02. सिद्धांत-सामंजस्य

276.

अनुभव की एकता  --->>>

(देवी सिंक्लेटिका)

(अलकजेण्डरिया (मिस्र), चतुर्थ शताब्दी)
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‘अरे हमलोग कितने हर्षित और प्रसन्न होते, यदि हमने दिव्य धाम और ईश्वर के लिए उतने प्रयत्न किए होते, जितने संसारी लोग धन-संचय और नश्वर पदार्थों के लिए करते हैं ।’

277.

अस्सीसाई के महात्मा फ्रान्सिस

(सन् ११८२ से १२२६ ईस्वी )
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“भगवन! दया करके मुझे वह शक्ति दें कि किसी को मेरी सान्त्वना की आवश्यकता ही न पड़े । लोग मुझे समझें, इसकी जगह मैं ही उन्हें समझूँ ; लोग प्यार करें, इससे पहले मैं ही उन्हें प्यार करूँ |

278.

महात्मा एडमण्ड

(आर्य विशप ऑफ केण्टरवर,
स्थान- बकशायर, मृत्यु सन् १२४२ ईस्वी )
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‘हे परमेश्वर ! मैंने आपमें विश्वास किया है । लोगों को मैंने आपकी आराधना और उपासना की सीख दी है । आप इस बात के साक्षी झूँ कि मैंने पृथ्वी पर आपको छोड़कर और कुछ भी नहीं चाहा है ।

279.

साध्वी एलिजावेथ

(हंगरी, सन् १२०७ से १२३१ ईस्वी )
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“प्रियतम ! मेरे परमेश्वर !! आप पूर्ण रूप से मेरे हो जायँ और मैं पूर्ण रूप से आपकी हो जाऊँ । मुझे एकमात्र प्रेम आपसे ही करने दीजिए ।’

280.

टॉमस अक्विनस

(सन् १२२६ से १२७४ ईस्वी )
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“मैंने प्रभु से सदा यही याचना की थी कि सीधे-सादे आचारनिष्ठ प्राणी की तरह इस असार संसार से पार हो जाऊँ और अब मैं इसके लिए उनको धन्यवाद देता हूँ।’

281.

साध्वी कैथेरिन

(इटली, सन् १३४७ से १३८० ईस्वी )
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जो जीव आत्मविस्मृत होकर एवं समस्त संसार को भुलाकर केवल स्रष्टा की ओर दृष्टि रखता है, वही सिद्ध है।

282.

थोमस ए केम्पिस

(सन् १३८० से १४७१ ईस्वी )
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‘यदि बोलना उचित और आवश्यक ही जान पड़े, तो ऐसी चीजों के बारे में बोलो, जिनसे आत्मा की उन्नति होती है । शब्दों का अपव्यय और आत्म-निरीक्षण का अभाव ही मुख का बुरा उपयोग करना सिखाते हैं । हाँ, आध्यात्मिक सत्संग और चर्चा से आत्मिक उन्नति में बड़ी सहायता मिलती है।
“किस प्रकार प्रभु से बातचीत की जाती है, इसे जानना ही विज्ञता है और प्रभु को हृदय में प्रत्यक्ष करना या जानना ही परम ज्ञान का विषय है ।”

283.

मिरन्दुला के राजकुमार दार्शनिक महात्मा पिकस

(सन् १४६२ से १४९४ ईस्वी )
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‘यदि मृत प्राणी जीवित हो सकते, तो वे दूसरी मृत्यु की यातना तत्काल स्वीकार कर लेते, पर सांसारिक कार्यों और मान-प्रतिष्ठा में पड़कर अपनी मुक्ति को, वास्तविक शान्ति को खतरे में नहीं डालते ।’

284.

कुमारी टेरसा

(अवीला, सन् १५१५ से १५८२ ईस्वी )
*************************

“हे परमेश्वर ! मैं आपके संलाप-सुख का रसास्वादन तबतक नहीं कर सकती, जबतक अपने आपको दिव्य भागवत् प्रेम की आग में पूर्ण रूप से मोम की तरह गला देने और अपनी लौकिक विषयासक्ति को आपके प्रेम के चरणों पर चढ़ा देने की परम अभिलाषा का मुझमें उदय नहीं होता है ।’

285.

महात्मा फिलिप नेरी

(फ्लोरेन्स नगर, इटली, सन् १५१५ से १५९५ ईस्वी )
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‘हे परमेश्वर ! बस कीजिए-बस थोड़ी ही देर के लिए इस समय अपने माधुर्य-श्रोत को मेरे सामने से मोड़ लीजिए । हे देव ! इस समय कुछ देर के लिए आप मेरे पास से चले जाइए-चले जाइए।
मैं मर्त्य मानव हूँ । इस स्वर्गीय आनन्द का मैं अधिक देर तक रसास्वादन नहीं कर सकता हूँ। मेरे परम-प्रिय परमेश्वर ! प्राणधन परमेश्वर !! मैं मर रहा हूँ, आप मेरी सहायता कीजिये।’

286.

साध्वी मेरी मगडालेन

(फ्लोरेन्स, इटली, सन् १५६६ से १६०७ ईस्वी ).
*************************

‘ईश्वर की इच्छा ही परम प्रिय और मधुर है। जब हम अपना प्रत्येक कार्य परम पवित्र और सुदृढ़ समर्पण-भावना से इश्वर की प्रसन्नता और पूजा के लिये करने लग जाते हैं, तब हमारे और ईश्वर के बीच का सम्बन्ध अमित समृद्ध हो उठता है ।’

287.

जर्मन संत जेकब ब्यूमि

(सन् १५७५ से १६२० ईस्वी )
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“जहाँ किसी प्रकार का भी संसार नहीं है, ऐसे प्रदेश में एक क्षण भी यदि तू अपने को रख सके तो तू भगवान् का शब्द सुन सकता है, यदि थोड़ी देर भी अपने विचार और इच्छा को तू बन्द कर सकें तो भगवान् की आश्चर्यजनक वाणी तू सुन सकता है।’

288.

भाई लारेंस

(फ्रान्स, जन्म सन् १६१० ईस्वी )
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‘बुद्धि और आत्मशक्ति-द्वारा होनेवाली क्रियाओं में हमें एक विशेष अन्तर देखना चाहिये। आत्म-शक्ति से सम्पन्न होनेवाली क्रियाओं के सामने बुद्धि द्वारा होने वाली क्रियाओं का कुछ भी महत्व नहीं। हमारे लिये यही एक कर्त्तव्य है कि भगवान से प्रेम करें और उन्हीं में रमण करें ।’

289.

संत दा-मोलेनस पिंगल

(जन्म १०४६ ईस्वी )
*************************

“जिस स्थिति में संकल्प-विकल्प नहीं होता, वह भगवान् को प्राप्त करने की सुयोग्य स्थिति है ।
“बुद्धिमान और सच्चा आध्यात्मिक मनुष्य आव-श्यकता के बिना नहीं बोलता, जरूरी काम के बिना किसी को जबाब नहीं देता और सन्तोष मान कर रहता है।

290.

महात्मा जॉन जोसफ

(इटली, सन् १६५४ से १७३४ ईस्वी )
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“जो प्राणी ईश्वरोन्मुख होता है, वह कभी पाप नहीं कर सकता; सदा निर्दोष रहता है और आगे चल कर एक महान् सन्त हो जाता है।’

291.

दार्शनिक इमर्सन

(बोस्टन नगर, अमेरिका, सन् १८०३ से १८८२ ईस्वी )
*************************

‘सर्वोच्च दृष्टि से जीवन की बातों पर विचार करना ही प्रार्थना है । प्रार्थना जागरूक-आनन्दमग्न आत्मा का स्वागत भाषण है। प्रार्थना भगवान् की शक्ति के रूप में उनकी वृतियों की प्रशंसा करती है । स्वार्थ-साधन के लिये की गयी प्रार्थना तो चोरी और क्षुद्रता है । ऐसी प्रार्थना तो द्वैत भाव लेकर चलती है, इसमें स्वरूपगत और चेतनागत एकता का भाव नहीं होता । ज्यों ही मनुष्य भगवान् में एकाकार होता है, उसकी याचना समाप्त हो जाती है और वह अपने समस्त कर्म प्रार्थना से परिपूर्ण देखता है ।

292.

संत स्टाफोर्ड ए॰ ब्रुक्स

(सन् १८३२ से १९१६ ईस्वी )
*************************

‘ईश्वर की उपासना यही है कि जिसके हम उपासक हैं, उसी के प्रतिरूप बन जायँ । सूर्य के सदृश जहाँ से प्रकाश, पवित्रता, विवेक तथा शक्ति एक ही आत्मा में बहती है, उसका सामीप्य प्राप्त करें । हम पवित्रता से उसे देखें, प्रेम से उसमें निवास करें, सत्य के द्वारा उसके ज्ञाता बनें, सम्मान के भाव से उसको समझें, नम्रता से उसमें आनन्द तथा प्रसन्नता का अनुभव करें, प्रफुल्लित मन से उसके कार्यो में आश्रय प्राप्त करें तथा बलपूर्वक उसके कार्यो को करें । मूल तत्त्व यह है कि भगवान् का विज्ञान प्राप्त करके उसके अनन्त सौन्दर्य का रसपान करे।

293.

महात्मा चार्ल्स फिलमोर

मैंने अनुभव किया है कि भगवान् का राज्य मनुष्य के ही भीतर है; यदि हम उसे ही अन्यत्र खोजते हैं तो अपने समय का अपव्यय और भगवान् के विधान को निष्फल करते हैं ।

294.

महात्मा जेम्स एलन

‘आत्मसंयम धन से भी अधिक मूल्यवान है । शान्ति से मनुष्य का स्थायी कल्याण होता है। नर-नारी अन्धे बनकर इधर-उधर सुख की खोज में मारे-मारे फिर रहे हैं । उनको सुख नहीं मिल सकता । और न तो उनको उस समय तक सुख मिलेगा, जबतक वे इस बात को मान नहीं लेते कि सुख उनके अन्दर ही है।’

295.

महात्मा टाल्स्टाय

(रूस, सन् १८१८ से १९१० ईस्वी )
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‘लोग अनेक प्रकार से ईश्वर का स्मरण करते हैं, लेकिन उसे समझने और अनुभव करने का मार्ग एक ही है।’
‘मनुष्य को प्रेम करना चाहिये; लेकिन वह वास्तविक प्रेम उसी से कर सकता है, जिसमें कोई बुराई नहीं है। इसलिये ऐसी कोई चीज जरूर होनी चाहिये, जो बिल्कुल निर्दोष हो । और केवल एक ही ऐसी वस्तु है, जिसमें कोई दोष नहीं है- ईश्वर ।’

296.

बह्मज्ञान का महान् समन्वय  --->>>

(एच॰ पी॰ ब्लेवास्तकी)

(रूसी महिला, थियोसोफी मत की प्रवर्त्तिका)
(सन् १८०१ से १८९१ ईस्वी )

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“शुद्ध जीवन, उन्मुक्त मन, पवित्र हृदय, उत्सुक बुद्धि, आवरण रहित आध्यात्मिक दृष्टि, सब के प्रति भ्रातृप्रेम, सलाह और शिक्षा लेने-देने की तत्परता, अपने प्रति किये गये अन्यायों का वीरता-पूर्वक सहन, सिद्धान्तों की निर्भीक घोषणा, अन्य लोगों पर अन्यायपूर्वक आक्षेप होने पर उनका दृढ़ता पूर्वक संरक्षण, तथा ब्रह्मविद्याप्रदर्शित मानव उन्नति एवं पूर्णता के आदर्श पर निरन्तर दृष्टि- ये ही स्वर्ण-सोपान हैं, जिनके द्वारा जिज्ञासु ब्रह्मज्ञान-मन्दिर तक पहुँच सकता है।”

297.

डॉक्टर एनी बेसेन्ट

(थियो सोफी की प्रधान प्रचारिका, जन्म-आयलैंड )
(सन् १८४७ से १९३३ ईस्वी )

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‘उन्नति के मार्ग पर चलने वाले पुरुष का ज्ञान ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है, त्यों ही त्यों उसका यह विश्वास दृढ़ होता जाता है कि संसार की समस्त क्रियायें पूर्ण नीति से तथा न्याय पूर्वक होती हैं। उन्नति करके जब पुरुष ऊर्ध्व लोकों में जाकर तथा वहाँ की लीला को दृष्टिगोचर कर-उस ज्ञान को जाग्रत अवस्था की उपाधि में लाने लगता है, तब यह निश्चय अधिक होता जाता है और इससे आनन्द भी अधिक बढ़ता है कि सत्य-नीति का व्यवहार इस प्रकार होता है कि उसमें कभी भूल-चूक नहीं होती और उसके अधिकारी ऐसी निर्भ्रांत अन्तर्दृष्टि और सुनिश्चित शक्ति से काम करते हैं कि उसमें किसी प्रकार का दोष नहीं आता है ।।

298.

भक्तराज यादवजी महाराज

(सुदामापुरी, सं॰ १९१२ से १९८८ वि॰)
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“जिसके हृदय में प्रभु का वास होता है, वहाँ अहं भाव नहीं रहता |
“संसार मुसाफिरखाना है; असली घर तो प्रभु का धाम है।’
‘जो आदमी दूसरे को कूएँ से बाहर निकालना चाहता है, उसे पहले अपने पैर मजबूत कर लेने चाहिये । इसी तरह जो गुरु बनना चाहे, उसे पहले स्वयं पूर्ण ज्ञानी बनना चाहिये ।’

299.

गुजरात के महात्मा नाथूराम शर्मा

हे चित्तनिरोध की इच्छा करनेवालो! तुम नेती-धौती को, नाना प्रकार के आसनों को, कुम्भकों को तथा मुद्राओं को ही योग मानकर वहाँ ही अटके न रहो । चित्त की सर्व प्रकार की वृत्तियों को रोध करना ही योग है। इसलिये इस योग को ही प्राप्त करने का प्रयत्न करो ।’

300.

भक्त रसिकमोहन विद्याभूषण

(वीरभूमि जिला)
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‘मनुष्य का हृदय जब सद्गुरु के सदुपदेश से सांसारिक आत्मीय लोगों के कहीं ऊपर, आपात-अदृश्य किसी अतीन्द्रिय, नित्य सुहृद का सन्धान पाता है और कुसुमकोमला भक्ति जब उसको खोजने का प्रयास करती है, तब मानव हृदय उस चिर मधुर, चिर सुहृदय का सन्धान पाकर उसके सम्मुख मन की बात और प्राणों की पीड़ा प्राण खोल कर रख देता है, इसी का नाम प्रार्थना है ।’

301.

भक्त कोकिल साईं

(सिन्ध, जन्म-संवत् १९४२ वि॰, देहान्त वृन्दावन में सं॰ २००४ वि॰)
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“जैसे वायु के सम्बन्ध से पुष्प की गन्ध नासिका तक पहुँचती है, वैसे ही सत्पुरुष के सम्बन्ध से निर्मल चित्त अनायास ही ईश्वर तक पहुँच जाता है ।’

302.

श्री रूप स्वामीजी

(श्री चरणदासजी के शिष्य)
*************************

‘था वन-वन भटकना,
कबहुँ न मिलिहैं राम।
‘रामरूप’ सतसंग बिना,

सब किरिया बेकाम।।

303.

डाकोर के महात्मा ब्रह्मदासजी महाराज

‘ब्रह्मदास’ तू जान ले,
पहले अपनो रूप ।
चिदचिद्युत जान तू,

प्रभु को सत्य स्वरूप।।

304.

श्री गोपीनाथजी कविराज

एम॰ ए॰ (वाराणसी)
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“जो अखण्ड नाद जगत के अन्तस्तल में-आकाश मण्डल में निरन्तर ध्वनित हो रहा है, उसे बद्ध जीव चित्त और प्राणों की विक्षिप्तता के कराण सुन नहीं पाता । परन्तु जिस समय गुरु की कृपा से तथा क्रिया-विशेष के द्वारा सुषुम्ना-मार्ग उन्मुक्त होता है, उस समय प्राण स्थिर और सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त हो कर उसमें प्रविष्ट होते हैं और उस शून्य पथ से मन अनाहत ध्वनि का अनुसरण करते-करते क्रमशः निर्मल और शान्त अवस्था को प्राप्त करता है । जब मन पूर्णरूपेण स्थिर हो जाता है, तब फिर नाद-ध्वनि नहीं सुनाई पड़ती। उस समय चिदात्मक आत्मा अपने स्वरूप में स्थिर होकर बाह्य प्रकृति के स्पर्श से मुक्ति प्राप्त कर लेता है।

305.

जगद्गुरु भगवद्पाद
श्री रामानन्द सम्प्रदायाचार्य
स्वामी  रघुवराचार्यजी

“योग-मार्ग ही भगवद् प्राप्ति का एक मार्ग है, क्योंकि यौगिक प्रक्रिया के अनुसार ही मनोनिरोध हो सकता है और इस प्रकार के साधनों में मन का स्थैर्य-पूर्णतया अपेक्षित है; अतः उपनिषदों का तात्पर्य योगानुष्ठानपूर्वक ही मुक्ति की प्राप्ति से है। ऐसा कोई मार्ग मोक्ष-साधन का नहीं है जिस मार्ग में योगांगों की आवश्यकता न पड़ती हो ।

306.

स्वामी  रघुवराचार्यजी

“योग-मार्ग ही भगवद् प्राप्ति का एक मार्ग है, क्योंकि यौगिक प्रक्रिया के अनुसार ही मनोनिरोध हो सकता है और इस प्रकार के साधनों में मन का स्थैर्य-पूर्णतया अपेक्षित है; अतः उपनिषदों का तात्पर्य योगानुष्ठानपूर्वक ही मुक्ति की प्राप्ति से है। ऐसा कोई मार्ग मोक्ष-साधन का नहीं है जिस मार्ग में योगांगों की आवश्यकता न पड़ती हो ।  

307.

स्वामी कुबलयानन्दजी

(कैवल्य धाम, बम्बई) .
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‘प्राणायाम दुधारे खाँड़े के समान है। इससे लाभ और हानि दोनों हो सकती है, बल्कि इससे लाभ उठाने की अपेक्षा इसका दुरूपयोग करना सहज है।’

308.

श्री गोपाल चैतन्यदेवजी महाराज

‘नाद-ध्वनि की साधना करते-करते अन्त में जो ऊँकार-ध्वनि सुनने में आती है, वह ध्वनि-जब तक साधक जीवन धारण करता है तबतक कभी बन्द नहीं होती। सदा सर्वावस्था में अर्थात् जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में भी नाद-ध्वनि चलती ही रहती है।’

309.

योगीवर भूपेन्द्रनाथ सान्याल

‘योगियों के किसी-किसी सम्प्रदाय ने चेष्टा की कि श्वास का ही निरोध किया जाय, क्योंकि प्राणवायु स्थिर होने पर मन स्थिर हो जाता है । अवश्य ही मनस्थिर होने पर प्राण भी स्थिर होता है, इसलिये योगियों के एक सम्प्रदाय ने मन का निरोध करने की ओर विशेष ध्यान दिया है।’

310.

विद्वानों के उज्ज्वल विवेक  --->>>

(स्वामी अभेदानन्दजी, पी॰ एच॰ डी॰)

“संसार का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है ऋग्वेद, उसमें यह मंत्र आया है— ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ अर्थात् वह एक ही है और सद्विप्र उसे अनेक नामों से अभिहित करते हैं । यहूदी उसे जेहोवा कहते हैं, ईसाई गॉड या स्वर्गस्थ कहते हैं, मुसलमान अल्लाह कह कर पूजते हैं, बौद्ध बुद्ध, पारसी अहुरमज्द और हिन्दू ब्रह्म या ईश्वर कहते हैं।’

311.

महात्मा बालकरामजी विनायक

“सृष्टि के मूल में जब शब्द है, तब वह एक-अद्वितीय कौन शब्द है, जिसका अर्थ विश्व है? वह अलौकिक शब्द प्रणव है-राम नाम है, जो तारक ब्रह्म है-शब्द ब्रह्म है।’
‘इस कलिकाल में स्वामी श्री रामानन्दजी महाराज ‘शब्दाद्वैतवाद’ के प्रखर और प्रबल आचार्य हुए । इन्होंने पतितों के उद्धार के लिये ‘सुरति-शब्द-योग’ चलाया । स्वामीजी ने रामनाम का भजन सिखलाया ।

312.

पण्डित कृष्णदत्तजी भारद्वाज

(एम॰ ए॰, आचार्य, शास्त्री, वेदान्त-विद्यार्णव)
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‘संस्कृत भाषा में ‘सत्’ शब्द के बहुवचन में ‘सन्तः पद प्रयुक्त होता है। उच्चारण में सौन्दर्य के निमित्त व्यावहारिक हिन्दी भाषा में विसर्ग का लोप कर देते हैं और ‘संत’ कहा करते हैं। “सन्त’ शब्द इस दृष्टि से स्वयं बहुवचन में है, तथापि हिन्दी में एकवचन मानते और बहुवचन में ‘सन्तों’ कहते हैं । भक्त, श्रोत्रिय, महात्मा, ऋषि, मुनि, त्यागी, सन्यासी, तपस्वी, योगी, ध्यानी ज्ञानी ये शब्द यद्यपि जीवों की साधनावस्था में भिन्नार्थक हैं तथापि उनकी सिद्धावस्था में एकार्थक ही होते हैं । ये भक्तादिक सभी परिपूर्ण निष्पिन्न अवस्था में पहुँच कर सन्त कहलाते हैं, क्योंकि वे असत् से सत् हो जाते हैं ।  

313.

स्वामी शुद्धानन्दजी भारती

(पाण्डिचेरी)
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‘संत ही मानव जाति के प्राण हैं, संत ही संसार रूपी पादप के अमृत फल हैं, संत ही सभ्य समाज को प्रकाश देने वाले प्रदीप है । वे ही पाप-ताप से पीड़ित मानव-जाति को ऊपर उठाने वाली शक्ति हैं । अतः सभी जातियों और सभी देशों के सन्तों को हम नत-मस्तक होकर प्रणाम करते हैं ।

314.

श्री सम्पूर्णानन्दजी

‘मैं तो ‘संत’ शब्द को ‘योगी’ के ही अर्थ में लेता हूँ। मैं इस बात को भूलता नहीं कि स्वयं पतञ्जलि ने ‘ईश्वरप्रणिधानाद्वा’ और ‘यथाभिमत-ध्यानाद्वा’ सूत्रों में कपाट बहुत चौड़े खोल दिये हैं । फिर भी प्राचीन परम्परा को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि कोई व्यक्ति ‘संत’ कहलाने का अधिकारी तब ही होगा, जब उसके लिये- ‘भिद्यते हृदय ग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्व संशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।’ यह उपनिषद्वाक्य सार्थक हो चुका है । इसके पहले वह कितना बड़ा भी भक्त या उपासक क्यों न हो, विद्वान, महात्मा, या सज्जन या और चाहे जो कहलाये, पर ‘सन्त’ नहीं कहला सकता ।’

315.

महात्मा धीरजलाल गुप्त साहब

(पूर्णियाँ जोतराम राय)
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राह गई है बड़ि झीनी हे साधो नैन नगर से।।टेक।।
नैन नगर में घोर अँधियारी सतगुरू ज्ञान सफीनी।।१।।
सहस भाग एक बाल बराबर धार धरहु लवलीनी ।।२।।
वा मग सुरत सरकि जब जावै, जोति झकाझक कीनी।।३।।
सतपथ गत यह कहत सन्तमत चढ़ि चल चाल प्रवीनी।।४।।
बाबा देवी साहब भेद बतावें धीरज ध्यान महीनी।।५।।

316.

परमहंस ध्यानानन्द साहब, पूर्णियाँ

मेरी आँखो में तारा नजर आवै ।। टेक।।
आँखि मुदि के गगन निहारौं, सुन्दर दामिनी दमकि आवै।।
गगन बाट में बिजली चमकै, देखि देखि मन को भावै।।
शीतल चन्दा खील रहा है, मोहन रूप से तरसावै।।
देवी साहब की ध्यानानन्द’ पर, कृपा अधिक सब लखवावै।।

317.

विद्वानों की कल्पना में अध्यात्म  --->>>

(श्री वियोगी हरिजी)

(हरिजन-निवास, दिल्ली)
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“दस-बारह वर्ष पहले संत-साहित्य देखने का मेरा चाव बहुत बढ़ गया था । समय निकाल कर नित्य उसका कुछ न कुछ अध्ययन व चिन्तन किया करता था । उन्हीं दिनों ‘बुद्धवाणी’ को भी कुछ देखा । कहना चाहिये कि मेरी अध्ययन यात्रा की यह एक नई मोड़ थी । पहले तो सगुण साकार का मधुर-मधुर रस-गान करने वाले भक्तों की वाणी की ओर ही मेरा रूझान अधिक रहता था, जिसका एक परिणाम हुआ ‘ब्रज-माधुरी सार’ का संकलनसम्पादन ।
....... और जब बुद्धवाणी के साथ-साथ निर्गुण-निराकारी सन्तों के शब्द सामने आये, तो जैसे हिमाचल की शुभ्र रजत-रेखा किसी ने मानस-क्षितिज पर खींच दी ।
कबीर, रैदास, धर्मदास, नानक, दादू, पलटू आदि की बानी को छूते ही ऐसा लगा कि अलौकिक महारस का पूर्ण परिपाक तो यहीं पर हुआ है। साहित्यालोचकों के यह कथन अर्थशून्य-से जँचे कि ‘इन सन्तों की अटपटी रचनाओं में न तो साहित्यिक सरसता है, ना संगीत की लय है और न कला की ऊँची अभिव्यंजना ही, और भाषा भी उनकी ऊबड़ खाबड़-सी है।’ मैंने देखा कि रीति-ग्रन्थों का फीता लेकर वे साहित्यालोचक सन्तवाणी का असीम क्षेत्रफल निर्धारित करने गये थे-चौकोर बँधे हुए तालाब पर धीरे-धीरे सरकती हुई नौका जैसे असीम अनन्त सागर के विखरे वैभव को मापने पहुंची थी।
मसि कागद से नाता न रखनेवाले जुलाहों, शिल्पियों और खेतिहरों की अटपटी ‘बाउल बाणी’ की अथाह गहराई में उतरा जाये, तो वहाँ वेद, उपनिषद और त्रिपिटक की झीनी-झीनी झाँकी तो मिलेगी ही, सूफी औलियों की मौज-मस्ती भी वहाँ लहराती नजर आयगी ।
मन में उठा कि सन्तवाणी का एक संग्रह-संकलन किया जाये ।

......कबीर की बानी को सबसे अधिक संख्या में लिया, फिर भी तृप्ति नहीं हुई । हो भी कैसे और किसे उस रस-निर्झरिणी की एक भी बूंद को छोड़कर, जिसके कण-कण में साईं का नौरंगा नूर झिलमिल-झिलमिल करता हो ।
......हर संत की ऐसी ही वाणी को इस ग्रन्थ में लिया है, जिसमें प्रेम-प्रीति व विरह का गहरा रंग पाया, सत् और श्वेत करनी की निर्मल झाँकी मिली,चेतावनी और वैराग की ऊँची-ऊँची लहरें देखी । योग की-त्रिवेणी के तट की और अनहद-बाँसुरी की और रिमझिम-रिमझिम रस-झरी का संकेत करने व खोलने वाली साखियाँ व सबद इसमें नहीं लिये—बिना अधिकार के उधर, उस घाट की ओर जाने और दूसरों को ले जाने की हिम्मत नहीं हुई, यद्यपि ....... संतों की अनोखी सैर की वही ऊँची से ऊँची ठौर है ।’ (सन्त सुधा सार से) 

318.

आचार्य विनोबा भावेजी

(‘संत सुधा’ सार की प्रस्तावना से)
*************************

“संतों की परम्परा अति प्राचीन काल से आज तक चली आ रही है जब से मानवता का उद्गम हुआ, सन्तों का आविर्भाव हुआ है । संतों की वाणी का प्रथम नमूना हमें ऋग्वेद में देखने को मिलता है । ऋग्वेदों के कुछ कथानाक पर सूक्तों को हम छोड़ दें तो बाँकी का सारा ऋग्वेद संतों की वाणी ही है ।
संतवाणी का दूसरा आविर्भाव हमें मिलता है, बुद्ध भगवान् की गाथाओं में ..... । ‘मनो पुब्बंगमा धम्मा, मनो सेटठा मनोमया’ - यह है धम्मपद का पहला वचन ।
इसके साथ देखिये ‘जपुजी’ में गुरु नानक का वचन- ‘मन्ने मोख दुवारू मन्नी परवारै साधारू ।’
मैं तो इन दोनों में कोई फर्क नहीं देखता, चाहे अर्थ करनेवाले कितने ही भिन्न-भिन्न अर्थ क्यों न करें । कबीर नानक, दादू, सब एक ही माला के मणि हैं, जिनमें मेरूमणि तो मैं बुद्ध को ही समझता हूँ । बुद्ध ने लोक-भाषा में जो लिखा, यही पीछे के सन्तों ने भी किया । वेदवाणी भी उस जमाने की लोक-भाषा में यानी वैदिक संस्कृत में प्रगट हुई वेदवाणी स्वयं प्रगट कर रही है--
‘अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम्’
‘मैं हूँ सब राष्ट्रों की वाणी, सब की वासनाओं का संगम करनेवाली’-अगर वैदिक ऋषि लोक-भाषा में न गाते होते, तो ‘अहं राष्ट्री’ ऐसा दावा वे नहीं कर पाते ।
वेदवाणी, बुद्धवाणी और तमिल भक्तवाणी, यह मूलत्रयी है, जिसमें बाद को सारी संतवाणी प्रसृत हुई । ज्ञानदेव, नामदेव और तुकाराम पुरन्दर दास और त्यागराज, नरसी मेहता और अखा भगत तुलसीदास, सूरदास और मीराबाई, कबीर, नानक और दादू; शंकरदेव और चैतन्य-ये सारे मध्ययूगीन संत विविध पुष्प हैं उस वल्ली के जिसका मूल उक्त त्रयी में है।’ 

319.

पण्डित परशुराम चतुर्वेदी

जन्म-सन् १८९४ ईस्वी , बलिया
(‘सन्त काव्य’ की भूमिका से)
*************************

“....... संतों का प्रधान लक्षण इस कारण यही हो सकता है कि वे सत्य के प्रति पूरी आस्था रखते हैं और उसी के अनुसार अपने जीवन को ढाल भी देते हैं । ....... उनमें किसी प्रकार के संकुचित वा संकीर्ण विचारों के लिये कोई स्थान ही नहीं रह जाता । वे सभी धर्मों, सम्प्रदायों, जातियों वा वर्गों को एक समान देखने लग जाते हैं ।
....... हम अपने को उस ‘सत्’ में लीन करके उसके साथ तदाकारता ग्रहण कर लेते हैं । वह ‘सत्’ ही वस्तुतः हमारे रूप में ‘संत’ का भाव ग्रहण कर लेता है । संत के जीवन का इसी कारण विश्व कल्याणमय हो जाना अनिवार्य है, क्योंकि विश्व मूलतः उस सत् का ही स्वरूप है ।’ 

320.

सन्तमत-प्रसार का आन्तरिक प्रेरण --->>>

(सन्त तुलसी साहब)

(बाबा देवी साहब के गुरु, हाथरस, वि॰ सं॰ १८१७ से १९०॰)
*************************

खेलो री हिरदे हरि होरी, पल-पल सुरति बहोरी ।।टेक।।
उन्मुनि संग पवन पिचकारी, सुखमनि मार मचोरी ।
वंकनाल रंग माट भरो है, पिया पै लै छिरकोरी, आज ऐसो मेल मिलोरी ।।१।।
चन्द सुरज सुन संयम कीना, इंगल पिंगल पट पौरी ।
आस अबीर गुलाल गुणन को, करि सत्संग उड़ोरी, मुक्त नर देह धरो री ।।२।।
मेरु डंड तत तारी लागी, स्वासा सिमिटि भरो री।
उठत आवाज विमल अनहद की धधकि धुनि शंख बजोरी, सखी चित चेत चलोरी ।।३।।
तुलसी जोग जुगति जब जानै, करम टकर उतरो री ।
इन्द्री पाँच प्रपंच पचीसों, लै इनको पकरो री, ज्ञान गुर बाँह मरोरी ।।४।।
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आली अधर धार निहार निज कै। निकरि शिखर चढ़ावहीं ।।१।।
जहाँ गगन गंगा सुरति जमुना । जतन धार बहावहीं ।।२।।
जहाँ पदम प्रेम प्रयाग सुरसरि। धुर गुरू गति गावहीं ।।३।।
जहाँ सन्त आस विलास बेनी। विमल अजब अन्हावहीं ।।४।।
कृत कुमति काग सुभाग कलिमल । कर्म धोइ बहावहीं ।।५।।
हिये हेरि हरष निहार घर कौ। पारहंस कहावहीं ।।६।।
मिलि तूल मूल अतूल स्वामी । धाम अविचल बसि रही ।।७।।
आली आदि अन्त विचारि पद कौ। तुलसी तब पिउ की भई।।८।।
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सुन ए तकी न जाइयो जिनहार देखना ।
अपने में आप जलबये दिलदार देखना ।।१।।
पुतली में तिल है तिल में भरा राज कुल का कुल।
इस परदये सियाह के जरा पार देखना ।।२।।
चौदह तबक का हाल अयाँ हो तुझे जरूर।
गाफिल न हो ख्याल से हुशियार देखना ।।३।।
सुन लामकाँ पै पहुँच के तेरी पुकार है।
है आ रही सदा से सदा यार देखना ।।४।।
मिलना तो यार का नहीं मुशकिल मगर तकी।
दुशवार तो ये है कि है दुशवार देखना ।।५।।
‘तुलसी’ बिना करम किसी मुर्शद रसीदा के।
राहे नजात दूर है उस पार देखना ।।६।। 

321.

