हनुमानजी समुद्र के किनारे के एक पहाड़ पर कूदकर चढ़ गए और वहाँ से एक अत्यन्त वेगवान छलाँग मार, समुद्र लाँघकर लंका में पहुँच गए। लंका नगर के चतुर्दिक नगर-रक्षिणी दीवार थी। उसके एक द्वार पर एक लंकिनी नाम की राक्षसी पहरेदार थी। जब हनुमानजी उस द्वार से पार होकर लंका में जाने लगे, तो वह बड़े जोर से बिगड़ी। उनको चोर कहकर अनादृत किया और मार्ग रोककर खड़ी हो गई। हनुमानजी ने ऐसा घूँसा मारा कि वह लुढ़ककर गिर पड़ी और रुधिर वमन करने लगी। फिर उठकर डरती हुई हाथ जोड़कर विनती करने लगी कि हे हनुमान ! जब ब्रह्माजी रावण को वरदान देकर जाने लगे थे, तो उन्होंने मुझे कहा था कि जब तुम बन्दर की मार खाने पर विकल हो जाओगी, तब जानना कि अब निशिचर-कुल का नाश होगा। हे हनुमान ! मेरा बहुत पुण्य था कि मैंने रामजी के दूत को आखों से देखा। और-
दोहा-तात स्वर्ग अपवर्ग सुख, धरिय तुला इक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सत्संग ।। 80।।
हे तात ! स्वर्ग और मोक्ष के सुख को तराजू के एक पलड़े में और पलभर के सत्संग का सुख दूसरे पलड़े में रखकर तौला जाय, तो वे दोनों मिलकर इसके (लव-मात्र सत्संग के सुख के) बराबर नहीं हो सकते।
हनुमानजी गुप्त रूप से सीताजी को लंका में खोजने लगे। खोजते-ढूँढते वे विभीषण के घर पहुँचे। विभीषण से सीताजी के निवास स्थान का पता पाकर हनुमानजी अशोक-वाटिका में सीताजी के पास पहुँचे। उन्होंने सब समाचार कहा और अपने को राम-दूत होने का प्रमाण देकर सीताजी को विश्वास दिलाया। रामजी का समाचार पा, हनुमान को राम-दूत जानकर सीताजी अत्यन्त प्रसन्न हुईं। भूख लगने पर हनुमानजी ने अशोक-वाटिका के फल खाने की आज्ञा सीताजी से प्राप्त कर ली। वे फलों को खाने और वृक्षादिकों को तोड़ने लगे। रावण के बेटे अक्षयकुमार आदि जो हनुमानजी को रोकने-पकड़ने-मारने गए, सब-के-सब उनके हाथों मारे गए। इसके बाद रावण-पुत्र महाबलवान मेघनाद ने हनुमानजी को ब्रह्म-फाँस में बाँधकर रावण के सम्मुख उपस्थित किया। रावण ने पूछा कि तू किसका दूत है ? हनुमानजी ने उत्तर दिया-
जाके बल बिरंचि हरि ईसा ।
पालत सृजत हरत दस सीसा ।। 564।।*
हे रावण ! जिनके बल से ब्रह्मा, विष्णु और महेश (क्रमशः) सृष्टि का सृजन, पालन और संहार करते हैं।
जा बल सीस धरत सहसानन ।
अंड कोस समेत गिरि कानन ।। 565।।*
जिनके बल से सहस्त्रमुख (शेषनाग) पर्वत और वन सहित समस्त ब्रह्माण्ड को सिर पर धारण करते हैं।
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता ।
तुम्ह से सठ न सिखावन दाता ।। 566।।*
जो देवताओं की रक्षा के लिए अनेक प्रकार के शरीर धारण करते हैं और जो तुम जैसे मूर्खों को शिक्षा देनेवाले हैं।
हर कोदंड कठिन जेहि भञ्जा ।
तोहि समेत नृप खल दल गञ्जा ।। 567।।*
जिन्होंने शिवजी के कठोर धनुष को तोड़ डाला और तुम्हारे सहित दुष्ट राजाओं के समूह का घमण्ड चूर कर दिया।
