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चतुर्थ सोपान-किष्किन्धाकाण्ड

जय गुरु!


पम्पासर को त्याग रामजी आगे को चले। ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँच कपिराज सुग्रीव से उन्होंने मित्रता कर ली। सुग्रीव को उनके बड़े भाई बालि ने बिना किसी दोष के घर से बाहर निकाल उसकी स्त्री और सम्पत्ति हर ली थी। रामजी ने उससे कहा कि मैं तुम्हारी सहायता कर बाली को मार करके तुमको राजा बना दूँगा; क्योंकि-
 जे न मित्र दुख होहिँ दुखारी ।
   तिन्हहिँ बिलोकत पातक भारी ।। 505।।
 जो मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से भारी पाप होता है।
 निज दुख गिरि सम रज करि जाना ।
    मित्र के दुख रज मेरु समाना ।। 506।।
 पहाड़ के समान अपने दुःख को धूल के बराबर और धूल के समान मित्र के दुःख को सुमेरु पर्वत के समान समझे।
 जिन्हके असि मति सहज न आई ।
    ते सठ कत हठि करत मिताई ।। 507।।
 जिनको सहज ही ऐसी बुद्धि नहीं आती, वे मूर्ख क्यों हठ करके मित्रता करते हैं।
 कुपथ निवारि सुपंथ चलावा ।
   गुन प्रगटइ अवगुनहिँ दुरावा ।। 508।।
 (उचित है कि मित्र को) बुरे रास्ते से छुड़ाकर अच्छे रास्ते पर चलावे। गुणों को प्रसिद्ध करे और अवगुणों को छिपावे ।
 देत लेत मन सक न धरई ।
   बल अनुमान सदा हित करई ।। 509।।
 देने-लेने में मन में सन्देह न धरे, अपने बल के विचार से सदा हित करे।
 बिपति काल कर सतगुन नेहा ।
    स्त्रुति कह सन्त मित्र गुन एहा ।। 510।।
 विपत्ति-काल में सौ गुणा स्नेह करे, वेदों और सन्तों ने मित्र के ये गुण कहे हैं।
 आगे कह मृदु बचन बनाई ।
    पाछें अनहित मन कुटिलाई ।। 511।।
 जो सामने में मधुर वचन बनाकर कहता हो और मन में कुटिलता रखकर पीछे में अपकार करता हो,
 जाकर चित अहि गति सम भाई ।
   अस कुमित्र परिहरेहि भलाई ।। 512।।
 हे भाई ! जिसका चित्त साँप की चाल के समान (टेढ़ा) है, ऐसे कुमित्र को त्यागने में ही भलाई है।
 सेवक सठ नृप कृपन कुनारी ।
    कपटी मित्र सूल सम चारी ।। 513।।
 मूर्ख सेवक, कृपण राजा, कपटी मित्र और कर्कशा स्त्री-ये चारो शूल (दुःख-काँटे) के समान हैं।
 रामजी के बल की परीक्षा करके सुग्रीव को पूरा विश्वास हो गया कि अब बालि मारा जाएगा। फिर उसे ज्ञान हुआ, तो वह रामजी से कहने लगा-
 सुख सम्पति परिवार बड़ाई ।
    सब परिहरि करिहउँ सेवकाई ।। 514।।
 सुख, सम्पत्ति, परिवार और बड़ाई, सबको छोड़कर आप की सेवा करूँगा।
 ये सब राम भगति के बाधक ।
    कहहिं सन्त तव पद अवराधक ।। 515।।
 (क्योंकि) आपके चरणों की आराधना करनेवाले सन्त कहते हैं कि ये सब राम की भक्ति में विघ्न करनेवाले हैं।
 सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीँ ।
    माया कृत परमारथ नाहीँ ।। 516।।
 शत्रु, मित्र, सुख और दुःख माया-रचित हैं, परमार्थ-स्वरूप नहीं हैं। (अर्थात् इनसे मोक्ष नहीं मिलता।)
 सपने जेहि सन होइ लराई ।
  जागे समुझत मन सकुचाई ।। 517।।
 जिससे सपने में लड़ाई होती है, वह जब जगता है, तो समझकर (कि यह सपने की लड़ाई है) मन में सकुचाता है।
 सुग्रीव का विरागमय वचन सुन रामजी ने कहा-‘हे मित्र ! तुमने जो कुछ कहा, सो सत्य है, परन्तु मेरा वचन झूठ नहीं हो सकता।’ एक दिन रामजी सुग्रीव को संग लेकर गए और बालि को युक्ति से उन्होंने मार दिया। उसकी स्त्री तारा बहुत विलाप करने लगी। रामजी ने उससे कहा-
 छिति जल पावक गगन समीरा ।
   पंच रचित अति अधम सरीरा ।। 518।।
 मिट्टी, जल, अग्नि, आकाश और वायु; इन्हीं पाँचों से (यह) अत्यन्त अधम शरीर बना है।
 प्रगट सो तनु तव आगे सोवा ।
  जीव नित्य तुम केहि लगि रोवा ।। 519।।
 वह शरीर प्रकट ही तुम्हारे आगे सोया है और जीव तो अविनाशी है, (फिर) तुम किसलिए रोती हो ?
 तारा को इस तरह बोध देकर रामजी अपने वास-स्थान पर्वत पर चले गए। फिर रामजी की आज्ञा से लक्ष्मणजी ने किष्किन्धा में जाकर सुग्रीव को राज-तिलक करा दिया। इतने में वर्षा ऋतु आ गई। राम और लक्ष्मण पहाड़ की एक कन्दरा में रहने लगे और सुग्रीव अपने घर में। एक दिन रामजी लक्ष्मणजी से कहने लगे-
दोहा-लछिमन देखहु मोर गन, नाचत बारिद पेखि ।
 गृही बिरति रत हरष जस, बिष्णु भगत कहँ देखि ।। 74।।
 हे लक्ष्मण ! देखो, मयूरगण बादलों को देखकर कैसे नाचते हैं, जैसे विष्णु-भक्त को देखकर वैराग्य में लीन गृहस्थाश्रमी जीव प्रसन्न होते हैं।
 दामिनि दमकि रह न घन माहीँ ।
   खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं ।। 520।।
 बिजली चमककर बादलों में नहीं ठहरती, जैसे दुष्टों की प्रीति स्थिर नहीं रहती। [दुष्टों की प्रीति स्थिर नहीं रहती है।]
 बरषहिं जलद भूमि नियराये ।
   जथा नवहिँ बुध विद्या पाये ।। 521।।
 बादल धरती के निकट होकर बरसते हैं, जैसे पण्डितजन विद्या को पाकर नम्र हो जाते हैं।
 [विद्वान का लक्षण नम्र होना है।]
 बुन्द अघात सहहिँ गिरि कैसे ।
     खल के बचन सन्त सह जैसे ।। 522।।
 बूँदों की चोट पर्वत कैसे सहते हैं, जैसे दुष्टों के वचन सन्त लोग सहते हैं। [दुष्टों का कटु-वचन सहना सन्तों का लक्षण है।]
 छुद्र नदी भरि चली तोराई ।
     जस थोरेहु धन खल इतराई ।। 523।।
 छोटी नदियाँ जल से भर बाँध (सीमा) तोड़कर बह चली हैं, जैसे दुष्ट लोग थोड़ा-सा भी धन पाकर मस्त (मदान्ध) हो जाते हैं।
 भूमि परत भा ढाबर पानी ।
     जनु जीवहि माया लपटानी ।। 524।।
