14. पार्वतीजी का अवतार-विषयक प्रश्न और शिवजी का उत्तर (जीव, अगुण और सगुण, ब्रह्म और माया का निर्णय) 139-207
एक समय शिव-पार्वती दोनों बैठे थे। वहाँ पार्वती ने अति नम्रता से प्रश्न किया-
प्रभु जे मुनि परमारथ बादी ।
कहहिँ राम कहँ ब्रह्म अनादी ।। 139।।
हे स्वामी ! जो मुनि परमार्थ के वक्ता हैं, वे राम को अनादि ब्रह्म कहते हैं।
सेष सारदा बेद पुराना ।
सकल करहिँ रघुपति गुन गाना ।। 140।।
शेष, सरस्वती, वेद और पुराण; सभी रघुनाथजी का गुणगान करते हैं।
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती ।
सादर जपहु अनंग अराती ।। 141।।
हे कामदेव को नष्ट करनेवाले ! फिर आप भी दिन-रात आदर से राम-राम जपते हैं।
राम सो अवध-नृपति सुत सोई ।
कि अज अगुन अलख गति कोई ।। 142।।
वह राम वही अयोध्या के राजा (दशरथ) के पुत्र हैं अथवा जन्म-रहित निर्गुण और अदेख गतिवाले कोई (दूसरे) हैं ?
दोहा-जौं नृप तनय तो ब्रह्म किमि, नारि बिरह मति भोरि ।
देखि चरित महिमा सुनत, भ्रमति बुद्धि अति मोरि ।। 23।।
यदि स्त्री के वियोग में पगली बुद्धिवाले राजकुमार हैं, तो फिर वह ब्रह्म कैसे हो सकते हैं ? उनके चरित्र को देख और उनकी महिमा को सुनकर मेरी बुद्धि बहुत चक्कर खाती है।
जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ ।
कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ ।। 143।।
यदि इच्छा-रहित व्यापक ब्रह्म कोई दूसरा है, तो हे स्वामी ! वह भी मुझे समझाकर कहिए।
गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिँ ।
आरत अधिकारी जहँ पावहिँ ।। 144।।
साधु-लोग जहाँ दुःखी अधिकारी पाते हैं, वहाँ गूढ़ तत्त्व (सार पदार्थ) को भी नहीं छिपाते हैं। इसके बाद पार्वतीजी ने और भी ये प्रश्न पूछे-
(1) रघुनाथजी की कथा कहिये। (2) निर्गुण ब्रह्म सगुण शरीर-धारी कैसे हुए? (3) राम-अवतार की लीलाएँ कहिए। (4) ज्ञानी-मुनि किस तत्त्व-ज्ञान में डूबे रहते हैं? (5) भक्ति, ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य कहिए। (6) और भी रामजी की गुप्त लीलाएँ कहिए। (7) जो मैंने पूछा न हो, वह भी छिपा न रखिये-कहिये।
पार्वतीजी के प्रश्नों को सुनकर शिवजी कुछ काल तक ध्यानावस्थित रहकर बोले-
झूठउँ सत्य जाहि बिनु जाने।
जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचाने ।। 145।।
जिसके बिना जाने झूठ (प्रकृति-माया) भी सत्य मालूम होता है, जिस तरह डोरी को बिना पहिचाने (उसमें) साँप का भ्रम होता है।
जेहि जाने जग जाइ हेराई ।
जागे जथा सपन भ्रम जाई ।। 146।।
और जिसको जान लेने पर संसार (माया) इस तरह हेरा (भुला) जाता है, जिस तरह जाग जाने पर स्वप्न का भ्रम दूर हो जाता है।
बंदउँ बाल रूप सोई रामू ।
सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू ।। 147।।
उन बालक-रूप राम को मैं प्रणाम करता हूँ, जिनका नाम जपने से सब सिद्धियाँ सुलभ हो जाती हैं।
[चौ0 सं0 145, 146 और 147 का सारांश यह है कि माया मिथ्या, भ्रम और स्वप्नवत् है। जिनके जाने बिना यह (माया) सत्य प्रतीत होती है, जिस तरह रस्सी-रूप सत्य वस्तु में माया-रूप सर्प का भ्रम होता है, जिसके जाने बिना जीव अज्ञानता-रूप नींद में माया-रूप स्वप्न देखता है, जो (स्वप्न) केवल भ्रम मात्र है, जिसको जानने पर माया मिट जाती है और अज्ञानता-रूप नींद नहीं रहती है, वह बालक-रूप राम है। बालक-रूप राम को ही देखकर कागभुशुण्डि को भ्रम हुआ था, जिसकी कथा सप्तम सोपान में वर्णन की गई है। इसलिए वह बालक-रूप राम, जिसको जान लेने से माया मिट जाती है, केवल बाल्यावस्था का नर-रूप राम नहीं; बल्कि उसी बाल्यावस्था के नर-रूप से आवरणित वा आच्छादित आत्म-रूप राम है। जो केवल मायाकृत नर-रूप को ही जानेगा, उसमें व्यापक आत्म-रूप राम को नहीं जानेगा, उसका माया-भ्रम नहीं मिटेगा। व्याप्य रूप आवरण-भेद से आत्म-स्वरूप राम को बालक-रूप राम कहने में कुछ भी अयुक्ति नहीं। आत्म-रूप राम से व्याप्त नराकृति बाल-रूप को, जो कौशल्या माता के गर्भ से प्रकट होनेवाले और राजा दशरथ के आँगन में विहार करनेवाले हैं, ‘दाशरथि राम’ वा ‘रघुनाथ’ वा ‘रघुवर’ और ‘दशरथ अजिर विहारी’ कहना कुछ भी अयोग्य नहीं। केवल नराकृति-राम-रूप को जानना और उसमें व्याप्त आत्मरूप राम की जानकारी को अनुपयोगी (बेफायदे) जानकर उसे जानने की चाह न करना, भ्रम में फँसे रहने का लक्षण है। रामचरितमानस के सप्तम सोपान में साफ कह दिया है कि-
भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।
किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।।
जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ-सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ ।।
तात्पर्य यह है कि भगवान राम प्रभु ने शुभ लीला-हित नर राजा की देह वा नर-रूप धारण करके नर की भाँति नटवत् लीला की थी, पर वे यथार्थ मनुष्य न हो गये थे। अस्तु, मनुष्याकार राम भगवान का माया-रूप है। उनका स्वरूप (निजरूप) निश्चय ही आत्मराम-रूप अमायिक है।
इस भाँति रामजी की महिमा का वर्णन कर और उनको प्रणाम करके शिवजी फिर कहने लगे-
दोहा-राम कृपा ते पारबति, स्वपनेहु तव मन माहिँ ।
सोक मोह संदेह भ्रमु, मम बिचार कछु नाहिँ ।। 24।।
हे पार्वती ! मेरे विचार में श्रीरामजी की कृपा से तुम्हारे मन में स्वप्न में भी व्यथा, मोह, संदेह और भ्रम कुछ भी नहीं है।
[इस दोहे से पार्वतीजी मोह-वश नहीं जान पड़ती हैं, परन्तु चौ0 157 से वे मोह-वश जान पड़ती हैं।]
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना ।
स्त्रवन रन्ध्र अहि भवन समाना ।। 148 ।।
जिन्होंने हरि की कथा कानों से नहीं सुनी है, उनके कानों के छिद्र साँप के घर (बिल) के समान हैं।
नयनन्हि सन्त दरस नहिं देखा ।
लोचन मोर पंख सम लेखा ।। 149।।
जिन्होंने (अपनी) आखों से सन्तों का दर्शन नहीं किया है, उनकी आँखें मयूर के पंख (की आँखों) की तरह हैं।
ते सिर कटु तूमरि सम तूला ।
जे न नमत हरि गुरु पद मूला ।। 150।।
वे सिर तितलौकी (कड़ुवी तुम्बी) के समान हैं, जो हरि और गुरु के चरण पर नहीं झुकते हैं।
जिन्ह हरि भगति हृदय नहिं आनी ।
जीवत सव समान ते प्रानी ।। 151।।
जिन (लोगों) ने हरि-भक्ति को हृदय में नहीं लायी, वे प्राणी जीते-जी मृतक-तुल्य हैं।
जो नहिं करइ राम गुन गाना ।
जीह सो दादुर जीह समाना ।। 152।।
जो जीभ राम का गुणगान नहीं करती है, वह बेंग की जीभ के समान (व्यर्थ) है।
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती ।
सुनि हरि चरित न जो हरषाती ।। 153।।
वह छाती वज्र की तरह कठोर और निष्ठुर है, जो हरि- चरित सुनकर हर्षित नहीं होती है।
राम नाम गुन चरित सुहाये ।
जनम करम अगनित स्त्रुति गाये ।। 154।।
राम के सुन्दर नाम, गुण, चरित्र, जन्म और कर्म वेद ने अनगिनत गाए हैं।
जथा अनन्त राम भगवाना ।
तथा कथा कीरति गुन गाना ।। 155।।
जिस तरह भगवान राम अनन्त हैं, उसी तरह उनकी कथा, यश और गुण अनन्त हैं।
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई ।
सुखद संत सम्मत मोहि भाई ।। 156।।
हे पार्वती ! तुम्हारे प्रश्न जो सहज सुन्दर, सुख देनेवाले और सन्तों के अनुकूल हैं, मुझे अच्छे लगे।
एक बात नहिं मोहि सुहानी ।
जदपि मोह बस कहेहु भवानी ।। 157।।
परन्तु एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी, यद्यपि तुमने मोह के वश होकर कही है।
तुम्ह जो कहा राम कोउ आना ।
जेहि स्त्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना ।। 158।।
(वह यह कि) तुमने जो कहा कि राम कोई दूसरे हैं, जिनको वेद गाते और मुनि ध्यान धरते हैं?