महर्षिजी के सद्गुरु की सिद्ध वाणी --->>>

(बाबा देवी साहब)

(तुलसी साहब के शिष्य महर्षि मेँहीँ के गुरु,
१८४१ ईस्वी से सन् १९१९ ईस्वी )
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हमरा मालिक सब के माँही ।
सब में है और सब ते न्यारा, ऐसा अद्भुत साईं ।
जो गुरु मिले तो भेद बतावे, बिन गुरु दरस न पाई ।।
सब ते बड़ा छोट सब ही ते, घट-घट रहा समाई।
जा घट में परगट होय दरसे, ताके बलि बलि जाहीं ।।
रूप रंग आकार न वाके, वेद नेति कर गाई।
‘देवी’ कस-कस वाहि बखाने, कहन-सुनन में नाहीं ।।


‘महात्माओं के केवल दर्शन से ही किसी का कल्याण नहीं होता, उनके वचनों का श्रवण, मनन और निदिध्यासन करने की आवश्यकता है अर्थात् महात्माओं की वाणी को श्रद्धापूर्वक सुनो, उस पर विचार करो और उसके अनुसार चलो, तभी काम बनेगा । ...... सबका निर्वाह गृहस्थ पर ही निर्भर है, इसलिए तुमलोगों का चरित्र बड़ा ही सुन्दर होना चाहिए । ...... जो गृहस्थ पाप से पैसा इकट्ठा करता है, वह अपना जीवन तो बिगाड़ता ही है, परन्तु दूसरों के मन को भी अपनी खोटी कमाई का अन्न खिलाकर अपवित्र बनाता है; क्योंकि ....’जैसा खावे अन्न, तैसा होवे मन्न’, इसलिए लोभ में न पड़ो, मन को सदा सँभाल रखो। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा एवं परस्त्री-गमन, ये पाँच महापाप हैं । इनका त्याग करो । अपनी योग्यता के अनुसार परोपकार करते रहो, सत्संग में मन लगाओ । किसी अच्छे महात्मा से भजन-भेद लेकर कुछ देर एकान्त में बैठकर प्रभु का अन्तःकरण में ध्यान किया करो । काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार; मनुष्य के शत्रु हैं , उनसे सावधान रहो ।’ ।
संसार में दो प्रकार का धर्म है- एक उधार और दूसरा नकद । उधार धर्म वह है, जिसमें मृत्यु के पश्चात् मोक्ष का विश्वास किया जाता है और नकद धर्म वह है, जिसमें जीते जी मोक्ष का अनुभव होता है । लोग उधार धर्म की चिन्ता में लगे रहते हैं । कोई कर्मकाण्ड और बहिर्मुख भक्ति में लगा हुआ है तो कोई अपने आपको ब्रह्म मान बैठा है । उसको यह पता नहीं है कि जीव और सर्वेश्वर के बीच में प्राकृतिक अन्धकार, प्रकाश और शब्दादि के ऐसे पर्दे हैं कि जो केवल किसी मंत्र-यंत्र के पढ़ने अथवा यज्ञ इत्यादि करने और बहिर्मुख उपासना से कभी नष्ट नहीं हो सकते । उनके लिए अन्तर्मुख होकर दृष्टिसाधन और शब्दसाधन अवश्य करना पड़ेगा, जिससे उसकी सुरत एकान्त मार्ग से गमन करेगी और लोक-लोकान्तरों में घूमती हुई उस धाम में पहुँच जाएगी, जहाँ से फिर लौटना नहीं पड़ता । परन्तु उन साधनों को केवल पुस्तकें पढ़ने से कोई मनुष्य यथार्थ रूप में नहीं जान सकता है। जो लोग सुन-सुनाकर या पुस्तकें पढ़कर इन साधनों में लग जाते हैं, वह प्रायः अपने नेत्रों से हाथ धो बैठते हैं या मस्तिष्क बिगाड़ लेते हैं। इसलिए किसी ज्ञानी महात्मा से ही उपदेश लेकर अभ्यास करना चाहिए । साथ-ही-साथ सत्संग की भी बड़ी आवश्यकता है, उससे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकारादि हृदय को अपवित्र करनेवाले रोग कम होते जाते हैं और पवित्रता की वृद्धि होती है ।’
‘योग किसी विशेष ग्रन्थ या पुस्तक को नहीं कहते हैं और न किसी विशेष धर्म या मत का नाम है, किन्तु यह एक विद्या का नाम है, जिसके द्वारा ईश्वरीय भेद और अन्तर्रहस्यों का यथार्थ ज्ञान होता है । यह विद्या भूमण्डल के समस्त मतों और उनकी पुस्तकों में अपने-अपने क्रम तथा प्रकार से विद्यमान है; क्योंकि प्रत्येक देश के निवासियों को उसका बोध प्राप्त करने की आवश्यकता प्रतीत हुई है कि मनुष्य से कोई उच्च सत्ता भी है । अतः ईश्वर ने उनकी आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए उनके हृदयों में इस पवित्र विद्या का अन्तर्बोध प्रकाशित किया कि जिसके द्वारा उन्होंने ईश्वर और उसकी प्राप्ति के मार्ग को जान पाया । वे लोग अपनी-अपनी पुस्तकों में उन बातो को उस मात्रा में प्रकाशित कर गए कि जहाँ तक जान पाए थे ।’
‘वास्तव में योग दो वस्तुओं के मेल का नाम है । ...... योग का नियम संसारोत्पत्ति के पूर्व बनाया गया है; क्योंकि जबतक किसी एक ने दो वस्तुओं के मिलने का नियम नहीं बना लिया था, तबतक न तो कोई तत्व स्वयं बना था और न एक दूसरे से मिला था और न तबतक यह संसार उत्पन्न हुआ था । अतः इस नियम के बनानेवाले उस नियन्ता को ईश्वर कहते हैं और योग को ईश्वरीय विद्या; क्योंकि उसी ने इसको बनाया और वही इसका संचालक और संस्थापक है । ईश्वर अविनाशी और अनन्त है और उसका ज्ञान भी अविनाशी और अनन्त है । एक या दो-चार पुस्तकों में वह परिमित नहीं किया जा सकता; किन्तु उसकी एक अपरिमित पुस्तक और वह इस संसार के परली पार है । जो कोई वहाँ जाता है, वह उसको पढ लेता है, अन्यथा कुल लोग उस ज्ञान से शून्य ही रहते हैं ।’
...... योग का संस्थापक ईश्वर है और योग संसारोत्पत्ति के पूर्व बना है, यह कोई आश्चर्य-मय कथन नहीं है; क्योंकि ....... योग के संस्थापक और उसकी मर्यादा का पता किसी पुस्तक से नहीं लगता कि उसका संचालक और संस्थापक कौन हुआ है? कुल ऋषि, मुनि, योगी, योगीश्वर, अवतार, सन्त, अर्हत जिनके नाम समस्त संसार में भानु-सम प्रकाशित हैं, इस विद्या की प्रशंसा करते हैं कि इससे बढ़िया ईश्वर तक पहुँचने का दूसरा मार्ग नहीं हो सकता, परन्तु यह कोई नहीं कहता कि इस विद्या की संस्थापना मैंने की है ।’
...... इस कथन से सिद्ध होता है कि योग-विद्या का संस्थापक ईश्वर स्वयं है और सब लोग जाति, वर्ण तथा मत के बन्धन से पृथक् हुए उसके विद्या और आचरण सम्बन्धी ज्ञान के अधिकारी हैं । यही संसार में एक ऐसा क्लास है कि जिसमें कुल धनी, निर्धन, राजा, सेवक बराबर प्रवेश पा सकते हैं और इस पैतृक सम्पत्ति में सम भागी बन सकते हैं । प्राचीन काल में भी यही एक द्वार था कि जिससे छोटी जाति कहे जानेवाले मनुष्य भी ऋषि, मुनि, योगी, योगीश्वर संत और अर्हत हो गए ।’
...... राजयोग को आत्मसम्बन्धी इस आशय से कहा जाता है कि इसमें आत्मा को ऐसे लक्ष्य पर स्थिर किया जाता है कि जिससे वह सामग्री, जिनसे आवागमन होता है, दूर हो जाती है और वह आवरण रहित और पवित्र होकर वास्तविक केन्द्र पर पहुँच जाती है । इसके विरुद्ध हठयोग और उपासनाओं में जो विधियाँ हैं, वे सब प्रकृति सम्बन्धी है। उनके अभ्यासों एवं पूजाओं से आवागमन का चक्र भंग नहीं होता और जीवात्मा बारंबार जन्म पाकर दुख -सुख पाता रहता है ।
‘मनुष्य समस्त संसार का संक्षिप्त आकार है । यह दो भागों में विभक्त है- एक पिण्ड या धड़ और दूसरा ब्रह्माण्ड या शिर । पिण्ड के भीतरी भाग में हृदय तथा फेफड़े आदि हैं, जो दृश्यमान शरीर को स्थिर रखते हैं तथा अपने-अपने कार्यों में संलग्न हैं । शिरोभाग में भूरा और श्वेत दो प्रकार का सामान है, अत्यन्त बारीक एवं महीन तरंगों से बना हुआ है और उस पर विविध इन्द्रियाँ अपना-अपना कार्य कर रही है। इनके अतिरिक्त चार पर्दे और भी हैं, जो मांस, रक्त तथा मस्तिष्क आदि से कोई सम्बन्ध नहीं रखते उनमें से कुछ स्थूल शरीर से सम्बद्ध है, और कुछ सूक्ष्म शरीर से, जिनके नाम सुनकर आप स्वयं उनके स्वभाव से उन पर्दों को जान सकेंगे ।’ ‘पहला परदा अन्धकार का है, जो आँख बन्द करने से जाना जा सकता है । दूसरा आवरण प्रकाश का है, जो कि अन्धकार के पार जाने से जाना जा सकता है और तीसरा पर्दा शब्द का है, जो कि ध्यानपूर्वक सुनने से जाना जा सकता है । चौथा पर्दा कोई पर्दा नहीं है, किन्तु वह एक रहस्य है, जो प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय की भाँति समझ में नहीं आ सकता । केवल पूर्ण अभ्यास से जाना जा सकता है । इन चारों पर्दों में कुल स्थान प्रकृति, आत्मा तथा परमात्मा सम्बन्धी हिन्दू, मुसलमान, ईसाई और बुद्धिष्ट इत्यादि के हैं, जो अपनी-अपनी संख्या और व्याख्या के साथ वर्णन करते हैं । सन्तों में इन कुल स्थानों को पार करके अन्तिम स्थान में पहुँचने को मुक्ति कहते हैं । इस मुक्ति को पाने के लिए सन्तों में हठयोगादि उपासनाओं की भाँति अनेक विधियाँ नहीं है ; केवल दो विधियाँ है -
प्रथम दृष्टिमार्ग और दूसरा शब्दमार्ग । ये दोनों विधियाँ अन्य पूजा-विधियों की भाँति ‘मनुष्य-रचित’ नहीं है, जो कि भिन्न-भिन्न नामधारी धर्मों और मतों में प्रचलित है । स्वयं ईश्वर ही इन दोनों विधियों के संस्थापक और संचालक हैं । उसने ही पूर्ण योग्यता से इन दोनों विधियों को ‘मनुष्य के अन्दर’ प्रारम्भ से रख दिया है।’ ‘जीव के उद्धार का मार्ग हर एक मनुष्य के अन्तर में मौजूद है । जबतक कि कोई जीव इस पर न चलेगा, तबतक धर्म और पंथ का असली फल मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता है और न अपने और दूसरे धर्म की असली जड़ और सच्चाई को जान सकता है और न उन ग्रन्थों और पोथियों के मतलब को कि जो उसके धर्म और पन्थ के हैं - समझ सकता है; चाहे कैसा भी पण्डित-मौलवी-पादरी हो कि जो ईश्वर या खुदा की बोली को समझ सकता हो । लेकिन पंथ और धर्म उसके नजदीक या तो एक खेल या तमाशा है या दुनिया में दंगा-फिसाद फैलाने और भोले-भाले जीवों को धोखा देने का उम्दा सिद्धान्त है; क्योंकि हर मत की सच्चाई की जाँच, जाँचने से मालूम हो सकती है और जाँचने का थर्मामीटर ईश्वर या खुदा ने हर जीव--- गरीब, अमीर, पण्डित, मौलवी, पादरी, ज्ञानी, अज्ञानी, पापी, पुण्यात्मा और ब्राह्मण, सैयद से लेकर भंगी-चमार-कसाई तक कुल के अन्तर में एक सा रखा है । जबतक कि कोई मनुष्य इस पैमाने से जो कि खास उसके अन्तर में है, अपने आश्चर्य-अपने मत की महिमा को नहीं जाँच सकता है, तो दूसरे मत की सच्चाई और महिमा को क्योंकर जान सकता है?’ 

322.

बाबा देवी साहब  
यह थर्मामीटर या पैमाना अन्तरी मार्ग चौदह दर्जों में तकसीम हुआ है।

(सब दर्जों के नाम और भेद)
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१ अनाम (पुरुषोत्तम)-
वह, जो कुछ समझ में आता है, लेकिन कहने में नहीं आता; क्योंकि यहाँ का जो कुछ हाल अभ्यासी की सुरत में पड़ता है- नम्बर तेरह तक जहाँ से कि बातचीत करने का शब्द शुरू होता है, नहीं पहुँचने पाता—क्योंकि उसको नीचे के मायावी स्थान खींच लेते हैं और उसको छिपा देते हैं । उसको अलौकिक कहते हैं और मालिक इसका अनाम है ।
२ अगम (आनन्द),
३ अलख (चित्) -

ये दोनों नम्बर एक की तारीफ बतलाते हैं कि वह कैसा और क्या है ?
४ नाम (सत्) -
वह जगह-जहाँ कि सत्य का भंडार है, जिसकी कि कुल दुनियाँ तारीफ करती है कि इसका नाश नहीं होता। इस जगह मोक्ष होता है । इसको सत्लोक कहते हैं । और इसका नाम सत्तनाम, सत्तपुरुष, सत्तगुरु, वाह गुरु, सत्त साहिब सन्तों में बोला जाता है।
५ भँवरगुफा -
वह जगह, जहाँ से कि रचना शुरू हुई और चेतन पर जड़ की लपेट चढ़ी । इसी जगह से जीव पर कारण की लपेट चढ़ी और नम्बर एक से चार तक का हाल, इस जगह से सुरत में से निकलना शुरू हो जाता है । वह छिपे हुए चारों स्थान वे ही हैं, जो ऊपर बयान किये गए हैं ।
६ महासुन्न (महाशून्य),
७ सुन्न (शून्य) -

ये दोनों नम्बर पाँच की तारीफ बतलाते हैं । इस जगह निर्गुण निरंकार-अक्षर-कारण शुद्ध ब्रह्म है ।
८ त्रिकुटी -
वह जगह, जहाँ से तीन गुण (सत्त्व, रज एवं तम) पैदा हुए और कारण पर सूक्ष्म की लपेट चढ़ी । इसे ब्रह्मलोक कहते हैं और मालिक इसका ॐकार है- परब्रह्म, परमेश्वर, अल्ला अकबर है । कुल आकाशी और आसमानी किताबों का बीज है (सूरज)।
९ सहसदल कँवल -
वह जगह, जहाँ से पाँच तत्त्व (क्षिति, जल, अग्नि, वायु और आकाश) पैदा हुए और सूक्ष्म पर स्थूल की लपेट चढ़ी । कुल अच्छे-बुरे कर्मों का फैसला होकर जीव दुनियाँ को इसी जगह से लौटाया जाता है । मालिक इसका ॐ ब्रह्म, ईश्वर, निरंजन (ज्योति) है ।
* षट्चक्र (आज्ञाचक्र) -
वह जगह, जहाँ पिण्ड-ब्रह्माण्ड दोनों की हद्द मिली है । इसको छठा चक्र इसलिए कहते हैं कि इसके नीचे इसके पाँच चक्र और हैं -छठवाँ यहाँ खतम हुआ है । मालिक इसका प्रणव विन्दु, निजमन, नफसनातका, तीसरा नेत्र, शिवनेत्र, सुखमना, अकल्टाई, इस्टर्न स्टार, (तारा, मणि, मोती, हीरा) है । ऊपर की तरफ चढ़ने और नीचे की तरफ उतरने की यह खिड़की है ।
१० कण्ठ चक्र (विशुद्धाख्य) -
वह जगह, जहाँ विद्या तथा इल्म का प्रकाश होता है । इसकी स्वामिनी है— सरस्वती ।
११ हृदय चक्र (अनाहत) -
वह जगह, जहाँ से नाश-शक्ति पैदा होती है और रूप में हर एक किस्म की काट-छाँट करती है । मालिक इसका महेश है ।
१२ नाभीचक्र (मणिपुर) -
वह जगह, जहाँ से कि पालन करने की शक्ति पैदा होती है, जिससे कि रूप कायम (स्थिर) होता है । मालिक इसका विष्णु है ।
१३ इन्द्रीचक्र (स्वाधिष्ठान) -
वह जगह, जहाँ से रूप बनने की शक्ति पैदा होती है । मालिक इसका ब्रह्मा है ।
१४ गुदाचक्र (मूलाधार) -
वह जगह, जहाँ तीनों गुण और पाँचो तत्त्व, पिण्ड-ब्रह्माण्ड की रचना सिद्ध करके इकट्ठे हुए और उसकी शक्तियाँ बाहर में इस दुनियाँ से बाँधी गयी। मालिक इसका गणेश है।

जबतक कि जीव नम्बर आठवें से निकलकर चौथे दर्जे में नहीं पहुँचेगा, मोक्ष नहीं हो सकता और न उसको स्वर्ग और वैकुण्ठ हो सकता है, जबतक कि नवें दर्जे में न पहुँचे; क्योंकि कुल सामान स्वर्ग और वैकुण्ठ वगैरह के जो कि ग्रन्थों में लिखे हुए हैं, सब इसी जगह मौजूद हैं ।
“साधू और सन्त वह कहलाते हैं कि जो दुनियाँ में सीधी और सलामत रवि की चाल अख्यार करते हैं और सुरत अर्थात् ख्याल से ध्यान करने का उपदेश करते हैं; जिसे चाहे बैठ के करो, चाहे लेट के करो । और न कोई मतमतान्त की बूझ होती है। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई कुछ बने रहो, परन्तु दुनियाँ में दुख -सुख भोगते हुए अन्तर में बिना अभ्यास के किए एक दिन भी मत रहो ।’
‘इनका (साधू-सन्तों का) सबसे छोटा सिद्धान्त है, न तो अबतक वह संस्कृत, अरबी, फारसी, इब-रानी में पाया जाता है और न उसने अभी तक किसी प्रेस या छापेखाने का मुँह देखा है । बल्कि उसकी नकल मनुष्यों के अन्दर पायी जाती है । ...... जबतक कि कोई अन्तर में अभ्यास न करे, तबतक न तो उसके अक्षर जान सकता है और न उसे पढ़ सकता है।’
“संतों में आम उपदेश यह है कि अन्दर या बाहर जो कुछ कि निगाह में आता है, जहाँ तक कि रूप है, कुल मायावी और नाशवान है और इसके बाद एक ऐसी जगह है कि न तो वह कभी पैदा हुई है और न कभी नाश होती है-यही सत्य है, इसका नाश नहीं होता । इसका न कुछ रंग है और न कुछ रूप है और न कोई खास नाम है । लेकिन यह कुछ है, जो ख्याल और समझ में आता है, इसलिए वह भी नाम के शब्द से बोले जाने का अधिकारी है । जीव इसका अंश है, क्यों......कि इसका भी नाश नहीं होता । इसको उसमें मिलाने को ‘अन्तरी सत्संग’ कहते हैं और बाहर में उस जगह को कहते हैं, जहाँ परमार्थी बातचीत करने को मनुष्य जमा होते हैं । इनके दस्तूर व कायदे के मुआफिक जो लोग अभ्यास करते हैं, उनको साधु कहते हैं और जिन्होंने कि अपने को उस लोक में पहुँचाया है- जहाँ कि वह सत्य है- ‘सन्त’ कहलाते हैं ।
‘सन्तों में अभ्यास करने के बहुत गुर (युक्ति) नहीं हैं; सिर्फ दो हैं -- एक दृष्टि, दूसरा शब्द ।’
“दृष्टि-साधन उसको कहते हैं कि जो आँख के साथ अभ्यास किया जाता है । इसके साधन करने के सैकड़ों गुर और अमल है कि जो हिन्दुस्तान और दूसरे मुल्कों में जारी है, लेकिन बाजे इनमें से ऐसे है कि जिनसे आँख के दोनोगोले टेढ़े पड़ जाते हैं । और बाजे ऐसे हैं कि जिनसे आँख जाती रहती है और बाजे कायदे ऐसे भी हैं है कि जिनसे आँख की दोनों पुतलियों को, जिनमें होकर रोशनी बाहर को निकलती है, खराब कर देते हैं, जिनसे फिर आँखो से धुंधला दिखाई पड़ता है और चाहे तमाम उमर हकीम, वैद्य, डॉक्टर इलाज करे, किसी तरह पुतलियाँ दुरुस्त नहीं होती । दृष्टि से अभ्यास करने का वह कायदा है, जिसको आँख और आँख के गोले से कुछ तआल्लुक नहीं है और न दृष्टि के मानी आँख और आँख के गोले के हैं, जिससे कि वह नुकसान होते हैं -जो ऊपर बयान किए गए हैं ।
‘दृष्टि निगाह को कहते हैं कि जो मांस और खून की बनी हुई नहीं है । मनुष्य में यह निगाह ऐसी बड़ी ताकतवर चीज है कि जिसने बड़े-बड़े छिपे हुए साइन्स और विद्याओं को निकालकर दुनियाँ में जाहिर किया है और सिद्धि वगैरह की असलियत और मसालों का पता, जिससे कि वह हो सकती है, सिवाय इसके और किसी से नहीं लग सकता है । योगविद्या सीखने का दृष्टि पहिला कायदा है और इसके अभ्यास करने का गुर ऐसा उमदा है कि जिस से स्थूल शरीर के हिस्से को कुछ तकलीफ नहीं है और अभ्यासी इसके अभ्यास से उन निशानों को जिनको कि ईश्वर या खुदा की आकाशी और आसमानी ग्रन्थों और किताबों में सबसे बड़ा बतलाया है, जल्द पाकर मालूम कर लेता है । और फिर तमाम दुनियाँ के सिद्धान्त और उसूल अभ्यासी के रू-ब-रू हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं कि जो तमाम उमर पोथियों और ग्रन्थों के पढ़ने और सुनने से हासिल नहीं होते । लेकिन दृष्टि सिर्फ उस जगह पहुँच सकती है जहाँ तक कि रूप है और जहाँ से आवागमन हो सकता है, आगे उसके नहीं जा सकती जहाँ कि रूप और रेखा कुछ नहीं है और जहाँ से कि मोक्ष होता है । संतों के मत में सबसे बड़ा पदार्थ मोक्ष है और उस जगह तक दृष्टि नहीं जा सकती, इसलिए शब्द का दूसरा कायदा वहाँ पहुँचने को उपदेश दिया गया है ।’
‘इल्म योग में सबसे बड़ा सिद्धान्त मोक्षपद पाने के लिए शब्द-मार्ग है, जो बहुत से नामों से बोला जाता है । बाजे महात्मा इसी शब्दमार्ग को धर्म और पंथ की बुनियाद डालकर इसका उपदेश करते हैं । और बाजे लोग इसको साइन्स और विद्या के नाम से कोई सोसाइटी वगैरह कायम करके उपदेश करते हैं । इसलिए धर्म और साइन्स दोनों की यह जान है । न तो कोई धर्म और पन्थ बिना इस सिद्धान्त के चल सकता है और न कोई साइन्स और विद्या, बिना इसके सहारे के चल सकती है ।’ 

323.

बाबा देवी साहब  
बाल की आदि और उत्तर के अन्त की भूमिका से

‘आवागमन से बचाने को ही इनके (संतों के) मत का सबसे बड़ा फल है और इसी की बुनियाद पर इनके मत का उपदेश होता है।’
‘सन्तमत में दुनियाँ को अनादि नहीं मानते हैं । यह कभी पैदा हुई है और इसका कभी नाश भी होगा । जब कभी कि नाश यानी प्रलय या कयामत होगी, तो उस समय तक का नाश होना माना है, जहाँ तक कि कोई शकल या रूप है। मतलब यह कि जहाँ तक कोई लोक या कमल और ईश्वर या कमलों का कोई मालिक है-एक दिन सबका नाश होगा।’
अणिमादिक- ‘यह ईश्वरी निशान है कि जो अभ्यास मार्ग में मालूम होते हैं । अन्तरी भेद जानने के लिए अभ्यास की जरूरत होती है और अभ्यास, बिना जाने गुर अर्थात् जतन के किसी तरह से नहीं हो सकता है और यह दो तरह से मालूम होता है- अब्बल तो गुरु की दया से और दूसरे अगले जन्म की कमाई से अपने आप मालूम हो जाता है और उसका सामान भी खुद-ब-खुद वैसा ही बन जाता है । लेकिन दोनों किस्म के लोगों को सत्संग की सख्त जरूरत होती है, क्योंकि उन भेदों को ये दोनों लोग अभ्यास रीति से निकालते हैं, बिना सत्संग और गुरु के नहीं समझ सकते।
‘अबतक यह नहीं मालूम हुआ कि सबसे पहला कौन मनुष्य था, जिसने दुनियाँ में गुरु और गुर के उसूल को कायम किया । अगर, वह मनुष्य इस उसूल को कायम न करता तो, न तो असली मालिक का पता लगता और न कोई इन्तजाम मुनासिब तरह से होता । धर्म और मतों में न पीर-पैगम्बर, औलिया औतार, देवता-ऋषि और मुनि होते और न दुनियाँ की बादशाहत और राज का आज के दिन नाम सुना जाता और जितनी सभा और सोसाइटी कि जो अबतक जारी है, पते को न होती और पुत्र को न कुछ पिता का ख्याल होता और न स्त्री अपने पति की हुक्मबरदार होती ।’
‘दुनियाँ की जितनी कारीगरी, सनद और बी॰ ए॰, एम॰ ए॰, शास्त्री, हाफिज, मौलवी, सिविलियन, डॉक्टर, बढ़ई, चमार, कोली से लगाकर ईश्वर और उसका रास्ता कुल गुरु के मोहताज है । जिन लोगों के दीनी और धर्म के जलसों में गुरु को नहीं माना जाता है, वे लोग हमेशा दंगा-फसाद मचाते रहेंगे; क्योंकि न कोई इसका समझानेवाला है और न ये समझनेवाले हैं कि इन्होंने उस पवित्र और आकाशी सिद्धान्त को नहीं माना, जिसको सबसे पहले मनुष्य ने कायम किया था ।’
सतगुर- सत्, सच्च को कहते हैं । और गुर, अमल वा भेद को कहते हैं, जिसके अभ्यास से कि जीव अनाम तक पहुँचता है । लेकिन यहाँ उन ‘सतगुर’ से मतलब है कि जो निहायत प्यार से उस शब्द और प्रकाश रूपी सतगुर के भेद को बतलाते हैं । इनका दर्जा सबसे बड़ा है । जबतक जीव इनको अपना हकीम न बनावेगा और इनके वचन पर प्रतीत न करेगा-अपने मतलब को नहीं पा सकता है।
सत्संग बाहरी और अन्तरी- “सत्संग बाहरी’ उसको कहते हैं, जिनमें कि अन्तरी भेद को सतगुरु उपदेश करते हो और ‘सत्संग अन्तरी’ उसको कहते हैं - जिससे कि जीव, ब्रह्म–पारब्रह्म-अनाम वगैरह कुल का भेद मालूम हो ।”
अधिकारी- ‘जो लोग कि दुनियाँ के कामों में हर वक्त लगे रहते हैं और एक-दो घण्टे की भी फुर्सत नहीं निकाल सकते, वे अन्तर-भजन के अधिकारी नहीं हैं; क्योंकि अगर उनको अन्तरी भेद मालूम भी हो गया, तो उनके किस काम का है?’
‘जो अपने परिश्रम के बदले में सिद्धि-शक्ति की अभिलाषा रखते हैं, उनको प्रभु का सच्चा भक्त नहीं कहा जा सकता, न वह अपने धाम में पहुँचने के योग्य है । ....... जिसने प्रभु को अपना लिया, सिद्धि-शक्ति तो उनके पीछे आप ही लगी फिरती है ।’
‘....... शब्द का विषय अत्यन्त गहन और विज्ञान सम्बन्धी है । अतः बिना दृष्टिसाधन के इसका समझ में आना असम्भव है । दृष्टिसाधन उसकी कुंजी है । दृष्टिसाधन से अभ्यासी में शब्द-मार्ग के समझने की योग्यता उत्पन्न हो जाती है । अब यह स्मरण रखना चाहिए कि ईश्वर का रहस्य उसी के शब्द से खुलता है, जो कि अविनाशी है । मायावी रहस्य मायावी शब्दों से खुलता है कि जो विनाश और परिवर्तनशील है और उसके परिणाम भी नाशवान हैं।
‘यदि धन के साथ धर्म नहीं है तो वह नाश का मूल है ।’
‘सद्गुरु की निष्कपट सेवा, सत्संग और दृढ़ ध्यानाभ्यास; ये तीनों बातें मनुष्य के लिए अत्यावश्यक है। यही मोक्ष का कारण है।’ “ऐ मनुष्य! तीर्थ, व्रत, रोजा, नमाज और हज्ज करने से तुझको शान्ति प्राप्त न होगी, यदि शान्ति चाहता है तो सत्पुरुषों का सत्संग और अन्तर्मुख साधन कर ।’
‘ऐ मनुष्य! यदि अनन्त और सर्व व्यापक प्रभु को जानना चाहता है तो आन्तरिक दृष्टि को सूक्ष्म बनाने के लिए विन्दुरूप का ध्यान कर ।’
‘आरम्भ में अभ्यास करते समय जड़ समाधि हो जाती है और निद्रा आ जाती है । इसका हेतु यह है कि अभ्यासी उस समय अपनी चेतना (होश) को स्थिर नहीं रख सकता है; अतः इसको वह पूर्ण लाभ जो होना चाहिए था, नहीं होता । ...... इसलिए धैर्यपूर्वक ‘अधिक समय तक अभ्यास करना चाहिए ।’
सन्तमत- “किसी नवीन मत या पन्थ का नाम नहीं है; किन्तु वह एक सनातन सुगम मार्ग है, जो सब में होता हुआ भी सबसे न्यारा है ....... गृहस्थ अथवा विरक्त, युवा अथवा वृद्ध, किसी भी अवस्था में वर्तमान प्रत्येक मत, देश, जाति, रंग और वेश के स्त्री-पुरुषों को उसपर चलने का ‘समान अधिकार’ है; क्योंकि वह किसी मनुष्यों का बनाया हुआ नहीं है ।”
सत्संगी— “प्रत्येक सत्संगी को, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि जबसे वह सद्गुरु की शरण लेकर सत्संग में सम्मिलित होता है, उसका दूसरा जन्म प्रारम्भ हो जाता है । अब उसको पहली बेढंगी चाल पर ही न चला जाना चाहिए; किन्तु अपना ‘चरित्र’ दिन-दिन उज्ज्वल और निर्मल बनाने का प्रयत्न करना चाहिए कि जिससे किसी को गुरु और सत्संग के लिए ‘अनुचित शब्दों के प्रयोग’ करने का अवसर न प्राप्त हो।”
‘जन्म से कोई मनुष्य जाति लेकर नहीं आया है, अतः जो मनुष्य अपने को उच्च और दूसरे को नीच मानकर द्वेष करता है, वह अहंकारी बनकर अपना भी जीवन नष्ट करता है और दूसरों के लिए भी दुख दायी होता है ।’
‘समस्त संसार के मनुष्य परस्पर भाई-भाई हैं और सबके भीतर आत्मिकोन्नति के लिए सच्चा और सरल मार्ग विद्यमान है । जो उसपर चलने का अभ्यास करेगा, वह सर्वोत्तम पद में पहुँच जावेगा ।
“सच्चा उपदेशक वह है जो गुरु को परमात्मा के तुल्य जानकर आदर करे, उनकी निष्कपट भाव से सेवा करे और उनकी आज्ञाओं के अनुसार चले ।’
“सच्चा शिष्य वह है कि जिसके हृदय, वाणी और कर्म में भेद नहीं है अर्थात् मनसा, वाचा, कर्मणा एक है। जैसा मन में होता है वैसा वाणी से कहता है और तदनुकूल ही आचरण करता है ।
‘सच्चा तीर्थ वह है कि जहाँ कोई महापुरुष रहता है, भले ही वहाँ कोई मन्दिर या नदी इत्यादि न हो ।’
‘सच्चा हवन वह है कि मनुष्य अपनी कुवासनाओं को ज्ञानाग्नि में आहुति दे, इससे मनुष्य स्वयं देवता बन जाता है ।’ 

324.

