(41) मन भजन करो भगवान 

मन भजन करो भगवान, भरोसा क्या कल का ।।टेक।।
बचपन गया जवानी बीती, बूढ़ेपन की क्या परतीती ।
यह तो बुलबुला जल का, भरोसा क्या कल का ।।1।।
आज नहीं कल क्यों तू करता, ऐसा कर किसको है छलता ।
यह वादा अनभल का, भरोसा क्या कल का ।।2।।
टाला टूली में दिन रीता, एक नहीं युग बहुतों बीता ।
जब खबर नहीं पल का, भरोसा क्या कल का ।।3।।
चेतो करो भजन मन लाई, ‘शाही’ विधि सतगुरु से पाई ।
करि आस परम फल का, भरोसा क्या कल का ।।4।।

भजन = ध्यान, ब्रह्मज्योति और ब्रह्मध्वनि की खोज, अनंत सुख-शांति स्वरूप सर्वेश्वर की खोज, सुमिरण-ध्यान। भगवान = परम प्रभु परमात्मा। भरोसा = आसरा, आशा। क्या = नहीं। गया = बीत चुका। बूढ़ेपन = वृद्धावस्था। परतीती = विश्वास। बुलबुला = शीघ्र विनसनेवाला पानी का फफोला। छलता = ठगता, धोखा देता। वादा = वचन, इकरार, प्रतिज्ञा। अनभल = भारी क्षति, अकल्याण, जबर्दस्त हानि, खतरा। टाला टूली = आलस्यवश टाल देना। रीता = व्यर्थ चला गया, खाली पड़ा रहा। खबर = पता, समाचार। मन लाई = मनोयागपूर्वक, मन लगाकर। विधि = प्रक्रिया, साधन विशेष, युक्ति, कायदा, इल्म, फहम। परम फल = मोक्ष।

ऐ मेरे मन तू परम प्रभु सर्वेश्वर की भक्ति, सुमिरण, ध्यान करो, अंतःप्रकाश और अन्तर्ध्वनि की खोज करो, यह सबसे बढ़कर कल्याणकारी कार्य कल पर, दूसरे दिन की आशा-भरोसा पर मत छोड़ो, चूँकि कल ही का क्या ठिकाना (संत कबीर साहब की वाणी है-‘काल करो सो आज कर, आज करो सो अब । पल में परलय होगा, बहुरि करेगा कब ।।) है।। बाल्यावस्था चली गयी, जवानी भी बीत ही गयी, वृद्धावस्था का क्या विश्वास? यह तो शीघ्र विनसनेवाला पानी का फफोला-सा, बुलबुला-जैसा है। कल दिन का आसरा मत करो।। तू आज नहीं कल क्या करता है? ऐसा करके किसको धोखा दे रहा है? तुम्हारा यह फैसला, वचन निश्चय ही भारी क्षतिवाला, अकल्याणवाला है, अतः कल का भरोसा मत करो।। इसी टाला-टूली आलस्य (यह आलस्य धर्मशास्त्र में ‘शरीरस्थो महान् रिपुः’ कहा गया है।) में दिवस खाली-खाली व्यर्थ चला गया, इस तरह अनेकों युग बीत गये। जब कि पल में क्या हो जाएगा, कहा नहीं जा सकता कि जो साँस ले रहे हैं, वह लौटेगी या नहीं, कल की आशा मत करो।। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि अरे मन! तू सावधान हो, सजग हो कर मनोयोगपूर्वक संत सद्गुरु की बतायी सद्युक्ति के मुताबिक सबसे बड़ा फल मोक्ष पाने की आकांक्षा पूर्ण करने के लिए अविलंब सुमिरण-ध्यान में संलग्न हो जाओ, कल का भरोसा तो बिल्कुल मत करो।।

(42) गुरुदेव रीझ जाओ 

गुरुदेव रीझ जाओ, अवगुण बिसार सारे ।
ले लो शरण में अपनी, भव से करो किनारे ।।
अति दीन हूँ दुखित हूँ, त्रय व्याधि से व्यथित हूँ ।
भव त्रस से त्रसित हूँ, पाये बिना सहारे ।।
दीजै प्रभू सहारा, धरि ज्योति शब्द धारा ।
हों त्रय पटों से न्यारा, चरणों लगूँ तुम्हारे ।।
हे नाथ अब न टालो, अपनी विरद को भालो ।
बिगड़ी मेरी सँभालो, ‘शाही’ के हे सहारे ।।

रीझ = प्रसन्न हो। अवगुण = भावी जीवन को भयंकर खतरनाक बना देनेवाला भीतर का खराब स्वभाव, दुर्गुण, अशुभ विचार, कुविचार, दुर्व्यवहार, खराब आचरण। बिसार = भुला दें। सारे = समस्त। किनारे = मंजिल तक, गन्तव्य स्थान, पार। अति = अत्यन्त। दीन = लाचार, बेसहारा, दरिद्र, दुर्दशा, संकटापन्न। दुखित = दुःखी। त्रय = तीन। व्याधि = विपत्ति, पीड़ा, दुःख, तकलीफ, व्यथा। व्यथित = दुःखी, पीड़ित। त्रस = भय, डर। त्रसित = डरा हुआ, भयभीत, भयाक्रांत। न्यारा = अलग होना, पार हो जाना। न टालो = देर न लगाएँ, दूर न रखें। विरद = प्रतिज्ञा, संकल्प, स्वभाव, टेक। भालो = नजर रखें, ख्याल करें। बिगड़ी = बिगड़ते कार्य, सारी अशांति का कारण।  

हे मेरे गुरुदेव, संत सद्गुरु महाराज (परमाराध्य अनंत श्रीविभूषित संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज)! हमारे समस्त दुर्गुणों, कुविचारों, कल्मषों, भावी जीवन को भयंकर दुःखमय, खतरनाक बना देनेवाले अंतर की दूषित भावनाओं, दोषों को भुलाकर प्रसन्न हो जाएँ। अपनी सान्निध्यता प्रदान कर मुझे अपना लेने की कृपा करके संसार समुद्र से पार कर देने की महान् अनुकम्पा कर दें।। हे गुरु महाराज! मैं क्या कहूँ अपनी दुर्दशा, मैं तो अत्यन्त ही विपन्न, बहुत ही दयनीय, लाचार स्थिति में पड़ा हुआ, भारी विपद्ग्रस्त, संकटापन्न (संसार-समुद्र में जीवन नैया डूबने-डूबने को डगमग-डगमग कर रही है) हूँ, बहुत ही कष्टप्रद तापों (दैहिक, दैविक, भौतिक) विपत्तियों से पीड़ित हूँ। आपके आश्रय के अभाव में संसार के भय से भयभीत हूँ।। हे प्रभु! मुझ पर ऐसी अनुकम्पा कर दें कि आपके पास पहुँचने का माध्यम, सहारा आपकी ही ज्योति और शब्द की धारा है, उन्हें मैं पकड़कर, धारण कर तीनों परदों (अंधकार, प्रकाश और शब्द) से पार हो जाऊँ, यही आपके चरणारविन्द में माथा टेककर मेरी बारंबार प्रार्थना है।। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि हे मेरे सर्वस्व स्वामी, अधीश्वर गुरुमहाराज! अब और मुझे न टालें, देर न लगाएँ, अविलंब अपनी प्रतिज्ञा, संकल्प की ओर नजर डालें, ख्याल करें तथा मेरे दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलकर, सारे बिगड़ते कार्यों को सुधार दें, सँभाल दें।।

(43) सन्त-अंग (दोहा) 

संत भेष से होत नहिं, नहीं कथे बहु ज्ञान ।
ना मठ के अधिपति बने, ना तीरथ किये सनान ।।
सन्त हुए सब भेष में, और हुए सब देश ।
पढ़ुआ अनपढ़ुआ हुए, रंकहु हुए नरेश ।।
विषय वासना है नहीं, दुःख का हूआ अन्त ।
चौरासी चक्कर मिटा, ताको कहिये सन्त ।।
शान्ती पद सबसे बड़ा, उससे बड़ा न कोय ।
उस पद से जो जा मिले, सन्त कहावे सोय ।।

भेष = वेश-भूषा, पहनावा, बाहरी रंग-रूप, दिखावा, बनावटी रूप। कथे = व्याख्यान देने। मठ = मन्दिर, देवालय, आश्रम। अधिपति = प्रधान, मालिक, स्वामी। सनान = स्नान। पढ़ुआ = पढ़े-लिखे। अनपढ़ुआ = बिल्कुल पढ़े-लिखे नहीं। रंकहु = गरीब। नरेश = राजा। वासना = कामना, चाहना, इच्छा। चक्कर = भ्रमण, भटकन, घूमना।  

