11. ईश्वर का ओर-छोर नहीं है
प्यारे लोगो!
 संतमत-जिसका प्रचार बहुत पूर्व से होता चला आया है, यह अवश्य ही शान्तिदायक है। हम देखते हैं कि मेरा जो यह अपना शरीर है, यह शरीर बढ़ते-बढ़ते बढ़ गया है और कैसे बढ़ गया है, सो नहीं जानते हैं लेकिन यह देखता हूँ कि इसका दोनों तरफ यानी पैर की तरफ इसकी समाप्ति है और सिर की तरफ से आरम्भ। जब शरीर को देखता हूँ, तो पता नहीं लगता कि किस तरह बढ़ते-बढ़ते बढ़ गया। अब यह शरीर जैसा है, आपलोग देखते हैं। इसमें रहते किसी को शान्ति नहीं होती है। मैं आशा करता हूँ कि आप सब लोगों को भी शान्ति नहीं आती होगी।
 मैं कह चुका हूँ कि संतमत शान्तिदायक मत है। मैं अपने शरीर को देखता हूँ और बाहर संसार को देखता हूँ, तो वह भी एक तरह नहीं है। गंगाजी की धारा कभी उत्तर तो कभी दक्षिण की ओर प्रवाहित होती है। इस अदल-बदल को गंगाजी जानती हैं या नहीं जानती हैं लेकिन देखनेवाले देखते हैं, इसमें भी बदली है। जैसे शरीर में बदली है, वैसे संसार में बदली है।
 यह शरीर पिण्ड कहलाता है और बाहर बड़ा संसार ब्रह्मांड कहलाता है। दोनों के पार में क्या है? कुछ तो होना चाहिए। अगर कुछ नहीं कहूँ, तो सो नहीं बनता। अगर कुछ कहूँ-ऐसा है वा वैसा है, सो भी कहते नहीं बनता है। जैसे शरीर है, वैसे संसार है अर्थात् पिण्ड-ब्रह्माण्ड की एक ही तरह बनावट है, एक ही तरह काम है। इसमें शान्ति नहीं है।
 गंगाजी की धारा है। इसमें बहाव है। इसमें शान्ति कैसे आवे। शरीर में बदली होती है, संसार में बदली होती है। इन दोनों को पार कीजिए। दोनों के पार में कुछ है, सो कहते नहीं बनता है। नहीं है, सो भी कहते नहीं बनता। इसलिए कहा गया है, वह ऐसा कुछ है कि-
निरूपम न उपमा आन राम समान राम निगम कहै ।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रवि कहत अति लघुता लहै ।।
        -रामचरितमानस
 वह है ईश्वर-परमात्मा। हमलोगों के शरीर में वह नहीं है, सो कहा नहीं जा सकता; क्योंकि स्थूल में सूक्ष्म स्वाभाविक ही समाया हुआ होता है। शरीर में जीवात्मा है। शरीर से बाहर वह जहाँ तक कि अवकाश है, अवकाश से घिरा हुआ है। वही व्यापक ब्रह्म या राम हैं। उस व्यापकता के भी परे कुछ हो सकता है? जहाँ तक घेरा है, उसमें जो व्यापक है, उसको ब्रह्म कहते हैं। इन दोनों के परे जो हैं, जिसका वर्णन नहीं हो सकता, वह दोनों से परे ईश्वर है।
 संसार के दृश्यों को देखकर मालूम होता है कि सबसे परे कोई है। जिसका न कहीं ओर है, न कहीं छोर है। उसका आदि नहीं, मध्य नहीं है। उसको जो जान लेता है, तो ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।’ उसमें कोई हिलडोल नहीं है। वही ईश्वर वा परमात्मा है। वही ऐसा कुछ है, जिसको ईश्वर वा परमात्मा कहते हैं और जो वचन उसके लिए आता है, उसमें कहा नहीं जाता। तब क्या कहे? संत कबीर साहब ने कहा है-
 जाकर नाम अकहुआ भाईं। ताकी कहा रमैनी गाई।।
 वह है। नहीं है, सो नहीं है; परन्तु ज्ञान से बाहर है। मेध-ग्रहणीय-शक्ति से भी बाहर है। जितने जो कोई भी इस शरीर के अन्दर आते हैं, उसको जाग्रत होता है, स्वप्न होता है, गहरी-नींद होती है-इन सबसे आगे तुरीय है। योगी कहते हैं कि इन तीनों से जो परे है, उसको तुरीय-अवस्था कहते हैं। उस तुरीय में जो ज्ञान होता है, वह पूर्ण-ज्ञान नहीं है। जो तुरीयातीतावस्था में जाता है, वही पूर्ण जानता है। वैसा जाननेवाला मैं या आपलोग नहीं हैं। लेकिन उनको जो जानते हैं, उनके लिए ‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।’-यह बात हो जाती है। वह अडोल और अकम्प है। जो इसको साधना करके जानेगा, वह अडोल और अकम्प हो जाएगा, तब शान्ति मिलेगी। गुरु नानकदेवजी ने कहा-
 जल तरंग जिउ जलहि समाइआ। तिउ जोति संगि जोति मिलाइआ।।
 वह उथल-पुथल में नहीं आवेगा, संसार में नहीं आवेगा। कबीर साहब के वचन में है
 जौं जल में जल पैस न निकसे, यौं ढुरि मिला जुलाहा।
 कबीर साहब जिस जाति के थे, सो छिपाते नहीं है। वे कहते हैं-भाई! मैं जुलाहा हूँ। संसार में ये दोनों-कबीर साहब और गुरु नानक साहब चले गए हैं लेकिन उनका चिह्न मौजूद है। उन्हीं लोगों के बताए रास्ते पर चलना है। बिना गुरु के कुछ सीखा नहीं जाता। कोई कहे कि बिना गुरु के सीखा है, माना नहीं जा सकता। जितने मखतब हैं, विद्यालय हैं, महाविद्यालय हैं, उनमें से गुरु को निकाल दिया जाए, तो वे किसी काम के नहीं रहेंगे। माता-पिता भी गुरु होते हैं। बचपन में वे सिखलाते हैं। फिर विद्यालय में जाते हैं, वहाँ सीखते हैं। फिर विद्वान होते हैं। बिना गुरु के कुछ नहीं होता। इसलिए अभी पहले गुरु-कीर्त्तन का गान होगा और साथ-साथ ताली बजेगी, फिर आरती होकर सत्संग समाप्त होगा।
 
[महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर (12.6.1978 ई0)]


