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द्वितीय सोपान-अयोध्याकाण्ड

जय गुरु!


दोहा-श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुर सुधारि । 
 बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायक फल चारि ।। 39।।
 (गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि) मैं गुरु के चरण- कमल की धूलि से अपने मन-रूपी दर्पण को स्वच्छ कर श्रीरामजी के पवित्र यश का वर्णन करता हूँ, जो चारो फलों (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) को देनेवाला है।
  [मन जब जिस विषय का चिन्तन करता है, तब उस पर वह (विषय) लगता है। जैसे मन के विषयों के चिन्तन में लगने के कारण ही यह कहा गया है कि-‘काई विषय मुकुर मन लागी।’ इसी तरह जब मन से गुरु-मूर्ति का चिंतन हो अथवा गुरु-रूप का मानस-ध्यान किया जावे, तो मन-रूपी दर्पण पर सहज में ‘गुरु पद रज’ लग जाएगी (क्योंकि गुरु-रूप स्वाभाविक ही चरण तथा चरण-रज-युक्त है)। चौपाई सं0 1 के नीचे के कोष्ठ में वर्णित यह आभा-रूप रज है। गुरु के प्रति अपनी अत्यन्त श्रद्धा और उनके सम्मुख अपनी अतीव दीनता प्रकट करने का एवं गुरु-ध्यान को मंगल-सिद्धि-सुबुद्धि-दायक जानकर तथा यह जानकर कि गुरु की आराधना-बिना ईश्वरीय महिमा का पता नहीं लग सकता है, गोस्वामी तुलसीदासजी ने यह दोहा लिखा।]
 अवधपुर में राजा दशरथ अपने पुत्रें के सहित बड़े आनन्द से रहने लगे। कुछ काल के बाद राजा के चित्त में अभिलाषा हुई कि श्रीरामजी को मैं अपने जीवन-काल में युवराज बना दूँ। राजा दशरथ अपने गुरु से आज्ञा लेकर श्रीरामजी को युवराज-पद पर अभिषिक्त करने के लिए सब सामग्री एकत्रित करने लगे। सम्पूर्ण नगर में यह समाचार फैल गया कि श्रीरामजी कल युवराज बनाए जाएँगे। नगरवासी अत्यन्त आनन्द में मग्न होकर कहने लगे-कल कब होगा।
 सकल कहहिँ कब होइहिँ काली ।
    बिघन मनावहिँ देव कुचाली ।। 243।।
 अवधपुर-वासी सब कोई कहते हैं कि कल कब होगा (अर्थात् राज-टीका शीघ्र हो), पर बुरी चालवाले देवगण विघ्न मनाते हैं (इसलिए कि जिसमें राम को राज-टीका न हो)।
 तिन्हहिँ सोहाइ न अवध बधावा ।
   चोरहिं चान्दिनि राति न भावा ।। 244।।
 उनको (देवताओं को) अवध का मंगल-उत्सव अच्छा नहीं लगता है, जैसे चोर को चाँदनी रात अच्छी नहीं लगती है।
 देवता लोग सरस्वती देवी को बुलाकर बहुत विनती से कहने लगे कि हे देवीजी ! आप अयोध्या में जाकर ऐसा काम कीजिए कि श्रीरामजी राज्य छोड़कर जंगल चले जावें और देवताओं का काम बने।
 ऊँच निवास नीच करतूती ।
   देखि न सकहिँ पराइ बिभूती ।। 245।।
 (देवताओं का) बास तो ऊँची जगह (स्वर्ग) में है, पर (उनकी) करनी नीच है। ये दूसरे का ऐश्वर्य देख नहीं सकते हैं।
 शारदा देवी अपने मन में देवताओं को दुष्टबुद्धि विचार कर अवधपुर गईं और रानी कैकेयी की दासी मन्थरा की बुद्धि फेरकर बिगाड़ दी। मन्थरा ने कैकेयी को बहुत प्रकार से समझाया कि श्रीराम के राजा होने से आपको बड़ा दुःख होगा। इसलिए उन्हें वनवास दिया जाए और भरत को राज्य। कैकेयी मन्थरा के भुलावे में आ गई। वह क्रुद्ध हो रूठकर कोप-घर में चली गई। रनिवास में आने पर राजा दशरथ उसे मनाने लगे। कैकेयी राजा से बोली कि आपने मुझे दो वरदान देने को कहा था, वह अब तक आपने नहीं दिया है, मुझे सन्देह हो रहा है कि आप देंगे या नहीं। राजा ने कहा-‘तुमने तो वरदान मेरे पास धरोहर रखा है, अभी तक माँगा नहीं। दो के बदले चार (वरदान) क्यों नहीं ले लेती, मुझे व्यर्थ दोष देती हो। हमारे कुल की यह रीति है कि प्राण भले ही जाएँ, पर वचन न जाने पावे।’ और-
 नहिँ असत्य सम पातक पुंजा ।
  गिरि सम होहिँ कि कोटिक गुंजा ।। 246।।
 झूठ के बराबर कोई पाप का ढेर नहीं है। क्या करोड़ों करजनी पहाड़ के समान हो सकती है ?
 सत्य मूल सब सुकृत सुहाये ।
   बेद पुरान बिदित मनु गाये ।। 247।।
 सत्य सब पुण्यों का मूल है, यह वेद और पुराण में विख्यात है और मनु ने भी कहा है।
 जब राजा दशरथ ने इस तरह कह कैकेयी को वरदान माँगने कहा, तब वह बोली कि एक वरदान तो यह दीजिए कि भरत को राजटीका मिले और दूसरा यह कि राम को चौदह वर्ष तक वन का वास मिले। यह वचन सुनकर राजा को बड़ा दुःख हुआ, पर अपना वचन टाल भी नहीं सकते थे। उन्होंने कैकेयी को बहुत समझाया, विनती की कि वह राम को वनवास देने का वरदान न माँगे। वह बोली कि हे राजाजी ! यदि आपके हृदय में ऐसी निर्बलता थी; तो आपने बार-बार ‘वर माँगो’ क्यों कहा ? और-
 दुइकि होइ एक समय भुआला ।
   हँसब ठठाइ फुलाउब गाला ।। 248।।
 हे राजा ! ठठाकर हँसना और गाल फुलाना; ये दोनों क्या एक ही समय में हो सकते हैं ?
 दानि कहाउब अरु कृपनाई ।
   होइ कि षेम कुसल रौताई ।। 249।।
 दानी कहलाना और कृपणता भी करना ? क्या शूरता में क्षेम-कुशल भी होता है ? हे राजा ! या तो अपना वचन छोड़िए या धीरज धरिए, स्त्रियों की तरह करुणा न कीजिए।
  तनु तिय तनय धाम धन धरनी ।
  सत्यसंध कहँ तृन सम बरनी ।। 250।।
शरीर, स्त्री, बेटा, घर, धन और धरती (राज्य) सत्य-प्रतिज्ञ (सच्चे पुरुष) के लिए तृण-तुल्य कहे गये हैं।
 कैकेयी के इन मर्म-भरे वचनों को सुनकर राजा ने उसे फिर बहुत-कुछ सत् विचार कहकर समझाया और अन्त में कहा कि-
 फिरि पछितैहसि अन्त अभागी ।
    मारसि गाई नाहरू लागी ।। 251।।
 हे अभागी ! गाय मारने में तुझे दुःख नहीं होता है ? फिर
अन्त में तू पछताएगी।
 दूसरे दिन रामजी को जब यह समाचार ज्ञात हुआ, तो वे पिता के सम्मुख उपस्थित हुए। पिता को मूर्छित अवस्था में देख कैकेयी से इसका कारण पूछा। उसने वरदान की बात कह सुनाई। श्रीरामजी वन जाने को तैयार हो माता कैकेयी से बोले-
 सुनु जननी सोइ सुत बड़ भागी ।
   जो पितु मातु बचन अनुरागी ।। 252।।
 हे माता ! सुनिए, वही बेटा बड़भागी है, जो माता-पिता के वचन-पालन में रत है।
 तनय मातु पितु तोषनि हारा ।
   दुर्लभ जननि सकल संसारा ।। 253।।
 हे माता ! माता-पिता को सन्तुष्ट करनेवाला बेटा सम्पूर्ण संसार में दुर्लभ है।
 मूर्च्छा दूर होने पर राजा रामजी को बारम्बार अपने हृदय से लगाने लगे। श्रीरामजी पिता को प्रेमवश जानकर बाले-‘पिताजी ! छोटी-सी बात के लिए आपने बड़ा दुःख पाया। किसी ने मुझे पहले यह बात नहीं जनाई। अब मैंने माता से सब बातें पूछकर जान ली हैं, इससे मेरा शरीर ठण्ढा हुआ। आप चित्त से प्रसन्न होकर आज्ञा दीजिए। हे पिताजी !