संत, परमतत्त्वदर्शी वेश-भूषा, बाहरी रंग-रूप, पहनावे से नहीं होते, ज्ञान के संबंध में बहुत व्याख्यान देने मात्र से नहीं होते। न तो आश्रम, देवालय, मन्दिर के मालिक, प्रधान, स्वामी बन जाने या न तो तीर्थों में स्नान करने से नहीं होते।। संत तो सभी वेश- भूषा, रूप में और सभी देशों में हुए। पढ़े-लिखे भारी विद्वान हों या बिल्कुल पढ़े-लिखे नहीं हों, संत तो पढ़े-लिखे विद्वान भी हुए और अनपढ़ में भी हुए, गरीबी हालत में रहते हुए भी संत हो गए और राजा के रूप में भी संत हो गए।। जिनमें विषयों (रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द) की इच्छा, कामना नहीं, समस्त दुःखों (जन्म-मरणादि संसृति का अपार संताप) का अंत हो गया है। चौरासी लाख प्रकार की देहों, यानियों में परिभ्रमण करना भटकना मिट गया, ऐसे ही मनुष्य के रूप में साक्षात् परम प्रभु सर्वेश्वर सत्पुरुष संत कहलाते हैं।। सबसे बड़ा कोई स्थान, पद है, तो वह शांति का, परम प्रभु परमात्मा का परम धाम है, जिनसे बड़ा और दूसरा कोई लोक नहीं है। उस शान्ति पद में जो अंतर्यात्र पूरी कर (अंधकार, प्रकाश और शब्द की दूरी तय कर निःशब्द परम पद में अपने को प्रतिष्ठित कर) लिये, वे ही सबसे बड़े संत कहलाते हैं।।

(44) श्रीसद्गुरु की सार शिक्षा (दोहा) 

श्री सम्पन्न सदा सोई, जो सदगुरु उपदेश ।
मानि सदा सादर रहहिं, वाही के परिवेश ।।
सद्गुरु का उपदेश यह, जग स्त्रष्टा कोई एक ।
आदि अन्त कुछ है नहीं, वाका नाम अनेक ।।
तन में सबके उसी का, अंश कहाता जीव ।
वह अंशी सब जीव का, एकमात्र है पीव ।।
गुण से रहित परा प्रकृति, अपरा सगुणहिं मान ।
इन दोनों के योग से, सारी सृष्टी जान ।।
रुचि मत कर संसार के, विषयों के तू माहिं ।
है तो प्रभु की मौज से, पर सुख रंचहु नाहिं ।।
कीन्ह विषय में बोध जो, सुख का ऐसा जान ।
वर्षों सूखे हाड़ में, सुख मानत ज्यों स्वान ।।
साध हिये में परम सुख, मन विषया रस लीन ।
मगर पीठ चढ़ि चाहत, सागर पारहिं कीन ।।
रहनी लेहु सम्हारि निज, सतगुरु के उपदेश ।
अच्छी रहनी के बिना, उपजत सकल कलेश ।।
शिष्य सोइ जो सीख ले, चले ताहि अनुकूल ।
कहा सुना मानै नहीं, शिष्य नहीं वह शूल ।।
क्षार होय जरि पाप सब, अरु परमारथ होय ।
गुरु आज्ञा उपदेश पर, अमल करै जो कोय ।।
या तन में तन और है, जानि लेहु यह भेद ।
सब तन छूटे जीव का, प्रभू से होय अभेद ।।
दरस परस अरु सेव करि, गुरु को लेहु रिझाय ।
भक्ति दान आशीष से, तीनों तपन बुझाय ।।
रक्षक श्री गुरुदेव सम, को जग में दूजा ।
सर्वभाव से कपट तजि, कर इनकी पूजा ।।
खटपट मन की सब मिटै, गुरु के मानस जाप ।
जाप सिद्ध तब जानिये, जाप होय अरु आप ।।
नीके विधि गुरु ध्यान करि, लीजै हिये उगाय ।
तब गुरु गुण सब जाहिंगे, तेरे हिये समाय ।।
चार चार अरु चार पर, मन सह दृष्टि टिकाय ।
एक टक्क निरखत रहो, अद्भुत ज्योति लखाय ।।
हिय मंदिर में ज्योति पुनि, शब्द प्रभू की बाँह ।
इन दोनों के बीच पड़ि, भक्त मिले जा नाह ।।
येन केन प्रकारेण, लिखा जो है हमने ।
सब गुरु का उपदेश है, ना ‘शाही’ के अपने ।।

श्री = ऐश्वर्य, वैभव, लक्ष्मी, सम्पदा, किन्हीं के नाम के पहले प्रयोग किया जानेवाला आदरसूचक शब्द। सम्पन्न = भरा हुआ, परिपूर्ण। सादर = आदर के साथ। वाही = उन्हीं के। स्त्रष्टा = निर्माण करनेवाला, बनानेवाला। वाका = उनका। पीव = परम प्रभु परमात्मा, सर्वेश्वर। गुण से रहित = निर्गुण। परा = चेतन, कैवल्य। अपरा = जड़ (स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण मंडल)। सृष्टी = संसार, समस्त लोक-लोकान्तर। रुचि = चाहना, पसन्द, प्रीति, इच्छा। रंचहु = थोड़ा भी। बोध = ज्ञान। स्वान = कूकर, कुत्ता। लीन = लवलीन, मशगूल, भूला हुआ, निमग्न। मगर = घड़ियाल। कीन = करना। रहनी = रहन- सहन, क्रिया-कलाप। प्रकृति = वह मूलतत्त्व जिससे संसार बना है, चराचर संसार, स्वभाव। सृष्टि = संसार। लेहु = लें। सम्हारि = सँभाल, सुधार, अच्छाई की तरफ ले जाना, अशुभ से अपने को बचा लेना। निज = अपना। सकल = सभी, समग्र, समस्त। क्लेश = क्लेश, कष्ट, दुःख, विपत्ति, आपदाएँ। अनुकूल = मुताबिक, मुआफिक, तहत, अंदर, अक्षरशः पालन करना। शूल = काँटा, लोहे की नुकीली कील। क्षार = राख। अमल = अभ्यास। या = इस। तन = शरीर। अभेद = भेद-रहित, कोई भेद नहीं, एक ही हो जाना। रिझाय = प्रसन्न। आशीष = आशीर्वाद। तपन = संताप, कष्ट, दुःख, ताप। बुझाय = शांत करना, समाप्त करना, अंत करना। सम = बराबरी में। सर्व = सभी, सब, समस्त। खटपट = दौड़-भाग, अशांति, चंचलता, बहिर्मुखता। सिद्ध = प्रमाणित, पूरा किया हुआ, सत्य माना हुआ, पक्का, दक्ष, निपुण, विशेषज्ञ, अलौकिक शक्ति से सम्पन्न। नीके = अच्छी तरह, ठीक-ठीक। हिये = हृदय में। उगाय = प्रकट कर लेना, प्रत्यक्ष कर लेना, उगा लेना। टिकाय = ठहराकर रखना, ठहराना, स्थिर करके रखना, स्थिर कर देना। एक टक्क = स्थिर दृष्टि से देखते रहना। अद्भुत = विलक्षण, विचित्र, आश्चर्यमय। लखाय = दिखाई पड़ना। पुनि = पुनः, फिर। बाँह = भुजा, हाथ। नाह = परम प्रभु परमात्मा, सर्वेश्वर, अधीश्वर। येन केन प्रकारेण = जिस किसी भी तरह से।

