23. विन्दु-नाद उपासना


प्यारे लोगो!
गुरु नानक साहब ने कहा है-
धरती उपाइ धरी धरमशाला। उतपति परलउ आप निराला।।
इस धरती को उन्होंने धर्मशाला कहा है। इस धरती पर हमलोग आते हैं, रहते हैं और चले जाते हैं। यह मकान तो नहीं है, धरती है। लेकिन धरती नहीं रहे, तो मकान कैसे बने? वह धरती धर्मशाला है और हमलोग यहाँ ठहरे हुए हैं, आते-जाते हैं। यही आना-जाना आवागमन का चक्र है। इस आवागमन के चक्र से कौन छुड़ाएगा? कोई कहे कि ईश्वर छुड़ाएँगे। ईश्वर तो अपने अन्दर ही हैं क्यों न वे कहते हैं कि यह करो या वह करो। हाँ, ईश्वर-कृपा से ही सन्त लोग आते हैं, वे ही यत्न बतलाते हैं, जिससे आवागमन छूटता है। सन्त कबीर साहब ने कहा है-
बहन बहंता थल करै, थल कर बहन बहोय ।
साहब हाथ बढ़ाइया, जस भावै तस होय ।।
ईश्वर की कृपा नहीं हो, तो सूर्य, चन्द्र, तारे आपस में टकरा कर खत्म हो जायँ। ईश्वर की कृपा से ही नियमपूर्वक ये सब चलते हैं। ईश्वर की कृपा से सन्त लोग होते हैं। वे ही गुरु होते हैं और जो साधन होना चाहिए, उसकी जो युक्ति है, वह वे बतला देते हैं। वे कहते हैं कि ऐसा करो, तब जहाँ पहुँचना चाहिए, वहाँ पहुँचते हैं। इसीलिए गुरु को ईश्वर से भी बड़ा कहा गया है।
गुरु हैं बड़े गोविन्द तें, मन में देखु विचार ।
हरि सुमिरै तो बार है, गुरु सुमिरै तो पार ।।
          -संत कबीर साहब
भगवान श्रीरामजी वाल्मीकि मुनि के सामने थे; लेकिन भगवान श्रीराम से वाल्मीकि मुनि ने कहा-
तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी।।
 वे गुरु क्या बतलाते हैं-
        विन्दु-ध्यान विधि नाद-ध्यान विधि।
नाद किसको कहते हैं? जिसमें बैल खाता है, बोलचाल में उसको भी नाद कहते हैं और नाद कहते हैं-शब्द को भी। यहाँ नाद कहा गया शब्द को।
 विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम्।
 देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम्।।
    -योगशिखोपनिषद्, अ01, श्लोक 167)
अर्थात् विन्दुनाद महालिंग है और शिव-शक्ति का घर है। इस देह को शिवालय कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्ध मिलती है।
 विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम्।
 देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम्।।
     -योगशिखोपनिषद्, अ05, श्लोक 4
अर्थात् विन्दुनाद-रूप जो महालिंग है, वही विष्णु और लक्ष्मी का घर है। इस देह को विष्णु-मंदिर (ठाकुरबाड़ी) कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्ध मिलती है।
जो विन्दु-नाद की उपासना करते हैं, शिव-शक्ति से रक्षित हो जाते हैं। जो विन्दु-नाद की उपासना करते हैं, वे विष्णु-लक्ष्मी की उपासना करते हैं। उनको खाने-पीने की कमी नहीं रहती। यथार्थ में विन्दु कहते किसको हैं? जिसका स्थान है, परिमाण नहीं। रेखागणित में जिस विन्दु के बारे में पढ़ते हैं, उसको तो मान लेते हैं। यथार्थ विन्दु वह नहीं है।
दोनों आँखों की दृष्टि-धरों को एक जगह स्थिर करो, विन्दु झलक जाएगा। यह आँख बंद करके करो, अंधकार रहने नहीं पाएगा।
 बंद कर दृष्टि को फेरि अन्दर करै, घट का पाट गुरुदेव खोलै।
         -कबीर साहब
विन्दु और नाद की उपासना करने से शिव-शक्ति भी रक्षा करते हैं और विष्णु-लक्ष्मी भी पालन-पोषण करते हैं। राम कहो या कृष्ण कहो, ये भी रक्षा करने लगते हैं। गुरु जैसा कहे, वैसा करो।
दोनों दृष्टि-धरों को एक जगह स्थिर करके रखो, विन्दु उपासना होगी। लेकिन कहाँ करो, गुरुगम्य है। इसलिए हमलोग जो सन्त-स्तुति करते हैं, उसमें कहते हैं-
विन्दु-ध्यान-विधि नाद-ध्यान-विधि, सरल सरल जग में परचारी ।
आप जाइए, जहाँ कथा-पुराण बहुत होते हैं लेकिन उसमें विन्दु और नाद-ध्यान कहाँ-कहाँ होता है, सो देख आइये। मैं यह नहीं कहता कि और कहीं नहीं है। ‘विन्दु और नाद’ की उपासना जहाँ नहीं है, वह सन्तमत नहीं है। इसका संकेत वेद-उपनिषद् में है, सन्तों के ज्ञान में है, मैंने भी अपने गुरु से जाना है।
ऊपर उठानेवाला यदि कोई ध्यान है, तो वह विन्दु-ध्यान और नाद-ध्यान है। जो गुरु विन्दु और नाद-ध्यान की जानकारी नहीं रखते, तो समझना चाहिए कि वे गुरु नहीं हैं। कृष्ण भगवान की मूर्ति है, राम भगवान की मूर्त्ति है, देवी भाई की मूर्त्ति है, गुरु महाराज की मूर्ति है, सबको टुकड़े-टुकड़े करो, तो कितने टुकड़े करोगे? सबसे जो सूक्ष्म होगा, वह विन्दु होगा। उसका स्थान रहेगा; लेकिन परिमाण नहीं होगा। इसके ध्यान में जो आता है, तो इतनी एकाग्रता होती है कि वह एकाग्रता बाहर के लिए अन्ध बना देती है। बाहर सुनने के लिए वह एकाग्रता बहरा बना देती है। तब अन्दर में जो देखता है, वह ब्रह्म-ज्योति और अन्दर में सुनने में जो आता है, वह है ब्रह्म-नाद। इसको शिव-शक्ति कहो या विष्णु-लक्ष्मी कहो। हमलोग यही उपासना करते हैं और लोगों से भी कहते-फिरते हैं। यह सन्त लोग भी करते हैं। जिन सत्संगी को इसकी युक्ति मालूम है, वे नित्य करें। जिनको जानकारी नहीं है, हौसला हो तो जानकार से जान लें। हमलोगों को बुलाया है, तो यहाँ के धर्मप्रेमियों को चाहिए कि इसपर खूब ध्यान दें कि विन्दु-ध्यान और नाद-ध्यान क्या हुआ? वैसे पैसे खर्च करनेवाले बहुत हैं। केवल पैसे खर्च करने से क्या लाभ होगा? सुनिए और उसको आचरण में लाइए, तो पूरा लाभ होगा।


[राँची नगर, 28.04.1979 ई0, रात्रि]


३४. हमेशह गुरु की याद करो।

"बंदऊ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ॥"
 प्यारे लोगो!