महर्षि वाणी का सार-संक्षेप --->>>

‘यहाँ तक वेदों, उपनिषदों, श्री मद्भगवद्गीतादि ग्रन्थों, ऋषियों, योगियों, सिद्धों, बुद्धों, जिनों, पैगम्बरों, अर्हतों, अवतारों, सेण्टों, साधक सदात्माओं, सुप्रसिद्ध महापुरुषों एवं उच्चकोटि के विचारकों की वाणियाँ संकलित की गई हैं । बुहत से उच्च सदात्माओं के विचार भी अवश्य ही छूट गए होंगे, इसके लिए क्षमा-प्रार्थना सहित हम अपनी असमर्थता व्यक्त करते हैं । अन्त में एक परम्परा-दर्शन के लिए हमने सन्त तुलसी साहब तथा बाबा देवी साहब की वाणियों का संकलन उपस्थित किया है । अब यहाँ महर्षिजी लिखित ‘सत्संग-योग’ का चौथा भाग सम्पूर्ण रूप में दिया जा रहा है । यद्यपि महिर्ष मेँहीँ परमहंसजी द्वारा रचित उनके अन्य ग्रन्थों में भी उनके सिद्धान्त, दर्शन, विचारों तथा क्रिया-प्रणालियों से परिचय प्राप्त किए जा सकते हैं, किन्तु इसमें इनकी अनुभूत ज्ञान-ज्योति अनुक्रमबद्ध रूप से वाणी में रूपायित हो गयी है। इसीलिए इनके द्वारा प्रगट किए सारे विचारों का सार और सूत्ररूप मानकर उसे यहाँ देना हम आवश्यक समझ रहे हैं ।

325.

सत्संग-योग, भाग ४

(१) शान्ति स्थिरता वा निश्चलता को कहते हैं ।
(२) शान्ति को जो प्राप्त कर लेते हैं, सन्त कहलाते हैं ।
(३) सन्तों के मत वा धर्म को सन्तमत कहते हैं ।
(४) शान्ति प्राप्त करने का प्रेरण मनुष्यों के हृदय में स्वाभाविक ही है । प्राचीन काल में ऋषियों ने इसी प्रेरण से प्रेरित होकर इसकी पूरी खोज की और इसकी प्राप्ति के विचारों को उपनिषदों में वर्णन किया । इन्हीं विचारों से मिलते हुए विचारों को कबीर साहब और गुरु नानक साहब आदि सन्तों ने भी भारती और पंजाबी आदि भाषाओं में सर्वसाधारण के उपकारार्थ वर्णन किया; इन विचारों को ही सन्तमत कहते हैं । परन्तु सन्तमत की मूल भित्ति तो उपनिषद् के वाक्यों को ही मानने पड़ते हैं; क्योंकि जिस ऊँचे ज्ञान का तथा उस ज्ञान के पद तक पहुँचाने के जिस विशेष साधन-नादानुसन्धान अर्थात् सुरत-शब्द-योग का गौरव सन्तमत को है, वे तो अति प्राचीन काल की इसी भित्ति पर अंकित होकर जगमगा रहे हैं । सत्संग-योग के प्रथम, द्वितीय और तृतीय; इन तीनों भागों को पढ़ लेने पर इस उक्ति में संशय रह जाय, सम्भव नहीं है । भिन्न-भिन्न काल तथा देशों में सन्तों के प्रकट होने के कारण तथा इनके भिन्न-भिन्न नामों पर इनके अनुयायियों द्वारा सन्तमत के भिन्न-भिन्न नामकरण होने के कारण संतों के मत में पृथक्त्व ज्ञात होता है; परन्तु यदि मोटी और बाहरी बातों को तथा पन्थाई भावों को हटाकर विचारा जाय और सन्तों के मूल एवं सार विचारों को ग्रहण किया जाय, तो यही सिद्ध होगा कि सब सन्तों का एक ही मत है । सब सन्तों का अन्तिम पद वही है, जो पारा-संख्या ११ में वर्णित है और उस पद तक पहुँचने के लिए पारा संख्या ५९ तथा ६१ में वर्णित सब विधियाँ उनकी वाणियों में पाई जाती हैं । सन्तों के उपास्य देवों में जो पृथक्त्व है, उसको पारा-संख्या ८६ में वर्णित विचारानुसार समझ लेने पर यह पृथक्त्व भी मिट जाता है । पारा-संख्या ११ में वर्णित पद का ज्ञान तथा उसकी प्राप्ति के लिए नादानुसन्धान (सुरत-शब्द-योग) की पूर्ण विधि जिस मत में नहीं है, वह सन्तमत कहकर मानने योग्य नहीं है; क्योंकि सन्तमत के विशेष तथा निज चिह्न ये ही दोनों हैं । नादानुसन्धान को नाम-भजन भी कहा जाता है (पारा-संख्या ३५ में पढ़िए) । किसी सन्त की वाणी में जब नाम को अकथ वा अगोचर वा निर्गुण कहा जाता है, तब उस नाम को ध्वन्यात्मक सारशब्द ही मानना पड़ता है;
यथा-
‘‘अदृष्ट अगोचर नाम अपारा ।
अति रस मीठा नाम पियारा ।।’’
(गुरु नानक)


‘‘बंदउँ राम नाम रघुवर को ।

हेतु कृसानु-भानु-हिमकर को ।।
विधि हरिहर मय वेद प्रान सो ।

अगुन अनूपम गुन निधान सो ।।
नाम रूप दुइ ईस उपाधी ।

अकथ अनादि सुसामुझि साधी ।।’’
(गोसाईं तुलसीदास)


‘‘सन्तो सुमिरहु निर्गुन अजर नाम ।’’

(दरिया साहब, बिहारी)

‘‘जाके लगी अनहद तान हो,

निर्वाण निर्गुण नाम की ।’’
(जगजीवन साहब)



(५) चेतन और जड़ के सब मण्डल सान्त (अंत-सहित) और अनस्थिर हैं ।
(६) सारे सांतों के पार में अनंत भी अवश्य ही है ।
(७) अनन्त एक से अधिक कदापि नहीं हो सकता, और न इससे भिन्न किसी दूसरे तत्त्व की स्थिति हो सकती है ।
(८) केवल अनन्त तत्त्व ही सब प्रकार अनादि है ।
(९) इस अनादि अनन्त तत्त्व के अतिरिक्त किसी दूसरे अनादि तत्त्व का होना सम्भव नहीं है ।
(१०) जो स्वरूप से अनन्त है, उसका अपरम्पार शक्तियुक्त होना परम सम्भव है ।
(११) अपरा (जड़) और परा (चेतन); दोनों प्रकृतियों के पार में अगुण और सगुण पर, अनादि-अनंतस्वरूपी, अपरम्पार शक्तियुक्त, देशकालातीत, शब्दातीत, नाम-रूपातीत, अद्वितीय; मन, बुद्धि और इन्द्रियों के परे जिस परम सत्ता पर यह सारा प्रकृतिमण्डल एक महान यंत्र की नाईं परिचालित होता रहता है; जो न व्यक्ति है, और न व्यक्त है, जो मायिक विस्तृतत्वविहीन है, जो अपने से बाहर कुछ भी अवकाश नहीं रखता है, जो परम सनातन, परम पुरातन एवं सर्वप्रथम से विद्यमान है, संतमत में उसे ही परम अध्यात्म-पद वा परम अध्यात्म-स्वरूपी परम प्रभु सर्वेश्वर (कुल्ल मालिक) मानते हैं ।
(१२) परा प्रकृति वा चेतन प्रकृति वा कैवल्य पद त्रयगुणरहित और सच्चिदानन्दमय है और अपरा प्रकृति वा जड़ात्मक प्रकृति त्रयगुणमयी है ।
(१३) त्रयगुण के सम्मिश्रण-रूप (सममिश्रण-रूप) को जड़ात्मक मूल प्रकृति कहते हैं ।
(१४) परम प्रभु सर्वेश्वर व्याप्य अर्थात् समस्त प्रकृति-मण्डल में व्यापक हैं, परन्तु व्याप्य को भरकर ही वे मर्यादित नहीं हो जाते हैं । वे व्याप्य के बाहर और कितने अधिक हैं, इसकी कल्पना भी नहीं हो सकती; क्योंकि वे अनन्त हैं ।
(१५) परम प्रभु सर्वेश्वर अंशी हैं और (सच्चिदानन्द ब्रह्म, ॐ ब्रह्म और पूर्ण ब्रह्म, अगुण एवं सगुण आदि) ब्रह्म, ईश्वर तथा जीव, उसके अटूट अंश हैं, जैसे मठाकाश, घटाकाश और पटाकाश महदाकाश के अटूट अंश हैं ।
(१६) प्रकृति के भेद-रूप सारे व्याप्यों के पार में, सारे नाम-रूपों के पार में और वर्णात्मक, ध्वन्यात्मक, आहत, अनाहत आदि सब शब्दों के परे आच्छादनविहीन शान्ति का पद है, वही परम प्रभु सर्वेश्वर का जड़ातीत, चैतन्यातीत निज अचिन्त्य स्वरूप है, और उसका यही स्वरूप सारे आच्छादनों में भी अंश-रूपों में व्यापक है, जहाँ आच्छादनों के भेदों के अनुसार परम प्रभु के अंशों के ब्रह्म और जीवादि नाम हैं । अंश और अंशी, तत्त्व-रूप में निश्चय ही एक हैं; परन्तु अणुता और विभुता का भेद उनमें अवश्य है, जो आच्छादनों के नहीं रहने पर नहीं रहेगा ।
(१७) परम प्रभु के निज स्वरूप को ही आत्मा वा आत्मतत्त्व कहते हैं और इस तत्त्व के अतिरिक्त सभी अनात्मतत्त्व हैं ।
(१८) आत्मा सब शरीरों में शरीरी वा सब देहों में देही वा सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ है ।
(१९) शरीर वा देह वा क्षेत्र, इसके सब विकार और इसके बाहर और अन्तर के सब स्थूल-सूक्ष्म अंग-प्रत्यंग अनात्मा हैं ।
(२०) परा प्रकृति, अपरा प्रकृति और इनसे बने हुए सब नाम- रूप-पिण्ड, ब्रह्माण्ड, स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य (जड़रहित चेतन वा निर्मल चेतन); सब-के-सब अनात्मा हैं ।
(२१) अनात्मा के पसार को आच्छदन-मण्डल कहते हैं ।
(२२) जड़ात्मक आच्छादन-मण्डलों के केवल पार ही में परम प्रभु सर्वेश्वर के निज स्वरूप की प्राप्ति हो सकती है । जड़ात्मक आच्छादन-मण्डल चार रूपों में है । वे स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण कहलाते हैं। कारण की खानि को महाकारण कहते हैं ।
(२३) परम प्रभु सर्वेश्वर के निज स्वरूप की प्राप्ति के बिना परम कल्याण नहीं हो सकता है ।
(२४) आँखों पर रंगीन चश्मा लगा रहने के कारण बाहर के सब दृश्य चश्मे के रंग के अनुरूप रंगवाले दीखते हैं । इसी तरह जड़ात्मक अनात्म आच्छादनों से आच्छादित रहने के कारण जीव को आच्छादन-तत्त्व का ज्ञान होता है, उससे भिन्न तत्त्व का नहीं ।
(२५) कोई भी सगुण (रज, तम और सत्त्व से युक्त) और साकार रूप अनादि, अनन्त, मूलतत्त्व वा परम प्रभु सर्वेश्वर के सम्पूर्ण स्वरूप का रूप नहीं हो सकता है ।
(२६) गन्ध, स्पर्श, रस और त्रयगुण मण्डल के ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक शब्द सगुण निराकार कहे जा सकते हैं । इनके विशाल-से-विशाल मण्डल से भी परम प्रभु सर्वेश्वर के सम्पूर्ण स्वरूप का आच्छादन नहीं हो सकता है ।
(२७) निर्मल चेतन और उसके केन्द्र से उत्थित आदिनाद वा आदिध्वनि वा आदिशब्द त्रयगुणरहित वा निर्गुण निराकार कहे जा सकते हैं; इनसे अर्थात् निर्गुण से भी परम प्रभु सर्वेश्वर पूर्णरूप से आच्छादित होने योग्य नहीं हैं; क्योंकि अनन्त को अपने घेरे के अन्दर ला सके, ऐसी किसी चीज को मानना बुद्धि-विपरीत और अयुक्त है ।
(२८) जड़ात्मक सगुण प्रकृति वा अपरा प्रकृति नाना रूपों में रूपान्तरित होती रहती है । इसलिए इसे क्षर और असत् कहते हैं ।
(२९) चेतनात्मक निर्गुण प्रकृति वा परा प्रकृति रूपान्तरित नहीं होती है, इसीलिए इसकोे अक्षर और सत् कहते हैं । परम प्रभु सर्वेश्वर सत् और असत् तथा क्षर और अक्षर से परे हैं ।
(३०) परम प्रभु सर्वेश्वर में सृष्टि की मौज वा कम्प हुए बिना सृष्टि नहीं होती है ।
(३१) मौज वा कम्प शब्द-सहित अवश्य होता है; क्योंकि शब्द कम्प का सहचर है । कम्प शब्दमय होता है और शब्द कम्पमय होता है ।
(३२) परा और अपरा; युगल प्रकृतियों के बनने के पूर्व ही आदिनाद वा आदि ध्वन्यात्मक शब्द अवश्य प्रकट हुआ । इसी को ॐ, सत्यशब्द, सारशब्द, सत्यनाम, रामनाम, आदिशब्द और आदिनाम कहते हैं ।
(३३) कम्प और शब्द के बिना सृष्टि नहीं हो सकती । कम्प और शब्द सब सृष्टियों में अनिवार्य रूप से अवश्य ही व्यापक हैं ।
(३४) आदिशब्द सम्पूर्ण सृष्टि के अन्तस्तल में सदा अनिवार्य, अविच्छिन्न और अव्याहत रूप से अवश्य ही ध्वनित होता है; यह अत्यन्त निश्चित है । यह शब्द सृष्टि का साराधार, सर्वव्यापी और सत्य है ।
(३५) अव्यक्त से व्यक्त हुआ है, अर्थात् सूक्ष्मता से स्थूलता हुई है । सूक्ष्म, स्थूल में स्वाभाविक ही व्यापक होता है । अतएव आदिशब्द सर्वव्यापक है । इस शब्द में योगीजन रमते हुए परम प्रभु सर्वेश्वर तक पहुँचते हैं अर्थात् इस शब्द के द्वारा परम प्रभु सर्वेश्वर का अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) ज्ञान होता है । इसलिए इस शब्द को परम प्रभु का नाम- ‘‘रामनाम’’ कहते हैं । यह सबमें सार रूप से है तथा अपरिवर्तनशील भी है । इसीलिए इसको सारशब्द, सत्यशब्द और सत्यनाम भारती सन्तवाणी में कहा है, और उपनिषदों में ऋषियों ने इसको ॐ कहा है । इसीलिए यह आदिशब्द संसार में ॐ कहकर विख्यात है ।
(३६) शब्द का स्वाभाविक गुण है कि वह अपने केन्द्र पर सुरत को आर्किर्षत करता है, केन्द्र के गुण को साथ लिए रहता है और अपने में ध्यान लगानेवाले को अपने गुण से युक्त कर देता है ।
(३७) सृष्टि के दो बड़े मण्डल हैं-परा प्रकृति मण्डल वा सच्चिदानन्द पद वा कैवल्य पद वा निर्मल चेतन (जड़-विहीन चेतन) मण्डल और अपरा प्रकृति वा जड़ात्मक प्रकृति मण्डल ।
(३८) जड़ात्मक वा अपरा प्रकृति चार मण्डलों में विभक्त है-महाकारण, कारण, सूक्ष्म और स्थूल । इस प्रकृति का मूल स्वरूप (रज, तम और सत्) त्रयगुणों का सम्मिश्रण रूप है; अपने इस रूप में यह प्रकृति साम्यावस्थाधारिणी है । इसके इस रूप को महाकारण कहना चाहिए । इसके इस रूप के किसी विशेष भाग में जब गुणों का उत्कर्ष होता है, तब इसका वह भाग क्षोभित होकर विकृत रूप को प्राप्त हो जाता है । इसलिए वह भाग प्रकृति नहीं कहलाकर विकृति कहलाता है और उस भाग में सम अवस्था नहीं रह जाती है; विश्व-ब्रह्माण्ड की रचना होती है और इसीलिए वह भाग विश्व-ब्रह्माण्ड का कारण-रूप है । ऐसे अनेक बह्माण्डों का कारण जड़ात्मक मूल प्रकृति में है, इसलिए यह प्रकृति अपने मूल रूप में कारण की खानि भी कही जा सकती है । कारण-रूप से सृष्टि का प्रवाह जब और नीचे की ओर प्रवाहित होता है, तब वह सूक्ष्म कहलाता है और सूक्ष्म रूप से और नीचे की ओर उतरकर स्थूलता को प्राप्त हो, वह स्थूल कहलाता है । इसी तरह जड़ात्मक प्रकृति के चार मण्डल बनते हैं ।
(३९) परा प्रकृति-मण्डल के सहित जड़ात्मक प्रकृति के चारो मण्डलों को जोड़ने से सम्पूर्ण सृष्टि में पाँच मण्डल-कैवल्य, महाकारण, कारण, सूक्ष्म और स्थूल हैं।
(४०) संख्या ३९ में लिखित पाँच मण्डलों से जैसे विश्व- ब्रह्माण्ड (बाह्य जगत) भरपूर है, वैसे ही इन पाँचो मण्डलों से पिण्ड (शरीर) भी भरपूर है । जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में की अपनी स्थितियों को विचारने पर प्रत्यक्ष ज्ञात होता है कि पिंड के जिस मण्डल में जब जो रहता है, वा इसके जिस मण्डल को जब जो छोड़ता है, ब्रह्माण्ड के भी उसी मण्डल में वह तब रहता है वा ब्रह्माण्ड के भी उसी मण्डल को वह तब छोड़ता है । इसलिए पिण्ड के सब मण्डलों को जो सुरत वा चेतन-वृत्ति पार करेगी, तो बाह्य सृष्टि के भी सब मण्डलों को वह पार कर जाएगी ।
(४१) किसी भी मण्डल का बनना तबतक असम्भव है, जबतक उसका केन्द्र स्थापित न हो ।
(४२) संख्या ३९ में सृष्टि के कथित पाँच मण्डलों के पाँच केन्द्र अवश्य हैं ।
(४३) कैवल्य मण्डल का केन्द्र स्वयं परम प्रभु सर्वेश्वर हैं । महाकारण का केन्द्र कैवल्य और महाकारण की सन्धि है, कारण का केन्द्र महाकारण और कारण की सन्धि है, सूक्ष्म का केन्द्र कारण और सूक्ष्म की सन्धि है और स्थूल का केन्द्र सूक्ष्म और स्थूल की सन्धि है ।
(४४) केन्द्र से जब सृष्टि के लिए कम्प की धार प्रवाहित होती है, तभी सृष्टि होती है और प्रवाह का सहचर शब्द अवश्य होता है; अतएव संख्या ३९ में कथित पाँचो मण्डलों के केन्द्रों से उत्थित केन्द्रीय शब्द अवश्य हैं । कथित पाँचो मण्डलों के केन्द्रीय ध्वन्यात्मक सब शब्दों के मुँह वा प्रवाह-ओर ऊपर से नीचे को है । इनमें से प्रत्येक, सुरत को अपने-अपने उद्गम-स्थान पर आकर्षण करने का गुण रखता है । सार-शब्द वा निर्मायिक शब्द परम प्रभु सर्वेश्वर तक आकर्षण करने का गुण रखता है और वर्णित दूसरे-दूसरे शब्द, जिन्हें मायावी कह सकते हैं, अपने से ऊँचे दर्जे के शब्दों से, ध्यान लगानेवाले को मिलाते हैं । इनका सहारा लिए बिना सारशब्द का पाना असम्भव है । यदि कहा जाय कि सारशब्द मालिक के बुलाने का पैगाम देता है, तो उसके साथ ही यही कहना उचित है कि इसके अतिरिक्त दूसरे सभी केन्द्रीय शब्दों में से प्रत्येक शब्द अपने से ऊँचे दर्जे के शब्दों को पकड़ा देता है ।
(४५) ऊपर का शब्द नीचे दूर तक पहुँचता है और सूक्ष्म अपने से स्थूल में स्वाभाविक ही व्यापक होता है तथा सूक्ष्म धार, स्थूल धार से लम्बी होती है । इन कारणों से प्रत्येक निचले मण्डल के केन्द्र पर से उसके ऊपर के मण्डल के केन्द्रीय शब्द का ग्रहण होना अंकगणित के हिसाब के सदृश ध्रुव निश्चित है । ऊपर कथित शब्दों के अभ्यास से सुरत का नीचे गिरना नहीं हो सकता है ।
(४६) उपनिषदों में और भारती सन्तवाणी में नादानुसंधान वा सुरत-शब्द-योग करने की विधि इसी हेतु से है कि संख्या ४५ में वर्णित केन्द्रीय शब्दों को ग्रहण करते हुए और शब्द के आकर्षण से खींचते हुए सृष्टि के सब मण्डलों को पारकर सर्वेश्वर को प्रत्यक्ष पाया जाए ।
(४७) प्रकृति को भी अनाद्या कहा गया है, सो इसलिए नहीं कि परम प्रभु सर्वेश्वर की तरह यह भी उत्पत्तिहीन है, परन्तु इसलिए कि इसकी उत्पत्ति के काल और स्थान नहीं हैं; क्योंकि इसके प्रथम नहीं; परन्तु इसके होने पर ही काल और स्थान वा देश बन सकते हैं । यह परम प्रभु की मौज से परम प्रभु में ही प्रकट हुई, अतएव परम प्रभु में ही इसका आदि है और परम प्रभु देश-कालातीत हैं और वे अनादि के भी आदि कहलाते हैं । प्रकृति को अनादि सान्त भी कहते हैं ।
(४८) पिण्ड अर्थात् शरीर को क्षेत्र और आत्मा को क्षेत्रज्ञ कहते हैं ।
(४९) स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण; ये चारो क्षेत्र वा शरीर जड़ हैं । इनसे आवरणित रहने पर परम प्रभु सर्वेश्वर का वा निज आत्मस्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान नहीं हो सकता है ।
(५०) कैवल्य शरीर वा क्षेत्र चेतन है । यह परम प्रभु सर्वेश्वर का अत्यन्त निकटवर्ती है अर्थात् इसके परे सर्वेश्वर के अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं है । इसके सहित रहने पर परम प्रभु सर्वेश्वर के तथा निज आत्मस्वरूप के अपरोक्ष ज्ञान का होना परम सम्भव है; और आत्मा को अपना और परम प्रभु सर्वेश्वर का अपरोक्ष ज्ञान हो, इसमें संशय करने का कारण ही नहीं है ।
(५१) स्थूल के फैलाव से सूक्ष्म का फैलाव अधिक होता है । अनादि-अनन्तस्वरूपी से बढ़कर अधिक फैलाव और किसी का होना असम्भव है । इसलिए यह सबसे अधिक सूक्ष्म है । स्थूल यन्त्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता है । बाहर की और भीतर की सब इन्द्रियाँ (हाथ, पैर, मुँह, लिंग, गुदा; ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं और आँख, कान, नाक, चमड़ा, जीभ; ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ बाहर की इन्द्रियाँ हैं। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार; ये चार भीतर की इन्द्रियाँ हैं ।), जिनके द्वारा बाहर वा भीतर में कुछ किया जा सकता है, उस अनादि-अनन्तस्वरूपी परम प्रभु सर्वेश्वर से स्थूल और अत्यन्त स्थूल हैं; इनसे वे ग्रहण होने योग्य कदापि नहीं । इन्द्रिय-मण्डल तथा जड़ प्रकृति-मण्डल में रहते हुए उनको प्रत्यक्ष रूप से जानना सम्भव नहीं है । अतएव अपने को इनसे आगे पहुँचाकर उनको प्रत्यक्ष पाना होगा । इस कारण परम प्रभु सर्वेश्वर को प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त करने के लिए अपने शरीर के बाहर का कोई साधन करना व्यर्थ है । बाहरी साधन से जड़ात्मक आवरणों वा शरीरों को पारकर कैवल्य दशा को प्राप्त करना अत्यन्त असम्भव है । और शरीर के अंतर-ही-अंतर चलने से आवरणों का पार करना पूर्ण सम्भव है । इसके लिए जाग्रत और स्वप्न-अवस्थाओं की स्थितियाँ प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । यह कहना कि परम प्रभु सर्वेश्वर सर्वव्यापक हैं, अतः वे सदा प्राप्त ही हैं, उनको प्राप्त करने के लिए बाहर वा अंतर यात्र करनी अयुक्त है, और यह भी कहना कि परम प्रभु सर्वेश्वर अपनी किरणों से सर्वव्यापक हैं, पर अपने निज स्वरूप से एकदेशीय ही हैं, इसलिए उन तक यात्र करनी है; ये दोनों ही कथन ऊपर वर्णित कारणों से अयुक्त और व्यर्थ हैं । एक को तो प्रत्यक्ष प्राप्त नहीं है, वह मन-मोदक से भूख बुझाता है । और दूसरा यह नहीं ख्याल करता कि एकदेशीय वा परिमित स्वरूपवाले की किरणों का मण्डल भी परिमित ही होगा । वह किसी भी तरह अनादि-अनन्तस्वरूपी नहीं हो सकता । एक अनादि-अनन्तस्वरूपी की स्थिति अवश्य है, यह बुद्धि में अत्यन्त थिर है । अपरिमित पर परिमित शासन करे, यह सम्भव नहीं । परम प्रभु सर्वेश्वर को अनादि-अनन्तस्वरूपी वा अपरिमित ही अवश्य मानना पड़ेगा । उनको अपरोक्षरूप से प्राप्त करने के लिए क्यों अंतर में यात्र करनी है, इसका वर्णन ऊपर हो चुका है ।
(५२) अंतर में आवरणों से छूटते हुए चलना परम प्रभु सर्वेश्वर से मिलने के लिए चलना है । यह काम परम प्रभु सर्वेश्वर की निज भक्ति है या यह पूर्ण आत्मज्ञान प्राप्त करने का अव्यर्थ साधन है । इस अन्तर के साधन को आन्तरिक सत्संग भी कहते हैं ।
(५३) ऊपर कही गई बातों के साथ भक्ति के विषय की अन्य बातों के श्रवण और मनन की अत्यन्त आवश्यकता है, अतएव इसके लिए बाहर में सत्संग करना परम आवश्यक है ।
(५४) अन्तर साधन की युक्ति और साधन में सहायता सद्गुरु की सेवा करके प्राप्त करनी चाहिए और उनकी बताई हुई युक्ति से नित्य एवं नियमित रूप से अभ्यास करना परम आवश्यक है ।
(५५) जाग्रत से स्वप्न-अवस्था में जाने में अन्तर-ही-अन्तर स्वाभाविक चाल होती है और इस चाल के समय मन की चिन्ताएँ छूटती हैं तथा विचित्र चैन-सा मालूम होता है । अतएव चिन्ता को त्यागने से अर्थात् मन को एकाग्र करने से वा मन को एकविन्दुता प्राप्त होने से अन्तर-ही-अन्तर चलना तथा विचित्र चैन का मिलना पूर्ण सम्भव है ।
‘‘है कुछ रहनि गहनि की बाता ।
बैठा रहे चला पुनि जाता।।’’
(कबीर साहब)


‘‘बैठे ने रास्ता काटा । चलते ने बाट न पाई ।।’’
(राधास्वामी साहब)

