18. अन्तर के शून्य में खोजना

प्यारे लोगो!
 ‘लोगो’ यह सामूहिक-शब्द है। इसमें माई-वर्ग के और पुरुष वर्ग के सभी लोग आ जाते हैं। जिस तरह कोई हाट है। उस हाट में जाओ, तो उसमें बहुत-से लोग-कुछ महिला-वर्ग के, कुछ पुरुष-वर्ग के होते हैं। इसी तरह ‘लोगो’ कहने से सब लोग आ जाते हैं। कोई प्रणम्य हैं, कोई आशिष देने योग्य हैं, ये बिल्कुल-के-बिल्कुल इसमें आ जाते हैं।
 सब कोई सोचिए, देह जैसे-जैसे बढ़ती है, आयु वैसे-वैसे घटती जाती है। एक दिन ऐसी घटेगी कि यह शरीर रहेगा नहीं। देह में शिशुकाल, बाल्यकाल, विद्या-उपार्जन का काल होता है। फिर लोग विवाहित होते हैं। उनके भी बच्चे होते हैं। इस प्रकार जितने होते हैं, ‘लोगो’ कहने में सब आ जाते हैं।
 जैसे यह मन्दिर है। इसके ऊपर छत है। इसी तरह यह संसार है। इस संसार की भी छत है। बाहर देखने से मालूम होता है, आकाश-ही-आकाश है। कुछ घटाकाश है, कुछ मठाकाश है, कुछ पटाकाश है। सबके ऊपर महदाकाश है। यही संसार है। जो ऊपर का महदाकाश है, यदि बादल नहीं हो, तो देखेंगे कि सब तरफ साफ है। रात्रि में चन्द्रग्रह दिखाई पड़ते हैं। चन्द्र नहीं रहता है, तो बहुत-से तारे दीख पड़ते हैं। यह एक ब्रह्माण्ड की बात है और कितने ब्रह्माण्ड हैं, जिसका कोई ठिकाना नहीं। मैंने बचपन में ही पढ़ा था-
       प्रभु पूरन ब्रह्म अखण्डा। जाके रोम कोटि ब्रह्मण्डा।।
 हम भी किसी एक ब्रह्माण्ड के हैं और एक परिवार के एक देहवाले हैं, सबके लिए यही बात है। एक परिवार है, तो उसमें एक-एक देहवाले हैं। सब कोई यहाँ से आगे-पीछे चले जा रहे हैं। यही है संसार। जबतक संसार में रहोगे, तबतक आने-जाने में रहोगे, इसी को आवागमन का चक्र कहते हैं।
 संसार से बाहर जाने के लिए वायुमान से उड़ो या और कोई यन्त्रा बने, उस पर उड़ो, फिर भी आकाश मालूम होगा। यह आकाश कहाँ तक है, उसका पता नहीं। कुछ पता लगता है, जो आंँख से देखने में आते हैं कि आकाश में अनेक तारे हैं। इसकी गिनती नहीं है। आकाश में ही सूर्य हैं, चन्द्र हैं। ये अनेक तारे कहाँ हैं? पता नहीं; क्योंकि हमारी इन्द्रियों से अनेक तारों का सही ज्ञान नहीं हो पाता है। सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय का ज्ञान रखती हैं। मन को ज्ञान होता है; लेकिन मन शरीर के ढक्कन में है। बुद्धि को ज्ञान होता है, तो बुद्धि भी वैसी ही होती है। हमलोग ‘मैं, तू’, बोलते हैं। मैं कौन हूँ? इसका ज्ञान नहीं है। योगी लोग कहते हैं, इसको कैसे जानोगे?
