02. सिद्धांत-सामंजस्य

200.

एक अनुभव की विविध वाणी --->>>

(संत युगलानंदशरणजी)

संत युगलानंदशरणजी,
(अयोध्या, जन्म वि॰ सं॰ १८७५)

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जूआ चोरी मसखरी, व्याज घूस परनार ।
जो चाहै दीदार को, एती वस्तु निकार ||


201.

स्वामी योगेश्वरानन्दजी सरस्वती


जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति इत्यादि समस्त अवस्थाओं में शरीरत्रय से अत्यन्त विलक्षण, केवल शुद्ध ज्ञान ज्योतिर्मय, सर्वानुभूः और अज्ञानादि समस्त अवस्थाओं का अन्तर्यामी, साक्षी, कूटस्थ, मुख्य, ब्रह्मस्वरूप आत्मा है ।

202.

अवधूत संत केशवानन्दजी

(गुप्तकुटी रतलाम)
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घट ही में दूढ़ ले प्यारे ये,
बाहर क्या भटकता है ।
अखण्ड है ज्योति जिस मणि की,
हमेशा वो दमकता है ।।
जले बिन तेल बाती के,
पवन से नहीं वह बुझता है ।
पाई जिनके सहारे से,
वो सूरज भी चमकता है ।।
हुए तम नाश जब घट का,
जहाँ पर दीप जरता है।
विरोधी ज्ञान बाहर के,
न अंतर वृत्ति भरता है ।।
मिटे अज्ञान से मूला,
कार्य तूला में होता है।
जरे “संचित’ तथा ‘क्रियमाण’,
एक प्रारब्ध रहता है ।।
खुटे प्रारब्ध फूटे घट, ।
तबहि महाकाश मिलता है ।
कहे ‘केशब’ लखे जब ही,
गुरु की शरण बसता है ।।

203.

स्वामी जयनारायणजी महाराज

आगर (मालवा प्रान्त)
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यह अधिकारी शरीर एकबार प्राप्त होकर फिर प्राप्त होना महा कठिन है । इस भरतखण्ड में जो जीव मनुष्य-शरीर पाकर पुण्य कर्म करता है, वह स्वर्गीय उत्तम लोकों को प्राप्त होता है और जो पाप करता है, वह नरक को प्राप्त होता है । और जो दोनों ओर से लक्ष्य हटाकर ब्रह्मविद्या प्राप्त करते हुए आत्मसाक्षात्कार कर लेता है, वह सदा के लिए मुक्त हो जाता है ।

204.

परमहंस अवधूत संत गुप्तानंदजी महाराज

विष्णुपुरी (मालवा)
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गुप्तरु परघट आप विराजे,
तेरे तो है मरजाद नहीं ।
सादि-अनादि शब्द कहे दो,
तेरे तो कोई आदि नहीं ।।
वेद-शास्त्र में नाना झगड़े,
तुझ में तो कोई बाद नहीं ।
माया, अविद्या, जीव, ईश में,
तुझ में कोई उपाधि नहीं ।।
काल का भय नहिं जरा भी तुझमें,
काहे को विरथा दुख सहै ।।

205.

योगी गम्भीरनाथजी जम्मू (कश्मीर)

गुरु गोपालनाथजी (गोरखपुर)
(देहावसान सन् १९१७ ईस्वी )

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मुक्ति की इच्छा रखनेवालों को विचारपूर्वक यह हृदयंगमय कर लेने की आवश्यकता है कि विषय वासना को जितना ही अवसर दिया जाएगा, उतने ही बन्धन और क्लेश की वृद्धि होती जायगी । भोग-वासना का संकोच और तत्त्वज्ञान-वासना का निवास ही दुख -निवृत्ति और कृतार्थता-प्राप्ति का प्रथम सोपान है ।

206.

संत रंकनाथजी

(कृष्णानन्दजी) महाराज
(होशंगाबाद, वि॰ सं॰ १८४८ से १९३२)

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जाको प्रभु पद से न अनुराग,
अरे मन ताके निकट न जैये।
वाकूँ तजिये अन्तःकरण से,

जानिये कारो नाग ।
स्वच्छ न होय अन्त समुकारे

दूध न्हवावो काग ।।
मृतक समान जीवत है जग में,

जीवन जिनको अकाज ।
‘रंक’ कहत उर आन न उनके,

ना छूटे उर दाग ।।

207.

