01.

महर्षि मेँहीँ परमहंसजी की कृतियाँ

महर्षिजी ने यात्रा करके रेलवे लाइन से बहुत दूर-दूर स्थित गाँवों में भ्रमण किया और नित्य प्रति नियमित रूप से सत्संग करके अपने सिद्धान्तों का तथा सन्तमार्ग की साधना का प्रचार ये करते रहे। अपने सत्संगियों को उनकी अनुपस्थिति में भी उनका सत्संग प्राप्त होता रहे, अतः उनके लिए महर्षिजी ने कृपा करके कुछ पुस्तकों की रचनाएँ की हैं। ये पुस्तकें बड़ी लोकप्रिय हुईं तथा सत्संगियों ने इन्हें अपनाया है। इन पुस्तकों का पाठ सन्तमत-सत्संग-मन्दिरों में नियमित रूप से होता है तथा साधक जन साधना में अपनी निष्ठा बनाए रखने के लिए इन पुस्तकों का स्वाध्याय करते हैं। नीचे महर्षिकृत पुस्तकों का परिचय दिया जाता है।

02.

सत्संग-योग (चारो भाग)

यह पुस्तक सन्तमत-सत्संग की ‘गीता’ है। इसके तीनो भागों में संग्रहीत प्रमाणों के अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि महर्षिजी जिस अन्तर्मार्गी साधना का प्रचार करते हैं, वह कोई नवीन साधना नहीं है; अपितु यह साधना अत्यन्त प्राचीन काल से प्रचलित है । ‘सत्संग-योग’ के परिचय के लिए हम उसकी भूमिका से उसके लेखक महोदय के शब्दों को उद्धृत करने का लोभ-संवरण नहीं कर सकते । नीचे हम महर्षिजी के शब्दों को उद्धृत करते हैं – ‘सत्पुरुषों, सज्जन-पुरुषों, साधु-सन्तों के संग का नाम सत्संग है। इनके संग में इनकी वाणियों की ही मुख्यता होती है। ‘सत्संग-योग’ के तीन भागों में इन्हीं वाणियों का समागम है। अनेक सत्पुरुषो और सन्तों के संग का प्रतिनिधि स्वरूप-यह ‘सत्संग-योग’ है। यह चार भागों में लिखा गया है। वेदों, उपनिषदों, श्री मद्भगवद्गीता, श्री मद्भागवत, अध्यात्म रामायण, शिवसंहिता, ज्ञानसंकलिनी तन्त्र, वृहत्तन्त्रसार, ब्रह्माण्ड पुराणोत्तरगीता, महाभारत, दुर्गा सप्तसती इत्यादि मोक्ष सम्बन्धी सदुपदेशों का लाभ प्रथम भाग से प्राप्त होता है। दूसरे भाग में भगवान बुद्ध, भगवान शंकराचार्य, महायोगी गोरखनाथजी महाराज, सन्त कबीर साहब, गुरु नानक साहब, दादू साहब, पलटू साहब, सुन्दरदासजी महाराज, गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज, भक्तवर सूरदासजी महाराज, हाथरस निवासी तुलसी साहब, राधास्वामी साहब, श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्दजी महाराज, लोकमान्य बाल गंगाधर, बाबा देवी साहब इत्यादि ४४ सन्तों, महात्माओं और भक्तों के सदुपदेश हैं।
तीसरे भाग में वर्तमान विद्वानों और महात्माओं के उत्तमोत्तम वचन हैं , जो कल्याण-पत्र तथा अन्य ग्रन्थों से उद्धृत हैं। इन तीनों भागों के अध्ययन और मनन से ब्रह्म, ईश्वर और परमात्मा का, ईश्वर-भक्ति का, बन्ध तथा मोक्ष का उत्तम ज्ञान हाता है। ईश्वर-भक्ति का और मोक्ष का इनमें एक ही साधन- ज्ञान तथा योगयुक्त भक्ति है। इन तीनों भागों के अध्ययन और मनन करने पर वेद-वेदान्त में और सन्तों के मत में मोक्ष धर्म सम्बन्धी विचारों तथा साधन-मार्ग की पूर्ण एकता का उत्तम निर्णय हो जाता है। और श्री मद्भगवद्गीता-रहस्य में प्रकाण्ड विद्वान लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक महोदयजी लिखित यह वाक्य- ‘सारे मोक्ष धर्म के मूलभूत अध्यात्म-ज्ञान की परम्परा हमारे यहाँ उपनिषदों से लगाकर ज्ञानेश्वर, तुकाराम, रामदास, कबीरदास, सूरदास, तुलसीदास इत्यादि आधुनिक साधु पुरुषों तक अव्याहत चली आ रही है। ‘ (गीता-रहस्य, पृ॰ ३५०) इन भागों में भक्ति और मुक्ति के साधन में सत्संग, गुरु-सेवा, परम प्रभु परमात्मा में अत्यन्त प्रेम, सदाचार, हृदय की शुद्धि, जप और ध्यान-इन सातो का ही साधन मुख्यकर कहा गया है। ध्यान-साधन में स्थूल ध्यान और सूक्ष्म ध्यान, दोनों का वर्णन है। सूक्ष्म ध्यान में विन्दु-ध्यान -- ज्योति-दर्शन -- दृष्टियोग का तथा नादानुसन्धान वा नाद का ध्यान -- सुरत-शब्द-योग का वर्णन पाया जाता है।
सत्संग द्वारा श्रवण-मनन से मोक्ष धर्म सम्बन्धी मेरी जानकारी जैसी है , उसका ही वर्णन चौथे भाग में मैंने लिखा है। परमात्मा, ब्रह्म, ईश्वर, जीव, प्रकृति, माया, बन्ध, मोक्ष, धर्म वा सन्तमत की उपयोगिता, परमात्म-भक्ति और अन्तस्साधन का सारांश साफ-साफ समझ में आ जाय, इस भाग के लिखने का हेतु यही है ।
‘सत्संग-योग’ के पढ़ने से यह बात यथार्थतः निर्णीत हो जाती है कि वेद-वेदान्त और सन्तों के मत में यह बात विशेषकर कही गई है कि भक्त अन्तर्मार्गी बनें; अन्तर्मार्गी बनने से इन्द्रियग्राम से -- जड़-आवरणों से छूटकर कैवल्य दशा में प्राप्त होकर ही अपने इष्ट के स्वरूप को जीते-जी प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर सकेगा।’
सत्संग-योग के तीन संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं ।

03.

रामचरितमानस सार-सटीक

इस ग्रन्थ में महर्षिजी ने अपने अध्ययन, मनन एवं निदिध्यासन के प्रकाश में रामचरितमानस के नवीन रूप का उद्घाटन किया । मानस के उपदेशात्मक, साधनात्मक एवं अनुभव-प्रकाशक पद्यों को चुनकर उसकी टीका और व्याख्या की। रामचरितमानस या रामायण पढ़नेवाली जनता की व्यापक धारणा थी कि गोस्वामी तुलसीदासजी सगुण-साकार भगवान की ही भक्ति करते थे और उसे ही सर्वोपरि समझते थे। आपने दिशा बदल दी और उन्हीं के लिखे पद्यों का बुद्धि-संगत, तर्कपूर्ण तथा सही अर्थ और व्याख्या कर बतला दिया कि स्वयं तुलसीदास जी भगवान के सगुण रूप को माया और उनके निर्गुण निराकार रूप को ही उनका स्वाभाविक, सनातन एवं सच्चा स्वरूप मानते थे। आपने इस ग्रन्थ में यह भी बतलाया कि केवल बाहरी भक्ति परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिए कभी पर्याप्त नहीं , चाहे वह मनुशतरुपा जैसा कठिन-कठोर तपस्या ही क्यों न हो। तुलसीदासजी की नवधा-भक्ति में अन्तर्निहित तथ्यों को खोलकर आपने खुलासा कर दिया कि बिना अन्तर-पथ का अनुगमन किए भक्ति की पूर्णता कभी नहीं हो सकती है। इस पुस्तक की भूमिका लिखते हुए महर्षिजी ने स्वयं लिखा है- ‘तुलसीकृत रामायण का नाम जो स्वयं गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रखा है, ‘रामचरितमानस’ है। इस उत्तम ग्रन्थ को तो ‘रघुवर भगति-प्रेम परमिति सी’ के स्थूल रूप में सर्व-साधारण देखते ही हैं ; और कुछ लोग इसे, ‘सद्गुरु ज्ञान विराग जोग के’ रूप में भी देख रहे हैं । पर इसके दोनों उपर्युक्त स्वरूपों को पूर्णरूप से कोई विरले ही देख सकते हैं; क्योंकि भक्ति का स्थूल स्वरूप जितनी सरलता से देखा जाता है, उतनी सरलता से उसका सूक्ष्म स्वरूप नहीं दरसता है। और योग-विराग आदि को तो ‘मानस’ का जलचर बनाकर ग्रन्थकार ने रखा है। ‘नवरस जप तप जोग विरागा। यह सब जलचर चारु तड़ागा ।। जलचर जल-गर्भ में छिपे रहते हैं और सरलता से देखे नहीं जाते । ‘रामचरितमानस’ के उपर्युक्त दोनों स्वरूपों का पूर्णरूप से दर्शन करने के लिए ही मैंने उससे ‘सार संग्रह’ करने का प्रयास किया है। मैं नहीं कह सकता कि मुझे इसमें पूरी सफलता हुई है। इस संग्रह का नाम मैंने ‘रामचरितमानस-सार-सटीक’ रखा है और अपनी बुद्धि के अनुसार इसका अर्थ और कुछ व्याख्या भी लिख दिया है। इसमें वर्णित योग कठिन हठयोग नहीं है, बल्कि परम सरल भक्ति योग है; जिसका अभ्यास रेचक, पूरक और कुम्भक के द्वारा न होकर रामचरित में वर्णित नवधा-भक्ति के द्वारा वा काकभुशुण्डिजी के भजनाभ्यास की रीति से होता है।’
इस पुस्तक की अर्थ-व्याख्या की भाषा और शैली इतनी प्रांजल और सरल है कि थोड़े पढ़े लिखे लोगों के लिए यह सहज ही बोधगम्य हो गयी है।

04.

