भव्य वेष भले बना लो, यदि न ऊँचा ख्याल है ।
तो वेष तेरा जगत को, ठगने का उत्तम जाल है ।।
संत सतगुरु जो कहा लो, यदि ना वैसा चाल है ।
भीतर से तू है भेड़िया, पर केहरी का खाल है ।।
ब्रह्म वार्त्ता कह कहा लो, वाह-वाह कमाल है ।
पर, ब्राह्मी वृत्ति बिना, जमराज का दलाल है ।।
भव्य = विशाल, विकराल, विचित्र। वेष = पहनावा, वेश-भूषा। ऊँचा = उत्कृष्ट, श्रेष्ठ। ख्याल = विचार, स्वभाव, व्यवहार, भावना। उत्तम = अच्छा। जाल = अपने चंगुल में, अंदर में वश कर लेने का साधन। चाल = व्यवहार, रहनी-गहनी, आचार-विचार। भेड़िया = एक तरह का मांसाहारी छोटा जंगली जानवर। केहरी = सिंह, शेर। खाल = चमड़ा, ऊपरी बनावट। वार्त्ता = ज्ञानवर्द्धक वृत्तांत, प्रसंग, विषय, बातचीत। कह = कह लो, कहो। कहा = किसी और द्वारा कहवाना। वाह-वाह = प्रशंसा, बहुत अच्छा, धन्य-धन्य। कमाल = निपुणता, कौशल, अद्भुत, सर्वोत्तम। ब्राह्मी = ब्रह्म की। वृत्ति = अस्तित्व, रहन-सहन, स्वभाव, वर्ताव। दलाल = मध्यस्थता करनेवाला।
तुम अपना वेश-भूषा, पहनावा, रंगरूप भले ही विशाल जैसा, विचित्र-सा बना लो, यदि वेश के मुताबिक तुम्हारा श्रेष्ठ विचार, ऊँचा ख्याल नहीं है, तो वो जो तेरा पहनावा है, मानो संसार को धोखा देने का अच्छा-सा साधन है।। संत सद्गुरु जो भी कह लो य दूसरों से कहा लो, यदि वैसा सद्व्यवहार, आचार, रहन-सहन नहीं है, तो यह पक्का सोच लो, जान लो कि भीतर से तू तुच्छ भेड़िया जैसा है, सिर्फ अपने ऊपर शेर, सिंह का चमड़ा, आवरण डाल रखा है।। परम प्रभु सर्वेश्वर के संबंध में कितना भी वर्णन, बड़ी-बड़ी व्याख्या कर लो, दुनिया के लोगों से धन्य हैं, धन्य हैं, बड़े ही निपुण हैं आदि प्रशंसा पा लो; परन्तु परम प्रभु परमात्मा के विचारानुसार वर्ताव, रहन-सहन के बिना तू यमराज के पास ले जानेवाला मध्यस्थ है, दलाल ही है।।
मन तू साधुता उर आन ।।टेक।।
मिटिहैं दुख दर्द भव के, योनि आवन जान ।
शान्ति सुख अनुपम अलौकिक, मिलहिं पद निरवान ।।
त्यागु लोलुपता विषय की, मान अरु अभिमान ।
काम क्रोध विषाद तजि रहु, पाप से अलगान ।।
क्षमा शील संतोष उर धरि, भाव समता ठान ।
त्याग अरु वैराग्य सेवा, साधु भूषण मान ।।
सन्त संग सतगुरु की सेवा, और साधन ध्यान ।
बात तीनों जान ‘शाही’, साधुता का प्रान ।।
साधुता = सज्जनता, पवित्रता, सरलता, सदाचारिता, विनयशीलता, व्यवहार कुशलता, सबों के साथ सुमधुर वर्ताव, कर्तव्य कार्यकौशल। उर = हृदय। आन = लाओ। आवन = आना, जन्म। जान = जाना, मृत्यु। अनुपम = उपमा-रहित, जिसकी बराबरी कोई नहीं। अलौकिक = दिव्य, संसार के परे, पारमार्थिक, स्थायी, सत्य। निरवान = मोक्ष, अविचल धाम, निर्वाण। लोलुपता = लालच, लालसा, कामना। मान = सम्मान, प्रतिष्ठा पाने की भावना। अभिमान = घमंड। विषाद = उदासी भाव, निराशपना। काम = कामना। अलगान = दूर रहना, अलग रहना। शील = विनयशील, सहनशील, सच्चरित्र, सद्व्यवहार। भूषण = अलंकार, सजावट, शोभा, शृंगार। मानो = मानो, जान लो। साधन = विधिवत्, युक्ति के मुताबिक। प्रान = साँस, आधार, जान, जीवन।
अरे मेरे मन! तू अपने अंदर (हृदय में) सद्व्यवहार, सज्जनता, विशुद्धता, सरलता, सदाचारिता, विनयशीलता, हर जगह सबों के साथ हरवक्त सुमधुर वर्ताव, कर्तव्य कार्य (एक ईश्वर पर अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा अपने अंतर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना, सद्गुरु की निष्कपट सेवा, सत्संग और दृढ़ ध्यानाभ्यास) में संलग्नता आदि शुभ-शुभ भावनाओं से लबालब भर लो।।