 भूमि पर पड़ते ही पानी मटमैला हो गया, मानो जीव से माया लिपटी हो। [जीव का स्वरूप निर्मल है, माया से मिलने पर मैला हो जाता है।]
 समिटि समिटि जल भरहिँ तलाबा ।
  जिमि सदगुन सज्जन पहिँ आवा ।। 525।।
 बटुर-बटुरकर पानी तालाब में भरता है, जैसे धीरे-धीरे सद्गुण सज्जनों के पास आते हैं।
 [सज्जन थोड़ा-थोड़ा उत्तम गुण ग्रहण कर सद्गुणों से भर जाते हैं।]
 सरिता जल जलनिधि महँ जाई ।
  होइ अचल जिमि जिव हरि पाई ।। 526।।
 नदियों का जल समुद्र में जाकर स्थिर हो जाता है, जैसे जीव हरि को पाकर स्थिर हो जाता है।
    [‘निर्गुन रूप सुलभ अति, सगुन जान नहिं कोइ ।
       सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होइ ।।’
                          (रामचरितमानस-सप्तम सोपान)
 भ्रमित मन में अचलता नहीं हो सकती है, सगुण रूप हरि को पाकर इस अचलता की आशा नहीं की जा सकती। परन्तु उन्हीं के निर्गुण स्वरूप की प्राप्ति होने पर इस अचलता की प्राप्ति हो जाती है, इसमें संशय नहीं।]
दोहा-हरित भूमि तृन संकुल, समुझि परहिं नहिं पन्थ ।
      जिमि पाखंड बिबाद तें, गुप्त होहिं सद्ग्रन्थ ।। 57।।
 घासों से परिपूर्ण होने से धरती हरी हो गई है, इससे रास्ते जान नहीं पड़ते, जैसे पाखण्ड की बातों से सद्ग्रन्थ छिप जाते हैं।
 नव पल्लव भये बिटप अनेका ।
   साधक मन जस मिले बिबेका ।। 527।।
 अनेक प्रकार के वृक्षों में नए पत्ते हो गए हैं, इससे वे कैसे जान पड़ते हैं, जैसे साधक का मन सारासार का ज्ञान पाकर अत्यन्त प्रसन्न हो जाता है।
 अर्क जवास पात बिनु भयऊ ।
     जस सुराज खल उद्यम गयऊ ।। 528।।
 आक और जवास बिना पत्तों के हो गए हैं, जैसे अच्छे राज्य में दुष्टों के धन्धे मिट जाते हैं।
 [सुराज्य में दुष्टों के धन्धे नहीं हो पाते हैं।]
 खोजत कतहुँ मिलइ नहिँ धूरी ।
     करइ क्रोध जिमि धर्महिँ दूरी ।। 529।।
 खोजने पर भी कहीं धूल नहीं मिलती है, जैसे क्रोध धर्म को दूर कर देता है। [क्रोध धर्म को नष्ट कर देता है।]
 ससि सम्पन्न सोह महि कैसी ।
   उपकारी कै सम्पति जैसी ।। 530।।
 फसल से भरी हुई धरती कैसी सोहती है, जैसे उपकारी पुरुष की सम्पत्ति सोहती है।
 [धरती की फसल धरती के लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए है। उसी तरह परोपकारी की सम्पत्ति दूसरों के लिए होती है।]
 निसि तम धन खद्योत बिराजा ।
  जनु दम्भिन्ह कर मिला समाजा ।। 531।।
 रात की घनी अँधियारी में जुगनू इस तरह शोभा पाते हैं, मानो पाखण्डियों का समाज एकत्रित हो।
 [जुगनुओं से अत्यल्प चमक होती है, उससे मार्ग नहीं सूझता। उसी तरह पाखण्डियों के उपदेश से कुछ ज्ञान-सा प्रतीत होता है, पर सन्मार्ग नहीं दरसता।]
 महा वृष्टि चलि फूटि कियारीं ।