विनय-पत्रिका सार-सटीक

साधारण रूप से मानव का क्रम-विकास ही होता है। केवल अवतारी महापुरुषो में इस स्वाभाविक गति का व्यतिक्रम पाया जा सकता है; क्योंकि उन्हें अपने विकास के लिए किसी साधना को करने की आवश्यकता नहीं होती; फिर भी वे मानवीय विकास-क्रम की सुरक्षा और पोषण ही करते देखे जाते हैं। भगवान श्री कृष्णचन्द्र के आचरण तथा उनके गीतोक्त उपदेश इसके प्रमाण हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी मानव के नैसर्गिक विकास-क्रम में उन्नत होते हुए ही महर्षित्व पद तक पहुँच सके थे। परन्तु वर्तमान विद्वत्गणों में से कुछ तो उन्हें कवि मात्र समझते हैं और कुछ विद्वान उन्हें कवि और भक्त कहकर उल्लेख करते हैं । यद्यपि भक्ति की पराकाष्ठा भी सन्त या महर्षि पद में जाकर ही सम्पूर्ण होती है, पर आज के शिक्षितवर्गों में भक्त और सन्त दो स्थितियों और धाराओं के सूचक और अभ्यर्थक हैं । जिन्होंने केवल परमात्मा की सगुणोपासना में ही अपने को रत रखा, वे उनके ख्याल से (सगुणोपासक) भक्तों की श्रेणी में ही हैं और जिन्होंने सगुणोपासना से आगे बढ़कर निर्गुणोपासना करते हुए परमात्मा के शाश्वत स्वरूप की उपलब्धि कर ली, वे लोग ही उनके विचार से ‘सन्त’ कहलाने योग्य हैं । इसीलिए वे लोग गोस्वामी तुलसीदासजी, भक्तवर सूरदासजी आदि को सगुणधारा के उपासक और सन्त कबीर साहब, गुरु नानक साहब, सन्त दादू दयाल साहब आदि को निर्गुणोपासक या निर्गुणियाँ भी कहा करते हैं । अध्यात्म ज्ञान के सोपानों या स्तरों का परोक्ष ज्ञान नहीं होने के कारण ही ऐसी बात है। अपरा (सगुण) और परा (निर्गुण) दोनों भक्ति में पारंगत योगी ही पूर्ण भक्त कहलाने के अधिकारी हैं ।
योग, ज्ञान, भक्ति, सांख्ययोग और कर्मयोग सभी की अंतिम परिणति एक ही है। इसीलिए पूर्णयोगी, पूर्णज्ञानी, पूर्णकर्मयोगी, पूर्ण संन्यासयोगी एवं पूर्ण भक्त वस्तुतः एक ही हैं; केवल बाह्य और स्थूल उपासनाकाल में कुछ कर्म-विधानों एवं तदनुसार भाव-विचारों की अभिव्यक्तियों में प्रकृति-वैषम्य के अनुसार कुछ अन्तर रहा करता है। अन्तरोपासना-विरहित बुद्धि जब साधना-पथ की समालोचना करने लगती है; तो स्वाभाविक ही बाहरी वैषम्य पर उसकी दृष्टि पड़ती है और उसी विषमता को आधार बनाकर वह उसकी गहराई में- साधनगाम्भीर्य में भी विभिन्नता को ढूँढ निकालने का प्रयत्न करने लगती है। उस साधना-गम्य लोक में- जहाँ सामंजस्य और एकता क्रमशः घनीभूत होते जाते हैं, वहाँ के विषय में अपनी दक्ष कल्पना के बल से विषमता और विविधता का वर्णन उपस्थित करती है और उसे तर्कजालों से सत्य सिद्ध करने और उद्घोषित करने का शायद दम्भपूर्ण ? - प्रयत्न करती है; पर सत्यान्वेषिणी बुद्धि का मार्ग उससे भिन्न ही होता है। यह कभी एकांगी और पक्षपात भरी तमसा के पथ का अनुसरण नहीं करती।
जब साधना-गम्य लोकों में प्रवेश करने में यह अपने को असमर्थ पाती है, तब यह श्रद्धा का सहारा लेकर आगे बढ़ती है और साधना के गुह्यतम स्तरों एवं उच्चतम शिखरों पर पहुँचे हुए भक्तों और सन्तों की वाणियों के प्रकाश में उसके सत्यस्वरूप को समझने की चेष्टा करती है और जो कुछ समझ पाती है, उसे ही नम्रता और विनय के स्वर में जनता में और साहित्य में उपस्थित करती है। उसमें सच्चाई की कोई दावी नहीं रहती और न कोई दम्भ ही होता है। हमें लगता है कि पूज्यपाद महर्षिजी ने इसी श्रद्धामयी बुद्धि का अवलम्बन लेकर अपनी अनुभूति के प्रकाश में गोस्वामी तुलसीदासजी की ‘विनय-पत्रिका’ के कुछ चुने हुए पद्यों का अर्थ और भाष्य लिखकर साहित्य के रूप में प्रकाशित किया है। जो सज्जन गोस्वामी तुलसीदासजी को केवल कवि या कवि और सगुणोपासक भक्त मात्र मानते हैं, वे इस ‘विनय-पत्रिका सार-सटीक’ का अध्ययन कर उन्हें भली-भाँति समझ सकेंगे और फिर उन्हें सन्त और महर्षि मानने में कोई हिचक नहीं होगी। साथ ही भक्ति, योग या किसी भी साधनाओं की आन्तरिक एकता का स्वरूप भी वे जान सकेंगे। हम उसकी साधारण-सी जानकारी और संकेत पाने के लिए ‘विनयपत्रिका सार-सटीक’ में लिखी महर्षिजी की भूमिका उपस्थित कर रह हैं -
“यह बात विख्यात है कि ‘विनयपत्रिका’ गोसाई तुलसीदासजी महाराज का अन्तिम ग्रन्थ है। यह उनके निज विचारों और अनुभवों से भरा हुआ है। गोसाईंजी महाराज ने ‘रामचरितमानस’ को ‘सतगुरु ज्ञान विराग जोग के’ कहकर उसे योग का सतगुरु बतलाया है। यदि ग्रन्थकर्ता स्वयं योग के सद्गुरु न हों तो उनका ग्रन्थ योग का सद्गुरु कैसे हो सकता है ? गोसाईंजी महाराज योग के सद्गुरु थे, इस बात को उनकी ‘विनय-पत्रिका’ भलीभाँति सिद्ध कर देती है। योग, वैराग्य, ज्ञान और भक्ति को प्रेम के अत्यन्त मधुर रस में पागकर बने हुए अत्युत्तम मोदक ‘विनय-पत्रिका’ में भरे पड़े हैं, जो भव-रोगों से ग्रसित दुर्बल और आत्मबलहीन जीवों के लिए अत्यन्त पुष्टिकर है। गोसाईंजी महाराज प्राचीनकाल के नारद, सनकादिक और परम भक्तिन शबरी की तरह के और आधुनिक काल के कबीर साहब और गुरु नानक साहब इत्यादि सन्तों की तरह के, भक्ति की चरम सीमा तक पहुँचे हुए, योग और ज्ञान-युक्त भक्ति में परिपूर्ण और निर्मल सन्त थे। ऐसे सन्त के अन्तिम ग्रन्थ में उनकी अन्तिम गति का भाव अवश्य ही वर्णित होगा। इसी भाव को जानने और उसे संसार के सामने प्रकाश करने के लिये यह ‘विनय-पत्रिका सार-सटीक’ के लिखने का मैंने प्रयास किया है। इससे गोस्वामी तुलसीदासजी की अन्तिम गति का और उस गति तक पहुँचने के मार्ग का पता लग जाता है। इस मार्ग को जानकर यदि मनुष्य इस पर चले तो अन्त में गोस्वामीजी महाराज की तरह परम कल्याण पा सकें । मनुष्य के लिए इससे बढ़कर लाभ दूसरा नहीं हो सकता। मैं विद्वान् नहीं हूँ, केवल एक तुच्छ सत्संगी हूँ। सत्संग के द्वारा जो स्वल्प मात्र बूझ-सूझ प्राप्त है, उसी के सहारे ‘विनय-पत्रिका सार-सटीक’ को संसार के सामने उसकी सेवा करने के लिए रखता हूँ।
कितने लोगो का यह विश्वास है कि प्राचीनकाल के सनकादि, देवर्षि नारद, काकभुशुण्डि और शवरी आदि की तरह सन्त, कलिधर्म के कारण इस युग में नहीं हो सकते । इसके उत्तर में गोस्वामीजी महाराज स्वयं ही कहते हैं– ‘काल-धर्म नहिं व्यापहिं तेही। रघुपति चरण प्रीति अति जेही ॥’ (रामचरितमानस-उत्तरकाण्ड) और कुछ स्वल्प-संख्यक लोग बहुत भद्दी-सी यह बात कहते हैं कि परम सन्त कबीर साहब और गुरु नानक साहब आदि सन्तों की तरह ऊँची गति गोस्वामीजी महाराज की नहीं थी। देश-कालातीत अतिशय द्वैतहीन वर्ग पर परमपद और शब्द-ब्रह्मैक पर ब्रह्मज्ञानी का वर्णन ‘विनय-पत्रिका’ में गोसाइंजी महाराज करते हैं, उससे आगे कोई विशेष पद और है, जहाँ गति कबीर साहब आदि सन्तों की थी और गोसाइंजी महाराज की नहीं , युक्तिसंगत बात नहीं जँचती । अपने को विद्वान माननेवाले कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो कबीर साहब ही को हेय दृष्टि से और गोसाइंजी महाराज को ऊँची निगाह से देखते हैं; पर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक अपने ‘गीता-रहस्य’ के अध्यात्म प्रकरण में इस भाँति लिखकर कबीर साहब और गोस्वामीजी महाराज को समगति के सिद्ध कर देते हैं। यथा-
‘उपर्युक्त विवेचन से विदित होगा कि सारे मोक्षधर्म के मूलभूत अध्यात्म-ज्ञान की परम्परा हमारे यहाँ उपनिषदो से लगाकर ज्ञानेश्वर, तुकाराम, रामदास, कबीरदास, सूरदास, तुलसीदास इत्यादि आधुनिक साधु पुरुषो तक किस प्रकार अव्याहत चली आ रही है।’ गुरु, अवतार, देवता और देवी आदि अनेक उपास्यो में पृथक्त्व केवल शरीरो में ही है, आत्मा में नहीं । भक्ति के उत्तम साधन से आत्मा तक पहुँचने पर उपासक की गतियों में अन्तर कहाँ रहा?’ उपासना की इसी उत्तम विधि का पता इस ‘विनय-पत्रिका सार-सटीक’ में खोलकर बतलाया गया है। पाठकों से मेरा नम्र निवेदन है कि इसको सिलसिले के साथ ओर-से-छोर तक पढ़ें। इसको ठीक-ठीक समझने के लिए ‘रामचरितमानस सार-सटीक’ के विचारों को भी जानने की बड़ी आवश्यकता है।’