(५६) किसी चीज का किसी ओर से सिमटाव होने पर उसकी गति उस ओर की विपरीत ओर को स्वाभाविक ही हो जाती है । स्थूल मण्डल से मन का सिमटाव होकर जब मन एकविन्दुता प्राप्त करेगा, तब स्थूल मण्डल के विपरीत सूक्ष्म मण्डल में उसकी गति अवश्य हो जाएगी ।
(५७) दूध में घी की तरह मन में चेतनवृत्ति वा सुरत है । मन के चलने से सुरत भी चलेगी । मन सूक्ष्म जड़ है । वह जड़ात्मक कारण मण्डल से ऊपर नहीं जा सकता । यहाँ तक ही मन के संग सुरत का चलना हो सकता है। इसके आगे मन का संग छोड़कर सुरत की गति हो सकेगी; क्योंकि जड़ात्मक मूल प्रकृति-मण्डल के ऊपर में इसका निज मण्डल है, जहाँ से यह आई है ।
(५८) संख्या ३५ में सर्वेश्वर के ध्वन्यात्मक नाम का वर्णन हुआ है । ध्वन्यात्मक अनाहत आदिशब्द परम प्रभु सर्वेश्वर का निज नाम वा जाति नाम वा उनके स्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान करा देनेवाला नाम है और जिन वर्णात्मक शब्दों से इस ध्वन्यात्मक नाम को और परम प्रभु सर्वेश्वर को लोग पुकारते हैं, उन सब वर्णात्मक शब्दों से उपर्युक्त ध्वन्यात्मक नाम का तथा परम प्रभु सर्वेश्वर का गुण-वर्णन होता है । इसलिए उन वर्णात्मक शब्दों को परम प्रभु सर्वेश्वर का सिफाती व गुण-प्रकटकारी वा गुण-प्रकाशक नाम कहते हैं । इन नामों से परम प्रभु सर्वेश्वर की तथा उनके निज नाम की स्थिति और केवल गुण व्यक्त होते हैं; परन्तु उनका अपरोक्ष ज्ञान नहीं होता है ।
(५९) सृष्टि के जिस मण्डल में जो रहता है, उसके लिए प्रथम उसी मण्डल के तत्त्व का अवलम्ब ग्रहण कर सकना स्वभावानुकूल होता है । स्थूल मण्डल के निवासियों को प्रथम स्थूल का ही अवलम्ब लेना स्वभावानुकूल होने के कारण सरल होगा । अतएव मन के सिमटाव के लिए प्रथम परम प्रभु सर्वेश्वर के किसी वर्णात्मक नाम के मानस जप का तथा परम प्रभु सर्वेश्वर के किसी उत्तम स्थूल विभूति-रूप के मानसध्यान का अवलम्ब लेकर मन के सिमटाव का अभ्यास करना चाहिए । परम प्रभु सर्वेश्वर सारे प्रकृति-मण्डल और विश्व-ब्रह्माण्ड में ओत-प्रोत-व्यापक हैं । सृष्टि के सब तेजवान, विभूतिवान और उत्तम धर्मवान उनकी विभूतियाँ हैं । उपर्युक्त अभ्यास से मन को समेट में रखने की कुछ शक्ति प्राप्त करके सूक्ष्मता में प्रवेश करने के लिए सूक्ष्म अवलम्ब को ग्रहण करने का अभ्यास करना चाहिए । सूक्ष्म अवलम्ब विन्दु है । विन्दु को ही परम प्रभु सर्वेश्वर का अणु से भी अणु रूप कहते हैं । परिमाण-शून्य, नहीं विभाजित होनेवाला चिह्न को विन्दु कहते हैं । इसको यथार्थतः बाहर में बाल की नोक से भी चिह्नित करना असम्भव है । इसलिए बाहर में कुछ अंकित करके और उसे देखकर इसका मानस ध्यान करना भी असम्भव है । इसका अभ्यास अंतर में दृष्टियोग करने से होता है । दृष्टियोग में डीम और पुतलियों को उलटाना और किसी प्रकार इन पर जोर लगाना अनावश्यक है । ऐसा करने से आँखों में रोग होते हैं । दृष्टि, देखने की शक्ति को कहते हैं । दोनों आँखों की दृष्टियों को मिलाकर मिलन-स्थल पर मन को टिकाकर देखने से एकविन्दुता प्राप्त होती है; इसको दृष्टियोग कहते हैं । इस अभ्यास से सूक्ष्म वा दिव्य दृष्टि खुल जाती है । मन की एकविन्दुता प्राप्त रहने की अवस्था में स्थूल और सूक्ष्म मण्डलों के सन्धि-विन्दु वा स्थूल मण्डल के केेन्द्र-विन्दु से उत्थित नाद वा अनहद ध्वन्यात्मक शब्द, सुरत को ग्रहण होना पूर्ण सम्भव है; क्योंकि सूक्ष्मता में स्थिति रहने के कारण सूक्ष्म नाद का ग्रहण होना असम्भव नहीं है । शब्द में अपने उद्गम-स्थान पर सुरत को आकर्षण करने का गुण रहने के कारण, इस शब्द के मिल जाने पर शब्द से शब्द में सुरत खींचती हुई चलती-चलती शब्दातीत पद (परम प्रभु सर्वेश्वर) तक पहुँच जाएगी । इसके लिए सद्गुरु की सेवा, उनके सत्संग, उनकी कृपा और अतिशय ध्यानाभ्यास की अत्यन्त आवश्यकता है।
(६०) दृष्टियोग बिना ही शब्दयोग करने की विधि यद्यपि उपनिषदों और भारती सन्त-वाणी में नहीं है, तथापि सम्भव है कि बिना दृष्टियेाग के ही यदि कोई सुरत-शब्द-योग का अत्यन्त अभ्यास करे, तो कभी-न-कभी स्थूल मण्डल का केन्द्रीय शब्द उससे पकड़ा जा सके और तब उस अभ्यासी के आगे का काम यथोचित होने लगे । इसका कारण यह है कि अन्तर के शब्द में ध्यान लगाने से यही ज्ञात होता है कि सुनने में आनेवाले सब शब्द ऊपर की ही ओर से आ रहे हैं, नीचे की ओर से नहीं । और वह केन्द्रीय शब्द भी ऊपर की ही ओर से प्रवाहित होता है । शब्द-ध्यान करने से मन की चंचलता अवश्य छूटती है । मन की चंचलता दूर होने पर मन सूक्ष्मता में प्रवेश करता है । सूक्ष्मता में प्रवेश किया हुआ मन उस केन्द्रीय सूक्ष्म नाद को ग्रहण करे, यह आश्चर्य नहीं । परन्तु उपनिषदों की और भारती सन्तवाणी की विधि को ही विशेष उत्तम जानना चाहिए । शब्द की डगर पर चढ़े हुए की दुर्गति और अधोगति असम्भव है । झूठ, चोरी, नशा, हिंसा तथा व्यभिचार; इन पापों से नहीं बचनेवाले को वर्णित साधनाओं में सफलता प्राप्त करना भी असम्भव ही है । नीचे के मण्डलों के शब्दों को धारण करते हुए तथा उनसे आगे बढ़ते हुए अन्त में आदिनाद वा आदिशब्द या सारशब्द का प्राप्त करना, पुनः उसके आकर्षण से उसके केन्द्र में पहुँचकर शब्दातीत पद के पाने की विधि ही उपनिषदों और भारती सन्त-वाणी से जानने में आती है तथा यह विधि युक्तियुक्त भी है, इसलिए इससे अन्य विधि शब्दातीत अर्थात् अनाम पद तक पहुँचने की कोई और हो सकती है, मानने-योग्य नहीं है और अनाम तक पहुँचे बिना परम कल्याण नहीं ।
(६१) वर्णित साधनों से यह जानने में साफ-साफ आ जाता है कि पहले स्थूल सगुण रूप की उपासना की विधि हुई, फिर सूक्ष्म सगुण रूप की उपासना की विधि हुई, फिर सूक्ष्म सगुण अरूप की उपासना की विधि और अन्त में निर्गुण-निराकार की उपासना की विधि हुई ।
(६२) मानस जप और मानस ध्यान स्थूल सगुण रूप-उपासना है, एकविन्दुता वा अणु से भी अणुरूप प्राप्त करने का अभ्यास सूक्ष्म सगुण रूप-उपासना है, सारशब्द के अतिरिक्त दूसरे सब अनहद नादों का ध्यान सूक्ष्म, कारण और महाकारण सगुण अरूप-उपासना है और सारशब्द का ध्यान निर्गुण निराकार-उपासना है । सभी उपासनाओं की यहाँ समाप्ति है । उपासनाओं को सम्पूर्णतः समाप्त किए बिना शब्दातीत पद (अनाम) तक अर्थात् परम प्रभु सर्वेश्वर तक की पहुँच प्राप्तकर परम मोक्ष का प्राप्त करना अर्थात् अपना परम कल्याण बनाना पूर्ण असम्भव है ।
(६३) निःशब्द अथवा अनाम से शब्द अथवा नाम की उत्पत्ति हुई है, इसके अर्थात् नाम के ग्रहण से इसके आकर्षण में पड़कर, इससे आकर्षित हो निःशब्द वा शब्दातीत वा अनाम तक पहुँचना पूर्ण सम्भव है ।
(६४) अनाम के ऊपर कुछ और का मानना वा अनाम के नीचे रचना के किसी मण्डल में अशब्द की स्थिति मानना बुद्धि-विपरीत है ।
(६५) उपनिषदों में शब्दातीत पद को ही परम पद कहा गया है, और श्री मद्भगवद्गीता में क्षेत्रज्ञ कहकर जिस तत्त्व को जनाया गया है, उससे विशेष कोई और तत्त्व नहीं हो सकता है । इसलिए उपनिषदों तथा श्री मद्भगवद्गीता में बताए हुए सर्वोच्च पद से भी और कोई विशेष पद है, ऐसा मानना व्यर्थ है । जो ऐसा नहीं समझते और नहीं विश्वास करते, उनको चाहिए कि शब्दातीत पद के नीचे रचना के किसी मण्डल में निःशब्द का होना तथा क्षेत्रज्ञ से विशेष और किसी तत्त्व की स्थिति को संसार के सामने विचार से प्रमाणित कर दें; परन्तु ऐसा कर सकना असम्भव है । विचार से सिद्ध और प्रमाणित किए बिना ऐसा कहना कि मेरे गुरु ने उपनिषदादि में वर्णित पद से ऊँचे पद को बतलाया है, ठीक नहीं; क्योंकि इस तरह दूसरे भी कहेंगे कि मैं आपसे भी ऊँचा पद जानता हूँ ।
(६६) इसमें सन्देह नहीं कि केवल एक सारशब्द वा आदिशब्द ही अन्तिम पद अर्थात् शब्दातीत पद तक पहुँचाता है; परन्तु इससे यह नहीं जानना चाहिए कि इसके अतिरिक्त दूसरे सब मायिक शब्दों में के शब्दों का ध्यान करना ही नहीं चाहिए; क्योंकि ये दूसरे शब्द मायावी हैं, इनके ध्यान से अभ्यासी अत्यन्त अधोगति को प्राप्त होगा । सारशब्द के अतिरिक्त अन्य किसी भी शब्द के ध्यान की उपर्युक्त निषेधात्मक उक्ति उपनिषद् और भारती सन्तवाणी के अनुकूल नहीं है और न युक्तियुक्त ही है, अतएव मानने-योग्य नहीं है । संख्या ४४, ४५, ४६, ५९ और ६० की वर्णित बातें इस विषय का अच्छी तरह बोध दिलाती हैं ।
(६७) दृष्टि-योग से शब्द-योग आसान है । यह वर्णन हो चुका है कि एकविन्दुता प्राप्त करने तक के लिए दृष्टि-योग अवश्य होना चाहिए । परन्तु और विशेष दृष्टि-योगकर तब शब्द-अभ्यास करने का ख्याल रखना अनावश्यक है; क्योंकि इसमें विशेष काल तक कठिन मार्ग पर चलते रहना है ।
(६८) एकविन्दुता प्राप्त किए हुए रहकर शब्द में सुरत लगा देना उचित है । दोनों से एक ही ओर को खिंचाव होगा । शब्द में विशेष रस प्राप्त होने के कारण पीछे विन्दु छूट जाएगा और केवल शब्द-ही-शब्द में सुरत लग जाएगी, तो कोई हानि नहीं, यही तो होना ही चाहिए ।
(६९) केवल दृष्टि-योग से जड़ात्मक प्रकृति के किसी मण्डल के घेरे में पहुँचकर दूसरे किसी शब्द के अभ्यास का सहारा लिए बिना वहाँ ही सारशब्द के पकड़ने का ख्याल युक्तियुक्त नहीं होने के कारण मानने-योग्य नहीं है; क्योंकि जड़ का कोई भी आवरण सार धार अर्थात् निर्मल चेतन-धार का अपरोक्ष ज्ञान होने देने में अवश्य ही बाधक है । जड़ात्मक मूल प्रकृति के बनने के पूर्व ही आदिशब्द अर्थात् सारशब्द का उदय हुआ है, इसलिए यह शब्द-रूप धार, निर्मल चेतनधार है ।
(७०) विविध सुन्दर दृश्यों से सजे हुए मण्डप में मीठे सुरीले स्वर के गानों और बाजाओं को संलग्न होकर सुनते रहने पर भी मण्डप के दृश्यों का गौण रूप में भी देखना होता ही है । उसी प्रकार जड़ात्मक दृश्य-मण्डल के अंदर शब्द-ध्यान में रत होते हुए भी वहाँ के दृश्य अवश्य देखे जाएँगे । इसीलिए कहा गया है कि ‘‘ध्वनेरन्तर्गतं ज्योतिः’’। केवल शब्द-ध्यान भी ज्योति-मण्डल में प्रवेश करा दे, इसमें आश्चर्य नहीं । ज्योति न मिले, तो उतनी हानि नहीं, जितनी हानि कि शब्द के नहीं मिलने से ।
(७१) सारशब्द अलौकिक शब्द है । परम अलौकिक से ही इसका उदय है । विश्व-ब्रह्माण्ड तथा पिण्ड आदि की रचना के पूर्व ही इसका उदय हुआ है । इसलिए वर्णात्मक शब्द, जो पिण्ड के बिना हो नहीं सकता अर्थात् मनुष्य-पिण्ड ही जिसके बनने का कारण है वा यों भी कहा जा सकता है कि लौकिक वस्तु ही जिसके बनने का कारण है, उसमें सारशब्द की नकल हो सके, कदापि सम्भव नहीं है । सारशब्द को जिन सब वर्णात्मक शब्दों के द्वारा जनाया जाता है, उन शब्दों को बोलने से जैसी-जैसी आवाजें सुनने में आती हैं, सारशब्द उनमें से किसी की भी तरह सुनने में लगे, यह भी कदापि सम्भव नहीं है । राधास्वामीजी के ये दोहे हैं कि-
‘‘अल्लाहू त्रिकुटी लखा, जाय लखा हा सुन्न ।
शब्द अनाहू पाइया, भँवर गुफा की धुन्न ।।
हक्क हक्क सतनाम धुन, पाई चढ़ सच खण्ड ।
सन्त फकर बोली युगल, पद दोउ एक अखण्ड ।।’’

राधास्वामी-मत में त्रिकुटी का शब्द ‘ओं,’ सुन्न का ‘ररं’ भँवर गुफा का ‘सोहं’ और सतलोक अर्थात् सच-खण्ड का ‘सतनाम’ मानते हैं और उपर्युक्त दोहों में राधास्वामीजी बताते हैं कि फकर अर्थात् मुसलमान फकीर त्रिकुटी का शब्द ‘अल्लाहू,’ सुन्न का ‘हा’, भँवर गुफा का ‘अनाहू’ और सतलोक का ‘हक्क’ ‘हक्क’ मानते हैं । उपर्युक्त दोहों के अर्थ को समझने पर यह अवश्य जानने में आता है कि सारशब्द की तो बात ही क्या, उसके नीचे के शब्दों की भी ठीक-ठीक नकल मनुष्य की भाषा में हो नहीं सकती । एक सतलोक वा सचखण्ड के शब्द को ‘सतनाम’ कहता है और दूसरा उसी को ‘हक्क-हक्क’ कहता है, और पहला व्यक्ति दूसरे के कहे को ठीक मानता है तो उसको यह अवसर नहीं है कि तीसरा जो उसी को ‘ओं’ वा राम कहता है, उससे वह कहे कि ‘ओं’ और ‘राम’ नीचे दर्जे के शब्द हैं, सतलोक के नहीं । अतएव किसी एक वर्णात्मक शब्द को यह कहना की यही खास शब्द सारशब्द की ठीक-ठीक नकल है, अत्यन्त अयुक्त है और विश्वास करने योग्य नहीं है ।
(७२) बीन, वेणु (मुरली), नफीरी, मृदंग, मर्दल, नगाड़ा, मजीरा, सिंगी, सितार, सारंगी, बादल की गरज और सिंह का गर्जन इत्यादि स्थूल लौकिक शब्दों में से कई-कई शब्दों का, अन्तर के एक-एक स्थान में वर्णन किसी-किसी संतवाणी में पाया जाता है । ये सबमें एक ही तरह वर्णन किए हुए नहीं पाए जाते हैं । जैसे एक संत की वाणी में मुरली का शब्द नीचे के स्थान में वर्णन है तो दूसरे संत की वाणी में यही शब्द ऊँचे के स्थान में वर्णन किया हुआ मिलता है; जैसे-
‘‘भँवर गुफा में सोहं राजे, मुरली अधिक बजाया है ।’’
(कबीर-शब्दावली, भाग २)
‘गगन द्वार दीसै एक तारा ।
अनहद नाद सुनै झनकारा ।।’’

के नीचे की आठ चौपाइयों के बाद और-
‘जैसे मन्दिर दीपक बारा ।
ऐसे जोति होत उजियारा ।।’

के ऊपर की तीन चौपाइयों के ऊपर में अर्थात् दीपक-ज्योति के स्थान के प्रथम ही और तारा, बिजली और उससे अधिक-अधिक प्रकाश के और आगे पाँच तत्त्व के रंग के स्थान पर ही यानी आज्ञा-चक्र के प्रकाश-भाग के ऊपर की सीमा में ही वा सहस्त्रदलकमल की निचली सीमा के पास के स्थान पर ही-
‘‘स्याही सुरख सफेदी होई ।
जरद जाति जंगाली सोई ।।
तल्ली ताल तरंग बखानी ।
मोहन मुरली बजै सुहानी ।’’
(घटरामायण)

ऐसे वर्णन को पढ़कर किसी संतवाणी को भूल वा गलत कहना ठीक नहीं है । और इसीलिए यह भी कहना ठीक नहीं है कि सब सन्तों का ‘एक मत’ नहीं है । तथा और अधिक यह कहना अत्यन्त अनिष्टकर है कि जब सन्तों की वाणियों में इन शब्दों की निसबत इस तरह बेमेल है, तो सार-शब्द के अतिरिक्त इन मायावी शब्दों का अभ्यास करना ही नहीं चाहिए । वृक्ष के सब विस्तार की स्थिति उसके अंकुर में और अंकुर की स्थिति उसके बीज में अवश्य ही है, इसी तरह स्थूल जगत के सारे प्रसार की स्थिति सूक्ष्म जगत में औैर सूक्ष्म जगत के सब प्रसार की स्थिति कारण में मानना ही पड़ता है । स्थूल मण्डल की ध्वनियों की स्थिति सूक्ष्म में और सूक्ष्म की कारण में है; ऐसा विश्वास करना युक्तियुक्त है । अतएव मुरली-ध्वनि वा कोई ध्वनि नीचे के स्थानों में भी और वे ही ध्वनियाँ ऊपर के स्थानों में भी जानी जाएँ, असम्भव नहीं है । एक ने एक स्थान के मुरली-नाद का वर्णन किया, तो दूसरे ने उसी स्थान के किसी दूसरे नाद का वर्णन किया, इसमें कुछ भी हर्ज नहीं । शब्द-अभ्यास करके ही दोनों पहुँचे उसी एक स्थान पर, ऐसा मानना कोई हर्ज नहीं । इस तरह समझ लेने पर न किसी सन्त की शब्द-वर्णन-विषयक वाणी गलत कही जा सकती है और न यह कहा जा सकता है कि दोनों का मत पृथक्-पृथक् है । और तीसरी बात यह है कि केवल सार-शब्द का ही ध्यान करना और उसके नीचे के मायावी शब्दों का नहीं, बिलकुल असम्भव है; क्योंकि यह बात न युक्तियुक्त है और न किसी सन्तवाणी के अनुकूल है । नीचे के मायावी शब्दों के अभ्यास-बिना सारशब्द का ग्रहण कदापि नहीं होगा; इस पर संख्या ६६ में लिखा जा चुका है ।
(७३) मृदंग, मृदल और मुरली आदि की मायिक ध्वनियों में से किसी को अन्तर के किसी एक ही स्थान की निज ध्वनि नहीं मानी जा सकती है । इसलिए उपनिषदों में और दो-एक के अतिरिक्त सब भारती सन्तवाणी में भी अन्तर में मिलनेवाली केवल ध्वनियों के नाम पाए जाते हैं, परन्तु यह नहीं पाया जाता है कि अन्तर के अमुक स्थान की अमुक-अमुक निज ध्वनियाँ हैं और साथ-ही-साथ शब्दातीत पद का वर्णन उन सबमें अवश्य ही है । इस प्रकार के वर्णन को पढ़कर यह कह देना कि वर्णन करनेवाले को नादानुसन्धान (सुरत-शब्द-योग) का पूरा पता नहीं था, अयुक्त है और नहीं मानने-योग्य है ।
(७४) स्थूल मण्डल का एक शब्द जितना मीठा और सुरीला होगा, सूक्ष्म मण्डल का वही शब्द उससे विशेष मीठा और सुरीला होगा; इसी तरह कारण और महाकारण मण्डलों में (जहाँ तक शब्द में विविधता हो सकती है) उस शब्द की मिठास और सुरीलापन उत्तरोत्तर अधिक होंगे । कैवल्य पद में शब्द की विविधता नहीं मानी जा सकती है। उसमें केवल एक ही निरुपाधिक आदिशब्द मानना युक्तियुक्त है; क्योंकि कैवल्य में विविधता असम्भव है ।
(७५) शब्दातीत पद का मानना तथा इस पद तक पहुँचने के हेतु वर्णात्मक शब्द का जप, मानसध्यान, दृष्टियोग और नादानुसंधान; इन चारो प्रकार के साधनों का मानना संत-वाणियों में मिलता है । अतएव सन्तमत में वर्णित चारो युक्तियुक्त साधनों की विधि अवश्य ही माननी पड़ती है ।
(७६) नादानुसंधान में पूर्णता के बिना परम प्रभु सर्वेश्वर का मिलना वा पूर्ण आत्मज्ञान होना असम्भव है ।
(७७) बिना गुरु-भक्ति के सुरत-शब्द-योग द्वारा परम प्रभु सर्वेश्वर की भक्ति में पूर्ण होकर अपना परम कल्याण बना लेना असम्भव है ।
‘‘कबीर पूरे गुरु बिना, पूरा शिष्य न होय ।
गुरु लोभी शिष लालची, दूनी दाझन होय ।।’’

(कबीर साहब)
(७८) जब कभी पूरे और सच्चे सद्गुरु मिलेंगे, तभी उनके सहारे अपना परम कल्याण बनाने का काम समाप्त होगा।
(७९) पूरे और सच्चे सद्गुरु का मिलना परम प्रभु सर्वेश्वर के मिलने के तुल्य ही है ।
(८०) जीवनकाल में जिनकी सुरत सारे आवरणों को पार कर शब्दातीत पद में समाधि-समय लीन होती है और पिंड में बरतने के समय उन्मुनी रहनी में रहकर सारशब्द में लगी रहती है, ऐसे जीवन-मुक्त परम सन्त पुरुष पूरे और सच्चे सद्गुरु कहे जाते हैं ।
(८१) परम प्रभु सर्वेश्वर को पाने की विद्या के अतिरिक्त जितनी विद्याएँ हैं, उन सबसे उतना लाभ नहीं, जितना की परम प्रभु के मिलने से । परम प्रभु से मिलने की शिक्षा की थोड़ी-सी बात के तुल्य लाभदायक दूसरी-दूसरी शिक्षाओं की अनेकानेक बातें (लाभदायक) नहीं हो सकती हैं । इसलिए इस विद्या के सिखलानेवाले गुरु से बढ़कर उपकारी दूसरे कोई गुरु नहीं हो सकते और इसीलिए किसी दूसरे गुरु का दर्जा, इनके दर्जे के तुल्य नहीं हो सकता है । केवल आधिभौतिक विद्या के प्रकाण्ड से भी प्रकाण्ड वा अत्यन्त धुरन्धर विद्वान के अन्तर के आवरण टूट गए हों, यह कोई आवश्यक बात नहीं है और न इनके पास कोई ऐसा यंत्र है, जिससे अन्तर का आवरण टूटे वा कटे; परन्तु सच्चे और पूरे सद्गुरु में ये बातें आवश्यक हैं । सच्चे और पूरे सद्गुरु का अंतर-पट टूटने की सद्युक्ति का किंचित् मात्र भी संकेत संसार की सब विद्याओं से विशेष लाभदायक है।
(८२) पूरे और सच्चे सद्गुरु की पहचान अत्यन्त दुर्लभ है । फिर भी जो शुद्धाचरण रखते हैं, जो नित्य नियमित रूप से नादानुसंधान का अभ्यास करते हैं और जो सन्तमत को अच्छी तरह समझा सकते हैं, उनमें श्रद्धा रखनी और उनको गुरु धारण करना अनुचित नहीं । दूसरे-दूसरे गुण कितने भी अधिक हों, परन्तु यदि आचरण में शुद्धता नहीं पाई जाए, तो वह गुरु मानने-योग्य नहीं । यदि ऐसे को पहले गुरु माना भी हो, तो उसका दुराचरण जान लेने पर उससे अलग रहना ही अच्छा है । उसकी जानकारी अच्छी होने पर भी आचरणहीनता के कारण उसका संग करना योग्य नहीं । और गुणों की अपेक्षा गुरु के आचरण का प्रभाव शिष्यों पर अधिक पड़ता है । और गुणों के सहित शुद्धाचरण का गुरु में रहना ही उसकी गरुता तथा गुरुता है, नहीं तो वह गरु (गाय, बैल) है । क्या शुद्धाचरण और क्या गुरु होने योग्य दूसरे-दूसरे गुण, किसी में भी कमी होने से वह झूठा गुरु है ।
‘‘गुरु से ज्ञान जो लीजिये, शीश दीजिये दान ।
बहुतक भोंदू बहि गये, राखि जीव अभिमान ।।१।।
तन मन ताको दीजिये, जाके विषया नाहिं ।
आपा सबही डारिके, राखै साहब माहिं ।।२।।
झूठे गुरु के पक्ष को, तजत न कीजै बार ।
द्वार न पावै शब्द का, भटकै बारम्बार ।।३।।’’
(कबीर साहब)

पूरे और सच्चे सद्गुरु को गुरु धारण करने का फल तो अपार है ही; परन्तु ऐसे गुरु का मिलना अति दुर्लभ है। ज्ञानवान, शुद्धाचारी तथा सुरत-शब्द के अभ्यासी पुरुष को गुरु धारण करने से शिष्य उस गुरु के संग से धीरे-धीरे गुरु के गुणों को लाभ करे, यह सम्भव है; क्योंकि संग से रंग लगता है और शिष्य के लिए वैसे गुरु की शुभकामना भी शिष्य को कुछ-न-कुछ लाभ अवश्य पहुँचाएगी; क्योंकि एक का मनोबल दूसरे पर कुछ प्रभाव डाले, यह भी संभव ही है। ज्ञात होता है कि उपर्युक्त संख्या २ की साखी और पारा ७७ में लिखित साखी, जो यह निर्णय कर देती है कि कैसे का शिष्य बनो और कैसे के हाथों में अपने को सौंपो, इसका रहस्य ऊपर कथित शिष्य के पक्ष में-दोनों ही बातें लाभदायक हैं । जो केवल सुरत-शब्द का अभ्यास करे; किन्तु ज्ञान और शुद्धाचरण की परवाह नहीं करे, ऐसे को गुरु धारण करना किसी तरह भला नहीं है । यदि कोई इस बात की परवाह नहीं करके किसी दुराचारी जानकार को ही गुरु धारण कर ले, तो ऊपर कथित गुरु से प्राप्त होने योग्य लाभों से वह वंचित रहेगा और केवल अपने से अपनी सम्भाल करना उसके लिए अत्यन्त भीषण काम होगा । इस भीषण काम को कोई विशेष थिर बुद्धिवाला विद्वान कर भी ले, पर सर्वसाधारण के हेतु असम्भव-सा है । ये बातें प्रत्यक्ष हैं कि एक की गरमी दूसरे में समाती है तथा कोई अपने शरीर-बल से दूसरे के शरीर-बल को सहायता देकर और अपने बुद्धि-बल से दूसरे के बुद्धि-बल को सहायता देकर बढ़ा देते हैं, तब यदि कोई अपना पवित्रता पूर्ण तेज दूसरे के अन्दर देकर उसको पवित्र करे और अपने बढ़े हुए ध्यान-बल से किसी दूसरे के ध्यान-बल को जगावे और बढ़ावे, तो इसमें संशय करने का स्थान नहीं है । कल्याण- साधनांक, प्रथम-खण्ड, पृ॰ ४९९ में अमीर खुसरो का वचन है कि ------- ‘सुनिए, मैंने भी उन महापुरुष जगद्गुरु भगवान श्री स्वामी रामानन्द का दर्शन किया है । अपने गुरु ख्वाजा साहब की तरफ से मैं तोहफए बेनजीर (अनुपम भेंट) लेकर पंचगंगा-घाट पर गया था । स्वामीजी ने दाद दी थी और मुझ पर जो मेह्र (कृपा) हुई थी, उससे फौरन मेरे दिल की सफाई हो गई थी और खुदा का नूर झलक गया था ।’ मण्डलब्राह्मणोपनिषद्, तृतीय ब्राह्मण में के, ‘इत्युच्चरन्त्समालिंग्य शिष्यं ज्ञप्तिमनीनयत्’ ।।२।। का अँग्रेजी अनुवाद K. Narayan Swami Aiyar (के॰ नारायण स्वामी अय्यर) ने इस प्रकार किया है- “Saying this, he the purusha ॰f the sun, embraced his pupil and made him understand it.” अर्थात्- ‘इस प्रकार कहकर उसने (सूर्यमण्डल के पुरुष ने) अपने शिष्य को छाती से लगा लिया और उसको उस विषय का ज्ञान करा दिया ।) और उस पर उन्होंने (उपर्युक्त अय्यरजी ने) पृष्ठ के नीचे में यह टिप्पणी भी लिख दी है कि कि “This is a reference t॰ the secret way ॰f imparting higher truth” अर्थात् ‘उच्चतर सत्य (ब्रह्म का अपरोक्ष ज्ञान) प्रदान करने की गुप्त विधि का यह (अर्थात् छाती से लगाना) एक संकेत है । ‘ [Thirty min॰r Upanishads, Page २५२-थर्टी (३०) माइनर उपनिषद्, पृष्ठ २५२] ज्ञात होता है कि पूरे गुरु के पवित्र तेज से, उनके उत्तम ज्ञान से तथा उनके ध्यान-बल से शिष्यों को लाभ होता है । इसी बात की सत्यता के कारण बाबा देवी साहब की छपाई हुई घटरामायण में निम्नलिखित दोनों पद्यों को स्थान प्राप्त है । वे पद्य ये हैं-
‘मुर्शिदे कामिल से मिल सिद्क और सबूरी से तकी ।
जो तुझ देगा फहम शहरग के पाने के लिये ।।’

अर्थात्- ऐ तकी ! सचाई और (संसारी चीजों का लालच त्यागकर) सन्तोष धारणकर कामिल (पूरे) मुर्शिद (गुरु) से जाकर मिलो, जो तुझको शहरग (सुषुम्ना नाड़ी) पाने की समझ देगा ।
यह पद्य विदित करता है कि भजन-भेद कैसे पुरुष से लेना चाहिए । और दूसरा-
‘तुलसी बिना करम किसी मुर्शिद रसीदा के ।
राहे नजात दूर है उस पार देखना ।।’

अर्थात्- तुलसी साहब कहते हैं कि किसी मुर्शिद रसीदा (पहुँचे हुए गुरु) के करम-बख्शिश (दया-दान) के बिना राहे नजात (मुक्ति का रास्ता) और उस पार का देखना दूर है ।
यह पद्य तो साफ ही कह रहा है कि पूरे गुरु के दया-दान से ही उस पार का देखना होता है, अन्यथा नहीं । और वराहोपनिषद् में है कि- ‘दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम् । दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरोः करुणां विना ।।’ (अ॰ २, श्लोक ७६) अर्थात् सद्गुरु की कृपा के बिना विषय का त्याग दुर्लभ है । तत्त्वदर्शन (ब्रह्म-दर्शन) दुर्लभ है और सहजावस्था दुर्लभ है । इस प्रकार की दया का दान गुरु से प्राप्त करने के लिए उन्हें अपनी ओर आकृष्ट किया जाय, इसी में गुरु-सेवा की विशेष उपयोगिता ज्ञात होती है । भगवान बुद्ध की ‘धम्मपद’ नाम की पुस्तिका में गुरु-सेवा के लिए उनकी यह आज्ञा है; यथा- ‘मनुष्य जिससे बुद्ध का बताया हुआ धर्म सीखे, तो उसे उनकी परिश्रम से सेवा करनी चाहिए, जैसे ब्राह्मण यज्ञ-अग्नि की पूजा करता है ।’ (२६वाँ वचन; सं॰ २९२) सन्त चरणदासजी ने भी कहा है-
‘मेरा यह उपदेश हिये में धारियो ।
गुरु चरनन मन राखि सेव तन गारियो ।।
जो गुरु झिड़कैं लाख तो मुख नहिं मोड़ियो ।
गुरु से नेह लगाय सबन सों तोड़ियो ।।’

(चरणदासजी की वाणी, भाग १, पृ॰ १०, अष्टपदी ४५, वेलवेडियर प्रेस, प्रयाग)
और बाबा देवी साहब ने भी घटरामायण में छपाया है-
‘यह राह मंजिल इश्क है
पर पहुँचना मुश्किल नहीं ।
मुश्किल कुशा है रोबरू,

