(11) मनुज में मानवता का मोल

मनुज में मानवता का मोल ।
मानवताविहीन प्राणी ढोता, मानव का खोल ।।
माटी के बहु भाँति खिलौने, खेलत बाल किलोल ।
है अंतर केवल आकृति का, देखो हिय में तोल ।।
मानव अरु दानव की आकृति, है दोनों सम तोल ।
प्रकृति भेद बस दो कहलावत, देखो पोथी खोल ।।
मानवता सुख शांति प्रदायिनि, कर जीवन अनमोल ।
पर आश्रित सद्गुरु-कृपा पर, ‘शाही’ कह दे ढोल ।।

मनुज = मनुष्य। मानवता = सज्जनता, अच्छा स्वभाव, व्यवहारवाला आदमी। मोल = कीमत, महत्त्व, विशेषता। विहीन = रहित। प्राणी = व्यक्ति, जीव-जन्तु। खोल = आवरण। ढोता = अपने ऊपर लादकर चलना। माटी = मिट्टी। बहु = बहुत। भाँति = तरह, प्रकार। किलोल = खेलने में मस्त रहना, मशगूल रहना। आकृति = रूप, आकार। हिय = हृदय। तोल = मूल्यांकन, ठीक-ठीक विचार-विमर्श करना। सम = बराबर, समान। पोथी = सद्ग्रंथ। प्रदायिनि = देनेवाली, प्रदान करनेवाली। आश्रित = निर्भर, अवलंबित। ढोल = जोरदार शब्द।

मनुष्य में सज्जनता, अच्छा व्यवहार; एक-दूसरे के प्रति सुमधुर व्यवहारवाले का ही तो महत्त्व है, कीमत है। जिस व्यक्ति में अच्छाई, सद्विचार का अभाव है, वैसे लोग सिर्फ अपने ऊपर मानव का आवरण ढोता चला आ रहा है। जिस तरह बच्चे मिट्टी के विभिन्न प्रकार के खिलौने के साथ बाल-विनोद, खेल में मशगूल रहते हैं। दोनों की सिर्फ बाहरी बनावट में भिन्नता है, हृदय में अच्छी तरह विचारकर देखो।। मनुष्य और दानव की बनावट में कोई भिन्नता नहीं है, बल्कि बाहर से दोनों समान हैं। अंदर के स्वभाववश दोनों दो कहलाते हैं, धर्मशास्त्र भी इनके साक्षी है। सद्ग्रंथों का भी यही विचार है। इस मानव शरीररूपी अनमोल जीवन के लिए सज्जनता ही सुख-शांति प्रदान करनेवाली है। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि यह जो मानवता है, संत सद्गुरु की अनुकम्पा पर (संत सद्गुरु की सद्शिक्षा-दीक्षा, उपदेश, आदेश, निर्देश की सच्ची निष्ठा, अचल श्रद्धा-प्रेम के साथ लग्नशील होकर अनुपालन करने में) अवलंबित है, निर्भर करता है। सबों को यह संदेश जोरदार शब्दों में ढोल पीट-पीटकर सुना दो।।

(12) उन्हीं को मानवता कहते 

उन्हीं को मानवता कहते ।
जिनमें पर दुख टीस मारता, सुखी देख खिलते ।।
दया दीनता और शीलता, क्षमा भाव गहते ।
पर उपकार हेतु निज तन पर, घाम सीत सहते ।।
श्रेष्ठ जनों के आवभगति, में मन मुदिता लहते ।
स्वारथ-रहित अचल स्वधर्म में, नेक नहीं टलते ।।
तन मन वचन कर्म से सब विधि, सुचिता निरबहते ।
षट् विकार अरु पंच पाप से, सदा सजग रहते ।।
तजि कुसंग सत्संग बैठ निज, जीवन को गढ़ते ।
लोक और परलोक सुखी हों, ‘शाही’ प्रभु भजते ।।

टीस = रह-रहकर उठनेवाली जोर की पीड़ा, कसक। खिलते = प्रसन्न होते। दीनता = गरीबी। शीलता = विशुद्ध चरित्र, विनय शीलता, सद्वृत्ति। गहते = ग्रहण करते। भाव = स्वभाव, विचार। घाम = गर्मी। सीत = ठंढा। आवभगति = सेवा, सत्कार। मुदिता = आनंदित, हर्षित। नेक = भलपन, अच्छाई, सद्स्वभाव। सुचिता = शुच्याचार, पवित्रता। निरबहते = निर्वाह करते, धारण किये रहते। सजग = सतर्क। गढ़ते = निर्माण करते।