संत नागानिरंकारीजी

जन्म–अलीपुर नरेश के घर, पंजाब ।
(स्थान-कानपुर, जनपद का पाली राज्य)

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पड़ी मेरी नइया विकट मँझधार।
यह भारी अथाह भवसागर, तुम प्रभु करो सहार ।।
आंधी चलत उड़त झराझर, मेघ नीर बौछार ।
झाँझर नैया भरी भार से, केवट है मतवार ।।
किहि प्रकार प्रभु लगूँ किनारे, हेरो दया दीदार ।
तुम समान को पर उपकारी, हो आला सरकार ।।
खुले कपाट-यन्त्रिका हिय के, जहँ देखूँ निरविकार ।
‘नागा’ कहै सुनो भाइ संतों, सत्यनाम करतार ।।

208.

संत श्री रामानन्द साहब लुकिमान

(सिन्ध प्रान्त)
*************************

तुम शान्ति करो कोई शोर नहीं।
दुई दूरि करो कोई होर नहीं।।
तुम साधु बनो कोई चोर नहीं।
तुम आपु लखो तब तूँ ही तूँ ही।
ना मानो तो कोई जोर नहीं ||

209.

संत अचल रामजी

मुझको क्या ढूढ़े बन-बन में मैं तो खेल रहा हर फन में ।।
आकाश वायु तेज जल पृथ्वी इन पाँचों भूतन में ।
पिंड-ब्रह्माण्ड में व्याप रहा हूँ चौदह लोक भुवन में ।।
सूर्य चन्द्र में बिजली तारे मेरा प्रकाश है इनमें ।
सारे जगत का करूँ उजारा हुआ प्रकाश सब जन में ।।
सब में पूरण एक बराबर पहाड़ और राइ तिल में ।
कमती ज्यादा नहीं किसी में एक सार हूँ सब में ।।
रोम-रोम रग-रग में ईश्वर इन्द्रिय प्राण तन-मन में ।
‘अचलराम’ सतगुरु कृपा बिन नहिं आवत लेखन में ।।

210.

सदगुरु श्री पतानन्द आत्मानन्द स्वामीजी महाराज

‘वास्तव में हम अपने स्वरूप को भूल कर ही जन्म-मृत्यु के यन्त्र में पीसे जा रहे हैं। स्वरूप-स्मृति होने पर तो यह जन्म-मृत्यु का खेल हमको बाल-लीलावत् और हास्यास्पद प्रतीत होगा । मैं सत्य और आन्तरिक प्रेरणा से अखिल मानव-समाज को यह प्रार्थनामय संकेत करना चाहता हूँ कि वे अपने ईश्वरमय स्वरूप की प्राप्ति के बिना जो कुछ भी करना-कहना चाहते हैं, सब है व्यर्थ वाणी-विलास । मेरी मंगलमय स्वात्मारूपी प्रभु से प्रार्थना है कि वे अखिल मानव जाति के कल्याण के लिए शीघ्र मंगल-प्रभात का प्रादुर्भाव करके अखिल मानव-प्राणी को स्वरूपामृत का पीयूष पिलाकर सबको जन्म-मृत्यु की बाधा से मुक्त कर अजरामर बना दें।

211.

संत टेऊँरामजी

(सिन्ध, प्रेम-प्रकाश सम्प्रदाय के मण्डलाचार्य, देह-त्याग सन् १९४२ ईस्वी )
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उसी देव को पूजत हूँ, जिनका दरजा आला है।
सबके अन्दर व्याप रहा जो, सबसे रहित निराला है ।।
देह बिना जो परम देव है, जिनका नाम अकाला है।
‘टेऊँ तिसका ध्यान धरे मैं, पाया धाम विशाला है ।।
*************************


जो कुछ दीसै सोई है प्रभु, उस बिन और न कोई है।
नाम-रूप यह जगत बना जो, वासुदेव भी वो ही है ।।
अस्ति भाति प्रियरूप जो, सत् चित् आनन्द सोई है ।
कह ‘टेऊँ गुरु भ्रम मिटाया, जहँ देखू तहँ वोई है ।।

212.

