03. ईश्वर-प्राप्ति के लिए गुरु-ज्ञान चाहिए

प्यारे लोगो !
 यह बात निर्विवाद है कि शान्ति बाहर की चीजों में नहीं है। शान्ति असल में अपने अन्दर में है। मन शान्त है, बुद्धि शान्त है, तो शान्ति है। मन में संकल्प-विकल्प होता रहता है, बुद्धि में तर्क-वितर्क होता रहता है। इन दोनों को चुप कर दो, लेकिन मन-बुद्धि-ये दोनों शरीर के ऊपर लगे हुए नहीं हैं, शरीर के अन्दर हैं, इन दोनों को चुप कर दो। लेकिन यह कोई आसान काम नहीं है, कठिन काम है।
 आप अभी जगे हुए हैं। बाहर की वस्तुओं को देखते हैं। आप सो जाएँ, स्वप्न में आ जाएँ, तो वे ही सब चीजें जानने में आवेंगी, जो आपने जागने की अवस्था में देखी है। जागने में और सपनाने में बुद्धि चुप नहीं होती और मन भी चुप नहीं होता है। इससे आगे आप बढ़ते हैं, तो गहरी-नींद में जाते हैं, तो बाहर की सब चीजें भूल जाते हैं। आपको कोई ज्ञान नहीं रहता है। जगने पर इतना मालूम होता है कि बहुत नींद से सोया। सन्त लोग कहते हैं कि यह तो स्वाभाविक है, और भी आगे बढ़ो, जिसे तुरीयावस्था यानी चौथी अवस्था कहते हैं। यह सहज ही में होने योग्य नहीं है। सत्संग के द्वारा गुरु से ज्ञान पाकर अध्यात्म-ज्ञान को जानिये और गुरु का चुनाव कीजिए, जो आपको बतावें कि तीन अवस्थाओं से आगे कैसे बढ़ा जाय। यह गुरु कैसा हो ?
ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास।
निर्गुण कहै जो सगुण बिनु, सो गुरु तुलसीदास।।
यह गोस्वामी तुलसीदासजी की दोहावली में है। जो अज्ञानपद को
छोड़कर ज्ञान के पद में आ गया हो, असल में वही गुरु कहलाने योग्य है। अन्धकार में अज्ञानता रहती है, ज्ञान नहीं रहता है। जहाँ अन्धकार है, वहाँ कौन-कौन बैठे हैं, पता नहीं लगता। साधक कुछ ऐसा साधन करता है, जिससे अन्धकार से प्रकाश में जाता है। अन्दर में प्रकाश नहीं हो, तो आँख में रोशनी कहाँ से आती है ? यह कहिये कि बाहर की रोशनी देखने से आँख में रोशनी आती है, तो यह बात ठीक नहीं है। अपने अन्दर में जो प्रकाश है, उसमें जो रहता है, वह ज्ञान में रहता है। अन्धकार में रहनेवाला ज्ञान की बात नहीं जान सकता है। मैंने पहले ही गुरु की वन्दना की है-
बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिंधु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।
 जिनका वचन सूर्यकिरण के समान मोहरूपी अन्धकार को दूर करे, ऐसे कृपालु गुरु नररुप में हरि होते हैं। ऐसा ही गुरु चाहिए और सत्संग भी चाहिए। गुरु से सीखना चाहिए कि क्या करें, क्या साधना करें? परमात्मा-ईश्वर सर्वसमर्थ हैं, वे कहाँ नहीं हैं? हमारे, आपके-सबके अन्दर हैं। लेकिन वे ज्ञान नहीं देते कि आवागमन के चक्र से कैसे छूटोगे? जानकार गुरु के द्वारा वे सिखलाते हैं। उनका यही नियम है।
जे सउ चन्दा उगवहि, सूरज चड़हि हजार।
एतै चानण होदिआ, गुरु बिनु घोर अन्धार।।
 यह गुरु नानकदेवजी कहते हैं। सौ चन्द्रमा उग जाएँ, हजारों सूर्य बाहर में उग जाएँ, लेकिन बिना गुरु के अंदर में अंधकार ही रहेगा।
इसीलिए गुरु की आवश्यकता गुरुनानक साहब बतलाते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं, जबतक गुरु नहीं तबतक तुम्हारे अंदर प्रकाश नहीं, और भवसागर से उद्धार नहीं। जितने विद्यालय हैं, सबमें किताबें रख दीजिए, कोई अध्यापक नहीं रहे, तो छात्रों को क्या ज्ञान होगा?