सज्जनता, मानवता तो उन्हीं मनुष्य में कही जाती है, जिनमें ऐसे ही सद्गुण कि वे दूसरों के दुःख, कष्ट देखते ही उनके हृदय में जबर्दस्त पीड़ा, कष्ट होने लग जाए और दूसरों के सुख देखते ही उनका हृदय खुशियों से, आनंद से प्रफुल्लित हो जाए।। ऐसी सज्जनता से परिपूर्ण मानव बड़े दयालु स्वभाव के, दीन भाव, गरीबी (अहंकारहीन)-सा अति विनम्र, विशुद्ध चरित्र के साथ-साथ क्षमावान आदि उत्तम-उत्तम गुणों को धारण किये रहते। दूसरों की भलाई के लिए अपने शरीर पर भीषण गर्मी और कड़ाके की जाड़ा बर्दास्त करते रहते।। ऊँचे ख्याल वाले महापुरुषों की सेवा करने में, सत्कार करने में उनका मन आनंदित, बड़े हर्षित होते। ऐसे सज्जनों के भीतर जरा-सा भी स्वार्थ नहीं रहता, अपने धर्म में दृढ़तापूर्वक लगे रहते, शुभ कार्यों से एक क्षण के लिए भी अलग नहीं होते।। शरीर, मन, वचन एवं कर्म से हर प्रकार की पवित्रता का निर्वाह करते अर्थात् शुच्याचार का सदा पालन करते। छहों प्रकार के विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर) और पाँचो पापों (झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार) से हमेशा सावधान, सतर्क रहते, दूर रहते।। कुसंग का त्यागकर सत्संग में बैठ अपने जीवन का निर्माण करते। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि ऐसे मानवता युक्त मनुष्य, पुरुष इस जीवन और इसके बादवाले, अनंतकालवाले लम्बे जीवन (परलोक) को सुखी बनाने के लिए परम प्रभु सर्वेश्वर की भक्ति करते।।

(13) गुरु युगती से ताकु गगन में 

गुरु युगती से ताकु गगन में, तब झलकै एक तारा रे ।
वह तारा गुरुदेव बतावैं, जोति महल का द्वारा रे ।।1।।
दुति नक्ष़त्र अरु छटा चन्द्र को, सूरज प्रभा नियारा रे ।
गुरु प्रसाद लखैं जोगी जन, करि अन्दर पैसारा रे ।।2।।
शब्द महल में सुरत चलै तब, पकड़ि शब्द की धारा रे ।
पैठत सुनत शब्द अनहद जो, बाजत विविध प्रकारा रे ।।3।।
शब्द महल में सार शब्द धुनि, जो भवजल कढ़िहारा रे ।
‘शाही’ सुरत लगै तासों तब, सतगुरु सैन सहारा रे ।।4।।

युगति = विधिवत् प्रक्रिया, भेद-भजन, युक्ति। ताकु = निरखो, निहारो। दुति = कांति। नक्षत्र = तारा। छटा = छवि, शोभा, चमक। प्रभा = प्रकाश। नियारा = अनोखा, सुंदर। प्रसाद = कृपा। लखैं = देखैं, देखते। पैसारा = प्रवेश कर। सुरत = चेतन आत्मा। सैन = आदेश, उपदेश, निर्देश के अंदर, तहत। पैठत = प्रवेश कर। कढ़िहारा = पार लगानेवाले।

