव समझिए- ‘कामनाओं को छोड़कर सुमिरन करो। सुरत लगाकर सुमिरन करो। सुषुम्ना के घर में जाकर सुनो । ब्रह्मनाद सुनते-सुनते परमात्मा से साक्षात्कार हो जाएगा। तब चर-अचर-रूप में उनकी व्यापकता के दर्शन होंगे। कुसंगति को छोड़ो। अन्तर की सुखदायिनी ध्वनि ही गायत्री है। उसका संगीत श्रवण करो। इसके लिए दृष्टियोग करो। दृष्टियोग से मन केन्द्रित होता है। उससे ऊर्ध्वगति होती है। इसकी विधि सद्गुरु से सीखो।”
यह सत्संगाधिवेशन कराने का श्रेय तोफिर दियारे के सम्पन्न सत्संगी श्री धनेश्वर प्रसाद यादवजी को था। उन्होंने तन-मन-धन लगाकर सत्संगियों के प्रेमपूर्ण सहयोग से इसे सफल बनाया। सत्संग के प्रति इनकी प्रीति और भक्ति सराहनीय है। ये बीच-बीच में पूज्यपाद महर्षिजी को अपने यहाँ ले जाकर सत्संग कराते रहते हैं। इनकी भाव-भक्ति की विशदता के कारण ही अपने शरीर-कष्ट का ख्याल विस्मृत कर महर्षिजी अति दूर इनके - घर से स्थित स्टेशन की दूरी कम समझते हुए वहाँ पदार्पण किया करते हैं । 

49.

वार्षिक और विशेषाधिवेशन के पुनीत वचन 

बिहार-प्रान्तीय संतमत-सत्संग का छत्तीसवाँ वार्षिक अधिवेशन ता॰ १३ फरवरी से १५ फरवरी, १९४४ ईस्वी तक कहलगाँव (भागलपुर) में हुआ।
सत्संग में आपने प्रवचन दिया- ‘सभी शान्तिदायक सुख चाहते हैं । यह सुख हरि-भजन से मिलेगा। हरि-भजन करने के पहले श्रवण और मनन के द्वारा हरि अर्थात परमात्मा का स्वरूप जानना चाहिए। उनका स्वरूप जाने बिना भजन नहीं हो सकेगा। परमात्मा इन्द्रियों से जाननेयोग्य या इन्द्रियगम्य नहीं हैं । अतः हमें अपने को इन्द्रियों से अलग करके अकेले उनसे मिलने या उन्हें जानने के लिए चलना पड़ेगा। सत्संग के द्वारा इस विषय को भली भाँति समझकर, फिर उसके अनुसार भजन या उपासना करनी चाहिए। इन्द्रियाँ हमारी सेविका है । उनसे परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती। हमे स्वयं ही उनकी भक्ति करनी पड़ेगी। इसके लिए इन्द्रियों में पसरी हुई सुरत को समेटकर पिण्ड के शीर्ष-स्थान में केन्द्रित करना पड़ेगा। एकविन्दुता प्राप्त करते ही सुरत का संग इन्द्रियों और स्थूल शरीर से छूट जायगा और वह ब्रह्माण्ड में प्रवेश कर जाएगी। ब्रह्माण्ड में आलोक-पथ से चलती हुई वह अनहद नाद-सागर के किनारे जा पहुँचेगी। वहाँ जाकर मन की तरंगे उसी भाँति समाप्त हो जाती है, जिस प्रकार समुद्र की कल्लोलित लहरियाँ किनारे लगकर समाप्त हो जाती है । वहाँ नाद-श्रवण में मुग्ध और तल्लीन होती हुई चेतनधारा ऊर्ध्व गमन कर आदिनाद या प्रणवध्वनि तक पहुँच जाएगी और वह प्रणवध्वनि सुरत को खींचकर परमात्मा में मिला देगी।”
मध्याह्न के सत्संग में आपने प्रवचन दिया-- ‘ईश्वर-भक्ति का आरम्भ स्थूल से ही करना पड़ता है और सूक्ष्मातिसूक्ष्म में जाकर उसकी पूर्णता होती है। स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण, कैवल्य और शुद्धात्मपद तक भक्ति करनेवाले को पहुँचना चाहिए। यह भक्ति सुरत को अन्तर्मुख करने से ही सम्पन्न होती है। सुरत को अन्तर्मुख करने के लिए शवरी की नवधा भक्ति का अनुसरण करना चाहिए।’
“एक जिज्ञासु मन में बहुत सारे प्रश्न लेकर सुकरात के पास गया । सुकरात के पास पहुँचते ही उसके सारे प्रश्नों का समाधान अपने अन्तर में ही हो गया । तब उसने महात्मा सुकरात से पूछा- ‘मेरे मन में जो सब प्रश्न थे, वे आपके समीप आते ही कैसे या क्यों हल हो गए?’
सुकरात ने उत्तर दिया- ‘प्रत्येक व्यक्ति के चारों ओर उसका तेजस-मंडल रहता है। उस आभा के बीच चलते-चलते आपकी अन्तश्चेतना ने स्वयं ही उसका समाधान कर लिया ।’
‘१५ फरवरी के मध्याह्न सत्संग में आपने ध्यानविन्दुपनिषद् का अर्थ समझाया- “कई योजन तक फैला हुआ पहाड़ के समान पाप भी ध्यानयोग से नष्ट हो जाता है। अक्षर का बीज बिन्दु है, इसलिए विन्दु को ‘बीजाक्षर’ कहते हैं। इस ज्ञान को बतलानेवाला संतमत है।’ बिहार-प्रान्तीय संतमत-सत्संग का प्रथम विशेषाधिवेशन ता॰ ०४ से ०६ नवम्बर, १९४४ ईस्वी तक फुलबड़िया (मुंगेर) में हुआ। सत्संग में आपने यह प्रवचन दिया- “मोहग्रस्त जीव सोए हुए हैं । ‘यह मेरी देह है,’ ‘यह संसार की वस्तु मेरी है’- इस भाँति के अनेक अपनेपन के स्वप्न हैं। इनमें जबतक रहोगे, कल्याण नहीं होगा। उपनिषदों में ऋषियों की अनुप्रेरक वाणी है- ‘उठो, जागो और श्रेष्ठ पुरुषों की संगति कर ज्ञान प्राप्त करो।’ ईश्वर में अपने को जोड़ना योग कहलाता है। प्रेम ही जोड़ता है। बिना प्रेम के योग नहीं होगा। जबतक मन की वृत्ति एकाग्र नहीं होगी, तबतक उधर का प्रेम नहीं होगा। इसीलिए उपासना की आवश्यकता है । संसार का ज्ञान रहना ही मानो सोना (शयन करना) है और इसे भूल जाना ही जागना है। वृत्तियों का विशेष सिमटाव होने पर ही यह ‘जागना’ होता है। जिसकी वृत्ति ब्रह्म-विन्दु में सिमट गयी है, वही वस्तुतः जगा हुआ है। इसके लिए युक्ति जानकर नित्य नेम से अभ्यास करना चाहिए। श्रवणज्ञान, मननज्ञान, निदिध्यासनज्ञान और अनुभवज्ञान; ये चारो ज्ञान हो जाने के बाद ही सम्पूर्ण रूप से जगना होता है। इसके लिए सन्तों की संगति करनी आवश्यक है।”
“संसार का सुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है, पर इस सुख से कभी किसी को तृप्ति नहीं मिली है। देवताओं का लोक भी संसार ही है। इन्द्रियों का सुख छोड़कर जो ब्रह्मसुख प्राप्त होता है, उस सुख का कभी भी विनाश नहीं होता । यह सुख पाने के लिए ईश्वर की भक्ति करनी पड़ती है। भक्ति करने के लिए उनका स्वरूप जानना आवश्यक है। लोग पूछते हैं- ‘क्या उनकी स्थिति है?’ कबीर साहब बताते हैं – ‘श्रूप अखण्डित व्यापी चैतन्यश्चैतन्य ।’ सो ठीक है। इन्द्रियों के घाटों से छुड़ाकर चेतनवृत्ति को अन्तर में प्रवेश कराने से परमात्मा के दर्शन होते हैं । चेतन को अन्तर्मुख करने की हिकमत या युक्ति संत लोग जानते हैं ।’ इसी समय एक सज्जन ने प्रश्न उपस्थित किया- ‘ईश्वर साकार है या निराकार ? अगर निराकार है, तो कैसे ?’
आपने उत्तर दिया- ‘आप पीछे से आए हैं, इसलिए ऐसा प्रश्न करते हैं। जो स्वरूप से अनन्त है, वह अवश्य निराकार है।’
‘भक्ति में तीन बातें प्रधान हैं --स्तुति, प्रार्थना और उपासना । स्तुति नहीं करने से ईश्वर के प्रति प्रेम नहीं होगा। प्रार्थना नहीं करने से दीनता एवं नम्रता नहीं होगी और उपासना नहीं करने से परमात्मा नहीं मिल सकेंगे। संसार की वासना के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना बहुत ही हीन बात है। भगवान से भगवान को ही माँगना चाहिए।’
कबीर साहब के वचनों से पता लगता है कि - ‘जबतक नहिं देखौं निज नैना। तब लगि नहिं मानौं गुरु बैना।।
इसके लिए साधन करना चाहिए। आँख बन्द कर उपासना करने से दृष्टि भीतर रहती है। बिखरी हुई दृष्टि कमजोर होती है, इसलिए सिमटाव होना चाहिए। ब्रह्मोपनिषद् पढ़ने से पता लगता है कि जाग्रत् अवस्था में जीव या सुरत का निवास नेत्रों में होता है। उस केन्द्रीय स्थान को शिवनेत्र कहते हैं । यह शिवनेत्र ही सुरत का शिरोमणि घाट है।
वहाँ ध्वनि होती है। इसका पता उपासकों को लगाना चाहिए। शब्द की धार ऊपर से नीचे की ओर आ रही है। सुरत-शब्द-योग के द्वारा इस मार्ग पर चलना ही ‘मीन-मार्ग’ है।”
‘जिस प्रकार घटाकाश और मठाकाश का ठीक स्वरूप समझ लेने से महदाकाश का रूप भी जानने में आ जाता है, उसी तरह सब आवरणों से अलग कर क्षेत्रज्ञ का प्रत्यक्ष ज्ञान होने से परमात्मा की पहचान होती है।’
‘वृत्ति को अन्तर्मुख बनाना ही साधन का अभ्यास करना है। यही ध्यानाभ्यास है। प्रथम स्थूल ध्यान का अभ्यास कर तब सूक्ष्म ध्यान करना चाहिए। ध्यान में सुनिपुण हो जाने पर यह स्पष्ट जानने में आता है कि शरीर के जिस दर्जे में जो रहता है, वह संसार के भी उसी स्तर या दर्जे में रहता है। शरीर के जिस स्तर को जब जो छोड़ देता है, संसार का वह स्तर भी तब उसका छूट जाता है । जाग्रत्, स्वप्न तथा सुषुप्ति की दशा पर विचार करने से भी यह बात भली भाँति समझ में आ जाती है।’ , ‘जप तीन प्रकार के है -वाचिक, उपांशु और मानसिक । जो जप बोलकर किया जाता है और जिसको दूसरे लोग भी सुन सकते हैं , उसे वाचिक जप कहते हैं। उपांशु जप केवल जप करनेवाला ही सुन सकता है। मानसिक जप चुपचाप मन-ही-मन किया जाता है। इन तीनों जपो में मानसिक जप श्रेष्ठ है।’
“रामचरितमानस की नवधा भक्ति में पाँचवी भक्ति तक स्थूल भक्ति है। छठी भक्ति सूक्ष्म है, पर यह दृश्य है। दृश्य में समता नहीं है। सातवी भक्ति में समता प्राप्त होती है। यह सुरत-शब्द-योग के पूर्ण होने पर मिलती है। इसी का दूसरा नाम ‘समाधि’ है। यहाँ भक्ति पूरी हो जाती है। भक्ति के पथ पर चलनेवाले को बाहरी पथ्य-परहेज की भी जरूरत है। पंच महापापों को छोड़कर रहना ही यह ‘पथ्य-परहेज’ है।”
सत्संग समाप्त होने पर एक रामायण-प्रचारक महात्माजी कहने लगे–’बड़े भाग्य की बात है कि महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने हमलोगों को ज्ञान-पंथ की बातें सुनायी है । निर्गुण-सगुण का झगड़ा करना व्यर्थ है। जो निर्गुण को जानता है, वही सगुण को भी जानता है और जो सगुण को यथार्थ रूप में जानता है, वही निर्गुण को भी जानता है।’ यह सुनकर आपने कहा- “सत्संग तो भक्ति का मार्ग है। आपने इसको ‘ज्ञान-पंथ’ कैसे कहा ? अपने को जानो यह ‘ज्ञान-मार्ग’ का आदेश है और परमात्मा को पहचानो– यह ‘भक्ति-पंथ’ का संदेश है। मैं किसी एक ग्रंथ के पक्ष में नहीं हूँ। सब सन्तों के ग्रन्थो का मैं समान भाव से आदर करता हूँ।”
‘सन्तों के वचनों को पढ़ना और सुनना ही सत्संग है। इसी आधार पर हमलोग सत्संग करते हैं। भजन सुनते-सुनते भी ध्यान लग जाता है, इसीलिए भजन-कीर्तन का आयोजन है। गाए गए भजनों का अर्थ समझाना मुझ जैसे साधारण जन से कठिन है, फिर भी कर्तव्य समझकर कहता हूँ। आपलोगों ने सन्त कबीर साहब की वाणी सुनी- ‘विमल-विमल अनहद धुनि बाजे, सुनत बनै जाको ध्यान लगे।’
यह अन्तर की ध्वनि है। जो अन्तर में ध्यान लगाकर इसे सुनेगा, वह अन्दर की ठाकुरवाड़ी में प्रवेश कर सकेगा। फैली हुई चेतन-वृत्ति का सिमटाव करना ही अन्तर में प्रवेश करने का उपाय है। अन्दर में जाने से ही प्रकाश में होकर आपको शब्द सुनने के लिए मिलेगा एवं शब्द-साधन करते हुए आप परमात्मा के भी दर्शन कर सकेंगे।’
‘अर्द्ध निद्रावस्था में हम इन्द्रियों से अपनी चेतनधारों को भीतर की ओर खिंचे जाने का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते हैं। उस समय हमें चैन मालूम पड़ता है। इससे जानने में आता है कि चेतन-वृत्ति के सिमटने से चैन मिलता है। सत्संग करते-करते भी ख्याल एक
ओर होता है, कथा-प्रसंग सुनने में भी चित्त-वृत्ति एकाग्र होती है, जप करने से भी मन स्थिर होता है, ध्यान करने से विशेष एकाग्रता होती है। ध्यान का आरम्भ स्थूल से होता है। जिसको जिस रूप में श्रद्धा हो, उसी रूप का ध्यान कीजिए। इससे सिमटाव होगा। इससे सूक्ष्म ध्यान करने की योग्यता होगी। विन्दुध्यान को सूक्ष्म ध्यान कहते हैं। इस ध्यान से ऊर्ध्व गति होती है। ऊर्ध्वगमनवाली साधना को दृष्टियोग तथा शब्दयोग कहते हैं। जिस केन्द्र से जो शब्द की धारा आती है, उस शब्द-धारा में केन्द्र के सभी गुण समाए रहते हैं। शब्दधार को ग्रहण करने के लिए सदाचारी बनकर एकाग्र होने का
अभ्यास करो।’ 

50.

वार्षिक एवं विशेषाधिवेशन के विशेष प्रवचन 

बिहार प्रान्तीय संतमत-सत्संग का सैंतीसवाँ वार्षिक अधिवेशन नवादा (नवगछिया) में ३ फरवरी से ५ फरवरी, १९४५ ईस्वी तक हुआ। ‘गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि सन्तों की महिमा बताने में ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, कवि-कोविद एवं सरस्वतीजी सकुचाने लगती है, तब भला उनकी महिमा मुझसे वर्णन हो सके, यह असंभव-सी बात है। ऐसे महामहिम संतों की जो वाणियाँ है , वे उनकी चिट्ठियाँ हैं। उनकी चिट्ठियों के संग से ही हमलोग सत्संग करते हैं।’
‘संसार में आने से जो रोक देने में समर्थ हों, वे ही भव-भंजन हैं। भवभंजन से विमुख मत रहो। सदा उनका भजन करते रहो। उनके नाम की सुधा पीते रहो। इस संसार-सागर से तरना बड़ा ही कठिन है, पर जो नाम-भजन करते रहेंगे, वे अवश्य ही इससे पार उतर जाएँगे। ठीक विधि से भजन करने से अन्तर में ज्योति प्रगट हो जाएगी। ऐसे भक्त को भगवान की गुप्त-प्रगट सभी महिमा जानने में आ जाती है।’
‘हमलोग यहाँ सौर जगत् में रहते हैं। उन्हीं के जरिये हमलोग जीवन प्राप्त करते हैं। यहाँ रहकर अगर हम उनके प्रभाव से अलग होकर रहना चाहे , तो नहीं रह सकते हैं। उसी भाँति इस दुख -सुखमय संसार में निवास कर हम अपने को इससे अलग नहीं रख सकते । इस जीवन के क्लेश को मिटाने के लिए एकमात्र उपाय हरि-भक्ति ही है । भक्ति करके परमात्मा तक पहुँचने से हमारे मोह और अज्ञानरूपी अन्धकार का उसी भाँति विनाश हो जाएगा, जिस भाँति सूर्य के उदय होने से रात्रि का अंत होता है।’
‘संसार के सब पदार्थ परिमित है। इन परिमितों के पार में अनन्त का होना युक्तियुक्त है। सब सान्त मिलकर एक अनन्त नहीं हो सकते । अगणित सान्त मिलकर सान्त ही होते हैं। अनन्त का अपरम्पार शक्तियुक्त होना स्वाभाविक है। अनन्त से अधिक व्यापक और कुछ नहीं हो सकता। जो जितना ही व्यापक है, वह उतना ही सूक्ष्म होता है, अतः व्यापक परमात्मा से अधिक सूक्ष्म और कुछ भी नहीं है। स्थूल यंत्रो से सूक्ष्म पदार्थों का पकड़ा जाना संभव नहीं है, इसी भाँति सूक्ष्मतम परमात्मा का इन्द्रियो द्वारा ग्रहण हो सकना असम्भव है। केवल उनका अभिन्न अंश जीवात्मा वा सुरत ही उसे देखने-पाने या ग्रहण करने में समर्थ है। यह सुरत यहाँ मनादि इन्द्रियों के संग मिलकर बिखर गयी है। इसे समेटकर सभी इन्द्रियों के संग से अलग करना होगा। यह निर्मल सुरत ही उनके पास जाने और उन्हें उपलब्ध करने के योग्य है।’
‘परमात्मा के स्वरूप-निर्णय के बिना उनकी भक्ति नहीं हो सकती । संत लोग उनके सर्वव्यापी स्वरूप को जानते हैं , वह परम तत्त्व सर्वत्र ही व्याप्त है। वह तीन शून्यो के पार में है, अर्थात् अन्धकार, प्रकाश एवं शब्दाकाश से परे है। उस अपरम्पार सत्ता में यह चेतन समुद्र डूबा हुआ है। वहाँ जाकर गति का अन्त हो जाता है। ऐसे परम गुप्त तत्त्व को जानने से ही सन्तो की गति को भी छिपा हुआ कहा जाता है। परमात्मा के दर्शन के लिए संत सद्गुरुओं के पास जाना आवश्यक है। वे आपको उनकी भक्ति का मार्ग बता देंगे। असत् गुरुओं को पहचानकर उनके संग से बचना चाहिए। सद्गुरु आपको सत्-असत् के निर्णय की सूझ देंगे। बिना सत्-असत् का निर्णय किए साधन करना भ्रम में पड़ना है। संतमत-सिद्धान्तो को भली भाँति समझने के लिए उसका नित्य पाठ करें । उसे कण्ठस्थ कर लेना और भी उत्तम बात है। सद्गुरु की आज्ञा-पालनरूपी सेवा करते रहने से आप सुषुम्ना के वज्रकपाट को खोलकर उसमे प्रवेश कर सकेंगे। इस भाँति दृष्टियोग में निपुण बनकर पुनः सुरत-शब्द-योग द्वारा अन्त में परमात्मा को पा लेंगे। अनन्तस्वरूपी परमात्मा के पाने पर आप यह बोध कर सकेंगे कि किस प्रकार उस अपरम्पार सत्ता में चेतन का समुद्र डूबा हुआ है। फिर तो और कुछ जानना शेष ही नहीं रह जाएगा।’
‘हम सांसारिक वस्तुओं को इन्द्रियों से पहचानते हैं। परमात्मा इन्द्रियातीत हैं , उनकी पहचान स्वयं आत्मा से होती है। इस जीवात्मा पर जड़ प्रकृति के चार आवरण है - स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण । इन आवरणों के रहते हुए चेतन परमात्मा को नहीं पहचान सकता है। जब सुरत सभी आवरणों को छोड़कर अकेली हो जाती है, तभी परमात्मा के दर्शन कर सकती है। इन आवरणों को हटाने का जो काम है, उसे ही भक्ति कहते हैं। आवरण का क्रम पिण्ड और ब्रह्माण्ड में एक ही तरह से है। लघुता-विभुता को छोड़कर दोनों में समता ही है। इसीलिए पिण्ड के जिस स्तर पर जिसका जब निवास रहता है, ब्रह्माण्ड के भी उसी स्तर में तब उसका निवास होता है। इसी भाँति पिण्ड के जिस स्तर को जब वह छोड़ देता है, तब ब्रह्माण्ड के भी उस स्तर से वह छूट जाता है। इस बात को और तरीके से भी सरल रूप में समझा जा सकता है। जैसे जाग्रत् अवस्था में घाव के टहकने से हम छटपटा रहे हैं , हम जरा-सा उस स्थान से यदि स्वप्न की ओर खिसक गए, तो उतनी देर के लिए हमें कोई भी पीड़ा नहीं मालूम होती। इस जाग्रत् और स्वप्न के बीच की अवस्था को हम अर्द्ध जाग्रदवस्था या अधनीनियाँ भी कहते हैं। इससे साफ-साफ जानने में आ जाता है कि स्थान-भेद से अवस्था में भी भेद हो जाता है। हमारा चेतन शरीर और इन्द्रियों में फैला हुआ है। इस फैलाव को समेटना ही स्थान-परिवर्तन का उपाय या साधन है। गुरु की बतायी हुई युक्तियो से यदि हम अपनी बिखरी हुई चेतनधारा का उसके केन्द्र-स्थान पर सिमटाव करें, तो उसकी गति ऊर्ध्व हो जायगी और स्थूल स्तर से सूक्ष्म स्तर में प्रवेश कर जाएगी। इसी प्रकार इस सिमटाव को सूक्ष्म-से-सूक्ष्मतर, बारीक-से-बारीक बनाते हुए हम शरीर और संसार- दोनो के सभी आवरणों से बाहर चले जाएँगे। आवरणों से मुक्त होते ही साक्षात् रूप से प्रभु के दर्शन कर सकेंगे। इस एकाग्रता--साधन का नाम हा भक्ति है। बिना यह भक्ति किए संसार-सागर स पार उतरने और प्रभु को पाने का और कोई उपाय नहीं है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है -
‘सेवत साधु द्वैत भय भागै।
श्री रघुवीर चरण लय लागै।।



देह जनित विकार सब त्यागै।
तब फिर निज सरूप अनुरागै।।’



यह सगुण और व्यक्त उपासना है। अब आगे देखिए –

‘अनुराग सो निजरूप जो,
जग ते विलच्छण देखिये।
सन्तोष सम शीतल सदा दम,

देहवन्त न लेखिये।।

निर्मल निरामय एकरस,

तेहि हरष शोक न व्यापई।
त्रयलोक पावन सो सदा,

जाकी दशा ऐसी भई।।’

‘जौं तेहि पन्थ चलइ मन लाई।
तौ हरि काहे न होहिं सहाई।।’



उनकी कृपा को क्यों भूलते हो ? क्यों निराश होते हो ? उठो और भक्ति प्राप्त करो । ‘मन और चेतन साथ-साथ है। मन के सिमटाव से चेतन का भी सिमटाव हो जाता है, फिर बाहरी इन्द्रियाँ कोई बाधा नहीं डाल सकती ।
गीता, अ॰ ८।१० में भगवान का आदेश है-
‘प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्यायुक्तो योगबलेन चैव।
भ्रूवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।

यहाँ सिमटाव का स्पष्ट विवेचन है। यही शिवनेत्र है, जिसके विषय में रामचरितमानस में कहा गया है-
‘जब शिव तीसर नयन उघारा। चितवत काम भयउ जरि छारा।।’
यही नवधा भक्ति की छठी भक्ति है। इसकी युक्ति सद्गुरु से जानकर सदाचार-पालन और सत्संग करते हुए नित्य ध्यानाभ्यास करते रहो। संतों के संग को सत्संग कहते हैं । परन्तु संत तुरत ही नहीं मिलते। इसके लिए संतों के वचन पढ़ते और समझते रहना चाहिए। पंच पापों का त्याग कर सत्कर्म करते रहना चाहिए। राजाओं को आदेश दिया गया है- ‘धर्म के लिए युद्ध भी करो और भजन भी करो।’ यह साधन गृहस्थ बनकर करो या वैरागी बनकर- इस पर विचार कर लो। दोनों ही इसे कर सकते हैं।”
‘ईश्वरोपासना में तीन बाते प्रधान हैं - स्तुति, प्रार्थना और उपासना । जिस भाँति सती नारी के लिए केवल एक पति की आशा है, उसी प्रकार भक्तों के लिए केवल एक भगवद्भक्ति है। भक्ति और सेवा में संलग्न होना ही प्रेम कहलाता है।’
“इस संसार में सब चर-अचर रूप भगवान राम के ही हैं । सर्वगत रूप उनका निज स्वरूप है और चर-अचर माया-रूप है।”
‘सत्य को इस तरह बोलो कि मीठा लगे। सत्य बोलो ओर प्रिय बोलो। कटु और कठोर वचन मत बोलो। धन और जवानी का घमण्ड मत करो, ये सब ठहरनेवाली चीजें नहीं हैं ।’
“मानस जप तथा मानस ध्यान से मनुष्य सूक्ष्म ध्यान करने के योग्य बनता है। दादू दयालजी कहते हैं –’दादू सिरजनहार के, केते नाम अनन्त।’ जिस नाम में श्रद्धा हो, उसी नाम का मानस जप करो। उस नाम के संग जो रूप प्यारा लगे, उसी सार्थक रूप का मानस ध्यान करो। ध्यान करने की तीन विधियाँ है - अमादृष्टि, प्रतिपदा दृष्टि और पूर्णिमा दृष्टि ।
अमादृष्टि से ध्यान करो और नींद से बचते रहो। यह सरल विधि है। संत-महात्माओ की वाणियों का प्रेम से कथन करो और श्रद्धा के साथ सुनो। संतमत बकने के लिए नहीं है, करने के लिए है। सत्संगियो को यह जानना चाहिए कि धर्म जो खो गया था, उसका पता लग गया।”
“आपलोग गोस्वामी तुलसीदासजी को जानते हैं। एक और तुलसी साहब हाथरस में हुए, जिनका शब्द अभी आपलोगों को सुनाया गया है। ‘साहब’ शब्द का अर्थ मालिक होता है। लोग इन्हें ‘साहब’ आदर भाव के लिए कहते हैं। उनकी वाणी है- ‘संसार में जो भी दर्शन होंगे, वे मायारूप के ही दर्शन होंगे। इससे आत्मा की पहचान नहीं होगी। इसलिए माया के घेरे से बाहर चलो, जहाँ स्वरूप की पहचान होगी।’ माया के घेरे से बाहर जाने के लिए अपने अन्दर की गुहा के रास्ते से चलना होगा। शरीर के नवो द्वारो से सुरत समेटकर उसके ऊपर ले जाना ही गुहा-गमन है। गुहा में अन्धकार छाया रहता है। दृष्टि को बन्द कर देखने से अन्धकार मालूम होता है। इस अन्धकार में फैली हुई चेतनधार को समेटकर दसवें द्वार की ओर ले जाना ही गुफा होकर गमन करना है।”
सन्त कहते हैं कि तुम्हारे अन्तर में ही गंगा और यमुना की धारा बहती है। अन्तर में ही दोनों के पावन संगम की त्रिवेणी है। उसमें स्नान करने से कर्मों के बन्धन से छूट जाओगे। दृष्टि की दोनों धारें ही गंगा और यमुना नदी हैं। दोनों दृष्टिधारो का सम्मुख मिलन-विन्दु ही त्रिवेणी है, जिसमें सुरत को केन्द्रित रखने से त्रिवेणी-स्नान होता है और साधक ऐन्द्रियक व्यापारों से ऊपर उठकर उस पर विजय पा लेता है।’
बिहार प्रान्तीय संतमत-सत्संग का दूसरा विशेषाधिवेशन पनसलवा (मुंगेर) में ता॰ १८ से २० नवम्बर, १९४५ ईस्वी तक हुआ। उसमें आपने साररूप में यह प्रवचन दिया-
‘जिस भाँति रात में सोने का सुख केवल आप ही जानते हैं, आपकी चौदहो इन्द्रियाँ नहीं जानती , उसी प्रकार आत्मा के आनन्द की अनुभूति केवल आप ही कर सकते हैं , सारी इन्द्रियाँ उसे जानने में बिल्कुल असमर्थ हैं।’
‘हमलोग मोहरूपी रात में सोए हुए रंग-बिरंगे सपने देख रहे हैं। इस मोह-निशा में केवल योगी लोग जाग रहे हैं और मोह-निशा के स्वप्नों में होनेवाले चंचल दुख -सुखों से अलग या बाहर है। योगी, गृहत्यागी भी हैं और गृहस्थ (घर में रहनेवाले) भी हैं। जो एक पक्ष की बात बोलते हैं, वे इस रास्ते को नहीं जानते हैं। गृहत्यागी बनना बाल-बच्चे और परिवार का त्याग करना है, पर घर को कौन त्यागते हैं?’
‘जिस भाँति लवण डालकर कोई अन्न सिद्ध करने से वह सभी में व्याप्त हो जाता है और सर्वत्र उसका स्वाद आने लगता है, उसी भाँति यह योग, भक्ति और ज्ञान; सभी में स्वाद और आनन्द देनेवाला है। योग भयंकर नहीं , वरन् सुख देनेवाला है।’
‘एक बूँद जल को पहचान लेने से जिस भाँति सारे समुद्र के जल को पहचानने की योग्यता हो जाती है, उसी भाँति जो अपने को पहचान लेगा, वह परमात्मा को भी पहचान सकेगा। इस पहचान के लिए नादानुसंधान की अनिवार्य आवश्यकता है। नादानुसंधान में सुयोग्य
बनने के लिए दृष्टियोग-साधन में सुदृढ़ और सुनिपुण बनना पड़ेगा। ज्ञान के चार विभाग और दो विभेद हैं । श्रवण, मनन, निदिध्यासन और अनुभव ज्ञान; ये चार दर्जे एक-से-एक उन्नततर हैं । श्रवण ज्ञान साधारण अग्नि है, मनन -ज्ञान विद्युत् है, निदिध्यासन ज्ञान बड़वानल है और अनुभव ज्ञान प्रलयाग्नि है। ज्ञान के परोक्ष तथा अपरोक्ष दो विभेद हैं । श्रवण ज्ञान से निदिध्यासन ज्ञान तक परोक्ष ज्ञान है और अनुभव ज्ञान अपरोक्ष ज्ञान है। यही अंतिम ज्ञान है। सुनिए साहब ! मेरा कहना क्या है, गोया डॉक्टर का मिक्सचर है यानी सन्तों की वाणियों का मिक्सचर ।’
‘श्री मद्भगवद्गीता कहती है कि आठ रूपों वाली अष्टधा प्रकृति नीचे स्तर की है, उससे उत्तम दूसरी परा प्रकृति है। ये दोनों प्रकृतियाँ परमात्मा की है और परमात्मा इन दोनों प्रकृतियों से भी उत्तम हैं, इसीलिए वे ‘पुरुषोत्तम’ कहे जाते हैं। वे परा और अपरा दोनों प्रकृतियो में व्याप्त हैं, इसलिए वे सर्वव्यापी हैं । फिर भी वे इतने तक में ही सीमित नहीं हैं। वे इसके भी परे अपरिमेय एवं अपरिसीम हैं , इसीलिए वे ‘अनन्त’ नाम से पुकारे जाते हैं । जीव मात्र उन्हीं के अभिन्न अंश हैं । परा और अपरा- दोनों मिलकर एक प्रकृति है। मायाबद्ध जीव आवागमन के चक्र में पड़कर दु:खी रहता है। इससे छूटने का एकमात्र उपाय पुरुषोत्तम की भक्ति ही है। माया के पाँच दर्जे या श्रेणियाँ हैं । इन पाँचो स्तरों के नाम क्रमशः स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य है। प्रकृति तीन मंडलों में विभक्त है -अन्धकार, प्रकाश और शब्द । इन घेरों और बन्धनों से छूटने के लिए स्थूल से ही भक्ति का आरम्भ करना होता है। मानस जप से वृत्ति परमात्मा की ओर उन्मुख हो जाती है। मानस ध्यान से वृत्ति एकाग्र होती है। दृष्टियोग से वृत्ति पूर्ण एकाग्र होकर ध्वन्यात्मक नाम-भजन या शब्द योग करने का बल प्राप्त करती है और शब्द साधन करते-करते माया और प्रकृति-मंडलों के ऊपर जाकर सुरत परमात्मा से मिलकर सदा के लिए मुक्ति प्राप्त कर लेती है। फिर वह आवागमन के चक्कर में नहीं फँसती।’
‘काम करते हुए प्रत्येक मनुष्य के मन में यह विचार उत्पन्न होता है कि यह काम मैंने अच्छा किया और यह काम बुरा किया। अच्छे कर्म का फल अच्छा और बुरे कर्म का परिणाम दुख दायी होता है । पुण्यकर्म करनेवाला स्वर्ग प्राप्त करता है और पाप करनेवाला नरक जाता है। कोई बच्चा जन्म लेते समय हँसता नहीं , वरन् सभी रोते ही हैं । यह रुदन दुख और पाप के परिणाम-जैसा ही है। पापी और पुण्यात्मा- सभी मनुष्यों को भूख-प्यास लगती है। इन सारे दु:खों, पापो और कर्मों के परिणामों से छूटने के लिए परमात्मा की भक्ति ही एकमात्र उपाय है। ध्यानयोग से पाप और सभी कर्मबन्धनों का नाश हो जाता है। भक्ति का यह स्वाभाविक एवं अनिवार्य अंग है। चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं । चित्त की एकाग्रता मानस जप और मानस ध्यान से प्रारम्भ होती है, पर यही पूरी एकाग्रता नहीं है। पूरी एकाग्रता विन्दुध्यान से होती है।
परमात्मा बड़े-से-बड़ा और अणु से भी अणु हैं । इनके इसी अणु रूप का ध्यान ही विन्दुध्यान है। जिस वातावरण में जो रहता है, उसका असर उसपर अवश्य पड़ता है।
जैसे मलेरियावाले देश में रहने से मलेरिया का प्रकोप उसे भी सहना पड़ता है या उसका असर भोगना ही पड़ता है, उसी भाँति कर्ममंडल में रहने से उसका परिणाम सभी को भोगना ही पड़ेगा। अन्धकार-मंडल में पाप-पुण्य कर्म किए जाते हैं । अन्धकार-मंडल से बाहर निकलने के लिए दृष्टियोग या विन्दु का ध्यान करना पड़ता है। विन्दु-ध्यान के बाद फिर नाद-ध्यान है। इसकी युक्ति सद्गुरु से जानकर ध्यानाभ्यास करना चाहिए। यही पापों से बाहर निकलने या उसे नाश करने का साधन है। यह कभी भूलकर भी नहीं समझे कि किसी बाबाजी के पास जाएँगे और वह मंत्र के द्वारा आपको पापों या पाप के परिणामों से छुड़ा देगा, बल्कि ध्यानयोग ही उसका एकमात्र उपाय है।’
“त्रयगुण ही सगुण कहे जाते हैं । रजोगुण उत्पादक शक्ति, सतोगुण पोषक शक्ति तथा तमोगुण विनाशक शक्ति है। यही ईश्वर का सगुण रूप है। जो इन तीनों गुणों से रहित हैं, वही निर्गुण है। हमलोगों का शरीर सगुण है और इसमे जो रहता है, वह निर्गुण है। कल मानस जप की चर्चा की गयी थी, उसे समझिए । मानस जप में वर्णात्मक नाम या शब्द का जप होता है, यह त्रयगुण-सहित होने से सगुण ही है। फिर मानस ध्यान में किसी रूप का ध्यान किया जाता है। क्या यह रूप का ध्यान सगुण नहीं है ? किसी एक रूप को ही ईश्वर मान ले, ऐसा हमलोगो का ख्याल नहीं है। ईश्वर को- ‘अचर-चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा’ जानना चाहिए ; किन्तु ये सभी भगवान के सगुण रूप ही हैं । हमलोग केवल सगुण को भजते हैं ।
सो नहीं ; केवल निर्गुण का भजन करते हैं, सो भी नहीं । हमलोग प्रथम सगुण का भजन करते हैं । सगुण के स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारणादि सभी रूपो का भजन करते-करते निर्गुण का भजन कर ‘सगुण-निर्गुण के पार’
परमात्मा तक पहुँचते हैं । परमात्मा त्रयगुण-रहित और दिव्य गुण-सहित माने जाते हैं । सब -ससीमों के पार में असीम अवश्य है, ऐसा बुद्धि की समझ में भी आ जाता है। जो असीम और अनन्त है, वह सबसे अधिक सूक्ष्म, विस्तृत एवं व्यापक होता है, इसीलिए अनन्त परमात्मा सगुण-निर्गुण के सभी मंडलों से विशेष सूक्ष्म तथा उसमें व्याप्त होते हुए भी उनसे परे है। वे अपने एक अंशमात्र से सारे विश्व को व्याप्त किए हुए हैं । वे सर्वसमर्थ एवं अपरम्पार शक्तिसम्पन्न हैं । अतः आप जिस रूप में उनके दर्शन चाहते हैं , उसी रूप
में वे दर्शन देते हैं। रूप सगुण है। जिन्होंने वह रूप धारण किया है, वे स्वयं निर्गुण ही हैं। काली, दुर्गा, राम, कृष्ण, शिव आदि किसी एक रूप पर मेरा जोर नहीं है। जो जिस रूप की प्रेमपूर्वक उपासना करते हैं, वे ठीक ही करते हैं; किन्तु जिसने वह रूप धारण किया है, उसकी भी उपासना करने से तब उपासना पूरी होगी। स्थूल से सूक्ष्म की ओर चलिए। आँख बन्द करने पर अन्धकार मालूम - पड़ता है, पर देखने की ज्योति आँखों में ही है, अतः अन्धकार के शिखर पर या पार में ज्योति है। ज्योति के बाद शब्द है, शब्द के पार में परमात्मा है।”
‘प्रत्येक इन्द्रिय केवल एक ही विषय को जान सकती है। वह दूसरी इन्द्रियों के विषयों को भी नहीं जान सकती, फिर इन्द्रिय-विषय
अतीत परमात्मा को तो वे सब मिलकर भी किसी तरह नहीं जान सकती।’
‘उच्चारण के सभी स्थानों को भरकर ही ‘ॐ’ का उच्चारण होता है। इसी सर्वव्यापक सत्ता के कारण ही महर्षियों ने ॐ ध्वनि को इतना महत्त्व दिया है। ऋषियों ने ॐ को अघोषं, अव्यंजनं एवं अस्वरं च’ कहा है । परमात्मा के निज वाचक नाम को ही ॐ, राम, सत्तनाम, गुरुनाम आदि कहा गया है।’
२० नवम्बर के मध्याह्न को विज्ञापन में सत्संग का कार्यक्रम नहीं था, किन्तु आपने जनता के उत्साह और सुरुचि को देख दो बजे से सत्संगारम्भ कर दिया । आज के प्रवचन में आपने कहा - ‘कल मैंने साधन के विषय में कहा था, फिर आज भी कहता हूँ। जिस काम को करने से ईश्वर प्राप्त होता है, वह भक्ति है । जिस काम को करने से भक्ति होती है, वह साधन है। जीवात्मा के ऊपर स्थूल, सूक्ष्म, कारण एवं महाकारण का परदा लगा हुआ है, इसीलिए वह परमात्मा के दर्शन नहीं पा रहा है। इन आवरणों को हटा देने पर फिर ईश्वर-दर्शन में कोई बाधा नहीं होगी। जैसे गंगा-स्नान करनेवाला यात्री जिस समय घर से गंगा की ओर चलता है, उसी समय से वह गंगाजी की भक्ति प्रारम्भ कर देता है। गंगा में स्नान करने से भक्ति पूरी हो जाती है। उसी भाँति जभी आप अपने केन्द्र से ईश्वर की ओर अपनी आन्तर यात्रा प्रारम्भ कर देते हैं , उसी समय से भक्ति का प्रारम्भ हो जाता है। जाग्रत् अवस्था में आप नेत्रों में वास करते हैं , वहीं से ठीक विधि जानकर अपनी यात्रा प्रारम्भ कीजिए और सभी आवरणों को पार कर परमात्मा के दर्शन कर लीजिए। जिस द्वार से चेतन-वृत्ति ब्रह्माण्ड से पिण्ड में आती है, वही दरवाजा शिवनेत्र है। वहीं से चलिए। आपलोग पूजा-पाठ करते हैं , इसको भी कीजिए और यह ध्यान भी कीजिए । स्थूल ध्यान के बाद सूक्ष्म ध्यान कीजिए । सूक्ष्म ध्यान भी दृश्य ही है। अब अदृश्य का ध्यान कीजिए। नाद-ध्यान ही अदृश्य ध्यान
है। शब्द-ध्यान करते-करते आपको निर्गुण नाम की प्राप्ति होगी और तब आप परमात्मा के साक्षात् दर्शन कर सकेंगे। इन सारी बातों
को पहले सत्संग के जरिए जान लीजिए, तब इसे कीजिए। यह एक रोज करने की बात नहीं है, बहुत दिन करना पड़ेगा। अगर कोई पहलवान लड़ना चाहे, तो वह एकाएक अखाड़े पर जाकर नहीं लड़ने लगेगा। पहले वह लड़ने की कला और हुनर सीखकर तब वह किसी प्रतिद्वन्द्वी से लड़ेगा। उसी भाँति जो ईश्वर से मिलना चाहते हैं, उन्हें युक्ति और साधन से नहीं डरना चाहिए। प्रारम्भ चाहे जो जिस रूप की उपासना से करे, पर ध्यान-विधि सबके लिए एक ही है। सभी उपासकों के लिए पंच पापों का परित्याग, सत्संग, सद्गुरु की निष्कपट सेवा और नित्य ध्यानाभ्यास आवश्यक तथा अनिवार्य है।’
आपके प्रवचन सुनकर फुलवड़िया निवासी बाबू चक्रधर प्रसाद सिंहजी सत्संगी विमुग्ध होकर कहने लगे- “परमात्मा को पाने का पथ बतानेवाले सद्गुरु हैं । मैं अपनी बात कहता हूँ, मैं बहुत दिनों से गुरु पाने के लिए आकुल और हैरान था। जिन महात्मा के पास जाता, वे कहते अभी सेवा करो, तब अध्यात्म-ज्ञान का रास्ता बताएँगे। वही दुर्लभ अध्यात्म-ज्ञान पूज्यचरण महर्षिजी मुक्त भाव से वितरित कर रहे हैं । कितने उदार हैं ये हमारे सद्गुरुदेव ! भरे घर को सभी भरते हैं , पर गरीबों के घर को कौन भरे ? पूज्यपाद महर्षिजी हम गरीबों को अपनी करुणा से नहला (स्नान करा) रहे हैं । अब हमलोगों को ‘हीरा’ मिल गया।”
सत्संगाधिवेशन पूरा करके ४२ सत्संगियों की मंडली लिए आप बेलदौर (मुंगेर) निवासियों के प्रेमाग्रह से २० नवम्बर के दस बजे रात में बेलदौर सत्संग-भवन पहुँच गए। वहाँ प्रथम से ही सारी व्यवस्थाओं के सहित श्रोतागण उपस्थित थे। आपने वहाँ प्रवचन दिया- ‘जीवन में विशेष सुख देनेवाली ईश्वर की भक्ति ही है। और-और विषयों में इन्द्रियों को ही क्षणिक सुख मिलता है। शरीर से चेतन के निकल जाने पर वह मर जाता है और वह पंच तत्त्वों में मिल जाता है। उसका कोई निशान नहीं रह जाता, केवल उसका नाम रह जाता है। शरीर के मिट जाने पर भी उस शरीर में स्थित मन और बुद्धि का विनाश नहीं होता। उसके अन्त:करण का लय नहीं होता। वही अन्त:करण पुनः जीव को लौटाकर दूसरे शरीर में ले जाता है। अन्त:करण में पकड़ने की आदत है। विषय-वासनायुक्त अन्त:करण बारम्बार लौटाकर दूसरी देह धारण कराता है। इस भाँति जन्म-मरण का ताँता लगा ही रहता है। यह अन्त:करण परमात्मा की भक्ति करने से ही छूटेगा। जो इससे छूटने की चाहना नहीं करता है, वह इस संसार में भाग्यहीन है। वह बारम्बार जन्म लेता और मरता रहता है। हमने जो समझा है, सो यही है।’
भजन दो प्रकार के हैं - एक अन्त:करण में रहकर तथा दूसरा अन्तःकरण को छोड़कर ।
संध्योपासना करना भजन करना है। ‘संधि’ से ‘संध्या’ बना है। दिवस और रात्रि का मिलन-काल होने से प्रात:काल तथा सायंकाल कहा जाता है। फिर सबेरे से दोपहर और दोपहर से शाम तक की संधि है। अतः त्रयकाल संध्या से प्रातः, दोपहर और शाम की ‘संध्या’ समझी और कही जाती है। एक संध्या और है, वरणा और नाशी के संगम पर अथवा आँख और नाक के संधिस्थल पर संध्या करनी चाहिए।
‘देखा-देखी सब कहै, भोर भये हरिनाम।
अर्धरात्रि कोइ जन कहै, खानाजाद गुलाम।।’