 गुरु की महिमा बहुत है। बाहर में शरीरधारी गुरु की बड़ी महिमा है। लेकिन गुरु गुरु हो, गोरु नहीं। जिस विद्या को जो सिखलावें, उसमें भी वे विशेष ज्ञानवान हों। यह सन्तों की विद्या ईश्वर की प्राप्ति-साक्षात्कार करानेवाली है। ईश्वर की प्राप्ति कैसे होगी? इसके लिये गुरु-ज्ञान की जरूरत है।
 ईश्वर-पाने के लिए बाहर कहीं जाने की जरूरत नहीं है। भगवान श्रीराम ने वाल्मीकिजी से पूछा था कि मैं कहाँ रहूँ। वाल्मीकिजी ने कहा कि आप कहाँ नहीं हैं, सो कहिए। वाल्मीकिजी के सामने प्रत्यक्ष-रूप में भगवान श्रीराम मौजूद थे। फिर भी वे कहते हैं-
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर।
अविगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह।।
-रामचरितमानस
 सर्वव्यापक-तत्त्व को यहाँ स्वरूप कहा है। जो आप स्वयं हैं वही आपका स्वरूप है। आप शरीर नहीं हैं, शरीर में आप रहते हैं। उसी को आत्मा कहते हैं। उसे आत्म-दृष्टि से देखना होता है। जो आत्म-दृष्टि का अभ्यास करता है, तब उसको आत्म-दर्शन होता है, तभी परमात्म-दर्शन
भी होता है। यही सन्त लोग बतलाते हैं। रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं-
नर तन भव वारिधि कहँ बेरो।
 संसार-सागर को पार करने के लिये मनुष्य-शरीर नाव है-बेड़ा है। मनुष्य-शरीर पाकर ईश्वर-भजन कीजिए, सत्संग कीजिए और एक बात, जो गुरुनानक देवजी महाराज ने कही है, उसे भी याद रखिए-
सूचै भाड़े साचु समावै, विरले सूचाचारी।’
 मन की पवित्रता शरीर के स्नान से नहीं होती है; सत्संग और साधन, से होती है। इसलिए सबको चाहिए कि सत्संग करना, गुरु से यत्न जानना और नित्यप्रति समय बाँट.बाँटकर भजन करना। भोजन का समय, आराम का समय, रोजगार का समय, साधना का समय इस प्रकार बाँट-बाँटकर भजन करते रहेंगे, तो कभी-न-कभी कई जन्मों में ईश्वर को पा लेंगे। भक्ति का संस्कार आपके साथ जन्म-जन्मान्तर रहेगा। सन्त कबीर साहब ने कहा है-
भक्ति बीज बिनसै नहीं, जो युग जाय अनन्त।
ऊँच नीच घर जन्म लै, तउ सन्त को सन्त।।
भक्ति बीज पलटै नहीं, आय पड़े जो चोल।
कंचन जो विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल।।
यह साधन करते-करते होगा। शान्त-भाव से नित्यप्रति कुछ-न-कुछ सत्संग अवश्य करते रहें। कोई वक्ता न हो तो सन्तवाणी पढ़ें, उसी का सत्संग में पाठ करें। यही थोड़ा-सा कह दिया।
(काजीचक, भागलपुर 15.1.1980 ई0,)



12. श्रद्धाशील को ज्ञान होता है
प्यारे लोगो!
आपलोग अपने-अपने अन्दर से पूछिए या अपने को पूछिए कि आपकी प्यारी चीज क्या है? मुझसे पूछिए, तुम्हारी प्यारी चीज क्या है? मैं कहूँगा कि मेरे लिए प्यारी चीज है सुख। कहीं इस संसार में या इन्द्रियों से ग्रहण होने योग्य पदार्थ में सुख मिला? मैंने अपने से पूछा। उत्तर आया-नहीं, कहीं नहीं। दुःख के बाद सुख और सुख के बाद दुःख होते रहते हैं, जैसे दिन के बाद रात और रात के बाद दिन अनवरत-रूप से होते रहते हैं, इसी तरह दुःख-सुख होते रहते हैं। सुख तो वह होना चाहिए कि जहाँ माँग कुछ न रहे। माँग नहीं रहे, इसके लिए जो करना होगा, वह सन्तों ने कहा। वह क्या कहा? सन्तों ने कहा-माँगना भूल जाओ। माँगो ही मत। माँगने की भूख-माँगने की बात आये ही नहीं।
जाग्रत-अवस्था में माँग-ही-माँग है, स्वप्न में भी उसी प्रकार। सुषुप्ति-गहरी नींद में केवल अज्ञानता और ठहराव नहीं। ठहराव हो भी जाय, अज्ञानता रहे, तो क्या लाभ? सन्तों ने कहा-इन तीनों अवस्थाओें से आगे जाओ चौथी अवस्था में। उसको तुरीय कहते हैं, उसमें जाओ। यह विद्या अपने से किसी में आ जाय, यह सम्भव नहीं। यह विद्या उस गुरु से जानें, जो गुरु अपने को चौथी अवस्था में पहुँचाकर माँग को खत्म किए हैं। ऐसे गुरु की पहचान क्या है? उनको बिल्कुल पहचान लेना असम्भव है। जो नित्य-प्रति साधन में लगकर रहे या एकदम चुप हो जाय। वे साधन आरम्भ कर रहे हैं या साधना की समाप्ति कर चुके हैं, यह हम कैसे समझेंगे। इसलिए उनकी पहचान कठिन है। गो0 तुलसीदासजी ने भी लिखा है-
ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास ।
निर्गुण कहै जो सगुण बिनु, सो गुरु तुलसीदास ।।
इस प्रसंग से ज्ञात होता है कि आँख-बन्द करने की बात बहुत पुरानी है। अभी आपने सुना-
‘बन्द कर दृष्टि को फेरि अन्दर करै, घट का पाट गुरुदेव खोलै ।’
‘आँख कान मुख बन्द कराओ। अनहद झिंगा शब्द सुनाओ ।।
दोनों तिल एक तार मिलाओ। सब देखो गुलजारा है ।।’