टेक।। संसार के (जन्म-मरणादि का सबसे बड़ा) समस्त दुःख-दर्द तेरे समाप्त हो जाएँगे, चौरासी लाख की देहों में आना और छोड़ जाना का अंत हो जाएगा। जिसकी बराबरी में कोई नहीं, जो दिव्य पारमार्थिक, स्थायी, अविनाशी सुख-शांति के साथ परम प्रभु सर्वेश्वर का अविचल धाम, मोक्ष, निर्वाण पद की प्राप्ति हो जाएगी। विषय (रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द) पाने की लालच, लालसा, प्रतिष्ठा पाने की भावना और घमंड, गुमान, अभिमान का त्याग कर दो अर्थात् इसकी जड़ उखाड़ फेंक डालो। कामना इच्छा, गुस्सा और उदासी भाव, निराशपना का त्याग करते हुए हर वक्त पापों से दूर रहो, बचते रहो, अलग रहो।। हृदय में सहनशीलता, विनयशीलता तथा थोड़े में भी संतुष्ट रहने आदि उत्तम-उत्तम सद्विचारों को धारण कर, सबों के साथ समान उदार भाव लाने का दृढ़ निश्चय कर लो, संकल्प कर लो। परित्याग, प्राणी-पदार्थों से वैराग्य और सेवा करने की भावना तो सज्जनों, साधु का अलंकार, शृंगार, शोभा ही मानो।। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि संतों की संगति, संत सद्गुरु की सेवा और सद्गुरुदेव द्वारा बतायी गयी सर्वेश्वर प्राप्ति की युक्ति के मुताबिक मनोयोगपूर्वक ध्यान-इन तीनों बातों को तो साधुता, सज्जनता का जीवन आधार, साँस, जान-प्राण ही समझो।।
गुरुवर तुझे रिझाऊँ, अरमान में यही है ।
अफसोस क्या करूँ मैं, सामान कुछ नहीं है ।।
तन मन वचन तुम्हारी, सेवा में कुछ लगाता ।
पर हाय बदनसीबी, उर ज्ञान कुछ नहीं है ।।
करके कृपा अहैतुक, यदि तू न रीझ जाओ ।
मुझ दीन-हीन का हित, हर्गिज कहीं नहीं है ।।
हे नाथ! भूल सारे, दुर्गुण शरण में ले लो ।
इसके सिवाय ‘शाही’, अरमान कुछ नहीं है ।।
तुझे = आपको। रिझाऊँ = प्रसन्न कर लूँ। अरमान = लालसा, तमन्ना। अफसोस = दुर्भाग्य की बात, खेद की बात, दुःख की बात। सामान = साधन। हाय = दुःख प्रकट करना। बदनसीबी = दुर्भाग्य। उर = हृदय। अहैतुक = अकारण, बिना कारण। दीन = हर तरह से लाचार। हरगिज = किसी हालत में। सारे = समस्त। सिवाय = अलावे।
हे मेरे सद्गुरुदेव, गुरु महाराज, परम गुरु! आपको मैं प्रसन्न करूँ, मेरे दिल में यही सबसे बड़ी लालसा है। खेद की बात, दुःख की बात तो यह है कि मेरे पास आपके लायक कोई साधन, वस्तु ही नहीं है।। शरीर, मन और वचन आपकी सेवा में कुछ लगाने को हृदय, दिल बहुत करता है; परन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि मेरे हृदय में कुछ भी ज्ञान नहीं है।। बिना कारण ही अनुकम्पा करके यदि आप मुझ पर न प्रसन्न हो जाएँ, तो मुझ, हर तरह से लाचार, दरिद्र, हीन की भलाई, उद्धार किसी भी हालत में संभव नहीं है।। हे मेरे स्वामी प्रभु! मेरे समस्त अवगुणों को बिसार दें, मुझे अपनी शरण में ले लेने की कृपा करें, अपना लें। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि इसके अलावे मेरी दूसरी कोई लालसा, कामना नहीं है।।
करहु कृपा करुणानिधान गुरु, मन अनीति तजि मेरो ।
तुव पद पंकज प्रीति निरन्तर, करइ छाड़ि छल केरो ।।1।।
वेद पुराण शास्त्र सन्तन्ह की, सीख अनुग्रह तेरो ।
ऊठत बैठत सोवत जागत, रहउँ सदा उन घेरो ।।2।।
तन मन वचन कर्म हो निर्मल, अरु वैराग्य घनेरो ।
तुम्हरी कृपा साधु गुण सगरो, मम उर करइ बसेरो ।।3।।
दीजै नाथ भक्ति अनपायिनी, भव सरिता कहँ बेरो ।
जनम मरन भव के अगणित दुख, ‘शाही’ होय निबेरो ।।4।।