05.

वेद-दर्शन-योग

महर्षिजी से जब यह पूछा जाता था कि आप जिस सन्त-साधना का प्रचार कर रहे हैं , उसका प्रतिपादन क्या वेद में है? इस प्रश्नोत्तर के क्रम में ही यह वेद-दर्शन-योग लिखा गया है। इसमें वेद-वचनों के आधार पर नादानुसन्धान, दृष्टि-योग आदि का प्रतिपादन किया गया है। वेद- वचनों की व्याख्या के पश्चात् महर्षिजी ने प्रत्येक मंत्र पर सन्तवाणी की टिप्पणी लगा दी है। वह इस प्रकार लगता है, जैसे वेद के बहुमूल्य मखमल पर सन्तवाणी के बेल-बूटो का किनारा लगाया गया है। वेद-दर्शन-योग का ‘आमुख’ लिखते हुए, शान्ति-संदेश-सम्पादक प्रोफेसर श्री विश्वानन्दजी एम॰ ए॰, बी॰ एल॰ ने इस प्रकार लिखा है -
‘पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज एक अत्यन्त सदाचारी एवं तपोनिष्ठ संत हैं । वे लोक-कल्याण के लिए उपनिषद्वाणी तथा सन्त-वाणी के आधार पर साधना का प्रचार कर रहे हैं । उनकी साधना की मुख्य प्रक्रियाएँ हैं - ‘दृष्टि-योग और नादानुसन्धान।’ उन्होंने कई पुस्तकों की रचना की है, जिसमें सूक्ष्म भक्ति तथा योग की सूक्ष्म साधना का रहस्योदघाटन किया है। उनकी प्रचारित साधना का वर्णन वेद में है या नहीं ?— इस प्रश्न का उत्तर श्री महर्षिजी ने ‘वेद-दर्शन-योग’ की रचना करके दिया है। इस पुस्तक में श्री महर्षिजी महाराज ने सन्त-वचनों की तुलना वेद-वचनों से की है।
सृष्टि के आरम्भ में अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषि के हृदय में परमात्मा ने वेद का प्रकाश किया और उन्होंने वेद की रचना की। लोग पूछते हैं कि वेद का प्रकाश अब परम पिता परमात्मा की ओर से आता है कि नहीं ? उत्तर में निवेदन है कि प्रकाश आने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। क्योंकि वेदों का ज्ञान प्रत्येक मनुष्य के मन में प्रतिष्ठित है। निम्नलिखित वेद-मन्त्रों से परिचय प्राप्त कीजिए-
यस्मिन्नृचः सामयजूषिँ यस्किन्प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः ।
यस्मिंश्चित्तँ सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु । यजुर्वेद, अ॰ ३४, मन्त्र ५
‘अर्थात् जिस मन में ऋक, जिसमे यजुः, जिसमें साम, रथ की नाभि में अरों के समान प्रतिष्ठित है, जिसमें प्रजाओं का सकल चित्त निहित है, वह मेरा मन शिवसंकल्पवाला हो।’
उपर्युक्त मन्त्र से ज्ञात होता है कि वेदों का ज्ञान मनुष्यों के मन में है। साधना से उस ज्ञान का साक्षात्कार कर लेने की आवश्यकता है। भारतवर्ष के सन्त कबीर साहब, दादू साहब, गुरु नानकजी आदि ने साधनों के द्वारा उस ज्ञान का साक्षात्कार कर लिया था । इसलिए उनकी वाणी में उन सत्यों का प्रतिपादन मिलता है, जिनका वर्णन वेदों में है। अधिकांश सन्त पढ़े-लिखे नहीं थे तथा वे नीच जाति में उत्पन्न हुए थे, अत: उनमें वेद पढ़ने की बात बहुत दूर थी। जिस युग में महात्मा कबीर आदि सन्त हुए थे, उस समय ‘स्त्री शूद्रौनाधीयताम्’ स्त्री तथा शूद्रों को वेद नहीं पढ़ना चाहिए का बोलवाला था । उस समय कबीर साहब को कौन वेद पढ़ाता ? तथापि सन्तों की वाणी में वेद-वचनों से आश्चर्यजनक साम्य है। नीचे लिखे ऋग्वेद के एक मन्त्र से सन्त कबीर साहब की वाणी की तुलना कीजिए- ‘अपां मध्ये तस्थिवांसं तृष्णाविदज्जरितारम्। मृडा सुक्षत्र मृडय ।’ ऋ॰, मण्डल ७, सू॰ ८९ ।।४।।
‘अर्थात् मैं जल में खड़ा हूँ, और प्यास से कष्ट पा रहा हूँ। हे परमात्मा, मुझे सुखी करो और मेरे द्वारा अन्यों को भी सुखी कराओ।’
‘पानी बिच मीन पियासी । मोहि सुनि-सुनि आवत हाँसी।
आतम ज्ञान बिना सब झूठा, क्या मथुरा क्या कासी।।’ -सन्त कबीर साहब
वेद में इड़ा तथा पिंगला के संगम पर सुषुम्ना में ध्यान करने का विधान मिलता है । भौंहों के बीच में, आज्ञाचक्र में इड़ा और पिंगला नाम की नाड़ियाँ मिलती है। इसी संगम पर सुषुम्ना नाड़ी भी है। इस स्थान पर ध्यान करना ही दृष्टियोग है - यही सन्तमतसाधना का एक मुख्य सोपान है। इसे अभिमुख ध्यान भी कहा जाता है।
लेकिन वेद में इड़ा और पिंगला को क्रम से गंगा और यमुना कहा गया है। सन्तवाणी में भी यही बात है। दोनों का यह अलंकारिक नाम भी इस बात का प्रमाण है कि संत को बिना पढ़े-लिखे भी वेदवाणी का ज्ञान उनकी साधना की सफलता के कारण था। संत-साधना में ध्यान की अपूर्व महिमा है। संत कबीर साहब स्वयं कहते हैं –
‘कबीर काया समुंद है, अंत न पावै कोय । मिरतक होइ के जो रहै, माणिक लावै सोय ॥
मैं मरजीवा समुंद का, डुबकी मारी एक । मूठी लाया ज्ञान की, जा में वस्तु अनेक ॥’
वेद में भी ध्यान द्वारा मोक्ष-प्राप्ति की बात लिखी हुई है। नीचे कुछ ऋचाएँ तथा सन्त-वाणियाँ इसका स्पष्टीकरण करने के लिए दी जाती हैं –
‘इमं में गंगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचना परुष्णया।
असिवन्या मरुद्वृधे विनस्तयार्जीकीये शृणुह्मा सुषोमया ॥’ – ऋग्वेद, मण्डल १०, सूक्त ७५ । १५
महर्षि दयानन्दजी महाराज इस मन्त्र का अर्थ ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका के ग्रन्थ प्रमाण्याप्रमाण्य विषय-प्रकरण में लिखते हैं – ‘इस मन्त्र में गंगा आदि नाम इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, कूर्म और जठराग्नि नाड़ियों के हैं, उनमें योगाभ्यास से परमेश्वर की उपासना करने से मनुष्य लोग सब दु:खों से तर जाते हैं; क्योंकि उपासना नाड़ियों के द्वारा ही धारण की जाती है ।’
ऋग्वेद के इसी ‘इमं में गंगे’ आदिवाले सूक्त के अन्त में व्याख्या रूप से कई शाखाओं में नीचे लिखा मन्त्र मिलता है- ‘सितासिते सरिते यत्र संगमे तत्राप्लुतासो दिवमुत्पतन्ति । ये वै तन्वं विसृजन्ति धीरास्ते जना सो अमृतत्वं भजन्ते ॥’
अर्थात् जो ध्यानी लोग, जहाँ (सित) इड़ा और (असित) पिंगला, ये दोनों नाड़ियाँ मिलती हैं, उस संगमस्थान सुषुम्ना में स्नान करते हैं, वे योगी शरीर छोड़ने के पश्चात् अमृतत्व को भजते हैं ।
गंगा और यमुना शब्दों का स्पष्टीकरण ‘हठयोग प्रदीपिका’ में इस प्रकार मिलता है- ‘इड़ा भगवती गंगा पिंगला यमुना नदी । इडा पिंगलयोर्मध्ये बाल रंडा च कुण्डली ॥’
अब सन्त कबीर साहब का एक वचन सुनिए- ‘गंग यमुन के अंतरे, सहज सुन्न के घाट । तहाँ कबीरे मठ किया, खोजत मुनिजन बाट॥’
उसी को सन्त शिवनारायण स्वामीजी इस भाँति कहते हैं - ‘सिपाही मन दूर खेलन मत जैये। घर में ही गंगा घर में ही यमुना, तेहि बीच पैठ नहैये॥’
सन्तवचनों का वेदवचनों से साम्य है, इसके लिए दो उदाहरण ऊपर दिये गये हैं । लेकिन प्रस्तुत पुस्तक ‘वेद-दर्शन-योग’ में सैकडों उदाहरण ऐसे साम्य के मिलेंगे। यह तुलनात्मक अध्ययन जिज्ञासुओं को वेदवाणी अध्ययन के लिए प्रेरणा देगा। यह पुस्तक महर्षिजी के गम्भीर मनन और चिन्तन का फल है। इसकी रचना करके श्री महर्षिजी ने अध्यात्म-विद्या के प्रेमियों तथा सन्तमत के सत्संगियों का बड़ा उपकार किया है। हम सब की ओर से पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के चरण-कमलों में श्रद्धा निवेदित करते हैं तथा कृतज्ञता-ज्ञापन करते हैं ।
परमपिता परमात्मा से प्रार्थना है कि प्रभु उन्हें दीर्घायु बनावें, जिससे वे अधिक दिनों तक साधकों का मार्ग-प्रदर्शन करके लोक-कल्याण कर सकें ।’
अब ‘वेद-दर्शन-योग’ लिखने की प्ररेणा पूज्यपाद महर्षिजी के हृदय में क्यों हुई, यह उन्हीं के भूमिका-लिखित विचारों को पढ़कर जानिए। वह भूमिका अविकल रूप से दे रहे हैं -