दोहा-कहहिं सुनहिं अस अधम नर, ग्रसे जे मोह पिसाच ।
पाखंडी हरि पद बिमुख, जानहिं झूठ न साँच ।। 25।।
जिनको अज्ञान-रूप भूत निगले हुए हैं, जो पाखंडी, हरि भक्ति-रहित, झूठ (माया) को जाननेवाले अर्थात् मायावादी और सत्य (ब्रह्म) को नहीं जाननेवाले अर्थात् नास्तिक हैं, वे ही अधम मनुष्य ऐसा कहते और सुनते हैं।
अज्ञ अकोबिद अन्ध अभागी ।
काई बिषय मुकुर मन लागी ।। 159।।
जो अज्ञानी, मूर्ख, अन्धे (विचार-दृष्टि और योगाभ्यास- द्वारा प्राप्त दिव्य दृष्टि से हीन) और अभागे हैं और जिनके मनरूपी दर्पण में विषय-रूपी काई लगी हुई है।
[यदि केवल ज्ञान और विचार-हीन को अन्ध कहते, तो अज्ञ और अकोविद शब्दों के बाद फिर ‘अन्ध’ शब्द इस चौपाई में देने की आवश्यकता न थी। योगाभ्यास द्वारा प्राप्त दिव्य दृष्टि से हीन को ही विशेष कर व्यक्त करने के लिए ‘अन्ध’ शब्द का प्रयोग किया गया है। दिव्य दृष्टि के सम्बन्ध में विशेष बातें चौपाई सं0 5 और 118 में दी गई हैं। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द; विषय कहे जाते हैं। जो मन इन विषयों के अतिरिक्त कुछ नहीं जानता है, उसी मन-रूप दर्पण पर विषय की काई लगी हुई है। ‘जन मन मंजु मुकुर मल हरनी’, ‘गुरु पद पदुम परागा’ के सेवन से और रामचरितमानस के पवित्र जल से धोने से यह मल दूर होता है। चौ0 सं0 4, 116 और 119 के अर्थों, उनके नीचे के कोष्ठों के वर्णनों को समझकर पढ़िये।]
लंपट कपटी कुटिल बिसेखी ।
सपनेहु संत सभा नहिं देखी ।। 160।।
जो व्यभिचारी, धोखेबाज और बड़े ही दुष्ट हैं तथा जिन्होंने स्वप्न में भी सन्तों की सभा नहीं देखी है।
कहहिं ते बेद असम्मत बानी ।
जिन्हके सूझ लाभ नहिं हानी ।। 161।।
वे वेद विरुद्ध वचन कहते हैं, जिनको लाभ और हानि नहीं सूझते।
मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना ।
राम रूप देखहिँ किमि दीना ।। 162।।
दर्पण तो मैला है और (देखनेवाला) आँखों से हीन है, (फिर) वह कंगाल राम का रूप कैसे देख सकता है ?
[चौ0 सं0 159 में मन को दर्पण और विषय को उस दर्पण पर की काई कहा गया है और अन्ध, बाहरी आँखों से हीन को नहीं, बल्कि दिव्य दृष्टि से हीन को कहा गया है। जो अपने मन-रूप दर्पण पर से विषय-ज्ञान-रूप मल को साधनों के द्वारा धोकर साफ कर डालेगा और दिव्य दृष्टि प्राप्त करेगा, वही राम-रूप का दर्शन पावेगा। साधनों से हीन, विषय-मल-युक्त मैला मन-दर्पणवाला और दिव्य दृष्टि विहीन, केवल चर्म-दृष्टिवाला अन्धा मनुष्य राम-रूप का दर्शन कभी नहीं प्राप्त कर सकेगा। चौ0 सं0 159 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में देखिए। चौ0 147 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में जो बालक-रूप राम का विचार किया गया है, उसको यह चौपाई (सं0 162) अच्छी तरह पुष्ट करती है। मायिक नराकृति बालक रघुवर-रूप आवरण से आच्छादित आत्म-रूप राम का दर्शन, मन-रूप दर्पण पर के विषय-रूप मल को दूर करने और दिव्य दृष्टि प्राप्त करने पर होगा। यदि केवल मायिक रूप से काम चल जाता अर्थात् राम के निज स्वरूप (यथा-राम स्वरूप तुम्हार, बचन अगोचर-----निगम कह ----) का ज्ञान हो जाता तो चौ0 सं0 162 के लिखने का कुछ भी फल न होता; क्योंकि माया का रूप तो मन-मलिन और चर्म-दृष्टिवाले अन्धे को स्वाभाविक ही दरसता है। अतएव जिनको राम-रूप देखना हो, उन्हें चाहिये कि अपने मन पर से विषय-काई को दूर कर दिव्य दृष्टि प्राप्त करके अपने अन्धेपन को दूर करें। ऐसा किए बिना जिस रूप को राम-रूप कहकर (देखनेवाला) देखता है, वह केवल मायिक रूप को ही देखता है, यथार्थ राम-रूप को नहीं। यदि अज्ञानता से हठ करके कोई कहे कि नराकृति बालक रघुवर-रूप ही गोस्वामी तुलसीदासजी के रामचरितमानस के आधार पर यथार्थ राम-रूप है; पर उसे संसार या भ्रम या माया, स्वप्न की तरह मिटी हुई (नराकृति बालक रघुवर-रूप को देखने के बाद भी) नहीं दिखाई देती है, तो रामचरितमानस ही के अनुसार वह भ्रम में पड़ा हुआ असत्यवादी पुरुष है।]
जिन्ह के अगुन न सगुन बिबेका ।
जल्पहिं कल्पित बचन अनेका ।। 163।।
जिनको निर्गुण और सगुण का विचार नहीं है, वे बनावटी बहुत-सी बातों की गप्पें मारते हैं।
[चौ0 सं0 119 में कहा गया है कि निर्गुण-महिमा निर्विघ्न है। इस कारण निर्गुण का विवेकी बनावटी बातों की गप्पें नहीं मारेगा; क्योंकि उसको भ्रम कदापि न होगा और सगुण की असलियत को यथार्थ रूप से जानेगा। उक्त चौ0 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में यह दरसा दिया गया है कि केवल सगुण में भ्रम उत्पन्न होगा।]
हरि माया बस जगत भ्रमाहीं ।
तिन्हहिँ कहत कछु अघटित नाहीं ।। 164।।
जो ईश्वर की माया के वश में होकर संसार में भ्रमते फिरते हैं, उनके लिए ऐसा कहना कुछ भी असम्भव नहीं है।
बातुल भूत बिबस मतवारे ।
ते नहिँ बोलहिँ बचन बिचारे ।। 165।।
जो बाँत गये हैं अर्थात् जिनको सन्निपात हो गया है, जिनको भूत लगा है और जो पागल हैं, वे विचारकर वचन नहीं बोलते हैं।
जिन्ह कृत महा मोह मद पाना ।
तिन्ह कर कहा करिय नहिँ काना ।। 166।।
जिन्होंने महा अज्ञान-रूप मदिरा पी ली है, उनका कहा हुआ नहीं सुनना चाहिये।
सगुनहिँ अगुनहिँ नहिँ कछु भेदा ।
गावहिँ मुनि पुरान बुध बेदा ।। 167।।
सगुण और अगुण में कुछ भेद नहीं है। मुनि, पण्डित, पुराण और वेद ऐसा कहते हैं।
[कोई एक पदार्थ जो अकेले हो-संगहीन हो, जब वह किसी दूसरे का संग कर लेता है, तब वह उस पदार्थ के सहित कहा जाता है। परन्तु दूसरे पदार्थ के संग होने पर भी वह वही रहता है, जो वह पहले से है।
गुण का अर्थ है-स्वभाव। उत्पादक स्वभाव रजोगुण, पोषक स्वभाव सतोगुण और विनाशक स्वभाव तमोगुण; इन तीन गुणों से हीन को निर्गुण कहते हैं। यह असंग एक-ही-एक है; परन्तु वही जब कथित गुणों को साथ कर लेता है, तब सगुण कहलाता है। सगुण कहलाने पर भी तत्त्व-रूप में वह स्वरूपतः निर्गुण ही रहता है। तात्पर्य यह कि शरीर वा देह पर जब कुरता नहीं पहना रहता है, तब बिना कुरते का शरीर कहा जाता है। कुरता पहन लेने पर वह कुरता के सहित हो जाता है। कुरते के आवरण के कारण शरीर, कुरता नहीं होता है और कुरता, शरीर नहीं होता। शरीर, शरीर ही और कुरता, कुरता ही रहता है। इसी तरह से निर्गुण, त्रयगुणी आवरण को धारण करके उसके अन्दर रहता हुआ निर्गुण ही रहता है और त्रयगुणी आवरण, निर्गुण नहीं होता है। परमात्म-स्वरूप राम ब्रह्म, सर्वव्यापी और अपार है।
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति-नेति नित निगम कह ।।
राम ब्रह्म परमारथ रूपा । अविगत अलख अनादि अनूपा ।।
सकल विकार रहित गत भेदा । कहि नित नेति निरूपहिं वेदा ।।
यह राम ब्रह्म ‘अविगत अलख अपार’ है। ‘अपार’=‘अनन्त’ तत्त्व दो नहीं हो सकने के कारण उसको उपर्युक्त त्रयगुण सम्पूर्णतः आच्छादित नहीं कर सकते। वह अनन्त तत्त्व अपने आंशिक भाव में ही सगुण कहलाता है। उन गुणों में आंशिक भाव से रहकर सगुण कहलाकर भी स्वरूपतः वह निर्गुण ही रहता है। वह सदैव निर्गुण ही रहता है-कहने का तात्पर्य है कि वह एक-ही-एक (निर्गुण तत्त्व) ऊपर वर्णनानुसार निर्गुण और सगुण; दोनों नामों से विदित है। अतएव ‘सगुनहिँ अगुनाहिँ नहिँ कछु भेदा।’ ठीक ही है।
त्रयगुण राम की निजी माया हैं-उनके स्वचरित हैं, उनके अधीन हैं। इस त्रयगुणमयी माया को रामचरितमानस में स्थान-स्थान पर भ्रम और मिथ्या कहा गया है।
‘रजत सीप महँ भास जिमि, यथा भानुकर वारि ।
जदपि मृषा तिहुँ काल सो, भ्रम न सकइ कोउ टारि ।।
ऐसेहि जग हरि आश्रित रहई । जदपि असत्य देत दुख अहई ।।