इसकी युक्ति सद्गुरु से जानकर संध्योपासना करनी चाहिए। इस भाँति संध्या करनेवाला माया के आवरणों में फँसा नहीं रहेगा। उसी को मोक्ष मिलेगा। वही परमात्मा की पहचान कर सकेगा। सुनिए साहब! स्थूल साधन प्राइमरी है, मानस जप मैट्रिक है, मानस ध्यान आईस्वी ए॰, दृष्टियोग बी॰ए॰ तथा शब्दयोग एम॰ए॰ है। प्राइमरी का ज्ञान होना नितान्त आवश्यक है और एम॰ए॰ का ज्ञान होना भी परम जरूरी है। यदि कोई पहाड़ को काटना चाहे, तो वह आहिस्ते-आहिस्ते उसे काट लेगा, उसी तरह साधन करनेवाला धीरे-धीरे उसे पूरा कर लेगा।’
भ्रमण-मंडली का दूसरा सत्संग शाहआलम नगर (भागलपुर) में हुआ। वहाँ का सत्संग समापन कर छह बजे शाम में मंडली ने प्रस्थान कर दिया। बारह बजे रात में फनहन गाँव पहुँचे। वहाँ एक सौभाग्यशाली सत्संगी के दरवाजे पर ठहर गए। उतनी रात में भी वहाँ पहले से उपस्थित प्रेमी सत्संगी आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उनलोगों की श्रद्धा से प्रसन्न होकर आपने शयन और विश्राम का परित्याग कर सत्संग प्रारम्भ किया। स्तुति विनती के बाद आपका प्रवचन हुआ। कुछ विश्राम कर पुनः तीन बजे भोर में ही मंडली ने वहाँ से प्रस्थान कर दिया । बहुत रात बीतने पर वाराटेनी (भागलपुर) पहुँचे। यहाँ सत्संग के लिए आमंत्रण था। रात के विश्राम के बाद प्रातः सत्संग समारम्भ हुआ। संतों की वाणियों के अर्थ बतलाते हुए आपने कहा-
‘संतों की आज्ञा है कि ईश्वर को जानो। परमात्मा किसी भी इन्द्रिय से नहीं जाना जा सकता। सब इन्द्रियों से अपने को अलग कर केवल चेतन ही समाधि दशा में उनका अनुभव कर सकता है। यह सारा दृश्य माया है, जो बदल जानेवाली है। यह जीवात्मा पंचेन्द्रियों एवं मन-बुद्धि से जो कुछ भी देखता, सुनता और जानता है, सभी माया है। जो बहुत दिनों तक सत्संग करेगा, वही इस बात को समझ सकेगा। इन्द्रियों के संग को छोड़कर जो रह सकेगा, वही ईश्वर को जानेगा। गृहस्थाश्रम में रह नित्य नियम से थोड़ा-थोड़ा भी भजनाभ्यास करनेवाला बहुत अच्छा है। वैरागी दो प्रकार के हैं- एक दूसरे से माँग-माँगकर खानेवाला और दूसरा स्वयं कमाकर खानेवाला। जो कमाकर खाता है, वह वैरागी श्रेष्ठ है। वैरागी हो या गृहस्थ; किन्तु असलियत को जानना चाहिए ।
‘सुरत फंसी संसार में, तासे पड़िगा दूर ।
सुरत बाँधि सुस्थिर करो, आठो पहर हजूर।।’

सुरत संसार में फँस गयी है, इसे समेटो और दृष्टियोग के द्वारा ‘अपने स्थान’ में स्थिर करो । इसमें सफलता पाने के लिए ईश्वर में अडिग विश्वास रखो तथा पाँचो पापों से बचते रहो।”
इसके बाद भ्रमण-मंडली ने धरहरा जाकर सत्संग किया। पुनः सभी अपने-अपने स्थान चले गए। 

51.

महर्षि मेँहीँ परमहंस की जयन्ती का प्रस्ताव

बिहार प्रान्तीय संतमत-सत्संग का अड़तालिसवाँ वार्षिक अधिवेशन कुरमीचक मलहारा (संताल परगना) में ता॰ १० फरवरी से १२ फरवरी, १९४६ ईस्वी तक सम्पन्न हुआ, जिसमें आपके निम्नलिखित प्रवचन हुए-
“मैंने सत्संग से आजतक जो सीखा है, उसका निचोड़ यही है कि संतमत ‘भक्तिमत’ है। ‘भक्ति’ सेवा को कहते हैं। भक्ति में तीन बातें प्रधान हैं – स्तुति, प्रार्थना और उपासना ।
श्रवण-ज्ञान से बिना पहचान का ज्ञान होता है, यही बात स्तुति से होती है। संसार को जानने से दुख की फाँस नहीं छूटती। परमात्मा को जानने से इस फाँस से सदा के लिए छुटकारा मिल जाता है। प्रार्थना में कोई वस्तु माँगी जाती है। जो जैसा है, उससे वैसी ही चीजों की माँग करनी चाहिए। जो मोक्षदाता है , उनसे मोक्ष की माँग करनी ही ठीक है। उपासना परमात्मा की प्राप्ति का यत्न है। यह यत्न ही विन्दु और नाद का ध्यान है। हमलोगों को दिल लगाकर उपासना करनी चाहिए। विन्दुध्यान से नाम-ध्यान सूक्ष्मतर है। हमलोगों के अन्दर में आपस में लड़ने-झगड़ने का पाशविक स्वभाव है। हम साधारण धनी और मामूली गुणी आदमी से कुछ पाने के लिए तो खुशामद करते हैं, पर परमात्मा की खुशामद करने को गुनाह और पाप समझते हैं। कैसा तमसाच्छन्न-पत्थर-सा हमारा हृदय है !
गुरु नानक साहब कहते हैं कि संसार में जल-मुर्गी के समान रहो, लिपटो नहीं। मैंने कुप्पाघाट की गुफा में रहकर देखा है- ‘जब मन एकान्त- तब एकान्त, नहीं तो नहीं ।’
समस्त संसार के लोग सुख की इच्छा रखनेवाले हैं। समासरूप में यह समझिए कि सब इच्छाओं का सार सुख की प्राप्ति है। सब चाहते हैं कि दुख नहीं आने पावे । ईश्वर-प्राप्ति को छोड़कर और जितने भी सुख हैं, सभी भ्रामक और नाशवान हैं । विषय-सुख क्षणिक है। स्थायी और निरन्तर का सुख तो एकमात्र ईश्वरोपलब्धि में है। परमात्मा को पाने के लिए उनकी भक्ति करने की आवश्यकता है, पर बिना उसे जाने उसकी भक्ति नहीं हो सकती। यह जानना परमात्मा का परोक्ष ज्ञान है। पूरी भक्ति करके अनुभव के द्वारा उन्हें जानना उनका अपरोक्ष ज्ञान है। ईश्वर सर्वव्यापक है । वह केन्द्र-ही-केन्द्र है, उसकी परिधि नहीं है। जिसके केन्द्र और परिधि दोनों हैं , वह जीव है। परमात्मा से जिसकी रचना हुई है, वह प्रकृति है। प्रकृति व्याप्य है और परमात्मा व्यापक। केवल संतों के वचन मानकर मत ठहरिए। उसे विशेष विचार से समझिए । देश-कालयुक्त सभी पदार्थ सीमाबद्ध है। सीमाबद्ध पदार्थों को देखते-देखते असीम का ज्ञान होता है। वे ही अनन्त हैं । वे तमाम रचना के अन्दर घुसे हुए हैं और उससे परे भी हैं । मेरे ख्याल में तो ईश्वर अनन्त हैं। ईश्वर सबमें व्यापक होने के कारण सबसे विशेष सूक्ष्म हैं । इसलिए वे स्थूल इन्द्रियों की ग्रहण-शक्ति से परे हैं । इन्द्रियाँ उसे नहीं जान सकती । सूक्ष्म दो प्रकार के हैं – एक आकाशवत् और दूसरा टुकड़े के सदृश । आकाशवत् परमात्मा है। यह स्वरूप निजस्वरूप है। इसे जानना चाहिए।”
“आप जगने की दशा में बिखरे हुए रहते हैं। जब आप तन्द्रा में जाते हैं , तब आपकी वृत्ति सिमटने लगती है। सिमटी हुई चेतन-वृत्ति स्थूल इन्द्रियों से असंग हो जाती है। इसी भाँति आप गुरु की सद्युक्ति से अपनी चेतन-वृत्ति को समेटकर अन्दर में प्रवेश कर सकेंगे। इस साधन में लग जाने से आप भक्त बन जाएँगे। जो लोग ऐसा करेंगे, वे ही वस्तुतः पवित्र बनेंगे। केवल स्नान करने से पवित्रता नहीं होती। असली पवित्रता चोरी, व्यभिचार, नशा, हिंसा और झूठ को छोड़ देने से होती है। ये पाँचो निषिद्ध कर्म हैं। इन्हें कभी नहीं करना चाहिए। योग्य गुरु से युक्ति जानकर नित्य उसका अभ्यास करना चाहिए और सत्संग करना चाहिए, यह विधिकर्म है।”
“लोग कहते हैं -- मैं गृहस्थ हूँ, मुझे भजन करने का समय नहीं मिलता। वह गलत बात है। देखिए, थियेटर, सिनेमा, ताश, परनिन्दा एवं फजूल गप-शप करने के लिए समय मिलता है, पर ध्यान के लिए क्यों नहीं समय मिलता है? अवश्य मिलता है। जिसका संकल्प सुदृढ़ और मजबूत है, उसके लिए रास्ता खुला हुआ है। जिस अँगुली से दुर्गन्ध लीजिएगा, उसी अँगुली से सौरभ कैसे लीजिएगा ? पहले अँगुली को साफ कीजिए, पीछे इत्र लीजिए। अँगुली को साफ करना सदाचारी बनना है। जो सदाचारी है, उनके सामने बड़े-बड़े लोग प्रेम से शिर नवाते हैं।” आज के सत्संग में लगभग चौदह हजार श्रोताओं की उपस्थिति थी।
“हाथ, पैर, नाक, कान, आँख आदि इन्द्रियों के द्वारा परमात्मा को पाने की कोशिश करनी खेल-तमाशा है। जिसका मन से मनन नहीं किया जा सकता, बल्कि मन ही जिसके मनन का विषय बन जाता है, वह ब्रह्म
है। वह एक ही परमात्मा भिन्न-भिन्न रूपों में व्यापक है। उस सर्वव्यापक में कोई भिन्नता नहीं होती। जिस भाँति रंग-बिरंगी आकृति वाले बर्तनों के अन्दर और बाहर वायु स्थित है, पर उन बर्तनों के आकार के कारण वैसी दीखती हुई भी वस्तुतः वह वैसी नहीं है। जिस भाँति बर्तन के भीतर वायु रहती हुई भी उसके बाहर भी वह वर्तमान रहती है, उसी प्रकार परमात्मा सारे व्याप्यो में व्याप्त होकर उसके बाहर भी असीम रूप में विराजमान हैं ।”
“कई योजन दूर तक फैला हुआ पहाड़ के समान पाप भी ध्यानयोग से नष्ट हो जाता है।
“यदि परमात्मा का व्यक्त रूप देखना चाहते हैं , तो जाकर सन्तों के दर्शन कीजिए। सन्त लोगों ने अपनी चेतन-वृत्ति को अन्धकार से खोंचकर प्रकाश में स्थापित किया है। उन्हीं के चरणों में पड़कर उनसे भक्ति माँगनी चाहिए। उनके बताए रास्तों पर चलकर आप भी अपनी चेतन-वृत्ति को इन्द्रियों से खींचकर बाएँ-दाएँ के बीच सुषुम्ना में केन्द्रित कीजिए । उस प्रकाश-विन्दु में स्थित होने पर आपको ऊपर से आती हुई ध्वनि सुनाई देगी। यदि उस तरफ आप ख्याल करें, तो उधर खिंचे चले जाएँगे। नाम-उपासना से मन में शान्ति आएगी।
जैसे नदी का पानी सागर से मिलकर शान्त हो जाता है, उसी भाँति आत्मा परमात्मा से मिलकर विमुक्त हो जाती है। नाम-उपासना से बढ़कर न कोई मंत्र है, न पूजा है, न और कोई साधन ही है।”
“शान्ति निश्चलता को कहते हैं । जिन्होंने शान्ति प्राप्त कर ली है, वे सन्त कहलाते हैं । सभी संतों का मत एक ही है। परा और अपरा-दोनों प्रकृतियों के पार में परमात्मा पुरुषोत्तम का पद है। वे शान्तिस्वरूप हैं।”
“अनादि और अनन्त परमात्मा को पाने के लिए आन्तर साधन करना चाहिए। बाहर का साधन इन्द्रियों से होता है। जबतक कोई अपनी चेतन-वृत्ति इंद्रिय-विषयों में अटकाए रखेगा, तबतक वह कभी भी परमात्मा का सच्चा ज्ञान नहीं पा सकेगा।”
“कृष्ण भगवान ने कहा है- ‘सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मैं ही हूँ।” बाहरी रूप चाहे छोटे-से छोटा, बड़े-से-बड़ा या विराट रूप ही क्यों न हो, सभी क्षेत्र ही है । उस रूप के अन्दर में जो क्षेत्रज्ञ है, वही कृष्ण-परमात्मा हैं। जो
कहने में न आवे, इन्द्रियाँ जिसे जान नहीं सकें, वह रूप परमात्मा का है। क्षेत्ररूप की उपेक्षा की बात नहीं, क्षेत्र को जानकर क्षेत्रज्ञ को भी जान लेना चाहिए। इस रूप को पाने के लिए अपने अन्दर में ही चलना पड़ता है। कबीर साहब का भजन है- ‘पानी बिच मीन पियासी। मोहि सुनि-सुनि आवत हाँसी ।।
आतम ज्ञान बिना सब झूठा, क्या मथुरा क्या काशी।’
परमात्मा पानी के समान हैं। हम सब जीव उसमें रहकर भी प्यास से छटपटा रहे हैं। मथुरा और काशी के महत्त्व झूठ ठहराने के लिए यह वाणी नहीं कही गयी है, वरन् जिस आत्मज्ञान या परमात्मा को पाने के लिए हम मथुरा और काशी जाकर तीर्थ-दर्शन करते हैं , यदि उससे वह परमात्मा नहीं प्राप्त हुए , तो वहाँ का जाना भी व्यर्थ ही होगा। क्षेत्रज्ञ के बिना क्षेत्र झूठ और व्यर्थ है, जिस बाहरी पूजा, तीर्थाटनादि से परमात्मा नहीं मिलते हों, वह भी व्यर्थ और झूठ ही है। यहाँ आत्मज्ञान की श्रेष्ठता को स्थापित किया गया है। आत्मज्ञान-सहित काशी, मथुरा सब ठीक है। बाहर में इन्द्रियों के घाटों में चेतन-वृत्ति को रखने से कभी क्षेत्रज्ञ की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसके लिए बाहर का भटकना छोड़कर अन्दर की यात्रा करनी चाहिए। दृष्टियोग और शब्द-साधन ही इस यात्रा के साधन-संवल है। सूरदासजी ने कहा है- ‘शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सद्गुरु भेद बतायो।’ अर्थात् शब्द का अभ्यास करते-करते प्रकाश हो जाएगा। यह भेद बतानेवाले सद्गुरु हैं। इस साधन-विधि का स्पष्टीकरण ‘सत्संग-योग’ के चौथे भाग, पारा नं॰ ६० में विस्तार से कर दिया गया है।
“जो जिस कला में प्रवीण हो जाता है, वह कला उसके लिए सुलभ हो जाती है । देखिए, बालू और चीनी को मिला देने पर हमलोग बुद्धि और ज्ञान से युक्त रहने पर भी उसे नहीं खा सकते, लेकिन छोटी-सी चोंटी उस कला में निपुण होने के कारण उसे खा लेती है। छोटी मछली नल के तेज प्रवाह में भी भाठे से सिरे की ओर तैरती हुई चली जाती है और हाथी इतना विशाल और बलवान होते हुए भी गंगा की चौड़ी और कम वेगोंवाली धारा में ठीक सीध में भी पार नहीं हो सकता है, वरन् और भाठे की तरफ ही जाता है। मछली तैरने की कला में निपुण है और हाथी में वह कला नहीं है। इसी भाँति जिसने अपनी चेतन-वृत्ति को समेटने और भाठे से सिरे की ओर-बाहर से भीतर की ओर जाने की कला नहीं सीखी है, वह हाथी की भाँति वृत्ति का फैलाव लेकर संसार-गंगा-प्रवाह में भँसता रहेगा।”
“हमारे देश में गोस्वामी तुलसीदासजी, भक्त सूरदासजी आदि सन्तों ने बाहरी उपासनाओं से प्रारम्भ कर उसे अन्तर-ज्ञान के अन्तिम स्तर तक पहुँचाया है। इससे यह समझना चाहिए कि बाहरी उपासना और ज्ञान ही पूर्ण नहीं है। भीतरी उपासना और ज्ञान का ग्रहण करना उसके लिए अनिवार्य है, तभी वे पूरे होते हैं। सन्त कबीर साहब तथा गुरु नानक साहब ने पहले से ही भीतरी ज्ञान और उपासना पर जोर दिया है। बाहरी पोशाक जिसके कारण आदर पाता है, उससे मिलना-उसे पाना आवश्यक है। यह आन्तरिक उपासना से ही हो सकता है। पर यह नहीं समझना चाहिए कि मूर्तिपूजा यहाँ नहीं है। महात्मा गाँधीजी कहते हैं – ‘यह शरीर परमात्मा के रहने का मंदिर है, इसे पवित्र बनाओ।’ यह मंदिर सदाचार और दृष्टियोग के द्वारा पवित्र किया जाता है। दृष्टियोग को ही शाम्भवी मुद्रा और वैष्णवी मुद्रा भी कहते हैं । कबीर साहब कहते हैं -
‘घर-घर दीपक बरै, लखे नहिं अन्ध है।
लखत-लखत लखि परै, कटै यम फन्द है।।

श्री मद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में कहा गया है -
‘समं काय शिरो ग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।’

अर्थात् काया, शिर और ग्रीवा को सीधा करके बैठो तथा सभी तरफ से दृष्टि हटाकर केवल नासिकाग्र को ही देखो - दृष्टि को मिलाकर एक नोक बनाओ और उसे देखते रहो। ये सारे संकेत एक ही बात को लक्ष्य करते हैं, उसे सद्गुरु से समझो और वैसा अभ्यास करो। रामचरितमानस में यही छठी भक्ति है। सातवीं भक्ति समता का पाना है, जो प्रणव-नाम प्राप्त होने पर मिलती है। सभी साधनों या भक्तियों में प्रेम ही प्रधान है। इन साधनों से जीवात्मा सारे आवरणों से विमुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त करता है। यह अत्यन्त महान कार्य है। इतने बड़े कार्य को चुटकी बजाकर कोई कैसे कर लेगा? गुरु आश्रित होकर यह उपासना करनी चाहिए।”
“छह वर्ष कठिन तपस्या करने के बाद भगवान बुद्ध ने स्वप्न में देखा कि देवराज इन्द्र एक तानपूरा लेकर उनके सामने खड़े हैं । तानपूरे में तीन तार है , एक बगल का तार एकदम कसा हुआ है, दूसरी बगल का तार एकदम ढीला है और बीच का तार यथोचित रूप से कसा हुआ है यानी न ढीला है और न अधिक कसा हुआ ही है- सन्तुलित है। तानपूरे से सुन्दरतम ध्वनि उत्पन्न करने के लिए जितना कसा जाना चाहिए, ठीक-ठीक उतना ही कसा हुआ है। इन्द्र ने तीनों तारों को बारी-बारी से अलग-अलग बजाया। कसे हुए तार से रूखी-नीरस एवं कर्णकटु ध्वनि निकली। ढीले तार की आवाज फीकी, झर-झर, कमजोर एवं मुर्दनी छायी-सी हुई। मध्य के तार का स्वर सुरीला, सुमधुर, कोमल और हृदय को पुलकित कर देनेवाला निकला। इतने में स्वप्न टूट गया और भगवान बुद्ध ने तीनों तारों को मुनष्य जीवन से मिलाया और विचारकर यह निर्णय किया कि मनुष्य को कसे हुए तार के समान रहना ठीक नहीं है यानी अत्यन्त कठोर तपस्या या अनावश्यक दुस्सह कष्टों का सहना उत्तम नहीं है। दूसरे ढीले तार के समान रहना भी उपयुक्त नहीं यानी कर्तव्य-पालन करने में ढीले, आलसी अकर्मण्य और प्रमादी होकर विषय के निम्न प्रवाह में बहते जाना भी अशुभ और अमंगलकारी है। मध्य के तार-सदृश ही सन्तुलित, शान्त, विषय-निरपेक्ष, निर्मल, मधुर, कोमल और निरासक्त जीवन बिताना ही कल्याणकारी है। ‘मध्यममार्ग’ ही निर्वाण प्राप्त करने का सही और मंगलमय पथ है। भगवान बुद्ध की इस शिक्षा के अनुसार ही सभी को अपना जीवन संतुलित, निर्लिप्त और निर्मल रखकर अपने कर्तव्य का पालन करते रहना चाहिए। न तो -संसार की आसक्ति की तरफ झुककर संसार में फँसना चाहिए और न उतावली के वेग में आकर कर्तव्य त्याग अपने शरीर को अत्यन्त कष्ट देकर उसे निर्वाण पाने के लिए असमर्थ और अयोग्य ही बनाना चाहिए।”
“गीता में भगवान कृष्ण ने भी ‘युक्ताहार विहार’ की बात कहकर इसी मध्यम-मार्ग का ही प्रतिपादन किया है। सन्तमत इसी बात की शिक्षा देता है। स्वावलम्बी बनकर अपना जीवन निर्वाह करो, पर इसके लिए चोरबाजारी मत करो। पवित्र कमाई के अन्न से पवित्र मन बनता है, इसका ख्याल रखो। संसार में ईमानदारी और पवित्रता से रहकर अपना भजन-साधन नित्य नियमित रूप से करते रहो।”
“दादू साहब राजस्थान के निवासी थे। वे साधारण मनुष्य के समान शान्त और सरल जीवन बिताते थे। नम्रता के तो वे प्रत्यक्ष स्वरूप ही थे। सत्संगियों को अपना हठ छोड़कर दूसरों का हठ रखना चाहिए। नासिरुद्दीन बादशाह की भाँति अपने मित्र या अन्य किसी का भी दिल बिना दुखाए अपनी सच्चाई और सदाचार पर चलते रहना चाहिए। संत कबीर साहब ने भारती भाषा के साहित्य को अपनी पवित्र वाणियों से विभूषित कर दिया । भक्ति-रस को ज्ञानयुक्त-रसगुल्ला बनाकर सभी के लिए स्वादिष्ट बना दिया। अपने को खोजो, तो परमात्मा मिलेंगे और परमात्मा को खोजो, तो अपने को पाओगे।”
“संतों की गति तो छिपी हुई कही जाती है; क्योंकि वे इन्द्रियों के ज्ञान से परे परमात्मा तक जाते हैं। इन्द्रियाँ उन्हें जानने में असमर्थ हैं। इन्द्रियों में जो शक्ति है, वह चेतन-धारा की ही शक्ति है। इन्द्रियों से चेतनधारा को हटा लेने से वे अपना काम नहीं कर सकती है। सन्त-सद्गुरु की बताई विधि से चेतनधारों को इन्द्रियों से समेटकर केन्द्र में स्थिर करो, तुरत प्रकाश मिलेगा । यही त्याग की अग्नि है। इस रास्ते से अन्तरपट के अन्त तक चलो। शब्दों के भी पार में निःशब्द तक चलो। जिस भाँति तैरनेवाला जल के सहारे तैरता हुआ जल के उस पार चला जाता है, उसी भाँति शब्द की डगर पर चलकर ही भक्त शब्द के उस पार चला जाता है और परमात्मा के धाम में जाकर चिरविमुक्त हो जाता है।”
“सारा विश्व शब्दमय है। अगर सारे विश्व का ख्याल न करें, तो अपने शरीर पर ही गौर करें। आपका शरीर भी शब्दमय है। साधारण हवा आकाश में विलीन हो रही है और भयंकर आँधी भी इसी में विलीन हो जाती है। हवा और तूफान के प्रारम्भ में , मध्य में और अन्त में भी आकाश ही है। आकाश शब्दगुणधारी है और शब्द कम्पनमय है। कम्प और शब्द सदा साथ-साथ है। यह सृष्टि कम्प और शब्द से ही उत्पन्न हुई है। मनुष्य-शरीर में श्रेष्ठ माने जानेवाले भगवान के अवतारी स्वरूप का चित्र देखिए । वे ॐ से घिरे हुए हैं। ॐ प्रणवध्वनि या सार-शब्द का बाह्य प्रतीक माना जाता है। ॐ से घिरे होने का अभिप्राय है कि शब्द के अन्दर ही भगवान का रूप है। शरीर में स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य; ये पाँच मंडल हैं। ये सभी शब्दमय हैं। इस भाँति हमारे, आपके सभी के स्थूल से लेकर कैवल्य शरीर तक शब्दमय है। इस शरीर की भाँति ही इस विश्व के भी पाँच दर्जे हैं और वे भी सभी शब्दमय हैं। जो भक्त गुरूपदिष्ट विधि से अपने शरीर के सभी मंडलों को पार कर जाएँगे, वे विश्व के भी सारे मंडलों को पार कर जाएँगे ; परन्तु यह कार्य बड़े ही धैर्यशीलों और शूरमाओं का है। जो लोग बीच में ही उकता और घबड़ाकर धैर्य खो देते हैं या हिम्मत हार जाते हैं , ऐसे कायरों से यह भक्ति नहीं हो सकती।”
“यहाँ वार्षिक सत्संग बड़े समारोह के साथ सम्पन्न किया गया, इसके लिए मुझे पूरी आशा नहीं थी। यहाँ के श्रद्धालु लोगों ने सब प्रबन्ध बड़े ही सुन्दर रूप में किए, इसके लिए उनलोगों को धन्यवाद है। जिन लोगों ने यह सत्संग कराया, वे लोग धन्य हैं! जो लोग यहाँ सत्संग करने आए हैं , वे भी धन्य हैं। सत्संग कराने में जिन लोगों ने एक खर (तिनका) उठाकर भी इधर से उधर कर दिया है, वे भी धन्य हैं। तुलसी साहब ने कहा है - ‘सखि सीख सुनि गुनि गाँठ बाँधो, ठाट ठट सत्संग करै।’ ‘ठाट ठट’ यही वार्षिक सत्संगाधिवेशन है। वार्षिक सत्संग में कोई विशेष व्यक्ति आवेंगे, तब सत्संग होगा- ऐसा नहीं । सबको मिलकर सत्संग कर लेना चाहिए।”
सभी के अन्तस्तल में यह लालसा तरंगित हो रही थी कि गोस्वामी तुलसीदासजी की वाणी के अनुसार जिनकी ‘गति’ हो गयी है, क्यों नहीं उन ‘त्रयलोक पावन सो सदा’ की जयन्ती मनायी जाय -

‘सेवत साधु द्वैत भय भागै।
श्री रघुवीर चरण लय लागै।।
देह जनित विकार सब त्यागै।
तब फिरि निज सरूप अनुरागै।।

अनुराग सो निज रूप जो जग,
तें विलच्छन देखिये।
सन्तोष सम शीतल सदा दम,
देहवन्त न लेखिये।।

निर्मल निरामय एकरस तेहि,
हरष शोक न व्यापई।
त्रयलोक पावन सो सदा,
जाकी गति ऐसी भई।।’


खगड़िया (मुंगेर) के डॉक्टर बाबू राम प्रसादजी के हृदय में सब भक्तों की लालसाएँ एकत्रित होकर उदबुद्ध हो उठी और उन्होंने सत्संग महाधिवेशन में यह प्रस्ताव उपस्थित किया -
‘बीसवीं शताब्दी के भगवान बुद्धदेव, महर्षि मँही परमहंसजी महाराज की जयन्ती का उत्सव प्रतिवर्ष मनाकर हम उनका दिव्य सन्देश जन-जन के मन में जागरित करें।’
इस प्रस्ताव की स्वीकृति की उत्कण्ठा एक ही साथ सभी के कण्ठों से निनादित हो उठी। वैशाख शुक्ल चतुर्दशी के पवित्र आविर्भाव-दिवस को गाँव-गाँव में, सत्संग-मंदिर में तथा घर-घर में सत्संग, शुभकृत्य, दान, सेवा, सफाई एवं दीन जनों की परितृप्ति का संकल्प किया गया और भारतवर्ष की स्वतंत्रता के महान वर्ष सन् १९४७ ईस्वी से महर्षि मेँहीँ परमहंस-जयन्ती उल्लास से मनायी जाने लगी। 

52.

