02. सिद्धांत-सामंजस्य

97.

विविध संतों की एक ही अनुभूति  --->>>

[सन्त कमालजी] (कबीर जी के पुत्र एवं शिष्य) 

इतना जोग कमाय के साधू, क्या तूने फल पाया।
जंगल जाके खाक लगाये, फेर चौरासी आया।।
राम भजन है अच्छा रे, दिल में रक्खो सच्चा रे।
जोग-जुगत की गत है न्यारी, जोग जहर का प्याला।
जीने पावे उने छुपावे, वो ही रहे मतवाला ।।
जोग कमाय के बाबू होना, ये तो बड़ा मुष्कल है।
दोनों हात जब निकल गए, फेर सुधरन भी मुष्कल है।।
सुख से बैठो आपने महल में राम-भजन अच्छा है।
कछु काया छीजे नहिं खरचे, ध्यान धरो सच्चा है।।
कहत कमाल सुनो भाइ साधू, सबसे पंथ न्यारा है।
वेद शास्तर की बात येही, जम के माथे पथरा है।। 

98.

संत धनी धरमदासजी
(बाँधोगढ़, १४९० से १६०॰ वि॰ सं॰) 

नाम राम ऐसो है भाई ।।
आगे-आगे दाहि चले, पाछे हरियर होइ ।
बलिहारी वा बृच्छ की, जड़ काटे फल होइ।।
अति कडुवा खट्टा घना रे, वाको रस है भाई।
साधत-साधत साध गये हैं, अमली होय सो खाई।।
सूंघत के बौरा भये हो, पीयत के मरि जाई।
नाम रस जो जन पिये, धड़ पर सीस न होई।।
संत जवारिस सो जन पावै, जाको ज्ञान परगासा।
धरमदास पी छकित भये है , और पिये कोइ दासा।। 

99.

सन्त रैदास (रविदास)

(काशी, कबीर साहब के सम-सामयिक)
त्यों तुम कारन केशवे, लालच जिव लागा।
निकट नाथ प्रापत नहीं , मन मोर अभागा।।
सागर सलिल सरोदिका, जल थल अधिकाई।
स्वाती बुन्द की आस है, पिउ प्यास न जाई।।
जौ रे सनेही चाहिये, चित्त बहु दूरी ।
पंगुल फल न पहुँच ही, कछु साध न पूरी।।
कह रैदास अकथ कथा, उपनिषद सुनीजै ।
जस तूँ तस तूँ तस तुही , कस उपमा दीजै।।
*************************


ऐसा ध्यान धरौ वरो बनवारी ।
मन पवन दै सुखमन नारी ।। टेक।।
सो जप जपौ जो बहुरि न जपना।

सो तप तपौ जो बहुरि न तपना ।।
सो गुरु करौ जो बहुरि न करना ।

ऐसो मरौ जो बहुरि न मरना ।।
उलटी गंग जमुन में लावौ ।

बिन ही जल मंजन द्वै पावौ ।।
लोचन भरि-भरि बिंब निहारौ ।

जोति विचारि न और विचारौ ।।
पिंड परे जिव जिस घर जाता।

सबद अतीत अनाहद राता ।।
जापर कृपा सोई भल जानै ।

गूंगो साकर कहा बखानै ।।
सुन्न महल में मेरा बासा ।

ताते जिबव में रहौं उदासा ।।
कह रैदास निरंजन ध्यावौं ।

जिस घर जावँ सो बहुरि न आवौं ।।
*************************  

100.

संत श्री निपट निरंजनजी
(बुन्देलखण्ड, सं॰ १६८० से १७९५) 

संगत साधुन की करिये, कपटी लोगन से डरिये।
कौन नफा दुरजन की संगत, हाय हाय करि मरिये ।।
वानी मधुर सरस मुख बोलत, अवस सुनिय भव तरिये।
‘निरंजन’ प्रभु अन्तर निरमल, हीये भेद बिसरिये ।।

*************************  

101.

श्री बावरी साहिबा
(महात्मा मायानन्द की शिष्या, दिल्ली) 

जपमाला छापा तिलक, सरै न एकौ काम।
काचै मन नाचै बृथा, साँचै राचैं राम ।।
मनका फेरत जग गया, गया न मन का फेर।
कर का मनका छाँड़ि के मन का मनका फेर।।
*************************
अजपा जाप सकल घट बरतै, जो जानै सोइ पेखा ।
गुरुगम ज्योति अगम घट बासा, जो पाया सोइ देखा ।।
मैं बन्दी हौं परमतत्त्व की, जग जानत की भोरी ।
कहत ‘बावरी’ सुनो हो बीरू, सुरति कमल पर डोरी।।
*************************  

102.

 संत बीरु साहब
(सत्रहवीं शताब्दी, बावरी साहिबा के शिष्य) 

हंसा! रे बाझल मोर याहि धराँ, करबो मैं कवनि उपाय ।
मोतिया चुगन हंसा आयल हो, सो तो रहल भुलाय ।।
झीलर को बगुला भयो है, कर्म-कीट धरि खाय ।
सतगुरु सत्य दया कियो, भव-बंधन लियो छुड़ाय ।।
*************************  

103

संत यारी साहब (संत बीरू साहब के शिष्य, वि॰ सं॰ १७२५-१७८०) 

विरहिनी मंदिर दियना बार ।।
बिन बाती बिन तेल जुगति सों, बिन दीपक उजियार ।
प्रानपिया मेरे घर आयो, रचि-रचि सेज सँवार।।
सुखमन सेज परम तत रहिया, पिय निरगुन निरंकार |
गावहु री मिली आनन्द-मंगल, ‘यारी’ मिलिके यार ।।
*************************  

104

सन्त बुल्ला साहब (गाजीपुर, यारी साहब के शिष्य)
(वि॰ सं॰ १६८६ सं॰ १७६६) 

हरि हम देख्यो नैनन बीच। तहाँ बसंत धमारि कीच।।
आदि अन्त मधि बन्यो बनाय। निरगुन-सरगुन दोनों भाय ।।
चीन्हेब तिनको लियो लगाय। अनबूझो रहिगो मुँह बाय ।।
सुन्न भवन मन रह्यो समाय। तहँ ऊठत लहरि अनन्त आय।।
जगमग-जगमग है अंजोर। जन ‘बुल्ला’ है सेवक तोर ।।
*************************
जिवन हमार सुफल भो हे, सइयाँ सुतल समीप।।
एक पलक नहिं बिछुरे हो, साँई मोर जिहीत।
पुलकि-पुलकि रति मानल हो, जानल परतीत।।
मन पवना से जासन हो, तिरबेनी तीर।
हम धनि तहवाँ विराजल हो, लिहले रघुवीर।।
सुरति निरति ले जाइब हो, पाइब गुरु रीति।
बहुरि न यह जग आइब हो, गाइब निर्गुन गीति।।
जन ‘बुल्ला’ घर छाइब हो, बारब तहँ जोति।
अनहद डंक बजाइब हो, हानि कबहुँ न होति।।
*************************  

105

संत जगजीवन साहब
(बाराबंकी, वि॰ सं॰ १७२७ से १८१८) 