जिसने तुझे पंजा दिया ।।’
अर्थात्-यह राह (मार्ग) और मंजिल (गन्तव्य स्थान) इश्क (प्रेम) है, पर पहुँचना कठिन नहीं है, मुश्किल कुशा (कठिनाई को मारनेवाला वा दूर करनेवाला) रोबरू (सामने) वह है, जिसने तुझे पंजा (भेद वा आज्ञा) दिया है । यद्यपि संत-महात्मागण समदर्शी कहे जाते हैं, तथापि जैसे वर्षा का जल सब स्थानों पर एक तरह बरस जाने पर भी गहिरे गड़हे में ही विशेष जमा होकर टिका रहता है, वैसे ही संत-महात्मागण की कृपावृष्टि भी सब पर एक तरह की होती है; परन्तु उनके विशेष सेवक-रूप गहिरे गड़हे की ओर वह वेग से प्रवाहित होकर उसी में अधिक ठहरती है। संत-महात्मागण तो स्वयं सब पर सम रूप से अपनी कृपा-वृष्टि करते ही हैं, पर उनके सेवक अपनी सेवा से अपने को उनका कृपापात्र बना उनकी विशेष कृपा अपनी ओर खींच लेंगे, इसमें आश्चर्य ही क्या ? एक तो देनेवाले के दान की न परवाह करता है और न वह उसे लेने का पात्र ही ठीक है, दूसरा इसकी बहुत परवाह करता है और अत्यन्त यत्न से अपने को उस दान के लेने का पात्र बनाता है, तब पहले से दूसरे को विशेष लाभ क्यों न होगा ? सन्त-महात्माओं की वाणियों में गुरु-सेवा की विधि का यही रहस्य है, ऐसा जानने में आता है ।
(८३) किसी से कोई विद्या सिखनेवाले को सिखलानेवाले से नम्रता से रहने का तथा उनकी प्रेम सहित कुछ सेवा करने का ख्याल हृदय में स्वाभाविक ही उदय होता है, इसलिए गुरु-भक्ति स्वाभाविक है । गुरु-भक्ति के विरोध में कुछ कहना फजूल है । निःसन्देह अयोग्य गुरु की भक्ति को बुद्धिमान आप त्यागेंगे और दूसरे से भी इसका त्याग कराने की कोशिश करेंगे, यह भी स्वाभाविक ही है ।
(८४) सत्संग, सदाचार, गुरु की सेवा और ध्यानाभ्यास; साधकों को इन चारो चीजों की अत्यन्त आवश्यकता है । संख्या ५३ में सत्संग का वर्णन है । संख्या ६० में वर्णित पंच पापों से बचने को सदाचार कहते हैं । गुरु की सेवा में उनकी आज्ञाओं का मानना मुख्य बात है और ध्यानाभ्यास के बारे में संख्या ५४, ५५, ५६, ५७ और ५९ में लिखा जा चुका है । सन्तमत में उपर्युक्त चारो चीजों के ग्रहण करने का अत्यन्त आग्रह है । इन चारो में मुख्यता गुरु-सेवा की है, जिसके सहारे उपर्युक्त बची हुई तीनो चीजें प्राप्त हो जाती हैं।
(८५) दुःखों से छूटने और परम शान्तिदायक सुख को प्राप्त करने के लिए जीवों के हृदय में स्वाभाविक प्रेरण है । इस प्रेरण के अनुकूल सुख को प्राप्त करा देने में सन्तमत की उपयोगिता है ।
(८६) भिन्न-भिन्न इष्टों के माननेवाले के भिन्न-भिन्न इष्टदेव कहे जाते हैं । इन सब इष्टों के भिन्न-भिन्न नामरूप होने पर भी सबकी आत्मा अभिन्न ही है । भक्त जबतक अपने इष्ट के आत्मस्वरूप को प्राप्त न कर ले, तबतक उसकी भक्ति पूरी नहीं होती । किसी इष्टदेव के आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेने पर परम प्रभु सर्वेश्वर की प्राप्ति हो जाएगी, इसमें सन्देह नहीं । संख्या ८४ में वर्णित साधनों के द्वारा ही आत्मस्वरूप की प्राप्ति होगी । प्रत्येक इष्ट के स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण, कैवल्य और शुद्ध आत्मस्वरूप हैं । जो उपासक अपने इष्ट के आत्मस्वरूप का निर्णय नहीं जानता और उसकी प्राप्ति का यत्न नहीं करता; परन्तु उसके केवल वर्णात्मक नाम और स्थूल रूप में फँसा रहता है, उसकी मुक्ति अर्थात् उसका परम कल्याण नहीं होगा ।
(८७) नादानुसंधान (सुरत-शब्द-योग) लड़कपन का खेल नहीं है । इसका पूर्ण अभ्यास यम-नियमहीन पुरुष से नहीं हो सकता है । स्थूल शरीर में उसके अन्दर के स्थूल कम्पों की ध्वनियाँ भी अवश्य ही हैं । केवल इन्हीं ध्वनियों के ध्यान को पूर्ण नादानुसंधान जानना और इसको (नादानुसंधान को) मोक्ष-साधन में अनावश्यक बताना बुद्धिमानी नहीं है, बल्कि ऐसा जानना और ऐसा बताना योग-विषयक ज्ञान की अपने में कमी दरसाना है । यम और नियमहीन पुरुष भी नादानुसंधान में कुशल हो सकता है, ऐसा मानना सन्तवाणी-विरुद्ध है और अयुक्त भी है ।
(८८) सत्य, अहिंसा, अस्तेय (चोरी नहीं करना), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (असंग्रह) को यम कहते हैं । शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय (अध्यात्म-शास्त्र का पाठ करना) और ईश्वर-प्रणिधान (ईश्वर में चित्त लगाना) को नियम कहते हैं ।
(८९) यम और नियम का जो सार है, संख्या ६० में वर्णित पाँच पापों से बचने का और गुरु की सेवा, सत्संग और ध्यानाभ्यास करने का वही सार है ।
(९०) मस्तक, गरदन और धड़ को सीधा रखकर किसी आसन से देर तक बैठने का अभ्यास करना अवश्य ही चाहिए । दृढ़ आसन से देर तक बैठे रहने के बिना ध्यानाभ्यास नहीं हो सकता है ।
(९१) आँखों को बन्द करके आँख के भीतर डीम को बिना उलटाये वा उस पर कुछ भी जोर लगाये बिना, ध्यानाभ्यास करना चाहिए; परन्तु नींद से अवश्य ही बचते रहना चाहिए ।
(९२) ब्राह्ममुहूर्त्त में (पिछले पहर रात), दिन में स्नान करने के बाद तुरंत और सायंकाल, नित्य नियमित रूप से अवश्य ध्यानाभ्यास करना चाहिए । रात में सोने के समय लेटे-लेटे अभ्यास में मन लगाते हुए सो जाना चाहिए । काम करते समय भी मानसजप वा मानस ध्यान करते रहना उत्तम है ।
(९३) जबतक नादानुसंधान का अभ्यास करने की गुरु- आज्ञा न हो-केवल मानस जप, मानसध्यान और दृष्टियोग के अभ्यास करने की गुरु-आज्ञा हो, तबतक दो ही बंद (आँख बन्द और मुँह बन्द) लगाना चाहिए । नादानुसंधान करने की गुरु-आज्ञा मिलने पर आँख, कान और मुँह-तीनों बंद लगाना चाहिए ।
(९४) केवल ध्यानाभ्यास से भी प्राण-स्पन्दन (हिलना) बंद हो जाएगा, इसके प्रत्यक्ष प्रमाण का चिह्न यह है कि किसी बात को एकचित्त होकर वा ध्यान लगाकर सोचने के समय श्वास-प्रश्वास की गति कम हो जाती है । पूरक, कुम्भक और रेचक करके प्राणायाम करने का फल प्राण-स्पन्दन को बंद करना ही है । परन्तु यह क्रिया कठिन है । प्राण का स्पन्दन बन्द होने से सुरत का पूर्ण सिमटाव होता है । सिमटाव का फल संख्या ५६ में लिखा जा चुका है । बिना प्राणायाम किए ही ध्यानाभ्यास करना सुगम साधन का अभ्यास करना है । इसके आरम्भ में प्रत्याहार का अभ्यास करना होगा अर्थात् जिस देश में मन लगाना होगा, उससे मन जितनी बार हटेगा, उतनी बार मन को लौटा-लौटाकर उसमें लगाना होगा । इस अभ्यास से स्वाभाविक ही धारणा (मन का अल्प टिकाव उस देश पर) होगी । जब धारणा देर तक होगी, वही असली ध्यान होगा और संख्या ६० में वर्णित ध्वनि-धारों का ग्रहण ध्यान में होकर अंत में समाधि प्राप्त हो जाएगी । प्रत्याहार और धारणा में मन को दृष्टियोग का सहारा रहेगा । दृष्टियोग का वर्णन संख्या ५९ में हो चुका है ।
(९५) जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में दृष्टि और श्वास चंचल रहते हैं, मन भी चंचल रहता है । सुषुप्ति अवस्था (गहरी नींद) में दृष्टि और मन की चंचलता नहीं रहती है, पर श्वास की गति बन्द नहीं होती है । इन स्वाभाविक बातों से जाना जाता है कि जब-जब दृष्टि चंचल है, मन भी चंचल है; जब दृष्टि में चंचलता नहीं है, तब मन की चंचलता जाती रहती है और श्वास की गति होती रहने पर भी दृष्टि का काम बन्द रहने के समय मन का काम भी बन्द हो जाता है । अतएव यह सिद्ध हो गया कि मन के निरोध के हेतु में दृष्टि-निरोध की विशेष मुख्यता है। मन और दृष्टि, दोनों सूक्ष्म हैं और श्वास स्थूल । इसलिए भी मन पर दृष्टि के प्रभाव का श्वास के प्रभाव से अधिक होना अवश्य ही निश्चित है ।
(९६) दृष्टि के चार भेद हैं-जाग्रत की दृष्टि, स्वप्न की दृष्टि, मानस दृष्टि ओेैर दिव्य दृष्टि । दृष्टि के पहले तीनों भेदों के निरोध होने से मनोनिरोध होगा और दिव्यदृष्टि खुल जाएगी । दिव्यदृष्टि में भी एकविन्दुता रहने पर मन की विशेष ऊर्ध्वगति होगी और मन सूक्ष्मातिसूक्ष्म नाद को प्राप्तकर उसमें लय हो जाएगा ।
(९७) जब मन लय होगा, तब सुरत को मन का संग छूट जाएगा । मनविहीन हो, शब्द-धारों से आकर्षित होती हुई निःशब्द में अर्थात् परम प्रभु सर्वेश्वर में पहुँचकर वह भी लय हो जाएगी । अन्तर-साधन की यहाँ पर इति हो गई । प्रभु मिल गए । काम समाप्त हुआ ।
(९८) साधक को स्वावलम्बी होना चाहिए । अपने पसीने की कमाई से उसे अपना निर्वाह करना चाहिए । थोड़ी-सी वस्तुओं को पाकर ही अपने को संतुष्ट रखने की आदत लगानी उसके लिए परमोचित है ।
(९९) काम, क्रोध, लोभ, मोह अहंकार, चिढ़, द्वेष आदि मनोविकारों से खूब बचते रहना और दया, शील, सन्तोष, क्षमा, नम्रता आदि मन के उत्तम और सात्त्विक गुणों को धारण करते रहना, साधक के पक्ष में अत्यन्त हित है ।
(१००) मांस और मछली का खाना तथा मादक द्रव्यों का सेवन, मन में विशेष चंचलता और मूढ़ता उत्पन्न करते हैं । साधकों को इनसे अवश्य बचना चाहिए ।
(१०१) ज्ञान-बिना कर्त्तव्य कर्म का निर्णय नहीं हो सकता । कर्त्तव्य कर्म के निर्णय के बिना अकर्त्तव्य कर्म भी किया जायगा, जिससे अपना परम कल्याण नहीं होगा; इसलिए ज्ञानोपार्जन अवश्य करना चाहिए, जो विद्याभ्यास और सत्संग से होगा ।
(१०२) शुद्ध आत्मा का स्वरूप अनन्त है । अनन्त के बाहर कुछ अवकाश हो, सम्भव नहीं है; अतएव उसका कहीं से आना और उसका कहीं जाना, माना नहीं जा सकता है; क्योंकि दो अनन्त हो नहीं सकते । चेतन-मण्डल सान्त है, उसके बाहर अवकाश है; इसलिए उसके धार-रूप का होना और उस धार में आने-जाने का गुण होना निश्चित है । अनन्त के अंश पर के प्रकृति के आवरणों का मिट जाना, उस अंश-रूप का मोक्ष कहलाता है । स्थूल शरीर जड़ात्मक प्रकृति से बना एक आवरण है । इसमें चेतन-धार के रहने तक यह स्थित रहता है, नहीं तो मिट जाता है । इस नमूने से यह निश्चित है कि जड़ात्मक प्रकृति के अन्य तीनों आवरण भी मिट जाएँगे, यदि उन तीनों में चेतन-धार वा सुरत न रहे । अन्तर में नादानुसंधान से सुरत जड़ात्मक सब आवरणों से पार हो जाएगी, उनमें नहीं रहेगी और अंत में स्वयं भी आदिनाद के आकर्षण से आकर्षित हो, अपने केन्द्र में केन्द्रित होकर उसमें विलीन हो जाएगी । इस तरह सब आवरणों का मिटना होगा । उस चेतन-धार के कारण एक पिंड बनने योग्य प्रकृति के जितने अंश की स्थिति (कैवल्य, महाकारण, कारण, सूक्ष्म और स्थूल रूपों में) सम्भव है, वह मिट जाएगी और उसके मिटने से शुद्धात्मा का जो अंश आवरणहीन हो जायगा, वह मुक्त हुआ कहा जायगा । यद्यपि शुद्ध आत्मतत्त्व सर्वव्यापक होने पर भी मायिक दुख -सुख का सदा अभोगी ही रहता है, तथापि उसके और चित् (चेतन), अचित् (जड़) के संग से जीवात्मा की स्थिति प्रकट होती है, जिसको उपर्युक्त दुख -सुख का भोग होता है, वह भोग अशांतिपूर्ण होने के कारण मिटा देने-योग्य है । उपुर्यक्त संग के मिटने से ही यह भोग मिटेगा; क्योंकि वह संग ही इस भोग और उपर्युक्त जीव-रूप इसके भोगी; दोनों का कारण है ।
(१०३) जीवता का उदय हुआ है, इसका नाश भी किया जा सकेगा । इसके नाश से आत्मा की कुछ हानि नहीं। इसके मिटने से आत्मा नहीं मिटेगी । आत्मा का मिटना असम्भव है; क्योंकि अनन्त का मिटना असम्भव है। जब किसी जीवन-काल में (पूर्ण समाधि में) जीवता मिटा दी जाएगी, तभी जीवन-मुक्त की दशा प्राप्त होगी और जीवन-काल के गत होने (मरने) पर भी मुक्ति होगी, अन्यथा नहीं । मोक्ष के साधन में लगे हुए अभ्यासी को जीवन-काल में मुक्ति नहीं मिलने पर उस जीवन-काल के अनन्तर फिर मनुष्य-जन्म होगा; क्योंकि दूसरी योनि उसके मोक्ष-साधन के संस्कार को सँभालने और उसको आगे बढ़ाने के योग्य नहीं है । इस प्रकार मोक्ष-साधक बारम्बार उत्तम-उत्तम मनुष्य-जन्म पाकर अन्त में सदा के लिए मोक्ष प्राप्त कर लेगा।
परम प्रभु में सृष्टि की मौज का उदय जहाँ से हुआ, वहाँ उसका फिर लौट आना असम्भव है; क्योंकि वह मौज रचना करती हुई उसमें जिधर को प्रवाहित है, उधर को काल के अन्त तक प्रवाहित होती हुई तथा रचना करती हुई चली जाएगी; परन्तु अनन्त का न अन्त होगा और न फिर वह मौज वहाँ लौटेगी, जहाँ से उसका प्रवाह हुआ था । इसलिए उस मौज के केन्द्र में जो सुरत केन्द्रित होगी, वह फिर रचना में उतरे, यह सम्भव नहीं और तब यह भी सम्भव नहीं कि उस सुरत वा चेतन-धार के कारण प्रकृति के जिस अंश की स्थिति पहले हुई थी, वह पुनः बने, उसकी स्थिति से आत्मा का जो अंश आवरणित था, वह फिर आवरण-सहित हो और संख्या १०२ में कथित त्रयसंग से पूर्व-जीवता का पुनरुदय हो । जिस मुक्ति का इसमें वर्णन हुआ है, वही असली मुक्ति है । उसके अतिरिक्त और प्रकार की मुक्ति केवल कहने मात्र की है, यथार्थ नहीं ।
(१०४) सब आवरणों को पार किए बिना न परम प्रभु मिलेंगे और न परम मुक्ति मिलेगी । इसलिए दोनों फलों को प्राप्त करने का एक ही साधन है । ईश्वर-भक्ति का साधन कहो वा मुक्ति का साधन कहो; दोनों एक ही बात है ।
जिमि थल बिनु जल रहि ना सकाई ।
कोटि भाँति कोउ करै उपाई ।।
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई ।
रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ।।
(तुलसीकृत रामायण)

प्ररम प्रभु सर्वेश्वर के अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने का साधन (१०५) परम प्रभु सर्वेश्वर के अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने के साधन को जानने के पहले परम प्रभु के स्वरूप का तथा निज स्वरूप का परोक्ष ज्ञान श्रवण और मनन-द्वारा प्राप्त करना चाहिए । और सृष्टि-क्रम के ज्ञान के सहित यह भी जानना चाहिए कि कथित युगल स्वरूपों का अपरोक्ष ज्ञान नहीं होने का कारण क्या है ? परम प्रभु के स्वरूप का श्रवण और मनन-ज्ञान प्राप्त कर लेने पर यह निश्चित हो जाएगा कि प्राप्त करना क्या है ? क्षेत्र-सहित क्षेत्रज्ञ उसको प्राप्त कर सकेगा वा केवल क्षेत्रज्ञ ही उसे प्राप्त करेगा तथा इसके लिए बाहर में वा अन्तर में किस ओर अभ्यास करना चाहिए ? ये सब आवश्यक बातें निश्चित हो जाएँगी, तब अनावश्यक भटकन छूट जाएगी । अपने स्वरूप के वैसे ही ज्ञान से यह थिर हो जाएगा कि मैं उसे प्राप्त करने योग्य हूँ, अथवा नहीं ? सृष्टि-क्रम के विकास का तथा परम प्रभु और निज स्वरूपों का अपरोक्ष ज्ञान नहीं होने के कारण की जानकारियों से उस आधार का पता लग सकेगा, जिसके अवलम्ब से सृष्टि वा उपर्युक्त कारण-रूप आवरण से पार जाकर परम प्रभु से मिलन तथा उसके अपरोक्ष ज्ञान का होना परम सम्भव हो जाएगा । इसके लिए उपनिषदों को वा भारती सन्तवाणी को ढूँढ़ा जाए वा इसे तर्क-बुद्धि से निश्चय किया जाए, थिर यही होगा कि परम प्रभु सर्वेश्वर का स्वरूप अव्यक्त, इन्द्रियातीत (अगोचर), आदि-अन्तरहित, अज, अविनाशी, देशकालातीत, सर्वगत तथा सर्वपर है और जैसे घटाकाश, महदाकाश का अंश है, इसी तरह निज स्वरूप भी परम प्रभु सर्वेश्वर का अंश है । तत्त्वरूप में दोनों एक ही हैं, पर परम प्रभु आवरण से आवरणित नहीं, किन्तु निज स्वरूप अथवा सर्वेश्वर का पिण्डस्थ अंश आवरणित है। सगुण अपरा प्रकृति के महाकारण, कारण, सूक्ष्म, और स्थूल; इन चारो आवरणों से आवरणित रहने के कारण उपर्युक्त दोनों स्वरूपों का अपरोक्ष ज्ञान नहीं हो पाता है । जब परम प्रभु सर्वेश्वर में सृष्टि की मौज होती है, तभी सृष्टि उपजती है। इसलिए सृष्टि के आदि में मौज वा कम्प का मानना अनिवार्य होता है । और मौज वा कम्प का शब्दमय न होना असम्भव है । इसलिए सृष्टि के आदि में अनिवार्य रूप से शब्द मानना ही पड़ता है । सृष्टि का विकास बारीकी की ओर से मोटाई वा स्थूलता की ओर को होता हुआ चला आया है । सृष्टि के जिस प्रकार के मण्डल में हमलोग हैं, वह स्थूल कहलाता है । इससे ऊपर सूक्ष्ममण्डल, सूक्ष्म के ऊपर कारण-मण्डल, कारण-मण्डल के ऊपर महाकारण-मण्डल अर्थात् कारण की खानि साम्यावस्थाधारिणी जड़ात्मक मूल प्रकृति और इसके भी ऊपर चैतन्य वा परा प्रकृति वा कैवल्य (जड़-रहित चैतन्य) मण्डल; इन चार प्रकार के मण्डलों का होना ध्रुव निश्चित है । अतएव स्थूल मण्डल के सहित सृष्टि के पाँच मण्डल स्पष्ट रूप से जानने में आते हैं । कैवल्य मण्डल निर्मल चैतन्य है और बचे हुए चार मण्डल चैतन्य-सहित जड़ मण्डल हैं । प्रत्येक मण्डल बनने के लिए प्रथम प्रत्येक का केन्द्र अवश्य ही स्थापित हुआ । केन्द्र से मण्डल बनने की धार (मौज वा कम्प वा शब्द) जारी होने पर ही मण्डल की सृष्टि हुई । धार जारी होने में सहचर शब्द अवश्य हुआ । अतएव कथित केन्द्रों के केन्द्रीय शब्द अनिवार्य रूप से मानने पड़ते हैं । शब्द में अपने उद्गम स्थान पर आकर्षण करने का स्वभाव प्रत्यक्ष ही है । इन बातों को जानने पर यह सहज ही सिद्ध हो जाता है कि सृष्टि का विकास शब्द से होता हुआ चला आया है और इसलिए सृष्टि के सब आवरणों से पार जाने का अत्यन्त युक्तियुक्त आधार वर्णित शब्दों से विशेष कुछ नहीं है । ये कथित केन्द्रीय शब्द वर्णात्मक हो नहीं सकते; ये ध्वन्यात्मक हैं । नादानुसंधान वा सुरत-शब्द-योग इन्हीं नादों वा ध्वन्यात्मक शब्दों का होता है और उल्लिखित शब्द के आकर्षण के कारण सुरत-शब्द-योग का फल अत्यन्त ऊर्ध्वगति तक पहुँचना निश्चित और युक्तियुक्त है । ऊपर के कथित सृष्टि के पाँच मण्डल ही पाँच आवरण हैं, जो पिण्ड (शरीर) और ब्रह्माण्ड (बाह्य जगत); दोनों को विशेष रूप से संबंधित करते हुए दोनों में भरे हैं । परा प्रकृति वा सुरत वा कैवल्य चैतन्यस्वरूप परम प्रभु सर्वेश्वर के निज स्वरूप के अत्यन्त समीपवर्त्ती होने के कारण उसके स्वरूप से मिलने वा उसका अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने के सर्वथा योग्य है । निज स्वरूप इस चैतन्य तत्त्व से अवश्य ही उच्च और अधिक योग्यता का है और चैतन्य क्षेत्र का सर्वोत्कृष्ट रूप है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि क्षेत्र के केवल इसी एक अगुण और सर्वोत्कृष्ट रूप के सहित क्षेत्रज्ञ को निज स्वरूप के सहित परम प्रभु सर्वेश्वर के स्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान होगा । परन्तु क्षेत्र के अन्य चार सगुण रूपों के सहित वा इन चारों में से किसी एक के सहित रहने पर स्वरूप का वह ज्ञान वा उसकी प्राप्ति नहीं होगी । यह निःसन्देह है कि निज को निज का तथा परम प्रभु के स्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान होना वा निज को निज की तथा परम प्रभु की प्राप्ति होनी ध्रुव सम्भव है ।
ऊपर का शब्द नीचे दूर तक स्वाभाविक ही पहुँचता है । सूक्ष्म तत्त्व की धार स्थूल तत्त्व की धार से लम्बी होती है और वह अपने से स्थूल में स्वाभाविक ही समायी हुई होती है । रचना में ऊपर की ओर सूक्ष्मता और नीचे की ओर स्थूलता है । रचना में जो मण्डल जिस मण्डल से ऊपर है, वह उससे सूक्ष्म है । अतएव प्रत्येक ऊपर के मण्डल का केन्द्रीय शब्द प्रत्येक नीचे के मण्डल और उसके केन्द्रीय शब्द से क्रमानुसार सूक्ष्म है । इसलिए ऊपर के मण्डलों के केन्द्र से उत्थित शब्द, नीचे के मण्डलों के केन्द्रों पर क्रमानुसार अर्थात् पहला निचले मण्डल के केन्द्र पर से उसके ऊपर के मण्डल का केन्द्रीय शब्द और इस दूसरे निचले मण्डल के केन्द्र पर उसके ऊपर के मण्डल का केन्द्रीय शब्द, इस तरह क्रम-क्रम से अवश्य ही धरे जाएँगे और अन्त में सबसे ऊपर के कैवल्य मण्डल के केन्द्र से अर्थात् स्वयं परम प्रभु सर्वेेश्वर से उत्थित शब्द महाकारण-मण्डल के केन्द्र पर अवश्य ही पकड़ा जा सकेगा और उस शब्द से आकर्षित होकर चैतन्य वा सुरत परम प्रभु से जा मिलकर उनसे एकमेक हो विलीन हो जाएगी । परम प्रभु सर्वेश्वर के अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने के साधन की यही पराकाष्ठा है । परम प्रभु से उत्थित यह आदिनाद वा शब्द, सब पिण्डों तथा सब ब्रह्माण्डों के अन्तस्तल में सदा अप्रतिहत और अविच्छिन्न रूप से ध्वनित होता है और सृष्टि की स्थिति तक अवश्य ही ध्वनित होता रहेगा; क्योंकि इसी के उदय के कारण से सब सृष्टि का विकास है और यदि इसकी स्थिति का लोप होगा तो सृष्टि का भी लोप हो जाएगा । ऋषियों ने इसी अलौकिक और अनुपम आदि निर्गुण नाद को ‘ॐ’ कहा है और भारती सन्तवाणी में इसी को ‘निर्गुण रामनाम’ ‘सत्यनाम’, सत्यशब्द, आदिनाम और सारशब्द आदि कहा है । उपर्युक्त वर्णनानुसार शब्दधारों को धरने के लिए बाहर की ओर यत्न करना व्यर्थ है । यह तो गुरु-आश्रित होकर अन्तर-ही-अन्तर यत्न और अभ्यास करने से होगा । अपने अन्तर में ध्यानाभ्यास से अपने को वा अपनी सुरत वा अपनी चेतन-वृत्ति को विशेष-से-विशेष अन्तर्मुखी बनाना सम्भव है । प्रथम ही सूक्ष्म ध्यानाभ्यास स्वभावानुकूल नहीं होने के कारण असाध्य है । इसलिए प्रथम मानस जप द्वारा मन को कुछ समेट में ला, फिर स्थूल मूर्ति का मानस ध्यानाभ्यासकर अपने को सूक्ष्म ध्यानाभ्यास करने के योग्य बना, दृष्टि-योग से एकविन्दुता प्राप्त करने का सूक्ष्म ध्यानाभ्यास करके नादानुसंधान वा सुरत-शब्द-योग अभ्यासकर नीचे से ऊपर तक सारे आवरणों से पार हो, अन्त तक पहुँचना परम सम्भव है । ऊपर यह वर्णन हो चुका है कि पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों को विशेष रूप से सम्बन्धित करते हुए दोनों को सृष्टि से वर्णित मण्डल वा आवरण भरपूर करते हैं और इन्हीं आवरणों को पार करना, सारे आवरणों को पार करना है । कथित विशेष सम्बन्ध इनमें यह है कि पिण्ड के जिस आवरण में जो रहेगा, बाहर के ब्रह्माण्ड के उसी आवरण में वह रहेगा और पिण्ड के जिस आवरण को वा सब आवरणों को जो पार करेगा, ब्रह्माण्ड के उसी आवरण को वा सब आवरणों को वह पार का जाएगा अर्थात् जो पिण्ड को पार कर गया, वह ब्रह्माण्ड को भी पार कर गया, इसमें कुछ भी संशय नहीं है । परम योग, परम ज्ञान और परमा भक्ति का गम्भीरतम रहस्य और अन्तिम फल प्राप्त करने का साधन समास रूप में कहा जा चुका ।
(१०६) ॐ के बारे में विशेष जानकारी के लिए भाग पहले में श्वेताश्वतरोपनिषद् अध्याय १, श्लोक ७ के अर्थ के नीचे लिखित टिप्पणी- टीकाकार बाबू जालिम सिंह निवासी अकबरपुर, जिला फैजाबाद ने लिखा है- ‘सृष्टि रचने के पहले सृष्टि-उत्पत्ति-निमित्त जब ईश्वर में इच्छा उठती है, तब एक बड़ा घोर शब्द (ध्वन्यात्मक) अर्थ रहित गूंज के साथ निकलता है; उस शब्द को सुनकर जो जीवन्मुक्त ऋषि होते हैं, वे ॐ- अ, उ, म, में आरोप कर लेते हैं।’
स्वामी विवेकानन्दजी महाराज का वर्णन पढ़िए-देखिए पृष्ठ ३३१ ।
और ॐ को आदि सार शब्द नहीं मानना, इसे केवल त्रिकुटी का ही शब्द मानना किस तरह अयुक्त है, सो इसी भाग के पारा नं०७१ में पढ़िए तथा स्वामी श्री भूमानन्दजी महाराज का वर्णन पढ़िए-
(क)
स्वेदहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम् ।
ध्यान निर्मथनाभ्यासाद्देव पश्येन्निगूढ़वत् ।।
(ख)
प्रणव धनुशरोह्यात्मा ब्रह्मतन्लक्ष्यमुच्यते ।
अप्रमत्तेन वेद्धव्य शरवत् तन्मयो भवेत् ।।
(ग) प्रणवात्मकं ब्रह्म ।’
(घ)
प्रणवात् प्रभवो ब्रह्मा प्रणवात् प्रभवो हरिः ।
प्रणवात् प्रभवो रुद्रः प्रणवोहि परो भवेत ।।


अर्थ- ‘अपने देह को नीचे की अरणि और प्रणव को ऊपर की अरणि करके ध्यान रूप मन्थन से छिपी हुई वस्तु के समान देव को देखें। - “प्रणव धनुष है, आत्मा वाण है, उस वाण का लक्ष्य ब्रह्म है । जितेन्द्रिय पुरुष को उसे सावधानी से वेधना चाहिए । बाण के समान तन्मय हो जाय ।
‘ब्रह्म प्रणवात्मक है।’
‘प्रणव से ब्रह्मा है, प्रणव से हरि है, प्रणव से रुद्र है और प्रणव ही पर तत्त्व है।’
‘परन्तु वर्तमान युग में प्रणव के स्वरूप को बहुत थोड़े लोग ही जानते हैं । अधिक लोग तो ॐकार के उच्चारण को या मन-ही मन जप करने को प्रणव-साधन समझते हैं, परन्तु उपनिषद् के कथनानुसार ॐकार का उच्चारण नहीं किया जा सकता । क्योंकि वह स्वर या व्यंजन नहीं है और वह कण्ठ, होठ, नासिका, जीभ, दाँत, तालु और मुर्द्धा आदि के योग से या इनके घात-प्रतिघात से उच्चारित नहीं होता।

‘अघोषम् अव्यंजनम् अस्वरं च अकण्ठ ताल्वोष्ठम् अनासिकं च।
अरेफजातम् उभयोष्ठ वर्जितं यदक्षरं न क्षरते कदाचित्।।’
-अमृतनाद उपनिषद्


अब प्रश्न यह है कि साधारणतः सभी शब्द कण्ठादि के द्वारा ही ध्वनित होते हैं; परन्तु यदि प्रणव कण्ठादि में वायु के घात-प्रतिघात के बिना ही ध्वनित होता है, तो फिर वह ध्वनि क्या है? और किस प्रकार से, किस उपाय से अथवा किस साधन से वह अनुभूत हो सकती है ? उपनिषदादि में इस ध्वनि को अनाहत नाद कहा गया है । तंत्र विशेष में इसका नाम है ‘अकृतनाद’ । जिस साधन का अभ्यास करने से यह नाद स्वतः ही उत्पन्न होता है, वही इसका वास्तविक साधन है और वही यथार्थ उपाय है- अन्यान्य साधन तो अनुपाय ही है- ‘अनुपायाः प्रकीर्तिताः ।’
(१०७) यह बात युक्तियुक्त नहीं है कि कोई भक्त केवल निर्गुण ब्रह्म के, कोई केवल सगुण बह्म के और कोई केवल सगुण-निर्गुण के परे अनामी पुरुष के उपासक होते हैं । निर्गुण अनामी, मायातीत, अव्यक्त, अगोचर, अलख, अगम और अचिन्त्य हैं अर्थात् इन्द्रिय, मन और बुद्धि के परे हैं । उपासना का आरम्भ मन से ही होगा। अतएव आरम्भ में ही निर्गुण की उपासना नहीं हो सकेगी और अनामी तो साध्य वा प्राप्य है, साधन नहीं है, निर्गुण- उपासना से यह प्राप्त होता है (देखिए भाग ४, पृष्ठ ३१०, पारा ६२-६३) । उपासना का आरम्भ होगा सगुण से ही, पर उपासक पारा संख्या ५९, ६०, ६१, ६२ में किए गए वर्णनों के अनुसार बढ़ते-बढ़ते निर्गुण-उपासक होकर अन्त में अनामी (शब्दातीत) पुरुषोत्तम को प्राप्तकर कृत-कृत्य हो जाएगा । इसके लिए लोकमान्य बालगंगाधर तिलक महोदय के वचन भी पढ़ने योग्य हैं-
देखिए पृष्ठ ३३८ तथा नीचे पढ़ें
‘यह मनुष्यों की अत्यन्त शोचनीय मुर्खता का लक्षण है कि वे इस सत्य तत्त्व को तो नहीं पहचानते कि ईश्वर सर्वव्यापी, सर्वसाक्षी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और उसके भी परे अर्थात अचिन्त्य हैं; किन्तु वे ऐसे नाम-रूपात्मक व्यर्थ अभिमान के अधीन हो जाते हैं कि ईश्वर ने अमुक समय, अमुक वेश में, अमुक माता के गर्भ से, अमुक वर्ण का, नाम का या आकृति का जो व्यक्त स्वरूप धारण किया, वही केवल सत्य है-- और इस अभिमान में फंसकर एक दूसरे की जान लेने तक को उतारू हो जाते हैं।’ (गीता-रहस्य)
सन्त कबीर साहब और गुरु नानक साहब और इनके ऐसे सन्तों को केवल निर्गुण-उपासक और गोस्वामी श्री तुलसीदासजी महाराज तथा श्री सूरदासजी महाराज को केवल सगुण-उपासक जानना भूल है; क्योंकि कबीर साहब और गुरु नानक साहब गुरु-मूर्त्ति का ध्यान भी बतलाते हैं, जो स्थूल सगुण-उपासना ही हुई ।
यथा—
मूलध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।।
मूल नाम गुरु बचन है, मूल सत्य सत भाव ।।
गुरु साहेब करि जानिये, रहिये शब्द समाय ।
मिलै तो दण्डवत बन्दगी, पल पल ध्यान लगाय ।।
-संत कबीर साहब

