02. सिद्धांत-सामंजस्य

01.

युग-युग के ऋषियों, संतों तथा महर्षि मेँहीँ परमहंसजी की सिद्धान्तों में एकता और सामंजस्य  --->>>

सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर औरु अक्षर पार में ।
निर्गुण सगुण के पार में, सत् असत् हू के पार में।।
सब नाम रूप के पार में, मन बुद्धि वच के पार में ।
गो गुण विषय पँच पार में, गति भाँति के हू पार में।।
सूरत निरत के पार में, सब द्वन्द्व द्वैतन्ह पार में ।
आहत अनाहत पार में, सारे प्रपञ्चन्ह पार में।।
सापेक्षता के पार में, त्रिपुटी-कुटी के पार में ।
सब कर्म काल के पार में, सारे जंजालन्ह पार में।।
अद्वय अनामय अमल अति, आधेयता गुण पार में ।
सत्ता स्वरूप अपार सर्वाधार, मैं-तू पार में ।।
पुनि ॐ सोऽहम् पार में, अरु सच्चिदानन्द पार में ।
हैं अनन्त व्यापक व्याप्य जो, पुनि व्याप्य व्यापक पार में।।
हैं हिरण्य गर्भहू खर्व जासों, जो हैं सान्तन्ह पार में।
सर्वेश हैं अखिलेश हैं, विश्वेश हैं सब पार में।।
सत् शब्द धरकर चल मिलन, आवरण सारे पार में ।
सद्गुरु करुण कर तर ठहर, धर ‘मेँहीँ ‘ जावे पार में।।
-महर्षि मेँहीँ

ऐसे हैं परमात्मा पुरुषोत्तम, जिसे वेदों न ‘नेति-नेति’ कहकर बखान किया है। भला जो मन-बुद्धि के लिए अगोचर और अगम्य है, उसके अस्तित्व और अवस्थिति के विषय में वाणी से कथन ही क्या किया जा सकता है ? पर गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है- ‘सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहे बिन रहा न कोई।।’
‘राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर। अविगत अकथ अपार, नेति-नेति नित निगम कह।।’
यह जानते हुए भी कि वे मन, बुद्धि एवं वाणी से अतीत हैं, फिर भी मनुष्य अपने प्राप्य साधनों का कैसे और क्यों नहीं उपयोग करें ? आज तो एक-दो या कुछ व्यक्तियों का समूह ही नहीं , बल्कि कई एक देशों की अत्यधिकांश जनता ईश्वर की अस्ति, उनका होना ही स्वीकार नहीं करती, अपितु उनके मनस्वियों द्वारा रचित दर्शन भी इसी बात की परिपुष्टि करता है; यद्यपि उनके अस्तित्व और सत्ता को माननेवाले भी अनेक देशों के चिन्तकों एवं अनुभवशीलों द्वारा विरचित कतिपय दर्शन-शास्त्र उपस्थित है। वे निरीश्वरवादी या नास्तिक ‘ईश्वर की सत्ता’ को अस्वीकार कर केवल ‘प्रकृति की सत्ता’ को स्वीकार करते हैं । उनकी कथित यह प्रकृति, मूलत: जड़ात्मक है और उन्हीं जड़-अणुओं के मिश्रण या संघटन से वे ‘चैतन्य’ या चेतना का उत्पन्न हो जाना स्वीकार करते हैं । उनके द्वारा प्रतिपादित ‘अणु-परमाणु’ शक्ति सहित और चैतन्य विरहित है। उनका भौतिक विज्ञान यह सिद्ध करता है कि ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के विनियत-मिश्रण से जल का उद्भव होता है। इसके साथ यदि वे लोग बौद्धिक विकल्पों से ऐसा भी कहे कि इन दोनों तत्त्वो में जल की सत्ता या अस्तित्व कुछ भी नहीं है, तो यह बात जँचने योग्य और तर्कसंगत नहीं लगेगी। शायद वे लोग ऐसा कहना पसन्द नहीं करेंगे और इसे बुद्धि-विपरीत बात कहेंगे। पर अणुओं के मिश्रण से चैतन्य की उत्पत्ति स्वीकार करके भी वे अणुओं में चैतन्य की सत्ता को अस्वीकार करके वैसा ही कर रहे हैं । यह अपनी जीत की छिपी लालसा की जिद्द भरी वाणी है । जहाँ भौतिक विज्ञान, चैतन्य की स्वतंत्र सत्ता मानने में ही इतना भय-त्रस्त है, वहाँ जड़-चैतन्यातीत, सर्वशक्तिमान प्रभु की सत्ता का स्वीकार करना तो उसके लिए दुर्वह और असम्भव जैसा ही है। जिस मन-बुद्धि ने प्रकृति की सत्ता को कल्पना के सहारे एक रूप दे रखा है, क्या वही उसका वास्तविक रूप है? जो मन-बुद्धि मूल प्रकृति की विकृतियों से उत्पन्न हुई है, वह उस तक जा ही कैसे सकती है ? अतः भौतिक वैज्ञानिकों की प्रकृति काल्पनिक है, वास्तविक नहीं ।
असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती। ‘ नहीं कुछ’ से ‘कुछ’ का उत्पन्न होना असम्भव है। जब प्रकृति मूलतः जड़ है, तो उससे उत्पन्न यह मन-बुद्धि भी जड़ ही है और तर्क एवं सही ज्ञान की दृष्टि से होना भी चाहिए। तो, फिर इस मन-बुद्धि में जो यह चैतन्य है, वह आया कहाँ से? इस तर्कणा से जड़ प्रकृति की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म और उसमें व्यापक एक स्वतंत्र चैतन्य-सत्ता का होना अनिवार्य है, जो मन, बुद्धि, इन्द्रियों एवं शरीर में व्याप्त होकर उसे चैतन्य बनाए हुए है। नहीं तो यह सोचना, विचारना, देखना, सुनना, करना आदि असम्भव ही होता ।
भौतिक विज्ञान ने ‘जड़’ में ‘शक्ति’ की सत्ता तो स्वीकार ली है, पर उस ‘शक्ति’ को वे ज्ञानहीं न-चेतनाविहीन बताते हैं। तो अकल्पनीय काल से चलनेवाली इस सृष्टि में नियमों की आनुक्रमिकता, व्यवस्था का सुगुम्फन, प्रत्येक कार्य का सन्तुलित सिलसिला, श्रृंखलाओं की नियमबद्ध परिसृजना और इन सभी के अनुल्लंघनीय विधान जड़तत्त्व से अपने आप कैसे पैदा हो गए? क्या पक्षदोष रहित बुद्धि इसका स्वतः पैदा होना स्वीकार करती है ? आप जिद्द से कह दीजिए कि हाँ, करती है ; तो ऐसे तर्कों से कभी समाधान तक नहीं पहुँचा जा सकता है।
ऋषियों या संतों की अनुभवसिद्ध वाणियों द्वारा यह जानने में आता है कि इस मन-बुद्धि के द्वारा आत्मतत्त्व जानने की बात तो दूर-इस प्रकृति के कारण स्तर तक भी उसका प्रवेश असम्भव है।
‘मन बुधि चित अहंकार की, है त्रिकुटी लग दौर।
जन दरिया इसके परे, ब्रह्म सुरत की ठौर।।’
–संत दरिया साहब, मारवाड़वाले

मनुष्य तो साधारण रूप में यही जानता है कि मेरे पास किसी विषय को जानने के लिए आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार; ये चार अन्तरेन्द्रियाँ ही एक मात्र साधन हैं । उसे वास्तविक रूप में यह पता नहीं है कि ये सब-की-सब इन्द्रियाँ तो अपने मूलरूप में जड़ ही हैं , फिर जड़ वस्तु को किसी विषय का ज्ञान कैसे हो सकता है? ये सारी इन्द्रियाँ अन्तरात्मा या सुरत के द्वारा ही चेतना प्राप्त कर अपने-अपने विषय की वस्तु जानने में समर्थ होती है। यह संविद् या सुरत सभी इन्द्रियों में फैल गयी है- उससे मिल-जुलकर एकीभूत हो रही है, और इस प्रकार इन्द्रियों से सम्मिश्रित हो यह अन्तरात्मा ठीक इसी प्रकार देख-सुन या जान रही है जिस भाँति कोई आँखों में रंगीन चश्मा लगाकर उसी रंग से सारे दृश्यों को ओत-प्रोत हुआ देख रहे हों। चेतन या सुरत जिसके कारण अन्य इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों को जानती है, स्वयं भी सभी इन्द्रियों से अलग होकर कुछ तत्त्वों को जानती है, वही परमतत्त्व ही परमात्मा है। सुरत को विषयों एवं इन्द्रियों से अलग करने की जो क्रिया है, उसे ही योग, भक्ति और ज्ञान का मार्ग कहते हैं । विचार और भावों की रूप-भिन्नता के कारण ही तीनों शब्द निर्मित हुए हैं , पर वस्तुतः तीनों को एक दूसरे से विच्छिन्न नहीं किया जा सकता। यह योग, ज्ञान और भक्ति ही परमात्मा के पाने का पथ है, जिसे संत, ऋषि या इस पथ के पूर्ण अनुभवी सदात्मा ही बताने में समर्थ हैं । ये मार्गदर्शक ही ऋषि, सन्त और सद्गुरु कहे जाते हैं । भारत ही नहीं, सारे विश्व में जो और जितने भी ऐसे मार्गदर्शक हुए हैं, उन्हें भाषा-भेद और विचार करने के प्रकार-भेद से चाहे जो भी नाम दिया गया हो, पर वस्तुतः वे एक ही हैं । महर्षि और संतजन कहते हैं कि जिस भाँति सभी देशों के सभी मनुष्यों की एक इन्द्रिय एक ही विषय को ग्रहण कर सकती है, उसी भाँति तत्त्वज्ञान या परमात्मा को पाने के लिए भी एक ही मार्ग है, दूसरा है ही नहीं तथा सभी के अनुभवों में परमात्मा का जो स्वरूप आया है, वह भी एक ही है। इसके लिए हम सृष्टि के प्राचीनतम ग्रंथ वेद की वाणी एवं उपनिषद् के तत्त्वज्ञान से लेकर आजतक के सभी ऋषि-संतों की वाणियों को उपस्थित कर उसकी यथार्थता को परखें और उसके अर्थ-स्वरूप को समझते हुए महर्षि मेँहीँ परमहंसजी की वाणियों से उसका मिलान करें, तभी इनके अनुभवों की सत्यता और ज्ञान का सही मूल्यांकण हम कर सकेंगे। बुद्धिहीन मनुष्य ही सब प्राणियों के महेश्वर; कभी नहीं जन्मनेवाले, अनन्त और सदा अव्यक्त रहनेवाले मुझको व्यक्त या इन्द्रियगोचर मानते हैं।
- (श्री मद्भगवद्गीता) 

02.

ऋग्वेद की दिव्य वाणी

इन्द्रस्य सख्यमृभवः समानशुमनोर्नपातो अपसो दधन्विरे ।
सौधन्वनासो अमृतत्त्वमेरिरे विष्ट्वी शमीभिः सुकृत सुकृत्यया।।
अ०५ व०७। ३ अ०५ सू०६० अ०३ म०३ ख०३

भा॰- सत्यज्ञान से जिन्होंने परमात्मा से एकता प्राप्त कर ली है, ऐसे ज्ञानी पुरुषों का पुत्र या शिष्य बनकर मनुष्य पतन की ओर ले जानेवाले कर्मों का परित्याग कर अपने को उत्तम आचरणों से सदाचारी बनावे और सदाचारनिष्ठ होकर मन को शान्त-स्थिर बनानेवाले कर्मों (दृष्टियोग और शब्द-साधन) द्वारा परमात्मा में प्रवेश कर सदा का मोक्ष या अमृतत्त्व प्राप्त करे ।

आ स्वमद्म युवमानो अजरस्तृष्वविष्यन्नतसेषु तिष्ठति ।
अत्यो न पृष्ठं प्रुषितस्य रोचते दिवो न सानुं स्तनयन्नचिक्रदत्।।
अ०४ व०२३ । २ अ०११ सू०५८ अ०१ म०१ ख०१

भा॰- काष्ठों के बीच उसका भोग करती हुई अग्नि जिस भाँति उसी के आश्रय में रहती है, उसी प्रकार यह जरा से रहित आत्मा अपने भोग्य कर्मफलों को भोग्य अन्न के समान प्राप्त करती हुई आकाश, पृथ्वी आदि तत्त्वों में व्यापक रहकर, उसी का आश्रय कर पिपासिता-सी निवास करती है। जिस प्रकार तीव्र वेगों से चलनेवाला अश्व क्षिप्रता से मार्ग को पार करता हुआ अच्छा मालूम होता है - जिस प्रकार अति प्रचण्ड प्रज्वलित अग्नि का ऊर्ध्वभाग उज्ज्वल होता है, उसी प्रकार आनन्द भोग करनेवाले इस जीवात्मा का स्वरूप भी पापों को शीघ्रता से नाश कर देनेवाला, प्रकाशपूर्ण और प्यारा प्रतीत होता है। जिस भाँति आकाश-स्थित बादल विद्युत-प्रकाश करता हुआ निनाद करता है, उसी भाँति परमात्मा की भक्ति करती हुई यह आत्मा भी अन्त:प्रकाश और अन्तर्नाद करती है।

तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।।
अ०४ व०१० अ०५ सू०६२।१० अ०३ म०३ ख०३

भा॰- हमलोग उस सर्वोत्पादक, सर्वश्रेष्ठ तथा पापों को जला देनेवाले तेज का ध्यान करें, जो हमारी बुद्धि और धारणाशक्ति को सदैव उत्तम पथ में जाने की प्रेरणा करते हैं।

एता अर्षन्त्यललाभवन्तीऋतावरीरिव सङ्क्रोशमानाः।
एताविपृच्छकिमिदंभवन्तिकमापोअद्रिंपरिधिंरुजन्ति।।
अ०५ व०२५ अ०२ सू०१८।६ म०४ अ०३ ख०३

भा॰- जिस प्रकार जल से भरी हुई नदियाँ कलकल संगीत गाती हुई सागर की ओर प्रवाहित होती है, जिस प्रकार पक्षियों के कलरव गान के संग उषाएँ प्रगट होती है , उसी प्रकार सत्य से अभिव्यक्त होनेवाली प्रकृति और उसकी विकृति के सभी स्तरों में अपरिमेय माधुर्य से सनी हुई संगीत-धारा स्फुरित हो रही है, और उस संगीत की मधुरता में कोई अव्यक्त, असीम प्यार का आकर्षण लेकर निरन्तर पुकार रहे हैं । हे जिज्ञासुओ ! तुम अपनी अन्तरात्मा से पूछो कि ये मधुरतम ध्वनियाँ और संगीत की धारा क्या कह रही हैं? क्या ये सरिताएँ स्वयं ही पर्वतीय परिधियों को तोड़कर बाहर निकल आती हैं? क्या ये उषाएँ पर्वततुल्य घनान्धकारों को स्वयं ही भेदन कर बाहर में प्रगट हो जाती हैं ? और क्या ये ध्वन्यात्मक शब्द-धाराएँ स्वयं ही प्रकृति और विकृति के सारे दुर्भेद्य गिरिवत् आवरणों का छेदन कर संगीत का आकर्षण बन रही हैं ? नहीं, जिस प्रकार अन्तर्वेग और दबाव के कारण तरल सरिताएँ पहाड़ को फोड़कर निकल आती है , जिस प्रकार सूर्य के कारण उषाएँ अन्धकार की घोर कालिमा को ध्वस्त कर अपनी अरुणिम सुषमा बिखेर देती है – उसी भाँति चैतन्य आत्मा और अनन्त स्वरूपी परमात्मा ही इन रसीली, सुमधुर एवं मुग्धकारिणी आन्तर ध्वनियों को प्रकृति के सारे दुर्भेद्य आवरणों का भेदन कर सर्वत्र अपनी सरसता विस्तारित करने की सामर्थ्य प्रदान करते हैं ।

तं पृच्छता स जगामा स वेद स चिकित्वाँ ईयते सान्वीयते।
तस्मिन्त्सन्ति प्रशिषस्तस्मिन्निष्टयः स वाजस्य शवसः शुष्मिणस्पतिः।।
-अ०११ सू०१४५ अ०२ म०१ ख०१

भा॰ - हे जिज्ञासुओ ! तुम अपनी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए श्रद्धाभाव से उनके पास जाकर आदरपूर्वक पूछो, जो सर्वोच्च पद तक पहुँचे हुए हैं, जिन्होंने उस परमतत्त्व को जान लिया है; क्योंकि वे ही ज्ञानी पुरुष उस परमपद तथा वहाँ तक जाने के मार्गों का विशेष ज्ञान रखते हैं । वही सत्पुरुष दूसरों के लिए अनुसरण और अनुकरण करने योग्य हैं ।
उन्हीं के निर्देश पर ही उत्तम शासन आश्रित है, संसार के सारे उत्तम कर्म, यज्ञ, दान, तप, सत्संग तथा अन्य व्यवहारादि उन्हीं के बताये जाने पर निर्भर हैं । वे संसार के सभी ज्ञानों, गतियों, अन्नों और बलों के अधिष्ठाता हैं और वे ही बलवान पुरुषों के भी स्वामी हैं ।

त्वामीले अध द्विता भरतो वाजिभिः शुनम्।
ईजे यज्ञेषु यज्ञियम्।।४।।
-अ०२ सू०१६ अ०३ म०६ ख०४

भा॰- हे सर्वप्रकाशक प्रभो ! मनुष्य तुम सुखस्वरूप सर्वव्यापी को सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार की ज्ञानयुक्त विधि से उपासना करे, इस भाँति किए जानेवाले यज्ञों से ही तुम यज्ञीय की प्राप्ति होती है।

स पवित्रे विचक्षणो हरिरर्षति धर्णसिः।
अभि योनिं कनि क्रदत ।।
-अ०२ सूत्र ३७ अ०६ म०९ ख०६

भा॰– विश्वरूप गृह में व्यापनेवाले एवं सभी दुःखों के विनाश करनेवाले परमात्मा ऐसे मनुष्यों के हृदय में प्रगट होते हैं, जिन्होंने सदाचार से अपने को पवित्र तथा विशेष रूप से देखने की कला में अपने को निपुण बना लिया है अर्थात् दृष्टियोग-साधन में सफलता प्राप्त कर ली है।

पवित्रं ते विवं ब्रह्मणस्पते प्रभुर्गात्राणि पर्येषि विश्वतः ।
अतप्तनूर्न तदामो अश्नुते श्रृतास इद्वहन्तस्तत्समाशत ।।१।।
-अ०४ सूत्र ८३ अ०७ म०९० ख०६

भा॰- हे ब्रह्मज्ञान के अधिष्ठाता ! हे ब्रह्माण्ड के स्वामी ! हे प्रभो ! तुम्हारी पवित्रता संसार के समस्त अवयवों में चारों ओर से परिव्याप्त हो रही है। जिसने ब्रह्मचर्य, सत्यभाषण, शम, दम, योगाभ्यास, सत्संगादि तपश्चर्या से अपने को निर्मल नहीं बनाया है, जो अभी कच्चा और अपरिपक्व है, वह तुम्हारे पावन ब्रह्मस्वरूप को कभी नहीं प्राप्त कर सकता। जिन्होंने ऐसे तपों से अपने को पवित्र बना लिया है, वही उपासना में संलग्न रहते हुए तुम्हारे पवित्र स्वरूप को प्राप्त करते हैं ।  

03.