करहु = कर दें। करुणानिधान = दया के समुद्र, अनुकम्पा के खजाना, भंडार। अनीति = अनुचित व्यवहार, कुविचार, दुर्विचार, दुराचार, दुष्कर्म, दुर्व्यवहार। तजि = परित्याग कर। निरन्तर = सर्वदा, अनवरत, अविराम, लगातार। छाड़ि = छोड़कर, त्यागकर। छल = कपट, धोखा देनेवाली बात, धूर्तता, दूसरों को ठगने की बात। करइ = करे। केरो = को। अनुग्रह = कृपा, प्रसाद। सीख = उपदेश, शिक्षा। घेरो = घिरा, संलग्न। घनेरो = बहुत। सगरो = सभी। बसेरो = बस जाय, अवस्थित हो जाए, निवास करे, रह जाए। भव = संसार। सरिता = नदी। अनगिणत = बेहिसाब, असंख्य। निबेरो = त्रण, कल्याण, मुक्ति मिल जाए।
हे दया के समुद्र, अनुकम्पा के भंडार मेरे गुरु महाराज! मुझपर ऐसी कृपा की वर्षा कर दें कि मेरा मन समस्त अनुचित व्यवहारों, कुविचारों, दुर्व्यवहारों, दुष्कर्मों का परित्याग कर दे। आपके चरणारविन्द में सर्वदा, अनवरत प्रेम, कपट-धूर्तता को छोड़कर करे।। अर्थात् आपके चरण-कमलों में इस दास का प्रेम एक क्षण के लिए भी घटे नहीं, हर घड़ी प्रेम में निमग्न रहूँ।। वेद, पुराण, शास्त्र आदि समस्त सद्ग्रंथों तथा सत संतों की जो सद्शिक्षा है, उनका जो उपदेश है, उनसे मैं आपकी दया-दान से, कृपा से अहर्निश, उठते-बैठते, सोते-जागते संलग्न रहूँ अर्थात् हर वक्त सदुपदेशों के बीच ही रहूँ।। मेरा, शरीर, मन, वचन और कर्म पवित्र, परिशुद्ध हो जाए तथा मुझे वैराग्याग्नि अत्यंत प्रज्वलित हो जाए। आपकी अनुकम्पा से मेरे हृदय में साधु-संतों के समस्त सद्गुण निवास कर जाए।। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि हे मेरे स्वामी सर्वेश्वर गुरु महाराज! आप अपनी अविरल, अनपायिनी भक्ति देने की कृपा करें। यह भक्ति संसाररूपी नदी पार करने के लिए नाव की तरह है, जिससे जगत् के जन्म-मरण जैसे बेहिसाब दुःखों से त्रण हो जाए, मुक्ति मिल जाए।।
मुर्शिद मुझको तुझ पै नाज ।।
तू मौला हो गरीब परवर, और गरीब निवाज ।।
दर हकीकत हो आजिजों के, तू ही कारज साज ।।
तू कामिले मुर्शिद तुम्हारा, एक एक अलफाज ।।
करनी धरनी रहनी गहनी, हर हरकत में राज ।।
तू रहीम रहमत से तेरे, रूह करे मेराज ।।
स्याह सफेद महल के ऊपर, सुनै गैब आवाज ।।
आवाज गैब सुन छुटत ऐब, हो फारिग मुहताज ।।
हुआ निजात मिला खालिस सुख, पूरा सकल नियाज ।।
तू बेनजीर रौनके जहाँ, तेरा इकबाल विराज ।।
सदा सलामत मैं भी तुमसे, हे ‘शाही’ सिरताज ।।
मुर्शिद = सीधी राह बतानेवाले, गुरु। पै = पर। नाज = गौरव, अभिमान। मौला = मालिक, ईश्वर। गरीब परवर = गरीबों के पालन करनेवाले, रक्षक। गरीब निवाज = गरीब पर दया करनेवाले, अनुग्रह करनेवाले। दर = में। हकीकत = असलियत, सच्चाई, सच बात। आजिजों = दीन, लाचार, तंग, परेशान, आया हुआ। कारज साज = काम करनेवाले, कार्य सँवारनेवाले। कामिले = पूरे, पहुँचे हुए, योग्य। अलफाज = वचन, शब्द, उपदेश। हर = प्रत्येक, हरेक। हरकत = हिलना-डुलना, गति, चेष्टा। राज = रहस्य। रहीम = दया करनेवाले, रहम करनेवाले। रहमत = मेहरबानी, दया, अनुग्रह। रूह = जीवात्मा। मेराज = चढ़ाई, तरक्की, ऊपर चढ़ने का साधन। स्याह = काला। सफेद = उजला, प्रकाश। गैब = गुप्त। ऐब = अवगुण, बुराई, दोष। फारिग = निश्चित, कार्य से निवृत्त। मुहताज = दूसरे पर आश्रित, गरीब, जिसे किसी चीज का अभाव हो। निजात = मुक्ति। खालिस = शुद्ध, सच्चा, खरा। नियाज = अच्छा, मनोरथ, आवश्यकता। बेनजीर = बेमिसाल, अनुपम। रौनके जहाँ = संसार की शोभा। इकबाल = महिमा, यश। विराज = छा जाना, सुशोभित हो जाना। सलामत = सुरक्षित, सकुशल। सिरताज = मालिक, स्वामी, सरदार।