यानी दोनों पुतलियों को एक मिलाकर देखे। इसी को सन्तों ने दृष्टि-साधन कहा है। हमलोगों के यहाँ दृष्टि-साधन, फिर शब्द-साधन है। दृष्टि-साधन से मन इतना एकाग्र हो जाता है कि विन्दु को देख सकते हैं। जिसका स्थान है, परिमाण नहीं, ऐसा विन्दु कोई देखते हैं? केवल मान लेते हैं। जैसे दो रेखाओं के मिलन पर एक विन्दु होता है, रेखागणितवाले कहते हैं वैसे ही दोनों दृष्टियों की धरों का जब मिलन होता है, तो ज्योति-विन्दु का उदय होता है। जब देखते हैं, तो सुनते भी हैं। अपने अन्दर में देखने लगते हैं, तो दृष्टियोग है और फिर यदि अपने अंदर में सुनने लगते हैं, तो नादानुसंधान है। फिर उपनिषद् में है-
विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम् ।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।
      -योगशिखोपनिषद्
अर्थात् विन्दु-नाद महालिंग है और शिव-शक्ति का घर है। इस देह को शिवालय कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्ध मिलती है।
विन्दुनादं महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम् ।
देहं विष्ण्वालयं प्रोक्त सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।
अर्थात् विन्दु-नाद-रूप जो महालिंग है, वही विष्णु और लक्ष्मी का घर है। इस देह को विष्णुमन्दिर (ठाकुरबाड़ी) कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्ध मिलती है।
अर्थात् वो अज्ञान से ऊपर उठे हों, अंधकार से ऊपर उठे हों। आँख बन्द करने पर अंधकार मालूम होता है। अंधकार के बिना जो प्रकाश है, उसमें जो रहता है, वही सगुण-पद को छोड़कर निर्गुण-पद में जाता है। यह कैसे समझा जाए? यहाँ केवल श्रद्धा काम करती है।
हमलोग पाठशाला में पढ़ने गए थे। गुरुजी ने कहा-यह ‘अ’ है। हमलोगों ने पढ़ लिया। वहाँ तर्क-वितर्क कुछ नहीं। अब उम्र बढ़ी, तो उक्ति भी हुई। हमलोगों को ज्ञान और उक्ति चाहिए। केवल तर्क से बुद्धि चंचल हो जाती है। ईश्वर है, नहीं है, इसमें मन की चंचलता हो जाती है। ईश्वर ऐसे हैं, वैसे हैं, कह सकते हैं, तो क्या पहचान कर कहते हैं? भाव यह है कि जैसा हम कहते हैं, यदि वैसा हम बन जाएँ, तो ठीक-ठीक ज्ञान हो जाएगा। चाहिए कि हम श्रद्धाशील बनें। श्रद्धाशील को ज्ञान होता है।
श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।।
      -श्रीमद्भगवद्गीता, अ0 4 श्लोक 36
अर्थात् जितेन्द्रिय, तत्पर हुआ श्रद्धावान पुरुष ज्ञान को प्राप्त होता है। ज्ञान को प्राप्त होकर तत्क्षण भगवत्प्राप्ति-रूप परम-शान्ति को प्राप्त हो जाता है।
अभी आपलोग नेत्र-बन्द करने की बात सन्तसेवीजी से सुन रहे थे। आँख-बंद करने की बात मैं कहता हूँ-जब शमीक मुनि आँख-बंद किए निश्चेष्ट होकर बैठे थे, उस समय के राजा परीक्षित थे, जो अर्जुन के पौत्र थे। वे कलियुग के राजा थे। शमीक मुनि की आँखें बन्द थीं। राजा परीक्षित को प्यास लगी थी। वे मुनि के पास गए। मुनि ध्यानमग्न थे। इसीलिए वे राजा का सत्कार नहीं कर सके। इससे राजा परीक्षित की मुनि के प्रति क्रोध उत्पन्न हुआ। उन्होंने शमीक मुनि के गले में मरे हुए साँप को पहना दिया। मुनिजी के पुत्र को, जो बालकों के साथ खेल रहे थे, मालूम हुआ कि राजा परीक्षित ने उनके पिता के गले में मरा हुआ साँप लपेट दिया है। यह सुनते ही मुनि बालक ने शाप दे दिया कि आज के सातवें दिन राजा परीक्षित को तक्षक-सर्प दंश करेगा। राजा परीक्षित के सप्ताह पारायण भागवत करने के बावजूद भी तक्षक ने दंश कर ही लिया।
विन्दु और नाद का उपासक शिव-शक्ति से आशीर्वाद पाता है और विष्णु-लक्ष्मी से भी। इससे वह लक्ष्मीवान होता है और ईश्वर से रक्षा होता है।
##########
[अ0 भा0 संतमत-सत्संग का 72वाँ अधिवेशन, कटिहार (24.02.1980 ई0)]
##########



08. सत्संग करते रहिए, मोक्ष नजदीक है
प्यारे लोगो!
 यह बड़ा दालान सत्संग के निमित्त बनाया गया है। आपलोग इसमें सत्संग करने के लिए आये हुए हैं। सत्संग की बड़ी महिमा है। जैसे भूमि से सब प्रकार के अन्न उपजते हैं, फल उपजते हैं, उसी प्रकार सब प्रकार के ज्ञान सत्संग से उपजते हैं। जो विषय ज्ञान है, वह सही ज्ञान नहीं है। निर्विषय-ज्ञान ही यथार्थ है। वह इस सत्संग से जाना जाता है। साधु-सन्तों के संग को सत्संग कहते हैं। साधु-सन्तों के लिए गो0 तुलसीदासजी ने रामायण में लिखा है-
विधि हरिहर कवि कोविद बानी ।
कहत साधु महिमा सकुचानी ।।
 विधि = ब्रह्मा, हरि = विष्णु, हर = शिव और पण्डित की वाणी साधु की महिमा कहने से लटपटाती है, पूरा-पूरा कह नहीं सकती है। पूरा कौन कह सकेंगे? जो पूरे होंगे। जो पूर्ण हैं, वे अपने शरीर को अपूर्ण समझते हैं और शरीर में रहते हुए शरीर के त्यागी बनकर उसकी खोज में लग जाते हैं, जो सर्वदा शरीर-रहित है, जिसको जन्म देनेवाला कोई माता-पिता नहीं है। बाबा नानक कहते हैं-
ना तिसु मात पिता सुत बंधप, ना तिसु काम न नारी ।