सामवेद के पावन स्तव 

उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनाम् ।
धिया विप्रो अजायत ।।९।।
प्र॰ २ (१) द॰ ५। ९ अ ०२ ख ०४

भा॰– अन्धकार-पर्वत के गंभीर गह्वर में जहाँ इड़ा और पिंगला-सरिताओं का संगम-स्थल है, वहाँ ध्यान लगाने से बुद्धिशील उपासक सिद्ध हो जाते हैं।

महे नो अद्य बोधयोषो राये दित्मती।
यथा चित नो अबोधयः सत्यवसि वाच्ये सुजाते अश्व सूनृते।।३।।
प्र॰ ५(१) द॰ ४ अ॰ ४ ख॰ ८

भा॰-हे आत्मा की सत्यस्वरूपा वाणी ! हे ध्वन्यात्मक अनाहत नाद ! हे विस्तृत ज्ञान और प्रकाश से सुसम्पन्न ! हे सब पापों को जलाकर नष्ट कर देनेवाली ! हे ज्योति स्वरूपिणी ! तू हम अज्ञान-निशा में सोये मानवों को जगाकर ब्रह्मज्ञान की उपलब्धि करा ।

प्र सुन्वानायान्धसो मर्तो न वष्ट तद्वचः।
पृथ्वी अपश्वानमराधसं हता मखं न भृगवः।।१।।
प्र०६ (२) द॰ ६ अ॰ ५ ख॰ ८

भा॰– साधारण मरणधर्मा पुरुष जिसने अन्धकार को नाश करनेवाले परमानन्द स्वरूप सोमरस को अर्थात दृष्टिसाधन द्वारा प्राप्त चन्द्र की शीतल रश्मियों को प्राप्त नहीं किया, वह उस दिव्य प्रकाश में स्थित सुधारस पूरिता अनाहत वाणी को कभी नहीं उपलब्ध कर सकता। भृगु अर्थात दृष्टियोग में सफल होकर जिन्होंने ज्ञानाग्नि से पाप को भून दिया है, जो कर्म मंडल से ऊपर उठ गए हैं , वे कर्मफल के लोभी एवं कुक्कुर के समान पुनः-पुनः भोगों की अभिलाषा करनेवाली चित्तवृत्तियों को विनष्ट कर देते हैं ।

ईजे यज्ञेभिः शशमे शमीभिर्ॠधद्वारायाग्नये ददाश।
एवा चन तं यशसामजुष्टिर्नांहो मर्तं नशते न प्रदृप्तिः।।
अ०५ व०२।२ अ०१ सू०३ अ०३ म०६ ख०४

भा॰-- जो पुरुष जप, उपासना, सत्संग, देवपूजनादि करते हैं तथा सदाचार-पालन कर अपने को शान्त रखते हैं, ऋषियों, ब्रह्मज्ञानी पुरुषों को अन्नादि से तृप्त करते हैं, वे मानो अग्नि में आहुति देकर यज्ञ करते हैं। ऐसे यज्ञ करनेवाले को निश्चय ही यज्ञ और अन्नों का भी अभाव नहीं होता और उनको दर्प तथा अन्य पाप भी स्पर्श नहीं करते हैं ।

इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
योअस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद।।
अ०७ व०१७। ७ अ०११ सू०१२ अ०८ म०१० ख०७

भा॰- यह विविध प्रकार की सृष्टि जिस मूल-तत्त्व से प्रगट हुई है, और जो इस जगत को धारण कर रहा है और जो उसे नहीं धारण करता, जो इसका अध्यक्ष है, वह परमाकाश में विद्यमान है। वह सभी तत्त्वों को जानता है, चाहे और कोई भले ही न जाने ।

अभिक्रन्दन् कलशं वाज्यर्षति पतिर्दिवः शतधारो विचक्षणः ।
हरिर्मित्रस्य सदनेषु सीदति मर्मृजानोऽविभिः सिन्धुभिर्वृषा।।२।।
प्र॰ ४ (१) सू॰ १ अ॰ ७ खंड १।२

भा॰– सर्वशक्तिमान, दिव्यलोकों के परिपालक, असंख्य धारणाशक्तियों और वाणियों से युक्त, सभी तापों एवं पापों को हरनेवाले, सबको सुगति देनेवाले परमात्मा नाद करते हुए जीवधारियों के शरीर में विराजमान हैं ।

कण्वा इन्द्रं यदक्रत स्तोमैयज्ञस्य साधनम्।
जामि बुवत आयुधा ।।२।।
प्र॰ ५ (२) अ॰ १०। २ खण्ड ६ सू॰ १०

भा॰-- ज्ञानीगण जब अध्यात्म यज्ञ करते हैं, तब स्थूल साधनों-द्रव्यादिकों से होनेवाले यज्ञों को ‘प्रयोजन रहित सहयोगी मात्र’ कहते हैं । 

04.

यजुर्वेद के निगुढ़ निर्देश 

सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयँ सह।
विनाशेन मृत्युं तीत्र्वा सम्भूत्यामृतमश्नुते।।
अ॰ ४० मन्त्र १ खण्ड २

भा॰– जो सम्भूति (उत्पत्ति, सृजन, आविर्भूति) एवं विनाश (असम्भूति, अव्यक्त, अजन्म), व्यक्त और अव्यक्त, अविनाश-तत्त्व और विनाश-तत्त्व, क्षर एवं अक्षर दोनों को एक साथ जानता है, वह विनाश के द्वारा मृत्यु को पार कर जाता है और आविर्भाव के द्वारा अमृतत्त्व का उपभोग करता है यानी वह जीवनकाल में ही व्यक्त और अव्यक्त अर्थात सगुण और निर्गुण ब्रह्म दोनों को ज्ञानगत कर क्षर-अक्षरातीत परमात्मा को उपलब्ध कर लेता है और जीवन्मुक्त होकर सम्पूर्ण ज्ञानानन्द का उपभोग करता रहता है। वह सम्भूति (जन्म) और असम्भूति (अजन्म) दोनों से ऊपर उठ जाता है और परमानन्द-मग्न रहता है।

त्वामग्नेऽअंगिरसो गुहा म हितमन्वविन्दञ्छिश्रियाणं वने-वने ।
स जायसे मश्यमानः सहो महत त्वामाहु सहसस्पुत्रमंगिरः।।
ऋ॰ ५।११।६; अ॰ १५ मन्त्र २८ खण्ड १

भा॰-- जिस भाँति प्रत्येक काष्ठ में अग्नि व्याप्त और अप्रगट है, उसी भाँति हृदय के गुह्य स्थान में स्थित जीवात्मा में परिव्याप्त परमात्मा भी ध्यानाभ्यासरूपी मन्थन से ब्रह्मज्ञानी जनों द्वारा ज्योतिरूप में उपलब्ध किए जाते हैं ।

ताँ सवितुर्वरेणस्य चित्रामाहं वृणे सुमतिं विश्वजन्याम् ।
यामस्य कण्वोऽअदुहत्प्रपीनाँ सहस्रधाराम्पयसा महीं गाम् ।।
अ॰ १७ मन्त्र ७४ खण्ड १

भा॰– हम सर्वश्रेष्ठ, वरण करने योग्य, सबकी प्रकाशिका, विश्व को उत्पन्न करनेवाली तथा ज्ञान प्रदान करनेवाली सहस्रों धाराओं से युक्त वाणी का सेवन करें, जिसे ऋषिगण हृष्ट-पुष्ट गायों की भाँति दोहन कर (ध्यान से उपलब्ध कर) ज्ञानरूपी दुग्ध प्राप्त करते हैं ।

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेवविदित्वादिमृत्युमेतिनान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।।
अ॰ ३१ मन्त्र १८ खण्ड २

भा॰- हम अन्धकार से परे आदित्य वर्ण सदृश उस महान पुरुष को साक्षात् रूप से जानते हैं, जिसे जान लेने पर ही मृत्यु को लांघकर कोई अमृतत्व की प्राप्ति करते हैं । इस अमृतत्त्व को पाने के लिए परमात्मा के साक्षात्कार करने के अतिरिक्त और कोई पन्थ है ही नहीं । 

05.

अथर्ववेद का सर्वश्रेष्ठ यज्ञ-विधान 

त्वष्टा युनक्तु बहुधानुरूपा अस्मिन्यज्ञे सुयुजः स्वाहा।
खण्ड १ काण्ड ५ सू॰ २६ मन्त्र ८

भा॰- हे उत्तम योगियों ! इस आत्मसाक्षात्काररूपी सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक यज्ञ में इन्द्रियों और चित्त की बहुधा रूपा वृत्तियों को शान्त और विलीन करना ही श्रेष्ठ आहुतियाँ है।

तेन देवा ज्योतिषा द्यामुदायन् ब्रह्मौदनं पक्त्वा सुकृतस्य लोकम्।
तेन गेष्म सुकृतस्य लोकं स्वरारोहन्तो अभिनाकमुत्तमम्।।
खण्ड ३ काण्ड ११ सू॰ १ मन्त्र ३७(४)

भा॰— जिस दिव्य ज्योति द्वारा तत्त्वद्रष्टा लोग ब्रह्म रूप ओदन (भात) का परिपाक कर सत्कर्म, सत्संग और ध्यानादि कर्म करनेवालों के लोकों को प्राप्त कर आनन्द रस की उपलब्धि करते हैं, हम भी स्वरों पर आरोहण करते हुए अर्थात मन को ज्योतिर्विन्दु में केन्द्रित कर ध्वन्यात्मक नादों के सहारे उत्तरोत्तर उच्च स्वर्ग-लोकों पर चढ़ते हुए उच्चतम-स्वर्ग यानी परमधाम को प्राप्त कर लेते हैं।

वृषभो न तिग्मशृंगोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत्।
मन्थस्त इन्दु शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ।। १५ ।।
खण्ड ४ स॰ १२६ काण्ड २०

भा॰- जिस प्रकार तेज सींगोंवाला साँढ़ गौओं के झुण्ड के मध्य बराबर गर्जना करता है, उसी भाँति अज्ञानान्धकार को नाश करनेवाले तीक्ष्ण प्रकाश से युक्त प्रत्येक मण्डल के अन्त या मिलन स्थान में ध्वन्यात्मक नामों की बाँसुरी निरन्तर बज रही है। हे सर्व ऐश्वर्यों से पूर्ण प्रभो ! भक्ति-भावों से युक्त योगीगण उपासना करके उस नाद-माधुरी को प्राप्त करते हैं। यह नाद सभी दुःखों का मन्थन और विनाश कर हृदय को शान्ति देनेवाला होता है और यही विश्व-ब्रह्माण्ड से अतीत तुझ परमेश्वर को प्राप्त करने का एकमात्र साधन है।

उपर्युक्त वेद-वाणियों से यह जानने में आता है कि निर्गुण-सगुणातीत परमात्मा को, उनके दोनों रूपों की उपासना करके मनुष्य प्राप्त करें। इसके लिए ज्ञानी या सदगुरु की संगति कर उनकी बतायी विधि से मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि-साधन तथा नादानुसन्धान करना परमावश्यक है। ऐसी ज्ञानयोगमयी भक्ति करके ही उसे पाया जा सकता है । इसको छोड़कर और कोई दूसरा रास्ता है ही नहीं ।
अब उपनिषदों, दर्शनों, तन्त्र-ग्रन्थों, रामायण, महाभारत, गीता, पुराण एवं सन्तवाणियों की भी हम इसी दृष्टि से समीक्षा और अनुशीलन करें ।
वैदिक मतावलम्बियों एवं भारतीय संस्कृति के पुजारियों के लिए वेद-वाणी ही सिद्धान्त-प्रमाण की सर्वोपरि वस्तु मानी जाती है। इस प्रमाण के विरोधी सिद्धान्तों को इस धर्म के अनुयायीगण अग्राह्य और त्याज्य मानते हैं।  

06.

उपनिषद् की अनुभवसिद्ध महावाणी  --->>>

यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।
–केनोपनिषद्

भा॰—जो मन से मनन नहीं किया जा सकता, बल्कि मन ही जिसके मनन का विषय कहा जाता है, उसी को तू ब्रह्म जान । जिस मन-बुद्धि-गोचर वस्तु की लोक उपासना करता है, वह ब्रह्म नहीं है।

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम् ।।
-कठोपनिषद्, द्वितीय वल्ली, अध्याय १, श्लोक २३

भा॰—यह आत्मा प्रवचन करने, बहुत-बहुत इस विषय की चर्चा सुनने और तेज स्मरण एवं धारण-शक्तिवाली बुद्धि से भी प्राप्त नहीं की जा सकती। यह जीवात्मा जिस आत्मा का वरण करता है, मन-बुद्धयादि से अपने को अलग कर उस जीवात्मा या निर्मल चेतन द्वारा ही उस आत्मा की उपलब्धि होती है। ऐसी निर्मल सुरतवालों के समक्ष यह आत्मा अपने स्वरूप को स्वतः ही अभिव्यक्त कर देती है।

नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नसमाहितः।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्।।
-कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली २, श्लोक २४

भा॰—जिसने दुश्चरित्रता को नहीं छोड़ा है, जिसकी इन्द्रियाँ विषयों से उपराम होकर शान्त नहीं हुई है, अर्थात विषय-भोग में चंचलायमान है, जिसका मन असमाहित, अकेन्द्रित, चंचल और अशान्त है, वह व्यक्ति श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त करके भी उस ज्ञान के द्वारा आत्मा को नहीं प्राप्त कर सकता।

उतिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।१४।।
अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथारसं नित्यमगन्धवच्चयत्
अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते।। १५।।
-कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३

भा॰- ओ अज्ञान-निद्रा में सोए जीवो ! उठो, जागो और श्रेष्ठ पुरुषों-ऋषियों के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करो। जिस प्रकार छूरे की धार तेज और दुस्तर होती है, तत्त्वज्ञानी लोग उस मार्ग को वैसा ही दुर्गम बतलाते हैं ।।१४।।
जो शब्दातीत, स्पर्श रहित, रूपहीन, अव्यय, रस से परे, गन्ध से अतीत और नित्य है, जो अनादि, अनन्त, महतत्त्व से भी पर और ध्रुव है, उस आत्मतत्त्व को जानकर पुरुष मृत्युमुख से सदा के लिए छूट जाता है। (स्थूल, सूक्ष्म, कारणादि किसी भी शरीरों में बद्ध पुरुष मृत्युमुख से नहीं छूट सकता) ॥१५॥

इन्द्रियेभ्यः परं मनो मनसः सत्त्वमुत्तमम्।
सत्त्वादधि महानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम् ॥७॥
अव्यक्तात्त परः पुरुषो व्यापकोऽलिंग एव च।
यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्वं च गच्छति ।।
-कठोपनिषद्, अ॰ २, वल्ली ३

भा॰–इन्द्रियों से मन उत्कृष्ट है, मन से बुद्धि श्रेष्ठ है, बुद्धि से महतत्त्व बढ़कर है, महतत्व से अव्यक्त उत्तम है और अव्यक्त से भी पुरुष पर है, वह व्यापक तथा अलिंग है, जिसे जानकर मनुष्य मुक्त होता है और अमरत्व को प्राप्त हो जाता है । 

07.

मुण्डकोपनिषद्वाणी 

दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः सबाह्याभ्यन्तरो ह्यजः।
अप्राणोह्यमनाः शुभ्रोह्यक्षरात्परतः परः ।।२।। - मुण्डक २, खण्ड १

भा॰- निश्चय ही दिव्य, अमूर्त पुरुष बाहर-भीतर विद्यमान, अजन्मा, प्राणातीत,मनोहीन, परिस्वच्छ और अक्षर से भी पर है।

एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी ।।३।।
-मुण्डक २, खण्ड १

भा॰- इस अक्षर से ही प्राण, मन, सभी इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, ज्योति (अग्नि), जल और विश्व को धारण करनेवाली पृथ्वी उत्पन्न होती है।

न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मणा वा ।
ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः ।।८।।
- मुण्डक ३ खण्ड १

भा॰- यह क्षराक्षरातीत परम पुरुष न आँखों से ग्रहण किया जा सकता है, न वाणी से, न अन्य इन्द्रियों से, न किसी प्रकार के तप से और न किसी प्रकार यज्ञ-दानादि विविध पुण्यकर्मों से ही। ज्ञान के प्रसाद से जिसका सत्व-अन्त:करण विशुद्ध हो जाता है, वही निष्कल-मधुर अव्यक्त ध्वनि से परे परमात्मा का ध्यान के द्वारा साक्षात्कार करता है। 

08.

प्रश्नोपनिषदीय वाणी  

तस्मै स होवाच एतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोङ्कार । 

तस्माद्विद्वानेतेनैवाय तनेनैकतरमन्वेति ।।२।। 

प्रश्न ५


भा॰- इस प्रकार पूछनेवाले सत्यकाम से पिप्पलाद ऋषि ने कहा- ‘हे सत्यकाम ! यह ॐकार ही पर और अपर ब्रह्म का प्रतीक है। इस ॐ ध्वनि का आलम्बन लेकर की विद्वान पुरुष इनमें से किसी एक ब्रह्म-रूप को प्राप्त हो जाता है। 

09.