सीधी राह दिखानेवाले हे मेरे गुरुदेव [परमाराध्य अनंत श्रीविभूषित संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज,ह्! आप पर ही मेरा गौरव है, अभिमान है।। आप साक्षात् परमात्मा हैं, मालिक हैं, दीन-दुखियों, बेसहारों, गरीबों के रक्षक, पालक और दीनों पर अनुग्रह करनेवाले हैं।। असलियत में तो बात यह है कि हर तरह से जो लाचार हैं, तंग-तंग हैं, ऐसे परेशान व्यक्ति के लिए आप ही समस्त बिगड़े कार्यों को सँवारनेवाले हैं।। हे मेरे गुरुदेव! आप पूरे, पहुँचे हुए, सच्चे सद्गुरु, परम गुरु हैं, आपके हर शब्दों, वचनों तथा क्रिया-कलापों, गतिविधियों के पीछे गंभीर, अलौकिक रहस्य भरा रहता है।। आप ही भक्तों पर अनुग्रह, दया करनेवाले हैं, आपकी अनुकम्पा से जीवात्मा अंतर में ऊर्ध्वगमन करने, चढ़ाई करने में सक्षम हो पाता है। अपने ही शरीर के भीतर काली, उजली ज्योति के ऊपर छिपी हुई गुप्त ब्रह्मध्वनि सुनाई पड़ती है।। अमृतमयी गुप्त परमात्मीय ध्वनि सुनते ही अपने अंदर की सारी बुराई, अवगुण, मैल छूट जाती है, उनका सारा कार्य सम्पन्न हो जाता है, किसी भी चीजों का अभाव नहीं रहता, आत्मनिर्भर हो जाते हैं।। निर्वाणपद की उपलब्धि हो गयी, सच्चा सुख प्राप्त हो गया, सारी इच्छाएँ पूरी हो गयीं। आपकी बराबरी कोई नहीं कर सकता, आपकी अनुपम महिमा दुनिया में आच्छादित है, सुशोभित है।। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि हे मेरे स्वामी, मालिक! मैं भी आपकी अनुकम्पा से हमेशा सुरक्षित हूँ, आनन्दमय हूँ, सकुशल से हूँ।।
करनी करेंगे जैसा भरनी भरेंगे तैसा ।
मानें विश्वास आप कोई होवें ।।1।।
निरधन धनवान होवें, निरबल बलवान होवें ।
ऊँच नीच कुल चाहे, मूरख विद्वान होवें ।।2।।
वैदिक इसलाम होवें, चाहे किरिस्तान होवें ।
बौद्ध जैन धर्मी, चाहे नास्तिक महान होवें ।।3।।
भारत निवासी होवें, अन्य देश वासी होवें ।
गृही बनवासी, चाहे तीरथ निवासी होवें ।।4।।
जीवन क्षेत्र है ऐसा, करनी का बीज जैसा ।
बोवेंगे एक लेकिन, गुना फल अनेक होवे ।।5।।
ईश्वरी विधान जानें, विधि कर्म करना ठानें ।
नेकहू न संशय आनें, ‘शाही’ कल्याण होवे ।।6।।
भरनी = चुकाना, सहना, वहन करना। तैसा = वैसा ही, उसी तरह। किरिस्तान = इसाई। नास्तिक = वह जिसे ईश्वर से, जिसे परलोक आदि में विश्वास न हो, वेद-निंदक। अन्य = दूसरे। गृही = घर में रहनेवाले। बनवासी = जंगल में रहनेवाले। क्षेत्र = खेत, शरीर। विधान = नियम। ठानें = संकल्प कर लें। नेकहू = एक भी नहीं। संशय = संदेह। विधि कर्म = कर्तव्य कर्म।
एक बात हमेशा विश्वास के साथ याद रखनी चाहिए, मान लेनी चाहिए कि जो जैसा कर्म करेंगे, उन्हें वैसा ही चुकाना पड़ेगा, वहन करना पड़ेगा, परम प्रभु परमात्मा उन्हें वैसा ही फल देंगे, चाहे आप कोई भी हों।।1।। निर्धन, धनवान, निर्बल, बलवान, ऊँचे कुल के या नीचे कुल के, अनपढ़, अज्ञानी चाहे विद्वान ही क्यों न हों।।2।। वैदिक इस्लाम, इसाई, बौद्ध, जैन धर्मावलंबी हों, चाहे भारी नास्तिक, ईश्वर को नहीं माननेवाले क्यों न हों।।3।। भारतवर्ष के निवासी हों, या किसी दूसरे देश के रहनेवाले हों। अपने घर में रहनेवाले गृहस्थ हों, जंगल में रहनेवाले वनवासी हों, चाहे तीर्थ में ही निवास करनेवाले ही क्यों न हों।।4।। मानव जीवन एक ऐसा खेत है कि इसमें शुभ या अशुभ कर्मरूपी बीज जिस तरह का आरोपण करेंगे, उससे वैसा ही अनेक गुणा होकर फल प्राप्त होगा।।5।। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि यदि उद्धार चाहते हैं, तो उन्हें परम प्रभु सर्वेश्वर प्राप्त करने की विधिवत् प्रक्रिया संत सद्गुरु महाराजजी के चरण-शरण ग्रहण कर, सेवा कर, सीख-समझकर कर्तव्य कार्य (एक ईश्वर पर अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा अपने अंतर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना, सद्गुरु की निष्कपट सेवा, सत्संग और दृढ़ ध्यानाभ्यास) में सदाचार, शिष्टाचार और शुच्याचार का पालन करते हुए संलग्न हो जाना चाहिए। इसमें कोई भी संदेह न करें, अवश्य ही निश्चित रूप से उनका कल्याण उद्धार होगा ही।।6।।