अकुल निरंजन अपर-परंपरु सगली जोति तुमारी ।।
 सन्त दादू दयालजी कहते हैं-
अविगत अन्त अन्त अन्तर पट, अगम अगाध अगोई ।
सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई ।।
 शरीर के अन्तर-पट में जाओ, पता लग जाएगा। किसका? अविगत का। जो कहीं से हीन नहीं है, जो सबमें रहता है, वही ईश्वर है-परमात्मा है। उसका पता ऐसा लग जाता है कि जैसे उसको देख लिया, पहचान ही लिया। उसी के सम्बन्ध में गो0 तुलसीदासजी कहते हैं-
  जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।
 जो ब्रह्म को पहचानते हैं, वे ब्रह्मविद् ही नहीं, ब्रह्म ही हो जाते हैं। ये बातें लोग कहाँ पाएँगे? सत्संग की बड़ी महिमा है। गोस्वामी तुलसीदासजी विनय-पत्रिका में कहते हैं-
वेद पय सिन्धु सुविचार मन्दर महा,
अखिल मुनि वृन्द निर्मथन कर्त्ता ।
सार सत्संगमुद्धृत इति निश्चितं,
वदत श्रीकृष्णवैदर्भिभर्त्ता ।।
 यह बात कौन कहते हैं? रुक्मिणीजी के स्वामी श्रीकृष्ण भगवान कहते हैं। ज्ञान क्षीरसमुद्र है और उत्तम विचार मन्दराचल पहाड़ है। सम्पूर्ण मुनि लोग इसका मन्थन करते हैं। मन्थन करके क्या निकाल लेते हैं? सार-सत्संग। एक ही चीज सत्संग को निकाल लेते हैं।
 अगर श्रीकृष्ण भगवान को स्वरूपतः समझना हो, तो श्रीकृष्ण वे हैं, जिनके लिए बाबा नानक ने कहा-
             ना तिसु मात पिता सुत बन्धप, ना तिसु काम न नारी।
 उनको माता नहीं, पिता नहीं, कोई भी नहीं है। उनको कामना नहीं, भार्या नहीं; वे कुल-हीन हैं।
 ब्राह्मणकुल, क्षत्रियकुल, वैश्यकुल, शूद्रकुल आदि उनको नहीं है; लेकिन वे सारे संसार के पिता हैं, सबकी वे माता हैं। इसका पता कहाँ है?
 अविगत अन्त अन्त अन्तर पट, अगम अगाध अगोई।
 अपने अन्तर-पट के अन्त में चले जाओ, पता लगेगा। वहाँ क्या मिलेगा? सर्वव्यापी परमात्मा मिलेंगे। वह तो अन्तर के अन्तिम-पट की बात हुई और बाहर में क्या मिलेगा? गो0 तुलसीदासजी के कथनानुसार-
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई ।।
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ वेद न आन उपाऊ ।।
 सन्त दादूदयालजी ने ‘सुन्न सुन्न के पारा’ कहकर तीन शून्यों का जिक्र किया है। ये तीन शून्य क्या हैं तथा इन शून्यों के पार में क्या है? इसको जानना चाहिए।
 एक तो स्थूल आकाश यानी अंधकार है, उसको पार करो, तो प्रकाश मिलेगा और प्रकाश को पार करो, तो जो अंधकार और प्रकाश सबमें रहता है, वह ईश्वर का शब्द है। वह मिल जाय, तो ईश्वर मिल जाएँगे। बाकी कुछ नहीं रहेगा। सुविचार मिलेगा, यश मिलेगा, मोक्ष मिलेगा, ऐश्वर्य मिलेगा। शीलता मिल जाएगी। ये सब चीजें मिल जाएँ, तब पाने के लिए क्या बाकी बचेगा, सो कहिए! अर्थात् कुछ नहीं बचेगा।
 आपलोग बहुत अच्छा करते हैं कि सप्ताह के एक रोज रविवार-के-रविवार अपने घरों के कामों को छोड़कर यहाँ आकर सत्संग करते हैं। सत्संग में ये सब चीजें मिलती हैं। यह नहीं कि केवल मोक्ष ही मिलता है। सत्संग करनेवाले का जबतक जीवन रहता है, उसको धन भी मिलता है, ऐश्वर्य भी रहता है; लेकिन वह धन-ऐश्वर्य में लिप्त नहीं रहता है और सत्संग करता रहता है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में लिखा है-
जीवन्मुक्त ब्रह्म पर, चरित सुनहिं तजि ध्यान ।
जे हरि कथा न करहिं रति, तिन्ह के हिय पाषान ।।
 जीवन्मुक्त महापुरुष भी ध्यान को छोड़कर सत्संग करते हैं। सत्संग करनेवाली की अपनी बुद्धि परिमार्जित होती है और लोगों को भी लाभ होता है। ऐसा ही आपलोग करें।
 जो लोग वैदिकधर्मी हैं मात्रा उन्हीं के लिए यह सत्संग नहीं है। जो कोई आ जाओ, सबके लिए है। जिनको आने का शौक नहीं है, तो कैसे शौक किया जायगा? सत्संग में आयेंगे, तो शौक हो जाएगा। बराबर सत्संग में आते रहिये। सत्संग करते रहिये। मोक्ष नजदीक है। खाने, पीने, पहनने, ओढ़ने में कमी नहीं रहेगी। पहले जीवन्मुक्ति, फिर बाद में विदेहमुक्ति होगी।
[महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर (18.03.1980 ई0)]
##########
 
 
* मैं न स्थूल उपासना करने से मना करता हूँ और न उसमें फँसकर रहने कहता हूँ। प्रतिमा है वा जीवित मूर्ति है, तो उसको प्रणाम करने में कोई हर्ज नहीं। परमात्मा सब जगह है ही। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-‘अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा वसत....’
* जो परमात्मा सबमें रहता है, उसको पहचानो, तब कहना ही क्या! जो सबमें एक है, उसको कैसे पहचानोगे? अपने-ही-आप नहीं पहचान सकते। यदि अपने-ही-आप पहचान हो जाती, तो संसार में गुरु की आवश्यकता ही क्या थी!
 



07. गुरु, ध्यान और सत्संग
प्यारे लोगो!
