अवधपुरी पहुँच रामजी विमान पर से उतरकर सब गुरुजनों, भाइयों, पुरजनों एवं माताओं से मिले। उत्तम समय विचार गुरु वशिष्ठ ने रामजी को सिंहासन पर बिठाकर राजतिलक कर दिया। रामजी नीति के सब अंगों का उत्तमता से पालन करते हुए राज्य करने लगे। और-
जबते राम प्रताप खगेसा ।
उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा ।। 609।।
(कागभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे पक्षिराज गरुड़जी ! जब से राम का प्रताप अत्यन्त प्रबल सूर्य-रूप होकर उग गया।
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका ।
बहुतेन्ह सुख बहुतेन्ह मन सोका ।। 610।।
तबसे प्रकाश तीनों लोकों में भरपूर हो रहा है, जिससे बहुतों को सुख और बहुतों के मन में शोक हुआ है।
जिन्हहिँ सोक ते कहउँ बखानी ।
प्रथम अबिद्या निसा नसानी ।। 611।।
जिन्हें शोक हुआ है, उन्हें वर्णन कर कहता हूँ। पहले तो अज्ञान-रूपी रात्रि नष्ट हो गई।
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने ।
काम क्रोध कैरव सकुचाने ।। 612।।
पाप-रूपी उल्लू पक्षी जहाँ-तहाँ छिप गए। काम और क्रोध-रूपी कुमुद सकुचा गए।
बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ ।
ये चकोर सुख लहहिँ न काऊ ।। 613।।
अनेक प्रकार के कर्म, गुण, काल और स्वभावरूपी चकोर हैं, ये कभी सुख नहीं पाते हैं।
[इस चौ0 का तात्पर्य यह है कि गुण, काल, कर्म और स्वभाव शक्ति-हीन हो गए अर्थात् इनकी प्रबलता न रही। जबतक भेदी भक्त अन्तर में भक्तियोग के सूक्ष्म साधन-द्वारा त्रिकुटी (ओ3म्-पद) तक न पहुँचे, तबतक कर्म, गुण, काल और स्वभाव की प्रबलता घट गई है, ऐसा वह देख नहीं सकता।]
मत्सर मान मोह मद चोरा ।
इन्ह कर हुनर न कवनिहु ओरा ।। 614।।
डाह, प्रतिष्ठा का विचार, अज्ञानता और अहंकार चोर हैं, इनकी कला किसी ओर न रही।
धरम तड़ाग ज्ञान बिज्ञाना ।
ये पंकज बिकसे बिधि नाना ।। 615।।
धर्म-रूपी तालाब में ज्ञान और विज्ञान-रूपी अनेक प्रकार के कमल हैं, ये खिल गए।
सुख सन्तोष बिराग बिबेका ।
बिगत सोक ये कोक अनेका ।। 616।।
सुख, सन्तोष, विराग और विवेक; ये अनेक चकवा पक्षी शोक-रहित हो गए।
दोहा-यह प्रताप रवि जाके, उर जब करइ प्रकास ।
पछिले बाढ़हिँ प्रथम जे, कहे ते पावहिँ नास ।। 91।।
राम-प्रताप-रूपी यह सूर्य जब जिसके हृदय में प्रकाश करता है, तब (उसके हृदय में) पिछले कहे हुए (ज्ञान, विज्ञान, सुख, सन्तोष, विराग और विवेक) बढ़ते हैं और जो पहले कहे गए हैं (अज्ञान, पाप, काम, क्रोध, कर्म, काल, स्वभाव के दोष, मत्सर, मान, मोह और मद), वे नष्ट हो जाते हैं।
[यह राम-प्रतापरूप सूर्य त्रिकुटी महल में विराजित ओ3म् ब्रह्म का स्वरूप है-
पद-‘त्रिकुटी महल में विद्या सारा, घनहर गरजै बजै नगारा ।
लाल बरन सूरज उजियारा, चत्र कँवल मँझार शब्द ओंकारा ।।’
(कबीर साहब)
भक्ति-योग के सच्चे साधकों को अपने हृदय में यह तब दरसता है, जब वे रामचरितमानस में वर्णित नवधा भक्ति की छठी भक्ति का साधन पूर्ण रूप से कर लेते हैं। यह सूर्य हिम-कर युक्त है। इसी (सूर्य) को चौ0 सं0 79 में ‘कृसानु भानु हिमकर’ कहा गया है। चौ0 सं0 611 से 614 तक में वर्णित अज्ञान, पाप, काम और क्रोधादि ताप मनुष्य के हृदय को दग्ध करते हैं; परन्तु साधन में लवलीन भक्त अपने हृदय में त्रिकुटी महल पर चढ़कर ऊपर कथित सूर्य का दर्शन पाते हैं; और इससे ऊपर वर्णित विकारों का ताप उनके हृदय से दूर हो जाता है। फलस्वरूप हृदय शीतल एवं शान्त हो जाता है और इसमें ज्ञान, विज्ञान, सुख, सन्तोष, विराग और विवेक बढ़ जाते हैं। जैसे उल्लू पक्षी को आकाश में उदित सूर्य नहीं दरसता है, उसी तरह छठी भक्ति के साधन से हीन भक्त को वर्णित ‘राम प्रताप प्रबल दिनेस’ अपने अन्तर में नहीं दरसता है। इसलिए उनके हृदय के विकार दूर नहीं होते और न उनमें ज्ञान, विज्ञान, सुख, सन्तोष, विराग और विवेक आते हैं। ‘राम प्रताप प्रबल दिनेस’ के प्रसंग को पढ़कर यह समझ लेना बड़ी भूल होगी कि यह सूर्य त्रेता युग में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के अवधेश रहने के समय में उदित था और अब अस्त हो गया है। वास्तव में यह सूर्य सर्वदा सबके हृदय-रूप आकाश में (बाहरी आकाश में नहीं) उदित है, पर उल्लू पक्षी-रूप अनधिकारी को अपने अन्तर में नहीं दरसता है।
पद (तुलसी साहब की घटरामायण)-‘घूघर अन्धे भेष टेक अभिमान में । सुझै न सबमें ब्रह्म धुन्द अज्ञान में ।। घूघर नेतर खुलैं सुनो सोइ साध है । देखै तन बिच भान सो ब्रह्म अगाध है ।।’ ‘जौं दुपहैर गगन रवि छाई । तासे उजास भया घट माहीं ।’ दोहा सं0 91 में ‘यह प्रताप रवि जाके, उर जब करइ प्रकास’ का अर्थ यह नहीं होता है कि किसी एक ही युग वा युग-भाग में यह सूर्य उगा था, परन्तु यह अर्थ होता है कि यह सूर्य जब जिसके हृदय में प्रकाश करे (अर्थात् योगी भक्त इनके दर्शन का साधन जब करेगा), तब वह अपने अन्तर में इसका दर्शन पावेगा।
यद्यपि चौ0 सं0 609 से दो0 91 तक में जिस प्रसंग का वर्णन है, वह यथार्थ में अन्तरी भेद (योग का रहस्य) है और कागभुशुण्डि ने जैसा अपने अन्तर में दर्शन पाकर फल प्राप्त किया है, उसी का वर्णन किया है, तथापि गो0 तुलसीदासजी ने इसको इस ढंग से लिखा है कि जिनको रामचरितमानस में देखने के लिए योग-चक्षु प्राप्त नहीं है, उनको इसमें योग-रहस्य सूझ नहीं पड़ता। चौ0 सं0 118 और 121 में रामचरितमानस में देखने के लिए योग-चक्षु का वर्णन है। अतएव यह ज्ञान प्राप्त करने के लिए इन दोनों चौपाइयों के अर्थों के सहित कोष्ठ में लिखे वर्णन को पढ़िए। प्रथम सोपान बालकाण्ड में जहाँ ‘रामचरितमानस’ नाम रखकर उसकी महिमा गायी गई है, वहाँ की इस चौपाई ‘नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा ।।’ से प्रकट होता है कि जैसे पोखरे के जल में जब जलचर डूबा हुआ रहता है, वह तब जल के ऊपर-ऊपर नहीं दरसता है, पर जब जाल आदि से यत्न करके पकड़ा जाता है, तब उसका रूप ठीक-ठीक दरसता है। इसी तरह योग-रूप जलचर रामचरितमानस-रूप तड़ाग के कथा-रूप जल में छिपा हुआ है, इसको पकड़ने के लिए भक्ति का विचार, भेद और साधन आदि ही जाल-स्वरूप है। इस जाल से पकड़ जाने पर उस (भक्ति-योग-जलचर) का रूप ठीक-ठीक दरसता है। परन्तु जो इन साधनों से हीन हैं, जिन्होंने यह समझ प्राप्त नहीं की है कि इस मानस में किस आँख से देखना चाहिए और जिन्होंने केवल इतिहास और अल्प शब्दार्थ ही जान पाया है, वे यदि इस प्रकार गुप्त योग-रहस्य को रामचरितमानस में नहीं पकड़ सकें और मेरे इस वर्णन को रामचरितमानस का बाह्य विषय कहें, तो उनकी समझ कहाँ तक ठीक है, उसे विचारवान भेदी जन जान सकते हैं। जानना चाहिए कि गो0 तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस में योग को जलचर बना रखा है और जैसे जलचर जलगर्भ में छिपा रहता है, तड़ाग में ऊपर से केवल जल-ही-जल दीख पड़ता है, उसी तरह रामचरितमानस में योग गुप्त रीति से वर्णित है, पर ऊपर से देखने से वह (रामचरितमानस) केवल कथाओं से भरा मालूम पड़ता है। जलचर को पकड़नेवाले जैसे युक्ति से जलपुंज से उसे पकड़ लेते हैं, उसी तरह विचारवान भेदी जन रामचरितमानस से योग-जलचर को निकाल लेते हैं। जो रामचरितमानस के इस तत्त्व को नहीं समझ सकते हैं, वे यदि सम्पूर्ण रामचरितमानस को कण्ठाग्र भी कर लें, तोभी उन्हें उससे (रामचरितमानस से) होने योग्य सर्वश्रेष्ठ और सार लाभ कदापि नहीं होगा।
अब आगे कथा इस प्रकार चलती है-
एक बार सनकादिक (सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार) रामजी के पास आए। रामजी ने उनको दण्डवत् करके स्वागत किया और आदरपूर्वक आसन पर बिठाकर विनीत भाव से कहने लगे-
बड़े भाग पाइय सतसंगा ।
बिनहिँ प्रयास होइ भवभंगा ।। 617।।
बड़े भाग्य से सत्संग प्राप्त होता है, जिससे बिना परिश्रम के ही संसार (जन्म-मरणादि) छूट जाता है।
दोहा-सन्त संग अपबर्ग कर, कामी भव कर पन्थ ।
कहहिँ सन्त कवि कोबिद, स्त्रुति पुरान सदग्रन्थ ।। 92।।
सन्तों का संग मोक्ष का और कामी पुरुषों का संग संसार का मार्ग है। सन्त, कवि, पण्डित, वेद, पुराण और सद्ग्रन्थ ऐसा कहते हैं।
रामजी के इन वचनों को सुन सनकादिक मुनि पुलकित शरीर से उनकी स्तुति करके विधि-लोक को चले गए । फिर भरतजी ने रामजी से कहा कि हे भाई ! सन्त और असन्त का भेद विलगाकर कहिए। रामजी कहने लगे-
सन्तन्ह के लच्छन सुनु भ्राता ।
अगनित स्त्रुति पुरान बिख्याता ।। 618।।
हे भाई ! सुनो, सन्तों के अगणित लक्षण वेद और पुराणों में प्रसिद्ध हैं।
सन्त असन्तन्ह कै असि करनी ।
जिमि कुठार चन्दन आचरनी ।। 619।।
सन्त और असन्तों की ऐसी करनी है, जैसे चन्दन और कुल्हाड़ी का व्यवहार।
काटइ परसु मलय सुनु भाई ।
निज गुन देइ सुगन्ध बसाई ।। 620।।
हे भाई ! सुनो, कुल्हाड़ी चन्दन को काटती है, पर वह अपने गुण (सुगन्धि) से उसे सुगन्धित कर देता है।
दोहा-तातें सुर सीसन्ह चढ़त, जग बल्लभ श्रीखंड ।
अनल दाहि पीटत घनहिँ, परसु बदन यह दंड ।। 93।।
इसी कारण चन्दन देवताओं के सिर पर चढ़ता है और संसार को प्यारा है। कुल्हाड़ी को यह दण्ड मिलता है कि उसको आग में तपाकर घन पर पीटते हैं।
बिषय अलम्पट सील गुनाकर ।
पर दुख दुख सुख सुख देखे पर ।। 621।।
सन्तजन विषय-लम्पट नहीं होते, वे शील और गुणों की खान, पराए का दुःख देखकर दुःखी और सुख देखकर सुखी होते हैं।
सम अभूत रिपु बिमद बिरागी ।
लोभामरष हरष भय त्यागी ।। 622।।
वे समदर्शी, शत्रु-हीन, अभिमान-रहित और विरक्त होते हैं तथा लोभ, क्रोध, हर्ष और भय के त्यागी होते हैं।
कोमल चित दीनन्ह पर दाया ।
मन बच क्रम मम भगति अमाया ।। 623।।
कोमलचित्त, दीनों पर दया करनेवाले, माया-हीन होकर मन, वचन और कर्म से मेरी भक्ति करनेवाले होते हैं।
सबहिँ मान प्रद आपु अमानी ।
भरत प्रान सम मम तेइ प्रानी ।। 624।।
(वे) सबको मान देनेवाले और स्वयं मान-रहित होते हैं। हे भरत ! वे प्राणी मुझे प्राण के समान प्यारे हैं।
बिगत काम मम नाम परायन ।
सान्ति बिरति बिनती मुदितायन ।। 625।।
कामना-रहित, मेरी भक्ति (नाम-भजन) में लवलीन, शान्ति, वैराग्य, नम्रता और आनन्द के स्थान होते हैं।
सीतलता सरलता मयत्री ।
द्विज पद प्रीति धरम जनयत्री ।। 626।।
शीतलता, सीधापन, मित्रतापूर्ण, द्विजों के चरणों में प्रीति करनेवाले और धर्म को उत्पन्न करनेवाले होते हैं।
ये सब लच्छन बसहिँ जासु उर ।
जानेहु तात सन्त सन्तत फुर ।। 627।।
हे तात ! ये सब लक्षण जिनके हृदय में बसते हैं, उनको सदा सच्चे सन्त समझना ।
सम1 दम2 नियम3 नीति नहिँ डोलहिँ ।
परुष बचन कबहूँ नहिँ बोलहिँ ।। 628।।
वे शम, दम, नियम और नीति से नहीं डगमगाते (हटते) हैं, कठोर वचन कभी नहीं बोलते हैं।
दोहा-निन्दा अस्तुति उभय सम, ममता मम पद कंज ।
ते सज्जन मम प्रान प्रिय, गुन मन्दिर सुख पुंज ।। 94।।
निन्दा और प्रशंसा, दोनों को तुल्य मानते, मेरे चरण-कमल में प्रेम करते हैं, गुणों के घर, सुख की राशि ऐसे सज्जन मुझे प्राण के समान प्यारे हैं।
सुनहु असन्तन्ह केर सुभाऊ ।
भूलेहु संगति करिय न काऊ ।। 629।।
अब दुष्टों के स्वभाव सुनो, उनका संग भूलकर भी नहीं करना चाहिए।
तिन्ह कर संग सदा दुखदाई ।
जिमि कपिलहि घालइ हरहाई ।। 630।।
उनका संग सदा दुःख देनेवाला है, जैसे हराही गाय कपिला (सूधी) को भी बिगाड़ देती है।
खलन्ह हृदय अति ताप बिसेखी ।
जरहिँ सदा पर सम्पति देखी ।। 631।।
दुष्टों के हृदय में बहुत बड़ी जलन होती है, वे दूसरों की सम्पत्ति देखकर सदा जलते हैं।
जहँ कहिँ निन्दा सुनहिँ पराई ।
हरषहिँ मनहुँ परी निधि पाई ।। 632।।
जहाँ-कहीं दूसरों की निन्दा सुनते हैं, वे ऐसे प्रसन्न हो जाते हैं, मानो उन्हें पड़ा हुआ धन का भण्डार मिल गया हो।
काम क्रोध मद लोभ परायन ।
निर्दय कपटी कुटिल मलायन ।। 633।।
काम, क्रोध, अहंकार और लोभ में तत्पर, निष्ठुर, कपटी, टेढ़े और पाप के घर होते हैं।
बयर अकारन सब काहू सोँ ।
जो कर हित अनहित ताहू सोँ ।। 634।।
सब किसी से अकारण वैर करते हैं, जो उनकी भलाई करता है, वे (दुष्ट) उसकी भी बुराई करते हैं।
झूठइ लेना झूठइ देना ।
झूठइ भोजन झूठ चबेना ।। 635।।
(उनका) झूठ ही लेना, झूठ ही देना, झूठ ही भोजन और झूठ ही चबेना होता है (अर्थात् उसका प्रत्येक काम झुठाई से भरा रहता है)।
बोलहिँ मधुर बचन जिमि मोरा ।
खाहिँ महा अहि हृदय कठोरा ।। 636।।
जैसे मयूर मीठी बोली बोलता है और महा (विषैले) सर्प को खा जाता है, इसी तरह वे (दुष्ट लोग) मीठी बोली बोलते हैं; पर उनका हृदय कठोर है।
दोहा-पर द्रोही पर दार रत, पर धन पर अपबाद ।
ते नर पाँवर पापमय, देह धरे मनुजाद ।। 95।।
वे पराए से डाह करनेवाले, परायी स्त्री में रत रहनेवाले, दूसरों का धन हरनेवाले और पराये की निन्दा करनेवाले होते हैं। ऐसे मनुष्य अधम, पाप के रूप, देह धारण किये हुए राक्षस हैं।
लोभइ ओढ़न लोभइ डासन ।
सिस्नोदर पर जम पुर त्रास न ।। 637।।
(उनका) लोभ ही ओढ़ना और लोभ ही बिछौना है। लिंगेन्द्रिय और पेट के विषय में लगे हुए उनको यमपुर का डर नहीं होता।
काहू की जौं सुनहिँ बड़ाई ।
स्वास लेहिँ जनु जूड़ी आई ।। 638।।
जब किसी की बड़ाई सुनते हैं, तो साँस लेते हैं, मानो जड़ैया ज्वर आ गया हो।
जब काहू की देखिहिँ बिपती ।
सुखी भये मानहु जग नृपती ।। 639।।
जब किसी की विपत्ति देखते हैं, तो ऐसे प्रसन्न होते हैं, मानो जगत के राजा हो गए।
स्वारथ रत परिवार बिरोधी ।
लम्पट काम लोभ अति क्रोधी ।। 640।।
स्वार्थ में रत, परिवार के विरोधी, व्यभिचारी, कामी, लोभी और अत्यन्त क्रोधी होते हैं।
मातु पिता गुरु बिप्र न मानहिँ ।
आपु गये अरु घालहिँ आनहिँ ।। 641।।
माता, पिता, गुरु और ब्राह्मण को नहीं मानते, आप तो गए-बीते हैं ही और दूसरों का भी सत्यानाश करते हैं।
करहिँ मोह बस द्रोह परावा ।
सन्तसंग हरि कथा न भावा ।। 642।।
अज्ञान-वश दूसरों से द्रोह करते, उनको सन्तों का संग और हरि-कथा नहीं सुहाती।
अवगुन सिन्धु मन्द मति कामी ।
बेद बिदूषक पर धन स्वामी ।। 643।।
अवगुणों के समुद्र, मन्दबुद्धि, कामी, वेद की निन्दा करनेवाले और दूसरों का धन हरण करनेवाले होते हैं।
बिप्र द्रोह सुर द्रोह बिसेषा ।
दम्भ कपट जिय धरे सुबेषा ।। 644।।
ब्राह्मणों से द्रोह, देवताओं से विशेष द्रोह करते, अन्तर में पाखण्ड और कपट रखे हुए, किन्तु वेश सुन्दर बनाये रखते हैं।
दोहा-ऐसे अधम मनुज खल, कृत युग त्रेता नाहिँ ।
द्वापर कछुक वृन्द बहु, होइहहिँ कलियुग माहिँ ।। 93।।
ऐसे अधम दुष्ट मनुष्य सत्ययुग और त्रेतायुग में नहीं होते, द्वापर में अल्प, किन्तु कलियुग में झुण्ड-के-झुण्ड होंगे।
पर हित सरिस धर्म नहिँ भाई ।
पर पीड़ा सम नहिँ अधमाई ।। 645।।
हे भाई ! पराये का हित करने के समान धर्म नहीं और पराए को पीड़ा देने के समान पाप नहीं।
निरनय सकल पुरान बेद कर ।
कहेउँ तात जानहिँ कोबिद नर ।। 646।।
हे भाई ! मैंने सब वेदों और पुराणों का निर्णय कहा, इसे पण्डित लोग जानते हैं।
नर सरीर धरि जे पर पीरा ।
करहिँ ते सहहिँ महा भव भीरा ।। 647।।
जो मनुष्य का शरीर धारण करके दूसरों को पीड़ित करते हैं, वे संसार का बड़ा बोझ (दुःख) सहते हैं।
करहिं मोह बस नर अघ नाना ।
स्वारथ रत परलोक नसाना ।। 648।।
मनुष्य अज्ञान-वश अनेक प्रकार के पाप करते हैं और स्वार्थ में लगे रहकर परलोक का नाश करते हैं।
काल रूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता ।
सुभ अरु असुभ करम फल दाता ।। 649।।
हे भाई ! मैं उनके लिए काल-रूप होकर शुभ और अशुभ कर्मों के फल देता हूँ।
अस बिचार जे परम सयाने ।
भजहिँ मोहि संसृत दुख जाने ।। 650।।
ऐसा विचार, संसार के (जन्म-मरण) दुःखों को जानकर वे मुझे भजते हैं, जो बड़े चतुर हैं।
त्यागहिँ करम सुभासुभ दायक ।
भजहिँ मोहि सुर नर मुनि नायक ।। 651।।
(इसी से वे) देवता, मनुष्य और मुनिराज शुभ और अशुभ फलों को देनेवाले कर्मों को छोड़कर मुझको भजते हैं।
सन्त असंतन्ह के गुण भाखे ।
ते न परहिँ भव जिन्ह लखि राखे ।। 652।।
मैंने सन्तों और असन्तों के गुण कहे, जिन्होंने इसे जान रखा है, वे संसार में नहीं पड़ते हैं।
दोहा-सुनहु तात मायाकृत, गुन अरु दोष अनेक ।
गुन यह उभय न देखियहि, देखिय सो अबिबेक ।। 97।।
हे भाई ! सुनो, माया-रचित गुण और दोष अनगिनत हैं। गुण (भली बात) तो यह है कि दो न देखना चाहिए, देख पड़ता है (दो देख पड़ता है), सो अविचार है।
[दो देखना = द्वैत बुद्धि रखनी = ‘सियाराम मय सब जग जानी’ के विरुद्ध बुद्धि रखनी।]
रामजी के वचन सुनकर सब भाई बड़े आनन्दित हुए। नारदजी बारम्बार रामजी के पास आते और उनका नित्य नवीन चरित्र देख ब्रह्मलोक चले जाते। ब्रह्माजी उनके मुख से रामजी का गुण-कीर्त्तन सुनकर बहुत सुखी होते और उनसे बारम्बार गुण-गान करने को कहते थे। और-
दोहा-जीवन मुक्त ब्रह्म पर, चरित सुनहिँ तजि ध्यान ।
जे हरि कथा न करहिँ रति, तिन्ह के हिय पाषान ।। 98।।
ब्रह्म-पद के आगे तक पहुँचे हुए जीते-जी मोक्ष प्राप्त किये हुए (महापुरुष सन्त) भी समाधि छोड़कर चरित्रें (सत्संग के वचनों) को सुनते हैं। जो हरि-कथा में प्रेम नहीं करते, उनका हृदय पत्थर है।
[चौ0 सं0 77 और 78 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में लिखित विचारों को ध्यान से पढ़ने पर ‘ब्रह्मपर’ = ब्रह्म के आगे वा ‘परे’ पद का खुलासा हो जायगा।]
एक बार रामजी ने अपनी सभा में गुरु, ब्राह्मणों और पुरवासियों को बुलाया और आदर से बिठाकर नम्र भाव से कहने लगे-
बड़े भाग मानुष तन पावा ।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा ।। 653।।
बड़े भाग्य से मनुष्य का शरीर मिलता है, सब ग्रथों ने कहा है कि यह देवताओं को दुर्लभ है।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा ।
पाइ न जेहि परलोक सँवारा ।। 654।।
(यह शरीर) साधनों का घर और मोक्ष का द्वार है; इसे पाकर जिसने परलोक (मुक्ति) को नहीं सुधारा,
[यहाँ परलोक स्वर्ग को नहीं कहा गया है। क्योंकि चौ0 सं0 655 में स्वर्ग को ओछा और दुःखदायी बतलाया गया है। इसलिए यहाँ परलोक से मोक्ष ही समझना चाहिए। और भी-स्वर्ग में देव-शरीर की प्राप्ति होती है और नर-देह सुर-दुर्लभ कही गई है। इस कारण मनुष्य-देही यदि देव-देह के लिए यत्न करे, तो कहा जाएगा कि वह क्षति की ओर जा रहा है।]
‘नर तन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहत पुकार ।।
सब कोइ कहत पुकार, देव देही नहिं पावैं ।
ऐसे मूरख लोग, स्वर्ग की आस लगावैं ।।
पुन्य छीन सोइ देव, स्वर्ग से नर्क में आवैं ।
भरमें चारो खान, पुन्य कहि ताहि रिझावैं ।।
तुलसी सत मत तत गहे, स्वर्ग पर करे खखार ।
नर तन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहत पुकार ।।’
(तुलसी साहब, हाथरसवाले)
दोहा-सो परत्र दुख पावइ, सिर धुनि धुनि पछताइ ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि, मिथ्या दोष लगाइ ।। 99।।
वह परलोक में दुःख पाता है, सिर धुन-धुनकर पछताता है और काल, कर्म तथा ईश्वर को झूठ ही दोष लगाता है।
एहि तन कर फल विषय न भाई ।
स्वरगउ स्वल्प अन्त दुखदाई ।। 655।।
हे भाई ! इस शरीर का फल विषय (रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द का भोगना) नहीं है, स्वर्ग (यदि प्राप्त कर सके तो वह) भी थोड़ा (ओछा) और अन्त में दुःख देनेवाला है।
नर तनु पाइ बिषय मन देहीँ ।
पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीँ ।। 656।।
जो मनुष्य का शरीर पाकर विषय में मन लगाते हैं, वे मूर्ख अमृत से बदलकर विष लेते हैं।
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई ।
गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई ।। 657।।
उसे कभी कोई अच्छा नहीं कहता, जो पारसमणि खोकर करजनी (घुँघची) लेता है।
आकर चारि लच्छ चौरासी ।
जोनी भ्रमत यह जीव अबिनासी ।। 658।।
फिरत सदा माया कर प्रेरा ।
काल कर्म सुभाव गुन घेरा ।। 659।।
चार खानियों (अण्डज, पिण्डज, ऊष्मज और अंकुरज) में चौरासी लाख योनियाँ हैं। यह अविनाशी जीव उनमें माया की प्रेरणा से काल, कर्म, स्वभाव और गुण के घेरे में रहकर सदा भटकता फिरता है।
कबहुँक करि करुना नर देही ।
देत ईस बिनु हेतु सनेही ।। 660।।
अकारण ही स्नेह करनेवाले ईश्वर कभी दया करके (जीव को) मनुष्य का शरीर देता है।
[चौ0 सं0 658, 659 और 660 से प्रकट होता है कि जीव चार खानि, चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते-करते अन्त में मनुष्य-शरीर पाता है। ऐसे वर्णन से गो0 तुलसीदासजी का इशारा जानना चाहिए कि जीव नीचे की श्रेणियों से उन्नति करता हुआ आकर सर्वोत्तम, देव-शरीर से भी उत्तम मनुष्य-शरीर को पाता है। इसी ख्याल को उत्क्रान्ति-तत्त्व वा स्वर्गीय लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के ख्याल में गुणविकास या गुणोत्कर्ष तत्त्व [Evolution Theory] , कह सकेंगे। यदि कहा जाय कि Evolution Theory में ईश्वर-कृपा से नहीं, केवल स्वभाव की ही प्रेरणा से उन्नति मानी गई और गो0 तुलसीदासजी मनुष्य-देह-प्राप्ति-रूप उन्नति का हेतु ईश्वर की कृपा मानते हैं, इसलिए Evolution Theory और तुलसीदासजी के इस विचार में बड़ा अन्तर है, तो जानना चाहिए कि गो0 तुलसीदासजी सरीखे परम आस्तिक, निस्सीम प्रेमी भक्त को यह कभी विश्वास नहीं हो सकता कि ईश्वर की कृपा के बिना भी कोई उन्नति हो सकती है। यदि एक भक्त कहता है कि [Nature], स्वभाव-प्रकृति में जो उत्तरोत्तर उन्नति कराने की शक्ति है, वह ईश्वर की कृपा ही है और इसी ईश्वर-कृपा को [Nature], स्वभाव-रूप जानकर Evolution Theory का सिद्धान्त निकालनेवाले ने ईश्वर-कृपा-रहित, केवल स्वभाव से ही उन्नति होना मान रखा है, तो इस बात में कोई फर्क नहीं आता कि दोनों ख्याल में उन्नति का होना (नीचे से ऊँचे की ओर दरजे-ब-दरजे, उत्तरोत्तर) माना गया है और इसी ख्याल को Evolution Theory वा ‘गुण विकास तत्त्व’ कह सकेंगे। यदि एक ख्याल ने इस तत्त्व को ‘ईश्वर-कृपा’ कहकर जाना और दूसरे ने केवल Nature वा स्वभाव कहकर, तो क्या क्षति, जाना तो दोनों ने एक ही तत्त्व को।]
नर तन भव बारिधि कहँ बेरो ।
सनमुख मरुत अनुग्रह मेरो ।। 661।।
मनुष्य का शरीर संसार-रूपी समुद्र पार करने के लिए नाव है और मेरी कृपाऽ अनुकूल वायु है।
करनधार सदगुर दृढ़ नावा ।
दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ।। 662।।
इस दृढ़ नाव के मल्लाह सद्गुरु हैं, ऐसा दुर्लभ साज मनुष्य को सहज ही में प्राप्त है।
दोहा-जो न तरइ भव सागर, नर समाज अस पाइ ।
सो कृत निन्दक मन्द मति, आतम हन गति जाइ ।। 100।।
जो मनुष्य (भवसागर पार होने के) ऐसे साज-सामानों को पाकर भव-सागर पार नहीं होता है, वह कृतघ्न, नीचबुद्धि, आत्महिंसक की गति में जाता है।
[भव-सागर तरने के साज का समाज-मनुष्य शरीर-रूप नाव, ईश्वर-कृपारूप अनुकूल वायु और सद्गुरु रूप मल्लाह है।]
जौं परलोक इहाँ सुख चहहू ।
सुनि मम बचन हृदय दृढ़ गहहू ।। 663।।
यदि परलोक और इस लोक में सुख चाहते हो तो मेरे वचनों को सुन उसे हृदय में दृढ़ता से ग्रहण करो।
सुलभ सुखद मारग यह भाई ।
भगति मोरि पुरान स्त्रुति गाई ।। 664।।
हे भाई ! यह रास्ता सहज और सुखदायक है, यह मेरी भक्ति है, जिसको पुराणों और वेदों ने गाया है।
ज्ञान अगम प्रत्यूह अनेका ।
साधन कठिन न मन कहँ टेका ।। 665।।
ज्ञान दुर्बोध है, उसके साधन में अनेक विघ्न और कठिनाइयाँ हैं और उसमें मन को अवलम्ब नहीं मिलता।
करत कष्ट बहु पावै कोऊ ।
भगति हीन मोहि प्रिय नहिँ सोऊ ।। 666।।
बहुत कष्ट करते-करते यदि कोई इसको (ज्ञान को) पा भी जाय, तो वह (पानेवाला ज्ञानी) भक्ति के बिना मुझे प्रिय नहीं है।
भगति सुतंत्र सकल सुख खानी ।
बिनु सत्संग न पावहिँ प्रानी ।। 667।।
भक्ति स्वतन्त्र और सब सुखों की खान है, बिना सत्संग के प्राणी (मनुष्य) उसे नहीं पाते।
पुन्य पुंज बिनु मिलहिँ न सन्ता ।
सतसंगति संसृति कर अन्ता ।। 668।।
पुण्य-राशि के बिना सन्त नहीं मिलते और सत्संगति ही जन्म-मरण के दुःखों को नाश करनेवाली है।
पुन्य एक जग महँ नहिं दूजा ।
मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा ।। 669।।
इस एक पुण्य के समान संसार में दूसरा पुण्य नहीं है कि मन, वचन और कर्म से ब्राह्मणों के चरणों की सेवा करनी।
[ब्राह्मणों के सम्बन्ध में चौ0 सं0 447 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में लिखे विचारों को पढ़िए। ब्राह्मणों की पूजा सबसे श्रेष्ठ पुण्य है, ऐसे पुण्यों के फल से अर्थात् ब्राह्मणों की पूजा एवं अन्य प्रकार के पुण्यों के पुंज होने से सन्त का दर्शन-लाभ होता है। इससे प्रकट होता है कि सच्चे ब्राह्मण की महिमा से सन्त की महिमा कहीं अधिक है। परन्तु गो0 तुलसीदास ने इस विचार को ऐसे ढंग से वर्णित किया है कि ब्राह्मण देव के हृदय में यह बात काँटे की तरह चुभे नहीं, पर सन्त की महिमा छिपी हुई भी न रहे।]
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा ।
जो तजि कपट करइ द्विज सेवा ।। 670।।
मुनि और देवता उस पर प्रसन्न रहते हैं, जो कपट छोड़कर ब्राह्मणों की सेवा करता है।
दोहा-औरउ एक गुपुत मत, सबहि कहउँ कर जोरि ।
संकर भजन बिना नर, भगति न पावइ मोरि ।। 101।।
मैं सबको और भी एक गुप्त विचार कहता हूँ। (वह यह है कि) किरणों (चैतन्य वृत्तियों-सुरत की धारों) को जोड़कर (एकत्र करके) कल्याण करनेवाला भजन किए बिना (कोई) मेरी भक्ति नहीं पाता है।
[कर = किरण । किरण प्रकाश-रूप होनी चाहिए। शरीर में चैतन्य वृत्ति वा सुरत की धार ज्ञानमयी तथा प्रकाशमयी है, अतएव इसी वृत्ति वा धार को किरण मानना चाहिए। गुप्त भेद के द्वारा अभ्यास करके जो कोई चैतन्य वृत्तियों को अन्तर में अति अल्प काल भी जोड़ सकता वा एकत्र कर सकता है वा दूसरे शब्दों में चित्त का निरोध कर सकता है, उसे प्रत्यक्ष ज्ञात हो जाता है कि जितनी देर उसको यह भजन ठीक बना; उतनी देर उसे अत्यन्त कल्याण वा चैतन्य प्राप्त हुआ और उसका हृदय ईश्वरीय प्रेम और भक्ति से भरा रहा। जानना चाहिए कि चौदहो इन्द्रियों के विषयों में भटकता हुआ चित्तवाला चित्तवृत्ति का निरोध नहीं कर सकता और फलस्वरूप कल्याण वा चैन कभी नहीं पा सकता। किन्तु जब सब विषयों से छूटेगा तो सहज ही निर्मलतापूर्वक सर्वेश्वर की ओर हो जाएगा अर्थात् वह सर्वेश्वर का प्रेम और भक्ति पा लेगा। इसलिए जो सत्संगी गुरु-भेद और विचार के बल से नित्य-प्रति सच्चाई से भजन अभ्यास करते-करते कभी किरणों को ठीक जोड़ सकेगा, तो अवश्य ही वह कल्याण और ईश्वर की भक्ति पा जाएगा। किरणों को जोड़कर भजन करने की विधि चौ0 सं0 5, 292, 293 और 294 में उनके अर्थों और उनके नीचे कोष्ठों में लिखी है। यह भजन अत्यन्त गुप्त है, इसमें शक नहीं। इसको छोड़ दूसरा प्रकार समझने से वह गुप्त मत का भजन कदापि नहीं ठहरेगा।]
कहहु भगति पथ कवन प्रयासा ।
जोग न मख जप तप उपवासा ।। 671।।
कहिए भक्ति-मार्ग में कौन परिश्रम है ? इसमें न तो योग, न यज्ञ, न जप, न तप और न उपवास करना पड़ता है।
[चौ0 सं0 671 में जो कहा गया है कि भक्ति-मार्ग में योग और जप-तप करने नहीं हैं, वह केवल भक्ति-मार्ग में चित्त को अत्यन्त आकर्षित करने के लिए है। कवि का यह वर्णन केवल रोचकता रखता है, यथार्थता नहीं। चौ0 सं0 5, 79, 92 से 96 तक, 270, 290 से 294 तक, 457 से 459 तक, 494 और 499 को उनके अर्थों के सहित उनके नीचे कोष्ठों में वर्णित विचारों को खूब समझकर पढ़िए, तो विदित हो जाएगा कि भक्ति-मार्ग में जप और योग अवश्य हैं और भक्त अर्थात् सन्तजन अवश्य ही योगी होते हैं। फिर भी-
‘रघुपति भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार जानै सोइ जेहि बनि आई ।।
जो जेहि कला कुशल ता कहँ सो सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सन्मुख जल प्रवाह सुरसरि बहइ गज भारी ।।
ज्यों सर्करा मिलइ सिकता महँ बल ते नहीं विलगावै ।
अति रसज्ञ सूछम पिपीलका बिनु प्रयास ही पावै ।।
सकल दृस्य निज उदर मेलि सोवइ निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरि पद अनुभवइ परम सुख अतिसय द्वैत वियोगी ।।
सोक मोह भय हरष दिवस निसि देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा हीन संसय निर्मूल न जाहीं।।’
(गो0 तुलसीदासजी की विनय-पत्रिका)
इस पद को पढ़िए, अच्छी तरह समझ में आ जाएगा कि भक्ति-मार्ग में जप और योग अवश्य हैं। हाँ, यह भले ही कह सकते हैं कि जिस जप और योग से (जैसे केवल हठयोग से) सर्वेश्वर की भक्ति नहीं होती है, वह जप-योग भक्ति-मार्ग में नहीं है।]
सरल सुभाव न मन कुटिलाई ।
जथा लाभ सन्तोष सदाई ।। 672।।
(भक्ति-मार्ग में) सीधा स्वभाव, कुटिल-रहित मन और सहज में जो कुछ लाभ हो, उसी में सदा सन्तोष रखे।
मोर दास कहाइ नर आसा ।
करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा ।। 673।।
जो मेरा दास कहलाकर नर (राजा, धनी आदि) की आशा रखे, तो कहिए उसे मेरा विश्वास कहाँ रहा ?
बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई ।
एहि आचरण बस्य मैं भाई ।। 674।।
हे भाई ! बहुत कथा बढ़ाकर क्या कहूँ, इसी आचरण से मैं वश में हो जाता हूँ ।
बयर न बिग्रह आस न त्रासा ।
सुखमय ताहि सदा सब आसा ।। 675।।
जिसको किसी से वैर और झगड़ा नहीं है और न आशा और डर ही है, उसके लिए सब दिशाएँ सुखमय हैं।
अनारम्भ अनिकेत अमानी ।
अनघ अरोष दक्ष बिज्ञानी ।। 676।।
(भक्त) जान-बूझकर किसी उद्यम की चेष्टा न करनेवाले, बिना घर अर्थात् किसी स्थान की ममता नहीं रखनेवाले, मान-रहित, निष्पाप, क्रोधहीन, चतुर और विज्ञानी अर्थात् अनुभव-युक्त होते हैं।
[विज्ञानी = ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय की त्रिपुटी के परे अर्थात् व्याप्य-व्यापक भेद-रहित। जैसे नींद में सोया हुआ मनुष्य श्वास-प्रश्वास कर्म करता हुआ भी उस कर्म का जान-बूझकर करनेवाले अपने को नहीं जानता, इसी तरह परम ज्ञान-प्राप्त विज्ञानी भक्त भी तुरीयातीतावस्था को प्राप्त किए जगत-हित सब कर्त्तव्यों को करते हुए भी, गृह-परिवार में रहते हुए भी अनारम्भ और अनिकेत होते हैं। पर तुरीयातीत अवस्था अथवा विज्ञान-पद प्राप्त हुए बिना मनुष्य को यह ठीक समझ में नहीं आ सकता है।]
प्रीति सदा सज्जन संसर्गा ।
तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा ।। 677।।
वे सदा सज्जनों के संग में प्रीति रखते, स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) के विषय को घास-फूस के समान जानते हैं।
[स्वर्ग को तुच्छ इसलिए कहा गया है कि वह अन्त में दुःखदाई है। देखो चौ0 सं0 655। भक्तों के लिए मोक्ष भी तुच्छ है; क्योंकि वह मोक्ष देनेवाले परम प्रभु सर्वेश्वर को ही अपना लेते हैं।
इसीलिए ‘घटरामायण’ में लिखा है कि-
‘मुक्ति कहूँ निरबार, सन्त चरन लागी फिरै ।
फिरै सन्त की लार, करै सन्त निरबार जेहि ।।’
भक्त मोक्ष को सर्वेश्वर से तुच्छ जानकर उसका आदर नहीं करते और सर्वेश्वर में लवलीन रहते हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भक्ति-मार्गी को मोक्ष नहीं मिलता है, वह तो अवश्य ही मिलता है।
भक्ति-मार्ग के सब अंगों में पूर्ण शवरी के विषय में रामचरितमानस में पूर्व ही वर्णन हो चुका है कि वह ‘हरि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरै ।’ और आगे चलकर सप्तम सोपान-उत्तरकाण्ड में ऐसा भी लिखा है कि-‘जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई । कोटि भाँति कोउ करै उपाई ।। तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई । रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ।।’]
भगति पच्छ हठ नहीँ सठताई ।
दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई ।। 678।।
(भक्ति-मार्गी को) भक्ति-पक्ष में हठ रहता है, पर दुष्टता नहीं और इसमें बुरे तर्कों को दूर भगा दिया जाता है।
दोहा-मम गुन ग्राम नाम रत, गत ममता मद मोह ।
ताकर सुख सोइ जानइ, परानन्द सन्दोह ।। 102।।
भक्तजन मेरे गुण-समूह और नाम में मद, ममता और मोह छोड़कर लगे रहते हैं। इस प्रकार से रहने के परम आनन्द समूह-सुख को वे ही जानते हैं।
[चौ0 सं0 671 में कहा गया है कि भक्ति-मार्ग में योग-जप नहीं है। और चौ0 सं0 672 से दोहा सं0 102 तक में वर्णन है कि भक्ति-मार्गी को सरल स्वभाववाला, यथालाभ में सन्तोष रखनेवाला, अन्य सब आशाओं को छोड़ केवल सर्वेश्वर की आशा रखनेवाला, अनारम्भ, अनिकेत, अमानी, अनघ, अरोष, दक्ष, विज्ञानी, सज्जन-संसर्ग में सदा प्रीति करनेवाला, स्वर्ग और अपवर्ग को तृणवत् जाननेवाला, एक भक्ति-पक्ष में रहनेवाला, दुष्टतर्की नहीं, सर्वेश्वर के गुणग्राम और नाम में रत, ममता, मद और मोह से रहित और परानन्द-सन्दोह-सुख का भोगी होना चाहिए। अब विचारवान मनुष्य समझें कि उपर्युक्त गुण-धारी व्यक्ति का चित्त कितना सुधरा व सधा हुआ, विषयों से किस प्रकार निर्लिप्त और उनसे खिंचा हुआ है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि उसने चित्त-वृत्ति का एकदम निरोध कर लिया है वा वह पूर्ण योगी है। इस अवस्था में पहुँचने के लिए उस सुधरे हुए पुरुष-पूर्ण योगी ने कुछ साधन और प्रयास न किया हो, यह असम्भव है। यदि कहा जाए कि ऐसा बनने के लिए दो0 सं0 102 में साधन का वर्णन है कि सर्वेश्वर के गुण-ग्राम और नाम में रत रहना, तो यह बात कुछ अनुचित नहीं है। पर प्रथम तो यह देखा जाता है कि जो केवल बाहरी तौर पर गुण-ग्राम और नाम में रत रहना चाहते हैं, वे गुण गाने तथा सुनने का, शरीर को खूब उछला-उछलाकर नाचने का, साजों के साथ उच्च स्वर में नाम-संकीर्त्तन कर विरल प्रेम की मस्ती में (विशेषतः केवल संग-सोहर भेड़िया धँसान में) नाच-नाचकर शरीर थकाने का, माला के साथ वा बिना माला के अंगुलियों पर गिन-गिन कर वा बिना गिनतियों के जप और रटन का प्रयास करते हैं और भरोसा रखते हैं कि इसी प्रकार अभ्यास करते-करते प्रेम खूब बढ़ जाएगा और चित्त-निरोध होकर प्रभु-पद में लग जाएगा और समाधि लग जाएगी। यदि मान लिया जाय कि उत्तर देनेवाले का यह विचार सत्य है, तो साथ ही यह भी अवश्य मानना पड़ा कि इस तरह भक्ति-मार्ग में चलने में जप और योग; दोनों (अवश्य) हो गए। क्योंकि चित्त के निरोध को ही योग कहते हैं। फिर कौन विचारवान कह सकेगा कि ऐसा करने में प्रयास कुछ नहीं होगा ? दूसरी बात यह कि जबतक सुरत विन्दु पर न सिमटेगी, तबतक पिण्ड में पूर्ण सिमटाव वा चित्त-वृत्ति का पूर्ण निरोध होना असम्भव है।
इस विषय का वर्णन और एक विन्दु पर सुरत के सिमटाव का साधन चौ0 सं0 5, 292, 293, 294 और 458 को और उसके अर्थों के सहित उनके नीचे कोष्ठों के लेखों को विचार से पढ़कर जानिये। तीसरी बात यह कि केवल वर्णात्मक नाम के संकीर्त्तन वा रटन को रामचरितमानस के अनुसार नाम में रत रहना नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि रामचरितमानस से नाम के दो रूप-वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक जानने में आते हैं। (देखिए चौ0 सं0 79, 80 और 85 के अर्थों और कोष्ठों के वर्णनों को) इसलिए जबतक ध्वन्यात्मक नाम में भक्त की चैतन्य वृत्ति वा सुरत लीन नहीं होगी, तबतक यह नहीं कहा जा सकेगा कि वह नाम में रत है। फिर ध्वन्यात्मक नाम में रत होना सुरत-शब्द-योग-अभ्यास के बिना कदापि नहीं हो सकता है। इसलिए भक्ति-मार्ग में जप, योग आदि करने का प्रयास कुछ नहीं है, ऐसा वर्णन केवल रोचकता बढ़ाने भर के लिए ही है। अतएव भोलेपन से यह समझकर कि भक्ति-मार्ग में जप-योग का प्रयास नहीं है, जप-योग का निरादर करना निरी मूर्खता है। हाँ, यह बात अवश्य है कि भक्ति-मार्ग में रामचरितमानस के अनुसार वर्णित नवधा भक्ति के साधन-स्वरूप योग-अभ्यास के अतिरिक्त दूसरे योग की आवश्यकता नहीं है और न उस प्रयास के अतिरिक्त दूसरे प्रयास की आवश्यकता है, जो नवधा भक्ति-रूपी योग करने में होता है।]
श्रीरामजी ने इतना कह अपना वक्तव्य समाप्त कर दिया। प्रजाजन अत्यन्त आनन्दित हो उनकी वन्दना और स्तुति करके अपने-अपने घर को चले गए। एक बार गुरु वशिष्ठजी रामजी के महल में पधारे। रामजी ने बड़े आदर से उनका चरण पखार चरणोदक लिया। फिर वशिष्ठजी बोले कि हे राम ! मेरी एक विनती सुनिए-
उपरोहिती कर्म अति मन्दा ।
बेद पुरान स्मृति कर निन्दा ।। 679।।
उपरोहिती का काम बहुत नीच है। वेद, पुराण और स्मृति इसकी निन्दा करती है।
जब न लेउँ मैं तब बिधि मोही ।
कहा लाभ आगे सुत तोही ।। 680।।
जब मैं इस काम को ग्रहण नहीं करता था, तब ब्रह्माजी ने कहा-हे पुत्र ! आगे तुमको इसमें लाभ होगा।
परमातमा ब्रह्म नर रूपा ।
होइहि रघुकुल भूषण भूपा ।। 681।।
सर्वव्यापी परमात्मा मनुष्य-रूप में रघुकुल-भूषण राजा होंगे।
[यहाँ पर परमात्मा, क्षीर-समुद्र-वासी नारद मुनि के शाप से अवतार लेनेवाले विष्णु भगवान को ही कहा गया है। क्योंकि चौ0 सं0 236 से 240 तक और उनके अर्थों के सहित तत्सम्बन्धी कोष्ठों के विचारों से साफ-साफ प्रकट है कि श्रीराम क्षीर-समुद्र- निवासी विष्णु भगवान के अवतार थे।]
दोहा-तब मैं हृदय बिचारा, जोग जज्ञ ब्रत दान ।
जा कहँ करिय सो पइहउँ, धर्म न एहि सम आन ।। 103।।
तब मैंने हृदय में विचारा कि योग, यज्ञ, व्रत और दान जिनके लिए करता हूँ, उनको (इस कर्म से) पाऊँगा; इसलिए इस (कर्म) के समान दूसरा धर्म नहीं है।
[योग से केवल सगुण ब्रह्म ही नहीं मिलता, बल्कि सगुण शरीर में व्यापक शुद्ध निर्गुण स्वरूप भी प्राप्त होता है।]
जप तप नियम योग निज धर्मा ।
स्त्रुति सम्भव नाना सुभ कर्मा ।। 682।।
जप, तप, नियम, योग, अपना धर्म, श्रुति से उत्पन्न नाना प्रकार के शुभ कर्म,
ज्ञान दया दम तीरथ मज्जन ।
जहँ लगि धर्म कहत स्त्रुति सज्जन ।। 683।।
ज्ञान, दया, इन्द्रिय-दमन, तीर्थ-स्नान आदि जहाँ तक धर्म, वेद और सज्जन कहते हैं।
आगम निगम पुरान अनेका ।
पढ़े सुने कर फल प्रभु एका ।। 684।।
हे प्रभु ! अनेक शास्त्रें, वेदों और पुराणों के पढ़ने और सुनने का एक ही फल है।
तव पद पंकज प्रीति निरन्तर ।
सब साधन कर फल यह सुन्दर ।। 685।।
कि, आपके चरण-कमलों में अटूट प्रेम हो, सब साधनों का यह सुन्दर फल है।
छूटइ मल कि मलहि के धोये ।
घृत कि पाव कोउ बारि बिलोये ।। 686।।
क्या मल, मल ही के द्वारा धोने से छूटता है? क्या पानी मथने से कोई घी पाता है ?
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई ।
अभिअन्तर मल कबहुँ न जाई ।। 687।।
हे रघुराज ! (आपके) प्रेम-भक्ति-रूपी जल के बिना हृदय का मैल कभी नहीं छूटता है।
सोइ सर्वज्ञ तज्ञ सोइ पंडित ।
सोइ गुन गृह विज्ञान अखंडित ।। 688।।
वही सर्वज्ञ और तत्त्वज्ञानी है, वही पण्डित, वही गुणों का घर और पूर्ण विज्ञानी है,
दच्छ सकल लच्छन जुत सोई ।
जाके पद सरोज रति होई ।। 689।।
वही चतुर और सुन्दर लक्षणों से युक्त है, जिसको आपके चरणकमलों में प्रीति हो।
दोहा-नाथ एक बर माँगउँ, राम कृपा करि देहु ।
जनम जनम प्रभु पद कमल, कबहुँ घटै जनि नेहु ।। 104।।
हे नाथ रामजी ! मैं एक वर माँगता हूँ, कृपा करके दीजिए। वह यह कि आप के चरण-कमलों की प्रीति जन्म-जन्मान्तर में कभी न घटे।
ऐसा कह वशिष्ठजी अपने घर को चले गये । एक बार भरतादि भ्राताओं और हनुमानजी को साथ लेकर रामजी पुर के बाहर गए। वहाँ बहुत हाथी, घोड़े और रथ दान करके आराम करने को बैठ गए। उसी समय वहाँ नारदजी आए और रामजी की स्तुति कर के ब्रह्म-लोक को चले गए। इतनी कथा सुनाकर महादेवजी बोले-
‘हे पार्वतीजी ! यह थोड़ा-सा राम-गुण मैंने तुमको सुनाया। अब क्या कहूँ, सो कहो।’
[महादेवजी ने राम-कथा को यहाँ तक ही कहकर उसकी इति कर दी। पर प्रथम सोपान में जो पार्वतीजी का यह प्रश्न है कि-
दोहा-‘बहुरि कहहु करुनायतन, कीन्ह जो अचरज राम ।
प्रजा सहित रघुबंस मनि, किमि गवने निज धाम ।।’
इसका उत्तर कहीं भी नहीं दिया और रामचरितमानस में इसका उत्तर है भी नहीं।]
श्रीपार्वतीजी बोलीं कि हे नाथ ! आपकी कृपा से मैं अब मोह-रहित हो गई; परन्तु आपके मुख से अमृत-वचन सुनकर मन नहीं अघाता है।
नर सहस्त्र महँ सुनहु पुरारी ।
कोउ एक होइ धरम ब्रत-धारी ।। 690।।
हे त्रिपुर दैत्य के शत्रु ! सुनिए, सहस्त्रों मनुष्यों में कोई एक धर्म-व्रत के धारण करनेवाले होते हैं।
धर्म सील कोटिक महँ कोई ।
बिषय बिमुख बिराग रत होई ।। 691।।
उन करोड़ों धर्मात्माओं में कोई एक विषयों से फिरा हुआ और वैराग्य में तत्पर होता है।
कोटि बिरक्त मध्य स्त्रुति कहई ।
सम्यक ज्ञान सकृत कोउ लहई ।। 692।।
वेद कहते हैं कि करोड़ों विरक्तों के बीच कोई एक यथार्थ ज्ञान पाता है।
ज्ञानवन्त कोटिक महँ कोऊ ।
जीवन मुक्त सकृत जग सोऊ ।। 693।।
उन करोडों ज्ञानी पुरुषों में कोई एक संसार में यथार्थ जीवन्मुक्त होता है।
तिन्ह सहस्त्र महँ सब सुख खानी ।
दुर्लभ ब्रह्म लीन बिज्ञानी ।। 694।।
उन हजारों जीवन्मुक्तों में सब सुखों की खान ब्रह्म-लीन विज्ञानी का होना दुर्लभ है।
धर्मसील बिरक्त अरु ज्ञानी ।
जीवन मुक्त ब्रह्म पर प्रानी ।। 695।।
सबतेँ सो दुर्लभ सुर राया ।
राम भगति रत गत मद माया ।। 696।।
हे देवराज ! धर्मात्मा, वैराग्यवान, ज्ञानी और ब्रह्म-पर जीवन्मुक्त प्राणियों में सबसे वह दुर्लभ है, जो अभिमान और छल से रहित हो, राम-भक्ति में रत रहता हो।
[देह-धारण किए हुए जीवित पुरुष को, जो माया से मुक्त है अर्थात् जो हर्ष, शोक, दुःख, हानि, लाभ, मान, अपमान, मित्र, शत्रु, निन्दा, स्तुति आदि तथा देहाभिमान से रहित है। वह ब्रह्म-पर जीवन्मुक्त पुरुष है। इससे परे कोई पद नहीं है। यहाँ तक पहुँचकर भी जो जगत के कल्याण के लिए (अर्थात् संसारी जीवों को भक्ति में लगाने के लिए) राम-भक्ति में रत रहते हैं, उनकी सर्वश्रेष्ठता चौ0 सं0 695 और 696 में कही गई है।]
हे नाथ ! ऐसी भक्ति काग ने कैसे पाई ? कृपा कर मुझे बुझाकर कहिए। और हे नाथ ! इन प्रश्नों के भी उत्तर कहिए-
(1) कागभुशुण्डिजी के ऐसे भक्त ने काग-देह कैसे पाई ? (2) आपने यह कथा कागभुशुण्डि से कैसे सुनी ? (3) गरुड़ ने सब मुनियों को छोड़ किस कारण काग से कथा सुनी ? (4) काग और गरुड़; दानों हरि-भक्तों का संवाद कैसे हुआ ? (5) रामचरित कथा को काग ने कहाँ पाया ? पार्वतीजी के प्रश्नों को सुनकर शिवजी सुख पाकर कहने लगे-
हे पार्वती ! जब तुमने अपना सती नाम वाला पहला शरीर क्रोध करके दक्ष के यज्ञ में छोड़ दिया, तब मैं तुम्हारे वियोग से दुःखी होकर पहाड़ों और जंगलों में फिरने लगा।
गिरि सुमेरु उत्तर दिसि दूरी ।
नील सैल एक सुन्दर भूरी ।। 697।।
सुमेरु पर्वत से दूर उत्तर दिशा में एक बड़ा ही सुन्दर नील पर्वत है।
तासु कनक मय सिखर सुहाये ।
चारि चारु मोरे मन भाये ।। 698।।
उसकी स्वर्णमयी सुहावनी चार चोटियाँ हैं, वे मेरे मन को अच्छी लगीं।
तिन्ह पर एक एक बिटप बिसाला ।
बट पीपर पाकड़ी रसाला ।। 699।।
उन चोटियों पर बड़, पीपल, पाकड़ और आम का एक-एक विशाल वृक्ष है।
सैलोपरि सर सुन्दर सोहा ।
मनि सोपान देखि मन मोहा ।। 700।।
पहाड़ के ऊपर सुन्दर तालाब शोभित है, उसकी मणि की सीढ़ियाँ हैं, उसे देखकर मन मोहित हो जाता है।
दोहा-सीतल अमल मधुर जल, जलज बिपुल बहु रंग ।
कूजत कलरव हंस गन, गुंजत मंजुल भृंग ।। 105।।
उस (तालाब) का जल शीतल, स्वच्छ और मीठा है, उसमें बहुत रंग के असंख्य कमल हैं। वहाँ हंसों के समुदाय मीठी बोली बोलते और सुन्दर भौंरे गुंजार करते हैं।
तेहि गिरि रुचिर बसइ खग सोई ।
तासु नास कल्पान्त न होई ।। 701।।
उस सुन्दर पर्वत पर वही पक्षी (कागभुशुण्डि) रहता है, उसका नाश कल्प के अन्त में भी नहीं होता है।
माया कृत गुन दोष अनेका ।
मोह मनोज आदि अबिबेका ।। 702।।
रहे ब्यापि समस्त जग माहीँ ।
तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिँ जाहीँ ।। 703।।
माया-रचित मोह, काम और अज्ञान आदि अनेक दोष-गुण अर्थात् दोष-युक्त लक्षण सम्पूर्ण संसार में व्याप्त हो रहे हैं, परन्तु उस पर्वत के समीप कभी नहीं जाते हैं।
तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा ।
सो सुनु उमा सहित अनुरागा ।। 704।।
हे पार्वती ! वहाँ बस करके कागभुशुण्डि हरि को जिस प्रकार भजता है, वह प्रेम से सुनो।
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई ।
जाप यज्ञ पाकरि तर करई ।। 705।।
वह पीपल वृक्ष के नीचे ध्यान धरता है और पाकड़ वृक्ष के नीचे जप-यज्ञ (जप-रूपी यज्ञ) करता है।
[जाप यज्ञ-एक चित्त से नाम-भजन करने को जप-यज्ञ कहते हैं। गीता-रहस्य, गीता-अनुवाद और टिप्पणी अध्याय 10, श्लोक 25 अर्थ और टिप्पणी पढ़कर देखिए। यहाँ पर यज्ञ को अग्नि, घृत, तिल और यव आदि सामग्री से युक्त यज्ञ समझना नितान्त भूल है; क्योंकि पक्षी के लिए इन द्रव्यों का संग्रह करना असम्भव है। यदि कहा जाय कि बहुत-से नर राजा उनके भक्त थे, जो उन द्रव्यों को जुटा देते थे, तो ऐसा वर्णन नहीं है। बल्कि यह वर्णन है कि कागभुशुण्डि के पास केवल पक्षीगण ही कथा सुनने आते थे। महादेवजी भी हंस पक्षी का शरीर धरकर ही उनके पास कथा सुनने को गए थे। यदि मनुष्यगण उनके भक्त होते और कथा सुनने को उनके पास जाते होते तो गो0 तुलसीदासजी इसका वर्णन कर देते।]
आम छाँह कर मानस पूजा ।
तजि हरि भजन काज नहिँ दूजा ।। 706।।
आम की छाया में मानसी पूजा करता है, उसको भगवान का भजन छोड़कर दूसरा काम नहीं है।
बटतर कह हरि कथा प्रसंगा ।
आवहिँ सुनहिँ अनेक बिहंगा ।। 707।।
जब वह बड़ के नीचे हरि-कथा कहता है, उस समय अनेकों पक्षी आते और सुनते हैं।
[कागभुशुण्डिजी से सम्बन्ध रखनेवाली वार्त्ता, जो चौ0 सं0 697 से 707 तक वर्णित है, बड़ी ही रहस्यमयी जान पड़ती है। पहले तो चार कनकमय शिखरोंवाले नील पर्वत के इस भूमण्डल पर होने का पता भूमण्डल की भूगोल-पुस्तक में नहीं है। दूसरी बात यह (जो चौ0 सं0 702-703 में है) कि माया-कृत अज्ञान, काम और अविवेकादि दोष-लक्षण उस नील पर्वत के ऊपर तो क्या, उसके पास तक नहीं फटकने पाते हैं, असम्भव-सी है; क्योंकि समस्त बाहरी संसार में ऐसा कोई भी स्थान देखा नहीं गया है, जहाँ प्राणी को अज्ञान, काम और अविवेकादि दोष-लक्षण न हों। तीसरी बात यह कि ऊपर कहे दो कारणों से जब यह नीलगिरि ही रहस्यमय जान पड़ता है, तब उस पर के मणिमय सोपानवाला सरोवर, उस पर के विहंग; उन विहंगों के कलरव, उनकी चारों कनकमयी चोटियों पर के चार वृक्ष, वह सुमेरु, जिसके उत्तर में यह नीलगिरि है, उसकी उत्तर दिशा; ये सभी अवश्य ही रहस्यमय होंगे। चौथी बात यह कि कागभुशुण्डि एक शिखर पर पीपल वृक्ष के नीचे ध्यान करते हैं, दूसरे शिखर पर आम के नीचे मानस-पूजा करते हैं। इससे प्रकट होता है कि मानस-पूजा और ध्यान पृथक्-पृथक् दो साधन हैं। यथार्थ यह है कि-मेरुदण्ड के अन्तर में सीधी खड़ी रेखा-रूप धार है, उसे ही सुमेरु गिरि कहा गया है। इससे अवलम्बित इसके नीचे से ऊपर तक पिण्ड में गुदा-स्थान से कण्ठ तक पाँच चक्र हैं; जिनके नाम-मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत (हृदय) और विशुद्ध (कण्ठ) हैं। ऊपर (सूक्ष्मता) की ओर को उत्तर दिशा कहा गया है। वर्णित समेरु गिरि से उत्तर अर्थात् ऊपर तम-रूप नीलगिरि है। भक्ति-योग-अभ्यासी अपने अन्तर में इस (तम-रूप नीलगिरि) को प्रथम ही पाता है। आज्ञाचक्र नाम का छठा चक्र इसी में विराजित है। बाहरी विषयों से मुड़ी हुई चैतन्य वृत्ति (सुरत) वाला इस पहाड़ पर ठहरा रहता है। उसको अज्ञान, काम और अविवेक आदि दोष-लक्षण नहीं छूते हैं। इसीलिए वर्णन किया गया है कि इस पहाड़ के पास ये दोष-लक्षण नहीं जाते हैं। वेद, शास्त्र, पुराण और सत्संग से प्राप्त अति बृहत् वार्त्ता विशाल वट वृक्ष हैं। सुबुद्धि प्रकाश-रूप है। कथित नील पर्वत की कनकमय (चमकीली, प्रकाशमयी) एक चोटी यही है। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द आदि बाहरी विषयों से अपनी सुरत वा चैतन्य वृत्तियों को मोड़कर, सुबुद्धि पर स्थिर होकर (अर्थात् एक कनकमय शिखर पर बैठकर) कथित विशाल वट वृक्ष के नीचे वा उसके आश्रित रहकर कागभुशुण्डिजी कथा कहते थे। उच्च ज्ञान-वर्द्धक परम आस्तिक बुद्धि ही प्रकाश है। नीलगिरि के जिस भाग पर ठहरकर कागभुशुण्डिजी जप-यज्ञ करते हैं, वह भाग परम आस्तिक बुद्धि-रूप होने के कारण ऊँचा (शिखर) और प्रकाशमय वा चमकीला वा कनकमय है। नीलगिरि का यही दूसरा शिखर हुआ।
गुरु-भेद विशाल पाकरि (पाकर) वृक्ष-रूप है। इसी की छाया में वा इसके आश्रित होकर कागभुशुण्डिजी जप-यज्ञ करते हैं। सर्वेश्वर के सगुण रूप के प्रति अत्यन्त प्रेम ही अति उच्च प्रकाशमय वा चमकीला वा कनकमय स्थान है। नीलगिरि के जिस भाग पर टिककर कागभुशुण्डिजी मानस-पूजा करते हैं, वह यही कनकमय शिखर है। यह नीलगिरि का तीसरा शिखर हुआ। एक और अत्यन्त दृढ़ आशा-रूप विशाल आम का वृक्ष इस शिखर पर लगा है। इसी की छाया में वा इनके आश्रित रहकर कागभुशुण्डि मानस-पूजा करते हैं। नील पर्वत के वर्णित शिखरों में ऊँचा और सर्वश्रेष्ठ चौथा शिखर चरम सीमा से, मुक्त दृष्टि (दिव्य दृष्टि) से दर्शित प्रत्यक्ष ज्योति-स्वरूप वा प्रत्यक्ष चमकीला वा कनकमय है। सद्गुरु की कृपा विशाल पीपल वृक्ष है। वर्णित कनकमय चौथे शिखर पर यह वृक्ष विराजित है। इसी की छाया में वा इसके आश्रित होकर कागभुशुण्डि ध्यान करते हैं।
अब मानस-पूजा और ध्यान के विषय में समझना रह गया है। मनोमय देव की रचना करके अर्थात् मन से मन तत्त्व की ही इष्टदेव की मूर्ति बनाकर और पूजा की सब सामग्रियाँ मनोमय ही रचकर मनोनय इष्ट का पूजन करना मानस-पूजा कहलाती है। चौ0 सं0 5 के नीचे कोष्ठ में वर्णित मानस पूजा और मानस ध्यान एक ही बात है। मन से एक ही ध्येय वस्तु के चिन्तन करते रहने को ध्यान कहते हैं। बहुत लोग मानस पूजा ही को ध्यान कहते हैं। इसके अतिरिक्त इससे निराले किसी साधन को ध्यान नहीं समझते हैं। परन्तु रामचरितमानस की चौ0 सं0 705 और 706 में जैसा वर्णन है, उससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि ध्यान और मानस पूजा, दो भिन्न-भिन्न साधन हैं। यदि मानस पूजा को मानस ध्यान कहा जाय, तो कुछ अनुचित न होगा। परन्तु मानस ध्यान वा मानस पूजा में मनोमय देव के अनेक अंग-प्रत्यंगों की तथा पूजा की अनेक सामग्रियों की रचना और चिन्तन में लगा रहकर केवल एक ही ध्येय तत्त्व पर ठहराकर केवल उसी का चिन्तन नहीं किया जा सकता। इसीलिए मानस पूजा के साधन से जब कि केवल एक ही ध्येय तत्त्व का चिन्तन नहीं हो सकता, तब इसको ध्यान नहीं कहा जा सकता है और न वह साधन ध्यान का साधन हो सकता है, जिससे मानस पूजा होती है। अतएव ध्यान का साधन मानस पूजा के साधन से नितान्त भिन्न ही होना चाहिए। मनुस्मृति अ0 12, श्लोक 122 में जो परमात्मा के शुद्ध स्वर्ण समान कान्तिमान, अणु से भी अणु स्वरूप के ध्यान करने की आज्ञा है, ‘प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि। रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम् ।।’ यथार्थ में परमात्मा के इसी रूप का चिन्तन-ध्यान करना है। इसके साधन का वर्णन चौ0 सं0 292 से 294 तक में है। इसलिए इन चौपाइयों, उनके अर्थों और तत्सम्बन्धी कोष्ठों के वर्णनों को पढ़कर समझिए। अब एक विषय समझने को बच रहा है कि चौ0 सं 700 में वर्णित सरोवर उसके मणिमय सोपान, उसमें भौरों का गुंजार और हंसों का कलरव क्या है ? यथार्थ यह है कि सहस्त्रदल कमल सरोवर है। प्रणव-विन्दु मणिमय सोपान है। सहस्त्रदल कमल में विराजित ज्योति उस सरोवर का शीतल, पवित्र और मीठा जल है। लाल, हरा, पीला, नीला और सफेद रंग के पाँच मण्डल-विद्युत- मण्डल, दीप-शिखावत् ज्योति-मण्डल, नक्षत्र-मण्डल और चन्द्र- ज्योति-मण्डल आदि अनेक ज्योति-मण्डल उस तालाब के विपुल बहुरंग जलज हैं। मीठी-मीठी अनहद ध्वनियाँ हंसों के कलरव और भौंरों की गूँज हैं।]
शिवजी बोले कि हे पार्वती ! मैंने हंस-देह धर कुछ समय तक कागभुशुण्डि के आश्रम में रहकर रामचरितमानस की कथा सुनी थी, जिसका वर्णन मैं तुमसे कर चुका। अब आगे की कथा सुनो कि जिस कारण गरुड़जी मुनियों को छोड़ कागभुशुण्डिजी के पास गए थे-जब रामजी ने युद्ध-लीला में अपने को मेघनाद के वाण से नाग-फाँस में बँधवाया, तब गरुड़ ने आकर उनको नाग-फाँस से मुक्त किया। इस बात से गरुड़ को मोह उत्पन्न हुआ कि एक छोटे-से निशाचर ने रामजी को बाँध लिया। इससे रामजी के भगवान का अवतार होने में मन को सन्देह होता है; क्योंकि भगवान का प्रभाव इस तरह कुछ देखने में नहीं आया। गरुड़ ने अपना मोह नारदजी से कहा। नारदजी ने उसे ब्रह्माजी के पास और उन्होंने मेरे पास भेज दिया। मैंने उसे कागभुशुण्डि के पास भेज दिया। गरुड़ ने कागभुशुण्डि के समीप जा उनसे रामजी की कथा सुनने की इच्छा की। कागभुशुण्डि ने पहले रामचरितमानस का वर्णन किया। फिर नारद-मोह, रावण का जन्म, प्रभु (श्रीराम) का अवतार, उनका बाल-चरित्र, विवाह, वनवास, सीता-हरण, रावण आदि निशाचरों का नाश, रामजी का अवध लौट आकर राज्य करना इत्यादि सब कथाओं को कह सुनाया। सम्पूर्ण कथा सुनने के बाद गरुड़जी बोले कि हे कागभुशुण्डिजी ! आपकी कृपा से मेरा मोह दूर हो गया और मुझे बड़ा सुख हुआ।
जो अति आतप ब्याकुल होई ।
तरु छाया सुख जानइ सोई ।। 708।।
जो धूप से अत्यन्त व्याकुल रहता है, वृक्ष की छाया का सुख वही जानता है।
निगमागम पुरान मत एहा ।
कहहिँ सिद्ध मुनि नहिँ सन्देहा ।। 709।।*
वेद, शास्त्र और पुराणों का यह विचार है और सिद्ध मुनि भी यही कहते हैं-इसमें सन्देह नहिं कि-
सन्त बिसुद्ध मिलहिँ पर तेही ।
चितवहिँ राम कृपा करि जेही ।। 710।।*
सच्चे संत उसे ही मिलते हैं, जिसे श्रीरामजी कृपा करके देखते हैं।
कागभुशुण्डि गरुड़ के इन मृदुल वचनों को सुनकर अत्यन्त प्रफुल्लित हुए; क्योंकि-
दोहा-श्रोता सुमति सुसील सुचि, कथा रसिक हरिदास ।
पाइ उमा अति गोप्यमपि, सज्जन करहिँ प्रकास ।। 106।।
हे उमा ! सज्जन लोग सुबुद्धिमान, सुशील, पवित्र, कथा के प्रेमी और हरिभक्त श्रोता को पाकर अत्यन्त छिपा रखने योग्य बातों को भी प्रकाशित कर देते हैं।
कागभुशुण्डि फिर बोले कि हे गरुड़जी ! आपने जो अपना मोह कहा, वह कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि-
नारद भव बिरंचि सनकादी ।
जे मुनि नायक आतम बादी ।। 711।।
नारद, शिव, ब्रह्मा और सनकादिक मुनीश्वर, जो आत्म-तत्त्व के वक्ता हैं,
मोह न अन्ध कीन्ह केहि केही ।
को जग काम नचाव न जेही ।। 712।।
मोह ने किसको अन्धा नहीं किया ? संसार में ऐसा कौन है, जिसको काम ने नहीं नचाया हो ?
