सुनो प्रभु एक विनय यह मोर ।।टेक।।
अति अभिलाष करूँ तुव दशन, पर न बुद्धि अरु जोर ।
जेहि विधि होवै सफल मनोरथ, चहूँ कृपा तस तोर ।।
कहत अरूप स्वरूप तुम्हारा, कृपापात्र जो तोर ।
आदि अंत अरु मध्य विहीना, क्षर अक्षर वहि ओर ।।
अलख अपार वो अगम अगोचर, नहिं मन बुधि को दौर ।
ऐसा तेरा रूप प्रभु है, कहत सन्त दे जोर ।।
यह स्वरूप मम दृष्टि गहे किमि, मैं तो विषय-चकोर ।
धरती पड़ा छुवन अम्बर की, भाँति नीच मति मोर ।।
अपने से हूँ निराश आपसे, आशा मुझे अथोर ।
देहु दरस दरसनियाँ ‘शाही’, विनवत हैं कर जोर ।।
विनय = प्रार्थना। अभिलाष = अभिलाषा, इच्छा, तमन्ना, चाह, मनोरथ। तुव = आपके, आपका। पर = लेकिन, परन्तु। अरु = और। जोर = बल, ताकत। मनोरथ = मन की कामना। विधि = ढंग, तरीका। तस = वैसा, उसी तरह। आदि = शुरूआत, प्रारम्भ। विहीना = रहित, विहीन, बिना। क्षर = नाशवान, विनाशशील। अक्षर = अनश्वर, अविनाशी। अलख = जो देखा न जा सके। अपार = असीम, जिसे पार नहीं किया जा सकता है। अगम = पहुँच से बाहर, मातम से परे, दुःख से परे। अगोचर = इन्द्रियातीत, इन्द्रियों के ज्ञान से परे। दौर = पहुँच। गहे = ग्रहण करे। किमि = कैसे। चकोर = एक तरह की पक्षी जो चन्द्रमा का प्रेमी होता है। छुवन = स्पर्श करना, छूना। अम्बर = आकाश। दरशनियाँ = दर्शन करनेवाला। अथोर = बहुत। आशा = भरोसा, विश्वास।
हे मेरे सर्वेश्वर! आपके चरणारविन्द में यह मेरी एक प्रार्थना है।।टेक।। मेरी अत्यन्त लालसा है कि मैं आपके दर्शन करूँ; लेकिन बुद्धि और बल से बिल्कुल हीन हूँ, लाचार हूँ। जिस भी तरह से मेरा यह मनोरथ सफल हो जाए, वैसी ही आपकी अनुकम्पा चाहता हूँ। आपके जो कृपापात्र हैं, वे आपके स्वरूप के संबंध में कहते हैं कि आपका स्वरूप रूप-रहित, प्रारंभ-रहित, अंत-रहित, मध्य-रहित और नाशवान तथा विनाशी तत्त्वों से भी परे है।। आप साधारण दृष्टि क्या, दिव्य चक्षु से भी देखे नहीं जा सकते (आप अलख हैं), असीम, अनन्त, अगम, इन्द्रियों के ज्ञान से परे तथा आप तक मन-बुद्धि पहुँच नहीं सकती। हे प्रभु! संत जोरदार शब्दों में कहते हैं कि आपका ऐसा ही बड़ा विलक्षण रूप है।। आपके इस स्वरूप को भला मेरी आँखें कैसे देख सकती हैं, ग्रहण कर सकती हैं। हर वक्त मेरा मन विषय-विकार की चाहना में रहता है। मेरी तो बुद्धि उसी तरह अत्यन्त गिरी हुई है, नीच है, जिस तरह कोई धरती पर पड़ा रहे और आकाश को छूना चाहे।। अपने से तो निराश हो चुका हूँ; लेकिन आपसे मुझे बहुत भरोशा, आशा है। दर्शनाभिलाषी संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि हे मेरे परम प्रभु परमात्मा! मैं हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ कि मुझे दर्शन देने की कृपा करें।
साधो भाई हरि गुरु एकहि जानो ।
जोई हरि हैं सोई गुरु हैं, भेद तनिक नहिं आनो ।।