 धन्य जन्म जगती तल तासू ।
   पितहि प्रमोद चरित सुनि जासू ।। 254।।
 धरती पर उसका जन्म धन्य है कि जिसका चरित्र सुनकर पिता को अत्यन्त आनन्द हो।
 चारि पदारथ कर तल ताके ।
   प्रिय पितु मातु प्रान सम जाके ।। 255।।
 जिसको माता-पिता प्राण-सम प्यारे हैं, उसके लिए चारो पदार्थ मुट्ठी में हैं।
 आपकी आज्ञा पूरी कर, अपना जन्म सफल कर मैं शीघ्र ही वन से लौट आऊँगा। आप कृपा करके वन जाने की राजाज्ञा दीजिए। मैं अपनी माता से विदा माँग आता हूँ, फिर आपके चरण छूकर जंगल जाऊँगा। पिता से ऐसा कह श्रीरामजी कौशल्या के पास पहुँचे और सब समाचार सुनाकर उन्होंने उनसे वन जाने की आज्ञा ले ली। उसी समय वहाँ श्रीसीताजी भी आ पहुँची। उन्होंने राज्य सुख को छोड़कर पति के संग वन जाने की आज्ञा माँगी। अत्यन्त विनती करने पर श्रीरामजी ने उन्हें अपने संग वन चलने की आज्ञा दे दी। जब यह दुःखद समाचार लक्ष्मणजी ने पाया, तो वे भी श्रीरामजी के पास आए। श्रीरामजी ने उनको घर में रहने को कहा; पर उन्होंने बड़ी दीनता से विनती कर रामजी को विवश कर दिया। रामजी ने कहा-अपनी माता से आज्ञा लेकर मेरे साथ वन को चलो। लक्ष्मणजी ने अपनी माता सुमित्रा के पास जाकर श्रीरामजी के संग वन जाने की आज्ञा माँगी। रानी सुमित्रा बोलीं-
 गुरु पितु मातु बन्धु सुर साईं ।
    सेइअहि सकल प्रान की नाईं ।। 256।।
 गुरु, पिता, माता, भाई, देवता और स्वामी; इन सबों की सेवा प्राण के समान करनी चाहिए।
 राम प्रान प्रिय जीवन जी के ।
    स्वारथ-रहित सखा सबही के ।। 257।।
 श्रीरामजी तो प्राणों के प्रिय, जीवों के जीवन और सबके स्वार्थ-हीन मित्र हैं।
 [जीव का जीवन सहज निर्गुण स्वरूप आत्मा है।]
 पूजनीय प्रिय परम जहाँ ते ।
   सब मानिअहि राम के नाते ।। 258।।
 परम प्रिय पूजनीय जहाँ तक (जो कोई) हैं, सबको राम के ही नाते मानना चाहिए।
 [जाके प्रिय न राम वैदेही । तजिये ताहि कोटि बैरी सम यद्यपि परम सनेही ।। (विनय-पत्रिका)]
 पुत्रवती जुबती जग सोई ।
     रघुपति भगतु जासु सुत होई ।। 259।।
 संसार में पुत्रवती स्त्री वही है, जिसका पुत्र श्रीरामजी का भक्त हो।
 नतरु बाँझ भल बादि बिआनी ।
    राम बिमुख सुत तें हित जानी ।। 260।।
 राम-विमुख पुत्र से भला होना जानकर बिआना (पुत्र जनमाना) व्यर्थ है। उससे तो बाँझ ही अच्छी है।
 सकल सुकृत कर बड़ फल येहू ।
     राम सीय पद सहज सनेहू ।। 261।।
 सब पुण्यों का बड़ा फल यही है कि श्रीसीता-रामजी के चरणों में सहज स्नेह हो।
 रानी सुमित्रा जी ने ऐसे सदुपदेश अपने पुत्र लक्ष्मण को देकर श्रीरामजी के संग वन जाने की आज्ञा दे दी। लक्ष्मणजी माता को प्रणाम करके श्रीरामजी के पास पहुँचे। फिर राम, सीता और लक्ष्मण; तीनों मिलकर राजा के पास पहुँचे और उनसे विदा माँग वन को चल दिए। रामजी ने पहले दिन सन्ध्या-काल तमसा नदी के किनारे वास किया। दूसरे दिन सन्ध्या-काल में गंगाजी के किनारे शृंगवेरपुर में पहुँचकर वहाँ वास किया। वहाँ गुह निषाद ने बड़े भक्ति-भाव से उनलोगों का अच्छा आदर-सत्कार किया। श्रीसीता-राम एक वृक्ष के नीचे पत्तों की शÕया पर रात में सोए। श्रीलक्ष्मणजी उनसे कुछ दूर धनुष-वाण लिए पहरा देने को बैठे जगे रहे। स्थान-स्थान पर पहरा देने के लिए अपना आदमी नियुक्त कर गुह निषाद आप भी श्रीलक्ष्मणजी के पास बैठकर पहरा देने लगे। श्रीराम-सीता को पत्तों के बिछौने पर सोए देख गुह निषाद को बड़ा दुःख हुआ। वे इसके लिए कैकेयी को दोष देने लगे। यह सुन लक्ष्मणजी कहने लगे-
 बोले लखन मधुर मृदु बानी ।
   ज्ञान बिराग भगति रस सानी ।। 262।।
 श्रीलक्ष्मणजी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति-रस में सनी, कोमल मधुर वाणी से बोले-
 काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
  निज कृत करम भोग सुनु भ्राता ।। 263।।
 हे भाई ! सुनो, कोई किसी को सुख-दुःख का देनेवाला नहीं है, सबको अपने ही कर्मों का फल भोगना होता है।
 जोग बियोग भोग भल मन्दा ।
   हित अनहित मध्यम भ्रम फन्दा ।। 264।।
 मिलना-बिछुड़ना, भला-बुरा फल भोगना, मित्र, शत्रु और मध्यस्थ, सभी भ्रम के फन्दे हैं।
  [योग-वियोग आदि द्वैत को भ्रम कहा गया। बिना भ्रम के विविधता नहीं हो सकती है। भ्रम सत्य नहीं कहा जा सकता। इसलिए द्वैत वा विविधता भ्रम होने के कारण असत्य-नाशवान-माया वा जड़ ठहर गई। जीवात्मा को रामचरितमानस के सप्तम सोपान में ‘ईश्वर अंश जीव अविनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी ।।’ कहकर ईश्वर-अंश (ईश्वर, जिनको रामचरितमानस में अनेक स्थलों पर अखण्ड, अनन्त, अपार और असीम आदि कहकर वर्णन किया गया है), चेतन और निर्मल माना गया है। यहाँ पर अंश कहा गया है, पर इससे ऐसा न समझना चाहिए कि अंश (जीव) अखण्ड, अनन्त, अपार स्वरूप अपने अंशी से टूटकर वा खण्ड होकर भिन्न हो गया है। अंश यहाँ अंशी से उसी प्रकार सम्बन्ध रखता है, जैसे ढेव या तरंग का पानी के साथ है। तरंग अंश और पानी अंशी है। जैसे कि लोमश मुनि ने कागभुशुण्डि (जीवात्मा) को ईश्वर के साथ सम्बन्ध दिखाते हुए कहा है-‘सो तुम ताहि तोहि नहिं भेदा । बारि बीचि इव गावहिं वेदा ।।’ (रामचरितमानस, सप्तम सोपान) इस सिद्धान्त से एक दूसरा सिद्धान्त निकलता है कि जैसे जल-राशि पर की असंख्य तरंगों को तत्त्व-रूप में एकता वा अपृथक्त्व है, उसी तरह असंख्य शरीरों में स्थित जीवात्मा (शरीरी) की एकता-अपृथक्त्व है। तात्पर्य यह कि असंख्य शरीरों वा पिण्डों में एक ही परम तत्त्व-स्वरूप आत्मा है। ऊपर कहा जा चुका है कि द्वैत वा विविधता केवल भ्रम-मात्र, माया-जड़ वा असत्य है। ऐसा जान लेने पर और सब पिण्डरूप विविधताओं में एक ही आत्मा विचार-निश्चयपूर्वक विश्वास कर लेने पर, एक ही अद्वैत पदार्थ आत्मा रह जाता है। जब एक-ही-एक हो, दो होवे नहीं, तब मिलना-बिछुड़ना, भोगी-भोग्य, हित-अहित, उत्तम-निकृष्ट और मध्यम आदि का मानना असत्य, भ्रम और अयुक्त है। इसी विचार को व्यक्त करने के लिए चौ0 सं0 263 और 264 लिखी गई हैं।]
 जनम मरन जहँ लगि जग जालू ।
  सम्पति बिपति करम अरु कालू ।। 265।।
 जन्म-मृत्यु, सम्पत्ति-विपत्ति, कर्म और काल, जहाँ तक संसार के जाल हैं,
 धरनी धाम धन पुर परिवारू ।
   सरग नरक जहँ लगि ब्यवहारू ।। 266।।
 धरती, घर, धन, गाँव, परिवार, स्वर्ग और नरक का जहाँ तक व्यवहार है,
 देखिय सुनिय गुनिय मन माहीं ।
   मोह मूल परमारथ नाहीं ।। 267।।
 जो देखे, सुने और मन में विचारे जाते हैं, उन सबों का कारण अज्ञान ही है। ये परमार्थ अर्थात् तत्त्व-वस्तु (पाने के कार्य-उपाय) नहीं हैं।
 [चौ0 सं0 265, 266 और 267 में बतलाया गया है कि जन्म-मरण, सम्पत्ति-विपत्ति, कर्म, काल, धरती, घर, नगर, धन, परिवार, स्वर्ग-नरक, रूप, शब्द तथा मन के कर्म, आदि सभी माया के जाल और व्यवहार, परमार्थ-रूप नहीं हैं। ये सब केवल अज्ञानता या मोह के कारण दीख पड़ते हैं। मोह या अज्ञानता के मिट जाने पर ये नहीं दीखेंगे। और जब अज्ञानता के मिटने पर माया-जाल और व्यवहार लोप हो जाएँगे-देखने में नहीं आवेंगे, तब परमार्थ दीख पड़ेगा।]
दोहा-सपने होइ भिखारी नृप, रंक नाकपति होइ ।
   जागे लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपंच जिय जोइ ।। 40।।
 स्वप्न में राजा भिखारी और दरिद्र इन्द्र हो जाता है, पर जग जाने पर न तो राजा को कोई हानि होती है और न दरिद्र को कुछ लाभ होता है। ऐसे ही संसार को मन में (स्वप्नवत्) जानो।
 [इस दोहे का तात्पर्य यह है कि जब जीव मोह-अज्ञानता की रात में अचेत हो जाता है अर्थात् सो जाता है, तो अपने राजा-रूप स्वतंत्र आत्म-स्वरूप परमार्थ को भूल जाता है और स्वप्नवत् माया के वश में होकर अपने को तृष्णावन्त बनाकर दरिद्र हो जाता है। और कभी यही माया-मोहित दरिद्र जीव मायिक (असत्य-सम्बन्धी) पदार्थों को पाकर अपने को सुखी मानता है तथा अपने को उन पदार्थों का स्वामी मान अहंकार करके इन्द्रवत् हो जाता है। परन्तु अज्ञानता की रात जब मिट जाती है अर्थात् परमार्थ दीखने लगता है और जीव का स्वप्न छूट जाता है, तब उपर्युक्त दरिद्रता और राजत्व के हानि-लाभ कुछ नहीं रहते-सब-के-सब लुप्त हो जाते हैं। इसी तरह अज्ञानता के मिट जाने पर सम्पूर्ण संसार लुप्त हो जाता है और प्रपंच-द्वैत संसार से लुप्त होने पर दुःख-सुख, दुःखदायी-सुखदायी आदि भेद कुछ सत्य नहीं हो सकते।]
 अस बिचारि नहिं कीजिय रोषू ।
   काहुहि बादि न देइय दोषू ।। 268।।
 ऐसा विचारकर क्रोध न कीजिए और किसी को व्यर्थ ही दोष न दीजिए।
 मोह निसा सब सोवनिहारा ।
    देखिय सपन अनेक प्रकारा ।। 269।।
 अज्ञान की रात में सभी सोनेवाले अनेक प्रकार के स्वप्न देखते हैं।
 यहि जग जामिनि जागहिं जोगी ।
   परमारथी प्रपंच बियोगी ।। 270।।
 माया-त्यागी, सार तत्त्वदर्शी योगी जन इस संसार-रूप रात में जगते हैं।
 [कोई केवल घर छोड़ वैरागी बनने से माया-त्यागी नहीं हो सकता है। योगाभ्यास-द्वारा माया के स्वर्ग और मृत्युलोक आदि सब मण्डलों को पार करके ऊपर पहुँचने पर माया-त्यागी बन सकता है। योगों में केवल भक्ति-योग, जिसकी विशेषता सम्पूर्ण
रामचरितमानस में कही गई है, सुख-साध्य है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति; इन्हीं तीन अवस्थाओं में साधारणतया सभी रहते हैं और जग-यामिनी में सोते हुए संसार-व्यवहार का स्वप्न देखते हैं। इन तीन अवस्थाओं को त्यागकर जो चौथी अवस्था-तुरीय अवस्था में जाते हैं, वे योगी होते हैं। चौथी अवस्था में जाने को ही जगना कहते हैं। इसी जागरण में विषय-विलास से विरक्ति होती है। इस अवस्था में रहकर भजन करना बड़ा उत्कृष्ट है। इसलिए ‘विनय-पत्रिका’ में गो0 तुलसीदासजी ने कहा है-‘तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त।]
 जानिय तबहिँ जीव जग जागा ।
  जब सब बिषय बिलास बिरागा ।। 271।।
