02. सिद्धांत-सामंजस्य

228.

साधक-महात्माओं की पवित्र वाणी  --->>> 

(महात्मा अश्विनीकुमार दत्त)

(पटुआखाली-बंगाल, सन् १८५६ से १९२३ ईस्वी )
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“जो सर्वान्तःकरण से भक्त होना चाहता है, भगवान उसके सहायक होते हैं। उसकी कामना सिद्ध होती है ।।
‘जब ईश्वर में निष्ठा होती है, तब संसारासक्ति लुप्त हो जाती है, तभी मन शान्त होता है । शान्तरस भक्ति का प्रथम सोपान है। परमेश्वर ‘परमब्रह्म परमात्मा’ हैं - यह ज्ञान, भक्त के चित्त में शान्तरस में उदय होता है ।’

229.

महामना पं॰ मदनमोहन मालवीयजी

(काशीधाम, वि॰ सं॰ १९१८ से २००३)
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‘....... दूसरों के प्रति कोई भी ऐसा आचरण न करो, जिसे तुम अपने प्रति किए जाने पर अप्रिय समझते हो- अर्थात् जो कुछ तुम अपने प्रति चाहते हो, वैसा ही तुम्हें दूसरों के प्रति भी करना आवश्यक है- ऐसा समझना चाहिए ।’

230.

तीन प्रतिज्ञा

१. परमात्मा को याद रखते हुए, हम ईश्वर की पैदा की हुई वस्तुओं से दुश्मनी नहीं रखेंगे । अपनी किसी हरकत से किसी पड़ोसी के दिल में अपनी निस्बत शक भी पैदा नहीं करेंगे।
२. दूसरी प्रतिज्ञा यह होनी चाहिए कि “हम हिन्दुस्तान की इज्जत का ख्याल रखेंगे। यूरोप के लोग हँसते हैं कि ये लोग एक दूसरे की बहू-बेटियों पर हमले करते हैं-लाठियाँ चलाते हैं ...... ।’
३. किसी भी मजहब की माँ, बहन और बेटियाँ हों, वे सब इज्जत के लायक हैं। अपनी औरत के सिवा तमाम औरतों को अपनी बहन के बराबर समझना चाहिए |
“परमात्मा इस शरीर के अन्दर बैठा है, जैसे कोई मोटर में सवार । शरीर कपड़े की तरह है, जिसे हम जीर्ण होने पर बदल लेते हैं। आत्मा सब जीवों में एक-सा है ।’

2231.

श्री मगनलाल हरि भाई व्यास

(गुजरात, मृत्यु वि॰ सं॰ २००५)
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“जैसा अन्न वैसी बुद्धि । जैसा संग वैसी बुद्धि । अतएव सज्जनों का संग करो । आत्मा का कल्याण करनेवाली पुस्तक पढ़ो और मेहनत करके हक का खाओ । पराया अन्न जहाँ तक बने, नहीं खाना चाहिए। यदि खाना ही पड़े तो भाववान, गुणवान, भगवान के भक्त और उद्यमी का अन्न खाओ ।
‘जो उपस्थित नहीं है, उसके अवगुणों, दोषों का कथन ‘निन्दा’ कहलाता है, उसका त्याग कर देने पर तुम सुखी हो जाओगे ।’

232.

तपस्वी अबुउस्मान हैरी, खुरासान

“ईश्वर की ओर वृत्ति रखने से तुम्हारी उन्नति ही होगी । इस रास्ते में कभी अवनति तो होती ही नहीं।

233.

तपस्वी अबुल हुसैन अली, बगदाद

(मृत्यु, हिजरी सन् ३९१)
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‘जबतक तुम्हारे मन में संसार वर्तमान है, तबतक प्रभु तुम से दूर हैं, संसार की ओर तुम्हारी दौड़ बन्द होने पर ईश्वर की ओर तुम्हारी गति होगी, जरूर होगी और ईश्वर का प्रकाश तुम्हारे अन्तर में उदय होगा, फिर ईश्वर के सिवा कुछ दीखेगा ही नहीं । ...... यही योग की असली अवस्था है ।

234.