14. ईश्वर की खोज अपने अंदर करो
प्यारे लोगो!
 सब सत्संगी तथा सत्संगिनीगण को चाहिए कि जैसे किसी एक सुयोग्य राजा की छत्र-छाया में रहकर प्रजा आराम से रहती है, इसी तरह इस सन्तमत के ज्ञानरूपी छत्र-छाया में रहते हुए आप सब लोग शान्ति प्राप्त करें और बराबर सत्संग करें तथा खुशी से रहें।
 सन्तमत का उपदेश छोटा-सा है, बहुत बड़ा नहीं है। वह उपदेश यही है कि ईश्वर की खोज अपने अन्दर करो। बाहर में ईश्वर नहीं मिल सकते। जो ईश्वर की खोज के लिए बाहर संसार में दौड़ते हैं, वे केवल हैरान होते हैं। सन्तों ने जो अन्तर का भेद बताया है, उसमें जप है और ध्यान है। उसी काम के द्वारा अन्तर्मुख हो सकते हैं।
 अन्तर्मुख होने के लिए लोगों को जैसा गुरुओं ने बताया है, बाहर देखना छोड़कर अपने अन्दर में देखो। सम्पूर्ण दिन-रात ऐसा हो, सो तो हो नहीं सकता, इसलिए समय बाँध-बाँधकर करो।
 जप और ध्यान करने से आवरण छूटेंगे और आवरणों के छूटने से अपने अन्दर में ईश्वर का प्रत्यक्ष-ज्ञान या दर्शन होगा। यह दर्शन बाहरी-दर्शन की तरह आँखों से नहीं, आत्मा से होगा।
 चेतन-आत्मा अन्दर में मायिक-आवरणों से छूटकर जब अकेली ही जाएगी, तब उस आवरण-रहित चेतन-आत्मा को ईश्वर का प्रत्यक्ष-दर्शन होगा कि-‘जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।’ जो इस तरह ईश्वर को जान लेगा, वह ईश्वर-स्वरूप हो जाएगा। वह आवागमन के चक्र से छूट जाएगा। इस वायु-मण्डल से छूटकर फिर कभी इस दुःख-सुखमय संसार में नहीं आएगा।
 मैं अपनी ओर से आप सब लोगों को आशीर्वाद देता हूँ कि आपलोग सुखी रहें, सत्संग और ध्यान करें। आपलोग अपने घरों को जायें और घर के कामों को करें। जो काम अभी यहाँ करना है, एक-एक आदमी आकर प्रणाम करें, ऐसा होना असम्भव है। इसमें कितना समय लगेगा, सो विचार लीजिए। बुढ़ापे और रुग्नावस्था के कारण मेरी शक्ति से बाहर है कि मैं यहाँ घण्टों बैठा रहूँ। इसीलिए आपलोगों से क्षमा चाहता हूँ।
 
[महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर; गुरु-पूर्णिमा (20.7.1978 ई0)]


08. शांति अंदर में है

प्यारे लोगो !
 मैं यह नहीं भूलता हूँ कि यहाँ क्या करने आया हूँ। सदा याद रखता हूँ कि जहाँ जाऊँ, वहाँ सन्तों के विचार का प्रचार करूँ। सन्तों का विचार सन्तों के नाम से ही समझिए।
 शान्ति-प्राप्त किये महापुरुष को सन्त कहते हैं। इनका क्या विचार होना चाहिये? जो सुख उनको होता है, वही सुख सबको हो। इसलिए सभी कोई शान्ति को प्राप्त करें।
 सन्तों ने बताया कि पहले संसार को देख लो, संसार की वस्तुओं में तुम तृप्त हो या नहीं? संसार की वस्तु किसी को कम, किसी को बेसी है, लेकिन संतुष्ट-तृप्त दो में से कोई नहीं है। तृप्ति कहाँ होगी ?
जहाँ शान्ति है। शान्ति बाहर की चीज नहीं है, अन्दर की चीज है। अन्दर का साधन इसीलिए सन्तों ने बताया है।
 आँख बन्द करके देखो, अन्धकार होता है। उस अन्धकार में भी मन बाहर भागता है। अन्धकार में मन जहाँ बाहर की ओर भागता है, वहाँ से उसे हटाओ-एकाग्र करो।
उलटि पाछिलो पैंड़ो पकड़ो, पसरा मना बटोर।
     
 यह कबीर साहब ने कहा है। यानी बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो जाओ। मन जो पसर गया है, उसको बटोरो, जमा करो। कुछ भी फैलाव जिसमें नहीं है, वहाँ तक सिमटो। वह क्या है? वह है विन्दु। अपने मन को विन्दु तक समेटो। यह काम अन्दाजी नहीं होगा। जो गुरु इसको जानेगा, वही बातावेगा। जिसने इसका साधन किया होगा, वही बतावेगा। जो ध्यान की
विधि जानता है, वही ध्यान करता है। वही बता सकता है कि किस तरह मन समेटा जाता है, किस तरह अपने को विन्दु पर लाया जा सकता है। जो एक विन्दु पर अपने को लाता है, एक प्रकार से समाधि को वह पाता है। तब उस समय वह दुनिया को नहीं जानता है, शरीर को नहीं जानता है। वह अपने अन्दर घुसेगा, तो पहले जो अन्धकार मालूम होता था, सो छूट जाएगा। अन्धकार के विरुद्ध में जो चीज है, वह है प्रकाश। अंधकार का उलटा प्रकाश होता है।
 विन्दु-ध्यान से जो प्रकाश होता है, वह बाहर का प्रकाश नहीं है। वह सूर्य, चन्द्र और तारे का प्रकाश नहीं है, वह अन्तर्ज्याति है। वह अन्तर्ज्याति, ब्रह्मप्रकाश है। सबके अन्दर में वह ईश्वर की ज्योति विराजती है।
 संसार में अन्धकार और प्रकाश; दोनों को देखते हैं। दोनों में शब्द से काम चलता है। अन्तर में ज्योति है, उसमें भी शब्द है। जो प्रकाश के शब्द को पकड़ता है, अज्ञान-अन्धकार से, विषय-ज्ञान से छूटता है। इन बातों को वह अपने आप जानता है। वह शांति पाने लग जाता है। और शब्द का अंत जहाँ होता है- अशब्द हो जाता है। उसको अनाम कह सकते हैं। वह एक में है? नहीं, सबमें। जो अपने अन्दर के शब्द को पकड़ता है, वह अनाम-ईश्वर के शान्ति-स्वरूप तक पहुँचता है। जब ईश्वर तक पहुँचता है, वह ईश्वर ही हो जाता है। सन्त कबीर साहब ने कहा है-
लाली मेरे लाल की, जित देखौं तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।।
सन्तों ने इसी के लिए रास्ता बताया है। विन्दु-ध्यान करो और नाद-ध्यान करो। इसको कोई अपवित्र मनवाला कर सकेगा? कभी नहीं। इसलिए जिससे मन अपवित्र होता है, उसको छोड़ दो। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार, ईर्ष्या, राग द्वेष; इन सबको छोड़ो। लेकिन एक ही बार सब नहीं छूट जाते। धीरे-धीरे हटता है। हटाते जाओ, हट जाएगा। इसी तरह सत्य में अपने को लगाओ। गुरु के मार्ग पर चलते चलो। तब वह ‘शान्ति’ मिलेगी जो सन्तों को मिली। संसार में रहते हुए जो उस ‘शान्ति’ को पाता है, वह जीवन्मुक्त होता है। ये जीवन्मुक्त जहाँ रहते हैं, वहाँ सत्संग होता रहता है।
जीवन मुक्त ब्रह्म पर, चरित सुनहिं तजि ध्यान।
जे हरि कथा न करहिं रति, तिन्हके हिय पाषान।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
 सन्तों के ज्ञान में शांति का उपदेश है। अन्दर में शान्ति है, बाहर में नहीं। इसीलिए पसरे हुए मन को समेटो। विन्दु तक पूरा समेटना होगा। विन्दु में नाद मिलता है। उसमें जो अपने को लगाता है, वह वहाँ तक पहुँचता है, जहाँ ‘निःशब्दं परमं पदम्’ है। इसके लिए पहले स्वयं उस अन्तर-नाद को पकड़ो, पीछे स्वयं उस नाद से पकड़े जाओगे। वह नाद ईश्वर तक पहुँचा देगा, जो ईश्वर शान्ति-स्वरूप हैं।
(जलंधर पंजाब, 13.10.1978 ई0)


