12. केवल सुनिये नहीं, कीजिए भी

प्यारे लोगो !
नहँ बालक नहँ यौवने, नहँ विरधी कछु बन्ध।
वह अवसर नहीं जानिये, जब आई पड़े जमफंद।।’
 इसीलिए जो घड़ी अभी मिली है, उस घड़ी को सुमिरण-ध्यान भजन में लगा देना चाहिए। समय बाँध-बाँधकर त्रयकाल सन्ध्या करनी चाहिए। एक समय वह होता है, जब भिनसर (ब्रह्ममुहूर्त) होता है। दूसरा समय होता है, जब हमलोग स्नान करते हैं, उसके बाद और तीसरा सायंकाल। तीनों समय जो सन्ध्या करेगा वह अवश्य ही उत्तम जन्म पाकर थोड़े ही जन्मों में मोक्ष प्राप्त करेगा। कहा गया है-
यह शरीर सागर अवगाहा। यहि कर नहिं कोइ पावहिं थाहा।
अन्तर उलटि निरेखै जोई। आवागमन मिटावै सोई।।’
 यह शरीर बड़ा समुद्र है। इसमें स्नान करने से इसकी कोई थाह नहीं पाता है। इसके सम्बन्ध में बाबा नानक ने कहा है-
लख-लख अकासा, लख-लख पताला।
 बाबा नानक आज नहीं हैं, लेकिन उनकी वाणी आज भी है। उनके वचन में है-
क्या बकरी क्या गाय है, क्या अपनी जाया।
सबका लोहू एक है, साहब फरमाया।।
पीर पैगम्बर औलिया, सब मरने आया।
नाहक जीव न मारिये, पोखन को काया।।’
जो लोग संयम से खाते हैं, उनका मन संयमित हो जाता है। क्या जानें, शरीर कब खत्म हो जाएगा-बालपन में, युवापन में या बुढ़ापे में? कब यह शरीर खत्म हो जाएगा, ठिकाना नहीं।
 जो भगवद्भजन करता है, वह इस जन्म में भी अच्छा होता है, भला बनता है, अन्त में मोक्ष पाता है। सन्त कबीर साहब ने इस शरीर के सम्बन्ध में कहा है-
डुबकी मारी समुँद में, निकसा जाय अकास।
गगन मंडल में घर किया, हीरा पाया दास।।’
 यह शरीर ऐसा ही है। ऐसा कि यह बड़ा समुद्र है। इसकी थाह लोग नहीं पाते हैं। इसमें जो मरजीवा-बहुत देर तक गोता लगानेवाले यानी जो बहुत देर तक ध्यान लगाते हैं, वे कई जन्मों के बाद मोक्ष पा लेते हैं।
 एक फकीर थे। रामानन्द स्वामी के समय की बात है। फकीर ने अपने चेले को रामानन्द स्वामी के पास भेजा। फकीर के चेले ने रामानन्द स्वामी से पूछा कि आपने कुछ हराम खाया है। यों मुसलमान लोग सुअर को हराम कहते हैं । लेकिन सो बात यहाँ नहीं है। काम, क्रोध, मोह, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष आदि, ये ही हराम हैं। ये सब जल्द वश में नहीं आते। रामानन्द स्वामी ने जवाब दिया कि ‘सुअर हराम नहीं है, काम, क्रोधादि विकार ही हराम हैं, धीरे-धीरे लोग इनको खाते हैं यानी वश में करते हैं और खाते-खाते अर्थात् वश में करते-करते जो इन विकारों को अपने वश में पूर्णरूपेण कर लेते हैं, वे कृत-कृत्य हो जाते हैं। कृत-कृत्य क्या हो जाते हैं? सन्त सुन्दरदासजी की वाणी में है-
श्रवण बिना धुनि सुनै, नयन बिनु रूप निहारै।
रसना बिनु उच्चरै, प्रशंसा बहु विस्तारै।।
