02. सिद्धांत-सामंजस्य
जाड्यंधियो हरति सिंचति वाचि सत्यं
मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति।
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं
सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम्।।१२।।
-(नीतिशतक)
भा॰– कहिए ‘सत्संगति’ पुरुष का कौन-सा उपकार नहीं करती? वह बुद्धि की जड़ता को हर लेती है, वाणी में सत्य का संचार करती है, सम्मान बढ़ाती है, पापों को दूर करती है, चित्त को आनन्दित करती है और समस्त दिशाओं में कीर्ति का विस्तार करती है।
अहः संहरदखिलं स कृदुदयादेव सकल लोकस्य।
तरणिरिव तिमिरिजलधिं जयति जगन्मंगलं हरेर्नाम।।
भा॰- सम्पूर्ण जगत् का मंगल करनेवाले श्री हरि के उस ध्वन्यात्मक नाम की जय हो, जो एक बार ही प्रगट हो जाने पर, वह अखिल विश्व की समस्त पाप राशि का उसी प्रकार विनाश कर देता है, जैसे भगवान भुवन-भास्कर अन्धकार के समुद्र को सोख लेते हैं।
समाधिनिर्धूत मलस्य चेतसो
निवेशितस्यात्मनि यत्सुखं भवेत्।
न शक्यते वर्णयितुं गिरा तदा
स्वयं तदन्त:करणेन गृह्यते।।
भा॰—जिस चेतना और चित्त के सारे मल समाधि के पावन जल से धो दिए जाते हैं , जो चेतना आत्मतत्त्व में संस्थित हो गयी है, उस चैतन्य या जीवात्मा को जिस आत्यन्तिक आनन्द की प्राप्ति होती है, उसे वाणी के द्वारा कभी भी वर्णन नहीं किया जा सकता है। उस आनन्द को स्वयं आत्मा ही अपने अन्तर में अनुभव करता है।
मोक्षकारण सामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी।
स्वरूपानुसन्धानं भक्तिरित्यभिधीयते ।।
-(विवेक चूडामणि ३०)
भा॰- मोक्ष प्राप्त करने की जितनी भी साधन-सामग्री है, उनमें भक्ति ही सर्वापेक्षा श्रेष्ठ है और आत्मस्वरूप का अनुसंधान करना ही भक्ति कहलाती है।
यद्यपि लय के और अनेक साधन है तथापि दीर्घकाल तक नादानुसंधान करते हुए परमानंद का अनुभव होने पर जो चित्त-लय होता है, वह सर्वोत्तम है।
-(प्रबोध सुधाकर, श्लोक १४६)
ब्रह्मसंबंधकरणात्सर्वेषां देहजीवयोः।
सर्वदोषनिवृत्तिर्हि दोषाः पंचविधः स्मृतः।।
भा॰–जीव का देह से संबंध होने पर जो पाँच दोष उत्पन्न होते हैं , वे सभी दोष जीव का संबंध बह्म से हो जाने पर नष्ट हो जाते हैं।
जितेन्द्रियश्चात्मरतो बुधोऽसकृत्
सुनिश्चितं नाम हरेरनुत्तमम् ।
अपार संसार निवारणक्षम
समुच्चरेद्वैदिकमाचरन् सदा ।।
-(वैष्णव १०९)
भा॰- जिन्होंने इन्द्रियों को वशीभूत कर अपने को आत्मतत्त्व में रत कर लिया है, ऐसे आत्मज्ञानी पुरुषों को चाहिए कि वे सदा परमात्मा के सबसे उत्तम नाम- ध्वन्यात्मक ओंकार ध्वनि, जो सुनिश्चित यानी सुस्थिर, अपरिवर्तनशील और अविनाशी है, जो नाम इस अपार संसार के विविध बंधनो एवं दु:खों से निवारण करने में पूर्ण समर्थ है, ऐसे नाम के गुणों की सदा चर्चा करते हुए वेद-विहितशास्त्रानुमोदित आचरणों में बरते । जिसे सुनकर संसार में बंधे प्राणी भी उस नाम का आश्रय लेने की प्रेरणा प्राप्त करे ।
श्रुतमप्यौपनिषदं दूरे हरिकथामृतात्।
यन्न सन्ति द्रवच्चित्तकम्पाश्रुपुलकादयः।।
- श्री पद्मावली ३९ श्री भक्तिसंदर्भ ६९ अनुच्छेद
भा॰-- सगुण भगवान की कथा-अमृत से उपनिषदों में प्रतिपादित निर्गुण परमात्मा बहुत ही दूर, सूक्ष्मतम या ऊर्ध्वतम है , इसीलिए नाम-रूपासक्त जीवात्माओं का चित्त उस उपनिषद्-वर्णित ब्रह्म की चर्चा से द्रवित नहीं होता, उसमें कम्प, प्रेमाश्रु और पुलक का उदय नहीं होता।
अप्रेक्ष्य क्लममात्मनो विदधति प्रीत्या परेषां प्रियं लज्जन्ते दुरितोद्गमादिव निजस्तोत्रानुबंधादपि। विद्यावित्तकुलादिभिश्च यदमी यान्ति क्रमान्नम्रतां रम्या कापि सतामियं विजयते नैसर्गिकी प्रक्रिया।। -(विदग्ध माधव १।११)
भा॰–संतलोग अपने श्रमजनित क्लेशों का कुछ भी ख्याल न करके स्वाभाविक स्नेह से दूसरों का प्रिय कार्य करते रहते हैं । वे अपनी बड़ाई सुनने के ख्यालमात्र से ही इस भाँति लज्जित हो जाते हैं, जिस भाँति समाज में बहुसम्मानित व्यक्ति अपने गुप्त पापों के ‘ प्रगट हो जाने पर अत्यधिक शर्मिन्दा हो जाते हैं। विद्या, संपत्ति, कुलीनतादि की उच्चता बढ़ने से जिस भाँति साधारण मनुष्यों का अभिमान बढ़ता ही चला जाता है, उसी भाँति उक्त गुणों की बढ़ती से सज्जनों की नम्रता भी क्रमशः बढ़ती जाती है। संत लोगों के स्वभाव और आचरण की यही सुन्दर परिपाटी है। ऐसे संतों की सदा जय-जयकार हो !