 आपलोग जानते हैं कि आजकल वर्षा ऋतु का दिन है। इस ऋतु में कभी सूर्य देखने में आते हैं, तो कभी नहीं। कभी सूर्य उगते हैं, तो कभी बादल में छिप जाते हैं। कभी हवा चलती है, कभी बन्द होती है। कभी बूँदें गिरती हैं, कभी बूँदें नहीं गिरतीं। आपलोग धन्य हैं कि इस मौसम में अपने घर का काम छोड़कर अपने समय को सत्संग में लगाते हैं।
 सन्तमत नाम से ही प्रकट होता है कि यह शान्तिदायक है। शान्तिस्वरूप परमात्मा स्वयं हैं। जो उनसे मिलते हैं, वे भी शान्तिमय हो जाते हैं। ऐसे सन्तों के मत को सन्तमत कहते हैं। सन्तमत का सिद्धान्त बहुत छोटा है-गुरु, ध्यान और सत्संग। गुरु कैसा होना चाहिए?
 ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास ।
 निर्गुन कहै जो सगुन बिनु, सो गुरु तुलसीदास ।।
 यह गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज की दोहावली में है। मतलब यह कि गुरु वे होते हैं, जो अज्ञानपद से ऊपर उठकर ज्ञान कहनेवाले हों। अज्ञान पद अंधकार है। उससे ऊपर यानी प्रकाश में जाकर ज्ञान का कथन करे। अंधकार के बाद प्रकाश में जाने के लिए सिवा दृष्टियोग के कोई यत्न नहीं है। निर्गुण का कथन तो ऐसा करे कि वहाँ सगुण नहीं हो। अर्थात् सगुण से ऊपर उठकर निर्गुण का वर्णन करें। संसार में निर्गुण और सगुण; दोनों मिले-जुले हैं। त्राय गुण-सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण। इन तीनों गुणों से परे के पदार्थ का ध्यान करे और उनकी वहाँ की पहुँच रहे। ऐसे गुरु की पहचान वे ही कर सकते हैं, जो स्वयं वैसे हों वा वैसे होने के पथ पर चलते हों। ऐसे ही गुरु का सत्संग और उनकी सेवा करें।
 सत्संग थोड़े-काल करे। तब भी कुछ लाभ ही होता है। जब दीर्घकाल तक सत्संग करें, तो गुरु का गुण जाना जाता है। जब गुरु का गुण जाना जाय, तब उससे दीक्षा लेकर अपने कुछ साधना करे। इसका लसंग हो जाने पर कभी वह लसंग नहीं छोड़ता है। सन्त कबीर साहब ने कहा है-
 भक्ति बीज बिनसै नहीं, जो जुग जाय अनन्त ।
 ऊँच नीच घर जन्म ले, तउ सन्त को सन्त ।।
 भक्ति बीज पलटै नहीं, आय पड़ै जो चोल ।
 कंचन जौं विष्ठा पड़ै, घटै न ताको मोल ।।
 सत्संग यही चीज है। जैसे सोना कहीं विष्ठा में भी पड़ जाय, तो उसका मोल नहीं घटता, उसी तरह भक्ति का संस्कार ऊँच-नीच घर में जन्म लेने पर भी मिटता नहीं। इसके लिए सत्संग और ध्यान-भजन करते रहना चाहिए। भजन-ध्यान करते रहने पर जीवन्मुक्ति की दशा प्राप्त होगी। जीवन्मुक्त महापुरुष भी सत्संग करते हैं-
 जीवन्मुक्त ब्रह्म पर, चरित सुनहिं तजि ध्यान ।
 जे हरिकथा न करहिं रति, तिनके हिय पाषान ।।
        -गो0 तुलसीदास
 जीवन्मुक्त होकर भी जबतक शरीर रहे, तबतक सत्संग करे और कराये। उसको तो ऐसा हो जाता है कि-
 सोवत जागत ऊठत बैठत, टुक विहीन नहिं तारा ।
 झिन झिन जंतर निसिदिन बाजै, जम जालिम पचिहारा ।।
        -दरिया साहब, बिहारी
 हम सबके अन्दर में कुछ ऐसा यंत्र है, जो बजता ही रहता है। असल में वह सारशब्द है। उसको पा लेने पर यम का भी डर नहीं रहता। ‘झिन-झिन जन्तर’ से यही बात है कि जिसके अन्दर में वह शब्द दिन-रात बजता ही रहे, उसको यम का डर नहीं रहेगा। वह अपने को देखकर परमात्मा को देखता रहेगा। ऐसा ही सत्संग करना चाहिए। यह जो सन्तवाणी दरिया साहब की वाणी है-‘झिन-झिन जन्तर निसिदिन बाजै’ इसमें सारशब्द का इशारा है। जबसे यह शब्द प्राप्त हो जाता है, तबसे बजता ही रहता है, क्या सोने में, क्या जगने में उसे सुनेगा ही। उस सारशब्द को सुनता हुआ काम भी करता रहेगा और कर्मबन्ध्न से निर्लिप्त रहेगा। एक ही जन्म में ऐसा नहीं होता है। एक जन्म से दूसरे जन्म तक इसका संस्कार लगा रहेगा, सारशब्द का साधक कभी उस शब्द से नहीं छूटेगा। छूटेगा तभी जब परमात्मा से मिलकर एक हो जाएगा। ऐसा साधक अवश्य सदाचारी होगा। सदाचारी होने से वह शीलवान होगा। शीलवान होने से संसार के लोगों को वह प्रिय होगा। मतलब यह है कि वह बाहर और भीतर के सत्संग में रत रहकर कर्मयोगी बनकर संसार में रहेगा, उसकी ऐसी दशा हो जाएगी कि-
 जल तरंग जिउ जलहि समाइआ, तिउ जोति संगि जोति मिलाइआ ।
 कहु नानक भ्रम कटे किवाड़ा, बहुरि न होइअै जउला जीउ ।।
      -गुरु नानक साहब
 वह परमात्मा में ऐसे मिल जाता है, जैसा कि सन्त कबीर साहब ने कहा है-
            ज्यों जल में जल पैस न निकसे, यौं ढुँरि मिला जुलाहा ।।
 ‘जुलाहा’ से मतलब कबीर साहब। कबीर साहब अन्तस्साध्ना करके परमात्मा में मिल गये थे। जैसे जल में जल पैठकर अलग नहीं होता, उसी तरह ब्रह्म को पाकर उससे मिलकर कोई अलग नहीं होता। सभी नदियों का जल जिस समुद्र में मिल जाता है, अलग नहीं होता है; उसी तरह साधक साधना करके परमात्मा में मिल जाता है। कभी वह आवागमन के चक्र में पड़कर इस संसार में नहीं आता।
[महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर (17.08.1980 ई0)]


३६. एक पलक बिसरै नहीं ज्यों गुण होय शरीर [26.10.1980]

"बंदऊँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ॥"
 प्यारे लोगो!
