(21) हरि तुम नर तन दे क्या कीन्हों 

हरि तुम नर तन दे क्या कीन्हों ।
जौं नहिं मानवता अति उत्तम, मोहि कृपा करि दीन्हों ।।
तन नर अरु स्वभाव सूकर का, मेल नहीं यह नीका ।
अति सुन्दर यह सृष्टि तुम्हारी, है इतनहिं से फीका ।।
करहु कृपा दीजै मानवता, तुम्हरी सृष्टि सजेगी ।
साथहि साथ कृपानिधान, मेरी भी बात बनेगी ।।
सुनहु दयामय तब प्रसाद, ‘शाही’ का जीवन धन्य हो ।
पद सरोज मकरन्द मधुप इव, पी पुलकित तन मन हो ।।

कीन्हों = किये। अति उत्तम = अत्यन्त सुंदर। तन = शरीर। नीका = सुन्दर, अच्छा, ठीक। सृष्टि = रचना, संसार। सजेगी = सुशोभित होगी, शोभायमान होगा। बात बनेगी = काम बन जाएगा।। दयामय = साक्षात् दया का रूप ही। धन हो = धन्य हो जाए। पद = चरण, सरोज = कमल। मकरन्द = भौंरा। मधुप = मिठास, पराग। इव = तरह। पी = पीकर। पुलकित = प्रफुल्लित, आनंदित।

हे परम प्रभु सर्वेश्वर! आपने मानव शरीर देकर क्या किया? यदि अच्छे-अच्छे सद्गुणों से भरपूर सज्जनतायुक्त मानवता मुझे कृपा कर नहीं दिये तो भला सिर्फ मनुष्य-शरीर मुझे आपने देकर ही कौन-सा बड़ा उपकार कर दिया।। शरीर तो मनुष्य का और स्वभाव सूअर (पशु) वाला, यह तो ठीक-ठीक योग, मेल नहीं खाता। यों तो आपकी सृष्टि अत्यन्त सुंदर है; लेकिन इतने (मानवता-रहित) से ही फीकी, धूमिल पड़ जाती है।। हे प्रभु ! कृपा कर मानवता दें, जिससे आपकी सृष्टि में चार चाँद लग जाए। साथ ही हे करुणानिधान मेरी भी बिगड़ती बात (आवागमनरूपी दुर्भाग्य, बिगड़ते कार्य) बन जाएगी, परम प्रभु सर्वेश्वर का अनुभव ज्ञान प्राप्त जा जाए।। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि हे दया के समुद्र परमेश्वर! मेरी प्रार्थना सुनने की कृपा करें कि आपके अनुग्रह से मेरा जीवन धन्य हो जाए। आपके चरणारविन्द में मेरा शरीर और मन उसी तरह प्रसन्नतापूर्वक लवलीन रहे, जिस तरह भौंरा पुष्प की पराग में लीन रहता है अर्थात् मेरा मन आपकी ज्योति और नादरूप अमृतधारा में डूबा हुआ रहे।।

(22) धनि बानी, धनि बानी 

धनि बानी, धनि बानी, धनि बानी, रउवाँ धनि बानी ।
गुरु रउवाँ धरतिया पर धनि बानी ।।
यहि रे धरतिया के भाग बढ़ल बा,
जहिया से राउर पाँव पड़ल बा ,
हरषित सब ऋषि मुनी बानी ।। गुरु रउवाँ ।।
रउरे ज्ञान के डंका बजल बा,
हर मुख में यह नारा लगल बा ।
सबके प्रभु जी एक बानी ।। गुरु रउवाँ ।।
प्रभू एक प्रभू डगर एक बा,
बाहर नहीं वोकर भितरे रेख बा ।
जहवाँ पर बैठल स्वयं बानी ।। गुरु रउवाँ ।।
वही रे डगरिया पर चलिहैं सुरतिया,
प्रभु मिले के लेके अटल पिरितिया,
बिरहा कै बान विकल बानी ।। गुरु रउवाँ ।।
रउरे महिमा के बा ऐसन कहानी,
समुझे में नीक नहीं परत बखानी ।
हम तो मने मन मगनबानी ।। गुरु रउवाँ ।।
जेकर धरतिया पर केहू ना सहारा,
वोकरो कहे वाला रउवें हमारा ।
‘शाही’ के माई-बाप बानी ।। गुरु रउवाँ ।।

धनि = धन्य। बानी = हैं। रउवाँ = आप। भाग = भाग्य। बढ़ल = श्रेष्ठ, बढ़ा हुआ, बहुत ऊँचा। जहिया = जब। डंका = जोर-शोर। नारा = आवाज। वोकर = उसका। स्वयं = जीवात्मा। पिरितिया = प्रीति। विरहा = विरही भक्त। विकल = व्याकुल। नीक = मनोहारी। केहू = कोई।