‘हे प्रभो! आपने मेरे कर्म की बेड़ियों को काट दिया और मुझे अपना बना लिया । आज आपके दर्शन प्राप्त कर मेरा जन्म सफल हो गया ।’
‘हे प्रभो! मुझे इस जन्म-मरण के चक्कर से छुड़ाओ । ....... तुम वाणी और मन दोनों के परे हो। यह जगत तुम्हारे ही अंदर स्थित है और तुम्हारे ही अन्दर लीन हो जाता है।
‘मैं इन्हें सद्गुरु को छोड़कर दूसरे किसी परमात्मा को नहीं जानता। x x x हाय! मैंने अबतक संसार के पदार्थों का ही भरोसा किया। मैं कितना अभिमानी और मूर्ख था ! सत्य तो ये ही है। मुझे आज उसकी उपलब्धि हुई। x x x इन्होंने आज मुझे वेदों का तत्त्व बताया है।
‘आरुर-मंदिर (शरीररूपी शिवालय) के शिव के लिए प्रेम-पुष्प बिखेरो। तुम्हारे हृदय में सत्य की ज्योति प्रकाशित होगी, प्रत्येक बंधन से मुक्त हो जाओगे।’
‘मनुष्य को चाहिए कि अपनी आत्मा को पहचाने ।’
‘एक ईश्वर ही हमारे पूज्य हैं। अहिंसा ही धर्म है। अधर्म से प्राप्त वस्तु को अस्वीकार करना ही व्रत है।’
‘जीव और परमात्मा का तत्त्व समझनेवाला ही ब्रह्म को प्राप्त होता है। एकबार ब्रह्म-भाव को प्राप्त प्राणी फिर सांसारिकता के मायाजाल में नहीं फँसता है।’
‘इच्छा-रहित, निर्विकल्प भगवान का भजन करनेवालों को कभी दुख की प्राप्ति नहीं होगी।’
-तामिलवेद ‘कुरल’ से
भगवान महावीर (वर्द्धमान, क्षत्रिय कुण्डनगर (विहार) ईश्वी सन् से ६०॰ वर्ष पूर्व)
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‘अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी नहीं करना), बह्मचर्य और अपरिग्रह (अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह नहीं करना) - इन पाचों महाव्रतों को स्वीकार कर बुद्धिमान पुरुष जिन (सन्त) द्वारा उपदिष्ट धर्म का आचरण करे ।’
‘आत्मशोधक मनुष्य के लिए शरीर का शृंगार, स्त्रियों (पुरुषों) का संसर्ग और पौष्टिक स्वादिष्ट भोजन सब तालपुट विष के समान महान भयंकर है।’
‘जो गुरु की आज्ञा पालता है, उनके पास रहता है, उनके इंगितों तथा आकारो को जानता है, वह शिष्य विनीत कहलाता है।’
‘जो मनुष्य निष्कपट एवं सरल होता है, उसी की आत्मा शुद्ध होती है और जिसकी आत्मा शुद्ध होती है, उसी के पास धर्म ठहर सकता है। घी से सींची हुई अग्नि जिस प्रकार पूर्ण प्रकाश को पाती है, उसी प्रकार सरल और शुद्ध साधक ही पूर्ण निर्वाण को प्राप्त होता है।’
‘कर्मों के पैदा करनेवाले कारणों को ढूँढो–उनका छेदन करो और फिर क्षमा आदि के द्वारा अक्षय यश का संचय करो। ऐसा करनेवाला मनुष्य इस पार्थिव शरीर को छोड़कर ऊर्ध्वदिशा प्राप्त करता है-अर्थात उच्च तथा श्रेष्ठ गति प्राप्त करता है।’
‘जिस प्रकार शिक्षित तथा कवचधारी घोड़ा युद्ध में विजय प्राप्त करता है, उसी प्रकार विवेकी भिक्षु भी जीवन-संग्राम में विजयी होकर मोक्ष प्राप्त करता है। जो मुनि दीर्घकाल तक अप्रमत्तरूप से संयम-धर्म का आचरण करता है, वह शीघ्रातिशीघ्र मोक्ष प्राप्त करता है।’
‘आत्म-विवेक झटपट प्राप्त नहीं हो जाता– इसके लिए भारी साधन की आवश्यकता है। महर्षि जनों को बहुत पहले से ही संयम-पथ पर दृढ़ता से खड़े होकर काम-भोगों का परित्याग कर, समतापूर्वक स्वार्थी संसार की वास्तविकता को समझकर अपनी आत्मा की पापों से रक्षा करते हुए अप्रमादी रूप से विचरना चाहिए।’
‘जो बुद्धिमान मनुष्य मोह-निद्रा में सोए रहनेवाले मनुष्यों के बीच रहकर संसार के छोटे-बड़े सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देखता है, इस महान विश्व का निरीक्षण करता है, सर्वदा अप्रमत्त भाव से संयमाचरण में रत रहता है, वही मोक्ष का सच्चा अधिकारी है।’
‘समाधि की इच्छा रखनेवाला तपस्वी श्रमण परिमित तथा शुद्ध आहार ग्रहण करे, निपुण बुद्धि के तत्त्वज्ञानी साथी की खोज करे और ध्यान करने योग्य एकान्त स्थान में निवास करे ।’
‘जो वीर दुर्जय संग्राम में लाखों योद्धाओं को जीतता है, यदि वह एक अपनी आत्मा को जीत ले, तो यही उसकी सर्वश्रेष्ठ विजय होगी।’
‘जो आचार-प्राप्ति के लिए विनय का प्रयोग करता है, जो भक्तिपूर्वक गुरु-वचनों को सुनता है, एवं उसे स्वीकृत कर वचनानुसार कार्य पूरा करता है, जो गुरु की अशातना नहीं करता, वही पूज्य है।’