तृष्ना केहि न कीन्ह बौराहा ।
केहि कर हृदय क्रोध नहिँ दाहा ।। 713।।
तृष्णा ने किसको पागल नहीं किया ? क्रोध ने किसके हृदय को नहीं जलाया ?
दोहा-ज्ञानी तापस सूर कबि, कोबिद गुन आगार ।
केहि कै लोभ बिडम्बना, कीन्ह न एहि संसार ।। 107।।
ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कवि और गुणनिधान विद्वान में किसकी फजीहत लोभ ने नहीं की ?
दोहा-श्रीमद बक्र न कीन्ह केहि, प्रभुता बधिर न काहि ।
मृग लोचनि के नयन सर, को अस लाग न जाहि ।। 108।।
धन-मद ने किसको टेढ़ा नहीं किया ? बडप़्पन (सामर्थ्य) ने किसको बहरा नहीं किया ? ऐसा कौन है, जिसे मृगनयनी (स्त्री) का नेत्र-रूपी तीर नहीं लगा ?
गुन कृत सन्यपात नहिँ केही ।
कोउ न मान मद तजेउ निबेही ।। 714।।
गुणों का किया हुआ सन्निपात त्रिदोष (गुणवान होने की ऐंठ-अकड़) किसको नहीं हुआ ? अभिमान और मद को छोड़कर कोई पार नहीं गया।
जोबन ज्वर केहि नहिँ बलकावा ।
ममता केहि कर जस न नसावा ।। 715।।
जवानी-रूपी ज्वर ने किसको नहीं खौला (उबाल) दिया ? और ममता ने किसके यश को नष्ट नहीं कर दिया ?
मच्छर काहि कलंक न लावा ।
काहि न सोक समीर डोलावा ।। 716।।
मत्सर (डाह) ने किसको कलंक नहीं लगाया ? शोक-रूपी पवन ने किसको नहीं हिला दिया ?
चिन्ता साँपिन काहि न खाया ।
को जग जाहि न ब्यापी माया ।। 717।।
चिन्ता-रूपी साँपिन ने किसको नहीं काट खाया ? संसार में ऐसा कौन है, जिसे माया न व्यापी हो ?
कीट मनोरथ दारु सरीरा ।
जेहि न लाग घुन को अस धीरा ।। 718।।
ऐसा कौन धीरजवाला है, जिसके शरीर-रूपी काठ में मनोरथ-रूपी कीड़ा (घुन) न लगा हो ?
सुत बित लोक ईषना तीनी ।
केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी ।। 719।।
पुत्र, धन और लोक-बड़ाई; इन तीनों की इच्छा के लिए किसकी बुद्धि मलीन नहीं हुई ?
दोहा-ब्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचंड ।
सेनापति कामादि भट, दम्भ कपट पाखंड ।। 109।।
माया की भयानक सेना संसार में फैली हुई है। काम, क्रोध और लोभ उसके सेनापति और अभिमान, छल और पाखण्ड आदि योद्धा हैं।
दोहा-सो दासी रघुबीर कै, समुझै मिथ्या सोपि ।
छूट न राम कृपा बिनु, नाथ कहउँ पद रोपि ।। 110।।
कागभुशुण्डि गरुड़ से कहते हैं-हे नाथ ! वह (माया) रघुवीर राम की दासी है। समझ लेने पर वह निश्चय झूठी है, परन्तु मैं प्रण करके कहता हूँ कि वह राम की कृपा के बिना नहीं छूटती है।
[दो0 सं0 110 में अत्यन्त पुष्ट रीति से माया मिथ्यात्ववाद है। इस सिद्धान्त को मानने से ही अद्वैतवाद सहज ही पुष्ट होता है और साथ ही यह मानना पड़ता है कि इस दोहे के अतिरिक्त यही सिद्धान्त चौ0 सं0 145, 146, 182 और दो0 सं0 27 में वर्णित है।]
जो माया सब जगहिं नचावा ।
जासु चरित लखि काहु न पावा ।। 720।।
सो प्रभु भ्रू बिलास खगराजा ।
नाच नटी इव सहित समाजा ।। 721।।
हे गरुड़जी ! जो माया सम्पूर्ण संसार को नचाती है, जिसकी लीला किसी ने देख (समझ) नहीं पाई। वही माया प्रभु श्रीरामजी की भौं के इशारे से अपने समाज के सहित नटी (नर्तकी-नाचनेवाली नटिन) के समान नाचती है।
सोइ सच्चिदानन्द घन रामा ।
अज बिज्ञान रूप बल धामा ।। 722।।
वही सत्-चित्-आनन्द के पुंज, अजन्मा, विज्ञान-स्वरूप, बल के स्थान राम हैं।
ब्यापक ब्याप्य अखण्ड अनन्ता ।
अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।। 723।।
वह सर्वव्यापक, व्याप्य (प्रकृति, पिण्ड, ब्रह्माण्ड, घट, मठादि सम्पूर्ण स्थान अर्थात् त्रयगुण-पसार) खण्ड-रहित, अन्त-रहित, पूर्ण, अव्यर्थ पराक्रम और भगवान अर्थात् छहों ऐश्वर्योंऽ से युक्त हैं।
[दो0 सं0 110 और 27 में तथा चौ0 सं0 145, 146 और 182 में माया-मिथ्यात्ववाद है। त्रयगुण-पसार माया वा प्रकृति के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता है। चौ0 सं0 167 से 169 तक में कहा गया है कि निर्गुण ब्रह्म ही सगुण होता है। तत्त्वरूप में सगुण, निर्गुण ब्रह्म से भिन्न नहीं है। निर्गुण रूप सनातन और सगुण उससे नवीन है। सगुण रूप व्याप्य और निर्गुण व्यापक है। इसी से चौ0 सं0 723 में कहा गया है कि राम व्यापक और व्याप्य (वह स्थान, जिसमें फैलने का काम हो) दोनों हैं। (लोहे के तपाए हुए गोले में अग्नि व्यापक है और वह गोला व्याप्य है।) दो0 सं0 27 और 110 तथा चौ0 सं0 145, 146 और 182 में माया-मिथ्यात्ववाद है। और चौ0 सं0 167 से 169 तक में ऊपर कहा जा चुका ही है कि निर्गुण तत्त्व ही सगुण होता है। अतएव इन दोनों सिद्धान्तों से यही सिद्ध होता है कि अनादि और मूल एक ही (निर्गुण) तत्त्व है, इसी सिद्धान्त को अद्वैतवाद कहते हैं। अद्वैतवाद के अनुसार जबकि अनादि और मूल एक ही निर्गुण तत्त्व सिद्ध होता है, तब व्यापक (सर्वत्र फैलनेवाला अर्थात् मोहित कुल्ल) और व्याप्य (जिसके बाहर-भीतर फैलनेवाला फैले अर्थात् मोहात) के दो रूप अवश्य ही एक ही निर्गुण तत्त्व के होने चाहिए। इसीलिए चौ0 सं0 723 में राम को व्यापक और व्याप्य दोनों कहा गया है।]
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता ।
सब दरसी अनवद्य अजीता ।। 724।।
निर्गुण, पूर्ण, वाणी और इन्द्रियों से परे; सब कुछ देखने वाले, निर्दोष और अजीत (जो किसी से जीता न जाए) हैं।
निर्मल निराकार निर्मोहा ।
नित्य निरंजन सुख सन्दोहा ।। 725।।
स्वच्छ, आकार-रहित, मोह-रहित, सनातन, माया से परे और सुख की राशि हैं।
प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी ।
ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।। 726।।
प्रभु (राम) प्रकृति से परे, सबके हृदय में रहनेवाले, सर्वव्यापक, इच्छा-रहित, माया से परे और नाश-रहित हैं।
इहाँ मोह कर कारन नाहीँ ।
रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीँ ।। 727।।
यहाँ (निर्गुण राम में) मोह का कारण नहीं है। क्या कभी सूर्य के सम्मुख अन्धकार जाता है ? (कभी नहीं।)
दोहा-भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।। 111।।
प्रभु भगवान राम ने भक्तों (को सुख देने) के निमित्त राजा का शरीर धारण कर अत्यन्त पवित्र चरित्र साधारण मनुष्य की तरह किया।
दोहा-जथा अनेकन बेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ ।। 112।।
जैसे कोई नट (बहुरूपिया) अनेक रूप धरकर नाच करता और वही-वही भाव दिखाता है, परन्तु आप वह (जिस व्यक्ति का रूप धारण किया है) नहीं हो जाता है।
[दो0 सं0 111 के ऊपर की चौपाइयों में भगवान के केवल निर्गुण, निराकार, निर्मल, आत्मस्वरूप का वर्णन है और चट पट दो0 सं0 111 में कह दिया गया है कि भक्तों के हित के हेतु भगवान प्रभु राम ने नर राजा का शरीर धारण किया। ऐसे वर्णन से यह नहीं समझना चाहिए कि निराकार, निर्गुण, आत्म-स्वरूप राम ने प्रथम बिना किसी विशेष उपाधि के धारण किए ही एकाएक नर राजा का शरीर धारण किया था, बल्कि यह समझना ठीक है कि निराकार, निर्गुण आत्मस्वरूप राम प्रथम क्षीर-समुद्र-वासी विष्णु देव-रूप विशेष आवरण वा उपाधि धारण कर क्षीर-समुद्र में विराजमान थे। (तभी तो उन विष्णु-स्वरूपी सगुण राम को भगवान प्रभु राम कहा गया है; क्योंकि केवल निर्गुण, निराकार, उपाधि (आवरण)-रहित आत्म-स्वरूप को भगवान कह भी नहीं सकते।) और उसी रूप (विष्णु भगवान) को नारद मुनि ने नर राजा का शरीर धरने को शाप दिया था। जिस कल्प के रामावतार की सम्पूर्ण कथा तुलसी-कृत रामचरितमानस में गाई गई है, उसमें रामावतार का कारण नारद का शाप ही है। (चौ0 सं0 208, छन्द 1, चौ0 सं0 212-217, दो0 सं0 31, चौ0 सं0 218, 219, 219 क, 319, छन्द 3, चौ0 सं0 475 से 477 तक के अर्थों और तत्सम्बन्धी कोष्ठ-लिखित लेखों को पढ़कर देखिए।) दो0 सं0 112 से ज्ञात होता है कि जैसे नाटक का पात्र राजा का, देवता का अथवा ईश्वर का रूप बनाकर लीला दिखाता है, परन्तु वह यथार्थ में राजा वा देवता वा ईश्वर कुछ नहीं होता है, वह जो था, सो ही रहता है, उसी तरह निर्गुण, निराकार, आत्म-राम देवता वा मनुष्यादि आकृति धारण करने से देवता वा मनुष्यादि नहीं हो जाते हैं, वे जो हैं, सो ही रहते हैं। इससे जानना चाहिए कि निर्गुण, निराकार आत्म-राम ने केवल लीला (नाटक) के हेतु विष्णु देव वा अवधेश का रूप धारण किया था। ये रूप माया वा छल के थे, यथार्थ नहीं अर्थात् यथार्थ में वे न विष्णु हुए, न अवधेश; बल्कि जो थे, सो ही रहे। इसी तात्पर्य को दिखाने के लिए चौ0 सं0 175 और 177 लिखी गई है। अतएव जबतक उपर्युक्त मायिक रूपों से आगे बढ़कर निर्गुण, निराकार, आत्म-रूप राम को नहीं प्राप्त किया जाय, तबतक राम का पाना असम्भव है।]
असि रघुपति लीला उरगारी ।
दनुज विमोहिनि जन-सुखकारी ।। 728।।
हे गरुड़जी ! रघुपति की लीला ऐसी है कि वह राक्षसों (राक्षसी प्रकृतिवालों) को विशेष मोहित करती और भक्तों को सुख देती है।
जे मति मलिन बिषय बस कामी ।
प्रभु पर मोह धरहिँ इमि स्वामी ।। 729।।
हे स्वामी ! जो बुद्धि के मैले, विषय के वश और कामी हैं, वे प्रभु (राम) पर इसी तरह मोह-अज्ञान लाते हैं।
[रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द को विषय कहते हैं। जिनकी बुद्धि इन्हीं में सनी रहती है, इनसे परे तत्त्व का निश्चय नहीं कर सकती और न इसकी प्रेमिणी बनती है, वे ही विषय-वश हैं।]
नयन-दोष जा कहँ जब होई ।
पीत बरन ससि कहँ कह सोई ।। 730।।
(जैसे) जब किसी को नेत्र-दोष (कमला रोग) हो जाता है, तब वह चन्द्रमा को पीले रंग का कहता है।
[जिसको चौ0 सं0 5 में वर्णित साधन-द्वारा दिव्य दृष्टि प्राप्त नहीं है, जानना चाहिए कि वह नेत्र-दोषी है। ऐसे नेत्र-दोषी को राम का स्वरूप, जो यथार्थ में सहज, निर्मल, निर्गुण और निराकार है; श्यामला, काला, घनश्याम और गौर आदि दरसता है।]
जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा ।
सो कह पच्छिम उयेउ दिनेसा ।। 731।।
हे पक्षिराज ! जब जिसको दिशा का भ्रम हो जाता है, तब वह कहता है कि सूर्य पश्चिम में उगे हैं।
[राम का सहज निर्मल, निर्गुण और अपरम्पार स्वरूप पूर्व दिशा के तुल्य है। इस दिशा की बोधहीनता दिग्भ्रम-तुल्य है। जिसको ऐसा दिग्भ्रम होता है, वह कहता है कि पश्चिम दिशारूप नराकृति आदि में निर्गुण राम-रूप सूर्य उदित हुए हैं। यथार्थ में वे तो सदा सबमें भरपूर हैं। उनका कहीं से कहीं जाकर प्रकट वा लोप होना नहीं होता है। ये काम (प्रकट वा लोप होना) तो माया के हैं।]
नौकारूढ़ चलत जग देखा ।
अचल मोह बस आपुहिँ लेखा ।। 732।।
नाव पर चढ़कर यात्रा करनेवाला संसार को चलता हुआ देखता है और अपने को अज्ञान-वश स्थिर समझता है। अथवा,
बालक भ्रमहिँ न भ्रमहिँ गृहादी ।
कहहि परस्पर मिथ्याबादी ।। 733।।
बालक घूमते हैं, घर आदि नहीं घूमते। (पर जब वे घूमकर स्थिर होते हैं, तो उन्हें घर आदि घूमते हुए दीख पड़ते हैं।) इसी प्रकार मिथ्यावादी परस्पर मिथ्या वचन कहते हैं।
[जिनकी बुद्धि रूप-रसादि विषयों में भ्रमण करती है, उनकी समता नौकारूढ़ यात्री वा घूमनेवाले बालक से की गई है। ये भ्रमते तो हैं आप, पर अज्ञान-वश कहते हैं कि सहज, निर्मल, निर्गुण और अपरम्पार स्वरूप राम एक स्थल से दूसरे स्थल तक गए-आए (भ्रमण किए-घूमे)। राम तो सहज, निर्मल, निर्गुण, अपरम्पार स्वरूपी, प्रकृति-पार, सर्वव्यापी और माया-रहित हैं, उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने की आवश्यकता ही नहीं। सर्वव्यापी होने के कारण उनका चलना-फिरना कैसा ? और माया-रहित होने के कारण उनमें माया-सम्बन्धी गुण भ्रमणादि करना भी कैसे हो सकता है ? जैसे यदि आकाश से भरे हुए घट को आकाश (महदाकाश) में एक स्थल से दूसरे स्थल तक भ्रमण कराया जाय, तो जानना चाहिए के इस दशा में घटव्यापी आकाश नहीं, केवल घट ही एक स्थल से दूसरे स्थल तक भ्रमण करता है। उसी तरह शरीरव्यापी सहज, निर्मल, निर्गुण राम शरीर के एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने से भ्रमण नहीं करते हैं। विष्णु-रूप देव-शरीर और रघुवर राम-रूप नर-राज-शरीर कहीं-से-कहीं जाकर प्रकट और लोप अवश्य हुए और हुआ करेंगे। ये शरीर केवल माया-मात्र हैं, (देखिए दो0 सं0 112) पर इनमें व्यापक सहज, निर्मल, निर्गुण, प्रकृति-पर और सर्वव्यापी राम न प्रकट-लोप होते हैं और न भ्रमण करते हैं।]
हरि बिषयक अस मोह बिहंगा ।
सपनेहुँ नहिँ अज्ञान प्रसंगा ।। 734।।
हे गरुड़जी ! हरि के विषय में ऐसा ही मोह-अज्ञान होता है; परन्तु वहाँ स्वप्न में भी अज्ञान का लगाव नहीं है।
[रामचरितमानस में वर्णन है कि योग से ज्ञान की प्राप्ति होती है और योगिजन (अर्थात् ज्ञानी, क्योंकि योगी होने से ज्ञानी होना निश्चित है।) रघुवर राम को परम तत्त्वमय देखते हैं (देखिए चौ0 सं0 235 और 411), इससे सिद्ध होता है कि परम योगी और परम ज्ञानी को स्वप्न में भी अज्ञान से सम्बन्ध नहीं रहेगा। वे राम के परम तत्त्वमय अर्थात् सहज, निर्मल, निर्गुण स्वरूप को ही देखेंगे। अतएव जिनकी बुद्धि में राम के इसी स्वरूप का सत्य निश्चय है, उनको स्वप्न में भी अज्ञान का लगाव नहीं है। जिनकी बुद्धि में इस स्वरूप का निश्चय नहीं है, जो राम-स्वरूप को श्यामला आदि कोई भी मायिक रंगवाला, भ्रमण करनेवाला तथा प्रकट और लोप होनेवाला अपनी बुद्धि में निश्चय करके जानता है, वह हरि के विषय में मोह-अज्ञान से ग्रसित रहता है, जैसा कि चौ0 सं0 730 से 733 तक में वर्णन किया गया है।]
माया बस मति मन्द अभागी ।
हृदय जबनिका बहु बिधि लागी ।। 735।।
जो माया के अधीन, मन्दबुद्धि, भाग्यहीन हैं और जिनके हृदय में बहुत प्रकार के परदे लगे हैं।
[अन्तर में स्थूल, सूक्ष्म और कारण (अर्थात् अन्धकार, प्रकाश और शब्द) के बहुत प्रकार के परदे लगे हैं। ये परदे रामचरितमानस में वर्णित नवधा भक्ति-योग के पूर्ण साधन से दूर होते हैं।]
ते सठ हठ बस संसय करहीं ।
निज अज्ञान राम पर धरहीं ।। 736।।
वे मूर्ख हठ-वश सन्देह करते हैं और अपना अज्ञान राम पर धरते हैं।
[जिन्होंने योगाभ्यास द्वारा अपनी अज्ञानता दूर नहीं की है, वे ही मूर्ख अपनी अज्ञानता के कारण हठ-वश सन्देह करते हैं कि राम प्रकट हुए, राम लोप हुए, वे किसी मायावरण-धारी शरीरवाले और रूपवाले थे, जिन्होंने भ्रमण किये थे इत्यादि। अज्ञानता दूर नहीं होने के कारण बुद्धि रूप-रसादि विषयों में फँसी रहती है, राम के परम तत्त्वमय सहज, निर्मल, निर्गुण स्वरूप का निश्चय नहीं कर सकती है, इसी कारण वे अज्ञानी अपनी अज्ञानता (कि राम प्रकट और लोप हुए आदि) राम पर धरते हैं।]
दोहा-काम क्रोध मद लोभ रत, गृहासक्त दुख रूप ।
ते किमि जानहिँ रघुपतिहिँ, मूढ़ परे तम कूप ।। 113।।
जो काम, क्रोध, मद और लोभ में लिप्त घर (के कामों) में फँसे हुए दुःख-रूप हैं, वे अन्धकार के कुएँ में गिरे हुए मूर्ख राम को कैसे जान सकते हैं ? अर्थात् नहीं जान सकते हैं।
[रघुपति राम को धनुषधारी, श्यामली मूरत, कौशल्या माता के उदर से प्रकट होनेवाले, अपने धाम क्षीर-समुद्र को फिर जानेवाले (लोप होनेवाले), रावण को मारनेवाले आदि-आदि कहकर जान सकनेवाले बहुत हैं। नर-तन-धारी रघुवर राम के समकालीन बहुत-से मनुष्यों ने उनको उपर्युक्त वेश और लीला में देखा भी था; परन्तु उनके परम तत्त्वमय, सहज, निर्मल, निर्गुण स्वरूप को उसी समय में योगिजनों को छोड़ दूसरे मनुष्य नहीं जान सके थे और न वर्त्तमान काल में जान सकते हैं। अतएव यदि राम के असली स्वरूप को पाना हो, तो अपने अन्तर में अन्धकारादि सब आवरणों को योगाभ्यास के द्वारा दूर करना चाहिए। काम, क्रोधादि विकारों को दमन करना और मन में विरक्ति लानी चाहिए। रघुवर राम के माया-सम्बन्धी रूपों के वर्णनों को पुराणादि से पढ़-सुनकर तथा किसी मन्दिर में उनकी प्रतिमा वा चित्र देखकर उनके असली स्वरूप-परम तत्त्वमय, सहज, निर्मल, निर्गुण स्वरूप को पाना असम्भव है। हाँ, भक्ति-योग के आरम्भ में प्रथम राम के मायिक रूप को ही मन में टिकाकर ध्यानाभ्यास किया जाता है। इसलिए पुराणों में प्रतिमा, चित्र और अन्य मायिक रूप का वर्णन तथा मन्दिरों में प्रतिमाओं की स्थापना की बात है। पर यहीं तक भक्ति-योग का साधन समाप्त नहीं हो जाता। (इसका सम्पूर्ण साधन अरण्यकाण्ड में नवधा भक्ति के किए गए वर्णन में देखिए) इसके आगे मनुस्मृति में वर्णित राम के अणु से भी अणु रूप, फिर ज्योति-रूप के भिन्न-भिन्न रूपों, उनके शब्द-रूप अर्थात् ध्वन्यात्मक राम-नाम वा सत्य-नाम को ग्रहण कर उनके परम तत्त्वमय स्वरूप की प्राप्ति कर लेने पर साधन समाप्त होता है। जैसे जल में पड़ा हुआ प्राणी जल ही के सहारे तैरता हुआ-उसकी एक हद से दूसरी हद तक पार करता हुआ अन्त में जल-राशि को पार कर स्थल पर आ जाता है, उसी तरह माया में पड़ा हुआ प्राणी सर्वेश्वर राम के देव वा नर आदि किसी मायिक रूप के सहारे से अभ्यास आरम्भ करके माया-विस्तार से पार होने को चल पड़ता है। (जानना चाहिए कि राम का मायिक रूप केवल दाशरथि रघुवीर ही नहीं है, बल्कि राम सर्वव्यापी हैं, इस कारण सारा-का-सारा विश्व, विश्व के एक अणु से परम प्रकाण्ड पिण्ड-विश्वरूप वा विराट रूप तक सब उन्हीं के रूप हैं।) फिर उनके अणु-से-अणु रूप, ज्योति-रूपों, फिर शब्द-रूपों का क्रम से सहारा ले-लेकर अभ्यासी माया-विस्तार को टपकर उनके (राम के) सहज, निर्मल, निर्गुण स्वरूप को पा जाता है। फिर उसे कुछ पाने को रह नहीं जाता है। परन्तु जैसे जल-राशि (अपार जल) में पड़ा हुआ मनुष्य उससे पार होने के लिए उसके एक ही भाग को जकड़कर पकड़ रखे, क्रमशः आगे न बढ़े और ख्याल करे कि मैं इसी (भाग) के सहारे जल-राशि को टप जाऊँगा, तो वह असफलमनोरथ होकर जल में डूब मरेगा। उसी तरह माया के केवल एक ही प्रकार-रूप (जो प्रथम ग्रहण हो सकता हो) को जकड़कर पकड़ रखनेवाला-उसके आगे न बढ़नेवाला अभ्यासी यह मनोरथ करे कि मैं माया से मुक्त होऊँ, तो वह असफल मनोरथ होगा और माया के महासागर में ही गोता खाता रहेगा।]
दोहा-निर्गुन रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिँ कोइ ।
सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होइ ।। 114।।
निर्गुण रूप अत्यन्त सुगम है और सगुण रूप को कोई नहीं जानता है; क्योंकि उसमें (सगुण रूप में) आसानी से समझने योग्य और समझ में नहीं आने योग्य (दोनों प्रकार के) अनेक चरित्र होते हैं, जिन्हें सुनकर मुनियों के मन में भ्रम होता है ।
हे गरुड़जी ! जब-जब राम नर-रूप धारण करते हैं, तब-तब मैं अवधपुरी जाता हूँ और उनका जन्मोत्सव और बाल-चरित्र देखता हूँ। लड़कपन में वे जहाँ-जहाँ फिरते हैं, मैं वहाँ-वहाँ उड़-उड़कर संग-संग जाता हूँ। उनका जूठा अन्न, जो गली-कूचों में गिरता है, मैं उठाकर खाता हूँ। एक बार बालक राम को साधारण बालक की तरह खेल करते देख मुझे मोह हो गया कि सच्चिदानन्द राम साधारण बालक की तरह यह कौन-सी लीला करते हैं ? (अर्थात् ये राम नहीं हैं, वे होते तो मामूली बच्चे के समान न खेलते।) इतना भ्रम मन में आते ही भगवान की प्रेरित माया मुझे पुनः लग गई। पर वह (माया) मुझको संसार में डालकर दुःख देनेवाली नहीं हुई। हे प्रभु ! ऐसा होने का कुछ दूसरा कारण है, वह आप सावधान होकर सुनिए-
ज्ञान अखंड एक सीता बर ।
माया बस्य जीव सचराचर ।। 737।।
पूर्ण ज्ञानी एक राम ही हैं और सब स्थावर और जंगम (नहीं चलनेवाले और चलायमान) जीव-मात्र माया के वश में हैं।
[पहले अनेक स्थानों पर सिद्ध कर दरसा दिया गया है कि सीता-वर (नर-रूप राम) विष्णु के अवतार हैं और चौ0 सं0 284-285 से प्रकट होता है कि विष्णु भी पूर्ण ज्ञानी नहीं हैं। श्रीराम ने नर-रूप में तो शोक और विलाप आदि अज्ञानियों की भाँति की भी लीला है (‘मनहु महा बिरही अति कामी ।’ - तृतीय सोपान)। तब जो यहाँ पर ‘ज्ञान अखंड एक सीता बर ।’ कहा गया है, वह भगवान के सहज रूप को ही लक्ष्य करके कहा गया है, न कि उनके देव वा नर आदि किसी मायामय सगुण रूप को।]
जौं सब के रह ज्ञान एक रस ।
ईस्वर जीवहिँ भेद कहहु कस ।। 738।।
यदि सबको एक समान ज्ञान रहे, तब कहिए ईश्वर और जीव में फिर अन्तर क्या रहे ?