संत सद्गुरु की सद्शिक्षा-दीक्षा के मुताबिक नयनाकाश में देखो, तुम्हें सर्वप्रथम एक तारा (भोर का तारा) दिखाई पड़ेगा। गुरु महाराज बताते हैं कि वही तारा अंतर की ज्योति महल में प्रवेश करने का दरवाजा है।। प्रकाशवाले महल में तारों की कांति, चमक, चाँद की चाँदनी, रोशनी के साथ-साथ बड़ा ही अद्भुत, विचित्र दिव्य ज्योतियुक्त सूर्य, गुरुदेव की अनुकम्पा से भाग्यवान येागी, दृष्टिवान भक्त अपने अंदर प्रवेश कर देखते हैं।। उसके बाद शब्द की धारा पकड़कर सुरत, चेतन आत्मा शब्दमंडल में चलती हुई विविध प्रकारों की बजती हुई अनहद ध्वनियाँ सुनती है।। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि शब्द महल में ऐसी ध्वनि जो संतों की वाणी में सारशब्द, सतशब्द, आदिनाम कहलाती है, संसार-समुद्र से पार ले जानेवाली है। इस ब्रह्मध्वनि में तभी सुरत लगती है, जब कोई भाग्यवान भक्त संत सद्गुरु के आदेश, उपदेश, निर्देश के अंदर रहकर अत्यन्त अनुराग से नित्य सत्संग, दृढ़ ध्यानाभ्यास एवं सदाचार, शुच्याचार का कठोरतापूर्वक पालन करने में संलग्न रहते हैं।।

(14) भजो रे मन संत चरण सुखदाई 

भजो रे मन संत चरण सुखदाई ।।टेक।।
संत चरण है नाव तरन को भव वारिधि दुखदाई ।
उनके चरण शरण होइ बैठो, भव दुख जाय नसाई ।।
यश ऐश्वर्य मुक्ति और भलपन, बुद्धि और चतुराई ।
औरों जो कुछ जाहि मिले, जब संत कृपा तें पाई ।।
परमातम साकार संत हैं, यह गुरु ज्ञान बताई ।
नहिं कछु भेद संत भगवन्तहिं, वेद पुरानहु गाई ।।
अगम अगाध संत की महिमा, को अस है जो गाई ।
ब्रह्मा विष्णु महेश शारदा, यहु जन गये लजाई ।।
संत की महिमा संतहि जानैं, और नेति कहि गाई ।
तातें ‘शाही’ जानि परम हित, रहहु संत सरनाई ।।

भजो = सेवा करो, भजन करो। सुखदाई = सुख-शांति प्रदान करनेवाले। वारिधि = समुद्र। नसाई = समाप्त होगा। यश = प्रतिष्ठा, बड़प्पन, कीर्ति। ऐश्वर्य = ईश्वरता, धन-वैभव, अणिमादि सिद्धियाँ। मुक्ति = छुटकारा, समस्त दुःखों से छुट्टी। भलपन = सर्व सद्गुण सम्पन्न। लजाई = शर्मा गये। नेति = इतना ही नहीं। परमहित = सबसे बड़ी भलाई। सरनाई = शरण में।

ऐ मेरे मन संत चरणों की सेवा कर, इसी में सुख-शांति निहित है।।टेक।। अर्थात् संत सद्गुरु के उपदेश, उनकी सद्शिक्षा दीक्षा का अनुपालन सर्व समर्पण भाव से कर अपने अनमोल जीवन को आनंदमय बनाओ।। संत-चरण ही दुस्तर संसार- समुद्र से उबारने व पार लगानेवाली नौका है। यदि संसार के दुःखों को समाप्त करना चाहते हो, तो उन्हीं के चरणों की शरण में बैठना, अवस्थित हो जा।। कीर्ति, बड़ाई, प्रतिष्ठा व प्रशंसा, समस्त धन- वैभव, मोक्ष, जन्म-मृत्यु का सबसे भारी दुःखों का सदा के लिए अंत, सर्वसद्गुण सम्पन्न, बुद्धि, सुमति एवं चतुराई के साथ-साथ और भी जो कुछ जिन्हें जब भी शुभ गुण, सुख के साधन की प्राप्ति हुई है, उन्हें संत की अनुकम्पा से ही उपलब्ध हुए।। संत परम प्रभु परमात्मा का साक्षात् साकार रूप है, यह गुरु महाराज के ज्ञान से जानने में आता है। संत और परमात्मा में कुछ भी अंतर नहीं है, ऐसा वेद और पुराण भी साक्षी देता है।। संत की महत्ता जानने से बाहर, अथाह और अपार है, इनकी महिमा का पूरा-पूरा वर्णन भला कौन कर सकता? अर्थात् कोई नहीं कर सकता। भगवान ब्रह्माजी, विष्णुजी और देवाधिदेव महादेव भगवान शंकरजी, विद्या की अधिष्ठात्री देवी भगवती सरस्वतीजी-ये सब भी संत की महिमा को गाकर पूरा कर देने में अपने को सक्षम नहीं पाते, बल्कि लजा जाते हैं। संत की महिमा संत ही जानते हैं और अनंत कहकर गाया करते। इसीलिए संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि अपनी सबसे बड़ी भलाई, कल्याण जानकर संत सद्गुरु की ही शरण में रहो।