‘व्यापि रहेउ संसार महँ, माया कटक प्रचण्ड ।
सेनापति कामादि भट, दम्भ कपट पाखण्ड ।।
सो दासी रघुवीर कै, समुझे मिथ्या सोपि ।
छूट न राम कृपा बिनु, नाथ कहउँ पद रोपि ।।’
‘झूठउ सत्य जाहि बिनु जाने । जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचाने ।।’
सीपी में चाँदी, भानुकर में जल और रज्जु में सर्प का भान भ्रम से ही होता है। इन उपमाओं से गोसाईंजी ने माया को भ्रमवश प्रतीत होनेवाली कहा है। और-
‘प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी ।
ब्रह्म निरीह बिरज अविनासी ।।’
कहकर उन राम प्रभु को, प्रकृति-जो त्रयगुणमयी है, के पार कहकर केवल निर्गुण स्वरूप में भी रामचरितमानस में वर्णन किया है।
इससे यह नहीं कि निर्गुण राम कोई और तथा सगुण राम कोई दूसरे हैं, प्रत्युत प्रकृति-पार होते हुए भी वे प्रकृति में भी व्याप्त हैं। इसीलिए वे सगुण भी कहलाते हैं। प्रकृति पार और प्रकृति के अन्दर; दोनों तरहों से वे एक-ही-एक रहते हैं। चौ0 सं0 175 और 177 उपर्युक्त भाव को विदित करती हैं।
निर्गुण स्वरूप उसका सहज, स्वाभाविक और अनिर्मित है, पर उसका सगुणरूप किसी कारण से निर्मित और अस्वाभाविक है। निर्गुण स्वरूप अव्यक्त, अगोचर, अवयव-रहित, निराकार, अपरिच्छिन्न, असीम, निर्माया, अविनाशी और सत्य है। सगुण रूप व्यक्त, गोचर, अवयव-सहित, साकार, परिच्छिन्न, ससीम, माया, नाशवान और असत्य है। निर्गुण स्वरूप भ्रममूलक नहीं है, न भ्रम के आधार से दरसता है और न भ्रम उत्पन्न करता है, पर सगुण रूप भ्रममूलक, भ्रम के आधार से दरसनेवाला और भ्रम उत्पन्न करनेवाला है। निर्गुण स्वरूप का ज्ञान होने से सगुण रूप-माया की अयथार्थता प्रत्यक्ष हो जाती है और वह मिट जाती है-- इत्यादि-इत्यादि। निर्गुण एवं सगुण में तत्त्व-निर्भेदता के अतिरिक्त बहुत-से दूसरे भेद रामचरितमानस में ही वर्णित हैं। इन बातों की साक्षी के लिए चौ0 सं0 119, 145 से 147 तक तथा 168, 169, 171 और 177 के अर्थों और उनके नीचे के कोष्ठों के वर्णनों को पढ़िए।]
अगुन अरूप अलख अज जोई ।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई ।। 168।।
जो (परम पदार्थ-सर्वेश्वर) निर्गुण, निराकार, अदेख और अजन्मा है, वही भक्त के प्रेम के वश में होकर सगुण होता है।
[यह चौपाई निर्गुण स्वरूप से सगुण रूप होने का कारण बतलाती है और यह भी बतलाती है कि जो पदार्थ निर्गुण है, वही सगुण होता है अर्थात् निर्भेदता केवल तत्त्व-रूप में है, गुण-रूप में नहीं। यदि कोई गुण-रूप में भी निर्भेदता माने, तो कहना होगा कि वह निर्गुण और सगुण शब्दों का अर्थ नहीं जानता है। इस चौपाई से यह भी साफ प्रकट होता है कि निर्गुण रूप राम का प्रथम, पुराना, सनातन और सहज स्वरूप है और उनका सगुण रूप नवीन, किसी कारण से प्रकट होनेवाला तथा असनातन है और सहज स्वरूप नहीं है।]
जो गुण रहित सगुण सोइ कैसे ।
जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसे ।।169।।
(प्रश्न) जो निर्गुण है, वह सगुण कैसे होता है? (उत्तर) जल, पाला और ओला (बनौरी) जैसे भिन्न नहीं है।
[जल से पाला और ओला बनता है। जल, पाला और ओला; तीनों ही तत्त्व-रूप में निर्भेद हैं, पर तत्त्व-रूप के अतिरिक्त और अनेक प्रकार से निर्भेद नहीं हैं; जल तरल, पाला वाष्पीय और ओला कठोर है। जल सींचने से खेती अच्छी होती है, पर पाले और ओले से खेती नष्ट हो जाती है इत्यादि। इसी तरह सगुण और निर्गुण में भेद और अभेद; दोनों हैं। इस चौपाई से भी उस वर्णन की पुष्टि होती है, जो चौ0 सं0 167 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में है। जैसे हिम और उपल, जल से व्याप्त जल के नवीन अपर रूप हैं, वैसे ही सगुण रूप निर्गुण से व्याप्त निर्गुण का नवीन अपर रूप है।]
राम सच्चिदानन्द दिनेसा ।
नहिं तहँ मोह-निसा लव-लेसा ।। 170।।
राम सत्य-ज्ञानानन्द के सूर्य-रूप हैं, वहाँ (राम के इस रूप में) मोह-रूपी रात का लेश-मात्र भी नहीं है।
[सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड में चौ0 सं0 722 से 727 तक राम के केवल निर्गुण स्वरूप का वर्णन है और इसी (वर्णित रूप) को सूर्य कहा गया है, जिसके आगे मोह-अन्धकार नहीं जा सकता है। इस चौ0 (सं0 170) में वर्णित सच्चिदानन्द के सूर्य-रूप राम को यदि सगुण मान लें, तो उत्तरकाण्ड के उपर्युक्त वर्णन (जो चौ0 सं0 722 से 727 तक है) से यह विरुद्ध (वर्णन) होगा। और रामचरितमानस में अनेक स्थानों पर वर्णन किया गया है कि राम के सगुण रूप को देखकर बहुतों को भ्रम उत्पन्न हुआ। उत्तरकाण्ड के इस दोहे-‘निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुण जान नहिं कोइ । सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होइ ।।’ में तो साफ ही कह दिया गया है कि सगुण भ्रमोत्पादक अर्थात् मोह-निशावाला है। इसलिए चौ0 सं0 170 में राम के निर्गुणत्व का ही वर्णन जानना यथार्थ है।]
सहज प्रकास रूप भगवाना ।
नहिँ तहँ पुनि बिज्ञान बिहाना ।। 171।।
भगवान स्वभाव से ही प्रकाश-रूप हैं। उनमें समता देनेवाले ज्ञान-विज्ञान का कभी अन्त नहीं है। (तात्पर्य यह कि भगवान के वर्णित राम-रूप में समता देनेवाला ज्ञान सदा स्थित है अर्थात् भगवान के इस रूप का अनुभव प्राप्त करनेवाले परम भक्त को सर्वदा विज्ञान बना रहता है।)
[भगवान शब्द से षडैश्वर्य माया-धारी सगुण रूप ही व्यक्त होता है। अमित भुज वा मुखधारी विश्ववास वा विराटरूप भगवान, ब्रह्मा-रूप भगवान, सीतापति राम रूप भगवान और भगवती कहानेवाली सब देवी-रूप भगवतियाँ विचारपूर्वक सगुण माया-रूप-धारी वा धारिणी ही कही जाएँगी। केवल रघुवर राम ही को वा केवल विष्णु भगवान ही को भगवान नहीं कहते हैं। भगवान का वर्णन चौ0 सं0 78 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में देखिये। यद्यपि सगुण के सर्वोत्कृष्ट पद को भगवान कहते हैं, तथापि सगुण भगवानरूप को ‘सहज प्रकाश-रूप’ मान नहीं सकते; क्योंकि भगवान कहलानेवाला उपर्युक्त कोई भी रूप क्यों न हो, वह तो फिर सगुण ही होना चाहिये। फिर चौ0 सं0 167 से 169 तक के अर्थों के नीचे कोष्ठों में सप्रमाण वर्णन कर दिया गया है कि सगुण बनावटी-मात्र है। हाँ, जिस तत्त्व से सगुण की बनावट हुई है, वह (तत्त्व) उपर्युक्त चौपाइयों (सं0 167 से 169 तक) के अनुसार ‘सहज प्रकास रूप भगवाना’ अवश्य ही मानने योग्य है; क्योंकि वह परम तत्त्व सगुण नहीं, निर्गुण है। निर्गुण रूप बनावटी हो नहीं सकता। ‘सहज प्रकाश रूप भगवाना’ अर्थात् भगवान बिना बनावट के प्रकाश-रूप हैं, ऐसा कहकर और सगुणता का प्रकाशक ‘भगवान’ शब्द का प्रयोग करके भी बिना बनावट का वा ‘सहज प्रकाश-रूप’ भगवान का तात्पर्य समझ लेने पर बनावटी सगुण छूटकर, बिना बनावट का निर्गुण ही रह जाता है। और चौ0 सं0 174 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में वर्णित बाल-रूप राम और दशरथ-अजिर-विहारी राम को जिस रीति से निर्गुण जाना गया, उस रीति से भी भगवान-रूप को निर्गुण जान लेना अयोग्य नहीं। मूल परम तत्त्व निर्गुण से ही निर्मित भगवान के किसी भी सगुण रूप व्याप्य में वही निर्गुण तत्त्व व्यापक है (क्योंकि जल से ओले की भाँति निर्गुण से सगुण का बनना कहा गया है)। इस दृष्टि से व्यापक और व्याप्य; दोनों को एक ही परम तत्त्व निर्गुण जानकर ही भगवान को ‘सहज प्रकास-रूप भगवाना’ कवि ने कहा है। यदि बहुत कारीगरी से अति सुन्दर चित्रकारीयुक्त, परम सुगढ़-गढ़न का एक सर्वोत्कृष्ट जेवर सोने का बनाया गया हो और कोई कवि सोने के गुणों का (जेवर का नहीं) वर्णन करके, उस जेवर को भी उन्हीं (सोने के) गुणोंवाला वर्णन करे तो जानना चाहिये कि इस वर्णन में कवि जेवर का केवल सोना-रूप में वर्णन करता है, जेवर-रूप में नहीं। इसी तरह जबकि निर्गुण परम तत्त्व-रूप सोने से ही सगुण भगवान-रूप अत्यन्त सुन्दर जेवर रामचरितमानस के अनुसार बना है (देखिये, चौ0 सं0 167 से 169 तक) और ‘सहज प्रकाश-रूप’ और ‘नहिं तहँ पुनि बिज्ञान बिहाना’ कहकर केवल निर्गुण रूप के ही सहज गुण का कवि वर्णन करते हैं, न कि सगुण रूप के गुणों का, तो मानना चाहिये कि कवि सगुणता-प्रकाशक भगवान नाम कहकर भी भगवान के निर्गुण स्वरूप का ही वर्णन करते हैं। और यह भी कहा है कि ‘बिनु विज्ञान कि समता आवै’, इसलिए जहाँ विज्ञान मिटा नहीं अर्थात् समता बनी रही, वह तत्त्व-रूपी स्थान सगुण नहीं, निर्गुण ही है। इस कोष्ठ के भीतर के सब वर्णनों का सारांश यह है कि चौ0 सं0 171 से सगुण रूप का नहीं, केवल निर्गुण रूप का ही बखान है।]