जो हमेशा आदर के साथ संत सद्गुरु के उपदेश, आदेश, निर्देश, सद्शिक्षा-दीक्षा के मुआफिक अनुपालन करते हैं, अपने को उन्हीं के सद्ज्ञान के परिवेश, अंदर अक्षरशः रखते हैं, वे सर्वदा समस्त ऐश्वर्यों, वैभवों से परिपूर्ण, सम्पन्न रहते।। संत सद्गुरु का उपदेश है कि संसार के निर्माण करनेवाले कोई एक ही है, जिनकी शुरूआत और अंत कुछ भी नहीं है, उनका अनेकों नाम हैं।। सबों की देह में उन्हीं का अंश जीव कहलाता है। वे सब जीवात्मा के अंशी एक मात्र प्रभु सर्वेश्वर परमात्मा हैं।। सभी गुणों (सत्, रज और तम) से परे, निर्गुण परा (चेतन) प्रकृति और सभी गुणों से युक्त सगुण (जड़) अपरा प्रकृति को मानो, जानो। इन्हीं दोनों प्रकृतियों के संयोग, सम्मिश्रित रूप को ही सारी सृष्टि जानो।। तुम संसार के विषयों (रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द) में अनुराग मत करो। इसका अस्तित्व, स्थिति तो तभी तक है, जबतक परम प्रभु परमात्मा की इच्छा है, मौज है; परन्तु इसमें किंचित् मात्र भी सुख नहीं है।। विषयों में तो सुख का लगना, बोध होना, तो उसी तरह का जानना चाहिए, जिस तरह वर्षों की सूखी हुई हड्डी में कुत्ता सुख महसूस करता है (चूँकि उस हड्डी में न तो मांस है और न रक्त, रस ही है, सुख तो कुत्ते को हड्डी के ठोकर से उसके मसूड़े से रक्त जो निकलता है, उसी का है, हड्डी का नहीं)।। यदि कोई भक्त मुमुक्षु, साधु हृदय में परम सुख, स्थायी अनंत सुख-शांति की कामना करे और अपने को विषय रसरूपी आनंद वाटिका में रमण करे विषयानंद में लीन रखे, तो जान लेना चाहिए कि वह भक्त, मुमुक्षु, साधु, संन्यासी घड़ियाल की पीठ पर बैठकर, सवार होकर समुद्र को पार करना चाहता है, जो बिल्कुल ही असंभव है।। अपने रहन-सहन, आचार-विचार, व्यवहार को सँभाल लें और संत सद्गुरु महाराज के उपदेश, आदेश, निर्देश में अपने को रखें। अर्थात् सत्संग नित अरु ध्यान नित, रहिये करत संलग्न हो । व्यभिचार, चोरी, नशा, हिंसा, झूठ तजना चाहिए ।। इन उपदेशों के साथ-साथ अपने को शिष्टाचार, शुच्याचार और संत सद्गुरु की निष्कपट सेवा में लगाए रखना चाहिए।। अच्छी रहनी, सद्व्यवहार, विशुद्धाचार, विचार के अभाव में समस्त आपदाएँ, कष्ट उपजते हैं।। शिष्य तो वही है, जो संत सद्गुरु महाराज के सद्ज्ञान, सद्शिक्षा को अक्षरशः हृदयंगम कर ले, अनुपालन कर ले, सर्वदा उनके सिखावनरूपी चहारदीवारी के अंदर अपने को रखे। यदि संत सद्गुरुदेव के सदुपदेशों को न माने, हृदय में कोई स्थान नहीं दे, तो वह शिष्य नहीं, बल्कि भारी पीड़ा प्रदान करनेवाला लोहे का बहुत ही नुकीला काँटा की तरह है।। जो कोई भी संत सद्गुरु महाराज की आज्ञा, उनके उपदेश पर अपने को रखेंगे, उन्हीं के आदेश, निर्देश, सद्शिक्षा-दीक्षा के अनुरूप अपने को चलाएँगे। ऐसे सद्शिष्य भक्त के समस्त कल्मष जलकर भस्मीभूत हो जाएगा और परम प्रभु परमात्मा की प्राप्ति हो जाएगी (राम ब्रह्म परमारथ रूपा । अविगत अकथ अनादि अनूपा ।। गो0 तुलसीदासजी महाराज रामचरितमानस में कहते हैं)।। इस शरीर के अंदर और भी शरीर (सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य चार शरीर) है, यह बात जाना लेना चाहिए। जब जीवात्मा सभी शरीरों को छोड़कर बाहर निकल जाएगा, तब उसे परम प्रभु सर्वेश्वर से मिलन हो जाएगा, द्वैत भाव मिट जाएगा, निर्भेद हो, स्वयं भी परम प्रभु परमात्मा ही हो जाएगा।। संत सद्गुरु के दर्शन कर उनके अति पावन चरणारविन्द का स्पर्शन कर और उनकी अत्यन्त अटल श्रद्धा के साथ प्रेमपूर्वक सेवा कर उन्हें प्रसन्न कर लें। उनकी भक्ति दान रूपी आशीर्वाद से दैहिक, दैविक तथा भौतिक-तीनों तापों, दुःखों को समाप्त कर लें।। संसार में संत सद्गुरु के समान दूसरे और कोई भी जीव के रक्षक, कल्याण करनेवाले नहीं हैं। अतः समस्त मनोविकारों, कुभावनाओं, छल-कपट का परित्याग कर संत सद्गुरु महाराज की आराधना करें।। गुरु मंत्र का मानस जप करने से मन की बहिर्मुखता, सारी चंचलता मिट जाती है। जाप तो तभी पक्का, सिद्ध समझना चाहिए, जब कि सिर्फ जाप हो और आप रहें।। संत सद्गुरु की अच्छी तरह से, सद्युक्ति से ध्यान कर उनके साकार रूप को अपने हृदय में उगा लें। तत्पश्चात् आपके अंदर गुरुदेव के समस्त सद्गुण समाविष्ट हो जाएँगे। बारह अंगुल पर मनोयोगपूर्वक दोनों दृष्टिधारों को जोड़कर स्थिर कर लें। एकटक्क से देखते रहने पर आश्चर्यमय ब्रह्मज्योति दिखाई पड़ेगी।। हृदयरूपी मंदिर में ब्रह्मज्योति के साथ-साथ ब्रह्मध्वनि भी सुनाई पड़ती है, परम प्रभु परमात्मा का ब्रह्मज्योति और ब्रह्मध्वनि दोनों हाथ है। इन दोनों हाथों के बीच आकर भक्त अपने परम प्रभु सर्वेश्वर से मिल जाते हैं। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि मैंने जिस किसी भी तरह से ये उपर्युक्त उपदेश लिखा है, वे सब मेरे संत सद्गुरु महाराज (परमाराध्य अनंत श्रीविभूषित संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) के हैं, मेरे कोई भी अपने उपदेश नहीं हैं।।  

(45) गुरुदेव का अंग (दोहा) 

श्री सतगुरु पद कमल में, सीस राखि कर जोर ।
बार बार विनती करौं, सतगुरु बन्दीछोर ।।
सतगुरु तुम सम है सगा, दूजा कोइ न और ।
देखा नजर घुमायकर, जग में सबहीं ठौर ।।
तबही जीवन सफल है, सबही मिटै अनिष्ट ।
जब तुम नाथ विलोकिहौ, करि किरपा की दृष्टि ।।
गुन तो मुझमें है नहीं, हूँ अवगुन की खान ।
फिर भी आशा बहुत है, जानि तुम्हारी बान ।।
रुचिकर भक्ति लगै हमें, अरुचि विषय सों होय ।
पै गुरु तुम्हरी कृपा बिनु, रुचि अरुचि न कोय ।।
मन मंदिर जिनके बसो, तिनके भाग्य महान ।
सरबर कबहूँ ना करै, कोई सकल जहान ।।
हानि लाभ बिसराय जो, सेव करे निहकाम ।
ऐसे सेवक पर कृपा, गुरु की आठो याम ।।
राजा हो या रंक हो, मूरख या विद्वान ।
समदरशी गुरुदेव की, सब पर दृष्टि समान ।।
जलवत गुरु की कृपा है, बरसत सबही ठौर ।
सेवक गड्ढा रूप जो, तामे ठहरत दौर ।।
कीन्हो दया दयाल गुरु, लीन्हों शरण लगाय ।
भक्ति भेद बतलाय कर, सतपथ दियो धराय ।।
जबतक यह तन है सबल, बुद्धी देती साथ ।
तबही तक गुरु भक्ति का, अवसर जानो हाथ ।।
यह मत जानो रे मना, ऐसहिं सब दिन जाय ।
जनम मरन दुख याद करि, ‘शाही’ भक्ति कमाय ।।