इस शरीर की हालत आपलोग देखते हैं। शरीर की हालतों में जो अच्छा या बुरा कुछ उपजते रहते हैं, वह सब आपलोग जानते और भोगते हैं। सबके लिये यही बात है। मेरा यह शरीर है, मेरा मन है, मेरी यह बुद्धि है इत्यादि लोग बोलते हैं। यह मेरा कहने वाला कौन है? इसको पहचानना चाहिए। बाहर संसार में तमाम घूमो और पूछते रहो कि मेरे को बता दो, मेरे को बता दो। कोई कहेंगे कि यह पागल है। कोई कहेंगे कि ज्ञान की बात कर रहा है। जो अच्छे लोग हैं, विशेषज्ञ हैं, वे कहेंगे- "तू अपने में खोज, तो अपने को पाएगा।"
  अपने में अर्थात् अपने शरीर में खोजोगे तो अपने को पा जाओगे। इस खोज में कोई अपने जानते लाख कोशिश करे, कोशिश में लगावे तो भी इसका पता नहीं पा सकता है। यह पता कोई तभी पाता है, जिसको पता बताने वाले मिले हैं। उनसे जाकर पूछिये। जिनको पता मिल गया है, वे ही अन्तर-साधन करने वाले पूर्ण साधु-सन्त हैं। साधु-सन्त को इसका पता मिलता है इसलिये कि वे अपने अन्दर खोजते हैं। अपने शरीर के अन्दर खोज कर लीजिये। अपने को समझे कि अपने शरीर में मैं कहाँ रहता हूँ। शरीर के ऊपर तो कहीं बैठा नहीं है और अपने को विश्वास भी नहीं है कि मैं शरीर हूँ। खोज करे, जहाँ वह बैठा है। बाहर में कहीं बैठा नहीं है। अन्दर खोज करे, बाहर का देखना छोड़कर। अन्दर में आँख बन्द करके पूछो कि मैं कहाँ हूँ। उत्तर आवेगा, अन्धकार में हूँ। अन्धकार कहाँ है? आँख में है। यहाँ से खोजना आरम्भ करो।
 जबतक अभ्यासी गुरु नहीं मिलेंगे, कैसे खोज करोगे, पता नहीं मिलेगा। बात-बात में गुरु की आवश्यकता होती है। बिना गुरु के एक अक्षर नहीं सीख सकते, माता-पिता भी नहीं सिखला सकते। ऐसे गुरु जो बता दें कि अन्धकार में कहाँ हो, वहाँ से कैसे चलना होगा? ऐसे गुरु कहाँ से मिलते हैं? सत्संग में मिलते हैं। सत्संग में यह ज्ञान उपजता है कि गुरु की खोज करो। इसलिए ईश्वर की पहली भक्ति सन्तों का संग है। दूसरी बात है कि सत्संग में जो वचन हो, उसे खूब प्रेम से सुनो। तीसरी बात है कि उस सत्संग-वचन में जो गूढ़ बात हो, उसको जानो। इसलिये गुरु की ऐसी भक्ति करो कि जिसका अन्दाजा नहीं। सदा गुरु के साथ में कोई रहे, यह भी संभव नहीं। इसलिये कबीर साहब ने कहा है
जौं गुरु बसै बनारसी, शिष्य समुन्दर तीर।
एक पलक बिसरे नहीं, जौं गुन होय शरीर ॥
 हमेशह गुरु की याद करो। द्वापर युग में द्रोणाचार्य एक गुरु हुए थे। कौरव-पाण्डव को वे धनुर्विद्या सिखलाते थे। एक भील-पुत्र भी गया उनसे सीखने के लिये, तो आचार्य द्रोण ने कहा, "मैं राजकुमारों को सिखलाता हूँ, दूसरों को नहीं।" वह भील-पुत्र था एकलव्य। उसने द्रोण की मूर्ति बनाई और उसका ध्यान करते हुए धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। होते-होते वह उस विद्या में इतना प्रवीण हुआ, जितना अर्जुन भी नहीं था। एक दिन ये लोग जंगल में घूमते थे। एक कुत्ता भी उनके साथ में था। वह कुत्ता एकलव्य को देखकर भौंका तो एकलव्य ने उस कुत्ते के मुँह में इतने तीर मारे कि उसका मुँह तीरों से भर गया। लेकिन एक बूंद भी खून नहीं गिरा। कुत्ता जब इन लोगों के पास वापस आया तो इन लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उस कुत्ते के पीछे-पीछे ये लोग चले। वह कुत्ता एकलव्य की कुटिया के पास खड़ा हो गया। द्रोणाचार्य ने पूछा- “यह विद्या तुमने किससे सीखी? " एकलव्य ने कहा- “आपसे। आपकी मूर्ति बनाकर और उसका ध्यान करके मेंने इस विद्या को हासिल किया।" कहने का तात्पर्य यह है कि जिसको गुरु में ज्यादा निष्ठा होती है, वह किसी-न-किसी तरह विद्या पाता है। गुरु के ख्याल से गुरु के संग से लोग विद्या पाते हैं।
राजा उत्तानपाद का पुत्र ध्रुव था। उसकी सौतेली माँ ने उसे पति की गोद से उतार दिया। ध्रुव तपस्या करने जंगल चला गया। पाँचों भाई पाण्डव एक माता के नहीं थे। युधिष्टिर, भीम और अर्जुन की माता कुन्ती थी। नकुल-सहदेव की माँ माद्री थी। सब सौतेली माताएँ एक-सी नहीं होतीं। कुन्ती ने नकुल और सहदेव का बहुत प्यार से पालन-पोषण किया। किसी माता को यदि सौत-पुत्र हो तो उसका प्यार से पालन करें और सच्चरित्रता धारण करें। कुन्ती बड़ी सती थी, और बड़ी विरक्ति उनमें थी। महाभारत-युद्ध के बाद जब पाँचों भाई पाण्डव का राज्य हुआ, तो धृतराष्ट्र और गांधारी दोनों जंगल चले। उनके संग कुन्ती भी जंगल चलने लगी, तो उनके पुत्रों ने इन्हें मना किया। कुन्ती ने कहा कि मैंने अपने पति के समय में बहुत सुख पाया। मैं भी अब जंगल जाऊँगी। उन लोगों के साथ कुन्ती भी चली गयी। लोगों को चाहिये कि सौत-पुत्र को सुदृष्टि से देखे और पतिव्रता भी रहे। पतिव्रता हुए बिना पवित्र-हृदय नहीं होता। पुरुष को भी चाहिये कि श्रीराम की तरह एक पत्नीव्रत धारण करे और ईश्वर-भजन करे, इसमें कौन मना करेगा? जिसका हृदय प्रशान्त महासागर की तरह स्थिर हो गया है (प्रशान्त महासागर में ढेव नहीं उठता और अन्य समुद्र में ढेव उठता है।), वही शान्ति पाता है, और हृदय शान्ति नहीं पाता। जो शान्ति पाता है, तो वह परमात्मा को पाता है। जैसे आकाश का अंश घटाकाश, मठाकाश होता है, लेकिन अभिन्न अंश है, इसी तरह बिना टूटा-फूटा हुआ अंश जीवात्मा, परमात्मा का अंश है। अंश तो आवरण बनाता है। आवरण टूट जाय तो अंश नहीं रहेगा। अंश अंशी में मिल जाता है। वह प्रशान्त महासागर की तरह स्थिर हो जाता है। जैसे ईश्वर हैं, उस ईश्वर से मिलकर वह भी ईश्वर हो जाता है। इन्हीं सब बातों को सन्तमत बतलाता है।
यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत अब झारखण्ड राज्यान्तर्गत संताल परगना जिले के फतेहपुर ग्राम में दिनांक १६-११-१९७९ ई० को प्रातःकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था।



४७. विन्दु को पकड़कर नाद में जायेगा [07.03.1979]


"बंदऊँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ॥"
प्यारे लोगो!