महात्मा तैलंग स्वामी

(जन्म वि॰ सं॰ १५२९, देहत्याग १८०९, आयु २८० वर्ष)
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‘आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए योग सीखना पड़ता है । इसके लिए गृह-त्याग या अरण्यवास की कोई आवश्यकता नहीं। ….. योग-फल प्राप्त करने के लिए जिन सब वृत्तियों का निरोध करना आवश्यक होता है, उनको किए बिना योगफल की प्राप्ति नहीं हो सकती।’
‘योग सीखने के लिए वन में जाना या अनाहारी होना नहीं पड़ता । चित्तवृत्ति के निरोध का नाम ही योग है | …… एकाग्रता योग का प्राण है । इस एकाग्रता के कारण जब जीवात्मा और परमात्मा एकीभूत हो जाएँगे ….. तभी साधक वास्तविक योगी होगा ।

213.

स्वामी मग्नानंदजी महाराज

(फतेपुर १९ वीं सदी)
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मधुर-मधुर ध्वनि बादर गरजत,
कोटिन चन्द सहस उजियारे ।
सुरति कटोरी भरि-भरि पीवे,
पियत-पियत छकि अगर जिया रे ।।
‘मग्नानन्द स्वरूप अखण्डित,
पिया हेरत भये आप पिया रे ।।

214.

संत उड़िया स्वामीजी महाराज

‘साधक के लिए विषयी पुरूषों का संग और विषय में प्रेम- ये पतन के कारण हैं ।’
“साधक को शरीर स्वस्थ और खान-पान का संयम रखना चाहिए ।
‘परदोष-दर्शन भगवद्प्राप्ति में महान विघ्न है।’
‘झूठ, हिंसा और व्यभिचार के त्याग से शरीर शुद्ध होता है । भगवन्नाम के जप से वाणी शुद्ध होती है, दान से धन शुद्ध होता है तथा धारणा और ध्यान से अन्तःकरण शुद्ध होता है।’
‘यदि तुम ज्ञान की प्राप्ति करना चाहते हो, तो आवश्यकता इस बात की है कि देश, जाति तथा शरीर की आसक्ति को अलग करो।
“जिसका रूप और शब्द में थोड़ा-सा भी अनुराग है, वह सगुणोपासना का ही अधिकारी है । निर्गुणोपासना का अधिकारी वही है, जिसका रूप या शब्द में बिल्कुल प्रेम न हो ।’
“मन्त्र-ध्यान स्थूल है, चिन्ता-ध्यान सूक्ष्म है और चिन्तारहित-ध्यान परा भक्ति है ।’
‘भक्ति-परायण पुरुषों को स्त्रियों से जितना भय होता है, भक्ति-परायणा स्त्रियों के लिए भी पुरुष उतना ही भयदायक है ।’

215.

स्वामी निरंजनानन्द तीर्थजी

(कांथा-उन्नाव, जन्म वि॰ सं॰ १९०३)
*************************

आत्मा में परमात्मा लखहु सुमिरि ओंकार ।
ज्योति सरूप हिय ध्यान करि उतर जाय भवपार ।।

216.

स्वामी दयानन्दजी सरस्वती

(आर्यसमाज-प्रवर्तक)
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‘योगाभ्यास द्वारा भगवान के समीप होने और उसको सर्वान्तर्यामी रूप से प्रत्यक्ष करने के लिये जो ‘साधन’ हैं, वे साधक को अवश्य करने चाहिए ।’

217.

सभी सिद्धों के एक अनुभव  --->>>

(बाबा किनाराम अघोरी)

(रामगढ़, गुरु, कालूराम अघोरी)
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शब्द का रूप साँचो जगत पुरूष है,
शब्द का भेद कोई सन्त जानै ।
शब्द अज अमर अद्वितीय व्यापक पुरुष,
संत गुरू शब्द सुविचार आनै ।।
चंद में जोति है, जोति में चंद है,
अरथ अनुभौ करे, एक मानै ।
‘राम किना’ अगम यह राह बाँकी निपट,
निकट को छाड़ि के प्रीति ठाने ।।

218.

संत कौलेशर बाबा

(सारण, बिहार)
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‘हृदय से बुरी वासनाओं को निकाल रखना । जितना ही हृदय शुद्ध, कोमल, पवित्र, सात्विक और साफ रहेगा, उतनी ही जल्दी भगवान् उसमें आएंगे।’
“जेकर घर मइल, तेकर घर गइल ।
जेकर घर साफ, तेकर घर आप ।।’
‘झुटमुट खेले सचमुच होय ।
सचमुच खेले विरला कोय ।।
जो कोई खेले मन चित लाय ।
होते-होते होइए जाय।।

219.