‘जो संस्तारक, शय्या, आसन और भोजन-पान आदि का अधिक लाभ होने पर भी अपनी आवश्यकता के अनुसार थोड़ा ग्रहण करता है, संतोष की प्रधानता में रत होकर अपने-आपको सदा संतुष्ट बनाए रखता है, वही पूज्य है।’
‘जो तपस्वी है, जो दुबला-पतला है, जो इन्द्रिय निग्रही है, उग्र तपः साधना के कारण जिनका रक्त और मांस भी सूख गया है, जो शुद्धवती है, जिसने निर्वाण पा लिया है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।’
‘मनुष्य कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही शूद्र भी होता है, अर्थात् जन्म से कोई वर्ण नहीं होता।
‘जब मन, वचन और शरीर के भोगों का निरोध कर आत्मा शैलेशी (अचल-अकम्प) अवस्था पाती है– पूर्ण रूप से स्पन्दन रहित हो जाती है, तब सब कर्मों को क्षय कर-सर्वदा मलरहित होकर सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त करती है।’
‘जो उत्कृष्ट तपश्चरण करने का गुण रखता है, प्रकृति से सरल है, क्षमा और संयम में रत है, शान्ति के साथ क्षुधा आदि परिषहों को जीतनेवाला है, उसे सद्गति (मोक्ष) मिलनी सुलभ है।’
‘जो क्रोध-से, हास्य से, लोभ से, भय से अथवा किसी भी मलिन संकल्प से असत्य नहीं बोलता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।’
‘मुमुक्षु आत्मा ज्ञान से जीवादिक पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धान (आप्त पुरुष, स्थितप्रज्ञ में सुदृढ़ विश्वास) करता है, चारित्र्य से भोग-वासनाओं का निग्रह करता है और तप से कर्म मलरहित होकर पूर्णतया शुद्ध हो जाता है।’
‘ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य और तप–इस चतुष्टय अध्यात्म मार्ग को प्राप्त होकर मुमुक्षु जीव मोक्षरूप सद्गति प्राप्त करते हैं।’
भगवान बुद्ध (५४७ वर्ष ईसा पूर्व)
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आलस्य न करना मोक्ष का रास्ता है, आलस्य करना मौत का रास्ता है। जो आलस्य त्यागी है , वे नहीं मरते। जो आलसी है , वे पहले से ही मुर्दे के समान हैं ।।२१।।
इस बात को अच्छी तरह से समझे हुए जो आलस्य नहीं करने में बढ़े हुए हैं, वे आलस्य नहीं करने में खुश रहते हैं और श्रेष्ठ लोगों के ज्ञान में आनंद पाते हैं ।। २२।।
ऐसे ज्ञानी मनुष्य धैर्यपूर्वक ध्यान में संलग्न रहकर, विशाल शक्ति के भंडार निर्वाण पद को प्राप्त करते हैं ।।२३।।
प्रमाद में मत फँसो और न विषय-भोग के सुख में लगे रहो । जो प्रमाद को छोड़कर सदा ध्यान में रत रहते हैं, उन्हें अनन्त आनंद की प्राप्ति होती है ।। २७।।
जो लोग सद्गुणी हैं, जो निरालसी हैं, जो सत्यज्ञान द्वारा मुक्त हुए हैं, उनके मार्ग को बहकानेवाला काल कभी नहीं पा सकता है ।। ५७।।
जैसे जिह्वा को भोजन का स्वाद आता है, उसी प्रकार यदि बुद्धिमान पुरुष ज्ञानी के साथ पलभर भी रहे तो उसे सत्य का ज्ञान हो जाएगा ।। ६५।।
बुद्धिमान को अंधकार की हालत से निकलकर चैतन्य अवस्था में जाना चाहिए। अपने घर को त्यागकर उसे एकांत में आनंद प्राप्त करना चाहिए ।। ८७।।
जिनका चित्त ज्ञान के तत्त्व में खूब मँज गया है, जो बिना किसी वस्तु में लिप्त हुए मोह से छुटकारा पाने में प्रसन्न होते हैं, जिन्होंने तृष्णा को जीत लिया है और जो चैतन्य-स्वरूप हैं, वे संसार में रहकर भी जीवन्मुक्त हैं ।।८९।।
जिनकी इच्छाएँ शांत हो गई हैं, जो आहार में पराधीन नहीं हैं, जिन्होंने पवित्र और पूर्ण स्वतंत्रता को पहचान लिया है, उनका मार्ग आकाशगामी पक्षियों के मार्ग के समान है, इस मार्ग को जानना कठिन है ।।९३।।
जब सत्य ज्ञान से उसने मोक्ष पा लिया है और जबकि वह स्थिर चित्त हो गया है, तो उसके विचार, वाणी और कर्म सभी शांत हो जाते हैं ।।९६।।
जो अचल विश्वास से युक्त है, जो अनादि तत्त्व को पहचानता है, जिसने सारे बंधनों को तोड़ डाला है, जिसने सब लोभों को छोड़ दिया है और सारी आशाएँ छोड़ दी है, वह सर्वश्रेष्ठ मनुष्य है ।।९७।।