माया बस्य जीव अभिमानी ।
ईस बस्य माया गुन खानी ।। 739।।
अभिमानी जीव माया के वश में है और गुणों (सत्त्व, रज, तम) की खान माया ईश्वर के वश में है।
पर बस जीव स्वबस भगवन्ता ।
जीव अनेक एक श्रीकन्ता ।। 740।।
जीव पराधीन है और भगवान स्वाधीन हैं। जीव अनेक हैं, भगवान एक हैं।
[रामचरितमानस के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी अनेक हैं। ‘श्रीकन्ता’ विष्णु भगवान के अतिरिक्त और कौन हो सकते हैं ? यहाँ पर ‘एक श्रीकन्ता’ से तात्पर्य विष्णु-शरीर-व्यापी केवल आत्मराम का है, न कि आत्मराम से व्याप्त विष्णु रूप का। परम तत्त्वमय आत्मराम एक ही हैं। वे सब शरीरों में व्याप्त होकर भी खण्ड-खण्ड होकर अनेक नहीं होते; बल्कि अनेक घट-मठों में व्याप्त एक ही आकाश की तरह वे एक ही अखण्ड रूप से व्यापक हैं।]
मुधा भेद जद्यपि कृत माया ।
बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया ।। 741।।
यद्यपि माया का किया हुआ भेद मिथ्या है, तथापि बिना हरि-कृपा के करोड़ों उपायों से दूर नहीं होता है।
[जीव और ईश्वर में भेद बतलाकर भी यही माना गया कि माया-कृत भेद मिथ्या है, हरि-कृपा से यह दूर हो जाएगा। चौ0 सं0 286 का तात्पर्य भी यही है कि अन्त में जीव-ब्रह्म का भेद मिट जाता है।]
दोहा-रामचन्द्र के भजन बिनु, जो चह पद निर्बान ।
ज्ञानवन्त अपि सो नर, पसु बिनु पूँछ बिषान ।। 115।।
रामचन्द्रजी के भजन के बिना जो मनुष्य मोक्ष चाहता है, वह ज्ञानवान होने पर भी बिना पूँछ-सींग का पशु है।
दोहा-राकापति षोड़स उअहिँ, तारा गन समुदाइ ।
सकल गिरिन्ह दव लाइय, बिनु रबि राति न जाइ ।। 116।।
पूर्णिमा के सोलह चन्द्रमा (अथवा सोलह कलाओं से युक्त चन्द्रमा) उगें, तारेगणों के सब झुण्ड भी उगें, सब पर्वतों में आग लगा दी जाय, परन्तु बिना सूर्य के रात नहीं जाती।
ऐसेहि बिनु हरि भजन खगेसा ।
मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा ।। 742।।
हे गरुड़जी ! इसी प्रकार बिना हरि-भजन किए जीवों का क्लेश नहीं मिटता।
हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या ।
प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या ।। 743।।
हरि-सेवकों को अविद्या-माया नहीं व्यापती, किन्तु प्रभु (राम) की प्रेरणा से उनको विद्या-माया व्यापती है।
[भक्त जबतक अपने अन्तर में साधन के द्वारा अपने इष्ट-देव का निर्मल, निर्गुण, अज, अनादि, अनन्त, आत्मराम, सहज स्वरूप प्राप्त नहीं कर सकता है, तभी तक उसे सेवक-सेव्य का भेद बना रहता है; क्योंकि चौ0 सं0 741 में कहा गया है कि भेद मिथ्या है, पर हरि-कृपा से दूर होता है। और चौ0 सं0 286 में कहा गया है कि ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई’ । तात्पर्य यह कि जो भक्त वचन-अगोचर, बुद्धि पर, अविगत, अकथ और अपार राम को वा निर्मल, निर्गुण और सहज आत्मरूप राम को जान लेता है, उसका सेवक-सेव्य भेद-भाव मिट जाता है-वह राम ही हो जाता है । ऐसी दशा में उसे विद्या वा अविद्या माया कैसे व्यापे ? वह तो माया-ईश वा माया के दोनों रूपों का प्रेरक ही हो जाता है। और जबतक भक्त इस सर्वोच्च पद तक नहीं पहुँचता है, तबतक ही वह राम-भक्त (राम नहीं) कहलाता है और उसको प्रभु-प्रेरित विद्या-माया व्यापती है, जिससे वह ऐसे अवसर पर व्याकुल, त्रसित और शोकित आदि होता रहता है। जैसे कागभुशुण्डि, राजा दशरथ और अर्जुन आदि हुए थे। इसलिए जो अपना परम कल्याण चाहे, व्याकुलता, त्रास और शोक आदि दुःखों से बचना चाहे, उसे चाहिए कि प्रथम सेवक-सेव्य भाव रखकर भक्ति-पथ में आगे बढ़ता जाय और अन्त में उपर्युक्त सर्वोच्च पद पर पहुँच सेवक-सेव्य भेद-भाव को छोड़ अविगत, अकथ, अपार रूप राम ही बनकर माया-प्रेरक बने, न कि विद्या-माया के वशवर्ती रह समय-समय पर व्याकुलता, त्रास और शोकादि से पीड़ित होवे।]
ताते नास न होइ दास कर ।
भेद भगति बाढ़इ बिहंग बर ।। 744।।
हे गरुड़जी ! उससे (विद्या-माया से) दास की सेवक-सेव्य- भेदभाववाली भक्ति नष्ट नहीं होती, बढ़ती है।
[यदि भक्ति-मार्ग में उस पद तक रहे, जहाँ उस पर विद्या- माया व्याप सके, तो वह भेद-भक्ति में विशेष होता हुआ उसे धारण किए रहेगा और उस दशा में रहने का फल जो चौ0 सं0 743 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में लिखा गया है, अवश्य भोगता रहेगा।]
फिर कागभुशुण्डिजी कहने लगे कि हे गरुड़जी ! जब प्रभु राम ने मुझे भ्रम से घबराया हुआ देखा, तो वे ठेहुनियाँ देते हुए मुझे पकड़ने को दौड़े। मैं भाग चला। फिर रामजी ने पकड़ने को बाँह फैला दी। जैसे-जैसे मैं आकाश में दूर और विशेष दूर उड़ता जाता था, वैसे-वैसे मैं प्रभु की भुजा को अपने पास देखता था। मैं उड़ता जाता और पीछे फिर-फिरकर देखता जाता था। इस प्रकार मैं ब्रह्मलोक तक गया। रामजी की भुजा और मुझमें केवल दो ही अंगुलियों का अन्तर था। सातो परदोंऽ को छेदकर जहाँ तक जा सकता था, मैं भागा; पर वहाँ भी प्रभु की भुजा अपने पास देखकर व्याकुल हो मैंने अपनी आँखें बन्द कर लीं। फिर आखें खोलते ही मैंने अपने को अवधपुरी में पाया। मुझे देखकर रामजी मुस्कुराने लगे। और जब वे मुँह खोलकर हँसे, तो मैं आकर्षित हो उनके मुँह में चला गया। उनके उदर में मैंने अनेकों ब्रह्माण्डों को देखा, उनमें अनगिनत ब्रह्मा, अनगिनत विष्णु, अनगिनत शिव, अनगिनत लोकों में अनगिनत लोकपाल आदि सब देवताओं के सहित देखे। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में मैंने अपना भी एक-एक रूप देखा। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में रामावतार, दशरथ-कौशल्या, पिता-माता और भरतादि भ्राताओं के सहित विविध रूपों में देखा; पर राम को सब जगह एक ही रूप में देखा। देखकर मेरी बुद्धि घनी अज्ञानता में फँसकर थक गई। कृपालु राम मुझे व्याकुल जानकर हँसे। हँसते ही मैं उनके मुख से बाहर निकल आया और त्राहि-त्राहि करके धरती पर गिर पड़ा, मुँह से बात न निकलने लगी। मुझे प्रेम से विह्वल देख अपनी माया की प्रभुता को प्रभु राम ने रोक दिया और मेरे सिर पर हाथ रख मुझे मोह से मुक्त कर दिया। प्रभु रमानिवास (लक्ष्मीपति) ने कहा कि हे काग ! तू वर माँग। अणिमादिक सिद्धियाँ, ऋद्धियाँ, मोक्ष, ज्ञान, विराग, विवेक और विज्ञान; सब आज मैं तुझे दूँगा, इसमें कुछ संशय नहीं है। तू माँग, जो तेरे मन में भावे। प्रभु के वचनों को सुन मैं बडे़ प्रेम में डूब गया और विचारने लगा कि प्रभु ने सब सुख देने को तो कहा, पर अपनी भक्ति देने की बात न बोले।
भगति हीन गुन सब सुख कैसे ।
लवन बिना बहु व्यंजन जैसे ।। 745।।
भक्ति के बिना गुण और सब सुख कैसे हैं, जैसे नमक के बिना बहुत-सी तरकारियाँ होती हैं।
ऐसा विचारकर मैंने कहा-‘हे प्रभो ! मुझे अविरल भक्ति दीजिए।’ प्रभु ‘एवमस्तु’ कहकर बोले कि हे पक्षी ! तूने भक्ति माँगी, यह मुझे बहुत अच्छा लगा। तेरे हृदय में सब भले गुण वास करेंगे और-
भगति ज्ञान बिज्ञान बिरागा ।
जोग चरित्र रहस्य बिभागा ।। 746।।
जानब तैं सबही कर भेदा ।
मम प्रसाद नहिँ साधन खेदा ।। 747।।
भक्ति, ज्ञान, विज्ञान, वैराग्य, योग के सब अंगों और उसके गुप्त चरित्रें के सहित; सबका भेद तू जानेगा और मेरी कृपा से इनके साधन में तुझे कोई कष्ट नहीं होगा।
दोहा-माया सम्भव भ्रम सकल, अब न ब्यापिहहिँ तोहि ।
जानेसु ब्रह्म अनादि अज, अगुन गुनाकर मोहि ।। 117।।
माया से उत्पन्न सम्पूर्ण भ्रम अब तुझे न व्यापेंगे । तू मुझे सर्वव्यापी, आदि-रहित, जन्म-रहित, गुण-रहित और गुणों की खान जानना।
दोहा-माहि भगत प्रिय सन्तत, अस बिचारि सुनु काग ।
काय बचन मन मम पद, करेसु अचल अनुराग ।। 118।।
हे काग ! सुन, मुझे भक्त सदा प्यारे हैं, ऐसा विचारकर शरीर, वचन और मन से मेरे चरणों में अटल प्रेम करना।
अब सुनु परम बिमल मम बानी ।
सत्य सुगम निगमादि बखानी ।। 748।।
अब मेरे अत्यन्त पवित्र वचनों को, जो वेद और शास्त्रें में सत्य और सुगम कहे हैं, सुनो।
निज सिद्धान्त सुनावउँ तोही ।
सुनि मन धरु सब तजि भजु मोही ।। 749।।
मैं अपना सिद्धान्त तुझे सुनाता हूँ, उसे सुन मन में धारण कर कि सब (संकल्पों) को छोड़कर मेरा भजन कर।
मम माया सम्भव संसारा ।
जीव चराचर बिबिध प्रकारा ।। 750।।
संसार के अनेक प्रकार के चर और अचर (चेतन और जड़) जीव मेरी माया से उत्पन्न हैं।
सब मम प्रिय सब मम उपजाये ।
सब तेँ अधिक मनुज मोहि भाये ।। 751।।
वे सभी मेरे प्यारे हैं, क्योंकि सब मेरे उपजाए हुए हैं; पर उनमें सबसे अधिक अच्छे मुझे मनुष्य लगते हैं।
तिन महँ द्विज द्विज महँ स्त्रुतिधारी ।
तिन्ह महँ निगम धर्म अनुसारी ।। 752।।
उनमें (मनुष्यों में) द्विज, द्विजों में वेद जाननेवाले और उनमें (वेदज्ञों में) जो वेदोक्त कर्मानुसार चलते हैं (अधिक प्यारे हैं)।
तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ज्ञानी ।
ज्ञानिहुँ तेँ अति प्रिय बिज्ञानी ।। 753।।
उनमें वैराग्यवान प्यारे हैं, फिर विरक्तों में ज्ञानी और ज्ञानियों में विज्ञानी अत्यन्त प्रिय हैं।
तिन्ह तेँ पुनि मोहि प्रिय निज दासा ।
जेहि गति मोरि न दूसरि आसा ।। 754।।
उन विज्ञानियों से फिर मुझको अपने भक्त प्यारे हैं, जिन्हें मेरी गति छोड़ दूसरी आशा नहीं है।
पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीँ ।
मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीँ ।। 755।।
मैं तुझे बारम्बार सत्य कहता हूँ कि मुझे सेवक के समान कोई प्रिय नहीं है।
भगति हीन बिरंचि किन होई ।
सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई ।। 756।।
भक्ति के बिना ब्रह्मा ही क्यों न हो, वह साधारण जीव के समान मुझे प्रिय हैं।
भगतिवन्त अति नीचउ प्रानी ।
मोह प्रान प्रिय असि मम बानी ।। 757।।
भक्तिवन्त अत्यन्त नीच प्राणी भी हो, वह मुझे प्राण-तुल्य प्यारा है, ऐसी मेरी प्रकृति है।
दोहा-सुचि सुसील सेवक सुमति, प्रिय कहु काहि न लाग ।
स्त्रुति पुरान कह नीति असि, सावधान सुनु काग ।। 119।।
पवित्र, सुशील और अच्छी बुद्धिवाला सेवक, कहो किसको प्यारा नहीं लगता ? हे काग ! वेद और पुराण ऐसी नीति कहते हैं, तू सचेत होकर सुन।
एक पिता के बिपुल कुमारा ।
होहिँ पृथक गुन सील अचारा ।। 758।।
एक पिता के भिन्न-भिन गुण, शील और आचरणवाले बहुत-से पुत्र होते हैं।
कोउ पंडित कोउ तापस ज्ञाता ।
कोउ धनवन्त सूर कोउ दाता ।। 759।।
कोई पण्डित, कोई तपस्वी, कोई ज्ञानी, कोई धनी, कोई शूरवीर और कोई दानी,
कोउ सर्वज्ञ धर्म रत कोई ।
सब पर पितहि प्रीति सम होई ।। 760।।
कोई सर्वज्ञ और कोई धर्म में तत्पर होते हैं, परन्तु पिता की प्रीति सबों पर बराबर होती है।
कोउ पितु-भगत बचन मन कर्मा ।
सपनेहु जान न दूसर धर्मा ।। 761।।
कोई मन, वचन और कर्म से पिता का भक्त होता है, वह दूसरा धर्म स्वप्न में भी नहीं जानता है।
सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना ।
जद्यपि सो सब भाँति अयाना ।। 762।।
वही पुत्र पिता को प्राण के समान प्रिय है, यद्यपि वह सब तरह से अनजान है।
एहि विधि जीव चराचर जेते ।
त्रिजग देव नर असुर समेते ।। 763।।
इसी तरह तीनों लोकों में देवता, मनुष्य और राक्षसों के सहित जड़-चेतन जितने जीव हैं।
अखिल बिस्व यह मम उपजाया ।
सब पर मोहि बराबरि दाया ।। 764।।
यह सम्पूर्ण संसार मेरा उत्पन्न किया हुआ है, सब पर मेरी बराबर दया है।
तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया ।
भजहिँ मोहि मन बच अरु काया ।। 765।।
उनमें (विश्व-भर के जीवों में) जो अहंकार और छल छोड़कर मन, वचन और शरीर से मुझे भजते हैं।
दोहा-पुरुष नपुंसक नारि वा, जीव चराचर कोइ ।
सर्बभाव भज कपट तजि, मोहि परम प्रिय सोइ ।। 120।।
पुरुष, नपुंसक, स्त्री या चर-अचर जीवों में से जो कोई कपट त्यागकर पूर्ण भाव से मेरा भजन करता है, वह मुझे अत्यन्त प्यारा है।
सोरठा-सत्य कहउँ खग तोहि, सुचि सेवक मम प्रान प्रिय ।
अस विचारि भजु मोहि, परिहरि आस भरोस सब ।। 121।।
हे पक्षी ! तुझे सत्य कहता हूँ कि पवित्र सेवक मुझे प्राण समान प्रिय हैं, ऐसा विचार सब आशा और भरोसा छोड़कर तू मेरा भजन कर।
कागभुशुण्डि कहने लगे-हे गरुड़जी ! प्रभु राम मेरे साथ ऊपर वर्णित कौतुक करके फिर शिशु-लीला करने लगे। इस (कौतुक) को प्रभु के छोटे भाई और माता-पिता भी न जानने पाए।
सोरठा-जेहि सुख लागि पुरारि, असुभ बेष कृत सिव सुखद ।
अवधपुरी नर नारि, तेहि सुख महँ सन्तत मगन ।। 122।।
जिस सुख में लगकर त्रिपुर राक्षस के शत्रु शिवजी अशुभ वेश किए रहने पर भी सुख-दाता हैं, अयोध्यापुरी के स्त्री-पुरुष सर्वदा उसी सुख में मग्न रहते हैं।
सोरठा-सोइ सुख लवलेस, जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ ।
ते नहिँ गनहिँ खगेस, ब्रह्म सुखहिँ सज्जन सुमति ।। 123।।
हे पक्षीराज ! उस सुख का लेश-मात्र जिन्होंने एक बार स्वप्न में भी पाया है, वे बुद्धिमान सज्जन (उसके आगे) ब्रह्म के सुख को भी कुछ नहीं समझते हैं।
[सो0 122 में वर्णित सुख कौन-सा है ? अवधपुरी कौन-सी हैं ? इनके उत्तर में यदि कहा जाय कि दाशरथि राम की बाल- लीलाओं को देखने से जो सुख होता है, वही ऊपर कथित सुख है और अवधपुरी वही है, जो भारतवर्ष में जिला फैजाबाद के अन्तर्गत अयोध्या नाम से विख्यात है और जिसमें हनुमान-गढ़ी आदि प्रसिद्ध स्थान हैं, तो विचार से ये उत्तर ठीक नहीं जँचते। क्योंकि- ‘अवधपुरी नर नारि, तेहि सुख महँ सन्तत मगन।’ के अर्थ के अनुसार भूत, वर्तमान और भविष्यत्; तीनों कालों में वहाँ के नर-नारी को उस सुख में मग्न रहना चाहिए। पर यथार्थ में यह बात देखी नहीं जाती है; क्योंकि देखिये रामजी के राजत्व काल ही में एक धोबी राम और सीता की निन्दा क्योंकर कर सका था ? और भी देखिए कि राम-राज्य में शूद्र के तप करने से ब्राह्मण-पुत्र मर गया, तब ब्राह्मण ने शोकित-क्रोधित हो भरी सभा में राम को कठोर वचन कह डाला। क्या उनसे भी ऐसे कर्म और चरित्र हो सकते हैं, जो सदा रामजी की बाल-लीला प्रत्यक्ष देखने, सुनने वा उनका गुण गाने वा चिन्तन करने के सुख में मग्न रहते हैं।
यह बात निर्विवाद है कि शिवजी महायोगी हैं। ‘जोगिन प्रभुहि तत्त्वमय भासा ।’ के अनुसार वे परम तत्त्वमय अर्थात् सहज स्वरूप में लगे हुए हैं। रामचरितमानस प्रथम सोपान में लिखा भी है-‘संकर सहज सरूप सँभारा । लागि समाधि अखंड अपारा।।’ इससे मानना पड़ेगा कि अवधपुरी के नारी-नर ‘सहजरूप’ के सुख में सदा मग्न रहते हैं। अब यह जानना है कि ‘सहज स्वरूप’ का वर्णन गो0 तुलसीदासजी, क्या करते हैं।
विनय-पत्रिका में लिखा है-‘जिय जब तें हरि तें बिलगानेउ । तब तें देह गेह निज जानउ ।। माया बस सरूप बिसरायेउ । तेहि भ्रमतें नाना दुख पायेउ ।। तहँ मगन मज्जसि पान करि त्रयकाल जल नाहीं जहाँ । निज सहज अनुभव-रूप तव खल, भूलि अब आयउँ तहाँ ।। सेवत साधु द्वैत भय भागे । श्रीरघुवीर चरण लय लागे ।। देह जनित विकार सब त्यागे । तब फिर निज सरूप अनुरागे ।। अनुराग सो निजरूप जो जग तें बिलच्छन देखिये । सन्तोष सम सीतल सदा दम देहवन्त न लेखिये ।। निर्मल निरामय एक रस तेहि हर्ष शोक न व्यापई । त्रयलोक पावन सो सदा जाकी दसा ऐसी भई ।।’
इन पदों में ‘सरूप’, ‘निज सहज अनुभव रूप’ और ‘निज रूप’ निर्मल आत्म-स्वरूप को कहा गया है और ‘सहज सरूप’ भी ‘सहज अनुभव रूप’ वा ‘आत्म-स्वरूप’ से भिन्न दूसरा कुछ नहीं है। ‘विनय-पत्रिका’ के ये (उपर्युक्त) पद बतलाते हैं कि साधु सेवा से पहले रघुपति-चरण में लव लगता है अर्थात् सगुण ब्रह्म में प्रेम होता है, तब देह जनित विकार छूटते हैं और अन्त में निज स्वरूप वा सहज स्वरूप वा सहज अनुभव रूप में अनुराग होता है। रामचरितमानस में लिखा है कि जब सती ने राम की परीक्षा के लिए सीता का रूप धारण किया था और शंकरजी ने इस बात को ध्यान में जान लिया था, तब वे मन में सती का संग छोड़ सतासी (87) हजार वर्ष तक अखण्ड समाधि में सहज स्वरूप सम्हाल उसमें लगे रहे। इससे साफ प्रकट होता है कि शंकरजी ‘सहज सरूप’ के सुख में लगे रहते हैं, न कि सगुण रूप के दर्शन आदि के सुख में। हाँ, यह बात ठीक है कि उपासना के आरम्भ में जैसा कि ऊपर में ‘विनय-पत्रिका’ का प्रमाण लिखा जा चुका है, उपासक को सगुण रूप में ऐकान्तिक भाव से लगना पड़ता है और शंकरजी भी अवश्य ही उस भाव में लगे होंगे; पर रामचरितमानस से ही विदित होता है कि कागभुशुण्डि और गरुड़ से जिस काल में संवाद हुआ था, उसके प्रथम ही श्रीशंकरजी ‘सहज सरूप’ के सुख में लगे हुए हैं और दो0 सं0 122 के अनुसार अवधपुरी के स्त्री-पुरुष इसी (शिवजी वाले) सुख में लगे रहते हैं। पर यह सिद्ध नहीं हो सकेगा कि फैजाबाद जिला के अन्तर्गत की अवधपुरी के नारी-नर सदा इसी सुख में लगे रहते थे वा लगे रहते हैं। हाँ, वशिष्ठजी और उनके तुल्य, वहाँ पहले भी उस सुख में लगे थे और अब भी कोई वैसे हो सकते हैं, पर भूतकाल में श्रीराम के पिता दशरथ जी के विषय में रामचरितमानस में ऐसा नहीं गाया गया है कि वे श्रीशंकरजी की तरह समाधि-द्वारा ‘सहज सरूप’ में लगकर उसका सुख प्राप्त कर सकते थे। इस कारण यह अवश्य ही मानना पड़ता है कि वह अवधपुरी दूसरी ही है, जिसके नारी-नर ‘सहज सरूप’ के सुख में लगे रहते हैं। रामचरितमानस के प्रथम सोपान-बालकाण्ड में लिखा है कि ‘सन्त सभा अनुपम अबध सकल सुमंगल मूल ।’ अर्थात् दूसरी अवधपुरी सन्तों की सभा है, जिसके नारी-नर ‘सहज सरूप’ के सुख में सर्वदा लगे रहते हैं, इसमें कुछ सन्देह नहीं; क्योंकि सत्संग की महिमा अगम है; यथा-‘तात स्वर्ग अपबर्ग सुख, धरिय तुला इक अंग । तूल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सत्संग ।। दो0 सं0 123 में कहा गया है कि दो0 सं0 122 में कहे गए सुख को जो एक बार स्वप्न में भी पा लेता है, वह इस (सुख) के आगे ब्रह्म-सुख को तुच्छ समझता है। यहाँ ब्रह्म-सुख का अर्थ निर्गुण ब्रह्म-प्राप्ति का सुख नहीं है; क्योंकि यहाँ ब्रह्म का अर्थ निर्गुण ब्रह्म नहीं, बल्कि ब्रह्मा है। सहज रूप, सहज अनुभव रूप, निज रूप वा आत्मरूप; जिसका वर्णन पहले हो चुका है, वही तत्त्व है, जो निर्गुण ब्रह्म है। इसीलिए रामचरितमानस में ‘सो तुम ताहि तोहि नहिं भेदा ।’ कहा गया है। इसी के बारे में लोमशजी ने कहा कि यह उपदेश ‘परम सुख’ है। (इसका विशेष वर्णन यथा-स्थान देखिए।) अतएव निर्गुण ब्रह्म-प्राप्ति और सहज सरूप-प्राप्ति का सुख एक ही है। यदि दोहा सं0 123 में ब्रह्म-सुख का अर्थ निर्गुण ब्रह्म-प्राप्ति का सुख किया जाय, तो दो0 122 और 123 को मिलाकर सारांश निकलता है कि जो सहज सरूप के सुख में लगे रहते हैं, वे निर्गुण ब्रह्म-प्राप्ति के सुख को तुच्छ समझते हैं। ऐसा अर्थ बुद्धि संगत नहीं होगा; क्योंकि ऊपर बतलाया जा चुका है कि सहज सरूप और निर्गुण ब्रह्म एक ही तत्त्व है। रामचरितमानस में ब्रह्म, ब्रह्मा को भी कहा गया है; यथा-‘मोर बचन सबके मन माना । साधु साधु करि ब्रह्म बखाना ।।’ (प्रथम सोपान-बालकाण्ड ) और भी-‘जब रावनहिं ब्रह्म बर दीन्हा । चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ।।’ (पंचम सोपान -सुन्दरकाण्ड)
इसलिए दो0 सं0 123 में ब्रह्म का अर्थ है ब्रह्मा और ब्रह्म- सुख का अर्थ है ब्रह्मा का सुख अर्थात् वह सुख जो ब्रह्माजी अपने लोक में रहकर भोगते हैं। सहज सरूप में लगे रहने के सुख के सामने ब्रह्मा का यह सुख निश्चय ही तुच्छ है; क्योंकि ब्रह्मा का सुख स्वर्गीय सुख है। रामचरितमानस में लिखा है कि ‘स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई’, पर ‘सहज सरूप’ के सुख को विनय-पत्रिका में ‘निर्मल, निरंजन, निर्विकार, उदार सुख’ कहा गया है।]
फिर कागभुशुण्डि गरुड़ से कहने लगे-
निज अनुभव अब कहउँ खगेसा ।
बिनु हरि भजन न जाहिँ कलेसा ।। 766।।
हे पक्षीराज ! मैं अपना अनुभव कहता हूँ कि बिना हरि- भजन के क्लेश दूर नहीं होता है।
[अनुभव = ‘निज सहज अनुभव-रूप’ की प्राप्ति होने पर जो ज्ञान उत्पन्न होता है, इसका वर्णन सो0 सं0 123 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में पढ़िए । हरि-भजन = हरि के दोभुजी, चतुर्भुजी वा बहुभुजी मायिक रूपों के सहारे उपासना कर, चित्त का निरोध कर चौ0 सं0 292 और 293 में कथित साधन से हरि के विन्दु-रूप को प्राप्त करते हुए उसके आगे चौ0 सं0 459 में वर्णित भक्ति के द्वारा उनके उस रूप को, जो सो0 सं0 42 में वर्णित है, प्राप्त करना है। सारांश यह कि चौ0 456 से 459 तक में वर्णित भक्ति के साधनों को करना हरि-भजन है।]
राम कृपा बिनु सुनु खगराई ।
जानि न जाइ राम प्रभुताई ।। 767।।
हे गरुड़जी ! सुनिए, राम की कृपा के बिना राम का बड़प्पन नहीं जाना जाता है।
जाने बिनु न होइ परतीती ।
बिनु परतीति होइ नहिँ प्रीती ।। 768।।
जाने बिना (राम का बड़प्पन जाने बिना) उनमें विश्वास नहीं होता और विश्वास के बिना प्रेम नहीं होता है।
प्रीति बिना नहिँ भगति दृढ़ाई ।
जिमि खगेस जल कै चिकनाई ।। 769।।
हे गरुड़जी ! प्रीति के बिना भक्ति दृढ़ नहीं होती, जैसे जल की चिकनाई नहीं टिकती।
सोरठा-बिनु गरु होइ कि ज्ञान, ज्ञान कि होइ बिराग बिनु ।
गावहिँ बेद पुरान, सुख कि लहिय हरि भगति बिनु ।। 124।।
क्या बिना गुरु के ज्ञान हो सकता है ? क्या ज्ञान के बिना वैराग्य हो सकता है ? वेद और पुराण कहते हैं कि क्या हरि-भक्ति के बिना सुख मिलता है ? (अर्थात् नहीं मिलता है।)
सोरठा-कोउ बिस्त्राम कि पाव, तात सहज सन्तोष बिनु ।
चलइ कि जल बिनु नाव, कोटि जतन पचि पचि मरिय ।। 125।।
हे तात ! क्या कोई जीव बिना सहज सन्तोष के सुख पा सकता है ? करोड़ों उपाय करके, पच-पचकर मरने पर भी क्या बिना जल के नाव चल सकती है ? (कदापि नहीं)।
बिनु सन्तोष न काम नसाहीँ ।
काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीँ ।। 770।।
बिना सन्तोष के इच्छा का नाश नहीं होता है और इच्छा के रहते हुए (जीव को) स्वप्न में भी सुख नहीं होता है।
राम भजन बिनु मिटहिँ कि कामा ।
थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा ।। 771।।
क्या राम-भजन के बिना इच्छा नष्ट होती है ? क्या मिट्टी के बिना वृक्ष जमता (उगता) है ? (नहीं)।
बिनु बिज्ञान कि समता आवै ।
कोउ अवकास कि नभ बिनु पावै ।। 772।।
क्या बिना विज्ञान के समता आती है ? क्या कोई आकाश के बिना स्थान पाता है ? (नहीं)।
[सबमें एक ब्रह्म देखना ज्ञान है (देखिये चौ0 सं0 409)। सब विविधताओं का एक ही ब्रह्मरूप होकर एकता में दरसना विज्ञान है (देखिए चौ0 सं0 459)। जैसे आकाश के बिना कोई स्थान नहीं पा सकता है, उसी तरह विज्ञान की प्राप्ति किए बिना कोई समता नहीं पा सकता है। चौ0 सं0 459 में वर्णित नवधा भक्ति की 7 वीं भक्ति के साधन से विज्ञान प्राप्त होता है और विज्ञान की प्राप्ति होने पर भक्ति का साधन पूर्ण हो जाता है। नवधा भक्ति की आठवीं और नौवीं भक्ति तो 7 वीं भक्ति का फल-रूप ही है। इस हेतु कहा जा सकता है कि भक्ति-मार्ग में विज्ञान की उपयोगिता और उसका महत्व सबसे अधिक है।]
श्रद्धा बिना धरम नहिँ होई ।
बिनु महि गन्ध कि पावइ कोई ।। 773।।
श्रद्धा (गुरु और धर्म-ग्रन्थों में विश्वास) के बिना धर्म नहीं प्राप्त होता है। क्या कोई बिना धरती के गन्ध पा सकता है? (नहीं)।
बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा ।
जल बिनु रस कि होइ संसारा ।। 774।।
क्या बिना तप के तेज बढ़ता है? क्या संसार में बिना पानी के रस हो सकता है ?