 संसार में जीव को तभी सचेत जानिए, जब उसका चित्त विषय के सब आनन्दों से हट जाए।
 होइ बिबेक मोह भ्रम भागा ।
   तब रघुनाथ चरन अनुरागा ।। 272।।
 जब सारासार वा आत्म-अनात्म का विचार होकर अज्ञान-भ्रम दूर हो जाता है, तब श्रीरामजी के चरणों में प्रेम उपजता है।
 [विवेक-सार-असार वा आत्म-अनात्म का विचार। इसका वर्णन चौ0 सं0 264 से 267 तक में है। चौ0 267 के अर्थ के नीचे कोष्ठ के वर्णन को पढ़िए। उसमें रूप आदि जो पदार्थ मोह के कारण दरसनेवाले बताए गए हैं, उन्हें ही माया-असार-अनात्म जानना चाहिए। इनको छोड़ जो रूप आदि-रहित परमार्थ वा तत्त्व-वस्तु बची रहती है, उसी को अमाया-सार वा आत्म-तत्त्व जानना चाहिए। विवेक होने पर शरीर माया-रूप रघुनाथ असार वा अनात्म-रूप ठहरता है, पर उसी (माया-रूप रघुनाथ) में व्यापक आत्म-स्वरूपी अमायिक रूप रघुनाथ ही सार ठहरता है। चौ0 सं0 272 में वर्णन हुआ है कि मोह-भ्रम के भागने और विवेक होने पर रघुनाथजी के चरणों में प्रेम उपजेगा। इससे प्रकट होता है कि विवेक होने पर परमार्थ रूप, अमायिक, अरूप तत्त्व-वस्तु का विचार में सार तत्त्व कहकर ग्रहण होता है, उसी (तत्त्व-वस्तु) को यहाँ पर रघुनाथ कहा गया है। चौ0 सं0 147 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में देखिए-वहाँ वर्णन है कि माया-रहित आत्म-स्वरूपी राम को रघुनाथ, रघुवर आदि नामों से पुकारना युक्ति-युक्त है।]
 सखा परम परमारथ येहू ।
  मन क्रम बचन राम पद नेहू ।। 273।।
 हे मित्र ! सर्वोत्तम परमार्थ यही है कि मन, वचन और कर्म से राम के चरणों में प्रेम हो।
 राम ब्रह्म परमारथ रूपा ।
    अविगत अलख अनादि अनूपा ।। 274।।
 राम ब्रह्म, परमार्थ-स्वरूप, सर्वव्यापक, अलख (रूप-रहित), आदि-रहित और उपमा-रहित हैं।
 सकल बिकार रहित गत भेदा ।
    कहि नित नेति निरूपहिँ वेदा ।। 275।।
 वे सब दोषों से हीन और भेद-रहित (अद्वैत) हैं, जिनको वेद सदा इति नहीं, इति नहीं कहकर वर्णन करते हैं।
 [चौ0 सं0 274 और 275 में राम के नर-रूप का नहीं, बल्कि (उनके) सहज निर्गुण आत्म-स्वरूप का वर्णन है, जो माया-कृत नर-रूप में व्यापक है। नर वा देव कोई भी रूप मायाकृत असत्य, विनाशी, आदि-अन्त-सहित होने के कारण उन गुणों को धारण करनेवाला कदापि नहीं हो सकता, जो इन चौपाइयों में वर्णित हैं।]
दोहा-भगत भूमि भूसुर सुरभि, सुरहित लागी कृपाल ।
 करत चरित धरि मनुज तनु, सुनत मिटहिँ जग जाल ।। 41।।
 कृपालु हरि भगवान भक्त, धरती, ब्राह्मणों गौओं और देवताओं के कल्याण के लिए मनुष्य-शरीर धारण कर चरित्र करते हैं, जिसको सुनकर संसार के जाल (बन्धन) मिट जाते हैं।
 श्रीलक्ष्मणजी और निषाद का यह संवाद होते-होते प्रातःकाल हो गया। श्रीरामजी सोकर उठे। सुमन्त मंत्री ने (जो श्रीराम को अयोध्या से रथ पर वन तक लाये थे) श्रीरामजी से अयोध्या लौट चलने की प्रार्थना की। श्रीराम बोले-
 सिवि दधीचि हरिचन्द नरेसा ।
    सहे धरम हित कोटि कलेसा ।। 276।।*
 राजा शिवि, ऋषि दधीचि और राजा हरिश्चन्द्र ने धर्म के लिए, करोड़ों (अनगिनत) कष्ट सहे।
 रन्ति देव बलि भूप सुजाना ।
   धरम धरेउ सहि संकट नाना ।। 277।।*
 रन्तिदेव और बलि जैसे बुद्धिमान राजा अनेक संकटों को सहकर भी धर्म को पकड़े रहे।
 धरम न दूसर सत्य समाना ।
   आगम निगम पुरान बखाना ।। 278।।*
 वेद, शास्त्र और पुराण वर्णन करते हैं कि सत्य के समान दूसरा धर्म नहीं है। [आगम = शास्त्र, निगम = वेद]
 मैं सोइ धरम सुलभ करि पावा ।
   तजे तिहूँ पुर अपजस छावा ।। 279।।*
 मैंने उस धर्म को सहज ही पा लिया है। इस (सत्यरूप) धर्म का परित्याग करने से तीनों लोकों में अपयश-दुर्नाम छा जाएगा।
  सम्भावित कहँ अपजस लाहू ।
   मरन कोटि सम दारुन दाहू ।। 280।।*
 सम्मानित व्यक्ति को अपयश मिलना करोड़ों मृत्यु के समान कठिन ताप उत्पन्न करनेवाला है।
 इस प्रकार श्रीरामजी ने बहुत उपदेश देकर सुमन्त को रथ-समेत अवध को लौटा दिया। इसके पश्चात् आप भाई और पत्नी-सहित गंगाजी के किनारे आकर केवट-पति निषाद से पार उतरने के लिए नाव माँगने लगे।
 निषाद ने हाथ जोड़कर कहा कि जबतक मैं आपका पाँव नहीं धो लूँगा, तबतक नाव पर चढ़ने न दूँगा, चाहे लक्ष्मण मुझे वाण से भले ही मारें; क्योंकि लोग कहते हैं कि आपके चरणों की धूलि में मनुष्य बनानेवाली बूटी है। इसको छूते ही पत्थर की चट्टान स्त्री हो गई। यदि मेरी नाव भी स्त्री हो जावे, तो मेरी जीविका ही चली जाएगी। मेरे बाल-बच्चे भूखों मरने लगेंगे। निषाद का प्रेम-भरा अटपट वचन सुनकर श्रीरामजी ने हँसकर निषाद को शीघ्र पाँव धोने की आज्ञा दे दी।
 बेगि आनु जल पाय पखारू ।
  होय विलम्ब उतारहि पारू ।। 281।।*
 शीघ्र जल लावें और पाँव पखार लें देर हो रही है, पार उतार दें।
 जासु नाम सुमिरत एक बारा ।
    उतरहिँ नर भव-सिन्धु अपारा ।। 282।।*
 जिनका नाम एकबार स्मरण करने से मनुष्य अपार भवसागर को पार कर जाता है।
 सोइ कृपाल केवटहि निहोरा ।
  जेहि जग किय तिहु पगहु ते थोरा ।। 283।।*
 जिन्होंने (वामन अवतार में) जगत को तीन पग से भी छोटा कर दिया था, वे ही कृपालु श्रीरामजी गंगाजी के (पार उतारने के लिए) केवट का निहोरा कर रहे हैं।
 [विष्णु भगवान ने वामन अवतार धरकर राजा बलि से तीन पग धरती का दान माँगा था और विराट रूप होकर दो ही पग में सारा ब्रह्माण्ड नाप लिया। तब बलि ने तीसरे पग में अपनी पीठ नपवा ली। इसी कथा के सम्बन्ध में ‘जेहि जग किय तिहुँ पगहुँ ते थोरा’ पद लिखा गया है। यहाँ भी स्पष्ट प्रकट होता है कि श्रीराम विष्णु ही के अवतार थे।]
 गुह नामी निषाद ने श्रीरामजी का चरण धो, चरणामृत पान कर अपने परिवार को भी पान कराया। फिर श्रीरामजी को नाव पर चढ़ा गंगा के दूसरे पार में उतार दिया। वहाँ से चलकर भाई और स्त्री के सहित श्रीरामजी प्रयाग में भारद्वाजजी के आश्रम में पहुँचे। एक रात विश्राम कर वहाँ से चल यमुना नदी पार करके वाल्मीकिजी के आश्रम में पहुँचे। रात को विश्राम कर वहाँ से चलते समय श्रीरामजी ने वाल्मीकिजी से बड़ी नम्रता के साथ कहा कि आप कोई अच्छा स्थान मुझे बताइए, जहाँ मैं कुछ काल कुटी बनाकर ठहरूँ। वाल्मीकिजी कहने लगे-
सोरठा-राम स्वरूप तुम्हार, बचन अगोचर बुद्धि पर ।
           अबिगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।। 42।।
 हे रामजी ! आपका स्वरूप वचन से कहने योग्य नहीं, बुद्धि से परे, सर्वव्यापक, नहीं कहने योग्य और अपार है, जिसके लिए वेद इति नहीं-अन्त नहीं कहते हैं।
 [नर-रूप राम वाल्मीकिजी के सम्मुख ही उपस्थित हैं। नर-रूप को ही अकथ, अपार, अविगत, अगोचर और बुद्धि-पर कहना, मानो मन-मोदक खाकर भूख मिटाना है। उक्त विशेषणों से नररूप की महिमा नहीं प्रकट की जाती है। सहज निर्गुण आत्म-स्वरूप, जो उस नर-रूप में व्यापक है, राम का यथार्थ स्वरूप है। नर-रूप तो राम की केवल माया-मात्र है।]
 जगपेखनु तुम देखनिहारे ।
    बिधि हरि सम्भु नचावनिहारे ।। 284।।
 संसार दृश्य (तमाशा) और आप उसको देखनेवाले तथा ब्रह्मा, विष्णु और महादेव को नचानेवाले हैं।
 [ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप माया-सम्बन्धी हैं। इन (रूपों में) अकथ, अपार, अविगत, अगोचर, बुद्धि-पर, सहज निर्गुण आत्म-स्वरूप व्यापक है। इसी आत्म-रूप की सत्ता पर सब मायिक रूप भासमान होते और नाचते हैं अर्थात् सब कृत्य करते हैं। (चौ0 सं0 181, 182, 183 और 184 तथा दो0 सं0 27 को अर्थ सहित 184 सं0 की चौ0 के अर्थ के नीचे कोष्ठ का वर्णन पढ़िए।) यद्यपि वाल्मीकिजी के सम्मुख नर-रूप रामजी उपस्थित हैं, तथापि राम-स्वरूप वर्णन करने से व्यक्त होता है कि ‘जोगिन्ह परम तत्त्व मय भासा’ के अनुसार वे उनका नर-रूप ही नहीं देखते हैं, बल्कि नर-रूप में व्यापक परम तत्त्व-रूप देखते हैं। जैसा कि दो0 सं0 42 में वर्णित है। चौ0 सं0 284 में भी उसी परम तत्त्व स्वरूप को सम्बोधन किया गया है, न कि मायाकृत नर-रूप को। मायाकृत नर-रूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश को नचानेवाला और जगत-रूप दृश्य को देखनेवाला कदापि नहीं हो सकता है। नर-रूप तो स्वयं ही जगत-रूप दृश्य का अंश-मात्र कहा जा सकता है। दृश्यांश (राम का नर-शरीर-माया) ही अपने अंशी (जगत-माया) को अर्थात् सम्पूर्ण दृश्य को देखे, यह कब सम्भव है ? फिर रूप तो माया-अचेतन है, उसमें देखने आदि की क्रिया नहीं होती है। स्मरण रहे कि रूप और आत्म-तत्त्व भिन्न-भिन्न हैं। आत्म-तत्त्व राम का निज स्वरूप है और रूप (नर, देवता या अन्य कोई विलक्षण रूप ही क्यों न हो) उसकी (राम की) माया-मात्र है। इसलिए राम का मायिक रूप ‘जग पेखन का देखनेवाला तथा ब्रह्मा, विष्णु और महेश को नचानेवाला’ नहीं है। बल्कि इन क्रियाओं का करनेवाला दोहा सं0 42 में वर्णित राम का स्वरूप ही है। यह कई स्थलों पर सिद्ध हुआ है कि क्षीर-शायी विष्णु भगवान के अवतार इस कल्प में (जिस कल्प की कथा गो0 तुलसीदासजी ने क्रम से वर्णन की है) श्रीराम थे। तब तो यही कहना पड़ा कि विष्णु ही विष्णु को नचाते हैं। यह सुनने में असंगत भले ही मालूम हो, पर यथार्थ यह है कि श्रीराम के मायाकृत नर-रूप में जो व्यापक आत्मतत्त्व वा राम का निज रूप है, वही देवाकृति मायिक रूप विष्णु-शरीर में भी व्यापक है, जिसकी सत्यता से जड़ मायिक रूप विष्णु-शरीर भासता और नाचता है अर्थात् कृत्य करता हुआ भासता है। जिस प्रकार चौ0 सं0 147 के अर्थ के नीचे (पाद-टीका में) सहज निर्गुण आत्म-तत्त्व को बाल-रूप राम वा रघुनाथ आदि कहना युक्ति-युक्त बतलाया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी विष्णु-शरीर में व्यापक आत्मतत्त्व को भी विष्णु नाम से पुकारना युक्ति-युक्त है।]
 तेउ न जानहिं मरम तुम्हारा ।
   अउर तुम्हहिँ को जाननिहारा ।। 285।।
 वे (त्रिदेव) भी आपके भेद को नहीं जानते हैं, फिर दूसरा कौन जाननेवाला है ?