  जिमि सुतन्त्र भये बिगरहीँ नारीं ।। 532।।
 भारी वृष्टि से क्यारियाँ फूट चली हैं, जैसे स्वतंत्र होने पर स्त्रियाँ बिगड़ जाती हैं। [स्वतन्त्रता पाकर स्त्रियाँ बिगड़ जाती हैं।]
 कृषी निरावहिं चतुर किसाना ।
  जिमि बुध तजहिं मोह मद माना ।। 533।।
 चतुर किसान खेती को कमाते हैं (जंगलों से रहित कर देते हैं), जैसे बुद्धिमान मोह, मद और अभिमान को दूर कर देते हैं।
[बुद्धिमान को चाहिए कि वह मोह, मद और अभिमान को छोड़ दे।]
 देखिअत चक्रबाक खग नाहीं ।
    कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं ।। 534।।
 चकवा पक्षी देख नहीं पड़ते, जैसे कलियुग को पाकर धर्म भाग जाते हैं।
 ऊसर बरषइ तृन नहिं जामा ।
जिमि हरि जन हिय उपज न कामा ।। 535।।
 ऊसर में वर्षा होने पर भी तृण नहीं उगते हैं, जैसे हरि-भक्तों के हृदय में (काम-वासना का संयोग होने पर भी) काम-वासना उत्पन्न नहीं होती है।
[हरिभक्तों के हृदय में संयोग पाकर भी काम-वासना उत्पन्न नहीं होती।]
 बिबिध जन्तु संकुल महि भ्राजा ।
   प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा ।। 536।।
 अनेक प्रकार के जीवों से भरकर पृथ्वी ऐसी शोभित है, जैसे अच्छे (धर्मात्मा-नीतिज्ञ) राजा को पाकर प्रजा बढ़ती है।
 जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना ।
    जिमि इन्द्रिय गन उपजें ग्याना ।। 537।।
 जहाँ-तहाँ अनेक पथिक थककर टिके हैं, जैसे ज्ञान होने से इन्द्रियगण शिथिल (निश्चेष्ट) हो जाते हैं।
 [ज्ञान से इन्द्रियों का दमन होता है और ज्ञान, योग से उत्पन्न होता है (देखो चौ0 सं0 411), अतएव योगाभ्यास के बिना इन्द्रियों का दमन नहीं होगा।]
दोहा-कबहुँ प्रबल बह मारुत, जहँ तहँ मेघ बिलाहिँ ।
       जिमि कपूत के ऊपजें, कुल सद्धर्म नसाहिँ ।। 76।।
 कभी प्रबल वायु के बहाने से मेघ जहाँ-तहाँ लुप्त हो जाते हैं, जैसे कुपुत्र के उत्पन्न होने से कुल के उत्तम धर्म नष्ट हो जाते हैं।
दोहा-कबहुँ दिवस महँ निविड़ तम, कबहुँक प्रगट पतंग ।
     बिनसइ उपजइ ज्ञान जिमि, पाइ कुसंग सुसंग ।। 77।।
 कभी दिन में घनी अँधियारी छा जाती है और कभी सूर्य प्रगट हो जाते हैं। जैसे ज्ञान कुसंग पाकर नष्ट होता और सुसंग पाकर उत्पन्न होता है।
 बरषा बिगत सरद रितु आई ।
    लछिमन देखहु परम सुहाई ।। 538।।
 हे लक्ष्मण ! देखो वर्षा ऋतु बीत गई और शरद ऋतु आई, यह परम शोभायमान है।
 फूले कास सकल महि छाई ।
     जनु बरषा कृत प्रगट बुढ़ाई ।। 539।।*
 फूले हुए कास पूरी धरती पर छा गई, मानो वर्षा ऋतु ने (कासरूपी सफेद बालों के रूप में) अपना बुढ़ापा प्रकट किया हो।।
 उदित अगस्त पंथ जल सोखा ।
    जिमि लोभहिँ सोखइ सन्तोखा ।। 540।।