05. सब धर्मों का सार एक ही है
प्यारे लोगो!
 यह एक बात है-यह घर या मकान जो आप देख रहे हैं, किस काम के वास्ते बना है? यह बतौर एक महाविद्यालय है। अंग्रेजी शब्द में महाविद्यालय को कॉलेज कहते हैं। अगर फारसी शब्द में कहें, तो कह सकते हैं-मख्तबे कबीर। किस काम के लिए यह है? यह इसलिए है कि ईश्वर या परमात्मा या Almighty God (अॅलमाइटि गॉड) या खुद-खुदा का मिलना कैसे होगा और आप सब अपने तईं कौन हैं, क्या हैं? यह सिखलाने के वास्ते यह महाविद्यालय है। इस इल्म या विद्या को सीखकर लाभ क्या होता है? इस इल्म को सीखकर यह होता है कि लोग अपने को पहचानते हैं, यह जान जाएँगे और पहचाने हैं, जो बड़े पफुक्र या ऋषि-मुनि हुए हैं।
 इस महाविद्यालय में, इस मख्तबे कबीर में यही विद्या या इल्म सिखलाया जाता है। यह इल्मे पफुक्रा है। यह संतों का इल्म है। इससे लाभ क्या होता है? नफा क्या होता है? जो नहीं पहचाने जाते हैं, वे पहचाने जाते हैं। क्या नहीं पहचाने जाते हैं? खुदा कहो या अल्लाह कहो-। सउपहीजल ळवक ;अॅलमाइटि गॉडद्ध कहो, यह कहते रहो; लेकिन क्या पहचानते हो? अपने को पहचानते हो? जानना और पहचानना एक बात नहीं होती है। पहचानना कैसे होगा? यह विद्या इस महाविद्यालय, मख्तबे कबीर या कॉलेज से बँटती रहती है। इसमें आकर यही सीखना चाहिए। यह नाच-गान या शादी-विवाह के लिए नहीं बना है।
 जिस घर का जो काम हो, उस घर में वही काम होना चाहिए। इस विद्या को सुन-सुनकर सीखा नहीं जाता है। इसमें साधन या अमल की जरूरत है। क्या अमल हो? क्या साधन हो? इसके सम्बन्ध में भी यहाँ कहा जाता है। यही सिखलाने के लिए यह सत्संग-हॉल है। इस विद्या को कोई मौलाना सिखला सकते हैं, तो यहाँ आकर कहने के लिए कोई मनाही नहीं है। कोई बड़े पादरी या ठपेवच (बिशॉप) यहाँ आकर कहें, तो कोई मना नहीं कर सकते; लेकिन यह सत्संग-हॉल कहाँ है, भागलपुर में ही है। भागलपुर में बड़े मौलाना भी हैं, बड़े पादरी भी हैं, बड़े-बड़े पंडित भी हैं। यह हॉल केवल हम सत्संगियों के लिए नहीं है। हम सत्संगीगण तो केवल इसे बना रहे हैं, इसकी हिफाजत कर रहे हैं। यह हॉल किसलिए है? यह मख्तबे कबीर किसलिए है, सो कह दिया। यह किसके लिए है? भागलपुर के लिए या भागलपुर के देहातों के लिए? मैं कहूँगा, सारे संसार के लिए यह हॉल बना है। यदि कहो कि सारे संसार को कैसे अँटाएँगे? मैं कहूँगा, आपका अख्तियार है, इसे आप बढ़ा लें।
 यह सत्संग-हॉल है कहाँ? जो नदी पवित्र-नदी हिमालय से निकली हुई है, आ रही है भागलपुर तक और समुद्र तक जाती है, जिसको श्रीगंगाजी कहते हैं, उसी के किनारे यह है ऐसा स्थान पाना, ऐसी जगह को कोई पा ले, उसपर ईश्वर की बड़ी कृपा है। इसका उपयोग सब लोग करो। इसका उपयोग खासकर भागलपुर के सज्जनों के लिए-भले लोगों के लिए है। इसको बढ़ाओ। अगर विद्यालय नहीं हो, मख्तबे कबीर नहीं हो, तो लोग सीखें कहाँ? किसी भी धर्म के लोग इस विद्या को यहाँ आकर सीख सकते हैं। इसके नजदीक में मस्जिद भी है। थोड़ी दूर पर दूसरी मस्जिद भी है। भागलपुर में चर्च भी है। वहाँ के पादरी भी यहाँ आकर उपदेश दे सकते हैं। यहाँ आकर इसी विद्या का, जिसका उपदेश अभी के सत्संग में हो चुका है या कहना हो गया है, होना चाहिए। यही कहकर मैं भागलपुर के धर्मप्रेमियों से कहता हूँ कि जाति-पाँति का ख्याल छोड़कर सब कोई सीखो और सिखलाओ। यह मत कहो कि तुम्हारे मत में यह गलत है।
 सब धर्मों या मजहबों का सार एक ही है। जैसे शरीर का सार ‘प्राण’ है, उसी तरह सारे मजहबों का सार एक ही ईश्वर है। उसके लिए साधन भी एक ही है। यह बात बड़े पफुक्राओं की और संतों की है। लोग इसे साधना करके जान सकते हैं। आज मैंने यही कह दिया कि लोग इसे जानें। सब कोई जाकर कह दें कि वहाँ (कुप्पाघाट-आश्रम) में एक मामूली बाबाजी ऐसा कहता था।
     
[महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर (03.12.1978 ई0)]


19. घुसक नदी में जाय
प्यारे लोगो!
 चित्त की शान्ति में शान्ति है। चित्त अशान्त है, तो हमेशा अशान्ति है। चित्त की वृत्तियाँ अनेक हैं। उन चित्तवृत्तियों को एकत्र करने का नाम ही योग है। योग दो प्रकार के होते हैं-एक हठयोग और दूसरा राजयोग। राजयोग में ध्यान की प्रधानता है। हठयोग में आसन, प्राणायाम आदि का साधन करना पड़ता है। इसमें यही प्रधान है।
 हमारे कुलगुरु तान्त्रिक थे। उनका मन्त्र अभी भी याद है। एक मन्त्र यह भी बताया था कि तुम शिकार मत करना, हिंसा नहीं करना। यह मन्त्र मुझे आज तक याद है। होते-होते कई गुरु हमारे हुए। यहाँ (भागलपुर में) बाबा देवी साहब का प्रचार आया। उनका प्रचार पुरैनियाँ भी पहुँचा। वहाँ से दौड़कर मैं यहाँ आया। यहाँ मायागंज में एक वकील थे-बाबू राजेन्द्र सिंह जी। उनसे मैंने दृष्टि-योग की दीक्षा ली। मैंने उनको गुरु जानकर प्रणाम किया। उन्होंने कहा-‘आपका गुरु मैं नहीं, गुरु बाबा देवी साहब मुरादाबादवाले हैं।’ बाबा देवी साहब जब यहाँ (मायागंज) आए, तो मैं भी यहाँ आया। यहाँ एक सत्संग घर भी था। बाबा साहब ने प्रवचन दिया था भागलपुर शहर के देवी बाबू धर्मशाला में। मैंने दीक्षा यहीं (मायागंज) में ली थी। बाबा साहब ने कहा था-‘ध्यानयोग उत्तम है।’
 भगवान श्रीकृष्ण ने भी ध्यान-योग बताया है। गीता में एक अध्याय ध्यानयोग का है। प्राणायाम-योग का कोई अध्याय गीता में नहीं है। खोजकर देख लीजिए। ध्यान के लिए बात प्रत्यक्ष है। कहते हैं-‘ध्यान देकर सुनो।’ बच्चों को कहते हैं-‘ध्यान देकर पढ़ो।’ बच्चा सयाना होता है, तो लिखने के लिए सिखाया जाता है, रात में-अध्ंकार में नहीं। बच्चा नहीं पूछता है कि ‘अ’ क्यों कहूँ? ‘क’ क्यों कहूँ? बच्चे में श्रद्धा होती है। इसी तरह जो श्रद्धाशील हैं, उनको ज्ञान होता है। जो श्रद्धाशील नहीं है, उसको कोटि जन्मों में भी ज्ञान नहीं होता। इसीलिए लोगों को श्रद्धाशील होना चाहिए। कोई तर्क नहीं कि इसको ‘क’ क्यों कहें? तर्क करनेवाले तर्क करते ही रहते हैं, असलियत को नहीं पाते हैं। कबीर साहब के कबीर चौरा काशी में जाकर देखा। अमृतसर में गुरु नानक साहब के केन्द्र को जाकर देखा। वहाँ केवल गुरुग्रन्थ साहब का पाठ होता है। हमारे गुरु महाराज बाबा देवी साहब ने समझा-समझाकर कहा। समझाकर कहने से बहुत लोग समझते हैं। एक कथा कहता हूँ-
नदी किनारे घर किया, करजा करि करि खाय ।
करजदार जब माँगन आवै, घुसक नदी में जाय ।।
 आपको बड़ी हँसी लगेगी। इस शरीर के अन्दर में यह ऊपर का खोपड़ा एक भाग और नीचे से इसका मिलन, तब यह शरीर है। इससे इड़ा और पिंगला की धरें हैं। इड़ा और पिंगला के बीच सुषुम्ना है। सुषुम्ना के किनारे लोग रहें और हैं भी। यही कर्म करते हैं। कर्म का फल तो होता ही है। कर्म करते हैं, तो कर्जा करते हैं। कर्म करना छोड़ दें, तो कर्जा नहीं होगा। जो जानते हैं, कहाँ रहने से कर्मफल नहीं लगेगा, तो सुषुम्ना में जाओ। कर्मफल से बच जाओगे। सुषुम्ना के तीर में नहीं, सुषुम्ना में डूबो। एक कथा और है।