   यह बात अवशय है कि लोग सुख चाहते हैं। सुख की परिभाषा क्या है? लोग संसार में जैसा जानते हैं- मन और इन्द्रियों को जो सुहाता है, उसे सुख कहते हैं। परन्तु मन और इन्द्रियाँ विषयासक्ति में ही सुख देखते हैं। इनको और आँख ही नहीं है. देखें कहाँ से ? इनकी आँख केवल विषय की ओर है। मन-इन्द्रियाँ रूप, रस, शब्द, गंध और स्पर्श- इन पंच विषयों को ही ग्रहण करती हैं। शब्द लोग कान से सुनते हैं। कान के सुनने में बहुत प्रकार के बाजे, गाजे, राग-रागिनियाँ आती हैं; परन्तु सुखी नहीं होते। सुखी होते हैं वे, जो हरिदास जी बाबा के ऐसे होते हैं।
एक हरिदास बाबा थे। वे राग-रागिनी में पूर्ण थे। वे खोजते थे कि ऐसा कोई मिल जाय, जिसको मैं अपना ज्ञान सिखा दूँ। घूमते-घूमते वे बंगाल गये। आम के बगीचे में एक लड़का अपने पिता की आज्ञा से आम जोगने गया था। बगीचा साफ था, लेकिन बाघ की आवाज आती थी। वही लड़का बाघ की आवाज कर रहा था। बगीचे में कहीं बाघ दिखाई नहीं पड़ा। फिर भी बाघ की आवाज सुनकर वे खोजने लगे कि यह बाघ की आवाज कहाँ से आ रही है? वे खोजते-खोजते एक वृक्ष के नज़दीक पहुँचे तो देखा कि एक लड़का बाघ की तरह आवाज कर रहा है। उन्होंने लड़के से पूछा- "तुमने बाघ की तरह बोलना कैसे सीखा ?" लड़के ने कहा- "मैंने एक दिन बाघ को बोलते हुए उसकी आवाज सुनी। उसकी आवाज सुनकर मैंने बाघ की तरह बोलना शीघ्र ही सीख लिया। मेरे पिताजी ने आज्ञा दी कि "आम बगीचे में छिपकर बाघ की तरह बोलोगे तो लोग डर के मारे आम के बगीचे में नहीं आयेंगे।" बाबाजी को बड़ी प्रसन्नता हुई। उनकी समझ में आया, यह लडका मेरा संगीत अवश्य सीख लेगा। वे उस लड़के को उसके घर ले गये और उसके पिता को कहा- "इस लड़के का मेरे साथ जाने दो, मैं इसे संगीत सिखा दूँगा।" उस लड़के के पिता ने उसे बाबाजी के साथ जाने की आज्ञा दे दी। बाबाजी ने उसे अपनी गान-विद्या सिखा दी। वही लडका तानसेन के नाम से विख्यात हुआ और अकबर बादशाह के यहाँ दरबारी गवैया बना। एक दिन बादशाह ने कहा- "तुमने इतना अच्छा संगीत किनसे सीखा?" तानसेन ने कहा- "मेरे गुरु हैं हरिदास जी महाराज। उनसे ही मैंने संगीत विद्या सीखी है।" बादशाह ने कहा- "जब तुम इतना अच्छा गाते हो, तो तुम्हारे गुरु तो और उत्तम-ढंग से गाते होंगे। मुझे उनका संगीत सुनाने का प्रयास करो।" तानसेन ने कहा"अभी मैं जिस रूप में हूँ, वे जब मुझे देखेंगे तो शाप दे देंगे।" इसलिये मैं गुरु का रूप धारण करूँगा और आप मेरे शिष्य के रूप में मेरे साथ चलें, तब उनका संगीत सुनने का अवसर प्राप्त होगा।" बादशाह तैयार हो गये। जब हरि बाबा के नज़दीक दोनों पहुँचे, तो वे ध्यानस्थ थे। बहुत प्रतीक्षा करने पर भी जब उनका ध्यान नहीं टूटा, तब तानसेन ने अपने सितार की तान छेड़ी और संगीत आरम्भ किया। गाने में जानबूझकर कुछ त्रुटि कर दी। त्रुटिपूर्ण संगीत सुनते ही ध्यानावस्थित अवस्था में ही तानसेन के हाथ से सितार लेकर गाते हुए कहा- "बेटा इस तरह गाओ।" उनका मधुर-गान सुनकर बादशाह बेहोश हो गये। जब हरिदास बाबाजी का गाना समाप्त हुआ, तो ये दोनों वहाँ से चले आये।
 गले की आवाज में भी इतनी शक्ति है कि जिसके कारण लोग बेहोश हो जाते हैं। संतमत बताता है कि यह क्या है? न कोई तानसेन होंगे, न हरिदास बाबाजी होंगे, अपने अन्दर आवाज सुनो, तो इतनी मिठास होगी कि बाहर का कुछ सुनना नहीं चाहोगे।
  अन्दर में सुनने को ही नादानुसंधान वा सुरत शब्दयोग संतमत बताता है। इसकी क्रिया गुरु से सीखी जाती है। धीरे-धीरे वह शब्द सुनने में आता है, जो बाहर का नहीं, अपने अन्दर का है। ईश्वर का इससे क्या सम्बन्ध है? ईश्वर सारी-सृष्टियों में व्यापक हैं। आपके अन्दर भी हैं। शब्द को सुनेंगे तो ईश्वर तक जायेंगे, लेकिन वहाँ तक जाने के लिये यानी उस शब्द को पकड़ने के लिए क्या साधन है? सन्तों ने कहा- दृष्टि साधन करो। “मन में मन नेनन में नैना, मन नैना एक होइ जाय॥
मन में मन हो जाय। देखने की शक्ति एक हो जाय। देखने में दो दृष्टियाँ हैं। इनको मिलाओ। दोनों को मिलाकर देखो, एक नोक हो जाएगी। यही विन्दु है।
विन्दु में तहँ नाद बोले, रैन दिवस सुहावनं ॥
                                                -सन्त पलटू साहब