धन्य हैं, धन्य हैं, धन्य हैं, आप धन्य हैं। हे मेरे संत सद्गुरु महाराज! आप धरती पर, वसुन्धरा पर धन्य हैं।। इस भारतवर्ष के धराधाम का बड़ा ही सौभाग्य है, जबसे आपके चरणारविन्द का आविर्भाव हुआ है। तब से ही सभी ऋषि-मुनिगण बड़े प्रसन्न रहते हैं, फूले नहीं समाते। हे गुरुदेव! आप पूरे धरातल पर धन्य हैं।। आपके ज्ञान का, विचार का इतने जोर-शोर से प्रचार है कि हरेक के मुख से यही आवाज निकलती है कि ‘सबके प्रभु (ईश्वर, सर्वेश्वर) एक ही हैं।।’ हे गुरुवर! आप पूरी पृथ्वी पर धन्य हैं।। परम प्रभु सर्वेश्वर एक हैं, परम प्रभु परमात्मा तक जाने का रास्ता भी एक है, जो (मार्ग) कि बाहर संसार में नहीं अपने अंदर में ही रेखा की तरह है। जहाँ पर हमारी (जीवात्मा) की बैठक (आज्ञाचक्र, दशम द्वार, तीसरा तिल, शिवनेत्र आदि) है, वहीं से इस राह की शुरूआत है।। परम प्रभु सर्वेश्वर से मिलने उस रास्ते पर चेतन आत्मा अचल प्रेम के साथ चलती है, ऐसे भक्त स्वभाव से ही प्रभु-मिलन के विरही, सर्वेश्वर के वियोग में भीतर से बड़े व्याकुल रहते हैं।। आपकी महिमा की ऐसी विचित्र, न्यारी कहानी है कि समझने में बहुत अच्छी लगती है; लेकिन वर्णन से बाहर है। मैं तो मन-ही-मन अत्यन्त मगन हूँ, प्रसन्न हूँ।। हे गुरुदेव! आप पूरी धरती पर धन्य हैं।। समस्त भूमंडल पर जिसका कोई सहारा देनेवाले नहीं, सहयोग करनेवाले नहीं, दुःख दूर करनेवाले नहीं अर्थात् जो हर तरह से सबों से ठुकराया हुआ है, ऐसे भी असहायों को अपनी शरण में ले लेनेवाले, अपना लेनेवाले आपही मेरे गुरुदेव हैं। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि मेरे तो हे गुरुदेव! आप माँ-पिताजी ही हैं।। हे गुरु महाराज आप धन्य हैं, धन्य हैं, धन्य हैं, आप धन्य हैं, पूरी वसुन्धरा पर आप धन्य हैं।।

(23) तुम्हरी ही कृपा पै टिके हम हैं 

तुम्हरी ही कृपा पै टिके हम हैं,
नहीं तो मेरा सहारा कहाँ जग में ।
है तुम्हारा विरद अधमोद्धारन,
नहीं तो मेरा उबारा कहाँ जग में ।।
असहाय भटकता फिरता यों,
लावारिश कूकर सूकर ज्यों ।
गहकर मेरा बाँह सनाथ किया,
नहीं तो मेरा पुछारा कहाँ जग में ।।
अति स्नेह सहित अपना करके,
हृदय से मुझे लगा करके ।
संतों का ज्ञान सिखाया मुझे,
नहीं तो मेरा सुधारा कहाँ जग में ।।
सब भाँति सदा से तूने ज्यों,
मेरा सब सार सम्हाल किया ।
त्यों आगे भी पार लगा देना,
नहीं तो ‘शाही’ का किनारा कहाँ जग में ।।

पै = पर। टिके = स्थिर है। अधमोद्धारन = पापियों का कल्याण करनेवाले, साक्षात् प्रभु। विरद = प्रतिज्ञा, संकल्प, प्रण। उबारा = उद्धार होनेवाला। लावारिश = निःसहाय, बेसहारा। ज्यों = की तरह। गहकर = शरण में लेकर। सनाथ = हृदय से अपनाए, प्यार दिये, सँभाल किये। पुछारा = पूछनेवाला। सुधारा = सुधार। त्यों = उसी तरह। किनारा = मंजिल, स्थायी सुख-शांति।