 [इस चौ0 से प्रकट होता है कि दो0 सं0 42 वर्णित राम-स्वरूप को ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी नहीं जानते हैं, अतएव ये लोग भी पूर्ण ज्ञानी नहीं हैं और इस कारण ये भी मुक्तरूप नहीं माने जाएँगे। श्रीमद्भागवत, स्कन्ध 10, अध्याय 61 में भी यह वर्णन है कि-ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता भी भगवान के वास्तविक स्वरूप को या उनकी प्राप्ति के मार्ग को नहीं जानते।’-भागवतांक, पृ0 843।]
 सोइ जानइ जेहि देहु जनाई ।
    जानत तुम्हहिँ तुम्हइ होइ जाई ।। 286।।
 (आपको) वही जानता है, जिसको आप जना देते हैं। फिर आपको जानते ही वे आपसे निर्भेद हो जाते हैं।
 [इस चौ0 से प्रकट होता है कि सहज निर्गुण आत्म-स्वरूप राम ने अपने स्वरूप का ज्ञान करा देने की कृपा ब्रह्मा, विष्णु और महेश पर नहीं की है। और परम भक्त जीव, राम को जानकर राम ही हो जाता है अर्थात् जीव और ब्रह्म (राम) का भेद मिटकर केवल ब्रह्म-रूप ही रह जाता है।]
 तुम्हरिहि कृपा तुम्हहिँ रघुनन्दन ।
   जानहिँ भगत भगत उर चन्दन ।। 287।।
 हे भक्तों के हृदय के चन्दन रघुनन्दन (राम) ! आपही की कृपा से भक्तजन आपको जानते हैं।
 [इस चौ0 से यह प्रकट होता है कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश उतने बड़े भक्त न थे कि राम उनको अपना स्वरूप जना देने की कृपा करते; क्योंकि चौ0 सं0 285 में कहा गया है कि त्रिदेव राम-स्वरूप को नहीं जानते हैं। और चौ0 सं0 286 में कहा गया है कि राम भक्तों को अपना स्वरूप जना देते हैं।]
 चिदानन्द मय देह तुम्हारी ।
    बिगत बिकार जान अधिकारी ।। 288।।
 आपका शरीर चैतन्यमय और आनन्दमय है, जिसको विकार-रहित (शुद्ध अन्तःकरणवाले) अधिकारी जानते हैं।
 [इस चौ0 से यह प्रकट होता है कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश, जो राम के चिदानन्दमय शरीर वा आत्म-स्वरूप को नहीं जानते हैं, विकार-हीन अधिकारी नहीं हैं।]
 नर तन धरेउ सन्त सुर काजा ।
    कहहु करहु जस प्राकृत राजा ।। 289।।
 (आपने) सन्तों और देवताओं के काम के लिए मनुष्य-देह धारण की है और इसी से साधारण राजा (नर राजा) की तरह आप कहते और करते हैं।
दोहा-पूँछेहु मोहि कि रहउँ कहँ, मैं पूछत सकुचाउँ ।
       जहँ न होहु तहँ देहु कहि, तुम्हहिं देखावउँ ठाउँ ।। 43।।
 वाल्मीकिजी कहते हैं-हे राम ! आप मुझे पूछते हैं कि मैं कहाँ रहूँ ? किन्तु मैं पूछने में सकुचाता हूँ कि जहाँ आप नहीं हैं, वह स्थान कह दीजिए, तो मैं आपको रहने का स्थान दिखाऊँ।
 [तात्पर्य यह कि राम अपने स्वरूप से सर्वव्यापक हैं।]
 फिर वाल्मीकिजी प्रेम-भरी मधुर वाणी से बोले कि हे रामजी ! अब मैं आपका निवास-स्थान बतलाता हूँ, आप सुनिए-
 जिन्हके स्त्रवन समुद्र समाना ।
   कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना ।। 290।।
 भरहिं निरन्तर होहिं न पूरे ।
   तिनके हिय तुम्ह कहँ गृह रूरे ।। 291।।
 जिनके कान समुद्र के समान हैं, जिसे आपकी कथा-रूप अनेक नदियाँ भरती हैं, पर वे (कान-रूपी समुद्र) पूरे नहीं होते, उनका हृदय आपके लिए सुन्दर घर है।
  [चौ0 सं0 290 और 291 का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार बहती हुई नदियाँ समुद्र को अपनी अभंग धारा से भरती रहती हैं, उसी तरह जो भक्तजन राम की कथा की अभंग धारा को सुनते रहें, सुनने से कभी न अघावें, उनका हृदय राम का सुन्दर घर है। कोई वक्ता वा श्रोता कथा की अभंग धारा कह वा सुन नहीं सकता है; क्योंकि स्नान, खान-पान आदि नित्य कर्म, अनेकों गृह-कार्य, स्वप्न, सुषुप्ति आदि अवस्थाओं और शब्दों तथा वाक्यों के जोड़-तोड़ आदि के कारण वक्ता-श्रोता को इस काम में बाधाएँ होंगी। इसलिए कहना पड़ता है कि केवल ईश्वर-स्वरूप-निरूपण या ब्रह्म-विचार वा त्रिदेव आदि देवताओं का यश वा भगवान के अवतारों की लीला और भक्तों के सदाचरणों आदि की कथाओं के सुनने की ओर इन दोनों चौपाइयों के द्वारा कवि संकेत नहीं करते हैं, बल्कि उस शब्द को सुनने की ओर संकेत करते हैं, जिसका वर्णन चौ0 सं0 79 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में ध्वन्यात्मक रामनाम वा सारशब्द आदि कहकर किया गया है। भजन-अभ्यास के द्वारा तुरीय अवस्था को प्राप्त कर ब्रह्माण्ड के भीतर इस सारशब्द, ध्वन्यात्मक राम-नाम की अभंग धार को अभ्यासी सुरत की कान से सुन सकता है, जो अभ्यासी तुरीय अवस्था को पूर्ण रीति से प्राप्त कर सकता है, उसको स्वप्न, सुषुप्ति आदि अवस्था-भेद वा नित्य कर्म वा गृह-कर्म आदि कोई भी व्यवहार उस अभंग धार को अभंग रूप से सुनने में कुछ भी बाधा नहीं पहुँचा सकते हैं। ‘सोवत जागत ऊठत बैठत टुक बिहीन नहिं तारा । झिन झिन जंतर निस दिन बाजे, जम जालिम पचिहारा ।’ (सन्त दरिया साहब, बिहार-वाले)।
 जीव जब जाग्रत से स्वप्न-अवस्था में आता है, तो उसकी जाग्रत अवस्थावाली चेतन-वृत्ति बदलकर दूसरी दशा में हो जाती है। फिर जब वह स्वप्नावस्था से छूटकर सुषुप्ति-अवस्था में आता है, तो उसकी चेतन-वृत्ति जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं की वृत्ति से बदलकर तीसरी दशा में प्राप्त होती है। ये स्वभाव से ही सबको नित्य प्राप्त होती रहती हैं। सब-के-सब इनके विषय में जानते हैं। इन तीनों अवस्थाओं को टपकर ‘तुरीय’ नाम की चौथी अवस्था है, जो भक्तिमान अभ्यासी को प्राप्त होती है, जिसमें जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की भिन्न-भिन्न दशाएँ बदलकर चौथी एक विलक्षण दशा प्राप्त होती है। जैसे जो कोई स्वप्न-अवस्था को प्राप्त नहीं हुआ है, तो वह उस अवस्था में प्राप्त होनेवाली दशा का कुछ ज्ञान नहीं रखता है, उसी तरह जो तुरीय अवस्था को कभी प्राप्त नहीं कर सका है, उसे उस अवस्था में प्राप्त होनेवाली दशा का कुछ ज्ञान नहीं हो सकता है। वह तुरीय अवस्था ही है, जिसमें योगी भक्तजन निद्रा छोड़कर सो जाते हैं अर्थात् निद्रा की अवस्था को त्यागकर स्थूल बाहरी जगत से बेसुध हो जाते हैं और सूक्ष्म अन्तर्जगत में सचेत रहते हैं। इसी दशा का वर्णन गो0 तुलसीदासजी अपनी ‘विनय-पत्रिका’ में इस तरह करते हैं-‘सकल दृश्य निज उदर मेलि सोवइ निद्रा तजि योगी । सोइ हरि-पद अनुभवइ परम सुख अतिशय द्वैत वियोगी ।।’ परम भक्त योगीजन भगवत्-भजन के तार को कभी टूटने नहीं देते। चाहे वे जाग्रत वा स्वप्न-अवस्था में किसी आवश्यक तथा स्वाभाविक काम को करते हों, फिर भी सारशब्द की अभंग धार को पकड़े रहते हैं अर्थात् सुरत वा चेतन-वृत्ति से सुनते रहते हैं। जिस तरह कोई संगीत-प्रेमी किसी गानेवाले के स्वर को भली भाँति पहचानता हो, तो वह उसके स्वर को उस दशा में भी पहचानता और सुनता रहेगा, जबकि वह गायक अन्य बहुत-से गानेवालों के साथ मिलकर गाता रहेगा। ऐसे परम भक्त योगीजन अपनी सुरत को सुषुप्ति-अवस्था में कभी नहीं करते, बल्कि इस अवस्था में केवल मस्तिष्क आदि स्थूल भागों को आराम में छोड़कर और चेतन-वृत्ति को उससे आगे बढ़ाकर तुरीय अवस्था में रखते और ध्वन्यात्मक राम-नाम को अभंग रूप से सुरत की कान से सुनते रहते हैं। यहाँ पर ऐसा समझना भूल है कि सुरत को निरन्तर काम में लगाए रखने से वह निर्बल होकर रोगी हो जाएगी; क्योंकि सुरत जितने ऊँचे चढ़ती है, उतनी ही विशेष बलवती और निर्मल होती है। काम में लगे रहने से स्नायु- सम्बन्धी मस्तिष्क आदि रोगी हो सकता है, पर सुषुप्ति-अवस्था में उसको आराम मिलने में कोई बाधा नहीं होने पाती। इस तरह सुरत-शब्द-योग (नादानुसन्धान)-अभ्यास निर्विघ्नता-पूर्वक निरन्तर कर सकना सम्भव है।
 ‘कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना’ से प्रकट होता है कि बहुत तरह की कथाओं को निरन्तर सुनना चाहिए। सुरत-शब्द-योग के अभ्यासी को साधन के आरम्भ में अनेक प्रकार की ध्वनियाँ सुनने में आती हैं, पर सद्गुरु के कृपापात्र सद्गुरु के बताए संकेत से उन ध्वनियों में से ध्वन्यात्मक राम-नाम की अभंग धार को परखकर चुन लेते हैं और अन्य सब ध्वनियों को सुनते हुए भी उस (ध्वन्यात्मक राम-नाम की अभंग धार) में सुरत को उसी तरह लगाए रख सकते हैं, जिस तरह ऊपर के दिए दृष्टान्त में परिचित गायक के स्वर को पहचाननेवाला उसके स्वर को अन्य बहुत-से गायकों के मिले हुए स्वरों में से चुनकर उसमें अपनी सुरत को लगाकर रख सकता है।]
 लोचन चातक जिन्ह करि राखे ।
     रहहिँ दरस जलधर अभिलाखे ।। 292।।
 जो अपनी आँखों को चातक बनाकर दर्शन की अभिलाषा से मेघ में लगाये रखते हैं।
 निदरहिँ सरित सिन्धु सर भारी ।
    रूप बिन्दु जल होहिं सुखारी ।। 293।।
 (और) भारी तालाब, नदी तथा समुद्र का निरादर करके विन्दु-रूप जल से सुखी रहते हैं।
 तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक ।
   बसहु बन्धु सिय सह रघुनायक ।। 294।।
 हे रघुनायक ! उनके सुख देनेवाले हृदय-मन्दिर में आप भाई और सीताजी के सहित रहिए।