ईशावास्योपनिषद् की महावाणी 

अन्धंतमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाँ रताः ।।।।

भा॰– केवल अविद्या-क्षर पुरुष, सगुण ब्रह्म, अपरा प्रकृति-मण्डलस्थ चेतनाओं की ही उपासना करनेवाले घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं और जो केवल विद्या- अक्षर पुरुष, निर्गुण ब्रह्म, परा प्रकृति, व्यष्टि चैतन्य की उपासना में ही रत हैं, वे मानो उससे भी यानी अविद्या की उपासना करनेवालों से भी अधिक घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं । क्योंकि अन्धकार और अज्ञान में निवास करनेवालों के हृदय में प्रकाश और ज्ञान पाने की अभिलाषा उदय होने की सम्भावना अधिक है और जिसने परा प्रकृति-मण्डलस्थ प्रकाश और ज्ञान को ही अन्तिम या सर्वोच्च तत्त्व मान लिया है, उसमें सगुण-निर्गुणातीत परमात्मा को पाने की इच्छा का जाग्रत होना अपेक्षाकृत कठिन है और दोनों प्रकृतियों से पार जाने पर ही कोई आवागमन के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

अन्धंतमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्याँ रताः।।२।।

भा॰–जो केवल असम्भूति-नहीं जन्म लेनेवाले, अक्षर पुरुष, परा प्रकृति, निर्गुण ब्रह्म की ही उपासना करते हैं, वे घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं और जो केवल सम्भूति-जन्म धारण करनेवाले, क्षर पुरुष, सगुण ब्रह्म, अपरा प्रकृति या कार्यब्रह्म को ही सर्वोच्च तत्त्व मानकर उसकी ही उपासना में तल्लीन हैं, वे मानो उससे भी यानी असम्भूति की उपासना करनेवालों से भी अधिक घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं । क्योंकि निर्गुण ब्रह्म की उपासना करनेवाले, तो चिरकालीन आनन्द का उपभोग करते हैं और क्षराक्षरातीत परमात्मा के सामीप्य से शीघ्र ही मोक्ष-प्राप्ति की ओर भी उन्गमन कर सकते हैं , पर सम्भूति- अपरा प्रकृतिस्थ चेतनाओं-सगुण-कार्यब्रह्म की उपासना को ही एकमात्र सर्वोच्च गति माननेवाले उपासक सदा दुख-सुखमय आवागमन के चक्र में पड़े रहते हैं, उन्हें मोक्ष मिलने की कोई सम्भावना नहीं रहती; अतः वे मानो और भी घोरतर अन्धकार में ही प्रवेश किए हुए हैं ।
जो उपासक अपरा-परा दोनों प्रकृतियों, सगुण-निर्गुण दोनों ब्रह्म, जन्म लेने और जन्म नहीं लेनेवाले दोनों तत्त्वों का पूरा ज्ञान प्राप्त कर उन दोनों से अतीत परम पुरुष पुरुषोत्तम-परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं, वे ही वास्तव में आवागमन के चक्र से मुक्त होकर सर्वांगपूर्ण ज्ञानी कहे जाने योग्य हैं तथा मोक्ष के अधिकारी हैं।

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ।।

भा॰- सत्य, अपरिवर्तनशील तत्त्व या ब्रह्म का मुख हिरण्मय- ज्योतिर्मय पात्र से आच्छादित है। हे पूषन् ! ज्योति के केन्द्र और अधिष्ठाता ! आप उस ज्योति के आवरण को ब्रह्मतत्त्व के मुख पर से हटा दें, जिससे हम सत्य के उपासक उसके निरावरणित स्वरूप के दर्शन कर सकें।
परमात्मा के उपासक जब ब्रह्म-ज्योति के दर्शन करते हैं , तो उन्हें ऋद्धि-सिद्धि के अनेकों प्रलोभन घेरे रहते हैं , यद्यपि यह ज्योतिर्दर्शन भी विरले ही सौभाग्यशाली को प्राप्त होते हैं । इसीलिए जबतक योगी इस ज्योति के आवरण को पार नहीं कर लेते हैं तबतक उनके पतन की सम्भावना बनी रहती है। वासनाओं के प्रलोभन से सम्पूर्णतया ऊपर उठ जाने के लिए भक्तों को ज्योतिमण्डल को पार कर नादानुसन्धान में प्रवृत्त होना पड़ता है। वहाँ मन उन्मन हो जाता है। सारी चित्तवृत्तियाँ लय को प्राप्त हो जाती हैं और पतन होने का भय मिट जाता है। नाद का आकर्षण क्रमशः जीवात्मा को खींचते हुए परमात्मा की गोद में ले जाकर बैठा देता है। 

10.

छान्दोग्योपनिषद् में नादोपासना  

अथ यदतः परो दिवो ज्योतिर्दीप्यते विश्वतः पृष्ठेषु सर्वतः पृष्ठेष्वनुत्तमेषूत्तमेषु लोकेष्विदं वाव तद्यदिदमास्मिन्नन्तः पुरुषे ज्योतिस्तस्यैषा दृष्टिः।।७।। यत्रै तदस्मिञ्छरीरे सँस्पर्शनोष्णिमानं विजानाति तस्यैषा श्रुतिर्यत्रतत्कर्णावपिगृह्य निनदमिव नदथुरिवाग्नेरिव ज्वलत उपशृणोति तदेतदृष्टं च श्रुतं चेत्युपासीत चक्षुष्यः श्रुतो भवति य एवं वेद य एवं वेद ।
अध्याय ३, खण्ड १३

भा॰-जो कि इस लोक से परे अन्तराकाश में ज्योति चमकती है, वही इस विश्व की पीठ पर, सबकी पीठ पर तथा उत्तम एवं अनुत्तम सभी लोकों में प्रकाशित होती है। यह अन्त:पुरुष की ही ज्योति है, उसी की यह चेतन दृष्टि है। इस शरीर को छूने से गर्मी का ज्ञान उसी के कारण होता है। कानों को बन्द कर जो जलती हुई आग की गर्जन सदृश एवं मधुर निनादवत् ध्वनि सुनाई पड़ती है, वह अन्तरात्मा की ही श्रुति है। इस भाँति उसे देखा और सुना भी जा सकता है, अतः चक्षुष्य और श्रुत दोनों से उसकी उपासना करनी चाहिए अर्थात दृष्टियोग एवं नादानुसन्धान के द्वारा उसकी उपासना करनी चाहिए। जो इस रहस्य को ठीक-ठीक जानता है, वही वास्तव में ज्ञानी है।  

11.

मुक्तिकोपनिषद् में मुक्ति-पथ  

चतुर्विधा तु या मुक्तिर्मदुपासनया भवेत् ।।
इवं कैवल्यमुक्तिस्तु केनोपायेन सिध्यति।
माण्डूक्यमेकमेवालं मुमुक्षुणां विमुक्तये।।
- पहला अध्याय

भा॰–चारों भाँति की जो मुक्ति है, वह मेरी उपासना से ही प्राप्त होती है। अब जिस उपाय से कैवल्य मुक्ति सिद्ध होती है, उसका वर्णन होता है। मुमुक्षुगण को कैवल्य मुक्ति प्रदान करने में केवल माण्डूक्योपनिषद् ही समर्थ है।

दयासमुद्रं सद्गुरुं विधिवदुपसंगम्योपहारपाणयोऽष्टोत्तरशतोपनिषदं विधिवदधीत्य श्रवणमनननिदिध्यासनानि नैरन्तर्येण कृत्वा प्रारब्धक्षयादेहत्रयभगं प्राप्योपाधिर्विनिमुक्त घटाकाशवत्परिपूर्णता विदेहमुक्तिः सैव कैवल्यमुक्तिरिति। अतः सर्वेषां कैवल्य मुक्ति मात्रेणोक्ता। न कर्मसांख्ययोगोपासनादिभिरित्युपनिषत्।
अध्याय १

भा॰—हाथों में श्रद्धोपहार लिए दयासमुद्र सद्गुरु के समीप गमन करके उनसे १०८ उपनिषदों को पढ़कर निरन्तर उसका श्रवण-मनन एवं निदिध्यासन करना चाहिए। इस भाँति अनुष्ठान करने से प्रारब्ध कर्मों का विनाश होकर तीनों देहों (स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण) का आवरण विनष्ट हो जाता है। तब उपाधियों से मुक्त हुए घटाकाश की भाँति परिपूर्णता रूप विदेहमुक्ति की प्राप्ति हो जाती है-इसी को ‘कैवल्यमुक्ति’ कहते हैं। इससे जानने में आता है कि केवल कैवल्य मात्र के ज्ञान से ही कैवल्यमुक्ति साधित होती है। कैवल्य-ज्ञान-विहीन कर्मयोग, सांख्य-योगादि उपासनाओं से नहीं ।

अध्याय २ -
द्वे बीजे चित्तवृक्षस्य प्राणस्पन्दनवासने ।
एकस्मिंश्च तयोः क्षीणे क्षिप्रं द्वे अपि नश्यतः।।

भा॰-चित्तरूप वृक्ष के दो बीज हैं , प्राणस्पन्दन और वासना। इन दोनों में से किसी एक के क्षीण हो जाने से दोनों का ही नाश हो जाता है।

उपविश्योपविश्यैकां चिन्तकेन मुहुर्मुहुः।
न शक्यते मनो जेतुं विना युक्तिमनिन्दिताम्।।

भा॰—एकान्त में बैठकर बारंबार चिन्तन करने पर भी बिना ‘सद्युक्ति’ के कोई भी मनोजय करने में समर्थ नहीं होता है।

चित्तैकाग्र्याधतो ज्ञानमुक्तं समुपजायते।
तत्साधनमथो ध्यानं तथावदुपदिश्यते।।

भा॰—जिससे ज्ञान और मुक्ति उपजती है, ऐसे ध्यान का कारण मन की एकविन्दुता (चित्त की एकाग्रता) है, अब तुमको जना दिया गया ।

ब्रह्माकार मनोवृत्तिप्रवाहोऽहंकृति विना।
सम्प्रज्ञातसमाधिः स्याद्ध्यानाभ्यासप्रकर्षतः।।

भा॰–जब मनोवृत्ति का प्रवाह अहंकार-विहीन होकर ब्रह्माकार बन जाती है, तब उस दशा को संप्रज्ञात समाधि कहते हैं । यह अतिशय ध्यानाभ्यास से प्राप्त होती है ।

प्रशान्तवृत्तिकं चित्तं परमानन्ददायकम्।
असम्प्रज्ञातनामायं समाधिोगिनां प्रियः।।

भा॰–जब चित्त की सम्पूर्ण वृत्तियाँ प्रशान्त हो जाती हैं, तो उस अवस्था को असंप्रज्ञात समाधि के नाम से अभिहित किया जाता है। यह समाधि योगियों को अत्यन्त प्यारी है।

प्रभाशून्यं मनःशून्यं बुद्धिशून्यं चिदात्मकम्।
अतद्व्यावृत्तिरूपोऽसौ समाधिर्मुनि भावितः।।

भा॰—ज्योति, मन और बुद्धि से रहित होकर केवल चैतन्य आत्मा ही रहे, यह ‘अतद्व्यावृत्ति’ समाधिस्थ मुनियों से अभिलषित है।

जिसको किसी दूसरे की आवश्यकता ही नहीं रहे, ऐसी वृत्ति और स्थिति को अतव्यावृत्ति कही जाती है।

दर्शनादर्शने हित्वा स्वयं केवलरूपतः।
य आस्ते कपिशार्दूल ब्रह्म स ब्रह्मवित्स्वयम्।।

भा॰- हे कपिशार्दूल ! दृश्य को त्यागकर जो कैवल्य स्वरूप हो जाता है, वह ब्रह्मज्ञानी नहीं , बल्कि स्वयं ब्रह्म ही है।

अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्।
अनामगोत्रं मम रूपमीदृशं भजस्व नित्यं पवनात्मजातिहन्।।

भा॰- भगवान श्री रामचन्द्रजी कहते हैं -हे पवनपुत्र ! अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अविनाशी, अस्वाद, अगन्ध, अनाम और गोत्रहीन, दुख हरण करनेवाले मेरे इस तरह के रूप का तुम नित्य भजन करो।  

12.

ब्रह्मोपनिषद् में जीव-निवास  

नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत्।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्नि संस्थितम् ।।

भा॰-जीवात्मा जाग्रत अवस्था में नेत्र में स्थित रहता है, स्वप्न में वह कण्ठ में प्रवेश कर जाता है, सुषुप्ति में वह हृदय में निवसित होता है और तुरीयावस्था में वह मस्तक में संस्थान करता है। 

13.

नाद-बिन्दूपनिषद् में सुरत-शब्द-योग 

ब्रह्मप्रणव संधानं नादो ज्योतिर्मयः शिवः।
स्वयमाविर्भवेदात्मा मेघापायेंऽशुमानिव।।३०।।

भा॰–ब्रह्म और प्रणव (ॐ) के सन्धान- योग से वह नाद प्रगट होता है, जो ज्योतिर्मय और कल्याणकारी है। नाद प्राप्त हो जाने पर उपासक के लिए आत्मा स्वयं ही उसी प्रकार आविर्भूत-प्रगट हो जाता है, जिस प्रकार बादलों के छिन्न-भिन्न हो जाने पर सूर्य चमकता है।

अभ्यस्यमानो नादोऽयं बाह्यमावृणुते ध्वनिः।
पक्षाद्विपक्षमखिलं जित्वा तुर्यपदं वजेत्।।३२।।

भा॰- इस भाँति नाद का अभ्यास करते रहने से वह बाहरी ध्वनियों को आवृत कर लेता है और पक्ष-दो-पक्ष में नादोपासक भी बाहरी बाधाओं पर विजय प्राप्त कर तुरीयावस्था में प्रवेश कर जाता है।

उदासीनस्ततो भूत्वा सदाऽभ्यासेन संयमी।
उन्मनीकारकं सद्यो नादमेवावधारयेत्।। ४०।।

भा॰-योगी सभी विषयों से उदासीन होकर तथा अपने मनोविकारों को नियंत्रित करके अपने ध्यान को निरन्तर अभ्यास द्वारा नाद पर स्थित करे, जिससे उन्मनी दशा प्राप्त होती है।

ब्रह्मप्रणवसंलग्ननादो ज्योतिर्मयात्मकः।
मनस्तत्र लयं याति तद्विष्णोः परमं पदम्।।४६।।

भा॰- ब्रह्म से उत्थित प्रणव नाद ज्योतिर्मय है। मन इसमें लीन हो जाता है। यही विष्णु का परम पद है।

तावदाकाशसंकल्पो यावच्छब्दः प्रवर्तते।
निशब्दं तत्परं ब्रह्म परमात्मा समीयते।। ४७।।

भा॰-जबतक आकाश संकल्प है, तबतक नाद भी रहता है। उसके परे अशब्द परब्रह्म परमात्मा स्थित है।

नादो यावन्मनस्तावन्नादान्तेऽपि मनोन्मनी।
सशब्दश्चाक्षरे क्षीणे निशब्दं परमं पदम्।।४८।।

भा॰–जबतक नाद की स्थिति रहती है, तबतक मन भी रहता है। नाद के विलीन हो जाने पर मन उन्मन हो जाता है अर्थात मन संकल्प-विकल्प त्यागकर लय हो जाता है। । नाद अक्षर ब्रह्म में विलीन हो जाता है। यह निःशब्द पद ही परमपद है।। ४९।।

नादकोटिसहस्राणि विन्दुकोटिशतानि च।
सर्वे तत्र लयं यान्ति ब्रह्म प्रणवनाद के।।५०।।

भा॰- असंख्य नाद और अगणित विंदु ब्रह्म के प्रणव नाद में विलीन हो जाते हैं।

दृष्टिः स्थिरा यस्य विना सदृश्यं वायुः स्थिरो यस्य विना प्रयत्नम्।
चित्तं स्थिरं यस्य विनावलम्बं स ब्रह्मतारान्तरनादरूपः ।।५४||

भा॰-जिसकी दृष्टि बिना किसी दृश्य आधार के स्थिर हो जाती है, जिसकी प्राणवायु बिना किसी प्रयत्न के अचल हो जाती है, जिसका चित्त बिना किसी अवलम्ब के स्थिर हो जाता है, वह स्वयं ही तारब्रह्म के आन्तरिक नाद का स्वरूप हो जाता है। 

14.

ध्यान-विन्दूपनिषद् में दृष्टि और नाद-साधन 

यदि शैलसमं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम्।
भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन।।१।।

भा॰- यदि कई योजनों तक फैला हुआ पहाड़ के समान भी पाप हो तो वह ध्यानयोग से नष्ट हो जाता है। इसके समान पापों को नष्ट करनेवाला कभी कुछ नहीं हुआ है।

बीजाक्षरं परं विन्दु नादं तस्योपरि स्थितम्।
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम्।।२।।

भा॰- परमविन्दु ही बीजाक्षर है; उसके ऊपर नाद स्थित है। यह शब्द जब अक्षर ब्रह्म में लीन हो जाता है, तो एकमात्र नि:शब्द ही रह जाता है; यही परम पद है।

अनाहतं तु यच्छब्दं तस्य शब्दस्य यत्परम्।
तत्परं विन्दते यस्तु स योगी छिन्नसंशयः ।।३।।

भा॰-अनाहत शब्द के बाद जो निःशब्द परम पद है, जो योगी इस परमपद को प्राप्त कर लेते हैं, उनके सारे संशयों का विनाश हो जाता है।

तैलधारामिवाच्छिन्नं दीर्घघण्टा निनादवत्।
विन्दुनादकलातीतं यस्तं वेद स वेदवित्।।३७।।

भा॰–अविच्छिन्न तेलधारा सदृश तथा घंटे के दीर्घकालीन निनाद के समान जो अनाहत ध्वनि है, उसे प्राप्त कर जो योगी विन्दु, नाद और कला से भी अतीत परम तत्त्व को जान लेता है, वही वास्तव में वेदों को जाननेवाला है। 

15.