हरष बिषाद ज्ञान अज्ञाना ।
जीव धरम अहमिति अभिमाना ।। 172।।
हर्ष-विषाद, ज्ञान-अज्ञान, अहंकार और अभिमान; ये सब जीव के धर्म (स्वभाव) हैं।
राम ब्रह्म व्यापक जग जाना ।
परमानन्द परेस पुराना ।। 173।।
सारा संसार जानता है कि परमानंद-स्वरूप सर्वेश्वर सनातन और व्यापक ब्रह्म (ही) राम हैं।
[चौ0 सं0 172 में वर्णित धर्म सगुण रूप से प्रत्यक्ष ही व्यक्त होता है, इसी से सगुण रूप को भ्रमोत्पादक कहा गया है। और चौ0 173 में ‘व्यापक ब्रह्म परेस पुराना’ आदि शब्दों से केवल निर्गुण रूप का वर्णन कर सकते हैं; क्योंकि सगुण रूप में ओत-प्रोत और उसके बाहर प्रति ओर व्यापक निर्गुण रूप से विशेष व्यापक सगुण रूप हो नहीं सकता। सगुण रूप के परे, उससे विशेष प्राचीन और उसका उत्पादक निर्गुण रूप से ‘परेस’ और ‘पुरातन’ अर्थात् सनातन निःसंशय रूप से कहा जा सकेगा। इसलिए इन दो संख्याओं की चौपाइयों में भी राम के निर्गुण रूप ही को व्यक्त किया गया है।]
दोहा-पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि, प्रकट परावर नाथ ।
रघुकुल मनि मम स्वामी सोइ, कहि सिव नायउ माथ ।। 26।।
जो (राम) प्रसिद्ध पुरुष, ज्योति का भंडार और प्रत्यक्ष (गोचर व्यक्त सगुण) ब्रह्मादि से लेकर सभी के स्वामी हैं; वही रघुकुल के मनि (दाशरथि राम) मेरे स्वामी हैं, ऐसा कहकर शिवजी ने प्रणाम किया।
[उत्तरकाण्ड में ‘सगुण जान नहिं कोइ’ कहा गया है। इसलिए रामचरितमानस के अनुसार सगुण रूप राम को ‘प्रसिद्ध पुरुष’ कहना ठीक नहीं है। रामचरितमानस के अनुसार निर्गुण पुरुष को ही प्रसिद्ध पुरुष कहना चाहिए। विराट आदि किसी भी सगुण भगवान-रूप को, सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र आदि को तथा आज्ञा-चक्र, सहस्त्र दल-कमल या सहस्त्रार और त्रिकुटी-स्थित ब्रह्म ज्योतियों के पृथक-पृथक अद्भुत रूपों को ‘प्रकाश-निधि’ नहीं कह सकते हैं; क्योंकि इनको पाकर भी आत्मरूप परम-प्रभु का निर्गुण स्वरूप प्रकाशित नहीं हो सकता। परन्तु निर्गुण स्वरूप का अनुभव-ज्ञान प्राप्त होने पर कुछ भी दरसने को शेष नहीं बच जाता। इसलिए निर्गुण स्वरूप को ‘प्रकाश-निधि’ भी कहेंगे। इस विचार की पुष्टि आगे की कई चौपाइयों से होती है। इस दोहे (सं0 26) से यह प्रकट है कि यद्यपि शिवजी ने ‘रघुकुल-मनि’ भी कहा, तथपि वे ‘रघुकुल-मनि’ रूप को सगुण दरसनेवाली दृष्टि से नहीं देखते हैं, बल्कि निर्गुण दरसनेवाली आत्म-दृष्टि से ही देखते हैं। जैसे कि जेवर को केवल धातु-रूप में देखना असम्भव नहीं है, उसी तरह इन्द्रियों से प्रत्यक्ष होने पर भी सगुण को निर्गुण रूप में देखना असम्भव नहीं है। परन्तु ऐसी उत्तम दृष्टि विशेष सत्संग और योगाभ्यास-द्वारा आत्म-दृष्टि प्राप्त किए बिना कभी किसी को नहीं प्राप्त हो सकती। शिवजी महान सत्संगी और योगी हैं। इसलिए इनको सगुण जेवर, निर्गुण धातु-रूप ही दरसे, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। सच्चे जिज्ञासु रामचरितमानस को इसी विचार से समझेंगे, तो रामचरितमानस के सार का पता पाएँगे। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 15, श्लोक 16-17 में पुरुष का वर्णन इस प्रकार है-
‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटोस्थोऽक्षर उच्यते ।। 16 ।।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
ये लोकत्रयमाविश्य विभर्त्यव्यय ईश्वरः ।। 17 ।।’
अर्थ-(इस) लोक में ‘क्षर’ और ‘अक्षर’ दो पुरुष हैं। सब (नाशवान) भूतों को क्षर कहते हैं और कूटस्थ को अर्थात् इन सब भूतों के मूल (कूट) में रहनेवाले (प्रकृति-’ रूप अव्यक्त तत्त्व) को अक्षर कहते हैं ।।16।। परन्तु उत्तम पुरुष (इन दोनों से) भिन्न हैं। उसको परमात्मा कहते हैं। वही अव्यय ईश्वर त्रैलोक्य में प्रवष्टि होकर (त्रैलोक्य का) पोषण करता है ।। 17।। (लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के ‘गीता-रहस्य’ से उद्धृत) तथा कठोपनिषद्, अध्याय 2, वल्ली 3 में इस प्रकार वर्णन किया गया है-
‘अव्यक्तात्तु परः पुरुषो व्यापकोऽलिंग एव च ।
यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्वं च गच्छति ।। 8।।’
अर्थ-अव्यक्त से भी पुरुष श्रेष्ठ है और वह व्यापक तथा अलिंग है, जिसे जानकर मनुष्य मुक्त होता है और अमरत्व को प्राप्त हो जाता है ।। 8।। तथा मुण्डकोपनिषद्, मुण्डक 2, खण्ड 1 में कहा है-
‘दिव्यो ह्यमूर्त्तः पुरुषः सबाह्याभ्यन्तरो ह्यज ।
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात्परतः परः ।। 2।।’
अर्थ-(वह अक्षर ब्रह्म) निश्चय ही दिव्य, अमूर्त्त, पुरुष, बाहर- भीतर विद्यमान, अजन्मा, अप्राण, मनोहीन, विशुद्ध एवं कार्य-वर्ग की अपेक्षा श्रेष्ठ अक्षर (अव्याकृत’ प्रकृति) से भी उत्कृष्ट है ।। 2।।
निज भ्रम नहिँ समुझहिँ अज्ञानी ।
प्रभु पर मोह धरहिँ जड़ प्रानी ।। 174।।
अज्ञानी अपने भ्रम को तो समझते नहीं, पर (वे) जड़ जीव अपने मोह को प्रभु पर धरते हैं।
जथा गगन घन पटल निहारी ।
झाँपेउ भान कहहिँ कुबिचारी ।। 175।।
जैसे आकाश में मेघ के परदे को देखकर कुविचारी कहते हैं कि इसने (घन-पटल ने) सूर्य को ढाँक लिया है।
[पृथ्वी से सूर्य पन्द्रह लाख गुणा बड़ा और नौ करोड़ तीस लाख मील ऊपर में है। बहुत-से तारे-पुंज और चन्द्रमा, सूर्य के नीचे हैं, बादल ताराओं और चन्द्रमा से भी नीचे रहता है। भू-मण्डल के सब भागों में एक ही ऋतु एक ही समय नहीं रहने के कारण, समस्त भू-मण्डल के निवासी एक ही समय अपने ऊपर मेघाच्छन्न आकाश नहीं देखते हैं। जिस समय भूमण्डल के किसी भाग पर से सूर्य साफ नजर आता है, उसी समय किसी भाग पर से बादल से ढँका हुआ-सा रहकर वह नजर नहीं आता है। इन्हीं कारणों से मेघ-मण्डल, जो सूर्य-मण्डल से सदैव बहुत छोटा है, सूर्य मण्डल का पूर्ण ढाँकनेवाला नहीं हो सकता है। इसलिए कहना पड़ेगा कि भू-मण्डल पर से समस्त मेघ-मण्डलों का यदि एक ही मण्डल बनाकर उसको सूर्य की ओर सीधे ऊपर की तरफ उठाते हुए सूर्य से बराबरी करने के लिए पहुँचाया जाय, तो वह (समस्त मेघ-मण्डल) जैसे-जैसे ऊपर चढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे भूमण्डल पर रहनेवालों को छोटा नजर आता जाएगा (क्योंकि दूर की वस्तु स्वभाव से ही छोटी मालूम होती है) और सूर्यांश प्रत्यक्ष होता जाएगा। वह सूर्य तक पहुँचने भी न पावेगा कि सम्पूर्ण सूर्य मण्डल बिना परदे का प्रत्यक्ष मालूम होने लगेगा और वह मेघ-मण्डल (सूर्य-ताप के कारण नहीं, केवल दूरी ही के कारण मान लीजिए) एक छोटा चिह्न-मात्र मालूम होकर, फिर न मालूम होने लगे, तो कुछ आश्चर्य नहीं। फिर सूर्य-ताप