जाके लगी अनहद तान हो, निरवान निरगुन नाम की ।।
जिकर करके शिखर हेरे, फिकर रारंकार की।
जाके लगी अजपा झलकै, जोत देख निशान की ।।
मद्ध मुरली मधुर बाजे, बाँएँ किंगरी सारंगी ।
दहिने जो घंटा शंख बाजै, गैब धुन झनकार की ।।
अकह को यह कथा न्यारी, सीखा नाहीं आन है।
‘जगजीवन’ प्राण शोध के, मिल रहे सत नाम है ।।
*************************  

106

संत भीखा साहब
संत गुलाल साहब के शिष्य, आजमगढ
(वि॰ सं॰ १७७० से १८२०) 

एकै धागा नाम का, सब घट मनिया माल।
फेरत सोई संतजन, सतगुरु नाम ‘गुलाल’ ।।
उठयो दिल अनुमान हिरिध्यान ।।
भर्म करि भूल्यो आपु समान । अब चीन्हों निज पति भगवान ।।
मन वच कर्म दृढ़ मन परवान। वारो प्रभु पर तन मन प्रान ।।
शब्द प्रकाश दियो गुरुदान । देखत सुनत नैन बिनु कान ।।
जाको सुख सोई जानत जान । हरि रस मधुर कियो जिन पान।।
निर्गुन ब्रह्म रूप निर्वान । ‘भीखा’ जल ओला गलतान ।।
*************************  

107.

बाबा मलूकदासजी
(इलाहाबाद, सं॰ १६३१ से १७३९) 

प्रेम नेम जिन ना कियो, जीते नाहिं मैन ।
अलख पुरुष जिन ना लख्यो, छार परो तेहि नैन।।
माला जपौं न कर जपों, जिह्वा जपौं न राम।
सुमिरन मेरा हरि करै, मैं पाया विश्राम ।।
*************************
तेरा मैं दीदार दिवाना ।
घड़ी-घड़ी तुझे देखा चाहूँ, सुन साहेब रहमाना ।।
हुआ अलमस्त खबर नहिं तन की, पीया प्रेम पियाला ।
ठाढ होऊँ तो गिर गिर पड़ता, तेरे रंग मतवाला ।।
खड़ा रहूँ दरबार तिहारे, ज्यों घर का बंदाजादा ।
नेकी की कुलाह सिर दीये, गले पैरहन साजा ।।
तौजी और निमाज ना जानूँ , ना जानूँ धरि रोजा ।
बाँग जिकर तब ही से बिसरी, जब से यह दिल खोजा।।
कहै ‘मलूक’ अब कजा न करिहौं, दिल ही सों दिल लाया।
मक्का हज्ज हिये मैं देखा, पूरा मुरसिद पाया ।।
*************************  

108

बाबा धरनीदासजी
(छपरा, स॰ १७६३ जन्म काल) 

‘धरनी’ ध्यान तहाँ धरो, उलटि पसारो दृष्टि ।
सहज सुभावहिं होत जहँ, पुहुप माल की बृष्टि ।।
‘धरनी’ ध्यान तहाँ धरो, जहवाँ खुलहिं किवार।
निरखि निरखि परखत रहो, पल पल बारम्बार ।।
‘धरनी’ ध्यान तहाँ धरो, प्रगट ज्योति फहराहिं ।
मनि मानिक मोती झरै, चुगि चुगि हंस अघाहिं।।
‘धरनी’ ध्यान तहाँ धरो, त्रिकुटी कुटी मझार ।
धर के बाहर अधर है, सन्मुख सिरजन हार ।।
‘धरनी’ अधरे ध्यान घरू, निसिवासर लौलाइ ।
कर्म कीच मगु बीच है, (सो) कंचन गच ह्वै जाई ।।
‘धरनी’ निर्मल नासिका, निरखो नयन के कोर।
सहजै चन्दा ऊगिहैं, भवन होइ उजियोर ।। 

109.

संत केशवदासजीव
(ओरछा, स॰ १६१२ से १६७४) 

धनि सो घरी धनि बार, जबहिं प्रभु पाइये।
प्रगट प्रकाश हजूर, दूर नहिं जाइये।।१।।
छन्द- नहिं जाइ दूर हजूर साहिब, फूलि सब तन में रह्यो ।
अमर अछय सदा जुगन जुग, जक्त दीपक उगि रह्यो ।।
निरखि दसो दिसि सर्व शोभा, कोटि चन्द सुहावनं ।
सदा निरभय राज नित सुख, सोई केसो ध्यावनं ।।
पूरन सर्व निधान, जानि सोइ लीजिए ।
निर्मल निर्गुन कंत, ताहि चित दीजिये ।।  

110.

संत श्री दादूदयालजी
(अहमदाबाद, १६०१ से १६६० वि॰) 


नीके राम कहतु है बपुरा ।
घर माहैं घर निर्मल राखें, पंचौं धोवै काया कपरा ।।टेक ।।
सहज समरपण सुमिरण सेवा, तिरवेणी तट संयम सपरा ।
सुन्दरि सन्मुख जागण लागी, तहँ मोहन मेरा मन पकरा।।
बिन रसना मोहन गुण गावै, नाना वाणी अनभै अपरा ।
‘दादू’ अनहद ऐसैं कहिये, भगति तत्त यह मारग सकरा।।
*************************


मन इन्द्री पसरै नहीं, अह निसि एकै ध्यान।
पर उपकारी प्राणिया, ‘दादू’ उत्तिम ज्ञान।।
‘दादू’ हरि साधू यों पाइये, अविगत के आराध।
साधू-संगति हरि मिलैं, हरि-संगत सूँ साध।।
कायर काम न आवई, यहु सूरे का खेत।
तन मन सौंपे राम कुँ, ‘दादू’ सीस सहेत।।  

111

संत सुन्दरदासजी
(जयपुर, श्री दादूदयालजी के शिष्य, सं॰ १६५३ से १७४६) 


है दिल में दिलदार सही, अखियाँ उलटि करि ताहि चितैये।
आब में खाक में बाद में आतश, जान में “सुन्दर’ जानि जनैये ।।
नूर में नूर है तेज में तेजहि, ज्योति में ज्योति मिले मिलि जैये।
क्या कहिये कहते न बने कछु, जो कहिये कहते हि लजैये।।१।।
*************************


तुरिया साधन ब्रह्म को, अहं ब्रह्म सो होय ।
तुरीयातीत अनुभवयय है, मैं तूँ रहै न कोय।। 

112.

संत गुलालसाहब
(सन्त बुल्लासाहब के शिष्य, गाजीपुर, १७५०-१८१६) 

उलटि देखो घट में ज्योति पसार।
बिनु बाजे तहँ धुनि सब होवै, बिगसि कमल कचनार ।।
पैठि पताल सूर शशि बाँधौ, साधौ त्रिकुटी द्वार ।
गंग-यमुन के वारपार बिच, भरतु है अमिय करार ।।
इँगला पिंगला सुखमन शोधो, बहत शिखर मुख धार ।
सुरति निरति ले बैठ गगन पर, सहज उठै झनकार ।।
सोहं डोरि मूल गहि बाँधो, मानिक बरत लिलार ।
कह ‘गुलाल’ सतगुरु बर पायो, भरो है मुक्ति भंडार ।।। 

113.