मानव की चिरन्तन स्वतंत्रता का सन्देश

बिहार प्रान्तीय संतमत-सत्संग का ३६वाँ वार्षिक अधिवेशन ता॰ ६ फरवरी से १२ फरवरी, १९४७ ईस्वी तक मोहनियाँ (पूर्णियाँ) में हुआ।
प्रथम दिवस के मध्याह्न सत्संग में श्री श्री धर सिंहजी सत्संगी के भाषण हुए-
‘आपलोग केवल पूज्यपाद महर्षिजी के प्रवचनों को सुनकर उसके बाद शान्ति-भंग करने लगते हैं, यह शोभनीय बात नहीं है। हम सरीखे अधों का वचन भी शान्तिपूर्वक सुनना चाहिए। सत्संग में शान्ति धन्य है। हमलोगों के महान भाग्य से अति समीप में पूजनीय महर्षिजी का आविर्भाव हुआ है। - इनकी पवित्र वाणी का हमलोगों को श्रद्धापूर्वक श्रवण, मनन एवं निदिध्यास करना चाहिए। उनके पुनीत निर्देश की उपेक्षा कर केवल उनके स्थूल शरीर के दर्शन से हमारा पूरा कल्याण नहीं होगा, जैसे राम की आज्ञा का पालन करना छोड़कर केवल उनके रूप-दर्शन से अयोध्यावासियों का काम नहीं चला। भगवान श्री रामचन्द्रजी ने कहा है- ‘वही मनुष्य मुझे प्यारा है, जो मेरी आज्ञा के अनुसार चलता है।’ इस शरीर में नरक, स्वर्ग एवं परमपद में जाने के लिए तीन सीढ़ियाँ लगी हुई है अन्धकार प्रकाश और मोक्ष की। मुल्तान, सिन्ध, कश्मीर, गुजरात आदि स्थानों के लोग आरण्यग्राम धरहरा मोक्ष का मार्ग जानने के लिए आते रहते हैं। मैं दरभंगा से भटकते-भटकते यहाँ आया और यहाँ आकर परम पद पाने का रास्ता जानकर स्थिर हुआ । सभी को ऐसे सद्गुरु की प्राप्ति हो, यही ईश्वर से मेरी प्रार्थना है।’
तदुपरान्त महर्षिजी का प्रवचन हुआ- संतमत नया मत नहीं है। रामचरितमानस में लिखा है-
“इहाँ न पक्षपात कछु राखौं।
वेद पुराण सन्तमत भाखौं।।

संत संग अपवर्ग कर, कामी भवकर पंथ।
कहहिं सन्त कवि कोविद, श्रुति पुराण सद्ग्रंथ।।’

‘संतमत’ संतों के विचार का नाम है और मोक्ष पाने के लिए संतों का संग या सत्संग करना परमावश्यक है, यह गोस्वामी तुलसीदासजी ने ही कहा है। संतमत मोक्ष-धर्म सिखलाता है और इस मत में सत्संग प्रधान है। यह सामूहिक सत्संग ज्ञान का अंग है और परमात्मा का ध्यान करना आन्तरिक सत्संग या योग है। ज्ञान और योग- दोनों मिलाकर भक्ति पूरी होती है। हमलोग क्या चाहते हैं? अभिलाषाएँ अनेक प्रकार की हैं, पर सभी चाहनाओं का सार सुख पाना मात्र है। महाभारत में लिखा है कि धर्मराज युधिष्ठिर जब स्वर्ग गए, तो उनके बन्धुओं की आवाज आई कि हमलोग यहीं नरक में हैं । यह सुनकर युधिष्ठिर कहने लगे कि मेरे बन्धु-बान्धव यहीं हैं , तो मेरे लिए यहीं रहने में सुख है। सांसारिक सुख या विषयानन्द स्वल्प काल के लिए है और स्वर्ग-सुख भी मर्यादित है। पुण्य समाप्त होते ही स्वर्ग से गिरना पड़ता है। राजा ययाति पुण्याधिक्य से स्वर्ग के राजा बनाए गए थे, पर उन्हें भी पुण्य समाप्त होते ही वहाँ से गिरना पड़ा। विषय-सुख अस्थायी है। उसकी एक दिन अवश्य ही समाप्ति हो जाती है। चाहे संसार का विषय-सुख हो या स्वर्ग का, दोनों की एक ही दशा है । विषयानन्द में तृप्ति नहीं है। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द; ये ही पाँचो संसार में फँसाए रखनेवाले विषय हैं । विषय का उलटा निर्विषय है। निर्विषय के आनन्द में तृप्ति है और उसे पाने के बाद फिर कभी उससे वंचित नहीं होना पड़ता। मनुष्य को सदा थोड़ा सुख छोड़कर अधिक और श्रेष्ठ सुख की ओर बढ़ना चाहिए। जैसे बचपन में पढ़ने-लिखने की अपेक्षा खेल-कूद में अधिक मन लगता है। कुछ पढ़-लिख लेने के बाद खेल-कूद का सुख फीका पड़ जाता है। इसी भाँति अधिकाधिक सुख की ओर बढ़ने में विचारशीलता है। इस निर्विषयानन्द को पाने के लिए ईश्वर की भक्ति करनी पड़ती है। ‘भक्ति’ सेवा को कहते हैं। प्रेम-सहित भजन करना ही भक्ति है। भक्त चार प्रकार के होते हैं – आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी। ज्ञानी भक्त भगवान को विशेष प्यारे लगते हैं । इस ज्ञान का क्या रूप है? शरीर-सहित होने से हम जीवात्मा हैं । जो पाँचो शरीरों से रहित हैं, वे ही परमात्मा हैं । वे पूर्ण और अनन्त हैं । जीवात्मा उसका अभिन्न अंश है। तत्त्वरूप से परमात्मा और जीवात्मा एक है। इस ज्ञान में जो गर्क और तन्मय है, वे ही इस विषय को ठीक-ठीक जानते हैं । जो इस ज्ञान में तन्मय नहीं हैं, वे इसे नहीं जान सकते हैं । परमात्मा और प्रकृति दोनों का अलग-अलग और स्वतंत्र अस्तित्व है, ऐसा समझना द्वैत है। इस द्वैत में भय लगा रहता है। साधु-सेवा से यह द्वैत का भय भाग जाता है। ‘विनय-पत्रिका’ में लिखा है-
‘सेवत साधु द्वैत-भय भागै।
श्री रघुवीर चरण लय लागे।।
देह जनित विकार सब त्यागे।
तब फिर निज सरूप अनुरागै।।’

साधु की सेवा करने से द्वैत-संबंधी भय और भाव नष्ट होकर परमात्मा के चरणों में प्रीति होती है; काम, क्रोध, लोभादिक शरीर के विकार दूर होकर निज स्वरूप में अनुराग उत्पन्न होता है और निज रूप के दर्शन से परमात्मा की प्राप्ति होती है। परमात्मा की भक्ति करने के पहले उनके स्वरूप का परोक्ष ज्ञान होना जरूरी है। बिना यह ज्ञान पाए ही भक्ति करने का परिश्रम पूर्ण रूप से सार्थक नहीं होता ।’
‘ईश्वर सर्वव्यापक हैं, अनन्त हैं । सर्वव्यापक पदार्थ बहुत ही झीना या सूक्ष्म होता है। हमलोगों की इन्द्रियाँ स्थूल हैं। भला वे कैसे ईश्वर को ग्रहण कर सकेंगी? ईश्वर इन्द्रियों का विषय नहीं है। अगर हमसे कोई पूछे कि तुम कौन हो? तब हम उत्तर देंगे कि हम चेतन हैं , जड़ नहीं हैं । यह चेतन ही भगवान की उत्तम परा प्रकृति है। जिस भाँति पाँचो विषयों को ग्रहण करने के लिए पंच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं , उसी भाँति परमात्मा को ग्रहण करने के लिए चेतन है। जिस रास्ते पर चलने से परमात्मा मिलते हैं , उस पथ को जानकर उसपर चलना ही उनकी भक्ति करनी है। यह चेतन जिस राह से उतरकर शरीर, इन्द्रिय और संसार में फैल गया है, अपने पसार को समेटकर उसी मार्ग से वापस अपने घर की ओर जाना ही भक्ति है और यही उसके घर या परमधाम तक जाने का प्रशस्त पथ भी है।
आप कहाँ है ? आँखें बन्द कर देखिए, तो आपको मालूम होगा- ‘मैं अन्धकार में हूँ।’ अन्धकार रहने से ज्ञान का विकास सुलभ नहीं होता, वह कमजोर रहता है। बहुत विद्या अध्ययन करने पर भी अन्धकार से बाहर नहीं हो पाता। इसके लिए सत्संग की जरूरत है। सत्संग से इस विषय को भली भाँति समझकर सद्गुरु से इससे बाहर जाने का मार्ग प्राप्त करना चाहिए। इस अन्धकार से बाहर निकलने के साधन का नाम है- फनाफील मुर्शीद (मानस जप), फनाफील रसूल (मानस ध्यान) तथा फनाफील अल्लाह (दृष्टियोग)। प्रथम के दोनों अभ्यास तीसरे अभ्यास के योग्य बनाते हैं । इस तीसरे साधन (दृष्टियोग) से आप अन्धकार-मंडल का भेदन कर आलोक-मंडल में प्रवेश कर सकते हैं । इसके अभ्यास करने के तीन प्रकार हैं - अमादृष्टि, प्रतिपदा दृष्टि एवं पूर्णिमा दृष्टि । आप चाहें, तो तीनों में से किसी एक दृष्टि को अपना सकते हैं , पर मेरा ख्याल है कि इन तीनों में अमादृष्टि अधिक सुविधाजनक है। दृष्टि की दोनों धारों का मिलन-स्थान ही विन्दु है। जब आप बाहर में फैली हुई चेतन-वृत्तियों को इस विन्दु पर एकत्रित कर सकेंगे, तो आपकी ऊर्ध्वगति होगी और अन्धकार के घेरे से आप बाहर चले जाएंगे। इस अभ्यास में सफलता पाने के लिए पंच पापों का त्यागकर नित्य प्रति सत्संग, ध्यान एवं गुरु-सेवा करनी चाहिए। जो इसमें सफलता पाते हैं , वे ही संसार से निर्लिप्त होकर वैरागी और सन्यासी कहलाते हैं ।’
‘पाँचो तत्त्वों एवं तीनों गुणों की धारा जहाँ से विकसित होती है, उसको ‘अष्टदल कमल’ कहते हैं । कण्ठ में स्वर के सोलह अक्षर हैं, इसलिए इसे षोड़श दल कमल कहते हैं । जीव जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्ति की तीन दशाओं में बराबर चक्कर काटते रहता है । यह अज्ञानावस्था है। इससे बाहर निकलने के लिए चौथी-तुरीयावस्था का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। मानस ध्यान के बाद एक विन्दु पर जो चेतन-वृत्ति को केन्द्रित किया जाता है, उसे ही शून्य-ध्यान कहते हैं । यहीं से चेतन की ऊर्ध्वगति होती है और वह तीनों अवस्थाओं को छोड़कर तुरीय में प्रवेश कर जाता है। कबीर साहब तथा गुरु नानक साहब ने घर में रहते हुए ही इस मार्ग को अपनाया था और भक्ति के पथ पर चलकर पराकाष्ठा तक पहुँच गए थे। आपलोगों को इन महायोगियों एवं संतों का साहस और विश्वास के साथ अनुसरण करना चाहिए।’ 

53.

महात्मा गांधीजी के निधन पर शोक और सत्संग का अखिल भारतीय प्रसार

बिहार प्रान्तीय संतमत-सत्संग का चालीसवाँ वार्षिक अधिवेशन तारीख २६ फरवरी से २ मार्च, १९४८ ईस्वी तक बभनगामा (भागलपुर) में हुआ ।
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधीजी का अस्तित्व भारत के उत्थान और विश्व कल्याण का अमोघ बल था। उनके अहिंसात्मक और विश्वबन्धुत्व पूर्ण विचार, भाव एवं कार्य-प्रणाली, असुरता के संकीर्ण और सीमित उद्देश्यों के लिए बाधक और ध्वंसक मानी गयी और उसने संहत रूप-से अपनी दुष्ट-शक्ति का घृणित प्रयोग कर उन्हें स्थूल शरीर से विच्छिन्न कर दिया। उनके इस आकस्मिक विच्छेद से सारे संसार और भारत के साथ महर्षिजी का अतल गंभीर हृदय एवं ऊर्ध्वस्थिता चेतना भी आघात और पीड़ा से आच्छन्न हो रही थी। इस अधिवेशन के प्रातः सत्संग में आपने विषाद भरी वाणी में प्रवचन दिया- ‘हमारे देश को स्वतंत्रता दिलानेवाले राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी गत महीने में इस लोक से विच्छिन्न कर दिए गए। उनके इस आकस्मिक निधन से हमलोगों को अत्यन्त दुख हुआ है। इसके लिए शोक मना चुका हूँ। आज इस सत्संग सभा की ओर से भी यह शोक मनाना हमारा पुनीत कर्त्तव्य है, इसलिए सभी प्रेमी बैठे हुए ही दो मिनट तक नि:शब्द होकर शोक मनायें ।’
दो मिनट शोक मनाने के बाद आपने कहा- ‘आज से बीस वर्ष पहले मैंने एक लेख में पढ़ा था कि हृदय को चुप करना ध्यान है। लोग खड़े होकर भी शोक मनाते हैं, परन्तु बैठकर मनाने से और भी स्थिरता आती है, इसीलिए हमलोगों ने बैठे-बैठे ही शोक मनाया है।
‘सत्संग में ‘संतवाणी’ की प्रधानता है। भारतवर्ष में सबसे पहले कबीर साहब ने जनता की बोलचाल की भाषा भारती भाषा में आध्यात्मिक ज्ञान और विचार का प्रचार व्यापक रूप से किया। उसी काल में गुरु नानक साहब तथा राजस्थान के श्री दादू दयाल साहब ने भी इस पवित्र विद्या का प्रकाश जन साधारण में प्रसारित किया। जीव को संतों ने अनेक नामों से प्रकट किया है। सूरत, संवित्, चैतन्य, चेतन, चेतनपुरुष, चैत्यपुरुष, अन्तरात्मा, जीवात्मा, हृत्पुरुष, चेतनात्मा, चित्स्वरूप आदि अनेक नाम इसी के संकेतक है । जीव का अज्ञान दशा में रहना ही उसका ‘सोना’ है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं –
‘मोह निशा सब सोवनि हारा।
देखिय सपन अनेक प्रकारा।।
यहि जग-यामिनी जागहिं योगी।
परमारथी प्रपंच वियोगी।।
जानिये तबहिं जीव जग जागा।
जब सब विषय विलास विरागा।।’

इन्द्रियों और उनके विषयों में संलग्न रहना ही सभी जीवों के लिए मोह-निशा में सोना है। जब विषयों से विरक्त होकर, उनसे अपना संबंध विच्छेदकर वह अपने आप में स्थित होता है, तभी उसका जगना होता है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति; ये तीनों दशा जीव के सोने की ही दशा है। जब इन तीनों अवस्थाओं से अलग होकर वह चौथी तुरीय अवस्था में पहुँचता है, तभी उसे जगा हुआ कहा जाता है। यह तुरीय अवस्था तबतक नहीं मिलती, जबतक जीव या चेतन की वृत्तियाँ इन्द्रियों, उसके विषय और सांसारिक प्रपंचों में फँसी रहती है। बाहर में भी सोए लोगों को जगाने के लिए शब्दों का उपयोग किया जाता है, उसी भाँति संतों की वाणियाँ सुनकर जब जीव उनकी बतायी विधि से इन्द्रियों के धारों से अपने चेतन को समेटकर एकविन्दुता प्राप्त करता है और विन्दु-ध्यान के बाद शब्द-ध्यान करता है, तभी वह जगता है। इस भाँति जगने के लिए प्रथम स्थूल नाम का भजन करना होता है। स्थूल भजन पूरा होने पर दृष्टियोग द्वारा या अपनी फैली हुई चेतन-धारों को इन्द्रियों से समेटकर अपने जाग्रत अवस्था के निवास-स्थान में स्थिर करने के द्वारा वह सूक्ष्म-नाम भजन करने के योग्य बनता है। सूक्ष्म नाम-भजन करने से ही जगना आरम्भ होता है। यही तुरीय अवस्था है। इससे भी उच्च तुरीयातीत अवस्था है, जिसे पाने पर ही परमात्मा का साक्षात्कार होता है। तभी जीव पूरी तरह से जगता है। पुनः वह मोह-निशा में सोकर अनेकों प्रकार का सपना नहीं देखता। यही जगना, जगत से पीठ देकर भागना है, पर केवल कहने, सुनने और जानने से ही ऐसा नहीं होगा। संतों के बताए साधना को ठीक-ठीक करने पर ही वह मिलेगा। जबतक इन्द्रिय के ज्ञानों में फँसे रहोगे, तबतक यह आना-जाना या जन्म-मरण का दुख नहीं मिटेगा।
भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है- ‘हे अर्जुन ! सब धर्मों को छोड़कर तुम मेरी शरण में आ जाओ।’ सब धर्मों को छोड़ना या सब कर्मों को छोड़ना एक ही बात है। प्रत्येक कर्म इन्द्रियों के द्वारा ही होता है। जब चेतन को सब इन्द्रियों से समेट लिया जाता है, तब वह कोई कर्म नहीं कर सकता। यह शरण में आना हुआ कि नहीं हुआ? एक ही बात है, जिसे अनेकों तरह से कहा जाता है। सभी संत-योगीश्वर एक ही बात कहते हैं कि चेतन को जगत-प्रपंचों से इन्द्रिय तथा उसके विषयों से समेटो। इस भाँति अन्धकार, प्रकाश एवं शब्द के तीनों मंडलों को पार कर परम प्रभु परमात्मा का दर्शन करो। तभी सदाके लिए दुख और कर्मों के बन्धन से छूटकर मुक्ति प्राप्त कर सकोगे। इसके सिवाय और कोई रास्ता नहीं है।’
सत्संग से भक्ति का प्रचार सभा में होता चला आ रहा है। भक्ति के लिए एक विलक्षण विचार है। भक्ति करने के पहले ईश्वर के स्वरूप का बुद्धि में निर्णय होना या जानना आवश्यक बात है। उनके विषय में गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं -
‘व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
अखिल अमोघ शक्ति भगवन्ता ।।
अगुण अदभ्र गिरा गोतीता ।
सबदरसी अनवद्यम अजीता ।।
निर्मल निराकार निर्मोहा ।
नित्य निरंजन सुख सन्दोहा।।
प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी ।
ब्रह्म निरीह विरज अविनाशी।।
इहाँ मोह कर कारण नाहीं ।
रवि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।

परमात्मा एक हैं, अनन्त हैं । उनकी स्थिति अवश्य है । उनके अतिरिक्त सभी परिमित हैं । वे सभी परिमितों के आदि और अन्त में हैं , सर्वव्यापी, अपरिमित और अनन्त हैं । सन्त लोग उन्हें अपरम्पार स्वरूप कहते हैं । सबसे अधिक सूक्ष्म ही सबमें व्यापक हो सकते हैं । बर्फ, पानी और भाफ से इस बात को समझ सकते हैं। स्थूल यंत्र से सूक्ष्म वस्तु नहीं पकड़ी जा सकती। सूक्ष्म वस्तु ग्रहण करने के लिए सूक्ष्म यंत्रों की ही जरूरत है। इसीलिए एकमात्र चेतन से ही परमात्मा का ग्रहण हो सकता है। यही करना भक्ति है। संतमत का यही प्रचार है। प्रेम ही परमात्मा को पाने का साधन है। प्रेम उलटते-उलटते परमात्मा में लगेगा। जिसका प्रेम मजबूत है, उनको हजार झंझट रहने पर भी परमात्मा की भक्ति करने में बाधा नहीं होगी। जिसका प्रेम कच्चा है, वही हिलडोल करता है। भक्ति, योग एवं ज्ञान; तीनों मिलाजुला हुआ है, अत: ज्ञानी, भक्त और योगी; तोनों एक ही बात है। आत्मतत्त्व दुख से परे है। आपलोगों ने परमात्मा के स्वरूप का श्रवण किया। इसे मनन करें और पसन्द पड़े, तो इसे ग्रहण करने में लग जाइए।’
‘पाँचों तत्त्वों का मूल आकाश है। आकाश का विषय शब्द है। शब्द तमाम रचना के अन्दर और बाहर है। जहाँ शब्द नहीं है, वही परमात्मा है । चौदहों इन्द्रियों के बाद चेतनतत्त्व है। वही हमलोग हैं । जबतक हम इन्द्रियों के साथ-साथ रहते हैं, तभी तक यह संसार और इसका बंधन है। जैसे रंगीन चश्मा पहनने से सर्वत्र वैसा ही रंग दिखाई पड़ता है, वही दशा चेतन के ऊपर आवरण रहने से है। जब सुरत सब आवरणों को युक्ति से छोड़ देगी, तभी वह परमात्मा को पाकर मुक्त हो सकेगी।’
‘भक्ति-मार्ग में तीन बातें प्रधान तथा अनिवार्य है । पहली बात स्तुति या गुणगान है। स्तुति करने से नास्तिकता छूट जाती है। स्तुति के साथ परमात्मा की दृढ़ स्थिति है। जो लोग स्तुति नहीं करते हैं, वे परमात्मा को नहीं जानेंगे। जाने बिना प्रेम नहीं होगा। बिना प्रेम के भक्ति नहीं होती है और भक्ति बिना परमात्मा नहीं मिलते हैं । इसलिए नित्यप्रति स्तुति करनी चाहिए। थोड़ा सुख छोड़ने से विशाल सुख मिले तो थोड़े सुख को छोड़ देना चाहिए। मायिक सुख थोड़ी खुशी है। परमात्मा को प्राप्त करना बड़ा आनन्द है। भक्ति में दूसरी बात प्रार्थना है। प्रार्थना का अर्थ है, कुछ माँगना । परमात्मा से धन-पुत्रादि की माँग नहीं करनी चाहिए। चिड़ियाँ नहीं माँगती है, पर उसे भोजन और संतान सभी मिलते हैं । यह परमात्मा की कृपा है। परमात्मा से परमात्मा को माँगना ही उत्तम बात है। तीसरी बात उपासना है। ध्यान ही असली उपासना है। ध्यान से बढ़कर और कोई पूजा नहीं है। इन तीन कामों को प्रतिदिन करना चाहिए।’
‘अपने घर में दिया जलाना, अपने अन्दर में प्रकाश लाना है। इसके लिए गवाही कुछ नहीं है। आँख बन्द कीजिए, अन्धकार मौजूद है। अन्धकार से परे प्रकाश है। अगर प्रकाश नहीं रहता तो आँखों में ज्योति कहाँ से आती? दृष्टि की धारा को एक बनाने से ऊर्ध्वगति होती है। तब प्रकाश मिलता है। | पहले मानसिक जप और मानस ध्यान का अभ्यास कर एकाग्रता प्राप्त करनी होती है। जब वृत्ति एकविन्दुता में केन्द्रित होती है, तब प्रकाश होता है। जिसकी चेतन-वृत्ति प्रकाश में रहती है, वह प्रकाश का शब्द सुनता है। जिस भाँति बाहरी आँख से रोशनी देखी जाती है और कान से शब्द सुने जाते हैं । उसी प्रकार भीतरी आँख और कान से अन्तर के प्रकाश और शब्द देखे तथा सुने जाते हैं। आदि में इस ज्ञान को परमात्मा ने दिया, इसलिए परमात्मा आदि गुरु कहे जाते हैं । गुरुपद की अपेक्षा और सभी पद न्यून है।’
परमात्मा को प्राप्त करने के लिए अपने अन्दर में चलो। बाहर हरगिज मत जाओ।
आँखों की पुतली में गुप्त भेद है। इस काले परदे के उस पार में देखो । सचेत होकर देखो, तो पता लगेगा । देखने में मन इधर-उधर भागेगा। इसे बारम्बार लौटाकर लाओ। इस क्रिया को ‘प्रत्याहार’ कहते हैं । जब मन कुछ-कुछ टिकने लगेगा तो उसे धारणा कही जायगी। इस भाँति अभ्यास करते-करते मन स्थिर हो. जायगा। मन की स्थिरता ही ध्यान है। जो ध्यान करते-करते शून्य में जाता है, उसे अन्तर की आवाज सुनाई पड़ती है।’
‘इन्द्रियों से ऊँचा मन, मन से ऊँची बुद्धि और बुद्धि से ऊँचा चेतन है और चेतन से उच्च परमात्मा हैं । इस परमात्मा को केवल चेतन ही छू सकता है। हम क्या है ? हम देह नहीं हैं, यह इन्द्रियाँ भी हम नहीं हैं । इन्द्रियाँ तो हमारे नौकर-चाकर हैं। मन-बुद्धि भी हम नहीं हैं । हम चेतन हैं । पर इसे केवल समझने से नहीं होगा। इसके लिए अन्तर में चलना पड़ेगा। यह चेतन, स्थूल, सूक्ष्म, कारण तथा महाकारण के आवरणों से आच्छादित है। महाकारण के थोड़े से अंशों को कारण कहते हैं। समष्टिरूप में महाकारण और व्यष्टि-रूप में कारण । हँडिया थोड़ी-सी मिट्टी से बनती है। हँडिया की मिट्टी, कारण है और सारी पृथ्वी की मिट्टी, महाकारण है। जिस भाँति मूँज से सींक मिलती है, उसी भाँति योगी सभी आवरणों से चेतन को अलग कर लेते हैं। ऐसा करना बाहरी कूद-फाँद से कभी नहीं होगा। आप शरीर के अंदर हैं, अतः अन्दर में चलने से ही आप अपने को पाकर परमात्मा को पा सकेंगे। मन को विषयहीन बनाकर ध्यान करने से ही यह अन्तर की यात्रा होती है। अन्धकार के बाद प्रकाश और फिर शब्द की प्राप्ति होगी। शब्द में अपने उद्गम स्थान की ओर खींच लेने का गुण है। स्थूल के बाद ही सूक्ष्म भक्ति होतीहै। रजोगुण चंचल और तमोगुण आलसी बनाता है, अतः भक्तों को सतोगुण को ग्रहण कर ही मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टियोग करते हुए शब्दानुसन्धान करना चाहिए। जिस मंत्र को आप पसन्द करें, उसे विधि के साथ जप कीजिए। सब मंत्रों का परिणाम एक ही है। मन के सिमटाव के साथ श्वास-प्रश्वास की गति स्वतः ही धीमी होती जाती है। शरीर में फैला हुआ मन, तन-मन है और वही जब सिमिटकर विन्दु में प्रवेश कर जाता है, तो निज-मन कहलाता है।’
सत्संगाधिवेशन के अन्त में सर्वसम्मति से प्रस्ताव स्वीकृत किया गया कि अब यह प्रान्तीय सत्संगाधिवेशन अखिल भारतीय विस्तार में हुआ करेगा और इसका नाम ‘अखिल भारतवर्षीय सन्तमत-सत्संग का वार्षिक अधिवेशन’ होगा। 

54.

आर्यसमाजी विद्वानों से वार्तालाप

पंडित अयोध्या प्रसादजी आर्य समाज के विशिष्ट विद्वानों में से हैं । एक बार कसवा की सभा में उनका भाषण होनेवाला था । इसमें महर्षिजी को भी पधारने का आमंत्रण था। आप समय पर श्री भागवत प्रसाद सिंह, श्री बुद्धू कुँवरजी आदि सत्संगियों के साथ सभा में पधारे । उनका भाषण सुनकर आपके मन में दो प्रश्न पूछने की जिज्ञासा उत्पन्न हो गयी; पर पूछने के लिए अनुकूल अवकाश नहीं मिला। आवश्यक कार्य होने से आपको धरहरा चला आना पड़ा। मन में प्रश्न करने की इच्छा ज्यों-की-त्यों रह गयी ।
धरहरा का आवश्यक कार्य पूर्ण कर आप कटिहार आए। वहाँ से आपको मनिहारी जाना था। एक तीसरे दर्जे के डब्बे में भागवत बाबू के साथ ज्यों ही आप बैठे, तो सामने उक्त पंडितजी सेकेण्ड क्लास के डब्बे के निकट खड़े दिखाई पड़े। उक्त डब्बा बन्द था और पंडितजी ने एक आदमी को चाबी लाने के लिए भेजा था। आपने भागवत बाबू के द्वारा पंडितजी को बुलाया, पर वे कुछ नहीं बोले । कुछ देर-उपरान्त वह भेजा गया आदमी बिना चाबी लिए ही वापस आया । पुनः आपने भागवत बाबू के द्वारा पंडितजी को आने का निवेदन किया। इस बार पंडितजी उसी डब्बे में आकर बैठे । परस्पर नमस्कारादि के उपरान्त आपने पंडितजी से विनीत स्वर में पूछा-- ‘यदि आपको स्वीकार हो, तो मैं आपसे कुछ जिज्ञासा करना चाहता हूँ।’ पंडितजी ने कहा- ‘जी हाँ, अवश्य पूछिए ।
आपने पूछा- ‘ईश्वरोपासना का स्वरूप क्या है ?’
पंडितजी- ‘स्तुति, प्रार्थना और उपासना ।’
महर्षिजी- ‘स्तुति और प्रार्थना तो समझता हूँ, किन्तु उपासना पर कुछ विस्तार से प्रकाश डालिए।
पंडितजी- ‘उपासना की विधि है प्राणायाम और अन्तर्ज्योति ।’
महर्षिजी- ‘और अन्तर्नाद की उपासना?’
पंडितजी- ‘जी, वह भी है।’
महर्षिजी- ‘किन्तु, आपके स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी महाराज तो इसको उपासना मानते ही नहीं।’
पंडितजी- ‘ऐसा आप किस आधार पर कहते हैं ?’
महर्षिजी- जी, ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के आधार पर ।’
पंडितजी- ऐसा उन्होंने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के किस अध्याय में और कहाँ कहा है ?’
महर्षिजी- जहाँ उन्होंने कबीर साहब की वाणियों का खण्डन किया है।’
पंडितजी- ‘मैं तो वेदों को मानता हूँ, साहब !’
इसके उपरान्त महर्षिजी ने और पूछना अनुपयुक्त समझा। आप दोनों मनिहारी तक उसी डब्बे में एक ही साथ आए। मनिहारी स्टेशन में आप उतरकर अपनी कुटी पर आ गए।
कार्तिक में एक बार आप मुरादाबाद गए हुए थे। वहाँ आपने सुना कि आर्यसमाज के सुप्रसिद्ध विद्वान और संन्यासी स्वामी सर्वदानन्दजी महाराज वहाँ पधारे हुए हैं और सभा में उनका भाषण भी होनेवाला है। किन्त जिस समय वहाँ सभा थी, उसी समय यहाँ सत्संग की आयोजना थी, अतः आप उस सभा में नहीं गए। एक आदमी को भेजकर आपने उनसे वार्तालाप करने के लिए सभा समाप्ति के बाद का समय माँगा। उनके समय देने पर आप सत्संग-समापन कर उनसे मिलने के लिए गए। पारस्परिक नमस्कारादि के उपरान्त आपने उनसे कुछ प्रश्न किया- ‘कृपया ईश्वरोपासना के विषय पर विशद प्रकाश डालने की कृपा करें ।’
स्वामी सर्वदानन्द- ‘प्राणायाम ।’
महर्षिजी- ‘ब्रह्मज्योति का जो अभ्यास किया जाता है, उसको आप उपासना के अन्दर मानते हैं अथवा नहीं ?’
स्वामी सर्वदानन्द- ‘नहीं ।’
महर्षिजी- ‘आर्यसमाज के विद्वान पंडित अयोध्या प्रसाद ने तो कहा है कि ‘ज्योतिर्ध्यान’ भी ईश्वर की उपासना है।’
स्वामी सर्वदानन्द- ‘अच्छा !’
महर्षिजी- ‘नादानुसन्धान के बारे में जो लिखा है, उसके विषय में आपका क्या विचार है ?
स्वामी सर्वदानन्द- वह तो शरीर के रग-रेशों की ध्वनियाँ सुनने में आती है। उसे सुनने से क्या लाभ होगा? यह ईश्वरोपासना नहीं है।’
महर्षिजी ने विनय-भाव से निवेदन किया- ‘महाराज जी ! ‘नाद-उपासना’ इस तरह नहीं होती है।’
स्वामी सर्वदानन्द- ‘तब कैसे होती है जी!’
महर्षिजी- ‘पहले दृष्टियोग-साधन कर “एकविन्दुता’ प्राप्त करनी होती है। एकविन्दुता प्राप्त हो जाने के बाद ही नाद-उपासना करनी चाहिए। एकविन्दुता प्राप्त हो जाने पर चेतन-वृत्ति स्थूलता से सिमटकर सूक्ष्मता में प्रवेश कर जाती है। ऐसी दशा में स्थूल से लगाव नहीं रहने के कारण नाड़ियों या रग-रेशों की ध्वनियाँ नहीं सुनायी पड़ेंगी।’
यह सुनकर स्वामी सर्वदानन्दजी कुछ देर मौन धारणपूर्वक विचारते रहे और सोचकर बोले- ‘हाँ, हो सकता है।’
वार्तालाप के उपरान्त आप सत्संग-भवन लौट आए । मुरादाबाद सत्संग-भवन में आपके पधारने से श्रोताओं की संख्या नित्यप्रति बढ़ने लगती थी। एक वकील साहब, जो कई दिनों से सत्संग में आ रहे थे, सत्संग करके बड़े मुग्ध हुए। उन्होंने अपने वृद्ध पिताजी से भी सत्संग सुनने के लिए अनुरोध और विनय किया। पुत्र का निवेदन मानकर एक दिन वे भी सत्संग में आए। उस दिन के सत्संग में उस समय ‘गुरु ग्रन्थ साहब’ का पाठ हो रहा था। सत्संग से वापस लौटकर उन्होंने अपने पुत्र वकील साहब से कहा- ‘वहाँ तो केवल’ नानक, नानक, नानक, नानक होता है।’ 

55.