 अगस्त्य तारे का उदय हुआ, रास्ते का जल सूखने लगा, जैसे लोभ को सन्तोष सोख लेता है।
 [सन्तोष से लोभ का नाश हो जाता है।]
 सरिता सर निर्मल जल सोहा ।
    सन्त हृदय जस गत मद मोहा ।। 541।।
 नदी-सरोवर का जल निर्मल हो शोभित होता है, जैसे मद और मोह दूर होकर सन्तों का हृदय होता है।
 [सन्तों का हृदय मद-मोह से रहित निर्मल होता है।]
 रस रस सूख सरित सर पानी ।
   ममता त्याग करहिँ जिमि ज्ञानी ।। 542।।
 नदी-तालाबों का पानी धीरे-धीरे सूखता है, जैसे ज्ञानी लोग धीरे-धीरे ममता का त्याग करते हैं।
 [ज्ञानीजन धीरे-धीरे ममता त्याग देते हैं।]
 जानि सरद रितु खंजन आये ।
    पाइ समय जिमि सुकृत सुहाये ।। 543।।
 शरद ऋतु जान खंजन पक्षी आ गए, जैसे समय पाकर सुकर्म सुहावना लगता है।
 [वृक्ष को लगाने, सींचने, निराने और विघ्नों से बचाने से उसका पालन होता है। समय पाकर उससे फल भी अवश्य मिलता है, इसी तरह सुकर्मों का फल भी अवश्य ही मिलता है।]
 पंक न रेनु सोह अस धरनी ।
  नीति निपुन नृप कै जसि करनी ।। 544।।
 कीचड़ और धूल के बिना पृथ्वी ऐसी शोभती है, जैसे नीति-निपुण राजा की करनी सुहावनी लगती है।
 जल संकोच बिकल भइँ मीना ।
   अबुध कुटुम्बी जिमि धन हीना ।। 545।।
 पानी घटने से मछलियाँ व्याकुल हो गई हैं, जैसे बुद्धिहीन कुटुम्बी (बड़े परिवारवाले) धन-हीन होने पर घबड़ाते हैं।
 बिनु घन निर्मल सोह अकासा ।
  हरि जन इव परिहरि सब आसा ।। 546।।
 बिना बादलों के निर्मल आकाश शोभायमान हो रहा है, जैसे सब आशाओं को छोड़कर हरि-भक्त शोभायमान होते हैं।
[हरिभक्त सब आशाओं को छोड़ एक हरि की ही आशा रखते हैं।]
 कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी ।
  कोउ इक पाव भगति जिमि मोरी ।। 547।।
 कहीं-कहीं शरद ऋतु की थोड़ी वर्षा हो जाती है, जैसे कोई बिरला जीव मेरी भक्ति पाता है।
दोहा-चले हरषि तजि नगर नृप, तापस बनिक भिखारि ।
      जिमि हरि भगति पाइ स्त्रम, तजहिं आश्रमी चारि ।।78।।
 राजा, तपस्वी, बनिये और भिखारी प्रसन्न हो नगर छोड़कर चले हैं, जैसे हरि-भक्ति पाकर चारो आश्रमवाले (ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी और संन्यासी) परिश्रम छोड़ देते हैं।
 सुखी मीन जे नीर अगाधा ।
  जिमि हरि सरन न एकउ बाधा ।। 548।।
 जो मछलियाँ गहरे पानी में हैं, वे सुखी हैं, जैसे हरि की शरण में एक भी विघ्न नहीं होता है।
 [हरि की शरण में हो जाने से सब विघ्न मिट जाते हैं।]
 फूले कमल सोह सर कैसा ।
   निर्गुन ब्रह्म सगुन भये जैसा ।। 549।।
 कमल के फूलने से तालाब कैसा शोभित हो रहा है, जैसे निर्गुण ब्रह्म सगुण होने पर शोभित होते हैं।