‘शाण्डिल्योपनिषद् में दृष्टि-साधन से पाण-संयम 

विद्वान्समग्रीवशिरो नासाग्रदृग्भ्रूमध्ये शशभृद्विम्बं पश्यन्नेत्राभ्याममृतं पिबेत् ।
-प्रथम अध्याय

भा॰- विद्वान गला और शिर को सीधा करके नासाग्र और भ्रूमध्य में दृष्टि को केन्द्रित कर चन्द्र-बिम्ब का दर्शन कर दृगपथ से अमृत का पान करे।

भ्रूमध्ये तारकलोकशान्तावन्तमुपागते।
चेतनैकतने बद्धे प्राणस्पन्दो निरुध्यते।।३३।।

भा॰–जब चेतन या सुरत भ्रूमध्य स्थित तारक लोक में पहुँचकर सुस्थिर हो जाती है, तो प्राण की गति स्वतः ही रुक जाती है।

तारसंयमात्सकलविषयज्ञानं भवति ।
भा॰–तारा (प्रणव विन्दु) में संयम करने से सब विषयों का ज्ञान होता है।

कायाकाशसंयमादाकाशगमनम् ।
भा॰–शरीर के आकाश में संयम करने से आकाश में गमन होता है।

अथ ह शाण्डिल्यो ह वै ब्रह्मऋषिश्चतुर्षुवेदेषु ब्रह्मविद्यामलभमानः किं नामेत्यथर्वाणं भगवन्तमुपसन्नः पप्रच्छाधीहि भगवन् ब्रह्मविद्यां येन श्रेयोऽवाप्स्यामीति। स होवाचाथर्वा शाण्डिल्य सत्यं विज्ञानमनन्तं ब्रह्म यस्मिन्निदमोतं च प्रोतं च। यस्मिन्निदं सं च विचैति सर्वं यस्मिन्विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति। तदपाणिपादमचक्षुः श्रोत्रमजिह्वमशरीरमग्राह्यमनिर्देश्यम। यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।
भा॰-चारो वेदों को पढ़कर ब्रह्मविद्या नहीं प्राप्त होने पर ब्रह्म-ऋषि शाण्डिल्य ने भगवान अथर्वण ऋषि के समीप उपस्थित होकर कहा- ‘हे भगवान ! मुझे ब्रह्मविद्या का उपदेश कीजिए, जिससे मेरा कल्याण हो ।’
अथर्वण ऋषि ने कहा- ‘हे शाण्डिल्य ! ब्रह्म सत्य, विज्ञान और अनन्त है, जिसमें यह सारा संसार ओतप्रोत है। जिसमें यह सारा ब्रह्माण्ड स्थिर है और जिसको जान लेने से इस संसार का भी सार जाना जाता है, वह ब्रह्म बिना हाथ, पैर, नेत्र, कान, जिह्वा तथा शरीर के है। वह ग्रहण करने योग्य तथा वर्णन करने एवं देखने योग्य नहीं है। वाक्य और मन वहाँ नहीं जा सकने के कारण वापस लौट आते हैं; क्योंकि मन-वाणी से भी वह प्राप्त होने योग्य नहीं है।’  

16.

वराहोपनिषद् में सद्गुरु-महत्त्व  

दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम्।
दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरोः करुणां विना।।
-अध्याय २

भा॰-बिना सद्गुरु की कृपा से विषय-त्याग दुर्लभ है, तत्त्व (ब्रह्मतत्त्व)-दर्शन दुर्लभ है और सहज समाधि की अवस्था भी दुर्लभ है।

पुंखानुपुंखविषयेक्षण तत्परोऽपि ब्रह्मावलोकनधियं न जहाति योगी।
संगीतताललयवाद्यवशं गतापि मौलिस्थकुम्भपरिरक्षणधीर्नटीव ।

भा॰–जो योगी सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थों को देख सकने में समर्थ है , उनकी बुद्धि ब्रह्म को देखने से कभी विचलित नहीं होती है, वैसे ही जैसे कि कोई नटी सिर पर घड़ा रखकर ताल, लय और वाद्य-ध्वनि से सामंजस्य स्थापित कर संगीत गाती, वाद्य बजाती तथा नृत्य भी करती है, पर उसके सिर से घड़ा नहीं गिरता।

सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा।
नाद एवानुसंधेयो योगसाम्राज्यमिच्छता।।

भा॰-योग-साम्राज्य की इच्छा करनेवाले मनुष्यों को सब चिन्ताओं को छोड़कर सावधान चित्त से केवल नाद का ही अनुसंधान करना चाहिए।  

17.

मंडल बाह्मणोपनिषद् में अन्तर्दशन + ब्रह्मविन्दूपनिषद् में शब्द-योग 

ब्राह्मणं २
तन्मध्ये जगल्लीनम् । तन्नादविन्दुकलातीतमखंडमंडलम् । तत्सगुणनिर्गुणस्वरूपम् । तद्वत्ता विमुक्तः । आदावग्निमंडलम्। तदुपरि सूर्यमंडलम् । तन्मध्ये सुधाचन्द्रमंडलम् । तन्मध्येऽखंडब्रह्मतेजो मंडलम् । तद्विद्युल्लेखावच्छुक्लभास्वरम् । तदेव शाम्भवीलक्षणम। तद्दर्शने तिस्रो मूर्तयः अमा प्रतिपत्पूर्णिमा चेति । निमीलित दर्शनमादृष्टिः। अर्धोन्मीलितं प्रतिपत । सर्वोन्मीलनं पूर्णिमा भवति । तल्लक्ष्यं नासाग्रम् । तदभ्यासान्मनः स्थैर्यम् । ततोवायु स्थैर्यम् । तच्चिह्नानि । आदौ तारकवदृश्यते। ततो वज्रदर्पणम्। तत उपरि पूर्ण चंद्रमंडलम् । ततो नवरत्नप्रभामंडलम् । ततोमध्याह्नार्कमंडलम् । ततो वह्निशिखामंडलम् क्रमाद् दृश्यते। तदापश्चिमाभिमुखप्रकाशः स्फटिकधूम्रविन्दु नादकलानक्षत्रखद्योतदीपनेत्रसुवर्णनवरत्नादि प्रभा दृश्यन्ते । तदेव प्रणवस्वरूपम् ।

भा॰- उस (ब्रह्म) के अंदर संसार लीन- डूबा हुआ है। वह (ब्रह्म) नाद, विन्दु और कला के परे सगुण-निर्गुण तथा अखंड मंडलस्वरूप है; इसका जाननेवाला विमुक्त होता है।
पहले अग्निमंडल है, इसके ऊपर सूर्यमंडल, उसके बीच में सुधामय चंद्रमंडल है और उसके मध्य में अखंड ब्रह्मतेजमंडल है। वह श्वेत विद्युत की धार के सदृश चमकीला है। केवल यही शाम्भवी का लक्षण है। उसे देखने के लिए तीन दृष्टियाँ होती है –अमावस्या, प्रतिपदा और पूर्णिमा । आँख बंदकर देखना अमादृष्टि है, आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा है, और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा है। उसका लक्ष्य ‘नासाग्र’ है।
उसके अभ्यास से मन में स्थिरता आती है। इससे (प्राण) वायु स्थिर होती है। उसके ये चिह्न हैं -- आरंभ में तारा-सा दीखता है, तब हीरा के ऐने की तरह दीखता है। उसके बाद पूर्ण चंद्रमंडल दिखलाई देता है। उसके बाद नवरत्नों का प्रभामंडल दिखाई देता है। उसके बाद दोपहर का सूर्यमंडल दिखाई देता है। उसके बाद अग्निशिखामंडल दिखाई देता है। ये सब क्रम-क्रम से दिखाई देते हैं । तब पश्चिम दिशा में प्रकाश दिखाई देता है। स्फटिक, धूम्र, विन्दु, नाद, कला, तारा, जुगनू, दीपक, नेत्र, सोना और नवरत्न आदि की प्रभा दिखाई देती है। केवल यही प्रणव का स्वरूप है।

पंचावस्थाः जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयतुरीयातीताः।
भा॰-जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय और तुरीयातीत; ये पाँच अवस्थाएँ हैं ।

सर्व परिपूर्णंतुरीयातीत ब्रह्मभूतो योगी भवति।
भा॰-पूर्ण योगी तुरीयातीत अवस्था को प्राप्त कर ब्रह्मस्वरूप हो जाता है।

ब्राह्मणं ४
आकाशं पराकाशं महाकाशं सूर्याकाशं परमाकाशमिति पंच भवन्ति। बाह्याभ्यन्तरमन्धकारमयमाकाशम्। बाह्याभ्यन्तरे कालानलसदृशं पराकाशं। सबाह्याभ्यन्तरेऽपरिमितद्युतिनिभं तत्त्वं महाकाशं। सबाह्याभ्यन्तरे सूर्यनिभं सूर्याकाशं। अनिर्वचनीयज्योतिः सर्वव्यापक निरतिशयानन्दलक्षणं परमाकाशम् ।

भा॰--पाँच आकाश हैं -आकाश, पराकाश, महाकाश, सूर्याकाश और परमाकाश । बाहर और अंदर जो अंधकारमय हो, वह ‘आकाश’ है। बाहर और अंदर जो कालाग्नि के समान हो, वह ‘पराकाश’ है। बाहर और अंदर अपरिमित तेज के सदृश तत्त्व ‘महाकाश’ है। अंदर और बाहर सूर्य के समान ज्योति जिसमें है, उसे ‘सूर्याकाश’ कहते हैं । अकथनीय, सर्वव्यापक एवं सर्वोत्तम आनंदज्योति को ‘परमाकाश’ कहते हैं ।



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ब्रह्मविन्दूपनिषद् में शब्द-योग

द्वेविद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत्।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति।।

भा॰-दो विद्याएँ समझनी चाहिए, एक तो शब्द ब्रह्म और दूसरा परब्रह्म । शब्दब्रह्म में जो निपुण होता है, वह परब्रह्म को प्राप्त करता है । 

18.

श्वेताश्वेतरोपनिषद् में सार-शब्द या प्रणवध्वनि  + मैत्रायण्युपनिषद् में ब्रह्मरूप-दर्शन

उद्गीतमेतत्परमं तु ब्रह्म तस्मिंस्त्रयं सुप्रतिष्ठाऽक्षरं च।
अत्रान्तरं ब्रह्मविदो विदित्वा लीना ब्रह्मणि तत्परा योनिमुक्ताः।।
-अध्याय १, श्लोक ७

भा॰-उद्गीथ अर्थात ॐ ही परमब्रह्म है। उसमें तीन अक्षर सुप्रतिष्ठित हैं । ब्रह्मज्ञानी लोग इस ॐ ध्वनि के अन्तर में जो ध्वन्यातीत तत्त्व है, उसे जानकर सब योनियों से मुक्त हो परमब्रह्म में लीन हो जाते हैं ।



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मैत्रायण्युपनिषद् में ब्रह्मरूप-दर्शन
द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चामूर्तं चाथ यन्मूर्तं तदसत्यं यदमूर्तं तत्सत्यं तद्ब्रह्म।

भा॰–ब्रह्म के दो स्वरूप हैं , एक मूर्त और दूसरा अमूर्त । जो मूर्त है, वह असत्य है और जो अमूर्त है, वह सत्य है वही (शुद्ध) ब्रह्म है। 

19.

मैत्रेय्युपनिषद् में अन्तमार्ग की प्रेरणा  

द्रव्यार्थमन्नवस्त्रार्थं यः प्रतिष्ठार्थमेव वा।
संन्यसेदुभयभ्रष्टः स मुक्ति नाप्तुमर्हति।।
-अध्याय २

भा॰–जो द्रव्य के लिए, अन्न-वस्त्र के लिए या प्रतिष्ठा के लिए संन्यास करे, तो वह संसार और परमार्थ दोनों से भ्रष्ट हो जाता है, वह मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता।

उत्तमा तत्त्वचिन्तैव मध्यमं शास्त्रचिन्तनम्।
अधमा मन्त्रचिन्ता च तीर्थभ्रान्त्यधमाधमा।।

भा॰--आत्मतत्त्व का चिन्तन करना उत्तम है। शास्त्र-चिन्ता मध्यम है। मन्त्र-चिन्ता यानी मंत्रजप करना अधम है और तीर्थ-भ्रमण अधमाधम है।

पाषाणलोहमणिमृण्यविग्रहेषु पूजा पुनर्जननभोगकरी मुमुक्षाः।
तस्माद्यतिः स्वहृदयार्चनमेव कुर्याद्वाह्यार्चनं परिहरेदपुनर्भवाय।।

भा॰--पत्थर, लोहा, मणि और मिट्टी की प्रतिमा का पूजन करने से मोक्षार्थी को पुनः भोग, जन्मादि प्राप्त होते हैं, अतः यति को चाहिए कि वह पुनर्जन्म करानेवाली बाहरी पूजा को छोड़कर अन्तरमार्गी बने हृदयस्थ आत्मा का पूजन करे । 

20.

क्षुरिकोपनिषद् में सुषुम्ना की महिमा 

अध्याय १
इडा तिष्ठति वामेन पिंगला दक्षिणेन च।
तयोर्मध्ये वरं स्थानं यस्तं वेद स वेदवित्।।

भा॰- इड़ा बायीं ओर रहती है, पिंगला दाहिने में है। उन दोनों के बीच में जो श्रेष्ठ स्थान सुषुम्ना है, उसे जो जानता है, वही वेद जाननेवाला है।  

21.

तेजोविन्दूपनिषद् में दृष्टि-साधन

अध्याय ४
तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम्।

भा॰--विश्व और अपने हृदय में एक ही तेजस विन्दु स्थित है। उसका ध्यान करना ही परम ध्यान है।

नामरूपविहीनात्मा परसंवित्सुखात्मकः।
तुरीयातीतरूपात्मा शुभाशुभविवर्जितः।।

भा॰ - आत्मा नामरूप से रहित, परज्ञानस्वरूप, सुखपूर्ण, शुभ-अशुभ से ऊपर तथा तुरीयातीत है।

22.

योगतत्त्वोपनिषद् में परमपद के लिए एक ही मार्ग 

नानामागैस्तु दुष्प्रापं कैवल्यं परमं पदम्।
पतिताः शास्त्रजालेषु प्रज्ञया तेन मोहिताः।।

भा॰-कैवल्य परमपद नाना मार्गों से प्राप्त नहीं होता, उसे पाने का केवल एक ही रास्ता है। बुद्धि-विचरित शास्त्रों की जालों में पड़कर जिसकी प्रज्ञा मोहित हो रही हो, उसे यह मार्ग नहीं मिलता।

अनिर्वाच्यं पदं वक्तुं न शक्यं तैः सुरैरपि।
स्वात्मप्रकाशरूपं तत्किं शास्त्रेण प्रकाश्यते।।

भा॰-उस अनिर्वाच्य पद का वर्णन करने में देवगण भी असमर्थ हैं । स्वयं आत्मा ही वह प्रकाश स्वरूप है, जिसे शास्त्र प्रकाशित नहीं कर सकते । वह आत्मगम्य है।

योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवति ध्रुवम् ।
भा॰--योगहीन ज्ञान भला मोक्ष प्राप्त कराने में कैसे समर्थ हो सकता है ? अर्थात नहीं हो सकता। यह निश्चित और ध्रुव है।

योगो हि ज्ञानहीं नस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि ।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसेत्।।

भा॰-ज्ञानहीं न योग भी मोक्ष प्रदान करने में समर्थ नहीं हो सकता है, अतः मोक्षार्थी को चाहिए कि वह दृढ़ता के साथ ज्ञान और योग दोनों का ही अभ्यास करे ।

प्रातः स्नानोपवासादिकायाक्लेशांश्च वर्जयेत्।
भा॰—प्रात:स्नान, उपवासादि शरीर को क्लेश देनेवाले कार्यों को योगी लोग वर्जित कर दें।

सगुणं ध्यानमेतत्स्यादणिमादिगुणप्रदम्।
निर्गुण ध्यानयुक्तस्य समाधिश्च ततो भवेत्।।

भा॰- सगुण-ध्यान अणिमादि गुणों को देनेवाला है। जो निर्गुण-ध्यान से युक्त है , उसे ही समाधि प्राप्त होती है।

न दर्शयेत्सामर्थ्यं यस्यकस्यापि योगीराट्।
भा॰- श्रेष्ठ योगी को चाहिए कि वह जिस-तिस (जिस किसी) को अपनी सिद्धि-शक्ति नहीं दिखलावे । 

23.

त्रिपाद्विभूति महानारायणोपनिषद् में सद्गुरु एवं शिष्य के गुण 

शान्तो दान्तोऽतिविरक्तः सुशुद्धो गुरुभक्तस्तपोनिष्ठ: शिष्यो ब्रह्मनिष्ठं गुरुमासाद्य प्रदक्षिणपूर्वकं दण्डवत्प्रणम्य प्रांजलिर्भूत्वा विनयेनोपसंगम्य भगवन् गुरो में परमतत्त्वरहस्यं विविच्य वक्तव्यमिति।
भा॰- शान्त, दमनशील, अतिविरक्त, अतिशुद्ध, गुरुभक्त एवं तपोनिष्ठ शिष्य ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाकर प्रदक्षिणा और दण्डवत्पूर्वक प्रणाम कर हाथ जोड़ नम्रतापूर्वक कहे-हे भगवन् ! मेरे गुरु ! परमतत्त्व का रहस्य विवेचना करके कृपया मुझे बतलाइए ।  

24.

महोपनिषद् में सद्गुरु की महिमा  

मोक्षद्वारे द्वारपालाश्चत्वारः परिकीर्तिताः।
शमो विचारः संतोंषश्चतुर्थः साधुसंगमः।।
-अध्याय ४

भा॰-मोक्ष के द्वार पर चार द्वारपाल रहते हैं, मन को शान्त बनाना (शम), तत्त्व का विचार करना, अपनी अर्जित प्राप्ति पर संतोष रखना और संत-महात्माओं की संगति करना ।

दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम्।
दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरोः करुणां विना।।

भा॰- सद्गुरु की करुणा के बिना विषयों को छोड़ देना दुर्लभ है, तत्त्वदर्शन दुर्लभ है और आत्मा की विशुद्ध स्वाभाविक अवस्था का प्राप्त होना भी दुर्लभ है।

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।

भा॰--जिसने परे से परे, परमात्मा का दर्शन कर लिया, उसकी हृदय-ग्रन्थि खुल जाती है, उसके सभी संशयों का विनाश हो जाता है और सभी कर्मों के बंधन नष्ट हो जाते हैं ।  

25.

शरीरकोपनिषद् में जीव का चातुर्दशा-वर्णन 

ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियान्त:करणचतुष्टयं
चतुर्दशकरणयुक्तं जाग्रत्।
अन्त:करणचतुष्टयैरेव संयुक्तः स्वप्नः।
चित्तैककरण सुषुप्तिः।
केवलजीवयुक्तमेव तुरीयमिति ।

भा॰- श्रोत्र, नेत्र, नासिका, जिह्वा और त्वचा-ये पाँचो ज्ञानेन्द्रियाँ; हाथ, पैर, मुख, गुदा और शिश्न- ये पाँचो कर्मेन्द्रियाँ तथा मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार- ये चारो अन्तरेन्द्रियाँ; इन्हें मिलाकर चौदहो इन्द्रियों से युक्त जाग्रत अवस्था है। चारो अन्तरेन्द्रियों से युक्त स्वप्नावस्था है। चित्त का एककरण सुषुप्ति है और केवल जीव ही रहे, ऐसी दशा तुरीय कहलाती है। 

26.