अखिल भारतीय सत्संगाधिवेशन

सन् १९४९ ई. आशानन्दपुर परवत्ती (भागलपुर) प्रथम अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का प्रथम सत्संगाधिवेशन हुआ। इसके स्वागताध्यक्ष श्री राघवेन्द्र प्रसाद सिंहजी, जो भागलपुर जिला काँग्रेस कमिटी के सभापति थे की कर्मठता इस अधिवेशन में प्रशंसनीय रही।
पुनः १९४९ ईस्वी के ०४ एवं ०५ दिसम्बर को डोभा (पूर्णियाँ) में अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का प्रथम विशेषाधिवेशन भी हुआ। इन अधिवेशनों में आपने ये प्रवचन दिए- ‘यह संतमत का सत्संग है। संतमत में ‘गुरु’ का सर्वश्रेष्ठ पद माना गया है। मेरे श्रद्धेय सद्गुरु महाराज बाबा देवी साहब ने तुलसीकृत रामचरितमानस से ‘बाल का आदि और उत्तर का अन्त’ लेकर उसी नाम से एक पुस्तक की रचना कर उसे प्रकाशित किया है ।
उसकी भूमिका में उन्होंने लिखा है कि अणिमादिक अष्ट सिद्धियाँ, सब गुरु की कृपा से ही जानी जाती हैं । योग-ज्ञान गुरु के द्वारा ही प्राप्त होता है। वे फारसी भाषा के जानकार थे और सत्संग में गुरु के महत्व पर ही विशेष रूप से प्रवचन दिया करते थे। वे कहते थे कि शरीर के रोगों को तो वैद्य छुड़ाता है, पर संसार-व्याधियों से तो सद्गुरु ही मुक्त करते हैं । इसलिए गुरु का दर्जा उससे बड़ा है। तन-मन से तो गुरु की सेवा बहुत लोग करते हैं, पर निज-मन से बहुत थोड़े ही लोग सेवा करते हैं । शरीर-संबंधी मन को ‘तन-मन’ कहते हैं और आत्मा संबंधी मन को “निज-मन’ कहते हैं । कबीर साहब कहते हैं - ‘तन-मन दिया तो क्या दिया, निज मन दिया न जाय।। कहे कबीर ता दास से, कैसे मन पतिआय।।’
तन-मन में चंचलता है, निज-मन में स्थिरता है। गुरु की आज्ञा का ठीक-ठीक और सच्चे हृदय से पालन करो तथा नित्य नियमित रूप से ध्यानाभ्यास करते रहो। ऐसा करने से ‘तन-मन’ सिमट कर ‘निज-मन’ में केन्द्रित हो जाएगा। जिस केन्द्र से चेतन बाहर में विखरता है, उन फैले हुए चेतन-धारों को समेटकर पुनः उसी केन्द्र में स्थिर और केन्द्रित करना ही ध्यान है। कबीर साहब का भी यही ख्याल है कि ‘तन-मन’ और “निज-मन’ दोनों से गुरु की सेवा करो। गुरुध्यान और सत्संग यह नित्य नियमित रूप से करना ही सत्संग की प्राथमिक उपासना है। बाबा देवी साहब भी यही कहा करते थे। संतमत-सिद्धान्त के ध्यान, अभ्यास और सदाचार को बौद्धमतवाले भी मानते हैं । अतः सभी कोई प्रयत्नपूर्वक इसके पालन में लगे रहिए । सदाचार का पालन कीजिए। पाँचों महापापों को नहीं करने से सदाचार होगा। सत्संग के नियमों का पालन सत्संगीगणों को खूब दृढ़ता के साथ करना चाहिए। इस भाँति रहकर ध्यान करने से तब परमात्मा की प्राप्ति होगी। तुलसी साहब, कबीर साहब, गुरु नानक साहब, सुन्दरदासजी आदि सभी संतों का विचार है कि गुरु की सेवा करो, गुरु से प्रेम करो और उनसे ‘सद्युक्ति’ प्राप्त कर नित्य ध्यानाभ्यास करो ।’
“त्रैगुण गुण रहित को ‘निर्गुण और त्रैगुण सहित को ‘सगुण’ कहते हैं । उत्पादक शक्ति, पोषक शक्ति तथा विनाशक शक्ति को त्रयगुण कहते हैं । हमलोगों का शरीर सगुण या तीनों गुण सहित है और इनमें निवास करनेवाले हम निर्गुण हैं । गुणमय पदार्थों में तृप्ति नहीं है।”
‘उपासना में सर्वप्रथम गुरु द्वारा दिए गए मंत्र को चारों ओर से अपनी वृत्ति को समेटकर जप करना चाहिए। मानस ध्यान का अभ्यास हो जाने के बाद अन्धकार मंडल में जिस विन्दु में वृत्ति केन्द्रित होती है, उसे कबीर साहब ने तिल कहा है। पर यह तिल, ख्याली तिल नहीं होना चाहिए। तिल तक वृत्ति को समेट लेने पर ऊर्ध्वगमन होकर ज्योति की उपलब्धि होगी। यही आज्ञाचक्र केन्द्र है। यह सत्संग-चर्चा कहानी नहीं है, यह साधन का विषय है।’
“संसार के सभी जीव दुख से छुटकारा चाहते हैं अथवा सुख पाना चाहते हैं । संतलोग कहते हैं - ‘शरीर धारण करना दुख का कारण है।’ इस दुख को नष्ट करने के लिए यत्न करना होगा। इस संसार में श्री रामचन्द्रजी जैसे महापुरुष भी दुख पाने से नहीं बच सके। भगवान कृष्ण जैसे सहायक होते हुए भी पाण्डवों को अपार कष्ट भोगना पड़ा। भगवान बुद्धदेव को पेट का रोग हुआ था। उन्होंने अपने प्यारे शिष्य आनन्द से कहा था- ‘समाधि में रहने से आनन्द होता है, पर समाधि त्यागकर संसार में आने से फिर दुख का अनुभव होने लगता है।’ अभिप्राय यह है कि शरीरधारी को दुख होना अनिवार्य है। सन्तमत में इन्हीं दु:खों से छुटकारा पाने का मार्ग बताया जाता है। जिस प्रकार केले के बाहरी छिलके को हटा देने पर ही मधुर केले का स्वाद लिया जाता है, उसी प्रकार स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण एवं कैवल्य शरीर को हटा देने पर ही शुद्ध आत्मतत्त्व रह जाता है। इन आवरणों को हटाना ही दुख से छूटने का एकमात्र उपाय है। ऐसा कर लेने पर मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है। जिस प्रकार दूध के मथने पर ‘मक्खन’ दूध से अलग हो जाता है, फिर वह दूध में नहीं मिलता, उसी भाँति जीवन्मुक्त इस संसार में निवास करते हैं । परमात्मा में जहाँ तक व्याप्य और व्यापक का भेद है, उसे ब्रह्म कहते हैं । व्याप्य और व्यापक के परे परमात्मस्वरूप को परब्रह्म और अनन्त कहते हैं । जो इस परमतत्त्व या अनन्त को प्राप्त करते हैं , वही जीवन्मुक्त होता है। इसका ज्ञान सत्संग में ही मिलता है। ऐसे सत्संग में जिनका प्रेम नहीं होता, उनका हृदय मानो पत्थर ही है। लोग कहने लगते हैं कि इस भाँति जब सभी जीवन्मुक्त ही हो जाएँगे तो यह संसार कैसे रहेगा? हम कहते हैं कि यदि संसार नहीं रहेगा तो हमको या आपको नुकसानी क्या होगी? आप स्वयं जीवन्मुक्त बनिए, फिर इसका समाधान स्वयं हो जाएगा । सृष्टि तो परमात्मा की है। आप सबों के जीवन्मुक्त हो जाने पर भी उन अनन्त को जो करना होगा, सो करेंगे।
‘श्री रामचन्द्रजी कैसे उत्तम कोटि के राजा थे कि उन्होंने राज्याधिकारी के पद से गरिमान्वित - होकर भी गुरु-पद को महिमान्वित किया।
राजा होकर सभी प्रजाओं को मुक्ति पाने का रास्ता बतलाया। श्री रामचन्द्रजी ने कहा- ‘यह मनुष्य शरीर ही साधन करने की पात्रता या योग्यता रखता है। अन्य शरीरों से यह साधन नहीं बन सकता। परमात्मा की कृपा से मानव शरीर मिला है। वह शरीर संसार-सागर से पार उतरने के लिए बेड़ा या नाव है, सद्गुरु कर्णधार हैं, भगवान की कृपा अनुकूल वायु है। यह दुर्लभ अवसर है। इसका सदुपयोग नहीं करने से पीछे पछताना पड़ता है।’ मनुष्य अपने शरीर के नवों द्वारों में अज्ञानवश भटकता रहता है। सद्गुरु इसी शरीर में रहे दसवें द्वार का मार्ग बता देते हैं, जिस होकर इस संसार-समुद्र से मनुष्य पार हो जाता है। इसी दसवें द्वार से ही जीव ब्रह्माण्ड से पिण्ड में आया है, पुनः चेतन-वृत्ति को समेटकर उसी मार्ग से उलटकर ब्रह्माण्ड में प्रवेश करता है। इस भाँति वह सभी शरीरों, सभी मंडलों या सभी आवरणों से मुक्त होकर मुक्ति पद का भागी बनता है।’‘
एक प्रेमी ने प्रश्न किया कि मुक्ति कितने प्रकार की है ? आपने उत्तर में कहा- ‘मुक्ति चार प्रकार की है - सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य । जो जैसी धारणा लेकर साधन करते हैं, उसे वही मिलता है। जो जिस देवता की भक्ति करते हैं, उसे वही मिलते हैं । सायुज्य या निर्वाण असली मोक्ष है। अब आपलोग एक बौद्ध साधु का भाषण सुनिए । वे हिन्दू विश्वविद्यालय के सुयोग्य प्रोफेसर हैं । श्री जगदीश काश्यपजी इनका शुभ नाम है।’
तदुपरान्त श्री जगदीशजी ने अपना भाषण प्रारम्भ किया- ‘मैं पूज्यपाद महर्षिजी के साथ दो-तीन दिन ही रहा हूँ। मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि मैं साक्षात् बुद्ध भगवान का ही दर्शन कर रहा हूँ। रात्रि में आकर पंडाल में देखा कि सभी लोग भगवान बुद्ध के नियमानुसार ही ध्यान कर रहे हैं । यह देखकर मुझे जो प्रसन्नता हुई, उसकी कोई सीमा ही नहीं है।
इतने विशाल जन-समूह को एक साथ ध्यान करते देखकर मैं महर्षिजी के प्रभाव से आश्चर्यित हो रहा था । हे महर्षि ! हे जीवन्त बुद्ध ! तुम धन्य हो ! पाली भाषा की पुस्तक में भगवान बुद्ध की महानता, विशालता और प्रभावशालिता के विषय में पढ़कर मेरी अन्तरात्मा ने जो शान्ति और करुणा की दिव्य छवि चित्रित कर रखी थी, उसका यहाँ आकर साक्षात्कार किया। मैंने चीन, जापान, जावा, सुमात्रा, लंका आदि स्थानों में जाकर भी उनलोगों को ध्यान करते देखा है। बौद्ध भिक्षु द्वार-द्वार से मधुकरी संग्रह कर भोजन करते और कन्दरा में जाकर ध्यान करते थे। मैंने अपनी इतनी यात्राओं में, ऐतिहासिक अध्ययनों में भी जिस दृश्य की कल्पना नहीं की थी, वह मैंने यहाँ आकर प्रत्यक्ष ही देखा । आठ-दस वर्ष पूर्व ही मैंने बाबा देवी साहब के साथ ही महर्षि मेँहीँ परमहंसजी का नाम भी सुना था। उस समय मैं क्या जानता था कि आध्यात्मिकता के उच्च भाव और विचारों को इस भाँति विशाल जन समूह में संक्रमित और क्रियान्वित करने वाले यही महर्षि होंगे? इतने सारे लोगों को एक साथ ध्यान कराना अत्यन्त महान कार्य है। जो हो, आज मेरे उल्लास की सीमा नहीं है। आज मानवता के पुनरुद्धार के लिए साक्षात् बुद्ध भगवान ही यहाँ उपस्थित हैं। मेरे ऊपर करुणा की वृष्टि करने के लिए ही इधर निकट के समय में आप सारनाथ पधारे थे। मुझे नया प्रकाश, नयी दिशा और नयी शक्ति मिली। मैं पूज्यपाद महर्षिजी के चरण-कमल में अजस्र प्रणाम करते हुए प्रार्थना करता हूँ कि वे मुझमें ऐसी शक्ति दें, जिससे मैं भी सत्संग की कुछ सेवा कर सकूँ। आपकी ऐसी ही कृपा मेरे ऊपर बनी रहे ।’
इसके बाद पुनः महर्षिजी के थोड़े से प्रवचन हुए- ‘मैंने जो कुछ बताया है, वह सद्गुरु की वस्तु है, मेरी नहीं है। सब कोई मिलकर उसे पाने की कोशिश कीजिए। प्रोफेसर श्री जगदीश काश्यपजी विद्वान् व्यक्ति हैं। वे ऐसा न कहें, तो कैसा कहें?’
‘परमात्मा इन्द्रियों से नहीं जाने जा सकते हैं। वे अनादि और अनन्त हैं। उनकी न आदि है, न मध्य है और न अन्त है। वे सभी संतों में व्यापक और उनसे परे भी हैं । वे सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हैं। जो सबसे अधिक सूक्ष्म होता है, वह सभी में व्यापक होता है। यह परमात्मा आत्मगम्य है। आत्मा के ऊपर रहे सभी आवरणों को उतारिये, तभी उनके दर्शन होंगे। पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों के ही पाँच मंडल हैं - स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य । प्रथम के चारों मंडल जड़ हैं। कैवल्य मंडल जड़ विरहित विशुद्ध चेतन है। इसके ऊपर परमात्मा है। इन पाँचों मंडलों के केन्द्रों में पंच ध्वनियाँ है। गुरु की बतायी युक्ति से ही इन पाँचों ध्वनियों को सुना जा सकता है। इसके लिए नित्य ध्यानाभ्यास और सत्संग करो। सच्चाई से व्यवसाय करो । सतोगुणी-वृत्ति सन्तुष्टि देनेवाली है। सात्विकी बुद्धि बढ़ने से ज्ञान बढ़ेगा। अपनी चेतन-वृत्ति की धारों को सुषुम्ना में स्थिर करो। हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को नियत मात्राओं में मिश्रण करने से पानी बन जाता है। यह भौतिक विज्ञान का प्रयोग है। आप भी अपनी दोनों दृष्टिधारों को युक्ति से मिलाप करें। यह अन्दर का प्रयोग है। मैंने सत्संग में यही सीखा है. जो आपलोगों को सुना दिया। अब प्रोफेसर विश्वानन्दजी भी कुछ कहते हैं, आपलोग ध्यान देकर सुनिए ।’
तदुपरान्त प्रोफेसर विश्वानन्दजी ने कहा -
‘धर्मानुरागी सज्जनवृन्द ! यह महर्षिजी की कृपा का फल है, जो मैं आपके सामने कुछ कहने के लिए खड़ा हुआ हूँ। नहीं तो, मेरी क्या मजाल थी कि मैं आपलोगों से कुछ कह सकता। पूज्यपाद महर्षिजी का संग मुझे तीन वर्षों से मिल रहा है, यह मेरे जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य है। जो आनन्द मुझे मिला है, वह मैं कैसे वर्णन करूँ? यहाँ दो दिनों से जो शान्ति मुझे मिली है, वह नगरों के कोलाहलों में कहाँ ? साधना और सत्संग में सबसे महत्व की वस्तु सद्गुरु है। महर्षिजी में गुरु बनने की कोई इच्छा नहीं है। आप सभी संतों को गुरु मानते हैं। मैं भी गुरु को ही सबसे बड़ी चीज मानता हूँ। पारस का नहीं, जो पारस बनाते हैं , उनका अधिक महत्व है। ऐसे ही सद्गुरु हैं। ईश्वर की स्थिति अवश्य है। इसे पाने की सद्युक्ति गुरु के पास है। उनसे युक्ति जानकर उसका प्रयोग करना चाहिए। गुरु का दर्जा तो गोविन्द से भी बड़ा है। कबीर साहब ने कहा है-
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काको लागूँ पाँय। बलिहारी गुरुदेव की, जिन गोविन्द दियो बताय।
हमलोगों का बहुत बड़ा भाग्य था, जो ऐसे सद्गुरु मिल गए। हमें उनपर न्योछावर होना चाहिए। उन्होंने हमारे लिए जो कहा है, उसी के अनुसार हमलोगों को चलना चाहिए।’
इस भाषण को सुनकर आपने कहा- ‘जब से मैंने प्रोफेसर विश्वानन्दजी को देखा है, तभी से इनको देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है। ऐसे सुपात्र को देखकर प्रसन्नता क्यों न हो ?’
‘ईश्वर को इन्द्रियों से नहीं जान सकते हैं। केवल चेतन आत्मा ही उन्हें जान सकती है। यह चेतन जबतक इन्द्रियों में से होकर गुजरता है, तबतक उसकी चश्मेवाली दशा होती है। चश्मे का जो रंग होता है, उसे पहन लेने पर बाहर की सभी वस्तुएँ उसी रंग की दिखाई पड़ने लगती है। जब वह अपने ऊपर से सभी आवरण-रूपी चश्मे को उतारकर अलग हो जाता है, तभी वह अपने से परमात्मा का दर्शन कर पाता है। परमात्मा जिस उपाय से मिल सकते हैं , उसी का नाम ‘भक्ति’ है। श्री रामचन्द्रजी ने नवधा-भक्ति बतायी है, उनमें छठी भक्ति दमशील होना है । यह ध्यान से होती है। अपनी दृष्टि-धारों को शिवनेत्र में स्थिर करना ही ध्यान है। प्रारम्भ में वृत्तियों को रोकने की जो क्रिया है, वह प्रत्याहार है। जब वृत्ति कुछ-कुछ टिकती है, तब उसे धारणा कहते हैं। धारणा की निरन्तरता ही ध्यान है। ध्यान के बाद समाधि होने से भक्ति पूरी होगी। यह काम कई जन्मों का है। निराश मत होवें। मानस जप और मानस ध्यान का अभ्यास कर लेने के बाद दृष्टियोग करें। इसमें सफलता पाने के लिए पाप करना छोड़ दो। जो पाप हो गया है, उसके लिए माफी माँगो । तभी इस रास्ते में उन्नति कर सकोगे।’
सत्संग के प्रधानमंत्री श्री लक्ष्मी बाबू ने सत्संग की ओर से एक मासिक पत्रिका निकालने का प्रस्ताव रखा। यह प्रस्ताव आगामी वार्षिक अधिवेशन (वागीश्वरी, पूर्णियाँ) के लिए स्थगित हो गया। 

56.

केंद्र और एकविंदुता

अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का दूसरा वार्षिक अधिवेशन ता॰ ११ से १३ फरवरी, १९५० ईस्वी तक वागीश्वरी (पूर्णियाँ) में हुआ। इसमें विभिन्न महात्माओं के प्रवचन हुए। प्रथम दिन के प्रातः सत्संग में आपने यह प्रवचन दिया- ‘आज आपलोगों का दर्शन पाकर मुझे बड़ा आनन्द हो रहा है। हमलोगों का काम सत्संग करने का है। घर में भी सत्संगी बराबर यही किया करते हैं। उसी की आज विशेष रूप से याद दिलानी है। सत्संग में भजन करना ही महत्व का काम है। ठीक-ठीक समय पर सत्संग और भजन दोनों करते रहना चाहिए।’
“गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं –’हे जीव ! तुम संसार-रूपी रात्रि में सोए हो, सो जागो ।’ सोना दो प्रकार के हैं - स्वप्न अवस्था की नींद और गहरी (सुषुप्ति) अवस्था की नींद । जागरण और नींद के बीच की दशा को तन्द्रा कहते हैं। इस समय नींद में प्रवेश करती हुई चेतन वृत्तियों के सिमटने की क्रिया का अनुभव होता है। यह सिमटना, यह केन्द्रीकरण, यह एकविन्दुता प्राप्त करना ही उपासना की प्रधान बात है। उपासना जागने की दशा में ही की जाती है। ‘जगने के समय हम कहाँ रहते हैं ?’ उत्तर- ‘आँख में ।’ आँख बन्द कीजिए और पूछिए ‘मैं कहाँ हूँ?’ उत्तर मिलेगा- ‘अन्धकार में हूँ।’ ‘यह अन्धकार कहाँ है?’ अन्धकार का स्थान नयनाकाश है। जीव का निवास जाग्रत दशा में आँखों में रहता है। चेतन का स्थान बदलने से स्थिति भी बदल जाती है। यह चेतन आँखों से सभी इन्द्रियों में फैल गया है। उसे समेटकर पुन: उसी केन्द्र में जमा कीजिए। ऐसा करने से चेतन की स्वभावतः ही ऊर्ध्वगति हो जाती है और वह अन्धकार को छोड़कर प्रकाश में प्रवेश कर जाता है। यह जाग्रतकालीन जीव का निवासस्थान ही शिवनेत्र है, यहीं चेतन-वृत्ति को एकत्र करना और रखना ‘एकविन्दुता’ पाना है। यही सुषुम्ना-प्रवेश है। यह पिण्ड और ब्रह्माण्ड, स्थूल और सूक्ष्म का मिलन-केन्द्र है। यही दशमद्वार है। इसे ही वैष्णवी और शाम्भवी मुद्रा कहते हैं। यही गीता का ‘नासाग्र’ है। यही भगवान का ‘अणोरणीयां’ स्वरूप है।”
‘संतमत-सिद्धान्तों को सुनकर उसके अनुसार चलना ही संतों का आदेश है। संतमत-सिद्धान्त सभी को स्मरण रखना चाहिए।’
पुनः पंडित वैदेहीशरणजी सत्संगी ने वेदमंत्रों का पाठ कर कहा- ‘संतमत ग्रहण करने के बाद मैंने अपने साथियों से कहा था कि इस मंत्र का सार यह है कि ‘जीवात्मा, परमात्मा का अभिन्न अंश है। परमात्मा को पाने के लिए आवरणों का त्याग कीजिए। आवरण त्याग करने के लिए साधन करना पड़ेगा, तभी परमात्मा की प्राप्ति होगी।’
पुनः महर्षिजी का प्रवचन हुआ– ‘संतों ने ईश्वर की भक्ति का प्रचार किया है। भक्ति करने के लिए ईश्वर का परोक्ष रूप जानना आवश्यक है। परमात्मा देश-काल के परे हैं। वहाँ सूर्य नहीं है, फिर काल कैसे होगा ? वहाँ न भ्रम है, न किसी प्रकार का द्वन्द्व है। बड़े से-बड़े मंडलों की भी कहीं -न-कहीं सीमा अवश्य है, पर परमात्मा असीम हैं। वे सूक्ष्मातिसूक्ष्म हैं। स्थूल इन्द्रियाँ उन्हें ग्रहण नहीं कर सकती। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द को ही पहचानिए। क्या ये परमात्मा हैं? नहीं। अत: इन इन्द्रियों से अपनी चेतनधारों को अलग करके ही परमात्मा को पाया जाता है । यहाँ का इन्द्रिय संबंधी सुख ही स्वर्ग, वहिश्त या वैकुण्ठ में भी है। इसकी इच्छा के कारण जीव आवागमन के चक्र में पड़ा रहता है।’
‘आपलोग किसान हैं। आपलोगों में कुछ पढ़े-लिखे हैं। बहुत से लोग अनपढ़ भी हैं। किन्तु, सभी को कुछ-न-कुछ शिक्षा अवश्य प्राप्त करनी चाहिए। मेरा आग्रह है कि विद्याध्ययन अवश्य कीजिए तथा अपने बच्चों को पढ़ाइए । ‘
इसके बाद प्रोफेसर विश्वानन्दजी ने भाषण दिया-
‘वंशी को मछली पकड़ती है, वंशी मछली को नहीं पकड़ती। वंशी में चारा लगाया जाता है। ध्यान-साधना चारा ही है। जो दृढ़ ध्यानाभ्यास से सुसज्जित होता है, वह परमात्मा को पकड़ लेता है। इसलिए “ध्यानाभ्यास नित्य प्रति कीजिए। नदियों में बराबर बाढ़ आया करती है, परन्तु समुद्र में बाढ़ नहीं आती। समुद्र में समता है। समता, अपने समान सबको जानना है तथा समता में निश्चलता है। हमें समता और निश्चलता धारण करनी चाहिए। गुरु महाराज से निवेदन है कि सत्संग-सभा की ओर से मासिक पत्र निकला करे, जिसके द्वारा हमलोगों को महीने-महीने गुरुप्रसाद मिलता रहे। मैंने कॉलेज में संत कबीर साहब की वाणी को पढ़ा था, पर उसका अर्थ अच्छी तरह से समझ नहीं सका । अब महर्षि मेँहीँ परमहंसजी की शरण में आया हूँ। अब उसका अर्थ समझता हूँ। मैंने संत-साहित्यसेवी पुरुषों के वचनों को कहीं नहीं पढ़ा था। महर्षिजी रचित ‘सत्संग-योग’ सभी समाज में एवं उनके नेताओं के पास पहुँचना चाहिए।’
पुनः डॉक्टर रामप्रसादजी सत्संगी का कुछ उपदेश तथा मासिक पत्रिका प्रकाशन करने के संबंध में भाषण हुआ ।
तदुपरान्त आपने प्रवचन दिया-
‘हमलोग जिस दशा में हैं, वह बन्धन की दशा है। देह के इस नव द्वार में रहनेवाले हैरान हैं। जो दशम द्वार की ओर उन्मुख हैं , वे ही मुक्ति की ओर जानेवाले हैं । दशम द्वार ही शिवनेत्र है। इसे योग हृदय भी कहते हैं। दृष्टियोग के द्वारा ही यह तिल या शिवनेत्र प्राप्त होता है। मन की धारों को समेटकर तिल में स्थिर करना ही दृष्टियोग है।’
तत्पश्चात् अररिया लोकल बोर्ड के हेडक्लर्क बाबू नवीनचन्द्र दत्त ने कहा ‘मैं वागीश्वरी की मिट्टी को धन्यवाद देता हूँ- जहाँ वेदान्त-विषय की पवित्र वर्षा हो रही है। अबतक नहीं जानता था कि ‘संतमत’ क्या है ? अब समझ में आ गया कि ‘संतमत’ ‘वेदान्त-मत’ है । हमलोग भारतवर्ष के निवासी हैं, इसलिए हमलोगों को ‘वेदान्त-मत’ का अवलम्बन करना चाहिए। सारे विश्व में वेदान्त ज्ञान की ही प्रधानता है। वेद-शास्त्र केवल पढ़ने से नहीं होगा। उसके अनुसार साधन करते रहने से अन्धकार में प्रकाश हो जाएगा। महर्षिजी महाराज को इस महान कार्य के लिए असंख्य धन्यवाद है।”
पुनः मुरादाबाद के श्री चुन्नालालजी ने भाषण दिया- ‘सच्चाई की खोज होनी चाहिए । हमको संसार में जिन्दा रहना है तो कैसे रहें ? हमें संसार में इन्द्रियों का दास नहीं, वरन् उसका स्वामी होकर रहना चाहिए। यही आजादी है। परमात्मा की ओर जाना ही जीवन को विकसित करना है। यह सत्संग ही विश्वविद्यालय है, जिसमें हमलोग धर्म की शिक्षा पाते हैं । इस शिक्षा को हमें आचरण में लाना चाहिए।’
पुनः महर्षिजी का प्रवचन हुआ-
“किरानी बाबू का भाषण बहुत अच्छा हुआ। ज्ञान-श्रवण, मनन, निदिध्यासन एवं अनुभव से पूर्ण होता है। श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन परोक्ष ज्ञान है तथा अनुभव अपरोक्ष ज्ञान कहलाता है। इसे पाने के दो तरीके हैं – ज्ञान और भक्ति । मन चंचल नहीं रहे, यह योग है। नाव खेवते-खेवते कोई पार होता है। भक्ति-मार्ग में ऐसी ही बात समझनी चाहिए। भक्ति-मार्ग पर चलनेवाले समझते हैं कि मैं परमात्मा का अभिन्न अंश हूँ, स्वयं परमात्मा नहीं । वह अपने को प्रभु नहीं मानकर उनका दास और पुत्र मानता है । ज्ञानमार्गी अपने को ब्रह्म मानते हैं। दोनों में मन की ‘एकविन्दुता’ का प्राप्त होना आवश्यक है। एकविन्दुता पाने के लिए प्रथम स्थूल रूप का ध्यान करके बल की प्राप्ति करनी चाहिए, तभी आप एकविन्दुता में प्रवेश कर सकते हैं । स्थूल ध्यान के लिए अवतार-रूप, गुरु-रूप, रामनाम या ॐ शब्द-रूप कोई भी ले सकते हैं । स्थूल ध्यान के अभ्यास से बारीक ध्यान करने की योग्यता होती है। सूक्ष्म ध्यान से वृत्ति सिमटकर ऊर्ध्वगमन करती है। यह भीतर की यात्रा है। इस भाँति प्रकाश और शब्द के पार में जाकर परमात्मा की प्राप्ति होगी। इस साधन में बिना सदाचार-पालन किए सफलता नहीं मिलेगी, अतः चोरी, जारी, नशा, हिंसा एवं झूठ का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए।”
तत्पश्चात् प्रोफेसर विश्वानन्दजी ने कहा-- ‘महर्षिजी ऐसा सत्संग वर्ष में सिर्फ तीन दिन करते हैं । इससे क्या काम चलेगा? लोगों को चाहिए कि मासिक-पत्र जारी कर ३६५ दिन पूज्य महर्षिजी के वचनामृत का आस्वादन करें । इससे उनका अधिक काम होगा।’
बाबू चुन्नालालजी ने इस पत्रिका का नाम ‘शान्ति-सन्देश’ चुना और सभी ने इस नाम की मासिक-पत्रिका चलाने का प्रस्ताव स्वीकृत कर लिया । इसका वार्षिक मूल्य चार रुपये रखे गए तथा सत्संगियों से निवेदन किया गया कि चार रुपये अग्रिम देकर वे लोग ग्राहक बन जायें। नए पत्र-प्रकाशन के प्रारम्भिक व्यय के लिए सभी से दान देने की अपील की गई। तुरत उसी समय सर्वप्रथम बड़हरा (पूर्णियाँ) निवासी श्री गुरुप्रसाद साहजी ने एक सौ रुपये, तदुपरान्त जोतरामराय निवासी श्री मोहनलाल चौधरीजी ने एक सौ पचीस रुपये तथा श्री केवल साहजी ने भी एक सौ पचीस रुपये का दान दिया। लोगों के उदारतापूर्ण उत्साह को देखते हुए महर्षिजी ने अपनी शुभकामना ‘शान्ति-सन्देश’ के प्रति प्रगट की- ‘यह पत्र चले, इसके लिए मैं सद्गुरु से प्रार्थना करता हूँ। प्रोफेसर विश्वानन्दजी की लालसा पूरी हो, यही मेरी शुभकामना इस पत्रिका के प्रति है। मैं चाहता हूँ कि रामानन्दी, कबीरपंथी, शिवनारायणी, दरियापंथी, दादूपंथी, आर्यसमाजी प्रभृति सभी भगवद्भक्त ध्यान करें। इस पत्रिका को सभी अपनाएँ। जो सत्संगी नहीं भी पढ़े हैं , वे भी मँगवावें और दूसरों से पढ़वाकर तबतक सुनें, जबतक स्वयं पढ़ने का अभ्यास करके ‘शान्ति-संदेश’ पढ़ने न लग जायँ । ‘शान्ति-संदेश’ पढ़ने की योग्यता सभी को अविलम्ब प्राप्त कर लेनी चाहिए ।’ पुनः आपने मोरंग-निवासी सत्संगियों के आमंत्रण के संबंध में निवेदन किया- ‘सब कोई सुन लीजिए। आज दिन का निमंत्रण मोरंग के सत्संगियों की ओर से है। सबलोग उनलोगों की दी हुई भोजन-सामग्री लेकर रसोई बनाकर भोजन पावें । भक्तों की रुचि रखनी उत्तम है।’
ढाई बजे अखिल भारतीय सत्संग-कार्यसमिति के निर्वाचन के लिए बैठक हुई । आपने कहा- ‘सभापति का पद मुरादाबाद के सत्संगियों को ही देना अच्छा है।’
यह सुनकर श्री चुन्नालाल का नाम सभापति के लिए उपस्थित किया गया, पर उन्होंने कहा कि हमलोगों के बीच वयोवृद्ध बाबू हरिश्चन्द्रजी हैं, उन्हीं को सभापति चुनना अच्छा होगा। मैं सब काम कर दूँगा, पर अध्यक्ष वे ही रहें । सर्वसम्मति से बाबू हरिश्चन्द्रजी सभापति, डॉक्टर रामप्रसादजी उपसभापति, लक्ष्मीनारायणजी प्रधानमंत्री, श्री बाबूलाल सिंहजी सहायकमंत्री, बाबू मोहनलाल चौधरीजी कोषाध्यक्ष तथा पूर्व के सभी सदस्य ही सदस्य बने रहे।
रात्रि-सत्संग में आपने प्रवचन दिया- ‘संतों का उपदेश सदाचार का पालन करते हुए ईश्वर तक पहुँचना है। इस देह से ईश्वर तक नहीं पहुँचना होगा। इसके लिए अन्दर में चलना होगा। बाहर में जिस भाँति जो जहाँ रहता है, वह वहीं से चलता है, उसी भाँति इस शरीर में तुम जहाँ हो, वहीं से अन्दर-अन्दर चलना पड़ेगा। तभी प्रभु मिलेंगे। सदाचार का पूरी सचाई और तत्परता से पालन करो । इसके लिए चोरी, जारी, नशा, हिंसा एवं झूठ को छोड़ो। इन्हीं पाँच पापों में सब पाप छिपे हैं। इन पाँचो पापों को छोड़कर रहना ही सदाचार का पालन करना है। एक ईश्वर पर दृढ़ विश्वास करो। ध्यान को सुदृढ़ बनाने के लिए नित्य सत्संग करो। यही संतमत है। किसी सम्प्रदाय से द्वेष नहीं करो। भजन के बिना कभी भोजन मत करो। जो सब काम करते हुए भजन करता है, वह पूरा भजन करनेवाला है। सोने के समय भजन करके सो जाओ। इससे मौके पर स्वप्न में भी भजन होगा। जिसको स्वप्न में भजन होता है, वह बड़ा भाग्यवान है। वार्षिक सत्संग ‘भजन करने का तकाजा है।’ घर जाकर सभी दिल लगाकर नित्य नेम पूर्वक भजन-ध्यान एवं सत्संग करें। सत्संग कराने में परिश्रम, खर्च, सहायता और सहयोग करनेवाले सभी गण्यमान्य पुरुषों एवं सभी सज्जनों को हम धन्यवाद देते हैं।’ 

57.

प्रवचन के प्रच्छन्न आलोक 

अखिल भारतवर्षीय संतमत का दूसरा विशेषाधिवेशन मोकामा (पूर्णियाँ) में ता॰ २४ एवं २५ दिसम्बर १९५० तक हुआ । गाँव की सरल जनता ने श्रद्धामय पुष्पमाला लेकर भावपूर्ण स्वागत-गान गाया-
करूँ क्या स्वागत हे श्री मान।
संत शिरोमणि कवि कोविद मुनि,
सब विधि सब गुण खान।
दरश देन आयो करुणा करि,
हे करुणा के धाम।।१।।
स्वागत के कछु मर्म न जानूँ,
निरा निपट अज्ञान।
नहिं उपलब्ध वस्तु कछु साधन,
नहिं कछु है सामान।।२।।
दीन हीन ग्रामीण हमारे,
मंडप ही परमान।
नहिं इन्धन जल का प्रबन्ध कछु,
नहिं निवास स्थान।।३।।
जीर्ण तरु टहनीविहीन है,
शीत-शिशिर घमसान।
दीन,दरिद्र सुदामा का गृह,
समझें है मतिमान।।४।।