तपस्वी शाहशुजा, करमान

‘जो मनुष्य अशुद्ध दर्शन से अपनी आँखों को और दूसरे भागों से इन्द्रियों को बचाता है, नित्य ध्यान-योग से हृदय को पवित्र रखकर और स्वधर्म-पालन से अपने चरित्र को पवित्र करता है एवं सदा ही धर्म से प्राप्त पवित्र अन्न का भोजन करता है, उसके ज्ञान में कभी कमी नहीं आती ।

235.

तपस्वी हैहया

(रीड्स निवासी)
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‘योगी का धन सबके प्रति समता और बन्धु-भाव है।’
‘सच्चे धीरज और प्रभुपरायणता की परीक्षा विपत्ति में होती है ।’

236.

तपस्वी फजल अयाज 

‘जो मनुष्य ईश्वर के सिवा दूसरे की आशा नहीं रखता और ईश्वर के अतिरिक्त दूसरे का भय नहीं रखता, उसी को सच्चा ईश्वर-निर्भर जानना चाहिए ।

237.

तपस्वी हुसेन बसराई

(आज से १३०॰ वर्ष पूर्व के करीब, मदीना)
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१. इन्द्रियों के भोगों से तृप्ति नहीं हुई।
२. जिसने वासनाओं को पैरों से कुचल दिया है, वही मुक्तात्मा हो सका है।

238.

तपस्वी यूसुफ हुसेन रयी

‘जो गंभीर भाव से ईश्वर का स्मरण-चिन्तन करते हैं, वे ही दूसरे पदार्थों को भूल जाते हैं ।

239.

तपस्वी वायजिद बस्तामी

“ईश्वर जिसपर प्रसन्न होता है, उसे तीन प्रकार के स्वभाव देता है ।
(१) नदी के जल-जैसी दानशीलता
(२) सूर्य के सदृश्य उदारता और
(३) पृथ्वी जैसी सहनशीलता ।’
एकबार मैंने प्रभु से याचना की- ‘तुम्हारे पास कब और किस रास्ते से तुरन्त पहुँचा जा सकता है ?’ उन्होनें कहा, “यह तो बहुत ही सहज बात है । तू अपने शिर पर उठाए हुए अहंता-ममता रूपी मिथ्याभिमान को नीचे डाल दे, तो तुरन्त ही मेरे पास पहुँच जाएगा।’

240.

तपस्विनी रबिया

पूरे जाग्रत मन का अर्थ यही है कि ईश्वर के अतिरिक्त दूसरे किसी विषय की इच्छा या उद्देश्य मन में रहे ही नहीं।’

241.

तपस्वी हबू हसन खर्कानी

(महमूद गजनी के समसामयिक)
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“जिसने प्रभु को प्राप्त किया, वह अपने को भी भूल जाता है और उसका ‘मैं पन’ भी खो जाता है ।

242.

तपस्वी महमद अली हकीम तरमोजी

‘मर्द कौन है ? आसुरी वृत्ति जिसको बाँध नहीं सकता ।
ज्ञानी कौन है? जो ईश्वर की प्राप्ति के लिए सर्वभाव से एकनिष्ठ हो गया है ।

243.

तपस्वी सहल तरतरी, स्थान तस्तर

१. जिस वस्तु की जरूरत हो, वह वस्तु जिसके पास हो, उसी से जान-पहचान करनी चाहिए।
२. इस जगत में प्रभु के समान कोई सच्चा सहायक नहीं और प्रभु-प्रेरित महापुरुष के समान कोई सन्मार्ग-दर्शक नहीं।

244.

तपस्वी मारूफ गोरखी

‘ईश्वर के आश्रय पर रहनेवाले मनुष्यों के ये लक्षण हैं -
‘उनके विचार का प्रवाह ईश्वर की ओर ही बहता रहता है । ईश्वर में उनकी स्थिति होती है और ईश्वर की प्रीति के लिए ही वे सारे काम करते हैं ।

245.

तपस्वी अबुल कासिम नसराबादी

(जन्मभूमि-नसराबाद-खुरासान)
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“जो मनुष्य अपने उत्तम आचरण-द्वारा ईश्वरीय मार्ग दिखलाता है, वही सुन्दर स्थिति को प्राप्त करवाता है।
“जो बाह्य विषयों से तथा आन्तरिक दोषों से निर्लेप रहा हो, उसके सिवा दूसरा कोई भी क्या इस महत्तम पद को प्राप्त कर सकता है? “

246.

