02. सिद्धांत-सामंजस्य

153.

गुरुओं की बिन्दु-नाद-उपासना  --->>>

(गुरु नानकदेव)

(तलवंडी गाँव, निर्वाण स्थान, करतारपुर)
(सं॰ १५२६ से १५९५)

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एको सरवरु कमल अनूप ।
सदा विगसै परमल रूप ।।
ऊजल मोती चूगहिं हंस ।
सरब कला जग दीसै अंस ।।
जो दीसै सो उपजै विनसै ।
बिनु जल सरबरि कमलु न दीसै ।।
बिरला बूझै पावै भेदु ।
साखा तीन कहै नित वेदु ।।
नाद बिंद की सुरति समाइ ।
सतिगुरु सेवि परम पदु पाइ ।।
मुकते रातउ रंगि रवाँतउ |
राजन राजि सदा विगसाँतउ ।।
जिसु तूँ राखहि किरपा धारि ।
बूड़त पाहन तारहि तारि ।।
त्रिभुवण महि जोति त्रिभवण महि जानिआ ।
उलट भई घर-घर महि आणिआ ।।
अहि निसि भगति करै लिव लाइ ।
नानकु तिनकै लागै पाई ।।
*************************

ॐकार सति नामु करता पुरुखु निरभउ ।
निरबैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरु परसादि ।।
(यह वाणी सिक्ख धर्म का मूल मन्त्र है।)
भा॰- उस गुरु की कृपा, जो एक ही है, जिसका नाम सत्य है, जो सबका स्रष्टा है, जो समर्थ पुरुष है, जो निर्भय है, जिसे किसी से दुश्मनी नहीं है, जिसका अस्तित्व काल की पहुँच से परे है, जिसका जन्म नहीं होता और स्वयंभू है।
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पउणे पाणी अगनी का मेलु ।
चंचल चपल बुधि का खेलु ।।
नउ दरवाजे दसवाँ दुआरु ।
बुझु रे गिआनी एहु विचारु ।।९।।
कथता वकता सुरता सोई।
आपु बिचारे सुगिआनी होई ।।रहाउ।। ।
देही माटै बौलै पवणु ।
बुझु रे गिआनी मूआ है कउणु ।।
मूई सुरति वादु अहंकारु ।
उह न मूआ जो देखणहारु ||२||
जै कारणि तटि तीरथ जाही ।
रतन पदारथ घट ही माही ।।
पढ़ि-पढ़ि पण्डितु वादु वखाणै ।
भीती होदी वसतु न जाणै ।।३।।
हउ न मूआ मेरी मुई बलाई ।
हउ न मूआ ओ रहिया समाई ।।
कहु नानक’ गुरु ब्रह्म दिखाया ।
मरता जाता नदरि न आहआ ।।

154.

गुरु अंगदजी

नानकजी के शिष्य, हरि के गाँव
(वि॰ सं॰ १५६१ से १६०९)

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जे सउ चन्दा उगवहि, सूरज चढ़हि हजार ।
एते चानण होदिआँ, गुर बिन घोर अंधार ।।


*************************
अक्खी वाझ हु बेखणा विणु कन्ना सुनणा ।
पैरा बाझहु चल्लणा विणु हत्था करणा ।।
जीभै बाझहु बोलणा, इउ जीवत मरणा ।
नानक हुकमु पछाणि कै, तउ खसमैं मिलणा ।। 

155.

गुरु अमरदास

गुरु अंगदजी के शिष्य, अमृतसर
(वि॰ सं॰ १५३६ से १६३१)

*************************

जाति का गरबु न करिअहु कोई ।
ब्रह्मु बिंदे सो ब्राह्मणु होई ।।१।।
जाति का गरबु न करि मूरख गँवारा ।।
इसु गरब ते जलहि बहुतु विकारा ।।२।।
चारे बरन आषै सभु कोई ।
ब्रह्म बिंदु से सभ उपति होई ।।३।।
माटी एक सगल संसारा ।
बहु बिधि भाँडै गर्ढै कुम्हारा ।।४।।
पंच ततु मिलि देही का आकारा ।
घटि बढ़ि को करै विचारा ।।५।।
कहतु नानक इह जीउ करम बन्धु होई ।
बिनु सतिगुर भेटे मुकति न होई ।।६।।
*************************
बाजे पंच सबद तितु घरि सभागै ।।
घरि सभागै सबद बाजे,
कला जितु घरि धारिआ ।।
पंच दूत तुधुवसि कीते,
कालु कंटकु मारीआ ।।
धुरि करमि पाइया तुधु,
जिन कउ सि नामि हरि कै लागे ।।
कहै नानकु तह सुख होआ,
तित घरि अनहद बाजे ।।

156.

गुरु रामदासजी

(लाहौर, वि॰ सं॰ १५९१ से १६३८)
*************************

विआहु होआ मेरे बाबुला,
गुरमुखे हरि पाइआ ।।
अगिआनु अंधरा कट्टिआ,
गुर गिआनु प्रचंड बताइया ।।
बलिआ गुर गिआनु अन्धेरा विनसिआ,
हरि रतनु पदारथु लाधा ।
हउमैं रोग गइआ दुखु लाधा,
आपु आपै गुरमति खाधा ।।
अकाल मूरति वरु पाइआ,
अविनाशी ना कदे मरै न जाइआ ।।
विआहु होआ मेरे बाबुला,
गुरमुखे हरि पाइआ ।।


*************************

संत-संगि अन्तर प्रभु-दीठा ।
नामु प्रभु का लागा मीठा ।।
सगल समिग्री एकसु घट माहि ।
अनिक रंग नाना दृष्टाहि ।।
नउ निधि अंमृतु प्रभु का नामु ।
देही महि इसका विस्रामु ।।
सुन्न समाधि अनहत तह नाद ।
कहनु न जाई अचरज विस्माद ।।
तिनि देखिआ जिसु आपु दिखाये ।
नानक तिसु जन सोधी पाये।।

157.