महात्मा मंगतरामजी

‘निर्वैरी निष्कामता, सत्पुरुषों से हेत ।
दुर्लभ पाइय संतजन, ‘मंगत’ मस्तक टेक ।।’
‘जबतक अपना अन्तःकरण बिल्कुल शुद्ध न हो, अर्थात ‘वासना’ रूपी विकार से निर्मल न हो चुका हो, तबतक उसे किसी को उपदेश करने का हक नहीं है।’

220.

संत पयोहारी बाबा

(बनारस, गाजीपुर की गांगी नदी के तट पर सिसोड़ा गाँव में कुटी)
*************************

‘रात-दिन सोने में ही मत बिताओ । कितने जन्म और कितने काल से सोते आए हो । अब जग जाओ, सजग हो जाओ । भगवान को पाने के लिए चल दो, तुरन्त चलो । नहीं तो सदा रोते ही रहोगे ।’
‘मन, वाणी और शरीर से पवित्र रहो ।’

221.

परमहंस स्वमी राधेश्यामजी सरस्वती

(जन्म-वि॰ सं॰ १८७२)
*************************

जब लग लखै न आपको, तब लग नहीं जुड़ात ।
आप लखे शीतल भयो, नहिं कहुँ आवत जात ।।
हिय मन्दिर शोधा नहीं, करे अन्य की सेव ।
मृग तृष्णा में भरमि के, लख्यो न आतमदेव ।।
नव खिड़की का पींजरा, चिड़िया बोल अमोल ।
कुछ दिन में उड़ जायगी, रहा पोल का पोल ।।
मन-दर्पण काई लगी, नहिं दरसत है ज्ञान ।
जैसे घन की ओट में, छिपा रहत है भान ।।
जब लग फुरना प्राण में, तब लग झूठा ज्ञान ।
अचल भयो फुरना नहीं, बूंद में सिन्धु समान ।।

222.

स्वामी कृष्णानंदजी

ज्ञानी से आत्मा-अनात्मा की ग्रन्थि खोलने के लिए ब्रह्मविद्या का उपदेश लेने में ही संसार का हित है।

223.

ज्ञान-भक्ति की एकता --->>>

(महर्षि रमण)

(सन् १८७६-१९५० ईस्वी )
*************************

किसी भी उपाय से अहंकार और ममता के नाश करने का नाम ही भक्ति है, फिर भी ये दोनों एक दूसरे के आश्रय में टिके रहते हैं। इसलिए एक का नाश दूसरे के नाश का कारण बन जाता है । मन-वाक् से अगोचर ऐसी दशा प्राप्त करने के लिए अहंकार को निकाल देना ज्ञान-मार्ग है और ममता को मार भगाना भक्ति-मार्ग है । इन दोनों में से कोई एक पर्याप्त है। भक्ति और ज्ञानमार्ग का परिणाम भी समान है।

224.