हे मेरे गुरु महाराज! आपकी ही अनुकम्पा पर मैं स्थिर हूँ, नहीं तो संसार में मेरा कोई सहारा नहीं है। यदि पापियों, अत्यन्त गिरे हुए का कल्याण करना आपका स्वभाव, आपकी प्रतिज्ञा नहीं रहती, तो भला मेरा संसार में कहाँ कल्याण होता? मेरा कहीं भी उद्धार होनेवाला नहीं, यों ही भटकते-फिरते निःसहाय कुत्ते, सूअर सम मेरे पशुवत् जीवन (बहिर्मुखता) से मेरी बाँह पकड़ अपनी शरण में ले लिए (कृपा करके अंतर्मुखी बनाए), मानो मुझ अनाथ को सनाथ कर दिये, नहीं तो संसार में मुझे कौन पूछता।। हे मेरे गुरुवर! अत्यन्त प्यार के साथ मुझे अपनाकर तथा हृदय से लगाकर (चूँकि परमाराध्य प्रातःस्मरणीय अनंत श्रीविभूषित संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते थे कि ‘शाही स्वामी मेरे हृदय हैं।’) यदि मुझे संतों का अमृतमय सद्ज्ञान नहीं सिखाये होते, तो इस संसार में मेरी सुधार असंभव ही था।। जिस प्रकार हर तरह सदा से मेरा सार सम्भाल किये। उसी तरह आगे भविष्य में भी हे गुरुदेव! पार लगा देने की कृपा करेंगे। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि नहीं तो मेरी जीवन नैया संसार-समुद्र से किनारा लगना, पार लगना असंभव ही है।।

(24) झट लिपटो रे प्यारे गुरु के चरण में 

झट लिपटो रे प्यारे गुरु के चरण में, सब सुख उनहीं माहिं ।।टेक।।
गुरु के चरण में जाकर मन रमें, भाग बड़ो अति ताहि ।
छूटत प्यारे हो, भव कर दुख सारे, काल के दाल गले नाहिं ।।
तन मन धन सब, गुरु के चरण पर, जो रे अरपि हरषाहिं ।
पालि वचन दृढ़, गुरु को शीश धरि, मन ही मन पुलकाहिं ।।
गुरु की कृपा प्यारे, सिधि शुभ गति सारे, जानि चरण लिपटाहिं ।
राखत चरण चित, हर क्षण यहि विधि, लोभिहिं जिमि धन माहिं ।।
जिनको जगत माहिं, मात्र गुरु गति आहि, सपनेहुँ दूसर नाहिं ।
ऐसे भगत कहँ, जोड़ि दोऊ कर, ‘शाही’ शीश नवाहिं ।।

झट = अविलंब, देर मत लगाओ। लिपटो = शरणागत हो जा, समर्पित हो जा। रमें = लग जाए। जाकर = जिनका। सारे = समस्त। दाल गले = बुद्धि काम करना, ताकत काम आना। अरपि = अर्पण कर। हरषाहिं = हर्षित होते, खुश होते। पालि = पालन कर, शिरोधार्य कर। शीश = मस्तक। धरि = धरकर, रखकर। पुलाकहिं = पुलकित होते। जानि = जानकर, समझकर। चित = चित्त में। जिमि = जिस तरह। आहि = है। नवाहिं = नवाते हैं।

हे मेरे प्यारे दुनिया के लोगो अविलंब संत सद्गुरु महाराज के चरणों (उनके आदेश, उपदेश, निर्देश एवं सद्शिक्षा-दीक्षा रूपी पाद्पद्मों) में आ जाओ, अत्यन्त श्रद्धा-विश्वास और प्रेम से शरण में आ जाओ, देर न लगाओ, जानते हो सब सुख (परमार्थ) उन्हीं के चरण-कमलों में निहित है।। हे प्यारे भाइयो! जिसका मन गुरुदेव के चरणारविन्द (सदुपदेश, भेद-भजन) में लवलीन हो जाता, हर वक्त लगा रहता है, उनका अत्यन्त ही बहुत बड़ा सौभाग्य है, वे बड़े भाग्यवान हैं। संसृति के समस्त दुःख समाप्त हो जाते तथा उनपर काल की एक भी बुद्धि, ताकत काम नहीं करती अर्थात् ऐसे भक्त बिल्कुल निर्भय हो जाते।। जो संत सद्गुरु महाराजजी के चरण-कमलों (सत्संग नितऽरु ध्यान नित, रहिये करत संलग्न हो । व्यभिचार चोरी नशा हिंसा, झूठ तजना चाहिए ।। इन उपदेशों के सतत अक्षरशः अनुपालन में) में अपने शरीर, मन और समस्त सम्पत्ति को सहर्ष समर्पण कर देते। ऐसे संत संतान गुरुदेव के चरणारविन्द में मस्तक रखकर उनके वचनों का उपदेशों का दृढ़तापूर्वक, मजबूती के साथ अनुपालन करने में मन-ही-मन बड़े पुलकित, खुश होते।। उनके ऊपर गुरुदेव की कृपा बरस जाती, उन्हें सारी सिद्धियाँ, सद्गति, मुक्ति प्राप्त हो जाती, ऐसा चमत्कार जानकर चरणों में लिपट जाना चाहिए, चरणाश्रित हो जाना चाहिए। जिस तरह लोभी व्यक्ति धन-सम्पत्ति में हर वक्त अपने मन को, चित्त को लगाये रखता, उसी तरह हर क्षण, हर समय सद्गुरुदेव के चरण-कमलों में चित्त लगाये रखना चाहिए। संसार में जो एकमात्र संत सद्गुरु को ही अपना सर्वस्व समझ लेते, जिनका चित्त स्वप्न में भी दूसरी ओर नहीं लगता। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि मैं ऐसे भक्त को दोनों हाथों को जोड़कर अपना शीश नवाता हूँ।।