इस शरीर के बनानेवाले को ढूँढ़ने में मुझे अनेक जन्म लेने पड़े; क्योंकि उसका पता न पाया और बार-बार का जन्म लेना दुखदायी है। लेकिन ऐ शरीर बनानेवाले ! अब मैंने तुझे देख लिया है। तू अब इस शरीर को फिर नहीं बनाने पाएगा। शरीर की तमाम कड़ियाँ टुट गयी है , शहतीर टूट गयी है, चित्त निर्वाण के समीप पहुँचकर सारी वासनाओं को नष्ट कर चुका है ।। १५३-१५४।।
मनुष्य स्वयं अपना मालिक है। उसका मालिक और कौन हो सकता है? अपने पर पूरा काबू करके वह दुर्लभ मालिक को पा जाता है ।। १६०।।
अपने लिए एक टापू बना, परिश्रम कर और बुद्धिमान बन । जब तेरी अशुद्धता नष्ट हो जाएगी और तू पाप रहित हो जाएगा, तब तू महात्माओं के आसमानी लोक-दिव्य धाम में दाखिल होगा ।। २३६।।
बुद्ध के शिष्य सदा खूब चैतन्य रहते हैं और उनका चित्त दिन-रात सदा ध्यान में प्रसन्न रहता है ।। ३०१।।
अगर मनुष्य शंका दूर करने में खुश होता है, सदा विचार करता है और ऐसी वस्तु का ध्यान करता है, जो शरीर संबंधी नहीं है, तो वह अवश्य ही काल की बेड़ी को काट डालेगा ।।३५०।।
जो कभी अपने को नाम और रूप की वस्तु नहीं समझता और बीते हुए का शोक नहीं करता, वह बेशक भिक्षु कहलाता है ।।३६७।।
ज्ञान बिना ध्यान नहीं और ध्यान बिना ज्ञान नहीं। जो ज्ञान और ध्यान दोनों रखता है, वह निर्वाण के समीप है ।। ३७२।।
मैं किसी आदमी को उसके जन्म या जननी के कारण से ब्राह्मण नहीं कहता वह यथार्थ में अभिमानी और धन-मदवाला है। परन्तु जो गरीब सारे बन्धनों से रहित है, उसे मैं बेशक ब्राह्मण कहता हूँ ।। ३९६।।
उसे मैं बेशक ब्राह्मण कहता हूँ जिसके मार्ग को न देवता, न गन्धर्व, न मनुष्य जानते हैं, जिसकी इच्छाएँ मर गयी है और जो अर्हत है ।। ४२०।।
‘हे राजन! जिस प्रकार कोई ऊँचे पहाड़ के शिखर पर खड़ा होकर नीचे बहते हुए निर्मल जल के स्रोत की ओर देखे, तो उस विमल जल के भीतर घोंघा, शंख, कंकड़-पत्थर इत्यादि सब वस्तुएँ साफ-जैसीकी-तैसी दिखाई देती है , वैसे ही मुक्त भिक्षु वासनाओं और तृष्णाओं से घिरे हुए जीवों के कष्ट को भी प्रत्यक्ष अनुभव करता है कि कौन से कर्म का फल विषमय है, और किसके द्वारा अशान्ति और अनर्थ उत्पन्न होता है, मनुष्य के लिए कौन-सा मार्ग दुख और कंटकमय है और कौन-से कर्म के द्वारा ये सब निवारित होते हैं । मुक्त भिक्षु यह सब प्रत्यक्ष दर्शन करके कामासव, भवासव और अविद्यासव से पूर्णरूपेण मुक्त हो जाता है। उसकी वर्तमान कामना, भविष्य कल्पना और अज्ञान जनित मोह; इन तीनों दु:खों के मूल कारण एकदम दूर हो जाते हैं और वह पुनः पुनः जन्मग्रहण करने से निष्कृति पाकर परमज्ञानमय, आनन्दपूर्ण लाभ करके नित्य शान्ति प्राप्त करता है।
इन्द्रियों के विषय में तू ढील मत दे । पाँचों में से इन दो का तो अवश्य निवारण कर-एक तो जिह्वा और दूसरा उपस्थ।
अधिक क्या कहें- जो अपने प्रतिकूल हो, उसे दूसरों के प्रति कभी मत करो। धर्म का यही मूल है।
राम कहा, रहमान कहे कोउ, कान्ह कहो, महादेव री।
पारसनाथ कहो, कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री।।१।।
भाजन-भेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री।
तैसे खण्ड कल्पना रोपित, आप अखंड स्वरूप री।।२।।
एक आदमी जानता है, पर करता नहीं। दूसरा करता है, पर जानता नहीं ! ये दोनों ही मोक्ष नहीं पा सकते । जो जानता भी है और करता भी है, वही मोक्ष पाता है।
हे नाविक ! चित्त को स्थिर कर, सहज के किनारे अपनी नैया ले चल, रस्सी से खींचता चल । और कोई उपाय नहीं ।
सहज की साधना से तू चित्त को अच्छी तरह विशुद्ध कर ले। इसी जीवन में तुझे सिद्धि प्राप्त होगी और मुक्ति भी।
‘जिनका अंत:करण शुद्ध है, वे धन्य हैं ; क्योंकि ईश्वर का साक्षात्कार उन्हीं को होगा।’
‘आरंभ में शब्द था और शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ही ईश्वर था।’
‘आरंभ में शब्द था और शब्द ही सब कुछ हो गया। शब्द से प्रकाश उत्पन्न हुआ और यही प्रकाश सबको भीतर से प्रकाशित कर रहा है।’
‘सकेत फाटक से प्रवेश करो; क्योंकि चौड़ा है वह फाटक और चाकर (चौड़ा) है वह मार्ग, जो विनाश को पहुँचाता है, और बहुत है (ऐसे लोग) जो उसमें पैठते हैं। वह फाटक सकेत है और वह मार्ग सकरा है, जो जीवन को पहूँचाता है, और थोड़े हैं (वे लोग) जो उसे पाते हैं।’