तपस्वी अबू अली दक्काक

‘....... बाहर से शव के समान अकर्ता तथा अन्दर से प्रभु का ही भजन करनेवाले बने रहो ।’
‘साधक को सिद्ध करने में प्रारम्भ से ही जिसको अनुभवी पुरुष का संयोग नहीं मिला और उच्च गुणों की प्राप्ति के लिए जबतक किसी सिद्ध आत्मा की सेवा नहीं की गयी, तबतक ईश्वर के साथ योग होना कठिन है।’

247.

तपस्वी अबू तोराब

‘जब ईश्वर-भक्त सत्यनिष्ठा से अनुष्ठान में लगता है, तब आरम्भ में ही अनुष्ठान की मधुरता के स्वाद का उसको अनुभव होता है । “चित्त को पवित्र करने जैसी कल्याण कारक साधना दूसरी कोई भी नहीं।’

248.

तपस्वी मंसूर उमर

“जो लोग केवल ईश्वर का ही साक्षात्कार करना चाहते हैं और दूसरी किसी वस्तु की इच्छा नहीं करते, वे उच्चकोटि के हैं।

249.

तपस्वी अहमद अन्ताकी

‘समाज के प्रति धर्म से और नीतिपूर्वक वर्तना इसका नाम बाह्य सदाचार है और प्रभु के प्रति ध्यान-भजन, श्रद्धा, प्रार्थना, सन्तोष, कृतज्ञता, दर्शन की आतुरता, प्रेम, आज्ञा-पालन इत्यादि के रूप में जो आचरण होता है, वह आन्तरिक सदाचार है ।

250.

तपस्वी अबू सैयद खैराज

‘जब परमात्मा का साक्षात्कार होता है, तब अन्तःकरण में अन्य किसी भी विषय का या किसी भी प्रकार के अस्तित्व का आभास तक नहीं रहता।  

251.

तपस्वी अहमद खजरुपा बलखी

(स्थान-सुरासान में बखरू नगर)
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“प्रभु-प्रेमी का अन्तःकरण प्रभु की ही महिमा और मनन-चिन्तन में डूबा रहता है और प्रभु के सिवा दूसरी कोई भी उसमें वासना नहीं रहती।

252.

तपस्वी यूसुफ आसबात

‘जो साधक ईश्वर में ही शान्ति नहीं पाता, उसमें सच्चा वैराग्य ही नहीं होता ।’
“उच्चारक प्रभु का ही स्मरण-सेवन करना, प्रभु-प्राप्ति के लिए दूसरे सारे स्वार्थों का त्याग करना, अन्तःकरण को पवित्र बनाना, आहार और निद्रा को जहाँ तक हो सके कम करना आदि वैराग्य के लक्षण हैं ।

253.

तपस्वी अबू याकूब नहर जोरी

‘ईश्वरीय आनन्द प्राप्त करने के तीन साधन हैं -
(१) सर्वभाव और एकनिष्ठापूर्वक साधन-भजन,
(२) संसार और संसारियों से दूर रहना और
(३) ईश्वर के सिवा किसी दूसरे का स्मरण न हो—ऐसा प्रयत्न करना ।

254.

तपस्वी अबू बकर, ईराक

‘जबतक तुमने सांसारिक आसक्ति को निर्मूल नहीं किया, तबतक प्रभु को पाने की कभी भी आशा न रखो ।’
“तुम्हारे और ईश्वर के बीच जो साधन और सहायक हो, उसके प्रति पूज्य और पवित्र भावना रखो ।’

255.

तपस्वी अहमद मशरूक

‘प्रभु-भक्तों का सम्मान करने में प्रभु के सम्मान के अतिरिक्त प्रभु को पाने का महत्त्वपूर्ण द्वार भी खुल जाता है ।’

256.

तपस्वी अबू अलि जुरजानी

‘साधक के सौभाग्य के चार चिह हैं -
(१) साधन का सहज समझ में आना,
(२) धर्म-पालन में मेहनत न जान पड़ना,
(३) साधुजनों के प्रति स्नेहशील होना और
(४) सबके साथ सदाचरण से बर्तना ।’
“जिसने ईश्वर-दर्शन से अमृतत्व प्राप्त किया है, .... उसके सारे कार्यों में प्रेरक, प्रभु, कर्त्ता और नेता भी ईश्वर होते हैं, क्योंकि उसने अपने पास तो तनिक भी कर्तव्य, कर्तृत्व या प्रभुत्व-जैसी कोई भी वस्तु रखी नहीं ।

257.