  [ब्रह्म का मूल स्वरूप निर्गुण है। जैसे उचित समयों पर तालाब में कमल बारम्बार उपजते, फूलते और मिटते हैं, उसी तरह सगुण बारम्बार प्रकट होते, चमत्कार-पूर्ण लीला करते और लय होते हैं। निर्गुण स्वरूप स्थिर है और सगुण अस्थिर।]
 चक्रबाक मन दुख निसि पेखी ।
    जिमि दुर्जन पर सम्पति देखी ।। 550।।
 रात को देखकर चकवा (पक्षी) के मन में दुःख है, जैसे दूसरों की सम्पत्ति देखकर दुष्टों को दुःख है।
 [दुष्ट पर-धन देखकर जलते हैं।]
 चातक रटत तृषा अति ओही ।
  जिमि सुख लहइ कि संकर द्रोही ।। 551।।
 पपीहा रटता है (बोली का तार बाँधकर बोलता है)। उसे बड़ी प्यास है (वर्षा होने पर भी उसकी प्यास नहीं गई), जैसे शंकर (कल्याण करनेवाले) से द्रोह करनेवाला सुख नहीं पाता है।
 [शंकरजी के द्रोही को सुख नहीं मिलता है। किसी से भी द्रोह करनेवाले को सुख नहीं मिलता। ‘पर द्रोही की होहि निसंका।’ (सप्तम सोपान-उत्तरकाण्ड)]
 सरदातप निसि ससि अपहरई ।
   सन्त दरस जिमि पातक टरई ।। 552।।
 शरद ऋतु के ताप को रात में चन्द्रमा इस तरह हर लेता है, जैसे सन्त के दर्शन से पाप दूर हो जाते हैं।
 [सन्त के दर्शन से पाप नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि उनके शरीर का पवित्र सार (गर्मी-अपजंसपजल) उनके दर्शन करनेवालों की देह में स्वभावतः आप-से-आप समाकर शुभ और निर्मल प्रभाव पहुँचाता है। उसी तरह उनके (सन्तों के) पवित्र उपदेशों के असर भी उनके समीप में जाकर सुननेवालों को निष्पाप कर देते हैं।]
 देखि इन्दु चकोर समुदाई ।
  चितवहिँ जिमि हरिजन हरि पाई ।। 553।।
 चकोरों का समूह चन्द्रमा को (प्रसन्नतापूर्वक एकटक से) देख रहा है, जैसे हरि को पाकर हरि-भक्त एकटक से देखते हैं।
 [मानस-ध्यान स्थिर दृष्टि से करना चाहिए।]
 मसक दंस बीते हिम त्रासा ।
  जिमि द्विज द्रोह किये कुल नासा ।। 554।।
 मच्छड़ों का काटना जाड़े के डर से दूर हो गया, जैसे द्विजों से द्रोह करने से कुल का नाश हो जाता है।
 [ब्राह्मणों को भी द्विज कहते हैं। ब्राह्मणों के विषय में कुछ विचार चौ0 सं0 447 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में पढ़िए। आगे बताया जा चुका है कि द्रोह किसी से भी करना अच्छा नहीं है।]
दोहा-भूमि जीव संकुल रहे, गये सरद रितु पाइ ।
        सदगुरु मिले जाहिँ जिमि, संसय भ्रम समुदाइ ।। 79।।
 धरती पर जो बहुतेरे जीवों के झुण्ड वर्षा में पैदा हुए थे, वे नष्ट हो गए, जैसे सद्गुरु के मिलने पर सन्देह और भ्रम मिट जाते हैं।
 [सद्गुरु मिले बिना संशय-भ्रम दूर नहीं होते।]