(15) चेत मन जात अवधि है बीती 

चेत मन जात अवधि है बीती ।।टेक।।
लख चौरासी योनि भरमि करि, तन पायो सुपुनीती ।
ऐसो नरतन पाय हाय क्यों, भजत न मायातीती ।।
तू जो उरझे विषय बाग में, सुख की करि परतीती ।
ऐसा ख्याल त्याग मन मूरख, यह बुद्धी विपरीती ।।
करि सत्संग ज्ञान खंजर लै, षट् रिपु कै करु ईती ।
अरु जप ध्यान दृष्टि करु योगा, कहे गुरु के रीती ।।
याही सेवा मायापति के, करु हे मन सह प्रीती ।
‘शाही’ बड़े भाग हैं उनके, भजते मायातीती ।।

जात = जा रहा, जा रही। अवधि = समय, उम्र, आयु। सुपुनीती = सुन्दर और पवित्र। हाय = अफसोस। मायातीती = माया के परे, परम प्रभु परमात्मा। उरझे = उलझो। बाग = बगीचा। परतीती = विश्वास। खंजर = तलवार। रिपु = शत्रु, दुश्मन। ईती = समाप्त, अंत। रीती = विधिवत्। याही = यही। सह = साथ, सहित। प्रीती = प्रेम।

अरे मन! चेतो, सावधान हो जाओ, अपने कर्तव्य कार्य (एक सर्वेश्वर पर अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा तथा अपने अंतर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना, सद्गुरु की निष्कपट सेवा, सत्संग और दृढ़ ध्यानाभ्यास-इन पाँचो को जीवन में अत्यन्त प्रेम के साथ उतार कर परम फल मोक्ष प्राप्त कर लेना) में अविलम्ब संलग्न हो जाओ, चूँकि तुम्हारी आयु बीतती जा रही है।। टेक।। चौरासी लाख तरह की योनियों में, शरीरों में भ्रमण कर जन्म और मृत्यु का सबसे बड़ा दुःख पाकर सुंदर और पवित्र शरीर पाये हो। अफसोस! दुःख की बात हैकि ऐसा मानव शरीर पाकर भी माया से परे परम प्रभु परमात्मा का भजन क्यों नहीं करते हो? तू जो सुख-प्राप्ति का विश्वास कर विषय (रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द) वाटिका में फँसे हुए हो, उलझे हुए हो। ऐ मन! तुम्हारे लिए ऐसा विचार बिल्कुल मूर्खतापूर्ण है, इसे त्याग दो, यह सुबुद्धि से उलटी बात है, यह तुम्हारी दुर्बुद्धि है।। सत्संग करके सच्चे संत सद्गुरु से सद्ज्ञानरूपी तलवार प्राप्त कर छहों शत्रुओं (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर) को समाप्त कर दो। गुरु महाराज की सद्युक्ति कहती है कि मानस जप, मानस ध्यान, विन्दु ध्यान और नादानुसंधान करो।। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि जो परम प्रभु सर्वेश्वर की भक्ति करते हैं, वे बड़े भाग्यवान हैं।।

(16) धर्मप्रेमियों उठो, ऐ सत्संगियों जागो, है मिटाना 

धर्मप्रेमियों उठो, ऐ सत्संगियों जागो, है मिटाना ।
जीव का योनि में आना-जाना ।।टेक।।
जीव पर तीन परदा है छाया, उसको साधन से जो न हटाया ।
उसने पाया जो धन, देव-दुर्लभ ये तन, है गँवाना ।
जीव का योनि में आना-जाना ।।1।।
जिसने अंतर के तम को हटाया, ज्योति टप सारधुन में समाया ।
उसका जीवन सफल, पाया नर-तन का फल, मोक्ष पाना ।
जीव का योनि में आना-जाना ।।2।।
तुम भी चेतो करो न अबेरा, भेद ले गुरु से कर लो निबेरा ।
क्यों प्रभू छोड़कर, जग नाता जोड़कर, हो भुलाना ।
जीव का योनि में आना-जाना ।।3।।
नाम जप ध्यान कर, मन को मोड़ो, बिंदु पै दृष्टि-धारों का जोड़ो ।
उसपर मन को लगा, दिव्य ज्योति जगा, शब्द पाना ।
जीव का योनि में आना-जाना ।।4।।
‘शाही’ कहता ये है सन्तवाणी, सन्त सतगुरु कृपा से है जानी ।
इसपर कर लो अमल, जो चाहो अपना भल, दुख मिटाना ।
जीव का योनि में आना-जाना ।।5।।