योगशिखोपनिषद् में नाद-विन्दु का स्थान-निरूपण  

अध्याय १
पिण्डपातेन या मुक्तिः सा मुक्तिर्न तु मन्यते।
देहे ब्रह्मत्वमायाते जलानां सैन्धवं यथा।।
अनन्यतां यदा याति तदा मुक्तः स उच्यते।।

भा॰–मरने पर जो मुक्ति कही जाती है, वह मुक्ति नहीं है। जब जीवनकाल में ही जीव जल में लवण के मिल जाने की भाँति ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लेता है, तो उसे ही मुक्ति कही जाती है।

विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम्।।

भा॰-विन्दुनाद महालिंग है और वही शिव एवं शक्ति का घर है।

देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।
भा॰- इस मानव देह को शिवालय कहते हैं । सभी प्राणियों को इसी में सिद्धि मिलती है।

नादरूपं भ्रुवोर्मध्ये मनसो मंडलं विदुः।।
भा॰-नादरूप मन का मंडल भौओं के बीच में है। यह ज्ञानियों ने कहा है।

अध्याय २
विन्दुपीठं विनिर्भिद्य नादलिंगमुपस्थितम्।।

भा॰-विन्दुपीठ का भेदन कर नादलिंग उपस्थित होता है।

गुरूपदेशमार्गेण सहसैव प्रकाशते ।
स्थूलं सूक्ष्म परं चेति त्रिविधं ब्रह्मणो वपुः।।

भा॰–वह नाद-लिंग गुरूपदिष्ट मार्ग से शीघ्र ही प्रकाशित होता है। ब्रह्म के तीन प्रकार के शरीर हैं - स्थूल, सूक्ष्म और पर यानी कारण।

आत्ममन्त्रसदाभ्यासात्परतत्त्वं प्रकाशते।
तदभिव्यक्तिचिह्नानि सिद्धिद्वाराणि में शृणु।।
दीपज्वालेन्दुखद्योतविद्युन्नक्षत्रभास्वराः।
दृश्यन्ते सूक्ष्मरूपेण सदा युक्तस्य योगिनः।।

भा॰-गुरु के द्वारा बताए गए आत्म-दर्शन की विधि का सतत अभ्यास करने से परतत्त्व का प्रकाश होता है। उसकी सिद्धि के द्वार में प्रवेश करने के पूर्व जो चिह्न प्रगट होते हैं, उसे सुनो । सदा योगाभ्यास करनेवाले योगी को सूक्ष्म रूप से दीप, ज्वाला, चन्द्रमा, जुगनू, बिजली, तारा तथा सूर्य के दर्शन होते हैं ।

अध्याय ५
विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम्।
देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम्।।

भा॰-विन्दुता रूप जो महालिंग है, वही लक्ष्मी और विष्णु का घर है। इस मानव देह को विष्णु-मंदिर या ठाकुरबाड़ी कहते हैं । सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।

नादे मनोलयं ब्रह्मन्दूरश्रवणकारणम्।
विन्दौ मनोलयं कृत्वा दूरदर्शनमाप्नुयात्।।

भा॰–नाद में मन को लय करने से दूर-स्थित वाणी सुनने की शक्ति मिलती है और विन्दु में मन को लीन करने से दूर की वस्तु देखी जा सकती है।

दिव्यज्ञानोपदेष्टारं देशिकं परमेश्वरम्।
पूजयेत्परया भक्त्या तस्य ज्ञानफलं भवेत्।।

भा॰-दिव्य ज्ञान के उपदेश देनेवाले उपस्थित सद्गुरु प्रत्यक्ष परमात्मा ही हैं, ऐसी भक्ति-भावना के साथ उनकी उपासना करनेवाले शिष्य को ही ज्ञान-फल की प्राप्ति होती है।

अध्याय ६
अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च ।
सुषुम्नाध्यानयोगस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।।

भा॰- हजारों अश्वमेध और सैकडों वाजपेय यज्ञ सुषुम्ना-ध्यानयोग के सोलहवें हिस्से के बराबर भी नहीं है।

सुषुम्नैव परं तीर्थं सुषुम्नैव परो जपः।
सुषुम्नैव परं ध्यानं सुषुम्नैव परा गतिः।।

भा॰–सुषुम्ना ही प्रधान तीर्थ है, सुषुम्ना ही उत्तम ध्यान है आर सुषुम्ना ही ऊँची गति है। 

27.

श्री जबालदर्शनोपनिषद् में अन्तर्गमन की प्रेरणा 

ज्ञानशौचं परित्यज्य बाह्ये यो रमते नरः।
स मूढः कांचनं त्यक्त्वा लोष्ठं गृह्णाति सुव्रत।।
- खण्ड १

भा॰-ज्ञान-शौच को छोड़कर जो मनुष्य बाहरी शौच में रमता रहता है, वह मूढ़ स्वर्ण को त्यागकर मिट्टी का ढेला लेता है।

तीर्थे दाने जपे यज्ञे काष्ठे पाषाणके सदा।
शिवं पश्यति मूढात्मा शिवे देहे प्रतिष्ठिते।।
-खण्ड ४

भा॰-वह वास्तविक शिव तो देह में विद्यमान है, पर अज्ञानी मनुष्य उसे तीर्थ में, दान में, जप में, यज्ञ में, काष्ठों और पाषण-प्रतिमाओं में देखते हैं । फलतः उन्हें कभी शिव के दर्शन नहीं हो पाते ।।

पर्वताग्रे नदीतीरे बिल्वमूले वनेऽथवा।।
मनोरमे शुचौ देशे मठं कृत्वा समाहितः।।
आरभ्य चासनं पश्चात्प्रांमुखोदंमुखोऽपि वा।
समग्रीवशिरः कायः संवृत्तास्यः सुनिश्चलः।।
नासाग्रे शशभृद्विमध्ये तुरीयकम्।
स्रवन्तममृतं पश्येन्नेत्राभ्यां सुसमाहितः।।
- खण्ड ५

भा॰—पर्वत के आगे, सरिता के किनारे, बेलवृक्ष की जड़ में अथवा वन के रमणीय और पवित्र स्थान में मठ या कुटीर बनाकर वहीं शान्त होकर निवास करे। पूर्व या उत्तर मुख से आसन पर बैठ शरीर, गला एवं शिर को सीधा-एक समरेखा में रखकर, मुख को बन्दकर भली भाँति सुस्थिर या निश्चल हो जाय। फिर नासाग्र में चन्द्र-प्रकाश-विन्दु के मध्य में केन्द्रित होकर तुरीयाकाश में चूते हुए अमृत को आँखों से देखे ।  

28.

जबालोपनिषद् में सुषुम्ना का महत्त्व 

का वै वरणा का च नाशीति ।
सर्वानिन्द्रिय कृतान्दोषान्वरायतीति
तेन वरणा भवति।।
सर्वानिन्द्रियकृतान्पापान्
नाशयतीतितेन नाशी भवतीति।।
कतमं चास्य स्थानं भवतीति ।
भ्रुवोर्घाणस्य च यः सन्धिः स एष
द्योर्लोकस्य परस्य च सन्धिर्भवतीति।
एतद्वै सन्धिं संध्यां ब्रह्मविद् उपासत इति।।२।।

भा॰–वरणा और नाशी क्या है ? सब इन्द्रियकृत दोषों को जो वारण- दूर करता है, वही वरणा है और जो सब इन्द्रियकृत पापों को नाश करता है, वही नाशी कहलाता है। कहाँ वह स्थान है? दोनों भौओं और नासिका का जो मिलन-स्थान है। यह स्थान धुर्लोक और परलोक का भी मिलन-स्थान है। इसी संधि स्थान पर ब्रह्मज्ञानी अपनी संध्योपासना करते हैं ।  

29.

गर्भोपनिषद् में गर्भस्थ ज्ञान-स्थिति  

अथ नवमे मासि सर्वलक्षणज्ञानकरणसंपूर्णों भवति।
पूर्वजातिं स्मरति। शुभाशुभं च कर्म विन्दति।।

भा॰- नौवें मास में गर्भस्थ संतान सर्वलक्षण और सर्वज्ञान सम्पन्न होती है। वह पूर्व जन्मों को याद करती है और शुभाशुभ कर्मों को जानती है। 

30.

वृहदारण्यकोपनिषद् में आत्मज्ञान 

आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्या
निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन
श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्वं विदितम्।।५।।
-अध्याय २, ब्राह्मण ४

भा॰–अरी मैत्रेयि ! यह आत्मा ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय और ध्यान किए जाने योग्य है। हे मैत्रेयि ! इस आत्मा के ही दर्शन, श्रवण, मनन एवं विज्ञान से सबका ज्ञान हो जाता है ।
–महर्षि याज्ञवल्क्य 

31.

मुण्डकोपनिषद् में इन्द्रियातीत परमात्मा के दर्शन  

मुण्डकोपनिषद् में इन्द्रियातीत परमात्मा के दर्शन
न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मणा वा।
ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः ।।

-महर्षि अंगिरा
भा॰-वह परमात्मा न तो आँखों से, न वाणी से और न दूसरी इन्द्रियों से ही ग्रहण नाना करने में आता है। तप से तथा अन्य कर्मों से भी वह ग्रहण नहीं किया जा सकता। उस अव्यक्त, नि:शब्द परमात्मा को विशुद्ध अन्त:करणवाला ही ध्यान करता हुआ निर्मल अन्तरात्मा या सुरत से ज्ञान का प्रसाद प्राप्त कर देख सकता है।  

32.

श्री मद्भगवद्गीता के दिव्योपम निर्देश   --->>>

अध्याय २
हे अर्जुन ! कर्मकाण्डात्मक वेद त्रैगुण्य की बातों से भरे पड़े हैं , इसलिए तू तीनों गुणों से अतीत, नित्य सत्त्वस्थ, सुख-दुःखादि द्वन्द्वों से अलिप्त हो तथा योगक्षेमादि स्वार्थों में न पड़कर आत्मनिष्ठ बनो ।। ४५।।
चारों ओर पानी की बाढ़ आ जाने पर कूप का जितना प्रयोजन रह जाता है, उतना ही ब्रह्मज्ञानियों के लिए वेदों का प्रयोजन है।। ४६।।
अनेक वेद-वाक्यों में उलझी या घबड़ाई हुई बुद्धि जब समाधि में जाकर निश्चल हो जाएगी, तभी तुम्हें योग या समता मिलेगी।। ५३।।

अध्याय ३ तथा अध्याय ४
पाँचो विषयों से पाँचो ज्ञानेन्द्रियाँ उच्च हैं, इन इन्द्रियों से मन उच्च है, मन से बुद्धि उच्च है और बुद्धि से आत्मा उच्च है।। ४२।।
हे परंतप! द्रव्ययज्ञ से ज्ञान-यज्ञ श्रेष्ठ है, क्योंकि सभी कर्मों का अन्त ज्ञान में ही होता है।।३३।।
इसे तू तत्त्व को जाननेवाले ज्ञानियों की सेवा करके और नम्रता सहित विवेकपूर्वक बारंबार प्रश्न करके जानना।। ३४।।

अध्याय ५
सांख्य और योग को बालबुद्धिवाले अज्ञजन ही भिन्न-भिन्न कहते हैं । दोनों शब्दभेद को छोड़कर स्वरूपतः एक ही है। दोनों में से किसी में भी स्थित होना, दोनों में ही स्थित होना है। अतः किसी में भी भलीभाँति स्थित हो जाने से उसे परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।।४।।

अध्याय ६
कर्मफल की आशा छोड़कर जो करने योग्य कर्म (सत्कर्म) करता है, उसे ही संन्यासी और उसे ही योगी कहते हैं। जो अग्नि (यज्ञ) और कर्मों को छोड़ने का प्रयत्न करता है, वह न तो योगी है और न संन्यासी ही ।।१।।
जो सभी पापों को छोड़कर अपनी आत्मा को सदा परमात्मा में लगाए रहता है, ऐसा योगी सुख से ही ब्रह्म-स्पर्श का अनन्त आनन्द प्राप्त कर लेता है ।।२८।।
योगभ्रष्ट साधक पुण्यात्माओं द्वारा प्राप्त किए जानेवाले स्वर्गों को प्राप्त कर वहाँ बहुत काल तक सुख भोगता रहता है, पुनः शेष योग पूरा करने के लिए उसका पवित्र आचरणवाले सम्पत्तिशालियों के घर में जन्म होता है ।। ४१।। अथवा उस धीमान् का जन्म योगियों के ही घर में होता है। इस प्रकार का जन्म इस लोक में दुर्लभतर है, क्योंकि वहाँ योग पूरा हो जाने की सर्वोत्कृष्ट सम्भावना है ।। ४२।।
पूर्व जन्म का अभ्यासी योगी योगाभ्यास जन्य संस्कार के कारण प्रतिकूल परिस्थिति और वातावरण में रहने पर भी अनायास योग-साधन करने की ओर आकर्षित हो जाता है और इसी कारण योग का जिज्ञासु होने मात्र से ही वह एक दिन साधना करते-करते शब्दब्रह्म या -प्रणव-अनाहत नाद से ऊपर उठकर परमात्मा को प्राप्त कर लेता है ।। ४४।।
सम्पूर्ण योगियों में जो मुझे संपूर्णतया आत्मसमर्पण कर, अन्तर तथा बाहर की इन्द्रियों से अपने को अलग कर, शुद्ध अन्तरात्मा या सुरत से मेरा भजन करता है, मेरे मत से वही योगी श्रेष्ठतम या युक्ततम है।। ४७।।

अध्याय ७
बुद्धि के अभाववाले मुझ अव्यक्त को प्रगट हुए व्यक्ति-स्वरूप से ही मानते हैं , क्योंकि वे मेरे परम भाव को नहीं जानने के कारण मेरे अव्यय या अपरिवर्तनशील सर्वोत्तम स्वरूप से अनभिज्ञ ही रह जाते हैं । (परमात्मा के अनुत्तम स्वरूप को जानने के प्रथम बुद्धि में उसका परोक्ष ज्ञान होना आवश्यक है) ।।२४।।
मैं अपनी योगमाया से भलीभाँति अपने को ढँका हुआ रखता हूँ, जिस कारण सभी को मेरा वास्तविक स्वरूप नहीं दीख पड़ता। इसीलिए अविकसित या मूढ़ बुद्धिवाले मेरे नहीं जन्मनेवाले तथा सदा एकरस रहनेवाले सत्य रूप को नहीं जान सकते हैं । (बदल जानेवाले दिव्य-से-दिव्य रूप भी कृष्ण परमात्मा की योगमाया के आवरण हैं , उनका निज स्वरूप नहीं) ।।२५।।

अध्याय ८
जिसे अव्यक्त और कभी नाश नहीं होने वाला कहा गया है, वही परमगति है, जिस गति को पा लेने पर जीवात्मा इस संसार-चक्र में जन्मने-मरने की विवशता से सदा के लिए मुक्त हो जाता है, वही मेरा परमधाम है ।। २२।।

अध्याय ९
सभी प्राणियों के महेश्वर स्वरूप जो मेरा परमभाव है, उससे अनजान रहने के कारण ही अज्ञानी या जड़ बुद्धिवाले मानव-शरीर का आश्रय लेने से मुझे मनुष्य शरीरधारी समझ लिया करते हैं ।। ११।।
अनन्य चिन्तन सहित मेरी उपासना करनेवाले जो भक्त हैं, उनके लिए सभी आवश्यक वस्तुओं को देने तथा उसकी रक्षा करने का योगक्षेम मैं स्वयं करता हूँ ।।२२।।
हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्रादिक, पापयोनि से उत्पन्न होनेवाले भी जो कोई हों, मेरा आश्रय लेने से अवश्य ही उनको परम गति मिलती है। जन्म लेने के कारण परमगति पाने में किसी के लिए बाधा की कोई बात नहीं है ।।३२।।

अध्याय १०
जो उपासक मेरी इस विभूति-योग यानी तेजयोग (ज्योतियोग) तथा मेरे योग अर्थात मुझसे युक्त करा देनेवाले शब्द-योग को तत्त्व से जानता है, वह अन्त में अविकम्प-योग से अर्थात जहाँ शब्द और कम्प समाप्त हो जाते हैं , मुझमें युक्त होकर एक हो जाते हैं । इसमें जरा भी कोई संशय नहीं है ।।७।।

अध्याय ११
अपने आत्मयोग की शक्ति या माया से अपना यह असीम तेजोमय रूप, जो इस व्यक्त विश्व का आदि है, तुम्हें दिखाया है, जिसे इसके पहले किसी को नहीं दिखाया। भगवान के कथनानुसार ही उनका यह विराट स्वरूप उनकी योगमाया द्वारा रचित-सृजित मायामय रूप है, उनका निज स्वरूप नहीं ।

अध्याय १२
जो मुझमें अपने मन को विलीन करके अगाध और उच्चतम श्रद्धा से युक्त होकर निर्मल चेतन या विशुद्ध सुरत के द्वारा मेरी उपासना करते हैं, वही योगी युक्ततम या सर्वश्रेष्ठ हैं ।। २।।
जो सभी इन्द्रियों को अपने वश में करके निष्पक्ष और समतावाली बुद्धि से सर्वत्र सभी प्राणियों के कल्याण करने में रत हैं और अक्षर, मन-बुद्धि से परे, अव्यक्त, सर्वत्र रहनेवाले, अगम, अचिनत्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव ब्रह्म की उपासना करते हैं, वे भी मुझको ही प्राप्त करते हैं , अर्थात सगुण-निर्गुण और क्षर-अक्षर से भी उच्च मुझ पुरुषोत्तम को उपलब्ध करते हैं ।।३-४।।
मन को विलय कर शुद्ध चेतन द्वारा ही परमात्मा की अपरोक्ष उपलब्धि होती है, केवल बुद्धि द्वारा अव्यक्त, निर्गुण ब्रह्म की उपासना करनेवालों को, जिसमें शरीरगत अहंकार भी रहता है, अधिक कष्ट, दुख और कठिनाई उठानी पड़ती है। क्योंकि देहाभिमान रहते हुए उस अव्यक्त तक गति हो ही नहीं सकती ।।५।।

अध्याय १३

जो क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के अन्तर को ज्ञान की आँखों से देखते हैं तथा प्रकृति से प्राणियों को कैसे मुक्ति मिलती है, इन साधनों को वास्तविक रूप में जानते हैं, वही योगी परमात्मा को प्राप्त होते हैं अर्थात् दृष्टियोग द्वारा ब्रह्म-ज्योति को देखने तथा शब्द-साधन से प्रकृति के बन्धनों से मुक्त होकर परमतत्त्व को अनुभव के द्वारा जान लेने से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है ।।३४।।

अध्याय १४
महद्ब्रह्म योनि है अर्थात् गर्भधारण करनेवाली नारी है और मैं उसमें गर्भाधान करता हूँ। हे अर्जुन ! तभी सभी भूतों यानी प्राणी और पदार्थों की उत्पत्ति होती है ।।३।।