(25) अब तो आन पड़ा चरणों में 

अब तो आन पड़ा चरणों में, सतगुरु ताको न ताको ।
नहिं छाड़ि चरण जाना है, सतगुरु ताको न ताको ।।1।।
हूँ हार जगत से आया, हिय हेरि तुम्हें अपनाया ।
गौरव तुम पर है मेरी, लाज अब राखो न राखो ।।2।।
तुम अधम उधारण स्वामी, सबके हो अंतर्यामी ।
यह बात विदित सबको है, प्रकट मुख भाखो न भाखो ।।3।।
है टेक तुम्हारा ऐसा, पापी चाहे हो जैसा ।
है भव से पार लगाना, टेक यह राखो न राखो ।।4।।
मैं भला-बुरा हूँ जैसा, पर जगत जानता ऐसा ।
‘शाही’ का सतगुरु मेँहीँ, भले तुम झाँको न झाँको ।।5।।

आन =आ। ताको =कृपाभरी दृष्टि डालकर। छाड़ि = छोड़। हार =पराजीत, थक जाना, परेशान होकर। हिय =हृदय। हेरि =ढूँढ़कर, निहारकर, देखकर। अपनाया = शरणागति प्राप्त की, उपदेशों को सस्नेह जीवन में उतारना प्रारंभ किया। गौरव = मर्यादा, गर्व। लाज = प्रतिष्ठा। अधम = नीच, दुष्कर्मी। उधारण = कल्याण करनेवाले, उद्धार करनेवाले। स्वामी = मालिक, सर्वस्व। अंतर्यामी = अंतर की बात जाननेवाले। विदित = जानकारी है ही। भाखो = बोलो। टेक = संकल्प, स्वभाव, प्रतिज्ञा। झाँको = दयाभरी नजर डालो, देखो।

हे मेरे गुरुदेव (प्रातःस्मरणीय परमाराध्य अनंत श्रीविभूषित संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज)! अब तो मैं आपके चरणारविन्द में, शरण में आ गया हूँ, भले आप मेरी और कृपाभरी दृष्टि डालें या नहीं डालें। आपके श्रीचरणों को छोड़कर मुझे दूसरी जगह कहीं भी नहीं जाना है, चाहे आप मेरी ओर अपनी नजर डालें या नहीं डाले।।1।। मैं पूरी दुनिया से परेशान हो, थककर, हारकर आया और हृदय से खूब सोच-विचारकर, ढूँढ़कर आपकी शरणागति प्राप्त की, आपके उपदेशों को सस्नेह जीवन में उतारना प्रारंभ किया। आप पर ही मेरी मर्यादा, गौरव है, अब मेरी प्रतिष्ठा रखें या न रखें।।2।। हे संत सद्गुरु मेरे गुरु महाराज! आप ही भारी पापियों, गिरे हुए का कल्याण करनेवाले, उद्धार करनेवाले साक्षात् परम प्रभु सर्वेश्वर ही हैं, आप तो सबके अंतःकरण, मन की सारी भावनाओं को जाननेवाले हैं यह बात तो सबको जानकारी है ही, भले ही आप प्रत्यक्ष रूप से कहें या न कहें।।3।। आपकी प्रतिज्ञा, संकल्प ऐसा है कि चाहे कैसा भी गिरा हुआ, पापी व्यक्ति हो, उसकी जीवन नैया संसार-समुद्र से पार लगाकर ही छोड़ते, अब आप यह अपनी प्रतिज्ञा रखें या न रखें।।4।। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि मैं चाहे अच्छा हूँ या खराब हूँ, जैसा भी हूँ; परन्तु दुनिया तो यही जानती है कि शाही के गुरुदेव ‘महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज’ ही हैं, भले आप मेरी ओर दयाभरी निगाह डालें या न डालें।।5।।