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली ।
बधे सकल अतुलित बलसाली ।। 568।।*
खर, दूषण, त्रिशिरा और बालि, जो सभी अतुलनीय बलवान थे, का वध किया।
दोहा-जाके बल लवलेस तेँ, जितेहु चराचर झारि ।
तासु दूत मैं जा करि, हरि आनेहु प्रिय नारि ।।81।।*
जिनके लेशमात्र बल से तुमने समस्त चराचर जगत को जीत लिया है और जिनकी प्रिय स्त्री का तुमने अपहरण कर लिया है, मैं उन्हीं का दूत हूँ।
[चौ0 सं0 564 में राम को हरि से भी बड़ा बतलाया गया है। रामचरितमानस में ‘हरि’ शब्द बारम्बार राम के लिए और उसके अधीनस्थ विष्णु भगवान के लिए भी लिखा गया है। प्रथम से चतुर्थ सोपान तक अनेक स्थानों पर यह सिद्ध कर दिया गया है कि राम क्षीर-समुद्र-निवासी विष्णु भगवान ही थे। जहाँ-जहाँ यह बतलाया जाता है कि राम विष्णु के रूप हैं, वहाँ-वहाँ जानना चाहिए कि विष्णु भी एक के ऊपर एक बहुत हैं और ‘हरि’ शब्द सब विष्णुओं के लिए प्रयोग किया जाता है।]
और भी बहुत-सी उचित बातें कहकर हनुमानजी ने रावण से कहा कि-
रिषि पुलस्ति जस बिमल मयंका ।
तेहि ससि महँ जनि होहु कलंका ।। 569।।*
ऋषि पुलस्त्यजी का यश चन्द्रमा के समान निर्मल है। उस चन्द्रमा में तुम दाग मत बनो।
[विमल ब्राह्मण-कुल-दीपक परम यशस्वी पुलस्त्य ऋषि का पौत्र और विश्वश्रवा मुनि का पुत्र रावण यदि हिंसा और पर-नारी-हरणादि दुष्ट कर्म करे, तो पुलस्त्य ऋषि के यश में कलंक लगेगा।]
राम नाम बिनु गिरा न सोहा ।
देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ।। 570।।*
राम-नाम के बिना वाणी शोभा नहीं पाती, अहंकार और मोह को छोड़ इसे विचारकर देखो।
बसन हीन नहिँ सोह सुरारी ।
सब भूषन भूषित बर नारी ।। 571।।*
हे देवताओं के शत्रु ! सब गहनों से सजी हुई श्रेष्ठ नारी भी वस्त्र-हीन होने से शोभा नहीं पाती है।
राम बिमुख सम्पति प्रभुताई ।
जाइ रही पाई बिनु पाई ।। 572।।*
राम से विमुख व्यक्ति की जो सम्पत्ति और वैभव है, वह चली जाती है और उसका पाना, न पाने के समान ही है।
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीँ ।
बरषि गये पुनि तबहिँ सुखाहीँ ।। 573।।*
जिन नदियों के उद्गम में कोई (स्थायी) जल का स्त्रोत नहीं है, वे वर्षा समाप्त होते ही फिर तुरंत सूख जाती हैं।
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी ।
बिमुख राम त्राता नहिँ कोपी ।। 574।।*
हे रावण ! सुनो मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि राम-विमुख का कोई भी रक्षक नहीं है।
संकर सहस बिस्नु अज तोही ।
सकहिँ न राखि राम कर द्रोही ।। 575।।*
तुम जैसे श्रीरामजी के विरोधी को हजारो शंकर, विष्णु और ब्रह्मा भी नहीं बचा सकते।
दोहा-मोह मूल बहु सूल प्रद, त्यागहु तम अभिमान ।
भजहु राम रघुनायक, कृपासिन्धु भगवान ।।82।।
अज्ञान की जड़, बहुत दुःख देनेवाले अन्धकार-रूप अहंकार को छोड़ो और कृपासिन्धु रघुनायक राम को भजो।