टिप्पणी-यह ‘महद्ब्रह्म’ परा एवं अपरा प्रकृति का एकीभूत रूप है। यह पुरुषोत्तम के संग सदा एक होते हुए भी दो है। भारतीय महापुराणों में इसीकी अभिव्यक्ति ‘राधा कृष्ण’ के रूप में हुई है, पर यह इन्द्रियों के द्वारा कभी नहीं जानी जा सकती। आवरण रहित विशुद्ध संविद् के द्वारा ही इसे अवगत किया जा सकता है। आगरा के संतमत-राधा स्वामी मत में भी ‘राधा’ और ‘स्वामी’ की ऐसी ही व्याख्या की गई है।

अध्याय १५
ऊपर में मूल और नीचे शाखावाले अश्वत्थ का वृक्ष है, जिसे अव्यय–अपरिवर्तनशील कहा गया है। छन्द जिसके पत्ते हैं । इसे जाननेवाला ही वेदों का ज्ञाता है। यही परा शक्ति है, जो सदा पुरुषोत्तम के समीप है ।। १।।
लोक में दो तरह के पुरुष हैं, जिसे क्षर और अक्षर कहा जाता है। सभी परिवर्तनशील क्षेत्रों या शरीरों में अपनी चेतना को प्रसारित कर निवास करनेवाला चैतन्य ‘क्षर पुरुष’ कहलाता है और अपनी चेतना के प्रसार को सभी शरीरों से हटाकर कैवल्य रूप से अपने आप में स्थित रहनेवाला चैतन्य ‘अक्षर पुरुष’ कहा जाता है। वह संदा कूटस्थ, अविकारी और स्थिर है ।। १६।।
मैं ‘क्षर पुरुष’ से अतीत हूँ और ‘अक्षर पुरुष’ से भी उत्तम हूँ, इसीलिए लोक और वेद में यानी व्यवहार और ज्ञान में मैं ‘पुरुषोत्तम’ नाम से प्रसिद्ध हूँ ।। १८।।

अध्याय १६
काम, क्रोध और लोभ, ये तीनों तीन प्रकार से नरक के द्वार में प्रवेश करानेवाले हैं । ये आत्मा को सदा पतन, अधोगति, विनाश और अज्ञानता के गर्त में ले जानेवाले हैं । अतः आत्म-कल्याण चाहनेवालों को इन तीनों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।।२१।।
जो इन तीनों तमस-अज्ञान के द्वार में प्रवेश करनेवाले आसुरी सम्पदाओं का परित्याग कर श्रेय यानी परमात्मा की प्राप्ति के पथ पर चलता है, वही परमगति तक जाता है ।। २२।।

अध्याय १७
सत्व या मूलतत्त्व के अनुसार ही सभी की श्रद्धा होती है। यह (क्षर) पुरुष श्रद्धामय है। अत: जिसकी जैसी श्रद्धा है, वही उसका वास्तविक स्वरूप है ।।३।।

अध्याय १८
यज्ञ, तप और दान संबंधी स्थूल और सूक्ष्म सभी कर्म सदा ही करने योग्य हैं , क्योंकि ये मनीषियों-मुनियों-उपासकों को सदा ही पवित्र करते रहते हैं ।।५।।
जो अकुशल करनेवाले कामों से द्वेष नहीं रखते और जिसे कुशल करनेवाले कर्मों से भी आसक्ति नहीं होती, ऐसे सत्त्व से बने हुए पुरुष ही मेधावी, ज्ञानी और त्यागी हैं । ऐसे संन्यासी पुरुष के संशय नष्ट हो जाते हैं और वह निर्मल होकर आत्मतत्त्व में प्रतिष्ठित होते हैं ।। १०।।
हे परंतप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चारो वर्णों के कर्म अपने स्वभाव से उत्पन्न गुणों के कारण ही अनायास विभक्त हो जाते हैं ।। ४१।।
सम्पूर्ण विश्व जिस परमात्मा से व्याप्त है, उस परमात्मा के द्वारा सभी प्राणियों को कर्म करने की प्रवृत्ति मिली है, अतः अपनी ईश्वरदत्त प्रवृत्ति से उत्पन्न स्वाभाविक कर्मों द्वारा ही परमात्मा की उपासना करनेवालों को सिद्धि मिलती है ।। ४६।।
तुम शोक और चिन्ता मत करो। मैं तुम्हें सब पापों से मुक्त कर दूँगा। यदि तुम सब धर्मों को छोड़कर एक मेरी ही शरण आ जाओ तो ।।६६।।

टिप्पणी- जितने भी धर्म, पुण्य और सत्कर्म हैं। सभी पाँच कर्मेन्द्रियों, पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथा चार अन्तरेन्द्रियों से ही किए जाते हैं और ये इन्द्रियाँ भी तभी कोई कार्य कर सकती है , जबतक इनमें आत्म-चेतना समाविष्ट है। इस आत्मचेतना को सभी इन्द्रियों से हटाना ही विविध या सभी धर्मों को छोड़ना है। सब धर्मों को छोड़ने के बाद दूसरी क्रिया है ‘एक कृष्ण-परमात्मा की शरण में ही चला जाना ।’ शरण में जाने की क्रिया को सम्पन्न करने के लिए आत्मचेतना या सुरत की धारों को सभी इन्द्रियों से समेटकर प्रथम दृष्टियोग द्वारा विन्दु में एकत्र करना होता है। पुनः शब्द साधन करते हुए प्रणवनादसाधन द्वारा ही पूर्णरूप से परमात्मा की शरण में जाना होता है। इसके सिवाय और दूसरा रास्ता है ही नहीं । नान्यः पन्थाः विद्यतेऽयनाय । - स्कन्ध ११ 

33.

श्री मद्भागवत महापुराण में नादानुसन्धान --->>>

शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रियमनोमयम् ।
अनन्तपारं गम्भीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत् ।।३६।।

भा॰- शब्दब्रह्म अत्यन्त कठिनता से बोध में आता है। वह प्राणमय, इन्द्रियमय तथा मनोमय तीन प्रकार के हैं और ये तीनों ही समुद्र के समान सीमाविहीन, गम्भीर और कठिनता से पार किये जाने योग्य है ।

अध्याय १४ उद्धवउवाच-
यथात्वामरविन्दाक्ष यादृशं वा यदात्मकम् ।
ध्यायेन्मुमुक्षुरेतन्मे ध्यानं में वक्तु मर्हसि ।।३१।।

भा॰- उद्धव ने पूछा- हे कमलनयन ! आप मुझे यह बतलाइये कि मोक्ष की इच्छा रखनेवालों को आपका ध्यान किस प्रकार, किस रूप तथा किस भाव से करना चाहिए ?

श्री भगवानुवाच-
सम आसन आसीनः समकायो यथा सुखम् ।
हस्तावुत्संग आधाय स्वनासाग्र कृतेक्षणः ।।३२।।

भा॰- श्री भगवान ने कहा- हे उद्धवजी ! सम आसन में शरीर को सम रखते हुए सुखपूर्वक बैठे और हाथों को तर-ऊपर गोद में रखे । इस भाँति आसीन होकर अपनी दृष्टि को ‘नासाग्र’ में स्थिर करे ।

हृद्यविच्छिन्नमोंकारं घण्टानादं विसोर्णवत् ।
प्राणेनोदीर्य तत्राथ पुनः संवेशयेत्स्वरम् ।।३४।।

भा॰- प्रथम प्राण को ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश करावे, फिर (योग) हृदय में मृणाल तन्तु-सदृश एक समान, निरन्तर घण्टानाद तुल्य जो अविच्छिन्न ॐकार-ध्वनि उठ रही है, उसे स्थिर होकर श्रवण करे । 

34.

अध्यात्म रामायण; राम-हृदय-गीता शिव-पार्वती-संवाद प्रथम सर्ग --->>>

पंडित रामेश्वर भट्ट कृत टीका-
वास्तव में रामजी न चलते हैं, न शोक करते हैं, न बैठते हैं, न कुछ चाहते हैं, न कुछ त्यागते हैं, और न कुछ करते हैं। केवल माया के गुणों के कारण वे कर्म में प्रवृत्त दिखाई देते हैं । 

35.

शिव-संहिता में आज्ञाचक्र-ध्यानफल --->>>

इह स्थितः सदा योगी ध्यानं कुर्यानिरन्तरं।
तदा करोति प्रतिमां प्रति जापमनर्थवत् ।।
यानि यानि च प्रोक्तानि पंच पद्मे फलानि वे।
तानि सर्वाणि सुतरामेतज्ज्ञानाद्भवन्तिहि।।

भा॰- जब योगी आज्ञाचक्र में स्थित होकर सदा ध्यान करने की योग्यता प्राप्त कर लेता है, तब उस योगी के लिए प्रतिमा पूजन में तथा किसी प्रकार के जप में समय लगाना अनर्थवत् ही है। आज्ञाचक्र के नीचे पाँचो चक्रों के ध्यान से जो फल मिलने की बात कही गयी है, वह सभी केवल आज्ञाचक्र के ध्यान से ही हो जाता है। 

36.

ज्ञानसंकलिनी तन्त्र में सद्गुरु की शक्ति का वर्णन --->>>

देहस्थाः सर्व विद्याश्च देहस्थाः सर्व देवताः।
देहस्थाः सर्व तीर्थानि गुरुवाक्येन लभ्यते।।८।।

भा॰- सभी विद्या, सभी देवता और सभी तीर्थ इस शरीर में ही स्थित है। उसकी प्राप्ति सद्गुरु के उपदेश से ही होती है।
इड़ा भगवती गंगा पिंगला यमुना नदी ।
इड़ापिंगलयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती ।।११।।
त्रिवेणी संगमो यत्र तीर्थराजः स उच्यते ।
तत्र स्नानं प्रकुर्वीत सर्वपापैः प्रमुच्यते।।१२।।

भा॰–इड़ा नाड़ी भगवती गंगा और पिंगला यमुना नदी है। इड़ा और पिंगला के मध्य में सुषुम्ना सरस्वती की धारा है। इस त्रिधारा का संगमस्थल ही त्रिवेणी तीर्थराज के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें स्नान करने से मनुष्य सभी पापों से छूट जाता है। 

37.

बृहत्तन्त्रसार में सद्गुरु की योग्यता का निरूपण --->>>

ज्ञानान्मोक्षमवाप्नोति तस्माज्ज्ञानं परात्परम्।
अतो यो ज्ञानदानेहि न क्षमस्तंत्यजेद् गुरुम्।।

भा॰-ज्ञान से मोक्ष मिलता है, अतः यह ज्ञान श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ वस्तु है। इस परात्पर ज्ञान को दान करने की जिनमें क्षमता नहीं है, ऐसे गुरु को छोड़ देना चाहिए । 

38.

ब्रह्माण्ड पुराणोत्तरगीता में परमात्म-स्वरूप-वर्णन --->>>

अमात्रं शब्दरहितं स्वरव्यंजनवर्जितं ।
बिन्दुनादकलातीतं यस्तं वेद स वेदवित्।।२५।।

भा॰–जो परमात्मा को हस्व, दीर्घ एवं प्लुतादि मात्राओं से रहित, स्वर-व्यंजनादि वर्गों से अतीत विन्दु, नाद और कला से परे जानता है, वही वेदों को जाननेवाला है।  

39.

उत्तरगीता में नासाग्र का महत्त्व --->>>

मुहूर्तमपि यो गच्छेन्नासाग्रे मनसा सह।
सर्वं तरति पापानं तस्य जन्मशतार्जितं।।१०।।

भा॰–जो मुहूर्त भर भी नासाग्र में मन सहित जाता है, वह सैकड़ों जन्मों के अर्जित पापों से तर जाता है।  

40.

महाभारत में-आत्मा-परमात्मा-भेद --->>>

आत्मा क्षेत्रज्ञ इत्युक्तः संयुक्तः प्राकृतैर्गुणैः।
तैरेवतुविनिर्मुक्त: परमात्मेत्युदाहृतः।
-शांतिपर्व १८७,२४

भा॰-जब आत्मा प्रकृति या शरीर में बद्ध रहती है, तब उसे क्षेत्रज्ञ या जीवात्मा कहते हैं और वही प्राकृतगुणों यानी प्रकृति या शरीर के गुणों से मुक्त हो जाने पर परमात्मा कहलाती है ।  

41.

दुर्गासप्तशती में शब्दबह्म-रूपा देवी का स्तवन --->>>

अध्याय ४
शब्दात्मिका सुविमलगर्यजुषान्निधानमुद्गीथरम्यपदपाठवतां च साम्नाम् ।
देवी त्रयी भगवती भवभावनाय वार्ता च सर्वजगतां परमार्तिहन्त्री ।।१०।।

भा॰-हे देवी ! आप शब्दात्मिका यानी शब्दब्रह्म स्वरूपिणी हैं। सुविमल ऋग् और यजुः वेदों के तुम निधान अखंड भंडार हो । रमणीय पद और पाठवाले सामवेद, जो उद्गीथ– प्रण्व-नाद लयवाले स्वरों से गाए जाते हैं, उसका भी निधान तुम्हीं हो। तुम्हीं सत्व-रज-तममयी भगवती हो, तुम्हीं सृष्टि-धारण के हेतु उसके विविध व्यापार हो और तुम्हीं सारे संसार के प्रबल संकटों का विनाश करनेवाली दुर्गा हो । 

42.

महर्षिगणों की अनुभव-वाणी  --->>>

पुण्यस्यलोको मधुमान्घृतार्चि
हिरण्य ज्योतिरमृतस्य नाभिः ।
तत्र प्रेत्य मोदते ब्रह्मचारी न तत्र

मृत्युर्न जरा नोत दुखम्।। २६ ।।
-महर्षि कश्यप, (महाभारत, शांतिपर्व, अ॰ ७३)

भा॰-पुण्य से मिलनेवाले लोक माधुर्य से ओतप्रोत रहते हैं । वहाँ घृत-दीप की स्वर्णमयी ज्योति और अमृतत्व का केन्द्र है। ब्रह्म के पथ में चलनेवाले उपासक ही शरीर के आवरणों को छोड़ वहाँ जाकर आनन्द प्राप्त करते हैं । वहाँ जरा, मृत्यु और दुख नहीं है।

अवान्तर निपातीनि स्वारूढानि मनोरथम्।
पौरुषेणेन्द्रियाण्याशु संयम्य समतां नय।
–महर्षि वशिष्ठ (योगवाशिष्ठ)

भा॰- मनोमय रथ पर चढ़कर विषयों की ओर दौडनेवाली इन्द्रियाँ अपने वश में नहीं रहने से वह लक्ष्य-प्राप्ति के बीच में ही पतन के गर्त में गिरानेवाली होती हैं, अतः प्रबल-पुरुषार्थ द्वारा सद्गुरु की बतायी विधि से इन्हें शीघ्र ही संयमित कर समाधिजन्य समता प्राप्त कर लेनी चाहिए।

विज्ञानात्मा सह देवैश्च सर्वैः
प्राणाभूतानि सम्प्रतिष्ठन्ति यत्र।
तदक्षरं वेदयते यस्तु सौम्य स

सर्वज्ञः सर्वमेवाविवेशेति।।
–महर्षि पिप्पलाद (प्रश्नोपनिषद् ४११)

भा॰- हे सौम्य ! यह विज्ञान स्वरूप आत्मा, सब इन्द्रियों, अन्त:करण, सर्व प्राण और पंचभूत सहित जिस परमात्मा में प्रतिष्ठित रहते हैं, उस अविनाशी को जो जान लेता है, वह सर्वज्ञ हो जाता है और परमात्मा में एकीभूत होकर वह सभी में व्याप्त हो जाता है।

परःपराणां पुरुषो यस्य तुष्टी जनार्दनः।
स प्राप्नोत्यक्षयं स्थानमेतत्सत्यं मयोदितम् ।।
—महर्षि अत्रि (विष्णु पुराण १।११।४४)

भा॰—जो परा प्रकृति से भी श्रेष्ठ है , वे परमपुरुष जनार्दन पूर्ण भक्ति के कारण जिनसे संतुष्ट होते हैं , उसी को अक्षय पद की प्राप्ति होती है - यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ।

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते।।
–महर्षि विश्वामित्र (पद्मपुराण सृ॰ १९।२६३)

भा॰–भोगों की इच्छा उपभोगों के द्वारा कभी शान्त नहीं होती। प्रत्युत घी डालने से प्रज्वलित होती जानेवाली अग्नि के समान वह अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है ।

अश्वमेध सहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम्।
अश्वमेध सहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते।।
—महर्षि विश्वामित्र (मार्कण्डेय पुराण ८।४२)

भा॰–एक हजार अश्वमेध और एक सत्य को यदि तराजू पर तौला जाय तो सहस्त्र अश्वमेध से सत्य ही भारी सिद्ध होगा।

पवित्राणां पवित्रं यो ह्यगतीनां परागतिः।
दैवतं देवतानां च श्रेयसां श्रेय उत्तमम।।३८।।
–महर्षि भरद्वाज (स्कन्द पुराण वै॰ वे॰ ३५)

भा॰—परमात्मा पवित्र को भी पवित्र करनेवाले और बेसहारे की परमगति हैं । वे देवताओं के भी परमदेव एवं कल्याणकारी तत्त्वों में श्रेष्ठतम तत्त्व हैं ।

सन्तोषामृततृप्तानां यत् सुखं शान्तचेतसाम्।
कुतस्तद्धनलुब्धानामितश्चेतश्च धावताम्।।२६०।।
–महर्षि गौतम (पद्मपुराण, सृष्टि॰ १९)

भा॰–समाधि-साधन से जिनका चित्त शान्त हो गया है, जो परमानन्द प्राप्त कर संतोंषामृत से तृप्त हो गए हैं , उनको जिस अनन्त सुख की अनुभूति होती है, वह सुख धन की तृष्णा में इधर-उधर दौड़नेवाले को कहाँ से मिल सकता है?