गुरु की मूरति मन महि धिआनु ।
गुरु कै शबदि मंत्र मनु मानु ।।
गुरु के चरन रिदै लै धारउ ।
गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ ।।
गुरु नानक साहब


और गुसाईं तुलसीदासजी महाराज जहाँ सगुण राम की प्रेममयी कथा और भव्य माहात्म्य को बहुत सुन्दर विस्तारपूर्वक अपने ‘रामचरितमानस’ में गाते हैं, वहाँ उसी में, दोहावली में और विनय-पत्रिका में वे राम के निम्नलिखित स्वरूप का भी वर्णन करते हैं । वे राम को तुरीयावस्था में पहुँचकर भजने के लिए कहते हैं, पुनः देशकालातीत और अतिशय द्वैत-वियोगी पद का तथा उसके महत्त्व का वर्णन कर, भक्त को अन्तर-मार्गी बन, वहाँ तक पहुँचकर संशयों को निर्मूल कर नष्ट कर देने के लिए कहते हैं । वे रामनाम को अकथ तथा निर्गुण भी कहते हैं; यथा-
एक अनीह अरूप अनामा ।
अज सच्चिदानन्द पर धामा ।।’

सोरठा-
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।

जग पेखन तुम देखनिहारे ।
विधि-हरि सम्भु नचावनिहारे ।।
तेउ न जानहिं मरम तुम्हारा ।
और तुमहिं को जाननहारा ।।
सोइ जानहि जेहि देहु जनाई ।
जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई ।।
चिदानन्दमय देह तुम्हारी ।
विगत विकार जान अधिकारी ।।
नर तनु धरेउ सन्त सुर काजा ।
करहु कहहु जस प्राकृत राजा ।।
जो माया सब जगहिं नचावा ।
जासु चरित लखि काहु न पावा ।।
सो प्रभु भ्रू विलास खगराजा ।
नाच नटी इव सहित समाजा ।।
सोइ सच्चिदानन्द घन रामा ।
अज विज्ञान रूप बल धामा ।।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता ।
सबदरसी अनवद्य अजीता ।।
निर्मल निराकार निर्मोहा ।
नित्य निरंजन सुख सन्दोहा ।।
प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी ।
ब्रह्म निरीह विरज अविनासी ।।
इहाँ मोह कर कारन नाहीं ।
रवि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।।

दो॰-
भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
यथा अनेकन भेष धरि, नृत्य करै नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ ।।

दो॰-
निर्गुन रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोइ ।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होइ ।।
-रामचरितमानस

दो॰-
हिय निर्गुन नयनन्हि सगुन, रसना राम सुनाम ।
मनहु पुरट सम्पुट लसत, तुलसी ललित ललाम ।।
-दोहावली


राम-नाम निर्गुण और अकथ है, इसके वर्णन की चौपाइयों को पृष्ठ ३०४, पारा ४ में देखिए । और नाम के विशेष वर्णन को जानने के लिए इसी चौथे भाग के पृष्ठ ३०८, पारा ३५ और पृष्ठ ३१४, पारा ५८ को पढ़िए । इन बातों से प्रकट है कि गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज आन्तरिक आदि निर्गुण नाद के भी ज्ञाता और उपासक थे । इस अन्तिम उपासना के बिना कोई अद्वैत, देश- कालातीत, अनाम पद तक पहुँचे, सम्भव नहीं है । यदि इस उपासना के बिना ही कथित अद्वैत पद तक किसी अन्य उपासना से भी पहुँच हो, तो नादानुसंधान वा सुरत-शब्द-योग की विशेषता नहीं मानने योग्य है और नादानुसंधान की विशेषता मिटते ही सन्तमत की भी विशेषता मिट जाएगी । परन्तु ऐसा होना युक्तिवाद के अनुकूल नहीं है, इसलिए यह सम्भव नहीं ।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज अन्तर में राम को प्राप्त करना और तुरीयावस्था प्राप्त कर राम का भजन करना भी बतलाते हैं । इसके लिए उनकी ‘विनय-पत्रिका’ में लिखित उनके इन पद्यों को पढ़िए-

राग सोरठा-
रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार जानइ सो जेहि बनि आई ।।१।।
जो जेहि कला कुशल ता कहँ सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल प्रवाह सुरसरी बहइ गज भारी ।।२।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ बलतें नहिं विलगावै।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलिका बिनु प्रयास ही पावै ।।३।।
सकल दृश्य निज उदर मेलि सोवइ निद्रा तजि जोगी।
सोइ हरिपद अनुभवइ परम सुख अतिशय द्वैत वियोगी ।।४।।
शोक मोह भय हरष दिवस निशि, देश काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दशा हीन, संशय निर्मूल न जाहीं ।।५।।

राग असावरी-
श्री हरि गुरु पद-कमल, भजहिं मन तजि अभिमान ।
जेहि सेवत पाइय हरि, सुख निधान भगवान ।।१।।
परिवा प्रथम प्रेम बिनु, राम मिलन अति दूर ।
जद्यपि निकट हृदय निज, रहै सकल भरपूर ।।२।।
दुइज द्वैत मत छाड़ि, चरहि महि मंडल धीर ।
विगत मोह माया मद, हृदय सदा रघुवीर ।।३।।
तीज त्रिगुन पर परम पुरुष श्री रमन मुकुन्द ।
गुन सुभाव त्यागे बिना, दुरलभ परमानन्द ।।४।।
चौथ चारि परिहरहु, बुद्धि मन चित्त अहंकार ।
विमल विचार परमपद, निज सुख सहज उदार ।।५।।
पाँचइ पाँच परस रस, शब्द गन्ध अरु रूप ।
इन्ह कर कहा न कीजिये, बहुरि परब भव-कूप ।।६।।
छठि षड़ बरग करिय जय, जनक-सुता पति लागि।
रघुपति कृपा वारि बिनु, नहिं बुझाइ लोभागि।७।।
सातइँ सप्तधातु निरमित तनु, करिय विचार ।
तेहि तनु केर एक फल, कीजिये पर उपकार ||८||
आठइँ आठ प्रकृति पर, निरविकार श्री राम ।
केहि प्रकार पाइये हरि, हृदय बसहिं बहु काम ||६||
नवमी नवद्वार पुर बसि, न आपु भल कीन ।
ते नर जोनि अनेक भ्रमत दारुन दुख दीन ।।१०।।
दसइँ दसहु कर संजम, जौं न करिय जिय जानि ।
साधन वृथा होइ सब मिलहि न सारंगपानि ।।११।।
एकादशी एक मन, बस कैसहुँ करि जाइ ।
सो व्रत कर फल पावइ, आवागमन नसाइ ।।१२।।
द्वादसि दान देहु अस, अभय होइ त्रय लोक ।
पर हित निरत सुपारन, बहुरि न व्यापइ शोक ।।१३।।
तेरसि तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवन्त ।
मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनन्त ।।१४।।
चौदसि चौदह भुवन, अचर चर रूप गोपाल ।
भेद गये बिनु रघुपति, अति न हरहिं जगजाल ।।१५।।
पूनो प्रेम भगति रस, हरि रस जानहिं दास ।
सम शीतल गत-मान ज्ञान-रत विषय-उदास ।।१६।।
त्रिविध शूल होली जारिय, खेलिय अस फागु ।
जौं जिय चहसि परम सुख, तौ यहि मारग लागु ।।१७।।
श्रुति पुराण बुध सम्मत, चाँचरि चरित मुरारि ।
करि विचार भव तरिय, परिय न कबहुँ जमधारि ।।१८।।
संशय शमन दमन दुख, सुख-निधान हरि एक ।
साधु-कृपा बिनु मिलहिं नहीं; करिय उपाय अनेक ||१६||
भव सागर कहँ नाव शुद्ध, सन्तन्ह के चरन ।
तुलसिदास प्रयास बिनु मिलहिं राम दुख हरन ।।२०।।


राग कल्याण-
एहि ते मैं हरि ज्ञान गँवायो ।
परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं,
बाहर फिरत विकल भय धायो ।।१।।
ज्यों कुरंग निज़ अंग रुचिर मद,
अति मति हीन मरम नहिं पायो ।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल,
परम सुगन्ध कहाँ तें आयो ।।२।।
ज्यों सर विमल वारि परिपूरन,
ऊपर कछु सेंवार तृन छायो ।
जारत हियो ताहि तजिहौं शठ,
चाहत एहि विधि तृषा बुझायो ।।३।।
व्यापित त्रिविध ताप तन दारुन,
तापर दुसह दरिद्र सतायो ।
अपने धाम नाम सुरतरु तजि,
विषय बबूर बाग मन लायो ।।४।।
तुम्ह सम ज्ञान निधान मोहि सम,
मूढ़ न आन पुरानन्हि गायो ।
तुलसिदास प्रभु यह विचारि जिय,
कीजै नाथ उचित मन भायो ।।५।।


जबकि गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज श्री राम के नर शरीर का भी और चिदानन्दमय शरीर का भी वर्णन करते हैं, तब शरीर से शरीरी को फुटाकर समझने से शरीरी शरीर से अवश्य ही तत्त्वरूप में भिन्न, उच्च-उत्कृष्ट और विशेष होता है, इसलिए यह अवश्य मानना पड़ता है कि गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने श्री राम के स्वरूप को सच्चिदानन्द रूप से भी उत्कृष्ट और उच्च शुद्ध आत्मस्वरूप वर्णन किया है !
ऐसे ही सूरदासजी महाराज के भी इन पद्यों को पढ़िए-

अपुनपौ आपुन ही में पायो ।
शब्दहिं शब्द भयो उजियारो, सतगुरु भेद बतायो ।।
ज्यों कुरंग नाभी कस्तूरी, ढूँढ़त फिरत भुलायो ।
फिर चेत्यो जब चेतन ह्वै करि, आपुन ही तन छायो ।।
राज कुँआर कण्ठे मणि भूषण भ्रम भयो कह्यो गँवायो ।
दियो बताइ और सतजन तब तनु को पाप नसायो ।।
सपने माहिं नारि को भ्रम भयो बालक कहुँ हिरायो ।
जागि लख्यो ज्यों को त्यों ही है ना कहुँ गयो न आयो ।।
सूरदास समुझे की यह गति मन ही मन मुसकायो।।
कहि न जाय या सुखकी महिमा ज्यों गूंगो गुड़ खायो ।।


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जौ लौं सत्य स्वरूप न सूझत ।
तौं लौं मनु मनि कण्ठ विसारे फिरत सकल बन बूझत ।।
अपनो ही मुख मलिन मन्द मति, देखत दरपन माँह ।
ता कालिमा मेटिवे कारण, पचत पखारत छाँह ।।
तेल तूल पावक पुट भरि धरि बनै न दिया प्रकाशत ।
कहत बनाय दीप की बातें कैसे हो तम नासत ।।
सूरदास जब यह मति आई, वे दिन गये अलेखे ।
कह जाने दिनकर की महिमा, अन्ध नयन बिनु देखे ।।


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अपने जान मैं बहुत करी।।
कौन भाँति हरि कृपा तुम्हारी,
सो स्वामी समुझी न परी।।
दूरि गयो दरसन के ताईं ,
व्यापक प्रभुता सब बिसरी।
मनसा वाचा कर्म अगोचर,
सो मूरति नहिं नैन धरी।।
गुण बिनु गुणी स्वरूप रूप
बिनु नाम लेत श्री श्याम हरी।
कृपासिन्धु अपराध अपरिमित,
क्षमो सूर तें सब बिगरी।।


इन सन्तों के ऐसे वर्णनों को पढ़कर इनको केवल कवि ही जानना, इन्हें सन्त नहीं मानना, मेरे जानते इनका अकारण ही अनादर करना है । और जो लोग इनको केवल स्थूल-सगुण-उपासक ही मानते हैं, वे इनके परम उच्च गम्भीर ज्ञान और इनके ध्यान की पूर्णता को विदित नहीं करके इनके परम उच्च पद को न्यून करके दरसाते हैं ।         

326.

सैद्धान्तिक एकता का दिग्दर्शन --->>>

यथालब्ध वेदों, उपनिषदों, गीतादि सद्ग्रन्थों, ऋषियों, सन्तों, उच्चकोटि के उपासकों, मनीषियों और प्रकाण्ड एवं सुप्रसिद्ध विद्वानों की पवित्र वाणियाँ उपस्थित की जा चुकी हैं और अन्त में महर्षि मेँहीँ परमहंसजी की भी सारगर्भित वाणी अंकित कर दी गयी है; अब उपस्थित सारे तथ्यों का सूक्ष्म अनुशीलन करते हुए हम उनके सिद्धान्तों, विचारों, उपदेशों और निर्देशों को भली भाँति परखें, समझें एवं समालोचनापूर्वक जन-कल्याण के लिए उसे एक निश्चित निर्णय के रूप में रखें, जिससे सभी वास्तविकता से परिचित हो परोक्ष ज्ञान के मुक्त आकाश में निश्चिन्तता से साँस ले सके ।
चौरासी लाख योनियों में मनुष्य शरीर सर्वश्रेष्ठ माना गया है; क्योंकि इस शरीर को प्राप्त कर जीवात्मा अपने सारे अनिच्छित दुःखों को छोड़कर असीम, अनन्त आनन्द को उपलब्ध कर लेता है, जिसकी फिर कभी समाप्ति नहीं होती । यह शाश्वत सुख और शान्ति दूसरे किसी भी शरीरों द्वारा प्राप्त होना सम्भव नहीं- यहाँ तक कि दिव्य देव-शरीर के द्वारा भी नहीं; इसलिए मानवशरीर को देव-दुर्लभ और महान भाग्य की वस्तु कहा गया है-
बड़े भाग मानुष तन पावा ।
सुर दुर्लभ सद्ग्रन्थहिं गावा ।।
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा ।
पाइ न जेहि परलोक सुधारा ।।
सो परत्र दुख पावई,
सिर धुनि धुनि पछिताइ ।
कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं,
मिथ्या दोष लगाइ ।।
एहि तन कर फल विषय न भाई।
स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई ।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी

यह सर्वश्रेष्ठ देहधारी मनुष्य क्या चाहता है ? उत्तर-अमर अस्तित्व (सत्), सम्पूर्ण ज्ञान (चित्) और अविनाशी अखण्ड आनन्द । उपनिषदों में इसे सच्चिदानन्द कहा गया है । चूँकि इस सच्चिदानन्द का भी एक मण्डल है और सत्, चित् एवं आनन्द की अलग-अलग सत्ता मान लेने से वह स्वभावतया ही सीमित हो जाते हैं । अतः सन्त लोगों ने उस सर्वोच्च तत्त्व को सच्चिदानन्द के पार में कहकर उसकी अखण्ड-सतत एकता और अनन्तता को निर्देशित किया है। उस अनन्त को अनन्त, अनाम परमात्मा, गॉड, खुदा, परात्पर ब्रह्म, सगुण-निर्गुणातीत, क्षर-अक्षरातीत, शब्दातीत, नामरूपातीत, निर्वाणपद, परमपद, अहुरमज्द, ताओ, परधाम, परमपुरुष, पुरुषोत्तम आदि नामों से सन्त-ऋषिगण अभिव्यक्त करते हैं ।
घोर से घोरतर नास्तिक और जड़वादी मनुष्य भी अमर अस्तित्व, पूर्ण ज्ञान और अखण्ड आनन्द की अवश्य ही वांछा और कामना करते हैं, फिर उनकी खोजों से यदि अभी तक यही पता लगा है कि सृष्टि का मूल ‘मैटर’ है और उसका सूक्ष्मतम रूप वह विद्युत ‘त्रसरेणु’ है, जिन में एक अणु की चारों ओर दूसरा अणु निरन्तर-अविरल गति से चक्कर काट रहा है और तीसरा अणु निरपेक्ष भाव से अवस्थित हो उनकी क्रियाओं को देख रहा है, तो इससे परितृप्ति और अविचल शान्ति की प्राप्ति कहाँ हुई? इसीलिए मनुष्यों को अन्ततः उसकी खोज में चलना ही पड़ेगा, जिसे पाकर उसकी स्वाभाविक भूख, अनन्त सच्चिदानन्द पाने की भूख, मिट जाय । सभी के अन्तर में इसके लिए स्वाभाविक प्रेरण होने के कारण ऐसी खोज अनिवार्य है । तो मनुष्य इसके अन्वेषण में कहाँ-कहाँ भटकता फिरे?
वेदोपनिषद् के महान ऋषि इसके लिए मानव मात्र को पुकार रहे हैं -
‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत क्षुरस्य धारा
निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।१४।।
-सामवेदोक्त केनोपनिषद्, अध्याय १ वल्ली ३

ओ शान्ति-सुख के सच्चे अन्वेषकों! उठो, इसकी खोज में तुम हिम्मत खोकर सो मत जाओ, जागो-सचेतन होकर अन्वेषण-पथ में आगे बढ़ो-- व्यर्थ का भटकना छोड़कर तुम श्रेष्ठ पुरुषों के पास-- उनकी शरण में जाकर उस परम तत्त्व को पाने का साधन जानो और निर्भयता से उस रास्ते का अनुसरण करो । वे तत्त्वज्ञानी लोग इस मार्ग को तीक्ष्ण छूरे की धार पर चलने सदृश दुस्तर-दुर्गम बतलाते हैं । क्यों? - इसका उत्तर वे (दूसरे श्लोक में) देते हैं-
‘अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथारसं नित्यमगन्धवच्चयत्।
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्यु मुखात्प्रमुच्यते।।’

इसलिए कि वह पाँचो ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ग्रहण होने योग्य नहीं है । वह शब्दहीन है, अत: कान से उसे नहीं सुना जा सकता । वह स्पर्श रहित है, इसलिए त्वचा उसे नहीं छू सकती । वह रूपातीत है, अतएव आँख उसे देख सकने में असमर्थ है । वह रस से परे है, अत: जिहा उसका स्वाद नहीं पा सकती है । वह गन्धहीन है, इसलिए नाकघ्राणेन्द्रिय भी उसकी गन्ध नहीं ले सकती ।
ऐसा जानने के बाद विचार में आता है कि यदि ये पाँचो ज्ञानेन्द्रियाँ उस परमतत्त्व को जानने में असमर्थ है, तो क्या मन-बुद्धि आदि सूक्ष्म इन्द्रियाँ उसे जान सकती है ? इसके उत्तर में भी कहा गया है कि वह महतत्त्व से भी परे है । यह ‘महतत्त्व’ क्या है ? महतत्त्व है साम्यावस्थाधारिणी मूल जड़ात्मक प्रकृति का क्षुब्ध या विकृत भाग, जिसे कारण प्रकृति भी कहते हैं - ‘जहाँ से सृष्टि-क्रिया का आरम्भ होता है । इस महतत्त्व से ही मन, बुद्धि, चित्त, अहंकारादि का उद्भव हुआ है, तो महतत्त्व से उत्पन्न होने के कारण ये मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार महतत्त्व को भी जानने की शक्ति नहीं रखते, फिर उससे भी परे---सूक्ष्मतम तत्त्व को जान ही कैसे सकते हैं ?
यह सुनकर मनुष्य स्वभावतः ही सोचने लगता है कि हमारे पास तो किसी वस्तु या तत्व को जानने के ये ही श्रेष्ठ साधन हैं । इनके द्वारा जो तत्त्व नहीं जाना जा सकता, वह या तो है ही नहीं और कदाचित हो भी तो वह सदा के लिए अविज्ञेय ही रहेगा-कभी जानने में नहीं आवेगा ।
बुद्ध्यादि अन्तरेन्द्रियों की इस आकुल जिज्ञासा के प्रशमन के लिए ऋषि पुनः कहते हैं - ‘वह तत्त्व अव्यय है, उसमें कभी घट-बढ़ या परिवर्तन नहीं होता । वह नित्य है, उसका कभी नाश नहीं होता । वह अनादि है, उसका कभी किसी काल में आरम्भ हुआ ही नहीं । वह अनन्त है; उसका कभी और कही अन्त नहीं है । वह ध्रुव है, उसके स्वरूप में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता । उस परम तत्त्व को जानकर मनुष्य मृत्यु के मुख से छूट जाता है यानी वह भी सारे परिवर्तनों से अतीत हो उसी परम तत्त्व के ध्रुव, अनादि अनन्त पद में लीन हो जाता है । संसार की सारी वस्तुएँ- रूप, रस, गन्ध, शब्द एवं स्पर्श के रूप में जानी जाने वाली चीजें मरणशील या परिवर्तनशील हैं, अतः मिलनेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, विषय, दुख -सुखादि सभी अनित्य या नाशवान हैं । इस जगत में या इस जगत की वस्तु-स्थिति में कभी स्थायी, सनातन सुख-शान्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती ।’
अब प्रश्न रह जाता है कि हम उस परमानन्द को जानें और प्राप्त करें कैसे; किस इन्द्रिय, वस्तु या तत्त्व से?
किन्तु इस उत्तर की चर्चा करने के प्रथम इस बात को भी जान लेना चाहिए कि वेद एवं उपनिषदों में परमतत्त्व या परमात्मा के जिस स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, विश्व की श्रद्धेय पुस्तिका श्री मद्भगवद्गीता, वैदिक धर्मियों में सुप्रचारित भक्ति ग्रन्थ श्री मद्भागवत महापुराण, बाइबिल, कुरान, रामायण, रामचरितमानस, तथा विभिन्न भक्तों, साधकों, मनीषियों, विद्वानों आदि ने उसे मान्यता प्रदान की है या नहीं? इसे जानने के लिए अध्येतागणों को इस लेख में संकलित समस्त वाणियों का अनुशीलन करना उपयोगी होगा । ऐसे अनुशीलन से परमात्मस्वरूप के परोक्ष ज्ञान के साथ उन्हें प्राप्त करने के साधनों का भी विशद ज्ञान हो जायगा; फिर भी उसकी थोड़ी चर्चा करना यहाँ आवश्यक है । बारम्बार आवृत्ति-दोष के लिए उदार अध्येतागण क्षमा करें ।
श्री मद्भगवद्गीता अध्याय १५ श्लोक १६, १७ एवं १८ का अर्थ- ‘हे अर्जुन इस लोक में क्षर (नाशवान) और अक्षर (अविनाशी), ये दो प्रकार के पुरुष हैं । इनमें सभी भूतों (प्राणियों) के शरीर को क्षर पुरुष और उस शरीर में निवास करने वाले कूटस्थ अपरिवर्तनशील आत्मा को अक्षर पुरुष कहा जाता है ।। १६ ।। उन दोनों में अर्थात् क्षर एवं अक्षर पुरुषों से उत्तम पुरुष (तीसरा) तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों में प्रविष्ट करके सबका धारण और पोषण करता है । उस अपरिवर्तनशील परमेश्वर को ही ‘परमात्मा’ शब्द से अभिघोषित किया जाता है ।।१७ ।। क्योंकि मैं क्षर पुरुष से परे हूँ और अक्षर पुरुष से भी उत्तम हूँ, इसीलिए लोक-वेद में मैं पुरुषोत्तम नाम से सुप्रसिद्ध हूँ ।।१८।।’
श्री मद्भगवद्गीता अध्याय ७ श्लोक २४ एवं २५ का अर्थ- ‘बुद्धिहीन लोग परंभावमय, नहीं जन्मने योग्य, अनन्त, अविनाशी, सबसे उत्तम और सदा अव्यक्त रहनेवाले मेरे स्वरूप को व्यक्त या इन्द्रियगोचर मानते हैं; क्योंकि मेरा आत्मस्वरूप योगमाया से ढंका हुआ रहने के कारण वह सभी के लिए प्रत्यक्ष नहीं है । इसीलिए मूढ़ लोग मेरे नहीं जन्मनेवाले अविनाशी स्वरुप को नहीं जान पाते ।’
श्री मद्भागवद्, स्कन्ध ११, अध्याय ११, श्लोक ३६, एवं ३७ का अर्थ -
‘शब्दब्रह्म अत्यन्त दुर्बोध है, वह प्राणमय, मनोयम और इन्द्रियमय–तीन प्रकार का है तथा समुद्र के समान अनन्तपार, गम्भीर और कठिनता से पार किए जाने योग्य है ।।३६ ।। मुझ अनन्त शक्तिवाले व्यापक ब्रह्म ने ही उस शब्दब्रह्म का विस्तार किया है यह (शब्दब्रह्म) सर्वप्रथम प्राणियों के अन्तःकरण में कमलनालगत सूक्ष्म तन्तु के समान नाद रूप से प्रगट होता है ।’
पवित्र बाइबिल-सेण्टमेथ्यू, अध्याय ७ का अनुवाद - ‘आदि में शब्द था और शब्द परमात्मा के संग था और शब्द ईश्वर था ।’ .
बाबा देवी साहब द्वारा मुहम्मद साहब की वाणी की व्याख्या - ‘ऐसी बहुत-सी बातें मुहम्मद साहब ने अप्रकट रूप में लिखी है जिनको हर कोई नहीं समझ सकता । आरम्भ में जो बिस्मिल्लाह पढ़ी जाती है- ‘बिस्मिल्लाह इरेहमान उर्रहीम’ अर्थात् ‘शुरू करता हूँ मैं साथ नाम अल्लाह के, जो रहमान और रहीम है। इसमें विचारने की बात है कि जब अल्लाह आ ही गया, तो ‘नाम’ लिखने की क्या आवश्यकता है? ‘साथ’ नाम अल्लाह के यह ‘नाम’ एक भेद की बात है । आप जानते हैं नाम तो कोई शब्द ही होता है, यह शब्द मनुष्य के अन्दर है, इसका अभ्यास अन्दर किया जाता है, जिसके करने से मनुष्य खुदा तक पहुँच सकता है। ऐसा ही बाइबिल में भी जॉन की इंजील के आरम्भ में आया है- ‘आरम्भ में शब्द था, शब्द खुदा के साथ था, शब्द ही खुदा था ।’ यह वही शब्द है, जिसकी बाबत हजरत मुहम्म्द साहब ने बिस्मिल्लाह में बतलाया ।
रामचरितमानस में राम या परमात्मा के स्वरूप का वर्णन –
‘एक अनीह अरूप अनामा।
अज सच्चिदानन्द परधामा ।’
‘राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
‘राम ब्रह्म व्यापक जग जाना ।
परमानन्द परेस पुराना ।।
निज भ्रम नहिं समुझहिं अज्ञानी ।
प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी ।।
यथा गगन घन पटल निहारी ।
झाँपेउ भान कहहिं कुविचारी ।।’
“राम अतर्व्य बुद्धि मन वानी ।
मत हमार अस सुनहिं सयानी ।।’
गो गोचर जहँ लगि मन जाई।
ते सब माया जानहु भाई ।।

भक्त प्रवर सूरदासजी की वाणी –
‘अपने जान मैं बहुत करी ।
कौन भाँति हरि कृपा तुम्हारी, सो स्वामी समुझी न परी ।।
दूरि गयो दरसन के ताई, व्यापक प्रभुता सब विसरी ।
मनसा वाचा कर्म अगोचर, सो मूरति नहिं नैन धरी ।।
गुण बिनु गुणी स्वरूप रूप बिनु, नाम लेत श्री श्याम हरी ।
कृपा सिन्धु अपराध अपरमित, क्षमो सूर तें सब बिगरी ।।


महर्षि मेँहीँ परमहंसजी ने परमात्मा के स्वरूप का वर्णन चौथे भाग में विस्तार से कर ही दिया है, फिर भी उनका एक पद यहाँ उपस्थित किया जा रहा है - कजली
‘प्रभु अकथ अनाम अनामय स्वामी गो गुण प्रकृति परे।।टेक।।
क्षर अक्षर प्रभु पार परमाक्षर जा पद संत धरे।।
अगुण सगुण पर पुरुष प्रकृति पर सत्त असतहु परे।।१।।
अनन्त अपारा सार के सारा जा भजि जीव तरे।
‘मेँहीँ कर जोरे प्रभुहिं निहोरे करु उधार हमरे ।।२।।

यद्यपि परमात्मा सदा-सर्वदा एक ही हैं, परन्तु भाषा-भेद और वर्णन करने के प्रकार-भेदों से कुछ लोग अपनी कम बुद्धि के कारण उसे भिन्न-भिन्न समझ बैठते हैं । ऐसी सुप्त चेतनावालों को परमात्मा की एकस्वरूपता का समझाना सरल है, किन्तु जिन विशाल बुद्धिवालों ने परमात्म-स्वरूप की भिन्न-भिन्न रेखाएँ खींची हैं, उनको या उस विचार को बुद्धिपूर्वक स्वीकार करनेवाले को कौन समझाए! अद्वैतवाद, द्वैतवाद, त्रैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, विशुद्धाद्वैतवाद अचिन्त्यभेदाभेदवाद, सगुणवाद, निर्गुणवाद आदि वादों की विभिन्नताओं के सम्बन्ध में ऋषि-सन्तगणों तथा महर्षि मेँहीँ परमहंसजी ने या वेद, उपनिषद्, गीतादि सद्ग्रन्थों ने जो कुछ कहा है, वह किसी भी वाद के विरोध में नहीं पड़ता । उसमें सभी सत्यों का समान आदर है । सृष्टि के अनेक भेद-उपभेद हैं - चेतनाओं के असंख्य और विविध स्तर एवं लोक हैं । एक लोक या स्तर का सत्य अन्य लोकों में नहीं मिलने पर भी वह अपने लोक का सत्य तो है ही । सभी मनुष्य जाग्रत, तन्द्रा, स्वप्न और नीन्द को जानते हैं । चेतना के इन स्थान-भेदों से ज्ञान-भेद हो जाता है- इसे भी सभी जानते हैं । इन दशा-भेदों के अतिरिक्त और भी दो भेद है । तन्त्र में एवं उपनिषद् में चेतनात्मा की पाँच अवस्थाएँ मानी गयी है- जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय और तुरीयातीत ।
पंचावस्थाः जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयतुरीयातीताः ।
सर्व परिपूर्ण तुरीयातीत ब्रह्मभूतो योगी भवति ।।
-मण्डल ब्राह्मणोपनिषद्

तुरीयातीत सर्वोच्च और अन्तिम अवस्था है। तुरीय और तुरीयातीतावस्था की प्राप्ति योग- ज्ञान-भक्ति-उपासना से होती है । अवस्था-भेद के लिए स्थान-भेद होना अनिवार्य है। कृष्णयजुर्वेद के ब्रह्मोपनिषद् में कहा गया है –
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् ।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्नि संस्थितम् ।।