सुषम्ना में वह रास्ता है। आपके अन्दर की बायीं और दायीं-धार को इंगला पिंगला कहते हैं। बीच की धारा को सुषुम्ना कहते हैं। दोनों को मिलाकर बीच में देखो। वही सुषुम्ना की धारा होगी। उस धार पर जो ठहरता है, वहाँ ज्योतिर्मय-विन्दु मिलता है। वहाँ जो शब्द मिलेगा, वह ज्ञानमय, ज्योतिर्मय-शब्द है। उस शब्द को जो पकड़ता है, ईश्वर तक जाता है। दरिया साहब बिहारी ने कहा--
चुम्बक सत्त शब्द है भाई। चुम्बक शब्द लोक ले जाई ॥
मृतु अंध जबही नियरावै। चुम्बक शब्द जीव मुक्तावै ॥
लेइ निकारि होखै नहिं पीरा। सत्तशब्द जो बसै शरीरा ॥
जैसे चुम्बक अपनी ओर खींचता है, वैसे ही वह शब्द अपनी ओर खींचता है। खींचकर वहाँ ले जाता है, जहाँ नि:शब्द है। “नि:शब्दं परमं पदम्।" उपनिषत्कार ने कहा है, वहाँ पहुँच जायेंगे, परमात्म-धाम में जायेंगे। वहाँ जायेंगे, तो वह सुख मिलेगा, जिसके बाद फिर दु:ख नहीं मिलेगा। जो दृष्टि-साधन करते हैं, नादानुसंधान करते हैं, यह साधन सन्तों के अनुकूल है। साधन करते-करते अगर छूट जाता है, तो बारम्बार करते रहिये। इसीलिये कहा है
करत करत अभ्यास ते, जड़मति होत सुजान ।
रसरी आवत जात ते, सिल पर पड़त निसान ॥
रस्सी पत्थर पर बारम्बार आती-जाती है, तो वहाँ दाग पड़ जाता है। उसी तरह अभ्यास करते रहिये। करते-करते ऐसा हो जायेगा कि उसको किये बिना बनेगा नहीं। पहले कुछ मोटा-जप कर लो, फिर मोटा-ध्यान कर लो। जप में वाचिक-जप, उपांशु-जप और मानस-जप होता है। बोल-बोलकर जपना वाचिक-जप है। जिसमें ओंठ चले और केवल अपने सुने, उसे उपांशु-जप कहते हैं। जो मन-ही-मन जपा जाता है उसे मानस-जप कहते हैं। मानस-जप एक प्रकार का ध्यान ही है। इस जप को जो ठीक-ठीक करेगा, वह विन्दु को पकड़ेगा। विन्दु को पकड़कर नाद में जायेगा। इसके लिये संयम है- सदाचार का पालन करना, कदाचार का त्याग करना। स्वावलम्बी-जीवन बिताओ।
जीवन बिताओ स्वावलम्बी भरम भाँड़े फोड़िकर।
(महर्षि मेंही-पदावली)
खुश खाना है खीचड़ी, माहि पड़ा टुक लोन ।
मांस पराया खायकर, गला कटावे कौन ॥
-कबीर साहब
  कबीर साहब जीवन भर ताना-बाना करते रहे। यही विद्या उन्होंने सीखी थी। जीवनभर यही कमाई करते रहे। जो मिल जाता, उसी में वे खुश रहते थे। सन्तमत गृहस्थ-आश्रम छोड़ने नहीं कहता। कोई गृहस्थ-आश्रम छोड़ भी देता है, तो स्वावलम्बी-जीवन बिताता है।
यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत सिंघिया ग्राम में दिनांक ७/३/१९७९ ई० को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।



७२. सब बातों में देर लगा दो, किन्तु भजन खूब करो [02.09.1979]

"बंदउँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर॥"
प्यारे लोगो !
 सन्त पलटू साहब ने कहा है -
भजन आतुरी कीजिये, और बात में देर॥
और बात में देर, जगत में जीवन थोड़ा।
मानुष तन धन जात, गोर धरि करौं निहोरा॥
काँच महल के बीच, पवन इक पंछी रहता।
दस दरवाजा खुला, उड़न को नित उठि चहता॥
भज लीजै भगवान, याहि में भल है अपना।
आवागमन छुटि जाय, जनम की मिटै कल्पना॥
पलटू अटक न कीजिये, चौरासी घर फेर।
भजन आतुरी कीजिये, और बात में देर॥
सब बातों में देर लगा दो, किन्तु भजन खूब करो। भजन करने से मन को कभी नहीं हटाओ। भजन करते जाओ, करते जाओ। दूसरी बात है, गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने रामायण में लिखा है कि सुतीक्ष्ण नाम के एक मुनि थे। वे भगवान् श्रीराम के बड़े भक्त थे। वे खूब ध्यान करते थे। स्थूल-ध्यान में इतने तल्लीन हो जाते थे कि उनको बाहर की कुछ भी सुधि नहीं रहती थी। जंगल में घूमते हुए श्रीराम जी
उनके आश्रम में भी गये थे। जब सुतीक्ष्ण मुनि ने सुना कि श्रीराम जंगल आ गये हैं, तो वे प्रेम में मग्न हो गये और वे उस रास्ते में जाने लगे, जिस रास्ते से श्रीराम उनके आश्रम आ रहे थे। सुतीक्ष्ण मुनि अधिक दूर नहीं जा सके। प्रेमवश रास्ते में ही बैठकर ध्यान करने लगे। वे भगवान् के स्थूल-ध्यान में इतने तल्लीन हो गये कि जब श्रीराम उनके निकट आये तो उन्हें कुछ भी खबर नहीं हुई। श्रीराम ने उनको जगाने की कोशिश की, लेकिन वे जगे नहीं। तब श्रीराम ने, उनके जिस रूप का ध्यान वे कर रहे थे, उस रूप को बदल दिया। द्विभुजी-रूप को चतुर्भुजी-रूप में बदल दिया। ध्येय-रूप बदल जाने से सुतीक्ष्ण मुनि आकुल होकर उठ गये, जैसे मणियार साँप की मणि खो गयी हो। मुनि ने देखा कि सामने श्रीराम खड़े हैं। कहने का तात्पर्य है कि स्थूल ध्यान में भी मन इतना लीन कर लिया जाता है कि बाहरी कोई ख्याल नहीं रहता है - नजदीक की भी बात मालूम नहीं पड़ती। संतों के बताये गये और किस्म के भी ध्यान हैं, जैसे विन्दु-ध्यान और नाद-ध्यान। विन्दु-ध्यान और नाद-ध्यान संतों के खास ध्यान हैं। उपनिषद में है -