[जल का गुण रस है। जैसे जल-बिना रस नहीं होता है, उसी तरह तप के बिना तेज नहीं बढ़ता है। विषय-भोग में लिप्त नहीं होना तप है। भक्ति-मार्ग में तप की बड़ी आवश्यकता है। चौ0 सं0 919 में लिखा है कि भक्ति-रूपी औषधि के सेवन करने में संयम यही है कि विषय की आशा नहीं रखे। (यथा-‘संयम यह न बिषय की आसा।’)]
कबिनिउँ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा ।
बिनु हरि भजन न भव भय नासा ।। 775।।
क्या बिना विश्वास के कोई सिद्धि हो सकती है ? (नहीं), बिना हरि-भजन के संसार का भय नष्ट नहीं होता।
दोहा-बिनु बिस्वास भगति नहिँ, तेहि बिनु द्रवहिँ न राम ।
रामकृपा बिनु सपनेहुँ, जीव न लह विश्राम ।। 126।।
विश्वास के बिना भक्ति नहीं होती, बिना भक्ति के रामजी दया नहीं करते और बिना राम की कृपा के जीव स्वप्न में भी सुख नहीं पाता है।
राम काम सत कोटि सुभग तन ।
दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन ।। 776।।
रामजी असंख्य कामदेव के समान सुन्दर शरीरवाले हैं और करोड़ों दुर्गा के समान असंख्य शत्रुओं के नाशक हैं।
सक्र कोटि सत सरिस बिलासा ।
नभ सत कोटि अमित अवकासा ।। 777।।
सौ करोड़ इन्द्र के समान विलास करनेवाले हैं और असंख्य आकाश के समान परिमाण-रहित अवकाश (शून्य स्थान) वाले हैं।
दोहा-मरुत कोटि सत बिपुल बल, रबि सत कोटि प्रकास ।
ससि सत कोटि सुसीतल, समन सकल भव त्रास ।। 127।।
सौ करोड़ पवन के समान बड़े बली, सौ करोड़ सूर्य के समान प्रकाशवाले, सौ करोड़ चन्द्रमा के समान सुन्दर शीतल और संसार के सम्पूर्ण भयों के नाश करनेवाले हैं।
दोहा-काल कोटि सत सरिस अति, दुस्तर दुर्ग दुरन्त ।
धूमकेतु सत कोटि सम, दुराधरष भगवन्त ।। 128।।
असंख्य काल के समान अत्यन्त कठिन, दुर्गम और अपार हैं। अपरिमित अग्नि के समान भगवान राम (रामजी) कठिनता से धरने के योग्य हैं।
प्रभु अगाध सत कोटि पताला ।
समन कोटि सत सरिस कराला ।। 778।।
रामजी अनगिनत पाताल के समान गहरे और अनगिनत यमराज के समान भयंकर हैं।
तीरथ अमित कोटि सत पावन ।
नाम अखिल अघ पूग नसावन ।। 779।।
असंख्य तीर्थ के समान बहुत पवित्र हैं और उनका नाम सम्पूर्ण पाप-राशि को नाश करनेवाला है।
हिम गिरि कोटि अचल रघुबीरा ।
सिन्धु कोटि सत सम गम्भीरा ।। 780।।
रामजी करोड़ों हिमालय पर्वत के समान स्थिर और असंख्य समुद्र के समान गहरे हैं।
कामधेनु सत कोटि समाना ।
सकल काम दायक भगवाना।। 781।।
श्रीरामजी अनगिनत कामधेनु के समान सब इच्छाओं के देनेवाले हैं।
सारद कोटि अमित चतुराई ।
बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई ।। 782।।
करोड़ों सरस्वती के समान बहुत अधिक चतुर और अनगिनत ब्रह्मा के समान सृष्टि करने में प्रवीण हैं।
बिष्नु कोटि सम पालन करता ।
रुद्र कोटि सत सम संघरता ।। 783।।
अनगिनत विष्णु के समान पालन करनेवाले और अनगिनत रुद्र के समान संहार करनेवाले हैं।
धनद कोटि सत सम धनवाना ।
माया कोटि प्रपञ्च निधाना ।। 784।।
सौ करोड़ कुबेर के समान धनवान और करोड़ों माया के समान छल की खान हैं।
भार धरन सत कोटि अहीसा ।
निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा ।। 785।।
प्रभु रामजी अनगिनत शेषनाग के समान भार धारण करनेवाले, अनन्त, उपमा-रहित और जगत के स्वामी हैं।
हरिगीतिका छन्द
छन्द-निरुपम न उपमा आन राम समान राम निगम कहै ।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै ।।
एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनीस हरिहि बखानहीं ।
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सचु पावहीं ।। 9।।
वेद कहते हैं कि राम उपमा-रहित हैं, उनकी दूसरी उपमा नहीं है, राम के समान राम ही हैं। जैसे असंख्य जुगनुओं के समान सूर्य को कहने से उनकी (सूर्य की) हीनता होती है; (वैसे ही असंख्य विष्णु, ब्रह्मा, रुद्र आदि के तुल्य राम को कहने से राम की बड़ी हीनता होती है।) इसी प्रकार अपने-अपने बुद्धि-विलास के अनुसार मुनीश्वर हरि का बखान करते हैं । प्रभु रामजी प्रेम के ग्रहण करनेवाले अत्यन्त कृपालु हैं और प्रेम-भरी वाणी सुनकर सुख पाते हैं।
[सम्पूर्ण आकाश के अवकाश का सौ करोड़ गुणा अवकाश राम में स्थित अवकाश से अत्यन्त तुच्छ है। इसलिए आकाश को राम से बाहर मानना निरा-बालकपन है। यदि ऐसे अवकाशवाले शरीर को धरनेवाले सगुण राम माने जावें, तो उनको शरीर के अवयवों के बाहर प्रति ओर तथा एक अवयव को दूसरे अवयव के पृथक् करते हुए अवयवों के बीच-बीच में आकाश का होना माने बिना कदापि बन नहीं सकता है; क्योंकि यदि ऐसा न माना जाय, तो वह शरीर है और वह शरीर का अवयव है; इस प्रकार पृथक्-पृथक् दोनों की पहचान नहीं हो सकती है। फिर पहचान करनेवाले के लिए भी उस शरीर के बाहर आकाश-हीनता के कारण स्थान नहीं रह सकता कि जहाँ रहकर वह शरीर और उसके अवयवों को पहचान सके। अतएव सम्पूर्ण आकाश से असंख्य गुणा विस्तृत परम विराट्मय अत्यन्त सुन्दर और परम आश्चर्यमय कोई भी शरीरधारी सगुण रूप नहीं हो सकता है कि जिसके बाहर आकाश न हो। यदि उसके बाहर आकाश माना जाएगा तो यह भी निश्चय ही मानना पड़ेगा कि जितना बड़ा आकाश उस रूप के भीतर है, उससे अधिक विस्तृत आकाश उससे बाहर है, और ऐसा मानने पर ‘नभ सत कोटि अमित अवकासा’ कहना अत्यन्त मिथ्या और निरर्थक होगा। इसलिए देह-रहित निर्गुण राम को ही ‘नभ सत कोटि अमित अवकासा’ का रूप कहा है वा उसी में यह परम अवकाश है, ऐसा माने बिना कदापि काम नहीं चल सकता है। अतएव चौ0 सं0 776 से छन्द 9 पर्यन्त जो परम आश्चर्यमयी महिमा गाई गई है, वह शरीरधारी सगुण राम की नहीं है, निर्गुण स्वरूप राम की है। रामचरितमानस को ये दो बातें स्वीकार हैं कि (1) राम का प्रथम पुरातन और सहज स्वरूप अगुण, अरूप, अलख और अज है। (2) जैसे जल से पाला और ओला बनता है, वैसे ही निर्गुण से ही सगुण होता है। (देखिए चौ0 सं0 168-169)।
इन दोनों सिद्धान्तों के अनुसार कामदेव, दुर्गा, इन्द्र, नभ, मरुत, रवि, शशि, काल, अग्नि, पाताल, यमराज, तीर्थ, हिमगिरि, सिन्धु, कामधेनु, सरस्वती, विधि, विष्णु, रुद्र, कुबेर, माया और शेषनाग अपने-अपने गुण, शक्तियों और प्रसाद आदि के सहित सगुण होने के कारण निर्गुण रूप राम से ही जल से हिम और उपल के समान उपजते हैं। निर्गुण रूप राम सब प्रकार आदि-अन्त-रहित हैं। (देखिए चौ0 सं0 185 और 723) इस कारण कहे गए सब सगुण देवादि में से प्रत्येक गणना में चाहे कितना भी अधिक उपजें, फिर भी ये सब मिलकर उस परम स्वरूप (निर्गुण राम) के सम्मुख सर्वथा अत्यन्त तुच्छ निश्चय ही रहेंगे। रामचरितमानस के अनुसार जैसे उपल पिण्ड में ओत-प्रोत केवल जल-ही-जल है-वह जलांश का ही दूसरा रूप है; उसी प्रकार कोई भी स्थूल-सूक्ष्म रूप निर्गुण स्वरूप राम से ओत-प्रोत, भरा हुआ होकर निर्गुण स्वरूप रामांश का ही दूसरा रूप है (अंश-अंशी का भेद चौ0 सं0 78 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में पढ़कर जानिए।) दाशरथि सगुण नर-रूप राम, विष्णु-अवतार थे, यह बात कई स्थानों पर रामचरितमानस के ही आधार पर सिद्ध करके दिखलाई गई है। उन्हीं राम को सूर्य और विष्णु को जुगनू मानना निरी भूल है। हाँ, निर्गुण रूप राम को, जिनसे सगुण राम और विष्णु-शरीर व्याप्त है, सूर्य माना जाय और सगुण राम तथा विष्णु-शरीर जुगनू माने जायँ, तो यह अत्यन्त निर्भ्रम और मानने योग्य है।
चौ0 सं0 776 से दोहा सं0 129 तक में राम की महिमा और बड़ाई को पढ़कर बहुतों की धारणा है कि इस तरह की बड़ाई और महिमा गो0 तुलसीदासजी की अतिशयोक्ति है। श्रीराम के पक्ष में अतिरोचक है, अतिरंजित है। परन्तु मुझे उन बहुतों की धारणा यथार्थ नहीं जानने में आती है। यदि गो0 तुलसीदासजी महाराज ‘राम’ कहकर केवल सगुण-साकार को ही जानते तो उन बहुतों की धारणा यथार्थ कही जा सकती; परन्तु गो0 तुलसीदासजी महाराज राम को निर्गुण स्वरूपी भी अवश्य मानते हैं। और रामचरितमानस में राम-स्वरूप को अनेक स्थलों पर ‘अविगत, अलख, अपार, अनन्त, अखण्ड, अज, निर्गुण, निराकार, प्रकृति-पार और नित्य निरंजन’ आदि भी कहकर जानते हैं। देखिए-चौ0 सं0 77, 105, 119, 168, 173, 185, 190, 195, 209, 211, 240, 274, 275, 288, 722 से 726 पर्यन्त और दो0 सं0 32, 35, 42 इत्यादि। और राम परमात्मा का मूलस्वरूप ‘अगुण अखण्ड अलख अज’ ही बतलाते हैं; तब निर्गुण-अखण्ड-अपार के लिए चौ0 सं0 776 से दोहा 129 तक में वर्णित महिमा और बड़ाई पूर्णरूपेण यथार्थ है। हाँ, यह अवश्य कहेंगे कि श्रीगोस्वामीजी ने सगुण उपमाओं के द्वारा सगुण-साकार रूप राम को नहीं, बल्कि उनके निर्गुण स्वरूप को दरसाया है। यह गोस्वामीजी महाराज की विलक्षण और अति गंभीर बुद्धि की विशेषता है।
सगुण और साकार रूपों के उत्कर्ष को पराकाष्ठा तक पहुँचाकर उनको भी तुच्छ कर देने से तब निर्गुण-निराकार के अतिरिक्त दूसरे कुछ का बोध नहीं हो सकता है। चौ0 सं0 776 से दोहा सं0 129 तक में सगुण-साकार रूपों को पराकाष्ठा तक पहुँचाकर फिर अति तुच्छ कर दिया है; क्योंकि विश्व के सम्पूर्ण जुगनुओं को भी मिलाकर कैसे कहा जायगा कि सूर्य उन जुगनू-समूह के तुल्य है ?]
दोहा-राम अमित गुन सागर, थाह कि पावइ कोइ ।
सन्तन्ह सन जस कछु सुनेउँ, तुम्हहिँ सुनायउँ सोइ ।। 129।।
राम अपार गुणों के समुद्र हैं, क्या उनकी थाह कोई पा सकता है ? मैंने सन्तों से जैसा कुछ सुना है, तुमको वही सुनाया।
सोरठा-भाव बस्य भगवान, सुख निधान करुना भवन ।
तजि ममता मद मान, भजिय सदा सीता रमन ।। 130।।
भगवान सुख के स्थान, दया के घर और प्रेम से वश होने योग्य हैं। ममता, मद और मान को छोड़कर सदा सीतारमण राम को भजिए।
[यहाँ पर प्रश्न हो सकता है कि प्रथम निर्गुण स्वरूप राम की ही महिमा का वर्णन करके तुरत ‘सीता-रमण’ सगुण नर-रूप- धारी का भजन क्यों करने को कहा गया ? इसका उत्तर दो0 सं0 113 के अर्थ के नीचे कोष्ठ के सम्पूर्ण विचारों को समझकर पढ़ने पर मिलेगा।]
गरुड़ ने कागभुशुण्डि की बातें सुनकर परमानन्द पाया और उनको प्रणाम कर बोले-
गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई ।
जौं बिरंचि संकर सम होई ।। 786।।
बिना गुरु के कोई संसार-सागर से पार नहीं हो सकता है, यदि ब्रह्मा और शिवजी के समान भी हो।
[कवि ने ‘जौं हरि बिधि संकर सम होई’ ऐसा नहीं लिखा।]
गरुड़ ने कागभुशुण्डि की प्रशंसा कर हाथ जोड़कर कई प्रश्न किए-
1ला-आपने किस कारण काग का शरीर पाया ?
2रा-आपने रामचरित सर कहाँ पाया ?
3रा-
नाथ सुना मैं अस सिव पाहीँ ।
महा प्रलयहु नास तव नाहीँ ।। 787।।*
हे नाथ ! मैंने भगवान शिव से ऐसा सुना है कि महाप्रलय में भी आपका नाश नहीं होता है।
[सब ब्रह्माण्डों का नाश महाप्रलय है।]
मुधा बचन ईश्वर नहिँ कहई ।
सोउ मोरे मन संसय अहई ।। 788।।*
ईश्वर (शिवजी) कभी झूठे वचन नहीं कहते। वह भी मेरे मन में सन्देह है।
अग जग जीव नाग नर देवा ।
नाथ सकल जग काल कलेवा ।। 789।।
हे नाथ ! संसार के स्थावर, जंगम, नाग, नर और सब जीव काल के कलेवा-मात्र हैं (इनको खाने से वह अघाता नहीं है।)।
अंड कटाह अमित लय कारी ।
काल सदा दुरति क्रम भारी ।। 790।।
अनेकों ब्रह्माण्डों का नाश करनेवाला काल सदा दुस्तर (बड़ा बली) है।
सो अत्यन्त भयंकर काल आपको क्यों नहीं व्यापता है ? क्या इसका कारण ज्ञान का प्रभाव अथवा योग-बल है ? सो आप कृपा कर प्रेम से कहिए।
गरुड़ की बात सुनकर कागभुशुण्डि बोले कि हे गरुड़ ! मैं कथा कहता हूँ, आप उसे मन लगाकर सुनिए।
जप तप मख समऽ दम ब्रत दाना ।
बिरति बिबेक जोग बिज्ञाना ।। 791।।
सबकर फल रघुपति पद प्रेमा ।
तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा ।। 792।।
जप, तप, यज्ञ, मनोनिग्रह, इन्द्रिय-दमन, व्रत, दान, वैराग्य, योग और विज्ञान; सबका फल राम के चरणों में प्रेम होना है, उनके बिना कोई कल्याण नहीं पाता।
[योग-साधन से जब सबमें समान ब्रह्म दरसे, तब समझना चाहिए कि ज्ञान की प्राप्ति हुई (देखिए चौ0 सं0 409, 411)। ज्ञान से विज्ञान विशेष है। (देखिए चौ0 सं0 753), इसलिए योग में विशेष उन्नति करने पर विज्ञान का प्राप्त होना सम्भव है। विज्ञान से समता प्राप्त होती है (देखिए चौ0 सं0 772)। विज्ञान, ज्ञान से विशेष इसलिए है कि सबमें समान ब्रह्म दरसना ज्ञान है और इससे विशेष यह है कि सबमें नहीं, बल्कि सब-का-सब एक ही ब्रह्म दरसे अर्थात् नानात्व मिटना और कैवल्यता-मात्र रह जाना पूर्ण समता है और यही विज्ञान है और चौ0 722 में तो राम को विज्ञान रूप ही कहा गया है। अतएव विज्ञान का फल रघुवर राम के मायामय नाना रूपों (नराकृति आदि) सगुण के पद में प्रेम होना मानना अविचार, अन्ध-ज्ञान और बाल-बुद्धि है। हाँ, दोहा सं0 43 में वर्णित रघुवर राम के रूप अर्थात् उनके सहज निर्गुण रूप में प्रेम होना मानना, विज्ञान का फल उचित और सद्विचारयुक्त है। जानना चाहिए कि विज्ञान का फल भेद-भक्ति नहीं है। इसका फल अभेद भक्ति है। योगी जन प्रभु के ‘अकथ अनामय नाम न रूपा’ स्वरूप निर्गुण रूप के अनुपम सुख को प्राप्त करते हैं। ये ही ज्ञानी भक्त कहलाते हैं, जो चारो प्रकार के भक्तों में प्रभु के विशेष प्यारे हैं (देखिए चौ0 सं0 92, 93, 98)। शेष तीन प्रकार के भक्तों में से जिज्ञासु अपूर्ण है, अर्थार्थी और आर्त्त राम के विज्ञान-रूप को प्राप्त नहीं कर सकते, वे भेद-भक्ति (सगुण की आसक्ति) में लगे रहते हैं। ऐसे भक्त महान तप-द्वारा भक्ति करके सगुण राम से उनके समान पुत्र पाने का वरदान पाकर, बल्कि उनको नर-रूप में पुत्र पाकर भी पूर्ण क्षेम-कल्याण नहीं प्राप्त कर सके। यह बात राजा दशरथ और वसुदेव की कथाओं से भली भाँति प्रमाणित है। फिर इन्हीं राजाओं और पाण्डव आदि की कथाओं से यह बात पूर्ण रूप के स्पष्ट है कि सगुण राम को पुत्र, मित्र आदि रूप में पाकर और उनके साथ वर्षों रहने पर भी मोह-रहित होकर परम ज्ञान को प्राप्त नहीं होता है। इसी हेतु श्रीकृष्ण भगवान ने अपने पिता वसुदेवजी को नारदजी से ज्ञानोपदेश कराया था और अपने चाचा अक्रूरजी को हिमालय में जाकर तप करने को कहा था (देखिए भागवत), फिर कागभुशुण्डि कहने लगे कि इस काग-शरीर से मुझे भक्ति प्राप्त हुई है। इस कारण मुझे यह शरीर प्यारा है। क्योंकि-
सोरठा-पन्नगारि असि नीति, स्त्रुति सम्मत सज्जन कहहिँ ।
अति नीचहु सन प्रीति, करिय जानि निज परम हित ।। 131।।
हे गरुड़जी ! सज्जन लोग वेद के मत से ऐसी नीति कहते हैं कि अपना परम हित जानकर नीच से भी प्रीति करनी चाहिए।
[परमानन्द-दायक प्रभु की भक्ति में लगना परम हितकर है। दुराचारी पुरुष, चाहे वह किसी जाति का हो, नीच है। डोम, चमार आदि वर्णों में गिने जाते हैं, परन्तु वे सब-के-सब नीच नहीं हैं। नीच वर्णों में भी उच्च चरित्र के पुरुष होते हैं। श्रीकृष्ण ने पाण्डवों के द्वारा उनके यज्ञ में काशी से वाल्मीकि डोम को सादर निमन्त्रित कर भोजन कराकर यज्ञ पूर्ण करवाया। परम भक्तिमती राजकुमारी मीराबाई ने अपना परम हित जानकर रविदास को, जो जाति के चमार थे, गुरु धारण किया और भक्तमाल के कर्त्ता डोम जाति के नाभाजी की मान्यता इसी विचार से स्वीकार की जाती है।]
सोरठा-पाट कीट ते होइ, तेहि तेँ पाटम्बर रुचिर ।
कृमि पालइ सब कोइ, परम अपावन प्रान सम ।। 132।।
रेशम कीड़े से होता है, उससे सुन्दर रेशमी कपड़े बनते हैं। इसी से परम अपवित्र उस कीड़े को सब कोई प्राण के समान पालते हैं।
स्वारथ साँच जीव कहँ एहा ।
मन क्रम बचन राम पद नेहा ।। 793।।
जीव का सच्चा स्वार्थ यह है कि मन, वचन और कर्म से राम-पद में प्रेम हो।
सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा ।
जो तन पाइ भजइ रघुबीरा ।। 794।।
वही पवित्र और सुन्दर शरीरवाला है, जो शरीर पाकर राम को भजे।
राम-बिमुख लहि बिधि सम देही ।
कबि कोबिद न प्रसंसहि तेही ।। 795।।
राम से विमुख रहकर ब्रह्मा के समान शरीर क्यों न मिले, कवि और पण्डित उसकी बड़ाई नहीं करते हैं।
तजउँ न तन निज इच्छा मरना ।
तन बिनु बेद भजन नहिँ बरना ।। 796।।
मरना अपनी इच्छा पर है, इसलिए शरीर नहीं छोड़ता हूँ। वेद कहते हैं कि बिना शरीर के भजन नहीं हो सकता है।
नाना जनम करम पुनि नाना ।
किये जोग जप तप मख दाना ।। 797।।*
मैंने अनेक जन्मों में विभिन्न प्रकार के योग, जप, तप, यज्ञ और दान आदि कर्म किए।
कवन जोनि जनमेउँ जहँ नाहीँ ।
मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीँ ।। 798।।*
हे गरुड़जी ! संसार में ऐसी कौन-सी योनि है, जिसमें मैंने भटकते हुए जन्म न लिया हो।
देखउ सब करि करम गोसाईं ।
सुखी न भयउँ अबहिँ की नाईं ।। 799।।*
हे गुसाईं ! मैंने सभी कर्म करके देख लिए, पर मैं अभी (इस जन्म) की तरह कभी सुखी नहीं हुआ।
[योग से ज्ञान और ज्ञान से मोक्ष होता है (दे0 चौ0 सं0 411)। भक्ति का भी अन्तिम फल मोक्ष ही है। चौ0 सं0 450 से छन्द 5 पर्यन्त पढ़िए। उससे विदित होगा कि शवरी (जिसको स्वयं भगवान ने चौ0 सं0 463 में भक्ति में सब प्रकार से पूर्ण कहा है) हरि-पद में लीन हुई, जहाँ से कोई भी संसार में नहीं लौटता है। इसी वर्णित लीनता को मोक्ष कहते हैं। इससे भिन्न दूसरे प्रकार का मोक्ष काल्पनिक वा कथन-मात्र है, सत्य नहीं है। और ‘अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लोभाने ।।’ इस चौ0 को पढ़कर मोक्ष-रस से और कोई विशेष हितकर रस है, ऐसा समझना निरा बालकपन है। इसका वर्णन आगे उचित स्थान पर दिया गया है। अब यदि कागभुशुण्डि अपने पूर्व जन्मों में सुखी नहीं हुए थे, तो इसका सत्य-सत्य कारण यही है कि उन जन्मों में वे योगभ्यास में उन्नति नहीं कर सके थे, जिससे योग का फल ज्ञान और ज्ञान का फल मोक्ष उनको प्राप्त होता और फलतः वे सुखी हो जाते। चौ0 797 से 799 तक में वर्णित लेखों को पढ़कर यह फल नहीं निकाल लेना चाहिए कि योग से सुख नहीं होता है; क्योंकि ऐसा करना रामचरितमानस व भागवतादि पुराणों के नितान्त विरुद्ध होगा। भक्ति-मार्ग में मनुष्यों के चित्त को अत्यन्त आकर्षित करने के हेतु चौ0 सं0 797-799 तक में तथा अन्यत्र भी इसी भाँति की वार्त्ता का कवि ने वर्णन किया है।]
अब कागभुशुण्डि अपने पूर्व जन्म की कथा कहने लगे कि हे गरुड़जी ! पूर्व एक कल्प के कलियुग में मैं एक बार अयोध्यापुरी में दम्भी और धनी शूद्र था। कलि के प्रभाव से चारो वर्णों के मनुष्य अपने-अपने धर्मों से गिरे हुए थे और-
गुरु सिख बधिर अन्ध कर लेखा ।
एक न सुनइ एक नहिँ देखा ।। 800।।
गुरु और चेलों का हिसाब अन्धे और बहरे का-सा है। एक देखता नहीं और एक सुनता नहीं है।
हरइ सिष्य धन सोक न हरई ।
सो गुरु घोर नरक महँ परई ।। 801।।
जो शिष्य के धन को हरता है, पर उसके शोक (भव-शोक) को नहीं हरता है, वह गुरु घोर नरक में पड़ता है।
हे गरुड़जी ! कलियुग में भी अनेक गुण हैं, इन्हें भी सुनिए-
दोहा-कृत जुग त्रेता द्वापर, पूजा मख अरु जोग ।ऽ
जो गति होइ सो कलि हरि, नाम तेँ पावइ लोग ।। 133।।*
सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में पूजा, यज्ञ और योग से लोगों की जो गति होती है, वह गति कलियुग में हरि-नाम (-भजन) से लोग पाते हैं।
कृत जुग सब जोगी बिज्ञानी ।
करि हरि ध्यान तरहिँ भव प्रानी ।। 801क।।*
सत्ययुग में सभी योगी और विज्ञानी होते हैं। हरि का ध्यान करके वे संसार-सागर से तर जाते हैं।
त्रेता बिबिध जज्ञ नर करहीँ ।
प्रभुहिँ समर्पि करम भव तरहीँ ।। 801ख।।*
त्रेता में मानव अनेक प्रकार के यज्ञ करते हैं और सभी कर्म प्रभु को समर्पण करके भवसागर से पार हो जाते हैं।
द्वापर करि रघुपति पद पूजा ।
नर भव तरहिँ उपाय न दूजा ।। 801ग।।*
द्वापर में श्रीरामजी के चरणों की पूजा करके मानव संसार- सागर से पार हो जाते हैं; दूसरा उपाय नहीं है।
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा ।
गावत नर पावहिँ भव थाहा ।। 801घ।।*
कलियुग में केवल हरि-नाम का गुण-गान करने से मनुष्य भव-सागर की थाह पा जाते हैं।
नित जुग धर्म होहिँ सब केरे ।
हृदय राम माया के प्रेरे ।। 802।।
युगों के धर्म नित्य ही राम की माया की प्रेरणा से सबके हृदय में होते हैं।
सुद्ध सत्व समता बिज्ञाना ।
कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना ।। 803।।
जब शुद्ध सात्त्विक भाव, समता, विज्ञान और मन प्रसन्न हो, तब सत्ययुग का प्रभाव जानना चाहिए।
सत्त्व बहुत रज कछु रति करमा ।
सब बिधि सुख त्रेता कर धरमा ।। 804।।
सत्त्वगुण बहुत, रजोगुण थोड़ा, कर्मों (यज्ञादि कर्मों) में प्रीति और सब प्रकार से सुखी रहना त्रेता युग का धर्म है।
बहु रज सत्व स्वल्प कछु तामस ।
द्वापर धर्म हरष भय मानस ।। 805।।
रजोगुण बहुत, सत्त्वगुण थोड़ा, कुछ तमोगुण और मन में हर्ष-भय होना द्वापर युग का धर्म है।
तामस बहुत रजोगुण थोरा ।
कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा ।। 806।।
तमोगुण बहुत, रजोगुण थोड़ा और चारों ओर (सब बातों में) विरोध-ही-विरोध जान पड़ना कलियुग का प्रभाव है।
बुध जुग धरम जानि मन माहीं ।
तजि अधर्म रत धर्म कराहीँ ।। 807।।
बुद्धिमान युगों का धर्म मन में जान अधर्म को छोड़ धर्म से प्रीति करते हैं।
काल धरम नहिं ब्यापहिँ ताही ।
रघुपति चरन प्रीति अति जाही ।। 808।।
काल का धर्म उसे नहीं व्यापता है, जिसको राम के चरणों में अत्यन्त प्रीति है। (पाठान्तर-‘कलि अधर्म नहिं व्यापै ताही ।’)
[चारो युग-काल के पृथक्-पृथक् चार विभाग हैं। इनके धर्मों को काल-धर्म कहते हैं। कहे गए काल-धर्मों में जो खोटे हैं, वे परम प्रभु राम के प्रेमी को नहीं व्यापते। चौ0 808 का यही आशय है। चौ0 802 से 808 तक को खूब याद रखिए और इस विचार को मन से निकाल दीजिए कि योग-ध्यानादि काल-धर्म के अनुसार अब कलिकाल में नहीं हो सकेंगे। देखिए, इसी कलिकाल में महात्मा बुद्ध, शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, कबीर साहब, नानक साहब और गो0 तुलसीदासजी आदि बहुत-से ज्ञानी, योगी, परम भक्त, सन्त आदि हुए हैं। अतएव इस विचार को पकड़े रहना और फैलाना कि कलिकाल में योग-ध्यानादि नहीं हो सकते, आलसी, प्रमादी और राक्षसी प्रकृति के लोगों का काम है।]
नट कृत कपट बिकट खगराया ।
नट सेवकहिँ न ब्यापइ माया ।। 809।।
हे पक्षीराज ! नट का किया हुआ विकट छल उसके सेवक (खेलनेवाले) को नहीं छल सकता है।
[राम नट हैं। उनकी विविधता उनका छल वा माया है। उनके सच्चे सेवक को यह छल नहीं व्यापता है।]
दोहा-हरि माया कृत दोष गुन, बिनु हरि भजन न जाहिँ ।
भजिय राम तजि काम सब, अस बिचारि मन माहिँ ।। 134।।
हरि की माया के किए हुए दोष-गुण बिना हरि-भजन के नहीं जाते, ऐसा मन में विचारकर सब कामनाओं को छोड़कर राम को भजिए।
अब कागभुशुण्डि अपनी कथा इस तरह कहने लगे कि-मैं कलिकाल में बहुत वर्षों तक अयोध्यापुरी में रहा। एक बार दुकाल पड़ने पर वहाँ से मैं उज्जयिनी चला गया। कुछ काल पीछे वहाँ मुझे बहुत सम्पत्ति प्राप्त हो गई। मैंने वहाँ शैव पवित्र ब्राह्मण को अपना गुरु बनाया और कपट-युक्त होकर उनकी सेवा करने लगा। गुरु ने मुझे शिव-मन्त्र दिया। वे तो मुझे सदा सुबोध देते थे, पर मैं उनसे द्रोह करता था।
जेहि तेँ नीच बड़ाई पावा ।
सो प्रथमहिँ हठि ताहि नसावा ।। 810।।
नीच पुरुष जिससे बड़ाई पाते हैं, हठ (निश्चय) करके सबसे
पहले उसी का नाश करते हैं।
सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा ।
बुध नहिँ करहिँ अधम कर संगा ।। 811।।
हे गरुड़ ! सुनिए, इस प्रसंग को समझकर बुद्धिमान नीचों का संग नहीं करते हैं।
कबि कोबिद गावहिँ अस नीती ।
खल सन कलह न भल नहिँ प्रीती ।। 812।।
कवि और पण्डित ऐसी नीति कहते हैं कि दुष्टों के साथ झगड़ा और प्रीति; दोनों अच्छे नहीं होते।
उदासीन नित रहिय गुसाईं ।
खल परिहरि स्वान की नाईं ।। 813।।
हे गोसाईं ! नित्य उदासीन भाव से रहिए और दुष्टों से वैर और प्रीति; दोनों छोड़कर उन्हें कुत्ते के समान जानकर त्याग दीजिए।
दोहा-एक बार हर मन्दिर, जपत रहेउँ सिव नाम ।
गुरु आयउ अभिमान तेँ, उठि नहिँ कीन्ह प्रनाम ।।135।।
एक बार मैं शिवजी के मन्दिर में शिव-नाम जपता था। उसी समय गुरुजी आए। मैंने अभिमान से उठकर उनको प्रणाम नहीं किया।
दोहा-सो दयाल नहिँ कहेउ कछु, उर न रोष लवलेस ।
अति अघ गुरु अपमानता, सहि नहिँ सके महेस ।। 136।।
परन्तु वे (गुरुजी) बडे़ दयालु थे, कुछ नहीं बोले। उनके हृदय में कुछ क्रोध नहीं था, परन्तु गुरु के अपमान करने का महापाप शिवजी न सह सके।
[गुरु-उपासना से बढ़कर दूसरी उपासना नहीं है।]
मन्दिर में शिवजी की वाणी हुई-‘रे अभागा, अज्ञानी, अभिमानी ! मुझे नीति के विरुद्ध (आचरण) नहीं सुहाता है। यदि मैं तुझे दण्ड न दूँ, तो मेरा वेद-मार्ग भ्रष्ट होगा।’
जे सठ गुरु सन इरिषा करहीँ ।
रौरव नरक कोटि युग परहीँ ।। 814।।
जो मूर्ख, गुरु से ईर्ष्या करते हैं (गुरु की बढ़ती नहीं सह सकते हैं), वे करोड़ों युगों तक रौरव नरक में पड़ते हैं।
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा ।
अयुत जनम भरि पावहिँ पीरा ।। 815।।
फिर वे तिर्यग्योनि (पशु-पक्षी आदि की योनि) में शरीर धारण करते हैं और दस हजार जन्मों तक दुःख पाते हैं।
अरे पापी ! तू गुरु को देखकर अजगर की तरह बैठा रह गया, इसलिए तू सर्प होकर एक बड़े वृक्ष के खोढ़र में अधोगति पाकर रह। शिवजी का शाप सुन, मुझे काँपता हुआ देखकर गुरु महाराज ने हाहाकार किया और शिवजी को दण्डवत् कर हाथ जोड़ प्रेम-सहित विनती करने लगे-
नमामीशमीशान निर्वाण रूपम्,
विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपम् ।
निजं (अजं) निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहम्,
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ।।
निराकारमोंकार मूलं तुरीयम्,
गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकाल कालं कृपालम्,
गुणागार संसार पारं नतोऽहम् ।।
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशम्,
अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम् ।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी,
सदा सज्जनानन्द दाता पुरारी ।।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी,
प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ।।10।।
अर्थ-मोक्ष-स्वरूप स्वामी शिवजी को प्रणाम करता हूँ, जो समर्थ, व्यापक, ब्रह्म और वेद-स्वरूप हैं। स्वयं प्रकट होनेवाले, गुणों से रहित, भेद-रहित, इच्छा-रहित, चैतन्य, आकाश-रूप और आकाश में बसनेवाले को मैं भजता हूँ। रूप-रहित, ओंकार के मूल, तुरीय-रूप, वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, ईश्वर, कैलाश के स्वामी, कठोर, महाकाल के भी काल; कृपालु गुणों के भण्डार, संसार के लगाव से अलग शिवजी को मैं प्रणाम करता हूँ। तेजस्वी, सर्वोत्तम, ढीठ (निर्भय), श्रेष्ठ स्वामी, अखण्ड, अजन्मा, करोड़ों सूर्य के समान प्रकाशवान, कलाओं से परे, कल्याण और कल्पान्त (कल्प का नाश) करनेवाले, सदा सज्जनों को आनन्द देनेवाले, पुर राक्षस के शत्रु, चैतन्य-रूप, आनन्द के समूह, अज्ञान को हरनेवाले, प्रभो शिवजी ! मुझ पर प्रसन्न हों।