(26) मेरे मुरशिद सुनो 

मेरे मुरशिद सुनो, मेरे रहबर सुनो, दास्ताना ।
तेरा जाना चमन का वीराना ।।टेक।।
यहाँ खिलते थे गुल हाय! कैसे, कैसा रौनक बहारें थीं कैसी ।
लेकिन अब तो वही कोई रौनक नहीं, सुनसाना ।। तेरा0।।
तेरा दीदार क्या ही अजब था, निगाह जिसका पड़ा जैसे जब था ।
झूम जाता था मन, तो होता ऐसा अमन, इन्तहाना ।। तेरा0।।
सुन सुखन तेरा कायल हुआ ना, कहीं ऐसा देखा ना सुना ना ।
लाखों की जिन्दगी, बन गई है बंदगी, सुन तराना ।। तेरा0।।
पाक कदमों का पाकर सहारा, है जिंदगी खैरियत में गुजारा ।
अंत में है आरजु ‘शाही’ की जुस्तजू, ना भुलाना ।। तेरा0।।

मुरशिद = गुरु। रहबर = राह दिखानेवाले, गुरु। दास्ताना = हालत, समाचार, स्थिति। चमन = बाग, फुलबाड़ी। वीराना = निर्जन, उजाड़। गुल = फूल, अद्भुत बात, आनंद की बात। रौनक = चमक, चहल-पहल, खूबी। बहारे = शोभा, आनंद। दीदार = दर्शन। अजब = विचित्र, अनोखा। निगा = निगाह, नजर। झूम = लहराना, मस्ती, आनंदित हो जाना। अमन = शांति। इन्तहाना = अंतरहित, सीमा नहीं। सुखन = उपदेश। कायल = माननेवाला। जिन्दगी = जीवन। बन्दगी = प्रार्थना, सेवा, आराधना। तराना = आनंद का गाना। पाक = पवित्र। कदमों = चरणों। खैरियत = कुशल, आनंद। गुजारा = बिताया। आरजू = प्रार्थना। जुस्तजू = इच्छा, चाह।

हे मेरे गुरु महाराज (प्रातःस्मरणीय परमाराध्य अनंत श्रीविभूषित संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज)! मेरी प्रार्थना कृपाकर सुनें, हे मेरे सत्पथ प्रदर्शक (संसार से परमार्थ की ओर लगानेवाले) गुरुदेव! मेरी दशा, हालत, स्थिति सुन लेने की अनुकम्पा करें। आपका शरीर परित्याग कर परमधाम गमन कर जाना, ब्रह्म में समा जाना, तो मानो समस्त वसुंधरारूपी पुष्पवाटिका का उजाड़ ही हो जाना हो गया।।टेक।। अफसोस! आपके नये-नये विचित्र-विचित्र चमत्काररूपी पुष्प प्रस्फुटित होते रहते थे। नित्य बहुत ही चहल-पहल के साथ-साथ आनंदमय वातावरण रहता था। लेकिन अब तो बिल्कुल ही चहल-पहल नहीं, बल्कि सुनसान-सा लगता है।। तेरा जाना0।। आपका दर्शन बड़ा ही विचित्र था। जब भी जिसकी नजर जिस भी तरह की थी, मन बड़ा आनंदित हो जाता और अनंत-सी शांति महसूस होने लगती थी।। तेरा जाना0।। जिन्होंने आपके सदुपदेशामृतरूपी सुरसरी में अवगाहन किया, ऐसा कहीं भी नहीं देखा गया या सुना गया कि वे आपके न हो गए अर्थात् वे सज्जन आपके ही अनुयायी हो गये, आपके ही प्रशंसक बन गये। लाखों का जीवन अर्चनीय-वंदनीय, पूजनीय हो गया, मानो आपके सद्ज्ञान ने ऐसा जादू कर दिया कि सबके-सब आकर्षित हो गये।। तेरा जाना0।। हे गुरुदेव! आपके परम पवित्र श्रीचरणों (सदुपदेशों)का सहारा पाकर मैं बड़ा ही आनंदपूर्वक जीवन बिताया। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि हे गुरुमहाराज! अंत में आपके चरणारविन्द में मेरी यही प्रार्थना है कि मेरा अंतिम मनोरथ (आपकी अनपायिनी, अविरल, विशुद्ध भक्ति करके अंधकार, प्रकाश और शब्द के परे जाकर आपका अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त कर लूँ) को विस्मृत न कर देंगे।। तेरा जाना0।।

(27) प्रातःकालिक भजन [देर अब जनि करो हे सतगुरु]