हनुमानजी के इन उपदेशों को सुनकर रावण बड़ा क्रोधित हुआ। उसने राक्षसों को आज्ञा दी कि इसे मार डालो। विभीषण प्रार्थनापूर्वक बोले कि दूत को मारना उचित नहीं, इसलिए इसे कोई दूसरा दण्ड दिया जाय। रावण ने कहा-‘अच्छा, इसकी पूँछ में घी-तेल से बोरे हुए कपड़े लपेटकर आग लगा दो। जब यह पूँछ-हीन होकर लौट जाएगा और अपने मालिक को बुला लाएगा, तब हम देखेंगे कि यह जिसकी इतनी बड़ाई करता है, वह कैसा है ?’ हनुमानजी की पूँछ में अग्नि लगा दी गई। अब क्या था ! हनुमानजी तो यह चाहते ही थे। वे कूद-कूदकर घरों पर चढ़ते गए, घर जलते गए। इस भाँति सारी लंका जलकर भस्म हो गई। राम की कृपा से उसकी पूँछ न जली। फिर सीताजी को प्रणाम कर समुद्र को लाँघ गए। वहाँ समुद्र के उत्तर किनारे पर अंगदादि से आ मिले। फिर सब मिलकर राजा सुग्रीव के पास आए। सुग्रीव बड़े प्रसन्न हो सबों को साथ में लेकर रामजी के पास आए। रामजी ने हनुमानजी के मुख से सीता का समाचार और लंका-दाह सुन वानरी सेना सजा लंका पर चढ़ाई करने के लिए यात्रा कर दी। समुद्र किनारे पहुँचकर रामजी ने ससैन्य डेरा डाला। जब रावण को इसका पता लगा कि राम सेना-सहित समुद्र-किनारे आ गए हैं, तो उसने अपने मन्त्रियों से विचार पूछा। मन्त्री लोग हँस पड़े और बोले कि महाराज ! इसमें कुछ विचार की आवश्यकता नहीं है। जब आपने सब देव-दानवों को जीत लिया, तब तो कोई परिश्रम ही नहीं हुआ, तो ये नर-वानर किस गिनती में हैं ? यहाँ महादेवजी पार्वतीजी से कहते हैं-
दोहा-सचिव बैद गुरु तीनि जौं, प्रिय बोलहिँ भय आस ।
राज धर्म तन तीनि कर, होइ बेगि ही नास ।। 83।।
मन्त्री, वैद्य और गुरु; ये तीनों यदि डरकर आशा (सहायता की आशा) से प्रिय वचन कहते हैं (उचित बात नहीं कहते हैं), तो राज, धर्म और शरीर (तीनों का शीघ्र ही नाश होता है।
रावण को ऐसे ही सहायकगण मिले हैं। समय पाकर विभीषण वहाँ आये और अपना विचार इस भाँति दिया-
जो आपन चाहइ कल्याना ।
सुजस सुमति सुभ गति सुख नाना ।। 576।।
सो पर नारि लिलार गुसाईं ।
तजइ चौथि के चन्द कि नाईं ।। 577।।
जो अपना कल्याण, सुयश, सुबुद्धि, शुभ गति और बहुत प्रकार के सुखों को चाहे; हे गोसाईं ! वह परायी स्त्री का माथा चौथ के चन्द्रमा की तरह (कलंक लगानेवाला जानकर) त्याग दे।
चौदह भुवन एक पति होई ।
भूत द्रोह तिष्ठै नहिँ सोई ।। 578।।
(जो) चौदहो भुवनों का एक ही स्वामी हो, वह भी जीव-मात्र से वैर करने से नहीं ठहर सकता है।
गुनागार नागर नर जोऊ ।
अलप लोभ भल कहइ न कोऊ ।। 579।।
जो मनुष्य गुणों का भवन और चतुर हो, उसके थोड़े भी लोभ को कोई भला नहीं कहता है ।
दोहा-काम क्रोध मद लोभ सब, नाथ नरक कर पंथ ।
सब परिहरि रघुवीर ही, भजहु भजहिँ जेहि सन्त ।। 84।।
हे नाथ ! काम, क्रोध, अहंकार और लोभ; ये सब-के-सब नरक के मार्ग हैं। इन सबों को छोड़कर राम का भजन कीजिए, जिनको सन्त लोग भजते हैं।