 गुरु तेग बहादुर

(अमृतसर वि॰ सं॰ १६७९ से १७३२)
*************************

जो नर दुख में दुख नहिं मानै।
सुख सनेहु अरु भय नहिं जाकै कंचन माटी जानै ।।
नहिं निंदिया नहिं उसतति जाकै लोभु मोहु अभिमाना।
हरख सोग ते रहै निआरउ नाहि मान अपमाना ।।
आसा मनसा सकल तिआगै जग ते रहै निरासा ।
कामु क्रोध जिह परसै नाहिन तिह घट ब्रह्म निवासा ।।
गुर कृपा जिउ नर कउ कीनी तिह इह जुगति पछानी ।
नानक लीन भइओ गोविंद सिउ जिउ पानी सँगिपानी ।।

158.

गुरु गोविन्द सिंह

गुरु तेग बहादुर के पुत्र
(पटना, वि॰ सं॰ १७२३ से १७६५ )

*************************

रे मन ऐसो करि संन्यास ।
वन से सदन सबै करि समझहु, मनहीं माहिं उदास ।।
जत की जटा जोग को मंजनु, नेम के नखन बढ़ाओ।
ग्यान गुरू, आतम उपदेसहु, नाम-विभूति लगाओ ||
अल्प अहार सुल्प-सी निद्रा, दया छिमा तन प्रीत ।
सील सँतोख सदा निरबाहिबो, ह्वैबो त्रिगुण अतीत ।।
काम क्रोध हंकार लोभ हठ, मोह न मन सौं ल्यावै ।
तब ही आत्मतत्त्व कों दरसै, परम पुरुष कहँ पावै ।।

159.

उदासीनाचार्य श्री चन्द्रजी

श्री नानकदेव के पुत्र, जन्म सं॰ १५५१
(अन्तर्धान–चम्बा की पार्वत्य गुफाओं में)

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जो साधु उस परम अमृत के पेय को मन लगाकर पीता है, वही शान्ति पाता है। वह परम शक्ति इड़ा और पिंगला में दौड़ती रहती है और फिर सुषुम्ना में स्वाभाविक रूप से निवास करने लगती है। हमारा काम है कि हम सम्पूर्ण इच्छाएँ छोड़कर उस इच्छाहीन मठ में निरन्तर ध्यान लगाए रहें और उस निर्मम नगरी में गुरु-ज्ञान का दीपक जलाएँ । ....... नानक के पुत्र श्री चन्द्र ने यही मार्ग बताया है, जिसका रहस्य जान लेने पर ही तत्त्व मिल सकता है। 

160.

बाहरी भेदों के हृदय में अनुभव की एकता --->>>

(संत रामचरणजी महाराज)

रामस्नेही सम्प्रदाय, सोडा
(वि॰ सं॰ १७७६ से १८५५)
*************************

रूठा राम रिझाय मनाऊँ, निशि वासर गुण गाऊँ हो ।
नटवा ज्यूँ नाटक कर मोहूँ, सिंधू राग सुनाऊँ हो ।।टेक।।
शील संतोष क्षमा दया आभूषण, क्षमा भाव बढ़ाऊँ हो ।
सुरति निरति साँई में राखूँ , आन दिशा नहिं जाऊँ हो ।।
गर्व-गुमान पाँव से पेलूँ , आपो मान उड़ाऊँ हो।
साहिब की सखियन सूँ कबहूँ, राग द्वेष नहिं लाऊँ हो ।।
पाँचू पकड़ पचीसूँ चूरूँ, त्रिगुण कूँ विसराऊँ हो।
चौथो दाव चेत कर खेलूँ, मौज मुक्ति की पाऊँ हो ।।
इस विधि करके राम रिझाऊँ, प्रेम प्रीति उपजाऊँ हो ।
अनंत जन्म को अन्तर भागो, ‘राम चरण’ हरि भाऊँ हो ।।

161.

संत रामजनजी वीतराग

रामस्नेही सम्प्रदाय के संत
(चित्तौड़, जन्म वि॰ सं॰ १८०८)

*************************
संतों! देखि दिवाना आया ।
निस दिन रामहिं राम उचारै, जाकै नहीं मोह नहिं माया ।।टेक।।
आठौ पहर राम रस पीवै, बिसर गये गुण काया ।
अमल एक रसि उतरै नाहीं, दूणाँ दूण चढ़ाया ।।
छके दिवाना पंद गलताना, दुविध्या बूँद मिटाया ।
आपा रहत एकता बरतै, ऐसा परचा पाया ।।
बिसरै नेम प्रेम कै छाजै, बाजै अनहद तूरा ।
अम्बर भरै झरै सुख सागर, झूलै वहाँ जन पूरा ।।
अणभै छोल अगम की बाताँ, राम चरण जी भाखै ।
दास ‘रामजन’ सरण जिनूँ की, सदा राम-रस चाखै ।।

162.