गुरुजी की विनती सुन मन्दिर में से फिर आकाश-वाणी हुई कि हे ब्राह्मण ! वर माँगो । गुरुजी ने प्रार्थना की कि हे शिव ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो मुझे अपनी भक्ति दीजिए। फिर दूसरा वर यह दीजिए कि यह मेरा शिष्य, जिसे आपने शाप दिया है, शाप से थोड़े ही काल में मुक्त हो जाय और इसका परम कल्याण हो। आकाशवाणी द्वारा शिवजी ने फिर आज्ञा की कि हे ब्राह्मण ! यद्यपि इसने कठिन पाप किया है, तो भी तुम्हारी प्रार्थना से इस पर विशेष कृपा करूँगा। हे ब्राह्मण ! यह एक हजार वर्षों तक शाप भोगेगा। जनमने और मरने में जीवों को जो दुःसह दुःख होता है, सो इसे कुछ नहीं होगा। और मेरे प्रति वाणी हुई कि हे शूद्र ! जा तेरा ज्ञान किसी जन्म में भी नहीं मिटेगा, तेरे हृदय में राम-भक्ति उपजेगी और-
सुनु मम बचन सत्य अब भाई ।
हरि तोषन ब्रत द्विज सेवकाई ।। 816।।
हे भाई ! मेरा सत्य वचन सुन कि हरि को सन्तुष्ट करने का व्रत द्विज की सेवा करनी है।
अब जनि करहि बिप्र अपमाना ।
जानहु सन्त अनन्त समाना ।। 817।।
अब ब्राह्मण का अपमान नहीं करना, सन्तों को अन्त-रहित सर्वेश्वर के समान जानना।
मेरा एक विशेष आशीर्वाद यह है कि तू जहाँ चाहेगा, वहाँ चला जाएगा, तेरी गति कहीं नहीं रुकेगी। शिवजी के वचन सुन गुरुजी ने कहा कि ऐसा ही हो। मैं काल की प्रेरणा से विन्ध्याचल में जाकर साँप हो गया। थोड़े ही काल में साँप का शरीर छोड़ने पर अनेक शरीरों को पाया और छोड़ा। मैं देव और मनुष्य आदि का जो शरीर धारण करता, सबमें राम-भजन करता। अन्त में मनुष्य-योनि में ब्राह्मण का शरीर मिला। मुझे माता-पिता पढ़ाकर थक गए, पर मैंने पढ़ा नहीं। केवल राम में मेरा लव लग गया। माता-पिता के मर जाने पर मैं राम-भजन करने को जंगल में चला गया। वहाँ मुनीश्वरों के पास जाकर हरि का यश सुनता फिरा।
जेहि पूछउँ सोइ मुनि अस कहई ।
ईस्वर सर्ब भूतमय अहई ।। 818।।
मैं जिस मुनि से पूछता था, वे ही ऐसा कहते थे कि ईश्वर सब जीवों में हैं।
निर्गुन मत नहिँ मोहि सुहाई ।
सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई ।। 819।।
निर्गुण मत मुझे नहीं सुहाता था, सगुण ब्रह्म की प्रीति हृदय में अधिक थी।
[अभी कागभुशुण्डि होनेवाले यह ब्राह्मण ज्ञान और भक्ति आदि में पूर्ण हुए नहीं हैं, केवल जिज्ञासु ही हैं। यदि निर्गुण मत इनको नहीं सुहाता था, तो जानना चाहिए कि यह इनकी अल्पज्ञता थी, इसलिए इनके इस समय के ज्ञानाधार पर निर्गुण सिद्धान्त को तुच्छ और अनुपयोगी जानना घोर मूर्खता है। कागभुशुण्डि होकर जब ये पूर्ण हुए हैं, उस समय का इनका ज्ञान निर्गुण मत को किस विशेषता से महत्त्व देता है और सगुण को भ्रमोत्पादक बतलाता है, यह दो0 सं0 144 को पढ़कर जानिए। चौ0 818 से और इसके आगे चलकर लोमश मुनि ने जो ज्ञानोपदेश किया है, उससे प्रकट होता है कि अत्यन्त प्राचीन काल में निर्गुण मत का विशेष प्रचार था। जिस किसी से ईश्वर-विषयक प्रश्न किया जाता था, वह निर्गुण स्वरूप ही बतलाता था। इससे अनुमान किया जा सकता है कि भारत में जबसे अज्ञानता और अन्धविश्वास विशेष रूप से व्यापा है, तभी से ब्रह्म के केवल सगुण रूपवाले सगुण मत का विशेष प्रचार हुआ है। यदि यह अनुमान ठीक न हो तो कहना-पड़ेगा कि जिस काल में कागभुशुण्डि होनेवाले ब्राह्मण ईश्वर-विषयक जिज्ञासा करते- फिरते थे, वह काल बड़ा अज्ञान का था। और लोमश-सहित वे मुनिगण, जो उनको (कागभुशुण्डि को) निर्गुण मत बतलाते थे, इस समय के सगुण मत वालों से अल्पज्ञ थे।]
फिर कागभुशुण्डि कहने लगे कि हे गरुड़ ! मैं फिरता-फिरता लोमश मुनि के आश्रम में गया और उनको प्रणाम किया। मुझे नम्र देखकर उन्होंने पूछा कि कहाँ आए हो ? मैंने कहा-हे कृपानिधान, सर्वज्ञ सुजान, भगवान ! आप मुझे सगुण ब्रह्म की आराधना कहिए। तब उन्होंने मुझे पहले तो थोड़ी-सी रघुपति-रामजी की कथा आदरपूर्वक कही। फिर वह ब्रह्मज्ञान में रत विज्ञानी मुनि मुझे परम अधिकारी जान ब्रह्मोपदेश करने लगे-
लागे करन ब्रह्म उपदेसा ।
अज अद्वैत अगुन हृदयेसा ।। 820।।
उपदेश करने लगे कि ब्रह्म, सर्वेश्वर, अजन्मा, भेद-रहित, निर्गुण, हृदय का स्वामी,
अकल अनीह अनाम अरूपा ।
अनुभवऽ गम्य अखंड अनूपा ।। 821।।
पूर्ण, इच्छाहीन, नामहीन, रूपहीन, अखण्ड, उपमा-रहित, अनुभव से जानने योग्य,
मन गोतीत अमल अबिनासी ।
निर्बिकार निरवधि सुखरासी ।। 822।।
मन और इन्द्रियों से परे, निर्मल, नाश-रहित, निर्दोष असीम और सुख-पुंज है।
सो तैँ ताहि तोहि नहिँ भेदा ।
बारि बीचि इव गावहिँ बेदा ।। 823।।
वेद कहते हैं कि तू वही (ब्रह्म) है, जल और जल की तरंग के समान उसमें और तुझमें भेद नहीं है।
मुनि ने मुझे बहुत तरह से समझाया, पर निर्गुण मत को मेरा हृदय धारण न कर सका। फिर मैंने सिर नवाकर कहा कि हे मुनीश ! सगुण ब्रह्म की आराधना कहिए।
भरि लोचन बिलोकि अवधेसा ।
तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा ।। 824।।
अवधेश राम का नेत्र-भर दर्शन करके तब निर्गुण उपदेश सुनूँगा।
[कागभुशुण्डि होनेवाले ब्राह्मण लोमश मुनि के द्वारा किए गए ब्रह्म के निर्गुण स्वरूप और अद्वैतवाद-निरूपण को मिथ्या और कनिष्ठ नहीं मानते हैं, पर वे कहते हैं कि सगुण ब्रह्म का सुन्दर रूप अनूप जल है और मेरा मन उसमें की मछली है। सो मेरा मन उससे अलग होते ही प्राण निकलने पर हो जाता है। मैं पहले सगुण रूप का दर्शन करके फिर निर्गुण-उपदेश सुनूँगा। तात्पर्य यह कि काग होनेवाले ब्राह्मण रूप-विषय में आसक्त हैं। रूप देखकर जुड़ाये बिना उससे हट नहीं सकते हैं। विषयासक्ति हटे बिना ब्रह्मोपदेश कैसे अच्छा लगेगा? सगुण स्थूल और निर्गुण सूक्ष्म है। उस ब्राह्मण का कहना है कि मैं अभी सूक्ष्म ज्ञान ग्रहण करने योग्य नहीं हुआ हूँ। स्थूल ज्ञान (सगुण मत) ग्रहण करने के पीछे सूक्ष्म ज्ञान (निर्गुण मत) ग्रहण करूँगा। इस प्रकार कथा लिखकर कवि ने दिखलाया है कि पहले मोटा ज्ञान ग्रहण करो, पीछे सूक्ष्म ज्ञान ग्रहण करने योग्य होओगे।
चौ0 सं0 824 को पढ़कर यह परिणाम निकालना कि सगुणोपदेश सुनने के पहले निर्गुणोपदेश सुनने का महत्त्व तुच्छ-गौण है, मूर्खता के अतिरिक्त कुछ नहीं है; क्योंकि यह सिद्धान्त कवि को मान्य होता तो दो0 सं0 110 से 114 तक निर्गुण मत, निर्गुण स्वरूप-प्राप्ति की सुगमता और सगुण रूप की नटवत् लीला की तरह असत्यता एवं भ्रमोत्पादकता का उपदेश कागभुशुण्डि से ही नहीं कराते और न स्वयं अपनी ओर से चौ0 सं0 16 में ब्रह्म-विचार के प्रचार को सरस्वती की धारा कहकर बड़ाई करते। इसी प्रकार शिवजी से भी चौ0 सं0 168 से 189 तक निर्गुण मत और माया-मिथ्यात्ववाद का निरूपण नहीं कराते।]
फिर मुनिजी ने थोड़ी-सी अनुपम हरि-कथा कहकर और सगुण मत का खण्डन करके निर्गुण मत का निरूपण किया। तब मैं बहुत हठ करके निर्गुण मत को हटाकर सगुण मत का निरूपण करने लगा।
[अपनी अल्पज्ञता के कारण सत्य विचार का निरूपण करना काग होनेवाले ब्राह्मण के लिए असम्भव था। इसलिए उस समय लोमश मुनि के सामने अपनी हठीली बातों के अतिरिक्त वह ब्राह्मण कुछ न कह सके होंगे। विज्ञानी लोमश मुनि के ब्रह्म-निरूपण का खण्डन युक्ति-पूर्ण बातों से न कर सके होंगे। भला एक विज्ञानी के आगे एक अल्पज्ञ की युक्तियाँ कहाँ तक ठहर सकी होंगी ! हाँ, अयुक्त एवं निरर्थक बातें कहकर अपनी बातों को ऊँचा बनाए रखने के लिए हठ करते जाना अवश्य ही उसके लिए सहज बात हुई होगी।]
मैंने बहुत-से उत्तर-प्रत्युत्तर किए। इससे मुनि के शरीर में क्रोध का चिह्न उपजा।
सुनु प्रभु बहुत अवज्ञा किये ।
उपज क्रोध ज्ञानिहु के हिये ।। 825।।
हे प्रभु ! सुनिए, बहुत अनादर करने से ज्ञानियों के हृदय में भी क्रोध उत्पन्न हो जाता है।
अति संघरषन जौँ कर कोई ।
अनल प्रगट चन्दन तेँ होई ।। 826।।
यदि कोई अत्यन्त रगड़े, तो चन्दन से भी आग निकलती है। मुनि बारम्बार क्रोध करके ज्ञान का निरूपण करने लगे। तब मैं बैठकर अनुमान करने लगा-
दोहा-क्रोध कि द्वैत बुद्धि बिनु, द्वैत कि बिनु अज्ञान ।
माया बस परिछिन्न जड़, जीव कि ईस समान ।। 137।।
क्या द्वैत-बुद्धि के बिना क्रोध हो सकता है ? और क्या बिना अज्ञान के द्वैत हो सकता है ? (कभी नहीं) क्या माया के अधीन अंश-रूप मूर्ख जीव ईश्वर के समान हो सकता है ? (कभी नहीं)।
[ज्ञान का होना अर्थात् अज्ञान का नाश होना रामचरितमानस को मान्य है (दे0 चौ0 411)। अज्ञान के ही कारण द्वैत बुद्धि होती है, तब अज्ञान मिटने-ज्ञान होने से द्वैत बुद्धि नहीं रहेगी। द्वैत बुद्धि नाश होने से जीव और ईश में निर्भेदता होती है और तब परिच्छिन्नता-अंश-रूपता और माया-वश्यता भी रहने नहीं पा सकती। चौ0 सं0 823 में तो स्पष्ट ही ब्रह्म-जीव का निर्भेद ज्ञान है और माया-मिथ्यात्ववाद रामचरितमानस को मान्य है। यह दो0 सं0 27 और 110 तथा चौ0 सं0 145, 146 और 182 को पढ़कर देखिए। माया-मिथ्यात्ववाद मानने पर जीव-ब्रह्म की निर्भेदता माने बिना गति नहीं। यह तो ज्ञानमार्ग का निर्णय है। और यही निर्णय भक्ति-मार्ग से रामचरितमानस को मान्य है। (चौ सं0 286 को पढ़कर जानिए।) इस दोहे (सं0 137) को पढ़कर यह सिद्धान्त निकालना कि जीव और ईश की निर्भेदता रामचरितमानस को मान्य नहीं है, बड़ी भयंकर भूल है।]
कबहुँ कि दुःख सब कर हित ताके ।
तेहि कि दरिद्र परस मनि जाके ।। 827।।
क्या उसको कभी दुःख हो सकता है, जो सबकी भलाई देखता है ? क्या उसको दरिद्रता आ सकती है, जिसके पास पारस मणि है ? (कदापि नहीं।)
पर द्रोही कि होहिं निसंका ।
कामी पुनि कि रहहिँ अकलंका ।। 828।।
क्या दूसरों से वैर करनेवाले निडर रह सकते हैं ? फिर क्या कामी पुरुष निष्कलंक रह सकते हैं ? (कदापि नहीं।)
बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हे ।
कर्म कि होहिँ स्वरूपहिँ चीन्हे ।। 829।।
क्या द्विज की बुराई करने से वंश रह सकता है? अपना रूप (वह ईश्वर मैं ही हूँ) पहचान लेने पर क्या कर्म (बन्धन-प्रद कर्म) हो सकता हैं ? (कभी नहीं।)
[योगी पुरुष योगाभ्यास करके अपने अन्तर में सूक्ष्म और कारणादि दूसरे शरीरों में प्रवेश करते हैं। इस प्रकार अपने अन्तर के एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने को भी दूसरा जन्म कह सकते हैं। इसलिए योगी विलक्षण द्विज कहला सकते हैं। इनका अनहित करनेवाले का भला होना सम्भव नहीं है। जिस अभ्यासी की गति अहंपद को पार कर क्रम से बुद्धि-पद और साम्यावस्थाधारिणी प्रकृति मण्डल से परे होती है, वही पूरा आत्मदर्शी-स्वरूप का पहचाननेवाला है। ऐसे पुरुष ने प्रकृति-मण्डल को जीत लिया है। प्रकृति इसके अधीन हो गई, इसके चलाए चलेगी। इसी कारण प्रकृति-जनित कर्म ऐसे पुरुष को बन्धनप्रद नहीं हो सकते हैं।
काहू सुमति कि खल सँग जामी ।
सुभ गति पाव कि परत्रियगामी ।। 830।।
क्या किसी को दुष्ट के संग में सुबुद्धि हुई है ? क्या व्यभिचारी अच्छी गति पाता है ? (अर्थात् नहीं)
भव कि परहिँ परमात्मा बिन्दक ।
सुखी कि होहिँ कबहुँ परनिन्दक ।। 831।।
क्या परमात्मा के जाननेवाले संसार में (आवागमन में) गिर सकते हैं ? क्या दूसरे की निन्दा करनेवाले कभी सुखी हो सकते हैं ? (कभी नहीं।)
राज कि रहइ नीति बिनु जाने ।
अघ कि रहहिँ हरि चरित बखाने ।। 832।।
क्या बिना नीति जाने राज्य रह सकता है ? क्या हरि-चरित्र का वर्णन करने से पाप रह सकता है ?
पावन जस कि पुन्य बिनु होई ।
बिनु अघ अजस कि पावइ कोई ।। 833।।
क्या बिना पुण्य के पवित्र यश होता है ? क्या बिना पाप के कोई कलंक पाता है ? (कभी नहीं।)
लाभ कि कछु हरि भगति समाना ।
जेहि गावहिँ श्रुति सन्त पुराना ।। 834।।
जिस हरि-भक्ति का गुण-गान, वेद, पुराण और सन्तजन करते हैं, उसकी प्राप्ति के समान क्या कुछ लाभ है ? (नहीं)
हानि कि जग एहि सम किछु भाई ।
भजिय न रामहिँ नरतनु पाई ।। 835।।
हे भाई ! क्या इसके समान कुछ हानि है कि मनुष्य का शरीर पाकर राम को नहीं भजते ? (कोई नहीं)
अघ कि पिसुनता सम कछु आना ।
धर्म कि दया सरिस हरिजाना ।। 836।।
हे गरुड़जी ! क्या चुगलखोरी के समान दूसरा पाप है और दया के समान दूसरा धर्म है ? (कोई नहीं)।
इसी तरह मैं लोमश मुनि के उपदेश को आदर न देता हुआ मन में बहुत-सी बातें गुनने लगा। मैंने बारम्बार सगुण पक्ष का निरूपण किया। तब मुनि क्रोध से बोले-‘हे मूढ़ ! मैं तुझे अत्युत्तम उपदेश देता हूँ; पर तू मानता नहीं है और बहुतेरे उत्तर-प्रत्युत्तर करता है। सत्य वचन में विश्वास नहीं करता और काग की तरह सब किसी से डरता है। तेरे मन में अपने पक्ष का प्रबल हठ है। तू अति शीघ्र काग पक्षी हो जा।’ मैंने मुनि के शाप को सिर चढ़ा लिया। मुझे न डर हुआ और न दीनता आई। मैं तुरत काग हो गया। फिर मुनिजी के चरणों में सिर नवा कर आनन्दित हो उड़ चला। इतनी कथा सुनाकर महादेवजी पार्वतीजी से कहते हैं कि-
दोहा-उमा जे राम चरन रत, विगत काम मद क्रोध ।
निज प्रभुमय देखहिँ जगत, केहि सन करहिँ बिरोध ।। 138।।
हे उमा ! जो काम, मद और क्रोध से रहित होकर राम के चरणों में लगे हुए हैं, वे संसार को निज प्रभुमय देखते हैं, फिर विरोध किससे करें ?
[दो0 138 में वर्णित दिव्य बुद्धि यदि काग-शरीर प्राप्त ब्राह्मण को पहले ही से होती, तो लोमश मुनि से उसका मतभेद ही नहीं होता। काग-शरीर हो जाने पर अब लोमश मुनि उसके गुरु होंगे, उसे राम का मन्त्र देंगे और सगुण बालक-रूप राम का ध्यान बतलाएँगे। यदि मन्त्र और ध्यान का उपदेश पाने और उसके साधन के पूर्व ही वह जगत को निज प्रभुमय देखता तो लोमशजी के दिये मन्त्र और ध्यान-युक्ति को धारण करना उसके लिए परम अनावश्यक था। उक्त दोहे में वर्णित ज्ञान, भक्ति की परमावधि है, आदि वा मध्य नहीं। कविजी ने लोमश के क्रोध तथा ब्राह्मण की सहनशीलता की कथा और इस दोहे को लिखकर दरसाया है कि अल्प भक्ति की महिमा ज्ञान-विज्ञान की महिमा से कहीं बढ़कर है। लोमश मुनि की क्रोध वाली यह कथा भक्ति-पक्ष में अत्यन्त रोचक है, पर ज्ञान-विज्ञान की महिमा को मिट्टी में मिला देती है। आरम्भ ही में रामचरितमानस को मान्य है कि ज्ञानी भक्त प्रभु को और सब भक्तों से विशेष प्यारे हैं (दे0 चौ0 सं0 98)। लोमशजी अवश्य ज्ञानी भक्त हैं, नहीं तो राम-उपासना का मन्त्र और ध्यान कागभुशुण्डि को कैसे बताते ? उनका क्रोध साधारण मनुष्य के क्रोध के समान नहीं है। इनके समान पहुँचे हुए महात्मा क्रोधादि विकारों को स्व-अधीन रखकर दूसरों को कुछ लाभ पहुँचाने के निमित्त ही (उन विकारों का) प्रकाश करते हैं। उस ब्राह्मण ने शूद्र-देह में गुरु-अपमान के कारण शिवजी से शाप पाया था और चौ0 सं0 816, 817 में वर्णित आज्ञा शिवजी ने उसे दे दी थी कि विप्र का अपमान न करना। इसकी परवाह न करके लोमश मुनि की अवज्ञा कर अनादर किया और इस प्रकार शिवाज्ञा-भंग का अपराध उसने किया, अतएव इसका दण्ड पाना उसके लिए आवश्यक था। इस मुख्य कारण को गुप्त रखकर लोमश मुनि ने उसे शाप दिया। इस शाप से वह ब्राह्मण काग तो हुआ, पर इससे उसका बड़ा उपकार हुआ। ‘गरु कुम्हार शिष कुम्भ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट । अन्तर हाथ सहार दे, बाहर वाहै चोट ।।’ काग-देह पाने पर कागभुशुण्डिजी को भय और दीनता नहीं हुए; क्योंकि पूर्व जन्म में शूद्र-देह में गुरु-कृपा से शिवजी से आशीर्वाद पा चुके थे कि ‘किसी देह में तेरा ज्ञान भंग न होगा और तेरे हृदय में राम-भक्ति जमेगी ।’ इसी कारण पहले जन्मों से ही राम-भक्ति का अंकुर उग रहा था, पर लोमश मुनि के समान गुरु प्राप्त नहीं होने के कारण भक्ति का साधन पूरा नहीं हुआ था। पहले के जन्मों की सब घटनाओं का ज्ञान कागभुशुण्डिजी को था ही और उन्हें यह आशा भी पूरी थी कि किसी भी देह में मेरा ज्ञान नहीं मिटेगा। तब काग वा किसी भी शरीर को पाने का शाप पाकर उनका अभय और अदीन बना रहना कोई बड़ी बात नहीं हुई। शूद्र-तन में कागभुशुण्डि ने गुरु का अपमान किया था, पर गुरु ने उन पर दया दिखाई थी; उसी का परिणाम समझना चाहिए कि काग-शरीर होने का शाप पाकर भी वे भीत और दीन नहीं हुए। अतएव गुरु-कृपा धन्य है, कागभुशुण्डि भी इसलिए धन्य हैं कि पूर्व जन्म में उन्हें भले गुरु मिले थे और इस बार तो लोमशजी जैसे गुरु पाकर अत्यन्त धन्य हो गए। ‘तीन लोक नौ खण्ड में, गुरु तें बड़ा न कोइ । करता करै न करि सकै, गुरु करै सो होइ ।।’-कबीर साहब]
हे गरुड़जी ! ऋषि लोमशजी की कुछ भूल नहीं थी। भगवान ने उनकी मति फेरकर मेरी प्रेम-परीक्षा ली थी। पर भगवान ने उनकी बुद्धि फिर पलट दी। ऋषि ने मेरी सहनशीलता, राम-चरण पर मन, कर्म और वचन से प्रगाढ़ भक्ति और अटल विश्वास देखकर विस्मययुक्त हो बारम्बार पछतावा करके मुझे बुलाया और बहुत कुछ समझाकर मुझे सन्तुष्ट किया। फिर आनन्दित हो मुझे राम का मन्त्र देकर राम के बालक रूप का ध्यान करने कहा। मुनि ने कुछ काल तक मुझे अपने पास रखकर रामचरितमानस कह सुनाया और बोले कि-
राम भगति जिन्हके उर नाहीँ ।
कबहुँ न तात कहिय तिन पाहीँ ।। 837।।*
हे तात ! जिनके हृदय में श्रीरामजी की भक्ति नहीं है, उनके सामने इसे कभी भी नहीं कहना चाहिए।
[जबकि स्वयं लोमशजी चौ0 सं0 837 में वर्णित आज्ञा दूसरों के लिए देते हैं, तो यह मानना क्योंकर सम्भव है कि वे स्वयं ही भक्त न थे ? मेरे विचार में वे भक्त-शिरोमणि थे; क्योंकि वे ज्ञानी भक्त थे। जो लोग उनके ज्ञान और भक्ति की महिमा को कागभुशुण्डि के ज्ञान और भक्ति की महिमा से ओछी जानते हैं, वे परम मूर्ख हैं।]
मुनि ने मुझे बहुत प्रकार से समझाया। मैंने उनके चरणों पर सिर नवाया। उन्होंने आनंदित हो मेरे मस्तक को अपने हाथों से छूकर आशीष दिया कि-
राम भगति अबिरल उर तोरे ।
बसहिँ सदा प्रसाद अब मोरे ।। 838।।*
अब मेरी कृपा से तेरे हृदय में सतत राम-भक्ति बसेगी।
दोहा-सदा राम प्रिय होब तुम्ह, सुभ गुन भवन अमान ।
काम रूप इच्छा मरन, ज्ञान बिराग निधान ।।139।।*
तुम सदा श्रीरामजी को प्रिय होओ और सद्गुणों के धाम, मान-रहित, इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले, इच्छामृत्यु एवं ज्ञान-वैराग्य के भंडार होओ।
दोहा-जेहि आश्रम तुम्ह बसब पुनि, सुमिरत श्रीभगवन्त ।
ब्यापिहिँ तहँ न अबिद्या, जोजन एक प्रजन्त ।।140।।*
इसके अतिरिक्त, भगवान को स्मरण करते हुए तुम जिस आश्रम में निवास करोगे, वहाँ एक योजन तक अविद्या (-माया) नहीं व्यापेगी।
काल करम गुन दोष सुभाऊ ।
कछु दुख तुम्हहिँ न ब्यापहिँ काऊ ।। 839।।*
काल, कर्म, गुण, दोष और स्वभाव से उत्पन्न कोई दुःख तुमको नहीं व्यापेगा।
राम रहस्य ललित बिधि नाना ।
गुप्त प्रगट इतिहास पुराना ।। 840।।*
अनेकों प्रकार के श्रीराम के सुन्दर रहस्य, जो इतिहास और पुराणों में गुप्त या प्रकट हैं।
बिनु स्त्रम तुम्ह जानब सब सोऊ ।
नित नव नेह राम पद होऊ ।। 841।।*
तुम उन सबको बिना परिश्रम के जान जाओगे और श्रीरामजी के चरणों में तुम्हारा नित्य नया प्रेम होगा।
सुनि मुनि आसिष सुनु मति धीरा ।
ब्रह्म गिरा भइ गगन गँभीरा ।। 842।।*
हे धीरबुद्धि (गरुड़जी) ! सुनिए, मुनि का आशीर्वाद सुनकर आकाश में गम्भीर ईश्वरीय वाणी (आकाशवाणी) हुई।
एवमस्तु तव बच मुनि ज्ञानी ।
यह मम भगत करम मन बानी ।। 843।।*
हे ज्ञानी मुनि ! तुम्हारा वचन ऐसा ही हो। यह मन, वचन और कर्म से मेरा भक्त है।
काम-रूप = जैसा रूप बनाने की इच्छा हो, वैसा बन जाना। इच्छा-मरन = बिना अपनी इच्छा के कभी न मरना।
[चौ0 सं0 843 की वाणी अवश्य ही कागभुशुण्डि के इष्ट राम भगवान की है। इसीलिए ‘यह मम भगत’ वाणी में कहा गया है। कागभुशुण्डि को उनके गुरु लोमश मुनि ने अमोघ आशिष देकर परम कल्याणकारी-परम सुखदायी सब कुछ दे दिया। प्रथम काग होने का शाप दिया था, तो अब इच्छानुसार रूप ग्रहण करने का आशीर्वाद भी दिया। ठीक है ‘सतगुरु सब कुछ दीन्ह, देत कछु ना रहेउ ।’ (कबीर साहब)। फिर भगवान ने आकाशवाणी द्वारा ‘एवमस्तु’ कहकर मुनिजी के दिए आशीर्वाद को अमोघ कर दिया। अब कागभुशुण्डि को कुछ पाने को नहीं रह गया। अब यदि कोई आशीर्वाद इनको किसी से मिले तो वह इसके (उपर्युक्त आशीर्वाद के) अन्तर्गत ही होगा। तब जानना चाहिए कि चौ0 सं0 746, 747 और दो0 सं0 117 में वर्णित जो वरदान श्रीराम भगवान से कागभुशुण्डि को मिले हैं, वे तो गुरु लोमश मुनि की कृपा से उनको पूर्व ही प्राप्त थे। जो कुछ गुरु देंगे, वही राम दे सकेंगे और जो कुछ गुरु न देंगे, सो राम कभी नहीं दे सकते हैं। ‘गुरु देवैं तासों अधिक, राम सकैं नहिं देइ । मूर्ख बिगाड़ै आपनी, गुरु तजि रामहिं सेइ ।। गुरु रुचि स्वीकृत राम को, जानहु बारम्बार । जो गुरु रुचि देवन नहीं, कभी न दें करतार ।।’]
कागभुशुण्डिजी फिर अपनी कथा कहने लगे-मैं आकाशवाणी सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। फिर मैंने महर्षि लोमशजी की विनती की। बारम्बार प्रणाम करके उनके चरण-कमलों पर अपना मस्तक बारम्बार रखा। फिर मैं उनकी आज्ञा पा, अत्यानन्दित हो इस आश्रम पर आकर रहने लगा। हे गरुड़जी ! मुझे यहाँ रहते 27 (सत्ताइस) कल्प बीत चुके हैं। भक्ति-पक्ष में हठ करने के कारण महर्षि ने मुझे शाप तो दिया था, पर फिर उन्होंने ही मुझे दुर्लभ वर भी दिया। यह भगवान का प्रताप है। अतएव-
जे असि भगति जानि परिहरहीँ ।
केवल ज्ञान हेतु स्त्रम करहीँ ।। 844।।
जो ऐसी भक्ति को जानकर छोड़ देते हैं और केवल ज्ञान के लिए परिश्रम करते हैं।
ते जड़ कामधेनु गृह त्यागी ।
खोजत आक फिरहिँ पय लागी ।। 845।।
वे मूर्ख घर में कामधेनु त्यागकर दूध के लिए आक ढूँढ़ते- फिरते हैं।
सुनु खगेस हरि भगति बिहाई ।
जो सुख चाहहि आन उपाई ।। 846।।
हे गरुड़ ! सुनिए, जो हरि-भक्ति को छोड़कर दूसरे उपाय से सुख चाहते हैं,
ते सठ महा सिन्धु बिनु तरनी ।
पैरि पार चाहहिँ जड़ करनी ।। 847।।
वे मूर्ख महासागर को बिना नाव के अपनी जड़ करनी से तैरकर पार होना चाहते हैं।
[भक्ति-रहित ज्ञान रामचरितमानस को मान्य तो है, पर भक्ति-सहित ज्ञान उसे परम मान्य है (दे0 चौ0 सं0 108)।
आगे चलकर बतलाया जाएगा कि भक्ति-मणि पाने के हेतु ज्ञान और विराग के नेत्रें से खोज करने की परम आवश्यकता है।]
शिवजी पार्वतीजी से कहते हैं कि कागभुशुण्डि की सब कथा सुनकर गरुड़ ने फिर उनसे पूछा-
कहहिँ सन्त मुनि बेद पुराना ।
नहिँ कछु दुर्लभ ज्ञान समाना ।। 848।।
वेद, पुराण, सन्त और मुनि कहते हैं कि ज्ञान के समान दुर्लभ और कुछ नहीं है। वही ज्ञान लोमशजी ने आपसे कहा था, पर आपने उसका आदर नहीं किया और भक्ति के लिए हठ किया। सो ज्ञान और भक्ति में क्या अन्तर है, मुझे समझाकर कहिए। कागभुशुण्डि कहने लगे-
भगतिहि ज्ञानहि नहिँ कछु भेदा ।
उभय हरहिँ भव सम्भव खेदा ।। 849।।
भक्ति और ज्ञान में कुछ भेद नहीं है, दोनों संसार से उत्पन्न क्लेशों को नष्ट करते हैं।
[‘ब्रह्म और जीव में भेद नहीं है’- यह सिद्धान्त लोमश मुनि का है (दे0 चौ0 सं0 823)। इसी ज्ञान को कागभुशुण्डि ने अपने पूर्व शरीर (ब्राह्मण-शरीर) में लोमश मुनि से सुना था। यदि यह सिद्धान्त असत्य तथा खण्डनीय होता, तो चौ0 सं0 849 में ऐसा नहीं कहा जाता कि ज्ञान से मोक्ष होता है। अतएव यह निश्चय करके जानना चाहिए कि ब्रह्म और जीव के अभेदपने को रामचरितमानस कभी खण्डनीय नहीं मानता है।]
फिर भी मुनि लोग कुछ अन्तर कहते हैं, सो आप सावधान होकर सुनिए-
ज्ञान बिराग जोग बिज्ञाना ।
ये सब पुरुष सुनहु हरिजाना ।। 850।।
हे गरुड़जी ! ज्ञान, वैराग्य, योग और विज्ञान-ये सब पुरुष वर्ग हैं।
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती ।
अबला अबल सहज जड़ जाती ।। 851।।
पुरुष का तेज सब प्रकार बलवान होता है, स्त्री स्वभाव ही से मूर्ख जाति की निर्बल होती है।
दोहा-पुरुष त्याग सक नारिहि, जो बिरक्त मतिधीर ।
न तु कामी जो बिषय बस, बिमुख जो पद रघुबीर ।। 141।।
वह पुरुष स्त्री को त्याग सकता है, जो वैराग्यवान और धीर बुद्धि का होता है, परन्तु वह नहीं त्याग सकता है, जो विषय के अधीन और राम के चरणों से विमुख होता है।
सोरठा-जो मुनि ज्ञान निधान, मृगनयनी बिधु-मुख निरखि ।
बिकल होहिँ हरि जान, नारि बिस्व माया प्रगट ।। 142।।
हे गरुड़ ! वह ज्ञान के निधान मुनि क्यों न हो, मृगलोचनी और चन्द्रमुखी स्त्री को देखकर विकल हो जाता है। स्त्री संसार में प्रत्यक्ष माया है।
[विरक्त, तीन गुण-त्यागी-त्रयगुणातीत अर्थात् निर्गुण तत्त्व में लीन को कहते हैं (दे0 चौ0 सं0 410)। ऐसे ही पुरुष की बुद्धि धीर वा स्थिर होती है। सो0 सं0 42, चौ0 सं0 724, 725 और 726 आदि में रघुवीर राम के जिस स्वरूप का वर्णन है, वह यही त्रयगुणातीत पद है और यही राम का माया-रहित सत्य स्वरूप है और भक्तों को सुलभ भी है (दे0 दोहा सं0 114)। जिसको रघुवर राम के इस सत्य स्वरूप में प्रेम नहीं है, उसे रघुवर के सत्य स्वरूप से विमुख ही जानो। जो रघुवर के केवल नराकृति अति सुन्दर अनूप रूप में, जो राम-द्वारा नटवत् धारित (दे0 दो0 सं0 111) और मुनि-मन-भ्रमोत्पादक है-(दे0 दो0 सं0 114) प्रेम रखते हैं, जानना चाहिए कि उनका प्रेम राम के माया-रूप ही में है; क्योंकि माया-रूप को पार करके राम के ऊपर वर्णित सत्य स्वरूप में इनकी आसक्ति वा प्रेम नहीं है। इस हेतु इनकी भक्ति पूरी नहीं कही जा सकती। और इसी कारण माया इनको नाच नचाती रहती है। सुग्रीव और विभीषण रघुवर रामजी के भक्त थे, पर तो भी क्रमशः तारा और मन्दोदरी के मृग-लोचन एवं विधुमुख को देखकर विकल हो गए और पाप में लिप्त हुए। (जेहि अघ बधेउ ब्याध इव बाली । फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली ।। सोइ करतूति विभीषण केरी । सपनेहुँ सो न राम हिय हेरी ।। प्रथम सोपान-बालकाण्ड)। सुग्रीव और विभीषण के विकारी हृदयों का ख्याल श्रीराम ने अपनी अति उदारता से उन पर मैत्री भाव के कारण नहीं किया। इसीलिए उनका हृदय निष्पाप हो गया, ऐसा नहीं कहा गया है। किसी को यह नहीं विचारना चाहिए कि विकारी हृदयवाले की ऊर्ध्वगति होती है और परमात्म-स्वरूप की प्राप्ति उसको होती है। परमात्म-स्वरूप की प्राप्ति के बिना न तो भक्ति पूरी होती है और न भक्त का परम कल्याण होता है। सगुण-साकार ईश्वर-रूप को भी प्रत्यक्ष में पाकर उनको प्रभु और मित्र जानते हुए भी हृदय के विकार विभीषण और सुग्रीव के तथा राजा दशरथ के भी हृदय के विकार दूर नहीं हुए थे। इसीलिए तो भगवान में वात्सल्य भाव रखते हुए, उनको प्रत्यक्ष पाए हुए श्री राजा दशरथ के लिए गो0 तुलसीदासजी ऐसे राम-भक्त को भी लिखना पड़ा-‘सुरपति बसइ बाँहु बल जाके । नरपति सकल रहहिँ रुख ताके ।। सो सुनि तिय रिस गयेउ सुखाई । देखहु काम प्रताप बड़ाई ।। सूल कुलिस असि अँगवनिहारे । ते रति नाथ सुमन सर मारे ।।’ और सुग्रीव और विभीषण के लिए गोस्वामीजी को ऊपर लिखित चौपाइयाँ लिखनी पड़ीं। इस प्रकार के अधूरे भक्तों की बहुत-सी कथाएँ हैं, जो ग्रन्थ बढ़ने के भय से नहीं लिखी जाती हैं। इन बातों के लिखने का तात्पर्य यह है कि अधूरे भक्त मृगनयनी-विधुमुखी को देखकर व्याकुल हो जाते हैं; पर जो विरक्त और धीरमति हैं, वे व्याकुल नहीं होते हैं (दे0 दोहा 141-142)। रघुवीर पद (राम के वर्णित सत् पद) से विमुख कामी और विषय-वश को ही ‘ज्ञान-निधान मुनि’ कहा गया है। (दे0 दोहा सं0 141-142)। ऐसे ज्ञानी को ‘ज्ञान-निधान’ कहना, मुनि के लिए व्यंग्य वा ताना मारना है। भला ऐसे लोग भी ‘ज्ञान-निधान मुनि’ होते हैं ? ‘वाक्य ज्ञान अत्यन्त निपुण भव पार न पावै कोई । निसि गृह मध्य दीप की बातन्ह तम निवृत्त नहिं होई ।। षट रस बहु प्रकार व्यंजन कोउ दिन अरु रैन बखानै। बिनु बोले सन्तोष जनित सुख खाइ सोई पै जानै ।।’ (विनय-पत्रिका)। ऐसे कथन से कवि का कहना है कि विरक्त और मतिधीर ज्ञानी (अनुभव-प्राप्त ज्ञानी) रघुवर-राम-पद के सत्स्वरूप के पक्के भक्त होते हैं। वे मृगनयनी-विधुमुखी को देखकर व्याकुल नहीं होते हैं। पर विषय-आसक्त अस्थिर बुद्धिवाले, अनुभव-शून्य, रघुवर राम के पद से विमुख (केवल वाक्य-ज्ञान-निपुण) ‘ज्ञान- निधान मुनि’ (परम अधूरे ज्ञानी) मृगनयनी-विधुमुखी को देखकर व्याकुल हो जाते हैं। चाहे अधूरे ज्ञानी हों, चाहे अधूरे भक्ति हों, वे माया से मोहित अवश्य होंगे। जो पूरा भक्त है, वही पूरा ज्ञानी है और जो पूरा ज्ञानी है, वही पूरा भक्त है। इनमें अन्तर यही है कि भक्त प्रथम इष्ट को अपने से भिन्न मानकर उनकी उपासना भक्ति-योग की रीति (जो तृतीय सोपान में नवधा भक्ति के नाम से वर्णित है।) से करके उपास्यदेव के सत्स्वरूप वा आत्मस्वरूप को प्राप्त करके पूर्ण होता है; पर ज्ञानी वेदान्त-द्वारा आत्म-अनात्म विचारकर आत्म-चिन्तन करता हुआ योगाभ्यास करके सत्य स्वरूप आत्म-राम को प्राप्त कर लेता है। दोनों एक ही लड्डू और एक ही स्वाद पाते हैं, पर अधूरेपन में दोनों को माया सताती रहती है। अब यह विचारना है कि स्त्री संसार में प्रत्यक्ष माया रूप है। यह इस हेतु कहा गया है कि स्त्री को देखकर पुरुष का ज्ञान भ्रष्ट हो जाता है और माया को स्त्री-रूप जानने के कारण ही उसे आगे चलकर स्त्री वर्ग बताया जाएगा। इससे यह बात भी निकलती है कि यदि स्त्री को देखकर पुरुष मोहित नहीं होता, तो उसको प्रत्यक्ष माया नहीं कहा जाता और न माया स्त्री वर्ग में गिनी जाती। ‘इसीलिए स्त्री प्रत्यक्ष माया-रूप पुरुषों के लिए है, स्त्रियों के लिए नहीं। स्त्रियों के लिए तो पुरुष ही प्रत्यक्ष माया-रूप है; क्योंकि स्त्री पुरुष को देखकर अति व्याकुल हो जाती है (दे0 चौ0 सं0 423, 424)। अतएव स्त्रियों की तरफ से तो माया को पुरुष वर्ग में रखना चाहिए।’ यथार्थ में स्त्री, पुरुष, नपुंसक, सुन्दर, असुन्दर और इन्द्रिय-गम्य मात्र माया के प्रत्यक्ष रूप हैं। यहाँ पुरुषों के बीच संवाद है, इसी हेतु कविजी ने माया का वर्णन उपर्युक्त रीति से किया।]