‘जम्बूद्वीपान्तर्गत भरतखण्ड-निवासी आर्यों के धर्मग्रन्थ का नाम वेद है। यह ग्रन्थ इतना प्राचीन है कि संसार का कोई भी ग्रन्थ इसकी प्राचीनता की बराबरी का नहीं सुना जाता है। भारत का यह अति प्रतिष्ठित धर्मग्रन्थ चार नामों से विख्यात है – ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, और अथर्ववेद; ये ही चार वेद कहकर प्रसिद्ध हैं । जो पवित्र भावात्मक विचार इन चारों में वा इनमें से किसी एक में भी नहीं मिले, भारतीय आर्य उसे धर्ममय नहीं मानते । वेदों के ज्ञाता पहले भी कम थे और अब भी कम हैं । ये चारों वेद-संहिताएँ बहुत भव्य और अति विशाल वाड्.मय है। पुस्तक रूप में इनका दर्शन भी बहुत लोगों को पहले भी अति दुर्लभ था और अब भी उनको अति दुर्लभ नहीं तो दुर्लभ अवश्य है।
आर्यसमाज के संस्थापक परम पूज्य वेद-विद्या में अग्रणी महर्षिवर स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी महाराज की जन-समूह पर अति अनुकम्पा से ही वेद पुस्तकों का दर्शन अति दुर्लभ से केवल दुर्लभ होकर है। अतएव उन अति श्रद्धेय, अति पूज्य महर्षि को मैं नतमस्तक होकर कोटि-कोटि दण्ड प्रणाम करता हूँ तथा अनेकानेक धन्यवाद और साधुवाद उन्हें समर्पण करता हूँ। आर्यसमाज के उन विद्वानों और धनवान महाशयों को भी, जिनके प्रयास और धन व्यय द्वारा चारों वेद-संहिताएँ भारती भाषा में अनुवाद सहित मुद्रित होकर प्रकाशित हुई और मूल्य देने पर सबको उपलब्ध है; अनेकानेक धन्यवाद देता हूँ। लड़कपन में ही मेरी रुचि भगवद्भक्ति, ज्ञान और ध्यान की ओर हो गयी थी। हो सकता है कि यह मेरे पूर्व जन्म के संस्कार के कारण हो; क्योंकि लड़कपन में मुझे उस प्रकार का संग नहीं था । मैं उपर्युक्त विषयों का खोजी विद्याध्ययन काल से ही था। विद्यालय छोड़कर वैरागी भेष धर मैं कथित विषयों का विशेष खोजी बना। जहाँ-तहाँ स्वल्प भ्रमणकर अन्वेषण करने पर कुछ लोगों से विदित हुआ कि कबीर साहब और गुरु नानक साहब और बिहारी दरिया साहब आदि सन्तों का धर्मज्ञानविचार वेदज्ञान से ऊँचा है और इन संतों के अनुयायियों के अतिरिक्त दूसरे वेद-विद्यावाले महाशयों से विदित हुआ कि उपर्युक्त सन्तों का ज्ञान वेदानुकूल नहीं है और श्रद्धायोग्य नहीं है। मैं संतों के ज्ञान को अपना चुका था और चाहता था कि वेदों का भारती भाषा में अनुवाद सहित मूलग्रन्थ भी मिले तो निज से पढ़कर जानें कि विदित किए गए दोनों पक्षों में से किसका कहना यथार्थ है। मैं संतों की वाणी में उनके ज्ञान की उत्कृष्टता का बोध करता और सोचता कि यह सर्वोत्कृष्ट ज्ञान, क्या वेद में नहीं है ? क्या वेद इस ज्ञान से हीन है ? और यह परमोत्कृष्ट ज्ञान, श्रद्धा करने योग्य क्यों नहीं है? अपने इन प्रश्नों के उत्तर के लिए मैं यही बोध करता कि मुझको चाहिए कि मैं स्वयं वेदों का दर्शन करूँ और उनके अर्थों को पढूँ ! पहले मुझको लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक महोदयजी का ‘गीता-रहस्य’ पढ़ने को मिला; जिसमें लिखा पाया—’सारे मोक्षधर्मों के मूलभूत अध्यात्मज्ञान की परम्परा हमारे यहाँ उपनिषदों से लगाकर ज्ञानेश्वर, तुकाराम, रामदास, कबीरदास, सूरदास, तुलसीदास इत्यादि आधुनिक साधु पुरुषों तक अव्याहत चली आ रही है’ (पृष्ठ २५०)। यह पढ़कर मैं बड़ा प्रसन्न और सन्तुष्ट हुआ । फिर मेरे परम प्रेमी और पूर्ण विश्वासपात्र स्वामी आत्मारामजी (पूर्व नाम पण्डित वैदेही शरण दूवेजी) ने कुछ वेद मन्त्रों को भाषा-अर्थ सहित ‘वैदिक विहंगम-योग’ के नाम से छपवाया । इस छोटी अच्छी पुस्तिका को मैंने पढ़ा। मेरे एक मित्र ने मुझे ३२ उपनिषदों के अंग्रेजी अनुवाद का एक ग्रन्थ दिया। कठ, केन आदि कई उपनिषदों का एक संकलन बंगला अनुवाद सहित मिला। भारती भाषा में अनुवाद सहित छान्दोग्यादि कई उपनिषद् मेरे परम प्यारे बाबू बुद्धू कुँवरजी सत्संगी अध्यापक महोदय की और ११२ उपनिषदों का एक समुच्चय केवल मूल संस्कृत में मैंने मुरादाबाद निवासी पूज्यमान पण्डित ज्वालादत्तजी षट्शास्त्री महोदयजी के परामर्शानुसार हरिद्वार में खरीद लिया। इन सबको मैंने पढ़ डाला और इन सबमें से उत्तमोत्तम ज्ञान-ध्यान की बातें संकलनकर उन्हें ‘सत्संग-योग’ नाम की पुस्तक में छपवा दिया, जिसका प्रथम प्रकाशन सन् १९४० ईस्वी में हुआ।
कबीर पंथ के एक विद्वान महन्त महोदयजी का लेख ‘कल्याण-पत्र’ के विक्रम सम्वत् १९९३ के विशेषांक ‘वेदान्तांक’ में निकला, जो निम्नलिखित है- (ले॰- श्री रामस्वरूप दासजी, गुरु शान्ति साहब)
“महात्मा कबीर दास एक बहुत बड़े लोक-शिक्षक थे। उन्होंने मनुष्य समाज को सत्यधर्म की शिक्षा देने की जीवन भर चेष्टा की। और सत्यधर्म वेदान्त ही है, इसमें कोई सन्देह नहीं। फिर भी कबीर-साहित्य से अनभिज्ञ कितने ही लोगों का यह कहना है कि कबीर साहब ने वेद और वेदान्त को नहीं माना है; परन्तु ऐसा कहना अपनी अनभिज्ञता का परिचय देने के सिवाय और कुछ नहीं है। कबीर साहब एक स्थल में कहते हैं – ‘वेद पुरान कहो किन झूठा, झूठा जो न विचारा।’ इन सबको पढ़कर मैं इस विश्वास पर पहुँचा कि कथित सन्तगण का ज्ञान वेदबाह्य और अश्रद्धा करने योग्य नहीं है। इन संतों ने वेदों से भी ऊँचे ज्ञान का कथन कर संसार में प्रचार किया है।”
यह बात विशेष अनुसन्धान नहीं करने के कारण ही कही गई है। यथार्थ में सन्तों का ज्ञान वेदों में है ही। इस परिणाम पर आने पर भी मैं उत्सुक था कि मैं चारो वेदों का भारती भाषा में अनुवाद सहित दर्शन करूँ और उन्हें पढूँ । अन्त में उपर्युक्त अपने परम प्रिय स्वामी आत्मारामजी के कहने पर मैंने अजमेर निवासी आर्य पण्डित जयदेवजी शर्मा, विद्यालंकार, मीमांसातीर्थ महोदयजी के पास से उन्हीं के द्वारा चारो वेद-संहिताओं के किए हुए भाषाभाष्य को मूल सहित मँगाया। ये चौदह जिल्दों में है। मैं इन सबको पढ़ गया और इनमें से जो संग्रह किया, वही ‘वेददर्शन-योग’ के नाम से प्रकाशित किया गया है।
इस नाम में ‘दर्शन’ शब्द का वही अर्थ है जो श्री मद्भगवद्गीता के अध्याय ११ के ‘विश्वरूप-दर्शनयोग’ में ‘दर्शन’ शब्द का है।
वेद-संहिताओं के उपर्युक्त भाष्य को ही पढ़कर मैंने ‘वेद-दर्शन-योग’ में टिप्पणियाँ लिखी हैं । इन्हें लिखकर वेद और संतों के ज्ञान के विषय में मैं उसी परिणाम पर अति दृढ़ता और प्रसन्नता से हूँ, जिस परिणाम पर आने के विषय में मैं पहले लिख चुका हूँ।
“वेद-दर्शन-योग’ की पाण्डुलिपि तैयार करने और छपवाने में बाबू श्री उदितनारायण चौधरीजी प्रधानाध्यापक माध्यमिक विद्यालय, झण्डापुर (भागलपुर), श्री महावीरजी ‘सन्तसेवी’ तथा डॉक्टर उपेन्द्रनारायण वर्माजी, बरौनी (मुंगेर) ने विशेष प्रयास किया है। इनके अतिरिक्त अन्यान्य सत्सगी महाशयों ने भी प्रतिलिपि तैयार करने में प्रयास किया है। अतः मैं इन सब धर्मप्रेमी महाशयों को हार्दिक धन्यवाद और शुभाशीर्वाद देता हूँ। साथ ही मैं श्री मान डॉक्टर धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी, शास्त्री, एम॰ ए॰, पी॰ एच॰ डी॰, ए॰ आईस्वी ईस्वी (लन्दन), प्राचार्य ट्रेनिंग कॉलेज, भागलपुर को नहीं भूल सकता, जिन्होंने ‘वेद-दर्शन-योग’ की पाण्डुलिपि को निजी प्रसन्नता से पढ़ने और उसपर अपना प्राक्कथन लिखने के अतिरिक्त छपने के समय फाइनल प्रूफ देखने का भी कष्ट उठाया है, मैं इन्हें भी अनेकानेक धन्यवाद देता हूँ।”