विभीषण की बातें सुनकर रावण क्रोधित हो विभीषण से बोला कि तुम मेरे शत्रु का गुण गाते हो। फिर सभा की ओर देखकर बोला-‘है कोई ! इसे यहाँ से निकालो।’ विभीषण फिर हाथ जोड़कर कहने लगे-
सुमति कुमति सबके उर रहहीँ ।
नाथ पुरान निगम अस कहहीँ ।। 580।।*
हे नाथ ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सद्बुद्धि और कुबुद्धि सबके हृदय में रहती है।
जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना ।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ।। 581।।
जहाँ सुबुद्धि रहती है, वहाँ बहुत प्रकार की सम्पत्ति रहती है और जहाँ कुबुद्धि होती है, वहाँ अन्त में विपत्ति आती है।
विभीषण ने बिना पूछे और भी अनेक हित-विचार रावण को दिए, पर उसका क्रोध बढ़ता ही गया। उसने कहा-‘तू शत्रु का गुण गाता है, जा उसी को नीति सिखा’ यह कह उसने विभीषण को लात मार दी। विभीषण इतने पर भी उसके चरण पकड़कर सविनय धर्मोपदेश करने लगे। यहाँ महादेवजी कहते हैं-
उमा सन्त कर इहइ बड़ाई ।
मन्द करत जो करइ भलाई ।। 582।।
हे उमा ! सन्तों की यही बड़ाई है कि उनके साथ जो बुराई करते हैं, वे उनके साथ भी भलाई करते हैं।
विभीषण रावण से बोले कि हे भाई ! तुम मेरे पिता के तुल्य हो। तुमने भले ही मुझे मारा, परन्तु रामजी का भजन करने में तुम्हारी भलाई है। लो, मैं राम के पास जाता हूँ। ऐसा कह अपने मन्त्रियों के सहित आकाश में गए और सबको सुनाकर बोले कि अब मैं राम के पास जाता हूँ, मुझे कोई दोष मत देना। यहाँ महादेवजी कहते हैं-
अस कहि चला विभीषण जबहीँ ।
आयू-हीन भये सब तबहीँ ।। 583।।*
ऐसा कहकर विभीषणजी जैसे ही चले, सभी (राक्षस) आयुहीन हो गए।
साधु अवज्ञा तुरत भवानी ।
कर कल्यान अखिल कै हानी ।। 584।।
हे भवानी ! साधु पुरुषों का अनादर (करना) सम्पूर्ण कल्याण का नाश कर देता है।
विभीषण आकाश-मार्ग से लंका से चलकर रामजी की सेना में आ मिले। सुग्रीव ने उनको एक जगह ठहरा रामजी से कहा कि रावण का भाई विभीषण आपसे मिलने आया है, परन्तु मेरे मन में आता है कि वह हमलोगों का भेद लेने आया है। अतएव उसे बाँध रखना चाहिए। रामजी ने कहा-‘शरणागत की रक्षा करना मेरा प्रण है।’ और-
दोहा-सरनागत कहँ जे तजहिँ, निज अनहित अनुमानि ।
ते नर पामर पापमय, तिनहिँ बिलोकत हानि ।। 85।।
जो अपना अनभल अनुमान कर शरण में आए हुए को त्याग देते हैं, वे मनुष्य नीच और पापमय हैं। उसको देखने से हानि होती है।
रामजी की आज्ञा पाकर बन्दर लोग विभीषण को आदरपूर्वक रामजी के पास ले गए। विभीषण ने ‘त्राहि शरणागत-रक्षक !’ कहकर रामजी को प्रणाम किया। रामजी ने उठकर उनको हृदय से लगा लिया और पूछा-
कहु लंकेस सहित परिवारा ।
कुसल कुठाहर बास तुम्हारा ।। 585।।*
हे लंकेश (विभीषण) ! तुम्हारा निवास तो बुरी जगह पर है। परिवार सहित अपनी कुशलता कहो।
खल मंडली बसहु दिन राती ।
सखा धरम निबहइ केहि भाँती ।। 586।।*
दिन-रात दुष्टों के समाज में रहते हो। हे मित्र! तुम्हारा धर्म किस प्रकार निभता है ?