तपस्वी अबू नसर शिराज

भक्त के हृदय में जब प्रभु-प्रेम की ज्वाला पूरे जोर से भभक उठती है, तब ईश्वर के सिवा उसमें जो भी कोई वस्तु रहती है, उनको वह ज्वाला जलाकर बाहर फेंक देती है ।’

258.

तपस्वी फतह मोसली

‘जो मनुष्य पूर्ण निष्काम बनकर ईश्वर की शरण लेता है, उसी के अन्तःकरण में प्रभु प्रवेश कर सकते हैं । 

259.

तपस्वी मम्शाद दनयरी

‘जबतक तुम्हारा अन्तःकरण सांसारिक विषयों से उपरत होकर प्रभु के मार्ग में आसक्त और स्थिर नहीं हो जाता तथा प्रभु के वचनों में तुमको दृढ़ विश्वास नहीं हो जाता, तबतक तुम चाहे जितनी क्रिया, उपासना, उपवास और व्रत किया करो, तथा चाहे जितने विषयों का सूक्ष्म ज्ञान इकट्ठे किया करो; परन्तु ऋषियों की कृपा, आचरण, अवस्था या पद तुम्हें प्राप्त होनेवाला नहीं है ।  

260.

ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी

‘साधक को चाहिए कि खाना कम खाए । स्वाद के लोभ से अधिक भोजन करना भोगी के लक्षण हैं ।

261.

ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती

‘ज्ञानी अपने अन्दर दैवी गुणों को पैदा करता है और ईश्वर से पूर्ण प्रेम करता है । ईश्वर की प्राप्ति के लिए अपना तन-मन-धन सब कुछ लुटाने के लिए तैयार रहता है ।

262.

महात्मा शेख शादी

‘अगर इन्सान दुख -सुख की चिन्ता से ऊपर उठ जाय, तो आसमान की ऊँचाई भी उसके पैरों तले आ जाय ।

263.

अनवर मियाँ, गुरु, सैयद हैदरशाह फकीर

(स्थान-बिसनगर, जन्म वि॰ सं॰ १८९९)
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हरि को देखा दरसन में, समझकर मगन हुआ मन में ।।
जल में देखा थल में देखा, देखा पवन अगन में रे भाई ।
कंकर पाथर सब में देखा, मनवा भया मगन में ।।हरि।।
झाड़ में देखा, पात में देखा, देखा फूल फलन में रे भाई ।
ठाम-ठाम में दरसन पाया, ज्ञान रूप दर्पण में।।हरि।।
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उससे डोरी लगी है सब की, खींचे सब कारन में रे भाई ।
बाजीगर ज्यूँ पुतलियों का खेल करें लोकन में ।।हरि।।
कभी हमारा संग न छोड़े, जाग्रत और सुपन में रे भाई।
आठ पहर हाजिर ही रहता, ज्ञानी के चेतन में ।।हरि।।

264.

संत खलील जिबान

(बशेरी, सीरिया, मृत्युस्थान, -न्यूयार्क सन् १८८३ ईस्वी )
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‘अपना मन ही अपने को भ्रम में डालता है और अपने नियम-संयम को भंग करता है । लेकिन मन से परे एक तत्त्व है, जो नियम-संयम भंग करनेवाले मन के वश में नहीं होता । मन को वश में करने के लिए उसका आश्रय लेना ही पड़ेगा ।’

265.

संत पाइथागोरस

(जन्म-ईसापूर्व ५८६,देहान्त, ईसा पूर्व ५१० वर्ष )
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“संतों के द्वारा निर्दिष्ट क्रम के अनुसार देवाधिदेव परमात्मा की उपासना करो तथा धर्म-पालन में गौरव का अनुभव करो ।’‘

266.

चीनी संत कन्फ्यूसियस

(ईसापूर्व ५५०, देहान्त ईसापूर्व ४७८ वर्ष)
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‘जो स्वयं अपना ही सुधार नहीं कर सकता, उसे दूसरों की सुधार की बात करने का भला, अधिकार ही क्या है?
‘महान पुरुष वही है, जो कथन के पूर्व ही क्रिया करता है और केवल उसी बात को कहता है जिसे कि उसे करना है । वह सदा साम्प्रदायिक झंझटों से दूर रहता है |

267.