शब्दार्थ-पद = चरण। सीस = मस्तक। कर = हाथ। जोर = जोड़ कर। विनती = प्रार्थना। बन्दी छोर = शरीर और संसाररूपी कारागार से मुक्ति दिलानेवाले, छुड़ानेवाले, समस्त बंधनों से छुड़ानेवाले। सगा = संबंधी, हितैषी। दूजा = दूसरा, अन्य। ठौर = जगह। अनिष्ट = अहित, संकट। विलोकिहौं = दृष्टि डालेंगे। किरपा = अनुकम्पा। गुण = सद्गुण, शुभगुण। अवगुन = दुर्गुण, दोष, कल्मष। बान = स्वभाव, प्रतिज्ञा, संकल्प। खान = खजाना, भंडार। रुचिकर = प्यारा, प्यारी, बड़ा ही प्रिय, अतिशय प्रिय, स्वादिष्ट। अरुचि = अप्रिय, खराब, कटु। न कोय = कुछ भी नहीं, कोई भी नहीं। सरबर = बराबरी, समानता, तुलना। जहान = संसार। बिसराय = भुलाकर। निहकाम = कामना-रहित, इच्छा विहीन, बगैर तमन्ना। आठो याम = हर वक्त, चौबीसो घंटे। समदर्शी = समस्त प्राणियों को समान भाव से देखनेवाले। जलवत् = जल की तरह। ठौर = जगह, स्थान, स्थल। गड्ढा रूप = गहराई वाले, अत्यन्त श्रद्धावान, सत्यनिष्ठ सेवाशील, विशुद्ध मनोयोग से आज्ञा का पालन करनेवाले। दौर = दौड़कर, अतिशीघ्र, अविलम्ब, तत्क्षण। ठहरत = अवस्थित होता, स्थिर होता, इकट्ठा होता। बतलाय = बताकर, सदुपदेश प्रदान कर, सिखाकर। दयाल = बहुत दया प्रदान करनेवाले, दयालु, दयावंत, दयावान। लीन्हों = अपना लिये, ग्रहण कर लिये, स्वीकृति प्रदान किये। सतपथ = सन्मार्ग, सच्ची राह, सत्य-सत्य रास्ता। धराय = पकड़ाए, रास्ते पर चलाए। सबल = बलिष्ठ, बलवान, सक्षम, सामर्थ्यवान। ऐसहि = इसी तरह। मंदिर = अति पवित्र घर भवन।  

हे मेरे श्रीमन् संत सद्गुरु महाराज! आपके चरणारविन्द में अपना मस्तक रखकर मैं दोनों हाथों को जोड़कर बार-बार प्रार्थना करता हूँ। हे सद्गुरुदेव! आप संसार और शरीररूपी कारागार से मुक्ति दिलानेवाले हैं, समस्त बंधनों को काटने एवं दुःखों के समुद्र से उबारनेवाले हैं।। हे मेरे संत सद्गुरु भगवान सर्वेश्वर! आपके समान मेरे संबंधी, हितैषी परिजन अपने और कोई भी दूसरे नहीं हैं, चाहे माँ-पिताजी, भाई-बहन कोई भी हों। संसार में हर जगह मैंने दृष्टि दौड़ाकर देख लिया।। मेरा जीवन तो तबही सफल, सार्थक हो पाएगा, तथा मेरे सभी संकटों का निवारण होगा, जबकि हे मेरे मालिक जीवन आधार स्वामी! आप मेरे ऊपर अपनी अनुकम्पाभरी दृष्टि डालेंगे।। मुझमें शुभगुण तो कुछ भी नहीं है, मैं सिर्फ दुर्गुणों का भंडार, खजाना, सरदार हूँ। फिर भी आपकी आदत, आपका स्वभाव, संकल्प को जानकर मुझे आपसे बहुत उम्मीद है।। मैं चाहता हूँ कि मुझे भक्ति, ध्यान-सत्संग बड़ा ही प्रिय लगे, विषय बिल्कुल ही अच्छा न लगे। पर हे मेरे गुरुदेव महाराज! आपकी अनुकम्पा के बगैर भक्ति के प्रति अनुराग और विषयों से वैराग्य हो जाना असंभव ही है।। हे गुरु महाराज! आप जिनके भी मनरूपी मंदिर में निवास कर जाते हैं, उनका बहुत बड़ा विशाल भाग्य हो जाता, वे बड़े ही सौभाग्यशाली, खुशनसीब हो जाते। समस्त संसार में उनकी बराबरी कोई भी नहीं कर पाते।। हानि-लाभ भुलाकर, मन से हटाकर, जो कामना-रहित, परिशुद्ध भावना से सेवा करते, ऐसे सेवक पर संत सद्गुरु महाराज की सर्वदा, चौबीसे घंटे कृपा बरसती रहती है।। भले ही कोई राजा हों, सम्राट हों या भारी गरीब हों, निर्धन हों, ना समझ, नादान हों या भारी विद्वान हों। संत सद्गुरुदेव तो समदर्शी होते हैं, सबों पर उनकी एक समान निगाह, कृपा रहती है।। संत सद्गुरु महाराजजी की अनुकम्पा जल की तरह हर जगह बरसती है। आज्ञाकारी, अत्यन्त श्रद्धावन्त, विशुद्ध मनोयोग से आदेश- उपदेश का अनुपालन करनेवाले, सेवाशील, सदाचारी, शिष्टाचारी, शुच्याचारी, दृढ़ ध्यानाभ्यासी रूप गहरे हृदयवाले सौभाग्यशाली शिष्य में गुरुदेव की कृपारूप जल दौड़-दौड़कर आता है।। भक्त पर अत्यन्त अनुग्रह करनेवाले कृपावन्त संत सद्गुरु दया प्रदान कर अपनी शरण में ले लिये। परम प्रभु सर्वेश्वर प्राप्ति की विधिवत् प्रक्रिया बताकर, सिखाकर ब्रह्मज्योति और ब्रह्मध्वनि निरखने, परखने की सच्ची राह पकड़ा दिये, जिसके सहारे मुमुक्षु परम प्रभु परमात्मा की गोद में चले जाते।। जबतक शरीर में ताकत है, बुद्धि साथ दे रही है, यह बात ठीक से समझ लो, जान लो कि संत सद्गुरु की भक्ति, परम प्रभु की प्राप्ति का स्वर्णिम अवसर तबही तक तुम्हारी हथेली में है।। अरे मेरे मन! भूल से यह मत समझ लेना कि तुम्हारा आनेवाला सारा जीवन अभी की ही तरह, इसी तरह बीतेगा। चूँकि भगवान के पूर्णावतार श्रीकृष्णजी की वाणी है कि ‘परिवर्तन संसार का नियम है।’ संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि संसृति (जन्म-मृत्यु) का असह्य संताप, कष्टों का स्मरण कर, ख्याल कर भक्ति की कमाई, सुमिरण, ध्यान, सत्संग, संत सद्गुरु महाराज द्वारा प्रदत्त साधन विशेष से सद्युक्ति के मुताबिक करके, सदाचार का पालन तथा गुरुदेव की अत्यन्त श्रद्धा-प्रेम से सेवा करके अपने बहुमूल्य मनुष्य-जीवन को सफल, सार्थक कर लो।।

(46) अब की करीयै भगवान हो 

अब की करीयै भगवान हो, उमर विहान भेलै हो, राम ।।टेक।।
बालापन गेलै खेल-कूद में, तरुणाई मद-मान ।
बिरधापन में धन अरु जन के, त्रिस्ना छुवै छै असमान हो ।।
ना हम कइलौं साधु संगतिया, ना सुनलौं कछु ज्ञान ।
ना हम कइलौं गुरु के भगतिया, कोना के हैतौ कल्याण हो ।।
बूझै रहियै देह अमर छै, नहिं जीवन अवसान ।
अब तो जम के मुंगरी याद करि, थर-थर करै छै मोर प्राण हो ।।
लाज लगइ छै विनय करै में, करनी आपन जान ।
‘शाही’ मन संतोष जानि यह, प्रभु छथ कृपानिधान हो ।।

अब = इस समय। की = क्या, कौन-सा। करीयै = करूँ, करें। भगवान = परम प्रभु सर्वेश्वर। उमर = आयु, उम्र, जीवन, जिन्दगी। विहान = यों ही व्यर्थ, बर्बाद हो जाना, गुजर जाना। बालापन = बाल्यावस्था, बचपना, लड़कपन। तरुनाई = युवावस्था, जवानी। मद = घमंड, अहंकार, अभिमान, गुमान, नशा। मान = सम्मान पाने की भावना, प्रतिष्ठा पाने की चाह। विरधापन = बूढ़ापन, वृद्धावस्था, बुढ़ापा। अरु = और। जन = परिजन, परिवार के सगे संबंधीगण। त्रिस्ना = कामना, पाने की इच्छा, लालच, लोलुपता। छुवै = छूना। छै = है। कइलौं = किये, कर पाये। सुनलौं = सुने, सुन पाये। कछु = कुछ। कोना = किस तरह, कैसे। है तो = होगा। बूझै = समझ। अवसान = अंत। जम के मुंगरी = जमराज द्वारा दिया जानेवाला दंड, कष्ट, कठोर सजा, यातना। थर-थर करै छै = डर के मारे भयभीत हो काँप रहा है। लाज = शर्म, संकोच करना। छथ = हैं। कृपानिधान = अनुकम्पा के भंडार, रहम का सागर।  