धर्मप्रेमियों = धर्मानुरागीगण। योनि = चौरासी लाख प्रकार के शरीर। आना-जाना = जन्म लेना और मर जाना। परदा = पट, आवरण, घूँघट। छाया = आच्छादित, ढका हुआ। दुर्लभ = कठिनाई से प्राप्त करने योग्य। ए = यह। गँवाना = खो देना। तम = अंधकार। टप = पार करके। समाया = प्रतिष्ठित हो गया, अवस्थित हो गया। अबेरा = देर न करो। नाता = संबंध। भुलाना = भूले हुए। अमल = अभ्यास, आचरण में उतारना, जीवन में ढालना। भल = भलाई, उद्धार।

हे धर्मानुरागी सज्जनो! उठो, ऐ सत्संगप्रेमियो भक्तो! जागो, जीव का चौरासी प्रकार के शरीरों में जन्म लेना और मर जाना; जैसे सबसे बड़े दुःख को मिटा देना है।।टेक।। जीवत्मा के ऊपर तीन परदा (अंधकार, प्रकाश और शब्द) है, जो उन आवरणों को संत सद्गुरु द्वारा प्रदत्त क्रिया विशेष द्वारा नहीं हटाया। उसने देवताओं को जो बड़ी कठिनाई से मिलनेवाला मानव शरीररूपी धन पाकर व्यर्थ ही बर्बाद कर दिया, खो दिया।। जिसने अपने अंदर के अंधकार को हटा दिया, ब्रह्मज्योति को पार कर ब्रह्मध्वनि में अपने आपको प्रतिष्ठित कर लिया। उसका जीवन सार्थक हो गया, सफल हो गया, मानो उन्होंने ही मानव शरीर पाने का सबसे बड़ा फल मोक्ष प्राप्त कर लिया। देर अब किस बात की, तुम भी आलस्य त्यागो, गुरु महाराज की सद्युक्ति प्राप्त कर जन्म-मृत्यु (महादुःख) से छुटकारा पा लो। क्योंकि परम प्रभु परमात्मा को छोड़कर संसार से अपना संबंध जोड़कर मशगूल हो गये हो।। संत सद्गुरु की सद्शिक्षा- दीक्षा के मुताबिक प्रभु नाम जपो, नाम संबंधी स्थूल रूप का ध्यान करके मन को बाह्य संसार से मोड़कर अंतर्मुख हो जा, मनोयोगपूर्वक एक विन्दु पर दोनों दृष्टिधारों को जोड़ो। अत्यन्त सुंदर ज्योति, अलौकिक प्रकाश जगाकर ब्रह्मध्वनि पा लो।। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि ये संत वचनामृत मैंने संत सद्गुरु महाराज की अनुकम्पा ही से जाना है। जो अपनी भलाई चाहे, कल्याण चाहे, जीव के चौरासी लाख प्रकार की देहों में जन्म और मरण जैसे सबसे बड़े कष्टों को मिटा देना चाहे,तो इन संतवाणी पर अत्यन्त अटल श्रद्धा और प्रेम के साथ अपने को चलाना चाहिए।।

(17) यही है जीवों की माँग 

यही है जीवों की माँग ।
दुख छूटै सुख मिलै शांतिमय, नित्य ज्ञान से लाग ।।
पर सुख ढूँढै जीव इन्द्रिय संग, पंच विषयन के बाग ।
जाहि सुहाइ याहि इन्द्रिन कूँ, सोइ सुख समुझ न लाग ।।
इन्द्रिय सुख है दुख विहीन नहिं, जैसे सावन साग ।
तातें सत जन देत सिखावन, विषय जहर सम त्याग ।।
सच्चा सुख आतम अनुभव है, सो पावै जो जाग ।
श्री गुरुदेव चरण-पंकज में, करि ‘शाही’ अनुराग ।।