हमलोग अभी जागने की अवस्था में हैं और दिन भर जागने का है। किन्तु कभी कोई सो जाय तो यह दूसरी बात है। परन्तु रात्रि सबके लिये सिर्फ सोने की है। रात्रि दिन की अपेक्षा अवश्य अन्धकारमयी रहती है। उसी तरह हमारे जागने की अवस्था में जो कुछ ज्ञान है, वह सोने की अवस्था में न मालूम कहाँ चला जाता है? समास-रूप
में कहूँगा, अवस्था की बदली से ज्ञान की बदली होती है। जब हम सोने लगते हैं तो स्वप्न की अवस्था आती है, फिर सुषुप्ति की अवस्था आती है। इस अवस्था में कुछ नहीं जानते कि क्या कर रहा हूँ। दूसरे लोग जानते हैं कि इसका श्वास चलता है। जो साधक ज्ञान की ओर बढ़ रहे हैं, जिन्होंने श्रवण किया है, मनन किया है और
निदिध्यासन में रत हैं, उनको मालूम होता है कि और अवस्था है, वह तुरीय- चौथी अवस्था है। इसमें वैसे नहीं पहुँचा जाता। जो कोई गुरु इसका पता बता दे, उसकी सेवा करके युक्ति जाने और करे, तब उसको पता होगा कि चौथी अवस्था क्या है? मैंने गुरु से सुना है - उसमें विशेष प्रकाश होता है। साधक विचित्र-प्रकाश को देखता है, तो उसकी अवस्था बदल जाती है।घोर-अन्धकार की अवस्था नहीं रहती।
यहाँ बाहर संसार में जैसे प्रकाश को देखते हैं और शब्द भी सुनते हैं, वैसे ही अन्दर में विचित्र-प्रकाश को देखते हैं, तो विचित्र-शब्द भी सुनते हैं। बाहर में एकविन्दुता प्राप्त नहीं होती है। अन्दर के साधन से साधना करें तो एकविन्दुता प्राप्त होती है। गुरुजी ने ऐसा कहा, "अन्दर में विचित्र-प्रकाश के साथ विचित्र-शब्द सुनता है।" नादानुसन्धान करते-करते, जब सब शब्द लय होकर एक शब्द रह जाय तो उसको प्रणव-ध्वनि कहते हैं। उसमें जो लय हो गया, उसने परमात्मा को पाया। मैंने मुख्तसर या समास-रूप में कह दिया। मेरे कहने का मतलब कि कहते-कहते बहुत कह जाओ, करो कुछ नहीं तो कुछ नहीं मिलेगा। कहो भी और करो भी तो बहुत अच्छा। ऐसा साधन करो जैसा कि पलटू साहब ने कहा--
काजर दिहे से का भया, ताकन को ढब नाहिं॥
ताकन को ढब नाहि, ताकन की गति है न्यारी।
एकटक लेवै ताकि, सोई है पिव की प्यारी॥
ताके नैन मिरोरि, नहीं चित अन्तै टारै।
बिन ताके केहि काम, लाख कोउ नैन सँवारे।
ताके में है फेर, फेर काजर में नाहीं।
भंगि मिली जो नाहिं, नफा क्या जोग के माहीं॥
पलटू सनकारत रहा, पिय को खिन खिन माहिं।
काजर दिहे से का भया, ताकन को ढब नाहिं।
 कैसे ताके, ढंग से देखें। सन्त कैसे मुलायम होते हैं जो सब कोई समझ जायँ, इसका उदाहरण श्री रामकृष्ण परमहंस जी ने कहा- "आलू-बैगन की सब्जी जैसी मुलायम होती है, उसी तरह से सन्तों का हृदय कोमल होता है।"
गुरु की सेवा करके उनसे सीखोगे और साधना करोगे, तब कभी-न-कभी अवश्य तुम सन्त बन जाओगे।
भक्ति बीज बिनसै नहीं, जो जुग जाय अनन्त।
ऊंच नीच घर जन्म ले, तऊ सन्त को सन्त।
भक्ति बीज पलटै नहीं, आय पड़े जो चोल।
कंचन जो विष्ठा पड़े, घटै न ताको मोल ॥
 यह सन्त कबीर साहब की वाणी है। साधन करते रहना चाहिये। नहीं जानते हो तो जो साधन करते हैं, उनसे जानो। जिनको देखो कि ध्यान-पूजा में कुछ समय लगाते हैं, उनसे पूछो। तीन अवस्था से चौथी अवस्था में जाओ, उसको भी पार करो। साधन की यह पूर्णावस्था होगी। इसको वही जान सकते हैं, जो पूर्ण अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं, वे जो कहें सो करो। घर बैठे ही करो, कोई हर्ज नहीं। सन्त कबीर साहब ने कहा है
जौं गुरु बसै बनारसी, शिष्य समुन्दर तीर।
एक पलक बिसरे नहीं, जौं गुन होय शरीर ॥
 सन्तमत में करने के लिए कहा जाता है, कहने के अनुकूल करो।
यह प्रवचन दिनांक २६-१०-१९८० ई० को अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग के विशेषाधिवेशन के अवसर पर टाटा नगर में हुआ था।



३६. एक पलक बिसरै नहीं ज्यों गुण होय शरीर [26.10.1980]

"बंदऊँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ॥"
 प्यारे लोगो!