हे मेरे परम प्रभु सर्वेश्वर परमात्मा मेरे राम! अब मुझे बड़ा अफसोस हो रहा है कि मेरी सारी जिन्दगी, आयु यों ही बर्बाद हो गयी, व्यर्थ ही गुजर गयी, मैं करूँ, तो क्या करूँ, कुछ भी समझ में नहीं आता, बड़ी भारी चिन्ता में हूँ।।टेक।। बाल्यावस्था तो खेल-कूद में चली गयी, जवानी अहंकार, गुमान, घमंड और प्रतिष्ठा पाने में गुजर गयी। वृद्धावस्था, बुढ़ापा में धन-दौलत और सगे संबंधियों पुत्र-पौत्रदि की लालच तो मानो आसमान ही छू रही है अर्थात् बहुत जोरों से लालच बढ़ती जा रही है।। मैंने न तो साधु-संतों की संगति (सत्संग) किया, न तो कुछ भी उद्धार पाने की बातें, कल्याणकारी उपदेश सद्ज्ञान (संत सद्गुरुदेव की सद्शिक्षा-दीक्षा, परमप्रभु सर्वेश्वर पाने की विधिवत् प्रक्रिया, भजन-भेद) ही सुना। न तो मैंने गुरु महाराजजी की भक्ति [संत सद्गुरु महाराजजी द्वारा प्रदत्त साधन विशेष, भजन-भेद (सत्संग नित अरु ध्यान नित, रहिये करत संलग्न हो । व्यभिचार चोरी नशा हिंसा, झूठ तजना चाहिए ।।) को अक्षरशः अपने जीवन में उतार लेना,ह् सेवा ही की। हे प्रभु! मेरा उद्धार भला कैसे होगा? मैं तो सोच रहा था, समझ रहा था कि मेरी देह अमर है, शरीर कभी मरेगा ही नहीं, इस जीवन का अंत होगा ही नहीं, मेरी मृत्यु होगी ही नहीं। अब तो यमराज द्वारा दी जानेवाली भयंकर यातना, कष्ट को ख्याल करके मेरा प्राण डर के मारे भयातुर है, भयभीत हो काँप रहा है।। मैं अपने बीते जीवन, समय के कुकृत्यों, दुष्कर्मों के कारण हे परमेश्वर! आपके चरणारविन्द में प्रार्थना करने में शरमाए जा रहा हूँ, लज्जित हो रहा हूँ, मुझ बड़ी ग्लानि हो रही है। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामी जी महाराज कहते हैं कि मैं मन में बस इतना ही जानकर धैर्य धारण कर रहा हूँ, संतोष कर रहा हूँ कि हे दीनानाथ परम प्रभु सर्वेश्वर! आप तो करुणा, अनग्रह के भंडार, सागर ही हैं।

(47) अरे मन सोच ले केवल 

अरे मन सोच ले केवल, भजन गाने से क्या होगा ।
समय का मूल्य न जाना, तो पछताने से क्या होगा ।।
न दी दिल में जगह गुरु को, पखारा पद न आँसू से ।
विरह में नींद न खोया, तो शिष होने से क्या होगा ।।
भरोसा है किया जग का, गुरु के आस को तजकर ।
नहीं विश्वास जब दिल में, तो गुण गाने से क्या होगा ।।
रिझाया खूब दुनिया को, सुना बातें बना बहुतों ।
रिझाया यदि न अपने को, रिझा दुनिया को क्या होगा ।।
सोच लो समय के रहते, बना लो ‘शाही’ जीवन को ।
समय जब बीत जाएगा, बहा आँसू को क्या होगा ।।

शब्दार्थ-केवल = सिर्फ, एकमात्र। क्या होगा = कुछ भी संभव नहीं। मूल्य = कीमत, महत्ता। जाना = पहचाना, बोध प्राप्त किया। पछताने = पश्चात्ताप करने से। दिल = अपने अंदर, हृदय में। पखारा = धोया, प्रक्षालन किया। पद = चरण, पाँव। विरह = अलगाव, जुदाई। खोया = परित्याग कर दिया, गँवाया। शिष = गुरुभक्त, शिष्य। किया = क्या। आश = आशा, भरोसा, उम्मीद, आसरा। रिझाया = प्रसन्न कर लिया, अपनी ओर आकर्षित कर लिया। अपने को = परम प्रभु सर्वेश्वर संत सद्गुरु महाराज को। बना लो = निर्माण कर लो, सफल कर लो।, सार्थक कर लो, कल्याण कर लो।  

अरे मेरे मन! जरा विचार कर लो, तुम जो सिर्फ भजन पद्य गाने, सुनाने में ही लगे रहते हो, इससे कुछ होगा? इससे कुछ भी संभव नहीं है। यदि तुम्हें वर्तमान जीवन, समय की महत्ता, कीमत समझ में नहीं आयी, तूने इस जीवन का मोल नहीं समझा, तो अंत समय बहुत पछताएगा। फिर उस भयंकर दुर्दिन, कष्ट की घड़ी में पश्चात्ताप करने मात्र से क्या फायदा? न तो अपने हृदय में संत सद्गुरु महाराजजी को शुभासीन कराये, स्थान दिया अर्थात् अत्यन्त अटल श्रद्धा से गुरुदेव के सद्ज्ञान को मनोयोगपूर्वक अनुपालन नहीं किया, प्रभु वियोग में विरह वेदना भरे पश्चात्ताप के अश्रु से उनके चरण-कमलों को न धोया। यदि परम प्रभु परमात्मा संत सद्गुरुदेव के अलगाव, उनकी जुदाई की यातना में विरहाकुल हो निन्द्रा का परित्याग न किया अर्थात् अहर्निश, गुरुदेव की सद्युक्ति के मुताबिक सुमिरण, ध्यान, सत्संग, सदाचार, शिष्टाचार, शुच्याचार का अत्यन्त श्रद्धापूर्वक जीवन में पालकर, अपने आपको अंधकार से प्रकाशमंडल, तुरीय अवस्था में प्रतिष्ठित यदि नहीं किया, सदा के लिए अपने को उठा, जगा न लिया (चूँकि गो0 तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-‘यहि जग जामिनि जागहिं जोगी।’ ‘जानिय तबहिं जीव जागा। जब सब विषय विलास विरागा।।’ तो गुरुभक्त, संत संतान, शिष्य कहलाने मात्र से क्या होगा? अर्थात् कुछ भी नहीं होगा।। एक मात्र गुरुदेव संत सद्गुरु महाराजजी की अनुकम्पा, आशा, भरोसा, उनके आसरे को छोड़कर संसार पर अपने को अवलंबित रखने, जगत् के भरोसे रहकर क्या होगा? कुछ नहीं अपनी बात बनेगी। संसार के संबंध में हमारे परमाराध्य अनंत श्रीविभूषित संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि ‘यह जग दुख को धाम’, ‘यह जग जानो छली महाई।’ अतः संत सद्गुरुदेव की आशा छोड़ दुनिया पर आशा-भरोसा रखने से जीव का मनोरथ, अक्षय, अनंत सुख-शांति स्वरूप परम प्रभु परमात्मा की उपलब्धि तथा समस्त दुःखों (जन्म-मृत्यु के भयंकर कष्टों का, संसृति के समग्र संतापों, त्रय तापों) से सदा के लिए छुटकारा नहीं मिल सकती। जब दिल में, अपने हृदय में संत सद्गुरु पर विश्वास ही नहीं, तो सिर्फ उनके गुणों, उनकी महिमा का गायन करने से क्या लाभ? कुछ भी होनेवाला नहीं है अर्थात् अपने जीवन की बागडोर गुरु महाराज के हाथों सौंप देनी चाहिए।। संसार के लोगों को मनोरंजन की बहुत सारी बातें बना-बनाकर खूब सुनाया और बहुतों को प्रसन्न कर लिया। यदि अपने परम प्रभु सर्वेश्वर संत सद्गुरु महाराज को प्रसन्न नहीं किया, तो सिर्फ संसार को खुश कर लने से क्या होगा? अपना कल्याण हरगिज संभव नहीं।। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि मैं बिल्कुल पक्की बात कहता हूँ, जो बड़ा ही मार्मिक है, विचारणीय है, इसे खूब ध्यान से सुनो, हमेशा याद रखो-‘जीते जी मृत्यु से पहले ही अपने बहुमूल्य जीवन को सफल बना लो, परम प्रभु सर्वेश्वर की प्राप्ति का संत सद्गुरु से सच्चा रास्ता सीखकर ध्यान, सत्संग और संत सद्गुरु की सेवा रूपी त्रिवेणी संगम में अवगाहन कर, डुबकी लगाकर अपने को अंधकार, प्रकाश और शब्द रूपी तीनों आवरणों से बाहर कर लो।’ मौत जब आ जाएगी, तो तुम्हारे पास सिर्फ आँसू बहाने के अलावे और कुछ नहीं रहेगा। अतः अपने को पश्चाताप के समुद्र में डूबने से जीते जी सुरक्षित कर लो, बचा लो, जीवन सार्थक बना लो।।