विन्दुनाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम्।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम्॥
और -
विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम्।
देहं विष्णवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम्॥
 यह आपका शरीर शिवालय भी है और ठाकुरवाड़ी भी। शिवालय अर्थात् शिव का घर। शिव कहते हैं कल्याण करने वाले को। सबका पालन करने वाले को विष्णु कहते हैं। अगर आप ध्यान में - नाद-ध्यान में लगे रहें, तो पालन-पोषण में भी कोई कमी नहीं होगी, यह पूर्ण विश्वास करके रखना चाहिये। यह शरीर के भीतर की बात है, बाहर की नहीं। इस ध्यान में मन के जितने विकार हैं, सब अस्त हो जाते हैं और जीवात्मा उन विकारों से रहित हो जाता है। इसलिये संतों ने विन्दु-ध्यान और नाद-ध्यान बतलाया है। विन्दु-ध्यान और नाद-ध्यान असली चीज है संतमत की। संतमत शान्ति पाने के लिए रास्ता बतलाता है। शान्ति प्राप्त हो जाने पर कोई कमी नहीं रहेगी और मंगल-ही-मंगल होता रहेगा। इसलिये हम लोगों को गुरु के बताये हुए विन्दु और नाद-ध्यान का अभ्यास बहुत अच्छी तरह से करना चाहिये। पहले अवश्य ही विन्दु ध्यान है, उसके बाद नाद ध्यान है।
विन्दु-ध्यान ऐसा हो कि एक विन्दु को छोड़कर दृष्टि किसी ओर नहीं जाय। अगर दृष्टि किसी ओर चली जाय तो विन्दु छूट जाएगा। दृष्टि को खूब टिकाये रखना, यह विन्दु-ध्यान में होता है। इसके बाद ही “विन्दु में तहँ नाद बोलै, रैन दिवस सुहावन।" होता है।
संसार और शरीर में ऐसी एकता है कि स्थूल-शरीर में रहो तो स्थूल-जगत् में रहो और सूक्ष्म-शरीर में रहो तो सूक्ष्म-जगत् में रहो। इसलिये 'जो पिण्डे सो ब्रह्माण्डे'
कहा है। संतमत कोई नया मत वा धर्म नहीं है। यह बहुत पुराना है। उपनिषदों में भी विन्दु-नाद-ध्यान का उपदेश है। केवल इसी युग के संत-महात्माओं ने इसके बारे में कहा है, ऐसा नहीं। प्राचीन-काल के ऋषि-मुनियों ने भी इसके बारे में कहा है। यह जानना चाहिये और बराबर इसका अभ्यास करते रहना चाहिये। अन्त में होते-होते क्या है ? हम लोग जो बोलते हैं कि 'मैं हूँ', इस 'मैं' की पहचान हो जाती है। इसी 'मैं' को जीवात्मा कहते हैं या आत्मा कहते हैं।
इसकी पहचान होने से 'ईश्वर अंश जीव अविनाशी' अर्थात् जीव-ईश्वर का अंश है, इसका प्रत्यक्ष बोध हो जाता है। जैसे एक बूंद पानी की पहचान हो जाने से
नदी-समुद्र के समस्त पानी की पहचान हो जाती है, वैसे ही जीवात्मा को निजस्वरूप की पहचान हो जाने से परमात्मा की भी पहचान हो जाती है। उसकी पहचान होने पर नित्य-सुख, परमानन्द अथवा स्वर्ग का सुख अपने में प्राप्त हो जाता है। उस सुख के बाद दूसरा कोई श्रेष्ठ सुख नहीं है। संसार में जितने सुख हैं, इन्द्रियों के सुख हैं, मन के सुख हैं। इसमें अदल-बदल होता रहता है। वह सुख ब्रह्मानन्द का सुख है, आत्मानन्द का सुख है, उसमें कल्याण भरा हुआ है। उसको पाकर फिर संसार में अकल्याण नहीं हो सकता। बारम्बार का जनमना-मरना मिट जाता है। अगर साधना पूरी नहीं होती है तो यह संस्कार पड़ा रहता है। यह संस्कार ऐसा है कि इससे किसी योगी कुल में या श्रीमान के यहाँ जन्म होता है। फिर खाने-पीने की कोई कमी नहीं रहती है। होते-होते मोक्ष को पाता है। सब जीवों का उद्धार हो जाय, इसलिये संतमत का यह उपदेश है।
हम लोगों को गुरु से यही ज्ञान मिला हुआ है। जो हमारे साथी हैं या हमारे पास आकर जो सुनना चाहते हैं, उनको हम लोग यही सुनाते रहते हैं। जब तक हम लोगों का जीवन और सुनने वालों का जीवन है, तब तक इस ज्ञान का उपदेश होता रहेगा।
यह प्रवचन दिनांक २.९.१९७९ ई० के प्रातःकाल में बिहार राज्यान्तर्गत भागलपुर नगर के श्रीगंगातट स्थित महर्षि मेंही आश्रम, कुप्पाघाट के सत्संग हॉल में हुआ था।



७३. शान्ति सबसे विशेष प्यारी चीज है [02।02.1979]

"बंदउँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर॥"
प्यारे लोगो !