इहाँ न पच्छपात कछु राखौँ ।
बेद पुरान सन्त मत भाखौँ ।। 852।।
यहाँ कुछ पक्षपात न रखकर वेद, पुराण और सन्तों का मत कहता हूँ।
[शब्द ‘यहाँ’ कहने का तात्पर्य भक्ति और ज्ञान में अन्तर बतलाने के प्रसंग से है। इस पर प्रश्न हो सकता है कि इस प्रसंग के अतिरिक्त रामचरितमानस में वर्णित दूसरे प्रसंगों में कविजी ने पक्षपात से काम लिया है ? इसका उत्तर ‘हाँ’ है। कविजी ने अपने किए पक्षपात को इसलिए स्वीकार किया है कि लोग प्रत्येक प्रसंग को निष्पक्षतापूर्ण और सत्य-सत्य मानकर भूल में न पड़ जाएँ। बुद्धिमान निष्पक्ष और सत्य प्रसंग को चुनकर आप भूल से बचें और दूसरों को बचावें। गो0 तुलसीदासजी केवल महाकवि ही नहीं, सन्त महाकवि हैं। काव्य की सुन्दरता के हेतु, उसे सर्वप्रिय बनाने के हेतु कविजी को पक्षपात किए बिना रहा न गया और सन्त के सरल, पर-हित-निरत स्वभाव से अपने किये पक्षपात को स्वीकार किए बिना भी रहा नहीं गया।]
मोह न नारि नारि के रूपा ।
पन्नगारि यह नीति अनूपा ।। 853।।
हे गरुड़जी ! यह अनुपम रीति है कि स्त्री स्त्री के रूप पर (काम भाव से) मोहित नहीं होती है।
माया भगति सुनहु तुम दोऊ ।
नारि बर्ग जानइ सब कोऊ ।। 854।।
हे गरुड़जी ! आप सुनिए, माया और भक्ति, दानों स्त्री वर्ग है, इसे सब कोई जानते हैं।
पुनि रघुबीरहि भगति पियारी ।
माया खलु नर्तकी बेचारी ।। 855।।
फिर राम को भक्ति प्यारी है और माया बेचारी तो निश्चय ही नाचनेवाली नटिन है।
[नर्तकी = नटिन = वेश बना-बनाकर नाच-नाचकर मोहित करनेवाली। गो0 तुलसीदासजी ने माया को यह अति उत्तम उपमा दी है। श्रीसीताजी महारानी तथा श्रीपार्वतीजी को रामचरितमानस में माया कहकर वर्णित किया गया है। सन्त कबीर साहब ने भी माया का कितना खरा और सुन्दर वर्णन किया है। शब्द-‘माया महा ठगनी मैं जानी । तिरगुन फाँस लिये कर डोलै, बोलै मधुरी बानी ।। केशव के कमला होइ बैठी, सिव के भवन भवानी । पंडा के मूरति ह्वै बैठी, तीरथ में भइ पानी ।। जोगी के जोगिन ह्वै बैठी, राजा के घर रानी। काहू के हीरा ह्वै बैठी, काहू की कौड़ी कानी ।। भक्तन के भक्तिन ह्वै बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्मानी । कहै कबीर सुनो हो सन्तो, यह सब अकथ कहानी ।।’]
भगतिहि सानुकूल रघुराया ।
तातेँ तेहि डरपति अति माया ।। 856।।
भक्ति पर राम प्रसन्न होते हैं, इसी से माया उससे बहुत डरती है।
राम भगति निरुपम निरुपाधी ।
बसइ जासु उर सदा अबाधी ।। 857।।
अनुपम, उपद्रव-रहित, अखण्ड राम-भक्ति जिसके हृदय में सदा बसती है।
तेहि बिलोकि माया सकुचाई।
करि न सकइ कछु निज प्रभुताई ।। 858।।
उसको देखकर माया सकुचाती है। उस पर अपनी प्रभुता कुछ नहीं कर सकती है।
[माया उस भक्त से डरती है, जिसकी भक्ति का वर्णन चौ0 सं0 857 में है और उस पर कुछ भी प्रभुता नहीं रखती है; परन्तु वह दूसरे प्रकार की भक्तिवाले भक्तों से नहीं डरती है और उस पर अपनी प्रभुता करती है। अब जानना चाहिए कि चौ0 सं0 857 में वर्णित निरुपम, निरुपाधि भक्ति किस भक्ति को कहेंगे ? भ्रमोत्पादक सगुण रूप (दे0 दोहा सं0 114) की भक्ति निरुपाधि नहीं कही जा सकती; क्योंकि जिस रूप में भ्रम उत्पन्न करने का स्वभाव ही है, वह तो भ्रम उत्पन्न करके भक्ति में विघ्न कर ही देगा। कागभुशुण्डिजी गरुड़जी तथा अन्य अनेकों को सगुण रूप के कारण भ्रम उत्पन्न हुआ था। भक्ति भ्रमोत्पादक सगुण रूप के सहारे ही आरम्भ होकर स्थूल-सूक्ष्म क्रम से बहुत दूर तक जाती है (वह क्रम दो0 सं0 113 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में पढ़ लीजिए।) दूसरी बात यह है कि विषय-प्राप्ति की कामना लेकर जो भक्ति की जाएगी, उसमें तो विषय कामना-रूप विघ्न मौजूद ही है; क्योंकि आगे चलकर रामचरितमानस में विषय की आशा को दुर्बलता और विषय को भक्ति-रूप औषधि के सेवन में कुपथ्य कहा गया है (देखिए चौ0 सं0 917, 918 और 923)। फिर ऐसी भक्ति भी निरुपाधि नहीं कही जा सकती। अतएव भ्रमोत्पादक रूप में लगे रहने की अवधि-पर्यन्त की भक्ति और विषय-कामना-युक्त भक्ति निरुपाधि भक्ति नहीं कहला सकती, उसे अनुपम कहना निरर्थक है। अतएव भक्ति-योग के साधन से विषय की कल्पनाओं को हटाकर राम के निर्भ्रान्त निर्गुण स्वरूप (दे0 चौ0 सं0 727) में रत होना ही निरुपम निरुपाधि राम-भक्ति है। यह भक्ति जिसके हृदय में सदा निर्विघ्न बसती है, उससे माया डरती है, न कि जो रघुराज राम के सगुण रूप का भक्त है, उससे माया डरती है। यदि कहा जाय कि रघुराज राम सगुण-भक्ति-उपासक पर ही कृपालु रहते हैं और इस जगह निर्गुण स्वरूपवाले प्रसंग को मिलाने की आवश्यकता नहीं है, तो इसके उत्तर में सुनिए-
स्वायम्भुव मनु और शतरूपा यद्यपि भगवान के निर्गुण रूप को भी जानते थे, पर वे उनके सगुण रूप ही के प्रेमी थे। इन दोनों ने अपार तप करके मनोवांछित सगुण रूप के दर्शन प्राप्त किए थे। वे उनके निर्गुण रूप में रत न थे और न उस रूप की प्राप्ति उन्हें हुई थी। रूप का धारण तो भगवान की माया भर है (दे0 दो0 सं0 112)। स्वायम्भुव मनु और शतरूपा ने यथार्थ में माया ही की चाहना की और उसे ही प्राप्त किया। इसलिए कहना पड़ता है कि ये दानों माया के ही भक्त थे। फल यह हुआ कि माया उनसे डरी नहीं, बल्कि उसने उन्हें मोहित कर लिया। माया से माहित होने के कारण भगवान के अनूप रूप को देखकर इच्छाधीन हो सगुण भगवान की तरह इन दोनों ने पुत्र की इच्छा की [इच्छा के रहते कोई स्वप्न में भी सुख नहीं पा सकता। दे0 चौ0 सं0 770]। सगुण भगवान ने कहा-‘मैं अपना-सा कहाँ खोजूँ ? मैं स्वयं तुम्हारा पुत्र होऊँगा।’ अब तुम मेरी आज्ञा को मानकर सुरपति- राजधानी (स्वर्ग) को जाओ और वहाँ विशाल विषय-भोग करके फिर इस धरती पर अयोध्या के राजा (दशरथ) होओगे, तब मैं तुम्हारा पुत्र होऊँगा।’ रामचरितमानस मानता है कि सेवक-सेव्य भाव के बिना भवसागर तरा नहीं जा सकता (दे0 दो0 सं0 143)। स्वायम्भुव मनु और शतरूपा ने तथा इन्हीं के समान अन्य कई भक्तों ने सेवक-सेव्य भाव के बदले पिता-पुत्र होने का विलक्षण वरदान प्राप्त किया। भगवान उनके पुत्र बनकर उनको पूज्य मानकर नम्रतापूर्वक उनके चरणों को छूकर प्रणाम करते होंगे। उनकी यथोचित सेवा करते और आज्ञाओं का पालन करते होंगे। स्वायम्भुव मनु और शतरूपा कुछ काल तक अपने आश्रम में रह अन्त समय प्राप्त होने पर शरीर छोड़कर भगवान की आज्ञानुसार स्वर्ग में जा विराजे। रामचरितमानस में इसकी कथा यहीं तक है। अब आगे जैसी आज्ञा भगवान की है, उसके अनुसार वे कुछ काल स्वर्ग में रह वहाँ के विशाल विषय-भोगों को भोगे होंगे। वहाँ से फिर इस नर-लोक में अवतरित होकर अवध-भुआल (राजा दशरथ) हुए होंगे, शिकार खेलने के व्यसन में पड़कर निर्दोष श्रवण मुनि को हाथी समझकर मारे होंगे और पुत्र-शोक में मरने के कारण उसके पिता से शाप पाए होंगे। वाल्मीकि रामायण के अनुसार तीन सौ तीन स्त्रियों से विवाह करके रानी कैकेई की तरह की स्त्रियों के अधीन हो, उनसे डरते होंगे (जैसा कि रामचरितमानस में लिखा है-चौ0-‘कोप भवन सुनि सकुचेउ राऊ । भय बस अगहुँड़ परइ न पाऊ ।। सुरपति बसइ बाँह बल जाके । नरपति सकल रहहिँ रुख ताके ।। सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई । देखहु काम प्रताप बड़ाई।। सूल कुलिस असि अँगवनिहारे । ते रति नाथ सुमन सर मारे ।। सभय नरेश प्रिया पहिँ गयउ । देखि दसा दारुन दुख भयऊ ।।)’ पुत्र-हीन होने के अवसर में-पुत्रभाव में ग्लानि हुई ही होगी । (रामचरितमानस, प्रथम सोपान, चौ0-एक बार भूपति मन माहीं । भइ गलानि मोरे सुत नाहीं ।।) और ऐसे कितने ही माया-चक्रों में फेरे खाते हुए अन्त में दारुण पुत्र-शोक से शरीर छोड़कर फिर स्वर्ग गए होंगे कि जहाँ से एक बार लौट आकर यहाँ नर-लोक में अवतार ले कथित यातनाओं को पाए होंगे। इन बातों को विचार करके देखिए, केवल सगुण रूप के भक्त भगवान के पिता तक से माया नहीं डरी और उसने उन्हें मोहित करके सब नाच नचाया। प्रथम (स्वायम्भुव मनुवाला) शरीर छोड़कर भगवान की आज्ञा के अनुसार स्वर्ग में गए होंगे। रामचरितमानस के मतानुसार मनुष्य होकर स्वर्ग का पाना, उसके लिये बड़ी हानि की बात है (दे0 चौ0 सं0 655 से 657 तक)।
स्वर्ग के राजा को विषयरूप सूखा हाड़ चबानेवाला कुत्ता, निर्लज्ज और वहाँ के वासी देवगणों को सदा स्वार्थी कहा गया है (दे0 दो0 सं0 29, सोरठा 54, चौ0 380 से 382 तक) ‘आये देव सदा स्वारथी । बचन कहहिँ जनु पारमारथी ।।’
रामचरितमानस कहता है कि ऐसे संग से तो नरक ही भला है (बरु भल बास नरक कर ताता । दुष्ट संग जनि देइ विधाता ।।) क्योंकि यहाँ के राजा व्यभिचारी और अन्य निवासी स्वार्थी हैं, अतएव ये दुष्ट हैं, फिर दुष्टों के बीच बसनेवाले को शान्ति कहाँ और फिर शान्ति के बिना सुख कहाँ? फिर जो ऐसी जगह रहने को दे, उससे उपकार ही क्या हुआ ? और जो ऐसी जगह को पसन्द करे, उसे विचार-शून्य क्यों न माना जाय ? कहा है-
‘नरतन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहत पुकार ।।
सब कोइ कहत पुकार, देव देही नहिँ पावैं ।
ऐसे मूरख लोग स्वर्ग की आस लगावैं ।।
पुन्य छीन सोइ देव, स्वर्ग से नरक में आवैं ।
भरमें चारों खान, पुन्य कहि ताहि रिझावैं ।।
तुलसी सत मत तत गहे, स्वर्ग पर करे खखार ।।
नरतन दुर्लभ देव को सब कोइ कहत पुकार ।।’
(हाथरस- वाले तुलसी साहब)
रामचरितमानस के अनुसार कश्यप और अदिति भी राजा दशरथ और रानी कौशल्या होकर भगवान के माता-पिता होते हैं। सो इनकी दशा भी स्वायम्भुव मनु और शतरूपा की तरह जान लेनी चाहिए। और विशेष बात यह हुई कि पूर्व जन्म में जो ब्राह्मण थे, कठोर तप का फल भगवान के सगुण रूप का दर्शन करके भी उनको क्षत्रिय-कुल में जन्म ग्रहण करना पड़ा अर्थात् उच्च पद से नीच पद पर आना पड़ा। पाण्डवगण पत्नी सहित कृष्ण भगवान के बड़े भक्त थे। यद्यपि भगवान ने भी द्रौपदी का वस्त्र बढ़ाकर सभा में उसकी लाज रखी, पाण्डवों को जंगल में दुर्वासा के शाप से बचाया, पाण्डवों के राजसूय यज्ञ में बड़ी सहायता की, महाभारत में अर्जुन का सारथी बनकर उसे जिता दिया, विराट रूप का दर्शन दिया, गीता का अनुपम उपदेश सुनाया और भी अनेक उपकार पाण्डवों के किए, तथापि पाण्डवों को इस लोक में अनेक कष्ट हुए। वे माया से माहित होते ही रहे और कर्मानुसार नरक भोगकर बड़ा पुरस्कार केवल स्वर्ग ही पाया। ऐसी अनेक कथाएँ हैं, कहाँ तक लिखी जायँ ? शिव, नारद, गरुड़ और कागभुशुण्डि आदि यद्यपि रामचरितमानस के अनुसार सगुण रूप भगवान के बड़े भक्त हैं, तथापि ये लोग बारम्बार माया से मोहितमति हुए हैं। यदि कहिए कि भक्तों को अविद्या-माया नहीं व्यापती है-प्रभु-प्रेरित विद्या-माया ही व्यापती है, तो इस पर प्रश्न होगा कि विद्या-माया की प्रेरणा भगवान भक्तों पर क्यों करते हैं ?
उत्तर मिलेगा-‘सुनहु राम कर सहज सुभाऊ । जन अभिमान न राखहिं काऊ ।। संसृति मूल सूल प्रद नाना । सकल सोक दायक अभिमाना ।।’ इत्यादि। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जब भक्तों को अभिमान होता है, तब भगवान उस पर विद्या-माया को प्रेरण करके उसके अभिमान को दूर कर देते हैं। फिर प्रश्न होगा कि अभिमान अविद्या माया से होता है (दे0 चौ0 407) और जबकि भक्तों को अभिमान होता है, तो उन पर अवश्य अविद्या-माया की प्रभुता है, सो ऐसी प्रभुता भक्तों पर क्यों होती है ? चौ0 सं0 854, 856 के अनुसार अभिमान-रूप अविद्या-माया भक्तों से डरकर हटी क्यों नहीं रहती है ? दोनों माया-विद्या और अविद्या का वर्णन मिलाकर समझने पर इसका उत्तर अवश्य यही होगा कि चौ0 सं0 857 में जैसी भक्ति का वर्णन है, वैसी भक्ति नहीं प्राप्त करने के कारण ही माया नहीं हटती है।
ऊपर के कथन से जाना गया कि केवल सगुण रूप की भक्ति करने के कारण भगवान के पिता भी माया को प्रबलता में पडे़ बिना न रहे, तो फिर आशा कैसे की जाए कि निर्गुण स्वरूप में अरत-रत रहे बिना, केवल सगुण रूप में ही रत प्राणी पर माया की प्रभुता कुछ न होगी ? सारांश यह कि ऐसे भक्त की भक्ति अधूरी है, माया के उपद्रव से रहित नहीं है। और यह बात पहले दिखाई जा चुकी है कि निर्गुण रूप निर्भ्रान्त है। इसमें रत होना ही राम की निरुपम-निरुपाधि भक्ति है। ऐसी भक्ति से माया डरती है। अतएव जबतक सर्वोच्च भक्ति (भक्ति को बढ़ाते हुए निर्गुण स्वरूप में रत होना) न की जाय, तबतक चौ0 सं0 857 में वर्णित निरुपम-निरुपाधि भक्ति को और चौ0 सं0 858 में वर्णित उसके प्रभाव को कोई नहीं पा सकता है। इसी कारण इसकी बड़ी आवश्यकता है कि निर्गुण स्वरूपवाले प्रसंग के साथ मिलाकर पूर्ण जानकारी प्राप्त की जाए। चार प्रकार के राम-भक्तों में ज्ञानी भक्त राम को विशेष प्यारे हैं (दे0 चौ0 सं0 97)। ज्ञानी भक्त का लक्षण चौ0 सं0 92-93 में यही दिया हुआ है कि वे योगी होते हैं, ब्रह्म-स्वरूप ‘अकथ अनामय नाम न रूपा’ के अनुपम सुख का अनुभव करते और वैराग्य-द्वारा विरंचि के प्रपंच के त्यागी होते हैं। ‘अकथ अनामय नाम न रूपा’ ब्रह्म-स्वरूप ही तो राम का निर्गुण स्वरूप है न ? फिर जो भक्ति-द्वारा उपर्युक्त अनुपम सुख पाते हैं, उन्हीं की भक्ति निरुपम और निरुपाधि होगी न ? अब तो स्पष्ट रूप से यह सिद्ध हो गया न, कि चौ0 सं0 92, 93 में राम के जिस स्वरूप की, जिस भक्ति का वर्णन है, उसी स्वरूप और उसी भक्ति का वर्णन चौ0 सं0 857 में भी किया गया है ? जबतक भक्ति इस दर्जे तक न पहुँचेगी, वह निस्सन्देह अधूरी रहेगी और राम को विशेष प्यारी न होगी। फलतः माया उससे न डरेगी; बल्कि माया ऐसे भक्त को नाच-नचाकर पद-दलित करेगी ।]
अस बिचारि जे मुनि बिज्ञानी ।
जाँचहिँ भगति सकल सुख खानी ।। 859।।
ऐसा विचारकर जो मननशील और सुबोध हैं, वे सब सुखों की खान भक्ति की याचना करते हैं।
[पूर्ण अनुभव और पूर्ण समता-प्राप्त अर्थात् पूर्ण विज्ञानी को भक्ति प्राप्त ही रहती है। उन्हें कुछ पाने की न इच्छा रहती है और न कुछ पाने को शेष ही रहता है। वे तो ‘ब्रह्म सुखहि अनुभवहि अनूपा।’ अर्थात् अनुपम ब्रह्म-सुख का अनुभव करते हैं। वे सर्वोच्च भक्त प्रभु को विशेष प्यारे होते हैं। (दे0 चौ0 सं0 92, 93) जैसे शवरी ने भगवान से कुछ नहीं जाँचा। चौ0 सं0 859 में ‘जाँचहिं भगति’ के लिखने से जान पड़ता है कि ऐसे विज्ञानी को यथार्थ विज्ञानी नहीं कहा गया है। इसलिए यहाँ पर ‘विज्ञानी’ का अर्थ सुबोध लिखा गया है। जब भक्ति, राम के निर्गुण स्वरूप तक पहुँच जाती है, तभी वह सब सुख-खान होती है।]
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद ।
सन्त पुरान निगम आगम बद ।। 860।।
कैवल्य (चेतन-आत्मा की जड़-विहीनता) परम पद की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है, ऐसा सन्त, पुराण, वेद और शास्त्र कहते हैं।
राम भजत सोइ मुकति गोसाईं ।
अन इच्छित आवइ बरिआईं ।। 861।।
हे प्रभो ! वही मुक्ति (कैवल्य पद) राम का भजन करने से बिना इच्छा के बलपूर्वक आप-से-आप आ जाती है।
[राम-भक्ति से भी कैवल्य परम पद की प्राप्ति होती है। चौ0 सं0 286 का भी यही तात्पर्य है।]
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई ।
कोटि भाँति कोउ करइ उपाई ।। 862।।
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई ।
रहि न सकई हरि भगति बिहाई ।। 863।।
जैसे बिना धरती के जल नहीं रह सकता है, चाहे कोई करोड़ों उपाय क्यों न करे। हे गरुड़जी ! सुनिए, उसी प्रकार हरि-भक्ति को छोड़कर मोक्ष-सुख दूसरी जगह रह नहीं सकता।
अस बिचारि हरि भगत सयाने ।
मुक्ति निरादर भगति लोभाने ।। 864।।
ऐसा विचारकर चतुर हरि-भक्त मुक्ति का निरादर करके भक्ति में लुभाए रहते हैं।
[चौ0 सं0 861 से 864 तक के वर्णनानुसार भक्ति करने से निस्सन्देह मुक्ति हो जाएगी। इस हेतु भक्ति करना ही मुक्ति का आदर करना है। जिस भक्ति से मोक्ष न हो, उसको पूरी भक्ति नहीं जानना चाहिए। जो मुक्ति का आदर करना न चाहे, उसे चाहिए कि भक्ति या मोक्ष प्राप्त करने का कोई साधन नहीं करे।]
भगति करत बिनु जतन प्रयासा ।
संसृति मूल अबिद्या नासा ।। 865।।
भक्ति करते ही बिना यत्न और परिश्रम के संसार की जड़ अविद्या-माया का नाश हो जाता है।
भोजन करिय तृप्ति हित लागी ।
जिमि सो असन पचवइ जठरागी ।। 866।।
भोजन सन्तुष्टि प्राप्त करने के लिए करना चाहिए। वह (भोजन) ऐसा हो कि उसे पेट की अग्नि पचा सके।
[तात्पर्य यह है कि जो भोजन पचे नहीं, उससे रोग होता है। इसी तरह मोक्ष-रूपी भूख शान्त करने के लिए ज्ञान-रूपी भोजन किया जाता है; पर यह भोजन सुपाच्य नहीं है। अतएव कष्टकर है। किन्तु भक्ति-रूपी भोजन सुपाच्य होने से वह सुख से पचेगा और उससे मोक्ष-रूपी भूख की तृप्ति होगी। अर्थात् भक्ति का साधन सुगमता से होगा, अतएव भक्ति करते-करते ही मोक्ष प्राप्त करना चाहिए।]
असि हरि भगति सुगम सुखदाई ।
को अस मूढ़ न जाहि सोहाई ।। 867।।
(जैसे सुपाच्य भोजन सहज में ही पचकर सुखदायी होता है) ऐसे ही हरि-भक्ति सहज में साधी जा सकने योग्य और सुखवाली है, कौन ऐसा मूढ़ है, जिसे वह अच्छी नहीं लगेगी ?
दोहा-सेवक सेब्य भाव बिनु, भव न तरिय उरगारि ।
भजहु राम-पद पंकज, अस सिद्धान्त बिचारि ।। 143।।
हे गरुड़जी ! सेवक-सेव्य भाव के बिना संसार-सागर से पार नहीं मिलता, ऐसा सिद्धान्त विचारकर राम के चरण-कमल का भजन करो।
[सेवक-सेव्य भाव = अपने को सेवक और ईश्वर को सेव्य जानने का भाव। यद्यपि भक्ति के वात्सल्य, सख्यादि कई भाव हैं, तथापि रामचरितमानस में केवल सेवक-सेव्य भाव को ही मोक्षदायक और उत्तम माना गया है। रामचरितमानस में यद्यपि गुह निषाद, सुग्रीव और विभीषण को राम-सखा कहा गया है, तथापि गोस्वामी तुलसीदासजी ने राम को इन सखाओं के मुख से प्रभु ही कहलाया है; जैसे-
गुहनिषाद-‘पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।’ (द्वितीय सोपान)
सुग्रीव- ‘कह सुग्रीव नयन भरि बारी । मिलिहि नाथ मिथिलेस कुमारी ।।’ (चतुर्थ सोपान)
विभीषण-‘नाथ न रथ नहिं तनु पद त्राना । केहि बिधि जितब बीर बलवाना ।।’ (षष्ठ सोपान)
दोहा-जो चेतन कहँ जड़ करइ, जड़हि करइ चैतन्य ।
अस समर्थ रघुनायकहि, भजहि जीव ते धन्य ।। 144।।
जो चेतन को जड़ करते और जड़ को चैतन्य करते हैं, ऐसे शक्तिमान राम को जो जीव भजते हैं, वे धन्य हैं।
राम भगति चिन्तामनि सुन्दर ।
बसइ गरुड़ जाके उर अन्तर ।। 868।।
रामभक्ति-रूपी सुन्दर चिन्तामणि है, हे गरुड़ ! यह जिसके हृदय में बसती है।
[चिन्तामणि एक रत्न है। लोगों में प्रसिद्ध है कि जिस बात की चिन्ता की जावे, उसे यह मणि शीघ्र दे देती है।]
परम प्रकास रूप दिन राती ।
नहिँ कछु चहिय दिया घृत बाती ।। 869।।
(वह) दिन-रात परम प्रकाश-रूप है, वहाँ (प्रकाश के लिए) दीप, घी और बत्ती कुछ नहीं चाहिए।
मोह दरिद्र निकट नहिँ आवा ।
लोभ बात नहिँ ताहि बुझावा ।। 870।।
अज्ञानता-रूपी दरिद्रता उस (भक्ति-चिन्तामणि-प्राप्त भक्त) के पास नहीं आती है और लोभ-रूपी हवा उस मणि के प्रकाश को नहीं बुझाती है।
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई ।
हारहिँ सकल सलभ समुदाई ।। 871।।
अविद्या का कठिन अन्धकार (उस मणि के प्रकाश से) मिट जाता है और (मदादिक) सब फतिंगे हार जाते हैं (उसे बुझा नहीं सकते हैं)।
खल कामादि निकट नहिँ जाहीँ ।
बसइ भगति जाके उर माहीँ ।। 872।।
काम आदि दुष्ट उसके पास नहीं जाते, जिसके हृदय में भक्ति बसती है।
गरल सुधा सम अरि हित होई ।
तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई ।। 873।।
जिसके प्रभाव से विष अमृत और शत्रु मित्र तुल्य हो जाते हैं, उस मणि के बिना कोई सुख नहीं पाता है।
ब्यापहिँ मानस रोग न भारी ।
जिन्हके बस सब जीव दुखारी ।। 874।।
भक्तिवन्त को मन के भारी रोग नहीं होते, जिनके वश में सभी जीव दुःखी हैं।
राम भगति मनि उर बस जाके ।
दुःख लवलेस न सपनेहुँ ताके ।। 875।।
राम-भक्ति-रूपी मणि जिसके हृदय में बसती है, उसे सपने में भी लवलेश-मात्र दुःख नहीं होता।
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीँ ।
जे मनि लागि सु जतन कराहिँ ।। 876।।
संसार में वे ही चतुर-शिरोमणि हैं, जो इस मणि के लिए सुन्दर यत्न करते हैं।
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई ।
रामकृपा बिनु नहिँ कोउ लहई ।। 877।।
वह मणि यद्यपि संसार में प्रकट है; तथापि राम-कृपा बिना कोई पाता नहीं।
सुगम उपाय पाइबे केरे ।
नर हत भाग्य देहिँ भट भेरे ।। 878।।
उसके पाने का सुगम उपाय है, परन्तु अभागे मनुष्य उसे धक्का देकर पीछे कर देते हैं।
पावन पर्बत बेद पुराना ।
राम-कथा रुचिराकर नाना ।। 879।।
वेद और पुराण पवित्र पर्वत हैं, उनमें नाना प्रकार की रामकथा सुन्दर खानें हैं।
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी ।
ज्ञान बिराग नयन उरगारी ।। 880।।
(भक्ति करने का भेद जाननेवाला भक्त) सज्जन (राम-भक्ति-चिन्तामणि के) भेदिए हैं। उनकी सुन्दर बुद्धि कुदाली है। हे गरुड़जी ! ज्ञान और वैराग्य नेत्र हैं।
भाव सहित खोजै जो प्रानी ।
पाव भगति मनि सब सुख खानी ।। 881।।
जो प्राणी (चौ0 880-881 में वर्णित साधनों का अवलम्ब लेकर) प्रेम-सहित खोजता है; वह सब सुखों की खान भक्तिरूपी मणि को पाता है।
मोरे मन प्रभु अस बिस्वासा ।
राम तेँ अधिक राम कर दासा ।। 882।।
कागभुशुण्डिजी कहते हैं कि हे स्वामी ! मेरे मन में ऐसा विश्वास है कि राम के दास राम से बढ़कर हैं।
राम सिन्धु घन सज्जन धीरा ।
चन्दन तरु हरि सन्त समीरा ।। 883।।
राम समुद्र-रूप हैं, धैर्यवान सज्जन मेघ-रूप; (फिर) राम चन्दन वृक्ष-रूप हैं और सन्त पवन-रूप हैं।
सबकर फल हरि भगति सोहाई ।
सो बिनु सन्त न काहू पाई ।। 884।।
सब (सदाचरणों) का फल सुन्दर हरि-भक्ति है, उसको बिना सन्तों की कृपा के किसी ने नहीं पाया।
अस बिचारि जो कर सतसंगा ।
राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा ।। 885।।
हे पक्षिराज ! ऐसा विचारकर जो सत्संग करेगा, उसे राम-भक्ति सहज ही में प्राप्त होगी।
दोहा-ब्रह्म पयोनिधि मन्दर, ज्ञान सन्त सुर आहि ।
कथा सुधा मथि काढ़इ, भगति मधुरता जाहि ।। 145।।
ब्रह्म क्षीर-समुद्र हैं और उसको ज्ञान-रूप मन्दराचल से सन्त-रूप देवता मथकर कथा-रूप अमृत को निकाल लेते हैं; जिसमें भक्ति-रूपी मिठास है।
[ब्रह्म-पयोनिधि = त्रिकुटी । कथा-सुधा = सारशब्द । जो अभ्यासी तीसरे तिल में प्रवेश करके सहस्त्रदल कमल के विविध ज्योति-मण्डलों के पार होता हुआ त्रिकुटी के महान ज्योति-मण्डलों को भी पार कर जाता है, वही ब्रह्म-पयोनिधि को मथ डालता है और कथा-सुधा अर्थात् सारशब्द को प्राप्त करके भक्ति के अत्यन्त मीठे रस में निमग्न हो जाता है। त्रिकुटी तक त्रयगुणात्मक मायिक आवरण विशेष मोटा होने के कारण उसके अन्दर सारशब्द का कुछ भी आभास मिलना नहीं हो सकता है। परन्तु त्रिकुटी के परे मायिक आवरण उत्तरोत्तर विशेष झीना होता जाता है। इस झीनेपन में सारशब्द की परख का आभास प्राप्त करता एवं क्रमशः आगे बढ़ता हुआ त्रयगुणात्मिका मूल प्रकृति के परे सच्चिदानन्द पद में जाकर भक्त साधक को उसकी (सारशब्द की) पूर्ण परख होती है। सारशब्द को ही रामनाम कहते हैं। इसका वर्णन चौ0 सं0 79 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में पढ़िए। सारशब्द की प्राप्ति से जीव को परम प्रभु प्राप्त हो जाते हैं और अमरत्व अर्थात् मोक्ष मिल जाता है, इसलिए यह शब्द (सारशब्द) सुधा-कथा है। उपर्युक्त दोहे में ‘ब्रह्म’ का अर्थ लोग वेद करते हैं, ऐसा अर्थ करने से ‘कथा-सुधा’ का अर्थ वेद-वर्णित राम-यश होता है, इस प्रकार सम्पूर्ण दोहे का तात्पर्य यह हो जाता है कि सब वेदों को सम्पूर्ण रूप से पढ़-सुन, उनकी यथार्थताओं को अत्यन्त शुद्धतापूर्वक बोध करके उनमें से केवल राम की मधुर भक्तिदायिनी राम-कथाओं को सन्त ग्रहण करते और उनकी शेष सब विधियों को असार जान त्याग देते हैं, यदि यही अर्थ लिया जाय तो राम-भक्त बनने के लिए बिना वेदों के पढ़े-सुने काम नहीं चल सकता है। इस दशा में सन्त भी वे ही होंगे, जिनको वेद-शास्त्रें ने वेद पढ़ने-सुनने का अधिकार दिया है। शूद्र, अन्त्यज और स्त्रियाँ; ये सब भक्ति प्राप्त करने से वंचित रहेंगे। पर रामचरितमानस अन्त्यज और स्त्रियों को भी भक्ति प्राप्त करने के अधिकारी मानता है (दे0 दो0 सं0 120)। शवरी भीलनी अन्त्यज जाति की स्त्री थी, उसको भक्ति के सब प्रकारों में पूर्ण कहा गया है (दे0 चौ0 सं0 463)। यदि भक्ति के साधन में वेदों का पढ़ना-सुनना परमावश्यक माना जाय (जैसा कि ऊपरलिखित दोहे में ‘ब्रह्म’ का अर्थ वेद करने से माना ही जाएगा।) तो र्भिक्त के सब प्रकारों में पूर्ण शवरी ने ही भला त्रेता युग में धर्म-शास्त्र विरुद्ध किस प्रकार वेदों को पढ़ा-सुना होगा ? फिर मातंग आदि मुनियों ने ही उनको वेद पढ़ा-सुनाकर धर्म-शास्त्र-विरुद्ध कार्य कैसे किया होगा ?]