प्रतिग्रहसमर्थोऽपि न प्रसज्येत्प्रतिग्रहे।
प्रतिग्रहेण विप्राणां ब्रह्मतेजश्च हीयते।।२६८।।
–महर्षि जमदग्नि (पद्मपुराण, सृष्टि॰ १९)

भा॰–दान ग्रहण करने में समर्थ होने पर भी दान लेने की आसक्ति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि प्रतिग्रह ग्रहण करने से विप्रों का ब्रह्मतेज हीन-मलिन हो जाता है।

नित्योत्सवस्तदा तेषां नित्यश्री नर्त्यिमंगलम्।
येषां हृदिस्थो भगवान् मंगलायतनं हरिः।।
--महर्षि जमदग्नि (पाण्डव गीता ४५)

भा॰--जिनके हृदय में मंगलधाम हरि बसने लगते हैं अर्थात जो अन्तरस्थ भगवान का साक्षात्कार प्राप्त कर लेते हैं , उनके लिए नित्य उत्सव, नित्य सुख-सम्पदा और नित्य मंगल-ही-मंगल है।

परं ब्रह्म परं धाम योऽसौ ब्रह्म तथा परम्।
तमाराध्य हरिं याति मुक्तिमप्यति दुर्लभाम्।।
--महर्षि पुलस्त्य (विष्णु पुराण १।११।४६)

भा॰- जो ब्रह्म से भी श्रेष्ठ परमब्रह्म और परमधाम है , उन भय-दुख हारी पुरुषोत्तम की आराधना करने से मुनष्य अति दुर्लभ जो मुक्तिपद है, उसे प्राप्त कर लेता है।

ऐन्द्रमिन्द्रः परं स्थानं यमाराध्य जगत्पतिम्।
प्राप यज्ञपतिं विष्णुं तमाराधय सुव्रत।। ४७।।
–महर्षि पुलह (विष्णु पुराण १।११)

भा॰-हे सुव्रत ! इन्द्रपद की कामना से जिस जगत्पति की आराधना करके इन्द्र ने इन्द्रपद पाया है, तुम उस स्थूल-सूक्ष्म सभी यज्ञों के अधिपति एवं सर्वव्यापी परमेश्वर की उपासना कर स्वयं उसे ही प्राप्त करो ।

अनाराधितगोविन्दैर्नरैः स्थानं नृपात्मजः।
न हि सम्प्राप्यते श्रेष्ठं तस्मादाराधयाच्युतम्।।४३।।
-महर्षि मरीचि (विष्णु पुराण १।११)

भा॰- हे राजपुत्र ! बिना मोक्षदाता गोविन्द की आराधना किए तुम्हें वह श्रेष्ठतम धाम कभी नहीं मिल सकता, अतः तुम उस अच्युत- सदा एकरस रहनेवाले परमप्रभु की आराधना करो ।

वेदच्छे ष्ठाः सर्वयज्ञक्रियाश्च
यज्ञाज्जप्यं ज्ञानमार्गश्च जप्यात्।
ज्ञानाद्ध्यानं संगरागव्यपेतं

तस्मिन् प्राप्ते शाश्वतस्योपलब्धिः ।।२५।।
-भगवान दत्तात्रेय (मार्कण्डेय पुराण ४१)

भा॰-वेदों की अपेक्षा सभी यज्ञ-क्रिया श्रेष्ठ है , यज्ञों में जप-यज्ञ उत्तम है, जप-यज्ञ से बौद्धिक या परोक्ष ज्ञान श्रेष्ठ है, परोक्ष ज्ञान से आसक्ति और राग से विमुक्त निर्मल ध्यान श्रेष्ठ है। ऐसा ध्यान प्राप्त कर लेने पर ही उपासक को शाश्वत परब्रह्म की उपलब्धि होती है।

एतावानव्ययोधर्मः पुण्यश्लोकैरुपासितः।
यो भूतशोकहर्षाभ्यामात्मा शोचति हृष्यति।।६।।
–महर्षि दधीचि (श्री मद्भागवत पुराण ६। १०)

भा॰- पुण्यश्लोक-यानी पवित्र आचरणवाले महात्माओं ने जिसकी उपासना की है, उस धर्म का स्वरूप बस इतना ही है कि मनुष्य अपनी आत्मा का इतना विस्तार करले कि वह सभी प्राणियों के दुख और सुख को अपना ही दुख और सुख अनुभव कर सके।

मूढोलोको हरिं त्यक्त्वा करोत्यन्यसमर्चनम् ।
रघुवीरं रमानाथं स्थिरैश्वर्यपदप्रदम्।।३१।।
--महर्षि आरण्यक (पद्म पुराण, पाताल॰ ३५)

भा॰–अज्ञानी लोग सब दुख हरनेवाले परमप्रभु को छोड़कर अन्य-अन्य उपासनाओं में लगे रहते हैं । परन्तु स्थायी ऐश्वर्य और आनन्द को देनेवाले तो एकमात्र रमापति श्री रामचन्द्रजी ही हैं ।

संस्मृतो मनसा ध्यातः सर्वकामफलप्रदः।
ददाति परमां भक्ति संसाराम्भेधितारिणीम्।।४।।
--महर्षि लोमश (पद्म पुराण, पाताल ३५)

भा॰--श्री राम ही सर्व कामनाओं के फल को देनेवाले हैं । एकाग्र मन से उनका स्मरण और ध्यान करने पर वे उपसक को वह परम भक्ति प्रदान करते हैं, जिससे वह संसार-सागर को सुखपूर्वक पार कर लेता है।

ज्ञानिनोहि यथा स्वर्थमाश्रित्य ध्यानमाश्रिताः।
दु:र्खार्त्तानीह भूतानि प्रयान्ति शरणं कुतः।।३।।
—महर्षि आपस्तम्ब (स्कन्द पुराण, रेवा खण्ड १३)

भा॰- ब्रह्मज्ञानी भी यदि निज सुख-स्वार्थ का आश्रय लेकर केवल ध्यान में ही डूबा रहे तो ये दुःखार्त प्राणी फिर किसकी शरण में जाकर सुखी होंगे? ब्रह्मज्ञानी से स्वभावत: ही लोक-संग्रह और सर्वकल्याणकारी कर्म होते रहते हैं।

अहो अनन्तदासानं महत्त्वं दृष्टमद्य मे।
कृतागसोऽपि यद् राजन् मंगलानि समीहते।।१४।।
–महर्षि दुर्वासा (श्री मद्भागवत, ९/५)

भा॰- महाक्रोध की लीलाधारण करनेवाले महर्षि दुर्वासा भक्त अम्बरीष से कहते हैं -अहो ! धन्य है ! आज मैंने अनन्त स्वरूप परमात्मा के दास का महत्व देखा ! हे राजन् ! मैंने आपका इतना बड़ा अपराध किया और इतने पर भी आप मेरे लिए मंगल-कामना ही कर रहे हैं!

ये कामक्रोधलोभानां वीतरागा न गोचरे।
सदाचारस्थितास्तेषामनुभावैर्धृता मही।।४२।।
–महर्षि और्व (विष्णु पुराण ३।१२)

भा॰- वीतराग संत महापुरुष कभी काम, क्रोध और लोभ के वशीभूत नहीं होते । वे सर्वदा सदाचार में स्थित रहते हैं, उन्हीं के पुण्य प्रभाव से यह पृथ्वी टिकी हुई है।

मुक्तर्निंदानममलं शालग्रामगतं हरिम् ।
हृदिन्यस्यसदा भक्त्या यो ध्यायति स मुक्तिभाक्।।५।।
–महर्षि गालव (स्कन्द पुराण, चा॰ मा॰ ११)

भा॰- मुक्ति के आदि कारण, शालग्राम से अतीत और पवित्रतम हरि को हृदय में संस्थापित कर जो भक्तिपूर्वक नित्य उसका ध्यान करता है, वही मोक्ष का भागी होता है, शालिग्राम को पूजनेवाला नहीं ।

दयावान सर्वभूतेषु हिते रक्तोऽनसूयकः।
सत्यवादी मृदुर्दान्तः प्रजानां रक्षणे रतः।।२३।।
—महर्षि मार्कण्डेय (महाभारत, वन॰ १९१)

भा॰- हे राजन ! तुम सब प्राणियों पर दया करो। सबका हित-साधन करने में लगे रहो। किसी के गुणों में दोष न देखो। सदा सत्यभाषण करो। सबसे कोमल और विनयभरा वर्ताव करो । इन्द्रियों को अपने वश में रखो और प्रजा की रक्षा में तत्पर रहो ।

‘व्रज’ शब्द का अर्थ है व्याप्ति । इस वृद्धवचन के अनुसार व्यापक होने के कारण ही इसका नाम ‘व्रज’ पड़ा है। सत्त्व, रज, तम इस तीन गुणों से अतीत जो परब्रह्म है, वही व्यापक है। इसलिए उसे व्रज कहते हैं । वह सदानन्द स्वरूप, परम ज्योतिर्मय और अविनाशी है। जीवन्मुक्त पुरुष उसी में स्थित रहते हैं ।
—महर्षि शण्डिल्य (स्कन्दपुराणान्तर्गत श्री मद्भा॰मा॰)

इत्यभेदेन या बुद्धिः समता सा प्रकीर्तिता।
समताशत्रुमित्रेषु वशित्वं च तथा नृप।।३४।।
–महर्षि भृगु (नारदपुराण १६)

भा॰- सर्वेश्वर से अभेदबुद्धि का नाम ही समता है। हे नृप ! इन्द्रियों को वशीभूत कर शत्रु-मित्र के प्रति समान हित-भाव से व्यवहार रखना भी समता है ।

पश्यन्ति ये सर्वगुहाशयस्थं,
त्वां चिद्घनं सत्यमनन्तमेकम्।
अलेपकं सर्वगतं वरेण्यं,

तेषां हृदब्जे सह सीतया वस।।
–महर्षि वाल्मीकि (अध्यात्म रामायण ६ । ६२)

भा॰–जो लोग चिद्घन, सत्य, अनन्त, एक, अलेप, सर्वव्यापी और सर्वश्रेष्ठ स्वरूप तुमको सभी के अन्तरतम प्रदेश में निवास करते हुए देखते हैं, हे राम ! ऐसे आत्मदर्शी के हृदय में सीता-सहित आप निवास करें ।

मुक्तिमिच्छसि चत्तात विषयान् विषयत्यजेः।
क्षमार्जवदयाशौचं सत्यं पियूषवत् पिबे।।
–महर्षि अष्टावक्र (अष्टावक्र गीता)

भा॰-हे भाई ! यदि तुम्हें मुक्ति पाने की सच्ची अभिलाषा है तो विषयों को विष के समान छोड़ दो और क्षमा, सरलता, दया, अन्तर-बाहर की पवित्रता और सत्य रूपी अमृत का पान करो।

रहूगणैतत्तपसा न याति न,
चेज्यया निर्वपणाद् गृहाद्वा।
नच्छन्दसा नैव जलाग्निसूर्यैर्विना,

महत्पादरजोऽभिषेकम्।।१२।।
–महर्षि जड़भरत (श्री मद्भागवत ५।१२)

भा॰- हे रहूगण ! सन्त महापुरुष की चरणधूलि से बिना अपने शरीर को स्नान कराए, केवल तप-यज्ञादिक वैदिक कर्म, अन्नादि दान, अतिथिसेवा आदि गृहस्थ-आश्रमोचितधर्मानुष्ठान, वेदाध्ययन जलदेवता वरुण, अग्निदेव, और सूर्यदेव की पूजादि साधनों से यह परमात्मज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता।

ज्ञानंतीर्थ धृतितीर्थंतपस्तीर्थमुदाहृतम्।
तीर्थानामपि तत्तीर्थं विशुद्धिर्मनसः परा।।३२।।
–महर्षि अगस्त्य (स्कन्दपुराण, का॰पू॰ ६)

भा॰- ज्ञान प्राप्त करना तीर्थ है, धैर्य धारण करना तीर्थ है, तप करने को भी तीर्थ कहा गया है, किन्तु सब तीर्थों से बड़ा है अन्त:करण की आत्यन्तिक शुद्धि ।

नायं देहो देहभाजां नृलोके
कष्टान् कामानर्हते विड्भुजां ये।
तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं
शुद्धयेद्यस्माद् ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम्।।
-भगवान् ऋषभदेव (श्री मद्भागवत ५।५।१)

भा॰-पुत्रो! इस मर्त्यलोक में यह मनुष्य-शरीर दुख मय विषयभोग प्राप्त करने के लिए नहीं है। ये भोग तो विष्ठा खानेवाले शूकर-कूकरादि को भी मिलते हैं । इस शरीर से वह दिव्य तप करना चाहिए जिससे अपना सत्त्व–अन्त:करणादि परिशुद्ध हो जाय; कयोंकि इसी से तुम्हें अनन्त ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होगी।

सर्वभूतेषु यः पश्येद् भगवद्भावमात्मनः।
भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः।।४।।
-योगीश्वर हरि (श्री मद्भागवत ११।२)

भा॰—जो अपनी आत्मा से सभी प्राणियों में भगवद्सत्ता को देखने की दृष्टि प्राप्त कर लेता है, वही भगवान का उत्तम भक्त है।

श्रद्धां भागवते शास्त्रेऽनिन्दामन्यत्र चापि हि।
मनोवाक्कर्म दण्डं च सत्यं शमदमावपि।।२६।।
- योगीश्वर प्रबुद्ध (श्री मद्भागवत ११।३)

भा॰- जो भगवान को प्राप्त करना चाहता है, वह भगवान की प्राप्ति का मार्ग बतानेवाले शास्त्रों में श्रद्धा रखे। दूसरे शास्त्रों की निन्दा न करे । प्राणायाम के द्वारा मन का, मौन के द्वारा वाणी का और वासनाहीनता के द्वारा कर्मों का शुद्धिकरण एवं संयमन करे । सत्य में स्थिर रहे, इन्द्रियों और मन को वशीभूत कर उन्हें उनके केन्द्रों में स्थिर करे ।

ये कैवल्यमसम्प्राप्ता ये चातीताश्च मूढताम।
त्रैवर्गिका ह्यक्षणिका आत्मानं घातयन्ति ते।।१६।।
-योगीश्वर चमस (श्री मद्भागवत ११।५)

भा॰—जो लोग मूढता से अतीत हैं. पर अर्थ, धर्म एवं काम इन तीनों की पूर्ति के प्रयत्न में एक क्षण के लिए भी विश्राम नहीं लेते, उन्होंने यदि आत्मज्ञान-सम्पादन कर कैवल्य मोक्ष नहीं प्राप्त किया, तो वे लोग आत्मघाती हैं । वे अपना जीवन आप ही नष्ट कर रहे हैं ।

गोभिर्विप्रैश्च वेदैश्च सतीभिः सत्यवादिभिः।
अलुब्धैर्दानशीलैश्च सप्तमिर्धार्यते मही।।७।।
–महर्षि सारस्वत मुनि (स्क॰ मा॰ कुमा॰ २)

भा॰–१ गौ या ज्ञान ज्योति, २ विद्वान या ब्रह्मज्ञानी, ३ वेद या ब्रह्मज्ञान-प्रतिपादक-शास्त्र, ४ सती नारी, ५ सत्यवादी पुरुष, ६ लोभ और तृष्णा से रहित व्यक्ति तथा ७ भौतिक और आध्यात्मिक सम्पत्तियों का दान करनेवाला, इन सातों के द्वारा ही यह पृथ्वी धारण की जाती है।

सत्त्वशुद्धि सौमनस्यैकाग्रयेन्द्रिय
जयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च।
-महर्षि पतंजलि (योगशास्त्र २।४१)

भा॰–सत्त्व यानी अन्त:करणादिकों की शुद्धि, मन की पवित्रता और एकाग्रता तथा सभी इन्द्रियों को वशीभूत करने से आत्म दर्शन की योग्यता प्राप्त होती है।

समाधिसिद्धिरीश्वर प्रणिधानात्।
–महर्षि पतंजलि (यो॰ २।४५)

भा॰- ईश्वर के गम्भीरतम ध्यान से समाधि दशा की सिद्धि मिलती है।

अहोधनमदानधस्तु पश्यन्नपि न पश्यति ।
यदि पश्यत्यात्महितं स पश्यति न संशयः।।
-भगवान कपिलदेव (नारद पुराण ८ । १०९)

भा॰- अहो ! जो धनमद से अन्धवत् हो रहे हैं, वे देखकर भी नहीं देखते हैं ! जो आत्मकल्याण की दृष्टि से ही देखते हैं, उसी का देखना सार्थक है, इसमें कोई भी संशय नहीं है।

अस्तो नास्ति पिपासायाः संतोंषः परमं सुखम्।
तस्मात् सन्तोषमेवेह परं पश्यन्ति पंडिताः।।४६।।
–महर्षि शौनक (महाभारत वनपर्व २)

भा॰– तृष्णा की कोई सीमा नहीं है। संतोष ही परम सुख है। इसीलिए पंडितजन संतोष (आत्म-तृप्ति) से श्रेष्ठ और किसी सुख को नहीं देखते।

सोऽहं न पापमिच्छामि न करोमि वदामि वा।
चिन्तयन् सर्वभूतस्थमात्मन्यपि च केशवम्।।७।।
–महर्षि पराशर (विष्णु पुराण १।१९)

भा॰-अपने सहित सभी प्राणियों में परमात्मा का निवास है- यही चिन्तन करते हुए न मैं कोई पाप करने की इच्छा करता हूँ, न पाप की वाणी बोलता हूँ और न कोई पाप कर्म ही करता हूँ।

मोहादधर्मं यः कृत्वा पुनः समनुतप्यते।
मनः समाधिसंयुक्तो न स सेवेत दुष्कृतम्।।४।।
-महर्षि वेदव्यास, (ब्रह्म पुराण २१८)

भा॰- मोहवश अधर्म का आचरण कर लेने पर भी जो पश्चाताप सहित समाधि-साधन का अभ्यास कर उससे संयुक्त हो जाता है, वह फिर किसी प्रकार पाप-सेवन नहीं करता ।

पिवन्ति ये भगवत आत्मनः सतां
कथामृतं श्रवणपुटेषु सम्भृतम्।
पुनन्ति ते विषयविदूषिताशयं व्रजन्ति
तच्चरणसरोरुहान्तिकम्।।३७।।
- शुकदेव मुनिवर्य (श्री मद्भागवत २।२)

भा॰- जिन सत्पुरुषों ने आत्म रूप से भगवान का साक्षात्कार कर लिया है, वे अपने कानों से सर्वदा प्रकाशध्वनि की माधुरी पीते रहते हैं, उनके अन्त:करण से विषय-रस का दूषण नष्ट हो जाता है और वे पवित्र बनकर भगवान के चरण-कमल की सन्निधि प्राप्त कर लेते हैं । ऐसे संतजन स्वभावतः भगवान का मधु-कथामृत संसार में बाँटते फिरते हैं ।

श्रद्धयाध्यायते धर्मो विद्वद्भिश्चात्मवादिभिः।
निष्किंचनास्तु मुनयः श्रद्धावन्तो दिवं गताः।।४६।।
–महर्षि जैमिनि (पद्मपुराण, भूमि॰ ९४)

भा॰-आत्मज्ञानी और विद्वान पुरुष श्रद्धा से ही धर्मतत्त्व का ध्यान करते हैं । अकिंचन होते हुए भी संतजन श्रद्धा के कारण ही दिव्यज्ञान या तत्त्वज्ञान प्राप्त करने में सफल हुए।