 संत दरिया साहब

मारवाड़, गुरु श्री प्रेमदासजी महाराज
(वि॰ सं॰ १७३३ से १८१५)

*************************
‘दरिया सद्गुरु कृपा करि, शब्द लगाया एक ।
लागत ही चेतन भया, नेतर खुले अनेक ।।
‘दरिया’ सूरज ऊगिया, नैन खुला भरपूर ।
जिन अंधे देखा नहीं, उण से साहबदूर ।।
माया मुख जागै सबै, सो सूता करजान ।
‘दरिया’ जागै ब्रह्म दिस, सो जागा परमान ।।
*************************
चल सूआ तेरे आद राज ।
पिंजरा में बैठा कौन काज।।
बिल्ली का दुख दहै जोर ।
मारै पिंजरा तोर-तोर ।।
मरने पहले मारो धीर ।
जो पाछे मुक्ता सहज छीर ।।
सद्गुरु शब्द हृदय में धार ।
सहजाँ सहजाँ करो उचार ।।
प्रेम प्रवाह धसै जब आभ ।
नाद प्रकासै परम लाभ ।।
फिर गिरह बसाओ गगन जाय।
जहँ बिल्ली मृत्यु न पहुँचे आय ।।
आम फलै जहँ रस अनन्त ।
जहँ सुख में पाओ परम तंत ।।
झिरमिर-झिरमिर बरसै नूर ।
बिन कर बाजै ताल तूर ।।
जन ‘दरिया’ आनन्द पूर ।
जहँ बिरला पहुँचे भाग भूर ।। 

163.

स्वामी जैमल दासजी
(बीकानेर) 

राम खजानो खूटै नाहीं ।
आदि अंत केते पचि जाहीं ।।
राम खजाने जे रंग लागा ।
जामन-मरण दोउ दुख भागा।।
सायर राम खजाना जैसे
अंजलि नीर घटै वह कैसे ।।
काया मांझि खजाना पावै ।
रोम-रोम में राम रमावै ।।
‘जैमल दास’ भक्ति रस भावै।
खानाजाद गुलाम कहावै ।।

164.

स्वामी श्री हरिराम दासजी महाराज

स्वामी जैमलदासजी के शिष्य, सिंहस्थल, बीकानेर
(वि॰ सं॰ १७००)

*************************

राम नाम निजमूल है, और सकल विस्तार ।
जन ‘हरिया’ फलमुक्ति कूँ, लीजै सार सँभार ।।
*************************
मनवां राम भजन करि बल रे ।।
तज संकल्प-विकल्प को तब ही, आपा हुय निर्बल रे ।।
देखि कुसंग पाँव नहिं दीजै, जहाँ न हरि की गल रे ।।
जो नर मोक्ष मुक्ति कूँ चाहै, संतों बैसी मिसल रे ।।
संशय शोक परै करि सब ही, द्वन्द दूर करि दिल रे ।।
काम क्रोध भर्म करि कानै, राम सुमर हक हल रे ।।
मनवा उलटि मिल्या निज मन सूँ, पाया प्रेम अटल रे ।।
पाँच पचीस एक रस कीना, सहज भई सब सल रे ।।
नख सिख रोम-रोम रग-रग में, ताली एक अटल रे ।।
जन “हरिराम’ भये परमानंद, सुरति शब्द सूँ मिल रे ।।

165.

संत रामदासजी महाराज
(खेड़ापा पीठ के आचार्य,
श्री हरिरामदासजी के शिष्य,
बीकानेर-मारवाड़, वि॰ सं॰ १७८३) 

‘रामदास’ सत शब्द की, एक धारणा धार ।
भवसागर में जीव है, समझ रु उतरो पार ।।
‘रामदास’ गुरुदेव सूँ, ता दिन मिलिया जाय ।
आदि अंत लग जोड़िये, क्रोड़ीधज्ज कहाय ।।

166.

संत नारायणदासजी महाराज

सत्तगुरु अरु संतजन, राम निरंजन देव ।
जन ‘नारायण’ की विनति, दीजै प्रभु जी सेव ।।
राम नाम सतगुरु दिया, ‘नरिया प्रीति लगाय’।
चौरासी योनि टलै, पेले पार लँघाय ।।

167.

श्री हरदेवदासजी महाराज

बंदन को गम युगल है, हरि है, का गुरुदेव ।
ब्रह्म देह दाता बने, सतगुरु दीया भेव ।।
आदि ब्रह्म जन अनँत के, सारे कारज सोय ।
जेहि जेहि उर निश्चै धरे, तेहि ढिग परगट होय ।।

168.

श्री परसरामजी महाराज
गुरु स्वामी रामदासजी, बीकानेर
(वि॰ सं॰ १८२४ से १८९६) 

बंक पछिम हुय मेरु लखावे,
दसवें द्वार परम सुख पावे ।
तिरवेनी तट अखंड आनन्दा
सून्य घर सहज मिटै दुख द्वन्दा ।।
सून्य समाधि आदि सुख पावै,
सद औषध गुरु भेद बतावै ।
सब घट में सुख ऊपजै, दुख न दरसे कोय ।।
‘परसराम’ आरोग्यता, जीव ब्रह्म सम होय ।

169.

संत सेवगरामजी महाराज
स्वामी परसरामजी के शिष्य,
(वि॰ सं॰ १८६१ से १६०४) 

सब दानव देव पुनंग कहा,
यह धर्म है चारूँ वरण का रे ।
पुंन नर अरु नार अंतज येहि,
फिर मुसलमान हिंदुन का रे ।।
तुम पैंडा पिंजर में पेश करो,
नर यहि है राह रसूल का रे ।
कहै ‘सेवग’ राम हि राम रटो,
निज जानिये मंत्र मूल का रे ।।

170.

संत बाबालाल
(कुसूर, लाहौर, वि॰ सं॰ १६४७ से १७१२) 

जाके अंतर ब्रह्म प्रतीत ।
धरे मौन भावे गावे गीत ।।
निस दिन उन्मन रहित खुमार ।
शब्द सुरत जुड़ एको तार ।।
ना गृह गहे न बन को जाय।
‘लाल’ दयालु सुख आतम पाय ।

171.

संत रामानन्द स्वामी

श्री स्वामी नारायण सम्प्रदाय के आचार्य,
श्री नारायण मुनि या सहजानन्दजी के गुरु )
(वि॰ सं॰ १७६५ से १८५८)

***********************

निराकार का अर्थ है, मायाकार विहीन |
‘रामानन्द’ यह जान के, तू हो मुक्त प्रवीन ।।

172.