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती ।
अति नय निपुन न भाव अनीती ।। 587।।*
मैं तुम्हारे सभी आचारों को जानता हूँ। तुम नीति में अत्यन्त निपुण हो, तुममें अनीति की भावना नहीं है।
बरु भल बास नरक कर ताता ।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ।। 588।।*
हे तात ! नरक में रहना भी अच्छा है, परन्तु ईश्वर दुष्टों का संग न दे।
उत्तर में विभीषण बोले-
अब पद देखि कुसल रघुराया ।
जो तुम कीन्हि जानि जन दाया ।। 589।।*
हे रघुनाथजी ! आपके चरणों का दर्शन कर अब कुशल है, जो आपने अपना सेवक जानकर मुझपर दया की है।
दोहा-तब लगि कुसल न जीव कहँ, सपनेहु मन बिस्त्राम ।
जब लगि भजत न राम कहँ, सोक धाम तजि काम ।। 86।।
जीव को तबतक कुशल नहीं और न स्वप्न में भी मन में चैन मिलता है, जबतक वह शोकों के घर मनोरथों को छोड़कर राम को नहीं भजता।
विभीषण की बातों से रामजी ने प्रसन्न होकर उनको अपने पास रख लिया। फिर समुद्र में मार्ग पाने के लिए व्रतधारी होकर रामजी समुद्र से विनती करने लगे। तीन दिन बीत गए, पर समुद्र ने विनती न मानी। तब क्रोधित होकर रामजी लक्ष्मणजी से बोले-‘हे भाई ! धनुष-वाण लाओ, मैं वाणों के तेज से समुद्र को सुखा दूँगा।’ क्योंकि-
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती ।
सहज कृपन सन सुन्दर नीती ।। 590।।
दुष्ट से विनती, कपटी से प्रीति, स्वाभाविक कंजूस से सुन्दर नीति कहना,
ममता रत सन ज्ञान कहानी ।
अति लोभी सन बिरति बखानी ।। 591।।
ममता में लीन पुरुष से ज्ञान की कथा, परम लोभी से वैराग्य का वर्णन करना,
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा ।
ऊसर बीज बये फल जथा ।। 592।।
क्रोधी से सौम्यता (शान्ति-शीतलता) और कामी से हरि-कथा कहना वैसे ही निष्फल है, जैसे ऊसर में बीज बोना।
इतना कहकर रामजी ने समुद्र सोखने के लिए धनुष पर वाण चढ़ाया, तब समुद्र डरकर ब्राह्मण के रूप में रामजी के सम्मुख आया। यहाँ कागभुशुण्डिजी कहते हैं-
दोहा-काटेहि पै कदली फरइ, कोटि जतन कोउ सीँच ।
बिनय न मान खगेस सुनु, डाँटेहि पै नव नीच ।। 87।।
हे गरुड़जी ! सुनिए, केला काटने पर ही फलता है, चाहे कोई करोड़ों उपाय से सींचे। नीच विनती नहीं मानते, डाँटने पर ही नवते हैं।
समुद्र ने रामजी की बड़ी विनती की और उन्हें बतलाया कि नल और नील के छुए पत्थर जल में नहीं डूबते-तैरते रहते हैं। आप पत्थरों को मँगा उन दोनों से समुद्र-जल पर बाँध बनवा लीजिए। उस पर से आपकी सेना पार उतर जाएगी। फिर रामजी की आज्ञा पाकर समुद्र अपने घर गया।
रामचरितमानस-सार सटीक
पञ्चम सोपान-सुन्दरकाण्ड समाप्त ।