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलकजी की शोधित वाणी

उपनिषदों में जिस श्रेष्ठ ब्रह्म-स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, वह इन्द्रियातीत, अव्यक्त, अनन्त, निर्गुण और ‘एकमेवाद्वितीयं’ है, इसलिए उपासना का आरम्भ उस स्वरूप से नहीं हो सकता ।…… अतएव साधन की दृष्टि से की जानेवाली उपासना के लिए जिस ब्रह्मस्वरूप को स्वीकार करना होता है, वह दूसरी श्रेणी का- अर्थात उपास्य और उपासक भेद से मन को गोचर होनेवाला यानी सगुण ही होता है । इसलिए उपनिषदों में जहाँ-जहाँ ब्रह्म की उपासना कही गयी है, वहाँ उपास्य ब्रह्म के अव्यक्त होने पर भी सगुण रूप से ही इसका वर्णन किया गया है।’
‘यह जो नाम-रूपात्मक वस्तु उपास्य परब्रह्म के चिह, पहचान, अवतार, अंश या प्रतिनिधि के तौर पर उपासना के लिए आवश्यक है— उसीको वेदान्त शास्त्र में प्रतीक’ कहते हैं ।
“साधन की दृष्टि से यद्यपि वासुदेव-भक्ति को ‘गीता’ में प्रधानता दी गयी है, तथापि आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करने पर ‘वेदान्तसूत्र’ की नाईं (वेदान्तसूत्र ४-१-४) गीता में भी यही स्पष्ट रीति से कहा है कि ‘प्रतीक’ एक प्रकार का साधन है-वह सत्य, सर्वव्यापी और नित्य परमेश्वर नहीं हो सकता । अधिक क्या कहें! नाम-रूपात्मक और व्यक्त अर्थात सगुण वस्तुओं में से किसी को भी लीजिए, वह माया ही है; जो सत्य परमेश्वर को देखना चाहे, उसे इस सगुणरूप के भी परे अपनी दृष्टि को ले जाना चाहिए ।
‘भगवान की अनेक विभूतियाँ हैं, उनमें अर्जुन को दिखलाए गए विश्वरूप से अधिक व्यापक और कोई भी विभूति नहीं हो सकती; परन्तु जब यह विश्वरूप, भगवान ने नारद को दिखलाया, तब उन्होंने कहा है- ‘तू मेरे जिस रूप को देख रहा है, यह सत्य नहीं है, यह माया है। मेरे सत्यस्वरूप को देखने के लिए इसके भी आगे तुझे जाना चाहिए और गीता में भी भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट रीति से यही कहा है –
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।।
‘यद्यपि मैं अव्यक्त हूँ, तथापि मूर्ख लोग मुझे व्यक्त (गीता ७-२४) अर्थात देहधारी मानते हैं । (गीता ९-११) परन्तु यह बात सत्य नहीं है; मेरा अव्यक्त स्वरूप ही सत्य है ।”
‘मन से जिसका मनन नहीं किया जा सकता, किन्तु मन ही जिसकी मनन-शक्ति में आता है, उसे तू ब्रह्म समझ । जिसकी उपासना (प्रतीक के तौर पर) की जाती है, वह (सत्य) ब्रह्म नहीं है । (केन॰ १-५-८)
“मन अथवा आकाश को लीजिए; अथवा व्यक्त-उपासना मार्ग के अनुसार शालिग्राम, शिवलिंग इत्यादि को लीजिए, या श्री राम, कृष्ण आदि अवतारी पुरुषों को अथवा साधु पुरुषों की व्यक्तमूर्ति का चिन्तन कीजिए, मन्दिरों में शिलामय अथवा धातुमय देव की मूर्ति को देखिए, अथवा बिना मूर्ति का मन्दिर या मस्जिद लीजिए—ये सब ‘छोटे बच्चे की लँगड़ी गाड़ी के समान मन को स्थिर करने के लिए अर्थात चित्त की वृत्ति को परमेश्वर की ओर झुकाने के साधन हैं । प्रत्येक मनुष्य अपनी इच्छा और ‘अधिकार’ के अनुसार उपासना के लिए किसी प्रतीक को स्वीकार कर लेता है । यह प्रतीक चाहे कितना ही प्यारा हो, परन्तु इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि सत्य परमेश्वर इस ‘प्रतीक में नहीं है’ ‘न प्रतीक न हि सः’ (वेदान्तसूत्र ४-१-४)- उसके परे है ।”
‘वर्णाश्रम धर्म का वर्णन भागवत धर्म में भी किया जाता है; परन्तु उस धर्म का सारा दारमदार भक्ति पर ही होता है, इसलिए जिसकी भक्ति उत्कट हो, वही सबमें श्रेष्ठ माना जाता है- फिर चाहे वह गृहस्थ हो, वानप्रस्थ या वैरागी हो इसके विषय में भागवत धर्म में कुछ विधि-निषेध नहीं है ।
‘जिसकी बुद्धि सम हो जावे, वही श्रेष्ठ है; फिर चाहे वह सुनार हो, बढ़ई हो, बनिया हो या कसाई, किसी मनुष्य की योग्यता उसके धन्धे पर, व्यवसाय पर या जाति पर अवलम्बित नहीं, किन्तु सर्वथा उसके अन्तःकरण की शुद्धता पर अवलम्बित होती है ।

225.

