19. घुसक नदी में जाय
प्यारे लोगो!
चित्त की शान्ति में शान्ति है। चित्त अशान्त है, तो हमेशा अशान्ति है। चित्त की वृत्तियाँ अनेक हैं। उन चित्तवृत्तियों को एकत्र करने का नाम ही योग है। योग दो प्रकार के होते हैं-एक हठयोग और दूसरा राजयोग। राजयोग में ध्यान की प्रधानता है। हठयोग में आसन, प्राणायाम आदि का साधन करना पड़ता है। इसमें यही प्रधान है।
हमारे कुलगुरु तान्त्रिक थे। उनका मन्त्र अभी भी याद है। एक मन्त्र यह भी बताया था कि तुम शिकार मत करना, हिंसा नहीं करना। यह मन्त्र मुझे आज तक याद है। होते-होते कई गुरु हमारे हुए। यहाँ (भागलपुर में) बाबा देवी साहब का प्रचार आया। उनका प्रचार पुरैनियाँ भी पहुँचा। वहाँ से दौड़कर मैं यहाँ आया। यहाँ मायागंज में एक वकील थे-बाबू राजेन्द्र सिंह जी। उनसे मैंने दृष्टि-योग की दीक्षा ली। मैंने उनको गुरु जानकर प्रणाम किया। उन्होंने कहा-‘आपका गुरु मैं नहीं, गुरु बाबा देवी साहब मुरादाबादवाले हैं।’ बाबा देवी साहब जब यहाँ (मायागंज) आए, तो मैं भी यहाँ आया। यहाँ एक सत्संग घर भी था। बाबा साहब ने प्रवचन दिया था भागलपुर शहर के देवी बाबू धर्मशाला में। मैंने दीक्षा यहीं (मायागंज) में ली थी। बाबा साहब ने कहा था-‘ध्यानयोग उत्तम है।’
भगवान श्रीकृष्ण ने भी ध्यान-योग बताया है। गीता में एक अध्याय ध्यानयोग का है। प्राणायाम-योग का कोई अध्याय गीता में नहीं है। खोजकर देख लीजिए। ध्यान के लिए बात प्रत्यक्ष है। कहते हैं-‘ध्यान देकर सुनो।’ बच्चों को कहते हैं-‘ध्यान देकर पढ़ो।’ बच्चा सयाना होता है, तो लिखने के लिए सिखाया जाता है, रात में-अध्ंकार में नहीं। बच्चा नहीं पूछता है कि ‘अ’ क्यों कहूँ? ‘क’ क्यों कहूँ? बच्चे में श्रद्धा होती है। इसी तरह जो श्रद्धाशील हैं, उनको ज्ञान होता है। जो श्रद्धाशील नहीं है, उसको कोटि जन्मों में भी ज्ञान नहीं होता। इसीलिए लोगों को श्रद्धाशील होना चाहिए। कोई तर्क नहीं कि इसको ‘क’ क्यों कहें? तर्क करनेवाले तर्क करते ही रहते हैं, असलियत को नहीं पाते हैं। कबीर साहब के कबीर चौरा काशी में जाकर देखा। अमृतसर में गुरु नानक साहब के केन्द्र को जाकर देखा। वहाँ केवल गुरुग्रन्थ साहब का पाठ होता है। हमारे गुरु महाराज बाबा देवी साहब ने समझा-समझाकर कहा। समझाकर कहने से बहुत लोग समझते हैं। एक कथा कहता हूँ-
नदी किनारे घर किया, करजा करि करि खाय ।
करजदार जब माँगन आवै, घुसक नदी में जाय ।।
आपको बड़ी हँसी लगेगी। इस शरीर के अन्दर में यह ऊपर का खोपड़ा एक भाग और नीचे से इसका मिलन, तब यह शरीर है। इससे इड़ा और पिंगला की धरें हैं। इड़ा और पिंगला के बीच सुषुम्ना है। सुषुम्ना के किनारे लोग रहें और हैं भी। यही कर्म करते हैं। कर्म का फल तो होता ही है। कर्म करते हैं, तो कर्जा करते हैं। कर्म करना छोड़ दें, तो कर्जा नहीं होगा। जो जानते हैं, कहाँ रहने से कर्मफल नहीं लगेगा, तो सुषुम्ना में जाओ। कर्मफल से बच जाओगे। सुषुम्ना के तीर में नहीं, सुषुम्ना में डूबो। एक कथा और है।