ऐ मस्त मन कहाँ तू, भूला जहान में है ।
वह जिन्स क्या जिसे पा, फूला गुमान में है ।।
सारा समाँ हे फानी, वही जिस्म की कहानी ।
है चन्द जिन्दगानी, जो शरे आम में है ।।
धोखे में तुम पड़े हो, ज्यों रेग में मिरग हो ।
किस्मत को खो रहे हो, ऐसा यकीन में है ।।
मत रंज दिल में आनो, रब ही अमन है जानो ।
मिलता उसे है मानो, रहबर की रहम में है ।।
मुरशद सुखन को मानो, खिदमत कदम में ठानो ।
इशक में सिदक को आनो, ‘शाही’ शबाब में है ।।
मस्त = मतबाला, लापरवाह, बेफिक्र। भूला = मशगूल, रमा हुआ, भटका हुआ। जहान = दुनिया। जिन्स = पदार्थ, चीज। पा = पाकर। फूला = खुश है, प्रफुल्लित है, इतराए हुए है। गुमान = घमंड, गर्व। समाँ = दृश्य, नजारा, चमक-दमक। फानी = नश्वर, नाशवान, परिवर्तनशील। जिस्म = शरीर। कहानी = दशा, हाल, कथा, वृतान्त। जिन्दगानी = जीवन, उम्र। चन्द = थोड़ा, थोड़ी। शरे आम = प्रत्यक्ष। रेग = बालू। किसमत = भाग्य। यकीन = विश्वास। रंज = अफसोस। दुख = शोक। रब = परम प्रभु परमात्मा। अमन = शान्ति, रक्षा। रहबर = संत सद्गुरु। रहम = अनुकम्पा, दया। सुखन = उपदेश, शिक्षा, बात। खिदमत = सेवा, टहल। कदम = चरण, पाँव। ठानो = दृढ़ निश्चय के साथ करो, तत्परता के साथ करो। इशक = प्रेम, अनुराग, आसक्ति। सिदक = सच्चाई, सत्यता, निष्कपट भाव, निश्छलता, दिल की विशुद्धता। शबाब = धर्म।
ऐ मेरे मतवाले, लापरवाह मन! तू इस दुनिया, संसार में किस भूल-भुलैया में पड़े हुए कहाँ-कहाँ बेखबर, बिसरे हुए हो। वह कौन-सा अजीब पदार्थ तूने पा लिया, जिस घमंड में इतराये हुए हो।। संसार का सारा चमक-दमक, नजारा, तमाशा नश्वर है, असत्य है, यही दशा तो इस शरीर की भी है। अभी प्रत्यक्ष जो तुम्हें जीवन मिला हुआ है, वह बहुत थोड़ा है अर्थात् तुम्हारी आयु, जीवनकाल बहुत थोड़ा-सा है।। तुम उसी तरह धोखे में पड़े हुए हो, जिस तरह बालू-ही-बालू में मृग धोखा खाता है। (रेगिस्तान जहाँ सिर्फ बालू-ही-बालू बहुत दूर तक, विस्तृत रूप से हो, वहाँ रहनेवाला मृग, जब उसे प्यास लगती है, तो बालू पर पड़नेवाली सूर्य की गरम-गरम लपलपाती हुई किरण पानी जैसा ही दिखाई पड़ती है, उसी पानी को पीने के ख्याल से मृग दौड़ता है, परिणाम यह निकलता है कि मृग प्यासा ही मर जाता है)। विश्वास में तो ऐसा ही लगता है कि तुम निश्चित रूप से अपना भाग्य खो रहे हो, डुबा रहे हो।। मन में, दिल में अफसोस मत करो, शोक मत लाओ, परम प्रभु सर्वेश्वर को ही सच्ची शांति स्वरूप जानो। वह परम प्रभु परमात्मा उन्हें ही मिलते, जो संत सद्गुरु की अनुकम्पा के पात्र हैं।। अर्थात् संत सद्गुरुदेव की दया में ही प्रभु की प्रीति निहित है।। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि संत सद्गुरु महाराज के उपदेश, सिखावन, उनकी सद्शिक्षा-दीक्षा प्राप्त कर ठीक-ठीक मनोयोग के साथ जीवन में अत्यन्त श्रद्धा से पालन करो, उनके चरणारविन्द की सेवा में दृढ़ निश्चयी हो संलग्न रहो। साथ-साथ सच्चाई, ईमानदारी, विशुद्धभाव, निश्छलता और प्रेम का बर्ताव करो, अपने को धर्म में सर्वदा तटस्थ रखो, लगाये रखो।।
भजन करना है तो भाँड़ा भरम का,
प्रथम दूर सिर से हटाना पड़ेगा ।
इसके लिये संत सतगुरु चरण में,
अटल प्रीति परतीत लाना पड़ेगा ।।
मद मान मत्सर ये दुर्गुण हैं जितने,
इन्हें कोस लाखों भगाना पड़ेगा ।
सदाचार जग में अलौकिक सुमन है,
हृदय वाटिका को सजाना पड़ेगा ।।
जगत का सही रूप दुखमय समझकर,
वैराग्य मन में बढ़ाना पड़ेगा ।