संत मुक्तानन्द स्वामी
(काठियावाड़,
वि॰ सं॰ १८१४ से १८८७) 

नारद मेरे संत से अधिक न कोई,
मम उर संत रु मैं संतन उर, बास करूँ थिर होई ।।ना॰।।
कमला मेरी करता उपासन, मान चपलता खोई ॥ना॰।।
यद्यपि वास दियो मैं उर पर, संतन सम नहिं होई ।।ना॰।।
भू को भार हरूँ संतन हित, करूँ छाया कर दोई।
जो मेरे सन्त को रति इक दूषन, तेहि जड़ डारूँ मैं खोई ।।ना॰।।
जिन नर तनु धरि संत न सेवे, तिन निज जननि विगोई । ‘
मुक्तानन्द’ कहत यूँ मोहन, प्रिय मोहे जन निरमोही ।।ना॰।।

173.

संत निष्कुलानन्द स्वामी
(शेखपाट गाँव, वि॰ सं॰ १८२२ से १६०४) 

संत कृपा सुख उपजै, संत कृपा सरे काम ।
संत कृपा ते पाइये, पूरण पुरुषोत्तम धाम ।।
संत कृपा ते सद्गति जागे, संत कृपा ते सद्गुन ।
संत कृपा बिन साधुता, कहिये पाया कौन ।।
कामदुधा अरु कल्पतरु,पारस चिन्तामणि चार ।
संत समान कोई नहीं, मैंने मन किये बिचार ।।

174.

संत गुणातीतानंद स्वामी
(वि॰ सं॰ १८४१ से १९२३) 

विषय सुख से आत्मसुख अत्यधिक ऊँचा है और परमात्म-प्राप्ति का सुख तो चिन्तामणि के समान है । परमात्मा की प्राप्ति संत-समागम से ही होती है; क्योंकि संतजन ही भगवान में तल्लीन रहते हैं। पुरुषोत्तम भगवान की ऐकान्तिक भक्ति में निरन्तर लगे रहो। भगवद् प्राप्ति ही मनुष्य का एकमात्र कर्तव्य है।

175.

संत शिवनारायण स्वामी
(गुरु, दुख हरणजी जहूराबाद,
वि॰ सं०१७७३-१८४८) 

सिपाही मन दूर खेलन मत जैये ।
घट ही में गंगा, घट ही में यमुना, तेहि बिच पैठि नहैये ।
अछे हो बिरिछ की शीतल छहियाँ, तेहि तरे बैठि नहैये ।
माता पिता तेरे घट ही में, नित उठि दरशन पैये ।
‘शिवनारायण’ कहि समुझावे, गुरु के शब्द हिये कैये ।।

176.

सब सन्तों का एक ही मत  --->>>

संत शिवदयाल सिंहजी (राधास्वामी महाराज)
(आगरा, वि॰ सं॰ १८७५, भादो कृष्णाष्टमी) 

मुरलिया बाज रही।
कोई सुने संत धर ध्यान ।।
सो मुरली गुरु मोहि सुनाई ।

लगे प्रेम के बान ।।
पिंडा छोड़ अंड तज भागी ।

सुनी अधर में अपूरब तान ।।
पाया शब्द मिली हंसन से ।

खैंच चढ़ाई सुरत कमान ।।
यह बंसी सतनाम बंस की ।

किया अजर घर अमृत पान ।।
भँवर गुफा ढिग सोहं वंशी ।

रीझ रही मैं सुन-सुन तान ।।
इस मुरली का मर्म पिछानो ।

मिली शब्द की खान ।।
गई सुरत खोला वह द्वारा ।

पहुँची निज अस्थान ।
सत्त पुरुष धुन बीन सुनाई ।

अद्भुत जिनकी शान ।।
जिन-जिन सुनी आन यह बंसी।

दूर किया सब मन का मान ।।
सुरत सम्हारत निरत निहारत ।

पाय गई अब नाम निशान ।।
अलख अगम और राधास्वामी ।

खेल रही अब उस मैदान ।।

177.

 पलटू साहब
(गुरु, गोविन्द साहब, अयोध्या, वि॰ सं॰ १९०॰) 

दीपक बारा नाम का, महल भया उजियार ।।
महल भया उजियार, नाम का तेज विराजा ।
शब्द किया प्रकासु, मानसर ऊपर छाजा ।।
दसों दिसा भई सुद्ध, बुद्धि भई निर्मल साँची ।
छुटी कुमति की गाँठि, सुमति परगट होय नाची ।।
होत छतीसो राग, दाग त्रिगुन का छूटा ।
पूरन प्रगटे भाग, करम का कलसा फूटा ।।
पलटू अँधियारी मिटी, बाती दीन्हीं टार ।
दीपक बारा नाम का, भवन भया उजियार ।।

178.

स्वामी निर्भयानंदजी
(गुरु, श्री कृष्णानन्दजी सरस्वती) 

गोला मारै ज्ञान का, संत सिपाही कोय ।
उत्कट जिग्यासु बनै, अजब उजाला होय ।।
अजब उजाला होय, अँधेरा सब ही नासै ।
अन्तरमुख हो लखै आत्मा अपनो भासै ।।
कहै ‘निर्भयानन्द’ होय जिग्यासू भोला ।
संत सिपाही कोय, ग्यान का मारै गोला ।।

179.

