08. सत्संग करते रहिए, मोक्ष नजदीक है
प्यारे लोगो!
यह बड़ा दालान सत्संग के निमित्त बनाया गया है। आपलोग इसमें सत्संग करने के लिए आये हुए हैं। सत्संग की बड़ी महिमा है। जैसे भूमि से सब प्रकार के अन्न उपजते हैं, फल उपजते हैं, उसी प्रकार सब प्रकार के ज्ञान सत्संग से उपजते हैं। जो विषय ज्ञान है, वह सही ज्ञान नहीं है। निर्विषय-ज्ञान ही यथार्थ है। वह इस सत्संग से जाना जाता है। साधु-सन्तों के संग को सत्संग कहते हैं। साधु-सन्तों के लिए गो0 तुलसीदासजी ने रामायण में लिखा है-
विधि हरिहर कवि कोविद बानी ।
कहत साधु महिमा सकुचानी ।।
विधि = ब्रह्मा, हरि = विष्णु, हर = शिव और पण्डित की वाणी साधु की महिमा कहने से लटपटाती है, पूरा-पूरा कह नहीं सकती है। पूरा कौन कह सकेंगे? जो पूरे होंगे। जो पूर्ण हैं, वे अपने शरीर को अपूर्ण समझते हैं और शरीर में रहते हुए शरीर के त्यागी बनकर उसकी खोज में लग जाते हैं, जो सर्वदा शरीर-रहित है, जिसको जन्म देनेवाला कोई माता-पिता नहीं है। बाबा नानक कहते हैं-
ना तिसु मात पिता सुत बंधप, ना तिसु काम न नारी ।
अकुल निरंजन अपर-परंपरु सगली जोति तुमारी ।।
सन्त दादू दयालजी कहते हैं-
अविगत अन्त अन्त अन्तर पट, अगम अगाध अगोई ।
सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई ।।
शरीर के अन्तर-पट में जाओ, पता लग जाएगा। किसका? अविगत का। जो कहीं से हीन नहीं है, जो सबमें रहता है, वही ईश्वर है-परमात्मा है। उसका पता ऐसा लग जाता है कि जैसे उसको देख लिया, पहचान ही लिया। उसी के सम्बन्ध में गो0 तुलसीदासजी कहते हैं-
जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।
जो ब्रह्म को पहचानते हैं, वे ब्रह्मविद् ही नहीं, ब्रह्म ही हो जाते हैं। ये बातें लोग कहाँ पाएँगे? सत्संग की बड़ी महिमा है। गोस्वामी तुलसीदासजी विनय-पत्रिका में कहते हैं-
वेद पय सिन्धु सुविचार मन्दर महा,
अखिल मुनि वृन्द निर्मथन कर्त्ता ।
सार सत्संगमुद्धृत इति निश्चितं,
वदत श्रीकृष्णवैदर्भिभर्त्ता ।।
यह बात कौन कहते हैं? रुक्मिणीजी के स्वामी श्रीकृष्ण भगवान कहते हैं। ज्ञान क्षीरसमुद्र है और उत्तम विचार मन्दराचल पहाड़ है। सम्पूर्ण मुनि लोग इसका मन्थन करते हैं। मन्थन करके क्या निकाल लेते हैं? सार-सत्संग। एक ही चीज सत्संग को निकाल लेते हैं।
अगर श्रीकृष्ण भगवान को स्वरूपतः समझना हो, तो श्रीकृष्ण वे हैं, जिनके लिए बाबा नानक ने कहा-
ना तिसु मात पिता सुत बन्धप, ना तिसु काम न नारी।
उनको माता नहीं, पिता नहीं, कोई भी नहीं है। उनको कामना नहीं, भार्या नहीं; वे कुल-हीन हैं।
ब्राह्मणकुल, क्षत्रियकुल, वैश्यकुल, शूद्रकुल आदि उनको नहीं है; लेकिन वे सारे संसार के पिता हैं, सबकी वे माता हैं। इसका पता कहाँ है?