उपकार प्रभु के सतत याद कर-कर,
विरह वेदना को बढ़ाना पड़ेगा ।।
भक्ती की युक्ति हैं सद्गुरु बताते,
जिसे सीख जीवन को ढाना पड़ेगा ।
युक्ती बिना भक्ति ‘शाही’ न होगी,
चौरासी का चक्कर लगाना पड़ेगा ।।
भाँड़ा = मिट्टी का बना हुआ पात्र जिसका फूट जाने का स्वभाव है। भरम = भ्रम, संसार के प्राणी पदार्थ। भजन = भक्ति, ध्यान। संध्या = उपासना, ब्रह्मज्योति और ब्रह्मध्वनि में प्रतिष्ठित होना, योग, प्रभु-प्राप्ति का साधन विशेष के द्वारा साधना करने का प्रयास करना। सिर से हटाना = मन से दूर करना, ख्याल में नहीं लाना। अटल = अविचल। प्रीति = प्रेम, अनुराग। परतीत = विश्वास, सच्ची निष्ठा, श्रद्धा। मद = घमंड, नशा, अभिमान, मान-सम्मान की भावना, आदर-सत्कार की इच्छा। मत्सर = ईर्ष्या, डाह। अलौकिक = दिव्य, अद्भुत, विलक्षण। सुमन = पुष्प, फूल। वाटिका = बगीचा, फुलवाड़ी। सतत = सर्वदा, सदा, हमेशा। विरह = जुदाई, वियोग, अभाव, अविद्यमानता। वेदना = दुःख, पीड़ा, व्यथा। ढाना = ढालना, उतारना।
हे भक्तो, मुमुक्षुओ! यदि भक्ति, परम प्रभु सर्वेश्वर की खोज, ब्रह्मप्रकाश और ब्रह्मध्वनि में प्रतिष्ठित होना चाहते हो, ध्यान करना चाहते हो, परम प्रभु परमात्मा को पाने, ध्यानाभ्यास करने की दिल में लालसा है, तो सबसे पहले यथार्थ-रहित माया, नश्वर परिवर्तनशील असार-संसार के प्राणी-पदार्थ रूपी मिट्टी के बर्तन जिसका धर्म ही है फूट जाना, इनसे लगाव, ख्याल हटा लेना पड़ेगा। साथ-ही-साथ, भजन-ध्यान के लिए संत सद्गुरु के पद-अम्बुज (चरण-कमल) (उनकी सद्शिक्षा-दीक्षा, उपदेश, निर्देश-सत्संग नित अरु ध्यान नित, रहिये करत संलग्न हो । व्यभिचार, चोरी, नशा, हिंसा, झूठ तजना चाहिए ।।) में अचल श्रद्धा प्रेम दृढ़ विश्वास लाना पड़ेगा।। घमंड, प्रतिष्ठा पाने की भावना, ईर्ष्या, दूसरों की उन्नति देख बर्दाश्त न होना, मन में जलन हो जाना आदि जितने भी अंतःकरण के दुर्गुण विकार हैं, इन्हें लाखों कोस दूर भगा देना पड़ेगा, ऐसी ही बातें परम संत तुलसी साहब की वाणी में है-‘दिल का हुजरा साफ कर जाना के आने के लिए।’ संसार में सदाचार (झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार-इन पंच महापापों से अलग रहना) अद्भुत, दिव्य फूल हैं। इन विलक्षण पुष्पों से अपने हृदयरूपी फुलबाड़ी, बगीचे को सुशोभित करना होगा, मानो सदाचार का कठोरता से पालन करना पड़ेगा। संसार का वास्तविक स्वरूप दुःखमय (धर्मशास्त्र में संसार को -‘जगत् दुःखालय’ कहा गया है) हमारे गुरु महाराज परमाराध्य अनंत श्रीविभूषित संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज-‘यह जग दुख को धाम’ कहते हैं। मैंने परम पूज्य संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि ‘संसार का सुख यदि सरसों के बराबर है, तो इसके पीछे हिमालय पहाड़ जैसा दुःख लगा रहता है।’ समझकर, जान-बूझकर अपने मन में प्राणी-पदार्थों से वैराग्य बढ़ाना पड़ेगा, त्याग की भावना बढ़ाना पड़ेगा। परम प्रभु सर्वेश्वर द्वारा अपने ऊपर किये गये उपकार (देव-दुर्लभ मनुष्य-शरीर देना, चूँकि गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की वाणी में- ‘हरि तुम बहुत अनुग्रह कीन्हों । साधन धाम विबुध दुर्लभ तनु मोहि कृपा करि दीन्हों ।।) को हमेशा याद रखते हुए उनसे जुदाई, अलगाव की पीड़ा, विरहाग्नि को प्रज्वलित करनी होगी।। भक्ति, ध्यानयोग की सच्ची विधि, प्रक्रिया, भेद संत सद्गुरु महाराज बताते हैं, इस सद्शिक्षा-दीक्षा को अपने जीवन में अक्षरशः हृदयंगम, अनुपालन करना पड़ेगा। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि संत सद्गुरुदेवजी द्वारा बतायी युक्ति, तरीके के बिना भक्ति, ध्यान होना संभव नहीं है, फलस्वरूप चौरासी लाख प्रकार की योनियों में बारंबार जन्म-मरण का भयंकर महादुःख लगा रहेगा, संसार-समुद्र में गोता खाना पड़ेगा।।
