दोहा-लव निमेष परमानु जुग, बरष कलप सर चंड ।
भजसि न मन तेहि राम कहँ, काल जासु कोदंड ।।88।।
तुलसीदासजी कहते हैं-‘काल जिसका धनुष और लव, निमेष, परमाणु, वर्ष, युग और कल्प प्रचण्ड वाण हैं, उन रामजी का भजन हे मन ! तू क्यों नहीं करता ?
[आँख की पलक गिरने का नाम है लव । 60 लव = एक निमेष; 60 निमेष = 1 परमाणु; 60 परमाणु = एक पल; 60 पल = 1 घड़ी; 60 घड़ी = 8 पहर वा 1 दिन-रात वा 24 घंटे; 30 दिन-रात = एक महीना; 12 महीना = 1 वर्ष; इसी वर्ष से 17 लाख 28 हजार वर्ष सत्ययुग की आयु, 12 लाख 96 हजार वर्ष त्रेता की, 8 लाख 64 हजार वर्ष द्वापर की और 4 लाख 32 हजार वर्ष कलियुग की आयु है। इन चारो युगों के एक-एक बार बीतने का नाम 1 चौकड़ी है। 1 हजार चौकड़ी युग = 1 कल्प = ब्रह्मा का 1 दिन-रात। इस दिन से 30 दिनों का 1 महीना, ऐसे 12 महीनों का 1 वर्ष, ऐसे 100 वर्ष पर्यन्त ब्रह्मा जीते हैं। ब्रह्मा की आयु के नाश होने पर महाप्रलय कहा जाता है। एक ब्रह्मा की आयु के समान समय को महाकल्प कहते हैं।]
समुद्र की बतलाई हुई युक्ति से श्रीरामजी की आज्ञा पा बन्दरों ने सुदृढ़ पुल बना दिया । रामजी ससैन्य उस पुल पर से समुद्र पार होकर लंका में सुबेल पर्वत पर जा बिराजे। जब यह खबर रावण को मिली, तब उसने अपने मन्त्रियों से पूछा कि अब क्या करना चाहिये ? मन्त्रियों ने कहा-‘हे प्रभु ! आप बारम्बार क्या पूछते हैं? वानर और मनुष्य तो हमारे आहार हैं।’ रावण का बेटा प्रहस्त, जो उस सभा में बैठा था, बोला कि हे पिताजी ! मंत्रिगण आपको उचित विचार नहीं देते हैं। इनका विचार बहुत ही तुच्छ है। फिर वह मंत्रियों से बोला कि एक बन्दर आकर सम्पूर्ण लंका जला गया, उस समय उसे खा जाने को भूख तुम्हें नहीं थी ? अब भी अनुचित ठकुरसुहाती बातें करते हो ! फिर रावण से बोला कि हे पिताजी ! मुझे कायर न समझिए, मेरी बातें आदर से सुनिए-
प्रिय बानी जे सुनहिँ जे कहहीं ।
ऐसे नर निकाय जग अहहीँ ।। 593।।
ऐसे मनुष्य संसार में बहुत हैं, जो प्रिय वचन सुनते और कहते हैं।
बचन परम हित सुनत कठोरे ।
सुनहिँ जे कहहिँ ते नर प्रभु थोरे ।। 594।।
हे प्रभु ! ऐसे नर थोड़े हैं, जो परम हितकारी, परन्तु कठोर वचनों को सुनते और कहते हैं।
फिर बोला-‘हे पिताजी ! पहले तो रामजी के पास दूत भेजिए, पीछे सीताजी को उन्हें समर्पण कर दीजिए। यदि वे सीताजी को पाकर लौट जाएँ तो बड़ी अच्छी बात है और न लौटें-युद्ध ठानें, तो उनसे लड़ाई कीजिए।’ रावण को यह बात न भायी, उसने प्रहस्त को डाँटा। प्रहस्त कटु वचन कहता हुआ घर चला गया। इधर रामजी ने पहले रावण को समझाने के लिए उसके पास युवराज अंगद को दूत बनाकर भेजा। अंगद ने उसे बहुत समझाया, पर उसने कुछ कान नहीं किया और घोर अहंकार से बहुत कड़क-कड़ककर बातें कहने लगा। अन्त में अंगदजी ने उसे कहा कि तू तो मरा हुआ ही है; क्योंकि-