आप अपने से पूछिये और लोगों से भी पूछिये और जीव-जन्तुओं के कार्य-कलापों को देखिये, तो आपको मालूम पड़ेगा कि आपको 'शान्ति' सबसे विशेष प्यारी चीज है। जो जीव-जन्तु हैं, आराम से सोया हुआ है, वह चौंककर उठता है और उसकी आँख कहती है कि हमारी 'शान्ति' भंग हो गई। संसार के पदार्थ को पाते-पाते लोग हैरान हो जाते हैं, लोगों में राजा रहें वा रंक हो। राजा अगर कुछ सन्तुष्ट है, तो वह अपने राज्य की सम्भाल में चंचल रहता है। चाहता है कि चंचल न रहूँ, शान्त रहूँ। गरीब लोग गरीबी की हालत को पसंद नहीं करके अमीरों को देखते हैं, कहते हैं - हम भी वैसे ही होते। इसमें उनका लालच उनको चंचल बनाता है। अमीर लोग कहते हैं कि हमको जो धन है, उसी से हम अमीर है। लेकिन कितना भी धन हो, और-और कहते ही जाते हैं। और-और कहने में कहाँ चैन मिलेगा। इन बातों में संतुष्टि नहीं है। बाहर संसार इससे हीन है। सन्तुष्टि है, सन्तोष में। सन्तोष है ज्ञान में। ज्ञान में भी ज्ञान, जिसके बाद और ज्ञान नहीं है, जिसको अनुभव-ज्ञान कहते हैं। अनुभव-ज्ञान में ज्ञान का अन्त होता है। फिर कुछ जानने को बाकी नहीं रह जाता है। अनुभव-ज्ञान वह ज्ञान है, जो सबसे विशेष-पदार्थ है, उसका प्रत्यक्ष हो जाना।
सबसे विशेष ईश्वर-परमात्मा है। उनको जो प्रत्यक्ष कर लेते हैं, और कुछ जानने को बाकी नहीं रहता। उसके जानने के वास्ते बाहर से कोई रास्ता नहीं है, अन्दर में रास्ता है। कोई कहे कि किसी गाँव में जाने के लिए चारों तरफ से जा सकते हैं, उसी तरह ईश्वर के पास जाने के अनेक रास्ते हो सकते हैं। ईश्वर सर्वव्यापी है। सर्व में मैं भी एक हूँ। वह रास्ता मुझमें भी है। सबको अपने-अपने का ज्ञान है। अपने में रास्ता देखो। शरीर कहने से एक ही शरीर नहीं समझना चाहिये। यह एक शरीर देखा जाता है। यह तो केले के वृक्ष के समान है। केले के वृक्ष में डमखोले अनेक हैं। बीच में जो मिलता है जिसमें खोल नहीं है; उसमें फल लगता है। इसी तरह अपने स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण, जड़ के इन चारों आवरणों को उतारते जाओ तो अपने को जानोगे। अपने को ईश्वर का अंश जानो। जैसे अपना आपा है, उसी तरह ईश्वर है। शान्ति और शान्ति का सुख जो ईश्वर को है, वही शान्ति और शान्ति का सुख अपने में है। इसके लिये अपने अन्दर देख सकते हो।
जो जहाँ बैठा रहता है, वह वहाँ से ही चलता है। शरीर के ऊपर नहीं देखो। आँखें बन्द कर लो तो कहाँ बासा है ? अन्धकार में। उस तम - अन्धकार को पार करने के लिए सन्तलोग कहते हैं। जब दृष्टि स्थिर होती है, तब विन्दु मिलता है। इस तरह समझ लो कि जहाँ कोई चाल नहीं होती, वहाँ विन्दु है। अन्धकार से आगे चलेगा, प्रकाश रहेगा। अन्धकार और प्रकाश दोनों में शब्द रहता है। प्रकाश के शब्द में वह ज्ञान होगा, जो आखिर तक जाकर अनुभव में पूर्ण हो जाएगा। वही अनुभव-ज्ञान जब आता है, तब शान्ति मिलती है। अनुभव-ज्ञान यानी सबसे पीछे का ज्ञान। जो अपने को पहचान सकता है, वही ईश्वर को पहचान सकता है। जो अपने को नहीं पहचान सकता, वह ईश्वर को भी नहीं पहचान सकता है। गो० तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है -
धर्म तें विरति जोग तें ज्ञाना। ज्ञान मोक्षप्रद बेद बखाना॥
 धर्म-कर्म परोपकार में है। तन-मन-धन से परोपकार होता है। इस परोपकार से वैराग्य होता है। वैराग्य में आता है, तब योग होता है, तब ज्ञान पूर्ण होता है। केवल लिखन्त-पढ़न्त ज्ञान में पूर्ण-ज्ञान नहीं होता है। कहो कि ज्ञान रूखा होता है तो सन्तमत में ज्ञान भी है और भक्ति भी है। हमलोग जो ईश्वर पाने की कोशिश करते हैं, यह ईश्वर की भक्ति है; क्योंकि ईश्वर पाने में प्रेम होता है। प्रेम में भक्ति होती है। सार निकालकर देखा जाय, तो यही होता है कि विन्दु-सिमटाव में अन्धकार से पार होकर प्रकाश में पहुँचेगा। प्रकाश के शब्द को पकड़ते हुए चलता है, वह प्रकाश को भी पारकर शब्द के सहारे परमात्मा तक पहुँचता है। इसलिए सन्त कबीर साहब ने कहा कि -- साधो शब्द साधना कीजै।
               जेहि शब्द से प्रगट भये सब, सोई शब्द गहि लीजै॥
 गुरु नानक साहब भी कहते हैं कि - शब्द तत्तु वीर्य संसार।
 आदि में शब्द होता है, शब्द कम्पमय होता है और कम्प शब्दमय होता है। इसी से सभी कुछ बनता है। बिना इसके कुछ नहीं बनता।
यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत पुरैनियाँ जिले के गोकुलपुर गाँव में
दिनांक २.२.१९७९ ई० को हुआ था।



७४. मैंने परीक्षा नहीं ली [02.10.1979]

"बंदउँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर॥"
प्यारे लोगो !