सत्संग बिना सोचो मानव, जग में वह ज्ञान कहाँ होगा ।
जिस ज्ञान की साया में जाकर, अपना कल्याण महा होगा ।।
सत्संग में संत-वचनरूपी, सत् ज्ञान की गंगा बहती है ।
उसमें अवगाहन यदि न किया, सतपथ का ज्ञान कहाँ होगा ।।
मुक्ती का मारग भक्ती है, जो युक्ती बिना नहीं होती ।
युक्ती से भक्ती यदि न किया, तो भव से त्रण कहाँ होगा ।।
सेवा से सद्गुण हैं आते, जिससे जीवन सुखमय होता ।
जिसमें है सेवा भाव नहीं, ‘शाही’ सुख-चैन कहाँ होगा ।।
सत्संग = सत्पुरुषों-सज्जन पुरुषों-साधु-संतों के संग, जीवात्मा और परमात्मा की संगति, मिलन। साया = आश्रय, अंदर। कल्याण = त्रण, उद्धार। महा = महान्। सत् ज्ञान = सत्यता की पहचान, अनुभवगम्य ज्ञान, आत्मा-परमात्मा संबंधी जानकारी। गंगा = पवित्र करनेवाली धारा। अवगाहन = नहलाना, डुबकी लगाना, मज्जन करना। सतपथ = सत्य मार्ग, सच्चा रास्ता, यथार्थ विचार। भव = संसार। त्रण = कल्याण। सद्गुण = शुभ गुण, उत्तम विचार, सुन्दर स्वभाव, कल्याणकारी विचार का भाव। चैन = अमन, शांति। मुक्ति = जन्म-मरण के दुःखों से छुटकारा।
ऐ दुनिया के समस्त मानवो, मनुष्यो! जरा मन में विचारो, सोचो कि सत्पुरुषों, सज्जन पुरुषों, साधु-संतों की संगति के बिना, संसार में वैसा विचार, वैसी जानकारी, सद्बुद्धि कहाँ प्राप्त होगी? अर्थात् कहीं भी संभव नहीं। जिस सद्ज्ञान, सद्विचार के आश्रय आकर अपना सबसे बड़ा कल्याण होगा, अनंत सुख की प्राप्ति हो जाएगी। सत्संग में संतवचनामृत रूपी, सद्ज्ञान की सुरसरि (जिस सुन्दर विचार की धारा में डुबकी लगाने से कैसा भी प्राणी परम पूजनीय, विशुद्ध, पवित्र हो जाय) बहती है। उसमें (संत वचनामृतरूपी सद्ज्ञान गंगा में) यदि अपने को नहीं नहलाया, तो स्थायी सुख-शांति की तरफ, उद्धार की ओर जानेवाला सच्चा रास्ता का ठिकाना, ज्ञान कहाँ होगा? मानो सभी दुःखों का हरण करनेवाले परम प्रभु सर्वेश्वर के पाने का ज्ञान नहीं होगा। जन्म-मरण जैसे भयंकर दुःखों से छुटकारा का रास्ता भक्ति है, अंतःप्रकाश और अंतर्नाद की प्राप्ति है, जो संत सद्गुरु द्वारा प्राप्त विधिवत् प्रक्रिया, साधन विशेष के बिना नहीं हो पाती। सद्युक्ति से ध्यान-भजन यदि नहीं किया, तो सिर्फ मनमाने ढंग से पूजा-पाठ, आराधना किया, तो संसार-समुद्र से उद्धार, कल्याण हरगिज नहीं होगा, भव-सागर में जीवन-नैया डूबने से बच नहीं सकती, आवागमन का महादुःख लगा रहेगा। सेवा करने से उत्तम-उत्तम, सुन्दर-सुन्दर कल्याणकारी गुणों का अपने अंदर आविर्भाव होता है, जिससे जीवन आनंदमय हो जाता है। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि जिसके अंदर सेवा करने की भावना नहीं है, उन्हें जीवन में सुख-शान्ति कतइ संभव नहीं है अर्थात् उनके जीवन में सदा अशान्ति, परेशानी लगी रहेगी।
मान मान मन यह तन तेरा, हीरा रतन अनमोल है ।
विषयों के पीछे पड़ पगले, कर रहा माटी मोल है ।।1।।
राम कृष्ण अरु ऋषि मुनियों ने, इसकी महिमा गायी है ।
वेद पुराण आदि ग्रंथों में इसकी लिखी बड़ाई है ।।
कलयुग के भी संत हैं जितने, सबका एक ही बोल है ।
विषयों के पीछे पड़ पगले, कर रहा माटी मोल है ।।2।।
ऐसा यह अनमोल रतन तन, प्रभु ने तुमको है दिया ।
इसको पाकर रे मन मूरख, सोच भला तू क्या किया ।।
जो बीता सो गया बीत दिन, रहे का कम नहीं तोल है ।
विषयों के पीछे पड़ पगले, कर रहा माटी मोल है ।।3।।