हमलोग अभी जागने की अवस्था में हैं और दिन भर जागने का है। किन्तु कभी कोई सो जाय तो यह दूसरी बात है। परन्तु रात्रि सबके लिये सिर्फ सोने की है। रात्रि दिन की अपेक्षा अवश्य अन्धकारमयी रहती है। उसी तरह हमारे जागने की अवस्था में जो कुछ ज्ञान है, वह सोने की अवस्था में न मालूम कहाँ चला जाता है? समास-रूप में कहूँगा, अवस्था की बदली से ज्ञान की बदली होती है। जब हम सोने लगते हैं तो स्वप्न की अवस्था आती है, फिर सुषुप्ति की अवस्था आती है। इस अवस्था में कुछ नहीं जानते कि क्या कर रहा हूँ। दूसरे लोग जानते हैं कि इसका श्वास चलता है। जो साधक ज्ञान की ओर बढ़ रहे हैं, जिन्होंने श्रवण किया है, मनन किया है और निदिध्यासन में रत हैं, उनको मालूम होता है कि और अवस्था है, वह तुरीय- चौथी अवस्था है। इसमें वैसे नहीं पहुँचा जाता। जो कोई गुरु इसका पता बता दे, उसकी सेवा करके युक्ति जाने और करे, तब उसको पता होगा कि चौथी अवस्था क्या है? मैंने गुरु से सुना है - उसमें विशेष प्रकाश होता है। साधक विचित्र-प्रकाश को देखता है, तो उसकी अवस्था बदल जाती है।घोर-अन्धकार की अवस्था नहीं रहती।
यहाँ बाहर संसार में जैसे प्रकाश को देखते हैं और शब्द भी सुनते हैं, वैसे ही अन्दर में विचित्र-प्रकाश को देखते हैं, तो विचित्र-शब्द भी सुनते हैं। बाहर में एकविन्दुता प्राप्त नहीं होती है। अन्दर के साधन से साधना करें तो एकविन्दुता प्राप्त होती है। गुरुजी ने ऐसा कहा, "अन्दर में विचित्र-प्रकाश के साथ विचित्र-शब्द सुनता है।" नादानुसन्धान करते-करते, जब सब शब्द लय होकर एक शब्द रह जाय तो उसको प्रणव-ध्वनि कहते हैं। उसमें जो लय हो गया, उसने परमात्मा को पाया। मैंने मुख्तसर या समास-रूप में कह दिया। मेरे कहने का मतलब कि कहते-कहते बहुत कह जाओ, करो कुछ नहीं तो कुछ नहीं मिलेगा। कहो भी और करो भी तो बहुत अच्छा। ऐसा साधन करो जैसा कि पलटू साहब ने कहा--
काजर दिहे से का भया, ताकन को ढब नाहिं॥
ताकन को ढब नाहि, ताकन की गति है न्यारी।
एकटक लेवै ताकि, सोई है पिव की प्यारी॥
ताके नैन मिरोरि, नहीं चित अन्तै टारै।
बिन ताके केहि काम, लाख कोउ नैन सँवारे।
ताके में है फेर, फेर काजर में नाहीं।
भंगि मिली जो नाहिं, नफा क्या जोग के माहीं॥
पलटू सनकारत रहा, पिय को खिन खिन माहिं।
काजर दिहे से का भया, ताकन को ढब नाहिं।
 कैसे ताके, ढंग से देखें। सन्त कैसे मुलायम होते हैं जो सब कोई समझ जायँ, इसका उदाहरण श्री रामकृष्ण परमहंस जी ने कहा- "आलू-बैगन की सब्जी जैसी मुलायम होती है, उसी तरह से सन्तों का हृदय कोमल होता है।"
गुरु की सेवा करके उनसे सीखोगे और साधना करोगे, तब कभी-न-कभी अवश्य तुम सन्त बन जाओगे।
भक्ति बीज बिनसै नहीं, जो जुग जाय अनन्त।
ऊंच नीच घर जन्म ले, तऊ सन्त को सन्त।
भक्ति बीज पलटै नहीं, आय पड़े जो चोल।
कंचन जो विष्ठा पड़े, घटै न ताको मोल ॥
 यह सन्त कबीर साहब की वाणी है। साधन करते रहना चाहिये। नहीं जानते हो तो जो साधन करते हैं, उनसे जानो। जिनको देखो कि ध्यान-पूजा में कुछ समय लगाते हैं, उनसे पूछो। तीन अवस्था से चौथी अवस्था में जाओ, उसको भी पार करो। साधन की यह पूर्णावस्था होगी। इसको वही जान सकते हैं, जो पूर्ण अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं, वे जो कहें सो करो। घर बैठे ही करो, कोई हर्ज नहीं। सन्त कबीर साहब ने कहा है
जौं गुरु बसै बनारसी, शिष्य समुन्दर तीर।
एक पलक बिसरे नहीं, जौं गुन होय शरीर ॥
 सन्तमत में करने के लिए कहा जाता है, कहने के अनुकूल करो।
यह प्रवचन दिनांक २६-१०-१९८० ई० को अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग के विशेषाधिवेशन के अवसर पर टाटा नगर में हुआ था।



४१. पहले मोटा-ध्यान, फिर महीन-ध्यान [08.04.1980]

"बंदऊं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ॥"
प्यारे लोगो!