तो समस्त मेघ-मण्डल को नाश ही कर देगा, इसमें संशय ही क्या? इसलिए मेघ-मण्डल से समस्त सूर्य-मण्डल कभी भी छिप नहीं सकता। इन बातों के नहीं जाननेवालों को बादल से सूर्य के ढँक जाने का जैसे भ्रम होता है, वैसे ही अगुण और सगुण के विवेक से रहित अज्ञानी मनुष्य को सगुण रूप बादल से निर्गुण रूप सूर्य के ढँक जाने का भ्रम होता है। चौ0 सं0 174 में उपर्युक्त भ्रम को लक्ष्य करके कहा है कि अज्ञानी मनुष्य यह तो नहीं समझता है कि उपर्युक्त भ्रम मेरी बुद्धि पर छाया हुआ है, बल्कि वह जड़ प्राणी प्रभु पर ही मोह धरता है कि निर्गुण प्रभु-रूप सूर्य पर सगुण-बादल पूर्ण रूप से चढ़ा हुआ होकर वह (निर्गुण रूप सूर्य) सम्पूर्णतः सगुण रूप से ढँक गया है वा वह सम्पूर्ण का सम्पूर्ण सगुणाकार ही हो गया है। ऐसा विचार कुविचारी ही को होता है। विचारने पर निम्नोक्त विचार भी चौ0 सं0 175 में झलकता है। प्रभु का सहज निर्गुण स्वरूप अपरिमित है। वह बड़े-से-बड़े सगुण रूप से आवृत्त हो नहीं सकता है। निर्गुण स्वरूप परम विशाल, अनगिनत ब्रह्माण्डमय परम विराट सगुण रूप से आच्छादित होने पर भी इसके (सगुण विराट के) प्रति ओर बिना ढँके कितना अधिक बच जाता है, उसका अनुमान कोई नहीं कर सकता है। वर्णन हो चुका है कि बादल का रूप सूर्य के निकट होते-होते सूर्य-ताप और दर्शकों से दूर होते जाने के कारण घटते-घटते सम्पूर्णतः लुप्त हो जाएगा। इसी तरह अगुण-सगुण के विवेक से सगुण की निःसारता, असत्यता, भ्रम-रूपता और स्वप्न-सदृशता (ये सभी शब्द चौ0 सं0 145, 146 और दोहा 27 के अनुसार माया अथवा सगुण के लिए प्रयुक्त किये गये हैं) जैसे-जैसे समझ में आती जाएँगी और निर्गुण रूप का परम ज्ञान ताप जैसे-जैसे विशेष मिलता जाएगा, वैसे-वैसे सगुण-ज्ञान दूर और तुच्छ होते जाकर बिल्कुल नष्ट हो जाएगा। तब सगुण रूप को सामने देखने पर भी वह निर्गुण ही जानेगा। जैसे कि द्वितीय सोपान-अयोध्याकाण्ड में वर्णन है कि वाल्मीकि मुनि ने अपने सामने वर्त्तमान नर-रूपधारी भगवान राम से कहा-‘राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर। अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।’ इत्यादि।]
चितब जो लोचन अंगुलि लाये ।
प्रगट जुगल ससि तेहि के भाये ।। 176।।
जो कोई आँख में अंगुल लगाकर देखता है, तो उसके जानते दो चन्द्रमा प्रत्यक्ष मालूम होते हैं।
[सहज निर्गुण प्रभु-रूपी चन्द्र एक ही है। जो आदमी भ्रम का अंगुल अपने ज्ञान-चक्षु पर लगाकर देखता है, उसको सगुण प्रभु-रूपी एक और (दूसरा) चन्द्रमा दरसता है। जिस प्रकार आँखों पर से अंगुल हटा लेने से एक-का-एक ही चन्द्रमा दरसने लगता है और दूसरा (भ्रम का चन्द्रमा) मिट जाता है, उसी प्रकार भ्रम का अंगुल ज्ञान-चक्षु पर से हट जाने से सहज स्वरूपी निर्गुण रूप सत्य प्रभु-चन्द्र केवल एक ही रह जाता है और सगुण अथवा भ्रम-रूप दूसरा असत्य प्रभु-चन्द्र विलीन हो जाता है।]
उमा राम बिषयक अस मोहा ।
नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा ।। 177।।
हे पार्वती ! राम के सम्बन्ध में मोह ऐसा है, जैसा कि आकाश में अन्धकार, धुआँ और धूलि होती है।
[आकाश में अन्धकार के छाये रहने से आकाश अन्धकारमय या अन्धकार का रूप, धुआँ छाया रहने से धुआँमय वा धुआँ-रूप और धूल छायी रहने से धूलमय वा धूल-रूप दरसता है। पर यथार्थ में आकाश अन्धकार, धूम और धूलि से निर्लेप ही रहता है। प्रत्यक्ष निर्मल आकाश का जाननेवाला आकाश में अन्धकार, धूम और धूलि को देखकर भी उसे (आकाश को) इनसे लिप्त वा इनके रूप का कदापि नहीं जानेगा; परन्तु जिसने निर्मल आकाश को कभी नहीं देखा है, वह तो अन्धकार, धूम और धूलि छायी रहने के कारण आकाश को उनसे लिप्त और उनका रूप ही विश्वास-सहित मानता रहेगा। अच्छी युक्तियों से समझाने पर भी वह आकाश के निर्मल रूप को जल्द न समझ सकेगा। आकाश में यदि पूर्ण अन्धकार छाया हुआ होता है, तो आकाश का निज निर्मल रूप कुछ नहीं सूझता है। यदि उसमें धुआँ छाया रहे, तो वह कुछ-कुछ सूझता है और यदि धूल छाई रहे तो वह उससे कुछ विशेष सूझता है। पर जबतक कोई अन्धकार, धुएँ और धूल; तीनों के भीतर से चलते हुए तीनों की सीमाओं को पार न कर लेगा, तबतक आकाश का निर्मल निज रूप उससे कदापि नहीं सूझ सकता है। निर्मल आकाश-रूप निर्गुण राम में अन्धकार-रूप नराकृति सगुण (माया) छाया रहने से (वह निर्मल आकाश-रूप निर्गुण राम) नराकृति-अन्धकारमय नर-रूप दरसता है। धूम-रूप देवाकृति सगुण (माया) छाया रहने से देवाकृति-धूममय देवरूप और धूल-रूप विराटाकृति सगुण (माया) छाया रहने से विराटाकृति-धूलमय विराटरूप वा विश्ववास भगवान-रूप दरसता है। पर यथार्थ में निर्गुण राम-रूप निर्मल आकाश नराकृति, देवाकृति और विराटाकृति-रूप अंधकार, धूएँ और धूल से सर्वदा निर्लेप ही रहता है। निर्गुण-राम रूप निर्मल आकाश का प्रत्यक्ष अनुभव ज्ञान रखनेवाला पुरुष उसमें (निर्गुण राम-रूप निर्मल आकाश में) नराकृति, देवाकृति और विराटाकृति रूप अन्धकार, धूम और धूल को देखकर भी उसे इनसे लिप्त वा इनके रूप का कदापि नहीं जानेगा, परन्तु जिसने निर्गुण राम-रूप निर्मल आकाश का (प्रत्यक्ष) अनुभव ज्ञान कभी नहीं प्राप्त किया है, वह तो उसमें (निर्गुण राम-रूप निर्मल आकाश में) नराकृति-रूप अन्धकार, देवाकृति-रूप धूम और विराटाकृति-रूप धूल छाए रहने के कारण उसको (निर्गुण राम-रूप निर्मल आकाश को) उनसे लिप्त और उनका रूप ही विश्वास-सहित मानता रहेगा। अच्छी युक्तियों से समझाने पर भी वह उसे जल्द न समझ सकेगा। निर्गुण राम-रूप निर्मल आकाश में यदि नराकृति-रूप अन्धकार छाया हुआ होता है, तो उसको निर्गुण राम-रूप निर्मल आकाश के रूप का कुछ भी अनुभव ज्ञान नहीं होता है। यदि उसमें देवाकृति-रूप धूम छाया रहता, तो अनुभव ज्ञान की तरफ बढ़ानेवाला ज्ञान कुछ-कुछ होता है और यदि उसमें विराटाकृति-रूप धूल छायी हुई होती है, तो अनुभव ज्ञान की तरफ बढ़ानेवाला ज्ञान कुछ विशेष होता है। पर जबतक उस निर्गुण राम-रूप आकाश में से नराकृति माया-रूप अन्धकार, देवाकृति माया-रूप धूम और विराटाकृति माया-रूप धूल; तीनों माया-रूपों से गुजरते हुए तीनों की सीमाओं को पार न कर लिया जाय (और इसके आगे जब साम्यावस्थाधारिणी अव्यक्त प्रकृति को भी पार न कर लिया जाय), तबतक निर्गुण राम-रूप निर्मल आकाश के स्वरूप का अनुभव ज्ञान कदापि नहीं प्राप्त हो सकता है।]
बिषय करन सुर जीव समेता ।
सकल एक तें एक सचेता ।। 178।।
ज्ञान-इन्द्रियाँ, उनके (इन्द्रियों के) देवता और जीव; सम्मिलित रूप से सभी एक-से-एक सचेत हैं।
[इन्द्रियाँ उनके (इन्द्रियों के) देवता से और इन्द्रियों के देवता जीव से सचेत हैं (जीव के कारण सचेत हैं)।]
सब कर परम प्रकासक जोई ।
राम अनादि अवधपति सोई ।। 179।।
जो सबके परम प्रकाशक हैं, वही अनादि राम अवध-पति हैं।
[परम प्रकाशक-सर्वोत्तम प्रकाशक-आत्म-अनुभव- विकाशक-जिसके द्वारा कुछ भी देखने को बच न जाए । अनादि राम-राम का निर्गुण सनातन सहज रूप। राम के सगुण रूप को अनादि राम वा राम का निर्गुण सनातन रूप कहना ‘रामचरितमानस’ के विरुद्ध है। (चौ0 सं0 168 देखिए)। नराकृति-सगुण हुए बिना अवध-पति वा अयोध्या का राजा कहा नहीं जा सकता है। उत्तरकाण्ड में स्पष्ट कह दिया गया है कि ‘भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप ।।’ और भी-‘जथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ । सोइ सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ।।’ इसलिए अवधपति-रूप को, राम का अनादि रूप नहीं कहा जा सकेगा। इस चौ0 का तात्पर्य यह है कि संसार-रूप नाट्यशाला में ‘सब कर परम प्रकाशक’ अनादि (निर्गुण स्वरूप) राम-रूप नट ने आवश्यकता-वश समयानुसार नाट्यकला दिखाने के लिए अवधपति का रूप धारण किया था। अयोध्या के राजा-रूप को ही ‘सब कर परम प्रकाशक’ और ‘अनादि’ मान लेना मूर्खता है। हाँ, इस रूप में व्यापक राम के निर्गुण सहज स्वरूप को ऐसा (‘सब कर परम प्रकाशक’ और ‘अनादि’) कहकर मानना निर्भ्रान्त और परमोचित है।]