      श्री सीता जी महारानी और भगवान् श्रीराम सदा एक संग रहते हैं। एक समय जब जंगल में माया-सीता को रावण हरकर ले गया, तो सर्व-साधारण-लोग यह नहीं जानते थे की माया या छाया-रूप सीता हरी गई है। लोग जानते थे कि असली सीता हरी गई है। लक्ष्मण और रामजी घूमते थे जंगल-जंगल सीता जी को खोजने के लिए और शिवजी तथा सती जी भी उसी जंगल में घूमते हुए जा रहे थे। शिवजी ने श्रीराम से परिचय नहीं किया। शिवजी ने भगवान् राम को अलग से ही प्रणाम कर लिया। सती जी पूछती हैं - "भगवन् ! आपने इनको क्यों प्रणाम किया ? ये तो नर-शरीरधारी हैं। कहा जाता है कि राम ब्रह्म हैं -"राम ब्रह्म परमारथ रूपा।"
 शिवजी ने कहा -"यह बात पूछकर क्या करोगी तुम ? ये वे ही हैं। अगर सन्देह है, तो जाकर परीक्षा ले लो।" सती जी सीता का रूप बनाकर गईं और उस रास्ते पर बैठ गईं, जिस रास्ते से भगवान् राम घूम रहे थे। सतीजी को देखकर श्रीराम ने उनको प्रणाम किया और पूछा - "हे सती जी ! आप अकेली क्यों घूमती हैं ? भगवान् शिवजी कहाँ हैं ?" सती जी को बड़ा आश्चर्य हुआ, वे आँखें बन्द करके बैठ गई, तो देखती हैं कि राम और सीता साथ हैं और लक्ष्मण जी भी पीछे हैं। फिर
आँखें खोलकर देखती हैं, वे ही तीनों हैं। बारम्बार आँखें खोलतीं और बन्द करके देखती हैं, तो वे ही भगवान् राम, सीता और लक्ष्मण हैं। सती जी को विश्वास हो गया कि भगवान् शिवजी जो कहते थे, सो बात ठीक है। इनकी महिमा अपार है, इनको कौन जान सकता है ? सती जी शिवजी के पास आकर बोली कि मैंने परीक्षा नहीं ली। आप जो कहते हैं, सो सत्य है। शिवजी ने ध्यान में देखा कि सती जी ने सीता का रूप बनाया था और भगवान् राम जी ने उनको प्रणाम किया है। मन-ही-मन भगवान् शिवजी ने सती का त्याग कर दिया। सती का मन-ही-मन त्याग करने से आकाश-वाणी हुई कि इस तरह महासुन्दरी सती जैसी पत्नी का त्याग करने वाला कौन होगा संसार में ? भगवान् शंकर चले गये कैलाश और मन में कर लिया कि इस तन में अब सती से मेल नहीं। इसीलिये अपनी बायीं ओर आसन नहीं देकर सम्मुख आसन दिया। फिर सती जाती है अपने पिता के यज्ञ में। वहाँ यज्ञ में देखती हैं कि सभी देवताओं का अंश हैं, परन्तु शिवजी का अंश नहीं। सती के मन में बहुत तकलीफ हुई, वे अपने आपको यज्ञाग्नि में गिरा देती हैं। वहाँ हाहाकार मच जाता है। यज्ञ भ्रष्ट हो गया। सीता जी का संग रामजी को और रामजी का संग सीता जी को है ही, यह सदा लगा ही रहता है। कहीं छूटने को नहीं है।
गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न-न-भिन्न।
बन्दउँ सीता राम पद, जिनहिं परम प्रिय खिन्न।
अर्थात् जैसे शब्द और उसके अर्थ को भिन्न कहते हैं, लेकिन भिन्न-भिन्न नहीं हैं, या जल तथा उसकी तरंग को अलग-अलग कहते हैं, लेकिन हैं दोनों जल ही। उसी तरह भगवान् राम और सीता जी अभिन्न है। इनके जन्म और कर्म अगणित हैं। नाम इनके अगणित हैं।
“यथा अनन्त राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुणगाना॥"
"रामायण सत कोटि अपारा॥"
 बहुत कथाएँ, तो रामायण भी बहुत। लेकिन राम और सीता जी जो हैं, सो हई हैं। कहाँ ये मिलते हैं ? कहाँ इनका पता है ? एक तो पता सत्संग के बीच में और दूसरा पता है अपने अन्दर में। सत्संग की बात में तुलसीदास जी कहते हैं –
देहि सत्संग निज अंग श्रीरंग भव भंग कारन सरन सोक हारी।
और अन्दर की बात में कहते हैं –
एहि तें मैं हरि ज्ञान गंवायो।
परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं, बाहर फिरत विकल भय धायो॥
यह विनय पत्रिका में है। रघुनाथ कहने से दशरथ-पुत्र राम हो ही जाते हैं; और रामायण में कहते हैं –
जब तें राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा॥
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका, बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका॥
जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी। प्रथम अविद्या निसा नसानी॥
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने॥
विविध कर्म गुन काल सुभाऊ। ये चकोर सुख लहहिं न काऊ॥
मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्हकर हुनर न कवनिहुँ ओरा॥
धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना। ये पंकज विकसे विधि नाना॥
सुख संतोष विराग विवेका। विगत सोक ये कोक अनेका॥
यह प्रताप रवि जाके, उर जब करइ प्रकास॥
पछिले बाढहिं प्रथम जे, कहे ते पावहिँ नास॥
यह भगवान् का प्रताप-रूप सूर्य जब जिसके हृदय में प्रकाशित हो जाय, तब वे देखेंगे कि राम और सीता क्या है ? वे राम और सीता को सब ओर देख सकते हैं।
भये प्रगट कृपाला दीन दयाला कौसल्या हितकारी।
भगवान् प्रगट हो गये और चार भुजाओं को लेकर माता कौशल्या जी को दर्शन दिया। माता जी को विष्णु का रूप मालूम पड़ा, तो माता ने कहा -
माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
 फिर भगवान् लीला करने लगे। विवाह हुआ। सबमें लीला-ही-लीला है। मेरे कहने का मतलब यह है कि राम-सीता को अभेद जानकर दशरथ-सुत कहकर या किन्हीं का पुत्र नही, ऐसा जानकर; क्योंकि ब्रह्म किसी का पुत्र नहीं है। इसी तरह निर्गुण मानकर या सगुण मानकर जो कोई ईश्वर का भजन करते हैं, वे अपने अन्दर में ही उनको पाते हैं। बाहर पाने का यत्न कुछ नहीं है। केवल अपने अन्दर में पाने का यत्न है। इसलिए संतों ने अन्दर के रास्ते को ही बहुत साफ तरह से समझाया है। यह प्राथमिक शिक्षा है। और आप लोगों ने अभी सुना है कि -
विन्दु नाद महालिंगं शिवशक्तिनिकेतनम्।
देहं शिवालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम्॥
इसमें कल्याण-ही-कल्याण होता है और "विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम्" भी कहा गया है। तो संसार में इसमें भरण-पोषण भी अच्छी तरह होता है। यह जानकर ईश्वर का भजन करना चाहिये।
अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव सम्भव खेदा।
 निर्गुण रूप को खोजें तो पता ही नहीं चलता है और सगुण-रूप का भजन करें, तो पता चलता है कि ऐसा अंग-प्रत्यंग है।
अगर ठाकुरवाड़ी मे जाओ, तो एक ही रूप में कुछ घट-बढ़ होता है, ऐसा ज्ञात होगा। भजन करने की युक्ति गुरु से जाननी चाहिये। वाल्मीकि मुनि ने कहा है भगवान् राम से - तुम्हतें अधिक गुरुहिं जिय जानी। सकल भायं सेवहिं सनमानी॥
 गुरु में ईश्वर को मान लो। लेकिन गुरु कैसा होना चाहिये, तो अभी पढ़ा है –
ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास।
निर्गुन कहै जो सगुन बिनु, सो गुरु तुलसीदास॥
ज्ञान का कथन करता है, लेकिन अपने अज्ञान-पद को छोड़कर। अज्ञान का पद अन्धकार है। अन्धकार में अज्ञानता है और प्रकाश में ज्ञान है। अन्दर के अन्धकार
से जो ऊपर उठा है, तब जो ज्ञान कहता है, वही गुरु है। ऐसे गुरु से मिलने का वा पहचान का बोध तभी होता है, जब कुछ-काल उनका संग करो, तो पता चलेगा कि वह साधन-भजन करता है। यदि वह साधन-भजन करता है, तो उसको गुरु करो। वह पहुँचा हुआ है, यदि यह आप जाँच सकें, तो फिर गुरु काहे को करें ?