कौल काम बस कृपिन बिमूढ़ा ।
अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा ।। 595।।
1-वाममार्गी, 2-कामातुर, 3-कंजूस, 4-महामूर्ख, 5-अत्यन्त दरिद्र, 6-कलंकी, 7-बहुत बूढ़ा,
सदा रोग बस सन्तत क्रोधी ।
बिस्नु बिमुख स्त्रुति सन्त बिरोधी ।। 596।।
8-सदा रोग के वश में रहनेवाला, 9-सदा क्रोध करने वाला, 10-भगवान विष्णु से विमुख रहनेवाला, 11-वेद और सन्तों से विरोध करनेवाला,
तनु पोषक निन्दक अघखानी ।
जीवत सवऽ सम चौदह प्रानी ।। 597।।
12-शरीर पालनेवाला, 13-सबकी निन्दा करनेवाला और 14-पापों की खान; ये चौदह प्राणी जीते हुए मृतक के तुल्य हैं।
ये बातें सुन रावण क्रोधित हो तर्जन-गर्जन करने लगा, पर अंगदजी कुछ न डरे। वे उसका (रावण का) मान-मर्दन कर रामजी के पास लौट आए। दूसरे दिन से लड़ाई ठन गई। निशाचर एक-एक कर मारे जाने लगे। जब कुम्भकर्ण और मेघनाद तक मारे गये, तब स्वयं रावण रथ पर चढ़ सेना ले लड़ने आया। रणभूमि जाते समय उसे बहुत-से भयानक अपशकुन होने लगे। यहाँ महादेवजी पार्वतीजी से कहते हैं-
दोहा-ताहि कि सम्पति सगुन सुभ, सपनहुँ मन बिस्त्राम ।
भूत द्रोह रत मोह बस, राम बिमुख रत काम ।। 89।।
क्या उसको स्वप्न में भी सम्पत्ति, शकुन, कल्याण और मन में चैन मिल सकता है, जो जीवों से द्रोह करने में तत्पर, अज्ञान के अधीन, वासनाओं में अनुरक्त और राम से विमुख है ? (कदापि नहीं।)
युद्ध-भूमि में रावण रथ पर था और रामजी पैदल थे, यह देख विभीषण अधीर होकर रामजी से बोले कि हे नाथ ! आप न तो रथ पर सवार हैं और न आपके पैरों में जूते हैं; इस बलवान शत्रु को कैसे मारिएगा ? रामजी ने कहा-
सुनहु सखा कह कृपा निधाना ।
जेहि जय होय सो स्यन्दन आना ।। 598।।
कृपानिधान रामजी ने कहा कि हे मित्र ! सुनो, जिससे जीत होती है, वह दूसरा ही रथ है।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका ।
सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका ।। 599।।
शूरता और धीरज उस रथ के पहिए हैं, सत्यता मजबूत ध्वजा और शीलता पताका है।
बल बिबेक दम परहित घोरे ।
छमा कृपा समता रजु जोरे ।। 600।।
सारासार का ज्ञान-बल, इन्द्रियों की रोक और परोपकार घोड़े हैं; क्षमा, कृपा और समता की रस्सी से जुड़े (बँधे) रहते हैं।
ईस भजन सारथी सुजाना ।
बिरति चर्म सन्तोष कृपाना ।। 601।।
ईश्वर का भजन अति चतुर सारथि है, वैराग्य ढाल और सन्तोष तलवार है।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा ।
बर बिज्ञान कठिन कोदंडा ।। 602।।
दान फरसा, ज्ञान तेज बर्छी और श्रेष्ठ विज्ञान (अनुभव ज्ञान) कठिन धनुष है।
अमल अचल मन त्रेन समाना ।
सम जम नियम सिली मुख नाना ।। 603।।
निर्मल और स्थिर मन तरकश के समान है; शम, यम और नियम नाना प्रकार के तीर हैं।
कवच अभेद विप्र गुरु पूजा ।
एहि सम विजय उपाय न दूजा ।। 604।।