06.

‘सन्तमत-सिद्धान्त और गुरुकीर्तन’

इस पुस्तक के आरम्भ में सन्तमत का सार स्वरूप गद्य में है। तत्पश्चात सम्पुर्ण पस्तक पद्य में है। इसमें ईश-स्तुति, संत- स्तुति, सद्गुरु-स्तुति, गुरु-कीर्तन, गुरु-महिमा, ईश्वर का स्वरूप और उनकी प्राप्ति का सरल मार्ग—मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टियोग और सुरत-शब्द-योग (नादानुसन्धान) की साधना, पंच विधि कर्म-- सर्वेश्वर में अटल विश्वास, पूर्ण भरोसा तथा अपने अंतर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना, सद्गुरु की निष्कपट सेवा, सत्संग, दृढ़ ध्यानाभ्यास के करने तथा पंच निषेध कर्म-- झूठ, चोरी, नशा, हिंसा एवं व्यभिचार के त्याग का सुस्पष्ट वर्णन है। ‘सदाचार समन्वित हो मानव मात्र ईश्वर-भक्ति कर सकते हैं।’ यह बात उत्तमोत्तम रीति से इस पुस्तक में समझाई गयी है।

07.

महर्षि में ही वचनामृत

इस पुस्तक में महर्षिजी के २६ प्रवचनों का संग्रह है। इन प्रवचनों में ईश्वर-स्वरूप का निर्णय, ज्ञान, भक्ति, बन्ध-मोक्ष, दृष्टियोग, सुरत-शब्दयोग, सत्संग, सदाचार आदि विषयों पर अत्यंत सरल रूप में प्रकाश डाला गया है। प्रत्येक विषय पर उपनिषदों एवं सन्तों की वाणियों का अभूतपूर्व सामंजस्य अपनी अनुभूति के प्रकाश में दृढ़तापूर्वक संस्थापित किया गया है। प्रवचनों की प्रत्येक पंक्ति में अटूट श्रद्धा और विश्वास का बल अनायास ही उद्भासित हो पड़ता है, जिससे अध्यात्म-ज्ञान के पिपासुओं और उपासकों को उसकी सत्यता में किसी सन्देह के प्रवेश की कोई सम्भावना नहीं होती है और इससे प्रेरणा प्राप्त कर साधकगण मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टियोग एवं सुरत-शब्द-योग के पथ का अनुसरण कर स्वयं भी अपने अनुभव के भंडार को ज्ञान-रत्नों से भरते हुए अन्त में अपने जीवन के चरम लक्ष्य तक पहुँचने में सफल हो सकेंगे। इस पुस्तक का ‘निवेदन’ लिखते हुए प्रोफेसर विश्वानन्दजी ने इस प्रकार अपने विचार व्यक्त किए हैं -
‘पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी के प्रवचनों का संग्रह प्रकाशित करते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा है। गत चार वर्षों से अनेकों साधकों, सत्संगियों एवं मित्रों की बार-बार अनुरोध-याचना और आज्ञा हुई है कि मैं महर्षिजी के प्रवचनों को पुस्तकाकार रूप दूँ । समय और सामग्री के अभाव में मैं अबतक उनलोगों की इच्छा पूरी करने में असमर्थ रहा ।’
‘इस संग्रह में महर्षिजी के विभिन्न स्थानों और विभिन्न समयों पर दिए गए प्रवचनों का संकलन किया गया है। इसमें न कोई विषय-क्रम है और न समय-क्रम । मिश्री की रोटी को जिधर से तोडिए, उधर से ही मीठी लगेगी। ये प्रवचन भी उसी प्रकार सब तरह से आनन्ददायक और उपयोगी है। आप इसे जैसे चाहें, वैसे पढ़ें; आरम्भ से, मध्य से या अंत से ।
‘पूज्य महर्षिजी महाराज लगभग ५० वर्षों से संतों की साधना— नाद-विन्दु का प्रचार, उपनिषद् एवं संत-साहित्य के प्रमाणों के आधार पर कर रहे हैं । इन्होंने स्वयं इस साधना का दृढ़ अभ्यास किया है और उस सत्यों के साक्षात्कार करने की चेष्टा की है, जिनकी अभिव्यक्ति कबीर, नानक, दादू आदि संतों ने अपनी वाणियों में की है। जिस प्रकार एक वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला में अपने पूर्ववर्ती वैज्ञानिकों के उपलब्ध सत्यों का परीक्षण कर यह कहने में समर्थ होता है कि उपलब्ध परिणाम शत प्रतिशत सत्य है; उसी भाँति महर्षिजी ने ५० वर्षों से अपने पूर्ववर्ती संतों की भाँति आचरण, आहार-विहार, सदाचार एवं साधना करके यह कहने की समर्थता उपलब्ध की है कि उपनिषदों और संत-साहित्य में विवेचित ज्ञान, सत्य है और नाद-विन्दु साधना के माध्यम से दृढ़ ध्यानाभ्यास करके उन सत्यों का साक्षात्कार किया जा सकता है। इस संग्रह के प्रवचनों में भी श्री महर्षिजी के पचासों वर्षों के अनुभव अपनी अभिव्यक्ति कर रहे हैं । मुझे महर्षिजी के सत्संगों में उपस्थित होने का बार-बार अवसर प्राप्त हुआ है और मैंने स्वयं एक साथ लगभग दस हजार मनुष्यों को मन्त्र-मुग्ध की नाईं उनके उपदेशों को सुनते हुए पाया है। यद्यपि इन प्रवचनों में किसी नवीन विषयों का प्रतिपादन नहीं किया गया है, तथापि इनकी शैली एकदम मौलिक एवं अभूतपूर्व है। इन विशेषताओं का कारण महर्षिजी की दृढ़ साधना ही है।’
‘किसी विषय का ज्ञान पुस्तकों के द्वारा किया जा सकता है, लेकिन वह ज्ञान स्वयं अनुभूत ज्ञान से उच्चतर नहीं हो सकता। आध्यात्मिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए संसार में पुस्तकों की कमी नहीं है, लेकिन स्वयं साधना करके जो ज्ञान प्राप्त किया जाता है, वह पुस्तक-ज्ञान से श्रेष्ठतर है, इसमें जरा भी संदेह नहीं । महर्षिजी के पास अनुभव ज्ञान का अपूर्व भंडार है, जिसका परिचय उनके प्रवचनों में पाया जाता है। महर्षिजी के ये प्रवचन बार-बार प्रेरित करते हैं कि मनुष्य इन्हें पढ़कर आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करने के लिए ललचा उठे ।’
‘मैं आशा करता हूँ कि अध्यात्म-मार्ग के पथिक इन प्रवचनों को नियमित रूप से प्रतिदिन प्रात:काल पाठ करेंगे और इनमें वर्णित सत्यों से साक्षात्कार करने की साधना में संलग्न होंगे।’

08.