ईश्वर एक है। वह सर्वोपरि है और वही चराचर जगत् का उत्पन्न करनेवाला है । सारी सृष्टि उसी में से निकलती है और उसी में लय हो जाती है।
थोड़ो खाइतो कलपै-झलपै,
घणो खाई लै रोगी।
दुहूँ पखाँ की संधि विचारै,
ते को विरला जोगी।।
अवधू रहिवा हाटे बाटे
रूख बिरख की छाया।
तजिबा काम क्रोध और तिस्ना
और संसार की माया।।
हँसिबा खेलिबा धरिबा ध्यान,
अहनिसि कथिबा ब्रह्मज्ञान।
हँसै खेलै न करै मन भंग,
ते निहचल सदा नाथ के संग।
अजपा जपै सुन्नि मन धरै,
पाँचों इन्द्रिय निग्रह करै।
ब्रह्म अगनि में जो होमैं काया,
तास महादेव बंदे पाया।।
धन जोवन की करै न आस,
चित्त न राखै कामिनी पास।
नाद बिन्द जाकै घटि जरै,
ताकी सेवा पारवति करै।।
(महायोगी गोरखनाथजी के शिष्य)
महति श्रूय माणोऽपि मेघभेर्यादिके ध्वनौ।
तत्र सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं नादमेव परामृशेत्।।७।।
-हठयोग प्रदीपिका
भा॰- मेघ और भेरी आदि का जो महान शब्द है, साधकों को उसके तुल्य शब्द अन्तर में सुनाई देने पर भी उसे चाहिए कि उन शब्दों में जो सूक्ष्म-से-सूक्ष्मतर नाद है, उसी की ओर ध्यान लगावे; क्योंकि सूक्ष्मनाद चिरकाल तक रहता है। जिस मनुष्य का चित्त उस सूक्ष्मनाद में आसक्त हो गया है, उसकी मति भी चिरकाल तक स्थिर हो जाती है।
यह श्री कृष्ण नाम उनका है, जो अनन्त हैं , जिनका कोई संकेत नहीं मिलता, वेद भी जिनका पता लगाते थक जाते हैं और पार नहीं पाते, जिनमें समग्र चराचर विश्व होता, जाता, रहता है।
‘इस भूतल पर अखिल मंगलों की वर्षा करनेवाले भगवद्भक्तों के समूह की सदा प्राप्ति हो ।’
‘बहुत क्या माँगा जाय, त्रैलोक्य सुख से परिपूर्ण होकर प्राणिमात्र को ईश्वर का अखंड भजन करने की इच्छा हो ।’
‘भाव-बल से भगवान मिलते हैं, नहीं तो नहीं। करतलामलकवत् श्री हरि है।’
‘हरि आया, हरि आया, संत-संग से ब्रह्मानंद हो गया। हरि आदि में हैं, हरि अन्त में हैं, हरि सब भूतों में व्यापक हैं । हरि को जानो, हरि को बखानो ।’
‘सोई कच्चा बे नहीं गुरु का बच्चा ।
दुनियाँ तजकर खाक रमाई, जाकर बैठा बनमों।
खेचरि मुद्रा वज्रासन माँ, ध्यान धरत है मनमों।
तीरथ करके उम्पर खोई, जागे जुगति मो सारी।
हुकुम निवृत्ति का ज्ञानेश्वर को, तिनके ऊपर जाना।
सद्गुरु की कृपा भई तब, आप ही आप पिछाना।’
(महान संत ज्ञानेश्वर की बहन, सन् १२०१-१२१९ ईस्वी )
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‘वाह वाह साहब जी, सद्गुरु लाल गुसाईं जी।
लाल बीच में उडला काला ओंठ पीठ सों काला।
पीत उन्मनी भ्रमर गुंफा रस झूलन वाला।।
सद्गुरु चेले दोनों बराबर एक दस्तयों भाई।
एक से एक दर्शन पाए महाराज मुक्ता बाई।।’
हम प्रतिवार बड़ी बारीक हजामत बनाते हैं , विवेकरूपी दर्पण दिखाते और वैराग्य की कैंची चलाते हैं , सिर पर शांति का उदक छिड़कते और अहंकार की चुटिया घुमाकर बाँधते हैं , भावार्थों की बगलें साफ करते और काम-क्रोध के नख काटते हैं, चारों वर्गों की सेवा करते और निश्चिन्त रहते हैं ।
मैं आपका सुनार हूँ, आपके नाम का व्यवहार करता हूँ। यह गले का हार देह है, इसका अन्तरात्मा सोना है। त्रिगुण का साँचा बनाकर उसमें ब्रह्मरस भर दिया। विवेक का हथौड़ा लेकर उससे काम, क्रोध को चूर किया और मन-बुद्धि की कैंची से रामनाम बराबर चुराता रहा। ज्ञान के काँटे से रामनाम को तौला और थैली में रखकर रास्ता पार कर गया । यह नरहरि सुनार, हे हरि ! तेरा दास है, रात-दिन तेरा ही भजन करता है ।
‘बडे-बडे साध संत उनसे करले एकान्त।
बता देव सिद्धान्त आदि अन्त उनो का।।
दसवें द्वारा झरोखा, देखले दिदार उनो का नैन दीन लगावै।।
अलख पुरुष को धुनी, तुर्या चेत रही उन्मुनी।
नहीं आदि अन्त पुरानी, पन्नी महाकरण रूप है।।
अहं नाद निःशब्दों यों, सोस लगाई ये चष्म यों।
चुनक है मसूर यों, झकझक झकाकात है ।।
लखलखात हिरे की खान, चकचकाट को भान।
निशिदिन करत न ध्यान, ज्ञान बहुत आयेंगे।।’
सोही ब्रह्म सनाथ जगाय, सब घट माहीं समाय।
सम भावन की बड़ि चतुराई, जनम जनम की कमाय।।
आतम जोती तुर्या भाती, गून निसी हरवाय।
‘अनंत’ सन्तन सतभावों से, निज गति प्रेम नवाय।।