अविगत अन्त अन्त अन्तर पट, अगम अगाध अगोई।
अपने अन्तर-पट के अन्त में चले जाओ, पता लगेगा। वहाँ क्या मिलेगा? सर्वव्यापी परमात्मा मिलेंगे। वह तो अन्तर के अन्तिम-पट की बात हुई और बाहर में क्या मिलेगा? गो0 तुलसीदासजी के कथनानुसार-
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई ।।
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ वेद न आन उपाऊ ।।
सन्त दादूदयालजी ने ‘सुन्न सुन्न के पारा’ कहकर तीन शून्यों का जिक्र किया है। ये तीन शून्य क्या हैं तथा इन शून्यों के पार में क्या है? इसको जानना चाहिए।
एक तो स्थूल आकाश यानी अंधकार है, उसको पार करो, तो प्रकाश मिलेगा और प्रकाश को पार करो, तो जो अंधकार और प्रकाश सबमें रहता है, वह ईश्वर का शब्द है। वह मिल जाय, तो ईश्वर मिल जाएँगे। बाकी कुछ नहीं रहेगा। सुविचार मिलेगा, यश मिलेगा, मोक्ष मिलेगा, ऐश्वर्य मिलेगा। शीलता मिल जाएगी। ये सब चीजें मिल जाएँ, तब पाने के लिए क्या बाकी बचेगा, सो कहिए! अर्थात् कुछ नहीं बचेगा।
आपलोग बहुत अच्छा करते हैं कि सप्ताह के एक रोज रविवार-के-रविवार अपने घरों के कामों को छोड़कर यहाँ आकर सत्संग करते हैं। सत्संग में ये सब चीजें मिलती हैं। यह नहीं कि केवल मोक्ष ही मिलता है। सत्संग करनेवाले का जबतक जीवन रहता है, उसको धन भी मिलता है, ऐश्वर्य भी रहता है; लेकिन वह धन-ऐश्वर्य में लिप्त नहीं रहता है और सत्संग करता रहता है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में लिखा है-
जीवन्मुक्त ब्रह्म पर, चरित सुनहिं तजि ध्यान ।
जे हरि कथा न करहिं रति, तिन्ह के हिय पाषान ।।
जीवन्मुक्त महापुरुष भी ध्यान को छोड़कर सत्संग करते हैं। सत्संग करनेवाली की अपनी बुद्धि परिमार्जित होती है और लोगों को भी लाभ होता है। ऐसा ही आपलोग करें।
जो लोग वैदिकधर्मी हैं मात्रा उन्हीं के लिए यह सत्संग नहीं है। जो कोई आ जाओ, सबके लिए है। जिनको आने का शौक नहीं है, तो कैसे शौक किया जायगा? सत्संग में आयेंगे, तो शौक हो जाएगा। बराबर सत्संग में आते रहिये। सत्संग करते रहिये। मोक्ष नजदीक है। खाने, पीने, पहनने, ओढ़ने में कमी नहीं रहेगी। पहले जीवन्मुक्ति, फिर बाद में विदेहमुक्ति होगी।
[महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर (18.03.1980 ई0)]
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* मैं न स्थूल उपासना करने से मना करता हूँ और न उसमें फँसकर रहने कहता हूँ। प्रतिमा है वा जीवित मूर्ति है, तो उसको प्रणाम करने में कोई हर्ज नहीं। परमात्मा सब जगह है ही। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-‘अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा वसत....’
* जो परमात्मा सबमें रहता है, उसको पहचानो, तब कहना ही क्या! जो सबमें एक है, उसको कैसे पहचानोगे? अपने-ही-आप नहीं पहचान सकते। यदि अपने-ही-आप पहचान हो जाती, तो संसार में गुरु की आवश्यकता ही क्या थी!