महात्मा गाँधीजी की युगवाणी

‘मैं धुंधले तौर पर ‘जरूर’ यह अनुभव करता हूँ कि जब मेरी चारों ओर सब कुछ बदल रहा है, मर रहा है, तब भी इन सब परिवर्तनों के नीचे (अन्तर) में एक जीवित शक्ति है; ‘जो कभी नहीं बदलती’- जो सबको एक में ग्रथित करके रखती है-जो नयी सृष्टि करती है, उसका संहार करती है और फिर नए शिरे से पैदा करती है । “यही शक्ति, ईश्वर है-परमात्मा है ।’ मैं मानता हूँ कि ईश्वर जीवन है, सत्य है, प्रकाश है । वह प्रेम है वह परम मंगल है ।
‘जबतक हम अपने को ‘शून्य’ तक नहीं पहुँचा देते. तबतक हम अपने अन्दर के दोषों को नहीं हटा सकते । ईश्वर “पूर्ण आत्म-समर्पण’ के बिना सन्तुष्ट नहीं होता ।’
“जो रामनाम का प्रचार करना चाहता है, उसे स्वयं “अपने हृदय’ में ही उसका प्रचार करके उसे शुद्ध कर लेना चाहिए और उस (हृदय) पर रामनाम का साम्राज्य स्थापित करके उसका प्रचार करना चाहिए । फिर उसे संसार भी ग्रहण करेगा और लोग भी रामनाम जप करने लगेंगे । लेकिन हर किसी स्थान पर रामनाम का जैसा-तैसा भी जप करना पाखण्ड की वृद्धि करना है और नास्तिकता के प्रवाह का वेग बढाना है ।’
‘जो आदमी रामनाम जप कर अपनी अन्तरात्मा को पवित्र बना लेता है, वह बाहरी गन्दगी को बरदाश्त नहीं कर सकता ।’
“रामनाम पोथी का बैगन नहीं, वह तो अनुभव की प्रसादी है । जिसने उसका ‘अनुभव’ किया है, वही वह दवा दे सकता है- दूसरा नहीं।’
‘स्वदेशी देह का धर्म है, ईश्वर-स्तवन आत्मा का गुण है।’
“प्रार्थना या भजन जीभ से नहीं-हृदय से होता है; इसीसे गूंगे, तुतले-मूढ़ भी प्रार्थना कर सकते हैं ।
“…. स्तुति-उपासना-प्रार्थना, अन्धविश्वास नहीं, बल्कि उतनी अथवा उससे भी अधिक सच बातें है, जितना कि हम खाते हैं, पीते हैं, चलते हैं, बैठते हैं -ये सच है। बल्कि यों भी कहने में अत्युक्ति नहीं कि यही ‘एकमात्र सच’ है; दूसरी सब बातें झूठ है-- ‘मिथ्या’ है।”
‘साधु-जीवन से ही ‘आत्म-शान्ति’ की प्राप्ति सम्भव है । यही इहलोक और परलोक दोनों का साधन है ।
‘भक्ति-धारा लेखनी से नहीं बह सकती । वह बुद्धि का विषय नहीं है । वह तो हृदय की गुफा में से ही निकल सकती है और जब वहाँ से फूट निकलेगी, तब उसके प्रवाह को कोई भी शक्ति नहीं रोक सकती । “....... सत्य का अर्थ है अस्ति- सत्य अर्थात अस्तित्व । सत्य के बिना दूसरी किसी चीज की हस्ती ही नहीं है । परमेश्वर का ‘सच्चा नाम’ ही सत् अर्थात सत्य है ।”
‘सत्य के बिना किसी भी नियम का पालन अशक्य है।’
“सत्य की आराधना, भक्ति है और भक्ति “सिर हथेली पर लेकर चलने का सौदा’ है-अथवा वह ‘हरि का मार्ग’ है, जिसमें ‘कायरता’ की गुंजायस नहीं है, जिसमें ‘हार’ नाम की कोई चीज है ही नहीं। वह तो मरकर जीने का मंत्र है ।”
“शुद्ध सत्य की शोध करने के मानी है- रागद्वेषादि द्वन्द्व से सर्वथा मुक्ति प्राप्त कर लेना ।
‘पूर्ण अहिंसा का अर्थ है- प्राणिमात्र के प्रति दुर्भाव का पूर्ण अभाव ।’
“जगत के लिए जो आवश्यक वस्तु है, उसपर कब्जा रखना हिंसा है।
‘अहिंसा और कायरता परस्पर विरोधी शब्द है |
“ब्रह्मचर्य का अर्थ है-मन, वचन और काया से समस्त इन्द्रियों का संयम ।………. विषयमात्र का निरोध ही ब्रह्मचर्य है ।’
‘अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना ।………… दूसरे की चीज को उसकी आज्ञा के बिना लेना, तो चोरी है ही- पर मनुष्य अपनी मानी जानेवाली चीज की भी चोरी करता है । जैसे एक बाप अपने बच्चे को जनाये बिना उनसे छिपाने की नीयत रखकर ‘गुपचुप’ कोई चीज खा ले ।’
“जो विचार हमें ईश्वर से विमुख रखते हों अथवा ईश्वर की ओर न ले जाते हों- वे सब ‘परिग्रह’ के अन्दर आते हैं और इसलिए त्याज्य हैं ।” भय मात्र देह के कारण है । देह-विषयक राग दूर हो जाने से अभय सहज में हो जा सकता है ।....... शून्यवत् होकर रहें तो सहज में भयमात्र को जीत लें- सहज में शान्ति पा जाएँ।’
“प्रेम-तत्त्व ही संसार पर शासन करता है ।xx x प्रेम घृणा को जीत लेता है।’
“शुद्ध प्रेम देह का नहीं-आत्मा का ही सम्भव है।……… आत्मप्रेम को कोई बंधन बाधारूप नहीं होता है, परन्तु उस प्रेम में तपश्चर्या होती है और धैर्य तो इतना होता है कि ‘मृत्युपर्यन्त वियोग’ रहे तो भी क्या हुआ?’
“देखने में आता है कि जिन्दगी की जरूरतों को बढ़ाने से मनुष्य ‘आचार-विचार’ में पीछे रह जाता है । इतिहास यही बतलाता है । संतोष में ही मनुष्य को सुख मिलता है । चाहे जितना मिलने पर भी जिस मनुष्य को ‘असन्तोष’ रहता है, उसे तो अपनी आदतों का गुलाम ही समझना चाहिए । अपनी वृत्ति की गुलामी से बढ़कर कोई दूसरी गुलामी आजतक नहीं देखी ।’
‘मैं तो असत्य को सब पापों की जड़ मानता हूँ । और ‘जिस संस्था में झूठ को बरदाश्त’ किया जाता है, वह संस्था कभी समाज की सेवा नहीं कर सकती; न उसकी हस्ती ही अधिक दिनों तक रह सकती है ।’ ‘व्यभिचारी तीन अपराध करता है।’
‘क्रोध के लक्षण क्रमशः सम्मोह, स्मृतिभ्रंश और बुद्धि-नाश माने गए हैं ।