श्री हित दामोदर स्वामी

नमो नमो भागवत पुरान ।
महा तिमिर अज्ञान बढयो जब, प्रगट भये जग अद्भुत भान ।।
उदित सुभग श्री सुक उदयाचल, छिपे ग्रन्थ उड्गनन समान ।
जागे जीव निसि सोये अविद्या, कियो प्रकाश विमल विज्ञान ।।
फूले अम्बुज वक्ता स्रोता, हिमकर मन्द मदन अभिमान ।
छूटि गये कर्मन के बंधन, मिट्यौ मोह सूझे सुस्थान ।।
दरस्यौ भक्ति पंथ अनुरागी, सूझे शब्द सरूप निदान ।
देखत नहीं उलूक सकामी, यद्यपि दिनकर है विद्यमान ।।
राजत एक महा सरवोपर, बढ़यौ प्रताप और न समान ।
‘दामोदर हित’ सुर मुनि बंदित, जय जय जय श्री कृपानिधान ।।

180.

संत लक्ष्मण दासजी
(गोंडा, जन्म १६ सदी के पूर्वार्द्ध में) 

साँवरो धन धाम तुम्हारा ।।
जागेव अलख पलक अविनाशी, खोलेव गगन केवारा ।
तापर दरस दियो प्रभु ह्वै, है त्रिभुवन छवि उजियारा ।।
नाद वेद जस बाजन लागे, अनहद शब्द धुकारा ।
मुनि जन राम नाम रट लागे, संतन देत नगारा ।।
सार शिव गावै सारद खड़ी नाचै, सेस कहत मुकताला ।
देवन नृत्त करत सुरपुर चढ़ि, परछत श्री भगवाना ।।
अतर गुलाब कुमकुमा केशरि, अबिर लदा बुक मारा ।
तापर घोरि घोरि रंग मारत, चहुँ दिसि बहै रँग धारा ।।
लगि बैराट सकल छवि जाको, छकित भयौ मन हमारा |
‘लच्छन दास’ दया सतगुरु के, रघुपति चरित सिधारा ।। 

181.

अनुभव में जाति और देश-भेद नहीं  --->>>

(संत दीनदरवेश)
(जन्म वि॰ सं॰ १८९३,
स्थान-उमोडा, गुजरात) 

अमल चढ़ावा हो गया, लगी नशा चकचूर ।
आली क्यों बूझत नहीं, मिल गये साहेब नूर ।।
मिल गये साहेब नूर, दूर हुई दुविधा मेरी ।
विकट मोह की फाँस, छूट गई संगति तेरी ।।
कहत ‘दीन दरवेश’ अब यहाँ कहाँ रहावा ।
लगी नशा चकचूर हो गया अमल चढ़ावा ।।

182.

संत पीरुद्दीन
(संत दीनदरवेश के शिष्य) 

खालिक बिन दूजा कहाँ, साँई तेरा अबूझ ।
नूरे नजर देखे बिना, किस बिना किस बिध पावन सूझ ।।
किस बिध-पावन सूझ, फिरे हम अन्ध अभागी ।
मैरम नाम लिखाय, तभी हम देखा जागी ।।
कहत ‘पीरू’ दरवेश, वही है मेरा मालिक ।
साँई देख अबूझ, दूजा नहिं देखिय खालिक ।।

183.

संत दरिया खान

संत दरिया खान
(संत कमाल के शिष्य)
तेरा जलवा कौन दिखावै ।।
तेल न बाति बुझात न ज्योती, जाग्रत कौन लखावै ।
बिज चमकै झिरमिर मेंह बरसे, नवरंग चीर भिजावै ।।
पल एक पिव दीदार न दीखे, जियरा बहु तड़पावै ।
‘दरियाखान’ को खोज लगाकर,आपहि आप मिलावै ।।

184.

संत यकरंगजी

साँवलिया मन भाया रे ।।
सोहिनी सूरत मोहिनी मूरत हिरदै बीच समाया रे ।
देश में ढूँढा बिदेश में ढूँढ़ा, अन्त को अन्त न पाया रे ।।
काहू में महमद, काहू में ईसा, काहू में राम कहाया रे ।
सोच विचार कहै यकरंग पिया, जिन ढूँढ़ा तिन पाया रे ।।

185.

संत भाण साहेब
(सौराष्ट्र, जन्म वि॰ सं॰ १७५४) 

एक निरंजन नामज साथे, मन लग्यो छे मारो ।
गुरु प्रताप साधु नी संगत, आब्यो भवनो आरो ।।
कड़े कपटे कोई न राचो, सनमारग ने चाहो ।
गुरु ने वचने ज्ञान ग्रहीने, नित्य गंगा मां नाहो ।।
घट प्रकासा गुरुगम लाघी, चौरासीनो छेड़ो ।
जेरे देव ने दूर देखता, नजरे माल्यो नेड़ो ।।
अनंत करोड़ पृथ्वी माँ आतम, नजरै करीने निहालो ।
भ्रांति भ्रमणा भवनी भाँगी, शिवे जीव समाणो ।।
जल झाँझवे कोइ ना राचो, जूठो जग संसारो ।
‘भाणदास’ भगवंतने भजिये, जेहि सब भुवन पसारो ।।

186.

संत रवि साहेब
(भाण साहेब के शिष्य, गुजरात,
जन्म वि॰ सं॰ १७९३) 

राम भजन बिना नहिं निस्तारा रे,
जाग जाग मन क्यूँ सोता।
जागत नगरी में चोर न लूटै,
झख मारे जमदूता ।।
जप तप करता कोटि जतन कर
कासी जात करबत लेता।
मुवा पीछे तेरी होय न मुकती,
ले जायगा जमदूता ।।
जोगी होकर बसे जंगल में,
अंग लगावे भभूता ।
दमड़ी कारण देह जलावे,
ये जोगी नहि रे जगधूता ।।
जाकी सूरत लगी राम से,
काम क्रोध गर्दन लेता ।
अधर तख्त पै आसन लगावै
ये जोगी ने जग जीता ।।
ऊँध्या नर सो गया चौरासी,
जाग्या सो नर जग जीता।
कहै “रविदास’ भाण परतापै,
अनुभविया अनुभव पोता ।।

187.