 [इन तीनों (चौ0 सं0 292, 293 और 294) में दृष्टि- साधन का भेद खोलकर बतलाया गया है। पपीहा स्वाति-जल के लिए बड़ी-बड़ी नदियों, तालाबों और समुद्रों का निरादर कर मेघ को एकटक से (टकटकी लगाकर) देखता रहता है और उसे (स्वाति-जल को) देख लेने पर परम प्रसन्नता से ग्रहण करता है। उसी तरह भक्ति-योग का साधक अपने हृदय-आकाश के अन्धकार- रूप बादल में एकटक से टकटकी लगाकर देखता रहता है अर्थात् दृष्टि-साधन करता रहता है और नदी आदि बड़े-बड़े जलाशय-रूपी बड़े-बड़े दृश्यों (रूपों) को निरादर करके, उन्हें नहीं देखता है, पर विन्दु-रूप को देखकर परम प्रसन्नता से दृढ़तापूर्वक धारण करता है; ऐसे साधक का हृदय राम के लिए सुखदायक घर है। वाल्मीकिजी रामजी को इसी घर में रहने कहते हैं। इसी विन्दु-ध्यान को मनुस्मृति के अध्याय 12, श्लोक 122[, में अणु-से-अणु स्वरूप परमात्मा का ध्यान कहा गया है। इन बातों का विशेष वर्णन चौ0 सं0 5 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में दिया गया है।]
दोहा-जस तुम्हार मानस बिमल, हंसिनि जीहा जासु ।
 मुकताहल गुन गन चुनइ, राम बसहु हिय तासु ।। 44।।
 हे रामजी ! आपके निर्मल यश-रूपी मान-सरोवर में जिसकी जिह्वा रूपिणी हंसिनी गुणरूपी मोतियों को चुनती है, उसके हृदय में आप निवास कीजिए।
 [तात्पर्य यह कि जो राम के गुणों को चुन-चुनकर अपनी जिह्वा से वर्णन करते हैं, उनके हृदय में राम का घर है।]
 प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा ।
  सादर जासु लहइ नित नासा ।। 295।।
 पवित्र, सुन्दर और सुवास-युक्त आपके प्रसाद को जिसकी नासिका सदा आदर-पूर्वक ग्रहण करती है,
 तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं ।
  प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं ।। 296।।
 जो आपको अर्पण करके भोजन करते हैं और प्रभु के प्रसाद-रूप वस्त्र और भूषण पहनते हैं,
 सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी ।
  प्रीति सहित करि बिनय बिसेखी ।। 297।।
 जो देवता, गुरु और द्विज को देखकर प्रीति के सहित विशेष विनय करके प्रणाम करते हैं,
 कर नित करहिं राम पद पूजा ।
   राम भरोस हृदय नहिं दूजा ।। 298।।
 जिनके हाथ नित्य राम के चरणों की पूजा करते हैं और हृदय में राम को छोड़कर दूसरे का भरोसा नहीं रखते हैं,
 चरन राम तीरथ चलि जाहीं ।
   राम बसहु तिनके मन माहीं ।। 299।।
 जिसके चरण चलकर राम-तीर्थों में जाते हैं, हे रामजी ! आप उनके मन में बसिए।
 तरपन होम करहिं बिधि नाना ।
  बिप्र जेबाइ देहिं बहु दाना ।। 300।।
 जो बहुत तरह से तर्पण और होम करते हैं और विप्र को भोजन कराकर बहुत दान देते हैं,
  तुम्हतें अधिक गुरुहिं जिय जानी ।
   सकल भाय सेवहिं सनमानी ।। 301।।
 जो अपने मन में गरु को आपसे विशेष जानकर सब तरह से सम्मान कर सेवा करते हैं,
दोहा-सब करि माँगहि एक फल, राम चरन रति होउ ।
        तिन्ह के मन-मन्दिर बसहु, सिय रघुनन्दन दोउ ।। 45।।
 जो सब करके एक ही फल माँगते हैं कि राम के चरणों में प्रीति हो, हे रामजी ! उनके मन-रूपी मन्दिर में सीताजी और लक्ष्मणजी के साथ बसिए।
 काम कोह मद मान न मोहा ।
   लोभ न छोभ न राग न द्रोहा ।। 302।।
 जिसको काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह नहीं है, न तो लोभ, न घबड़ाहट, न प्रीति और न शत्रुता है,
 जिन कहँ कपट दम्भ नहिं माया ।
  तिन्हके हृदय बसहु रघुराया ।। 303।।
 जिनको कपट, धूर्तता और छल नहीं है, हे रामजी ! आप उनके हृदय में निवास कीजिए।
 सब के प्रिय सब के हितकारी ।
  दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी ।। 304।।
 जो सबके प्यारे, सबके हितकारी हैं, जिनको दुःख-सुख, बड़ाई और गाली बराबर है,
 कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी ।
  जागत सोवत सरन तुम्हारी ।। 305।।
 जो सत्य और प्रिय वचन विचारकर कहते हैं, जागते-सोते आपकी शरण में रहते हैं,
 तुम्हहिं छाड़ि गति दूसरि नाहीं ।
     राम बसहु तिन्हके मन माहीं ।। 306।।
 जिनको आपको छोड़कर दूसरा सहारा नहीं है, हे रामजी ! आप उनके मन में बसिए।
 जननी सम जानहिँ पर नारी ।
    धन पराव बिष तें बिष भारी ।। 307।।
 जो पर-स्त्री को माता के समान जानते हैं, दूसरे के धन को विष से भी बड़ा विष जानते हैं,
 जो हरषहिँ पर सम्पति देखी ।
  दुखित होहिँ पर बिपति बिसेखी ।। 308।।
 जो दूसरे की सम्पत्ति देखकर प्रसन्न होते हैं, दूसरे की विपत्ति देखकर विशेष दुःखी होते हैं,
 जिन्हहिँ राम तुम प्रान पियारे ।
   तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे ।। 309।।
  और हे राम ! जिनको आप प्राण के तुल्य प्रिय हैं, उनका मन आपके लिए योग्य घर है।
दोहा-स्वामि सखा पितु मातु गुरु, जिन्ह के सब तुम तात ।
 मन मन्दिर तिन्ह के बसहु, सिय सहित दोउ भ्रात ।। 46।।
 हे तात ! जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु; सब आप ही हैं; उनके मन-रूपी मन्दिर में सीता-सहित आप दोनों भाई निवास कीजिए।
 अवगुन तजि सब के गुन गहहीँ ।
   बिप्र धेनु हित संकट सहहीं ।। 310।।
 जो अवगुण छोड़कर सबके गुणों को ग्रहण करते हैं, विप्र और गऊ के लिए संकट सहते हैं,
 नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका ।
  घर तुम्हार तिन्ह कर मन नीका ।। 311।।
 नीति में निपुण होने के लिए जिनकी संसार में मर्यादा है, उनका मन आपका सुन्दर घर है।
 गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा ।
   जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा ।। 312।।
 जो गुणों को आपका और दोषों को अपना समझते हैं, जिनको सब तरह से आप ही का भरोसा है,
 राम भगत प्रिय लागहिं जेही ।
   तेहि उर बसहु सहित बैदेही ।। 313।।
 राम के भक्त जिनको प्रिय लगते हैं, उनके हृदय में आप सीताजी के सहित बसिए।
 जाति पाँति धन धरम बड़ाई ।
   प्रिय परिवार सदन सुखदायी ।। 314।।
 सब तजि तुम्हहिं रहइ लउ लाई ।
    तेहि के हृदय रहहु रघुराई ।। 315।।
 जो जाति-पाँति, धन और धर्म की बड़ाई, प्रिय-परिवार और सुखदायी घर; सबको छोड़कर आप ही में मन लगाए रहते हैं, हे रघुराज ! उनके हृदय में बसिए।
 सरग नरक अपवरग समाना ।
   जहँ तहँ देख धरे धनु बाना ।। 316।।
 जिनके लिए स्वर्ग, नरक और मोक्ष बराबर है और जो जहाँ-तहाँ (प्रत्येक स्थान में) धनुष-वाण लिए देखते हैं।
 [चौ0 सं0 316 में जीवन्मुक्त पुरुष-जो समता प्राप्त करके विज्ञान तथा शम, यम और नियम को धारण किए रहते हैं, का वर्णन है, समता प्राप्त हो जाने पर जीवन्मुक्त पुरुष को सुख-दुःख, बन्धन-मोक्ष, स्वर्ग-नरक और अपवर्ग आदि का भेद-ज्ञान कुछ नहीं रहता है। उनको सब प्रपंच सहज निर्गुण, असीम रूप-राम-स्वरूप ही हो जाता है। ऐसे पुरुष जहाँ कहीं देखते हैं, वर-विज्ञान-रूप धनुष और शम-यम-नियम-रूप वाणों को धारण किए ही देखते हैं। ऐसे धनुष और वाणों का वर्णन षष्ट सोपान-लंकाकाण्ड में इस भाँति किया गया है-‘बर बिज्ञान कठिन कोदण्डा’ और ‘सम यम नियम सिलीमुख नाना’। ‘सरग नरक अपवर्ग समाना’ में अभेद ज्ञान अथवा समता-ज्ञान पूर्ण रूप से प्रकट होता है। फिर उत्तरकाण्ड में ‘बिनु बिज्ञान कि समता आवै’ कहकर कवि ने साफ प्रकट कर दिया है कि विज्ञान के बिना समता प्राप्त हो नहीं सकती है। इसलिए यहाँ पर विज्ञान-रूप धनुष माने बिना काम नहीं चल सकता है, फिर जहाँ पर ऐसा धनुष होगा, वहाँ उसके योग्य शम-यम-नियम को तीर मानना योग्य ही है। चौ0 सं0 316 का अर्थ यदि इस भाँति किया जाए कि-जिनको स्वर्ग, नरक और मोक्ष बराबर हैं, वे जहाँ-तहाँ (सब स्थानों में) (श्री राम को) धनुष-वाण धारण किए देखते रहें, तो इस पर विचार होता है कि समता प्राप्त हुए बिना स्वर्ग, नरक और मोक्ष बराबर जानने में नहीं आ सकता और ऐसी समता प्राप्त किए हुए को धनुष, वाण और इनको धारण करनेवाला आदि द्वैत दृश्य (मोक्ष-पद में) दरस नहीं सकते। यदि ये द्वैत दृश्य उन्हें मोक्ष-पद में भी दरसते ही रहेंगे, तो इनके स्वर्ग, नरक और मोक्ष के द्वैत-भेद क्यों मिट जाएँगे ? और ‘तजि जोग पावक-देह हरि पद लीन भइ जहँ नहीं फिरै ।’ (रामचरितमानस) तथा ‘सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि योगी । सोइ हरि पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय द्वैत वियोगी ’ (विनय-पत्रिका)। इन कड़ियों से यह प्रकट होता है कि मोक्ष-पद द्वैत से अतिशय रहित है और अतिशय द्वैत-वियोगी ही राम पद को पूर्ण रीति से प्राप्त कर सकेगा। द्वैत-हीनता को ही समता कहते हैं। मोक्ष-पद प्राप्त किए बिना स्वर्ग, नरक और मोक्ष को समान जानना असम्भव है। फिर इस नियम से यह भी असम्भव है कि समता-प्राप्त, जीवन्मुक्त पुरुष को मोक्ष में भगवान का धनुषधारी द्वैत रूप-माया-रूप दरसता रहे। इसलिए मेरे विचार में यह दूसरा अर्थ ठीक नहीं जँचता।]
 करम बचन मन राउर चेरा ।
    राम करहु तिनके उर डेरा ।। 317।।
 हे राम ! जो कर्म, वचन और मन से आपके सेवक हैं, उनके हृदय में आप निवास कीजिए।
दोहा-जाहि न चाहिय कबहुँ कछु, तुम्ह सन सहज सनेह ।
   बसहु निरन्तर तासु मन, सो राउर निज गेह ।। 47।।
 जिनको कभी कुछ न चाहिए, केवल आपसे स्वाभाविक प्रेम है, उनके मन में सदा बसिए, वह आपका अपना घर है।