226.

अतिमानसिक योगी श्री अरविन्द की दिव्य वाणी

(कलकत्ता, १५ अगस्त १८७२ ईस्वी से ५ दिसम्बर १९५० ईस्वी )
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‘........... यह सच है कि निम्न प्रकृति जितनी ही शुद्ध होगी, उतना ही परा प्रकृति का उतर आना आसान होगा । पर यह भी सच है— बल्कि उससे भी अधिक सच है कि परा प्रकृति का उतरना जितना होगा, उतनी ही निम्न प्रकृति निर्मल होगी।’
‘परात्पर पुरुष, विश्वपुरुष और व्यष्टि पुरुष का भेद कोई मेरा अपना आविष्कार नहीं है और न यह भारत या एशिया की ही कोई खास चीज है-प्रत्युत यह यूरोप की भी एक सर्वमान्य शिक्षा है जो कैथोलिक सम्प्रदाय में गुप्त ज्ञान-परम्परा के रूप में प्रचलित है .......। इसका अनुभव यूरोप के बहुत से योगियों को भी हो चुका है । यह बीज-रूप में उन सभी साधनाओं में विराजमान है, जो भगवान की सर्वव्यापकता को स्वीकार करती है-.......। अब स्वयं इस विविधता के विषय में यह जानना चाहिए कि व्यष्टि, देश- कालावच्छिन्न समष्टि और वह चीज-जो इस विश्व-रचना या किसी भी विश्व-रचना के परे है, इन तीनों में अवश्य ही अन्तर है । एक विश्व-चेतना है, जिसका अनुभव बहुतों को हुआ है और अपनी व्याप्ति और क्रिया में व्यष्टि-चेतना से एकदम भिन्न है और अगर इस विश्व-चेतना से परे कोई और चेतना हो, जो अनन्त और स्वरूपतः शाश्वत हो तो वह भी इन दोनों चेतनाओं से अवश्य ही भिन्न होगी .......।’
“वास्तव में ये तीनों ही ऐसे तत्त्व हैं, जिनके द्वारा ही आध्यात्मिक अनुभूति जीवन में क्रियान्वित हो सकती है और अगर हमें भागवत कार्य करना है तो इन तीनों को हमें स्वीकार करना ही होगा ।
‘आराधना का अर्थ है भगवान की पूजा करना, भगवान के साथ प्रेम करना, उन्हें आत्मसमर्पण करना, उन्हें पाने की अभीप्सा करना, उनका नाम जपना, उनकी प्रार्थना करना ।’
“ध्यान का अर्थ है-- अपनी चेतना को भीतर में एकाग्र करना, समाधि के अन्दर चले जाना।
“भगवान पर, भगवान की कृपा पर विश्वास रखो ।....... साधन-मार्ग और गुरु पर विश्वास रखो । उन बातों की अनुभूति पर विश्वास रखो, जो हेगेल या हक्सले या वर्टण्ड रसेल की फिलासफी में नहीं लिखी है, क्योंकि अगर वे बातें सच्ची न होती तो फिर योग का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता । 

227.