संत दूलनदासजी
संत जगजीवन साहब के शिष्य, लखनऊ
(वि॰ सं॰ १७१७-१८३५) 

चलो चढ़ो मन यार महल अपने ।।टेक।।
चौक चाँदनी तारे झलकैं, बरनत बनत न जात गने।
हीरा रतन जड़ाव जड़े जहँ, मोतिन कोटि वितान बने।।
सुखमन पलंगा सहज बिछौना, सुख सोवो को करै मने।
“दूलनदास” के साई ‘जगजीवन’, को आवे यह जग सुपने ।। 

114.

संत गरीबदासजी
(रोहतक, पंजाब, सं॰ १७७४ से १८३५) 

मौला मगन मुरारी, विसंभर चीन्ह रे।
दिल अन्दर दीदार अरस दुरबीन रे ।।
इला पिंगला फेर सुखमना ध्यावहीं ।।
त्रिकुटि झरोखे बैठि परमपद पावहीं ।।
झलकै सिंध अपार मुक्ति का धामरे ।
अचल अगोचर देख पुरुष बरियाम रे।।
निकट निरंजन नूर जहूर निहारिये ।
मीनी मारग खोज सिंधु यूँ फारिये ।।
नैनों ही में लाल विशाल अलेख है।
अरे हाँ रे कहता ‘दास गरीब’ रूप नहिं रेख है।। 

115.

संत दरियासाहब, बिहारी
(धरकन्धा (आरा) स॰ १७३१-१८३७) 

दोहा-
सतगुरु ज्ञान दीपक बरै, जो मन होखै थीर।
कहै दरिया संसै मिटै, हरै सकल सभ पीर।।१।।


चौपाई-

कहै दरिया जिन केवल जाना। सोई जन साहब पहिचाना ।।
जब निजु ज्ञान गमी करि पेखै । अवगति जोति दृष्टि में देखै ।।
अनहद की धुनि करै विचारा । ब्रह्म दृष्टि होय उजियारा ।।
यह कोई गुरु ज्ञानी बूझै । शब्द अनाहद आपहि सूझै ।। 

116.

संत भीखा साहब
गुलाल साहब के शिष्य, आजमगढ़
(वि॰ स॰ १७७० से १८२०)

धुनि बजत गगन मँह बीना, जँह आपु रास-रस भीना।।टेक।।
भेरी ढोल शंख शहनाई, ताल मृदंग नवीना ।
सुर जँह बहुतै मौज सहज उठि, परत है ताल प्रवीना ।।१।।
बाजत अनहद नाद गहागह, धुधुकि धुधुकि सुर भीना ।
अंगुली फिरत तार सातहुँ पर, लय निकसत भिन भीना ।।२।।
पाँच पचीस बजावत गावत, निर्त चारु छवि दीना ।
उघरत तननन ध्रितां धितां, कोउ ताथेई थेई तत कीना ।।३।।
बाजत जल तरंग बहु मानो, जंत्री जंत्र कर लीना ।
सुनत सुनत जिव थकित भयो, मानो ह्वै गयो शब्द अधीना ।।४।।
गावत मधुर चढ़ाय उतारत, रुन झुन रुन झुना धीना ।
कटि किंकिनी पग नूपुर की छवि, सुरति निरति लौलीना ।।५।।
आदि शब्द ऊँकार उठत है, अटुट रहत सब दीना ।।
लागी लगन निरन्तर प्रभु सों, भीखा’ जल मन मीना ।।६।। 

117.

संत वेणी
(वि॰ स॰ १६२०-६३ के लगभग) 

इड़ा पिंगुला अउर सुषुमना, तीन बसहिं इक ठाईं ।
वेणी संगमु तह पिरागु, मनु भजन करे तिथाई ।।१।।
संत हुँ तहा निरंजन रामु हैं, गुरगमि चीन्है विरला कोई।
तहाँ निरंजनु रमाइआ होई।।रहाउ।।
देव सथानै किया नीसाणी, तहँ बाजे शब्द अनहद वाणी ।
तहँ चन्दु न सूरजु पउणु न पाणी, साषी जागी गुरमुखि जाणी ।।२।।
उपजै गिआनु दुरमति छीजै, अमृत रस गगनंतरि भीजै ।
एसु कला जो जाणै भेउ, भेटै तासु परम गुरुदेउ ।।३।।
दसम दुआरा अगम अपारा, परम-पुरुष की घाटी ।
ऊपरि हाटि हाट परि आला, आले भीतरी थाती ।।४।।
जागतु रहै सु कबहुँ न सोवै, तीन तिलोक समाधि पलोवै ।
बीज मंत्र लै हिरदै रहै, मनूआ उलटि सुन महिं गहै ।।५।।
जागतु रहै न अलीआ भाषै, पाँचिउ इन्द्री बसि करि खै ।
गुर की साखी राखै चीति, मनु तनु अरपै क्रिसन परीति ।।६।।
कर पलव साषा वीचारे, अपना जनमु न जूऔ हारै ।
असुर नदी का बन्धे मूलु, पछिम -फेरि चढ़ावै सूरु ।।
अजरु जरे सु निझरु झरे, जगन्नाथ सिउ गोसटि करै ।।७।।
चउ मुख दीवा जोति दुआर, पलू अनत मूलु विचकार ।
सरब कला ले आये रहै, मनु माणिक रतना महि गुहै ।।८।।
मसतकि पदमु दुआलै मणी, माहि निरंजन त्रिभुवणधणी ।
पंच शबद निरमाइल बाजै, ढुलके चँवर शंख घन गाजै।
दलि मलि दैत हुँ गुरमुखि गिआनु, ‘वेणी’ जाँचै तेरा नामु ।।६।।  

118.

संत धन्ना भगत
(राजस्थान, लगभग वि॰ सं॰ १४७२) 

भ्रमत- फिरत बहु जनम विलाने, तनु मनु धनु नहीं धीरे ।
लालच विषु काम लुबध राता, मनि विसरे प्रमहीरे ।। रहाउ।।
विषु फल मीठ लगे मन बउरे, चार विचार न जानी आ ।
गुन तें प्रीति बढ़ी अनभाँती, जनम मरन फिरि तानिआ ।।१।।
जुगति जानि नहीं रिदै निवासी, जलत जाल जम फंध परै ।
विषु फल संचि भरे मन जैसे, परम पुरष प्रभ मन विसरे।।२।।
गिआन प्रवेश गुरहि धनु दीआ, धिआनु मानु मन एकमये ।
प्रेम भगति मानी सुखु जानिआ, त्रिपति अधाने मुकति भये ।।३।।
जोति समाए समानी जाकै, अछली प्रभु पहिचानिआ ।
‘धन्नै’ धनु पाइआ धरणीधरू, मिलि जनु संत समानिआ ।।४।। 

119.

संत जंभनाथ
(जोधपुर, वि॰ स॰ १५०८ से १५९३) 

अजपा जपो रे अवधू अजपा जपो । पूज देव निरंजन थानं ।।
गगन मंगल में जोति लखाऊँ, देव धरो वा ध्यानं ।।
मोह न बन्धन मन परबोधन, शिक्षा से ग्यान विचारं ।।
पंच सादन कर सकसो राख्या, तो यों उतर वा पारं ।।१।।  

120.