ब्राह्मण और गुरु की पूजा नहीं छिदने योग्य सनाह (जिरह- बख्तर) है, इसके समान विजय के लिए दूसरा उपाय नहीं है।
सखा धरम मय अस रथ जाके ।
जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताके ।। 605।।
हे सखा ! जिसके पास ऐसा धर्ममय रथ है, उसको जीतने के लिए कहीं भी शत्रु नहीं है।
दोहा-महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर ।
जाके अस रथ होइ दृढ़, सुनहु सखा मति धीर ।। 90।।
हे मतिधीर सखे ! सुनिए, जिसको ऐसा रथ हो, वह महा अजय संसार-रूप शत्रु को जीत सकता है।
भगवान राम की इन बातों को सुनकर विभीषण बड़े सन्तुष्ट हुए। फिर रावण से महाघोर संग्राम ठन गया। रावण और राम की वीरता और पुरुषार्थ का वर्णन इति करने की शक्ति किसी में न पहले थी और न अब है। सम्मुख समर में रामजी से पार न पाकर रावण ने माया-युद्ध (जादूगरी का युद्ध) आरम्भ कर दिया । वह आप तो गुप्त हो गया, पर अपनी माया से उसने अनेक राम, लक्ष्मण, हनुमान, सुग्रीव और विभीषणादि रचकर अपनी सेना बना ली। अब इस अद्भुत रावण-सेना को देखकर राम को छोड़ उनकी सेना के सब कोई चकित हो गए।
बहु राम लछिमन देख मर्कट भालु मन अति अप डरे ।
जनु चित्र लिखित समेत लछिमन, जहँ सो तहँ चितवहिँ खरे ।।
निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर, चाप सजि कोसल धनी ।
माया हरी हरि निमिष महँ, हरषी सकल मरकट अनी ।।6।।*
अनेक राम-लक्ष्मण को देखकर वानर-भालू मन में बहुत भयभीत हो गए। जो जहाँ थे, वहीं खड़े चित्र की भाँति लक्ष्मण सहित उसे देखने लगे। अपनी सेना को अचम्भित देखकर कोसलपति भगवान ने हँसते हुए धनुष पर वाण चढ़ाकर एक पल में इस माया को हर लिया, (जिससे) पूरी वानरी सेना प्रसन्न हो गईं।
[ऐसी माया करने में सिद्ध रावण कितना स्वार्थी और पापी था ! ऐसी सिद्धियों के पाने से ही कोई भक्त, ज्ञानी, योगी और महात्मा नहीं हो सकता।]
रावण की माया नष्ट होने पर वह प्रकट होकर रामजी को दुर्वचन कहने लगा। वह बोला कि तुमने जितने राक्षसों को मारा है, मैं उनका बदला आज तुमको काल के हवाले करके लूँगा। रामजी ने कहा-
छन्द 7 हरिगीतिका
जनि जल्पना करि सुजस नासहि, नीति सुनहि करहि छमा ।
संसार महँ पूरुष त्रिविध, पाटल रसाल पनस समा ।।
एक सुमन प्रद एक सुमन फल एक, फलइ केवल लागही ।
एक कहहिँ कहहि करहि अपर एक, करहिं कहत न बागही।।
बकवाद करके अपना सुयश मत नष्ट कर, नीति सुन, सन्तोष कर। संसार में गुलाब, आम और कटहल के समान तीन प्रकार के पुरुष होते हैं। एक फूल देनेवाले, एक फूल और फल देनेवाले और एक में केवल फल ही लगते हैं (फूल नहीं)। उसी तरह एक केवल कहते हैं (पर करते नहीं), एक कहते और उसे करते भी हैं, अन्य तीसरे (प्रकार के पुरुष) करते हैं, पर वचनों से कहते नहीं।
[कहना, पर उसे नहीं करना अधमता है।
‘कहता सो करता नहीं, मुख का बड़ा लबार ।