   ईश्वर की भक्ति में जप का प्रथम स्थान है। जो मंत्र गुरु दें, उनका जप जब मुख से किया जाता है, वह मौखिक-जप कहलाता है। उसी को जब धीरे-धीरे होंठ और जिभ्या डुलाते हुए जप करते हैं, तो वह उपांशु कहलाता है। उसको केवल अपना कान ही सुनता है, उसे कोई दूसरा नहीं सुनता है। उसके बाद तीसरा है मानस-जप, उसमें होंठ और जिभ्या नहीं हिलती, केवल मन-ही-मन जप किया जाता है। इसे अपना कान भी नहीं सुनता है। यह एक प्रकार का ध्यान ही है। इसमें बड़ी एकाग्रता होती है। बिना ध्यान के कुछ नहीं होता है। हमलोग बचपन में पढ़ते थे तो पंडित जी कहते थे कि एकचित्त होकर पढ़ो, मन लगाकर सुनो। ध्यान लगाकर पढ़ो। मोटे-से-मोटा काम हल जोतना है, हलवाहे का मन गड़बड़ हो जाय तो बैल को फाल लग जाय। मतलब यह कि बिना ध्यान के कुछ नहीं होता है। ध्यान – मन के पूरे सिमटाव को असली ध्यान कहते हैं। पूर्ण सिमटाव कहाँ होता है? वह है विन्दु। यह बाहर की चीज नहीं है, अन्दर की चीज है। देखने की शक्ति को दृष्टि कहते हैं। देखा जाता है दृष्टि से । यह बहुत बारीक है। जो इसको समेटना जानता है, समेट लेता है, वह पूरे ध्यान में रहता है। किन्तु केवल जप से ही इतने सूक्ष्म-ध्यान की योग्यता नहीं हो सकेगी। इसीलिये मानस-जप के बाद मानस-ध्यान आवश्यक होता है। गुरु नानक देव जी कहते हैं। - गुरु की मूरति मन महि धिआनु।
 गुरु का ध्यान क्यों? भगवान् राम की, भगवान् कृष्ण की तथा अन्य देवों की मूर्तियों का ध्यान क्यों नहीं? इसलिये कि गुरु की मूर्ति प्रत्यक्ष है, लेकिन भगवान् की मूर्ति प्रत्यक्ष नहीं है। वे त्रेता में, द्वापर में हुए। उनकी जो मूर्तियाँ अभी हम मन्दिरों में देखते हैं, उनमें कुछ-न-कुछ हेर-फेर है। वैसे ही देवों की मूर्तियों में भी। लेकिन गुरु की मूर्ति तो प्रत्यक्ष है। इसलिये -
गुरु की मूरति मन महि धिआनु। गुरु कै शबदि मन्त्र मनु मानु॥ गुरु के चरण रिदै लै धारउ। गुरु पार ब्रह्म सदा नमसकारउ ॥ गुरुनानक साहब ने कहा और कबीर साहब कहते हैं
मूल ध्यान गुरुरूप है, मूल पूजा गुरु पाँव।
मूलनाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव।
 लेकिन गुरु होना चाहिये, गोरू नहीं। कबीर साहब कहते हैं -
गुरुनाम है ज्ञान का, शिष्य सीख ले सोय।
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोय।
गुरु में ज्ञान होना चाहिये और आचरण की पवित्रता होनी चाहिये। ऐसे गुरु के संग से शिष्य ज्ञान में आगे बढ़ता हुआ पूर्ण हो जाता है। ज्ञान में बढ़ते जाने का मतलब शरीर-ज्ञान में नहीं, आत्म-ज्ञान में बढ़ता है। आत्म-ज्ञान में रहने के कारण उसमें बहुत पवित्रता आती है। काम, क्रोध आदि विकार कमते जाते हैं और जब ज्ञान में पूर्ण हो जाता है, तो वह वैसे ही निर्विकार हो जाता है, जैसे परमात्मा निर्विकार हैं। इस तरह की पवित्रता पाकर वह साधक-शिष्य उस परम प्रभु परमात्मा में जा मिलता है। यह है ध्यान की महिमा।
गुरु से साधन-विधि जानकर ध्यानाभ्यास करना चाहिये। पहले मोटा-ध्यान फिर महीन-ध्यान। मोटे-ध्यान में इष्ट-मूर्ति का ध्यान और महीन में विन्दु-ध्यान हैं। विन्दु-ध्यान के बाद शब्द-ध्यान है। शब्द को कोई देखता नहीं है। यह बाहर का नहीं, अन्तर का शब्द है। जो उसको पकड़ता है, वह शब्द जहाँ से आता है, वहाँ खींचकर ले जाता है और अशब्द में पहुँचा देता है। अशब्द ही अनाम है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है -
एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानन्द परधामा ॥
 शब्द-साधना से वहाँ तक पहुँचा जाता है। इसमें दो बातें हैं- एक तो गुरु अच्छा हो और दूसरा करने वाला शिष्य भी सच्चा होना चाहिये। गुरु ने काम किया अपने गुरु से जानकर और शिष्य ने काम किया अपने गुरु से जानकर। सबकी जड़ है सत्संग। बराबर सत्संग करते रहने से गुरु के सम्बन्ध का ज्ञान होता है। गुरु से सुनकर उनसे भेद लेकर मनोयोग-पूर्वक साधना करता है, वह कृत-कृत्य हो जाता है। फिर वह संसार में नही आता है। गुरु की सेवा करते हुए सत्संग करते रहना चाहिये और साधन करते हुए अन्त में मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहिए।
यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत पूर्णिया जिले के जलालगढ़ में दिनांक ८/४/१९८० ई० को श्री लक्ष्मी निवास रुंगटा जी के निवास स्थान पर हुआ था।