संत कबीर कह्यो गुरु साहब, साखी शब्द प्रमानो ।
(गुरु) पारब्रह्म सदा नमस्कारउ, बाबा नानक भानो ।।
तुलसिदास नररूप हरी गुरु, मानस माहिं बखानो ।
सूरदास निज अंत समय में, कह्यो विलग नहिं मानो ।।
चरनदास की बानी पढ़िये, गुरु बिन और न जानो ।
साहब से सद्गुरू भये यह, दास गरीब बखानो ।।
ऐसहिं और संत सद्ग्रंथहिं, कह्यो बात मन मानो ।
जो हरि गुरु में अंतर माने, ‘शाही’ भय ठहरानो ।।
साधो = साधु, सत्पुरुष, सज्जन। हरि = सर्वेश्वर। गुरु = संत सद्गुरु। एकहिं = एक समान, एक ही जैसे। जानो = समझो, मन में अच्छी तरह बैठा लो। भेद = अन्तर। तनिक = थोड़ा भी। आनो = अपनाओ। कह्यो = कहे। साहब = परम प्रभु सर्वेश्वर। प्रमानो = प्रमाणित किये। भानो = बोले। नररूप = मनुष्य के रूप में। बखानो = बड़ाई वर्णन किये, सराहना किये, वर्णन किये, बखान किये। निज = अपने, अपना। विलग = अलग, भिन्न। और = दूसरा। ठहरानो = पड़े रहेंगे, स्थिर रहेंगे, ठहरे रहेंगे।
हे साधु भाई! परम प्रभु सर्वेश्वर और संत सद्गुरु, गुरु एक ही जैसे, एक समान ही हैं, ऐसा खूब अच्छी तरह मन में बैठा लो, जान रखो। चूँकि जैसे सर्वेश्वर-हरि हैं, वैसे ही संत सद्गुरु, गुरु हैं। थोड़ा भी मन में अंतर का भाव मत रखो। संत कबीर साहब संत सद्गुरु को ही सर्वेश्वर, साहब कहे हैं, ऐसा उनकी साखी, शब्द से प्रमाण मिलता है। “संत सद्गुरु को साक्षात् पारब्रह्म परमेश्वर ही जानकर मैं हमेशा उन्हें प्रणाम करता हूँ” ऐसा बाबा नानक साहब बोले।। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज संत सद्गुरु को ही मनुष्य के रूप में परम प्रभु परमात्मा, हरि कहकर रामचरितमानस में बड़ाई करते हैं। भक्त प्रवर संत सूरदासजी महाराज का अंत समय आ गया था, उस समय श्रीचतुर्भुज दासजी ने कहा- “सूरदासजी! तुमने भगवत यश का वर्णन तो किया; परन्तु आचार्य महाप्रभु का यशगान नहीं किया।” संत सूरदासजी ने कहा- “मैंने तो सारा ही आचार्य महाप्रभु (गुरु) का ही यश गाया है। जो विलग देखता तो देखता विलग करता।” इसके बाद यह पद्य गाया गया- “भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो। श्री वल्लभ नख चन्द्र छटा बिनु सब जग माहिं अँधेरो। साधन और नहीं या कलि में जासों होय निबेरो।”---(हिन्दी कवियों की आलोचना नाम्नी पुस्तक से, लेखक कृष्ण कुमार सिन्हा) अतः संत सूरदासजी ने अंतिम अवस्था में बोले- “परम प्रभु सर्वेश्वर, हरि एवं संत सद्गुरु, गुरु को अलग-अलग मत मानो, बल्कि ये दोनों समान ही हैं, एक ही हैं।।” संत चरणदासजी महाराज की वाणी पढ़ें, उन्होंने कहा-‘गुरु बिन और न जान’ अर्थात् संत सद्गुरु ही सर्वस्व हैं, उन्हीं की अनुकम्पा से सबों का उद्धार संभव है। परम प्रभु परमात्मा साहब से ही संत सद्गुरु हुए हैं, ऐसा कहकर संत गरीबदासजी सराहना करते हैं।। इसी तरह की संत सद्गुरु के लिए बड़ी ही प्रशंसनीय बातें, वाणियाँ सद्ग्रंथों में संतों द्वारा वर्णित है। यह बात मन में मजबूती के साथ खूब अच्छी तरह धारण कर मान लो, समझ लो, याद रख लो। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं- “जो सर्वेश्वर और संत सद्गुरु में अंतर मानेंगे, वे भय में अर्थात् भवसागर (जन्म-मरण) रूपी महादुःख के समुद्र में पड़े रहेंगे।”