जीवों = प्राणियों, चेतन आत्मा। माँग = कामना, इच्छा, चाहना, मनोरथ। नित्य = सत्य, अमर, अविनाशी। लाग = लग जा। सुहाइ = सुहावे, अच्छा लगे। बाग = बगीचा, वाटिका। याहि = इन, इस। विहीन = रहित। सिखावन = सीख, शिक्षा। जहर = विष। जाग = उठो, जागो। अनुराग = प्रेम।

सभी प्राणियों की यही चाहना है कि शांतिमय सुख की प्राप्ति हो जाए और सदा के लिए दुःखों का नाश हो जाए, इसके लिए उन्हें शाश्वत, अविनाशी परम प्रभु सर्वेश्वर की प्राप्ति वाले सद्ज्ञान में लग जाना चाहिए।। परन्तु जीव इन्द्रियों (आँख, कान, नासिका, जिह्वा, त्वचा, मुँह, हाथ, पैर, गुदा, लिंग, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) के संग रहकर पाँचो विषयों (रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द) की वाटिका में सुख ढूँढ़ता। इन इन्द्रियों को जो अच्छा लगता है, उसे ही सुख समझकर उसके पीछे मत लगो। चूँकि इन्द्रियों को सुहानेवाला जो सुख है, वह दुःखमिश्रित है (परम पूज्यपाद संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कभी-कभी प्रसंगवश कहा करते हैं कि संसार का सुख यदि सरसों के बराबर है, तो सोच लो उसके पीछे हिमालय पर्वत जैसा विशाल दुःख लगा रहता है।) जिस तरह सावन महीने की साग दुःखद है। इसलिए संत जन उपदेश देते हैं कि विषयों को विष की तरह त्याग दो।। सच्चा सुख तो आत्मा को अनुभव करके पहचान लेने में है, उसे (आत्मा) को तो वही पहचान पाते, जो जाग जाता है अर्थात् संत सद्गुरु के प्यारे शिष्य अपने गुरुदेव के सद्ज्ञानानुकूल अत्यन्त अनुराग से अभ्यास कर अंतर के अंधकार को पार कर ब्रह्मज्योति और ब्रह्मध्वनि में अपने आपको प्रतिष्ठित कर लेते हैं। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि ऐसे भक्तों को चाहिए कि संत सद्गुरुदेव के चरणारविन्द में अति अटल श्रद्धा और विश्वास के साथ प्रेम करे।।

(18) बबुआ ऊठ देख कबके भइल बिहान बा 

बबुआ ऊठ देख कबके भइल बिहान बा ।
आलस में बड़ि हानि बा ।।टेक।।
दिन बहुते गइल बीत, तोहरा सूतले अचीत ।
जान आज के दिन के आजे भर परिमान बा ।।आलस में0।।
अइसन अवसर खोई, जनि होहू भव बटोही ।
तब के आँसू पोंछे वाला न जहान बा ।।आलस में0।।
सुन-समझ संत बानी, कर आपन हित जानी ।
‘शाही’ इहै भव से तारे वाला यान बा ।।आलस में0।।

बबुआ = बाबू, बालक, बच्चा, जीव। उठ = उठो। कबके = बहुत देर पहले ही। बिहान = सवेरा। अचीत = अचेत, बेहोश, गफलत में पड़े हुए। परिमान = विस्तार, स्थिति, मात्र, माप-तौल। अइसन = ऐसा। अवसर = मौका, समय। जनि = मत, नहीं। बटोही = यात्री। तव = तुम्हारा, जहान = संसार, दुनिया। यान = जहाज, साधन, सवारी, आधार।