 बाहर में अपने को खोजता हूँ, तो शरीर के बाहर अपने को नहीं पाता हूँ। शरीर का बहिरंग और अन्तरंग है। शरीर के अन्दर के शून्य में क्या है? यह न कोई सर्जन जानते हैं, न कविराज जानते हैं। इसको योगी लोग जानते हैं, ऐसा ही सुना है। अन्तरंग के शून्य में क्या है? वही उसकी खोज करेगा, जो अपने अन्तर में डूबेगा। इसीलिए कबीर साहब ने कहा-
कबीर काया समुँद है, अन्त न पावै कोय ।
मिरतक होइ के जो रहै, मानिक लावै सोय ।।
दूसरे सन्त भी कहते हैं-
यह शरीर सागर अवगाहा। यहि कर नहिं कोइ पावत थाहा ।।
अन्तर उलटि निरेखै जोई। आवागमन मिटावै सोई ।।
      -सन्त नवलदासजी
 अन्तर के शून्य में खोजना, यह ज्ञानवान का काम है, भीख माँगनेवाले का काम नहीं है। घर में भी योगी, बाहर में भी योगी। जिस तरह समस्त समाज के एक मुखिया जरूर होते हैं, उसी तरह समस्त संसार के कोई मुखिया जरूर हैं। वे ही हैं परमात्मा।
 हमलोगों के शरीर में अंग-प्रत्यंग अनेक हैं लेकिन सब मिलकर एक ही देह है। एक अंग कट जाने से जैसे शरीर का अंग-भंग हो जाता है, शरीर कमजोर हो जाता है, उसी तरह समाज का भी कोई अंग हट जाय, तो देश में कमजोरी आएगी। इसलिए इसको बचावें और जहाँ तक हो सके, उनकी मदद करें और विशेष क्या कहूँ? सन्तसेवीजी बहुत कह चुके हैं, उनसे जो सुने हैं, सो कीजिए। संसार के काम में कोई त्राटि नहीं आएगी। संसार में जो यश का काम कर जाएँगे, उनका यश बना रहेगा।
 
[(मालदा, पं0 बंगाल 24.10.1981 ई0)]


४५. पिछले पहर का ध्यान अवश्य करो [22.10.1981]

"बंदऊं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ॥"
प्यारे लोगो!
यह दोहा मेरा अपना नहीं है, गो० तुलसीदास जी महाराज का है। गो० तुलसीदास जी महाराज गुरु के चरण-कमलों की वन्दना करके कहते हैं कि हमारे अन्दर जो अज्ञानता यानी अन्धकार है, उसको दूर कर दीजिये। संसार में लोग जो कुछ जानते हैं, वह गुरु के द्वारा जानते हैं। बच्चा जब जन्म लेता है, तो उसे बोलने नहीं आता है। माता-पिता के सिखाने पर बोलने लगता है। जो जन्म से गूंगा होता है, उसके लिए भी स्कूल है, परन्तु सब बात वह बोल नहीं सकता। यह जो साज हारमोनियम है, यह मृदङ्ग के सामने कुछ नहीं है। जब आप मृदङ्ग सुनेंगे तो ऐसा प्रतीत होगा कि सब साज मात हो गये। कथा है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों जब परम-प्रभु की कृपा से इस संसार में आये, तो उन लोगों का संसार में मन नहीं लगता था। संसार में मन लगाने के लिए राग-रागिनियों को पैदा किया और राग-रागिनियों में लगाकर उन लोगों को संसार में लगा दिया। हमलोग संसार में आ गये हैं; संसार में लग गये हैं। हमलोगों को ब्रह्मा, विष्णु, महेश का काम नहीं करना है, बल्कि अपना काम
करना है। जब हम कहते हैं कि यह हमारा हाथ है, यह हमारा पैर है, यह हमारा मुँह है, यह हमारी बुद्धि है, तब यह प्रश्न होता है कि आप कौन ? इन्द्रियों के ज्ञान में जो जानने में आता है, वह आप नहीं हैं। जो इन्द्रियों से जानने में नहीं आता, वहीं आप खुद हैं। यह वेदान्त की बात केवल सुन लेने से नहीं होता, बल्कि सुन लिया, मनन किया, मनन करके जो साधन निर्णीत हो गया, उस साधन का अन्त कर दिया, तब अपने स्वरूप की अनुभूति होती है। अर्थात् अपने स्वरूप का ज्ञान होता है। आप स्वरूपतः शरीर नहीं हैं। यह शरीर जड़ है। शरीर में जितने अंग-प्रत्यंग हैं, उनमें से आप कुछ नहीं हैं।
कहते हैं कि परमात्मा अनाम है। यह अनाम-शब्द भी कहने में आ गया। जो कहने में आ गया, वह माया है। इसलिये शब्दातीत-पद को जानना चाहिये। यह केवल सुन लेने से कुछ नहीं होता। अपने अन्दर में जो साधन करते हैं, वे शब्दातीत-पद को पाते हैं।