पुनः कीर्तनादि के बाद आपके प्रवचन हुए- ‘आपलोगों का दर्शन पाकर मैं प्रसन्न हूँ। मेरी सबसे बन्दगी है। अभी हाल ही में मैं अररिया की ओर गया था। एक माध्यमिक विद्यालय में सत्संग हुआ। वहाँ पर मेरी आवाज दूर तक नहीं गई। क्या करें, मुझे चिल्ला-चिल्लाकर कहने नहीं आता है। सब कोई शान्त होकर सुनिए। काँग्रेसवादी लोग कहते हैं कि आप क्या कर रहे हैं ? संसार को आपके सत्संग से क्या फायदा है ? मैं कहता हूँ संसार के लोगों को सदाचारी बनना चाहिए। जो सदाचारी होगा, वही आन्तर साधन के पथ पर चल सकेगा। जिसमें सदाचार नहीं होगा, वह किसी प्रकार का साधन नहीं कर सकेगा। सब सदाचारी होंगे, तब समाज उत्तम होगा। सदाचारी ही समाज का नैतिक सुधार कर सकता है। यह बात मेरी नहीं, मेरे गुरुजी की है। एकबार बिलिया पुरुषोत्तमपुर में सत्संग हो रहा था। उसी होकर एक दारोगा साहब जा रहे थे। सभा की कार्रवाई जानने के लिए उन्होंने एक दफेदार साहब को वहाँ बैठा दिया । कुछ देर सत्संग के प्रवचन सुनने के बाद दफेदार साहब ने कहा- यह काम तो ऐसा है कि यदि चोर-डकैत भी इसे सुन ले तो वह भला आदमी बन जाएगा।’ सत्संग में वेद-मंत्र, उपनिषद् एवं संतों की वाणियों का पाठ किया गया है। यहाँ तो किसी सम्प्रदाय से झगड़ा नहीं है। जब सभी संत एक ही बात कहते हैं तो हमें सभी को एक ही मतवाला समझना चाहिए। संतों का एक मत होने से सभी सम्प्रदायों का भी एक ही मत होता है। यह मत घर छोड़ देने के लिए नहीं कहता है। घर में रहकर इच्छाओं को धीरे-धीरे घटाने का प्रयत्न करना चाहिए । इच्छाओं को जितना ही फैलाओगे उतना ही दुख का भी विस्तार हो जाएगा।
चाहे विवाह करके रहो, चाहे अविवाहित रहो, पर पंच पापों को छोड़कर रहो । इच्छाओं को कम करते रहो। पवित्र और सत-कमाई करके जीवन निर्वाह करो। बिल्कुल अकेला रहना, इस संसार में असम्भव है। यही तो असली राजनीति है। आपलोग अपने समाज को जिस किसी नाम से पुकारें, किन्तु नाम के कारण अपने को अलग-अलग नहीं समझें । स्वयंपाकी होना या दूसरे का बनाया खाना, इस संबंध में सत्संग का कोई बन्धन नहीं है । सत्संग में सब क्या करते हैं, यह बताया । हमलोग बचपन से ही ‘राम-राम’ करते हैं, पर राम क्या है, वह सत्संग द्वारा ही वास्तविक रूप में जान पाते हैं। राम या सर्वव्यापी ईश्वर इन्द्रियों के द्वारा जानने योग्य नहीं है। शून्य या बस्ती, देश और काल, सभी इन्द्रियगम्य हैं, किन्तु परमात्मा आत्मगम्य हैं। जिस प्रकार पाँचों इन्द्रियाँ अलग-अलग अपने विषयों को ग्रहण करती हैं, उसी भाँति आत्मा केवल परमात्मा को ही ग्रहण करती है। इसी कारण आस्तिक पुरुष आन्तरिक साधना करते हैं । राष्ट्र-भेद मिट जाय तो लड़ाई-झगड़े भी मिट जाएँगे।’
‘संतमत-सत्संग में ईश्वर-भक्ति की चर्चा प्रधान है। इस सत्संग के अनुसार आचरण करने से संसार में भी सुखपूर्वक रहोगे और मोक्षमार्गी भी बनोगे। यह सत्संग ईश्वर की भक्ति सिखलाता है। इसके लिए ईश्वर-स्वरूप के विषय में पहले सुनिए । गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
‘गो गोचर जहँ लगि मन जाई।
सो सब माया जानहु भाई।।’
पंचेन्द्रिय और मन-बुद्धि का ज्ञान जहाँ तक जाता और जा सकता है, वह सब-का-सब माया ही है। परमात्मा, मायातीत हैं, इसलिए वह मन-बुद्धि की सूक्ष्मतम पहुँच से भी परे और उत्कृष्ट हैं । परमात्मा आत्मा से ही जानने योग्य हैं । विषय-सुख के अंग-अंग में दुख भरा हुआ है। विषय-सुख बराबर दुख में डालता रहता है। भक्ति के अभ्यास से आनन्द का नमूना प्राप्त होगा। जिसने भक्ति के रास्ते पर चलकर शब्द को पकड़ लिया, उसका संशय मिट गया ।’
‘बीजाक्षर क्या है? बीजाक्षर विन्दु है। अक्षर लिखने में भी प्रथम विन्दु है। परमात्मा परमविन्दु है । विन्दु इतना सूक्ष्म और छोटा है कि उसका स्थान भर है, परन्तु परिमाण और विभाग नहीं है। विन्दु-ध्यान हो जाने पर शब्द-ध्यान भी होने लगेगा। प्रतिमा को पूजने से, जिसकी प्रतिमा है, उसकी पूजा हो जाती है। यह विन्दु और नाद, परमात्मा की असली प्रतिमा है, अत: इसकी उपासना करने से परमात्मा की उपासना हो जाती है। विन्दु और नाद का ध्यान करना, परमात्मा की ही पूजा करना है। इस पूजा के लिए अपनी चेतन-वृत्ति का सिमटाव करो। सिमटाव होने से ऊर्ध्वगति होगी और फिर विन्दु और नाद की प्राप्ति हो जाएगी। यह सत्य केवल पवित्र बर्तन में ही अटेगा। अपवित्र बर्तन में सत्य रह ही नहीं सकता। अत: सत्य को धारण करने के लिए अन्त:करण को निर्मल बनाइए। इसके लिए इच्छाओं को अपने वश में कीजिए और चोरी, जारी, नशा, हिंसा तथा झूठ का सर्वथा परित्याग कर दीजिए, तभी अन्त:करण रूपी बर्तन शुद्ध होगा और तब उसमें स्वतः ही परमात्मा आकर विराजेंगे। बर्तन को पवित्र बनाकर गुरु की बताई विधि से ध्यान कीजिए, आप परमात्मा को पहचान सकेंगे। बिना संयम के बिना हृदय को पवित्र बनाए ईश्वर की पहचान होना, मिथ्या बात है। तम्बाकू-निषेध, हिंसा नहीं करनी, यह सब जरूरी है, किन्तु अनिवार्य हिंसा होती ही रहती है। इसके लिए प्रायश्चित करते रहना चाहिए । आतिथ्य सत्कार, दूसरों की भलाई करना; ये सब कर्म अनिवार्य हिंसा का प्रायश्चित है। वार्य हिंसा मांस-मछली का भोजन करना है। यह भोजन कदापि नहीं करना चाहिए। इस हिंसा का प्रायश्चित नहीं है। योगीवर भूपेन्द्रनाथ सान्यालजी का कथन है- ‘मनुष्यों के परमाणु तथा जानवरों के परमाणु एक नहीं हैं । पशुओं के परमाणु में पशुता का गुण है। पशु-मांस खाने से मनुष्यों का स्वभाव भी पशु के समान हो जाएगा।’ अतः यह भोजन तो सभी साधकों को छोड़ ही देना चाहिए। अब आपको क्या करना है, सो सुनो । एक ईश्वर में पूर्ण विश्वास, उनका पूर्ण भरोसा तथा अपने अन्तर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय और सद्गुरु से ‘सद्युक्ति’ जानकर नित्य सत्संग एवं ध्यानाभ्यास करते रहना चाहिए। गुरु ही यथार्थ बोध देनेवाले होते हैं। काम करते समय भी भजन का अभ्यास करते रहना चाहिए। भजन करने का छोर नहीं छोड़ना चाहिए- यही सन्तमत है।’
‘ज्ञानमार्गी’ ‘अहं ब्रह्मास्मि’ ‘अनलहक’ कहकर पुकारा करते हैं । जो सगुण उपासक हैं , वे भक्तिमार्गी कहे जाते हैं । किन्तु वे भी ज्ञानमार्गी की तरह उच्च कोटि के भक्त हैं । सन्तों की वाणी का अध्ययन करने से पता चलता है कि सगुण माननेवाले निर्गुण भी मानते हैं तथा निर्गुण माननेवाले भी सगुण मानते हैं। गुणों को धारण करनेवाला निर्गुण तत्व ही है। निर्गुण ही गुणों को धारण करता है और सगुण कहलाता है। वास्तविक रूप में निर्गुण और सगुण की पकड़ संतों के हृदय में बराबर है। संतों का ख्याल अन्तर-साधन की ओर है। चाहे द्वैत मानिए या अद्वैत मानिए, चाहे शुद्धाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत या त्रैत कुछ भी मानिए, किन्तु गोता लगाकर भीतर में प्रवेश कर उसके अन्त तक जाइए, तब जो मिलेगा, वही असली चीज है। यह बुद्धि द्वारा निर्धारित रूप वास्तविक नहीं है। ‘गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।’ जिस विचार को लोग बराबर सुनते रहते हैं, मन उसी ओर लग जाता है। संत लोग इसीलिए ईश्वर-भक्ति की चर्चा करते रहते हैं, जिससे सुननेवाले भजन करने में प्रवृत्त हो जायँ । बाहरी दिखावे के लिए किए गए कामों से सन्तुष्टि नहीं मिलेगी। ऐसा काम कीजिए, जिससे लोक और परलोक दोनों बने । आन्तर साधन से लोक-परलोक दोनों दिशा में उन्नति होती है। अन्तर में डूबने से कितना चैन मिलता है, सो तन्द्रावस्था को देखकर विचार कर लो और पंच ज्ञानेन्द्रियों के पाँचों विषय-भोग में कितना चैन मिलता है, इसे भी विचार लो। सत्संग में यह भीतर में डुबकी लगाकर शान्ति पाने की ही बात प्रधान है। बाहर में जिस भाँति पैदल चलकर, कामरू लेकर तथा दण्ड-प्रणाम करते हुए लोग भक्ति करते हैं, उसी भाँति अन्तर-गमन भी सूक्ष्म भक्ति है। इस मार्ग में कष्ट नहीं होता। इस मार्ग में चलने पर क्रमशः सुख और चैन बढ़ता ही चला जाता है। अन्तर में यात्रा करने के लिए संतों की वाणी में दृष्टियोग और शब्दयोग का बयान है। इसके लिए पहले मानस जप और मानस ध्यान करना चाहिए। साधन खूब मजबूती से करना चाहिए।’
‘एक बच्चे ने जो संतमत का सिद्धान्त सुनाया है, उसका नमूना लीजिए कि संतमत के सभी सत्संगियों के बच्चों में ऐसा ही ज्ञान होना चाहिए। एक बच्चा जब इतना जानता है, तो आपको कितना जानना चाहिए ?’
‘इस सत्संग का विषय क्या है ? ईश्वर-भक्ति । इन्द्रियों से जानने में आनेवाले पदार्थों को ईश्वर नहीं कहते हैं। जो केवल चैतन्य आत्मा से जाना जाता है, उसी को ईश्वर कहते हैं। उनकी भक्ति किसी भाँति की जाय, यह अच्छी बात है, पर उनकी ठीक भक्ति भी जाननी चाहिए। वह संसार के सभी पदार्थों से विलक्षण हैं । तब उनकी भक्ति या सेवा कैसे की जाय ? इसका विचार कीजिए । संसार के पदार्थों का ग्रहण इन्द्रियों के द्वारा होता है और परमात्मा, इन्द्रियों के संग से अलग विशुद्ध चैतन्य के द्वारा ग्रहण किया जाता है। अतः उनकी भक्ति करने के लिए चैतन्य को इन्द्रिय के संगों से तथा अन्य संगों से अलग करना आवयक है और ऐसा करना भक्ति का ही अंग है। जिस प्रकार मूँज के सभी परतों को खींच लेने से केवल सींक बच जाता है, उसी प्रकार जीवात्मा या सुरत के सारे आवरणों के हट जाने पर विशुद्ध चैतन्य ही बचा रहता है। रूप चाहे छोटे या बड़े, लघु और विराट, दिव्य और अदिव्य, कुछ भी हों वे सभी माया ही हैं । ‘भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को जो विश्वरूप दिखाया था, वही नारद को भी दिखलाया था। इसका वर्णन महाभारत के शान्तिपर्वान्तर्गत नारायणीय प्रकरण (शा॰ ३३९) में है। नारद को हजारों नेत्रों, रंगों तथा अन्य दृश्य-गुणों का रूप दिखलाकर भगवान ने कहा- ‘तुम मेरा जो रूप देख रहे हो, वह मेरी उत्पन्न की हुई माया है, इससे तुम यह न समझो कि मैं सर्वभूतों के गुणों से युक्त हूँ। मेरा सच्चा स्वरूप सर्वव्यापी, अव्यक्त और नित्य है, उसे सिद्धपुरुष पहचानते हैं ।’ इससे कहना पड़ता है कि गीता में वर्णित भगवान का अर्जुन को दिखलाया हुआ विश्वरूप भी मायिक ही था। यह बात लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने ‘गीता-रहस्य’ में लिखी है। अत: रूप नहीं, जिन्होंने रूप धारण किया है वही आत्मा है, वही क्षेत्रज्ञ है। इसी सुरत के द्वारा ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। इस ओर चलना ही भक्ति है। अब प्रश्न है- ‘कहाँ से चलना है?’ जाग्रत अवस्था में जीव का वास नेत्रों में, स्वप्न में कण्ठ में तथा सुषुप्ति में हृदय में होता है। साधना जाग्रत से ही होती है, अत: इन्द्रियों में फैली हुई अपनी चेतन-वृत्ति को समेटकर ‘नासाग्र विन्दु’ में एकत्रित करना है। नासाग्र विन्दु ही सुषुम्ना विन्दु या दशम द्वार है। सिमटी हुई चेतन-वृत्ति स्वभावत: ही ऊर्ध्वगामिनी हो जाती है। बाहर से वृत्ति का सिमटाव होते ही वह भीतर की ओर चलने लगती है। यही उलटकर देखना है, इसे स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश, पिण्ड से ब्रह्माण्ड में जाना और अन्धकार से प्रकाश की ओर गमन करना कहते हैं । ‘एकविन्दुता’ प्राप्त करने के लिए ही दृष्टियोग-साधन किया जाता है। प्रकाश में शब्द की धार है। उसे पकड़कर उपासक शब्द के उद्गम स्थान की ओर खींच जाता है और इस भाँति आकर्षित होता हुआ वह परमात्मा तक जा पहुँचता है। एक-एक करके उसके सारे आवरण उतर जाते हैं । यही भक्ति करके वह सदा के लिए मुक्त हो जाता है। संतमत में इसी का प्रचार है। विधिवत् ईमानदारी से ध्यान करो, तब सत्य और झूठ की पहचान स्वतः ही हो जाएगी।’

58.

सदाचार की अनिवार्यता

अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का तीसरा वार्षिक अधिवेशन ता॰ २५ फरवरी से २७ फरवरी, १९५१ ईस्वी तक पूर्णियाँ जिलान्तर्गत झालीघाट (खुंट) जानकी नगर में हुआ । अधिवेशन के तीन-चार दिन प्रथम महर्षिजी ज्वराक्रान्त हो गए। यह खबर झालीघाट भी पहुँच गयी। सभी सत्संगियों में खलबली मच गयी। सभी ‘त्राहि-त्राहि’ कर उठे। सभी के हृदय से आपके स्वस्थ होने तथा अधिवेशन में पधारने की पुकार होने लगी। २४ फरवरी को भी आप ज्वरग्रस्त ही थे, फिर भी भक्तों की पुकार पर उसी दशा में एक टप्परवाली गाड़ी में मोटा बिछावन दिलवाकर उस पर लेट गए और गाड़ी हाँकने का आदेश दे दिया। शाम होते-होते आप अधिवेशन स्थल पर पहुँच गए। सभी की मायूसी और निराशा उल्लास के रूप में बदल गयी और रात भर आपके ज्वरमुक्त होने की सभी लोग प्रार्थना करते रहे ।
प्रातः सत्संग में महर्षिजी बुखार के कारण इतने अशक्त थे कि बोलना भी संभव नहीं हो पा रहा था। किसी भाँति क्षीण वाणी में आपने कहा- ‘पाठ की गयी संतवाणियों की व्याख्या श्री महेन्द्रनाथ सिंहजी सुनाएँगे। ये मेरे गुरुजनों में से हैं तथा गुरु महाराज के बड़े शिष्यों में से एवं बाल ब्रह्मचारी हैं ।’
तदुपरान्त श्री महेन्द्र बाबू बोले–महर्षिजी महाराज ने मेरे ऊपर बहुत बड़ा भार दिया है। यथासंभव मैं उसे निभाने का प्रयत्न करता हूँ। संतों की वाणी का तात्पर्य है कि सभी जीवों की भलाई हो। बुढ़ापा और मृत्यु अनिवार्य है। संसार की प्यारी-प्यारी चीजें छूट जायँगी । कमाकर जमा की हुई सारी सम्पत्ति भी कोई काम नहीं आएगी। ‘यह धन और यह वस्तु मेरा है’- यही ममता दुख का कारण है। संसार की किसी भी चीज में सुख नहीं है। अपने को जानना, सत्संग करना तथा संतों की वाणी का अध्ययन करना असली सुख का कारण है। सुख बाहर में नहीं, अन्तर में है। महर्षि याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी देवी ने इसी संबंध में जिज्ञासा की थी। उन्होंने उसे ‘वाराणसी’ में ध्यान करने के लिए बताया। दु:खों का वारण और नाश करने की शक्ति होने के कारण ही उस स्थान का नाम वाराणसी है। यह स्थान इड़ा और पिंगला नाड़ी के मध्य में है।’
लोगों की श्रद्धा भरी रुचि देखकर कुछ देर महर्षिजी ने भी प्रवचन दिया— कबीर साहब का मंडल खुल गया था और वे सभी आवरणों को पारकर गए। उनके अन्तर में निर्मल सूर्य का उदय हो गया, जिसने भी ‘एकविन्दुता’ प्राप्त कर ली है, उसका मंडल खुल गया है।
हमलोग अच्छी तरह से ध्यानाभ्यास करें, उसमें लवलीन हो जायँ तो प्रकाश मिल जाएगा। यह प्रकाश मिलने से विषय का नाश हो जाता है। निन्दा मत करो। क्रोध और वासना को छोड़ो । जो, जैसा नहीं है, उसे वैसा जानना ही भ्रम है। यह सत्संग उस भ्रम से छुड़ाता है।’
इतने से प्रवचन देते-देते आपकी कमजोरी बढ़ गयी। आप वहाँ बैठ भी नहीं सके और विश्राम के ख्याल से बासे पर चले गए। आपके जाते ही पंडाल में हल्ला-गुल्ला होने लगा। बाबू महेन्द्रनाथ सिंहजी ने सभी को समझाया- ‘पूज्यपाद महर्षिजी अस्वस्थता तथा कमजोरी के कारण विश्राम करने चले गए हैं। आपलोग हल्ला नहीं करें। शान्त होकर प्रोफेसर विश्वानन्दजी का भाषण सुनें ।’
तदुपरान्त प्रोफेसर विश्वानन्दजी भाषण करने लगे- ‘पूज्य महर्षिजी अस्वस्थ हैं । हमलोगों को परिस्थिति समझकर निर्धारित समय पर अवश्य ही सत्संग करना चाहिए। मैं ‘शान्तिसन्देश’ के विषय में पहले कुछ कहूँगा । आपलोग ग्राहक की संख्या बढ़ावें, जिससे पत्रिका अच्छी तरह से प्रकाशित होती रहे । इसे प्रकाशित होते रहने से आपलोगों को पूज्य महर्षिजी के वचन बराबर पढ़ने के लिए मिलते रहेंगे। आपलोग पान की दूकान में जाकर दर्पण में अपना मुख देखकर खुश होते हैं, पर स्वयं अपने को नहीं देखते हैं। अपने को देखने के लिए महर्षिजी ध्यानाभ्यास करने के लिए कहते हैं। जो लोग विन्दु ध्यान करते हैं , वही ठीक ध्यान करते हैं ।’
मध्याह्न के सत्संग में पुनः महर्षिजी सत्संग में आकर आसीन हुए। श्री महेन्द्र बाबू ने कहा- ‘बड़े अफसोस की बात है कि पूज्य महर्षिजी अस्वस्थ हैं , पर करुणावश अस्वस्थ होने पर भी यहाँ उपस्थित हैं। जैसा महर्षिजी की वाणी में प्रभाव है, वैसा और किसी की वाणी में नहीं है। सत्संग से अलग रहकर मेरे ऐसे पुरुषों की बातों से आपलोगों को लाभ हो, सो संभव नहीं है। पूज्य महर्षिजी का स्नेह मेरे ऊपर बराबर रहता है। हमारे यहाँ के महर्षियों ने जो सुना दिया है, उसी को आज के भी सन्त और महर्षि दुहराकर कह रहे हैं। जगत और ब्रह्म में वही संबंध है, जैसे दूध से दही का। दही, दूध से पृथक भी नहीं और पृथक भी है। यह जगत ईश्वरमय है, पर ईश्वर नहीं । ईश्वर और जीव के संबंध में भी यही बात है। धर्म की खोज में सन् १९०७ ईस्वी से ही मुझे किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है, सो क्या कहें ? परमात्मा और आत्मा स्वजातीय पदार्थ है। दोनों में अंश और अंशी तथा तत्त्वरूपता का भेद और अभेद है। धर्म की गति अत्यन्त सूक्ष्म है। कैसे वर्णन करूँ? गीता में भगवान ने कहा है- ‘भूतों को पूजने वाले भूतों को, देवों को पूजनेवाले देव को और मुझे पूजनेवाले मुझको ही प्राप्त होते हैं ।’
यह बात सुनकर दिमाग में खलबली मच जाती है। मैं वेद और पौराणिक ज्ञान से भागकर ‘संतमत’ में आया । सन् १८९१ ईस्वी में पूज्य बाबा देवी साहब भागलपुर के मायागंज मुहल्ले में पधारे थे। मैं उस समय गुल्ली-डंडा खेलता था। उन्होंने बताया कि कबीर साहब के वचनों में रहस्य भरा हुआ है। वे पूर्ण योगी थे । अपनी कमाई से जीवन-निर्वाह करते हुए उन्होंने संसार को चेताया। उनकी बातों को सुनने से मेरे मन की विविध शंकाएँ मिट गयी। मुझे उपनिषदों में विरोधात्मक विचार जान पड़े। सभी अपने-अपने ढंग से उपनिषदों का अर्थ लगाते हैं। बाबा साहब की बातें उलझन रहित और साफ थी। अब उन विचारों के सच्चे प्रचारक हमारे महर्षि मेँहीँ परमहंसजी हैं।’
लोगों की भावना का आदर करते हुए, आपने कमजोर रहते हुए भी यह प्रवचन दिया- ‘मैं ज्यादे समय तक नहीं कहूँगा। कर्तव्य समझकर कुछ कहता हूँ। यह सत्संग ईश्वर-भक्ति का प्रचार करता आ रहा है, इसलिए प्रथम ईश्वर-भक्ति को जानना जरूरी है। कोई-कोई कहते हैं कि ईश्वर है ही नहीं । गुरु महाराज तथा संतों की वाणी को लेता हूँ, तो पाता हूँ कि ईश्वर अवश्य हैं । जन्मान्ध जिस भाँति कहे कि रूप नहीं है, उसी तरह कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर ‘नहीं है। अन्धे को ठीक-ठीक देखने की शक्ति हो जाय तो रूप का ज्ञान हो जाएगा। अगर नहीं देख सकता है, तो विश्वास अडिग होना चाहिए। जब मैं बाबा साहब के पास गया तो उन्होंने कहा कि साधन करो । साधन के अन्त तक जाना ईश्वर को पाना है। सब पदार्थ परिमित है। परिमित के बाद अपरिमित का होना परम संभव है। इस भाँति विचार करने से ईश्वर को अनन्त और असीम मानना पड़ता है। सभी संतों के वचनों में भी यही बात मिलती है कि ईश्वर अनन्त और अपार है। जिस प्रकार हम इस संसार को जानते हैं , उसी भाँति इस अपार, असीम परमेश्वर को नहीं जान सकते; क्योंकि इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर का ज्ञान नहीं हो सकता। इन्द्रियों के लिए वे अगोचर हैं । हम अपने से ईश्वर को जान सकते हैं, पर जबतक हम इन्द्रियों के साथ मिले हुए हैं, तबतक नहीं जान सकते । इन्द्रियों से अपने को अलग कर लेने के बाद ही हम परमात्मा के दर्शन कर सकते हैं । इसके लिए गुरु से भेद लेकर अन्तरमुखी साधन करना पड़ेगा। बहुत दिनों तक साधन करने के बाद अन्तर में प्रवेश करके उसके अन्त तक जा सकेंगे। यही ईश्वर की भक्ति है। इसे सभी मनुष्यों को करना चाहिए। यह भक्ति बिना सदाचार का पालन किए सफल नहीं हो सकती है।’
इसके बाद प्रोफेसर विश्वानन्दजी का भाषण हुआ- एक बड़ी लकीर खींचो, संसार की लकीर छोटी हो जाएगी। आत्मज्ञान प्राप्त करना सबसे बड़ा काम है। संतमत इसकी शिक्षा देता है। इसके लिए सदाचारी बनना निहायत जरूरी है। चोरी, जारी, नशा, हिंसा और झूठ को त्यागना ही सदाचारी बनना है । यही तो बड़ी लकीर है। संतमत में गुरु का बड़ा महत्व है। हलवाई की सीरा की मैली को दूध काटता है, उसी प्रकार गुरु की कृपा मन-रूपी सीरा के लिए दूध है।’
पुन: दूसरे दिन के प्रात: सत्संग में महर्षि जी के प्रवचन हुए -
‘संतमत का सत्संग मोक्ष-ज्ञान सिखलाता है। संसार से कैसे छुटकारा होगा, इसकी जानकारी सत्संग से होगी। शरीर के नाते हम संसार में रहते हैं । स्थूल शरीर के छोड़ने पर स्थूल संसार से छुटकारा होता है, उसी तरह सूक्ष्म शरीर छोड़ने से सूक्ष्म संसार से छुटकारा होता है। इसी भाँति कारण और महाकारण के संबंध में भी समझिए। इस छुटकारे का मार्ग बताये जाने के कारण ही संतमत मोक्ष धर्म है। हमारी सभी इच्छाएँ पूरी हो जायँ, यह असम्भव है। जितना भी हो जाय, पर अभाव नहीं मिटेगा। इस प्रकार इच्छाओं की पूर्ति करते-करते शरीर का भी त्याग हो जाएगा। इसके लिए संतोष और शान्ति धारण करना ही एकमात्र उपाय है। सब धर्मों में जो ‘मोक्षधर्म’ है, वही संतमत है। मैंने भी पहले संतमत को नहीं समझा था । स्वर्गीय बाबू धीरजलाल गुप्तजी ने मुझपर बड़ी कृपा की जो संतमत मुझे समझा दिया। बाबा देवी साहब के ख्याल से भी यही जानने में आता है कि संतमत साम्प्रदायिकता से परे है। इस मत में साम्प्रदायिक झगड़ा बिल्कुल ही नहीं है। संतमत बताता है कि ईश्वर को इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता। बहुत कहने-सुनने से भी वे नहीं जाने जा सकते । विन्दु और नाद में भी ईश्वर की पहचान नहीं होगी। विन्दु-नाद से अतीत परमात्मा हैं । यह सत्य पवित्र बर्तन में ही अटता है। यह पवित्रता क्या है ? सदाचार, पंच पापों का परित्याग कर चेतन-वृत्ति को विषयेन्द्रियों से समेट लेना ही वह पवित्रता है। बिना सदाचार का पालन किए--विषय पर संयम किए बिना मोक्ष-मार्ग पर चलना और बढ़ना असम्भव है। इस भाँति अपने शरीररूपी बर्तन को पवित्र बनाकर सदा अन्तर्मुखी उपासना करो । सत्संग करते रहो। आपका कल्याण होगा। जो दैनिक, साप्ताहिक और मासिक सत्संग करते रहते हैं , वे बहुत ही उत्तम करते हैं ।’
इसके बाद श्री चुन्नालालजी का भाषण प्रारम्भ हुआ-- ‘मुझे सन्तमत में बड़ा विश्वास है। पूजास्पद महर्षिजी का सत्संग-प्रचार-कार्य देखकर मुझे बड़ी खुशी होती है। संतमत एक ईश्वर पर पूर्ण विश्वास और भरोसा करने का आदेश देता है और यह बात भी समझ लीजिए कि ईश्वर मन-बुद्धि के जानने से परे है। उसे केवल आत्मा के द्वारा ही जान सकते हैं। आँख और कान के द्वारा आप बाहर में फैल गए हैं । उसका सिमटाव कर भीतर में देखिए और सुनिए तो बड़ा आनन्द प्राप्त होगा। बड़े-बड़े लोग ज्ञान की बातें तो सुनाते हैं , परन्तु साधन नहीं बताते हैं ।’
तत्पश्चात् श्री महेन्द्रनाथ सिंहजी ने कहा-
‘संतमत के विषय में कहा गया है कि संतमत किसी से ईर्ष्या नहीं रखता। सभी मतों का सार संतमत है। यह बिल्कुल ठीक बात है। अन्तर की ओर देखो--यही संतमत है। संतमत का जलसा संतों के ज्ञान का प्रचार करता है। इस समय संतमत के प्रधान आचार्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज हैं । हमलोगों में किताबी झगड़ा नहीं है। हम सामंजस्यपूर्ण बुद्धि से विचार करते हैं । वैज्ञानिक लोग चकित हैं । दूसरा सिद्धान्त संतमत का यह है कि हमलोग परमात्मा की संतान हैं , अतः हम सभी भाई-भाई हैं । इस विश्व-बन्धुत्व के साथ हमलोगों को अहिंसा का भी पुजारी बनना चाहिए। जब से मनुष्य की सृष्टि हुई, तभी से संतमत है। जो सदाचारी नहीं होगा, वह संतमत के काबिल नहीं है। सदाचारी को ही अन्तर्ध्यान से परमात्मा के दर्शन होते हैं, संतमत यही सिखाता है।’
इसके उपरान्त महर्षिजी ने कहा-- ‘बाबू साहब हमारे गुरुजन हैं ।’
यह सुनकर महेन्द्र बाबू ने कहा- ‘नहीं, पूज्य महर्षिजी हमारे गुरुजन हैं ।’
पुनः आपने कहा- ‘देखिए साहब ! इनके बड़े भाई से मैंने दृष्टियोग सीखा है, अतः ये मेरे चाचा गुरु हैं न? समझदार लोग तो समझ ही गए होंगे। अच्छा सुनिए--ईश्वर, इन्द्रियों को अगोचर है। फिर, अगोचर का ध्यान कैसे करें ? गंगा-स्नान करनेवाले लोग पाँव से चलकर गंगाजी तक जाते हैं तथा पुष्पादि अर्पित करते हैं । यह चलना और पुष्पार्पण दोनों ही गंगाजी की भक्ति है। उसी भाँति अन्तर-पथ से चलकर परमपिता की गोद तक पहुँचना और उन्हें आत्मार्पण करना ही उनकी भक्ति है। अन्तर में चलने का तरीका यह है कि फैली हुई दृष्टि को समेटकर--उसे सूक्ष्म बनाकर चलो । गुरु महाराज ने बताया है कि आँख बन्द करो और अन्धकार में देखो और बाहर में देखी हुई चीजों को बारंबार छोड़कर यानी उसका ख्याल बिसारकर देखो, तो प्रत्यक्षता होगी। अन्धकार के बाद प्रकाश है। एक जीवित मनुष्य की आँख में ज्योति है, वह मुर्दे में नहीं है। जाग्रत अवस्था में सुरत का जहाँ निवास है, वहीं चेतन-वृत्ति के एकाग्र होने से ज्योति के दर्शन होते हैं। आदि में सद्गुरु (परमात्मा) से सुरत आयी और यहाँ पर वह जीवात्मा कहलाई। जाग्रत अवस्था में जीव का निवास आँखों में रहता है, इसीलिए जीवित लोगों की आँखों में ज्योति है।’
“मन की चंचलता को ‘चलना’ कहते हैं और उसकी अचंचलता को ‘बैठे रहना’ कहा जाता है, पर इस आन्तर साधन में ‘बैठे रहना’ ही चलना है। कबीर साहब ने कहा है-- ‘बैठा रहे चला पुनि जाता।’ अतः मन ज्यों ही एकविन्दुता में स्थिर होता है, त्यों ही उसकी ऊर्ध्वगति हो जाती है। वह अन्धकार से चलकर प्रकाश में पहुँच जाता है। प्रकाश-मंडल के बाद मन छूट जाता है, तब केवल सुरत ही चलती है। प्रकाश से सुरत शब्द में चलती हुई शब्द से पार होकर परमात्मा को प्राप्त कर लेती है। यहाँ सुरत और मन की स्थिरता को ही ‘चलना’ कहा जाता है। चेतन-वृत्ति का सिमटाव करना ही चलना है। सिमटाव में एकाग्रता होने के कारण चैन मिलता है। तन्द्रावस्था में प्रवेश करने के समय आप इसका स्पष्ट बोध करते हैं । इन्द्रियों में फैली हुई चेतनधारों को एकत्रित कर उसे जीवात्मा के जाग्रत निवास-केन्द्र में स्थिर कीजिए। यह सिमटाव और स्थिरता ही बैठना है। कबीर साहब ने कहा है-- ‘बैठा रहे चला पुनि जाता।’ इस भाँति बैठने से आप अन्धकार से प्रकाश में और प्रकाश से शब्द में चले जाएँगे। जो उत्तम आचरण से नहीं रहेगा, वह कभी भी अन्तर की ओर नहीं जा सकेगा। चाहे आप कितनी ही उपासना कीजिए, प्रगति नहीं होगी। अतः श्रेष्ठ आचरण के साथ मन को एकाग्र कीजिए, तभी आपकी ऊर्ध्वगति होगी। तभी आप भीतर में चल सकेंगे। इस भाँति आप स्थूल से सूक्ष्म में, सूक्ष्म से कारण-महाकारण की ओर चल सकेंगे।”
“संतमत में किसी इष्टदेव से घृणा नहीं है। इसमें सभी क्षेत्रों के पार में जो ‘क्षेत्रज्ञ’ है, उसे प्रत्यक्ष करके जानना होता है। संतों का यही उपदेश है। जहाँ ऐसा उपदेश होता है, वही ‘सत्संग’ है। यह आपलोगों को सुना दिया । मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि-साधन और सुरत-शब्द-योग; यही उपासना का क्रम है। इसे सद्गुरु के द्वारा ही जाना जाता है और जानकर विधिपूर्वक सभी उपासना कर लेने से साधना समाप्त हो जाती है। उपासना से अन्तर में ज्योति का दर्शन होना ही गुरु की साक्षी या गवाही है। ‘गुरु की कृपा और ईश्वर की कृपा सदा मेरे साथ है’ ऐसा दृढ विश्वास रखो। ध्यानाभ्यास करने में ढीले मत बनो। पटुआ लगाने में आपका मन लगता है, पर भीतर की तरफ चलने में अरुचि क्यों होती है ? पिण्ड और ब्रह्माण्ड, बूंद और सागर की भाँति है। दोनों के एक ही आवरण हैं । पिण्ड के सभी आवरणों से पार चले जाने पर आप ब्रह्माण्ड के भी सभी आवरणों से पार चले जाएँगे। बिना उकताए उपासना में लगे रहो।”
चित्त-वृत्ति-निरोध का नाम ‘योग’ है। इसी योग के जरिए अन्तर के उच्चतम दर्जे तक कोई जा सकता है । त्रिपुटी के अन्त तक जाना होता है। ऐसा कर लेने पर ही पूरा जगना होता है। यह ‘योग’ गृहत्यागी कर सकेगा और घर में रहनेवाला नहीं कर सकेगा- ऐसी बात नहीं है। यह योग दोनों ही कर सकेंगे। इसमें सदाचारी रहकर ठीक-ठीक अभ्यास करने की बात प्रधान है। मन के अगल-बगल भागने पर भी शरीर को वहाँ कदापि नहीं जाने देना चाहिए। कबीर साहब ने कहा है-
‘मन जाये तो जान दे, तू मत जाय शरीर।
पाँचौ आत्मा वश करी, कह गये दास कबीर।।’

इस भाँति अपने को पवित्र बनाए रखकर उपासना करते रहने से आप ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय के परे जाकर परमात्मा को प्रात कर सकेंगे।’
“आपलोगों ने अभी ‘रामायण’ का पाठ सुना है। लोग समझते हैं कि गोस्वामी तुलसीदासजी केवल स्थूल भक्ति में थे, सो नहीं । देखिए, वे भी अन्तर की सूक्ष्म बातों का वर्णन करते हैं। यह ‘राम प्रताप रूपी सूर्य’ क्या है ? यह प्रसंग पढ़-सुनकर ऐसा मानना कि ‘त्रेतायुग में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम के राजा रहने के समय वह सूर्य उदित था और अब अस्त हो गया है’ भूल होगी। वास्तव में यह सूर्य सर्वदा सभी के हृदय-रूप आकाश में उदित है, बाहरी आकाश में नहीं । रामचरितमानस में वर्णित छठी भक्ति का साधन जो पूर्ण रूप से कर लेते हैं , उसे ही यह सूर्य अन्दर में दिखाई देता है। इस भक्ति से हीन उल्लू पक्षी-रूप अनधिकारी को अपने अन्तर में इसका दर्शन नहीं होता। आपके अन्दर के विकार इसी सूर्य के दर्शन से नष्ट होंगे और सुख, संतोंष, वैराग्य और विवेक के निर्मल रूप हृदय में जगमगाने लगेंगे। उपासना करो। अपने हृदय में ‘राम-प्रताप-रवि’ को उदित करो। आपके सब दुख -दैन्य भाग जाएँगे। वेद, उपनिषद् से लेकर कबीर, नानक, दादू, पलटू, दरिया साहबान सभी इसी सूर्य का बयान करते हैं और यही संतमत है।”

59.