भइया गुरु बाबा के महिमा महान बा ,
साखी वेद पुरान बा ना ।।
गुरु ब्रह्मा विष्णु रूप, हइर्ं शिव के सरूप ,
नाहीं इनका से बढ़ल केहू जहान बा ।।
गुरु ज्ञान दीप बारैं, मोह तिमिर निवारैं ,
गुरु भव से पार उतारैं, जिव हलकान बा ।।
जग में गुरु पद रेनु, कल्पतरु कामधेनु ,
बिना सेये नाहीं, केहू के कल्यान बा ।।
हिय हरी रूप जानी, भज गुरु अवढर दानी ,
‘शाही’ इनका छोड़ि दूसर के भगवान बा ।।
भइया = भाई। महिमा = बड़ाई, महत्ता। महान = भारी। साखी = साक्षी। बा = है। सरूप = रूप-सहित। बढ़ल = बड़ा, बढ़कर। जहान = संसार। दीप = प्रदीप। बारैं = जलावैं, प्रज्वलित करैं। तिमिर = अंधकार। निवारैं = निवारण कर दें, हटावें। उतारैं = पार कर दें। भव = संसार। हलकान = परेशानी। पदरेनु = चरणों की धूलि। सेये = सेवा किये। केहू = किसी का। अवढर दानी = अनायास प्रसन्न हो जानेवाला। के = कौन। छोड़ि = छोड़कर।
हे भाई! संत सद्गुरु महाराजजी की बहुत बड़ी बड़ाई है। ये बड़े ही प्रशंसनीय हैं। इनकी महिमा बहुत ही महान् है। इस बात की साक्षी भगवान वेद और पुराण देते हैं। गुरुदेव ब्रह्मा, विष्णु और देवाधिदेव महादेव भगवान शंकरजी की तरह हैं। सारी दुनियाँ में इनसे बढ़कर महान् कोई भी दूसरे नहीं हैं।। गुरु महाराज सद्ज्ञान सदुपदेश, सद्शिक्षा-दीक्षारूपी प्रदीप प्रज्वलित कर समस्त दुःखों की जड़ मोहरूपी अंधकार का निवारण कर देते हैं। संत सद्गुरु महाराज जीव को संसार-समुद्र से पार उतारकर समग्र परेशानी को दूर कर देते हैं।। संसार में गुरु महाराजजी की चरणधूल, रज साक्षात् कल्पवृक्ष और कामधेनु की तरह है, इनके चरणारविन्द की सेवा किये बगैर किन्हीं का भी उद्धार संभव नहीं।।
अरे मन अब भी तो, तू चेत ।
क्या क्या दशा हो चुकी तेरी, फिर भी पड़ा अचेत ।।1।।
झूठे जग में सुख प्रतीत कर, आज नहीं कल की आशा पर । जनम मरण दुख लेत ।।2।।
मेरा मेरी कहते जिसको, नदी नाव संयोग सरिस सो ।
तन धन स्वजन समेत ।।3।।
बीते बहुत समय की सुधिकर, जो प्रभु ने दी थी किरपा करि ।
भव दुख तरने हेत ।।4।।
है लम्बा जीवन आगे का, ‘शाही’ इसे सुखी करने का ।
केवल गुरु संकेत ।।5।।
चेत = सचेत हो जाओ, सतर्क हो जाओ, होश मे आ जाओ। दशा = हालत, स्थिति। अचेत = बेहोश। प्रतीत = विश्वास। आशा = भरोसा। संयोग = मिलन। सरिस = की तरह, जैसा। स्वजन = अपना परिवार, सगे-संबंधी। समेत = सहित। सुधि कर = स्मरण करो, ख्याल करो, याद करो। हेत = के लिए। संकेत = इशारा, निर्देश, सलाह। केवल = सिर्फ, एकमात्र।