जाग्रत् में देखते हैं कि सब कुछ है। स्वप्न में जो कुछ देखते हैं, जागने पर वह असत्य हो जाता है। जो निटठाह-नींद या गहरी-नींद की अवस्था है, वह तो बेहोशी की अवस्था है। जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति से ऊपर तुरीय-अवस्था है। तुरीय से परे तुरीयातीतावस्था है। उसी को शब्दातीत-पद कहते हैं। ईश्वर-भक्ति में सबसे पहले गुरु की बड़ी महत्ता है। इसीलिये जानकार गुरु कीजिये। गो० तुलसीदास जी ने कहा है
ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास ।
निर्गुन कहै जो सगुन बिनु, सो गुरु तुलसीदास ॥
अज्ञान के पद को छोड़कर यानी अन्धकार के पद को छोड़कर जो उस प्रकाश की बात कहते हैं, जिस प्रकाश के बाद अन्धकार नहीं होता, सदा प्रकाश-ही-प्रकाश रहता है, उसमें जो प्रतिष्ठित होते हैं तथा सगुण के परे निर्गुण का जिनको प्रत्यक्ष-ज्ञान हो गया है, वे ही सच्चे सद्गुरु हैं? लेकिन ऐसे कौन हैं, कहना बड़ा कठिन है।
जो समाधिस्थ योगी होते हैं, संसार को छोड़ बैठते हैं। यदि ऐसे ही योगी संसार को छोड़कर बैठ जायँ तो संसार में घोर-अन्धकार यानी अज्ञानता बढ़ जाएगी और लोग जो भी नहीं करने का, सो भी करने लग जायेंगे। ऐसा नहीं होना चाहिये। अन्धकार से परे जाकर प्रकाश की बात वे ही कर सकते हैं, जिनको प्रकाश प्राप्त हो गया है। निर्गुण-सगुण का अर्थ तो बड़ा निराला है। वह कहने का मुझको अख्तियार नहीं है। जो अवतारी-पुरुष होते हैं या देवियाँ होती हैं, जैसे भगवान् राम, भगवान् कृष्ण या श्री माता कालीजी, श्री माता दुर्गा जी, श्री माता सरस्वती जी इनमें क्या-क्या शक्ति है, यह भी मेरे कहने का अख्तियार नहीं। इन सबों की केवल स्तुति करके रह जाता हूँ। असल बात यह है कि जो अपने को पहचानता है अपने शरीर से भिन्न होकर, वही परमात्मा को भी पहचानता है। जो यह बात जानता है, वही असल में आत्मज्ञान जानता है। लेकिन वह कहा नहीं जा सकता। संसार को थोड़ा कहा जाता है समझने के लिये।
सन्तमत कहता है कि ध्यान करो। पिछले पहर रात में, दिन में स्नान के बाद ,फिर संध्याकाल ध्यान-साधन करो। रात में जब-जब नींद टूटे, तब-तब थोडा ध्यान करो। यदि नींद न माने तो फिर सो जाओ, लेकिन पिछले पहर का ध्यान अवश्य करो।
जागै ना पिछले पहर, करै न गुरु मत जाप।
मुंह फाड़े सोवत रहै , ताकूँ लागै पाप ।।
                                सन्त चरणदास जी
सन्तमत संसार का भी काम नहीं छुड़ाता है और जिससे अपना काम हो अर्थात आत्म-कल्याण हो, वह भी नहीं छुड़ाता है। सरकारी नौकरी करते हो, तो भी भजन ध्यान करो। होते-होते एक दिन ऐसा होगा कि परमात्मा से मिलकर एकमेक हो जाओगे।
   सृष्टि के पूर्व केवल परमात्मा थे और कुछ नहीं। परमात्मा ने यह संसार बना लिया। कोई कहते हैं कि सब कोई ध्यान करके ईश्वर में मिल जायेंगे, तो संसार कैसे रहेगा। मैं कहता हूँ कि परमात्मा फिर बना लेंगे। साधु-सन्त जो बतावें, वह साधन-भजन भी करो और संसार का भी काम करो। जो ऐसा करते हैं, उसको संसार के किसी काम में कोई झंझट नहीं होता है और परलोक भी बनता है। यह काम चार खानि, चौरासी लाख योनियों में और किसी से नहीं होगा, केवल मनुष्य-शरीर में ही होगा। हमलोगों को ईश्वर की कृपा से मनुष्य-शरीर मिला है। बड़ा भाग्य है। इससे कुछ-न-कुछ साधन-भजन करते रहना चाहिये और करते-करते यह काम तमाम करना चाहिये। मुझसे पूछो कि तुमको क्या है? मैं कहूँगा कि मुझे कुछ खेती भी है, जो बटाईदारी में है। पहले मैंने अपने से भी परिश्रम किया है। इसलिये न संसार के काम को छोड़ो, न मोक्षदायी काम को, जो सबसे उत्तम काम है। इस काम को करने में कभी भूल न कीजिये। इससे संसार भी अच्छा और परलोक भी बन गया। सन्तमत यही बतलाता है।
यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत कटिहार जिले के श्री सन्तमत-सत्संग आश्रम, मनिहारी में दिनांक २२/१०/१९८१ को हुआ था।