संत गंग साहेब
(खीम साहेब के पुत्र, रवि साहेब के शिष्य) 

आये मेरे आँगन मुकुटमणी ।।
जन्म-जन्म के पातक छुटे । सतगुरु शान सुनी ।।
कोटि काम-रवि किरणों लाजे, ऐसी शोभा बनी।
कलीकाल के थाणे उठाये, शून्य शब्द जब धुनी ।।
कमलनयन कृपा मुझ पर कीन्हीं, नैनन लिखि लीनी ।
चित्त चरण से बिछुरत नाहीं, ऐसी आय बनी ।।
‘गंगदास’ गुरु कृपा कीन्हीं, मन रवि भाण भणी ।
खीमदास यह शान बताई, मिले मोहि धुन धनी ।

188.

संत बहादुर शाह
(संत रामदास के शिष्य) 

अब चौथा पद पायो संतों।।
नाभि कमल ते सुरता चाली, सुलटा दम उलटाया ।
त्रिकुटी महल की खबर पड़ी जब, आसन अधर जमाया ।।
जाग्रत स्वप्न सुषुप्ती जाणी, तुरिया तार मिलाया ।
अन्तर अनुभव ताली लागी, शून्य मँडल मैं समाया ।।
चाली सुरता चढ़ी गगन पर, अनहद नाद बजाया ।
रुनझुन-रुनझुन हो रणनकारा, वामें सुरत समाया ।।
देवी देव वहाँ कछु नाहीं, नहीं धूप नहिं छाया । ।
रामदास चरणे भणे ‘बहादुरशा’, निरख्या अमर अजाया ।।

189.

संत त्रीकम साहब
(खीम साहब के शिष्य) 

सनमुख हेरा साहब मेरा |
बाहिर देख्या भीतर देख्या,
देख्या अगम अपारा ।।
है तुझ माहीं सूफल नाहीं,
गुरु बिन घोर अँधेरा ।।
यह संसार स्वप्न की बाजी,
तामें चेत सबेरा ।।
आवागमन का फेरा टलिया,
पल में हुआ नरबेरा ।
‘त्रीकम’ सन्त खीमने चरणे,
तोड्या जमका जँजीरा ।।

190.

संत लाल साहब

हरिजन हरि दरवार के, प्रगट करे पोकार ।
शब्द पारखू लाल दास, समुझे समझनहार ।।
चेत बे चेत अचेत क्यूँ आँधरा,
आज आरु काल में उट्ठ जाई ।
मोह का सोह में सार नहीं शुद्ध की,
अन्ध की अन्ध में जन्म जाई ।।
काल कूँ मारकर कुबुधि कूँ रोधकर,
भरम का कोट कूँ भाँग भाई ।
खबर कर खबर कर खोजले नाम कूँ,
याद कर शब्द सँभाल भाई ।। 

191.

संत शाह फकीर

ध्यान लगावहु त्रिकुटी द्वार ।
गहि सुषमना विहंगम सार ।।
पैठि पाताल में पश्चिम द्वार |
चढ़ि सुमेरु भव उतरहु पार ।।
हफ्त कमल नीके हम बूझा ।
अठयें बिना एको नहिं बूझा ।।
‘शाह फकीरा’ यह सब धंद ।
सुरति लगाउ जहाँ वह चंद ।।
अनहद तानहिं मनहिं लगावै ।
सो भूला प्रभु-लोक सिधावै ।।
सुनतहिं अनहद लागै रंग ।
बरि उठै दीपक बरै पतंग ।।
‘शाह फकीरा’ तहाँ समावै ।
चिरुवा पानी नदी मिलावै ।।
मन कच्छी असि जोर है, मानत नाहीं धीर ।
कड़ा लगाम दे के पकरु, सच्चे ‘शाह फकीर’ ।।

192.

श्री रामकृष्ण परमहंस के सर्व समन्वयकारी अनुभव
कामारपुकुर (हुगली)
(गुरु, तोतापुरीजी महाराज,
सन् १८३३ से १८८६ ईस्वी ) 