मेरे मन! तुम अब भी तो सतर्क हो जाओ, होश में आ जाओ। देखो तो तुम्हारी क्या-क्या हालत हो चुकी है; (अर्थात् तुम चौरासी लाख प्रकार की योनियों में बहुत बार जन्म-मरण का अपार दुःख झेले हो) फिर भी लापरवाह हुए बेहोश पड़े (बैठे) हुए हो।।1।।
इस असत्य असार संसार में सुख पाने का विश्वास कर, आज नहीं तो कल की भरोसा, आशा पर आवागमन (जन्म-मरण) का भारी दुःख पा रहे हो।।2।।
जिस शरीर, सम्पत्ति और अपने सगे-संबंधियों (माँ, पिताजी, भाई, बहन, पुत्र, पुत्री, पौत्रदि) को मेरा-मेरी कहते हो, उनका मिलना तो मानो नदी और नाव के मिलन जैसा है।।3।।
संसार के (जन्म-मरण जैसे अपार) दुःखों से उद्धार पाने के लिए, परम प्रभु सर्वेश्वर की अनुकम्पा से तुम्हें जो बहुत ही सुनहला मौका मिला हुआ था, उस बीते हुए जीवन समय, अवसर, मौके को याद कर, ख्याल करो।।4।।
संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि इस जीवन के बादवाला जो तुम्हारा जीवन है, वो आगे का बड़ा लम्बा अनंतकाल वाला जीवन है, ऐसे अनंतकाल वाले लम्बे जीवन को उज्ज्वल बनाने के लिए, सुखी बनाने के लिए, सार्थक करने के लिए एकमात्र संत गुरुदेवजी का सदुपदेश, आदेश, निर्देश की ही जरूरत है।।5।।
सुनो गुरुदेव जू मेरे, पतित यह दास तेरा है ।
गहा जब से शरण तेरा नहीं औरों को हेरा है ।।
पुकारा जब कभी गुरुवर तुम्हीं को ही पुकारा है ।
गुरु मैं सत्य कहता हूँ, हमारा तूँ ही सहारा है ।।
तुम्हारे ही दया के दान, से मेरा भला होगा ।
लगन को पार यह नैया, गुरु एक आश तेरा है ।।
भरोसे मैं तुम्हारे हूँ, जो चाहो सो करो गुरुवर ।
तुम्हें तजि और ढूँढ़न को, न दिल में मैं विचारा है ।।
गुरु मैं जानता यों हूँ, कि तू सर्वज्ञ समरथ हो ।
पुकारा प्रेम से जिसने, (उसका) हुआ नैया किनारा है ।।
करूँ गुरुदेव मैं विनती, नहीं इसकी मुझे युगती ।
करो पूरन मेरी भक्ती, गुरु ‘शाही’ तुम्हारा है ।।
जू = जी, सरस्वती। पतित = गिरा हुआ, आचारभ्रष्ट, बहुत नीच, अत्यन्त अपावन। दास = भक्त, सेवक, किंकर। गहा = ग्रहण किया, प्राप्त किया। औरों = दूसरों को, अन्यों को। हेरा = निहारा, खोजा, निरखा। पुकारा = फरियाद किया, टेर लगायी, रक्षा या बचाव के लिए आर्त्त स्वर से बुलाया, कष्ट निवारण के लिए प्रार्थना किया। सर्वज्ञ = सब कुछ जाननेवाले। समरथ = सामर्थ्यवान, शक्तिशाली, बलवान, योग्य। युगति = सद्शिक्षा-दीक्षा, भजन-भेद, विधिवत् प्रक्रिया, तरीका, ढंग, युक्ति। पूरण = पूर्ण, सम्पन्न।