विश्वकवि श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर की अन्तर-धारा


(कलकत्ता, सन् १८६१ से १९४१ ईस्वी , पिता-महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर)

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‘आज हमें अच्छी तरह समझ-बूझकर निर्णय करना होगा कि जिस सत्य के द्वारा भारतवर्ष ने अपने आप को निश्चित रूप से प्राप्त किया था, वह सत्य क्या है? वह सत्य मुख्यतः वणिकवृत्ति नहीं , स्वराज्य नहीं , सार्वदेशिकता नहीं, वह सत्य है—विश्वजागतिकता । वह सत्य भारतवर्ष के तपोवन में साधित हुआ है, उपनिषद् में उच्चारित हुआ है, गीता में व्याख्यात हुआ है । बुद्ध और महावीर ने उस सत्य को संसार में समग्र मानव-जाति के नित्य व्यवहार में सफल बनाने के लिए तपस्या की है। और कालान्तर में नाना प्रकार की दुर्गतियों और विकृतियों से गुजरते हुए भी कबीर, नानक आदि महापुरुषों ने उसी सत्य का प्रचार किया है । भारतवर्ष का सत्य है- ज्ञान में अद्वैत तत्त्व, भाव में विश्वमैत्री और कर्म में योग-साधना । भारतवर्ष के हृदय में जो उदार तपस्या गम्भीर भाव से संचित है- वही तपस्या आज हिन्दू, मुसलमान, जैन, बौद्ध और अंग्रेजों को अपने में मिलाकर एक कर लेने के लिए प्रतीक्षा कर रही है, दास रूप में नहीं -जड़ रूप में नहीं, बल्कि सात्त्विक भाव से, साधक भाव से ।’
‘जीवन में यह जो मृत्यु का दुख -क्लेश “ हमें बराबर सहना पड़ता है, इसका कारण क्या है-यही न कि हम दो जगह रहते हैं। हम परमात्मा में भी हैं और संसार में भी हैं । हमारी एक तरफ ‘अनन्त’ और दूसरी तरफ है “सान्त’ । ‘अनन्त’ का कोई अन्त नहीं और “सान्त’ का अन्त है। इसीलिए मनुष्य बराबर यही सोचा करता है कि क्या करने से इन दोनों तरफों को सत्य किया जा सकता है -कैसे अनन्त और सान्त को एक साँचे में ढ़ाला जा सकता है! हमारे इस संसार के पिता, जो इस पार्थिव जीवन का सूत्रपात कर गए है—केवल उन्हीं को पिता मानकर हमारे अन्तःकरण को सन्तोष नहीं होता । कारण, हम जानते हैं कि दीखनेवाला यह शारीरिक जीवन समाप्त भी हो जायगा । इसी से हम दूसरे पिता को पुकार रहे हैं, जो केवलमात्र इस पार्थिव जीवन के ही नहीं, बल्कि नित्य-जीवन के भी पिता हैं । उनके पास पहुँच जायँ तो हम मृत्यु में वास करते हुए भी अमृतलोक में पहुँच सकते हैं-यह आश्वासन, चाहे किसी भी प्रकार से हो, हमें अपनी अन्तरात्मा से ही मिला है। इसीलिए राह चलते-चलते मनुष्य क्षण-क्षण में ऊपर की ओर ताका करता है ।’ 

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी  

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महर्षि मेंहीं आश्रम

कुप्पाघाट , भागलपुर - ३ ( बिहार ) 812003

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जय गुरु!

जय गुरु!

सद्गुरु तथ्य 

01. जन्म-तिथि : विक्रमी संवत् १९४२ के वैसाख शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तदनुसार 28 अप्रैल, सन् 1885 ई. (मंगलवार)
02. निर्वाण=8 जून, सन 1986 ई. (रविवार)

श्री सद्गुरु महाराज की जय!