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू ।
मायाधीस ज्ञान-गुन धामू ।। 180।।
संसार प्रकट होने योग्य और ज्ञान तथा गुण के भण्डार मायापति राम प्रकाश करनेवाले हैं।
जासु सत्यता तें जड़ माया ।
भास सत्य इव मोह सहाया ।। 181।।
जिनकी सत्यता से अचेतन (जड़) माया, मोह की सहायता पाकर सत्य-सी मालूम होती हैं।
दोहा-रजत सीप महँ भास जिमि, जथा भानु कर बारि ।।
जदपि मृषा तिहुँ काल सो, भ्रम न सकइ कोउ टारि ।। 27।।
जैसे सीपी में चाँदी और सूर्य की किरण में जल का आभास होता है। यद्यपि ऐसा होना तीनों काल में झूठ है, तथापि इस भ्रम को कोई नहीं टाल सकता है।
यहि बिधि जग हरि आस्त्रित रहई ।
जदपि असत्य देत दुख अहई ।। 182।।
इसी तरह से संसार हरि के सहारे रहता है । यद्यपि यह (जगत) असत्य है, (तोभी) दुःख होता है।
जौं सपने सिर काटइ कोई ।
बिनु जागे न दूरि दुख होई ।। 183।।
(प्रश्न है कि संसार असत्य है, तो उसका दिया दुःख सत्य कैसे हो सकता है? उसी का उत्तर दिया जाता है) जैसे कोई सपने में सिर काटे, तो यह दुःख (सिर काटने का दुःख) बिना जागे दूर नहीं हो सकता है। (उसी तरह संसार से जागे बिना संसार का व्यवहार सत्य प्रतीत होता है।)
जासु कृपा अस भ्रम मिटि जाई ।
गिरिजा सोइ कृपालु रघुराई ।। 184।।
हे गिरिजा ! जिनकी कृपा से भ्रम इस तरह दूर हो जाता है (जिस तरह स्वप्न में सिर काटने का दुःख जागने पर दूर हो जाता है), वही कृपालु राम हैं।
[चौ0 सं0 180, 182, 183 और 184 तथा दो0 सं0 27 से निम्न-कथित सिद्धान्त प्रकट होते हैं-(1) माया अचेतन और असत्य है। (2) जैसे सीपी और सूर्य-किरण की सत्यता के आधार पर तथा मोह (भ्रम) की सहायता पाकर सीपी में चाँदी और सूर्य-किरण में जल मालूम पड़ता है, वैसे ही राम के अनादि, सहज और निर्गुण रूप की सत्यता के आधार पर मोह (भ्रम) की सहायता पाकर माया भासती (मालूम पड़ती) है। (3) माया कोई स्वतन्त्र मूल द्रव्य (तत्त्व) नहीं है। (4) यद्यपि माया असत्य और भ्रम मात्र है, तोभी अज्ञानावस्था में दुःख देती है। (5) जैसे स्वप्न का दुःख जग जाने से मिटता है, वैसे ही राम की कृपा से अज्ञानावस्था- रूप नींद से जागने पर अर्थात् भ्रम के नष्ट होने पर माया मिट जाती है। चौ0 सं0 184 में रघुराई शब्द से नराकृति-सगुण रूप जानने में आता है। नराकृति सगुण और स्थूल माया है। उपर्युक्त सिद्धान्तों के अनुसार जबकि माया-संसार असत्य और भ्रम-मात्र ही है, तो नराकृति स्थूल-सगुण माया की सत्यता मानना परम मूर्खता है। और जबकि इसकी सत्यता मानी नहीं जा सकती, तो इसकी सत्यता के आधार पर मोह की सहायता पाकर कुछ भासता है, ऐसा विश्वास करना पूर्ण निरर्थक है। इसलिए मानने योग्य है कि नराकृति-स्थूल सगुण माया रघुराई-रूप में व्यापक सहज निर्गुण रूप अनादि, सनातन और सत्य-रूप राम को ही लक्ष्य करके उपर्युक्त चौपाई और दोहे में वर्णित गुण-गान किया गया है।]
आदि अन्त कोउ जासु न पावा ।
मति अनुमान निगम अस गावा ।। 185।।
जिनके आदि-अन्त को किसी ने नहीं पाया और जिनके सम्बन्ध में बुद्धि के अनुमान से (अनुभव से नहीं) वेद ने ऐसा गाया है।
[बुद्धि के अनुमान-ज्ञान और अनुभव-ज्ञान में बड़ा अन्तर है। चौ0 सं0 118 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में इसका भेद खोल दिया गया है।]
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना ।
कर बिनु करम करइ विधि नाना ।। 186।।
(वह) बिना पैर के चलता है, बिना कान के सुनता है और बिना हाथ के बहुत प्रकार के कामों को करता है।
आनन रहित सकल रस भोगी ।
बिनु बानी बकता बड़ जोगी ।। 187।।
बिना मुख के सब स्वादों को भोगता है और बिना वाणी के बड़ा योग्य वक्ता है।
तन बिनु परस नयन बिनु देखा ।
ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेखा ।। 188।।
बिना शरीर के स्पर्श करता है, बिना आँख के देखता है। और बिना नाक के अपार गन्ध ग्रहण करता है।
असि सब भाँति अलौकिक करनी ।
महिमा जासु जाइ नहिँ बरनी ।। 189।।
ऐसे सब तरह से जिनके आश्चर्यमय कार्य हैं, जिनकी महिमा वर्णित नहीं की जा सकती है।
दोहा-जेहि इमि गावहिँ बेद बुध, जाहि धरहिँ मुनि ध्यान ।
सोइ दसरथ सुत भगत हित, कोसलपति भगवान ।। 28।।
वेद और पण्डित जन जिनका इस तरह वर्णन करते हैं और जिनका ध्यान मुनि लोग करते हैं, भक्तों के हेतु वही भगवान अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र हुए।
[उपर्युक्त चारो चौपाइयों और इस दोहे (सं028) से भी यही बात प्रकट होती है कि राम का सनातन सहज रूप निराकार ही है, कारणवश वही साकार होता है। और ‘रामचरितमानस’ से यह बात सिद्ध है कि उसकी साकारता केवल माया-मात्र है। इसलिए यह नहीं भूलना चाहिए कि राम का सगुण वा माया-रूप असनातन, नवीन, असत्य और निर्गुण की सत्यता पर भ्रम की सहायता से असत्य होने पर भी सत्य-सा प्रतीत होता है।]
पार्वती शिवजी की कही ऊपर लिखी बातों को सुनकर बोली कि-हे स्वामी ! आपके भ्रम-नाशक अमृत-वचन सुनकर मेरा भ्रम दूर हो गया। अब आप कृपा करके वह बात कहिये, जो मैं पहले पूछ चुकी हूँ कि-
राम ब्रह्म चिन्मय अबिनासी ।
सर्व-रहित सब उर पुर वासी ।। 190।।
जो राम सर्वव्यापक, चैतन्यमय, अविनाशी, सबसे अलग और सब के हृदय-रूप नगर में निवास करनेवाले हैं,
नाथ धरेउ नर तनु केहि हेतू ।
मोहि समुझाइ कहहु वृषकेतू ।। 191।।
हे नाथ ! उन्होंने किस कारण से मनुष्य का शरीर धारण किया ? हे वृषकेतु ! वह मुझे समझाकर कहिए।
श्रीशिवजी महाराज पार्वतीजी का यह प्रश्न सुनकर अत्यन्त आनन्दित होकर बोले कि हे पार्वती! मैं तुमको कागभुशुण्डि और गरुड़ का संवाद सुनाता हूँ। ऐसा कहकर शिवजी कहने लगे-
हरि अवतार हेतु जेहि होई ।
इदमित्थं कहि जाइ न सोई ।। 192।।
हरि का अवतार जिस हेतु से होता है; उसके बारे में कहना कि इसी हेतु से हुआ है, नहीं कहा जा सकता है।
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी ।
मत हमार अस सुनहिँ सयानी ।। 193।।
हे सयानी ! (पार्वतीजी !) सुनो, मेरा मत है कि राम बुद्धि, मन और वचन से तर्क वा विचार के योग्य नहीं हैं।
जब-जब राक्षसों की बढ़ती होती है और उनके द्वारा धर्म की हानि होती है, तब-तब हरि विविध शरीर धरकर, उनको मारकर, देवताओं को स्थापित करके वेद-मार्ग की रक्षा करते हैं तथा सज्जनों के दुःख दूर करते हैं; राम अवतार का अभिप्राय यही है। राम-जन्म के अनेक कारण हैं; उनमें से एक दो का वर्णन मैं करता हूँ-
1-हरि (विष्णु भगवान) के जय और विजय नाम के दो द्वारपाल थे। ब्राह्मण के शाप से दोनों ने दैत्य का शरीर पाया। एक का नाम हिरण्याक्ष हुआ और दूसरे का हिरण्यकश्यप। जब इन दोनों ने इन्द्रादि देवताओं को जीतकर उनका राज्य ले लिया; तो विष्णु भगवान ने वराह-रूप धरकर एक (हिरण्याक्ष) का और नृसिंह-रूप धरकर दूसरे (हिरण्यकश्यप) का नाश किया; क्योंकि तीन जन्मों के लिए ब्राह्मण का शाप था। इसलिए विष्णु भगवान से मारे जाने पर भी वे शाप से न छूटे। इस कारण वे फिर रावण और कुम्भकर्ण नाम के महाबलवान विख्यात राक्षस हुए। विष्णु भगवान ने फिर राम का अवतार लेकर उनको मारा। कश्यप और अदिति, दोनों दशरथ और कौशल्या होकर जन्मे और भगवान ने इनके घर में अवतार (जन्म) लिया और ‘राम-नाम’ से विख्यात होकर रावण और कुम्भकर्ण को मारा। एक कल्प में इस तरह अवतार हुआ।