हे मेरे गुरुदेव, संत सद्गुरु महाराजजी! मेरी प्रार्थना सुन लेने की कृपा करें। आपका यह दास बहुत ही नीच, अत्यन्त गिरा हुआ है प्रभु। जब से आपकी शरण ग्रहण की है, तब से किसी और दूसरों को पाने की आकांक्षा नहीं की है।। मैंने जब भी टेर लगायी है, बुलाया है, फरियाद की है, तो प्रभु सिर्फ आपकी ही आरजू की है। हे गुरुदेव में सत्य कहता हूँ, मेरा सिर्फ आप ही रक्षक हैं।। आपकी ही दयामय दृष्टि के प्रदान से मेरी भलाई, सद्गति संभव है। मैंने अपनी इस जीवन नैया को संसार-समुद्र के बीच से पार लगाने हेतु हे नाथ एकमात्र आपके ही भरोसे छोड़ दी है।। मैं तो हे गुरु महाराज केवल आपके भरोसे हूँ, अब आपकी जो मर्जी, वही करें। मैंने तो अपने मन में, हृदय में आपके सिवा और दूसरों को ढूँढ़ने का फैसला नहीं लिया है।। यों तो हे गुरुदेव मैं दृढ़ विश्वास के साथ यह जानता हूँ कि आप तो सब कुछ जाननेवाले सर्वशक्ति- सम्पन्न और सर्वसामर्थ्यवान हैं। जिन्होंने भी प्रेम के साथ आपके श्रीचरणों में टेर लगाई है, निश्चित रूप से उनकी जीवन नैया संसार समुद्र के पार लग गयी है।। परन्तु हे मेरे स्वामी गुरुदेव आपके चरणारविन्द में आपको प्रसन्न करने के लिए मैं किस तरीके के साथ प्रार्थना करूँ, वह बिल्कुल नहीं जानता। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि मैं आपकी भक्ति में पारंगत हो पूर्ण हो जाऊँ, ऐसी मुझपर अनुकम्पा की वृष्टि कर दें, यह आपका ही चरणसेवक है प्रभु।।
गुरु मोहि आश बड़ी है तोर ।
तुम बिन और नहीं कोउ मेरा, साँच कहत बन्दीछोर ।।
लियो लगाइ शरण अपने जिमि, तिमिहि निबाहो ओर ।
मेरो गुण अवगुण नहिं चितवो, हौं मैं जो कछु तोर ।।
जानि अजानि शरण कवनिउ विधि, जो आयउँ तो तोर ।
आये शरण चरण के टारहु, कहाँ उचित यह तोर ।।
तुम हो दीनदयाल दयानिधि, करहु दया गुरु मोर ।
बिनु तुव दया पार हो नैया, ‘शाही’ हृदय न ठौर ।।
मोहि = मुझे। तोर = आपका, आपकी। और = अन्य, दूसरा। साँच = सच-सच, सत्य। लियो = लिये। जिमि = जिस भी तरह से। तिमिहि = उसी तरह। निबाहो = निर्वाह करो, निभाओ। ओर = अंत। चितवो = नजर रखो, दृष्टि डालो। हौं = हूँ। तोर = आपका। अजानि = बिना समझे-बूझे। कवनिउ = किसी भी तरह से। टारहु = टालना। दीनदयाल = दरिद्रों के रक्षक, गरीबों के प्रतिपालक। दयानिधि = कृपा के समुद्र, दया के भंडार, खजाना, सागर। तुव = आपका, आपकी। ठौर = जगह, स्थान।
हे मेरे गुरुदेव संत सद्गुरु (प्रातःस्मरणीय अनंत श्रीविभूषित परम पूज्य परमाराध्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज)! मुझे आपसे बहुत बड़ी आशा है। हे संसाररूपी बंधन, कारागार से छुड़ानेवाले, मुक्त करानेवाले! मैं बिल्कुल सच-सच कहता हूँ कि आप के सिवा मेरे और दूसरे कोई नहीं हैं।। जिस भी तरह से मुझे अपनी शरण आप लगा लिये हैं, उसी तरह अंतिम घड़ी तक निभा दें, शरण में लगाये रखें। मेरे गुण या दुर्गुणों पर नजरअंदाज करते हुए, दृष्टि न डालते हुए मैं तो जो कुछ भी हूँ, प्रभु आपका हूँ।। समझ-बूझकर या बिना जाने-समझे जो भी आपकी कृपारूपी छत्रच्छाया में, शरणागति में किसी भी तरह से आ गया, वह तो आपका ही हो जाता है। अब चरण-शरण में आये हुए को हटा देना, यह तो आपके लिए भला कहाँ उचित है अर्थात् आपके लायक शोभनीय बात नहीं है।। हे गुरुदेव! आप तो गरीबों के रक्षक, प्रतिपालक और साक्षात् दया के समुद्र, भंडार ही हैं। हे प्रभु! मेरे ऊपर आप अपनी कृपा कटाक्षभरी दृष्टि डाल दें, दया कर दें। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि आपकी अनुकम्पा के बिना संसार-सागर से उद्धार हो जाय, जीवन नैया संसार-समुद्र से पार हो जाए, ऐसा मेरे हृदय में विश्वास ही नहीं है। अर्थात् आपकी दया के बिना किन्हीं का भी उद्धार हो जाना बिल्कुल संभव नहीं है।।
नहीं था कोई पूछनहार ।
जब से दया भई सतगुरु की, लगे रहत दो चार ।।
थी लाचारी अन्न-वस्त्र अरु, रहने के घर-द्वार ।
अब तो तव प्रसाद सद्गुरु कुछ, पावत दीन सहार ।।
था ऐसा नहीं जगह जहाँ मैं, जा पाता आधार ।
अब तो तव प्रसाद जहँ जाता, मातु-पिता सम प्यार ।।
जग में जो कुछ चाहिय जैसा, सुख सुविधा स्त्रोकार ।
तुम्हरी दया सुलभ भई मोको, हे गुरु परम उदार ।।
अब तो बात रही बाकी जो, जीवन कारज सार ।
वह अपनी अनपायनी भक्ति दे, ‘शाही’ जन्म सुधार ।।
पूछनहार = पूछनेवाला, खोज करनेवाला, लाचारी = कमी। तव = आपका, आपकी। प्रसाद = कृपा, दया, अनुकम्पा। सहार = सहारा, मदद। स्त्रोकार = वास्ते, मतलब भर, आवश्यकतानुसार। मोको = मुझे। कारज सार = सार कार्य, सार काम। अनपायनी = मोक्ष प्रदायिनी, अविरल, अचल। सुधार = सार्थक, सफल।
हे मेरे संत सद्गुरु महाराज मुझे तो कोई भी पूछनेवाला नहीं था। जबसे मुझपर आपकी दया हो गयी, तब से दो-चार लोग हर वक्त लगे रहते। अन्न-कपड़े एवं घर-द्वार की बड़ी कमी, लाचारी थी। अब तो आपकी ऐसी अनुकम्पा हो गयी, जिस तरह दरिद्र आदमी को कोई मजबूत सहारा प्राप्त हो जाए।। ऐसा मेरे पास कोई आधार नहीं था, माध्यम नहीं था कि मैं कहीं जा पाता। अब तो आपकी कृपा से मैं जहाँ भी जाता, वहीं मुझे माँ-पिताजी के प्यार जैसी सुव्यवस्था हो जाती।। संसार में मेरे वास्ते जैसी सुख-सुविधा होनी चाहिए, हे मेरे परम उदार गुरुदेव! आपकी दया से मुझे सब सुलभ हो गयी। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि अब जो जीवन के लिए सार काम है, वही बाकी रह गया है, पड़ा हुआ है। उस सार काम के लिए मुझे अपनी मोक्ष-प्रदायिनी, अविरल, अचल भक्ति प्रदान करके इस जन्म को सुधार दें, सफल बना दें।।
गुरुदेव तेरा जीना, जबतक जहान में हो ।
होकर तुम्हारा जीऊँ, यह दिल वो जान में हो ।।
हरदम रहूँ तुम्हारे, उपदेश के सहारे ।
तुम्हारे गुणों का गायन, हरदम जबान में हो ।।
तुव नाम का निरन्तर, सुमिरन किया करूँ मैं ।
दर्शन तुम्हारा हमको, हर दम धियान में हो ।।
इस आँख से भी देखूँ, दिवि दृष्टि से भी पेखूँ ।
‘शाही’ विशेष दर्शन, आतम गियान में हो ।।