आखिर धक्का खायगा, साहब के दरबार ।।’
(कबीर साहब)]
रावण रामजी के इन वचनों को सुन परवाह न करते हुए कठोर वचन कह उनसे संग्राम करने लगा। रामजी ने उसके सिरों और हाथों को अनेक बार काटकर धरती और आकाश को आच्छादित कर दिया, परन्तु वह मरा नहीं। उसके मस्तक और हाथ कटने पर फिर नए हो जाते थे। वह अपने कटे माथों और हाथों की बढ़ती देख महा क्रोध करके समर करने लगा; पर फिर भी उसने सम्मुख समर में पार न पाकर अपनी माया फैलायी। वह अपना अगणित रूप बनाकर लड़ने लगा।
देखे कपिन्ह अमित दस सीसा ।
जहँ तहँ भजे भालु अरु कीसा ।। 606।।*
वानरों ने अनगिनत रावण देखे। भालू और वानर सब इधर- उधर भाग चले।
दह दिसि धावहिं कोटिन्ह रावन ।
गर्जहिँ घोर कठोर भयावन ।। 607।।*
दसो दिशाओं में करोड़ों रावण घोर, कठोर और भयानक गर्जन करते हुए दौड़ते हैं।
परन्तु रामजी ने उसकी माया को एक ही वाण से नष्ट कर दिया। उसने कुछ काल सम्मुख समर करके फिर माया फैलाई-
छन्द-जब कीन्ह तेहि पाखंड । भये प्रगट जन्तु प्रचंड ।।
बेताल भूत पिसाच । कर धरे धनु नाराच ।।*
जब उसने माया रची, तो भयंकर जीव प्रकट हुए। बैताल, भूत और पिशाच हाथों में धनुष-वाण लिए हुए थे।
जोगिनि गहे करवाल । एक हाथ मनुज कपाल ।।
करि सद्य सोनित पान । नाचहिँ करहिँ बहु गान ।।*
योगिनियाँ एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में मनुष्य की खोपड़ी लिए ताजा रक्त पीते हुए नाचने और विविध गीत गाने लगीं।
धरु मारु बोलहिँ घोर । रहि पूरि धुनि चहुँ ओर ।।
मुख बाइ धावहिँ खान । तब लगे कीस परान ।।*
वे ‘पकड़ो, मारो’कहकर शोर मचा रही हैं। यह कोलाहल चारो ओर फैल गया। वे मुख फैलाकर खाने दौड़ीं, तो वानरगण भागने लगे।
जहँ जाहिँ मर्कट भागि । तहँ बरत देखहिँ आग ।।
भये बिकल बानर भालु । पुनि लाग बरषइ बालु ।।*
वानर जहाँ भी भागकर जाते, वहीं आग जलती हुई देखते। फिर बालू बरसने लगा। इस प्रकार वानर-भालू व्याकुल हो गए।
जहँ तहँ थकित करि कीस । गर्जेउ बहुरि दससीस ।।
लछिमन कपीस समेत । भये सकल बीर अचेत ।।*
(अपने मायावी पराक्रम से) रावण वानरों को जहाँ-तहाँ शिथिल कर फिर गरजा। लक्ष्मणजी और सुग्रीव सहित सभी वीर अचेत हो गए।
हा राम हा रघुनाथ । कहि सुभट मीजहिँ हाथ ।।
यहि बिधि सकल बल तोरि । तेहि कीन्ह कपट बहोरि।।*
हा राम ! हा रघुनाथ ! -चीत्कार करते हुए श्रेष्ठ योद्धा अपने हाथ मलते (पछताते) हैं। इस भाँति सबका बल क्षीण कर रावण ने फिर दूसरी माया रची।
प्रगटेसि बिपुल हनुमान । धाये गहे पाषान ।।
तिन्ह राम घेरे जाइ । चहुँ दिसि बरूथ बनाइ ।।*
उसने बहुत-से हनुमान प्रकट किए, जो पत्थर लिए दौड़े। उन्होंने चारो ओर दल बनाकर श्रीरामजी को घेर लिया।
मारहु धरहु जनि जाइ । कटकटहिँ पूँछ उठाइ ।।
दह दिसि लंगूर बिराज । तेहि मध्य कोसल राज ।। 8।।*