देर अब जनि करो हे सतगुरु, देर अब जनि करो ।।टेक।।
दीप जीवन बुझन चाहत, तेल आयू सरो ।
तुमहिं देखत नरक कुण्ड में, नाथ चाहत परो ।।
जाहु अवगुण भूलि जन के, भला बुरा तुम्हरो ।
करि कृपा मुझ दीन पर अब, बेगि विपदा हरो ।।
हो अधम तारे अनेको विदित यह सगरो ।
दास ‘शाही’ बेर इतनी, देर काहें करो ।।

जनि = नहीं। सरो = समाप्त होने को है। परो = पड़ा। जाहु = जाएँ। जन = भक्त, सेवक। बेगि = तुरन्त, अविलंब। विपदा = विपत्ति, दुःख। हरो = हरण कर लें, समाप्त कर दें। तारे = उद्धार किये। विदित = प्रसिद्ध है, पता है, मालूम है। सगरो = सर्वत्र, हर जगह। बेर = समय में। काहें = क्यों।  

हे मेरे गुरु महाराज संत सद्गुरु! अब तनिक भी विलंब न करें, विलंब न करें प्रभु।।टेक।। यह जीवनरूपी दीपक बूझना चाहता है, बूझने की ही स्थिति में है, उसमें उम्ररूपी तेल समाप्ति की कगार पर है। हे परम प्रभु परमात्मा मेरे मालिक गुरुदेव! आपकी नजर से यह भी बाहर नहीं है कि मेरी जीवन नैया नरक कुंड की ओर जाना चाह रही है।। भक्त, सेवक के सारे दुर्गुणों को बिसार दें, भूल जाएँ, चूँकि अच्छा या बुरा जैसा भी है, यह आपका ही है प्रभु। अब मुझ सब तरह से दीन-हीन पर कृपा का वर्षण कर तुरंत, शीघ्र ही दुःख, विपत्ति (जन्म-मरण ऐसे सबसे बड़े कष्टों) का हरण करने की दया करें।। हे गुरुदेव! आपने अनगिनत पापियों, अधमों का उद्धार कर दिया है, जो कि हर जगह यह बात सबों को मालूम है। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि इस दास की बारी में (अर्थात् मेरे समय में), मुझे उद्धार करने में इतनी देर क्यों कर रहे हैं? अविलंब संसार-समुद्र से जीवन नैया पार कर देने की अनुकम्पा करें।।

(28) प्रातःकालिक भजन [हरिजन भक्ति विधिवत करो ]

हरिजन भक्ति विधिवत करो ।।टेक।।
साध संत के संग करि हिय, भाव भक्ती भरो ।
गुरु चरण में करि समर्पण, लेहु युगति खरो ।।
करहु सुमिरन ध्यान गुरु का, मैल मन का हरो ।
आँखि मूँदि के दृष्टि दोनों, मध्य सन्मुख धरो ।।
ब्रह्मज्योति अरु ब्रह्म ध्वनि धरि, पार त्रय पट परो ।
आत्मदर्शन ब्रह्मदर्शन, मोक्ष सुख सगरो ।।
खान पान सुधारि प्रथमहिं, पाप से निबरो ।
‘शाही’ सद्गुरु संत संग अरु, ध्यान सादर बरो ।।

हरिजन = भक्त, मुमुक्षु। विधिवत् = भजन-भेद के मुताबिक। हिय = हृदय। भाव = भावना। लेहु = प्राप्त करो। युगति = युक्ति, उपाय। खरो = शुद्ध, पवित्र, अच्छा, सुंदर। सुमिरन = जप, स्मरण। मैल = विकार, दोष, विषयाभिमुख, बहिर्मुखता, कुसंस्कार। हरो = दूर करो। सन्मुख = सामने। धरो = रखो। पट = परदा। परो = चले जाओ। निबरो = अलग हो जाओ। सादर = आदरपूर्वक। बरो = वरण करो, जीवन में उतारो, धारण करो।