बाबा मलूकदासजी
(इलाहाबाद, वि॰ सं॰ १६६१ से १७३९) 

अब मैं अनुभव-पदहिं समाना ।।
सब देवन को भर्म भुलाना, अविगति हाथ बिकाना ।।
पहला पद है देई-देवा, दूजा नेम - अचारा ।
तीजे पद में सब जग बंधा, चौथा अपरम्पारा ।।
सुन्न महल में महल हमारा, निरगुन सेज बिछाई ।।
चेला गुरु दोउ सैन करत है, बड़ी असाइस पाई ।।
एक कहै चल तीरथ जइये, (एक) ठाकुर द्वार बतावै ।।
परम जोति के देखे संतों, अब कछु नजर न आवै ।।
आवागमन का संशय छूटा, काटी जम की फाँसी ।।
कह ‘मलूक’ मैं यही जानि के, मित्र कियो अविनासी ।। 

121.

बाबा धरनीदासजी
(छपरा, जन्म वि॰ सं॰ १७१३) 

ऐसे राम भजन करु बावरे ।
वेद साखि जन कहत पुकारे, जो तेरे चित चाव रे।।
काया दुवार ह्वै निरखु निरन्तर, तहाँ ध्यान ठहराव रे ।।
तिरवेनी एक संगहिं संगम, सुन्न सिखर कहँ धाव रे।।
उदधि उलंधि अनाहद निरखौ, अरध उरध मधि ठाँव रे।।
राम नाम निसु दिन लव लागे, तबहिं परम पद पाव रे।।
तहँ है गगन गुफा गढ़ गाढ़ो, तहाँ न पवन पछाँव रे ।।
‘धरनी दास’ तासु पद बंदे, जो यह जुगति लखाव रे।। 

122.

संत केशवदासजी
(ओरछा, वि॰ सं॰ १६१२ से १६७४) 

धनि सो घरी धनि वार, जबहिं प्रभु पाइये ।
प्रगट प्रकास हजूर, दूर नहिं जाइये ।।१।।
नहिं जाइ दूर हजूर साहिब, फूलि सब तन में रह्यो।
अमर अछय सदा जुगन जुग, जक्त दीपक उगि रह्यो ।।२।।
निरखि दसो दिसि सर्व शोभा, कोटि चन्द सुहावनं ।
सदा निरभय राज नित सुख, सोई केसो ध्यावनं ।।३।।
पूरन सर्व निधान, जानि सोइ लीजिये ।
निर्मल निर्गुन कंत, ताहि चित दीजिये ।।४।। 

123.

स्वामी श्री दादूदयालजी
(अहमदाबाद, वि॰ सं॰ १६०१ से १६६०) 

भाई रे घर ही में घर पाया।।
सहजि समाइ रह्या ता माहीं, सतगुरु खोज बताया।।
ता घर काज सबै फिरि आया, आपै आप लखाया।
खोलि कपाट महल के दीन्हें, थिर अस्थान दिखाया।।
भय औ भेद भरम सब भागा, साँच सोइ मन लाया।
प्यंड परे जहाँ जिव जावै, ता में सहज समाया।।
निहचल सदा चलै नहिं कबहूँ, देख्या सब में सोई।।
ताही सूँ मेरा मन लागा, और न दूजा कोई ।।
आदि अन्त सोई घर पाया, इब मन अनत न जाई।
‘दादू’ एक रंगै रँग लागा, ता में रह्या समाई ।।
*************************  

124.

संत सुन्दरदासजी
दादूदयालजी के शिष्य,
(जयपुर, वि॰ सं॰ १६५३ से १७४६) 

है दिल में दिलदार सही अँखियाँ, उलटी करि ताहि चितैये ।
आब में खाक में बाद में आतस, जान में सुन्दर जानि जनैये ।।
नूर में नूर है तेज में तेज हि, ज्योति में ज्योति मिलै मिलि जैये।।
क्या कहिये कहते न बनै कछु, जो कहिये कहते हि लजैये ।। 

125.

संत रज्जबजी
दादूदयालजी के शिष्य
(सांगानेर, जन्म वि॰ सं॰ १६२४)

हिन्दू पावैगा वही, वोही मूसलमान ।
‘रज्जब’ किणका रहम का, जिस कूँ दे रहमान ।।
नारायण अरु नगर के, ‘रज्जब’ पंथ अनेक ।
कोई आवौ कहीं दिसि, आगे अस्थल एक ।।
मुख सौं भजे सो मानवी, दिल सौं भजै सो देव।
जीव सौं जपे सो जोति मै, रज्जब साँची सेव ।।
दादू दीनदयाल गुरु, सो मेरे सिरमौर ।
जन ‘रज्जब’ उनकी दया, पाई निहचल ठौर ।।
वेद सु वाणी कूप जल, दुख सूँ प्रापति होइ ।
सबद साखि सरवर सलिल, सुख पीवै सब कोइ ।। 

126.

संत भीखजनजी
(फतेहपुर, जन्म वि॰ स॰ १६०॰ लगभग)

अहि पुहुप जिमि वास प्रगट तिमि वसै निरन्तर।
ज्यों तिलयिन में तेल मेल यों नाहिन अन्तर।।
ज्यूँ पय घृत संयोग सकल यौँ है सम्पूरन।
काष्ठ अगनि प्रसंग प्रगट कीये कहुँ दूर न।।
ज्यूँ दर्पण प्रतिविम्ब में होत जाहि विश्राम है।
सकल बियापी ‘भीखजन’ ऐसे घटि राम है।। 

127.

संत वाजिन्दजी (पठान)
(दादूदयाल जी के शिष्य) 

सुन्दर पाई देह नेह कर राम सों,
क्या लुब्धा बेकाम धरा धन धाम सों?
आतम रंग पतंग, संग नहिं आबसी,

जमहूँ के दरबार, मार बहु खावसी । 

128.

संत बखनाजी
दादूदयाल जी के शिष्य,
नाराणा ग्राम सं॰ १७००) 

सोई जागै रे सोई जागै रे । राम नाम ल्यो लागै रे ।।
आप अलंवण नीन्द अयाणा। जागत सूता होय सयाणा ।।
तिहि विरिया गुरु आया। जिनि सूता जीव जगाया।।
थी तो रैणी घणेरी। नीन्द गई तब मेरी।।
डरताँ पलक न लाऊँ। हूँ जग्यो और जगाऊँ।।
सोवत सुपना माँहीं। जागूँ तो कछु नाहिं।।
सुरति की सुरति विचारी। तब नेहा नींद निवारी।।
एक सबद गुरु दीया। तिहि सोवत बैठा कीया।।
‘बखना’ साथ सभागा। जे अपने पहरे जागा।। 

129.

संत गरीबदासजी
गुरु, सन्त दादूदयालजी, साँभर-राजस्थान,
(स॰ १६६२ से १६९३ वि॰) 

तन खोजै तब पावै रे ।
उलटी चाल चले जे प्राणी, सो सहजै घर आवै रे।।टेक।।
बारह मारग बहता रोकै, तेरह ताली लावे रे ।।
चन्द सूर सहजै सत राखै, अणहद वेण बजावे रे।।१।।
तिन्नू गुण चौथे घर राखै, पाँच पचीस समावे रे ।।
नऊ निरति लूँ और बहत्तर, रोम रोम धुनि धावे रे।।२।।
मैल निर्मल करे ग्यान सौ, सतगुरु कहि समझावे रे ।।
‘गरीबदास’ अनभै घर उपजै, तब जाइ जोति लखावे रे।।३।। 

130.