नृत्य चरण बिनु करै, हस्त बिनु ताल बजावै।
अंग बिना मिलि संग, बहुत आनन्द बढ़ावै।।
बिनु शीश नवै जहँ सेव्य को, सेवक भाव लिये रहै।
मिलि परमातम सों आतमा, पराभक्ति सुन्दर कहै।।’
 एक परा-भक्ति है, तो दूसरी अपरा-भक्ति होनी चाहिए। भक्ति यानी एक निम्न-श्रेणी की भक्ति है और दूसरी उच्च-श्रेणी की भक्ति है। सुमिरण, स्थूल ध्यान या भजन, निम्न-श्रेणी का भजन है। इसमें जो परिपक्व हो जाते हैं, तो बिना कान के अन्तर्नाद सुनते हैं। आँख बन्द है, लेकिन अन्दर में देखते हैं। अन्तर में बिना जिभ्या की ही ध्वनि होती है। यह पराभक्ति है। इसके पहले अपरा में यानी निम्न-श्रेणी के सुमिरण, ध्यान भजन में परिपक्व होना चाहिए। इसी के लिए त्रयकाल सन्ध्या है। भिनसर में (अर्थात् सूर्य उगने के पहले ब्राह्ममुहूर्त में) सोकर उठने पर आँख धोकर, कुल्ली कर के, सुमिरण, ध्यान, भजन तीनों करना चाहिए। फिर दोपहर में स्नान करके तथा सायंकाल पैर, हाथ
धोकर, कुल्ली कर के करना चाहिए। जो इस तरह त्रयकाल सन्ध्या बराबर करता रहेगा, तो उसको होगा कि बैठा है और भजन होता है। लोगों से बातचीत होती है और भजन भी होता है। यह है परा-भक्ति। लेकिन अपने मन से क्या बतावे, जबतक अच्छे गुरू नहीं हो, तबतक इस बात को क्या जाने। इसीलिए कहा है-
गुरु कीजिये जान, पानी पीजिये छान।’
 गुरु को देखकर यानी जाँचकर करना चाहिए। देखना चाहिए कि विकार इनमें होता है या नहीं। पहले तो पढ़ानेवाले गुरु चाहिए। ये नहीं हो तो संसार का काम नहीं चलेगा। दूसरे गुरु वे होते हैं जो कहते हैं-‘संसार का भी काम करो और सुमिरण, भजन, ध्यान भी करो।’ इसको करते-करते बढ़ जाते हैं तो बैठे हैं, ध्यान होता है, बात करते हैं, भजन होता है। इनसे अनुचित काम नहीं होता है।
 आपलोगों को देखकर मुझे बड़ी खुशी होती है। पहले यहाँ रामायण का पाठ हुआ। बिना बिछावन के ही आपलोग यहाँ बैठ गए। केवल सुनिए ही नहीं, कीजिए भी। हमारे यहाँ नियम है कि पहले छह महीने तक मांस-मछली खाना छोड़िए, तब भजन-भेद लीजिए। हमारे वासे में लहसुन-प्याज कुछ नहीं चलता है। जिभ्या को वश में कीजिए, इन्द्रियाँ वश में होगी। साधन करते करते फिर होगा-
सोवत जागत ऊठत बैठत, टुक विहीन नहिं तारा।
झिन झिन जन्तर निशि दिन बाजै, जम जालिम पचिहारा।
 जितने हमारे संग के लोग हैं, सब ब्रह्मचारी हैं। किन्हीं का विवाह नहीं हुआ है। जो कोई उचित काम करने योग्य हैं, ये लोग करने से बाज नहीं आते हैं। शुरू में हमारे हाथ का भी चमड़ा मोटा हो गया था, क्योंकि हमने भी खुरपी चलायी है, कुदाल भी चलाया है। अब यह अवस्था है, ये लोग हमको खिलाते है, तो हम खाते हैं।
(महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर, 20.02.1983 ई0)