महर्षि मेंही-पदावली

इस पुस्तक में महर्षिजी रचित सब पद्यों का एक साथ संग्रह किया गया है। इसके प्रकाशक प्रोफेसर विश्वानन्दजी का ‘प्रकाशकीय’ इस पदावली की विशेषताओं को स्पष्ट करता है--
‘आज से पाँच वर्ष पहले पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी से मैंने प्रश्न किया- ‘स्वामीजी ! अब आप कविता क्यों नहीं लिखते हैं ?’
उन्होंने हँसकर कहा --- ‘अब कविता लिखने की स्फुरणा नहीं होती है।’
मैंने फिर लगे हाथों पूछा- ‘अब स्फुरणा क्यों नहीं होती है ?’
इसपर उन्होंने कहा- ‘एक समय था, जबकि साधना के समय अपनी अनुभूतियों को व्यक्त करने की एक व्यग्रता होती थी और मैं उन्हें पद्यबद्ध कर लेता था ।’
मैं इन उत्तरों पर विचार कर रहा था और सोचता था कि महर्षिजी एक सच्चे कलाकार हैं , जिनमें कोई कृत्रिमता नहीं है । हृदय में उठनेवाले आध्यात्मिक अनुभवों ने उन्हें बाध्य किया और कविता उनके हृदय से फूट निकली। गंगा जब हिमालय पर्वत को फोड़कर निकलती है, तो उसमें कितना प्रवाह और कितनी ध्वनि होती है। लेकिन सागर के आलिंगन में पहुँचकर वह गतिहीन और ध्वनिहीन हो जाती है। साधना की अनुभूति महर्षिजी के हृदय से उसी प्रकार अनायास फूट निकली और कविता के रूप में ध्वनि करती रही, जबतक कि साधना की चरमावस्था प्राप्त नहीं हुई। अब महर्षिजी की कविता इसलिए मौन है कि वह साधना की पराकाष्ठा जनित आनन्द के अवलोकन में इतनी निमग्न हो गयी है कि उसे ध्वनि के लिए अवकाश नहीं है। ‘महर्षि मेँहीँ -पदावली’ के पदों में एक अनुभव का बल है और यही उसकी लोकप्रियता का कारण है। मैंने इन पदों को स्त्रियों को भी मग्न होकर माँगलिक अवसरों पर गाते हुए सुना है। हजारों साधक इन पदों को मुग्ध होकर भावावेश में गाते हुए पाए जाते हैं ।
महर्षिजी के पद अभी तक ‘सन्तमतसिद्धान्त और गुरु-कीर्तन’ तथा ‘सत्संग-योग’ में ही प्रकाशित हुए थे। मैंने उन दोनों पुस्तकों की ओर निर्देश करते हुए महर्षिजी से पूछा- क्या आपके कुल पद इतने ही हैं?’
उन्होंने कहा- ‘नहीं , कुछ और भी है जो अभी अप्रकाशित है।’
मेरी इच्छा हुई कि उक्त दोनों पुस्तकों में प्रकाशित सब पदों को एकत्रित करके ‘महर्षि मेँहीँ -पदावली’ के नाम से प्रकाशित किया जाय। इसके पहले भी महर्षिजी के अधिकांश शिष्यों ने मुझसे महर्षिजी के पदों का संग्रह निकालने के लिए अनुरोध किया था। अतः मैंने श्री महर्षिजी के सब से निकट रहनेवाले शिष्य श्री महावीर ‘सन्तसेवीजी’ से अनुरोध किया कि वे महर्षिजी के अप्रकाशित पदों की पाण्डुलिपि मुझे प्रदान करें। उन्होंने महर्षिजी की सेवा से थोड़ा समय निकालकर मेरे अनुरोध की रक्षा की है, अत: मैं उन्हें हृदय से धन्यवाद देता हूँ।
महर्षिजी के पदों को मैंने छह भागों में बाँट दिया है(१) ईश-स्तुति- इसमें ईश्वर का स्वरूप, उनकी प्रार्थना और विनती के पद है। (२) संत-स्तुति- ‘इसमें संतों की वन्दना और उनका गुण-वर्णन है।’ (३) गुरु-कीर्तन-- इसमें गुरु की महिमा का वर्णन, उनकी प्रार्थना तथा उनके नाम का कीर्तन किया गया है। (४) ध्यानाभ्यास- इसमें नाद-विन्दु की महिमा उसके अभ्यास का तरीका तथा परमेश्वर को अपने में प्राप्त करने का उपाय बतलाया गया है। (५) संतमत की बातें-- इसमें संतमत के सिद्धान्त की मुख्य-मुख्य बातों तथा पाँच पापों से बचने के उपायों का वर्णन किया गया है। (६) आरती-- महर्षिजी के सिद्धान्त के अनुसार ईश्वर अव्यक्त-निराकार है, अतः उसकी पूरी आरती, पूजा के स्थूल उपकरणों से नहीं उतारी जा सकती है। इसलिए महर्षिजी ने इन पदों में पूजा के सूक्ष्म उपकरणों की आयोजना की है।’

09.