जहान = संसार, दुनिया। जान = प्राण, जीवन। जवान = मुख। निरंतर = हमेशा। धियान = ध्यान। पेखूँ = देखूँ। विशेष दर्शन = आत्मदर्शन, निज की पहचान। गियान = ज्ञान, आत्मज्ञान।
हे मेरे गुरुदेव संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ! मुझे संसार में जबतक जीवित रहना हो, मैं एक मात्र आपका ही होकर जीऊँ, ऐसी बात, ऐसी भावना मेरे हृदय और प्राण में हो।। मैं हर वक्त प्रत्येक साँस में आपके ही उपदेश के सहारे रहूँ। हर वक्त आपके गुणों केा गाता रहूँ। हर क्षण मैं आपके नाम का स्मरण, जप करता रहूँ। आपका दर्शन हमें हर समय ध्यान में होता रहे।। मैं आपको इस आँख से भी तो देखूँ ही, दिव्य दृष्टि से भी देखूँ। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि हे गुरु महाराज! मुझे आपका विशेष रूप से आत्म ज्ञान हो जाए, ऐसी ही कृपा की वर्षा कर दें।।
सतगुरु अब ताकब कहिया ?
अब तो वह भी समय सीस पर, जब छूटी देहिया ।।
बड़ बड़ आश लगाइ दास यह, चरण शरण गहिया ।
पर अफसोस भाग्य का मारा, जहँ का तहँ रहिया ।।
तव उपदेश सफल जीवन तब, ईश दरश लहिया ।
सबका ईश्वर एक मिलन पथ, भी एकहि कहिया ।।
वह अंतर पथ ज्योति शब्द का, ताहि मिलै तहिया ।
‘शाही’ दृढ़ विश्वास हृदय हो, कृपादृष्टि जहिया ।।
ताकब = कृपा दृष्टि डालेंगे, दयाभरी निगाह डालेंगे। कहिया = कब। सीस = मस्तक, शिर। देहिया = शरीर। गहिया = ग्रहण किया। अफसोस = दुखभरी बात, खेद। भाग्य का मारा = दुर्भाग्य, खोटा भाग्य। लहिया = प्राप्त होगा, उपलब्ध होगा। कहिया = कहे। तहिया = तब, जहिया = जब
हे मेरे संत सद्गुरु! अब मेरी ओर कब आपकी कृपा दृष्टि पड़ेगी? चूँकि अब तो वो भी वक्त मेरे माथे पर सवार है, जबकि शरीर ही छूट जाए।। (इस शरीर को संत कबीर साहबजी ‘पानी का सा बुदबुदा।’ कहते हैं अर्थात् यह शरीर क्षणभंगुर है।) आपका यह सेवक आपसे हृदय में बड़ी-बड़ी आशा लिये आपकी चरण-शरण ग्रहण किया है। लेकिन खेद इस बात की है कि मैं भाग्य का मारा हुआ हूँ, मेरा भाग्य फूटा हुआ है, अपनी ओर झाँकता हूँ तो मैं अपने को जहाँ का तहाँ ही पाता हूँ। मेरी तो वैसी ही स्थिति है जैसा कि परम पूज्य परम संत बाबा देवी साहब जी के अपने एक शिष्य से ध्यान के संबंध में पूछने पर पर वे (शिष्य) महोदय बोले, ‘हनोज रोज अव्वल’ (आज भी प्रथम दिन है)। हे मेरे गुरु महाराज! मेरा जीवन तो तभी सफल होगा, जबकि मैं आपके दयामय वरदहस्त के तले, आपके उपदेशों को अक्षरशः हृदयंगम कर सर्वेश्वर का दर्शन प्राप्त कर लूँ।। आपका अमर संदेश है कि ‘सबका ईश्वर एक है, उनसे मिलने का रास्ता भी एक ही है और सबके अंदर है। वह अलौकिक मार्ग अंतर का रास्ता ब्रह्मज्योति और ब्रह्मनाद का है। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि सर्वान्तर्निवासी परम प्रभु सर्वेश्वर की प्राप्ति तो मैं तब मजबूती के साथ विश्वास करूँगा, जबकि आपकी कृपा से अंतःप्रकाश और अंतर्ध्वनि निरख लूँ, परख लूँ।