साधु निश्चलदासजी
(हिस्सार जिला-कूगड़ गाँव) 

अन्तर बाहिर एक रस, जो चेतन भरपूर ।
‘बिभु नभ सम सो ब्रह्म है, नहिं नेरे नहिं दूर ।।
ब्रह्म रूप अहि ब्रह्मवित, ताकी वानी वेद ।
भाषा अथवा संस्कृत, करत भेद भ्रम छद।।  

131.

स्वामी हरिदासजी (हरि पुरुषजी)
(डीडवाणा, सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में) 

अब मैं हरि बिन और न जाचूँ, भजि भगवन्त मगन हवै नाचूँ ।
हरि मेरा करता हूँ हरिकीया, मैं मेरा मन हरि कूँ दीया ।।
ग्यान-ध्यान प्रेम हम पाया, जब पाया तब आप गमाया।।
राम नाम व्रत हिरदै धारूँ, परम उदार निमिखन विसारूँ ।।
गाय गाय गावेथा गाया, मन भया मगन गगन मठ छाया।
जन ‘हरिदास’ आस तजि पासा, हरि निरगुण निजपुरी निवासी।।

132.

महात्मा जगन्नाथजी
(दादूदयाल साहब के शिष्य) 

“जगन्नाथ’ जगदीश की, राह सु अति बारीक ।
पहले चलिबो कठिन है, पीछे श्रम नहिं सींक ।।
मारग अगम सुगम अति होवै, जो हरि सतगुरु होहिं सहाय।
जुग जुग कष्ट करें नहिं पहुँचे, ‘जगन्नाथ’ तहँ सहजै जाय ।। 

133.

स्वामी श्री चरणदासजी महाराज
गुरु, श्री शुकदेवजी, अलवर,
(स॰ १७६० से १८३९ वि॰) 

मन मारै तन बस करै, साधै सकल शरीर।
फिकिर फारि कफनी करै, ताको नाम फकीर।।
ऐसा देश दिवाना रे लोगो, जाय सो माता होय।
बिन मदिरा मतवारे झूमैं, जन्म-मरन दुख खोय ।।
कोटि चंद सूरज उजियारो, रवि ससि पहुँचत नाहीं।
बिना सीप मोती अनमोलक, बहु दामिनी दमकाहीं।।
बिन ऋतु फूले फूल रहत हैं, अमृत रस फल पागे।
पवन गवन बिन पवन बहत हैं, बिन बादर झरि लागे।।
अनहद शब्द भँवर गुंजारे, संख पखावज बाजै ।
ताल घंट मुरली घनघोरा, भेरि दमामैं गाजै ।।
सिद्धि गर्जना अति ही भारी, घुंघुरु गति झनकारैं ।।
रम्भा नृत्य करै बिन पग सूँ । बिन पायल ठनकारै ।।
गुरु शुकदेव करैं जब किरपा, ऐसे नगर दिखावैं ।
‘चरनदास’ वा पग के परसैं, आवागमन नसावैं ।।  

134.

सहजोबाई,
गुरु-महात्मा चरणदासजी
(मेवात (राजस्थान) स॰ १७४० से १८२०)

गुरु-महिमा
परमेसर सूँ गुरु बड़े, गावत वेद पुरान।
‘सहजो’ हरि के मुक्ति है, गुरु के घर भगवान ।।
‘सहजो’ गुरु दीपक दियो, देख्यौ आतम रूप।
तिमिर गयौ चाँदन भयौ, पायौ परघट भूप।।
‘सहजो’ गुरु प्रसन्न ह्वै, मूँद लिये दोउ नैन ।
फिर मो सूँ ऐसे कही, समझ लेहिं यह सैन।
चिउँटी जहाँ न चढ़ि सके, सरसों ना ठहराय ।
सहजो कूँ वा देश में, सतगुरु देई बसाय । 

135.

दयाबाई,
गुरु-चरणदासजी महाराज
(मेवात १७५० - १८३०) 

अंध कूप जग में पड़ी, ‘दया’ करमवश आय।
बूड़त लई निकासि करि, गुरु-गुन-ज्ञान नहाय ।।
मनसा वाचा करि ‘दया’, गुरु चरनों चित लाव।
जग समुद्र के तरन कूँ, नाहिन आन उपाव ।।
सतगुरु ब्रह्म सरूप है, मनुष भाव मत जान।
देह भाव मानैं ‘दया, ते हैं पशु समान ।।
सुनत शब्द नीसान कूँ, मन में उठत उमंग ।
ज्ञान गुरज हथियार गहि, करत युद्ध अरि संग ।।
बिन दामिन उजियार अति, बिन घन परत फुहार ।
मगन भयो मनुआँ तहाँ, ‘दया’ निहार निहार ।। 

136.

सूरदासजी के सर्वोच्च अनुभव
गुरु-बल्लभाचार्यजी
(आगरा-मथुरा की सड़क के पाशर्व में रुनकता ग्राम,
वि॰ सं॰ १५४० से १६२०) 

अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यौं गूंगे मीठे फल को रस, अन्तरगत ही भावै ।।
परम स्वाद सब ही जू निरन्तर, अमित तोष उपजावै।
मन वानी कौं अगम अगोचर, सो जानै जो पावै ।।
रूप रेख गुन जाति जुगति बिनु, निरालंब मन चकृत धावै।
सब विधि अगम बिचारहिं तातैं, सूर-सगुन लीला पद गावै ।।
*************************


जौं लौं सत्य स्वरूप न सूझत।
तौं लौं मनु मनि कण्ठ विसारे, फिरत सकल बन बूझत।।
अपनो हिं मुख मलिन मन्दमति, देखत दरपन माँह ।
ता कालिमा मेटिवे कारण, पचत पखारत छाँह ।।
तेल तूल पावक पुट भरि धरि, बनै न दिया प्रकासत ।
कहत बनाय दीप की बातैं, कैसे हो तम नासत ।।
‘सूरदास’ जब यह मति आयी, वे दिन गये अलेखे ।
कह जाने दिनकर की महिमा, अन्ध नयन बिनु देखे ।।
*************************


अपुनपौ आपुन ही में पायो।
शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो।।
ज्यों कुरंग नाभी कस्तूरी, ढूढ़त फिरत भुलायो।
फिर चेत्यो जब चेतन ह्वै करि, आपुन हि तन छायो।।
राज कुँआर कण्ठे मणि भूषन, भ्रम भयो कह्यो गँवायो।
दियो बताइ और सतजन तब, तनु को पाप नसायो।।
सपने माहिं नारि को भ्रम भयो, बालक कहूँ हिरायो।
जागि लख्यो ज्यों को त्यों ही है, ना कहुँ गयो न आयो।।
‘सूरदास’ समझे की यह गति, मन ही मन मुसकायो।
कहि न जाय या सुख की महिमा, ज्यों गूँगो गुड़ खायो।।
*************************


गुरु बिन ऐसी कौन करै।
माला तिलक मनोहर बाना लै सिर छत्र धरै।।
भवसागर से बूड़त राखै दीपक हाथ धरै।
‘सूर श्याम’ गुरु ऐसो समरथ छिन में लै उधरै।। 

137.