हे भक्तो! परम प्रभु सर्वेश्वर की भक्ति विधि विधान के तहत, भजन-भेद के मुताबिक करो ।।टेक।। साधु-संतों की संगति (सत्संग) करके अपने हृदय को भक्ति भावना से सरावोर कर लो। संत सद्गुरुदेव के चरणारविन्द में अपना सर्वस्व समर्पण कर आत्म-कल्याण, परमात्म-दर्शन की सद्शिक्षा-दीक्षा, सद्युक्ति प्राप्त कर लो। गुरु-मंत्र का जप और गुरु-रूप का ध्यान करके, मन के विकारों, कुसंस्कारों, बहिर्मुखता, विषयाभिमुखता आदि मैल को साफ कर दो। दोनों आँखों को बंद कर इसके ठीक बीचोबीच सामने दोनों दृष्टि को रखो अर्थात् दोनों नैनों के बीच सामने अंधकार में एकटक से देखो।। ब्रह्मज्योति और ब्रह्मध्वनि को पकड़कर, परखकर तीनों परदों (अंधकार, प्रकाश और शब्द) के परे चलकर अपनी (जीवात्मा की) पहचान कर और परम प्रभु सर्वेश्वर का साक्षात्कार कर संसार के समस्त दुःखों से छुटकारा पा लो, मुक्ति प्राप्त कर लो, अपने अनंतकाल वाले जीवन को हर तरह से सुखी बना लो।। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि इसके लिए सर्वप्रथम खान-पान को सुधारकर (अखाद्य पदार्थ-मांस, मछली, अंडा तथा नशीले पदार्थ-दारू, गाँजा, भांग, अफीम, मदक, कोकीन, ताड़ी, चण्डू, खैनी, बीड़ी, सिगरेट, जर्दा, तम्बाकू आदि का सदा के लिए परित्याग कर दो) अपने को महापापों (झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार) से बचाओ। संत सद्गुरु की संगति कर, सेवा कर, आदर के साथ ध्यान में अपने को लगाओ, प्रतिष्ठित करो अर्थात् दृढ़तापूर्वक मनोयोग से ध्यान करो।।

(29) कभी क्या ऐसी रहनि रहूँगा 

कभी क्या ऐसी रहनि रहूँगा ।
श्री गुरुदेव कृपालु कृपा से, साधु स्वभाव गहूँगा ।।
षट विकार को जीत पाप, सपनेहु नहिं रंच करूँगा ।
सत्य धर्म के पालनार्थ, बाधाएँ सभी सहूँगा ।।
सेवा अरु सत्कार प्यार दे, दुश्मन-मन भी हरूँगा ।
दुखी दीन को हृदय लगा, मन में अति मोद भरूँगा ।।
मान बड़ाई कठिन रोग है, भूलहुँ नहीं बरूँगा ।
दया दीनता क्षमा शीलता, दास भाव निबहूँगा ।।
सतगुरु सम त्रता नहिं जग में, दृढ़ विश्वास धरूँगा ।
‘शाही’ सब तन मन धन अर्पण, करि भव पार परूँगा ।।

रहनि = दिनचर्या, व्यवहार, आचरण। गहूँगा = ग्रहण कर पाऊँगा। कृपालु = कृपा करनेवाले। षट् = छह। रंच = थोड़ा। पालनार्थ = पालन करने में। सत्कार = सम्मान। हरूँगा = आकर्षित करूँगा, अपना बना पाऊँगा। दीन = बेसहारा। मोद = आनंद। मान = सम्मान पाने की भावना, प्रतिष्ठा पाने की भावना। कठिन = भयंकर, जबर्दस्त। भूलहुँ = भूल से भी। बरूँगा = अपनाऊँगा, धारण करूँगा। दीनता = गरीबी भाव। शीलता = सुचरित्रता, विनयशीलता, विनम्रता। दास भाव = सेवा करने की भावना। निबहूँगा = निर्वाह करूँगा, निभा पाऊँगा। सम = समान। त्रता = रक्षक। धरूँगा = धारण करूँगा, रख पाऊँगा। अर्पण = समर्पण। परूँगा = जा पाऊँगा।

क्या मेरे जीवन में वैसा समय आएगा, क्या ऐसा जीवन मेरा बन पाएगा, कभी इस प्रकार रह पाऊँगा कि कृपा के समुद्र श्रीसंत सद्गुरु महाराज की अनुकम्पा से सच्चे साधु की तरह छहों विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर) पर विजय प्राप्त कर स्वप्न में भी थोड़ा-सा भी पाप नहीं करूँगा। सत्य जो सबसे बड़ा धर्म है, तप है, इसके पालन करने में, रक्षा करने में चाहे जितनी भी बाधाएँ सामने आये, उन तमाम बाधाओं, विघ्नों को बर्दास्त, सहन कर पाऊँगा? सेवा, सम्मान, सत्कार और प्यार देकर दुश्मनों का भी दिल जीत पाऊँगा, अपना बना पाऊँगा, प्रसन्न कर सकूँगा। बेसहारों, गरीबों, दीन-दुखियों को अपने हृदय से लगा, प्यार देकर मेरा मन अत्यन्त आनंद से प्रफुल्लित होगा? सम्मान, आदर, प्रतिष्ठा और बड़प्पन पाने की भावना बड़ा ही जबर्दस्त, भारी बीमारी है, जिसे मैं भूल से भी नहीं अपनाऊँगा? किसी भी संकटग्रस्त भाग्यहीन के प्रति सहानुभूति प्रकट कर, अर्थहीनता, गरीबी का भाव, क्षमा कर देने, सद्व्यवहार, सुचरित्रता, विनम्रता के साथ-साथ सेवा करने आदि सुंदर-सुंदर सद्भावनाओं का निर्वाह कर पाऊँगा? संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि मैं गुरु महाराजजी (परमाराध्य अनंत श्रीविभूषित संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) के चरणारविन्द में अपना सर्वस्व-तन, मन, धन समर्पण करके संसार-समुद्र को पार कर जाऊँगा।।