दार्शनिक प्लेटो

(ईसापूर्व ४२७ वर्ष)
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“ईश्वर सत्य है तथा प्रकाश उसका प्रतिबिम्ब है।

268.

महात्मा सुकरात

(एथेन्स नगर, ईसापूर्व ४७० से ईसापूर्व ३९९ वर्ष)
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‘हमारा ध्येय सत्य होना चाहिए, न कि सुख ।’
‘किसी वस्तु का निर्णय करने के लिए तीन तत्त्वों की आवश्यकता होती है-अनुभव, ज्ञान और व्यक्त करने की क्षमता ।’ 

269.

युनान के महात्मा एपिक्यूरस

(ईसापूर्व ३४२ से २७० वर्ष)
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‘अपने को तत्त्वज्ञानी कहकर कभी प्रसिद्ध मत करो, दूसरे साधारण लोगों के सामने तत्त्वज्ञान की बातें अधिक मत बोलो । तत्त्वज्ञान के जो उपदेश हैं, उन्हें तुम कार्य में परिणत करो ।’

270.

महात्मा मारकस अरलियस, रोम

(ईसापूर्व १८०-१२१ वर्ष)
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‘सज्जन ही ईश्वरीय कार्य की पूर्ति में योग देता है और धर्माचरण सिखाता है ।

271.

ईसा के समसामयिक महात्मा पोल

(साईलीसिया)
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‘यह जान लो कि तुम ईश्वर के मन्दिर हो, तुममें ईश्वर का अंश है । ईश्वर का मन्दिर पवित्र होता है और वह तुम्हीं हो ।’

272.

पैलेस्टाइन के महात्मा फिलिप

(ईसा के समसामयिक)
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‘हे आनन्दों के आनन्द! परमानन्द स्वरूप परमात्मा ! आप के बिना किसी आनन्द की सत्ता ही नहीं है । आप सच्चिदानन्द हैं । मैं आपको कब प्राप्त करूँगा?’

273.

सीरिया के महात्मा इफ्रम

(ईसा की चौथी शताब्दी)
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“अपने आगे की पीढ़ी के सत्यप्रेमियों के लिए मेरा यही संदेश है कि रात-दिन परमेश्वर के भजन में लगे रहना चाहिए, जिस प्रकार कड़े श्रम के परिणाम स्वरूप किसान अच्छी फसल काटता है, उसी प्रकार अविच्छिन्न भगवद्भक्ति से परमानन्द की प्राप्ति होती है ।

274.

महात्मा ग्रेगरी

(फारस, सन् ३३० से ३९१ ईस्वी )
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‘परमात्मा में ही हमें पूर्ण आत्मसमर्पण करना चाहिए, जिससे हम सदा पूर्ण रूप से उन्हीं में अवस्थित रहें ।’
‘हमें इस बात के लिए सदा सावधान रहना चाहिए कि हम परमात्मा से तुच्छ वस्तुओं के लिए प्रार्थना न करें ।’

275.

महात्मा आगस्तीन

(अफ्रीका-टगस्टी, सन् ३५४ से ४३१ ईस्वी )
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‘हे नित्य नवीन-अनादि सौन्दर्य के मूल अधिष्ठान परमेश्वर! अपने समय का अधिकांश खो देने के बाद मैनें आपको अपना प्रेमास्पद स्वीकर किया है। आप निरन्तर मुझमें विद्यमान थे, पर मैं आपसे दूर था । आपने मुझे अपने पास बुलाया, पुकारा और मेरा बहिरापन दूर कर दिया ।’

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी  

संपर्क

महर्षि मेंहीं आश्रम

कुप्पाघाट , भागलपुर - ३ ( बिहार ) 812003

mcs.fkk@gmail.com

जय गुरु!

जय गुरु!

सद्गुरु तथ्य 

01. जन्म-तिथि : विक्रमी संवत् १९४२ के वैसाख शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तदनुसार 28 अप्रैल, सन् 1885 ई. (मंगलवार)
02. निर्वाण=8 जून, सन 1986 ई. (रविवार)

श्री सद्गुरु महाराज की जय!