‘परा भक्ति क्या है? परा भक्ति में उपासक ईश्वर को सबसे अधिक नजदीकी सम्बन्धी समझता है । ऐसी भक्ति गोपियों की श्री कृष्ण के प्रति थी ।’
‘परमेश्वर पर पूरा भरोसा रखना, और उसी पर अपने को छोड़ देना–प्रत्येक स्त्री-पुरुष द्वारा किये हुए अद्भुत चमत्कार की कुंजी है।’
‘मैले शीशे में सूर्य का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता । उसी प्रकार जिनका अन्तःकरण मलिन और अपवित्र है तथा जो माया के वश में हैं, उनके हृदय में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिविम्ब नहीं पड़ सकता । ........... इसलिए पवित्र बनो ।’
“संसार में पूर्णता प्राप्त करनेवाले मनुष्य दो प्रकार के होते हैं । एक वे जो सत्य को पाकर चुप रहते हैं .......। दूसरे वे, जो सत्य को प्राप्त कर लेते हैं, लेकिन उसका आनन्द वे अकेले ही नहीं लेते, बल्कि नगाड़ा पीट-पीटकर दूसरों से भी कहते हैं कि आओ मेरे साथ इस सत्य का आनन्द लूटो ।’
‘पहले भगवद्प्राप्ति कर लेनी चाहिए । यह न करके सिर्फ भों-भों करके शंख बजाने से क्या होगा? भगवद्प्राप्ति होने के पहले उस मन्दिर की गन्दगी निकाल डालनी चाहिए I ………… इन्द्रियों की उत्पन्न की हुई विषयासक्ति को दूर कर देनी चाहिए I....... जहाँ मन की शुद्धि हुई कि फिर उस पवित्र आसन पर भगवान अवश्य ही आ बैठेगा।’
‘सामाजिक सुधार के विषय में तुम्हें बोलना है? अच्छा बोलो, परन्तु पहले ईश्वर की प्राप्ति कर लो और फिर वैसा करो ।’
“ध्यान रखो, प्राचीन काल के ऋषियों ने ईश्वर-प्राप्ति के लिए ही अपनी सारी गृहस्थी पर तुलसी-पत्र रख दिया था । बस यही चाहिए । अन्य जितनी बातें तुम्हें चाहिए, वे सब फिर तुम्हारे चरणों में आकर पड़ेंगी।’
‘स्मरण रहे, मूल वस्तु एक ही है, केवल नामों की भिन्नता है । जो ब्रह्म है, वही परमात्मा है और वही भगवान ।’
“आकाश भी दूर से नीला देख पड़ता है, परन्तु यदि अपने समीप का आकाश देखा जाय तो उसका कोई रंग ही नहीं है IXX X इसी तरह काली के समीप- मेरी माता के निकट जाकर उसको देखो, उसका अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करो- उसका साक्षात्कार लाभ करो, तब यह देख पड़ेगा कि वह “निर्गुण और निराकार ब्रह्म’ ही है ।’
‘भक्ति-रहित कर्म से कुछ लाभ नहीं। वह पंगु है। कर्म के लिए भक्ति का आधार होना आवश्यक है।
‘ईश्वर-प्राप्ति हो- ऐसी जिसकी इच्छा है, उसको निरन्तर सत्संग करना चाहिए।’

193.

स्वामी विवेकानन्द की प्रकाश-वाणी
(रामकृष्ण परमहंसजी के शिष्य, सन् १८६३ से १९०२ ईस्वी ) 

‘विशाल ब्रह्माण्ड में भी ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ अथवा समष्टि महत् पहले अपने को ‘नाम’ में और फिर ‘रूप’ में अर्थात इस दृश्यमान-दिखलाई देनेवाले-जगत के रूप में प्रगट करते हैं । यह व्यक्त और इन्द्रिय-ग्राह्य जगत ही रूप है, इसकी ओट में अनन्त अव्यक्त स्फोट है। स्फोट का अर्थ है सम्पूर्ण जगत की अभिव्यक्ति का कारण शब्द-ब्रह्म ।’
“समस्त नाम अर्थात भाव का नित्य समवायी उपादान स्वरूप नित्य स्फोट ही वह शक्ति है, जिससे भगवान इस जगत की रचना करते हैं। केवल इतना नहीं भगवान ने पहले अपने को स्फोट-रूप में परिणत किया और फिर इस स्थूल, दृश्यमान जगत के रूप में । इस स्फोट का एकमात्र वाचक’ शब्द ‘ॐ’ है ।”
“प्रकृत रूप से उच्चारित होने पर यह ‘ॐकार’ सम्पूर्ण शब्दोच्चारण-व्यापार का सूचक है और किसी शब्द में यह शक्ति नहीं है । इसलिए ॐकार ही स्फोट का ठीक उपयोगी वाचक है और स्फोट ॐकार का प्रकृत वाच्य । वाचक और वाच्य अलग नहीं हो सकते। इसलिए ॐ और स्फोट एक ही पदार्थ है। ‘स्फोट’ व्यक्त जगत का सूक्ष्मतम अंश है, ईश्वर का अत्यन्त निकटवर्ती और ईश्वरीय ज्ञान का परम प्रकाश है, इसलिए ‘ॐकार’ ईश्वर का प्रकृत वाचक है ।” -भक्तियोग से
वह स्वयंभू इन्द्रियों से बहुत दूर है । इन्द्रियाँ वह करण या यन्त्र है, जो बाह्य जगत को ही देखती है, परन्तु वह स्वयंभू आत्मा अन्तर्दृष्टि से ही देखा जाता है । तुम्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि जिज्ञासु- इस तत्त्व को जानने की अभिलाषा रखनेवालों के लिए जो योजना आपेक्षित है, वह है- ‘दृष्टि को भीतर की ओर आकर्षित करके आत्मा को जानने की अभिलाषा ।’
‘हमें यह सीखना चाहिए कि हम अपनी ‘दृष्टि’ को किस प्रकार अन्तर्मुखी कर सकते हैं । नेत्रों की बाह्य जगत को देखने की अभिलाषा को निवृत्त कर देना चाहिए । - ‘मोक्ष का मार्ग’ से
कोई बुद्धधर्म को हिन्दूधर्म से पृथक् समझते हैं, पर उनकी यह ‘भूल’ है । हिन्दूधर्म बुद्धधर्म से भिन्न नहीं, किन्तु दोनों के संयोग से संसार का बहुत कुछ कार्य हुआ है ।....... बुद्धदेव का अवतार हिन्दू धर्म को मिटाने के लिए नहीं, किन्तु उसके ‘तत्त्व’ और विचार दृश्य स्वरूप में लाने के लिए- समता, एकता और गुप्ततत्त्वज्ञान को प्रकाश करने के लिए हुआ था । वर्ण या ‘जाति का विचार’ न कर सारी मनुष्य जाति का कल्याण करना उनका उद्देश्य था । गरीब, अमीर स्त्री, शूद्र- सभी को ज्ञानी बनाने के उच्च उद्देश्य से प्रेरित हो-कई ‘ब्राह्मण शिष्यों के आग्रह करने पर भी’ उन्होंने अपने सब ग्रन्थ संस्कृत भाषा में न रचकर ‘उसी भाषा में’ रचे, जो उस समय बोली जाती थी।

194.