वे पूँछ उठाकर दाँत कट-कटाते हुए पुकार कर कहने लगे-‘मारो, पकड़ो, भागने न पावे।’ चारो ओर लंगूर घेरे हैं और उनके बीच में कोसलराज श्रीरामजी हैं।। 8।।
नाराच = तीर । करवाल = तलवार । सद्य सोनित = ताजा रक्त।
[छन्द सं0 6 और 8 में तथा चौपाई सं0 606 और 607 में रावण की माया (सिद्धियों) का वर्णन है। बहुत-से राम, लक्ष्मण, बहुत-से अपने रूप, बहुत-से बैताल, भूत, पिशाचादि, प्रचण्ड जन्तुओं की रचना करना, बालू की वर्षा करना और जलती हुई अग्नि प्रकट करना इत्यादि-इत्यादि उसकी माया अर्थात् सिद्धियाँ थीं। ये कितनी अद्भुत और विकट थीं ! रावण वेद-शास्त्रदि विद्या का प्रकाण्ड विद्वान भी था। उसने बड़ी तपस्या करके ब्रह्मा और शिव का दर्शन प्राप्त किया था और उनसे वर भी पाया था। ‘की मैनाक की खगपति होई । मम बल जान सहित पति सोई ।।’ (तृतीय सोपान-अरण्यकाण्ड) से प्रकट होता है कि लड़ाई में उसे विष्णु भगवान का भी दर्शन प्राप्त हुआ था। वह शंकर का इतना बड़ा भक्त था कि वह अपने हाथों अपना मस्तक काटकर उनके नाम से हवन कर देता था। नररूप भगवान राम से तो सम्मुख विकट संग्राम करके ही ‘कहाँ राम रन हतउँ प्रचारी’ कहकर वह मरा। तात्पर्य यह कि भगवान के अवतारी रूप अत्यन्त सुन्दर नर-रूप का भी उसे दर्शन मिला ही था। वह स्वयं ही कुलीन भी इतना था कि ब्रह्मा का प्रपौत्र था, इतना होने पर भी उसका हृदय शुद्ध न हो सका। लोग उसका नाम भक्तों की श्रेणी में नहीं गिनते। हाँ, पापियों और दुष्टों की श्रेणी में अवश्य ही गिनते हैं। अतएव कहना पड़ता है कि उसमें कुलीनता, सिद्धियाँ और दर्शन-प्राप्ति के जो-जो गुण थे, उनमें (उन गुणों में) स्वाभाविक शक्ति ऐसी नहीं है कि वे किसी के हृदय को शुद्ध करा उसे भक्त बना दें।]
रावण की सब माया भगवान राम ने अपने वाण से नष्ट कर दी। वह फिर सम्मुख युद्ध करने लगा। रामजी उसके मस्तकों और हाथों को बार-बार काटते, पर-
काटत बढ़त सीस समुदाई ।
जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।। 608।।
काटते ही सिरों का समूह बढ़ जाता है, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता जाता है।
[यह स्वाभाविक बात है कि जितना लाभ होता है, लोभ उतना ही अधिक बढ़ता है।]
अन्त में विभीषण की सलाह से रामजी ने रावण की नाभि में तीर मारकर उसे निष्प्राण कर दिया। विभीषण लंका का राजा बनाया गया। सीताजी रामजी के पास बुला ली गईं। उन्होंने अग्नि में प्रवेश कर सती होने की परीक्षा दी। शुद्ध-पवित्र समझी जाने के कारण वे रामजी के आसन पर उनकी बायीं ओर विराजीं। वहाँ ब्रह्मा, महादेव और इन्द्रादि सब देवता आ रामजी की स्तुति करके पीछे अपने-अपने धाम को चले गए। रामजी अपनी प्यारी स्त्री और प्रिय अनुज के सहित मुख्य-मुख्य कपियों और विभीषण को संग लेकर अवधपुरी को चल पड़े।
रामचरितमानस-सार सटीक
षष्ठ सोपान-लंकाकाण्ड समाप्त