गोस्वामी तुलसीदासनी के सगुण-निर्गुणातीत अनुभव

जिन्ह के श्रवण समुद्र समाना।
कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।।
भरहिं निरन्तर होहिं न पूरे।
तिन्ह कहँ हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे।।
लोचन चातक जिन्ह करि राखे।
रहहिं दरस जलधर अभिलाखे ।।
निदरहिं सरित सिन्धु सर भारी।
रूप बिन्दु जल होहिं सुखारी।।
तिन्ह के हृदय सदन सुख दायक ।
बसहु बन्धु सिय सह रघुनायक।।
*************************


(बाहरी उपासना से मोह-फाँस नहीं टूटता)
माधव मोह फाँस क्यों टूटै।
बाहिर कोटि उपाय करिय, अभियंतर ग्रन्थि न छूटै ।।
घृत पूरन कराह अन्तर्गत, ससि-प्रतिबिम्ब दिखावै।
इन्धन अनल लगाय कलप सत, अवटत नास न पावै।।
तरु कोटर महँ बस बिहंग, तरु काटै मरइ न जैसे।
साधन करिय विचार-हीन, मन शुद्ध होइ नहिं तैसे।।
अंतर मलिन विषय मन अति, तनु पावन करिय पखारे।
मरइ न उरग अनेक जतन, बलमीक विविध विधि मारे ।।
तुलसिदास हरि-गुरु-करुणा बिनु, विमल विवेक न होई।
बिनु विवेक संसार घोर निधि, पार न पावै कोई।।
*************************


हिय निर्गुन नयनन्हि सगुण, रसना राम सुनाम।
मनहुँ पुरट-सम्पुट लसत, ‘तुलसी’ ललित ललाम।।
ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकाश।
निरगुन कहै जो सगुन बिनु सो गुरु ‘तुलसी दास।
*************************


श्री रघुवीर चरण लय लागै ।।
सेवत साधु द्वैत भय भागै, देह जनित विकार सब त्यागै।
तब फिर निज सरूप अनुरागै ।।
(छन्द)- अनुराग सो निज रूप जो जग, तें विलच्छन देखिये।
सन्तोष सम शीतल सदा दम, देहवन्त न लेखिये।।
निरमल निरामय एकरस तेहिं, हरष शोक न व्यापई।
त्रय लोक पावन सो सदा, जाकी दसा ऐसी भई।।
*************************


रघुपति भगति करत कठिनाई।
कहत सुगम करनी अपार, जानइ सो जेहि बनि आई ।।१।।
जो जेहि कला कुशल ता कहँ, सो सुलभ सदा सुखकारी।
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरि बहई गज भारी ।।२।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ, बल ते नहिं बिलगावै।
अति रसज्ञ सूक्षम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ।।३।।
सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि जोगी।
सोइ हरिपद अनुभवइ परमसुख, अतिशय द्वैत वियोगी ।।४।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं।
‘तुलसिदास’ यहि दसा हीन, संशय निर्मूल न जाहीं ।।५।।
*************************


ऐहि ते मैं हरि ज्ञान गँवायो।
परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं, बाहर फिरत विकल भय धायो।।१।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद, अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
खोजत गिरि तरु लता भूमि विल, परम सुगंध कहाँ तें आयो।।२।।
ज्यों सर विमल वारि परिपूरन, ऊपर कछु सेंवार तृन छायो।
जारत हियो ताहि तजिहौं शठ, चाहत यहि विधि तृषा बुझायो।।३।।
व्यापित त्रिविध ताप तन दारुन, तापर दुसह दरिद्र सतायो।
अपने धाम नाम सुरतरु तजि, विषय बबूर बाग मन लायो।।४।।
तुम्ह सम ज्ञान निधान मोहि सम, मूढ़ न आन पुरानन्हि गायो।
‘तुलसिदास’ प्रभु यह विचारि जिय, कीजै नाथ उचित मन भायो।। 

138.

सब रूपों में एक ही परमात्मा  --->>>

(शाक्त श्री रामप्रसाद सेन)
(कुमारहट्टा, जन्म सन् १७१८ ईस्वी ) 

एमन दिन कि हवे तारा ।
जबे तारा तारा तारा बले, तारे बाये पड़बे धारा ।।
हृदि पद्यम उठ्बे फुटे, मनेर आँधार जाबे छुटे ।
तरुन धरातले परब लुटे, तारा बले हब सारा ।।
त्याजिब सब भेदाभेद, घुचे जाबे मनेर खेद ।
औरे शत शत सत्य वेद, तारा आमार निराकार ।।
‘श्री रामप्रसाद’ रटे, माँ विराजे सर्व घटे ।
ओ रे आँखि अन्ध, देख माँ के तिमिर हरा ।। 

139.

पठान भक्त रसखानजी
गोस्वामी विट्ठलनाथजी के शिष्य
(सं॰ १६१५ से १६८० वि॰) 

प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोय।
जो जन जानै प्रेम तौ, मरै जगत क्यों रोय।।
प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।
जो आवत एहि ढिग बहुरि, जात नहिं ‘रसखान’ ।।
प्रेम रूप दर्पण अहो, रचै अजूवों खेल।
यामैं अपनो रूप कछु, लखि परिहैं अनमेल।।
कमल तन्तु सों छीन अरु, कठिन खड़ग की धार।
अति सूधौ देढ़ो बहुरि, प्रेम पंथ अनिवार।।
कबहुँ न जा पथ भ्रम-तिमिर, रहै सदा सुख चन्द।
दिन-दिन बाढ़त ही रहै, होत कबहुँ नहिं मन्द ।।
आनंद अनुभव होत नहिं, प्रेम बिना जग जान।
कै वह विषयानन्द कै, ब्रह्मानन्द बखान।।
अति सूच्छम कोमल अतिहि, अति पतरौ अति दूर।
प्रेम कठिन सब तें सदा, नित इकरस भरपूर ।।
जग में सब जान्यों परै, अरु सब कहै कहाय।
पै जगदीश रु प्रेम यह, दोऊ अकथ लखाय।।
जेहि बिनु जानै कछुहि नहिं, जान्यो जात विसेस।
सोइ प्रेम जेहि जानि कै, रहि न जात कछु सेस।।
प्रेम हरि कौ रूप है, त्यौं हरि प्रेम सरूप।
एक होइ द्वै यौं लसैं, ज्यों सूरज अरु धूप।।  

140.

मियाँ नजीर अकबराबादी
कृष्ण भक्त सूफी संत, आगरा
(सं॰ १६९७ से १८८७ वि॰) 

जाहिर में सुत वो नंद जसोदा के आप थे,
वरना वो आपी माई थे और आपी बाप थे।
परदे में बालपन के ये उनके मिलाप थे,

जोति-सरूप कहिये जिन्हें सो वो आप थे।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन,

क्या-क्या कहूँ मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन।
*************************


था जिनकी खातिर नाच किया, जब मूरत उसकी आय गयी।
कहीं आप कहा, कहीं नाच कहा, और तान कहीं लहराय गयी।।
जब छैल छबीले सुन्दर की, छवि नैनों भीतर छाय गयी।
एक मुरछा गति सी आय गयी, और जोत में जोत समाय गयी।।
है राग उन्हीं के रंग-भरे, औ भाव उन्हीं के साँचे हैं।
जो बे-गत बे-सुरताल हुए, बिन ताल पखावज नाचे हैं।।
सब होश बदन का दूर हुआ, जब गत पर आ मिरदंग बजी।।
तन भंग हुआ दिल दंग हुआ, सब आन गयी बेआन सजी।।
यह नाचा कौन ‘नजीर’ अब याँ, और किसने देखा नाच अजी।
जब बूंद मिली जा दरिया में, इस तान का आखिर निकला जी।।
है राग उन्हीं के रंग भरे, औ भाव उन्हीं के साँचे हैं।
जो बे-गत बे-सुरताल हुए, बिन ताल पखावज नाचे हैं।। 

141.