भा॰- जीवात्मा का निवास जाग्रत में आँखों में, सपने में कण्ठ में, सुषुप्ति में हृदय में तथा तुरीयावस्था में मस्तक में होता है ।
यह चौथी तुरीयावस्था उपासना-साध्य है, अवशिष्ट तीन अवस्थाओं की भाँति स्वभावतया नहीं आती । इस तुरीय दशा से तुरीयातीत दशा की दूरी के मध्य चेतना के अनेक स्तरों में भिन्न-भिन्न अनुभूति जन्य ज्ञानों की उपलब्धि होती है । इन सब वस्तुस्थितियों को अस्वीकार कर यदि कोई ऐसा कहे कि जाग्रत दशा में जो कुछ हम जानते और समझते हैं, वही एक मात्र सत्य है और शेष सारी दशाएँ काल्पनिक विकल्प मात्र है; तो कहना पड़ेगा कि ऐसे दुराग्रह से तत्त्वान्वेषण का कार्य अवरुद्ध हो जाता है । यद्यपि यह सभी की अनुभूत बात है कि बिना समुचित निद्रा का उपयोग किए जाग्रत-दशा में सोचने-विचारने एवं कार्य करने की गति में अचैतन्य का दबाव बढ़ने लगता है । इसलिए सुषुप्ति-दशा के सत्य को विवशता से स्वीकार करना पड़ता है।
निष्ठाशील सत्यान्वेषियों को दुराग्रह परित्यागपूर्वक किसी अनुभवी की शरण में जाकर उनके द्वारा बताए गए मार्ग पर अत्यन्त सावधानी और चेतनता सहित अभिसरण और अभिक्रमण करना चाहिए, तभी उस अनुभव ज्ञान को सत्य या असत्य कहने के वास्तविक अधिकारी वे हो सकेंगे, जिस भाँति वैज्ञानिकों के काल्पनिक ज्ञान को प्रयोग द्वारा जानकर ही उसे सत्य या असत्य कहने की दावी कोई कर सकते हैं । जो सत्यान्वेषी या सच्चे जिज्ञासु नहीं हैं, जो सत्य को जानने और नहीं जानने की परवाह नहीं कर परिश्रम की कठिनाई से घबड़ाते हैं, ऐसे प्रमाद-सुख-मोहित, कोमल विलासी बुद्धिवाले जो समझें, उनके लिए वही ठीक है।
जाग्रत में हम पंच ज्ञानेन्द्रियों सहित मन-बुद्धि से इस स्थूल विश्व की वस्तुओं को जान पाते हैं । स्वप्न में इन स्थूल इन्द्रियों के नहीं होने पर भी इनके सूक्ष्म रूपों-द्वारा उस दशा को देखते हैं । सुषुप्ति की अबोध चैतन्य दशा का बोध जाग्रत होने पर हम पाते हैं और यह भी जान पाते हैं कि उस दशा में पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ एवं चारों अन्तरेन्द्रियाँ निष्क्रिय स्थिति में थी।
सबोध चैतन्य दशा में उक्त सारी इन्द्रियों की गति का बाध या निरोध होने पर ही तुरीय दशा की प्राप्ति होती है। जिस प्रकार निद्रा-अप्राप्त मनुष्यों को निद्रा की दशा का पूरा-पूरा ज्ञान कराना असम्भव सा है, उससे भी अधिक असम्भव है हम त्रिदशाभुक्त जीवों को तुरीयावस्था की स्थिति को समझा देना । इस तुरीय दशा में ब्रह्म-ज्योति के दर्शन एवं आहत और संघात से रहित शब्दों के श्रवण किये जाते हैं । जाग्रत दशा के दर्शन और श्रवण से इसकी कोई—किसी भाँति की तुलना करना अनुपयुक्त और व्यर्थ है । तुरीयावस्था में आत्मा-परमात्मा के सगुणसाकार, सगुण-निराकार एवं निर्गुण-निराकार रूपों के दर्शन और अनुभव होते हैं और तुरीयातीत अवस्था में आत्मा या परमात्मा के परिशुद्ध निज रूप का ज्ञान या बोध हो जाता है । जब तुरीय दशा का वर्णन भी हमारी बुद्धि को किसी बोध को प्राप्त कराने में असमर्थ है, तब तुरीयातीत के अनुभव को बुद्धि और वाणीगत करना तो सर्वथा असम्भव ही है । अतः चातुरी या विज्ञता इसी में है कि हम साधन-मार्गों से स्वयं वहाँ पहुँचकर उसका अनुभव करें । फिर अद्वैत, द्वैत और त्रैतादिक के बौद्धिक समाधानों की आवश्यकता ही नहीं रहेगी, जिस भाँति मानसरोवर के मधुमय दर्शन करनेवालों के समक्ष अदर्शी पुरुषों द्वारा उसके काल्पनिक वर्णन की व्यर्थता है।
इतनी बातें समझ लेने के उपरान्त भी बुद्धि की स्वाभाविक वृत्ति है कि हम सर्वोच्च सत्ता या परमात्मतत्त्व के विषय में परोक्ष ज्ञानात्मक ही सही, पर एक सुस्थिर निर्णय अवश्य कर लें ।
देश, काल, दिशा, सत्ता, ज्ञान, आनन्द, बल, शान्ति, सौन्दर्य, माधुर्य, कल्याण आदि किसी भी दृष्टि से विचार करें, बुद्धि में सभी की एक मर्यादा और सीमा की प्रतीति होती है । पर इसके समक्ष जब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इन मार्यादाओं सीमाओं-सान्तों के पार में क्या है? तो इसका उत्तर ‘अनन्त’ बिना दिए बुद्धि को कभी सन्तोष नहीं होता । दो चार या असंख्य सीमित-वस्तुओं का योग भी सीमित या सान्त ही होगा । तो क्या एकाधिक अनन्त हो सकते हैं? दो अनन्त की अवस्थिति बुद्धि को कभी स्वीकार नहीं होती। अतः जो सभी तात्त्विक विचारों से एक और अनन्त है, वही परमतत्त्व परमात्मा, पुरुषोत्तम, गॉड, खुदा, ताओ और अहुरमज्द है । कोई उस तत्त्व को मैटर या प्रकृति नाम से ही बोध करे, तो इस बाह्यवर्णात्मक शब्द-रूपों से उनकी सत्ता में कोई विकृति नहीं आती और न किसी भाँति आ ही सकती है। जो अनन्त हैं, वे अपरम्पार शक्तियुक्त, अखण्ड-आनन्दमय, सम्पूर्ण ज्ञान रूप एवं नित्य सत्य या अविनाशी अवश्य ही हैं । इसमें बुद्धि को कोई सन्देह नहीं होता ।
तो क्या इस अनन्त का कोई व्यक्त स्थूल या इन्द्रियगोचर रूप हो सकता है ? कितने ही विस्तृत-से-विस्तृत रूप की कल्पना की जाय, पर उसकी एक सीमा अवश्य होगी, क्योंकि तभी तो उस रूप को इन्द्रिय-गोचर करना सम्भव हो सकता है । इसीलिए बुद्धि को अनन्त का इन्द्रियों से दिखने या जाननेवाले रूपों का होना स्वीकार्य नहीं। इसी सत्य को सुस्पष्ट करने के लिए ही भगवान श्री कृष्ण को गीता में यह कहने की आवश्यकता हुई कि मेरे अज, अनन्त, अव्यक्त स्वरूप को व्यक्त या शरीरधारी माननेवाला ‘बुद्धिहीन’ है । क्योंकि बुद्धि को अनन्त का जन्म होना या उसका शरीर धारण करना कभी मान्य नहीं । यहाँ अनायास यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि बात ऐसी ही है तो भक्तों ने सगुणब्रह्म, अवतार-दिव्य रूप-धारणादि की चर्चा शास्त्रों में क्यों की है ? इस प्रश्न का भी उत्तर उसी शास्त्रों में पूर्ण भक्तजनों ने और भगवान के पूर्णावतार श्री कृष्णचन्द्रजी ने भी दे दिया है कि वह रूप योगमाया का स्वरूप है, उनका निज स्वरूप नहीं, क्योंकि जितने भी प्रकार के परिवर्तन, हेर-फेर, अदलबदल होते रहते हैं, वे सारे-के-सारे माया के ही हैं, स्वयं परम प्रभु सर्वेश्वर के नहीं; वे तो सदा ही अपरिवर्तित, ध्रुव, निश्चल और अव्यक्त हैं।
भारती भाषा के साहित्य में गोस्वामी तुलसीदासजी तथा भक्तवर सूरदासजी सगुणसाकार भगवान के भक्त कहकर प्रसिद्ध हैं। यह प्रसिद्धि जन-साधारण के हृदय में इतनी गहराई तक गड़ गयी है कि उन्हें यह विश्वास दिलाना असम्भव-सा हो गया है कि ये दोनों महाभक्त भी सन्त कबीर, गुरु नानक एवं वेद वाणियों के द्रष्टा आत्मज्ञ ऋषियों की भाँति ही परमात्मा के सगुण रूप के साथ उनके निर्गुण रूप को भी जानते थे और इन दोनों रूपों की आनुक्रमिक भक्ति करके वे गीता-प्रतिपादित परमात्मा के क्षर-अक्षरातीत या सगुण-निर्गुणातीत अव्यक्त पुरुषोत्तम स्वरूप का भी साक्षात्कार किये हुए थे । इसके साथ ही यह भ्रमात्मक विचार भी उनके मन में जड़ीभूत हो गए हैं कि सन्त कबीर, नानक, दादू, पलटू आदि सत्पुरुष, सगुण रूप या अवतारादि की पूजा-अर्चना के घोर और कट्टरतम विरोधी थे । यह विषय गम्भीर चिन्ता का कारण नहीं बनता, यदि इन अपढ़-अशिक्षित जनता को अपने विचारों से प्रभावित और संस्कारित करनेवाले विद्वत्गण इस विषय की वास्तविकता से परिचित हो जाते । भारती भाषा और सन्त-साहित्य के सुप्रसिद्ध और प्रकाण्ड विद्वान पण्डित श्री परशुराम चतुर्वेदीजी एम॰ ए॰, एल-एल॰ बी॰ की सम्पादित-संकलित पुस्तक ‘सन्त-काव्य’ में उनकी लिखी भूमिका पढ़िए, जो उन्होंने ‘उत्तरी भारत की सन्त-परम्परा’ पुस्तक लिखने के बाद प्रणयन किया है। हम समझते हैं कि उतनी उत्तमता, गहराई और विशालता से बहुत ही कम विद्वानों ने ‘सन्त-साहित्य’ का अध्ययन, मनन, अनुशीलन और सद्भावना के प्रकाश में उसे समझने का प्रयत्न किया है । श्री गणेश प्रसादजी द्विवेदी द्वारा सम्पादित एवं पण्डित परशुराम चतुर्वेदीजी द्वारा संशोधित एवं परिवर्द्धित ‘हिन्दी संत-काव्य-संग्रह’ में श्री द्विवेदीजी द्वारा लिखित भूमिका के प्रथम पृष्ठ में ही सन्त-साहित्य के संबंध में ये विचार प्रगट किए गए हैं -
‘सन्त साहित्य का मुख्य विषय तो परमार्थ-साधन है ही, पर इनका मार्ग, इनके उपदेश, इनके समकालीन अथवा आस-पास के सूर, तुलसी आदि महात्माओं से कुछ भिन्न थे। साकार उपासना इनके मत से ठीक नहीं थी। परमार्थ सम्बन्धी इनके मार्ग और उपदेश अधिक विकसित और व्यापक थे ।’
श्री वियोगी हरि द्वारा सम्पादित ‘सन्तसुधा-सार’ में ‘दो शब्द’ शीर्षक के नीचे जो लिखा है, उसमें भी इसी विचार का शिष्ट-मधुर वाणी में अभिव्यक्तीकरण है। उनकी वाणी इसी लेख के पृष्ठ ३५६ में अंकित है। इन विद्वानों ने अपने ‘सन्तकाव्यों’ में से सूरदासजी तथा गोस्वामी तुलसीदासजी के काव्य या वाणियों को इसीलिए निकाल बाहर कर दिया है।
हम अपनी ओर से विद्वानों को इस विषय में क्या कहें ? वे तो स्वयं ही अपनी सत्यान्वेषीवृत्ति लेकर विशद, सूक्ष्म एवं गम्भीर अध्ययन एवं अनुशीलन में रत हैं । हम केवल सभी ऋषियों, योगियों, सन्तों, भक्तों, ज्ञानियों का एक ही सिद्धान्त, लक्ष्य, विचार या मत है, इससे परिचय कराने के लिए ‘शान्ति-संदेश’ पत्रिका के जनवरी १९६० ईस्वी के अंक से सन्त महर्षि मेँहीँ परमहंसजी के प्रवचनों का आंशिक उद्धरण दे रहे हैं । पूरा प्रवचन आप सदाशय सज्जनवृन्द उसी में पढ़ लेने की कृपा करें और सभी सन्तों-ऋषियों के विचारों की एकता और सामंजस्य को समझने के लिए महर्षि मेँहीँ परमहंसजी लिखित ‘सत्संग-योग, चौथा भाग’ जो पृष्ठ ३६८ से ३९४ में अंकित है तथा उनकी लिखी पुस्तक ‘श्री गीता-योग-प्रकाश’, ‘रामचरितमानस सार-सटीक’, ‘विनय-पत्रिका सार-सटीक’ तथा ‘वेद-दर्शन-योग’ अनुशीलन करने – अध्ययन तथा मनन करने की कृपा करें। हमारा विश्वास है कि उनकी सरलतर वाणियों के सहारे विद्वत्गण सन्तजनों की गम्भीरतम गहन और रहस्यमयी वाणियों को समझने के लिए एक सुनिश्चित सूत्र एवं श्रद्धा-योग्य प्रकाशकिरण पा सकेंगे। अपने इस विश्वास के आधार पर हम लोक-हितैषी मनीषियों से ऐसे स्वाध्याय के लिए अनुरोध, आग्रह और विनय करते हैं । अब महर्षिजी की देहाती-सी कुछ वाणियों का आप रसास्वादन करें-
‘यह बात युक्तियुक्त नहीं है कि कोई भक्त केवल निर्गुण ब्रह्म के, कोई केवल सगुण ब्रह्म के और कोई केवल सगुण-निर्गुण के परे अनामी पुरुष के उपासक होते हैं। निर्गुण; अनामी, मायातीत, अव्यक्त, अगोचर, अलख, अगम और अचिन्त्य है। उपासना का आरम्भ मन से ही होगा; अतएव आरम्भ में ही निर्गुण की उपासना नहीं हो सकेगी और अनामी तो साध्य वा प्राप्य है –साधन नहीं है , निर्गुण-उपासना से यह प्राप्त होता है।
उपासना-विधि इस तरह जाननी चाहिए कि पहले स्थूल सगुणरूप की उपासना, फिर सूक्ष्म सगुणरूप की उपासना, फिर सूक्ष्म सगुण अरूप की उपासना और अन्त में निर्गुण निराकार की उपासना होती है।
मानस जप और मानस ध्यान, स्थूल सगुणरूप-उपासना है, एकविन्दुता वा अणुरूप प्राप्त करने का अभ्यास सूक्ष्म सगुणरूप उपासना है। सार-शब्द के अतिरिक्त अन्तर्नादों का ध्यान, सूक्ष्म, कारण और महाकारण सगुण अरूप-उपासना है और सार-शब्द का ध्यान निर्गुण, निराकार-उपासना है। सम्पूर्ण उपासना की यहाँ समाप्ति है। उपासना को सम्पूर्णत: समाप्त किये बिना शब्दातीत पद (अनाम) तक अर्थात् परम प्रभु सर्वेश्वर तक की पहुँच प्राप्त कर परम मोक्ष का प्राप्त करना अर्थात् अपना परम कल्याण बनाना पूर्ण असम्भव है।
निःशब्द अर्थात् अनाम से शब्द अथवा नाम की उत्पत्ति हुई है। इसके अर्थात् नाम के ग्रहण से इसके आकर्षण में पड़कर, इससे आकर्षित हो नि:शब्द वा शब्दातीत पद वा अनाम तक पहुँचना पूर्ण सम्भव है; क्योंकि शब्द में अपने उद्गम स्थान पर सुरत को आकृष्ट करने का गुण है।
भिन्न-भिन्न इष्टों के माननेवालों के भिन्न-भिन्न इष्टदेव कहे जाते हैं। इन सब इष्टों के भिन्न-भिन्न नाम-रूप होने पर भी सबकी आत्मा अभिन्न ही है। भक्त जबतक अपने इष्ट के आत्मस्वरूप को प्राप्त न कर ले, तबतक उसकी भक्ति पूरी नहीं होती । किसी इष्टदेव के आत्म-स्वरूप को प्राप्त कर लेने पर परम प्रभु सर्वेश्वर की प्राप्ति हो जाएगी, इसमें संदेह नहीं । वर्णित साधनों के द्वारा ही आत्म-स्वरूप की प्राप्ति होगी। प्रत्येक इष्ट के स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण, कैवल्य और आत्मस्वरूप हैं । जो उपासक अपने इष्टदेव के आत्मस्वरूप का निर्णय नहीं जानता और उसकी प्राप्ति का प्रयत्न नहीं करता, परन्तु उसके केवल वर्णात्मक नाम और स्थूल रूप में फँसा रहता है, उसकी मुक्ति अर्थात् उसका परम कल्याण नहीं होगा।
उपासना का आरम्भ स्थूल सगुणरूप से ही होगा, पर उपासक उपर्युक्त उपासनाक्रम के अनुसार बढ़ते-बढ़ते निर्गुण-उपासक होकर अन्त में अनामी (शब्दातीत) पुरुषोत्तम को प्राप्त कर कृतकृत्य हो जाएगा।
सन्त कबीर साहब, गुरु नानक साहब और इनके ऐसे सन्तों को केवल निर्गुण-उपासक और गोस्वामी श्री तुलसीदासजी महाराज तथा श्री सूरदासजी महाराज को केवल सगुण-उपासक जानना भूल है; क्योंकि कबीर साहब और गुरु नानक साहब गुरु-मूर्ति का ध्यान भी बतलाते हैं, जो स्थूल सगुण-उपासना ही हुई। यथा-
मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरू पाँव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ॥
गुरु साहेब करि जानिये, रहिये शब्द समाय ।
मिलै तो दण्डवत बन्दगी, पल पल ध्यान लगाय ॥
–सन्त कबीर साहब


‘सतिगुर की मूरति हिरदै बसाये ।
जो इछै सोई फलू पाये ।।’
‘अन्तरि गुरु आराधणा, जिह्वा जपि हरि नाउ ।
नेत्री सतिगुरु पेखणा, स्रवणी सुनणा गुरु नाउ ॥’
‘गुर की मूरति मन महि धियानु ।
गुर कै सबदि मन्त्र मनु मानु ॥
गुर के चरण रिदै लै धारउ ।
गुर पारब्रह्म सदा नमसकारउ ॥
मत को भरमि भूलै संसारि ।
गुर बिन कोई न उतरसि पारि ॥’
-गुरु नानकदेव

(महर्षिजी द्वारा अंकित गुरु नानकदेव के और पद छोड़ दिये गये हैं। - लेखक)
गोसाईं तुलसीदासजी महाराज जहाँ सगुण राम की प्रेममयी कथा और भव्य माहात्म्य को बहुत सुन्दर, विस्तारपूर्वक अपने ‘रामचरितमानस’ में गाते हैं, वहाँ उसी में, ‘दोहावली’ में और ‘विनय-पत्रिका’ में वे राम के निम्नलिखित स्वरूप का भी वर्णन करते हैं । वे राम को ‘तुरीयावस्था’ में पहुँचकर भजने को कहते हैं, पुनः देश-कालातीत और अतिशय द्वैत वियोगी पद का तथा उसके महत्व का वर्णन कर भक्त को अन्तर्मार्गी बन, वहाँ तक पहुँच, संशयों को निर्मूल कर नष्ट कर देने कहते हैं । वे राम को अकथ तथा निर्गुण भी कहते हैं । यथा –
एक अनीह अरूप अनामा ।
अज सच्चिदानन्द परधामा ।।


राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति-नेति नित निगम कह ।।


जग पेखन तुम देखनिहारे ।
विधि हरि शम्भु नचावनिहारे।।
तेउ न जानहिं मरम तुम्हारा ।
और तुमहिं को जाननहारा ।।
सोइ जानहिं जेहि देहु जनाई ।
जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई ।।
चिदानन्दमय देह तुम्हारी ।
विगत विकार जान अधिकारी ।।
नर तनु धरेउ सन्त सुर काजा।
कहहु करहु जस प्राकृत राजा ।।’
जो माया सब जगहिं नचावा ।
जासु चरित लखि काहु न पावा ।।
सो प्रभु भ्रू विलास खग राजा।
नाच नटी इव सहित समाजा ।।
सोई सच्चिदानन्द घन रामा ।
अज विज्ञान रूप बलधामा ।।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता।
अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।
अगुण अदभ्र गिरा गोतीता।
सबदरसी अनवद्य अजीता ।।
निर्मल निराकार निर्मोहा।
नित्य निरंजन सुख संदोहा ।।
प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी।
ब्रह्म निरीह विरज अविनासी ।।
इहाँ मोह कर कारण नाहीं।
रवि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं।।

भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
किये चरित पावन परम, प्राकत नर अनरूप ।।
यथा अनेकन वेष धरि, नृत्य कर नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव दिखावइ, आपुन होइ न सोइ ।।’
‘निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोई।।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होइ ।।’
- रामचरितमानस

‘हिय निर्गुन नयनन्हि सगुन, रसना नाम सुनाय ।
मनहु पुरट सम्पुट लसत, तुलसी ललित ललाम ।।’
- दोहावली

गोस्वामी तुलसीदासजी राम नाम को निर्गुण कहते हैं और निर्गुण शब्द-ब्रह्म के परे की भी चर्चा करते हैं –
‘बन्दउँ रामनाम रघुवर को ।
हेतु कृसानु-भानु-हिमकर को ॥
विधि हरिहरमय वेद प्राण सो ।
अगुण अनूपम गुण निधान सो ॥
नाम रूप दुइ ईश उपाधी ।
अकथ अनादि सुसामुझि साधी ॥’


‘शान्त निरपेच्छ निर्मम निरामय,
अगुण शब्द ब्रह्मैक परब्रह्मज्ञानी ।’
– गो॰ तुलसीदासजी

इन बातों से स्पष्ट है कि गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज आन्तरिक आदि निर्गुण नाद के भी ज्ञाता और उपासक थे। इस अन्तिम उपासना के बिना कोई अद्वैत, देशकालातीत, अनामपद तक पहुँचे, सम्भव नहीं है। यदि इस उपासना के बिना ही कथित अद्वैत पद तक किसी अन्य उपासना से भी पहुँच हो, तो नादानुसन्धान वा सुरत-शब्द-योग की विशेषता नहीं मानने योग्य है और नादानुसन्धान की विशेषता मिटते ही सन्तमत की भी विशेषता मिट जाएगी। परन्तु ऐसा होना युक्तिवाद के अनुकूल नहीं है।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज अन्तर में राम को प्राप्त करना और तुरीयावस्था प्राप्त कर राम का भजन करना भी बतलाते हैं । इसलिए उनकी विनय-पत्रिका के निम्न लिखित पद्यों को पूरा-पूरा पढ़िए- ‘रघुपति भगति करत कठिनाई ।’ पृष्ठ ३९२ में पढें । ‘श्री हरि गुरु पद कमल भजहिं मन तजि अभिमान ।.. तेरसि तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त । मन क्रम वचन अगोचर व्यापक व्याप्य अनन्त ॥ .. तुलसीदास प्रयास बिनु मिलहिं राम दुखहरण।’ ‘यहि ते मैं हरि ज्ञान गंवायो ।’ पृष्ठ ३१३ में पढ़े ।
जबकि गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज श्री राम के नर शरीर का भी और चिदानन्दमय शरीर का भी वर्णन करते हैं, तब शरीर में शरीरी को फुटाकर समझने से शरीर शरीरी से अवश्य ही तत्त्वरूप में भिन्न, उच्च, उत्कृष्ट और विशेष होता है, इसलिए यह अवश्य मानना पड़ता है कि श्री गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने ‘श्री राम के स्वरूप को सच्चिदानन्द से भी उत्कृष्ट और उच्च शुद्ध आत्म-स्वरूप’ वर्णन किया है।
‘प्रकृति और पुरुष से भी परे जाकर उपनिषत्कारों ने यह सिद्धान्त स्थापित किया है कि सच्चिदानन्द ब्रह्म से भी श्रेष्ठ श्रेणी का निर्गुण ब्रह्म ही जगत का मूल है।’
-गीता-रहस्य, अध्यात्म प्रकरण
ऐसे ही सूरदासजी महाराज के भी इन पद्यों को पढ़िये- ‘अपने जान मैं बहुत करी ।’ पृष्ठ ३९३ में देखे । ‘जौ लौं सत्य स्वरूप न सूझत ।’ पृष्ठ ३११ में पढें । ‘अपुनपौ आपुन ही में पायो ।’ पृष्ठ ३११ में पढें ।
इन सन्तों के ऐसे वर्णनों को पढ़कर केवल कवि ही जानना, इन्हें सन्त नहीं मानना, मेरे जानते इनका अकारण ही अनादर करना है। और जो लोग इनको केवल स्थूल सगुण-उपासक ही मानते हैं, वे इनके ‘परम उच्च गम्भीर ज्ञान और ध्यान की पूर्णता को’ विदित नहीं करके इनके ‘परम उच्च पद को न्यून करके’ दरसाते हैं । वस्तुतः कबीर साहब के उच्चतम ज्ञान और गति में और गोसाईं तुलसीदासजी महाराज तथा सूरदासजी महाराज के उत्तम ज्ञान और गति में कुछ भी अन्तर नहीं है। और इन सब सन्तों के भक्ति-साधन में स्थूल सगुण से आरम्भ कर पुनः सूक्ष्म अन्तर्मार्ग में गमन करते हुए सूक्ष्म सगुण आदि उपासना द्वारा आगे बढते हुए अंत को निर्गुण शब्दब्रह्म की उपासना करके सच्चिदानन्द पद से भी ऊपर शुद्ध आत्मस्वरूपी, शब्दातीत और देशकालातीत पद को प्राप्त कर पुरुषोत्तम, अनामी, परम प्रभु परमात्मा का आत्मा द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करके उनसे जा मिलना है।

‘सेवत साधु द्वैत भय भागै।
श्री रघुवीर चरन लय लागै ॥
देह जनित विकार सब त्यागै।
तब फिरि निज सरूप अनुरागै ॥

अनुराग सो निज रूप जो,
जग ते विलच्छन देखिये ।
सन्तोष सम सीतल सदा दम,
देहवन्त न लेखिये ॥
निर्मल निरामय एकरस तेहि,
हरष शोक न व्यापई।
त्रयलोक पावन सो सदा,
जाकी दसा ऐसी भई ॥’
-गोस्वामी तुलसीदासजी

‘ज्यों जल में जल पैठ न निकसै,
यो ढुरि मिला जुलाहा।’
– सन्त कबीर साहब

‘जल तरंग जिउ जलहिं समाइया,
तिउ जोति संग जोति मिलाइया।
कह ‘नानक’ भ्रम कटे किवाड़ा,
बहुरि न होईऔ जउला जीव ।।’
-गुरू नानक साहब

‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई ॥’
-गोस्वामी तुलसीदासजी

उपर्युक्त उद्धरणों से महर्षिजी की अनुभवपुनीत वाणी में परमात्मा के निज स्वरूप तथा उनके विविध मायामय स्वरूपों का परिचय तथा गोस्वामी तुलसीदास एवं भक्त सूरदासजी को सन्त कबीर, गुरु नानक साहब आदि से निम्न या भिन्न कोटि के भक्त या सन्त मानने की समस्याओं का स्पष्टीकरण हो गया है और उसी में परमात्म-दर्शन की उपासना के रूपों की भी चर्चा हो गयी है, फिर भी वेद, उपनिषद्, गीतादि सच्छास्त्रों एवं महर्षि-सन्तों द्वारा प्रतिपादित सर्वोच्चतत्त्व- अनन्त सच्चिदानन्द-परमप्रभु परामात्मा-तुरीयातीतत्वपुरुषोत्तम को पाने के लिए उन्हीं की अनुभवसिद्ध वाणी में उस मार्ग की खोज करें, जिसपर चलकर उसकी प्राप्ति होती है। प्रथम यह चर्चा हो चुकी है कि मन-बुद्ध्यादि इन्द्रियों द्वारा वह परमतत्त्व नहीं प्राप्त किए जा सकते हैं तो इसे भी जानना होगा कि मार्ग का पता लग जाने पर भी कौन उसपर चलेगा और किसे उसके दर्शन और साक्षात्कार होंगे? हम समझते हैं – इस खण्ड में सर्वत्र ही परमात्म-स्वरूप, उसके पाने के मार्ग और इस मार्ग पर चलनेवालों के लिए आवश्यक संयम, नियम, विधि, निषेध आदि आवश्यक बातों का ही वर्णन है, अतः उसकी बारंबार आवृत्ति होना बुद्धि के लिए अरुचिकर है, अतः समाहार रूप में इस सम्बन्ध में पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी द्वारा साधन-मार्गों पर जो अनुक्रमबद्ध प्रकाश डाला गया है, उसे अविकल रूप में हम यहाँ उपस्थित कर रहे हैं -
‘सन्तों का भक्ति-मार्ग में इतना दखल हुआ कि और कुछ उसमें बाकी नहीं रह गया। संतों ने भक्ति के अन्दर केवल बाह्य भक्ति- मोटी भक्ति को ही विशेष नहीं कहा। उन्होंने कहा कि आन्तरिक भक्ति बहुत विशेष है और वहीं साधन खतम होगा। जो पाना चाहिए- जो प्राप्तव्य है, अन्तर में ही प्राप्त होगा। जो एक बार मिल जाएगा, तो बिछुड़ नहीं सकता। कबीर साहब ने कहा है- ‘न पल बिछुड़े पिया हमसे, न हम बिछुड़े पियारे से।’
केवल कबीर साहब ही नहीं – सभी संतों को ऐसा अनुभव हुआ और जो भी सन्त होंगे, सभी को ऐसा अनुभव होगा। गुरु नानक ने भी कहा है-
‘सब किछु घर महि बाहरि नाही।
बाहरी टोलै सो भरम भुलाही।।’

जो एक बार अन्दर में प्राप्तव्य परमात्मा को प्रत्यक्ष कर लेता है, उसको वह बाहर-भीतर सदा मिला ही रहता है। जो एक बार मिला, तो फिर कभी बिछुड़ता नहीं – वही ईश्वर है। अन्तस्साधन करने पर यह स्थिति आती है। कितने कहते हैं कि सन्तों ने उस परमात्मा को अव्यक्त कहा है- जो इन्द्रियों से प्रत्यक्ष नहीं है। अव्यक्त का अर्थ है- बेजाहिर । ‘उस अव्यक्त में मन कैसे लगाया जाय?’ ऐसा लोग सवाल करते हैं । सूरदासजी और गो॰ तुलसीदासजी की उपमा देते हैं कि उन्होंने केवल बाह्य स्थूल भक्ति में लगे रहकर पूर्णता प्राप्त की , फिर अन्तस्साधन के कष्टों को क्यों उठाया जाय?
इन लोगों ने सूरदासजी की सभी रचनाओं को नहीं देखा है और न तुलसीदासजी की ही सभी रचनाओं को। गो॰ तुलसीदासजी की रामायण को भी उन्होंने पूरा-पूरा नहीं पढ़ा है।
सभी सन्तों की वाणी में पहले स्थूल भक्ति है और फिर सूक्ष्म भक्ति । वे सोपान की तरह हैं । पहले कुछ मन्त्र, जो गुरु ने बताया है, उसको मन में- या मुख से भी कहते हैं, जपना और जिस रूप को आपने देखा है, उसका ध्यान करना। वे स्थूल भक्तियाँ त्याज्य नहीं , वरन् आरम्भ में करने योग्य है, किन्तु इसी से काम खतम नहीं होता। इससे ‘मन के सिमटाव’ की योग्यता होती है। इस जप और ध्यान से इसी अवस्था में- यानी जाग्रत अवस्था में ही अभ्यासी भक्त रहेगा। इस जागने की ही अवस्था में रह जाओ, इसी को ‘अन्तर-प्रविष्ट-दशा’ नहीं कही जा सकती। जप और मूर्ति (स्थूल रूप) ध्यान के द्वारा तुम भक्ति-पथ में चलने के लिए तैयार होते हो, जिससे सिमटाव का बल पाकर सूक्ष्म पथ पर चला जा सके। यहीं- भक्त को होता है कि मेरे इष्टदेव छूट जाएँगे और मेरी भक्ति में ठेस– धक्का लगेगा।
आपके देश में- जहाँ वेदान्त-ज्ञान, सर्वोच्च ज्ञान है, उसमें तो कहा गया है-
‘नाम रूप दुइ ईश उपाधी।
अकथ अनाम सुसामुझि साधी ।।’
– गो॰ तुलसीदास