श्री गीता-योग-प्रकाश

गीता एक ऐसा महान ग्रन्थ है, जिस पर भिन्न-भिन्न प्रकार की टीकाएँ निकल चुकी हैं , निकल रही हैं और निकलती रहेंगी। सब आचार्यों ने भिन्न-भिन्न उद्देश्यों को लेकर इसपर टीकाएँ की हैं । लेकिन महर्षिजी ने सत्संगियों के लिए अत्यन्त सरल भाषा में प्रत्येक अध्याय का सार संगृहीत किया है। उनमे प्रतिपादित सिद्धान्तों के लिए संतवाणी का प्रयोग किया गया है। इस ‘श्री गीता-योग-प्रकाश’ में ‘ध्यान-योग’ की विशेषता बतलाई गयी है।
‘श्री गीता-योग-प्रकाश’ में महर्षिजी द्वारा लिखी भूमिका में इस पुस्तक के प्रणयन की आवश्यकता तथा उपयोगिता के संबंध में जो कुछ कहा गया है, वह ‘गागर में सागर’ की भाँति ही प्रतीत होता है। सुधी पाठक इसका मनन करें-
भारत के एक वृहत् ग्रन्थ का नाम ‘महाभारत’ है। कहा जाता है कि यह विश्व-साहित्य-भंडार के पद्य-बद्ध-ग्रन्थों में सबसे विशेष स्थूलकाय है। यह केवल भारत ही नहीं , वरन् संपूर्ण विश्व में सुविख्यात है।
यह ग्रन्थ अठारह भागों में विभक्त है। इसके प्रत्येक भाग को पर्व कहते हैं । इन अठारह पर्वों में एक का नाम ‘भीष्म पर्व’ है । इस भीष्म पर्व के एक छोटे-से भाग का नाम ‘श्री मद्भगवद्गीता’ है। श्री मद्भगवद्गीता का अर्थ भगवान श्री कृष्ण द्वारा गाया हुआ गीत है। इसीलिए इसकी पद्यात्मक भाषा में तार (टेलीग्राम) द्वारा भेजे गए संदेश की सी संक्षिप्तता है। इसमें केवल ७०० श्लोक है तथा सब मिलाकर ९४५६ शब्द है।
नौ हजार, चार सौ छप्पन पद्यबद्ध-शब्दों में उपनिषदों का सारांश आ गया है। इसीलिए इस पुस्तिका की बड़ी महत्ता है। यह तेजस्विनी पुस्तिका भारत के अध्यात्म-विद्या की सबसे बड़ी देन है।
भारत आदि काल से ही अध्यात्म-ज्ञान एवं योग-विद्या का देश रहा है। इस विद्या के कोई गुरु कहीं बाहर से आकर यहाँ वालों को अध्यात्म-ज्ञान एवं योग-विद्या की शिक्षा-दीक्षा दे गए हों- ऐसा एक भी उदाहरण भारत के हजारों साल लंबे इतिहास में नहीं मिलता। उपर्युक्त विद्याओं के गुरु समय-समय पर इसी देश में उत्पन्न होते रहे हैं ।
पहले की बात तो जाने दीजिए, हजार साल की परतंत्रता से दीनापन्न भारत में भी इन विद्याओं के जानकार पूर्ववत् होते रहे हैं ।
भारत के स्वतंत्र होने के कुछ ही साल पूर्व श्री पालब्रण्टन नाम के प्रतिष्ठित अंग्रेज महाशय योग-विद्या के जानकारों की खोज में यहाँ आये और कुछ ही महीने ठहरकर वे जो कुछ जान पाये उसी से संतुष्ट होकर अपने देश को लौट गए।
इस देश को सर्वाधिक गौरव उपर्युक्त विद्याओं का है और इन विद्याओं को ‘श्री मद्भगवद्गीता’ पर गौरव है। इसलिए भारत के बड़े -बड़े साधक-- आचार्य श्री मद्भगवद्गीता का सहारा लेकर ज्ञान द्वारा भारत एवं विश्व का कल्याण करते रहे हैं । परिणामस्वरूप भारत-वन्द्या यह पुस्तिका अब विश्व-वन्द्या हो चुकी है। विश्व की सभी समुन्नत भाषाओं में आये दिन इसके अनुवाद निकलते ही रहते हैं। अतएव जगद्गुरु भारत के प्रत्येक नागरिक का यह नैतिक उत्तरदायित्व है कि वह इस ग्रन्थ का सही तात्पर्य स्वयं समझे और अन्यों को समझावे ।
इस उत्तरदायित्व के निवाहने में तनिक भी प्रमाद, असावधानी या भ्रम, न केवल भारत, बल्कि विश्व की आध्यात्मिक उन्नति के लिए घातक है।
अब प्रश्न यह है कि गीता का सही तात्पर्य क्या है? ऐहिक एवं पारमार्थिक कल्याण साथ-साथ करते हुए मनुष्य कैसे ‘समता’ प्राप्त करे और किस तरह कर्म करता हुआ समाधिस्थ हो ‘स्थितप्रज्ञता’ तक पहुँच सके, इसी के साधन इस शास्त्र में युक्ति-युक्त रीति से बतलाये गये हैं । इस साधन की पूर्णता के लिए योग का अभ्यास अत्यावश्यक है। यहाँ ‘योग’ शब्द की सफाई में कुछ कह देना आवश्यक है। गीता के अठारह अध्याय है और प्रत्येक अध्याय के साथ ‘योग’ शब्द लगा हुआ है। जैसे—अर्जुन विषादयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग इत्यादि । इससे गीता के पाठकों को ज्ञान होता है कि इसमें केवल योग-ही-योग है।
स्मरण रखने की बात यह है कि गीता में केवल योग की ही बात नहीं है, बल्कि कैसे बैठना चाहिए, कितना खाना चाहिए और कितना सोना चाहिए; आदि बातें भी दे दी गयी है।
यहाँ निवेदन यह है कि गीता में ‘योग’ शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है।
पहले तो ‘योग’ सुनते ही ‘पातंजल-योग-दर्शन’ के योग का स्वरूप विचार में आने लगता है। चित्तवृत्ति के निरोध के अर्थ में ‘योग’ शब्द गीता में आया है, मगर उसके और दूसरे-दूसरे अर्थ भी हैं जैसे-- अर्जुनविषादयोग।
यहाँ ‘योग’ शब्द का अर्थ ‘युक्त होना’ है। अर्जुन ‘विषादयुक्त’ हुआ इसी का वर्णन प्रथम अध्याय में है। इसलिए उस अध्याय का नाम ‘विषादयोग’ हुआ। जिस विषय का वर्णन करके श्रोता को उससे युक्त किया गया, उसको तत्संबंधी योग कहकर घोषित किया गया ।
अध्याय २ के ४८ वें श्लोक में कहा गया है— ‘समत्वं योग उच्यते’ अर्थात् ‘समता’ का ही नाम ‘योग’ है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ ‘योग’ शब्द का अर्थ ‘समता’ है।
पुनः दूसरे अध्याय में ही श्लोक ५० में कहा गया है- ‘योगः कर्मसु कौशलम् ।’ अर्थात् कर्म करने की कुशलता या चतुराई को ‘योग’ कहते हैं। यहाँ ‘योग’ शब्द उपर्युक्त अर्थो से भिन्न, एक तीसरे ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
अतएव गीता के तात्पर्य को अच्छी तरह समझने के लिए ‘योग’ शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थो को ध्यान में रखना चाहिए ।
गीता ‘स्थितप्रज्ञता’ को सर्वोच्च योग्यता कहती है और उसकी प्राप्ति का मार्ग बतलाती है।
‘स्थितप्रज्ञता’ बिना ‘समाधि’ के सम्भव नहीं है। इसलिए गीता के सभी साधनों के लक्ष्य को ‘समाधि’ कहना अयुक्त नहीं है ।
इस साधन में ‘समत्व-प्राप्ति’ बहुत ही आवश्यक बतलाया गया है। ‘समत्व-बुद्धि’ की तुलना में केवल ‘कर्म’ बहुत तुच्छ है (गीता २।७९)। इसलिए समतायुक्त होकर कर्म करने को ‘कर्मयोग’ कहा गया है। यही ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ है। अर्थात् कर्म करने की कुशलता को योग कहते हैं। कर्म करने का कौशल यह कि कर्म तो किया जाय, परन्तु उसका बन्धन न लगने पावे । यह समता पर निर्भर करता है।
गीता न सांसारिक कर्तव्यों के करने से हटाती है और न कर्म-बन्धन में रखती है।
समत्व-योग प्राप्त कर स्थितप्रज्ञ बन, कर्म करने की कुशलता या चतुराई में दृढारूढ़ रह, कतव्य कमों के करने का उपदेश गीता देती है।
समत्व-प्राप्त स्थितप्रज्ञ पुरुष कर्म करने में कुशल, सांसारिक कर्मों में फल-आश-भाव से असंग रहता हुआ, कर्म-बन्धन-रहित होकर उन कर्मों को जीवन भर करें और इसी तरह ‘जीवनमुक्त’ बन जाय— यही ‘कर्मयोग’ गीता सिखलाती है।
गीता ज्ञानानुकूल कर्म-योगी के लिए ‘समत्व’ और ‘स्थितप्रज्ञता’ अत्यन्त आवश्यक बतलाए गए है। ये दोनों ‘समाधि-साधन’ में ही प्राप्त होते हैं। (गीता २।५३ से) यही विदित होता है। तथा गीता अध्याय २, श्लोक ५४ में तो ‘समाधिस्थ’ और ‘स्थितप्रज्ञ’ का कथन निर्भेद भाव में किया गया है।
पहले ही कहा जा चुका है कि गीता में बतलाये गये तमाम साधनों का अन्तिम लक्ष्य ‘समाधि’ है।
समाधि-साधन के लिए जिन योगों की आवश्यकता है, उन सबका समावेश गीता में है । गीताशास्त्र के ज्ञानयोग, ध्यानयोग, प्राणायामयोग, जपयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, आदि सभी योगों की भरपूर उपादेयता है। सब एक दूसरे से सम्बद्ध है और इस तरह से सम्बद्ध है - जैसे माला की मणिकाएँ ।
अब अगर कोई कहें कि ‘अमुक योग के अभ्यास करने का युग’ नहीं है, तो मानना पड़ेगा कि उनकी यह कथनी गीतोपदेश के ‘विरुद्ध’ है।
अन्य कोई कहे तो कहे- मगर कहनेवाला यदि भारत के उत्तम पुरुषों में से कोई हों, और भारत के अध्यात्म-जगत की सर्वोत्तम उपाधि से विभूषित हों- यानी ‘सन्त’ कहलाते हों- तो स्थिति और गम्भीर हो जाती है। ये सन्त’ यदि कहें कि ‘मेरे जीवन में गीता ने जो स्थान पाया है, उसका मैं शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता हूँ। गीता का मुझपर अत्यन्त उपकार है।....मेरा शरीर माँ के दूध पर जितना पला है, उससे कहीं अधिक मेरा हृदय व बुद्धि गीता से पोषित हुए हैं। ...मैं प्रायः गीता के ही वातावरण में रहता हूँ। गीता यानी मेरा प्राणतत्त्व ।’ और फिर वही’ अगर कहें कि ‘अब ध्यानयोग-अभ्यास करने का युग नहीं है’ तो स्थिति गम्भीरतम हो जाती है और यही विदित होता है कि ‘देश का अमंगल-काल’ ही चला आया है।
किसी को नहीं चाहिए कि कर्मयोगी बनते हुए ‘कर्मयोगी’ का तो वे गुणगान करें और ‘ध्यानयोग’ को आधुनिक काल के लिए अव्यावहारिक बताकर जन-साधारण को उससे विमुख करें।
गीतोक्त ज्ञान जन-साधारण के लिए ही है। साधारणतया यह मान लिया गया है कि गीता साधु-सन्यासियों के व्यवहार की चीज है, किन्तु स्वयं गीता सबको ‘गीता-ज्ञान’ का अधिकारी मानती है। यहाँ सवर्ण, अवर्ण, स्त्री, शुद्र, पापी और दुराचारी सभी के लिए गीता-गंगा का जलरूपी उपदेश समानरूप से सुलभ है। (गीता, अध्याय ९, श्लोक ३० से ३२ तक)
यहाँ उपदेश और उपदेष्टा (गुरु) के लिए कुछ कहना आवश्यक प्रतीत होता है। क्योंकि कुछ ऐसे भी सज्जन है , जिनका मत है कि ‘अध्यात्म-साधन’ के लिए गुरु की कोई आवश्यकता नहीं , परमात्मा ही एकमात्र गुरु है।’
उनसे मेरा निवेदन यह है कि ऐसे विचार गीता एवं भारतीय अध्यात्म-विद्या की शिक्षा-परम्परा के सर्वथा विरुद्ध है। गीता के चौथे अध्याय में लिखा है - तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥३४॥ तत्त्व को जाननेवाले ज्ञानी पुरुषों से भली, प्रकार दण्डवत् प्रणाम तथा सेवा और निष्कपट भाव से किए हुए प्रश्नों-द्वारा उस ज्ञान को जान । ये मर्म को जाननेवाले ज्ञानी जन तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे।
देवद्विज गुरु प्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् । ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥
-गीता, अध्याय १७, श्लोक १४
देव, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानी की पूजा, पवित्रता और सरलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा यह ‘शारीरिक तप’ कहलाता है।
विशेष जानकारी के लिए परिशिष्ट पढ़े ।
विशेष रूप से याद रखने की बात यह है कि ‘गीता’ परम रहस्यमयी पुस्तिका है। इसकी गुप्त योग-रहस्य-विधियों पर भी प्रकाश डालने के लिए ‘श्री गीता-योग-प्रकाश’ लिखा गया है। उपर्युक्त दृष्टिकोणों से ‘गीतार्थ के भाव’ आवश्यकतानुकूल लिखे गए हैं।
श्री गीता-योग-प्रकाश’ सब श्लोकों के अर्थ वा उनकी टीकाओं की पुस्तिका नहीं है। गीता के सही तात्पर्य को समझने के लिए जो दृष्टिकोण चाहिए, वही इसमें अपनाया गया है।
गीता के बारे में फैले सैकड़ों भ्रामक विचारों में से एक का भी निराकरण यदि ‘श्री गीता-योग-प्रकाश’ से हुआ, तो मैं अपना प्रयत्न सफल समझूँगा ।’

10.