रे भाई गैवी मरद सो न्यारे। वे ही अल्ला के प्यारे।।
देहरा तुटेगा मशीदी फुटेगा, लुटेगा सब हय सो।
लुटत नहीं, फुटत नहीं, गैबी सो कैसो रे भाई ।।१।।
हिंदू मुसलमान महज्यब चले, येक सिरजनहारा ।
साहब आलम कू चलावे, सो आलम थी न्यारा ।।२।।
जिस परमेश्वर ने संसार में भेजा, जिसने अखिल ब्रह्माण्ड उत्पन्न किया, उस परमेश्वर को जिसने नहीं पहचाना, वह पापी है। इसलिए ईश्वर को पहचानना चाहिए और जन्म को सार्थक कर लेना चाहिए; समझता न हो, तो सत्संग करना चाहिए, जिससे समझ में आ जाता है। जो ईश्वर को जानते हैं और शाश्वत-अशाश्वत का भेद बता देते हैं -- वे संत हैं । जिनका ईश्वर विषयक ज्ञानरूप भाव कभी चलायमान नहीं होता, वे ही महानुभाव साधु-संत हैं । जो जन समुदाय में बरतते हैं, परन्तु लोगों को जिनका ज्ञान नहीं , ऐसी बातें बताते हैं और जिनके अन्तरंग में ज्ञान जागता रहता है; वे ही साधु हैं । जिससे निर्गुण परमात्मा जानने में आता है, वही ज्ञान है; उसके अतिरिक्त सब कुछ अज्ञान है। उदाहरण के लिए अनेक विद्याओं का अभ्यास किया जाता है, उसे भी ज्ञान कहते हैं, परन्तु उससे कोई सार्थक नहीं होता।
एक ईश्वर को ही पहचानना चाहिए— वही ज्ञान है, उसी से सब सार्थक है, शेष सब कुछ निरर्थक और उदरभरण की विद्या है। ....... इस प्रकार पेट भरने की विद्या को सद्विद्या नहीं कहना चाहिए; अपितु जिससे अभी, इसी समय सर्वव्यापक परमेश्वर की प्राप्ति हो जाय, वही ज्ञान है और इस प्रकार का ज्ञान जिसे हो; उसको ही संत जानो और उससे वह पूछो, जिससे समाधान हो ।
(दासबोध-दशक ६ समास १)
ये गोविन्द प्राप्त भयो कहा काज ।
व्रत नहिं जानत तप नहिं जानत, कारागार में विराज ।।१।।
पूरब जनम तप करत है, तब वरद मिलो वनमाली।
मेरे पेट में प्रगटो निरगुन, यों ही माँगत वाली ।।
धमक म्याने गमक मुंढे गमक में चमक,
भेमक म्याने ज्योति मुंढे, ज्योति में झेमक।। ध्रुव॰।।
हारे मुंढे हुशार मुंढे देख मुंढे भाई।
डोंगी नजर देखते बाबा नजिकई लाई ।।१।।
चन्द सुरिज मन्द ज्याहा, खिन्नमय तारे।
सोही असल रूप बाबा , देखनारे न्यारे ।।२।।
तेज बिना ज्योति मुंढे ,ज्योति बिना प्रकाश।
रंग बिना रूप मुंढे, रूप बिना वास ।।३।।
आगे भरपुर पाछे भरपुर ,भरपुर सबले ठार।
पुरा गुरु पाई यतो हरबख्त खुदीदार ।।४।।
वस्ताद की सौगन्ध मुजे, हम तो बाबा हारे।
कहत ‘केशव’ गगन मगन, सोई अल्ला के प्यारे ।।५।।
दिल कागज पर सूरत तेरी, गुरु के हात लिखावत।
मध्व मुनीश्वर साईं तेरा, अस्सल नाम सिखाव।
शुन्य बुझे शुन्यपरहि बुझो।
शुन्य निरशुन्य भागे ।।
नागदेव मुख कथन किया हो,
तो जीव शीव सम जोगे रे।।
आडामडिया मंदलु बाजै।
बिनु सावन घनहरु गाजै।।
बादल बिनु बरखा होई।
जउ ततु विचारै कोई ।।
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दूध कटोरे गडवै पानी ।
कपिल गाई तापै दुहि आनी ।।
दूध पीउ गोविंद राई ।
दूध पीउ मेरे मन पतिआई ।।
नाहीं त घर को बापु रिसाई।
लैं नामैं हरि आगे धरि।।
एक भगत मेरे हृदय बसै।
नामैं देखि नराइन हसै ।।
दूध पी आई भगति धरि गइआ।
नामे हरि का दरसनु भइया ।।
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जब देखा तब गावा ।
तउ जन धीरजु पावा।।
नादि समाइलो रे ।
सतिगुर भेटिले देवा ।।
जह झिलमिल कारु दिसंता।
तह अनहद शबद बजंता।।
जोती जोती समानी।
मैं गुरु प्रसादी जानी ।।
रतन कमल कोठरी।
चमत्कार बिजुल तही ।।
नेरे नाहि दूरि ।
निज आतमैं रहिया भरपूरि ।।
जह अनहत सूर उजियारा ।
तह दीपक जलै घीया ।।
गुर प्रसादी जानिआ।
जनु नामा सहज समानिआ ।।
जऊ गुरदेऊ त मिलै मुरारि।
जऊ गुरदेऊ त उतरै पारि।।
जऊ गुरदेऊ त बैकुण्ठ तरै।
जऊ गुरदेऊ त जीवत मरै।।
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सति सति सति सति सति गुरदेव।
झूठ झूठ झूठ झूठ आन सभ सेव।।
संत श्री शिवदिन केशरीजी महाराज महाराष्ट्र
उस पर वारि जाऊँ रे। उनके पायां लागू रे।।
नव दरवाजे दसवीं खिरकी, ऊपर है एक फिरकी ।।
विरला साधो कोइ एक जाने, लेकर मन की गिरकी।।
दोनों नयन उलटे मारूँ, सब घर मेरे साईं ।।
निंदा स्तुति कछु नहिं जाने, वोही लाल गुसाईं ।।
‘शिवदिन’ के प्रभु केसरि साहेब, अगम निगम का राजा ।।
