७४. मैंने परीक्षा नहीं ली [02.10.1979]
"बंदउँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर॥"
प्यारे लोगो !
श्री सीता जी महारानी और भगवान् श्रीराम सदा एक संग रहते हैं। एक समय जब जंगल में माया-सीता को रावण हरकर ले गया, तो सर्व-साधारण-लोग यह नहीं जानते थे की माया या छाया-रूप सीता हरी गई है। लोग जानते थे कि असली सीता हरी गई है। लक्ष्मण और रामजी घूमते थे जंगल-जंगल सीता जी को खोजने के लिए और शिवजी तथा सती जी भी उसी जंगल में घूमते हुए जा रहे थे। शिवजी ने श्रीराम से परिचय नहीं किया। शिवजी ने भगवान् राम को अलग से ही प्रणाम कर लिया। सती जी पूछती हैं - "भगवन् ! आपने इनको क्यों प्रणाम किया ? ये तो नर-शरीरधारी हैं। कहा जाता है कि राम ब्रह्म हैं -"राम ब्रह्म परमारथ रूपा।"
शिवजी ने कहा -"यह बात पूछकर क्या करोगी तुम ? ये वे ही हैं। अगर सन्देह है, तो जाकर परीक्षा ले लो।" सती जी सीता का रूप बनाकर गईं और उस रास्ते पर बैठ गईं, जिस रास्ते से भगवान् राम घूम रहे थे। सतीजी को देखकर श्रीराम ने उनको प्रणाम किया और पूछा - "हे सती जी ! आप अकेली क्यों घूमती हैं ? भगवान् शिवजी कहाँ हैं ?" सती जी को बड़ा आश्चर्य हुआ, वे आँखें बन्द करके बैठ गई, तो देखती हैं कि राम और सीता साथ हैं और लक्ष्मण जी भी पीछे हैं। फिर
आँखें खोलकर देखती हैं, वे ही तीनों हैं। बारम्बार आँखें खोलतीं और बन्द करके देखती हैं, तो वे ही भगवान् राम, सीता और लक्ष्मण हैं। सती जी को विश्वास हो गया कि भगवान् शिवजी जो कहते थे, सो बात ठीक है। इनकी महिमा अपार है, इनको कौन जान सकता है ? सती जी शिवजी के पास आकर बोली कि मैंने परीक्षा नहीं ली। आप जो कहते हैं, सो सत्य है। शिवजी ने ध्यान में देखा कि सती जी ने सीता का रूप बनाया था और भगवान् राम जी ने उनको प्रणाम किया है। मन-ही-मन भगवान् शिवजी ने सती का त्याग कर दिया। सती का मन-ही-मन त्याग करने से आकाश-वाणी हुई कि इस तरह महासुन्दरी सती जैसी पत्नी का त्याग करने वाला कौन होगा संसार में ? भगवान् शंकर चले गये कैलाश और मन में कर लिया कि इस तन में अब सती से मेल नहीं। इसीलिये अपनी बायीं ओर आसन नहीं देकर सम्मुख आसन दिया। फिर सती जाती है अपने पिता के यज्ञ में। वहाँ यज्ञ में देखती हैं कि सभी देवताओं का अंश हैं, परन्तु शिवजी का अंश नहीं। सती के मन में बहुत तकलीफ हुई, वे अपने आपको यज्ञाग्नि में गिरा देती हैं। वहाँ हाहाकार मच जाता है। यज्ञ भ्रष्ट हो गया। सीता जी का संग रामजी को और रामजी का संग सीता जी को है ही, यह सदा लगा ही रहता है। कहीं छूटने को नहीं है।
गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न-न-भिन्न।
बन्दउँ सीता राम पद, जिनहिं परम प्रिय खिन्न।
अर्थात् जैसे शब्द और उसके अर्थ को भिन्न कहते हैं, लेकिन भिन्न-भिन्न नहीं हैं, या जल तथा उसकी तरंग को अलग-अलग कहते हैं, लेकिन हैं दोनों जल ही। उसी तरह भगवान् राम और सीता जी अभिन्न है। इनके जन्म और कर्म अगणित हैं। नाम इनके अगणित हैं।
“यथा अनन्त राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुणगाना॥"
"रामायण सत कोटि अपारा॥"
बहुत कथाएँ, तो रामायण भी बहुत। लेकिन राम और सीता जी जो हैं, सो हई हैं। कहाँ ये मिलते हैं ? कहाँ इनका पता है ? एक तो पता सत्संग के बीच में और दूसरा पता है अपने अन्दर में। सत्संग की बात में तुलसीदास जी कहते हैं –
देहि सत्संग निज अंग श्रीरंग भव भंग कारन सरन सोक हारी।
और अन्दर की बात में कहते हैं –
एहि तें मैं हरि ज्ञान गंवायो।
परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं, बाहर फिरत विकल भय धायो॥
यह विनय पत्रिका में है। रघुनाथ कहने से दशरथ-पुत्र राम हो ही जाते हैं; और रामायण में कहते हैं –
जब तें राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा॥
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका, बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका॥
जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी। प्रथम अविद्या निसा नसानी॥
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने॥
विविध कर्म गुन काल सुभाऊ। ये चकोर सुख लहहिं न काऊ॥
मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्हकर हुनर न कवनिहुँ ओरा॥
धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना। ये पंकज विकसे विधि नाना॥
सुख संतोष विराग विवेका। विगत सोक ये कोक अनेका॥
यह प्रताप रवि जाके, उर जब करइ प्रकास॥
पछिले बाढहिं प्रथम जे, कहे ते पावहिँ नास॥
यह भगवान् का प्रताप-रूप सूर्य जब जिसके हृदय में प्रकाशित हो जाय, तब वे देखेंगे कि राम और सीता क्या है ? वे राम और सीता को सब ओर देख सकते हैं।
भये प्रगट कृपाला दीन दयाला कौसल्या हितकारी।
भगवान् प्रगट हो गये और चार भुजाओं को लेकर माता कौशल्या जी को दर्शन दिया। माता जी को विष्णु का रूप मालूम पड़ा, तो माता ने कहा -
माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
फिर भगवान् लीला करने लगे। विवाह हुआ। सबमें लीला-ही-लीला है। मेरे कहने का मतलब यह है कि राम-सीता को अभेद जानकर दशरथ-सुत कहकर या किन्हीं का पुत्र नही, ऐसा जानकर; क्योंकि ब्रह्म किसी का पुत्र नहीं है। इसी तरह निर्गुण मानकर या सगुण मानकर जो कोई ईश्वर का भजन करते हैं, वे अपने अन्दर में ही उनको पाते हैं। बाहर पाने का यत्न कुछ नहीं है। केवल अपने अन्दर में पाने का यत्न है। इसलिए संतों ने अन्दर के रास्ते को ही बहुत साफ तरह से समझाया है। यह प्राथमिक शिक्षा है। और आप लोगों ने अभी सुना है कि -
विन्दु नाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम्।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम्॥
इसमें कल्याण-ही-कल्याण होता है और "विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम्" भी कहा गया है। तो संसार में इसमें भरण-पोषण भी अच्छी तरह होता है। यह जानकर ईश्वर का भजन करना चाहिये।
अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव सम्भव खेदा।
निर्गुण रूप को खोजें तो पता ही नहीं चलता है और सगुण-रूप का भजन करें, तो पता चलता है कि ऐसा अंग-प्रत्यंग है।
अगर ठाकुरवाड़ी मे जाओ, तो एक ही रूप में कुछ घट-बढ़ होता है, ऐसा ज्ञात होगा। भजन करने की युक्ति गुरु से जाननी चाहिये। वाल्मीकि मुनि ने कहा है भगवान् राम से - तुम्हतें अधिक गुरुहिं जिय जानी। सकल भायं सेवहिं सनमानी॥
गुरु में ईश्वर को मान लो। लेकिन गुरु कैसा होना चाहिये, तो अभी पढ़ा है –
ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास।
निर्गुन कहै जो सगुन बिनु, सो गुरु तुलसीदास॥
ज्ञान का कथन करता है, लेकिन अपने अज्ञान-पद को छोड़कर। अज्ञान का पद अन्धकार है। अन्धकार में अज्ञानता है और प्रकाश में ज्ञान है। अन्दर के अन्धकार
से जो ऊपर उठा है, तब जो ज्ञान कहता है, वही गुरु है। ऐसे गुरु से मिलने का वा पहचान का बोध तभी होता है, जब कुछ-काल उनका संग करो, तो पता चलेगा कि वह साधन-भजन करता है। यदि वह साधन-भजन करता है, तो उसको गुरु करो। वह पहुँचा हुआ है, यदि यह आप जाँच सकें, तो फिर गुरु काहे को करें ?
इसकी कोई जाँच नहीं है। लेकिन जो साधन-भजन करते हैं और नेम रखते हैं, वे गुरु हो सकते हैं।
आसन दृढ़ आहार दृढ़, भजन नेम दृढ़ होय।
तो प्राणी पावै कछुक, नहिं तो रहै विषय रस मोय॥
कोई-कोई पूछते हैं कि आपके गुरु पहुँचे हुए थे, तो मैं कहता हूँ कि वे कहाँ तक पहुँचे थे, मैं नहीं जानता हूँ। लेकिन वे मुझसे ज्ञान में बढ़े थे। वे साधनशील थे। सद्ज्ञान देते थे। भजन की सद्युक्ति बताते थे। इसीलिये मैं उनको सद्गुरु या गुरु कहता हूँ। जो जीवन-भर साधन-भजन करते ही रह जाते हैं, वे ही गुरु हैं। बिना सत्संग के कोई गुरु को नहीं जान सकते।
इसलिये सत्संग नियमित रूप से करना चाहिये।
यह प्रवचन भगवान श्रीराम की अवतार भूमि श्री अयोध्या जी में दिनांक २.१०.१९७९ ई० को श्यामासदन आश्रम के प्रांगण में हुआ था।