(48) चेतावनी 

प्रभु ने मानुष जनम तुमको कैसा दिया ।
सोच रे मन ! इसे पा भला क्या किया ।।टेक।।
तरसते हैं जिसके लिए देवता ।
इसकी महिमा है कैसी तुम्हीं अब बता ।
हाय ऐसा अमोलक रतन खो दिया ।।1।।
ये तन मानो भव-सिन्धु पै सेतु है ।
वो सदानन्द पाने का भी हेतु है ।
इसे विषयों के पीछे बेरथ कर दिया ।।2।।
जो गया बीत दिन सो गया बीत ही ।
ये बचा भी न जाए उसी रीत ही ।
इसके बचाने का यदि सुजतन न किया ।।3।।
पंच विषयों से निज को लिया मोड़ ना ।
पंच पापों को जिसने दिया छोड़ ना ।
गुरू युक्ती से भक्ती ‘शाही’ ना किया ।।4।।

(49) विनती (भोजपुरी) 

ऊ दिन कहिया दिखाइब, बता दीं गुरुजी ।।टेक।।
जहिया से रउरे चरन कमल में,
अविचल शरधा जमाइब, बता दीं गुरुजी-----।।1।।
छोड़ि के कपट छल, निरमल मन से,
हरषित हृदय अरु पुलकित तन से ।
राउर विमल जस गाइब, बता दीं गुरुजी-----।।2।।
दोष हरे वाला, राउर दरशन तोष करे वाला,
राउर परशन। केतनो करब न अघाइब, बता दीं गुरुजी--।।3।।
जोति रूप रउरे आपन दिखाके,
नादरूप रउरे आपन परखाके ।
‘शाही’ के शरण लगाइब, बता दीं गुरुजी----------।।4।।

ऊ दिन = वह दिन, वह समय, वैसा जीवन, वैसा दर्शन। कहिया = कब, किस समय, किस वक्त। दिखाइब = दिखाइयेगा, अवलोकन करायेंगे, दर्शन कराएँगे। दीं = दें। जहिया = जब। रउरे = आपके। अविचल = अचल, स्थिर, अविच्छिन्न, स्थायी रूप से, अटूट। शरधा = प्रेम और भक्तियुक्त पूज्यभाव, पूर्ण विश्वास, भरपूर आस्था। जमाइब = मजबूती से बैठाएँगे दिल में स्थापित करेंगे। कपट = धोखा देनेवाला स्वभाव, धोखा देना, बनावटी व्यवहार। छल = धूर्तता, असलियत को छिपाना, यथार्थ को गुप्त कर देना। निरमल = अति पवित्र, स्वच्छ, दोषों से रहित। हरषित = प्रसन्न। पुलकित = हर्ष-विह्वल, प्रफुल्लित। राउर = आपका। विमल = विशुद्ध, स्वच्छ, निर्दोष, साफ। जस = यश, सुख्याति, कीर्ति, प्रशंसा। दोष = विकार, कसूर, ऐब, कलुष, पाप, खराबी (काम, क्रोध, मोह, मद, लोभ, मत्सर)। तोष = संतुष्ट, तृप्त। परसन = स्पर्श करना। अघाइब = तृप्त हो जाना, प्रसन्न हो जाना। परखा = दिखाना, अनुभूति करा देना। शरण = आश्रय, सान्निध्य, सन्निकट, समीप।

हे मेरे गुरुदेव (परमाराध्य अनंत श्रीविभूषित संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज)! आपके चरणारविन्द में मेरी प्रार्थना है कि मुझे वह समय, दिवस कब देखने को मिलेगा। मेरे जीवन में कब वैसा समय, सौभाग्य अवलोकन होगा? अपनी महान् अनुकम्पा कर बता देने की दया करें।।टेक।। कि जब मैं आपके अम्बुज सरिस परम पावन पाद-पद्मों में अविच्छिन्न रूप से अपने हृदय में भरपूर आस्था स्थापित करूँगा, कहने की अनुकम्पा करें।।1।। बनावटी व्यवहार, धूर्तता, अयथार्थता का गुप्त रखने आदि समस्त भारी दुर्गुणों का सदा के लिए परित्याग कर, बिल्कुल विशुद्ध मन से, प्रसन्न हृदय और प्रफुल्लित शरीर से आपकी परम पावनी सुख्याति, सुकीर्ति का गायन करूँगा, हे गुरु महाराज! मुझे बता देने की अनुग्रह प्रदान करें।।2।। शरीर के भीतर विराजित समस्त विकारों, दोषों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर) को नाश कर डालनेवाला आपका विशुद्धकारी दर्शन, समग्र तृष्णाओं, तमाम कामनाओं (जो प्राणी को स्वप्न में भी सुखी होने नहीं देता। ‘काम अछत सुख सपनेहु नाहीं।’ रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं) को समाप्त कर संतुष्ट कर देनेवाला आपके (परम पूज्यपादश्री) अति पावन पदाम्बुजों का मंगलकरण स्पर्शन। मैं कितना भी करूँ, इन दर्शन एवं स्पर्शन से मेरा जी कभी भरे ही नहीं, मैं अघाऊँ ही नहीं, ऐसा सुनहला मौका मुझे कब हाथ लगेगा, हे प्रभु बता देने की कृपा करें।।3।। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि हे गुरुदेव! मुझे अपने दिव्य ज्योतिर्मय-रूप को दिखाकर और अपने अमृतमय शब्द-रूप परखाकर आप कब अपनी शरण में लगाएँगे, बता देने की महान् अनुकम्पा कर दें।।4।। अतः हम सबों को चाहिए कि अपने अंदर की ब्रह्मज्योति और ब्रह्मध्वनि को संत सद्गुरु महाराज द्वारा प्रदत्त साधन विशेष से निरख, परख, अनुभव कर आत्मा की पहचान कर परम प्रभु परमात्मा गुरुदेव की शरण ग्रहण कर अपना उद्धार, अपना परम कल्याण कर लेना चाहिए (चूँकि भगवान श्रीकृष्णजी अर्जुन से कहते हैं कि-
सर्वधर्मान्परित्यज मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।

जय गुरु! 