श्री कण्ठजिह्ना स्वामीजी
(काशी निवासी, संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान) 

चीखि चीखि चसकन से राम सुधा पीजिये।
राम चरित सागर में रोम रोम भीजिये।।
रागद्वेष जग बढ़ाइ काहे को छीजिये।

पर दुक्खन देखत ही आप सों पसीजिये।।
तोरि-तोरि, बैंचि-बँचि श्रति को नहिं गीजिये।

जामें रस बने रहे, वही अर्थ कीजिये।।
बहुत काल संतन के दोऊ चरन मीजिये।

देव-दृष्टि पाय विमल, जुग जुग लौं लीजिये।। 

142.

शिवभक्त श्री लल्लेश्वरीजी
(काश्मीर, जन्म सं॰ वि॰ १३४३ या १३४७ ईस्वी ) 

‘सर्वव्यापी की खोज हो ही किस तरह सकती है। वह सर्वत्र है। शिव ने कुञ-कुञ में जाल फैला कर जीवों को उलझा रक्खा है, वह तो आत्मा में ही है। उसकी खोज बाहर नहीं-भीतर हो सकती है। शिव ही माता रूप में दूध पिलाता है, भार्या रूप धारण कर विलास की अनुभूति कराता है, माया रूप से जीव को मोहित करता है। इस महामायावी शिव का ज्ञान सद्गुरु ही करा सकते हैं ।’ 

143.

प्रेम दिवानी मीरा का अनन्त मिलन
(मारवाड़, सं॰ १५८५ से १६३०) 

मैं गिरधर रंगराती, सैंया! मैं॰।।
पँचरंग चोला पहर सखी, मैं झिरमिट खेलन जाती।
ओहि झिरमिट माँ मिल्यो साँवरो, खोल मिली तन गाती।।
जिनका पिया परदेश बसत हैं, लिख लिख भेजै पाती।
मेरा पिया मेरे हीय बसत हैं, ना कहुँ आति न जाती।।
चंदा जायगा सूरज जायगा, जायगी धरण अकासी।
पवन पाणि दो ही जायँगे, अटल रहै अविनासी।।
सुरत निरत का दिबला सँजोले, मनसा की कर ले बाती।
प्रेम हटी का तेल मँगा लें, जग रह्या दिन ते राती।।
सतगुर मिल्या साँसा भाग्या, सैन बताई साँची ।
ना घर तेरा ना घर मेरा, गावै ‘मीराँ’ दासी ।।
*************************


फागण के दिन चार, होरी खेल मना रे।
बिन करताल पखावज बाजै, अणहद की झनकार रे ।।
बिन सुर राग छतीसूँ गावै, रोम रोम रणकार रे।
सील संतोंख की केसर-घोली, प्रेम प्रीत पिचकार रे ।।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे ।।
घट के सब पट खोल दिये हैं, लोक लाज सब डार रे ।।
होरी खेल पीव घर आये, सोइ प्यारी पिय प्यार रे ।
“मीराँ’ के प्रभु गिरिधर नागर, चरण कँवल बलिहार रे ।।
*************************


राम मिलण रो घणो उमावो, नित उठ जोऊँ बाटड़ियाँ ।
दरस बिना मोहि कछु न सुहावै, जक न पड़त हैं आँखड़ियाँ।।
तलफत तलफत बहु दिन बीता, पड़ी विरह की पाशड़ियाँ ।
अब तो वेगि दया करि साहिब, मैं तो तुम्हारी दासड़ियाँ ।।
नैण दुखी दरसन कूँ तरसैं, नाभि न बैठे साँसड़ियाँ ।
राति दिवस यह आरति मेरे, कब हरि राखै पासड़ियाँ ।।
लगी लगनि छुटण की नाही, अब क्यूं कीजै आँटाड़ियाँ ।
‘मीराँ’ के प्रभु कब रे मिलोगे, पूरौ मन की आसाड़ियाँ ।।
*************************


गली तो चारों बन्द हुई, मैं हरि सूँ मिलूँ कैसे जाय।।
ऊँची-नीची राह रपटीली, पाव नहीं ठहराय ।
सोच-सोच पग धरु जतन से, बार-बार डिग जाय ।।
ऊँची-नीची महल पिया का, हमसे चढ्या न जाय।
पिया दूर पँथ म्हाँरा झीणा, सुरत झकोला खाय ।।
मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, सतगुरु दई बताय ।
युगन-युगन सूँ बिछड़ी ‘मीराँ, घर में लीनी लाय ।। 

144.

सन्तों के उपदेश में एक ही दिव्य प्रकाश --->>>

(जैन सन्त श्री सिंगाजी)
(अनूप प्रदेश, वि॰ सं॰ १६१३ से १७१६) 

निर्गुण ब्रह्म है न्यारा कोई,
समझो समझण हारा ।।
खोजत ब्रह्मा जनम सिराणा,
मुनि जन पार न पाया ।
खोजत-खोजत शिवजी थाके,
वो ऐसा अपरम्पारा ।।
शेष सहसमुख रहे निरन्तर,
रैन दिवस एक सारा ।
ऋषि, मुनि और सिद्ध चौरासी,
वो तैंतिस कोटि पचिहारा ।।
त्रिकुटी महल में अनहद बाजे,
होत शब्द झनकारा ।
सुसमण सेज शून्य में झूले,
वो सोहं पुरुष हमारा ।।
वेद कथे अरु कहे निर्वाणी,
श्रोता कहो विचारा ।
काम-क्रोध-मद-मत्सर त्यागो,
ये झूठा सकल पसारा ।।
एक बूँद की रचना सारी,
जाका सकल पसारा ।
‘सिंगा’ जो भर नजरा देखा,
वोही लट गुरु हमारा ।।

145.

स्वामी हंसराज जी
(परंडा, हैदराबाद, सं॰ १७२० से १७७७) 

संत वैराग्य के आगार हैं और ज्ञान के भण्डार भी वे ही हैं है । संत ही उपरामता के आश्रय स्थान हैं और विश्रान्ति स्वयं वहाँ आकर विश्रान्ति पाती है । उदयास्त हुए बिना भगवान सहस्ररश्मि के समान, संत अखण्ड और असीम ज्ञान का प्रकाश करते हैं । ....... वे अमृत से बढ़कर मधुर रस की धारा हैं ।....... जान-बूझकर यदि कोई पाप का आचरण करे, तो तीर्थ में जाकर स्नान करने से वह शुद्ध नहीं होता, व्रत और तप से भी मुक्ति नहीं मिलती, प्रायश्चित भी व्यर्थ है। किन्तु प्रलयकाल की अग्नि जिस प्रकार एक धागा भी बिना जलाए नहीं छोड़ती, उसी प्रकार पल भर में, जन्म भर के ही नहीं, जन्म-जन्मान्तर के पापों को नष्ट करने की क्षमता संतों में होती है । ज्ञान, वैराग्य और बोध रूपी जल से संतों ने ऐसे जीवों को पावन और मुक्त किया, जिनका शिवत्व माया रूपी मल से अशुद्ध और अमंगल बन गया था। अधिक क्या कहा जाय, संतों की शरण में पहुँचने पर उनके लिए वेद जिस वस्तु को प्रकाशमान करने में समर्थ नहीं होते, वह सब अनायास ही बोधगम्य हो जाता है।

- ‘आगमसार’ ग्रन्थ से अनूदित 

146.