सुनहू सत्यलोक के वासी सतगुरु मोरी रे ।
विनय करौं कर जोरी रे ना ।।टेक।।
मेरी भवसागर में नैया, नाहीं कोई है खेवइया ।
गुरु हे छाई घटा घनघोर ओर नहिं छोरी रे ।
सूझे कवनिउ ओरी रे ना ।।
चारो दिस की चार बयारी, करती डगमग नाव हमारी ।
ता पर काम क्रोध मद लोभ बैठि झकझोरी रे ।
चाहत भव जल बोरी रे ना ।।
मोहे ग्रसित किया है भारी, पाँचों विषयन की बीमारी ।
तातें निज बल बुधि कुछ काम करै नहिं मोरी रे ।
होती दिन-दिन खोरी रे ना ।।
मैं आया शरण तुम्हारी, तुम तो हो अनाथ दुखहारी ।
‘शाही’ जनम जुआ है जात जगत से हारी रे ।
भावै करो तुम्हारी रे ना ।।
सत्यलोक = अमरलोक, अपरिवर्तनशील स्थान। कर जोरी = हाथ जोड़कर। करौं = करता हूँ। भवसागर = संसार-समुद्र। खेवइया = पार लगानेवाले। कवनिउ = किसी भी। दिस = दिशा। बयारी = हवा। झकझोरी = झकझोर रहा है, जोर से हिला रहा है। बोरी = डुबा देना, सर्वनाश कर देना। मोहे = मुझे। ग्रसित = निगला हुआ, पकड़ा हुआ। खोरी = क्षति की ओर होना, दुषित होना। तातें = जिससे। अनाथ = बेसहारा। दुखहारी = दुःख हरण करनेवाला। भावै = मर्जी। जुआ = बाजी।
अमरधाम, सतधाम में निवास करनेवाले हे मेरे गुरुदेव संत सद्गुरु महाराज! मेरी प्रार्थना सुन लेने की कृपा करें। मैं हाथ जोड़कर विनती करता हूँ।।टेक।। मेरी जीवनरूपी नौका संसार- समुद्र में युगों से पड़ी हुई है। इसकी पतवार सँभालनेवाले, पार लगानेवाले कुशल नाविक कोई नहीं है। हे गुरु महाराज! सामने बड़ा ही जबर्दस्त घनघोर अंधकाररूपी काला-काला बादल छाया हुआ है कि कोई भी ओर-छोर का पता नहीं नहीं चलता।। चारो दिशाओं की बड़ी ही तेज हवा से नैया डगमग-डगमग कर रही है। उसपर काम, क्रोध, मद, लोभ आदि विकार बैठकर झकझोर रहा है, जोरों से हिला रहा है, मानो संसार समुद्र में डुबा देना चाहता है, सर्वनाश ही कर देना चाहता है। मुझे तो पाँचों विषयों (रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द) की भारी बीमारी निगली हुई है, विषयों की भारी बीमारीरूपी मुख में मैं पड़ा हुआ हूँ, जिससे मेरा बल और बुद्धि कुछ भी काम नहीं कर पाती है। दिन-प्रतिदिन और बिगड़ती जा रही है, दूषित होती जा रही है, क्षति की ओर जा रही है। संत सद्गुरु महर्षि शाही स्वामीजी महाराज कहते हैं कि हे गुरु महाराज! आप तो असहायों, दीनों, आश्रयहीन व्यक्ति की विपत्ति को विध्वंश करनेवाले हैं, मैं आपकी शरण में आया हूँ, अब आप अपनी मर्जी से जो चाहें, सो करें। गुरुदेव! मुझे तो लगता है कि आपकी अनुकम्पा बिना यह सुनहला (मानव शरीररूपी) अवसर हाथ से कहीं खो तो नहीं जाएगा, मानो संसार से इस बार की बाजी (जीत) हाथ से निकल रही है। गुरुदेव मेरी इस करारी हार से रक्षा करें, रक्षा करें, रक्षा करें।