2-दूसरे कल्प के अवतार की कथा इस तरह है कि जलन्धर नाम का एक बड़ा बली राक्षस था। सब देवता उससे हार गये। शम्भु भगवान ने भी उससे बहुत समय तक अत्यन्त भयंकर युद्ध किया, पर वह न मरा। उसकी स्त्री परम सती थी। अपनी स्त्री के सतीत्व-बल से वह राक्षस नहीं मारा जा सकता था। इसलिए विष्णु भगवान ने छल करके (जलन्धर का रूप धरकर) उसकी स्त्री का सतीत्व बिगाड़ दिया, तब वह मारा जा सका। जब उसकी स्त्री विष्णु के इस छल को जान गयी, तब उसने बड़ा क्रोध करके उनको (विष्णु को) शाप दिया। उसके शाप को विष्णु भगवान ने स्वीकार कर लिया। जलन्धर मरकर रावण हुआ और विष्णु भगवान उस शाप के कारण अवतार लेकर राम कहलाये और इन्हीं के हाथों से रावण का वध हुआ।
3-तीसरे कल्प में अवतार लेने का कारण यह हुआ कि एक समय नारदजी को समाधि में देखकर इन्द्र के मन में डर हुआ कि कदाचित् नारदजी तप के बल से मेरा राज्य न ले लें।
दोहा-सूख हाड़ लै भाग सठ, स्वान निरखि मृगराज ।
छीनि लेइ जिमि जानि जड़, तिमि सुरपतिहिँ न लाज ।। 29।।
जैसे शठ कुत्ता सिंह को देखकर सूखी हड्डी लेकर भाग जाता है कि कहीं छीन न ले, उसी तरह इन्द्र को लाज न हुई। (इन्द्र को लाज-हीन इसलिए कहा गया कि उसके मन में डर हुआ कि नारद कहीं तप-बल से उसके राज्य को, जो नारद के लिए सूखे हाड़ के तुल्य है, न ले लें।) इसलिए नारदजी की समाधि, भंग करने के लिए उन्होंने कामदेव को ससैन्य भेजा। कामदेव की एक भी कला नारदजी के आगे न चली। नारदजी का तप भंग न हुआ, पर इस जीत से नारदजी को गर्व हो गया। नारदजी ने यह गर्व-भरी कथा विष्णु भगवान तक को क्षीर-समुद्र में जाकर सुनाई। विष्णु भगवान ने नारदजी का गर्व-नाश करके उनके हित के लिए उपाय किया कि नारद जब विष्णुजी के पास से चले, तो उनको एक नगर दीख पड़ा। वहाँ की राज्य-कन्या का स्वयंवर होनेवाला था। उन्होंने देखा कि स्वयंवर का समय थोड़ा ही शेष है, इसलिए विष्णु भगवान की स्तुति करने लगे। भगवान विष्णु प्रसन्न होकर नारद के पास आये और बोले कि क्या चाहते हैं ? उन्होंने सब समाचार सुनाकर कहा कि मुझे अपना-सा सुन्दर रूप दीजिए, जिससे विश्व-मोहिनी मुझे वर ले। विष्णुजी ने कहा कि जिससे आपका भला होगा; मैं वही करूँगा। ऐसा कहकर शरीर तो सुन्दर कर दिया, पर मुख बन्दर का-सा बना दिया। विष्णुजी अपने लोक को गए और नारद स्वयंवर में पहुँचे। स्वयंवर में राज-कन्या ने राजा के वेश में बैठे हुए विष्णु भगवान के गले में जय-माला डाल दी। असफल होने के कारण नारदजी विकल थे। उनकी विकलता को देखकर ब्राह्मण-वेश में वहाँ बैठे हुए शिवजी के दो गण हँस पड़े। उन्होंने नारद को अपना मुख दर्पण में देखने को कहा। नारदजी अपना मुख जल में देखकर बड़े दुःखी हुए। जब स्वयंवर हो चुका, सब लोग अपने घर को जा रहे थे, रास्ते में नारदजी ने देखा कि विष्णुजी के साथ लक्ष्मी और विश्वमोहिनी, दोनों हैं। तब तो वे विष्णुजी पर क्रोधपूर्वक बहुत-से दुर्वचन बोले और शाप दिया कि तुमने मनुष्य-शरीर धरकर मुझे ठगा है, इसलिए तुम मनुष्य-शरीर धारण करो, स्त्री के विरह में दुःखी होओ और तुम्हें बन्दर की सहायता लेनी पड़े। शिवजी के गणों को शाप दिया कि तुम दोनों राक्षस होओ। उन दोनों के प्रार्थना करने पर नारदजी ने कहा कि तुम दोनों बड़े बली होओगे और विष्णु भगवान अवतार लेकर तुम्हें मारकर सद्गति देंगे। विष्णु भगवान ने नारदजी का शाप अंगीकार करके दशरथजी के घर अवतार लिया और राम कहाए। शिव-गण राक्षस-योनि में जन्मे और रावण-कुम्भकर्ण के नाम से प्रसिद्ध हुए। सीताजी को चुरा लेने से रामजी ने उन्हें युद्ध में मार डाला।
[पार्वतीजी का प्रश्न यह नहीं है कि सगुण-रूपी विष्णु भगवान के अवतारों के कारणों को कहिए। पर प्रश्न यह है कि-
‘राम ब्रह्म चिन्मय अबिनासी ।
सर्व-रहित सब उर पुर बासी ।। 190।।
नाथ धरेउ नर तन केहि हेतू ।
मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू ।। 191।।’
(इनका अर्थ चौ0 सं0 190, 191 के साथ यथास्थान में पूर्व हो चुका है) और इसी सोपान में इससे कुछ आगे बढ़ने पर मनु और शतरूपा की कथा में इनके तप-काल की अभिलाषा के प्रसंग में लिखा है कि-चौ0-‘उर अभिलाष निरन्तर होई । देखिए नयन परम प्रभु सोई ।। अगुन अखण्ड अनंत अनादि । जेहि चिन्तहि परमारथ बादी ।। नेति नेति जेहि वेद निरूपा । चिदानन्द निरुपाधि अनूपा ।। सम्भु बिरंचि बिष्नु भगवाना । उपजहिं जासु अंस ते नाना।।’ पार्वतीजी जिन चिन्मय, अविनाशी (ब्रह्म) के अवतार का कारण पूछती हैं, और ‘चिदानन्द निरुपाधि अनूपा ।’ जिनका दर्शन स्वायम्भुव मनुजी चाहते हैं; दोनों एक ही हैं, इसमें संशय नहीं। और स्वायम्भुव मनु की कथा में यह भी कहा गया है कि चिन्मय अविनाशी ब्रह्म अर्थात् ‘चिदानन्द निरुपाधि अनूप ब्रह्म’ से ही बहुत-से शम्भु, विरंचि और विष्णु भगवान उत्पन्न होते हैं। इसलिए चिन्मय (चिदानन्द), अविनाशी, अगुण, अखंड, अनन्त, अनादि ब्रह्म को (कि जिसके अंश से बहुत-से विष्णु उपजते हैं) और विष्णु भगवान को (निर्गुण और सगुण तथा अंशी और अंश के कारण) एक मानना रामचरितमानस के ही विरुद्ध होगा। मनु और शतरूपा ने भी चिन्मय, अगुण, अखण्ड और अनादि, ब्रह्म को ब्रह्मा, विष्णु और महेश का अंशी जाना था। इन तीनों देवेश्वरों को उन निर्गुण ब्रह्म के तुल्य नहीं माना था तथा इसी हेतु से उनसे वरदान नहीं लेकर तप करना नहीं छोड़ा और अंत में जिस रूप का दर्शन पाकर उन्होंने तप करना छोड़ा, उस रूप को भी ‘चिन्मय’ नहीं कह सकेंगे; क्योंकि ‘चिन्मय’ निर्मायिक होने के कारण इन्द्रियगोचर नहीं हो सकता। (इस विषय में अधिक जानकारी के लिए चौ0 सं0 204 के अर्थ के नीचे कोष्ठ में पढ़िए) यद्यपि निर्गुण और सगुण में क्या अंतर है, वह चौ0 सं0 167 के नीचे कोष्ठ में दे दिया गया है, तथापि निर्गुण और सगुण को तत्त्व वा द्रव्य-रूप में रामचरितमानस के अनुसार एक अवश्य मानेंगे। परन्तु तत्त्व वा द्रव्य-रूप में तो निर्गुण के अतिरिक्त उसे सगुण कह न सकेंगे। इसलिए विष्णु-रूप अथवा सगुण के जो कर्म राम-अवतार के कारण हुए, उन्हीं को निर्गुण से सगुण होने का कारण मानना युक्ति-संगत नहीं। उपर्युक्त तीनों कथाओं से (इन कथाओं को रामचरितमानस पढ़कर जान लीजिए) तो रामचरितमानस के अनुसार यही प्रकट होता है कि इनमें रामावतार के जो कारण वर्णित किए गए हैं, वे सगुण रूप विष्णु के कर्म हैं; न कि चिन्मय, अविनाशी, अगुण, अखण्ड, अनन्त, अनादि ब्रह्म के। इन कर्मों के कारण जो रामावतार हुए, जान लेना चाहिए कि वह सगुण विष्णु भगवान ही नर-रूप राम, दशरथ-सुत हुए, न कि वह चिन्मय अगुण स्वरूप। इसलिए पार्वतीजी के प्रश्नों के उत्तर जो उपर्युक्त तीनों कथाओं को कहकर दिए गए हैं, यथोचित नहीं जँचते। ऐसे उत्तर से कवि का यह तात्पर्य झलकता है कि जैसे जल से बर्फ बनी है, वैसे ही निर्गुण से सगुण। विचार-दृष्टि से जिस प्रकार बर्फ जल ही है, उसी प्रकार सगुण-रूप विष्णु भी निर्गुण ब्रह्म ही हैं, परन्तु जबकि रामचरितमानस में माया को भ्रम और असत्य भी कहा गया है, तब ‘निज माया निर्मित तनु’ को सगुण के अतिरिक्त निर्गुण कैसे कहा जाए ? उत्तरकाण्ड में यह स्पष्ट ही कहा गया है कि ‘भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप । किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।। जथा अनेकन बेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ। सोइ सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ ।।’ तब फिर त्रयगुणमयी माया-निर्मित इन्द्रिय-गोचर रूप को निर्गुण नहीं कह सकते।]