 इस प्रकार वर्षा और शरद ऋतुओं का वर्णन करके रामजी लक्ष्मणजी से बोले कि हे भाई ! देखो, अब तो शरद ऋतु आ गई; परन्तु सुग्रीव ने सीताजी की खोज अबतक नहीं करवाई। तुम उसके नगर में जाओ और भय दिखाकर उसे मेरे पास ले आओ। लक्ष्मणजी सुग्रीव के घर गए और क्रोधपूर्वक उसे धमकी देने लगे। वह नम्र होकर बोला-
 नाथ बिषय सम मद कछु नाहीँ ।
   मुनि मन मोह करइ छन माहीँ ।। 555।।
 हे नाथ ! विषय के समान और कोई मद नहीं है, जो क्षण भर में मुनियों के मन में भी मोह उत्पन्न कर देता है।
 फिर लक्ष्मणजी के साथ सुग्रीव आदि कपि रामजी के पास आए। सुग्रीव रामजी को प्रणाम करके बोले-
 बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी ।
   मैं पामर पसु कपि अति कामी ।। 556।।
 हे स्वामी ! देवता, मनुष्य और मुनि विषय के वश में हैं, फिर मैं तो अत्यन्त कामी पशु वानर (बन्दर) हूँ।
 नारि नयन सर जाहि न लागा ।
   घोर क्रोध तम निसि जो जागा ।। 557।।
 लोभ पास जेहि गर न बँधाया ।
    सो नर तुम समान रघुराया ।। 558।।
 स्त्रियों के नेत्र-वाण जिन्हें नहीं लगे, जो क्रोध-रूपी अँधेरी रात में जागते हैं (अर्थात् क्रोध के वश में नहीं होते हैं), हे रघुनाथजी ! लोभ की फाँस से जिसने अपना गला नहीं बँधाया, वह मनुष्य आपके समान है।
 यह गुन साधन तेँ नहिँ होई ।
   तुम्हरी कृपाँ पाव कोइ कोई ।। 559।।
 ये गुण साधन से नहीं होते, तुम्हारी कृपा से कोई-कोई पाते हैं।
 [भक्ति की साधना के बिना भगवान कृपा नहीं करते।]
 रामजी ने सुग्रीव को बड़े प्यार से कहा कि तुम मुझे भरत की तरह प्यारे हो। यों बातें हो रही थीं कि उसी समय झुण्ड-के- झुण्ड वीर बन्दर आए। सुग्रीव ने उनसे कहा-तुमलोग सब दिशाओं में जाकर सीताजी को खोजो। और सुनो-
 भानु पीठ सेइय उर आगी ।
   स्वामिहिँ सर्व भाव छल त्यागी ।। 560।।
 सूर्य को पीठ से और अग्नि को छाती से सेवन करना चाहिए, परन्तु स्वामी की सेवा सब प्रकार के छल छोड़कर स्नेह से करनी चाहिए।
 तजि माया सेइय परलोका ।
  मिटहिँ सकल भव सम्भव सोका ।। 561।।
 माया को छोड़कर परलोक की सेवा करनी चाहिए, जिससे संसार से उत्पन्न सम्पूर्ण शोक मिट जायँ।
 देह धरे कर यह फलु भाई ।
    भजिअ राम सब काम बिहाई ।। 562।।
 भाइयो ! देह धारण करने का फल यह है कि सब इच्छाओं को छोड़कर रामजी की भक्ति करनी चाहिए।
 सोइ गुनज्ञ सोई बड़ भागी ।
   जो रघुबीर चरन अनुरागी ।। 563।।*
 वही सद्गुणों को जाननेवाला (गुणग्राही) तथा बड़भागी है, जो श्रीरामजी के चरणों का प्रेमी है।
 सुग्रीव की बातें सुनकर बन्दर सब दिशाओं में सीताजी की खोज में चले गए। अंगद और जाम्बवन्त आदि दक्षिण दिशा को गए। उन्होंने हनुमानजी को समुद्र लाँघकर लंका जाने की सलाह दी।


रामचरितमानस-सार सटीक
चतुर्थ सोपान-किष्किन्धाकाण्ड समाप्त

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