सदाचार सत्संग सतगुरु, ये तीनों सम्बल लेकर ।
करहु भजन विश्वास सुदृढ़ करि, अन्तर्मुख हो चित देकर ।।
ऐसा कर मन मोल बचा ले, ‘शाही’ यह जो चोल है ।
विषयों के पीछे पड़ पगले, कर रहा माटी मोल है ।।4।।
मान मान = कहना मानो, मान लो। तन = देह, शरीर। रतन = रत्न। अनमोल = बहुमूल्य। माटी मोल = मिट्टी की कीमत में। महिमा = प्रशंसा, बड़ाई, महत्ता, माहात्म्य। बोल = विचार कहना, वक्तव्य, मन्तव्य। मूरख = अज्ञानी, अनजान, नादान, नासमझ। क्या किया = अच्छा नहीं किया। तोल = तौल, वजन, माप। मोल = कीमत। पीछे = संग-संग, संग लगकर। सम्बल = महत्त्वपूर्ण सहायक, सहारा, यात्र के दौरान पास की अति आवश्यक चीजें। सुदृढ़ = अत्यन्त मजबूती के साथ, अत्यन्त अचल। चित = चित्त, दिल। चोल = शरीर, देह, तन।
ऐ मेरे मन! मैं जो तुम्हें कह रहा हूँ, उसे मान लो, खूब अच्छी तरह कहना समझ लो, बल्कि गठरी बाँध लो और कभी मत भुलाना।-----यह जो तुम्हारा शरीर है, परम प्रभु सर्वेश्वर की सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ, बहुमूल्य रत्न, हीरा जैसा ही है। यदि ऐसे अनमोल हीरा-सा शरीर को विषयों में लगा रहे हो, तो मैं पक्की बात कहता हूँ कि ऐसा करना तुम्हारा बिल्कुल पागलपन ही है, यह तुम्हारी एकदम नासमझी, नादानी है और इसे मिट्टी की कीमत में व्यर्थ गँवाए जा रहे हो।।1।। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीरामचन्द्रजी, भगवान के पूर्णावतार श्रीकृष्णजी और ऋषि-मुनियों ने इसकी (मनुष्य-शरीर की) महत्ता का बखान, गुणगान किये। वेद, पुराण आदि समस्त ग्रंथों में इसकी बड़ी प्रशंसा लिखी हुई है। इस कलिकाल के भी जितने संत हैं, सबों का एक ही कथन है। यदि इस बहुमूल्य मनुष्य-शरीर को विषयों के पीछे लगाये हुए हो, ऐ पागल मन! तू इसे मटियामेट कर रहे हो, सिर्फ मिट्टी में मिला रहे हो।।2।। परम प्रभु परमात्मा ने जो तुम्हें इतना बहुमूल्य रत्न सदृश मनुष्य-शरीर देने की बड़ी भारी अनुकम्पा की है। अरे मेरे नादान, अनजान, मूरख मन! जरा सोचो, भला इसको पाकर तुमने कौन-कौन-सा फायदा वाला काम किया? परमात्मा प्रदत्त तुम्हें जो अवसर मिला है, उसमें जो हाथ से निकल गया, सो निकल गया, जाने दो; लेकिन अब जो सुनहला मौका (उम्र) तुम्हारी हथेली में शेष बचा हुआ है, उसे कम कीमती न समझना, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। रे पागल मन! इसे दुनियादारी के आनंद के पीछे लगाकर मिट्टी के मूल्य मत गँवा।।3।। सदाचार (झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार-पाँचो महापापों से हरवक्त अलग रहना) सत्पुरुषों, सज्जनों, साधु-संतों की संगति तथा संत सद्गुरु की सद्शिक्षा-दीक्षा, आदेश, निर्देश तथा उपदेश का अत्यन्त अटल श्रद्धा विश्वास के साथ अनुपालन, ये (सदाचार, सत्संग और संत सद्गुरु के सदुपदेश का अनुपालन) तीनों उसी तरह ध्यान, भक्ति, योग, कल्याण के मार्ग में बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करते, जिस तरह मुसाफिर के लिए मार्ग व्यय, खाने-पीने की चीजें अत्यन्त आवश्यक होती हैं, सहयोगी होती हैं। इन तीनों अत्यन्त सहयोगी सम्बल उपलब्ध कर अपने हृदय में दृढ़ विश्वास के साथ अंतर्मुखता पूर्वक चित्त लगाकर भजन-ध्यान, साधना करो। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि उपर्युक्त साधन विशेष के अंदर अपने का चलाकर इस बहुमूल्य मनुष्य-शरीर की कीमत बचा लो। नहीं तो विषयों में इसे यदि लगाए रखा, तो सचमुच ऐ पागल मन! तू इसे बर्बाद कर देगा, जबर्दस्त क्षति से बचा ले, इसी में तुम्हारी बुद्धिमानी है, जीवन की सार्थकता है।।