 एक राजा शिकार खेलने के लिए जंगल गया। वहाँ एक सुन्दर बालक को देखा। वह बालक मुनि का पुत्र था। राजा ने उस मुनि बालक से कहा-‘तुम मेरे साथ चलो।’ मुनि बालक ने कहा-‘तुम मुझे अपने साथ ले जाकर क्या करोगे?’ राजा ने कहा-‘मैं जो खाऊँगा, तुमको भी वही खिलाऊंगा। जो उत्तम वस्त्र मैं पहनूँगा, वही तुमको भी पहनाऊंगा और जो पहरेदार हमारी रक्षा में पहरा करता है, वह तुम्हारा भी रात में जगकर पहरा करेगा।’ मुनि बालक ने कहा-‘नहीं। तुम मत खाओ, मुझे खिलाओ। तुम मत पहनो, मुझे पहनाओ और जब मैं सो जाऊँ, तो तुम जगकर पहरा करो।’ राजा ने कहा-‘ऐसा नहीं होगा।’ मुनि बालक ने कहा-‘तब तुम्हारे साथ मैं नहीं जाऊंगा। मेरे राजा ऐसे हैं, जो स्वयं नहीं खाते, मुझे खिलाते हैं। अपने स्वयं कुछ नहीं पहनते, मुझे पहनाते हैं और मैं सो जाता हूँ, तो जगकर मेरा पहरा करते हैं। मेरे ऐसे राजा हैं।’
 ऐसे राजा कौन हैं? ये ही हैं ईश्वर-परमात्मा। जो सबको खिलाते हैं, पिलाते हैं, सुलाते हैं लेकिन वे अपने स्वयं कुछ नहीं खाते, कुछ नहीं पहनते और वे सबका पहरा करते हैं। उनको रहने का घर नहीं है। वे ही सब कुछ करते हैं और कुछ भी नहीं करते हैं। इस प्रकार उनका संसार में रहना होता है। गो0 तुलसीदासजी ने बड़ा ही अच्छा रामचरितमानस में लिखा है-
व्यापक व्याप्य अखंड अनन्ता ।
अखिल अमोघ शक्ति भगवन्ता ।।
 उन्हीं के पास जाओ। उनको पाओ, वहीं शान्ति मिलेगी। कहाँ तक जाओ, तो सन्त दादूदयालजी महाराज ने कहा-
               अविगत अन्त अन्त अन्तर पट, अगम अगाध अगोई ।
 अन्तर के अन्तिम-पट में चले जाओ। अन्तर-पट में क्या मिलेगा? अन्त करो, तो वह मिलेगा, जो अगम, अगाध है और कहने में आनेयोग्य नहीं है। इसी को गो0 तुलसीदासजी महाराज ने लिखा-
निरुपम न उपमा आन, राम समान राम निगम कहै ।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रवि, कहत अति लघुता लहै ।।
 कितनी ही उपमा दो, तो वह वैसी ही होगी, जैसे करोड़ों जुगनुओं को सूर्य के समान कहना। राम के लिए कोई उपमा नहीं है। सबमें रहते हुए सबसे निर्लिप्त हैं। वे बाहर में प्रत्यक्ष नहीं हैं। अन्दर में जाने से बाहरी ज्ञान से छूट जाता है, तब ईश्वर-दर्शन होता है। इन्द्रिय-ज्ञान से यहाँ तक की जहाँ मन-बुद्धि आदि छूट जायँ, वहाँ दर्शन होगा; लेकिन जिसको समाधि कहते हैं, वह तुरीयातीतावस्था में हेती है। थोड़े में सन्तुष्ट होने की आदत डालो। जो लालची है, उसको शान्ति नहीं मिलेगी। शेख सादी में कहा है-कनायत तमंगर कुनद मरदरा।
 मतलब है-‘सन्तुष्टि आदमी को मातबर बना देती है। यह दुनिया के तमाम लालचियों को कह दो।’ वे दूसरे देश के थे; लेकिन बात उन्होंने ठीक कही है।
 आदमी को शान्ति चाहिए, तो ईश्वर को पाना चाहिए। ईश्वर को पाने के लिए अपने अन्दर चलना चाहिए। अन्तर चलने के लिए देखना और सुनना होगा। इसलिए दृष्टि-साधन और शब्द-साधन कीजिए। गुरु नानकदेवजी ने कहा-
शब्द तत्तु बीर्ज संसार। शब्दु निरालभु अपर अपार ।।
शब्द विचारि तरे बहु भेषा। नानक भेद न शब्द अलेषा ।।
शब्द सुरति भया परगासा। सभ को करै शब्द की आशा ।।
पंथी पंखी सिउ नित राता। नानक शब्दै शब्दु पछाता ।।
हाट बाट शब्द का खेलू। बिनु शब्दै क्यों होवै मेलु ।।
सारी सृष्टि शब्द के पाछै। नानक शब्द घटै घटि आछै ।।
 जो शब्द का अभ्यास करता है-नादानुसंधान करता है, वह ईश्वर को पाता है। बच्चा जन्म लेता है, तो वह देखता है और सुनता है। तमाम-संसार में देखना और सुनना है। तमाम-कॉलेजों में देखना और सुनना है। देखना और सुनना बन्द हो जाय, तो कोई काम नहीं होगा। इसीलिए बाबा साहब ने दृष्टियोग और शब्दयोग करने कहा। 
 
[महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर (24.12.1978 ई0)]


४३. पाँव न टिकै पिपीलिका, पंडित लादै बैल [09.12.1978]

"बंदऊँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ॥"
प्यारे लोगो!
संतों ने अपने को जैसा बनाया है, वैसा ही औरों को भी बनने के लिये कहा है। संतों ने अपने को बनाया सदाचार के पालन से और मूल में सत्संग से। बाहर को देखो तो बाहर में यही सही मालूम पड़ा कि सभी उपजते हैं और विनसते हैं। अपना शरीर भी उपजा है और विनसेगा। सबको ऐसा ही होगा। संतों ने सोचा, इस उत्पन्न और विनाश के निवारण के लिये कुछ है कि नहीं? यही बोध हुआ कि उत्पन्न और विनाश से जो आगे है, वह न उपजता है, न विनाश होता है। वह जो उपजे नहीं और विनसे नहीं, वह किसी आधार पर रहता है? जो उपजता और विनसता है, उसका कोई आधार है। जो उपजे नहीं, विनसे नहीं, वह किसी आधार पर नहीं रहेगा। वह अपने आधार पर आप है। ऐसा क्या है? संतों ने कहा- वही ईश्वर-परमात्मा है।
धरती-आसमान जितने तत्त्व हैं, सभी उपज-विनाश के अन्दर हैं और एक जो उपज-विनाश से रहित है, जो बिना किसी आधार पर है, वही ईश्वर है। अपने को सोचने पर मैं क्या हूँ तो पाया, मैं शरीर नहीं, शरीर से भिन्न हूँ। हमलोगों के धर्म के सहित और जितने धर्म-मजहब हैं, सबमें शरीर छूटने पर कोई-न-कोई क्रिया होती है। शरीर छोड़ने वाले को सद्गति मिले, इसलिये यह क्रिया होती है। इससे सीधा-सीधी बोध होता है कि शरीर छोड़कर मैं इससे भिन्न कोई हूँ। खूब बोध करने पर मालूम होता है कि वह जो निराधार-तत्व है, वही मैं हूँ --
ईश्वर अंस जीव अविनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
सो तुम ताहि तोहि नहिं भेदा। बारि बीचि इव गावहिं बेदा ॥ इसलिये कहा गया है। वह ईश्वर निराधार-तत्त्व जो है, वही हम-आप सब हैं। शरीर उपजने-विनसने वाला है। हम अपने शरीर को छोड़कर अपने को देख सकते हैं कि यह मैं हूँ। देखने का कौशल चाहिये। बाहर देखना छोड़कर अंदर देखो। अपने आपको शरीर के ऊपर लगा हुआ नहीं समझते हैं। अपने अन्दर में अपने को समझते हैं। इसलिये अन्दर में देखने के लिये आँखें बन्द करो। सन्तों ने आँखें बन्द करने के लिये कहा। आँख बन्द करने पर अन्धकार मालूम होता है, उसी में देखो। आँख से कोई नहीं देखता। आँख में जो देखने की शक्ति है, उससे देखो। वह चेतनात्मिका है।
अपने से देखने का ज्ञान नहीं होता है, तो किसी जानकार से जानकर देखो। इसी का अभ्यास करो। इतना महीन देखे, जिससे महीन और कुछ नहीं हो सकता। वह महीन विन्दु हो सकता है। जो अपने में देखता है, वह जहाँ देखता है, वहाँ सुनता भी है। अन्धकार में भी सुनता है। महीन-से महीन को उपनिषद् में परम-विन्दु-ज्योतिर्विन्दु कहा है।
तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्म-हृदि संस्थितम् ।
                                   (तेजोविन्दूपनिषद्)
अर्थात्-तेजोमय-विन्दु का ध्यान परम-ध्यान है। संत-स्तुति में हमलोग पढ़ते हैं - “विन्दु-ध्यान विधि नाद-ध्यान विधि, सरल-सरल जग में परचारी।" विन्दु और नाद का ध्यान करो। विन्दु-नाद को पकड़ो। देखने के कौशल से पहले विन्दु को पकड़ो। पकड़ने का मतलब हाथ से पकड़ना नहीं, दृष्टि से पकड़ो। दृष्टि से दृष्टि के विन्दु को पकड़ो। इसको जो पकड़ता है, तो गुरुनानक देव जी महाराज का कहना है – “खंनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा।" तलवार से भी तेज और बाल से भी बारीक मार्ग पर जाना है। यह अपने अन्दर का रास्ता है। संत कबीर साहब सांकेतिक-शब्द में बताते हैं।
कबीर का घर सिखर पर, जहाँ सिलहिली गैल ।
पांव न टिकै पिपीलिका, पंडित लादै बैल ॥
मतलब यह कि घर तो ऊँचे शिखर पर है और रास्ता तो ऐसा है कि चींटी भी उस पर नहीं चढ़ सकती।
जहाँ न चींटी चढ़ि सके, राई न ठहराय ।
मनुवां तहँ ले राखिया, तहई पहुंचे जाय॥
यह विन्दु-ध्यान के बारे में संकेत है। देखने के लिये विन्दु-ध्यान और सुनने के लिये नादानुसंधान है या सुरत-शब्द-योग है। इसको सब बातों का निचोड़ समझना चाहिये। संतों ने विन्दु का और नाद का ध्यान बतलाया।
विन्दु नाद महालिङ्ग, शिवशक्तिनिकेतनम्।
देहं शिवालयं प्रोक्तं, सिद्धिदं सर्वदेहिनाम्॥
विन्दु-नाद जो चिन्ह है, महत्वपूर्ण चिन्ह है। वह शिव-कल्याणकारी और शक्ति कर घर है। फिर कहा गया है--
विन्दु नाद महालिङ्ग, विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम् ।
देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं, सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ॥
अर्थात विन्दु-नाद रूप जो महालिंग है, वह विष्णु और लक्ष्मी का घर है। इस देह को विष्णु-मंदिर (ठाकुरवाड़ी) कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है। जहाँ विन्दु-नाद की उपासना होती है, वहाँ विष्णु-लक्ष्मी और शिवशक्ति की उपासना होती है। विन्दु-नाद की जहाँ उपासना होती है, वहाँ से न विष्णु हटते हैं, न लक्ष्मी हटती है और न शिवजी हटते हैं, न शक्ति जी ही हटती हैं। समझिये, विन्दु-नाद से कितना लाभ है? उसकी आत्मशक्ति बढ़ेगी और वह लक्ष्मी जी से पालित रहेगा। वह संसार में दु:ख नहीं पावेगा, सुखी रहेगा। इसके लिए पवित्रता चाहिये। गुरु का आदर चाहिये। गुरु के आदेश में रहना चाहिये। गुरु के आदेश में नहीं रहने वाला ध्यान भी नहीं कर सकता। उपासकों के लिये गुरु से बढ़कर मंगल-शुभ और कुछ नहीं है।
यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत डेहरी-ऑन-सोन में विनांक ९-१२-१९७८ ई० को अपराह्नकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था।



५१. आकाश में लोग दौड़ गये [21.10.1978]

"बंदउँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर॥"
प्यारे लोगो!
        मनुष्य सदा अपने लिये सुख खोजता रहता है; परन्तु संसार में तमाम दौड़ते रहने पर भी सुख का पता नहीं पाता है। पृथ्वी पर तो क्या, आकाश में लोग दौड़ गये- चन्द्रलोक में। क्या खोजते-फिरते थे? वहाँ कुछ धन मिल जाय तो सुख-ऐश्वर्य होगा। अभी भी यही खोजते-फिरते हैं। मिला कुछ नहीं। चन्द्रलोक से कुछ मिट्टी ले आये। धरती पर दौड़ते-दौड़ते थक गये, आकाश में दौड़ते हैं; लेकिन सुख का पता नहीं मिलता है। इससे मालूम होता है, सुख संसार में नहीं है। संसार में ऐसा कोई सुख नहीं, जिसके साथ दु:ख नहीं हो। सुख के बाद दु:ख, दु:ख के बाद सुख- ऐसा होता ही रहता है। बाहर संसार को छोड़कर अपने अन्दर खोजो। प्रत्येक आदमी देखते हैं एक का सिर जहाँ होना चाहिए, दूसरे का सिर भी वहीं है। आँख, नाक, पैर सबको एक जगह पर है। उसी तरह प्रत्येक आदमी जो सुख चाहता है, वह बाहर संसार में नहीं है, अपने अन्दर में है। अन्दर को देखने के वास्ते बाहर को देखना छोड़ देना चाहिये। बाहर के ख्याल को भी छोड़ देना चाहिये। आँख बन्द करके देखे तो अपने अन्दर में हो गये। अब क्या मालूम होने लगा? अंधकार। अपने को पूछो, मैं कहाँ हूँ? उत्तर आवेगा- अंधकार में। अंधकार का गुण अज्ञान है। अंधकार में अज्ञानता रहती है। इसलिये इस अंधकार से बाहर होना हो सकता है कि नहीं? संत- लोग कहते हैं, हो सकता है। लेकिन देखने की युक्ति चाहिये। कोई काजल या सुरमा लगाकर देखा जाएगा ? नहीं। एक सन्त हुए पलटू साहब। वे कहते हैं--
काजर विहे से का भया, ताकन को ढव नाहिं।।
ताकन को ढव नाहि, ताकन की गति है न्यारी।
इक टक लेवै ताकि, सोई है पिव की प्यारी॥
देखने का यत्न अलग ही है। एकटक देखो, आँख बन्द करके देखो। एकटक देखने के लिए एक ही तरफ ख्याल रखना चाहिए। देखे हुए रूप को देखेगा, तो उस रूप के अनेक अंग-प्रत्यंग होते हैं। रेखा को देखो तो उसके अनेक टुकड़े हो सकते हैं। रेखा का टुकड़ा करते-करते क्या बचता है? जिसका टुकड़ा नहीं हो, वह है विन्दु। सन्तों ने विन्दुध्यान-विधि, नाद-ध्यान-विधि का प्रचार किया है। सन्तों ने विन्दु-ध्यान, नाद-ध्यान बताया है। विन्दु-ध्यान को दृष्टि-साधन और नाद-ध्यान को नादानुसन्धान कहा है। दृष्टि-साधन दृष्टि-योग और नादानुसन्धान यानी सुरत-शब्दयोग। संत कबीर साहब ने कहा--
सबद खोजि मन बस करै, सहज जोग है येहि।
 संसार के सभी जो काम हैं, देखने और सुनने के अधीन हैं। पुस्तकों को पढ़ो तो देखना होगा। पढ़े हुए को कोई समझावे तो सुनना होगा। संसार में देखने और सुनने का खेल है। देखने के लिये मोटे-मोटे रूपों को देखते-देखते फिर बारीक पर आओ। जिसका टुकड़ा नहीं हो, उस पर मन को टिकाओ। जबतक देखने में नहीं आता है, तबतक अंधकार रहता है और जब देखने में आने लगता है, तो प्रकाश होता है। उपनिषद् में है, “तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम्।"
(तेजोविन्दूपनिषद्)
अर्थात् तेजस्-स्वरूप विन्दु का ध्यान परम-ध्यान है। पहले मोटा ध्यान करो। इसके पहले थोड़ा जप करो। एक ही शब्द का बारम्बार जप करो, जो गुरु बतावें। बाद में मोटे-रूप का ध्यान करो, फिर बाद में विन्दु-ध्यान करो और अन्त में नादानुसन्धान करो। यही सन्तों का रास्ता है। अनस्थिर-पदार्थ को पाकर सुख नहीं होता। स्थिर-पदार्थ को पाकर सुख होता है। स्थिर-पदार्थ क्या है? जो न कभी बना है, न कभी बनेगा, जिसका कभी अभाव नहीं होता, वह है ईश्वर-परमात्मा। उस ईश्वर-परमात्मा को सन्तों ने सर्वव्यापी बताया है। ईश्वर सबके अन्दर मौजूद है। इसी को कहा गया है- “ईश्वर अंस जीव अविनासी।"
अंश कहने से टुकड़ा-टुकड़ा हो गया, सो नहीं। जैसे बाहर का आकाश और मकान के अन्दर का आकाश है। यही शून्य वा आकाश अभिन्न-रूप से अंश होकर तमाम-संसार में है। इसी तरह जीवात्मा है। तबतक यह अंश रूप में है, जबतक इसको अंशी-परमात्मा नहीं मिल जाता है, स्थिर-सुख नहीं मिलता है। सन्तों ने जो ध्यान बताया है, सो कीजिए। जो अपने सीखा है, वही दूसरे को सिखा सकता है। जो स्वयं करता है, वही दूसरे को सिखाता है। कौन पूरे हैं? यह जाँच नहीं सकते। जिन सन्तों को हम मानते हैं, उन पर विश्वास है- श्रद्धा है। यदि जाँचने की शक्ति होती तो हम स्वयं संत हो जाते। जो संत को जाँच सकते हैं, उनको गुरु की आवश्यकता ही नहीं।
असल बात है, गुरु से ज्ञान जानना। गुरु की पहचान सत्संग से होती है। यह लाभ सत्संग से होता है। सत्संग करने की लगन चाहिये। जिसको लगन नहीं है, वह सत्संग में भी नहीं जाएगा। गो. तुलसीदास जी ने सत्संग की महिमा में कहा है
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई॥
सो जानब सत्संग प्रभाऊ। लोकहु वेद न आन उपाऊ॥
गो. तुलसीदास जी ने ऐसा कहा है बहुत ठीक कहा है।
मति=बुद्धि, कीरति=यश, गति=मोक्ष, भूति=ऐश्वर्य, भलाई=शीलता। सच्चाई और नम्रता के वर्ताव को शीलता कहते हैं। जब कोई यत्न करता है, तब उसको पाता है और सुख मिलता है। केवल कथन से कुछ नहीं होता। सुनने से कुछ होता है तो इतना होता है जिससे और बहुत बाकी रहता है। गुरु नानक देव जी ने कहा है-- सूचै भाड़ै साचु समावै, बिरले सूचाचारी॥
शरीर बर्तन है, इसमें सत्य को धारण करने के लिये सत्य बनना पड़ेगा। एक सत्य को धारण जो कर ले तो उससे कोई पाप नहीं होगा। और फुटा-फुटाकर कहने के लिये है- झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, हिंसा मत करो। मत्स्य-मांस को मत खाओ। नशा न खाओ, न पिओ। व्यभिचार मत करो।
यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत भागलपुर नगर के श्री गंगातट स्थित कुप्पाघाट आश्रम के सत्संग-हॉल में दिनांक २१/१०/१९७८ ई. को साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था।