 मुनि-श्रेष्ठ वाल्मीकिजी श्रीरामजी को इस प्रकार वास-स्थान बतलाकर बोले कि आप चित्रकूट पर्वत पर जाकर निवास कीजिए। श्रीरामजी वाल्मीकिजी से विदा लेकर श्रीसीताजी और श्रीलक्ष्मणजी के साथ चित्रकूट पहुँचे और कुटी बनाकर रहने लगे। इस सूचना को पाकर चित्रकूट के पास के कोल, किरात-गण बड़े प्रेम से कन्द-मूल और फल ला-लाकर श्रीरामजी को देने और अपनी टूटी-फूटी बोलियों में यथाशक्ति उनका गुण-गान करने लगे। जिनका गुण-गान करना वेदों और मुनियों के लिए भी अगम है, वे ही राम कोल-किरातों की भद्दी भाषा और ओछी उक्तियों में अपना गुण-गान बड़ी प्रसन्नता से सुनते हैं, ऐसा क्यों न हो; क्योंकि-
 रामहिं केवल प्रेम पियारा ।
  जानि लेउ जो जाननिहारा ।। 318।।*
 श्रीरामजी को केवल प्रेम ही प्यारा है, जो जाननेवाले हों, वे जान लें।
 जब श्रीरामजी चित्रकूट पर रहने लगे, तब से वहाँ की शोभा अत्यन्त चित्ताकर्षक हो गई, जो कही नहीं जा सकती है।
 पय पयोधि तजि अवध बिहाई ।
   जहँ सिय लखन राम रहे छाई ।। 319।।
 क्षीर समुद्र को त्याग, अयोध्या को छोड़कर श्रीसीताजी, श्रीलक्ष्मणजी और श्रीरामजी जहाँ आकर ठहरे हैं (वहाँ की शोभा का वर्णन नहीं हो सकता है)।
  [चौ0 सं0 319 अत्यन्त निश्चय-पूर्वक बतला रही है कि जिन भगवान राम की कथा का वर्णन गो0 तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में आदि से अन्त तक किया है, वे क्षीर समुद्र में रहनेवाले भगवान विष्णु थे, न कि निर्गुण राम निर्गुण पद को छोड़कर आए थे। क्षीर समुद्र में रहनेवाले भगवान विष्णु सगुण ब्रह्म हैं। सगुण ब्रह्म ही अवतार लेकर दाशरथि राम कहलाए थे।]
 श्रीराम का वन-गमन और चित्रकूट में जाकर वास करने की कथा कहकर गो0 तुलसीदासजी अब सुमन्त सारथी के राम से बिछुड़कर दुःखी हो अवधपुर जाने तथा तब वहाँ जो कुछ हुआ, सो कथा वे इस तरह कहते हैं कि श्रीराम के नहीं लौट आने की कथा उन्होंने राजा दशरथ को कह सुनायी। सुनकर राजा दशरथ बहुत विलाप करने लगे और सुमन्तजी से बोले कि हे मंत्री ! मुझे राम, सीता और लक्ष्मण को दिखाओ। मंत्री राजा को धीरज देते हुए बोले-
 जनम मरन सब दुख सुख भोगा ।
    हानि लाभ प्रिय मिलन बियोगा ।।320।।
 काल करम बस होहिँ गोसाईं ।
   बरबस राति दिवस की नाईं ।। 321।।
 जन्म-मरण, दुःख-सुख के भोग, हानि-लाभ, प्रिय जनों का मिलना और बिछुड़ना; ये सब हे देव ! काल और कर्म के अधीन बल-पूर्वक (जबरदस्ती) दिन और रात की तरह होते हैं।
 सुख हरषहिँ जड़ दुख बिलखाहीं ।
   दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं ।। 322।।
 अज्ञानी सुख से प्रसन्न और दुःख से दुःखी होते हैं, पर धीर दोनों (दुःख-सुख) में समान (भाव से) रहते हैं।
 इतना कह मन्त्री राजा को तमसा और गंगा के किनारों पर वास करने की कथा सुनाने लगे, पर राजा को कुछ भी धीरज न रहा। राजा ने कौशल्याजी से श्रवण की मृत्यु और अन्ध तापस-द्वारा पाए हुए शाप की कथा कहते हुए अपने प्राण छोड़ दिए। राजमहल और सम्पूर्ण नगर करुणा और शोक का भवन बन गया। गुरु वशिष्ठ ने राजा का मृत शरीर तेल में यत्न से रखवा भरतजी को ननिहाल से बुलाकर लाने के लिए दूत भेजा। भरतजी बहुत शीघ्र अवध में आए और सब समाचार जान अत्यन्त दुःखित हुए। फिर कौशल्या माता से हाथ जोड़कर कहने लगे-
 जे अघ मातु पिता सुत मारे ।
  गाइ गोठ महि सुर पुर जारे ।। 323।।
 जो पाप माता, पिता और पुत्र को मारने से, गोशाला और ब्राह्मणों का गाँव जलाने से होता है,
 जे अघ तिय बालक बध कीन्हे ।
    मीत महीपति माहुर दीन्हे ।। 324।।
 जो पाप स्त्री और बालक के वध करने, मित्र और राजा को विष देने से होता है,
 जे पातक उपपातक अहहीँ ।
  करम बचन मन भव कबि कहहीँ ।।325।।
 जितने पाप और पापांग (छोटे पाप) हैं, कर्म, वचन और मन से जिनका उत्पन्न होना कवि कहते हैं,
  ते पातक मोहि होउ बिधाता ।
   जौं यह होइ मोर मत माता ।। 326।।
 हे माता ! यदि यह मेरा मत हो (कि रामजी वन जावें) तो मैं विधाता से कहता हूँ कि मुझे वे सब पाप लगें।
दोहा-जे परिहरि हरि हर चरन, भजहिं भूत गन घोर ।
       तिन्हकर गति मोहि देउ बिधि, जौं जननी मत मोर ।। 48।।
 जो विष्णु और शिव के चरणों को छोड़कर भयानक जीवों वा पिशाचों को सेवते हैं, हे माता ! यदि इसमें मेरा मत हो, तो विधाता मुझे उनकी गति दें।
 बेचहिं बेद धरम दुहि लेहीं ।
  पिसुन पराय पाप कहि देहीं ।। 327।।
 जो वेद को बेचते हैं (वेद पढ़ाने के बदले कोई वस्तु लेते हैं) और धर्म को दुह लेते हैं (धर्म-कार्य में उसके बदले कोई वस्तु लेते हैं-जैसे कन्या-विक्रय), चुगली करते हैं और दूसरे के पाप का बखान करते हैं,
 कपटी कुटिल कलह प्रिय क्रोधी ।
    बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी ।। 328।।
 (जो) कपटी, कुटिल, कलह को प्यार करनेवाले, क्रोधी, वेद की निन्दा करनेवाले, संसार-भर से विरोध करनेवाले,
 लोभी लम्पट लोलुप चारा ।
    जो ताकहिँ परधन परदारा ।। 329।।
 जो लोभी, लम्पट (व्यभिचारी), बड़े लालची हैं, पर- धन और पर-स्त्री को निहारते हैं,
 पावउँ मैं तिन्हके गति घोरा ।
   जौं जननी यह सम्मत मोरा ।। 330।।
 हे माता ! यदि यह मेरी सम्मति हो, तो मैं उनकी भयानक गति को पाऊँ।
 जे नहिँ साधु-संग अनुरागे ।
   परमारथ पथ बिमुख अभागे ।। 331।।
 जिनको सत्संग में प्रेम नहीं है, जो अभागे परमार्थ के मार्ग से विमुख हैं,
 जे न भजहिँ हरि नर तन पाई ।
   जिन्हहिँ न हरिहर सुजस सुहाई ।। 232।।
 जो मनुष्य-शरीर पाकर हरि-भजन नहीं करते, जिनको हरि और हर का सुयश नहीं सुहाता है,
 तजि स्त्रुति पंथ बाम पथ चलहीँ ।
   बंचक बिरचि बेष जग छलहीँ ।। 333।।
 जो वेद-मार्ग को छोड़कर वाम-मार्ग में चलते हैं और सुन्दर वेश बनाकर संसार को धोखा देकर ठगते हैं,
 तिन्ह कइ गति मोहि संकर देऊ ।
   जननी जौं यहु जानउँ भेऊ ।। 334।।
 हे जननी ! यदि यह भेद मैं जानता होऊँ, तो शंकरजी मुझे उनकी गति दें।
 इस प्रकार भरतजी कौशल्याजी से कहकर बहुत शोक किया। माता कौशल्या ने उन्हें निर्दोष कहकर धीरज दिया। भरतजी ने गुरु वशिष्ठजी की आज्ञा से मृत पिता के शरीर का दाह-कर्म करके श्राद्ध-क्रिया की। फिर एक सुदिन पाकर गुरु वशिष्ठजी शोकित भरतजी के पास आए और कहने लगे।
 सोचिय बिप्र जो बेद बिहीना ।
  तजि निज धरम बिषय लयलीना ।। 335।।
 वह ब्राह्मण सोचने-योग्य है, जो वेद नहीं जानता है और अपने धर्म को छोड़कर विषय में लवलीन रहता है।
 सोचिय नृपति जो नीति न जाना ।
   जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना ।। 336।।
 वह राजा सोचने योग्य है, जो राजनीति नहीं जानता है और जिसको प्रजा प्राण के समान प्यारी नहीं है।
 सोचिय बयस कृपन धनवानू ।
  जो न अतिथि सिव भगति सुजानू ।। 337।।
 वह वैश्य सोचने-योग्य है, जो धनी होकर कृपण हो और अतिथि के सत्कार और शिव-भक्ति में सुचतुर नहीं हो।
 सोचिय सुद्र बिप्र अपमानी ।
    मुखर मानप्रिय ज्ञान गुमानी ।। 338।।
 वह शूद्र सोचने-योग्य है, जो ब्राह्मणों का अपमान करनेवाला, मुँह-जोर (बकवादी), प्रतिष्ठा का इच्छुक और ज्ञान का घमण्डी हो।
 सोचिय पुनि पति बंचक नारी ।
   कुटिल कलह प्रिय इच्छा चारी ।। 339।।
 वह स्त्री सोचने-योग्य है, जो पति को ठगनेवाली, कुटिला, कलह को प्यार करनेवाली और अपनी इच्छा के अनुसार चलनेवाली हो।
 सोचिय बटु निज ब्रत परिहरई ।
    जो नहिँ गुरु आयसु अनुसरई ।। 340।।
 वह ब्रह्मचारी (विद्यार्थी) सोचने योग्य है, जो अपना व्रत त्यागकर गुरु की आज्ञा के अनुसार न चले।
दोहा-सोचिय गृही जो मोह बस, करइ करम पथ त्याग ।
   सोचिय जती प्रपंच रत, बिगत बिबेक बिराग ।। 49।।
 वह गृहस्थ सोचने योग्य है, जो अज्ञान-वश कर्म-मार्ग का त्याग कर दे और वह संन्यासी सोचने योग्य है, जो संसार की झंझटों में लगा हुआ ज्ञान और वैराग्य से हीन हो।
 बैखानस सोइ सोचन जोगू ।
   तप बिहाइ जेहि भावइ भोगू ।। 341।।
 वह तपस्वी सोचने-योग्य है, जिसको तप छोड़कर विषय-भोग अच्छा लगे।
 सोचिय पिसुन अकारन क्रोधी ।
   जननि जनक गुरु बन्धु बिरोधी ।। 342।।
 चुगलखोर, बिना कारण क्रोध करनेवाला, माता, पिता, गुरु और भाई का विरोधी सोचने योग्य है।
 सब बिधि सोचिय पर अपकारी ।
    निज तनु पोषक निरदय भारी ।। 343।।
 दूसरे का अपकार करनेवाला, अपने ही शरीर को पोसने- वाला और भारी निर्दय सब प्रकार से सोचने-योग्य है।
 सोचनीय सबही बिधि सोई ।
  जो न छाड़ि छल हरि जन होई ।। 344।।
 वही सब तरह से सोचने-योग्य है, जो छल छोड़कर हरि-भक्त न हो। इतना कह गुरु वशिष्ठ ने फिर कहा कि राजा दशरथ सब तरह से पाप-रहित, यशस्वी तथा प्रतापी थे, वे सोचने-योग्य नहीं हैं। हे भरत ! तुमको पिता ने राज्य दिया है। तुम राज्य करो। गुरु की यह आज्ञा सुनकर भरतजी कहने लगे-
 बादि बसन बिनु भूषन भारू ।
    बादि बिरति बिनु ब्रह्म बिचारू ।। 345।।
 बिना वस्त्र के भूषण व्यर्थ बोझ है, वैराग्य-बिना ब्रह्म का विचार व्यर्थ है।
 सरुज सरीर बादि बहु भोगा ।
   बिनु हरि भगति जाय जप जोगा ।। 346।।
 रोगी शरीर के लिए बहुत भोग-विलास व्यर्थ है, बिना हरि-भक्ति के जप-योग व्यर्थ है।