नाम और रूप तो माया है। माया में व्यापक परमात्मा– इष्ट स्वयं क्या है, कैसा है ? इसके उत्तर में एक कहते हैं – ‘जो नाम हम जपते हैं, तत्सम्बन्धी रूप का जो ध्यान हम करते हैं, वे ही ‘प्रभु’ हैं ।’
दूसरे कहते हैं – ‘आपका नाम-जप और रूप-ध्यान जो है , उससे मेरा जप और ध्यान पृथक् है और वे ही ‘प्रभु’ हैं।’
इसी भाँति तीसरे तीसरी तरह के बताते हैं । तो क्या अनेक नाम और अनेक रूप होने से ईश्वर अनेक हो गए?
इस बात को कोई मंजूर नहीं करते कि ईश्वर ‘अनेक’ हैं । उदार ज्ञानवाले कहते हैं कि ‘ईश्वर’ एक ही हैं है और उनके ‘नाम-रूप’ अनेक हैं । इसमें किसी भक्त को ठेस नहीं लगती। जब अनेक रूपों में वही; तब स्वयं कैसा ? वह अव्यक्त । उसको राम, खुदा, गॉड आदि जो कहो, ठीक है। वह इन्द्रिय-ज्ञान के परे है। जबतक उस अव्यक्त को प्रत्यक्ष नहीं पा लेते हो, तबतक ठीक-ठीक ‘ईश्वर-दर्शन’ कहाँ हुआ? स्थूल नाम और रूप में ही जो ज्ञान रखते हैं, उनको जानना चाहिए कि इसके परे सूक्ष्म रूप भी है। बिना सूक्ष्म के स्थूल नहीं बन सकता। उपनिषदों और सन्तवाणियों में वर्णन है कि अन्तर-साधन में क्या-क्या अनुभूतियाँ होती हैं । चन्द्र, सूर्य, तारे आदि दिखाई देते हैं , शब्द सुनने में आते हैं; वहाँ भी ईश्वर रहते ही हैं । तब प्रश्न होता है कि जो उस ज्योति और शब्द में व्यापक है, वह स्वयं कैसा?
सृष्टि जहाँ तक है, शब्दमय है। गति के बिना सृष्टि हो ही नहीं सकती। इसलिए सृष्टि में शब्द का होना अनिवार्य है। दरिया साहब (बिहार) ने कहा है- ‘सन्तो गति में अनहद बाजै।’
गति यानी हरकत में ध्वनि अवश्य होती है, वे दोनों आपस में नित्य सहचर हैं । जहाँ से, जब से गति हुई- वहीं से, तब से शब्द आरम्भ हुआ। जहाँ शब्द समाप्त है, वहाँ ईश्वर है- वहाँ सृष्टि नहीं रहेगी। इसलिए ऐसा ‘शब्द-ध्यान’ करो कि अनाम पद तक पहुँचकर अपने से अर्थात् शरीर-विहीन केवल आत्मा से परमात्मा का दर्शन कर सको। जैसे-जैसे अन्तर्मुखीवृत्ति होती है, वैसे-वैसे अन्तर में कुछ-न-कुछ मिलता जाता है। सब सन्तों की वाणियों में तथा उपनिषदों में भी इसका वर्णन है। सबसे बढ़िया तो यह है कि करके देखो। पाते जाओगे और तुम्हारा मन लगता जाएगा। तुलसी साहब ने कहा है- ‘खेल खुलि खुलि लखि परै ।’ वर्णित सब कथन युक्तिवाद है।
केवल स्थूल-ही-स्थूल उपासना में रहो, भक्ति पूरी हो जाएगी- यह श्रद्धामात्र है, युक्तिवाद नहीं है। जिस भक्ति में केवल श्रद्धा-ही-श्रद्धा हो, युक्तिवाद नहीं हो, तो यह भी सम्भव है कि अन्धे की तरह गड्ढे में जा गिरो। संयोगवश यदि भक्ति-मार्ग ठीक है और तब युक्तिवाद-विहीन केवल उसमें श्रद्धा ही है, तो उसमें भी कोई हानि नहीं ! परन्तु युक्तिवाद से पुष्ट बनी श्रद्धा, संशय से मुक्त और दृढ़ होती है। युक्तिवाद ज्ञानमय होता है और भक्ति, प्रेममयी होती है। ज्ञान को योग का संग अवश्य होता है।
धर्म तें विरति योग तें ज्ञाना ।
ज्ञान मोक्षप्रद वेद बखाना ।।
- गो॰ तुलसीदासजी

जैसे क्वेश्चन (Questi॰n), क्वान्टिटी (Quantity), क्वीन (Queen) आदि अंग्रेजी शब्दों में क्यू (Q) और यू (U) का संग अनिवार्य रूप से रहता है, इसी तरह ज्ञान और योग दोनों परमात्म-प्राप्ति-हेतु प्रेमाभक्ति में सम्मिलित होते हैं । गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं -
जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू ।
जहँ नहिं राम प्रेम परधानू ।।
-रामचरितमानस


सूरदासजी ने एक शब्द कहा है-
अविगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यों गूंगहिं मीठे फल को रस,
अंतरगत ही भावै ॥
परम स्वाद सबही जू निरन्तर,
अमित तोष उपजावै ।
मन बानी को अगम अगोचर,
सो जानै जो पावै ॥
रूप रेख गुन जाति जुगति बिनु,
निरालम्ब मन चकृत धावै।
सब विधि अगम विचारहिं तातें,
सूर सगुन लीला पद गावै॥


एक इन्द्रिय को एक ही विषय का ज्ञान होता है, दूसरे का नहीं। सबका अलग-अलग काम है। मन का काम बुद्धि से और बुद्धि का काम मन से नहीं होता। आपका स्वयं अपना निज काम क्या है? इसको ठीक-ठीक समझिए। आप जब शरीर-इन्द्रियों को छोड़कर कैवल्य अवस्था प्राप्त करेंगे, तभी इसका प्रत्यक्ष ज्ञान होगा । ईश्वर दर्शन होगा और वहीं आपको यह भी ज्ञान होगा कि ‘मैं क्या हूँ ? अभी तो केवल शरीर का ही ज्ञान है। हम स्वयं क्या हैं, इसका पता नहीं । अभी शरीर है। कुछ दिनों के बाद यह मर जाएगा- इसको जला दिया जाएगा, लेकिन हम न मरेंगे और न जलेंगे। इसकी प्राप्ति का साधन सन्त लोग बताते हैं ।’ 

327.

सन्तमत की सार बातें

(१) जो सर्वविधियों से अनन्त है, उन्हीं सनातन सत्य, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, क्षराक्षरातीत, अखण्ड आनन्द स्वरूप, अज, अव्यक्त को ही परमात्मा पुरुषोत्तम मानना चाहिए ।
(२) जीवात्मा, ईश्वर का अभिन्न अंश और तत्त्वरूप में एक है।
(३) प्रकृति (परा और अपरा) काल ज्ञान से अनादि होते हुए भी सृजन ज्ञान से सादि और सान्त है।
(४) सृष्टि-प्रवाह में उतरकर विवशता से आवागमन के चक्र में पड़े रहना ही जीव के सब दु:खों का कारण है।
(५) इससे मुक्त होने के लिए सर्वेश्वर की भक्ति करके तीनों प्राकृतिक आवरणों- अन्धकार, प्रकाश और शब्द अथवा स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और चेतन से ऊपर उठकर सर्वेश्वर से एकता का ज्ञान प्राप्त करना ही एकमात्र उपाय है।
(६) सर्वेश्वर की भक्ति करने में मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि-साधन और नादानुसन्धान ही सर्वसमन्वित एक मार्ग है।
(७) साधन में सफलता पाने के लिए एक सर्वेश्वर पर ही अटल विश्वास, पूर्ण भरोसा तथा अपने अन्तर में उसे पाने की अविचल श्रद्धा, सत्संग, सद्गुरु की निश्छल सेवा तथा नित्य नियमित ध्यानाभ्यास- कर्तव्य कर्म है। चोरी करना, नशा-सेवन, हिंसा करना अर्थात् जीवों को स्वार्थवश दुख देना या मछली-मांस को खाद्य पदार्थ समझना, पर-नारी और पर-पुरुष संगम तथा झूठ; ये पाँचों निषेध यानी वर्जित कर्म हैं।
(८) परमात्मा की ऐसी भक्ति करके मोक्ष पा लेने का मनुष्य मात्र अधिकारी है। इस उपासना पथ पर चलने में बाहरी भेदों के कारण रूक जाना, मानव-जीवन की हत्या करना है । 

328.

उपासना में सर्वसमन्वित एकता का सूत्र

अबतक की चर्चाओं में परमात्मा के निज स्वरूप की एकता, नाम-रूपों की विविधता तथा उसकी प्राप्ति के सत्य- वैज्ञानिक एवं सर्वानुभूत साधना-विधि का सुनिश्चितीकरण हो चुका है, फिर भी कुछ लोग कहते हैं कि जिस प्रकार किसी एक निर्दिष्ट स्थान पर जाने के लिए अनेक रास्ते होते हैं, उसी भाँति परमात्मा के एक होने पर भी उनके पास जाने के लिए अवश्य ही अनेक मार्ग हैं या होने चाहिए।
विविध और विभिन्न आराधना-विधियों, यजन-पूजन-प्रकारों, योग-साधन-प्रणालियों और भक्ति, ज्ञान एवं कर्मगत उपासनाओं के रहते हुए भी सन्तमत यह कैसे घोषणा कर रहा है कि ‘नान्यः पन्थाः विद्यतेऽयनाय।’– परमात्मा को पाने के लिए एक के अतिरिक्त दूसरा और कोई मार्ग है ही नहीं ? जिस भाँति एक-एक इन्द्रिय केवल अपने ही विषय को जान सकती है, दूसरी इन्द्रिय के विषय को वह किसी भाँति भी नहीं जान सकती, उसी भाँति केवल चेतन आत्मा के द्वारा ही परमात्मा का ज्ञान प्राप्त होता है, और कोई दूसरा साधन है ही नहीं ।
स्वामी रामकृष्ण परमहंसजी ने विविध सम्प्रदायों की विविध उपासना-पद्धतियों का अनुगमन कर सबके द्वारा एक ही आत्मतत्त्व की उपलब्धि की थी। इस घटना के द्वारा परमात्मतत्त्व की एकता तो सिद्ध हो गयी, परन्तु मार्गों की विभिन्नता और विविधता ज्योंकी-त्यों रह गयी और धर्म या सम्प्रदाय के नाम पर विश्व में जहाँ भी कही लड़ाइयाँ हुई हैं– सब इस मार्ग की विविधता में अपनी-अपनी आसक्तिजन्य विमूढ़ता के कारण ही। अत: उन सन्तों के निर्देशों में ही हमें सर्व-समन्वित एकता के सूत्र भी ढूँढने पड़ेंगे।
शुक्ल यजुर्वेद के मुक्तिकोपनिषद् में निर्देश किया गया है-
चित्तैकाग्रयाद्यतो ज्ञानमुक्तं समुपजायते।
तत्साधनमथो ध्यानं यथावदुपदिश्यते ।।

भा॰–’चित्त की एकाग्रता ही वह साधन है, जिससे ज्ञान तथा मोक्ष उत्पन्न होते हैं और चित्त को एकाग्र करने का सर्वोत्तम साधन ध्यान है। - अब तुमको जना दिया गया ।’
श्री मद्भगवद्गीता के राजविद्या राजगुह्य योग को ही गीता-प्रतिपादित सर्वश्रेष्ठ योग कहा जाय, तो यह अनुचित न होगा। उक्त योग का सर्वोत्कृष्ट रूप उस अध्याय के अन्तिम श्लोक में कहा गया है- ‘मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।’ अ॰ ९, श्लोक ३४
भा॰- मुझमें मन लगा अर्थात् एकाग्र करो, मेरा भजन करो, मेरा यजन करो, मुझे नमस्कार करो, इस भाँति मुझमें परायण रहकर अपनी आत्मा को मुझमें युक्त-एकीभूत कर तू मुझको ही प्राप्त हो जाएगा।
इस साधन की सर्वश्रेष्ठता को सुपुष्ट और सुनिर्णीत करने के लिए भगवान श्री कृष्ण ने सबसे अन्त में भी श्री अर्जुन को यही उपदेश किया-
‘मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि में ।।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।’
अध्याय १८, श्लोक ६५ एवं ६६
भा॰- मुझमें मन एकाग्र करो, मेरी भक्ति करो, मेरा यजन करो, मुझे नमस्कार करो- ऐसा करने से तू मुझको ही प्राप्त होगा। उपर्युक्त सत्य अविचल और ध्रुव है। तू मेरा प्रिय है, इसीलिए यह गुह्य साधन तुझे जता दिया गया ।।६५।।
जितने भी प्रकार के धर्म-साधन हैं, उन सभी को छोड़कर तू केवल उपर्युक्त विधि से मेरी ही शरण में आ जाओ। ऐसा करने से मैं सब प्रकार के पापों से-आत्मा को पतन की ओर ले जानेवाले कमों से तुझे मुक्त कर दूँगा। तू शोक-भय को सर्वथा परित्याग कर दे ।।६।।
श्री गुरूपद नख मणिगण जोती। सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती ।। -गोस्वामी तुलसीदासजी
धरनी निर्मल नासिका, निरखो नैन के कोर । सहजे चन्दा ऊगिहैं, भवन होय उजियोर ।।
–महात्मा धरनीदासजी
सुमिरन सुरत लगाइ कर, मुखते कछु न बोल। बाहर के पट देइ करि, अन्तर के पट खोल ।
-सन्त कबीर साहब
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाऽऽकृष्य तन्मनः। बुद्धया सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः ।।४२।। तत्सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत् । नान्यानि चिन्तयेद् भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम्।। ४३।।
तत्र लब्धपदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत् । तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ।।४४।। –श्री मद्भागवत, स्कन्ध ११, अध्याय १४
भा॰- उपासकों को चाहिए कि मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से खींचकर उस मन को बुद्धि रूपी सारथी की सहायता से सर्वांगयुक्त मुझमें ही लगा दे ॥४२॥ सब ओर से फैले हुए चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थिर करे और अन्य अंगों का चिन्तन न करता हुआ केवल मेरे आनन्द-उद्भासित मुख का ही ध्यान करे ॥४३॥ मुखारविन्द में चित्त के स्थिर हो जाने पर उसे वहाँ से हटाकर आकाश में स्थिर करे । तदन्तर उसको भी त्यागकर मेरे शुद्ध आत्म-स्वरूप में आरूढ हो और कुछ भी चिन्तन न करे ॥४४॥
बायें इड़ा नाड़ी दक्षिणे पिंगला, रजस्तमो गुणे करितेछे खेला ।
मध्ये सत्त्वगुणे सुषुम्ना विमला, धर-धर तारे सादरे ।।
- योगी श्यामाचरण लाहिड़ी।
न ध्यानं ध्यानमित्याहुर्ध्यानं शून्यगतं मनः । तस्य ध्यानप्रसादेन सौख्यं मोक्षं न संशयः ॥५४॥
-ज्ञानसंकलिनी तन्त्र
भा॰– ध्यान को ध्यान नहीं कहते हैं – शून्यगत मन को ही ध्यान कहते हैं। नि:संशय इसी ध्यान के प्रसाद से सुख और मोक्ष लाभ होते हैं ।
योगश्च चित्तवृत्तिनिरोधः -योगशास्त्र
भा॰– चित्तवृत्ति का निरोध करना ही योग है।
नयन नासिका बीच है, तहाँ ब्रह्म को बास । अविनाशी विनसै नहीं, हो सहज ज्योति प्रकास ॥
- सूरदासजी
शरीर का दीपक आँख है, इसलिए यदि तेरी आँख एक हो तो तेरा सब शरीर उजियारा होगा।
- ईसामसीह
प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं ‘हृदय’ से होता है। - महात्मा गाँधीजी
परमेश्वर की नित्यप्रति प्रार्थना और उपासना सबको ‘अनन्यचित्त होकर’ अवश्य करनी चाहिए।
- स्वामी दयानन्द सरस्वती
मन रूपी मन्दिर में जो नाना प्रकार की इच्छाएँ नाच रही थी , वे ‘घर के दीपक से’ सब जल गयी।
- स्वामी रामतीर्थ
जबतक आँख, कान आदि इन्द्रियाँ बाहरी विषयों की ओर खींचती हैं, तबतक शरीर से लाँघकर भीतर की ओर प्रवेश नहीं किया जा सकता। -श्री विजयकृष्ण गोस्वामी
चित्त चंचल न होकर सद्गुणों की मूर्ति- ईश्वर में तल्लीन हो जाय—इसी हेतु से मूर्तियाँ बनायी गयी हैं ।
-स्वामी विवेकानन्द
भाव की अवस्था में ईश्वर-नाम-स्मरण होते ही मनुष्य निःशब्द या स्तब्ध हो जाता है। यही ईश्वर-प्राप्ति की पाँचवी सीढ़ी है । महाभाव छठी सीढ़ी है। ईश्वर-दर्शन के बाद ‘महाभाव’ प्राप्त होता है। महाभाव भगवद्भक्ति का आत्यन्तिक स्वरूप है। प्रेम- यह सातवीं और आखिरी सीढ़ी है। महाभाव और प्रेम बहुधा साथ-साथ रहते हैं । प्रेम ईश्वर-भक्ति का शिखर है। -स्वामी रामकृष्ण परमहंस
एकविन्दुता प्राप्त करने तक के लिए दृष्टियोग अवश्य होना चाहिए । –महर्षि मेँहीँ
परमात्मा स्वरूपतः निराकार, अव्यक्त, सर्वव्यापी और अनन्त है - यह बात बुद्धि के लिए सिद्ध हो गयी है और यह भी निर्दिष्ट किया गया है कि स्थूल दृष्टि से स्थूल-दर्शन, सूक्ष्म दृष्टि से सूक्ष्म-दर्शन, दिव्य-दृष्टि से दिव्य-दर्शन होते हैं। कारण शरीर सहित जीवात्मा से कारण शरीर का ज्ञान और महाकारण शरीर सहित चैतन्य से महाकारण शरीर का ज्ञान तथा विशुद्ध आत्म चैतन्य से निज स्वरूप सहित परमात्म स्वरूप के अनुभव होते हैं। स्थूल दर्शन के उपरान्त जितने भी दर्शन हैं, वे सभी तुरीय दशा के दर्शन कहे जाते हैं और अन्तिम परमात्म-दर्शन ही तुरीयातीतावस्था की उपलब्धि है।
परमात्मा सबसे अधिक सूक्ष्म होने के कारण वे इन सारे शरीरों में व्याप्त होकर भी सबसे परे हैं , अतः सभी स्थूल इष्टदेवों के जितने भी रूप हैं, सभी में आत्म-रूप से स्वयं परमात्मा ही हैं और इसीलिए उन इष्टदेवों के सारे नाम भी परमात्मा के ही नाम कहे जाते हैं। इन नाम-रूप-रहस्यों को भली भाँति समझ लेने से नाम-रूप के भेदों से बने सम्प्रदायों की विभिन्नताओं और विविधताओं में जो आन्तर और वास्तविक एकता है, वह सहज ही समझ में आ जाती है। इतना जान लेने के बाद पूजा, अर्चना और उपासना-प्रणालियों की अनेकता में स्वतः ही एकता के दर्शन होने लगते हैं; क्योंकि मनुष्यों की निसर्ग-प्रदत्त भिन्न-भिन्न रुचि, भाव, विचारादि होने के कारण यह बाह्य विभिन्नता सदा ही बनी रहेगी और यह कभी न मिटेगी और बाह्य स्थूल सृष्टि में इसके मिटाने की आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि इसके बिना सृष्टि की सुषमा, सरसता और उपादेयता ही विनष्ट हो जाएगी।  

329.

इष्टदेव के स्थूल दर्शन की मर्यादा

सभी साधकों को इष्टदेव के नाम या मन्त्रों का जप करना और उसके रूपों का दर्शन करना स्वाभाविक और अनिवार्य है क्योंकि जाग्रत दशा से ही किसी भी उपासना का प्रारम्भ होता है और हो सकता है। और जाग्रत अवस्था में वैखरी या मानसिक वाणी का उपयोग तथा स्थूल दृष्टि या ख्याल की दृष्टि से ही देखने की क्रिया निष्पन्न हो सकती है। कहलाने के लिए चाहे कोई सगुणोपासक कहलाना पसंद करें और कोई निर्गुणोपासक ही कहलाएँ, पर दोनों के लिए सगुण-साकारोपासना करना आवश्यक ही नहीं , अनिवार्य है। कोई परमात्मा का अवतार-रूप कहकर स्थूल उपासना करते हैं और कोई सद्गुरु के नाम से, पर दोनों सगुण-साकारोपासना ही है। चाहे वह सगुण-साकारोपासना राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा, मुहम्मद, ईसामसीह, बुद्ध, महावीर, जरथुस्त्र आदि किसी भी नाम-रूपों से हो।
सन्त कबीर-गुरु नानक साहब-गुरु-मूर्ति का ध्यानजप बतलाते हैं और सन्त सूरदास-तुलसीदास-कृष्ण, राम, गुरु आदि का बतलाते हैं । तुलसीदासजी कहते हैं - ‘कृपासिन्धु नर रूप हरि’ तथा ‘गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई। जौं विरंचि शंकर सम होई।’
सन्त गरीबदास की वाणी है- साहब से सद्गुरु भये, सद्गुरु से भये साध । ये तीनों अंग एक है, गति कछु अगम अगाध ॥
श्री मद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण भगवान ने संसार में प्रगट सभी तेजोपम वस्तुओं को अपनी विभूति कहा है और स्वयं कृष्ण रूप को भी अपनी विभूति कहकर घोषित किया है और पुरुषोत्तम नाम से अपने क्षराक्षरातीत स्वरूप की भी अभिव्यक्ति की है। अतः सभी अवतारों, ऋषियों-सन्तों, पैगम्बरों, सेंटों, बुद्धों, जिनों आदि को परमात्मा की विभूति मानना सर्वथा उचित ही है।
इष्टदेवों के सगुण साकारोपासनाओं से विषयवासनाओं के अरण्य में सदा विचरण करनेवाली इन्द्रियों-चित्तवृत्तियों का कुछ संयमन और शुद्धिकरण अवश्य होता है, पर इतना नहीं होता कि उससे परमात्मा के सगुण-अगुणातीत स्वरूप के दर्शन की योग्यता हो जाए ।
उदाहरण के लिए पाण्डव अर्जुन को लीजिए । उन्हें स्थूल सगुण रूप का पर्याप्त संग था, उससे अगाध प्रेम भी था, फिर भी उस दर्शन से न तो अर्जुन के मनोविकारों का ही पराशमन हो सका और न वे पाप-पुण्य के परिणामों के अविराम चक्रों से ही बच सके । उन्हें कुछ घड़ी नरक-यन्त्रणा भोगकर विषय-सुख के नन्दनकानन में अबाध विचरण करने के लिए भेज दिया गया, जो परिवर्तनशील और आगमापायी है। जिसके सम्बन्ध में गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है- ‘स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई।’
मनु-शतरुपा के शरीर में जिसने दु:सह तप करके श्री राम जैसा सुपुत्र प्राप्त किया, उसे गोद में खेलाया- उन राम-वियोग में ही शरीर त्यागनेवाले राजा दशरथ को भी वही स्वर्ग मिला, जो रावण जैसे राक्षसों को भी मिलनेवाला था। सगुण भक्ति के उपासक गृद्ध जटायु को-जो विष्णु रूप धारणकर स्वर्ग-सुख भोगने के लिए जा रहे थे, श्री रामचन्द्रजी ने उनसे कहा- ‘सीता हरण तात जनि, कहेहु पिता सन जाइ । जौ मैं राम त कुल सहित, कहहिं दशानन जाइ ॥’
इन कथाओं से स्पष्ट है कि सगुणसाकार के उपासकों को आवागमन के दुख -सुखमय चक्रों से छुटकारा नहीं मिलता। नवधा-भक्ति में परिपूर्णा भक्त शवरी की प्राप्त गति ही सर्वोच्च गति है, जिसके सम्बन्ध में गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है- ‘तजि योग-पावक देह हरिपद लीन भई जहँ नहीं फिरै ।’
‘गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिषूत कल्मषाः।’ -श्री मद्भगवद्गीता
श्री रामचन्द्रजी ने अपने आत्मस्वरूप के दर्शन का फल शवरी से कहा- ‘मम दरसन फल परम अनूपा । जीव पाव निज सहज सरूपा ।।’
यदि सगुण-साकाररूप के दर्शन का ही ऐसा फल होता, तो श्री रामचन्द्रजी के तथा श्री कृष्ण भगवान के जीवनकाल में जिन भाग्यशालियों ने उनके दर्शन किए थे, उन सभी को शवरी के समान निज आत्मा के स्वाभाविक निर्गुण निराकार रूप के दर्शन होकर परमात्म-दर्शन का लाभ हो जाता और वे लोग भी ‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’ (श्री मद्भगवद्गीता) में वर्णित परमधाम को प्राप्त कर लेते । पर सभी जानते हैं कि उनके सगुण-साकार रूपों के दर्शन से ऐसा नहीं हुआ। इसीलिए सगुण-साकार के परम भक्त श्री अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण ने कहा-
‘योऽन्तः सुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः। स योगी ब्रह्म निर्वाणं ब्रह्म भूतोऽधिगच्छति ॥२४॥
-गीता, अ॰ ५
भा॰—जो अन्तर में प्रवेश करके अन्तर में स्थित ब्रह्मज्योति, ब्रह्मानन्द और अनन्त शान्ति को प्राप्त कर लेता है, ऐसा योगी ही परब्रह्म परमात्मा से एकीभूत होकर ब्रह्मनिर्वाण पद को पाता है- बाहरी उपासना करनेवाला नहीं ।
सगुणोपासना में श्री नामदेवजी ने प्रतिमा से जीवन्त अवतार की भाँति भगवान को दूध पीने के लिए बाधित कर दिया; यह उनकी गाढ़-श्रद्धामयी सगुण भक्ति का परिणाम था।
मीराबाई के प्रेम की तो कोई सीमा ही नहीं जान पड़ती, जिस प्रेम से विवश होकर भगवान को दर्शन देना पड़ा ।
‘आधि राति प्रभु दर्शन दीन्हौ यमुना जी के तीरा।’
गोस्वामी तुलसीदासजी को भी हनुमानजी के दर्शन के उपरान्त श्री रामचन्द्रजी के भी दर्शन हुए।
स्वामी रामकृष्ण परमहंसजी को भी काली माता ने प्रगट होकर दर्शन दिया ।
यदि भक्ति की पूर्णता ऐसे दर्शनों से ही हो जाती, तो पुनः उन लोगों को आगे की भक्ति करने की आवश्यकता क्यों होती ? और न भगवान श्री कृष्णचन्द्र ऐसे मधुर-भावुक भक्तों को ‘अबुद्धय’ ..... की उपाधि ही प्रदान करते । इसीलिए हम परोक्ष ज्ञानवालों को अपनी जिद्द पर अड़े नहीं रहकर उनके अनुभवों के प्रति श्रद्धा रखकर सगुण-उपासना के सहारे निर्गुण-उपासना तक पहुँचना चाहिए और निर्गुण-उपासना कर सगुण-निर्गुणातीत पुरुषोत्तम परम प्रभु की प्राप्ति करनी चाहिए।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने इस उपासना का कितना मधुर भव्य चित्र खींचा है-
‘हिय निर्गुन नयनन्हि सगुन,रसना राम सुनाम। मनहुँ पुरट सम्पुट लसत,’तुलसी’ ललित ललाम॥’
‘नाम-रूप दुई ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥’
अतः हमें ‘सुसामुझि’ बनकर नाम और रूप को ईश्वर की माया समझकर उसके आगे जाना चाहिए और वहाँ जाकर रूप और शब्द से अतीत अशब्द में पहुँचकर अपने परम पिता की गोद में बैठकर सनातन और अनन्त शान्ति को प्राप्त करना चाहिए।
उपासना की पूर्णता के लिए भक्ति के सभी सोपानों पर चढ़कर परमात्म-दर्शन कर उनसे एकीभूत होने की आकांक्षा रखनेवालों के लिए अन्तर्गमन आवश्यक और अनिवार्य है। क्योंकि बिना अन्तर-पथ का पथिक बने अखण्ड ब्रह्मानन्द प्राप्त करने का और मार्ग ही नहीं है।
ऋषि-सन्तवाणियों से पता लगता है - ‘अन्तर-गमन के लिए मन की एकाग्रता का होना अनिवार्य है।’ यह मन की एकाग्रता पहले सगुण-साकारोपासना में सुतीक्ष्ण मुनि की भाँति मानस ध्यान में तल्लीन होने से प्रारम्भ होती है
और दृष्टियोग से सुषुम्ना केन्द्र में ध्यान जम जाने पर पूर्ण होती है। यहाँ आकर सारे स्थूल उपासनाओं का अनायास ही एकीकरण हो जाता है और सारे इष्टदेवों का स्थूल रूप बाहर ही छूट जाता है, पर इष्टदेव नहीं छूटते । विन्दुध्यानदृष्टियोग से सुषुम्ना केन्द्र या दशम द्वार या तुरीय दशा में प्रवेश करने से सभी इष्टदेवों के उपासकों को अपने-अपने इष्टदेवों के सूक्ष्म-दर्शन- दिव्य-दर्शन- ज्योतिर्मय-दर्शन होते हैं । जो योगी, भक्त, उपासक, साधक और ज्ञानमार्गी योग, भक्ति या ज्ञान के इस द्वितीय सोपान पर आरोहण करने में सफल और समर्थ होते हैं, उनके लिए स्वभावतः ही ये बाहरी नाम-रूपों के भेदों में आसक्त चित्तवालों के आपसी झगड़े निस्सार हो जाते हैं और इस नाम-रूपों की आसक्ति से आपस में एक दूसरे से वैमनस्य रखने और झगड़ा करनेवालों पर उनके हृदय में करुणा की अबाध धारा उमड़ आती है।
पर साधना की समाप्ति इन ब्रह्म-ज्योति के दर्शनों से ही नहीं होती। इसके आगे शब्द-माधुरी की अजस्रधारा में योगी और भक्त अवगाहन करते हुए उस आनन्द-रसधारा के प्रवाह में बहते हुए अन्ततः परम प्रभु परमात्मा के अखण्ड सच्चिदानन्दमय, परम पावन गोद में सदा के लिए जा विराजते हैं । फिर उनके लिए कुछ भी अलभ्य नहीं रह जाता। वे ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई’ हो जाते हैं । इस रस-वैभवमयी उपासना का नाम ‘नादानुसन्धान’ या सुरत-शब्द-योग है। इसके द्वारा सूक्ष्म तेजोमण्डल से कारण-रस-मंडल में प्रवेश करते हुए वे महाकारण-दिव्य रस मंडल में जा उपस्थित हाते हैं । यहाँ अपरा प्रकृति या जड़ात्मक प्रकृति की पराकाष्ठा या अन्तिम सीमा है। पुनः प्रणव-ध्वनि-रस-प्रवाह की सैर करते हुए वे सच्चिदानन्द के अगाध-गम्भीर आनन्द में स्वयं ही आनन्द-रस-सिन्धु बन जाते हैं । यह परा या चेतन-प्रकृति मंडल है। यहाँ परम प्रभु सर्वेश्वर-परमात्मा-पुरुषोत्तम की अनन्त प्यारवात्सल्य-माधुर्यमयी पुकार सुनाई पड़ती है। इस पावन-मधुर पुकार में इतना उद्मोहक आकर्षण है कि इसमें प्रथम की असंख्य-विविध-रस धाराएँ मिलकर एकीभूत हो जाती हैं और ज्ञानी-योगी-भक्त इस अनुपम अद्भुत प्रेम-रस से खींचकर परम प्रभु के अनन्त-आनन्द-कल्याण-सुधार्णव में सदा के लिए अपने को समर्पित या विलीन कर देते हैं ।
-प्रोफेसर डॉक्टर माहेश्वरी सिंह ‘महेश’
एम॰ ए॰, पी-एच॰ डी॰ (लन्दन) स्नातकोत्तर विभाग, भागलपुर विश्वविद्यालय 

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी  

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जय गुरु!

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सद्गुरु तथ्य 

01. जन्म-तिथि : विक्रमी संवत् १९४२ के वैसाख शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तदनुसार 28 अप्रैल, सन् 1885 ई. (मंगलवार)
02. निर्वाण=8 जून, सन 1986 ई. (रविवार)

श्री सद्गुरु महाराज की जय!