ऐ बाबू (जीव) उठो, जरा देखो तो, सवेरा हुए बहुत देर हो गयी, अब भी तुम सोये हुए हो, यह तेरा आलस्यपन है, इसमें बहुत बड़ी हानि है। (अर्थात् ऐ जीवो! तेरा इस असार संसार में चौरासी लाख प्रकार के शरीरों में बहुत बार जन्म और मृत्यु हो चुकी है, अब मानव शरीर मिल गया है, संत सद्गुरु की सद्शिक्षा-दीक्षा में संलग्नता से चलकर अंधकार को पार कर जा, नहीं तो इस स्थिति में तूँ बड़ी भारी हानि पुनः चौरासी में चले जाओगे)। बहुत दिन बीत गये, तूँ बेखर अचेत पड़े हुए हो। अरे जान लो कि आज का जो दिन है, यह पुनः आनेवाला नहीं है, बल्कि यह समय सिर्फ आजभर ही है, समझो।। इस तरह (मानव शरीर) का सुनहला अवसर, मौका हाथ से निकालकर, छोड़कर संसार समुद्र का यात्री अपने को मत बनाओ। जानते हो यदि इस तरह का मौका हाथ से निकल जाएगा, तो इस दुनिया में (जन्म-मरणशील) चौरासी लाख शरीरों में तेरे आँसू पोंछनेवाला, सहयोग करनेवाला कोई भी नहीं मिलेगा।ं अतः संतों की अमृतमयी वाणी सुनो, खूब अच्छी तरह विचार कर लो, समझ लो; साथ ही इसी में अपनी भलाई निश्चित रूप से निहित जानकर जीवन में उतार लो। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि यही (संत-वचनामृत) संसार समुद्र से पार ले जानेवाला सवारी, साधन, जहाज है।।

(19) प्रभु जी ! तुव महिमा मैं जानी 

प्रभु जी ! तुव महिमा मैं जानी । मेरे सतगुरु भाखि बखानी ।।
प्रभु जी ! तुम व्यापक चहुँ ओरा । नहीं तुममें ओर है छोरा ।।
प्रभु जी ! तुम सर्वान्तर्यामी । तुम हो अखिल शक्ति के स्वामी ।।
प्रभु जी ! तुमने जग उपजाया । जामें फिरता जीव भुलाया ।।
प्रभु जी ! तुम अखंड सुख रूपा । तुव मिलि जीव होत तद्रूपा ।।
प्रभु जी ! तुमको वे पाते हैं । ‘शाही’ सतगुरु अपनाते हैं ।।

तुव = आपकी। भाखि = बोलकर। बखानी = बखान किये, वर्णन किये। व्यापक = समाये हुए, मिले हुए, प्रविष्ट किये हुए। चहुँ = चारो। ओर = प्रारंभ, शुरुआत। सर्वान्तर्यामी = सबके अंदर की बात जाननेवाले। अखिल = समस्त, समग्र। स्वामी = मालिक। भुलाया = भूला हुआ। अखंड = अनंत। तद्रूपा = उसी रूप में। अपनाते = अपनी शरण में ले लेते।

हे परम प्रभु सर्वेश्वर! मैंने आपकी महिमा जान लिया है। मेरे सद्गुरु (संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) कहने की कृपा किये, वर्णन करने की दया किये हैं।। हे प्रभु! आप तो चारो ओर समाये हुए हैं अर्थात् सर्वत्र जर्रे-जर्रे में कण-कण में हरेक प्राणी-पदार्थों में भरपूर हैं। आपमें न तो शुरुआत है और न अंत ही है, आप आदि-अंत से परे हैं, अनंत हैं।। हे प्रभुवर! आप समस्त प्राणियों के मन की बात जाननेवाले हैं। आप समस्त शक्ति (उत्पादक, पालक और विनाशक) अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेश के सूत्रधार हैं, मालिक हैं, संचालक हैं। हे परम प्रभु सर्वेश्वर! आपके द्वारा ही समस्त विश्व ब्रह्मांड दुनिया निर्मित है, जिसमें (संसार में) जीव आपको भूला हुआ भटक रहा है, (चौरासी लाख योनियों का चक्कर लगा रहा है)।। हे पारब्रह्म परमेश्वर! आप तो स्वरूपतः अनंत सुख रूप ही हो। आपसे मिलकर जीव आपही जैसे हो जाता, आपसे अलग नहीं रह जाता।। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि हे परम प्रभु परमात्मा! आपको तो वैसे ही भक्त पाते, जो संत सद्गुरु के कृपापात्र हो जाते अर्थात् जो संत सद्गुरु के उपदेश, आदेश, निर्देश का अत्यन्त अनुराग से अनुपालन करते, वे ही संत सद्गुरु के कृपापात्र बन परम प्रभु सर्वेश्वर को प्राप्त कर अपना परम कल्याण कर लेते।।