4-एक कल्प में अवतार लेने के कारण की कथा इस प्रकार है कि राजा स्वायंभुव मनु और उनकी रानी शतरूपा, दोनों राज छोड़कर तप करने को जंगल में गए और तप करते हुए यह अभिलाषा करने लगे कि-
उर अभिलाष निरन्तर होई ।
देखिय नयन परम प्रभु सोई ।। 194।।
(मनु और शतरूपा के) हृदय में यह अभिलाषा सदा होने लगी कि हम उस परम प्रभु को आँखों से देखें।
अगुन अखण्ड अनन्त अनादि ।
जेहि चिन्तहि परमारथ बादी ।। 195।।
जो निर्गुण, अखण्ड, अनन्त और आदि-रहित हैं और जिनका चिन्तन परमार्थ तत्त्व के वक्ता करते हैं।
[परमार्थ-तत्त्व के स्वरूप का वर्णन द्वितीय सोपान की चौपाई सं0 274-275 में और चौ0 सं0 267 के नीचे कोष्ठ में किया गया है।]
नेति नेति जेहि वेद निरूपा ।
चिदानन्द निरुपाधि अनूपा ।। 196 ।।
जिनके लिये ‘अन्त नहीं, अन्त नहीं’ कहकर वेदों ने निरूपण किया है, जो चैतन्य, आनन्दमय, उपाधि और उपमा-रहित हैं,
सम्भु बिरंचि बिष्नु भगवाना ।
उपजहिं जासु अंस तें नाना ।। 197।।
ऐसउ प्रभु सेवक बस अहई ।
भगत हेतु लीला तनु गहई ।। 198।।
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा ।
तौं हमार पूजिहिँ अभिलाषा ।। 199।।
(197-199 चौ0 का) जिनके अंश से अनेकों महादेव, ब्रह्मा और विष्णु भगवान उत्पन्न होते हैं; ऐसे प्रभु भी सेवक के वश में होकर भक्तों के लिए लीला का शरीर धारण करते हैं। यह वचन यदि वेदों ने सत्य कहा है, तो हमारी अभिलाषा पूरी होवेगी।
एक हजार वर्ष तप करने पर-
बिधि हरि हर तप देखि अपारा ।
मनु समीप आये बहुबारा ।। 200।।
ब्रह्मा, विष्णु और महादेव मनु का अपार तप देखकर उनके पास बहुत बार आये। और-
माँगहु बर बहु भाँति लोभाये ।
परम धीर नहिँ चलहिँ चलाये ।। 201।।
उनसे बहुत बार बोले कि वर माँगो, वर माँगो; पर वे
(राजा-रानी) बड़े धीर थे, विचलित करने से विचलित नहीं हुए।
वे (मनु-शतरूपा) विशेष-से-विशेष क्लेशमय तप में लगे रहे। अन्त में आकाश-वाणी हुई कि वर माँगो-वर माँगो। यह सुनकर दम्पति (स्त्री-पुरुष) ने प्रार्थना की कि-
जो सरूप बस सिव मन माहीँ ।
जेहि कारण मुनि जतन कराहीं ।। 202।।
जो सरूप (रूप-सहित) शिवजी के मन में बसता है और जिसे पाने के लिए मुनि लोग यत्न करते हैं,
जो भुसुन्डि मन मानस हंसा ।
सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा ।। 203।।
देखहि हम सो रूप भरि लोचन ।
कृपा करहु प्रनतारति मोचन ।। 203क।।
जो रूप कागभुशुण्डि के मनरूपी सरोवर का हंस है और जिसे सगुण-अगुण कहकर वेद बड़ाई देता है। हे दीन-रक्षक ! हम आपके उसी रूप का दर्शन चाहते हैं, आप कृपा कर दर्शन दीजिए यह सुनकर-
भगत बछल प्रभु कृपा निधाना ।
बिस्व बास प्रगटे भगवाना ।। 204।।
भक्तों पर कृपा करनेवाले प्रभु कृपा के निधान विश्ववास (विराट) भगवान प्रकट हो गये।
[तृतीय सोपान-अरण्यकाण्ड में है कि ‘गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानहु भाई ।।’ अतएव शिवजी के मन में वा कागभुशुण्डि के मन में जो रूप गृहीत होगा, सो भी मायिक ही होगा, सत्य नहीं। इसके अतिरिक्त चौ0 सं0 284 से 287 तक के अर्थ-सहित कोष्ठ में के वर्णनों के पढ़ने से प्रकट होगा कि राम के स्वरूप को शिवजी नहीं जानते हैं। और न वे उतने बड़े अधिकारी भक्त हैं कि राम उनको अपना स्वरूप जना दें। इसलिए रामचरितमानस के अनुसार कहना पड़ता है कि शिवजी राम का केवल मायिक रूप ही जानते हैं, उनके निज स्वरूप को नहीं जानते हैं। फिर चौपाई सं0 198 में देखिये-मनु और शतरूपा को भी लीला (माया) सम्बन्धी रूप ही ‘भरि लोचन’ देखने की अभिलाषा थी। अपनी प्रार्थना के अनुसार मनु और शतरूपा ने विश्ववास भगवान के केवल मायिक रूप का ही दर्शन पाया, जो अत्यन्त सुन्दर था। मनु-शतरूपा को दर्शन देने के लिए वह रूप प्रकट हुआ, जिसकी प्रशंसा सगुण-अगुण कहकर वेद में है। सगुण रूप को ‘भरि लोचन’ वे अवश्य देखे होंगे, परन्तु अगुण-दूसरा और कुछ उन्होंने पहचाना, सो नहीं है। अगुण तो सगुण के अन्दर ही अवश्य व्याप्त था, परन्तु भगवान का वह व्यापक स्वरूप सगुणवत् इन्द्रियगोचर मानने योग्य नहीं है। तप करने के समय मनु-शतरूपा को केवल यही अभिलाषा थी कि निर्गुण ब्रह्म सगुणरूप धरकर हमको दर्शन दें। उस समय वे उस सगुण रूप से पुत्र की अभिलाषा नहीं रखते थे। सगुण-रूप के दर्शन होने पर ही यह अभिलाषा उनको हुई। इसका कारण यही कहा जा सकता है कि सगुण-रूप धारण करना निर्गुण ब्रह्म की माया है। अतएव माया-रूप के दर्शन से माया से मोहित होना सम्भव ही है। अतएव माया-मोहित होकर ही वे पुत्र-कामी हुए। यथार्थ में उनको ब्रह्म के निर्मायिक स्वरूप के दर्शन की इच्छा नहीं थी। उन्हें सगुण मायिक रूप के दर्शन की ही इच्छा थी। इसीलिए रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में यह दोहा लिखा है-‘भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप । किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ।। जथा अनेकन भेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ । सोइ सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ ।।’ और दोहावली में है-‘हिय निर्गुण नयनन्हि सगुण, रसना राम सुनाम । मनहु पुरट सम्पुट लसत, तुलसी ललित ललाम ।।’
और कुछ लोग भगवान के सगुण रूप में अगुण स्वरूप में अभेद मानते हैं। वे स्वयं विश्वास करते हैं और औरों को भी विश्वास दिलाते हैं कि ‘भगवान के सगुण रूप और निर्गुण स्वरूप में कोई भेद नहीं है। आँखों से सगुण का दर्शन होने से ही निर्गुण का भी दर्शन हो गया। उनके सगुण रूप को ही निर्गुण स्वरूप मान लेना चाहिये ।।’ यह विश्वास अन्ध-विश्वास भर ही है। विश्वरूप वा विश्ववास भगवान के सम्बन्ध में चौ0 सं 77, 78, 175 और 177 को, उनके अर्थ-सहित कोष्ठ की व्याख्या को पढ़िये। परम प्रभु का निर्गुण असीम अनन्त स्वरूप पूर्ण का पूर्ण किसी एक बड़े-से-बड़े रूप में अँट (समा) नहीं सकता। तात्पर्य यह है कि अनादि, असीम परम प्रभु का विश्ववास आदि कोई भी एक बड़े-से-बड़ा रूप उनके अंश-मात्र से ही व्याप्त होगा। अतएव किसी भी रूप को उनके अंश-मात्र से बना हुआ कह सकेंगे। जिस रूप में प्रकट होकर विश्ववास भगवान ने मनु और शतरूपा को दर्शन दिया, वह अत्यन्त ही सुन्दर था (रूप का वर्णन रामचरितमानस में पढ़ लीजिए)। उससे ऐसा जान पड़ता है कि विष्णु भगवान के आभूषणों से ही यह सुन्दर रूप भी भूषित था। पर इस रूप में कितने हाथ थे, सो नहीं वर्णन किया गया है और भगवान राम के साथ उनकी बाईं ओर जगत की मूल आदिशक्ति शोभायमान थीं, जिनके अंश से असंख्य लक्ष्मी, ब्रह्माणी और पार्वती उपजती हैं।]
बाम भाग सोभित अनुकूला ।
आदि सक्ति छबि निधि जगमूला ।। 205।।*
भगवान के बायें भाग में उनके अनुकूल रहनेवाली, सुन्दरता की खानि, जगत की मूलकारणरूपा आदिशक्ति शोभा पाती हैं।
जासु अंस उपजहिं गुन खानी ।
अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी ।। 206।।*
जिनके अंश से गुणों की खानि अनगिनत लक्ष्मी, पार्वती और सरस्वती (त्रिदेवों की शक्तियाँ) उत्पन्न होती हैं।
भृकुटि विलास जासु जग होई ।
राम बाम दिसि सीता सोई ।। 207।।*
जिनकी भौं के संकेत से ही जगत की रचना हो जाती है, वे ही श्रीसीताजी श्रीरामजी के बायें भाग में स्थित हैं।
[चौ0 सं0 136 और 137 में देखिए, वहाँ श्री पार्वतीजी को ही आदिशक्ति और अजा (जो जनमे नहीं) कहा गया है।]