अनुहत डंका निसदिन बाजे, बाजत तन का बाजा ।।
गुरुपद पाया जी। अनुभव आया जी।।ध्रुव।।
सद्गुरु ने जब कृपा कीयी, चिद्घन तक विराजे ।।
तन्मय छत्र विचित्र सुहावे, अनुहत डंका बाजे ।।१।।
द्वैत-दलन करने मिलाया, दैवीसंपत को जा ।
देखत ही सब शत्रु मिट गए, इस विध मैं हूँ राजा।।२।।
सार विचार विवेक सो, नेम धरम सो जाने ।
मुक्ति निरतितूर्या सह मिल रहू, कीर वेद बखाने ।।३।।
भगत जगत सों मिल गए, इस विध, नाम निशान फड़के।
त्रिभुवन का सब खेल हमारा, जम की छाती तड़के।।४।।
जगमग ज्योत निरामय देखी, क्या कहुँ अजब तमासा ।
देवनाथ प्रभुदयाल निरंजन, झूले मस्त हमेशा ।।५।।
गुरु बिन हरिगुन रंग न पावे ।।ध्रुव।।
हरि ध्यान तें गुरु नहि मिलते।
गुरु सुमिरन ते हरि घर आवे ।।
दुष्ट को मारन भक्तन तारन ।
हरि अपने दिल भेद लखावे।।
गुरु दुर्जन कूँ सुजन करतु है।
हरि सों अधिक गुरुहि हिय भावे।।
विट्ठलनन्दन गुण विट्ठल से।
सज्जन वदन अधिकतम गावे।।
पाख दिला भरपुर बाजत, ज्येवत वेद ज्याको नूर।
परम पुरख आलेख, जुगीया नैन्न हल हजुर ।।
गाफल आद्या ज्यग जौ, बहके बाजेत अनाहत तुर।
‘गुण्डाकेशव’ परमादि, खलक भरा माह नुर ।।
मृगनाभ सुगन्ध भरे भटके,
वनमुं सुगन्ध चित्र उदासी ।।
घट में नट आप विराजतु है,
सुद न लेत मुरख बुद्ध विनासी।।
देही के देव को भेद न जानत,
कैसे कटेगी तेरी जमफाँसी ।।
कहे मानपुरी गुरु गुमान बिना नित,
मीन मरे पड़े जल माहिं पियासी।।
जीवन राम बसे घर मो, सब जीवन के समझे जिव सोई।
जीव अनेक मैं जीवन येक, बिना गुरु देख सकै नहिं कोई।।
साधु सु सेवन प्रेम दया मन, जीवन से मति निर्मल धोई।
श्री गुरुपद के गरजी नर , जीवन ‘राय’ कहीयत सोई।।
देही को देहरा देखले भाई, आत्माराम को पूजले भाई।
प्रेम का फूल लगाव प्यारे, अवघट की तालियाँ लग गई।
अनुहत घंटा बजाव प्यारे, कहे ‘लछमन गिर फकीर’।
जीव-जीव सु जोत मिलाव प्यारे।।
‘संत-चरणों की रज जहाँ पड़ती है, वहाँ वासना-बीज सहज ही जल जाता है, तब रामनाम में रुचि होती है और घड़ी-घड़ी सुख बढ़ने लगता है । ....... तुका कहता है- ‘यह बड़ा ही सुलभ सुन्दर साधन है, पर पूर्व पुण्य से ही यह प्राप्त होता है।’
‘तुका मिलना तो भला (जब) मन सूं मन मिल जाय।
उपर-उपर माटी घसी, उनकी कौन वराय ।।
कहे तुका भला भया, हुआ सन्तन का दास ।
क्या जानें कैसे मरता, न मिटती मन की आस ।।’
उसकूँ पहिचानो पहिचानो, सब घट माँहे चीन्हो।।ध्रुव॰।।
अन्दर बाहिर देखा, वोही रूप अरूप अनोखा ।
सच्चित् सुख कांचन में, हीरा झलके उस कौंधन में ।।
परमानन्द का आभा, कोटि ज्ञान भानु स्वप्रभा।
नाथ त्रिलोचनजी का,’टीका’ बन्दा जन्म जन्म का ।।
सुफल होत यह देह, नेह सतगुरु सों कीजै ।
मुक्ती मारग जानि, चरण सतगुरु चित दीजै।।
नाम गहौ निरभय रहौ, तनिक न व्यापै पीर ।
यह लीला है मुक्ति की, गावत दास कबीर ।।
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अवधू भूले को घर लावै, सो जन हमको भावै ।।टेक।।
घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि वन नहिं जावै ।
वन के गए कलपना उपजै, तब धौं कहाँ समावै।
घर में जुक्ति मुक्ति घर ही में, जौं गुरु अलख लखावै।।
सहज सुन्न में रहे समाना, सहज समाधि लगावै ।।
उन्मुनि रहै ब्रह्म को चीन्हे, परम तत्त को ध्यावै।
सुरत निरत सों मेला करिके, अनहद नाद बजावै ।।
घर में बसत वस्तु भी घर है, घर ही वस्तु मिलावै।
कहै ‘कबीर’ सुनो हो अवधू, ज्यों का त्यों ठहरावै ।।
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घूंघट के पट खोल रे तोको पीव मिलेंगे।।
घट-घट में वह साईं रमता, कटुक वचन मत बोल रे।
धन यौवन का गर्व न कीजै, झूठा पँचरंग चोल रे।।
शून्य महल में दियना बारिले, आशा से मत डोल रे ।
जोग जुगत से रंग महल में, पिय पायो अनमोल रे ।।
कहै कबीर आनन्द भयो है, बाजत अनहद ढोल रे ।।
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अपने घट दियना बारु रे।
नाम का तेल सुरत की बाती, ब्रह्म अगिन उद्गारु रे।
जगमग जोति निहारु मंदिर में, तन मन धन सब बारु रे।।
झूठी जान जगत की आशा, बारम्बार बिसारु रे।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, आपन काज सँवारु रे ।।