पूज्यपाद संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज 

पूज्यपाद संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज का जन्म विक्रमीय संवत् 1979, ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष प्रतिपदा, शनिवार तदनुसार सन् 1922 ई0 के जून माह में उत्तरप्रदेश के देवरिया मंडलान्तर्गत छोटी गंडक के तट पर शोभायमान नौतन नामक ग्राम में हुआ है। आपके धर्मप्राण पिताश्री विशेन क्षत्रिय कुलभूषण बाबू श्रीतिलक धारी शाहीजी थे और धर्मपरायणा एवं करुणामयी माता श्रीमती सुखराजी देवी थीं। आपका राशि का नाम श्री बुद्धिसागर शाही है। आप चार भाई हैं, बहन एक भी नहीं। भाइयों में बड़े होने के कारण सब लोग आपको आदरपूर्वक ‘बड़कन बाबू’ कहकर संबोधित करते थे।
आपकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव के ही विद्यालय में हुई। आपका विद्यालय का नाम श्रीअवधकिशोर शाही था। मनमौजी प्रकृति होने के कारण आप मात्र चौथी कक्षा तक ही पढ़ पाये। आपको गणित और भूगोल में विशेष अभिरुचि थी। हिन्दी भाषा के अतिरिक्त आपने फारसी भी सीखी थी। बचपन से ही धर्म की ओर आपकी विशेष प्रवृत्ति थी। इसी संस्कारवश आप ‘श्रीहनुमान चालीसा’ और ‘श्रीदुर्गा-चालीसा’ का बड़ी ही तन्मयता के साथ पाठ किया करते थे। यह देख आपके संबंध के दादा बाबू श्रीरघुनाथ शाहीजी आपको ‘पंडितजी’ कहा करते थे। आप पीपल वृक्ष की जड़ में तथा भगवान् सूर्यदेव को बड़ी ही श्रद्धा के साथ जल अर्पित करते थे। पढ़ाई छोड़ने के उपरांत आपका उपनयन संस्कार बड़ी ही धूमधाम के साथ आपके ननिहाल फूलपुर, जिला बस्ती में सम्पन्न हुआ।
धर्म की ओर आपकी बढ़ती प्रवृत्ति को देखकर आपके पिताजी आशंकित हो उठे और आपको गार्हस्थ्य-जीवन में बाँध देना चाहा। आप विवाह करने के पक्ष में बिल्कुल नहीं थे; लेकिन पिताजी की जिद्द के सामने आपकी एक न चली। सन् 1940 ई0 के लगभग गोरखपुर जिलान्तर्गत माड़ापार गाँव की एक कुलीन कन्या के साथ आपका विवाह सम्पन्न हुआ। विवाह के चार साल बाद आपको एक पुत्र हुआ, जिसका नाम ‘श्रीश्यामनारायण शाही’ है, जो सकरोहर (खगड़िया) में रहते हैं। इनके अतिरिक्त आपको कोई संतान नहीं हुई।
आप अपने पूर्व संस्कारवश आध्यात्मिक अंतःप्रेरणा से प्रेरित हो रहे थे। परिवार में रहना आपको अच्छा नहीं लगता था। अक्टूबर, 1941 ई0 में अपने फूफा श्रीभगवती प्रसाद सिंहजी के आग्रह पर उनकी जमींदारी की देख- रेख करने के लिए आप सकरोहर आ गये। अगस्त, 1942 ई0 में आप पुनः नौतन आ गये। संत कबीर साहब की तरह कपड़ा बुनकर स्वावलंबी जीवन व्यतीत करने की बात आपने सोची और हाटा सबडिविजन के अंतर्गत समांगी पट्टी में कुछ ही दिनों में हस्तकरघा चलाने में आप निपुण हो गये। अपने बुने कपड़े आप गरीबों को दान भी करते थे।
आप अंदर से शांतिस्वरूप परमात्मा की खोज के लिए व्याकुल थे। आप ऐसे सच्चे संत सद्गुरु की खोज कर रहे थे, जो आपकी आध्यात्मिक प्यास को बुझा सके। वैराग्य की उठती तरंग सांसारिक बंधनों को तोड़ डालना चाह रही थी। इसी क्रम में सन् 1944 ई0 के आस-पास श्रीभगवती बाबू का देहान्त हो गया। उनके परिवार के विशेष आग्रह एवं अपने पिताजी की आज्ञा से आप पुनः सकरोहर आ गये। सन् 1945 ई0 में आपने महेशखूँट स्टेशन पर लोगों की भीड़ देखी, पता लगा कि ये सत्संगी लोग हैं, जो पनसलवा से संतमत-सत्संग के वार्षिक महाधिवेशन से लौट रहे हैं, जहाँ पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज पधारे हुए हैं। सत्संग-प्रेमियों के मुख से संतमत-विषयक चर्चाएँ एवं महर्षिजी के गुण-गान सुनकर आपके अंदर यह अटल विश्वास हो रहा था कि महर्षिजी पहुँचे हुए महापुरुष हैं। विश्वास के साथ ही महर्षिजी के दर्शन की इच्छा आपमें तीव्रतम हो उठी, फिर तो आप ऐसे सहयोगी की तलाश में थे, जो आपको परम पुरुष महर्षिजी के श्रीचरणों में पहुँचा दें।
चाह को राह मिल ही जाती है। संयोगवश सत्संगी श्री जगरूप दासजी से आपकी मुलाकात हुई। इनके साथ आप पूज्यपाद श्रीरामलगन बाबा सहित परबत्ती आश्रम (भागलपुर) पहुँचे। आश्रम-परिवेश में घुसते ही आपकी खुशी का ठिकाना न रहा। आश्रम-प्रांगण में कुर्सी पर विराजमान अलौकिक व्यक्तित्व के अवतार, त्रय तापों से संतप्त जीवात्मा के उद्धारकर्त्ता महर्षिजी के परम पावन युगल चरणों में जब आप अपना मस्तक टेक रहे थे, तब आप अपने भाग्य पर फूले नहीं समा रहे थे। वह क्षण आपके जीवन का सबसे ज्यादा खुशी का क्षण था।
नाम-पता पूछने के बाद महर्षिजी ने आपके आने का उद्देश्य जानना चाहा, तो एकाएक आप कह उठे कि गुरुमुख होने आया हूँ। महर्षिजी ने कहा कि मैं पहले देख लूँगा कि आप भजन-ध्यान करेंगे, तब दीक्षा दूँगा। आप तन-मन से सेवा करते हुए आश्रम में रहने लगे। सातवें दिन यानी 23 फरवरी, सन् 1946 ई0 को महर्षिजी के आदेशानुसार स्नान करके और फूलमाला बनाकर आप भजन-भेद लेने के लिए तैयार हो गये। महर्षिजी ने मानस जप, मानस ध्यान और दृष्टियोग की दीक्षा आपको दी। आपके साथ ही पूज्यपाद श्रीरामलगन बाबा भी दीक्षित हुए।
आप पूरी श्रद्धा और निष्ठापूर्वक साधन-भजन करने लगे। इस कारण श्रीवैद्यनाथ बाबू (स्व0 श्रीभगवती बाबू के सुपुत्र) के कामों से उदासीन हो गये। उनके हृदय में आपके प्रति पूज्य भावना थी। वे आपको ‘साधु बाबा’ कहकर पुकारा करते थे। आपने अपनी साधुता एवं उदारता का परिचय देते हुए उनसे कभी कुछ भी पारिश्रमिक के रूप में नहीं लिया। उनसे गरीबों, दीन- दुःखियों को प्रायः मदद करवाते ही रहते थे। आपके शील-स्वभाव, परोपकारिता एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार से क्षेत्र के सब लोग प्रसन्न रहते हुए आपको आदरपूर्वक ‘बड़कन बाबू’ कहा करते थे। आप सामाजिक नीति के कुशल महारथी हैं। लोगों के आग्रह पर कुछ दिनों तक अस्थायी मुखिया भी बने। बाद को अंत तक सरपंच भी बने रहे।
सन् 1956 ई0 में साधन-भजन को ध्यान में रखते हुए आपने अपने लिए अलग फूस की एक कुटिया बनायी। निजी रुपये से पाँच बीघे जमीन भी खरीदी। उस कुटिया में आपका अधिकांश समय साधना में व्यतीत होने लगा और जमीन की आय से उदरपूर्ति की समस्या भी सुलझ गयी। एक सच्चे कर्मयोगी की भाँति आपने किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया। बीच-बीच में गुरुदेव के दर्शन एवं प्रवचन का लाभ भी उठाते थे। साधना के पथ पर आपकी प्रगति को देखते हुए सन् 1962 ई0 की 18वीं जनवरी को गुरुदेव ने आपको शब्दयोग की दीक्षा दी। विनम्रतापूर्वक पत्र लिखते हुए श्रीचरणों में आपने निवेदन किया था कि यद्यपि मैं शब्दयोग की क्रिया करने के योग्य नहीं हूँ, तथापि जानने की इच्छा है। गुरुदेव ने प्रसन्नतापूर्वक कहा था-‘आपको शब्दयोग की क्रिया नहीं बताऊँगा, तो किसे बताऊँगा !’