श्री अग्रदास जी
(पयहारी, महात्मा श्री कृष्णदासजी के शिष्य,जयपुर) 

सदा न फूले तोरई, सदा न साँवन होय।।
संदा न साँवन होय, सन्तजन सदा न आवें।
सदा न रहे सुबुद्धि, सदा गोविन्द गुन गावें।।
सदा न पक्षी केलि करें, इह तरुवर ऊपर।
सदा न स्याही रहै, सफेदी आवे भूपर ।।
‘अग्र’ कहे हरि मिलन को, तन मन डारो खोय ।
सदा न फूले तोरई, सदा न सावन होय ।। 

147.

श्री नाभादासजी
भक्तमाल के रचयिता, गुरु श्री अग्रदासजी,
(तैलंग प्रदेश, वि॰ सं॰ १६५७) 

भक्त भक्ति भगवन्त गुरु चतुर्नाम वपु एक I
इनके पद बन्दन करौं, नासे बिघन अनेक ।।
*************************


दरपन नैन सैन मन माँजा, लाजा अलख अकेला ।।
पद पर दल दल ऊपर दामिनी, जोत में होत उजेला ।।
अंडा पार सार लख सूरत, सुन्नी सुन्न सुहेला ।
चढ़ गई धाय जाय गढ़ ऊपर, शब्द सुरत भया मेला ।।
यह सब खेल अलेख अमेला, सिंध नीर नद मेला ।
जल जलधार सार पद जैसे, नहीं गुरू नहिं चेला ।।
‘नाभा’ नैन ऐन अन्दर के, खुल गये निरख निहाला ।
संत उचिष्ट वार मन झेला, दुर्लभ दीन दुहेला ।।

148.

संत स्वामी लालदासजी
(अलवर, वि॰ सं॰ १५९७ से १७०५) 

अरे कई दमका गुजारा है रे । मन छाँड़ि दै मगरूरी ।।
गूंगा स्वाद कहा कहि जाने, खट्टा मीठा खारा है रे ।।
बिन देखे अंधा क्या जानै, हुरमत बारा है रे ।।
बेघायल तो मारे जायँगे, घायल देत नगारा है रे ।।
मुरदा जाय मिला साहिब में, सतगुरु शब्द पुकारा है रे ।।
क्या तू लाया क्या लै जायगा, जानत सब संसारा है रे ।।
जीवे जब लौं नेकी कर लै, कारज यही तिहारा है रे ।।
यह संसार रहट देखड़िया, सब जग झूलनहारा है रे ।।
‘लालदास’ निर्भय हो झूलै, जिसको राम प्यारा है रे ।। 

149.

संत मंसूर

अगर है शौक मिलने का, तो हरदम लौ लगाता जा ।
जला कर खुद नुमाई को, भसम तन पर लगाता जा ।।
पकड़ कर इश्क की झाडू, सफा कर हिज़्रए दिल को ।।
दुई की धूल को लेकर, मुसल्ले पर उड़ाता जा ।।
मुसल्ला छोड़ तसवी तोड़, किताबें डाल पानी में ।
पकड़ दस्त तूँ फिरस्तों का, गुलाम उनका कहाता जा ।।
न मर भूखा न रख रोजा, न जा मस्जिद, न कर सिज्दा ।
वजू का तोड़ दे कूजा, शराबे शौक पीता जा ।।
हमेशा खा हमेशा पी, न गफलत से रहो एकदम ।
नशे में शैर कर अपनी, खुदी को तू जलाता जा ।।
न हो मुल्लाँ न हो बम्हन, दुई की छोड़ कर पूजा ।
हुक्म शाहे कलन्दर का, अनलहक तू कहाता जा ।।
कहे ‘मंसूर’ मस्ताना, हक मैंने दिल में पहचाना ।
वहीं मस्तों का मयखाना, उसीके बीच आता जा ।।

150.

संत बुल्ले साह
पंडौल (लाहौर) आजन्म ब्रह्मचारी
(वि॰ सं॰ १७३७ से १८१०) 

टुक बूझ कवन छप आया है ।।
इक नुकते में जो फेर पड़ा, तब ऐन गैन का नाम धरा ।
जब मुरसिद नुकता दूर किया, तब ऐनो ऐन कहाया है ।।
तुसीँ इलम किताबाँ पढ़ दे हो, केहे उलटे माने कर दे हो ।
बे मूजब ऐ लड़ देहो, केहा उलटा वेद पढ़ाया है ।।
दुर-दूर करो कोइ शोर नहीं, हिंदु तुरक कोइ होर नहीं ।
सब साधु लखो कोइ चोर नहीं, घट-घट में आप समाया है ।।
ना मैं मुल्ला ना मैं काजी, ना मैं सुन्नी ना मैं हाजी । ।
‘बुल्लेशाह’ नाल लाई बाजी, अनहद शबद बजाया है ।। 

151.

मौलाना ‘रूमी’
(जन्म, हिजरी सन् ६०४)

आईना अत दानी चिरा गम्माज नेस्त ।
जाँ कि अंगार अज रुखस मुम्ताज नेस्त ।।


भा॰-हे मनुष्य ! तू जानता है कि तेरा दर्पणरूपी मन साफ क्यों नहीं है? देख, वह इसलिए साफ नहीं कि उसके मुख पर विषय-संस्कार का जंग-सा मैल लगा हुआ है । अपने अन्तःकरण को शुद्ध करो और आत्मा का साक्षात्कार करो । 

152.

सूफी सन्त गुलामअली शाह
(कच्छ) 

एजी आ रे संसार सकल है झूठा ।
मत जाणो है मेरा ।।
छोड़ भरम तमे गुणज विचारो ।
तो खोज अन्तर घट तेरा ।।
एजी जोत प्रकाश लीजै घट अन्दर ।
गुरु बिना घोर अंधेरा ।।
कहै पीर ‘गुलामअली शाह’ सुमरन करले ।
समझ समझ मन मेरा ।। 

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी  

संपर्क

महर्षि मेंहीं आश्रम

कुप्पाघाट , भागलपुर - ३ ( बिहार ) 812003

mcs.fkk@gmail.com

जय गुरु!

जय गुरु!

सद्गुरु तथ्य 

01. जन्म-तिथि : विक्रमी संवत् १९४२ के वैसाख शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तदनुसार 28 अप्रैल, सन् 1885 ई. (मंगलवार)
02. निर्वाण=8 जून, सन 1986 ई. (रविवार)

श्री सद्गुरु महाराज की जय!