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जीवन मुक्त सो मुक्ता हो।
जब लग जीवन मुक्ता नाही, तब लग सुख दुख भुगता हो।।
देह संग नहिं होवे मुक्ता, मुए मुक्ति कित होई हो।
जल प्यासा जैसे नर कोई, सपने मरै पियासा हो ।।
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गगन की ओट निसाना है।।टेक।।
दहिने सूर चन्द्रमा बायें, तिनके बीच छिपाना है।।१।।
तन कै कमान सुरत का रोंदा, शब्द बान ले ताना है।।२।।
मारत बान बिंधा तन ही तन, सतगुरु का परवाना है।।३।।
मार्यो बान घाव नहिं तन में, जिन लागा तिन जाना है ।।४।।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, जिन जाना तिन माना है ।।५।।
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द्वार धनी के पड़ि रहै, धका धनी का खाय।
कबहूँ धनी निवाजई, जो दर छाड़ि न जाय।।
जो तू चाहे मुज्झ को, राखो और न आस।
मुझहि सरीखा होय रहु, सब सुख तेरे पास।।
हाकों परवत फाटते, समुंदर घूंट भराय।
ते मुनिवर धरती गले, क्या कोई गर्व कराय।।
आसै पासै जो फिरै, निपट पिसावै सोए।
कीला से लागा रहै, ताको बिघन न होय।।
जैसा अन-जल खाइये, तैसा ही मन होय ।
जैसा पानी पीजिए, तैसी वानी सोय ।।
दान किये धन ना घटे, नदी न घट्टै नीर ।
अपनी आखौं देखिये, यों कथि कहे कबीर ।।
आय सकौं नहिं तोहिं पै, सकौ न तुज्झ बुलाय।
जियरा यौं लय होयगा, विरह तपाय-तपाय।।
प्रेम-प्रेम सब कोइ कहै, प्रेम न चीन्हे कोय।
आठ पहर भीना रहै, प्रेम कहावै सोय ।।
पिउ परिचय तब जानिये, पिउ से हिलमिल होय।
पिउ की लाली मुख पड़े, परगट दीसै सोय।।
भुक्ति मुक्ति माँगों नहीं, भक्ति दान दे मोहि।
और कोई जाचौं नहीं, निसिदिन जाचौं तोहि।।
संगति कीजै संत की, जिनका पूरा मन ।
अनतोले ही देत हैं, नाम सरीखा धन ।।
पतिवरता मैली भली, काली कुचिल कुरूप ।
पतिवरता के रूप पर, वारौ कोटि सरूप ।।
साँचे श्राप न लागई, साँचे काल न खाय।
साँचे को साँचा मिले, साँचे माहिं समाय ।।
पावक रूपी साइयाँ, सब घट रहा समाय ।
चित चकमक लागै नहीं, ताते बुझि-बुझि जाय।।
कामी क्रोधी लालची, इनते भक्ति न होय।
भक्ति करै कोई शूरमा, जाति वरन कुल खोय।।
ऊँचै पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय ।
नीचा होय सो भरी पिवै, ऊँचा प्यासा जाय।।
सब घट मेरा साइयाँ, सूनी सेज न कोय।
बलिहारी वा घट की, जा घट परगट होय ।।
जहाँ काम तहाँ राम नहिं, जहाँ राम नहिं काम ।
दोनों कबहूँ ना मिले, रवि रजनी इकठाम ।।
माँस मछरिया खात है, सुरापान से हेत ।
सो नर जड़ सो जाहिंगे, ज्यों मूली की खेत ।।
हिन्दू के दाया नहीं, मेहर तुरुक के नाहिं।
कहै कबीर दोनों गये, लख चौरासी माहिं।।
घर में घर दिखलाय दे, सो सतगुरु संत सुजान।
पंच शब्द धुनकार धुन, बाजै गगन निसान ।।
सर्गुन की सेवा करो, निर्गुन का कर ज्ञान ।
निर्गुन सर्गुन के परे, तहैं हमारा ध्यान ।।
शब्द शब्द बहु अन्तरा, सार शब्द चित देय।
जा शब्दै साहब मिलै, सोइ शब्द गहि लेय ।।
ज्ञान दीप परकाश करि, भीतर भवन जराय ।
तहाँ सुमरि सतनाम को, सहज समाधि लगाय।।
नाम जपत स्थिर भया, ज्ञान कथत भया लीन ।
सुरति शब्द एकै भया, जल ही ह्वैगा मीन ।।
नाम जपत कुष्ठी भला, चुइ चुइ परै जो चाम ।
कंचन देह केहि काम का, जा मुख नाहीं नाम।।
गुरु साहेब करि जानिये, रहिये शब्द समाय ।
मिलै तो दण्डवत बन्दगी, पल-पल ध्यान लगाय।।
नैनों की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय।
पलकों की चिक डारिके, पिय को लिया रिझाय।।
मथुरा भावै द्वारिका, भावै जा जगन्नाथ ।
साध-संगति हरि-भजन बिनु, कछू न आवै हाथ।।
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय।
जिन जिन मन आलस किया, जनम जनम पछताय।।
भक्ति बीज पलटै नहीं, जो जुग जाय अनन्त।
ऊँच नीच घर जन्म लै, तऊ संत को संत ।।
बिन पाँवन की राह है, बिन बस्ती का देश।
बिना पिण्ड का पुरुष है, कहै कबीर संदेश।।
जीवन से मरना भला, जो मरि जानै कोय ।
मरने पहले जे मरै, अजर अरु अम्मर होय ।।
कोटि कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करि धाम।
जब लग संत न सेवई, तब लग सरै न काम।