भावार्थ सहित ‘घट रामायण’ के मुख्य और परमोपयोगी विषय की पदावली

सन्तमत-सत्संग के प्रारम्भिक काल में आम जनता ही नहीं – शिक्षित वर्गों तक में यह भ्रामक धारणा बद्धमूल हो गयी थी कि सन्तमत भी अन्य सम्प्रदायों की भाँति ही एक नया सम्प्रदाय है, जिसकी मूल पुस्तक है ‘घट रामायण’। इसीलिए सन्तमत-सत्संगियों को ‘घटरमैनियाँ’ कहकर भी जताया और बताया जाता था। बाबा देवी साहब के द्वारा ‘घट रामायण’ प्रकाशित किए जाने के कारण ऐसा होना कुछ स्वाभाविक भी था । इस पुस्तक में सन्त तुलसी साहब (हाथरस) की कतिपय अनुभव-वाणियों के कारण यह जानना विद्या-सम्पन्न बुद्धि के लिए भी कठिन और दुर्विगाह्य हो रहा था कि इस पुस्तक के वास्तविक लेखक कौन हैं ? महर्षिजी ने युक्तियुक्त तकों, जाचने योग्य प्रमाणों एवं ऐतिहासिक सत्यों एवं तथ्यों के आधार पर इस पुस्तक का वास्तविक स्वरूप एक सुविस्तृत भूमिका लिखकर उद्घाटित कर दिया है, जिससे मिश्रण के कारण अदृष्ट भेदों को स्पष्टता से देखा जा सके।
मिश्रित अखाद्यों को छोड़कर जो परमोपयोगी विषय इसमें उपस्थित है , उसके सम्बन्ध में महर्षिजी की लिखी ‘भूमिका’ का कुछ उद्धरण यहाँ दे रहे हैं , जिससे जिज्ञासुगण इससे परिचित होकर लाभ उठाने के लिए अग्रसर, प्रेरित और आकर्षित हो सकें
“परम प्रभु सर्वेश्वर को मुनष्य अपने घट में कहाँ और कैसे पा सकता है- यह विषय ‘घटरामायण’ में अत्यन्त उत्तमता से लिखा हुआ है। .......” यह भेद ऐसा सरल बतलाया गया है कि जिसके द्वारा अभ्यास करने से अभ्यासी को अभ्यास के कारण शारीरिक कष्ट और रोगादि होने की कोई खटक नहीं होती है और गृही तथा वैरागी, सब मनुष्य सरलतापूर्वक इसका अभ्यास कर सकते हैं । इसमें शरीर से नहीं – केवल सुरत से अभ्यास करने का भक्तिमय भेद लिखा हुआ है। ....... इसमें भक्ति करने की अत्यन्त आवश्यकता बतलाकर बाहरी और अन्तरी दोनों भक्तियों का वर्णन है।’
श्री कृष्ण भगवान की निसबत भी अयोग्य और झूठी बातें- ‘घटरामायण’ में लिखी हुई है। ....... मनगढन्त और झूठी बातें लिखकर किसी की निन्दा करने– किसी संत का काम हो कदापि संभव नहीं है।’
पूज्यपाद महर्षिजी की उपर्युक्त वाणियों को पढ़ने से यह साफ-साफ जानने में आ जाता है कि किस प्रकार सन्तों के नाम पर उनके अनुयायी कहलानेवाले लोग अपने अविकास के कारण किसी सीमा-संकीर्णता के अनुदात्त और राग-द्वेष पूर्ण विचारों से सन्तमत को विकृत और यहाँ तक कि उसके प्रतिकूल तक बनाकर जन-साधारण के समक्ष उन्हीं सन्त के नाम से उपस्थित करते हैं । इससे यह स्पष्टतया समझ लेना चाहिए कि किसी भी सन्त की वाणियों में साम्प्रदायिक संकीर्णताओं के लिए कहीं कोई स्थान नहीं रहता। केवल कल्याणविरोधी आसुरी वृत्तियों से संचालित- अनुप्रेरित, मनुज रूप में मनुजाद छद्मवेष धारणकर, किसी सन्त का शिष्य बनकर उनका सच्चा अनुयायी होने की दम्भपूर्ण घोषणा करते हैं और उन सन्तों के महानिर्वाण के उपरान्त उनकी पावनता के मूल को विनाश करने के लिये उन्हीं के नाम पर अपना सम्प्रदाय यानी ‘अपना मत’ संस्थापित कर उसका वृहद् रूप में प्रचार करते हैं । ऐसे दुष्प्रचारों में भगवद्विरोधिनी माया की शक्तियाँ भी पूरा सहयोग करती है। आज विश्व इन छद्मवेशी देवों- सन्तमतानुयायियों से अस्त-व्यस्त और भयभीत है। मानवता को अपने त्राण का कोई साधन नहीं दिखाई दे रहा है। ऋषियों के नाम पर, वेद-वेदान्त के नाम पर, पैगम्बरों के नाम पर, कुरान के नाम पर, सेटों के नाम पर, बाइबिल के नाम पर, सिद्धों और सन्तों के नाम पर ऐसे कुचक्रों के जाल सर्वत्र फैल रहे हैं – फैलाए जा रहे हैं और अज्ञानी मानव अपने अज्ञान और अज्ञानता के कारण उसी में अपना कल्याण और सुमंगल समझकर उलझ रहे हैं । ऐसे घनान्धकारों के दुर्भेद्य व्यूहों का उच्छेदन और विनाश करने के लिए ही आज के संक्रमण काल में महामहिम महर्षि मेँहीँ परमहसजी का अवतरण हुआ है। आप उनके प्रत्येक प्रवचनों में- उनके द्वारा विरचित सभी साहित्यों में इसी मोहान्धकार की भ्रम-प्रवर्धिनी निशाओं को एवं अज्ञान-कुहेलिकाओं को विनाश करनेवाले दुर्दम्य तेजों को क्रियाशील पाएँगे। आज मानवता के नाम पर स्वार्थोन्मुखी भौतिकवाद और मनुष्यों को इन्द्रिय-विषयों की ओर ले जानेवाले वैयक्तिक सुखवाद तथा इन्द्रियों की माँग के अनुसार विशाल भाग-सामग्रियों को जुटा देनेवाले परोपकारवाद का सारे विश्व में एकछत्र साम्राज्य फैला हुआ है। एक और वाद है, जिसे धर्मवाद और कुछ अंशों में अध्यात्मवाद नाम भी दिया जा सकता है। यह वाद संसार में पुण्य-संग्रह करने, देव-पूजन, तीर्थ-भ्रमण, व्रत-पालन, दान, नाम-जपन एवं भजन-ध्यान के द्वारा स्वर्ग और वकुण्ठ-धाम का प्रलोभन देते हैं , जिस स्वर्ग के विषय में गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं – ‘स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुख दाई ।’ स्वर्ग में विषय-भोगों के सुखों को छोड़कर और कौन-सा सुख है ? और जहाँ विषय-भोग की लालसाओं का अवस्थान है, वहाँ शान्ति कैसे मिल सकती है? अतः सच्ची मानवता, परिशुद्ध धर्म और सर्वोत्तम-कल्याणकारी अध्यात्म को पहचानने और उसे जीवन में उतारने की सदभिलाषावाले मानवों को महर्षिजी तथा इनके सदृश ब्रह्मज्ञानियों की शरण में आना ही पड़ेगा। आप हमारी प्रार्थना को स्वीकार कर एक बार इनसे या इनके साहित्यों से सम्पर्क स्थापित करें, फिर स्वयं ही आपको इस सत्य की अभिज्ञता हो जाएगी।


श्री महावीर ‘सन्तसेवी’ सन्तमत-सत्संग मन्दिर, मनिहारी (पुरैनियाँ) 

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी  

संपर्क

महर्षि मेंहीं आश्रम

कुप्पाघाट , भागलपुर - ३ ( बिहार ) 812003

mcs.fkk@gmail.com

जय गुरु!

जय गुरु!

सद्गुरु तथ्य 

01. जन्म-तिथि : विक्रमी संवत् १९४२ के वैसाख शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तदनुसार 28 अप्रैल, सन् 1885 ई. (मंगलवार)
02. निर्वाण=8 जून, सन 1986 ई. (रविवार)

श्री सद्गुरु महाराज की जय!