एक राजा शिकार खेलने के लिए जंगल गया। वहाँ एक सुन्दर बालक को देखा। वह बालक मुनि का पुत्र था। राजा ने उस मुनि बालक से कहा-‘तुम मेरे साथ चलो।’ मुनि बालक ने कहा-‘तुम मुझे अपने साथ ले जाकर क्या करोगे?’ राजा ने कहा-‘मैं जो खाऊँगा, तुमको भी वही खिलाऊंगा। जो उत्तम वस्त्र मैं पहनूँगा, वही तुमको भी पहनाऊंगा और जो पहरेदार हमारी रक्षा में पहरा करता है, वह तुम्हारा भी रात में जगकर पहरा करेगा।’ मुनि बालक ने कहा-‘नहीं। तुम मत खाओ, मुझे खिलाओ। तुम मत पहनो, मुझे पहनाओ और जब मैं सो जाऊँ, तो तुम जगकर पहरा करो।’ राजा ने कहा-‘ऐसा नहीं होगा।’ मुनि बालक ने कहा-‘तब तुम्हारे साथ मैं नहीं जाऊंगा। मेरे राजा ऐसे हैं, जो स्वयं नहीं खाते, मुझे खिलाते हैं। अपने स्वयं कुछ नहीं पहनते, मुझे पहनाते हैं और मैं सो जाता हूँ, तो जगकर मेरा पहरा करते हैं। मेरे ऐसे राजा हैं।’
ऐसे राजा कौन हैं? ये ही हैं ईश्वर-परमात्मा। जो सबको खिलाते हैं, पिलाते हैं, सुलाते हैं लेकिन वे अपने स्वयं कुछ नहीं खाते, कुछ नहीं पहनते और वे सबका पहरा करते हैं। उनको रहने का घर नहीं है। वे ही सब कुछ करते हैं और कुछ भी नहीं करते हैं। इस प्रकार उनका संसार में रहना होता है। गो0 तुलसीदासजी ने बड़ा ही अच्छा रामचरितमानस में लिखा है-
व्यापक व्याप्य अखंड अनन्ता ।
अखिल अमोघ शक्ति भगवन्ता ।।
उन्हीं के पास जाओ। उनको पाओ, वहीं शान्ति मिलेगी। कहाँ तक जाओ, तो सन्त दादूदयालजी महाराज ने कहा-
अविगत अन्त अन्त अन्तर पट, अगम अगाध अगोई ।
अन्तर के अन्तिम-पट में चले जाओ। अन्तर-पट में क्या मिलेगा? अन्त करो, तो वह मिलेगा, जो अगम, अगाध है और कहने में आनेयोग्य नहीं है। इसी को गो0 तुलसीदासजी महाराज ने लिखा-
निरुपम न उपमा आन, राम समान राम निगम कहै ।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रवि, कहत अति लघुता लहै ।।
कितनी ही उपमा दो, तो वह वैसी ही होगी, जैसे करोड़ों जुगनुओं को सूर्य के समान कहना। राम के लिए कोई उपमा नहीं है। सबमें रहते हुए सबसे निर्लिप्त हैं। वे बाहर में प्रत्यक्ष नहीं हैं। अन्दर में जाने से बाहरी ज्ञान से छूट जाता है, तब ईश्वर-दर्शन होता है। इन्द्रिय-ज्ञान से यहाँ तक की जहाँ मन-बुद्धि आदि छूट जायँ, वहाँ दर्शन होगा; लेकिन जिसको समाधि कहते हैं, वह तुरीयातीतावस्था में हेती है। थोड़े में सन्तुष्ट होने की आदत डालो। जो लालची है, उसको शान्ति नहीं मिलेगी। शेख सादी में कहा है-कनायत तमंगर कुनद मरदरा।
मतलब है-‘सन्तुष्टि आदमी को मातबर बना देती है। यह दुनिया के तमाम लालचियों को कह दो।’ वे दूसरे देश के थे; लेकिन बात उन्होंने ठीक कही है।
आदमी को शान्ति चाहिए, तो ईश्वर को पाना चाहिए। ईश्वर को पाने के लिए अपने अन्दर चलना चाहिए। अन्तर चलने के लिए देखना और सुनना होगा। इसलिए दृष्टि-साधन और शब्द-साधन कीजिए। गुरु नानकदेवजी ने कहा-
शब्द तत्तु बीर्ज संसार। शब्दु निरालभु अपर अपार ।।
शब्द विचारि तरे बहु भेषा। नानक भेद न शब्द अलेषा ।।
शब्द सुरति भया परगासा। सभ को करै शब्द की आशा ।।
पंथी पंखी सिउ नित राता। नानक शब्दै शब्दु पछाता ।।
हाट बाट शब्द का खेलू। बिनु शब्दै क्यों होवै मेलु ।।
सारी सृष्टि शब्द के पाछै। नानक शब्द घटै घटि आछै ।।
जो शब्द का अभ्यास करता है-नादानुसंधान करता है, वह ईश्वर को पाता है। बच्चा जन्म लेता है, तो वह देखता है और सुनता है। तमाम-संसार में देखना और सुनना है। तमाम-कॉलेजों में देखना और सुनना है। देखना और सुनना बन्द हो जाय, तो कोई काम नहीं होगा। इसीलिए बाबा साहब ने दृष्टियोग और शब्दयोग करने कहा।
[महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर (24.12.1978 ई0)]