सत्संग कराते हुए विक्रमशिला के खण्डहर में

पूज्यपाद बाबा देवी साहब की जयन्ती मनाने के लिए ३१ दिसम्बर, १९५२ ईस्वी को चार सत्संगियों के साथ महर्षिजी लखनऊ मेल से रवाना हुए। थाना बिहपुर जंक्शन में स्थानीय सत्संगीगण अधीरता से गाड़ी की प्रतीक्षा में एक घण्टे पूर्व से ही खड़े थे। इनमें जन-सम्पर्क विभाग के प्रधान भी सम्मिलित थे। गाड़ी आते ही सभी ने उल्लसित स्वर से गुरुदेव का जय-जयकार कर उनका चरणरज लिया। थाना बिहपुर जंक्शन से उनके साथ और भी चार सत्संगी सम्मिलित हो गए, जिनमें एक मैं भी (लेखक) था। तत्पश्चात् हम नवों व्यक्ति बिहपुर से प्रस्थान कर मानसी स्टेशन आए। वहाँ भी दर्शनार्थी सत्संगीगण आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे। महर्षिजी ने गाड़ी के दरवाजे पर खड़े होकर सबको दर्शन करने की सुविधा दी और वे लोग भी चरणरज पाकर अति प्रसन्न हुए। पुनः खगड़िया स्टेशन पर भी सभी सत्संगीगणों के साथ प्रोफेसर विश्वानन्दजी ने अपने सुपुत्र सदानन्दजी के साथ महर्षिजी का जय-जयकार करते हुए पद-रज ग्रहण किए। फिर गाड़ी बरौनी जंक्शन आई। यहाँ अधिक देर तक गाड़ी ठहरने से स्थानीय सत्संगियों को दर्शन के साथ वार्ता करने का अवसर भी मिल गया तथा प्रातः कर्म सम्पन्न करते हुए डेढ़ बजे लखनऊ पहुँच गए। धर्मशाला में रात्रि भर विश्राम कर प्रातः स्नानादि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर हमलोग पुनः देहरादून मेल से मुरादाबाद के लिए रवाना हो गए। सत्संग-माधुरी में अवगाहन करते हुए हमलोग समय पर मुरादाबाद पहुँच गए। वहाँ दोनों सुपुत्रों के साथ श्री चुन्नालालजी, श्री मोहनलालजी तथा अन्यान्य सत्संगी महानुभावगण महर्षिजी के पधारने की प्रतीक्षा में खड़े थे। गाड़ी से उतरते ही आपके अनेकों गुरु भाई हर्षातिरेक से गले-गले मिलकर धन्य-धन्य हुए। कुछ सत्संगियों ने आपका चरणरज लेकर अपने को कृतार्थ माना। धन और विद्या का बड़प्पन बिसारकर सभी महर्षिजी की सेवा करने में तत्पर हो गए। सभी सामान अपने से ढो-ढोकर उनलोगों ने टमटम पर रखा और परमोल्लास के बीच हमलोग सत्संग-मंदिर आए।
मुरादाबाद से कानून-गोयान मुहल्ले में स्थित यह सत्संग-मंदिर रामगंगा के पुनीत तट पर अपनी पवित्रता बिखेर रहा है। इसके चारों ओर मंदिर-ही-मंदिर, एक नहीं , अनेकों सम्प्रदायों के मंदिर हैं , मानो यह मंदिरों का ही मुहल्ला हो। सत्संग मंदिर के मध्य में पूज्यपाद बाबा देवी साहब का पुनीत समाधि-मंदिर है।
३ एवं ४ जनवरी, १९५३ ईस्वी को यहाँ सत्संग-समारोह सम्पन्न हुआ। महिलाओं और पुरुषों के बैठने के लिए अलग-अलग बड़ी सुन्दर व्यवस्था की गई थी।
इस समारोह में बाबू चुन्नालालजी के सम्पूर्ण परिवार, महानुभाव बलभद्र दासजी, बाबू हरिश्चन्द्रजी का उत्साह देखने ही योग्य था।
समारोह सम्पन्न हो जाने के उपरान्त सभी श्रद्धालु सत्संगीगण महर्षिजी को विदा करने स्टेशन तक आए। इस समय ‘बिछुरत एक प्राण हरि लेहीं ।’ गोस्वामी तुलसीदासजी को इस वाणी की सत्यता का हमलोग साक्षात्कार कर रहे थे।
मुरादाबाद से हमलोग बदायूँ पहुँचे । यही स्वामी सहजानन्दजी की कर्मभूमि थी। वे अधिकतर यहीं रहा करते थे आज भी यहीं उनके अनेकों शिष्यगण निवास करते हैं। बदायूँ के औघड़ श्री रामचरण लालजी भी मुरादाबाद के सत्संग-समारोह में गए थे। उन्होंने वहीं पर महर्षिजी से अपने घर पर पधारने तथा सत्संग करने के लिए विनय की थी, परन्तु आपने सात दिवस सहसराम के सत्संगी बाबू भुआल सिंह को, तीन दिन डेहरी-ऑन-सोन वाले को तथा तीन दिन गया के सत्संग-प्रेमियों को सत्संग कराने का वचन दे दिया था, अत: समय का अभाव बताकर उनकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी। अस्वीकार करते ही वे एक अबोध शिशु की भाँति फूट-फूटकर रोने लग गए; फिर तो अकारण दया करनेवाले को एक दिन के लिए उनके घर पर सत्संग करने की स्वीकृति देनी ही पड़ी। जिस समय गाड़ी बदायूँ पहुँची, उस समय बारिश हो रही थी, पर श्रद्धालु संभ्रान्त सत्संगीगणों ने भींगने की कोई परवाह नहीं कर महर्षिजी के सभी सामानों को गाड़ी से उतारकर अपने-अपने कंधों पर उठा लिया। जितने सत्संगी थे, सभी पुष्पमाला पहनाकर चरण-वन्दना करते जाते थे। उनकी उतारी हुई पुष्पमाला मैं संग्रह करते जा रहा था। अन्त में उनकी संख्या इतनी हो गयी कि वह मेरे लिए एक भारी बोझा ही हो गया। हमलोग बग्गी पर चढ़कर श्री रामचरण लालजी औघड़ के यहाँ पहुँचे। वहाँ हमलोग के निवास तथा सत्संग कराने की सारी आयोजना प्रथम से ही सँवारी जा चुकी थी। स्वागत के लिए नारी-पुरुष आकुल प्रतीक्षा में थे। श्रद्धा भरे उल्लास के बीच महर्षिजी की चरण-अर्चना की गई। भोजन-विश्राम के उपरान्त तीन बजे दिन से एक दोमंजिले के विशाल सुसज्जित कमरे में सत्संगारम्भ हुआ। स्थान प्रेमीजनों से खचाखच भर गया। साढ़े पाँच बजे सत्संग समाप्त हुआ। कुछ सत्संगीजन एक दिन और ठहरकर सत्संगालय में सत्संग कराने का आग्रह करने लगे, पर समयाभाव से ऐसा नहीं किया जा सका। सात बजे रात्रि पुनः सत्संग कर रात्रि भर वहीं विश्राम किया गया और ब्रह्म-वेला में महर्षिजी के साथ ही हमलोग सभी शौच-स्नानादि से निबटकर बदायूँ स्टेशन आए और रायबरेली के लिए प्रस्थान किया। रायबरेली होते हुए हमलोग काशी पहुँचे और एक पुराने धर्मशाला में ठहरे। वहाँ पानी और सफाई का बड़ा अभाव था। प्रातः महर्षिजी के साथ गंगा-स्नानकर हमलोग धर्मशाला आए और उनसे आदेश लेकर काशी की दर्शनीय वस्तुओं को देखने चले । एक टमटम पर चढ़कर हमलोग शीघ्रता से चले। टमटमवाले ने तेज गति से चलाने के लिए घोड़े को चार-पाँच चाबुक लगाए। मारते ही घोड़े ने धीमी चाल से चलना प्रारम्भ किया। टमटमवाले के उतरते ही घोड़ा दौड़ने लगता और चढ़ते ही धीरे-धीरे चलने लगता। हमलोग यथा संभव दर्शनीय स्थानों को देखकर लौट आए और महर्षिजी से यह घोड़े के सत्याग्रह की कहानी सुनाई। सुनकर वे भी हँसने लगे। पुनः स्टेशन आकर हमलोग देहरादून एक्सप्रेस से सहसराम के लिए रवाना हुए ।
सहसराम के बाबू भरत भुआल सिंहजी ने महर्षिजी के स्वागत में करीब तीन माइल लम्बे जुलूस की व्यवस्था कर रखी थी। उनकी श्रद्धा, भक्ति और उत्साह की कोई सीमा नहीं थी। इनके राजसी और शाही स्वागत को देखकर स्वयं महर्षिजी को यह कहना पड़ा कि संत तुलसी साहब ने ‘घटरामायण’ में जो लिखा है-ठाट ठट सत्संग करे ।’ उसे भरत भुआल सिंहजी ने अक्षरश: चरितार्थ कर दिया। पंडाल की सजावट और शोभा शाही दरबार का नमूना बन रही थी। सम्राट शेरशाह के दिए जागीरों की वैभव-सम्पन्नता को जैसे आज भी वह रूपायित करने का प्रयत्न कर रहा हो।
पंडाल का विशाल प्रांगण शामियाने, त्रिपाल और चँदोओं से आच्छादित था, उसमें शाल के स्तम्भ लगाए गए थे, जिसमें चमकीले डाक-कागजों का आवरण रंग-विरंगी किरणें बिखेर रहा था । प्रत्येक स्तम्भ में आकर्षक अक्षरों में लिखी सन्तवाणी के चार्ट लटका दिए गए थे। सिंहद्वार के दोनों स्तम्भों पर जो छाया चित्र बने थे, वे मानो यह सूचित कर रहे थे कि शेरशाह के समय से ही संतों के आगमन की प्रतीक्षा में उनकी दृष्टि आस्तृत हैं । सिंहद्वार के मेहराव पर विविध रंगी बल्बों से धारावाही रूप में जलती और बुझती विद्युत-धाराएँ जैसे सौन्दर्य-मधुर ऊर्ध्वगति का परिचय दे रही थी। पंडाल के एक पार्श्व में निर्मित मंडप अपने कला वैभव से प्रोज्ज्वल हो रहा था। मंडप के मध्य चार फीट ऊँचे स्थान पर तीन संतों के बैठने के लिए पवित्र - आसन बिछे थे। मध्य में पूज्यपाद महर्षि मेंही परमहंसजी महाराज तथा युगपार्श्व में दो अन्य महात्मा आसीन होते थे। मंडप के चबूतरे पर लगभग एक सौ व्यक्तियों के बैठने योग्य स्थान था। इसके मध्य स्थान में सीमेन्ट से निर्मित एक गर्त था, जिसमें श्री कृष्ण भगवान की टीन की प्रतिमा थी। उस प्रतिमा के शिरोभाग से अजस्र जलधारा के फुहारे छूट रहे थे। विद्युत के रंग-बिरंगे प्रकाशों से फुहारे से छूटे जलकण भी रंग-बिरंगे स्वरूप धारण करते रहते थे। तीनों महर्षियों के आसनों के पीछे एक-एक छतरी लगी हुई थी, जिस छतरी के दोनों किनारे तथा ऊपर में बिजली के रोल लगे हुए थे। उस विद्युत-प्रकाश में तीनों संतों की कान्ति सहस्रगुणी हो दमकने लगती थी। तीनों ऋष्यासनों के सामने तीनों ऋषियों के तैलचित्र मंडप के अग्रिम किनारे पर लटका दिए जाते थे, जिसे सत्संग-समाप्त होने पर उक्त तीनों आसनों पर आसीन करा दिए जाते । उस समय ठीक वैसा ही लगता, जैसे वे तीनों ऋषि साक्षात् रूप में ही बैठे हों । इन तैलचित्रों के कलाकार श्री बलरामजी थे, जो अभी भरत भुआलजी के संरक्षण में मैट्रिक के विद्यार्थी हैं। चित्रकला पर मुग्ध होकर ही ये कलाकार बलरामजी के संरक्षक बन गए हैं और भविष्य में शान्तिनिकेतन, बोलपुर भेजकर इनके सर्वागीण विकास के लिए कटिबद्ध हैं।
महर्षि मेँहीँ परमहंसजी के दोनों पावों में बैठनेवाले महात्माओं की उम्र सौ वर्ष से अधिक की थीं। इनमें से एक महात्मा तो सहसराम के ही नानकपंथी गुरुद्वारे में निवास करते थे और दूसरे महात्मा का साधना-कुटीर बाराबंकी में था। उन्होंने इस सत्संग के पहले कभी भी सहसराम नगर में प्रवेश नहीं किया था। ये जबतब आकर सहसराम के गुरुद्वारे में ही ठहरते थे। इन सातो दिनों के सत्संग में ये दोनो समय पर पधारकर सत्संग करते रहे ।
पंडाल के विस्तृत स्थान में धान के पुआल पर सर्वत्र ही जाजिम और दरी बिछी हुई थी। सारा प्रबन्ध ही दर्शनीय और मोहक था । राजकीय वातावरण के कोमल, आरामपूर्ण और प्रमाद-सुखद संस्कार से पोषित होने पर भी भरत भुआल सिंह की गुरु-भक्ति, सत्संग-प्रेम और सेवा-कार्य प्रशंसनीय थे। जहाँ सेवा की आवश्यकता प्रतीत हुई, वहाँ भरत भुआल सिंह को खड़े पाया। पंडाल, चौका, बाजार, सफाई, जनसमूह को बैठाने, उन्हें शान्त करने में, जहाँ देखिए वहाँ वे सेवा के लिए हाजिर हैं। सत्संग के सातों पावन दिवस कभी उन्हें निश्चिन्तता से विश्राम करते किसी ने नहीं देखा। महर्षिजी के मुख से मैंने स्वयं वर्णन करते हुए सुना–सहसराम में सात गुरुद्वारा हैं और नानक पंथवाले ही बहुसंख्या में निवास करते हैं – वे सभी भरत भुआल सिंहजी की अथक सेवा एवं निर्मल प्रभाव से सत्संग में नियमित रूप से नारी-पुरुष सहित आया करते थे।’ इतना ही नहीं सहसराम के वकील, एस॰डी॰ओ॰ साहब, जज साहब, पुलिस विभाग आदि के कर्मचारीगण सभी पधारकर शान्त भाव से सत्संग किया करते थे। जब पाँच दिन सत्संग के बीत चुके थे, तब बौद्धगया से वहाँ के मठाधीश तथा जगदगुरु शंकराचार्यजी के मंदिर के आचार्य महानुभाव भी सत्संग में पधारे और बड़ी श्रद्धा से शेष दोनों दिनों तक सत्संग करते रहे । होनहार कलाकार श्री बलराम जी ने चन्द घण्टों में उनकी भी छवि चित्रित कर उपस्थित कर दिया । उन तस्वीरों को भी सत्संग समाप्ति के उपरान्त उनके आसन पर आसीन कर दिए जाते थे। उनकी इस कलाकारिता पर सभी मुग्ध हो रहे थे।
इस सत्संग में श्री बुद्धु कुँवरजी सदा महर्षिजी के प्रवचनों को अंकित करते जाते थे और कीर्तन मंडलियों एवं सत्संगियों को अपनी सेवा से आमोदित करते रहते थे। कीर्तन मंडली में श्री चतुर्भुज राम, श्री लालजी दास, श्री वासुदेव शर्मा, श्री नरसिंह दास आदि के भाव भरे आध्यात्मिक गान से वातावरण पुलकित एवं मुखरित होता रहता था।
एक वयोवृद्ध वकील बाबू श्याम बिहारीलालजी की सत्संग तथा महर्षिजी के प्रति अगाध भक्ति थी। उन्होंने सहसराम नगर के बाहर एक पहाड़ी टीले पर वट-वृक्ष के नीचे शिव-प्रतिमा स्थापित की है। वह टीला ‘आनन्द टीला’ नाम से प्रसिद्ध है। सचमुच, वहाँ का दृश्य और वातावरण भावुक जनों को आनन्द विभोर किए बिना नहीं छोड़ता। वकील साहब के कथनानुसार हमलोग यह जान सके कि यह ‘आनन्द टीला’ प्राचीनकाल का ऐतिहासिक टीला है, जिसे राजा सहस्रबाहु ने अपनी राजधानी बनाकर शोभा और महत्व प्रदान किया था। उसी के नाम पर ही इस नगर का नाम ‘सहसराम’ पड़ गया है। वकील साहब की अपार श्रद्धा और भक्ति के कारण महर्षिजी १९५० ईस्वी वसन्तपंचमी के अवसर पर तथा १२.०१.१९५१ के दिन वहाँ पधारकर वटवृक्ष के नीचे सत्संग करा चुके हैं। इसबार भी ता॰ १३.०१.१९५३ ईस्वी को हमसबों के साथ ‘आनन्द टीले’ पर चलकर वट-तरुवर की छाया में सत्संग किया। वहाँ वकील साहब ने निज विरचित कविता में महर्षि मेँहीँ परमहंसजी को अभिनन्दन-पत्र दिया। अभिनन्दन-पत्र पढ़ते समय उनकी वाणी प्रेमभावाधिक्य से गद्गद और अवरुद्ध हो जाती और आँखों में अश्रु छलछलाने लगते थे। इसके बाद उन्होंने पर्याप्त मात्रा में महर्षिजी को फल और मिष्टान्न अर्पित किया । वह प्रसाद सत्संगियों में वितरण किया गया। हमलोगों ने तो उस प्रसाद को परितृप्त होकर खाया।
सहसराम के सत्संगी श्री गंगाधर शर्माजी की सत्संग सेवा भी उल्लेखनीय है। सहसराम, डेहरी-ऑन-सोन तथा गया में सत्संग प्रचार एवं इस पवित्र आयोजना करने-कराने का श्रेय इन्हीं को है। इनकी सेवा, लगनशीलता तथा संतमत-सिद्धान्त के प्रति अटूट आस्था और उसे पालन करने की तत्परता प्रशंसनीय है ।
मुरादाबाद से ही महर्षिजी के अनुगामी दलों की संख्या क्रमशः बढ़ती जाती थी। सहसराम में यह संख्या ३०-३५ लगभग हो चुकी थी। राजा भरत भुआल सिंह के उदात्त आतिथ्य सत्कार, विश्रामहीन सेवा, जागरूक तत्परता एवं सुप्रसन्न उत्साहशीलता सभी अनुकरणीय थे।
सहसराम का साप्ताहिक सत्संग समाप्त कर महर्षिजी के संग १४.०१.१९५३ ईस्वी को हमलोग डेहरी-ऑन-सोन आए। वहाँ एक श्रद्धालु भक्त के आलीशान महल में महर्षिजी के साथ हमलोगों ने निवास किया। गृह-स्वामी ने बड़े ही आरामदायी विश्राम एवं सुस्वादु भोजन की व्यवस्था उदार भाव से की थी। दो दिनों तक वहाँ सत्संग समारोह हुआ। यहाँ पंडित गंगाधर शर्माजी ने विज्ञापन बँटवाकर सत्संग का काफी प्रचार कर रखा था। रोशनी तथा ध्वनिवर्द्धक यंत्र का भी उत्तम प्रबंध था। वर्षा होते रहने पर भी पर्याप्त लोग सत्संग करने आते रहे।
यह द्विदिवसीय सत्संग पूर्ण होने पर हमलोग गया आए । यहाँ के प्रेमी-भक्त बाबू गौरीशंकरजी डालमिया की भक्ति-भावना सेवा और व्यवस्था बड़ी सुन्दर थीं। वे सत्संगियों के संग फूलों का हार लिए महर्षिजी की प्रतीक्षा कर रहे थे। आते ही फूलों के हार से महर्षिजी को आच्छादित कर सभी ने पावन चरण-रज लिया। तत्पश्चात् एक सुसज्जित मोटर पर पूज्य स्वामीजी को आसीन कर उल्लासपूर्वक साधना-मंदिर ले आए। अनुगामी सत्संगीगणों के लिए अन्य सवारियों का प्रबंध था। बाबू गौरीशंकरजी डालमिया के छोटे भाई श्री गंगाधर डालमियाजी एक श्रद्धालु भक्त हैं। वे घर से अलग यह साधना-मंदिर बनाकर वहीं अपना समय भगवद्भक्ति में व्यतीत करते हैं। संयोग से इस अवसर पर वे बासुकीनाथ चले गए थे। बाबू गौरीशंकरजी की सेवा-भक्ती की अधिकता के कारण यहाँ की सारी व्यवस्था बड़ी मधुर हो रही थी। प्रथम संध्या तथा उसके दूसरे दिन प्रात:कालीन सत्संग उसी साधना-मंदिर में ही सोत्साह सम्पन्न हुआ । इस साधना-मंदिर में महर्षिजी इसके प्रथम भी भक्त गंगाधरजी के आग्रह से पधारे थे।
यहाँ के सत्संग में रिटायर्ड कलक्टर बाबू नन्दकिशोर सिंह तथा उसके बड़े भाई रिटायर्ड जज बाबू नवलकिशोर सिंहजी भी अपने संभ्रान्त साथियों सहित बराबर आते रहे । दूसरे दिन का सान्ध्यकालीन सत्संग गया के एक विशाल सुसज्जित जवाहर हॉल में हुआ । इसमें पर्याप्त संख्या में संभ्रान्त तथा इतर जन भी पधारे थे। महर्षिजी के प्रवचन से जो प्रभाव पड़ा था उसका स्पष्ट दर्शन सभी के मुखमंडल से भासित हो रहा था। सत्संग पूर्ण होने पर हमारे पूज्यपाद गुरुदेव ने डालमियाजी की सत्संग सेवा के लिए धन्यवाद दिया।
गया से महर्षिजी हम अनुगामियों सहित जमालपुर पधारे । यहाँ रायबहादुर श्री दुर्गादास तुलसीजी के विशाल भवन में हमलोगों के आवास की व्यवस्था की गयी थी। रायबहादुर उस समय पंजाब चले गए थे, पर उनकी सुयोग्य पत्नी ने ऐसी सुन्दर व्यवस्था की कि उनका अभाव जरा भी खटकने नहीं दिया । यहाँ दोनों दिन रायबहादुर की कोठी में ही बड़े सजधज के साथ सत्संग हुआ । प्रथम संध्या सभी की भोजन-व्यवस्था कोठी में ही हुई, तदुपरान्त अकिंचन सत्संग-प्रेमियों ने ही महर्षिजी के अतिरिक्त अन्य अनुगामियों का भार उल्लासपूर्वक वहन किया । यहाँ का सत्संग समाप्त हो जाने पर सभी अनुरागियों सहित महर्षिजी वसन्तपंचमी को परबत्ती (भागलपुर) सत्संग-मंदिर आए। यहाँ सत्संग की ओर से खरीदे गए ध्वनिवर्द्धक-यंत्र की जाँच बाबू शशिभूषण राय से कराने के उपरान्त कहलगाँव के लिए प्रस्थान किया। संताल परगना की कीर्तन मंडली को आपने भागलपुर में ही घर जाने की अनुमति दे दी थी। पूर्णियाँ की कीर्तन मंडली ही साथ में थी। कहलगाँव के सत्संगी श्री श्री पति दासजी ने आपकी अनुमति प्राप्त कर सत्संग कराने का कार्यक्रम निर्धारित किया था, पर उस समय वे बाहर चले गए थे। उनके भाईजी ने उनके अभाव में सत्संग की सारी व्यवस्था धर्मशाला में की। सन्ध्याकालीन सत्संग धर्मशाला में ही हुआ । श्री पति बाबू की ओर से सभी सत्संगियों की भोजन-व्यवस्था की गई ।
लगातार की यात्रा और अत्यधिक श्रम के कारण आपके स्वास्थ्य की संतुलित अवस्था भंग हो गयी थी। कफज खाँसी के कारण आपको अत्यन्त कष्ट हो रहा था । अत: डॉक्टर बुलाकर चिकित्सा का प्रबन्ध हुआ। डॉक्टर ने आपको पेन्सिलिन का इन्जेक्शन तथा पीने के लिए औषधि दी। पर स्वास्थ्य में विशेष सुधार नहीं हुआ। दूसरे दिन के सत्संग में कहलगाँव उच्च विद्यालय के शिक्षकवृन्द अपने छात्रों सहित पधारे थे। अपने कष्ट की ओर ध्यान न देकर आपने सत्संग में प्रवचन दिया। वे शिक्षक-छात्र सत्संग-श्रवण से इतने प्रभावित हुए कि दूसरे दिन सत्संग के एक घंटा प्रथम आकर ही वे लोग व्यवस्थित रूप से बैठकर प्रतीक्षा करते रहे। आज आपको ज्वर हो आया था, अतः दोपहर के सत्संग में नहीं जाने का विचार था । अपने विशेष अनुगामी शिष्य श्री महावीरजी ‘संतसेवी’ को संतवाणी का पाठ तथा कीर्तन मंडली को आध्यात्मिक संगीत सुनाने का निर्देश कर दिया था। थोड़ी देर बाद आप लघुशंका करने बाहर आए और धर्मशाला में श्रद्धालु श्रोताओं की भीड़ देखकर उसी ज्वराक्रान्त दशा में ही आकर वक्ता के आसन पर विराजमान हो गए। आज के प्रवचन से सभी मुग्ध-मुग्ध हो गए। शिक्षकगण हमलोगों से कहने लगे कि आजतक हमने ऐसे संतों के दर्शन कभी नहीं किए। आपके महर्षि मेँहीँ परमहंसजी केवल संत और आत्मद्रष्टा ही नहीं , वरन् एक प्रकाण्ड और गंभीर विद्वान भी हैं।
दूसरे दिन प्रातः सत्संग कर हमलोगों ने महर्षिजी के साथ बौद्धकालीन विक्रमशिला विश्वविद्यालय के भग्नावशेष के दर्शन करने के लिए नाव के द्वारा उत्तरवाहिनी गंगा की धारा में यात्रा की। कहलगाँव से विक्रमशिला की दूरी छह मील थी, पर धारा की प्रखरता के कारण हमलोग तीन घंटे में ही वहाँ पहुँच गए । ग्यारह बजे हमलोगों ने बटेश्वर स्थान पहुँच गंगा की पवित्र धारा में स्नान किया। भजन और भोजन से निबटकर हमलोग विक्रमशिला के दर्शनार्थ रवाना हुए। महर्षिजी ज्वर से दुबैल हो रहे थे, अत: उनके लिए अन्तीचक गाँव से दो बैलगाड़ियाँ आयी थी। हमलोग बैलगाड़ियों के साथ ही चले । वहाँ के निवासियों से पता चला कि विक्रमशिला विश्वविद्यालय का सर्वोत्तम छात्रावास बटेश्वर स्थान के पहाड़ पर ही था । इस छात्रावास के सभी छात्रों तथा शिक्षकों को बख्तियार खिलजी ने कत्ल करवा दिया था । जो किसी कार्यवश बाहर गए थे, केवल वही बचे थे। बटेश्वर स्थान से ही हमलोग प्राचीन स्मृति की माधुरी आँखों में भरे भग्नावशेष के दर्शन करने लगे। यहाँ से विक्रमशिला विश्वविद्यालय का स्थान चार मील दूर है, पर उसकी सीमा यहीं से प्रारम्भ हो जाती है। इस क्षेत्र में अब छोटे-छोटे गाँव बस गए हैं और जहाँ विश्वविद्यालय का विशाल भवन था, वहाँ अब कृषिउद्यान है और अन्तीचक ग्राम भी वहीं स्थित है। एक स्थान जहाँ खुदाई हुई है, वह पहाड़ी टीला है। हमलोग उसके समीप एकत्रित हुए। पूज्यपाद महर्षिजी भी पैदल चलते हुए लाठी के सहारे उस संस्कृति-भावित टीले पर चढ़ गए। हमें तो प्राचीन सर्वकल्याणमयी विस्तृत शिक्षा-पद्धति की याद कर रुलाई आ रही थी। सहसा ही कवि मैथिलीशरण की कविता मन में स्फुरित होकर मुझे धैर्य दिलाने लग गई- ‘चढ़ता प्रथम जो व्योम में गिरता वही मार्तण्ड है।’



60.

साहित्य-सम्मेलन को मंगल-निर्देश

पूर्णियाँ जिला साहित्य सम्मेलन का चौदहवाँ अधिवेशन उच्च माध्यमिक विद्यालय, बनमनखी (पूर्णियाँ) में ता॰ ०१ एवं ०२ जून, १९५२ ईस्वी को सम्पन्न हुआ, जिसका उद्घाटन सुप्रसिद्ध साहित्य महारथी श्री शिवपूजन सहायजी ने किया था। उसमें सुप्रसिद्ध समालोचक श्री लक्ष्मीनारायण ‘सुधांशु’, श्री जनार्दन झा ‘द्विज’ आदि महान साहित्यिक महानुभाव भी पधारे थे। इस अधिवेशन का अध्यक्ष पद सभी के श्रद्धानुरोध से महर्षिजी ने स्वीकार कर लिया था और उक्तपद से निम्नलिखित अभिभाषण प्रसारित किया था-

‘बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रवि कर निकर।।’



प्यारे विद्वान साहित्यसेवी सज्जन, महाशयगण तथा अन्य सर्व सज्जनवृन्द!
मैं अपने को आप सबके बीच में उपस्थित करके अवश्य ही प्रसन्न हो रहा हूँ। क्योंकि आप महानुभावों के साक्षात्कार से मुझे सुख हो रहा है। परन्तु जिस पद पर आप महानुभावों ने मुझे बैठाया है, उस पद पर बैठने की योग्यता अपने में मैं रंचमात्र भी नहीं पाता; इसलिए मुझे संकोच हो रहा है। मैंने अपनी इस अयोग्यता को सम्मेलन के मंत्री महोदय तथा श्री नरेन्द्र प्रसादजी ‘स्नेही’ के सामने प्रकट कर दिया था आर भागलपुर से पत्र लिखा था कि मैं आपके बुलाने की अवहेलना करने का साहस नहीं करता हूँ। आपके सम्मेलन में उपस्थित होऊँगा, परन्तु सभापति के आसन पर योग्य विद्वान को ही आप आसीन करें। मैं उस आसन पर बैठने की योग्यता नहीं रखता। इसके उत्तर में मंत्री महोदयजी ने लिखा- ‘आपके सभापति होने में जनता और साहित्यिक सभी प्रसन्न हैं। अतः यह निर्णय अब नहीं बदला जा सकता। इसलिए इस संबंध में आपको कृपा करनी ही होगी।’ निज भाषा के साहित्य-सम्मेलन में बुलाये जाने पर उसमें उपस्थित नहीं होना अपनी भाषा की शिक्षा से अपने को वंचित रखना है, जो निज दुख का हेतु है। मेरी सम्मति में ऐसे सम्मेलनों में सब लोग उपस्थित लोकर लाभ उठाया करें ।
जबकि मुझ अयोग्य को ही सभापति के आसन पर बैठाया गया है, तब एक अयोग्य से जो होने की संभावना होती है, वही होगी। इसके लिए मैं आप सज्जनों से क्षमाप्रार्थी हूँ।
वाङमय अथवा पठन-पाठन विषयक सर्वसाधारण-हित-संबंधी गद्य-पद्यात्मक वाक्यों को अथवा इनकी पुस्तकों को मैं साहित्य कहकर जानता हूँ। परन्तु वाक्य का कहने या लिखनेवाला मनुष्य होता है, इसमें किसी को भी संशय नहीं । पुस्तकें मनुष्य के वाक्यों को सुरक्षित रखनेवाली है , इसीलिए ये अत्यन्त यत्नपूर्वक विशेष सुरक्षित रखने योग्य हैं। इन्हीं पुस्तकों के भण्डार को मैं साहित्य-भण्डार कहूँगा। आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों पक्षों के हितों और उन्नतियों में सफल रहना मनुष्य जीवन की सफलता है, जो मनुष्य का हित मानने योग्य है। इसी हित के ज्ञान देनेवाले ग्रंथों को साहित्य कहा जा सकता है। साहित्य से सदा लाभ होता आया है और सदा लाभ होता रहेगा। साहित्य-हीन देश और समाज में हानि-ही-हानि और हीनता-ही-हीनता देखने को मिलती है। आर्य और अनार्य दोनों समाज इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। आर्यों में भी जो साहित्यिक ज्ञान से हीन है , वे हीन दशा का ही भोग, भोग रहे हैं । इहलौकिक, पारलौकिक, सांसारिक तथा पारमार्थिक लाभों का ज्ञान देनेवाला, कला-कौशल और विज्ञान का सिखलानेवाला, गिरे हुए को उठानेवाला, असाहसी को साहसी, आलसी को निरालसी, निरुत्साही को उत्साही, निरुद्यमी को उद्यमी, असंयमी को संयमी, विचारहीन को विचारशील, अज्ञानी को ज्ञानी, अभक्त को भक्त, आसक्त कर्मनिरत को निरासक्त कर्मनिरत, अवनत को उन्नत करनेवाला और रोते को हँसानेवाला साहित्य है। जिस भाषा का साहित्यभंडार आध्यात्मिक और आधिभौतिक दोनों पक्षों के सम्पूर्ण विषयों की पुस्तकों से भरा हुआ है, उस भाषा के साहित्य से सर्वसाधारण का परम हित होगा। हमारे साहित्यसेवी विद्वान सज्जन अपनी भाषा के साहित्य-भंडार को ऐसा ही बनाने का प्रयत्न करें। जनता इसमें सहायता पहुँचावे और अपनी सरकार भी इसमें सब प्रकार से बल देने की विशेष कृपा करें।
मैं पुनः साहित्यिक विद्वानों से निवेदन करता हूँ कि वे अपने मस्तिष्क के साहित्य-भंडार की धनराशि को लेखबद्ध करके रखते जायँ । इसके लिए वे किसी पुरस्कार वा आय की इच्छा न करें। सेवा का फल लोकहित होना चाहिए ।
अपने देश में अब कई वर्षों से स्वराज्य प्राप्त है। यह हम भारतीय जनता के लिए सर्वेश्वर की असीम कृपा से अहोभाग्य है। स्वराज्य प्राप्त होने के पहले आशा थी कि स्वराज्य प्राप्त होने पर हमलोगों को सुराज्य होगा और हमलोग सुखी हो जाएँगे। परन्तु हमलोग स्वराज्य पाने पर अपने को सुखी नहीं पा रहे हैं। क्योंकि अपने में अनैतिकता, भ्रष्टाचार, केवल भौतिकता की ओर झुकाव और आध्यात्मिकता की ओर से मुख-मोड़ाव का साम्राज्य हमारे यहाँ हो गया है। इसी से स्वराज्य में हम सुराज्य नहीं देख रहे हैं और जनता दु:खी है। जैसे विदेशी शासन की प्रबल शक्ति को हमलोगों ने अनेक कष्टों और अपमानों को सहन करके अपने देश से हटाया है, उसी तरह चाहिए कि इस कथित साम्राज्य को भी हमलोग दूर कर दें। विदेशी शासन को उखाड़कर फेंकने में साहित्य और साहित्यिकों का बड़ा हाथ था। साहित्य से ही देश में स्वराज्य-प्राप्ति की प्रेरणा, ज्ञान और शक्ति मिली थी। ऊपर कथित अनैतिकता आदि के साम्राज्य को भी हमलोग साहित्य से ही बल पाकर दूर कर सकेंगे। मैं केवल संत-साहित्य ही स्वल्पातिस्वल्प अंश जानता हूँ, जिसमें कथित साम्राज्य को नष्ट करने का प्रेरण और बल मैं पाता हूँ। संत कबीर साहब कहते हैं –
‘छिमा गहो हो भाई, धर सतगुरु चरणी ध्यान रे।।
मिथ्या कपट तजो चतुराई, तजो जाति अभिमान रे।
दया दीनता समता धारो, हो जीवन मृतक समान रे।।
सुरत निरत मन पवन एक करि, सुनो शब्द धुन तान रे।
कहै कबीर पहुँचो सतलोका, जहाँ रहै पुरुष अमान रे।।’

इस अमृतमय शब्द को समझकर इसमें निहित सदुपदेशों के अनुकूल यदि लोग आचरण करें, तो वे झूठ, चोरी, चोरबाजारी, घूसखोरी, घृणित स्वार्थ, पर-पीड़न, धूर्तता और कपट आदि जो सुराज्य के परम बाधक हैं और जनता के परम दुखदायी हैं, सबको छोड़ देंगे। देश में सुराज्य होगा, जनता सुखी हो जाएगी और साथ-ही-साथ मोक्ष-धर्म-साधन में भी जनता लग जाएगी, जिससे उनका परम कल्याण हो जाएगा। सन्त-साहित्य में ऐसे सदुपदेशों की प्रचुरता है, जिससे जनता को इहलोक और परलोक दोनों में सुख प्राप्त हो । वर्तमान साहित्यिकों को चाहिए कि अपनी भाषा के साहित्य के भंडार को समृद्धिशाली बनाने के लिए संत-साहित्य का अध्ययन तथा अनुसरण करें। परमात्म-भक्ति की ओर अर्थात आध्यात्मिकता की ओर का प्रेरण समाज को सदाचार-पालन की ओर प्रेरण करेगा। सदाचार पालन से सामाजिक नीति और आचरण उत्तम बनेंगे। राजनीति तथा शासनसूत्र का संचालन भी तब निर्दोष और सुखदायक होगा। इस तरह स्वराज्य में सुराज्य होगा और देशवासी सुखी हो जाएँगे।
उपर्युक्त कहे गए प्रेरणों की पुरानी और नई रचनाओं के प्रचार की देश में अत्यन्त आवश्यकता है। सबलोग इस ओर अच्छी तरह ध्यान दें और इसके व्यापक प्रचार तथा प्रसार में विशेष संलग्नता से तन, मन और धन लगाने की कृपा करें।
साहित्यिक महानुभावों से नम्र निवेदन है कि संत-रचनाओं का अर्थ साहित्यिक ज्ञान-बल के साथ-साथ संतों के पारिभाषिक शब्दार्थ-बल तथा संत-साधना-बल को मिलाकर करने की कृपा करें, तो संभव है कि उनमें त्रुटि नहीं रहने पाएगी। संत-साधना की युक्ति जानकर साधन करते हुए तथा उसमें निरन्तर बढ़ते रहकर रहस्य का ज्ञान अनुभूति के द्वारा प्राप्त होने पर संत-वाणी का शुद्ध बोध होना संभव है। भूगोल के पुस्तकीय ज्ञान, भूमंडल-भ्रमण करने के व्यावहारिक ज्ञान में अवश्य ही अन्तर होना चाहिए। इसी तरह संत-साहित्य के केवल साहित्यिक ज्ञान तथा संत-साधना-साधक के ज्ञान में अन्तर मानना चाहिए। अब अपने देश और अपनी भाषा के नामों के विषय में कुछ कहना मुझे आवश्यक जान पड़ता है।
क्या हमलोग अपने को ‘हिन्दू’ ही कहते रहें ? क्या अपने देश को हिन्द वा हिन्दुस्तान ही कहें ? क्या अपनी भाषा को हमलोग हिन्दी ही कहें ? ‘साहित्यालाप’ में उच्च कोटि के साहित्यिक श्री महावीर प्रसाद द्विवेदीजी ने लिखा है- ‘हिन्द’ शब्द फारसी भाषा का है। फारसी ‘हिन्द’ बहुत पुराना है । उसका प्रचार इस देश में मुसलमानों के द्वारा हुआ।’ ‘फारसी भाषा में ‘हिन्दू’ शब्द जो काले के अर्थ में व्यवहृत होता है, वह मुसलमानों की कृपा का फल है।’ जबकि ‘हिन्द’ और ‘हिन्दू’ शब्दों के विषय में उपर्युक्त जानकारी है, तब ‘हिन्द’ और ‘हिन्दू’ शब्दों का अर्थ फारसी-कोष में जो दिया गया है वही मानना ठीक है, न कि संस्कृत के अनुकूल मानना ठीक है। यदि हमारे पूर्वजों के द्वारा ‘हिन्द’ शब्द अपने देश के लिए और ‘हिन्दू’ शब्द अपने लिए रखे गए होते और मुसलमानों के द्वारा प्रचार के पहले से ही ऐसा हुआ होता तो ‘हिन्द शब्द फारसी भाषा का है,’ कहने का कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता है। जिनलोगों ने हमारे देश के नामकरण के लिए फारसी का शब्द ‘हिन्द’ रखा और हमको ‘हिन्दू’ कहा, उन्होंने ही इन शब्दों का प्रचार हमारे देश में किया तो उनका ही अर्थ न्यायत: संसार को उचित जँचेगा, न कि संस्कृतवाला अर्थ । लोग यह भी कहा करते हैं कि अफगानिस्तान, कंधार, ईरान और अरब इत्यादि के रहनेवाले ‘स’ का उच्चारण नहीं कर सकते। उन्होंने ‘सिंधु’ नदी को ‘हिन्द’ कहा और उसी से ‘हिन्दू’ और ‘हिन्दुस्तान’ बने हैं। फारसी लिपि में चार ‘स’ है – से, सीन, शीन और साद । ये लोग ‘सुभान अल्लाह’, ‘शख्स’, ‘साहब’, ‘गुलशन’ और ‘शाह’ आदि बोल सकते हैं, पर ‘सिन्ध’ वे नहीं बोल सकते, यह कैसे विश्वास किया जाय? ‘सिन्ध’ को ‘हिन्द’ कहने से समस्त भारतवर्ष का नाम ‘हिन्द’ हो गया, पर सिन्ध प्रांत का नाम सिन्ध ही रह गया । ‘हमारे ‘सप्ताह’ को उन्होंने हफ्ता कहा है।’ ‘वे स के बदले ह कहा करते हैं।’ इसके पुष्टिकरण के लिए कुछ लोग उपर्युक्त प्रमाण भी देते हैं, पर यह प्रमाण भी संतुष्ट नहीं करता।
‘साहित्यालाप’ में संस्कृत-व्याकरण के अनुसार ‘हिन्द’ और ‘हिन्दू’ शब्दों को संस्कृत शब्द सिद्ध किया गया है और अर्थ- ‘हिंसा करनेवाले को खंडन करनेवाले अथवा संताप पहुँचानेवाला’ कहा गया है। यह भी कहा गया है कि ‘हिन्दू’ शब्द का प्रयोग संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। एक स्थल में उसका अर्थ भी लिखा है- ‘हीन लोगों पर दोषारोपण करे, उसे ‘हिन्दू’ कहते हैं।’ भेद इतना ही है कि यहाँ ‘हिंसक’ अर्थ न लेकर ‘हीन’ लिखा गया है। प्राचीन संस्कृत-ग्रंथ के अनुसार जब ‘हीन’ अर्थ किया है, तब उस स्थान पर जो ‘हिंसक’ अर्थ कहा गया है, तो बतलाना चाहिए था कि दोनों में से कौन-सा अर्थ शुद्ध और पूर्ण है ? और उद्धरणों के सहित उन प्राचीन ग्रंथों के नामों को भी लिखकर बता देना चाहिए था। यह भी बता देना चाहिए था कि संस्कृत भाषा-विज्ञान के अनुकूल उन प्राचीन संस्कृत ग्रंथों की प्राचीनता कितनी है ? परंतु ये सब कुछ नहीं बतलाए गए हैं। अतएव मैं ‘साहित्यालाप’ से भी हिन्द, हिन्दू, हिन्दुस्तान और हिन्दी के अर्थों के विषय में संतुष्ट नहीं हूँ। क्योंकि हमलोग मुसलमानों के राजत्वकाल से अपने को ‘हिन्दू’ कहते और कहलाते चले आ रहे हैं, इसीलिए हिन्दू, हिन्द, हिन्दुस्तान और हिन्दी शब्दों को महत्व देकर अपना लें, यह मुझे उचित नहीं जँचता। मुझे तो काला, गुलाम और चोर आदि अर्थवाले शब्द से अपने को अलग रखना ही अच्छा मालूम पड़ता है। ‘गुलाम’, ‘गुलाम का देश’ और ‘गुलाम की भाषा’ अर्थवाले शब्दों से संसार की दृष्टि में अपने को हेयतर दर्शाना हमारे लिए अत्यन्त अयोग्य है।
‘महाभारत-युद्धकाल’ में और उसके बाद ‘महाभारत’ पुस्तक बनने के समय तक तथा बौद्ध और जैनकाल तक भी हमारे पूर्वज अपने को ‘हिन्दू’ अपने देश को ‘हिन्दुस्तान’ और अपनी भाषा को ‘हिन्दी’ संभवतः नहीं कहते थे। कर्मकांड में कुछ संकल्प कराते समय हमको हमारे पुरोहित आर्यावर्ते, भरतखण्डे आदि पढ़ाते हैं, न कि हिन्दे वा हिन्दुस्ताने । इससे अच्छी तरह विदित होता है कि मुसलमानों के द्वारा हिन्द वा हिन्दुस्तान और हिन्दू शब्दों के प्रचार के पहले हमारे पूर्वज अपने देश को हिन्द वा हिन्दुस्तान और अपने को ‘हिन्द नहीं कहा करते थे। इस तरह जानकर अपनी भाषा को हम ‘हिन्दी’ कहें, यह उचित नहीं जँचता। ऐसा कौन है जो अपने-अपने देश तथा अपनी भाषा के लिए घृणित और घोर अपमानजनक शब्दों को सहन करे और रखे रहे ? हमको हेय और नीच दृष्टि से देखनेवाले लोगों द्वारा दिए गए जिन शब्दों से अपना घोर अपमान किया गया जानने में आता है, उन शब्दों का अर्थ आदरसूचक मानकर अपने लिए रहने देना मुझे उचित नहीं जँचता । ‘साहित्यालाप’ में फारसी ‘हिन्दी’ बहुत पुराना है, लिखा गया है और फिर दूसरी जगह उस शब्द को संस्कृत का शब्द सिद्ध किया गया है। ‘हिन्द’ शब्द को फारसी कहना और फिर उसको संस्कृत बना लेना मुझे अयुक्त प्रतीत होता है। तब यह भी विश्वास होने लगता है कि ‘हिन्दू’ शब्द को भी इसी तरह संस्कृत बनाया गया है और बनाया जाता है। यदि हमारे पूर्वज अपने को ‘हिन्दू’ कहे होते और उनके लिए यह शब्द उसी काल में अधिक प्रचलित हुआ होता तो फारसवाले ‘हिन्दू’ शब्द की उत्पत्ति ‘हिन्दू’ शब्द से किए होते। परन्तु ऐसा प्रतीत नहीं होता है । ‘साहित्यालाप’ को संस्कृत ‘हिन्द’ से ‘हिन्द’ शब्द की उत्पत्ति संभव मालूम होता है। जबकि ‘हिन्द’ को संस्कृत भाषा का शब्द सिद्ध किया गया है, तब फिर उसकी उत्पत्ति ‘हिन्द’ से फारसवाले किए हों और वह शब्द फारसी बन गया, इस प्रकार का कथन मुझे संतुष्ट नहीं करता। यदि हमारे पूर्वज अपने को ‘हिन्दू’ कहे होते तो अपने देश को भी ‘हिन्दुस्थान’ अवश्य कहते, हिन्दुस्तान नहीं । देश के लिए जिन वीरों ने विदेशी शासन की दृढ़ और भारी जंजीर को तोड़ डाला है, उनके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं कि वे हिन्द, हिन्दुस्तान, हिन्दू और हिन्दी शब्दों को हटाकर अपने देश, अपने और अपनी भाषा के लिए दूसरे शोभनीय शब्दों का व्यवहार करें। जबतक मैं अपने विद्वान और शासनसूत्र-संचालकों द्वारा दूसरे शोभनीय शब्दों को स्थिर किया हुआ नहीं पाऊँगा, तबतक मैं अपने देश को ‘भारत’ अपने को ‘भारतीय’ और अपनी भाषा को ‘भारती’ कहा करूँगा। अतएव मैं इस साहित्य सम्मेलन को ‘भारती साहित्य-सम्मेलन’ कहता हूँ।
मुझे ज्ञात हुआ है कि साहित्य-सम्मेलन के लिए कार्यालय तथा कला-भवन बनाने की माँग कई वर्षों से चली आ रही है। इस माँग की पूर्ति करके साहित्य की उन्नति करने में कार्यकर्ताओं को सहयोग और साहस देना परमोचित है। अपने जिला के साहित्य-सम्मेलन के सदस्यों और हितैषियों से मैं निवेदन करता हूँ कि वे इस ओर कृपया अपना पूरा ध्यान दें।
मैं ‘भारती भाषा’ जिसको अनेक लोग अभी ‘हिन्दी भाषा’ कहते हैं, के साहित्य की पूर्ण उन्नति चाहता हूँ। जो सज्जनवृन्द इस उन्नति में सफल सचेष्ट हैं, उनको अनेकानेक धन्यवाद देता हूँ। उनकी इस उदारता पर तो मैं अत्यन्त मुग्ध हूँ कि ये मुझसे अयोग्य का भी आदर करते हैं। मैं इसलिए इनको पुन: धन्यवाद देता हूँ। मैं परम प्रभु परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि उनकी शुभ उन्नतियाँ हों और ये उत्तरोत्तर सफल होते जायें ।