अविचल श्रद्धा की दिव्यता --->>>

(विजय कृष्ण गोस्वामी)
(नदिया, बंगाल, बंगला सन् १२४८ से १३०६) 

‘यदि यथार्थ रूप से शिशु की भाँति हम रह सकें, तो भगवान माता की तरह सर्वदा हमारी देख-रेख रखते हैं।
‘चतुरंग साधन है -

(१) स्वाध्याय अर्थात् सद्ग्रथों का अध्ययन और नाम-जप,
(२) सत्संग,
(३) विचार अर्थात् सर्वदा आत्मपरीक्षा ……….. और
(४) दान ।
शास्त्रकार कहते हैं कि ‘दान’ शब्द का अर्थ है ‘दया- किसी प्राणी को किसी प्रकार क्लेश न देना । “जबतक आँख, कान आदि इन्द्रियाँ बाहरी विषयों की ओर खींचती हैं, तबतक शरीर से लाँघकर भीतर की ओर प्रवेश नहीं किया जा सकता । ‘अतिथि का सत्कार करो । अतिथि का नाम-धाम मत पूछो । अतिथि को गुरु और देवता जान कर उसकी यथासाध्य पूजा करो।’
‘भक्ति को भगवान के अतिरिक्त सभी के सामने सावधानी के साथ गुप्त रखना चाहिए ।

195.

स्वामी श्री शिवराम किंकर
योगत्रयानन्दजी महाराज
(जन्म, वाराह नगर के गंगा-तट पर) 

“शिव की-- परमेश्वर की उपासना और चित्तवृत्ति- निरोध रूप योग--ये दोनों एक ही चीज है। जीवात्मा का परमात्मा के साथ संयोग ही ‘योग’ है ।’
‘यथाविधि प्रार्थना करने से- श्रद्धापूर्ण, विमल हृदय से प्रार्थना करने से फलप्राप्ति हुई है, हो रही है, होगी-यही सत्योक्ति है।’

196.

वैदान्तिक ओज  --->>>

(स्वामी रामतीर्थ)
(पंजाब, सं॰ १९३० से १९६३ वि॰)

 ‘अहंकारपूर्ण जीवन को छोड़ देना ही त्याग है और वही सौन्दर्य है।’
“हृदय की पवित्रता का अर्थ है अपने आप को सांसारिक पदार्थों की आसक्तियों से मुक्त कर लेना ।
‘विषय-वासना हीन प्रेम ही आध्यात्मिक प्रकाश है ।’
“प्रेम ही एकमात्र दैवी विधान है । और सब विधान केवल सुव्यवस्थित लूटमार है । केवल प्रेम को ही ‘नियम-भंग’ करने का अधिकार है ।
“आप अपने असली स्वरूप की ओर ध्यान करने का प्रयत्न करें, सम्बन्धियों की तनिक भी परवाह न करें। सत्संग, अच्छे ग्रन्थ और एकान्त-सेवन द्वारा अपने स्वरूप में निष्ठा होती है और अपने स्वरूप में निष्ठा होने से सारा संसार सेवक बन जाता है ।
‘अनन्त ही परमानन्द है । किसी अन्तवान में परमानन्द-परमसुख नहीं मिल सकता । अनन्त ही परमानन्द है- केवल अनन्त ही परमानन्द है ।
‘आपके ही भीतर सच्चा आनन्द है। आपके ही भीतर दिव्यामृत का महासागर है । इसे अपने भीतर ढूँढ़िए, अनुभव कीजिए । भान कीजिए कि वह और भीतर है ।
‘हे सत्य के जिज्ञासुओ! राम तुमको विश्वास दिलाता है कि यदि तुम आत्मिक परिश्रम में रात-दिन लगे रहोगे, तो तुम्हारी शारीरिक आवश्यकताएँ अपने आप निवृत्त पड़ी होंगी।’
‘जहाँ कहीं रहो, दानी की हैसियत से काम करो । ‘भिक्षुक’ की हैसियत से कदापि ग्रहण न करो, जिससे आपका काम विश्वव्यापी काम हो–उसमें व्यक्तित्व की गन्ध भी न रहे ।’ 

197.

संत शिवयोगी सर्पभूषणजी

‘............एक क्षण रतिसुख प्राप्त करने जाकर अपार दुख भोगना पड़ता है। यह जानकर सद्गुरु की शरण होने और लौकिक व्यवहार को छोड़कर तत्त्वज्ञान को प्राप्त करके, दुख रहित होकर उस परमानन्द में लीन होने को छोड़कर, तू बुरा मत बन ।’

198.

महात्मा मस्तरामजी महाराज
(काठियावाढ़ एवं भावनगर) 

फिकिर सभी को खा गया,
फिकिर सभी का पीर ।
फिकिर की फाँकी जो करै,

ता का नाम फकीर।।

199.

स्वामी संतदेवजी, अंजावलपुर

कोई निन्दै कोई बंदे जग में,
मन में हरस माखो जी ।
आठो जाम मस्त मतवारो,
राम नाम रस चाखो जी ।।
बिहँसि मगन मन करो अनंदा,
सार शब्द मुख भाखो जी ।
“संतदेव’ जाय बसो अमरपुर,
आवागमन न राखो जी ।।

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी  

संपर्क

महर्षि मेंहीं आश्रम

कुप्पाघाट , भागलपुर - ३ ( बिहार ) 812003

mcs.fkk@gmail.com

जय गुरु!

जय गुरु!

सद्गुरु तथ्य 

01. जन्म-तिथि : विक्रमी संवत् १९४२ के वैसाख शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तदनुसार 28 अप्रैल, सन् 1885 ई. (मंगलवार)
02. निर्वाण=8 जून, सन 1986 ई. (रविवार)

श्री सद्गुरु महाराज की जय!