 इतना कह भरतजी गुरुजनों से बोले कि मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं रामजी को वन से लौटा लाने के लिए उनके पास कल चलूँगा। भरतजी के इस विचार को सब लोगों ने मान लिया। सब नगरवासी भरतजी के साथ जाने की तैयारी करने लगे। रखवाली के लिए घर में रहना कोई भी पसन्द नहीं करने लगा। लोगों ने कहा-
दोहा-जरउ सो सम्पति सदन सुख, सुहृद मातु पितु भाइ ।
 सनमुख होत जो राम पद, करइ न सहज सहाइ ।। 50।।
 वह धन, घर, सुख, मित्र, माता, पिता और भाई (सब) जल जावें, जो श्रीरामजी के चरणों के सम्मुख होने में स्वाभाविक सहायता न करें।
 दूसरे दिन प्रातःकाल ही भरतजी ने गुरु और माताओं को संग ले नगरवासियों के सहित वन के लिए यात्रा कर दी। भरतजी तमसा और गंगा को पारकर पैदल चलने लगे। लोग सवारी पर चढ़ने के लिए उन्हें बारम्बार कहने लगे। उन्होंने उत्तर दिया कि-
 राम पयादेहिँ पाय सिधाये ।
   हम कहँ रथ गज बाजि बनाये ।। 347।।*
 श्रीरामजी तो पाँव-पैदल ही गए और मेरे लिए रथ, हाथी और घोड़े सजाए गए हैं।
 सिरभर जाउँ उचित अस मोरा ।
   सबतें सेवक धरम कठोरा ।। 348।।*
 मैं सिर के बल चलकर जाऊँ, यही मेरे लिए उचित है, क्योंकि सेवक का धर्म सबसे कठिन होता है।
 भरतजी सदल-बल चलते हुए प्रयाग भारद्वाजजी के आश्रम में पहुँचे। जब वहाँ से आगे बढ़े, तब देवराज इन्द्र को डर हुआ कि अब भरतजी रामजी को वन से अवश्य लौटा ले जाएँगे। इसलिए उन्होंने अपने गुरु से कहा कि कुछ ऐसा छल किया जाए कि जिसमें भरतजी को रामजी से भेंट न हो। गुरु बृहस्पति ने कहा कि तुम्हारा यह विचार उत्तम नहीं है। भरतजी रामजी के परम भक्त हैं। इनसे छल करके तुम बड़े लज्जित होओगे और दुःख उलटकर तुम पर आ पड़ेगा; क्योंकि-
 माया पति सेवक सन माया ।
   करइ त उलटि परइ सुर राया ।। 349।।*
 हे इन्द्र्र ! माया पति (श्रीरामजी) के दास के साथ कोई माया (छल) करता है, तो वह उलटकर उसी के ऊपर आ पड़ती है।
 सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ ।
   निज अपराध रिसाहिँ न काऊ ।। 350।।*
 हे सुरपति ! श्रीरघुनाथजी का स्वभाव सुनो-वे अपने प्रति किए गए अपराध से कभी अप्रसन्न नहीं होते है।
 जो अपराध भगत कर करई ।
    राम रोष पावक सो जरई ।। 351।।*
 पर जो कोई उनके भक्तों का अपराध करता है, तो वह श्रीराम की क्रोधाग्नि में जल जाता हैं।
 लोकहु बेद बिदित इतिहासा ।
   यह महिमा जानहि दुरवासा ।। 352।।*
 लोक, वेद और इतिहास से यह ज्ञात होता है। इस महिमा को दुर्वासाजी जानते हैं।
  [विष्णुजी ने दुर्वासा से अम्बरीष की रक्षा अपने सुदर्शन चक्र-द्वारा की है। इस कथा से भी यही सिद्ध होता है कि विष्णु भगवान ही ने राम-अवतार लिया था।]
दोहा-मनहुँ न आनिय अमर पति, रघुबर भगत अकाज ।
 अजस लोक परलोक दुख, दिन दिन सोक समाज ।। 51।।*
 हे देवराज ! श्रीरामजी के भक्तों का काम बिगाड़ने की बात मन में भी न लाइए। ऐसा करने से लोक में अपयश और परलोक में दुःख होगा और शोकादि दिनों-दिन बढ़ता ही चला जाएगा।
 सुनु सुरेस उपदेस हमारा ।
   रामहिँ सेवक परम पियारा ।। 353।।*
 हे सुरपति ! हमारा उपदेश सुनो। श्रीरामजी को अपना सेवक परम प्रिय है।
 मानत सुख सेवक सेवकाई ।
    सेवक बैर बैर अधिकाई ।। 354।।*
 वे अपने भक्तों की सेवा में सुख मानते हैं और उनके साथ वैर करने से बड़ा भारी वैर मानते हैं।
 जद्यपि सम नहिँ राग न रोषू ।
  गहहिँ न पाप पुन्य गुन दोषू ।। 355।।*
 यद्यपि वे समत्व भाव में हैं-उनमें राग-रोष नहीं हैं और न वे किसी का पाप-पुण्य या गुण-दोष ही ग्रहण करते हैं।
 करम प्रधान बिस्व करि राखा ।
  जो जस करइ सो तस फल चाखा ।। 356।।*
  उन्होंने विश्व को कर्म-प्रधान बना रखा है। जो जैसा करता है, वह वैसा ही फल भोगता है।
 तदपि करहिँ सम विषम बिहारा ।
    भगत अभगत हृदय अनुसारा ।। 357।।
 तो भी भक्तों और अभक्तों के हृदय के अनुसार (राम) सम और विषम भाव से व्यवहार करते हैं।
 अगुन अलेप अमान एक रस ।
   राम सगुन भये भगत प्रेम बस ।। 358।।
 जो राम अगुण, निर्लेप, मान-रहित और एक-रस हैं, वे ही भक्तों के प्रेम के वश होकर सगुण (शरीरधारी) हुए हैं।
 [यह चौ0 भी बतलाती है कि राम का सनातन मूल स्वरूप निर्गुण है और सगुण रूप असनातन है।]
 राम सदा सेवक रुचि राखी ।
    बेद पुरान साधु सुर साखी ।। 359।।
 राम ने सदा सेवक की रुचि रखी है; वेद, पुराण, साधु और देवता इनके साक्षी हैं।
 गुरु के इन उपदेशों को सुन इन्द्र को बोध हो गया। भरतजी आगे बढ़ते गये। अन्त में श्रीरामजी को मालूम हो गया कि भरत दल-बल-समेत आ रहे हैं। भाई और स्त्री के सहित राम विचारने लगे कि भरत क्यों आ रहे हैं ? लक्ष्मण ने कहा कि जब भरतजी सदल-बल आ रहे हैं, तब जान पड़ता है कि वे राज्य पाकर मस्त हो गए हैं, अब युद्ध कर हमलोगों को मारकर अकण्टक राज्य करना चाहते हैं; क्योंकि ऐसा कौन है, जो राज्य पाकर बौरा नहीं जाता है ? देखिए-
दोहा-ससि गुरु तिय गामी, नहुष चढ़ेउ भूमि सुर जान ।
 लोक बेद ते बिमुख भा, अधम न बेन समान ।। 52।।
 चन्द्रमा ने गुरु-पत्नी से गमन किया। नहुष ब्राह्मणों को कहार बनाकर पालकी पर चढ़े। बेनु के समान अघम, लोक-वेद से विमुख कोई नहीं हुआ।
 सहस बाहु सुर नाथ त्रिसंकू ।
  केहि न राज मद दीन्ह कलंकू ।। 360।।*
 सहस्त्रबाहु, सुरराज इन्द्र और त्रिशंकु आदि में किसको राजमद ने कलंकित नहीं किया ? (अर्थात् सबको कलंकित किया।)
 इतना कह लक्ष्मणजी भरतजी से युद्ध करने को जाने के लिए श्रीरामजी से आज्ञा माँगने लगे। इसी समय आकाश-वाणी हुई-
 अनुचित उचित काज कछु होऊ ।
   समुझि करिय भल कह सब कोऊ ।। 361।।*
 कोई भी काम हो, उचित-अनुचित सोच-समझकर किया जाए तो सब कोई अच्छा कहते हैं।
 सहसा करि पाछे पछिताहीं ।
   कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं ।। 362।।
 जो जल्दबाजी करके पछताते हैं, वेद और पंडित कहते हैं कि वे बुद्धिमान नहीं हैं।
 देव-वाणी सुन लक्ष्मणजी सकुचा गए। श्रीसीता-राम ने उनको आदर से बिठा लिया। श्रीरामजी ने भरतजी के सदाचरण और सद्गुणों का वर्णन करके लक्ष्मणजी को समझा दिया कि भरतजी को राज-मद नहीं हो सकता है।
 भरतजी नदी-किनारे पहुँच, सबों को वहाँ ठहरा, शत्रुघ्न और निषादनाथ गुह को संग ले बड़े व्यग्र चित्त से रामजी के आश्रम में प्रवेश कर, उनके सम्मुख जा गिरे। श्रीरामजी ने उन्हें उठा छाती से लगा लिया। जब भरत, शत्रुघ्न और गुहनिषाद अत्यन्त प्रेम से राम, सीता और लक्ष्मण से मिल चुके, तब गुहनिषाद ने राम की विनती कर कहा कि हे प्रभो ! सब माताएँ, गुरु, ससैन्य सेनापति और सब अवधवासी भी आए हैं। श्रीरामजी सीताजी के पास शत्रुघ्न को रख झटपट गुरु वशिष्ठ के पास जा पहुँचे और उनको साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करने लगे। गुरु ने दौड़कर उन्हें उठा हृदय से लगा लिया। केवट गुह ने भी अपना नाम बतलाकर वशिष्ठजी को दण्डवत् प्रणाम किया। राम-भक्त जानकर वशिष्ठजी बरबस गुहनिषाद से मिले।
 राम सखा रिषि बरबस भेंटा ।
  जनु महि लुटत सनेह समेटा ।। 363।।*
 ऋषि वशिष्ठजी राम-सखा जानकर गुह निषाद से बलपूर्वक मिले। मानो जमीन पर लोटते हुए प्रेम को समेट लिया हो।
 रघुपति भगति सुमंगल मूला ।
  नभ सराहि सुर बरषहिं फूला ।। 364।।*
 श्रीरामजी की भक्ति श्रेष्ठ कल्याणों की जड़ है, देवगण इसकी प्रशंसा करते हुए देवगण आकाश से फूल बरसाने लगे।
 यहि सम निपट नीच कोउ नाहीं ।
  बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं ।। 365।।*
 वे कहने लगे-इसके (गुहनिषाद के) समान सर्वथा अधम कोई नहीं और वशिष्ठ के समान महान कौन है ? (कोई नहीं।)
दोहा-जेहि लखि लखनहुँ तें अधिक, मिले मुदित मुनि राउ ।
    सो सीतापति भजन को, प्रगट प्रताप प्रभाउ ।। 53।।
 जिसको देखकर वशिष्ठजी लक्ष्मणजी से बढ़कर प्रसन्नता के साथ मिले। वह राम के भजन की महिमा का प्रताप प्रत्यक्ष है।
 फिर श्रीराम-लक्ष्मण माताओं और पुरजनों से मिल उन्हें अपने आश्रम में ले आए और यथायोग्य सबको वासा दिया। राजा दशरथ का मरण श्रीराम को जनाया गया। श्रीराम ने अत्यन्त शोक किया, फिर गुरु की बताई रीति से पिता का श्राद्धादि कर्म किया। कई दिनों के पीछे श्रीराम के पास सब लोग एकत्रित हुए। उस सभा में वशिष्ठजी ने श्रीराम से कहा कि मेरी बुद्धि भरत की भक्ति के वश में हो गई है, इसलिए मैं आपसे कहता हूँ कि भरत की रुचि रखकर जो किया जायगा, वह शुभ होगा।
 श्रीरामजी गुरुजी का प्रेम भरत पर देख प्रसन्न हो भरत की बड़ाई करते हुए बोले-
 जे गुरु पद अम्बुज अनुरागी ।
   ते लोकहु वेदहु बड़ भागी ।। 366।।
 जो गुरु के चरण-कमल के प्रेमी हैं, वे लोक में भी और वेद में भी बड़े भाग्यवान माने जाते हैं।
 फिर बोले-हे गुरो ! आपकी आज्ञा के अनुसार मैं भी कहता हूँ कि भरत जो कहेंगे, वही करने में भलाई है। इतना कह राम चुप हो गए। तब गुरु वशिष्ठ भरत से बोले कि हे तात ! अब तुमको जो कुछ कहना हो, जी खोलकर अपने प्यारे जेठे भाई से कहो। गुरु-आज्ञा और राम का रुख देख भरत सभा में उठ खड़े हुए और नम्रता से करुणा और ग्लानि-भरी बातें कहने लगे। वे विशेष कर बोले कि मैं अत्यन्त अभागा हूँ। मेरे ही अभाग्य से सबको दुःख हुआ है। भरत की दुःखपूर्ण बातें सुन वशिष्ठजी ने अनेक बोध-दायक इतिहासों को कहकर उनका प्रबोध किया। फिर श्रीराम भरत से कहने लगे-