(30) भक्त का हार हृदय का हार 

भक्त का हार हृदय का हार ।
बिन हारे हरि भक्त न कोई, लो यह हिय में धार ।।
हारे को हरि हैं अपनाते, देते अपना प्यार ।
जीता जग के जाल पड़ा वह, खाता जम का मार ।।
हारो असन वसन अरु आसन, रज तम सिरजनहार ।
हारो पाप विकार छहों को, मान बड़ाई प्यार ।।
माता पिता सहोदर हारो, जग का सब स्त्रोकार ।
हारो सकल जहाँ लगि जग में, आपन आन उचार ।।
तन को हारो मन को हारो, बुद्धी अरु विचार ।
निज को हारि बनो हे ‘शाही’, हरि हृदय का हार ।।

हार = हारना। हार = माला, आभूषण। जाल = फन्दा, फँसाने की चीज, जन्म-मरण का चक्र। जीता = अहंकारी स्वभाववाला। मार = दंड, भारी यातना, सजा, कष्ट। असन = अन्न। वसन = वस्त्र। आसन = बिछावन। सिरजनहार = परम प्रभु परमात्मा, सृष्टिकर्ता। स्त्रोकार = मतलब, स्वार्थ। आपन = अपना। आन = पराया। उचार = कहना, व्यक्त करना, भाव प्रकट करना, बोलना। निज = अपनी जीवात्मा, अपने तईं। हारो = समर्पित कर दो, आगे रख दो।  

जो भक्त अपने को हारा हुआ-सा, अपने को सबसे दीन, छोटा बनाये रखता है, ऐसे सद्भक्त परम प्रभु परमात्मा के हृदय की माला जैसे बड़े ही सर्वेश्वर के प्यारे हो जाते हैं। बिना अपने में लघुता, हारकर रहने की भावना लाए, कोई भी प्रभुभक्त नहीं हो सकते, यह सद्विचार हृदय में धारण कर लेना चाहिए।। चूँकि जो भक्त अपने को संसार से छोटा बना लेते, उन्हें संसार के स्वामी, परम प्रभु सर्वेश्वर अपना प्यार देकर अपना लेते, अपनी शरण में ले लेते। जो अपने अंदर अहंकार भाव (अपने को सबसे बड़ा मानने का भाव) रखता है, वह संसार के जाल जन्म-मरणरूप भयंकर दुःख बंधन, फन्दा में पड़ा रहता, बारंबार यमराज का भारी दंड, मार खाते रहता।। अन्न, वस्त्र और घर, बिस्तर आदि परमात्मा सृष्टिकर्ता के जितने रजोगुणी या तमोगुणी पदार्थ हैं, सबों को हार दो, मन से परित्याग कर दो। पाँचो महापापों (झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार) छहों विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर), सम्मान, बड़ाई पाने की भावना के साथ-साथ संसार के प्राणी पदार्थों के प्रति अपनत्व और ममत्व, प्यार को हार दो, त्याग दो।। माता-पिता, सहोदर, सगे-संबंधी, संसार में जिन सबों से अपना लगाव है, उन सबों को हारो। संसार में जो भी अपने या पराये बोलनेवाले हों, सबों को हार दो, छोड़ दो।। शरीर को हारो, बुद्धि और विचार को भी हार दो। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि हे भक्तो! अपने तईं को भी हार दो अर्थात् अपने आप-सहित सर्वस्व समर्पण कर अपने को परम प्रभु सर्वेश्वर के हृदय की माला, आभूषण बना लो।। यह तो होना तभी संभव है, जब कोई सद्शिष्य, सद्भक्त संत सद्गुरु के सद्ज्ञान, सद्युक्ति के अनुरूप ध्यान, सत्संग, सदाचार का अनुपालन कर अपने अंतर की यात्र पूरी कर ले अर्थात् जीव जब तीनों आवरणों-अंधकार, प्रकाश और शब्द को पार करके अपनी पहचान कर परम प्रभु परमात्मा की पहचान कर ले। इसी स्थिति को सर्वस्व समर्पण कहते हैं, ‘आत्मनिवेदनम्’ कहते हैं।।

जय गुरु महाराज!