 इसकी कोई जाँच नहीं है। लेकिन जो साधन-भजन करते हैं और नेम रखते हैं, वे गुरु हो सकते हैं।
आसन दृढ़ आहार दृढ़, भजन नेम दृढ़ होय।
तो प्राणी पावै कछुक, नहिं तो रहै विषय रस मोय॥
कोई-कोई पूछते हैं कि आपके गुरु पहुँचे हुए थे, तो मैं कहता हूँ कि वे कहाँ तक पहुँचे थे, मैं नहीं जानता हूँ। लेकिन वे मुझसे ज्ञान में बढ़े थे। वे साधनशील थे। सद्ज्ञान देते थे। भजन की सद्युक्ति बताते थे। इसीलिये मैं उनको सद्गुरु या गुरु कहता हूँ। जो जीवन-भर साधन-भजन करते ही रह जाते हैं, वे ही गुरु हैं। बिना सत्संग के कोई गुरु को नहीं जान सकते।
इसलिये सत्संग नियमित रूप से करना चाहिये।
यह प्रवचन भगवान श्रीराम की अवतार भूमि श्री अयोध्या जी में दिनांक २.१०.१९७९ ई० को श्यामासदन आश्रम के प्रांगण में हुआ था।



८४. सिक्ख धर्म के दसवें गुरु - श्री गुरु गोविन्द सिंह जी

"बंदउँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर॥"
प्यारे लोगो !
स्वागताध्यक्ष के भाषण में सिक्ख-धर्म के दसवें गुरु श्री गोविन्द सिंह जी का नाम आया है। भगवान् बुद्ध भी बिहारी और भगवान् महावीर तीर्थकर भी बिहारी थे। इसमें किसी को संदेह नहीं है। परन्तु मैं कहूँगा, गुरु गोविन्द सिंह जिस समय में थे, उस समय के वास्ते वे महा चमत्कार थे। यह चमत्कार जिस वक्त हुए उस समय जो तलवार के बल पर वैदिक-धर्मियों को मुस्लिम बनाते थे, उनको जवाब देने वाले यदि हुए तो गुरु गोविन्द सिंह हुए।
ऐसा कौन होगा जो अपने पिता को कह दे कि इस समय सिक्खों में सबसे बड़ा रत्न आप ही हैं, आप अपना शीश दान दे दें। यह बात ग्यारह वर्ष की उम्र में गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता से कही थी। उनके पिता नानक-पंथ के नौवें गुरु तेग बहादुर सिंह ने कहा - "बेटा ! तुम ठीक कहते हो।" उन्होंने क्या किया ? अपना सिर दे दिया, सार नहीं दिया। यदि कोई सिक्ख हैं, तो समझ लें। उस समय के शासन में जो करालता थी, उसका ठीक-ठीक जवाब देने वाले गुरु गोविन्द सिंह थे। वे ऐसे थे कि उनके पुत्रगण यानी दो पुत्र लड़ाई में काम आ गये अपने को भस्म करके। और गुरु गोविन्द सिंह कहते थे “शाबास बेटा ! शाबास !" इतना बड़ा हृदय किसका है? यद्यपि इनकी बहादुरी के अन्दर दया की रश्मियों को मैं बहुत जानता हूँ, फिर भी अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के समय को ऐसे ही बिताने की इच्छा नहीं करता हूँ। कहने का सार यह हुआ कि गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता का सिर कटवा दिया और पिता ने कटवाना मान लिया।
उनके दोनों पुत्र अग्नि के समान बहुत से दुष्टों को नष्ट करते हुए काम आये। दो पुत्रों के कट जाने पर गुरु गोविन्द सिंह कहते थे - "खूब है, खूब है, धन्य है।" पूर्वकाल में महावीर अर्जुन थे। वे अपने बेटे के मरने पर रोते थे। वे द्वापर में थे। ये कलियुग में हुए। इतने बहादुर कि बेटे की लड़ाई में मृत्यु होने पर भी कहते थे - "तू धन्य है, तू धन्य है।"
 एक बार युद्ध हो रहा था दुष्टों के साथ। गुरु गोविन्द सिंह भी घोड़े पर सवार होकर हाथ में तलवार लिये युद्ध करते थे। एक सिक्ख से कह दिया, "जो गिर जाय उसको पानी पिला देना।" दोनों ओर के लोग युद्ध में गिरते थे। दोनों को ये पानी पिलाते थे। जो लड़ने योग्य होते थे, वे लड़ने लगते थे। जो दुष्ट-दुश्मन पानी पीकर ताजा हो जाता था, वह फिर लड़ने लगता था। किसी ने कहा – “ऐसा तू क्यों करता है ? दुश्मन को पानी क्यों पिलाता है ?" उसने कहा - "तुम युद्ध करो। मैं पानी पिलाता हूँ।" गुरु गोविन्द सिंह जी से बात कही गई। उन्होंने उस सिक्ख से पूछा - "क्या तू दुश्मन को भी पानी पिलाता है।" उस सिक्ख ने कहा - "जब वह गिर गया तो वह न दोस्त रहा, न दुश्मन।" गुरु गोविन्द सिंह ने उसकी पीठ ठोंक दी और कहा - "वाह भाई ! ठीक करता है, तू यही कर।"
मैं पूछूंगा आज तो क्या, गुरु गोविन्द सिंह के पहले इस कलिकाल में उनके समान और कौन थे। सिक्खों के और भी इतिहास हैं। आज भी आप अमृतसर जाकर देखिये। पोखर में मन्दिर पर सोने का रंग चमक रहा है। यदि गुरु गोविन्द सिंह नहीं होते तो राजा रणजीत सिंह सोने का रंग नहीं चढ़ा सकते। गुरु गोविन्द सिंह का जन्म पटना में हुआ था। पटना जाकर लोग देखें कि सिक्ख लोग कितनी सेवा वहाँ करते हैं। पटना सिटी आज पटना साहब के नाम से हो गया है।
कबीर साहब के नाम पर कबीरचौरा काशी में हुआ था। गुरु नानक का जन्म पंजाब में हुआ था। जितना आदर उनका हुआ, उतना और का नहीं। उनके अनुयायी सिक्ख लोग होते हैं। उन्होंने सिक्ख सम्प्रदाय बना लिया। नीचे को ऊँचे उठाना आजकल की राजनीति हो गयी है।
गुरु गोविन्द सिंह ने पहले ही इस काम को अच्छी तरह करके दिखा दिया। दुष्टों के सिर वे नहीं उड़ाते तो आज वैदिक-धर्मियों का नाम नहीं रहता। गुरु गोविन्द सिंह ने बहुत कष्ट सहा है। इतना ही थोड़ा सा मैंने उनके जीवन के सम्बन्ध में कहा।
यह प्रवचन दिनांक ३.३.१९७९ ई० को अखिल भारतीय सन्तमत सत्संग के ७१वें वार्षिक महाधिवेशन में बिहार राज्यान्तर्गत मुंगेर जिले के मानसी ग्राम में श्री गंगातट पर अपराहनकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था।