 तात जीय जनि करहु गलानी ।
    ईस अधीन जीव गति जानी ।। 367।।
 हे तात ! मन में ग्लानि मत करो, जीव की गति ईश्वर के अधीन समझनी चाहिए।
 तात कुतरक करहु जनि जाये ।
   बैर प्रेम नहिं दुरइ दुराये ।। 368।।
 हे भाई ! व्यर्थ की कुतर्कणा मत करो, वैर और प्रेम छिपाने से नहीं छिपता है।
 मुनि गन निकट बिहँग मृग जाहीं ।
   बाधक बधिक बिलोकि पराहीं ।। 369।।
 पक्षी और पशु मुनियों के निकट जाते हैं, किन्तु बाधा डालनेवाले और वधिक (बहेलिए) को देखकर भाग जाते हैं।
 हित अनहित पसु पच्छिउ जाना ।
   मानुष तनु गुन ज्ञान निधाना ।। 370।।
 शत्रु और मित्र को पशु-पक्षी भी जानते हैं, मनुष्य-शरीर तो गुण और ज्ञान का भण्डार है।
 फिर राम भरत से कहने लगे-हे भाई ! मैं तुमको अच्छी तरह जानता हूँ। पर क्या करूँ, जिस पिताजी ने मेरे प्रेम में अपना शरीर छोड़ दिया, उनका वचन मेटते मुझे बड़ा सोच होता है। उससे अधिक तुम्हारा संकोच है, तिस पर गुरु महाराज ने आज्ञा दी है कि भरत की रुचि के अनुसार करने में भलाई है। इसलिए अब तुम सब संकोच छोड़कर कहो। तुम जो कहोगे, मैं वही करूँगा।
 राम का वचन सुन भरत अत्यन्त सन्तुष्ट हुए और हाथ जोड़कर बोले-हे नाथ ! आपका स्वभाव तो सकल-सुखदायक है। हे प्रभो ! अब ऐसा कीजिए, जिसमें आपके चित्त में क्षोभ न हो और भक्त जनों की भलाई भी हो; क्योंकि-
 जो सेवक साहिबहिँ सँकोची ।
  निज हित चहइ तासु मति पोची ।। 371।।
 जो सेवक स्वामी को संकोच में डालकर अपनी भलाई चाहता है, उसकी बुद्धि नीच है।
 सेवक हित साहिबहिँ सेवकाई ।
   करइ सकल सुख लोभ बिहाई ।। 372।।
 सेवक की भलाई तो सब सुख और लोभ छोड़कर स्वामी की सेवा करने में है।
 फिर विशेष प्रार्थनापूर्वक बोले कि हे स्वामी ! या तो लक्ष्मण और शत्रुघ्न को घर भेजकर मुझे आप अपने साथ रखिए या मैं दोनों छोटे भाइयों के साथ वन में रहता हूँ, आप सीताजी-सहित घर लौट जाइए या प्रभु (आप) जिसमें आनन्द मानें, वह आज्ञा दें, मैं उसके अनुसार चलूँगा। राम इन बातों का उत्तर देने नहीं पाए थे कि उसी समय राजा जनक का दूत आ पहुँचा और बोला कि तिरहुत-राज चले आ रहे हैं। राम भाइयों के साथ राजा जनक की अगवानी को आगे बढ़े। राजा जनक के पहुँचने पर सब कोई उनसे यथा-योग्य भाव से मिले। फिर राजा जनक और उनके साथ आए हुए आदमियों को यथा-योग्य वासा दिया गया। राम की दशा देख जनक विह्वल हो गए। मुनियों ने उनको बहुत उपदेश दिया। गुरु वशिष्ठ ने धीरज धराया।
 महादेवजी कहते हैं कि हे पार्वती ! जिन राजा जनक के ज्ञान-रूपी सूर्य से संसार (माया-रूपी) रात्रि का नाश हो जाता है और जिनके वचन-रूपी किरणों से मुनि-रूपी कमल खिलते हैं, क्या उनके पास मोह आ सकता है ? उनकी यह दशा तो केवल राम के प्रेम की बड़ाई है; क्योंकि-
 बिषयी साधक सिद्ध सयाने ।
    त्रिबिध जीव जग बेद बखाने ।। 373।।
 वेद ने वर्णन किया है कि संसार में विषयी, साधक और सिद्ध; तीन प्रकार के सयाने जीव हैं।
 राम सनेह सरस मन जासू ।
   साधु सभा बड़ आदर तासू ।। 374।।
 जिसका मन राम के प्रेम-रस से युक्त है, साधु-सभा में उसका बड़ा आदर है।
 सोह न राम प्रेम बिनु ज्ञानू ।
    करनधार बिनु जिमि जलयानू ।। 375।।
 राम के प्रेम-बिना ज्ञान शोभा नहीं पाता है, जैसे बिना मल्लाह के जहाज (शोभा नहीं पाता है)।
 जब अवध और मिथिला के निवासियों को चित्रकूट में रहते अधिक दिन हो गए, तब एक दिन श्रीराम गुरु वशिष्ठ के पास जाकर बोले कि हे गुरुदेव ! सब लोगों को यहाँ रहते बहुत काल बीत गए। अब जैसा उचित हो, सबको आज्ञा दें। गुरु बोले कि हे राम ! तुम्हारे बिना सब सुख-साज और दोनों राज-समाज नरक के तुल्य हैं। और-
 सो सुख करम धरम जरि जाऊ ।
  जहँ न राम पद पंकज भाऊ ।। 376।।*
  वे सुख, कर्म, धर्म जल जाएँ, जहाँ श्रीराम के चरण-कमलों में प्रेम नहीं है।
 जोग कुजोग ज्ञान अज्ञानू ।
  जहँ नहिं राम प्रेम परधानू ।। 377।।*
 वह योग कुयोग (आडंबर) और वह ज्ञान अज्ञान है, जिसमें श्रीराम-प्रेम की प्रधानता नहीं है।
 इतना कह गुरु ने राम को अपने आश्रम में लौट जाने को कहा। पीछे वशिष्ठजी भरत को संग ले राम के पास आए। सभा में भरतजी अनुनय, विनय और क्षमा-प्रार्थना के साथ बोले-
 सहज सनेह स्वामि सेवकाई ।
   स्वारथ छल फल चारि बिहाई ।। 378।।
 स्वार्थ, छल और चारो फलों (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) को छोड़कर प्रभु की सेवा में स्वाभाविक प्रेम करूँ।
 आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा ।
   सो प्रसाद जन पावइ देवा ।। 379।।
 आज्ञा पालन के समान अच्छे प्रभु की दूसरी सेवा नहीं है, हे देव ! यह सेवक वही प्रसाद पाए।
 फिर विह्वल हो भरत ने राम के चरण पकड़ लिए। राम ने हाथ पकड़ भरत को अपने पास बिठा लिया। भरत का व्यवहार देखकर करुणा तथा विनय-पूर्ण बातों को सुन-सुनकर राम-सहित सम्पूर्ण समाज स्नेह से शिथिल हो रहा था।
सोरठा-देखि दुखारी दीन, दुहुँ समाज नर नारि सब ।
    मघवा महा मलीन, मुये मारि मंगल चहत ।। 54।।*
 दोनों समाजों के सभी नर-नारियों को दीन और दुःखी देखकर अपवित्र मन वाला इन्द्र मरे हुए को मारकर अपना मंगल चाहता है। (मघवा = इन्द्र)।
 कपट कुचालि सींव सुरराजू ।
    पर अकाज प्रिय आपन काजू ।। 380।।
 इन्द्र कपट और कुचाल की सीमा है, उसको दूसरे का अकाज और अपना काज प्यारा है।
 काक समान पाक रिपु रीती ।
  छली मलीन न कतहुँ प्रतीती ।। 381।।
 इन्द्र की रीति कौए के समान छली, मलिन और कहीं विश्वास न करने की है ।
 हे पार्वती ! इन्द्र (आदि देवताओं) ने दोनों समाज में उच्चाटन डाल दिया। उसके प्रभाव से भरत, जनक और मुनि जन आदि साधु पुरुषों को छोड़कर सब दुःखी हो गए।
 लखि हिय हँसि कह कृपानिधानू ।
    सरिस स्वान मघवान जुबानू ।। 382।।
 लोगों को देव-माया से दुःखित जान रामजी मन में हँसकर बोले-कुत्ता, इन्द्र और युवा पुरुष की प्रकृति एक समान है।
 फिर बोले-हे भाई ! सुनो, तुम सूर्य-वंश की रीति, पिताजी के यश और प्रेम को जानते हो। जो माता, पिता और गुरु की आज्ञा का पालन करता है, वह सब धर्मों का धारण करनेवाला होता है। तुम स्वयं उस धर्म का पालन करो और मुझसे पालन कराकर सूर्य-वंश के रक्षक बनो। विपत्ति को बाँट लो। तुमको चौदह वर्ष की अवधि-पर्यन्त बड़ी कठिनाई है। कोमल जानकर भी तुमको कठोर वचन कहता हूँ। हे भाई ! क्या करूँ ? यह कुसमय कहलाता है, मेरा कोई दोष नहीं। सुनो-
 होहिं कुठाँय सुबन्धु सहाये ।
   ओड़ियहि हाथ असनि के घाये ।। 383।।
 अच्छे भाई कुठाम में सहायक होते हैं, (जैसे) वज्र की चोट से रक्षा करने के लिए हाथ ही ओट देता है।
दोहा-सेवक कर पद नयन से, मुख सो साहिब होइ ।
 तुलसी प्रीति कि रीति सुनि, सुकबि सराहहिँ सोइ ।। 55।।
 सेवक को हाथ, पैर और आँख के समान और स्वामी को मुख के समान होना चाहिए। तुलसीदास कहते हैं कि इनकी प्रीति की रीति सुनकर अच्छे कवि बड़ाई करते हैं।
 रामजी का वचन सुन सभा शिथिल थी। भरतजी सन्तुष्ट हो बोले-हे प्रभु ! मुझको वनवास की अवधि तक अवध की सेवा करने की राजाज्ञा दीजिए और कुछ ऐसा अवलम्ब दीजिए, जिसकी सेवा कर मैं चौदह वर्ष का समय काट सकूँ। रामजी बोले-हे भाई ! हम, तुम-दोनों की भलाई पिता की आज्ञा पालन करने में है; क्योंकि-
 गुरु पितु मातु स्वामि सिख पाले ।
   चलेहु कुमग पग परइ न खाले ।। 384।।
 गुरु, पिता, माता और स्वामी का उपदेश मानकर कुमार्ग में भी चलने से पैर गढ़े में नहीं पड़ता है।
 अस बिचारि सब सोच बिहाई ।
  पालहु अवध अवधि भरि जाई ।। 385।।*
 ऐसा विचारकर सब सोच छोड़कर अयोध्या जाकर (निर्धारित चौदह वर्ष की) अवधि तक प्रजा-पालन करो।
 देश कोस पुरजन परिवारू ।
   गुरु पद रजहिं लाग छर भारू ।। 386।।
 देश, भण्डार, पुरवासी और परिवार का बुरा बोझ (भारी बोझ) गुरु की चरण-रज में लगा है।
 तुम्ह मुनि मातु सचिव सिख मानी ।
     पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी ।। 387।।
 तुम मुनि, माता और मंत्रियों की शिक्षा मान पृथ्वी, प्रजा और राजधानी का पालन करना। और सुनो-
दोहा-मुखिया मुख सो चाहिए, खान पान कहँ एक ।
 पालइ पोषइ सकल अंग, तुलसी सहित बिबेक ।। 56।।*
 परिवार के मुखिया को मुँह के समान होना चाहिए, जो खाने-पीने को तो एक (अकेला ही) है; परन्तु विवेक सहित वह सब अंगों का पालन-पोषण करता है।
 इस तरह उत्तम उपदेश देकर रामजी ने भरतजी को अपनी खड़ाऊँ दे दी। भरतजी ने उसे बड़े आदर और स्नेह से ग्रहण किया। फिर भरतजी रामजी को दण्डवत् प्रणाम कर उनसे विदा माँग अवध-वासियों को, जो उनके साथ आए थे, संग ले अवध को लौट गए। अवध पहुँच वहाँ का सब प्रबन्ध कर नन्दि ग्राम में अपनी कुटी बना, नित्य नियम से रह, राम की खड़ाऊँ को सिंहासन पर रखकर उसका पूजन करने लगे।
रामचरितमानस-सार सटीक
चतुर्थ सोपान-किष्किन्धाकाण्ड समाप्त
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रामचरितमानस-सार सटीक


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