हे प्यारे विद्वान महोदयगण ! आपके सामने जो धृष्टता और भूलें मैने की हों, उसके लिए आप कृपाकर मुझे क्षमा करें।
सत्संग-सेवक ‘मेंही’
श्री संतमत-सत्संग-मंदिर, श्री गंगातट-कुटी, ग्राम-मनिहारी
आपके भाषण में व्यक्त किए गए विचारों ने सम्मेलन के साहित्यिकों के हृदय में एक उद्वेग, एक उद्वेलन पैदा कर दिया । एक विचार होने लगा कि अब से ‘हिन्दी साहित्य-सम्मेलन’ का नाम ‘भारती साहित्य-सम्मेलन’ रखा जाय; क्योंकि दूसरों ने हीनवृत्ति और हेय दृष्टि से हिन्दू, हिन्दी एवं हिन्दुस्तान नाम हमारे लिए रख दिया है। इस लांछना, तिरस्कार एवं दुर्भाव भरे नाम को स्वीकार करना सारे विश्व की दृष्टि में अपने को हेय मानने की स्वीकृति देना है। अतः सारे विरोधों, खतरों एवं कठिनाइयों से संघर्ष लेते हुए हमें अपना न्यायपूर्ण, सत्य और वास्तविक स्वत्व स्थापित करना चाहिए। आज से अपने, अपनी भाषा और अपने देश के लिए हमलोगों को सुदृढ़ निश्चय के साथ भारतीय, भारती एवं भारत शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिए। परन्तु स्वत्व की नव स्थापना के लिए जिन्होंने अपने अन्तर में अदम्य शक्ति और साहस का अभाव पाया, उन्होंने परिस्थिति के दबावों की व्यापकता का उल्लेख करते हुए कहा- ‘अभी हमलोगों का देशव्यापी राष्ट्रभाषा का आन्दोलन ‘हिन्दी’ के नाम से ही चल रहा है। देश के एक महान नेता महामान्य राजगोपालाचारी जैसे लोग भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन करने का विरोधकर रहे हैं। मद्रास, दक्षिण भारत, महाराष्ट्र और बंगाल भी हिन्दी-राष्ट्रभाषा का घोर विरोध कर रहे हैं। इधर राष्ट्रभाषा परिषद की ओर से हिन्दी को राष्ट्रभाषा की मान्यता दिलाने के लिए घोर प्रयत्न किया जा रहा है। इस एक जबरदस्त संघर्ष के बीच यदि हम राष्ट्रभाषा का ‘हिन्दी’ नाम बदलकर भारती नाम रखते हैं, तो एक और नवीन संघर्ष बढ़ जाएगा। जिसमें व्यर्थ हमारी शक्ति का क्षय होगा। अतः अभी ‘हिन्दी राष्ट्रभाषा’ का आन्दोलन सफल बना लेने के बाद ही हम ‘नाम परिवर्तन’ का आन्दोलन करेंगे और उस समय हम थोड़ी कठिनाई से ही इस समस्या को हल कर सकेंगे। सम्मेलन के सभापति महर्षि मेँहीँ परमहंसजी का सुझाव अवश्य ही अत्युत्तम है, पर अभी इस जटिल परिस्थिति में हमलोग “हिन्दी’ नाम को ही बनाए रखना आवश्यक समझते हैं।’
इस विषय में रात्रि आठ बजे श्री शिवपूजन सहायजी एवं महर्षि मेँहीँ परमहंसजी से वार्ता हुई। महर्षिजी ने कहा- ‘भारतीय संविधान ने इस देश का नाम ‘भारतवर्ष’ रखकर यहाँ के निवासियों का नाम ‘भारतीय’ तो रख ही दिया । इसी नाम के अनुसार यहाँ की राष्ट्रभाषा का नाम ‘भारती’ रख लेने से मुझे प्रसन्नता होती, किन्तु यही नाम रखा जाय, ऐसा मेरा आग्रह नहीं है। मेरा इतना ही निवेदन है कि गुलामों की भाषा सूचक ‘हिन्दी’ नाम के स्थान पर कोई दूसरा शुभ नामकरण कर लिया जाय ।’
यह सुनकर बाबू श्री शिवपूजन सहायजी ने अपनी लाचारी प्रगट करते हुए कहा- “स्वामीजी ! मैं व्यक्तिगत रूप से आपके विचारों से पूर्ण सहमत हूँ, किन्तु परिस्थिति यह है कि ‘हिन्दी राष्ट्रभाषा आन्दोलन’ अब सफलता के समीप पहुँच रहा है, इस समय इसमें एक नया आन्दोलन जोड़ देने से संभव है इसकी सफलता विफलता में नहीं तो दूर अवश्य ही चली जाएगी। मैं स्वयं अस्वस्थ रहा करता हूँ और मुझमें एक नए आन्दोलन को प्रारम्भ कर उसे सँभाल सकने की सामर्थ्य नहीं है। अत: आपके विचारों से सहमत होते हुए भी वर्तमान परिस्थिति में उसे कार्यरूप में परिणत करना मेरे लिए संभव नहीं है।”
डॉक्टर अमरनाथ झाजी, श्री लक्ष्मीनारायण ‘सुधांशुजी’ महर्षिजी के विचारों से पूर्ण सहमत थे, पर सामूहिक राय श्री शिवपूजन सहायजी के पक्ष में ही रही। श्री ‘सुधांशुजी’ ने अपने सम्पादकत्व में निकलनेवाली पत्रिका ‘अवन्तिका’ में महर्षिजी के विचारों का उल्लेख करते हुए युक्तिपूर्वक उसका समर्थन किया और उक्त विचारों को सारे भारत के साहित्यिकों में प्रचारित-प्रसारित किया ।
श्री लक्ष्मीनारायण ‘सुधांशुजी’ के सत्प्रयत्नों से राष्ट्रभाषा के इस हीनता सूचक नाम से अवश्य ही राष्ट्र के महत्त्व को सुप्रतिष्ठित करनेवाले विद्वत्गण परिचित हो गए हैं, किन्तु अभीतक उनके प्रयत्नों में इस हीनता-निराकरण के यत्न दृष्टिगोचर नहीं हो रहे ।


61.

 गीता-विषय पर आचार्य विनोबाजी से पत्राचार और एकान्त वार्ता

१९५३ ईस्वी में आचार्य विनोबाजी की पद-यात्रा चल रही थी। प्रत्येक सभा में उनके भाषणों के उपरान्त उनकी लिखी पुस्तक ‘गीता-प्रवचन’ बिक्री होती थी, जिस पर आचार्य विनोबाजी लिख दिया करते–
‘नित्य पठनीय। -विनोबा  
“आज के युग में गीता’ के सही निर्देश आचार्य विनोबा के ‘गीता-प्रवचन’ में ही मिलते हैं” ऐसा प्रचार फैल रहा था। प्रसिद्धि सुनकर महर्षि मेँहीँ परमहंसजी ने भी ‘गीताप्रवचन’ की एक प्रति खरीदी और उसे अनुशीलन सहित आद्योपान्त पढ़ गए। अध्ययन कर लेने के बाद आप विचार करने लगे- “आजतक ‘श्री मद्भगवद्गीता’ पर अनेकों भाषा में उसके भाष्य, व्याख्या, टीका और अर्थ निकल चुके हैं। लोकमान्य तिलक के ‘गीता-रहस्य’, महात्मा गाँधीजी के ‘अनासक्तियोग’, योगी श्री भूपेन्द्रनाथ सान्यालजी के ‘गीता-भाष्य’ आदि कितने भाष्य-ग्रंथ निकल चुके हैं , पर उनमें गीता के मूल विचारों का कहीं हनन नहीं किया गया है। श्री विनोबाजी, जो आज देशभर में ‘संत विनोबा’ के नाम से विख्यात हो रहे हैं, उनके गीता-प्रवचन में, गीता प्रतिपादित भावों से भिन्न ही नहीं -विरोधी भाव पढ़कर मेरी बुद्धि असमंजस में पड़ गयी है।” ऐसा विचारते हुए आपने पहले आचार्य विनोबाजी से मिलकर अपनी असमंजसता निवारण करने की चेष्टा की, किन्तु मिलने की अनुकूल संभावना नहीं पाने से आपने विनयपूर्वक आचार्य विनोबाजी की सेवा में निम्नलिखित पत्र प्रेषित किया .............................

।।ॐ।।
श्री संतमत-सत्संग-मंदिर
मधुबनी
२६.११.१९५३ ईस्वी

पूज्यपाद संत विनोबा भावे महोदयजी की सेवा में सादर निवेदन ।
प्रणाम ।
आपका ‘भूदान-यज्ञ’ वर्तमान स्थिति में अपने देश के लिए अवश्य मंगलकारी है, मुझे ऐसा विश्वास हो रहा है। आपने इस यज्ञ के लिए जो महाप्रयास किया है और कर रहे हैं, इसके लिए कोई कितना भी आपको धन्यवाद दे, कम ही होगा। मैं परम प्रभु परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि वे आपको इस अद्भुत और महान-यज्ञ कार्य में पूरी सफलता प्रदान करें ।
मैं भी इस महान यज्ञ में आहुति देने के लिए अल्पातिअल्प समिधा ‘भूदान-यज्ञ’ दान-पत्र के द्वारा अर्पण करता हूँ, जो एक तिनके की नोंक से उठाकर हवन कुण्ड में आहुति देने तुल्य है। क्योंकि-
‘संत ही में सब बाँटई, रोटी में से टूक।
कह कबीर ता दास को, पड़े कब हूँ नहिं चूक।।’
मैं सत्संग-प्रचार के साथ-साथ इस यज्ञ की उपादेयता के बारे में भी कह दिया करता हूँ । मेरे परिचय के बारे में श्री मान बाबू बैद्यनाथ प्रसाद चौधरी महोदयजी से आप जान सकेंगे।
मैंने आपका ‘गीता-प्रवचन’ पढ़ा है। उसमें कई बातें आपसे पूछकर जानने की मुझे आवश्यकता जान पड़ रही है। वे नीचे लिखी जाती है। मैं यहाँ से कल्ह इसी जिले में सिकटी थाने के इलाके में नेपाल राज्य की सीमा के पास के एक सत्संग-मंदिर में जाने की यात्रा करूँगा। पुरोगम पहले से ही बना हुआ है और आपसे मिलने का समय ११:३० बजे से १२:३० बजे तक एक ही घंटे का समय है। आपसे मिलनेवाले बहुत हो सकते हैं। अल्पकाल में बातचीत नहीं हो सकेगी, अतएव पत्र लिखकर आपको कष्ट दे रहा हूँ। कृपया क्षमा कीजिएगा और उत्तर लिखने का भी कुछ कष्ट उठाइएगा। आपसे मिलने के समय के बाद आपके विश्राम का समय है । उसमें मैं आपको बाधा देना नहीं चाहता । अतएव मैं आपके दर्शन नहीं कर सका । इसके लिए भी क्षमा कीजिएगा। आपसे पूछने की बातें -

(१) श्री मद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय में अपान को प्राणवायु में होमने, प्राणायाम में तत्पर रहने तथा प्राण-अपान दोनों का अवरोध करने की बातें हैं और इस तरह की कई होमों की बातें हैं। आपने ‘गीता-प्रवचन’ में इन होमों पर प्रकाश नहीं डाला कि इन होमों की उपादेयता तथा इनके सम्पादन-कर्म लोगों को जानने में आवें । क्या, ये बातें गीता के गौण विषय हैं अथवा इनकी उपादेयता तुच्छ है या हई नहीं है?

(२) छठे अध्याय में ध्यानयोग की विधि और उसकी उपादेयता की बातें हैं, इसपर भी आपने विशेष प्रकाश ‘गीता-प्रवचन’ में नहीं डाला है। इसका क्या हेतु है ?

(३) ‘गीता-प्रवचन’ के इसी छठे अध्याय, पृष्ठ ७६ में है-
‘आप आसन जमाकर तनकर बैठ जाइए, आँख स्थिर कर लीजिए । परन्तु इतने से मन एकाग्र नहीं हो सकेगा। मुख्य बात यह है कि मन का चक्र चलना बन्द होना चाहिए।’
श्री मद्भगवद्गीता की विधि से यदि आसन जमाकर तनकर बैठा जाय और आँखें स्थिर कर ली जायँ और जो लक्ष्य उसमें बतलाया गया है, उस लक्ष्य पर मन को ठहराया जाय तो मन का चक्र चलना बन्द होगा या नहीं ? यदि वह बन्द होगा और शरीर, ग्रीवा एवं मस्तक को सीधा रख बैठने में यदि कोई विशेष रहस्य और लाभ है तो वे रहस्य और लाभ क्या है ? यदि इन बातों में कोई लाभ नहीं है तो भगवान कृष्ण ने इन बातों का उपदेश क्यों दिया ? इन सब बातों पर आपने विशेष रूप से प्रकाश नहीं डाला है, इसका क्या कारण है?

(४) आपका कहना है- ‘मन में सद्विचारों का पुन:-पुनः चिंतन करना अभ्यास कहलाता है।’
श्री मद्भगवद्गीता के छठे अध्याय के अनुसार क्या केवल यही अभ्यास है? इस अध्याय के तेरहवें और चौदहवें श्लोकों में जिस क्रिया द्वारा ध्यानयोग करने कहा गया है, उसमें जो लक्ष्य बतलाया गया है, उस लक्ष्य पर बारम्बार मन को लाकर लगा रखने को अभ्यास कहा जाय या नहीं? यदि नहीं तो किसलिए? यदि यह अभ्यास कहा जाएगा तो आपने पूर्णरूपेण व्यक्त क्यों नहीं किया ? क्या इसकी कोई उपादेयता नहीं है ?

(५) पाँचवें अध्याय के ‘गीता-प्रवचन’ के ६८वें पृष्ठ में आपका कहना है—’सगुण में सब इन्द्रियों के लिए काम है, निर्गुण में ऐसा नहीं है। निर्गुण में हाथ बेकार, आँख बेकार, सब इन्द्रियाँ कर्मशून्य ही रहती हैं । साधक से यह सब नहीं सध सकता। परन्तु सगुण में ऐसी बात नहीं है। आँखों से रूप देख सकते हैं , कानों से कीर्तन सुन सकते हैं , हाथ से पूजा कर सकते हैं , लोगों की सेवा की जा सकती है, पाँव से तीर्थ यात्रा होती है इस तरह सब इन्द्रियों को काम देकर उनसे वैसा-वैसा काम कराते हुए धीरे-धीरे उन्हें हरिमय बना देना सगुण में शक्य रहता है, किन्तु निर्गुण में ये बन्द–जीभ बन्द, कान बन्द, हाथ-पैर बन्द । यह सारा बन्दी प्रकार देखकर बेचारा साधक घबड़ा जाता है। उसके चित्त में निर्गुण बैठेगा कैसे ?’
संतों के निर्गुण-वर्णन के प्रेममय बहुत से पद्य हैं, उनके गाने और सुनने में मुँह और कान क्या काम नहीं करते ? जहाँ ऐसे कीर्तन होते हों, वहाँ जाने में क्या पैर काम नहीं करता? इस तरह निर्गुण की ओर लगाकर इन्द्रियों से काम लेना नहीं हुआ?

(६) ‘गीता-प्रवचन’ पृष्ठ १७३ में है- ‘सगुण पहिले, परंतु उसके बाद निर्गुण की सीढी आनी ही चाहिए, नहीं तो परिपूर्णता नहीं होगी।’
कृपया बतावें कि किस क्रम के साधनाभ्यास से निर्गुण की सीढ़ी पर पहुँच होगी? प्रत्यक्ष इन्द्रियगोचर पिंडों में विचार द्वारा निर्गुण का चिंतन करते रहना क्या यही निर्गुण सीढ़ी पर चढ़ना है? क्या मन और बुद्धि से निर्गुण ग्रहण हो सकता है ? मन और बुद्धि सगुण है वा निर्गुण ? आत्मा को श्री मद्भगवद्गीता में त्रैगुणातीत और मन-बुद्धि से परे कहा गया है, क्या यह ठीक है ? यदि है तो बुद्धि-विचार तथा मनोमय चिंतन से निर्गुण-सीढ़ी पर आरूढ़ होना कैसे संभव है ? आरंभ में ही क्या निर्गुण उपासना हो सकती है ? यदि हो सकती है तो कैसे?

(७) ‘गीता-प्रवचन’ के १६५ पृष्ठ में आपका कहना है- ‘निर्गुण में जरा खतरा है।’
और गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
‘निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुण जान नहिं कोई।।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होइ।।’
ये दोनों विचार आपस में उलटे विदित होते हैं। कृपया बतावें कि इनमें सत्य किन विचार को माना जाय?

(८) श्री मद्भगवद्गीता के आठवें अध्याय में आदित्य वर्ण का अणु-से-अणु रूप की चर्चा है और मृत्यु के समय भृकुटी के बीच में प्राण को स्थापित करने की चर्चा है। आपने इन विषयों पर लोगों की समझ में आने योग्य प्रकाश डालने की कृपा नहीं की है। इन विषयों को जानकर क्या जनता को लाभ नहीं होगा? यदि लाभ नहीं होगा तो भगवान श्री कृष्ण ने इनका उपदेश क्यों दिया है ?

(९) श्री मद्भागवत के स्कंध १० में लिखा है-
‘ब्राह्म मुहूर्ते उत्थाय वार्युपस्पृश्य माधवः।
दध्यौ प्रसन्न करणः आत्मानं तमस: परम ।।४।।अ०७०।।
अर्थात भगवान श्री कृष्ण प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्त में ही उठ जाते और हाथ-मुँह धोकर अपने मायातीत आत्मस्वरूप का ध्यान करने लगते । और भगवान श्री राम का तो ईश-भजन सारथी ही था। श्री व्यासदेवजी ने महाभारत में त्रैकाल संध्या करने के लिए बहुत जोर दिया है । उन्होंने कहा है- ‘तीनो काल योग का अभ्यास करे, जैसे पात्रों का चाहनेवाला मनुष्य पात्रों की रक्षा करता है, उसी प्रकार एकाग्रता करनेवाला इन्द्रियों के समूह को हृदयकमल में नियत करके सदैव ध्यान करे और योग से चित्त को भयभीत न करे ।’ महाभारत, शांति पर्व, पूर्वार्द्ध अध्याय ६७ ।
क्या भगवान श्री कृष्ण महाभारत युद्धकाल में नित्यप्रति संध्या नहीं कर, उस समय घोड़ों की ही परिचर्या करते थे? महाभारत में लिखा है कि जयद्रथ-वध के दिन दोपहर से दिन ढलने के बाद लड़ाई के मैदान में ही उन्होंने घोड़ों की परिचर्या की थी, संध्याकाल की संध्या करने के समय में नहीं । और उस परिचर्या के बाद घोड़ों को रथ में जोड़कर लड़ाई में प्रवृत्त होकर सूर्यास्त होते-होते अर्जुन ने जयद्रथ को मारा था । आपने ‘गीता-प्रवचन’ में क्यों कहा है कि लड़ाई समाप्त होने पर लोग संध्या करने जाते थे और भगवान श्री कृष्ण उस समय घोड़ों की परिचर्या करने जाते थे?

(१०) आपने ‘गीता-प्रवचन’ में शुभ भावना रखने की अच्छी चर्चा की है और उस सिलसिले में शुभ भावना रखनेवाले श्री नारदजी का और दुष्ट वाल्या भील का इतिहास कहा है कि वाल्या अपनी तीर-कमठी लेकर श्री नारदजी को मारने दौड़ता है और नारदजी उसे प्रेम की दृष्टि से देखते हैं और वाल्या की दुष्टता छूट जाती है और वह सुष्ट हो जाता है। यह बड़ी अच्छी कथा है, मुझको भी बहुत प्यारी लगी। परन्तु श्री नारदजी ने केवल गाने-बजानेवाले और शुभ भावना रखनेवाले ही होने का अभ्यास नहीं किया था, बल्कि उन्होंने आसन जमा कर, बाहर की ओर से अपनी सब इन्द्रियों को रोक कर, स्थिर बैठकर समाधि में आरूढ़ होने का भी अभ्यास किया था। उनका आत्मबल बहुत बढ़ा हुआ था। तब उनकी शुभ भावना बहुत बलवती थी, जिससे उनकी प्रेममयी दृष्टि से वाल्या भील दुष्ट से सुष्ट हो गया। इसमें मुझे कुछ भी सन्देह नहीं होता है। क्या अच्छा होता कि आपकी भी प्रेममयी दृष्टि श्री बैद्यनाथजी के उन उदंड और अबूझ पंडों पर होती, जिन्होंने आपको कष्ट पहुँचाया । वे भी दुष्ट से सुष्ट हो जाते । आपने ऐसी मौज क्यों नहीं की?

(११) आपने ‘गीता-प्रवचन’ में कबीर साहब के भजन की आरम्भिक एक कड़ी ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ से यह भाव व्यक्त किया है- ‘कबीर कपड़े बुनता था। उसी में निमग्न होकर वह गाता हुआ झूमता जाता, मानो परमेश्वर को ओढ़ाने के लिए वह चादर बुन रहा हो ।’ अब संत कबीर साहब के पूरे भजन को आप नीचे पढ़िए-
‘झीनी झीनी बीनी चदरिया।। टेक।।
काहे के ताना काहे के भरनी कौन तार से बीनी।
इंगला पिंगला ताना भरनी सुखमन तार से बीनी ।।च॰।।
अष्टकमलदल चरखा डोलै, पाँच तत्त गुण तीनी।
साँई को सियत मास दस लागै ठोक ठोक के बीनी।।च॰।।
सो चादर सुर नर मुनि ओढे, ओढ के मैली कीनी।
दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी।।च॰।।
अब इस पूरे भजन को विचारिए। आपके भाव और भजन से जो भाव व्यक्त होता है, दोनों एक है अथवा उलटे-पुलटे भाव है ?
जनता में अपूर्ण और भूल विचारों के प्रचार से जनता को हानि होगी या नहीं ? आपका अवतार तो संसार में लाभ पहुँचाने के लिए हुआ है। आपके इस भूदान यज्ञ से ऐसा ही विदित होता है। आपसे निर्भूल कर्म हो, यही योग्य है। जैसे शिष्ट शब्दों का आपने श्री नारदजी के लिए प्रयोग किया है, वैसे ही यदि संत कबीर साहब के लिए भी होता तो बहुत अच्छा होता ।
यदि समय अधिक मिलता और आपसे मिलने का संयोग होता तो मैं श्री मद्भगवद्गीता के विषयों का बहुत ज्ञान आपसे लाभ कर सकता। क्योंकि आप इसके विशेषज्ञ हैं। लिखित प्रश्नों के उत्तर देने की कृपा यदि आपने की तथा पत्र-द्वारा तद्विषयक और बातें पूछने की आपने आज्ञा दी तो मैं फिर पत्र लिखकर अपनी अज्ञानता दूर करूँगा और आपका आभारी रहूँगा।
मैं यद्यपि ६९वें वर्ष वयस के बूढ़ापे में गुजर रहा हूँ, तथापि ज्ञान-संबंध में निरा बालक ही हूँ। कृपया मेरी धृष्टता को क्षमा कीजिएगा।

विशेष शुभेति ।
सत्संग सेवक
--मेँहीँ


महर्षिजी के उपर्युक्त पत्र का उत्तर आचार्य विनोबाजी ने लोक नागरी लिपि में लिखकर भेजा था। वह निम्नलिखित है-

१५७७ १.१२.५३
१.१२ वागनगर
लोक नागरी लिपि

श्री मेँहीँ
पत्र मिला है।
कभी मिलने का मौका आए तो चर्चा कर सकते हैं। अपने अनुभव की मरजादा में ही मनुष्य बोल सकता है।
विनोबा के प्रणाम

स्थायी पता -
नेशनल हॉल पटना-३

आचार्य विनोबाजी के पत्रोत्तर से महर्षिजी मिलने की संभावना का विचार करने लगे। पत्र में प्रश्नों का कोई समाधानकारी उत्तर नहीं मिला है, यह जानकर श्री बैद्यनाथ प्रसाद चौधरीजी, जो भारत के स्वातन्त्र्य संग्राम में स्वराज्य आश्रम, टीकापट्टी से पूर्णियाँ जिले का युद्ध-संचालन महात्मा गाँधीजी के निर्देशानुसार करते रहे और आजादी पाने के बाद सर्वोदय आश्रम, रानीपतरा में आचार्य विनोबाजी के निर्देशानुसार रचनात्मक कार्य कर रहे हैं और भूदान यज्ञ के एक कर्मठ नेता भी हैं —उन्होंने दोनों महान आत्माओं के सम्मिलन के लिए हार्दिक प्रयत्न किया । जब आचार्य विनोबाजी की भूदान यज्ञीय पद-यात्रा पूर्णियाँ मंडल में हो रही थी, उस अवसर पर श्री बैद्यनाथ बाबू ने एक दिन मनिहारी पदार्पण का भी कार्यक्रम रखा और महर्षिजी से श्री मद्भगवद्गीता विषयक वार्ता करने के लिए आचार्य विनोबाजी से विशेष अनुरोधपूर्ण विनय किया। सम्मिलन की आयोजना को सफल बनाने के लिए श्री बैद्यनाथ बाबू ने आचार्य विनोबाजी के शुभागमन की तिथि और समय की सूचना प्रदान करते हुए महर्षिजी को भी उक्त अवसर पर मनिहारी में उपस्थित रहने के लिए पत्र द्वारा निवेदन किया-
‘अमुक तिथि को संत विनोबाजी मनिहारी पहूँच रहे हैं। मैंने उनसे बातें कर आपसे मिलने के लिए समय भी निर्धारित करवा लिया है। अत: निवेदन है कि आप भी उक्त समय पर मनिहारी पहुँच जायँ और संत विनोबाजी से मिलने का कष्ट करें। हम भूदान-कार्यकर्ताओं की प्रबल अभिलाषा है कि मनिहारी में हमलोग ‘संतद्वय’ का पवित्र मिलन देखें ।’
श्री बैद्यनाथ बाबू का पत्र प्राप्तकर महर्षिजी भी मनिहारी आ गए और निर्धारित तिथि को आचार्य विनोबाजी भी पधारे। उन्हें उच्च विद्यालय, मनिहारी में निवास दिया गया । अहोरात्रि के मिलन काल में ‘संतद्वय’ की मिलन-वेला भी निर्धारित की गई। महर्षिजी प्रमुख सत्संगियों के साथ उच्च विद्यालय पहुँचे । देखने के लिए दर्शकों की भीड़ उमड़ पड़ी। वहाँ के प्रबन्धकों ने शान्ति-व्यवस्था के लिए केवल तीन ही व्यक्तियों को महर्षिजी के साथ जाने दिया, श्री बैद्यनाथ प्रसाद चौधरीजी, श्री लक्ष्मी प्रसाद चौधरीजी, मंत्री अ॰भा॰ सत्संग महासमिति तथा ‘संतसेवी’ श्री महावीरजी। कमरे में प्रवेश करते ही आचार्य विनोबाजी अपने आसन से उठकर खड़े हो गए। और दोनों गले-गले मिलकर खूब हँसे । दर्शकों में यह मिलन देखने की पूरी उतावली छायी रही।
कुशल-वार्ता के उपरान्त पत्र-प्रेषित प्रश्नों की चर्चा चली, किन्तु भावावेग में आचार्य विनोबाजी अपनी पारिवारिक-चर्चा करने लग गए। पुनः भूदान यज्ञ की विविध दिशाओं की चर्चा की; अन्त में गीता विषयक चर्चा करते हुए ध्यानयोग की उपादेयता पर बातें होने लगीं। विविध भाँति के विचार उपस्थित हुए। अन्त में आचार्य विनोबा भावेजी ने कहा- ‘हाँ, ध्यानयोग सबसे उत्तम योग तो अवश्य है, किन्तु इच्छा रखते हुए भी मैं इस क्रम को निभा नहीं सकता हूँ; क्योंकि भूदान-यज्ञ तथा सम्पत्ति-दान-यज्ञ में मेरा सारा नहीं तो अधिकांश समय अवश्य ही लग जाता है और इस आन्दोलन को चलाने के लिए ऐसा करना जरूरी भी है।’
यह सुनकर महर्षिजी ने निवेदन किया- ‘हाँ, मैं मानता हूँ कि आपका अधिकांश समय इन यज्ञों के संचालन संबंधी विविध कार्यों में लग जाता है. किन्तु उसी समय में से कुछ समय यदि आप ध्यान के लिए भी निकाल लिया करें तो सोना में सुगन्ध ।’
यह सुनकर आचार्य विनोबाजी कहने लगे—’मैं बचपन में खूब प्राणायाम किया करता था । ध्यान में भी मैंने अपना बहुत समय लगाया है और इस समय भी मैं कुछ ध्यान कर लिया करता हूँ, पर आप जितना जोर देते हैं, उतना समय मैं इसमें नहीं लगाता हूँ।’
अन्त में दोनों महान आत्माओं ने परस्पर प्रणाम कर मुस्कुराते हुए एक दूसरे से विदाई ली।
इस वार्ता के उपरान्त आपने बोध किया कि गीता में मानवता के कल्याण के लिए जो दिव्य प्रकाश उपस्थित किया है, वह केवल बुद्धि के चकाचौंध भरे धुंधले ज्ञान के आवरण से कहीं आच्छन्न न हो जाय, इसलिए आपने अपने श्रवण, मनन, निदिध्यासन और अनुभव के प्रकाश में गीता-प्रतिपादित योग का जो स्वरूप देखा, उसे संक्षिप्त निर्देश के रूप में ‘गीता-योग-प्रकाश’ के नाम से प्रकाशित किया है। उसकी आवश्यकता क्यों समझी गयी, यह ‘गीता-योग-प्रकाश’ में लिखी उनकी भूमिका और पुस्तक में प्रतिपादित किए गए विचारों को पढ़कर जानिए । भूमिका के कुछ अंश यहाँ संकेत के हेतु से लिखे जाते हैं-
‘भारत के एक वृहत् ग्रंथ का नाम ‘महाभारत’ है। ……………… यह केवल भारत ही नहीं, वरंच सम्पूर्ण विश्व में विख्यात है।’
‘(महाभारत के) भीष्म पर्व के एक छोटे से भाग का नाम ‘श्री मद्भगवद्गीता’ है। ‘श्री मद्भगवद्गीता’ का अर्थ भगवान कृष्ण के द्वारा गाया हुआ गीत है। इसीलिए इसकी पद्यात्मक भाषा में तार (टेलीग्राम) द्वारा भेजे गए संदेश की-सी संक्षिप्तता है।’
‘(गीता के) नौ हजार, चार सौ छप्पन पद्यबद्ध शब्दों में उपनिषदों का सारांश आ गया है। इसीलिए इस पुस्तिका की बड़ी महत्ता है। यह तेजस्विनी पुस्तिका भारत की अध्यात्म-विद्या की सबसे बडी देन है।’
‘भारत आदिकाल से अध्यात्म-ज्ञान और योग-विद्या का देश रहा है।’
‘इस देश को सर्वाधिक गौरव उपर्युक्त विद्याओं का है और इन विद्याओं को ‘श्री मद्भगवद्गीता’ पर गौरव है।’
………… भारतवन्द्या यह पुस्तिका अब विश्ववन्द्या हो चुकी है। …….. अतएव जगद्गुरु भारत के प्रत्येक नागरिक का यह नैतिक उत्तरदायित्व है कि वह ग्रंथ का सही तात्पर्य स्वयं समझे और अन्यों को समझावे ।’
‘इस उत्तरदायित्व को निबाहने में तनिक भी प्रमाद असावधानी या भ्रम, न केवल भारत, बल्कि विश्व की आध्यात्मिक उन्नति के लिए घातक है।’
‘अब प्रश्न यह है कि गीता का सही तात्पर्य क्या है? ऐहिक एवं पारमार्थिक कल्याण साथ-साथ करते हुए मनुष्य कैसे समता प्राप्त करे और किस तरह कर्म करता हुआ समाधिस्थ हो स्थितप्रज्ञता तक पहुँच सके, इसी के साधन इस शास्त्र में युक्तियुक्त रीति से बतलाए गए हैं। इस साधन की पूर्णता के लिए योग का अभ्यास आवश्यक है।’
‘गीता स्थितप्रज्ञता को सर्वोच्च योग्यता कहती है और उसकी प्राप्ति का मार्ग बताती है।’
‘स्थितप्रज्ञता बिना समाधि के संभव नहीं है।
‘समाधि-साधन के लिए जिन योगों की आवश्यकता है, उन सबका समावेश गीता में है। गीता-शास्त्र के ज्ञानयोग, ध्यानयोग, प्राणायामयोग, जपयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि सभी योगों की भरपूर उपादेयता है। सब एक दूसरे से सम्बद्ध हैं और इस तरह सम्बद्ध हैं - जैसे माला की मणिकाएँ।’
‘अब अगर कोई कहें कि अमुक योग के अभ्यास करने का युग नहीं है, तो मानना पड़ेगा कि उनकी यह कथनी गीतोपदेश के विरुद्ध है।’
‘अन्य कोई कहे तो कहे, मगर कहनेवाले यदि भारत के उत्तम पुरुषों में कोई हों और भारत के अध्यात्म जगत की सर्वोत्तम उपाधि से विभूषित हों यानी ‘संत’ कहलाते हों तो स्थिति और भी गम्भीर हो जाती है। ये संत यदि कहें- मेरे जीवन में ‘गीता’ ने जो स्थान पाया है, उसका मैं शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता हूँ। गीता का मुझपर अनन्त उपकार है। ......मेरा शरीर माँ के दुध पर जितना पला है, उससे कहीं अधिक मेरा हृदय व बुद्धि दोनों गीता से पोषित हुए हैं । ........मैं प्रायः गीता के ही वातावरण में रहता हूँ। गीता यानी मेरा प्राण तत्त्व ।’ और वही अगर कहें - ‘अब ध्यानयोग-अभ्यास करने का युग नहीं है।’ तो स्थिति गम्भीरतम हो जाती है। और यही विदित होता है कि देश का अमंगल-काल ही चला आया है।’
‘किसी को नहीं चाहिए कि कर्मयोगी बनते हुए कर्मयोग का तो वे गुणगान करें और ध्यानयोग को आधुनिक काल के लिए अव्यावहारिक बताकर जन साधारण को उससे विमुख करें।’
गीतोक्त ज्ञान जन साधारण के लिए ही है। साधारणतया यह मान लिया गया है कि गीता साधु-सन्यासियों के व्यवहार की चीज है। किन्तु स्वयं गीता सबको गीता-ज्ञान का अधिकारी मानती है। यहाँ सवर्ण, अवर्ण, स्त्री, शूद्र, पापी और दुराचारी सभी के लिए गीता-गंगा का जलरूपी उपदेश समान रूप से सुलभ है। (गीता अ॰ ६, श्लोक ३० से ३२ तक)’
‘xx कुछ ऐसे भी सज्जन हैं, जिनका मत है कि अध्यात्म-साधन के लिए गुरु की कोई आवश्यकता नहीं, परमात्मा ही एकमात्र गुरु हैं।’
‘उनसे मेरा निवेदन यह है कि ऐसे विचार गीता एवं भारतीय अध्यात्म-विद्या की शिक्षा-परम्परा के सर्वथा विरुद्ध है। गीता के चौथे अध्याय में लिखा है- तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।३४।।
अर्थ- ‘तत्त्व को जाननेवाले ज्ञानी पुरुषों से, भली प्रकार दण्डवत् प्रणाम तथा सेवा और निष्कपट भाव से किए हुए प्रश्न द्वारा उस ज्ञान को जान, वे मर्म को जाननेवाले ज्ञानीजन तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे।
‘विशेष जानकारी के लिए परिशिष्ट पढ़ें ।’ नीचे परिशिष्ट से भी कुछ उद्धरण दिए जा रहे हैं- ‘तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियम् ब्रह्मनिष्ठम्।।’ -मुण्डकोपनिषद्, १।२।१२
‘जिज्ञासु को परमात्मा का वास्तविक तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए हाथ में समिधा लेकर श्रद्धा और विनय-भाव के सहित ऐसे सद्गुरु की शरण में जाना चाहिए, जो वेदों के रहस्य को भलीभाँति जानते हों और परमब्रह्म परमात्मा में स्थित हों?
दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम्। दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरोः करुणां विना।।७।।
‘‘सद्गुरु की दया के बिना विषय-त्याग दुर्लभ है, तत्त्वदर्शन दुर्लभ है और सहजावस्था दुर्लभ है।’
देहस्थाः सर्वविद्याश्च देहस्थाः सर्वदेवताः। देहस्थाः सर्वतीर्थानि गुरुवाक्येन लभ्यते।।८।।
--ज्ञान संकलिनीतंत्र
अर्थ- इस देह में सब विद्या, सब देवता और सब तीर्थ विराजमान है। केवल गुरु के उपदेश से ही देहस्थित ये सब विद्या, देवता और तीर्थ जाने जाते हैं।
‘सप्तधातु का काया प्यंजरा, ता माहिं ‘जुगति’ बिन सूवा। सतगुरु मिलै त उबरै बाबू, नहीं तो परलै हूवा।।’ --महायोगी गोरखनाथजी
‘बिनु सतगुरु उपदेश, सुर-नर-मुनि नहिं निस्तरै ।’ --सन्त कबीर साहब
‘गुरु करता गुरु करणे जोगु । गुरु परमेसर है भी होगु।।
कहु नानक प्रभि इहै जनाई। बिनु गुरु मुकति न पाइये भाई।।’ --गुरु नानक
‘गुरु बिनु भव निधि तरइ न कोई। जौं बिरंचि शंकर सम होई।।’ --गोस्वामी तुलसीदासजी
‘सूरश्याम गुरु ऐसो समरथ, छिन में लै उधरै।’ -भक्तप्रवर सूरदासजी  

62.