शब्दयोग की साधना करते हुए अनाम पद की ओर आपके बढ़ते कदम को देख गुरुदेव ने सन् 1964 ई0 की 2 फरवरी को स्वेच्छापूर्वक संन्यास- वेश दिया। संन्यासी-वेश का नामकरण करते हुए गुरुदेव ने कहा- “ आज से इनका नाम ‘शाही’ रहेगा और ‘स्वामी’ पदवी रहेगा। कोई-कोई इन्हें ‘शाही साहब’ भी कहेंगे।” तबसे आप ‘शाही स्वामी’ के नाम से प्रसिद्ध हो रहे हैं। इसके संबंध की सूचना श्रीआनंदजी ने ‘शांति-संदेश’ पत्रिका में प्रकाशित करवा दी थी। सन् 1964 ई0 में ही गुरुदेव ने 1 नवम्बर को आपको दीक्षा देने का भी अधिकार दे दिया; लेकिन आप यह सोचकर दीक्षा देना उचित नहीं समझ रहे थे कि ‘गुरु आगे जो करै गुरुआई । ताको नरक लिखा है भाई ।।’ गुरुदेव ने सन् 1967 ई0 के इतमादी-सत्संग में अपना रजिस्टर देते हुए आपको पुनः भजन-भेद देने का जोरदार आदेश दिया। गुरुदेव के आदेश को शिरोधार्य करते हुए उस दिन 27 व्यक्तियों को आपने भजन-भेद दिया। अबतक लगभग एक लाख चालीस हजार लोग आपसे दीक्षित हो चुके हैं।
संतमत के केन्द्रीय स्थल महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में गुरुदेव रहा करते थे। आश्रम की व्यवस्था के लिए किसी कार्यकुशल, नीति-सम्पन्न, कर्तव्यनिष्ठ, त्यागी और उदार प्रबंधक की खोज वे कर रहे थे। उनकी कृपादृष्टि आपपर जा टिकी। सन् 1971 ई0 में आप कुप्पाघाट आश्रम बुला लिये गये और गुरु महाराज की पावन जयन्ती के शुभ अवसर पर आपको सर्वसम्मति से व्यवस्थापक के उत्तरदायित्वपूर्ण पद पर आसीन करके गौरवान्वित किया गया। आपके शालीन आचार-विचार, गुरुदेव के श्रीचरणों के प्रति एकनिष्ठ श्रद्धा और भक्ति ने आपको गुरु महाराज के हृदय में स्थान दिला दिया। गुरुदेव बार-बार कहा करते थे-‘शाही स्वामी मेरे हृदय हैं।’ कोई कल्पना कर सकता है कि एक संत का हृदय कैसा होगा! आपने गुरुदेव से कई बार प्रार्थना की-‘हुजूर ! मुझे व्यवस्थापक-पद से मुक्त किया जाय।’ लेकिन गुरुदेव हर बार यही कहा करते थे-‘जबतक मैं (जीवित) हूँ, तबतक आप भी व्यवस्थापक बने रहें।’
गुरुदेव ने अपने शरीर की अत्यधिक शिथिलता के कारण सन् 1983 ई0 से सत्संग-प्रचार कार्य बंद कर दिया। इसके बाद सत्संग-प्रचार का कार्य आपके सुदृढ़ कंधों पर आ पड़ा। एक साथ ही व्यवस्थापन-कार्य एवं प्रचार- कार्य के कारण आपकी परेशानी बढ़ रही थी। गुरुदेव के आदेश के कारण आप व्यवस्थापक-पद त्याग भी नहीं सकते थे। 8 जून, 1986 ई0, रविवार को गुरुदेव ब्रह्मलीन हो गये। इसके बाद अक्टूबर, सन् 1986 ई0 में आपने व्यवस्थापक-पद से त्याग-पत्र दे दिया। महासभा ने आपकी कार्यकुशलता और त्याग-भावना के प्रति अपना आभार प्रकट करते हुए त्याग-पत्र स्वीकार किया और संतमत के प्रचार-प्रसार जैसे दायित्वपूर्ण कार्य को सुचारु एवं संगठित रूप से आगे बढ़ाने का कार्य आपपर सौंप दिया। साथ ही, सभी विभागों की उचित देख-रेख करते रहने का भी आपसे निवेदन किया। वास्तव में, आपके कार्य-काल में आश्रम की दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति होती रही।
गुरुदेव कहते थे-‘सत्संग मेरी साँस है।’ आप भी इस उक्ति को अपने जीवन में चरितार्थ कर रहे हैं। ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ के तो आप प्रतिरूप ही नजर आते हैं। आपका भव्य दीप्त चित्ताकर्षक रूप हाथरस के संत तुलसी साहब के चित्र की याद दिलाता है। आप जहाँ भी रहते हैं, वहाँ खुशी का माहौल नजर आता है। स्वयं गुरुदेव भी आपकी विनोदपूर्ण बातें सुनकर मिनटों हँसते रहते थे। आप भगवान् बुद्ध की तरह धन-पुत्र-पत्नी का मोह त्यागकर संन्यास-जीवन में हैं। सन् 1975 ई0 में पेट में कैन्सर का रोग हो जाने से आपकी पत्नी परलोकवासिनी हो गयीं। कुछ महीने पूर्व सितम्बर, सन् 1989 ई0 में आपके प्रोस्टेट ग्लैंड का ऑपरेशन पटना में हुआ। अभी आप स्वस्थ होकर सत्संग-कार्य में लगे हुए हैं।
महाधिवेशन में लाखों धर्मप्रमियों को अपनी पीयूष-वाणी से मुग्ध करने की कला आपमें विद्यमान है। संत-भाषा, जन-भाषा आपके प्रवचन की भाषा है, जिसमें कोई पांडित्य-प्रदर्शन नहीं होता, कोई कृत्रिमता नहीं होती, कोई अहंकार नहीं होता; बल्कि साधनाजन्य अनुभूति, भाव-प्रवणता प्रकट होती है। आपका सादा जीवन, उच्च विचार, सदाचारी, वीतरागी, निर्मल चरित्र, मितव्ययी होना अपने सद्गुरु का अनुसरण है। गुरु के आदेश-उपदेश को आपने अपने जीवन में अक्षरशः उतार लिया है। अपने परिश्रम, साधना, त्याग और कर्मयोग के बल पर आपने महर्षि मेँहीँ धाम, मणियारपुर; महर्षि मेँहीँ आश्रम, पटना का निर्माण किया।
आप अपने गुरुदेव महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के आध्यात्मिक ज्ञान-सिद्धांतों को कश्मीर से ले बंगाल तक, नेपाल से कन्याकुमारी तक और भारत के महानगरों पटना, वाराणसी, लखनऊ, कानपुर, दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, चित्रकूट आदि स्थानों में भ्रमण कर मुक्तहस्त से वितरित कर रहे हैं। देश के कोने-कोने में आप संतमत के ज्ञान को प्रचारित कर रहे हैं। आपने स्वयं को सद्गुरु के चरणों में समर्पित कर दिया है। आपका जीवन-दर्शन संत-मार्ग पर सतत अग्रसर है। तभी तो इस बार के हुए अखिल भारतीय संतमत-सत्संग 99वें वार्षिक महाधिवेशन, सप्तसरोवर, हरिद्वार में दिनांक 1-5-2010 को अपराह्णकालीन सत्संग के शुभ अवसर पर तुलसी मानस मंदिर, हरिद्वार के महामंडलेश्वर स्वामी श्री अर्जुनपुरीजी महाराज ने अन्य महामंडलेश्वरों हरिसेवा आश्रम के महामंडलेश्वर स्वामी हरिचेतनानंद जी महाराज (उदासीन), पंचपुरी गरीबदासी आश्रम के महामंडलेश्वर डॉ0 स्वामी श्यामसुन्दर दासजी महाराज, षड्दर्शन साधु समाज के अध्यक्ष महामंडलेश्वर स्वामी निश्चलानन्दजी महाराज, जूना अखाड़ा के महामंडलेश्वर स्वामी श्री आनंदचैतन्य भारतीजी महाराज एवं उच्चकोटि के महात्मा बड़ा अखाड़ा पंचायती उदासीन के महंत श्री राजेन्द्र दासजी महाराज, निरंजनी अखाड़ा के महंत श्री =यम्बक भारतीजी महाराज और विश्वविख्यात पतंजलि योगपीठ के आचार्य स्वामी रामदेवजी महाराज के गुरु भाई आचार्य बालकृष्णजी महाराज आदि अनेक महात्माओं और आचार्यों के साथ परम पूज्यपाद बाबा श्री शाही स्वामीजी महाराज को पट्टाभिषेक करते हुए “महर्षि” की उपाधि दी। तब से ही परम पूज्यपाद श्री सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज के नाम से सुविख्यात हो गये।
साहित्य के क्षेत्र में भी आपका बहुत बड़ा योगदान है। आपकी पुस्तक ‘शाही स्वामी-भजनावली’ के अतिरिक्त और कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, वे हैं-‘आपन काज सँवारु रे’ (1981 ई0), ‘संसार और परमार्थ’ (1982 ई0), ‘संतमता बिनु गति नहीं’ (1983 ई0) और ‘संतमत की सार-साधना’ (1986 ई0) । इनके अतिरिक्त आपके प्रवचनों के अंश ‘शांति-संदेश’ पत्रिका में अनवरत रूप से प्रकाशित होते आ रहे हैं। आपकी वाणी में हृदय तत्त्व की प्रधानता है। संतवाणी-सम्मत आपकी वाणी अनुभूति और तर्क की कसौटी पर खरी उतरती है।
भारतवर्ष की वसुन्धरा आप जैसे महापुरुष को पाकर अत्यन्त आीांदित एवं गौरवान्वित हो रही है। आपसे संतमत को बड़ी आशाएँ हैं। आप स्वस्थ शरीर से दीर्घायु हों और अध्यात्म-पथ के पथिकों को आत्मदर्शन का ज्ञान एवं मार्ग बताते रहें-इसके लिए परमाराध्य संत सद्गुरु महाराज के पावन श्रीचरणों में हमारी विनीत प्रार्थना है।
जय गुरु!

जय गुरु महाराज!