दोहा-बिरति चर्म असि ज्ञान मद, लोभ मोह रिपु मारि ।
जय पाइय सो हरि भगति, देखु खगेस बिचारि ।। 146।।
हे पक्षिराज ! आप विचार करके देखिए कि हरि-भक्ति वह (शक्ति) है कि (जिसके सहारे) वैराग्य की ढाल और ज्ञान की तलवार द्वारा अहंकार, लोभ और मोह-रूप शत्रुओं को मारकर विजय प्राप्त की जाए।
ज्ञान और भक्ति-सम्बन्धी वार्त्ताओं को सुनकर गरुड़जी ने फिर कागभुशुण्डिजी से पूछा-
(1) सबसे दुर्लभ कौन शरीर है ? (2) बड़ा दुःख कौन-सा है ? (3) भारी सुख कौन-सा है ? (4) सन्तों और असन्तों के सहज स्वभाव क्या हैं ? (5) वेद-विदित सबसे बड़ा पुण्य कौन-सा है ? (6) वेद-विदित सबसे बड़ा पाप कौन-सा है ? और (7) मन के रोग कौन-कौन हैं ? कागभुशुण्डिजी कहने लगे-
नर तन सम नहिँ कवनिउँ देही ।
जीव चराचर जाचत जेही ।। 886।।
मनुष्य-शरीर के समान कोई भी शरीर नहीं है, जिसको जड़-चेतन सभी चाहते हैं।
नरक सर्ग अपवर्ग निसेनी ।
ज्ञान बिराग भक्ति सुख देनी ।। 887।।
यह शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के सुख को देनेवाला है।
[शरीर के भीतर का अन्धकार नरक में जाने की सीढ़ी है, प्रकाश स्वर्ग में जाने की सीढ़ी और शरीरस्थ ध्वन्यात्मक राम-नाम वा शब्द-ब्रह्म, सत्यनाम मोक्ष में जाने की सीढ़ी है।]
सो तनु धरि हरि भजहिँ न जे नर ।
होहिँ बिषय रत मन्द-मन्द तर ।। 888।।
ऐसा शरीर पाकर जो मनुष्य हरि को नहीं भजते हैं और विषयों में आसक्त होते हैं, वे नीच से भी नीच हैं।
काँच किरिच बदले ते लेहीँ ।
कर ते डारि परसमनि देहीँ ।। 889।।
वे मानो पारसमणि हाथ से फेंक देते और उसके बदले में काँच का टुकड़ा ले लेते हैं।
नहिँ दरिद्र सम दुख जग माहीँ ।
सन्त मिलन सम सुख कछु नाहीँ ।। 890।।
दरिद्र हाने के समान संसार में कोई दुःख नहीं है और सन्त-समागम के समान दूसरा सुख नहीं है।
पर उपकार बचन मन काया ।
सन्त सहज सुभाव खगराया ।। 891।।
हे पक्षिराज ! सन्तों का सहज स्वभाव है-मन, वचन और कर्म से परोपकार करना ।
सन्त सहहिँ दुख परहित लागी ।
परदुख हेतु असन्त अभागी ।। 892।।
सन्त दूसरों के उपकार के लिए दुःख सहते हैं और अभागे असन्त (दुष्ट) दूसरों को दुःख देने के लिए दुःख सहते हैं।
भूरज तरु सम सन्त कृपाला ।
परहित नित सह बिपति बिसाला ।। 893।।
कृपालु सन्त भोजपत्र के वृक्ष के समान हैं, जो दूसरों की भलाई के लिए नित्य बहुत बड़ी विपत्ति सहते हैं।
सन इव खल पर बन्धन करई ।
खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई ।। 894।।
सन के समान दुष्ट दूसरों को बाँधते हैं और खाल खिंचवा कर विपत्ति सहकर मरते हैं।
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी ।
अहि मूसक इव सुनु उरगारी ।। 895।।
हे गरुड़जी ! दुष्ट लोग सर्प और मूसे के समान बिना स्वार्थ दूसरों का अपकार करते हैं।
पर सम्पदा बिनासि नसाहीँ ।
जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीँ ।। 896।।
दुष्ट दूसरों की सम्पत्ति नष्ट करके आप भी नष्ट हो जाते हैं, जैसे पाला और ओला खेती को नष्ट करके आप भी बिला जाते हैं।
दुष्ट उदय जग आरत हेतू ।
जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू ।। 897।।
दुष्टों का प्रगट होना संसार के दुःख का कारण है, जैसे ग्रहों में अधम केतु (संसार का अमंगल करने के लिए) प्रसिद्ध है।
सन्त उदय सन्तत सुखकारी ।
बिस्व सुखद जिमि इन्दु तमारी ।। 898।।
सन्तों का प्रकट होना सदा सुखदायक है, जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय संसार के लिए सुखकारी है।
परम धरम स्त्रुति बिदित अहिंसा ।
पर निन्दा सम अघ न गरीसा ।। 899।।
श्रेष्ठ धर्म वेदों में विदित अहिंसा (जीवों को दुःख न पहुँचाना) है और पराये की निन्दा के समान बड़ा पाप दूसरा नहीं है।
हरि गुरु निन्दक दादुर होई ।
जनम सहस्त्र पाव तन सोई ।। 900।।
ईश्वर और गुरु का निन्दक मेढ़क होता है और हजार जन्मों तक वही शरीर पाता है।
द्विज निन्दक बहु नरक भोग करि ।
जग जनमइ बायस सरीर धरि ।। 901।।
द्विजों की निन्दा करनेवाला बहुत नरक भोग करके संसार में कौए का शरीर धरकर जन्म लेता है।
सुर स्त्रुति निन्दक जे अभिमानी ।
रौरव नरक परहिँ ते प्रानी ।। 902।।
जो अहंकारी प्राणी देवता और वेदों की निन्दा करते हैं, वे रौरव नरक में पड़ते हैं।
होहिँ उलूक सन्त निन्दा रत ।
मोह निसा प्रिय ज्ञान भानु गत ।। 903।।
सन्तों की निन्दा करनेवाले उल्लू होते हैं। उनको अज्ञान की रात्रि प्यारी है, ज्ञान-रूप सूर्य नहीं।
सब कै निन्दा जे जड़ करहीँ ।
ते चमगादुर होइ अवतरहीँ ।। 904।।
जो मूर्ख सबकी निन्दा करते हैं, वे चमगादड़ होकर जन्म लेते हैं।
इतनी कथा सुनाकर कागभुशुण्डिजी बोले-हे गरुड़जी ! अब मानस-रोग सुनिए कि जिससे सब लोग दुःख पाते हैं।
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला ।
तेहिँ तेँ पुनि उपजहिँ बहु सूला ।। 905।।
सब व्याधियों की जड़ मोह (अज्ञान) है, फिर उससे बहुत-से दुःख उत्पन्न होते हैं।
काम बात कफ लोभ अपारा ।
क्रोध पित्त नित छाती जारा ।। 906।।
काम-रूप वात है, लोभ-रूप अपार कफ है और क्रोध-रूप पित्त है, जो सदा हृदय जलाता है।
प्रीति करहिँ जौं तीनिउ भाई ।
उपजइ सन्निपात दुखदाई ।। 907।।
हे भाई ! जब ये तीनों प्रीति करते हैं, तब दुःखदायी सन्निपात (त्रिदोष ज्वर) उत्पन्न होता है।
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना ।
ते सब सूल नाम को जाना ।। 908।।
अनेक प्रकार की विषयों की जो दुर्गम अभिलाषाएँ हैं, वे ही सब तरह की पीड़ाएँ हैं, उनका नाम कौन जान सकता है ?
ममता दादु कंडु इरषाई ।
हरष बिषाद गरह बहुताई ।। 909।।
ममता दिनाई के समान है, ईर्ष्या खुजली के समान और हर्ष-विषाद ग्रहों (की अधिकता) के समान है।
परसुख देखि जरनि सोइ छई ।
कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई ।। 910।।
दूसरों का सुख देखकर जलना, वही क्षय रोग है। दुष्टता और मन की कुटिलता कोढ़ रोग है।
अहंकार अति दुखद डमरुआ ।
दम्भ कपट मद मान नहरुआ ।। 911।।
अहंकार अत्यन्त दुःखदायी गठिया रोग है; दम्भ, कपट, मद और मान नहरुआ रोग है।
तृष्णा उदर बृद्धि अति भारी ।
त्रिविध ईषना तरुन तिजारी ।। 912।।
तृष्णा पेट बढ़ने का अत्यन्त भारी रोग है। लोक में प्रसिद्धि; धन और पुत्र पाने की तीन प्रकार की इच्छाएँ प्रबल तेहैया (तीन दिन में आनेवाला) ज्वर है।
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका ।
कहँ लगि कहौँ कुरोग अनेका ।। 913।।
डाह और अविचार; दोनों काल (दिन में दो बार आनेवाला) ज्वर है। कहाँ तक कहूँ, अनेक प्रकार के कुरोग हैं।
दोहा-एक ब्याधि बस नर मरहिँ, ये असाधि बहु ब्याधि ।
पीड़हिँ सन्तत जीव कहँ, सो किमि लहइ समाधि ।। 147।।
मनुष्य तो एक ही रोग के वश में होकर मर जाते हैं, परन्तु ये बहुत-से असाध्य रोग हैं, जो जीव को सदा दुःख दिया करते हैं, इस दशा में वह (जीव) कैसे सुख पा सकता है ?
दोहा-नेम धरम अचार तप, ज्ञान यज्ञ जप दान ।
भेषज पुनि कोटिक नहीं, रोग जाहिँ हरिजान ।। 148।।
नेम, धर्म, आचार, तपस्या, ज्ञान, यज्ञ, जप और दान आदि करोड़ों औषधियाँ हैं, परन्तु हे गरुड़जी ! इनसे ये रोग नहीं जाते हैं।
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी ।
सोक हरष भय प्रीति बियोगी ।। 914।।
इस प्रकार जगत के सब जीव शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोग के अधीन होने से रोगी हैं।
मानस रोग कछुक मैं गाये ।
हैं सब के लख बिरलन्हि पाये ।। 915।।
मैंने ये थोड़े-से मानस-रोग वर्णित किए हैं; ये हैं तो सबको, परन्तु इनकी परख बिरले ही कर पाते हैं।
जाने ते छीजहिँ कछु पापी ।
नास न पावहिँ जन परितापी ।। 916।।
जानने से ये पापी (रोग) कुछ घटते हैं, पर नष्ट नहीं होते, जनों को परिताप देते रहते हैं।
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे ।
मुनिहु हृदय का नर बापुरे ।। 917।।
विषय-रूपी कुपथ्य पाकर मुनियों के मन में भी (ये रोग) अँकुर जाते हैं तो भला साधारण मनुष्य किस गिनती में हैं।
राम कृपा नासहि सब रोगा ।
जौँ एहि भाँति बनइ संजोगा ।। 918।।
राम की कृपा से सब रोग नष्ट होते हैं, यदि इस प्रकार का संयोग बने-
सदगुरु बैद बचन बिस्वासा ।
संजम यह न बिषय कै आसा ।। 919।।
(रोगी को) सद्गरु-रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो और संयम यह हो कि विषय की आशा न की जाय।
रघुपति भगति सजीवन मूरी ।
अनूपान स्त्रद्धा मति पूरी ।। 920।।
इन रोगों के लिए राम की भक्ति संजीवनी जड़ी है और श्रद्धा से भरी हुई बुद्धि ही अनुपान है।
एहि बिधि भलेहि सो रोग नसाहीँ ।
नाहिँ त जतन कोटि नहिँ जाहीँ ।। 921।।
इस प्रकार भले ही वे रोग नष्ट होते हैं, नहीं तो करोड़ों उपाय करने पर भी नहीं छूटते।
जानिय तब मन बिरुज गोसाँई ।
जब उर बल बिराग अधिकाई ।। 922।।
हे स्वामी ! मन को तब नीरोग जानना चाहिए, जब हृदय में वैराग्य-रूपी बल बढ़ता जाय।
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई ।
बिषय आस दुर्बलता गई ।। 923।।
सुबुद्धि-रूपी नयी भूख नित्य बढ़ने लगे और विषयों की आशा-रूपी दुर्बलता चली जाय।
बिमल ज्ञान जल जब सो नहाई ।
तब रह राम भगति उर छाई ।। 924।।
निर्मल ज्ञान-रूपी जल से जब वह (‘रघुपति-भगति सजीवन मूरी’ का सेवन करनेवाला अर्थात् रोगमुक्त) स्नान करता है, तब हृदय में राम-भक्ति (स्थिर होकर) विराजती है।
[रामचरितमानस में ज्ञान-मार्ग को अत्यन्त कठिन-साध्य बतलाकर भक्ति-मार्ग के तुल्य आदर नहीं किया गया है, इस प्रकार का वर्णन-ज्ञानमार्ग के पक्ष में अत्यन्त भयानक वचन है; इससे यह न समझना चाहिए कि रामचरितमानस के भक्ति-मार्ग पर चलने के लिए ज्ञान-वैराग्य की आवश्यकता ही नहीं है। चौ0 880 में साफ-साफ कहा गया है कि जिस खान में भक्ति-रूपी चिन्तामणि मिलेगा, उस खान में उस भक्ति-मणि को परखने के लिए ज्ञान और वैराग्य ही नेत्र हैं। अतएव विश्वासपूर्वक जानना चाहिए कि जैसे नेत्रहीन-अन्ध मनुष्य रूप विषय को ग्रहण नहीं कर सकता है, उसी तरह ज्ञान-वैराग्य से हीन मनुष्य को भक्ति-रूपी चिन्तामणि प्राप्त नहीं हो सकता है। चौ0 272 में वर्णन है कि सारासार का ज्ञान होने पर राम-चरण में प्रेम होगा। और चौपाई 919 से 924 तक में वर्णन है कि जब संसार-रोग से ग्रसित जीव सद्गुरु-वैद्य से प्राप्त राम-भक्ति-संजीवनी जड़ी को श्रद्धायुक्त होकर सेवन करेगा और विषयासक्ति-रूप कुपथ्य नहीं करेगा (वैराग्य-युक्त रहेगा); तब वह रोग से मुक्त होगा। रोग-मुक्त होने के लक्षण ये होंगे कि उसके हृदय में उत्तम ज्ञान और वैराग्य बढ़ते जाएँगे और जब वह (रोगी) विमल ज्ञान (जिस ज्ञान में राम का निर्मायिक स्वरूप ग्रहण होता है) में निमग्न हो जाएगा, तब उसके हृदय में भक्ति स्थिर होकर विराजती रहेगी। इन वर्णनों से यह स्पष्ट प्रकट होता है कि भक्ति-मार्ग में आरम्भ से अन्त पर्यन्त ज्ञान उसका साथी है। ज्ञान-बिना भक्ति-मार्ग में चलना एक पग भी असम्भव है। भोलेपन से यदि ज्ञान का एकदम तिरस्कार कर दिया जाय और बिना उसके अन्धा होकर (दे0 चौ0 880) भक्ति-मार्ग पर चलना आरम्भ किया जाय, तो लोकमान्य तिलक कृत गीता-रहस्य (भक्ति-मार्ग) के वर्णन के अनुसार ‘अन्ध श्रद्धा और उसी के साथ अन्धा प्रेम धोखा खा जाएगा और दोनों गड्ढे में जा गिरेंगे।’ ऐसा होना रामचरितमानस के अनुसार भी अवश्य ही सम्भव है।]
सिव अज सुक सनकादिक नारद ।
जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद ।। 925।।
शिव, ब्रह्मा, शुकदेव; सनकादिक, नारद और जो मुनि ब्रह्म-विचार में प्रवीण हैं।
[ऊपर वर्णित चौपाई भी ब्रह्म-विचार की निपुणता की अर्थात् ज्ञान की विशेषता दरसा रही है। ब्रह्म-विचार में निपुण लोगों के ही मत की साक्षी पर कागभुशुण्डिजी गरुड़जी को और गोस्वामी तुलसीदासजी सर्वसाधारण को भक्ति-मार्ग में विश्वास दिला रहे हैं।]
सब कर मत खग नायक एहा ।
करिय राम पद पंकज नेहा ।। 926।।
हे पक्षिराज ! सबका यही मत है कि राम के चरण-कमलों में प्रेम करना चाहिए।
श्रुति पुरान सब ग्रन्थ कहाहीँ ।
रघुपति भगति बिना सुख नाहीँ ।। 927।।
वेद, पुराण और सब ग्रन्थ (सद्ग्रन्थ) कहते हैं कि राम की भक्ति के बिना सुख नहीं है।
कमठ पीठ जामहिँ बरु बारा ।
बन्ध्या सुत बरु काहुहि मारा ।। 928।।
कछुए की पीठ पर चाहे बाल जम आवें और चाहे बाँझ का बेटा किसी को मार डाले।
फूलहिँ नभ बरु बहु बिधि फूला ।
जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला ।। 929।।
चाहे आकाश में बहुत तरह के फूल फूलें, परन्तु राम से विमुख रहकर जीव सुख नहीं पा सकता है।
तृषा जाइ बरु मृग जल पाना ।
बरु जामहिँ सस सीस बिषाना ।। 930।।
चाहे मृग-तृष्णा का जल पीने से प्यास दूर हो जावे, चाहे खरहे के माथे पर सींग जम आवें।
अन्धकार बरु रबिहि नसावै ।
राम बिमुख न जीव सुख पावै ।। 931।।
चाहे अन्धकार सूर्य को नष्ट कर दे, किन्तु राम से विमुख रहकर जीव सुख नहीं पा सकता है।
हिम ते प्रगट अनल बरु होई ।
बिमुख राम सुख पाव न कोई ।। 932।।
चाहे पाले से अग्नि प्रकट हो आवे, परन्तु राम से विमुख होकर कोई सुख नहीं पा सकता है।
[जबतक जीव को शान्ति-सुख नहीं प्राप्त हो, तबतक जानना चाहिए कि वह राम से विमुख ही है। चौ0 858 के अर्थ के नीचे के कोष्ठान्तर्गत वर्णन को पढ़िए। निःसंशय रूप से समझ जाइएगा कि राम के केवल सगुण रूप में लगे रहनेवाले को शान्ति-सुख नहीं प्राप्त हुआ है। इस कारण राम के निर्गुण रूप में जो कोई रत होगा, वही शान्ति-सुख पावेगा। और वही निश्चय करके राम का परम भक्त और राम से अविमुख कहलाएगा।]
दोहा-बारि मथे घृत होइ बरु, सिकता तेँ बरु तेल ।
बिनु हरि भजन न भव तरिय, यह सिद्धान्त अपेल ।। 149।।
चाहे पानी के मथने से घी हो जाय और चाहे बालू से तेल निकल आवे, परन्तु यह सिद्धान्त अटल है कि बिना हरि-भजन के कोई संसार-समुद्र से पार नहीं हो सकता है।
दोहा-मसकहि करइ बिरंचि प्रभु, अजहि मसक ते हीन ।
अस बिचारि तजि संसय, रामहिँ भजहिँ प्रवीन ।। 150।।
प्रभु, मच्छड़ को ब्रह्मा बना सकते हैं, ब्रह्मा को मच्छड़ से भी तुच्छ बना सकते हैं, ऐसा विचार करके और सब सन्देहों को छोड़कर बुद्धिमान चतुर प्राणी राम का भजन करते हैं। कागभुशुण्डिजी इतनी कथा गरुड़जी को सुनाकर फिर बाले कि-
स्त्रुति सिद्धान्त इहै उरगारी ।
राम भजिय सब काज बिसारी ।। 933।।
हे गरुड़जी ! वेद का सिद्धान्त यही है कि सब इच्छाओं को छोड़कर राम का भजन करना चाहिए।
हे गरुड़जी ! प्रभु राम की कृपा से मुझे आपके समान सत्संगी पुरुष का जो संग प्राप्त हुआ, इससे मैं धन्य हूँ ! धन्य हूँ !!
सत संगति दुर्लभ संसारा ।
निमिष दंड भरि एकउ बारा ।। 934।।
संसार में पल वा दण्ड भर एक बार भी सत्संग होना दुर्लभ है।
कागभुशुण्डिजी राम के गुणों का स्मरण करके बारम्बार आनन्दित होने लगे। फिर उन्होंने बहुत कुछ राम-गुण गाकर और गरुड़जी से यह कहकर अपना वक्तव्य समाप्त किया कि रामजी आप पर और मुझ पर सदा प्रसन्न रहें। गरुड़जी ने भी कागभुशुण्डिजी को सन्त और परम भक्त कह उनका बहुत गुण-गान करके यह कहा कि-
सन्त बिटप सरिता गिरि धरनी ।
परहित हेतु सबन्ह कै करनी ।। 935।।
सन्त, वृक्ष, नदी, पहाड़ और धरती; इन सबों के कर्म दूसरों की भलाई के लिए होते हैं।
सन्त हृदय नबनीत समाना ।
कहा कबिन्ह पै कहइ न जाना ।। 936।।
कवियों ने सन्तों का हृदय मक्खन के समान कहा तो है, पर कहने नहीं जाना। क्योंकि-
निज परिताप द्रवइ नवनीता ।
पर दुख द्रवहिँ सन्त सुपुनीता ।। 937।।
मक्खन अपने दुःख (ताप) से पिघलता है, परन्तु अच्छे और पवित्र सन्त दूसरों के दुःख से पिघलते हैं।
अन्त में गरुड़जी कागभुशुण्डिजी की विनती कर उन्हें प्रणाम करके बैकुण्ठ चले गए।
दोहा-गिरिजा सन्त समागम, सम न लाभ कछु आन ।
बिनु हरि कृपा न होइ सो, गावहिँ बेद पुरान ।। 151।।
श्रीशिवजी श्रीपार्वतीजी से कहते हैं कि हे गिरिजा ! सन्तों की संगति के समान दूसरा लाभ नहीं है, वेद-पुराण कहते हैं कि वह (सत्संग) बिना ईश्वर-कृपा के नहीं होता है।
फिर शिवजी राम-कथा का बहुत कुछ गुण गाकर कहने लगे-
सोइ सर्बज्ञ गुनी सोइ ज्ञाता ।
सोइ महि मंडित पंडित दाता ।। 938।।
वही सर्वज्ञ है, वही गुणी, वही ज्ञानी, वही पृथ्वी को शोभित करनेवाला, वही विद्वान और वही दाता है,
धर्म परायन सोइ कुल त्राता ।
राम चरन जाकर मन राता ।। 939।।
वही धर्म में तत्पर है और वही कुल-रक्षक है, जिसका मन राम के चरणों में लगा हुआ है।
नीति निपुन सोइ परम सयाना ।
स्त्रुति सिद्धान्त नीक तेहि जाना ।। 940।।
वही नीति में निपुण है, वही परम चतुर है और वेद का सिद्धान्त वही अच्छी तरह जानता है,
सो कबि कोबिद सो रन धीरा ।
जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा ।। 941।।
वही कवि, विद्वान और रणधीर है, जो छल छोड़कर रघुवीर राम को भजते हैं।
धन्य सो देस जहाँ सुरसरी ।
धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी ।। 942।।
वह देश धन्य है, जहाँ गंगाजी हैं और वह स्त्री धन्य है, जो पातिव्रत्य धर्म के अनुसार चलती है।
धन्य सो भूप नीति जो करई ।
धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई ।। 943।।
वह राजा धन्य है, जो नीति से राज्य करता है और वह द्विज धन्य है, जो अपने धर्म से नहीं टलता है।
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी ।
धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी ।। 944।।
वह धन धन्य है, जिसकी प्रथम गति है अर्थात् जो दान में लगता है और वह बुद्धि धन्य है, जो पुण्य में लगकर पगी हुई होती है।
[धन की तीन गतियाँ हैं-(1) दान, (2) भोग और (3) नाश।]
धन्य घरी सोइ जब सत्संगा ।
धन्य जनम द्विज भगति अभंगा ।। 945।।
वह घड़ी धन्य है, जब सत्संग हो और वह जन्म धन्य है, जिसमें द्विज की अभंग (पूर्ण) भक्ति हो।
दोहा-सो कुल धन्य उमा सुनु, जगत पूज्य सु पुनीत ।
श्री रघुबीर परायन, जेहि नर उपज बिनीत ।। 152।।
हे उमा ! सुनो, वह कुल धन्य, संसार में पूजे जाने योग्य और विशेष पवित्र है, जिसमें राम के नम्र भक्त पुरुष उत्पन्न होते हैं। इतना कह श्रीशिवजी महाराज पार्वतीजी से बोले कि यद्यपि मैंने प्रथम यह कथा तुमसे छिपा रखी थी, तथापि जब तुम्हारे हृदय में इसके लिए अत्यन्त प्रीति मैंने देखी, तब इसे तुम्हें सुनाया। इसके सुनने के अधिकारी सब नहीं होते हैं, केवल ये लोग अधिकारी होते हैं-
राम कथा के तेइ अधिकारी ।
जिन्ह के सत संगति अति प्यारी ।। 946।।
राम-कथा (सुनने के) वे अधिकारी हैं, जिनको सत्संगति अत्यन्त प्यारी है।
गुरु पद प्रीति नीति रत जेई ।
द्विज सेवक अधिकारी तेई ।। 947।।
जो गुरु के चरणों में प्रीति रखते हैं, नीति में लवलीन (तत्पर) रहते हैं और द्विज के सेवक हैं, वे ही (राम-कथा सुनने के) अधिकारी हैं।
एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना ।
रघुपति भगति केर पन्थाना ।। 948।।
इस (वर्णित राम-कथा-रूपी सरोवर) में सुन्दर सात सोपान हैं, जो राम की भक्ति के रास्ते हैं।
अति हरि कृपा जाहि पर होई ।
पाउँ देइ यहि मारग सोई ।। 949।।
ईश्वर की अत्यन्त कृपा जिस पर होती है, वही इस रास्ते में पैर देता है।
[चौ0 सं0 118 में सप्त सोपान का और उनको ज्ञान-नयन से देखने का वर्णन हो चुका है, उस चौपाई के नीचे कोष्ठान्तर्गत वर्णन को विचार-सहित पढ़ लीजिए। यह निश्चय ही ईश्वर की अत्यन्त कृपा उस पर है, जो भक्ति-मार्ग में चलने के हेतु उसकी (भक्ति-मार्ग की) इन सीढ़ियों पर पैर रखता है। रामचरितमानस के सातो सोपानों की कथा का श्रवण और मनन करना, उसमें वर्णित नवधा भक्ति में साधन द्वारा चलना ऊपर कथित सीढ़ियों पर पैर रखकर चलना है। नवधा भक्ति का वर्णन चौ0 सं0 455 से 461 तक में पढ़ लीजिए और कोष्ठ में लिखे वर्णनों को भी खूब समझ लीजिए।]
इतना सुनाकर श्रीशिवजी ने कथा कहना समाप्त कर दिया। श्रीपार्वतीजी श्रीशिवजी की कही हुई बातों को सुनकर बहुत प्रसन्न हुईं और बोलीं कि हे नाथ ! मैं अब सन्देह-रहित हो गई।
अब रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदासजी यह कहकर रामचरितमानस समाप्त कर देते हैं कि-
एहि कलि काल न साधन दूजा ।
जोग जज्ञ जप तप ब्रत पूजा ।। 950।।
इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजा आदि दूसरा (कोई) साधन नहीं है।
रामहिँ सुमिरिय गाइय रामहिँ ।
सन्तत सुनिय राम गुन ग्रामहिँ ।। 951।।
(कलिकाल में एक यही साधन है कि) राम को स्मरण कीजिए, राम का गुण गाइए और सर्वदा राम के गुणों को सुनिए।
[चौ0 सं0 950 में कहा गया है कि कलिकाल में जप-साधन नहीं है, पर चौ0 सं0 951 में राम का सुमिरण करने को कहा गया है। वर्णात्मक राम-नाम का सुमिरण जप ही तो है और नवधा-भक्ति के वर्णन में भी मन्त्र-जप को पाँचवीं भक्ति कहा है। इस तरह जप की विधि और निषेध; दोनों हैं। इसका तात्पर्य यह जान पड़ता है कि भक्ति-मार्ग में जिन जप-योगादि साधनों की आवश्यकता है, जिनके बिना भक्ति-मार्ग पर चलना ही असम्भव है, उन (साधनों) को कलि-कालादि सब कालों में करना चाहिए। भक्ति-मार्ग में जप-योगादि जिन-जिन साधनों की आवश्यकता है, वे नवधा भक्ति के वर्णन में अच्छी तरह दरसा दी गई है। कलि-काल के क्रूर धर्म का प्रभाव प्रेमी भक्तों पर नहीं व्यापता है, (दे0 चौ0 सं0 808)। इस कारण कलि- धर्म का भय मन से दूर करके, आलस्य छोड़ पुरुषार्थी और प्रेमी बनकर जप-योगादि जिन-जिन साधनों से भक्ति बने, भक्तों को उनका अभ्यास करना चाहिए। परमेश्वर के भक्त चार प्रकार के होते हैं-उनमें से जो परमेश्वर के विशेष प्यारे हैं, उनका वर्णन चौ0 सं0 92 से 98 तक खूब समझ-समझकर पढ़ लीजिए। परमेश्वर के विशेष प्यारे भक्त योगी और ज्ञानी ही होते हैं, अतएव भक्ति-मार्ग में योग की बड़ी आवश्यकता है। इस बात को भूलकर योग से चित्त को कभी नहीं हटाना चाहिए। अपने को भक्त जानना और भक्ति-मार्ग में आवश्यक योगाभ्यास नहीं करना, पाखण्ड और वंचकता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। साथ-ही-साथ यह भी जान लेना चाहिए कि भक्ति-मार्ग का आवश्यक योगाभ्यास परम सरल है, उसे चौ0 सं0 455 से 461 तक उनके अर्थों और कोष्ठान्तर्गत वर्णनों के सहित पढ़ लीजिए। भक्ति-मार्ग के योगाभ्यास में स्थूल शरीर को कष्ट देनेवाले किसी साधन की आवश्यकता नहीं होती है। यह (योगाभ्यास) तो अत्यन्त सरल, प्रेममय और परम शान्तिदायक परम प्रभु के परम पद से मिलानेवाला है।]
रामचरितमानस-सार सटीक समाप्त