ग्रीष्म के प्रचण्ड ताप में

जिस ग्रीष्मऋतु की भयंकरता में बिहारी कवि की वाणी व्याकुल-विवश-सी कुहक उठी थी-
‘कहलाने एकत रहत, अहि मयूर मृग बाघ।
जगत तपोवन सों कियो, दीरघ दाघ निदाघ।।’

उसी आग उगलनेवाली ऋतु के ‘दीरघ दाघ निदाघ’ में आपने संतों के ज्ञान से जन-मानस को आप्यायित करने के लिए एक तूफानी दौरे का कार्यक्रम बनाया और उसे पूरा करने के लिए ७० वर्ष की वृद्धावस्था में ता॰ १०.०४.१९५४ ईस्वी को आपने पवित्र अभियान किया। पूर्णियाँ से उस दिन पाँच बजे पुनामा प्रतापनगर (भागलपुर) बाबू रामकृष्ण प्रसाद सिंहजी सत्संगी के दरवाजे पर पहुँचे । सत्संग की सारी व्यवस्था पहले ही से दुरुस्त थी। संध्योपासना के बाद सात बजे से सत्संग आरम्भ हुआ। गाँव के नारी-पुरुष सत्संग-श्रवण के लिए उमड़-से पड़े । ध्वनिवर्द्धक यंत्र की व्यवस्था थी, पर सहसा ही वह खराब हो गई। प्रेमी भक्तों का हृदय आपका प्रवचन सुनने के लिए पिपासाकुल था, अतः आपकी करुणा ने कुछ जोर से बोलने के लिए आपको बाधित कर दिया; यद्यपि डॉक्टरों ने आपको जोर से बोलने की मनाही कर दी थी। जोर से बोलने के कारण आपका स्वास्थ्य बिगड़ जाता था, इसीलिए डॉक्टरों ने ऐसा व्यवस्था-विधान किया था । आपका प्रवचन सुनते हुए नर-नारियों का आकर्षण बढ़ता ही गया । सत्संग समाप्त होने पर सभी तृप्त होकर घर गए। रामकृष्ण बाबू ने दूसरा ध्वनिवर्द्धक यंत्र तुरत ही भाड़ा पर लाने के लिए भेज दिया था।

दूसरे दिन प्रातः सत्संग में श्रोताओं की संख्या अधिक बढ़ गई, किंतु समय पर ध्वनिवर्धक आ जाने से आज प्रवचन सुनने में सुविधा हुई। दोपहर के सत्संग में गाँव भर के नारी-पुरुषों के अतिरिक्त निकटस्थ और दूरस्थ गाँवों के भी श्रोतागण पधारे। काफी भीड़ हो गई, फिर भी बड़ी शान्ति से सभी ने प्रवचन सुना और परितृप्त हुए। उदारमना रामकृष्ण बाबू ने दूरस्थ गाँवों से पधारे सज्जनों का आग्रहपूर्वक आतिथ्य सत्कार किया।
तीसरे दिन के प्रातः और मध्याह्न के सत्संग में श्रोताओं की भीड़ इतनी बढ़ी कि शामियाने की छायाओं में समाने का स्थान ही नहीं रहा । पर प्रेमी भक्तों ने ग्रीष्म के तापों को धैर्य से सहनकर प्रवचनों को सुना और पुलकित हृदय से धन्यवाद करते हुए घर गए ।
श्री रामनिहोरा भगतजी के प्रेमानुरोध से महर्षिजी के साथ अन्य सत्संगी और प्रेमी श्रोतागण भी रात्रि का सत्संग नवगछिया में करने के लिए पधारे। रात में उत्साहपूर्वक सभी प्रेमीजनों ने नवगछिया के सत्संग में प्रवचन सुनकर वहीं विश्राम किया।
प्रात: ही तीन बैलगाड़ियों पर महर्षिजी ने अपने अनुगामियों सहित नवगछिया से महादेवपुर घाट (गंगातट) के लिए प्रस्थान किया। यह घाट नवगछिया से सात मील दूर है। रास्ते में पकरा गाँव के सम्पन्न-शिष्ट प्रेमी भक्तों ने अपने श्रद्धा-भरे आग्रह से गाड़ी को कुछ समय के लिए रोक पदरज ग्रहण किया । भक्त सत्संगी श्री गोविन्द दासजी ने महर्षिजी की चरणार्चना करके प्रसाद रूप में पाँच-छह बेल अर्पित किया। वे बेल तरबूजे या कुष्मंड के समान ही बड़े-बड़े थे। सौभाग्यवश महर्षिजी के साथ रहने से मैंने भी उन बेलों को देखा था । बेल की मिठास भी मधु-सदृश ही थी। महर्षिजी ने कई दिनों तक उसका शर्बत बनवाकर हम अनुगामियों को भी प्रसाद रूप में वितरण किया था। बेल में आठ-दस से अधिक बीज नहीं थे।
खगड़ा गाँव के निकट आते-आते महर्षिजी के प्रातः भ्रमण का समय हो गया। गाँव के समीप ही कल-कलवाहिनी खरश्रोता कलकलिया नदी की सूखी धारा अपने अतीत की याद में बिसूर रही थी। महर्षिजी के चरण-स्पर्श से पुलकित होकर कहीं -कहीं वह अपनी तरल भावना का भी परिचय देने लगती थी। हमलोग भी महर्षिजी के अगल-बगल और पीछे-पीछे चल रहे थे। साथ में मुरादाबाद के सत्संगी श्री कान्ति प्रसादजी भी थे, जो दो महीने से आपके साथ ही रह रहे थे। आपको पैदल चलते देख खगड़ा गाँव के श्रद्धालु नारी-पुरुषों की भीड़ उमड़ पड़ी और आपकी चारों ओर का परिवेष्टन या घेरा बन गईं। आपको प्रणाम करते हुए सभी ने खगड़ा में ठहरने की प्रार्थना की पर कार्यक्रम निश्चित हो जाने के कारण आप एक प्रेमी के दरवाजे पर दो-चार मिनट विराम लेकर पुनः आगे की ओर बढ़े। कुछ दूर आगे बढ़ जाने पर हमलोगों ने पीछे मुड़कर देखा कि कुछ श्रद्धालु नारियाँ वेग से चलती हुईं महर्षिजी की ओर आ रहीं थीं। आपको हमलोगों ने इस बात से अवगत कराया। यह जानते ही आप रुक गए और मातृगणों ने चरण-रज लेकर अपने-अपने घरों की ओर प्रस्थान किया। दो मील का भ्रमण कर पुनः परवत्ता के निकट आप बैलगाड़ी पर सवार हुए और ग्यारह बजे गंगातट पर पहुँच गए। घाटवाले ने तीन-चार घंटे रुकने का अनुरोध किया, पर आपने पश्चिमी वायु के झोकों की याद दिलाकर शीघ्र ही पार कर देने का आग्रह किया। अनुरोध स्वीकार कर घाटवाले ने हमलोगों को पार उतार दिया । पार उतरकर महर्षिजी के साथ ही हमलोग पुण्यतोया जाह्नवी की उष्मकालीन निर्मिल-शीतल धारा में अवगाहन करने लगे। महर्षिजी ने स्नान करते हुए गंगा की बड़ी प्रशंसा की। महर्षिजी एकादशी व्रत में थे, अतः हमलोगों को भोजन कर लेने का आदेश दिया । भोजन समाप्त होते-होते एक बज गया और पश्चिमी वायु ने अपने उत्तेजित झकोरों से बालुका-कणों को उड़ाकर उससे आकाश को आच्छन्न कर दिया। फिर तो आँख खोलकर देखना भी मुश्किल हो गया और ऊपर से सूर्यदेव भी अग्नि की वर्षा करने में तत्पर थे। घाट पर कोई सवारी नहीं थी और बरारी जाने पर ही सवारी भी मिल सकती थी, जो यहाँ से डेढ़ मील दूर था। साथ में काफी सामान थे, जिसे ले जाने के लिए गाड़ी की अनिवार्य आवश्यकता थी। खोजने पर किसी भाँति तीन मजदूर मिले । उनलोगों के बाद भी काफी सामान बचे रहे, जिसे हम चारों (श्री महावीर संतसेवी, श्री भूपलाल दासजी, श्री कान्ति प्रसादजी तथा मैं) ने येन-केन-प्रकारेण उठाया और बड़ी परेशानी का अनुभव करते हुए लगे चलने लगे। हमारी पीड़ा और भी पराकाष्ठा पर पहुँच गई। जब हमलोगों ने उपवास से क्षीण जीर्णकाय महर्षिजी को पछिया हवा के झकोरों से डगमगाते, सूर्य-किरणों से उत्तप्त और बालू एवं धूलिकणों की घोर तमसा से आच्छादित रास्तों को तय करते हुए देखा। हमारा कलेजा विदीर्ण हो रहा था, पर हम विवश थे। बरारी आने पर दो टमटमों पर सभी सामानों को लाद ताप से झुलसाए एवं धूलि धूसरित बदन महर्षिजी के साथ हमलोग भी बैठकर आशानन्दपुर परवत्ती सत्संग मंदिर आए। इस घोर भयंकरता की याद कर आज भी मेरा कलेजा काँप उठता है। पर, हमने देखा कि महर्षिजी के धीर, प्रशान्त मुखमंडल पर प्रसन्नता की दामिनी अठखेलियाँ कर रही है।
सान्ध्य-उपासना के बाद सात बजे से सत्संग प्रारम्भ हुआ। सभी ने मुग्ध होकर आपकी अमृतवाणी सुनी। रात में सत्संग-मंदिर में ही विश्राम किया गया। ता॰ १४ एवं १५ अप्रैल को हसनगंज निवासी भक्तवर बाबू तिलक मोदीजी के सुपुत्र श्री भरथ मोदीजी के प्रेमाग्रह से उन्हीं के दरवाजे पर सत्संग हुआ । बाबू तिलक मोदीजी बाबा देवी साहब के परम प्रिय शिष्य एवं श्रद्धालु सत्संगी थे। ये अपने जीवनकाल में प्रतिदिन अपने घर से सायकिल पर मायागंज सत्संग-भवन जाकर सत्संग कर घर लौट आते थे। ऐसे निष्ठाशील और प्रेमी गुरुभाई पर कैसे आपका स्नेह नहीं होता!
श्री मोदीजी के तीन सुपुत्र हैं। एक आबकारी विभाग के सुपरिण्टेण्डेण्ट हैं, दूसरे श्री नन्दलाल मोदीजी एम॰ बी॰, बी॰ एस॰, पी-एच॰डी॰ इंगलड रिटर्न है, जो आजकल प्रिन्स ऑफ वेल्स कॉलेज, पटना के प्रोफेसर तथा पटना जेनरल हॉस्पिटल के डॉक्टर हैं और तीसरे श्री भरथजी पैतृक संपत्ति की देखभाल और सँभाल करते हैं। श्री मोदीजी के देहावसान के बाद यह प्रथम बार ही उनके दरवाजे पर सत्संग हुआ था। भरथ बाबू की श्रद्धा, भक्ति और उदारता अतुलनीय थी। आपने दोनों दिनों के सत्संग में दूर तथा निकट के आए सभी सत्संगियों को प्रेमाग्रहपूर्वक रोककर उत्तम प्रकार का सुरुचिकर भोजन कराया। सत्संगियों की संख्या डेढ़-दो सौ से भी अधिक ही थी। महर्षिजी के भोजनकाल में इनके परिवार, पड़ोस और बाहर से आयी हुई भक्तिमती महिलाएँ आपको परिवेष्टित-सी कर श्रद्धा और प्रेम की संगीत-माधुरी से वातावरण को आनन्द परिप्लावित कर देती थी।
यहाँ का सत्संग पूर्ण कर महर्षिजी ने अपनी मंडली के साथ गया पैसेंजर से कूच कर दिया और ठीक पाँच बजे जमालपुर पहुँच गए। जमालपुर के सुप्रसिद्ध रईस और प्रेमी सत्संगी श्री रायबहादर दुर्गादास तुलसीजी भक्त-मंडलियों सहित पुष्पमाल लिए आपकी प्रतीक्षा में स्वागतार्थ खड़े थे। गाड़ी लगते ही सभी ने पुष्प-हार गले में प्रदान कर चरण-रज लिया आर हमसबों का सभी सामान उठाकर स्टेशन से बाहर रायबहादुर के ट्रक और दोनों मोटरों पर रख दिया। सभी मोटरों पर और ट्रक पर चढ़कर उनके आवास पर आए। रायबहादुरजी ने अपना सारा महल सत्संगियों के लिए खाली कर दिया था तथा लम्बे चौड़े फर्श पर आसन बिछावनादि भी बिछा दिए थे। उन्होंने निजी उपयोग के सभी विद्युत-पंखों को सत्संगीगणों के सुख-सुविधार्थ स्थान-स्थान पर लगा दिए।
अपने आहाते के विशाल प्रांगण में रायबहादुरजी ने बादशाही सजधज और भव्यता के साथ पंडाल का कलात्मक निर्माण कर रखा था। कारचोबी पर जड़ीदार शाहनशीन चन्दोवा, गद्दी और मसनद सुसज्जित थे। विद्युत की नीलश्वेत रश्मियों से मंडप आलोकित हो रहा था, जैसे महाराजाधिराज की राजसभा की ही पूरी आयोजना हो। ध्वनिवर्द्धक यंत्र - पहले से ही प्रस्तुत था। सारे पंडाल में भी विद्युत के आलोक जगमगा रहे थे। श्रोताओं के लिए भी सुन्दर दरियों एवं गलीचों के मनोरम आसन आस्तृत किए गए थे। ‘ठाट ठट सत्संग करे’ तुलसी साहब की इस वाणी को जैसे यहाँ रूप प्रदान किया गया हो । महर्षिजी ने बादशाहों के बैठने योग्य भड़कीले आसनों को देख रायबहादुर साहब से कहा- ‘इतने मूल्यवान, कला-वैभव से सम्पन्न और बादशाही आसन साधुओं के योग्य नहीं हैं।’
यह सुनकर रायबहादुर साहब ने न्योछावर की भावना को व्यक्त करते हुए निवेदन किया- ‘किन्तु ये पावन पद-कमल तो गृहस्थाश्रमी के घर को पुनीत करने के लिए पधारे हैं।’
रायसाहब की अगाध श्रद्धावश आप उस आसन पर आसीन हो गए।
यहाँ सत्संग के लिए काफी प्रचार किया गया था। १६ अप्रैल के संध्याकाल से १८ अप्रैल के संध्याकाल तक प्रातः-सायं-सत्संगकाल निर्धारित और उद्घोषित कर दिया गया था । अतः समय पर पर्याप्त संख्या में सत्संग-श्रवण के लिए श्रोतागण पधारे थे। स्तुति-प्रार्थना के उपरान्त, महिला विद्यालय, ईस्वी रेलवे उच्च विद्यालय, जमालपुर उच्च विद्यालय तथा जमालपुर गुरुद्वारे की ओर से अलग-अलग चार अभिनन्दन पत्र आपको श्रद्धा सहित समर्पित किए गए। आपने सभी अभिनन्दनों का सुमधुर उत्तर दिया, जिसे सुनकर वे लोग गद्गद हो गए। सत्संग में लगभग दो हजार श्रोताओं की उपस्थिति थी। सभी ने श्रद्धा और शान्ति से आपके प्रवचन सुने । इस अवसर पर अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग महासभा के उपसभापति --डॉक्टर श्री रामप्रसादजी तथा ‘शांति-संदेश’ के सम्पादक प्रोफेसर विश्वानन्दजी भी पधारे थे । १७ अप्रैल के प्रातः सत्संग के बाद ३ बजे महर्षिजी श्री भुजंगी दासजी सत्संगी के अति श्रद्धा भरे आग्रह से रायसाहब के ट्रक और मोटरों में प्रमुख सत्संगियों के साथ उनकी नव निर्मित कुटी पर पधारे । यह कुटी बौद्धकालीन विहार के भग्नावशेष पर मुंगेर के पूरब सराय में वट वृक्ष के नीचे निर्मित की गई है। उपासना के लिए नीचे खोदकर एक सुन्दर गुफा भी बना दी गयी है। इस भाग्नावशेष के अधिकारी एक कबीरपंथी साधु हैं। उन्होंने अपनी कुटी की बगल में ही प्रेम और उदार भाव से श्री भुजंगीदास को भी कुटी बनाने के लिए स्थान दे दिया। उनके कथनानुसार ये साधु बड़े ही सौम्य और विनय की मूर्ति हैं । महर्षिजी ने वट की छाया में बैठकर कुछ प्रवचन दिए । पुनः प्रसाद वितरण होने के बाद जमालपुर वापस लौट आए।
जमालपुर के गुरुद्वारा में भी एक दिन सत्संग कराने के लिए आपसे आवेदन किया गया। यह गुरुद्वारा भी रायबहादुर साहब की उदार वृत्ति का ही एक प्रतिरूप है। स्वीकृति के बाद १६ अप्रैल को वहाँ सत्संग कराने की आयोजना की गई। गुरुद्वारा में प्रवेश करते समय राय साहब ने सभी सत्संगियों से अनुरोध किया कि गुरुद्वारे का नियम पालन करने, उस नियम को सम्मानित करने के लिए सभी को शिर पर वस्त्र रखकर ही गुरुद्वारे में प्रवेश करना चाहिए। यह निवेदन सुनकर सभी सत्संगियों ने अपने-अपने सिरों को वस्त्राच्छादित करके ही उसमें प्रवेश किया। यहाँ के सत्संग में आपके प्रवचनों से सिक्ख लोग बड़े प्रभावित हुए, जिसकी आभा प्रसन्नता के रूप में सभी के मुखों पर उद्भासित हो रही थी।
सत्संग समाप्त होने पर रायबहादुर साहब ने महर्षिजी से कहा- ‘स्वामीजी ! तीन दिनों से अपने घर, प्रांगण, पुष्पोद्यान, भीतर और बाहर में सत्संगीगणों को विचरते देखकर मुझे अपार आनन्द हो रहा है। आपने सत्संगियों सहित यहाँ पधार और सत्संग कर हमारे घर को सत्संग-मंदिर ही बना दिया है। इस असीम अनुग्रह के लिए हम आपके चिरकृतज्ञ है।’
‘सचमुच में आज तीनों दिनों से हमलोगों ने आपको अपने महल और उसके आहाते से बेदखल कर दिया है।’ इतना कहकर महर्षिजी हँसने लगे- इन तीन दिनों में सत्संगीगणों का आतिथ्य सत्कार रायसाहब के सिवाय श्री बलदेवजी, श्री देवकीनन्दनजी तथा गाँव के अन्य सत्संगियों ने बड़ी श्रद्धा-भक्ति से किया । ऐसा करते हुए वे लोग अपनी दैन्यता को भी भूले ही रहे । श्री बलदेवजी ने तो अपने अकिंचन घर में अत्यन्त आग्रह से एक दिन महर्षिजी, रायबहादुर साहब एवं उनके सुपुत्र के साथ अन्य सत्संगियों को भी ले जाकर श्रद्धा और प्रेम से भोजन कराया।
१९ अप्रैल के चार बजे रायसाहब ने परिवार सहित महर्षिजी का पद-पद्म-पराग लिया और श्रद्धा-भरी भेंट समर्पित कर मनियारचक के लिए विदा किया। महर्षिजी अपने अनुगामियों सहित रायसाहब के ट्रक और मोटरों पर सवार होकर चले। रास्ते में सीताकुण्ड के उष्ण जलवाही झरने का दर्शन किया। जमालपुर के सत्संगियों ने महर्षिजी को मनियारचक पहुँचाकर चरणरज लिया और वापस लौट गए ।
मनियारचक प्राथमिक अभ्यास पाठशाला में ठहरकर वहीं रात्रि सात से साढ़े नौ बजे तक सत्संग किया गया । २० अप्रैल के प्रात:-सायं तथा २१ अप्रैल के प्रात:काल सत्संग होकर वहाँ से सूर्यगढ़ा जाने की तैयारी हुई। मनियारचक में यद्यपि भेदी सत्संगियों की संख्या कम थी, फिर भी प्रेमी श्रोताओं की कमी नहीं थी। जनता बड़े ही आदर से सत्संगियों को ले जाकर भोजन कराती थी। लगभग पचास सत्संगी थे, पर किसी को तकलीफ नहीं होने दी गई। उस गाँव में जल की बड़ी कमी थी। फिर भी गाँव के प्रेमी जनों ने कभी किसी सत्संगी को स्नान-पान में जल की कमी का अनुभव नहीं होने दिया । उनलोगों की यह उदार उत्सर्ग-भावना आतिथ्य-सेवा का प्रशंसनीय आदर्श है।
सूर्यगढ़ा से महर्षिजी को लिवा जाने के लिए तीन बजे के अन्दर ही मोटर आनेवाली थी, अत: उस समय सभी जाने के लिए प्रस्तुत थे, पर जब पाँच बजे तक मोटर नहीं आई, तो वहाँ का ख्याल छोड़कर कल प्रातः तोफी दियारा जाने का विचार किया जाने लगा। उसी समय मोटर पहुँच गई और सभी उसपर सवार होकर मुंगेर होते हुए सूर्यगढ़ा की ओर चले । मुंगेर से सूर्यगढ़ा जानेवाली सड़क की हालत अच्छी नहीं थी, इसीलिए मोटर को धीमी चाल से सावधानीपूर्वक ले जाना पड़ता था। चलते हुए मोटर के चक्के से एक विचित्र आवाज आई। उसका निरीक्षण करने के लिए ड्राइवर का सहायक बगलवाले स्टैण्ड पर खडा होकर निगरानी करने लगा। उसी समय गाँव का एक आदमी कन्धे पर खन्ती लिए जा रहा था। दोनों में से किसी का ख्याल नहीं होने के कारण ड्राइवर के सहायक को जोरों से खन्ती की चोट लग गई और आकस्मिक आघात के कारण वह मूर्छित हो गया। मोटर रोककर उसे होश कराया गया। इसके बाद खन्तीवाले को ड्राइवर ने मारने के लिए प्रयत्न किया। उस स्थान पर कुछ लोग फुटबॉल खेल रहे थे। उनलोगों ने भी प्रथम तो ड्राइवर को मारने के लिए क्रोध से पग बढ़ाया, पर महर्षिजी पर दृष्टि पड़ते ही जैसे उनकी वृत्ति ही बदल गई और उन्हीं लोगों ने बीच में पड़कर शान्ति स्थापना की। पुनः मोटर चलाई जाने लगी। कुछ दूर चलने के बाद मोटर रुक गई। पुनः चाबी देकर उसे चालू किया गया । चाबी का स्प्रिंग ढीला रहने के कारण वह जल्दीबाजी करने के कारण छिटककर नीचे गिर पड़ी। रात हो गयी थी, अतः खोजने पर भी वह नहीं मिल सकी, पर ड्राइवर ने बड़ी योग्यता से मोटर चलाई और ९ बजे रात होते-होते हमलोग सूर्यगढ़ा पहुँच गए। वहाँ के उच्च विद्यालय में सात बजे से ही सत्संग होने की सूचना थी, अतः महर्षिजी के समय पर नहीं आ सकने के कारण बहुत लोग प्रतीक्षा से थककर घर चले गए थे । महर्षिजी ने आते ही यथाशीघ्र व्यवस्थित हो सवा नौ बजे से सत्संग आरम्भ कर दिया । ध्वनिवर्द्धक यंत्र की आवाज सुनते ही प्रेमी श्रोतागण पुनः घर से वापस आ गए और शान्तिपूर्वक सत्संग समाप्त हुआ।
सूर्यगढ़ा गाँव में उच्च विद्यालय के सिवाय माध्यमिक विद्यालय, डाकघर तथा बाजार भी थे। यहाँ रूपण दासजी के प्रयत्न से सत्संग का प्रचार हुआ था, फिर भी इस गाँव में उस समय केवल दो ही सत्संगी श्री भगवान दास तथा श्री रामगुलामजी थे। सत्संग कराने में उनलोगों को शिक्षकों और पोस्टमास्टर साहब ने हार्दिक सहयोग दिया था। इस सत्संग के पूर्व मुनि समाज के प्रधान आचार्य और संचालक श्री शिवकुमार मुनिजी ने भी यहाँ आकर प्रवचन दिया था। उनके भाषण से शिवालय, ठाकुरबाड़ी तथा कीर्तन-मंडली एवं उनलोगो से प्रभावित जनता में बड़ा क्षाभ फैल रहा था। अतः पहले संतमत-सत्संग को भी उनलोगों ने उसी आशा की दृष्टि से देखा, पर महर्षिजी का प्रवचन रात में सुन लेने के बाद दूसरे दिन के सत्संग में श्रोताओं की भीड़ उमड़ पड़ी। २२.०४.१९५४ ईस्वी के प्रातः सत्संग में एक आर्यसमाजी ने महर्षिजी से वाद-विवाद करने की इच्छा प्रगट की।
इसपर आपने कहा- ‘मैंने आपलोगों से जो कुछ कहा है, वह यदि पसन्द पड़े तो आपलोग उसके अनुसार आचरण करें और यदि नहीं पसन्द पड़े तो छोड़ दें। मेरी ओर से इसमें कोई आग्रह और जबरदस्ती नहीं है।’
यह सुनकर आर्यसमाजी भाई ने कुछ पूछने की इच्छा प्रगट की। महर्षिजी की स्वीकृति मिलने पर उन्होंने पूछने के लिए स्वामी दयानन्द का त्रैतवाद उपस्थित किया ।
आपने शान्त वाणी में उन्हें समझाने का प्रयत्न किया, पर उन्होंने इसे वाद-विवाद की गति में ला दिया। प्रवचन सुनने के लिए उत्सुक जनता इन विवादों से उकता रही थी। अन्त में एक वयोवृद्ध सज्जन ने उठकर कहा- ‘हमलोग यहाँ अपना काम छोड़कर महर्षिजी का प्रवचन सुनने आए हैं। आपके वाद-विवाद से हमलोगों को कोई प्रेम नहीं है। अत: आप अपना विवाद बन्द करने का कष्ट करें ।’
आर्यसमाजी भाई ने उनकी वाणी की अवहेलना कर अपनी बहस जारी रखी। इसपर वे बिगड़ गए और हाथापाई की नौवत उपस्थित हो गई। अन्य सज्जनों के प्रयत्न से शान्ति हुई और कुछ देर बाद वे आर्यसमाजी भाई सत्संग से बाहर चले गए और पुनः नहीं आए। सत्संग के प्रति आकर्षण बढ़ जाने से इसमें ग्राम के सम्भ्रान्त जनों के साथ भागलपुर के रिटायर्ड डिस्ट्रिक्ट इन्स्पेक्टर साहब तथा ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट बाबू काली प्रसादजी अपने संबंधियों सहित पधारे थे। जबतक यहाँ सत्संग हुआ, बराबर ये लोग आते रहे और श्रोताओं की संख्या भी क्रमशः बढ़ती गई।
उच्च-विद्यालय के प्रधानाध्यापक श्री महादेव झाजी महर्षिजी के प्रवचनों से बड़े मुग्ध हुए।
उन्होंने प्रेमाग्रहपूर्वक आपसे अपनी डायरी में आशीर्वचन लिखवाया । वहाँ के पोस्टमास्टर साहब तथा विद्यालय के मंत्री श्री दामोदर बाबू ने २३.०४.१९५४ ईस्वी के प्रातः प्रस्थान के समय भोजन-सामग्री तैयार कर मोटर पर भेजवा दी। कजरा स्टेशन आकर ट्रेन पर सभी चढ़े और जमालपुर होते हुए मुंगेर के लाल दरवाजे में उतरकर तोफी दियारे से आनेवाली बैलगाड़ियों की प्रतीक्षा करने लगे। किले के निकट पहुँचकर महर्षिजी विश्राम करने लगे और हमलोग किले का निरीक्षण करने लगे। साढ़े पाँच बजे चार बैलगाड़ियाँ आयी , जिसमें खूब पुष्ट-तन्दुरुस्त बैल जुते हुए थे। हमलोग उसपर चढ़कर आठ बजे तोफी दियारा पहुँच गए।
तोफी दियारा उर्वरी भूमियों के मध्य बसा हुआ एक रमणीय ग्राम है। यहाँ गेहूँ की फसल सबसे अधिक होती है। यहाँ सम्पन्न और प्रेमी सत्संगी श्री धनेश्वर मंडलजी ने अपने दरवाजे पर ही पंडाल और मंडप सुसज्जित किया था। ध्वनिवर्द्धक यंत्र, रोशनी और बिछावनादि का पूरा सुप्रबन्ध था। इन्होंने १९४७ ईस्वी में अपने खर्च से ही अखिल भारतीय संतमत-सत्संग का वार्षिक अधिवेशन भी कराया था।
यहाँ २३ अप्रैल की रात में आठ से साढ़े नौ बजे तक सत्संग हुआ। पुनः २४ और २५ अप्रैल को नियमित रूप से प्रातः एवं सायंकाल सत्संग किया गया। यहाँ सत्संगियों की संख्या भी अधिक होने और अच्छी तरह से प्रचार करने के कारण श्रोतागण भी काफी संख्या में सत्संग करने या प्रवचन श्रवण के लिए पधारे थे। यहाँ पर सभी के निवास और भोजन की उत्तम व्यवस्था की गई थी और श्रद्धा, भक्ति एवं सेवा की कोई सीमा ही नहीं थी।
यहाँ का सत्संग सम्पन्न कर ता॰ २६ अप्रैल को पाँच बजे भोर को ही महर्षिजी ने हम अनुगामियों सहित पाँच बैलगाड़ियों पर सवार होकर मुंगेर के लिए प्रस्थान किया । गाँव से बाहर आने पर आप उतरकर दो मील पैदल ही गंगा के छाड़न-शाखा धारा तक सभी के साथ आए और उसमें स्नान किए। स्नानोपरान्त बैलगाड़ी पर सवार हो मुंगेर के पूरबसराय की धर्मशाला में आकर ठहरे। यहाँ भी धनेश्वर बाबू ने सभी को सुभोजन कराया। तीन बजे मुंगेर रेलवे स्टेशन आए । ट्रेन से जमालपुर, पुनः वहाँ से पाँच बजे सुल्तानगंज पहुँचे। सुल्तानगंज के सत्संगी श्री हरिलाल दासजी ने श्री गिरजा प्रसाद, श्री शिवचरण साहू तथा श्री रामावतार मंडल के हार्दिक सहयोग से सत्संग का सारा आयोजन किया था। यहाँ का यह पहला ही सत्संग था। स्टेशन से स्वागत कर अजगैबीनाथ शिव-मंदिर के समीप की धर्मशाला के दोमंजिले पर हमलोगों को निवास दिया गया । भोजन-व्यवस्था भी उत्तम प्रकार की हुई। बाजार स्थित दुर्गा-मंदिर में साढ़े सात बजे सत्संग आरम्भ हुआ। यहाँ संतमत-सत्संग के प्रति बुरा प्रचार था। प्रवचन करते समय सहसा ध्वनिवर्द्धक यंत्र खराब हो जाने के कारण आपने श्रद्धालु श्रोता समूह को देख खड़े होकर सब लोगों तक अपनी आवाज पहुँचाने का प्रयत्न किया । आपके प्रवचन सुनकर सभी के भ्रम नष्ट हो गए और सत्संग के प्रति श्रद्धा उमड़ पड़ी। ध्वनिवर्द्धक यंत्र के अभाव में प्रातः सत्संग धर्मशाला में ही हुआ।
पुनः संध्याकालीन सत्संग दुर्गा-मंदिर में हुआ। तबतक ध्वनिवर्द्धक यंत्र का प्रबंध भी हो गया था। आज पर्याप्त संख्या में श्रोतागण पधारे थे । आपका प्रवचन सुनकर सभी मुग्ध हो गए।
यहाँ का सत्संग सम्पन्न कर २८.०४.१९५४ ईस्वी के प्रात:काल आपने भागलपुर के लिए प्रस्थान किया। भागलपुर स्टेशन पर ही अपना सामान रखकर महर्षिजी आशानन्दपुर परवत्ती सत्संग-मंदिर प्रबन्धकारिणी समिति की बैठक में उपस्थित हुए। बैठक समाप्त होने पर पुनः स्टेशन आए और यहाँ से रेलगाड़ी पर चढ़ संताल परगना के बभनगामा गाँव में सत्संग कराने पहुँच गए। २६ अप्रैल को वहाँ का सत्संग समापन कर ३०.०४.१९५४ ईस्वी को मनिहारी सत्संग-मंदिर के लिए प्रस्थान कर दिया।

श्री उदितनारायण चौधरी 
प्रधानाध्यापक, उच्च विद्यालय, झण्डापुर  

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी  

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जय गुरु!

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सद्गुरु तथ्य 

01. जन्म-तिथि : विक्रमी संवत् १९४२ के वैसाख शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तदनुसार 28 अप्रैल, सन् 1885 ई. (मंगलवार)
02. निर्वाण=8 जून, सन 1986 ई. (रविवार)

श्री सद्गुरु महाराज की जय!