(20) हमें सतगुरु शरण दीजै 

हमें सतगुरु शरण दीजै, नहीं कोई सहारा है ।
पड़ी भव-भँवर में नैया का, केवल तू सहारा है ।।1।।
जगत में कहने वाले यों, घनेरो मैं तुम्हारा हूँ ।
मगर हिय हेरकर देखा, सभी धोखा पसारा है ।।2।।
उबारो जनि करो देरी, विरद को याद कर अपने ।
समय के साथ बढ़ता जा रहा, धड़कन हमारा है ।।3।।
तुम्हारा है हुआ आना यहाँ, सतधाम को तजकर ।
हमारे ही लिये आकर, हमें कैसे बिसारा है ।।4।।
बढ़ा अजानु भुज दोनों, प्रकाश अरु शब्द का मुझको ।
लगा लो अपने चरणों में, प्रभू ‘शाही’ तुम्हारा है ।।5।।

भँवर = अत्यन्त खतरनाक चक्करदार, घुमावदार डुबा देनेवाली जल की तेजधारा। किनारा = मंजिल। घनेरों = बहुतों। हिय = हृदय में, मन में। हेरकर = खूब विचारकर, जाँच-पड़ताल कर। पसारा = फैला हुआ, माया जाल। विरद = संकल्प, स्वभाव, प्रण, प्रतिज्ञा। सतधाम = सत्यलोक, अमर अविचल स्थान। बिसारा = भूला दिये। आजानु = लम्बा, घुटने तक लंबे। भुज = हाथ।

हे मेरे गुरुदेव सद्गुरु महाराज! आप कृपा कर मुझे अपनी शरण देने की दया करें। चूँकि आपकी शरण के अलावे मेरा और दूसरा कोई सहारा नहीं है। मेरी जीवन नैया संसाररूपी बहुत ही विषम, अत्यन्त खतरनाक चक्कर, घुमावदार, डुबा देनेवाली तेज जलधारा में पड़ी हुई है, मेरी इस डूबती हुई जीवन नौका के लिए सिर्फ आप ही मंजिल हैं।। इस कठिन परिस्थिति में, यों तो दुनिया में बहुतों यह कहनेवाले हैं कि मैं ही तुम्हारा हितैषी हूँ; परन्तु हृदय में मैंने ठीक-ठीक जाँच-पड़ताल कर, खूब विचारकर खोजा, तो सब-के-सब धोखा मात्र, मायाजाल ही मिले।। हे गुरुदेव! आप अपनी प्रतिज्ञा, अपने स्वभाव, अपने संकल्प को याद कर, स्मरण कर मेरा उद्धार कर देने की अनुकम्पा करें, अब और देर न लगाएँ। ज्यों-ज्यों समय बीतता जा रहा है, त्यों-त्यों मुझे अपनी जीवन नैया दुस्तर संसार समुद्र में डूब जाने की आशंका, भय भी बढ़ता जा रहा है।। आपका तो मेरे ही उद्धार के लिए अपना अमरधाम को त्यागकर यहाँ पधारना हुआ है। मेरे वास्ते आकर किस वजह मुझपर आप अपनी दयामय निगाह हटा लिये हैं।। हे मेरे आजानुभुज गुरु महाराज! आपके चरणारविन्द में मेरी बारंबार प्रार्थना है कि आप अपने प्रकाश और शब्दरूपी बहुत ही लंबी भुजा मेरी ओर बढ़ा दें और अपने चरण-शरण में मुझे लगा लेने की कृपा करें। चूँकि हे संत सद्गुरु महाराज! यह जो अंतर्ज्योति एवं अंतर्नादरूपी आपके वरदहस्त के बीच जो भक्त आ जाता है, वह उसी तरह निर्भय हो जाता है, जिस तरह कोई बच्चा अपनी माँ-बाप की गोद पाकर निर्भय हो जाता है। माँ-बाप की गोद से बच्चा गिर भी जाता है; परन्तु आपके दोनों हाथों के बीच से जीव कभी नहीं गिर सकता, परमाराध्य संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहा करते थे कि ऐसे भक्त के ऊपर अब बमगोला क्यों न गिर जाय-‘ना पल बिछुड़े पिया हमसे, ना हम बिछुड़ें प्यारे से।’ संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि हे परम प्रभु परमात्मा मेरे गुरुदेव! मैं आपका ही हूँ, मुझे अपने चरण-शरण में ले लेने की कृपा करें।।

जय गुरु महाराज!