क्रोधः कामो लोभ मोहौ विधित्सा
कृपासूयेमानशोकौ स्पृहा च ।
ईर्ष्या जुगुप्सा च मनुष्य दोषा वर्ज्याः
सदा द्वादशैते नराणाम्।।१६।।
– मुनि सनत्सुजात (महाभारत, उ॰प॰अ॰ ४३)

भा॰- काम, क्रोध, लोभ, मोह, असंतोंष, निर्दयता, असूया, अभिमान, शोक, स्पृहा, ईर्ष्या और निन्दा, मनुष्यों में रहनेवाले ये बारह दोष सदा ही त्याग देने योग्य हैं ।

येषां त्रीण्यवदातानि विद्या येनिश्च कर्म च।
तान् सेवेत्तैः समास्या हि शास्त्रेभ्योऽपि गरीयसी।।
–महर्षि वैशम्पायन (महा॰वन॰ १।२६)

भा॰-जिनके माता-पिता, आचरण और ज्ञान तीनों ही पवित्र हों, ऐसे संतों की संगति करना शास्त्रों के स्वाध्याय से भी श्रेष्ठतर है।

आलोच्य सर्व शास्त्राणि विचार्यं च पुनः पुनः
इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणः सदा।।१४।।
–महात्मा भद्र (स्क॰पु॰,प्र॰ख॰ ३१७)

भा॰- सब शास्त्रों को देखकर, बारम्बार विचारकर यही एक सिद्ध और सुस्थिर हुआ है कि सदा परमात्मा का ही ध्यान करना चाहिए।

यत्र गत्वा न शोचन्ति न व्यथन्ति चरन्ति वा।
तदहं स्थानमत्यन्तं मार्गयिष्यामि केवलम्।।४।।
-महर्षि मुद्गल (महा॰वन॰ २६१)

भा॰-मैं तो केवल उसी स्थान को खोजूँगा, जहाँ जाने से कभी शोक, व्यथा और संसार में आवागमन नहीं होता।

यदेन्द्रियोपरामोऽथ द्रष्टात्मनि परे हरौ।
विलीयन्ते तदा क्लेशा: संसुप्तस्येव कृत्स्नशः।।१३।।
-महर्षि मैत्रेय (श्री मद्भागवत ३।७)

भा॰- जब समस्त विषयों से सिमटकर इन्द्रियों की चेतना, दुख हरण करनेवाले परमात्मा में निश्चल भाव से स्थित हो जाती है, तब सम्पूर्ण सांसारिक क्लेशों का सदा के लिए उसी भाँति विनाश हो जाता है, जिस भाँति प्रतिदिन नींद की दशा में सम्पूर्ण क्लेश विलीन हो जाते हैं ।

यः स्यादेकायने लीनस्तूष्णीं किचिंदचिन्तयन्।
पूर्वं -पूर्वं परित्यज्य सतीर्णो भवबन्धनात्।।१।।
-सिद्ध महर्षि (महा॰ अश्वमेध॰ १९)

भा॰–जो स्थूल-सूक्ष्मादि सभी पूर्व प्रपंचों का बोध करके किसी प्रकार का भी संकल्प-विकल्प न करते हुए मौन में स्थिर होकर, सभी प्रपंचों के लय स्थान परब्रह्म में समाहित हो गया है उसने इस संसार-बंधन को पार कर लिया है।

अविस्मृति कृष्णपादारविन्दयोः
क्षणेत्य भद्राणि शमं तनोति च।
सत्त्वस्य शुद्धिं परमात्मभक्तिं
ज्ञानं च विज्ञान विरागयुक्तम ।।५।।
-पुराणवक्ता सूतजी (श्री मद॰ भा॰ १२। १२)

भा॰–भगवान श्री कृष्ण के पादारविन्द का अविरल स्मरण करने से अशुभ विषय-वासनाओं का नाश होकर मन शान्त और एकाग्र हो जाता है, उसके अन्त:करणादि सहित सभी तत्त्व शुद्ध हो जाते हैं और सत्त्व शुद्ध होते ही उसे परमात्मा की भक्ति, ज्ञान, तथा वैराग्य युक्त विशेष ज्ञान भी मिल जाता है यानी सर्वेश्वर का साक्षात्कार हो जाता है ।  

43.

राजर्षियों एवं भक्तों के उपदेश --->>>

सत्यं ब्रूयात्प्रियंबूयान्नब्रूयात्सत्यमप्रियम्।
प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः।।
– महाराज मनु (मनुस्मृति, ४। १३८)

भा॰- ऐसा सत्य बोले जो सुनने में मीठा लगे। जो सत्य सुननेवाले को मीठा न लगे, वह नहीं बोले । जो बोली सुनने में मीठी लगे, किन्तु वह सत्य नहीं हो तो ऐसी बात भी नहीं बोले । यही सनातन धर्म है।

भक्ति मुहुः प्रवहतां त्वयि में प्रसंगो
भूयादनन्त महताममलाशयानाम् ।
येनांजसोल्वण मुरुव्यसनं भवाब्धिं,
नेष्ये भवद्गुण कथामृतपान मत्तः।।११।।
-भक्तराज ध्रुव (श्री मद्भा॰ ४।९)

भा॰-- हे अनन्त स्वरूपी प्रभो ! आप मुझे उन निर्मल हृदयवाले संत महापुरुषों की संगति दीजिए, जिनके हृदय में आपका अविच्छिन्न भक्ति-भाव है। मैं उस सत्संगति में रहकर अनायास सदा आपके कथामृत का पान कर प्रमत्त बना रहूँगा और इस भाँति सहज ही इस भयंकर संसार-सागर के उस पार पहुँच जाऊँगा।

न विना ज्ञानविज्ञाने मोक्षस्याधिगमो भवेत्।
न विना गुरुसंबंधं ज्ञानस्याधिगमः स्मृतः।।२२।।
-महाराजा जनक (महाभारत, शान्ति॰ ३२६)

भा॰—जैसे ज्ञान-विज्ञान के बिना मोक्ष नहीं हो सकता, उसी प्रकार सद्गुरु से संबंध स्थापित हुए बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती।

सन्तोषो वै स्वर्गतमः सन्तोषः परमं सुखम्।
तुष्टेर्न किंचित् परतः सा सम्यक प्रतितिष्ठति।।२।।
यदा संहरते कामान् कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
तदाऽऽत्म ज्योतिरचिरात् स्वात्मन्येव प्रसीदति।।३।।
-भीष्मपितामह (महाभारत, शान्ति॰ २१)

भा॰–संतोष ही उच्चतम स्वर्ग है, संतोष ही ‘परमसुख’ है। संतोष से बढ़कर और कोई भी आनन्द नहीं है। इस संतोष की प्रतिष्ठा निम्नलिखित उपायों से होती है- जिस प्रकार कछुआ अपने सभी अंगों को समेटकर अपने खोखड़े में स्थित हो जाता है, उसी प्रकार जब यह चेतन आत्मा अपनी चेतन धारों को सभी इन्द्रियों से समेटकर अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित या सुस्थिर हो जाती है, तभी इस संतोष रूपी ‘परमसुख’ की प्राप्ति होती है। इस आत्मतृप्ति स्वरूपा ‘संतोंषसुख’ की कभी समाप्ति नहीं होती।

स्वधर्मेस्थिता स्थैर्य धैर्यमिन्द्रियनिग्रहः।
स्नानं मनोमलत्यागो दानं वै भूत रक्षणम्।।६।।
–धर्मराज युधिष्ठिर (महाभारत, वन॰ ३१३)

भा॰–स्वधर्म यानी आत्मा में जो अचल शान्ति का स्वभाव है, उसमे स्थित रहना ही ‘स्थिरता’ है। इन्द्रियों का संयमन कर उसकी चेतना को विन्दु पर एकत्र रखना ही ‘धैर्य’ है। मन में रहनेवाले सारे विषयमलों को छोड़ देना ही ‘स्नान’ है और समस्त प्राणियों की आत्मा से एक होकर उसकी रक्षा और कल्याण करना ही ‘दान’ है।

कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्
गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास
त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ।।३७।।
–भक्त अर्जुन (श्री मद्भगवद्गीता, अ॰ ११)

भा॰-हे महान आत्मन् ! आप सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी की भी उत्पत्ति के आदि कारण और उससे भी श्रेष्ठ हैं। हे सभी देवताओं के स्वामी ! हे व्यापक रूप से सारे जगत् में निवास करनेवाले ! हे अनन्त ! आप अक्षर, सत् एवं असत् से भी अतीत परम तत्त्व हैं , ऐसे आपको भला वे ब्रह्मादि देव कैसे नमस्कार नहीं करें।

आत्मा नदी भारत पुण्यतीर्था,
सत्योदया धृतिकूला दयोर्मिः।
सत्यां स्नातः पूयते पुण्यकर्मा,
पुण्योह्यात्मा नित्यमलोभ एव ।।
–महात्मा विदुर (महाभारत, उद्यो॰ ४०। २१)

भा॰- हे भारत ! आत्मा ही पुण्यतीर्थ स्वरूप नदी है। इसका उद्गम-स्थल सत्य या परमात्मा है। इस नदी का किनारा धैर्य है, दया इसकी लहर है। जिसने संसार की सभी तृष्णाओं को छोड़ देने का पुण्य कर्म किया है, ऐसी ही पवित्र आत्मा इस नदी में स्नान कर सदा के लिए निर्मल हो जाती है।

नाकृतात्मा कृतात्मनं जातु विद्याज्जनार्दन।
आत्मनस्तुक्रियोपायो नान्यत्रेन्द्रियनिग्रहात्।।१७।।
–भक्त संजय (महाभारत, उद्यो॰ ६९)

भा॰- जिसने विषयेन्द्रियों को आत्मा के वशीभूत नहीं किया, ऐसे अकृतात्मा पुरुष कभी परमात्मा को नहीं जान सकते । आत्मतत्त्व को जानने के लिए सभी इन्द्रियों का निग्रह करना छोड़ और कोई दूसरा मार्ग है ही नहीं ।

चित्तंशोधय यत्नेन किमन्यैर्बाह्यशोधनैः।
भावतः शुचि शुद्धात्मा स्वर्ग मोक्षं च विन्दति।।६।।
-मातलि (पद्मपुराण, भूमि॰ ६६)

भा॰–अन्य बाहरी शुद्धियों में ही क्या पड़े हो ? यत्नपूर्वक चित्त को निर्मल बनाने का प्रयत्न करो। भाव तथा अन्तरात्मा को पवित्र और निर्मल बनानेवाले को ही स्वर्ग या मोक्ष मिल जाता है।

निवृत्ततरुपगीयमानाद्
भवौषधाच्छोत्रमनोऽभिरामात्।
क उत्तमश्लोक गुणानुवादात्
पुमान् विरज्येत विना पशुघ्नात।।४।।
-राजा परीक्षित (श्री मद्भा॰ १०।१)

भा॰-तृष्णाविमुक्त संत जिस परमात्मा का सदा गुणानुवाद करते रहते हैं, जो मुमुक्षु जनों के लिए भवरोग की औषधि है, जिसे सुनकर विषयी व्यक्तियों के कान और मन भी विश्राम-सुख का अनुभव करते हैं, ऐसी पवित्र चर्चा नहीं सुननेवाले पुरुष पशुघाती या आत्मघाती ही कहे जाएँगे।

शास्ता विष्णुरशेषस्य जगतो यो हृदि स्थितः।
तमृते परमात्मानं तात कः केन शास्यते।।२०।।
-भक्त प्रहलाद (विष्णु पुराण १।१७)

भा॰- हे पिताजी ! सभी के हृदय में स्थित सर्वव्यापी परमात्मा ही तो सारे जगत के उपदेशक हैं। उन सर्वेश्वर को छोड़कर और कौन किसी को कुछ सिखा सकता है ?

हरिहरति पापानि दुष्टचित्तैरपिः स्मृतः।
अनिच्छ्यापि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावकः।। १०॰।।
–भक्त राजा बलि (नारद पूर्व॰ ११)

भा॰-दूषित चित्तवाला भी यदि पाप को नाश कर देनेवाले परमात्मा का स्मरण-भजन करता है, तो सर्वेश्वर उसकी पाप वृत्ति को उसी भाँति नष्ट कर देते हैं, जिस तरह अनिच्छा से भी आग का स्पर्श करने से वह जला देती है।

न नाकपृष्ठं न च पारमेष्ठ्यं न
सार्वभौमम् न रसाधिपत्यम्।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा समंजस
त्वा विरहय्य कांगे।।२५।।
-भक्त वृत्रासुर (श्री मद्भागवत, ६। ११)

भा॰-हे प्रभो ! आपको छोड़कर मैं स्वर्ग, परम ईश्वरता, सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य, पाताल का आधिपत्य, योग सिद्धियाँ- यहाँ तक कि मोक्ष भी नहीं चाहता।

गुरु शुश्रूषणं सत्यमक्रोधो दानमेव च।
एतच्चतुष्टयं ब्रह्मन् शिष्टाचारेषु नित्यदा।।६।।
वेदस्योपनिषत् सत्यं सत्यस्योपनिषद्दमः।
दमस्योपनिषत् त्यागः शिष्टाचारेषु नित्यदा।।६।।
-संत व्याध (महाभारत, वन॰ २०७)

भा॰-हे ब्रह्मन् ! गुरु की सेवा-शुश्रुषा करना, सत्य का आचरण, क्रोध का त्याग एवं स्थूल-सूक्ष्म वस्तुओं का दान, शिष्टाचारी पुरुषों में ये चार सद्गुण अवश्य होते हैं। वेदों का उपनिषत् सत्य है, सत्य का सार चौदहो इन्द्रियों को अपने वश में लाना है और सर्वेन्द्रिय संयमन का सार त्याग अर्थात् संसार के स्थूल सूक्ष्म सभी रूपों का त्याग कर परमात्मा की गोद में स्थिर-शान्त हो जाना है। यह त्याग शिष्ट पुरुषों में सदा विद्यमान रहता है। 

44.

महान नारियों की वाणी   --->>>

अहमेव स्वयमिद् वदामि जुष्टं
देवेभिरुत मानुषेभिः।
यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं
ब्रह्माणं तमृषि तं सुमेधाम्।।
- महर्षि अम्भृण की कन्या वाक् देवी (ऋग्वेद)

भा॰- मैं स्वयं ही देवों और मनुष्यों द्वारा सेवित उस दुर्लभ तत्त्व का वर्णन करती हूँ। परात्पर पुरुष कभी कोई इच्छा एवं कर्म नहीं करते । मैं उनकी शक्ति ही सारी क्रियाओं को निष्पन्न करनेवाली हूँ। मैं जिसको प्यार करती हूँ, उसे सबकी अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बना देती हूँ- उसीको ब्रह्मज्ञानी, उसीको ऋषि और उसीको मेधावी बना देती हूँ।

अहो बत श्वपचोऽतो गरीयान्
यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम्।
तेषुस्तपस्ते जुहुवुः सस्नुरार्या
ब्रह्मानू चुर्नाम गृणन्ति ये ते।।
-कपिल-माता देवहूति (श्री मद्भा॰, ३। ३३ । ७)

भा॰- अहो ! वह चण्डाल भी सर्वश्रेष्ठ है, जिसकी जिह्वा के अग्र भाग में अर्थात जिस केन्द्र से जिह्वा को बोलने की शक्ति प्रदान की जाती है, उस केन्द्र में आपका नाम (प्रणवध्वनि) विराजमान है। इस भाँति जो आप ब्रह्म का ध्वन्यात्मक नाम जपते हैं , उन्होंने तप, यज्ञ, तीर्थस्नान, सदाचार का पालन और वेदों का स्वाध्यायादि सब सत्कर्म ही कर लिया । केवल वर्णात्मक नाम ही जपनेवालों के लिए ऐसी बात नहीं है।

या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः।
योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्।। २७१।।
-ऋषि वशिष्ठ-पत्नी अरुन्धती (पद्म॰ सृष्टि १६)

भा॰- दुष्ट बुद्धिवालों के लिए जिसे छोड़ सकना कठिन है, जो मनुष्यों के बूढ़े हो जाने पर भी कभी पुरानी या जीर्ण नहीं होती, जो प्राण को अन्त करनेवाले रोगों के समान मनुष्यों को आक्रान्त किए रहती है, ऐसी दुर्दान्त तृष्णा को छोड़ देने से ही परम सुख की प्राप्ति होती है।

शुद्धोऽसि रे तात न तेस्ति नामं
कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव।
पंचात्मकं देहमिदं न तेस्ति
नैरास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतोः।।
-दिव्य माता मदालसा (मार्कण्डेय॰, २५ । ११)

भा॰- हे पुत्र ! तू तो शुद्ध आत्मा हो, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। पंचतत्त्वों से बना हुआ यह शरीर भी तुम्हारा नहीं है और न तुम ही इस देह के हो, फिर किसलिए रो रहे हो!

सतां सकृत संगतमीप्सितं परं
ततः परं मित्रमिति प्रचक्षते।
न चाफलं सत्पुरुषेण संगतं ततः
सतां संनिवसेत् समागमे।।३०।।
-सती सावित्री (महाभारत, वन॰ २९७)

भा॰–सत्पुरुषों का तो एकबार का समागम भी अभीप्सा करने योग्य है। यदि भगवद्कृपा से उनसे मैत्री भाव स्थापित हो गया तो यह और भी श्रेष्ठ बताया जाता है। संत-समागम कभी निष्फल नहीं होता, अतः सदा संतों के संग में ही रहना चाहिए।

सत्यमत्यन्तमुदितं धर्म शास्त्रेषु धीमताम्।
तारणायानृतं तद्वत् पातनायाकृतात्मनाम्।।२०।।
-महारानी शब्या (माकण्डेय पुराण, ८)

भा॰- सत्यव्रती राजा हरिश्चन्द्र से महारानी शैव्या कहती है – ‘हे महाराज ! धर्मशास्त्रों को भली-भाँति जाननेवालों ने कहा है कि सत्य ही संसार-सागर से तरने के लिए उत्तम साधन है। इसी प्रकार जिसने अपने सारे इन्द्रियों को वश में नहीं किया है, ऐसे पुरुषों का असत्याचरण ही उसे पतन की ओर ले जाने का प्रधान कारण बतलाया गया है। 

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी  

संपर्क

महर्षि मेंहीं आश्रम

कुप्पाघाट , भागलपुर - ३ ( बिहार ) 812003

mcs.fkk@gmail.com

जय गुरु!

जय गुरु!

सद्गुरु तथ्य 

01. जन्म-तिथि : विक्रमी संवत् १९४२ के वैसाख शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तदनुसार 28 अप्रैल, सन् 1885 ई. (मंगलवार)
02. निर्वाण=8 जून, सन 1986 ई. (रविवार)

श्री सद्गुरु महाराज की जय!