८३. परहितार्थ कर्म करने में आलस्य नहीं करें

"बंदउँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर॥"
प्यारे लोगो !
सब लोगो पर ईश्वर की कृपा हो, कृपा तो हई है और कृपा बनी ही रहती है। साधु-महात्मा या उनके सेवकगण यही मनाते हैं कि उनकी कृपा होती रहे। मैं यही मनाता हूँ की ईश्वर की कृपा आप पर होती रहे । मैं कभी नहीं भूलता हूँ और आप भी कभी न भूलें। ईश्वर की कृपा हम पर लगी ही रहती है। मैं आप लोगों को कुछ ज्ञान देने नहीं आया हूँ। केवल आपके दर्शन-भेंट और डॉक्टर साहब के विचार - मैं उनके नये मकान पर पहुँचूँ, इसीलिये मैं आया हूँ। डॉक्टर साहब बड़े श्रद्धालु हैं। जनहितार्थ काम में मन लगाते हैं। मैंने प्रत्यक्ष देखा है कि दो बार जब स्पेशल ट्रेन से हरिद्वार और दिल्ली गये तो ये साथ जाकर देख-भाल करते रहे और चिकित्सा करते रहते थे। परहितार्थ काम इनको बहुत अच्छा लगता है। ये ईश्वर के भक्त भी हैं, भजन भी करते हैं। ऐसी बुद्धि तो सब लोगों को हो, यह अच्छी बात है।
मनुष्य को चाहिये कि वह अपने को समझे कि क्या है ? जब किसी का शरीर मर जाता है, तब साफ हो जाता है कि शरीर के अन्दर का रहने वाला मरा नहीं, शरीर छोड़कर कहीं चला गया। वह कहीं जाकर रहा, इसके लिये हमारे यहाँ श्राद्ध-क्रिया होती है। श्राद्ध-क्रिया में यह विश्वास है कि शरीर छोड़कर जो गया है, उनको सुख हो इस क्रिया द्वारा। और इस शरीर को छोड़कर जाने वाली है जीवात्मा। जैसे यह स्थूल-शरीर-मांस, हाड़, चाम का है, यह जड़-शरीर कहलाता है। इसमें चेतन-आत्मा है, इसी कारण इसमें ज्ञान है। इसी तरह इसके अन्दर तीन जड़-शरीर और हैं। किसी की मृत्यु होने पर तीनों जड़ शरीरों के साथ चेतन-आत्मा निकलती है। जैसे अभी ऊपर में स्थूल-शरीर है, तब सूक्ष्म-शरीर रहता है। जैसा कर्म वह किया है, उसी के अनुकूल लोक में रहता है, फिर इस संसार में आता है। यह तब तक होता रहता है, जब तक मुक्ति नहीं मिलती। ईश्वर-भक्ति से जब जड़ के सभी शरीर छूट जाते हैं, चेतन-आत्मा तीनों से ऊपर उठ जाती है, तब उसको संसार में आने का कोई कारण नहीं रहता। वह आवागमन के चक्र से छूट जाता है।
संतों ने कहा है कि अच्छे-अच्छे कर्म करो और ईश्वर-भजन भी करो। ईश्वर-दर्शन हो जाय तो सभी काम खत्म हो जाय। इस आँख से ईश्वर का दर्शन नहीं हो सकता। कोई कितना भी विश्वास दिलावे कि इसी आँख से ईश्वर का दर्शन होगा, लेकिन यह बात विश्वास के योग्य नहीं है। इन्द्रिय-रहित होकर चेतन-आत्मा को अपने आपे से ईश्वर का दर्शन होता है। ईश्वर-दर्शन के लिये वह भजन है, जिससे कि वह सब शरीरों से ऊपर उठ जाती है। ईश्वर की सहायता भी इसके लिए मिलती है। वह ईश्वर-दर्शन कर कृत-कृत्य हो जाती है। परमानन्द को प्राप्त करती है। नित्यानन्द को प्राप्त करती है। वह उस सुख को पाती है, जो सुख परमात्मा को है।
ईश्वर की भक्ति सबको करनी चाहिये। अन्दर-अन्दर चलकर ईश्वर-दर्शन होगा। बाहर-बाहर प्रयास करने से माया के अन्दर रहना पड़ेगा। अपने को माया के परदे से कोई ऊपर उठाना चाहता है, तो ईश्वर की ओर से उसको सहायता भी मिलती है। सहायता यह है कि वह ईश्वर के शब्द को और प्रकाश को पाता है।साधन-भजन करने के लिये मन को पवित्र रखना होता है, संयम में रखना होता है तो ईश्वर की सहायता मिलती है। तब वह पूरा भक्त हो जाता है, जब उसको ईश्वर का दर्शन हो जाता है। वह ईश्वर का दर्शन करके कृत-कृत्य हो जाता है।
अपनी रहन-सहन को ठीक करें। परहितार्थ कर्म करने में आलस्य नहीं करें।
संतों ने कहा है - झूठ मत बोलो। चोरी नहीं करो। व्यभिचार मत करो। नशा नहीं खाओ-पीओ। हिंसा नहीं करो। हिंसाओं को नहीं करने के सिलसिले में संतों ने कहा कि मांस-मछली नहीं खाओ। मांस-मछली खाने वाले की हिंसा की वृत्ति रहती है। वे परोपकार-कर्म में पीछे दबे रहते हैं। जिसका मन संसार के विषय-भोगों में लगा रहता है, वह परमार्थ में आगे नहीं बढ़ता। लोगों को चाहिये कि गुरु जैसी युक्ति बता दें, उस युक्ति से भजन करें। परन्तु गुरु की ऐसी युक्ति होनी चाहिये, जिससे अन्दर-अन्दर चलना हो। सब लोग सुखी रहें। इस मकान में जो लोग रहेंगे, बहुत सुखी रहें, आनन्द से रहें। इस मकान के लोग स्वस्थ रहें। सुखी रहें।
यह प्रवचन भागलपुर नगर के तिलका मांझी महल्ला निवासी डॉ० श्री धामचन्द घोष के निवास स्थान पर दिनांक २८.१.१९७१ ई० को हुआ था।



९१. हमलोग पूर्व-जन्म के अनेक संस्कार लेकर आये हैं

"बंदऊँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि। 
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर॥"
प्यारे लोगो!
भगवान् श्रीकृष्ण के अनेक-जन्म हुए, परन्तु उनके जितने भी जन्म हुए, उन सब जन्मों में उन्होंने संसार के दु:खों का नाश करने के वास्ते और दुष्ट-जनों को दण्ड देने के वास्ते ही अवतार ग्रहण किया था। हम सब लोगों के भी अनेक जन्म हुए हैं। भिन्न-भिन्न संस्कार के हम सब लोग एक ही जगह रहते हैं। इससे सिद्ध होता है कि हमलोग पूर्व-जन्म के अनेक संस्कार लेकर आये हैं।
जितने भी अवतार वा ऋषि, मुनि वा सन्तलोग हुए हैं, वे सब भी यह कहते हैं कि जन्म-मरण से छूटने का उपदेश जानो। जो उपदेश जन्म-मरण से बचाने के वास्ते पाए जाते हैं; उन उपदेशों का जो सार है, वह ठीक से समझो तो यही मालूम पड़ेगा कि सुकर्म करते हुए, ईश्वर-भजन करते हुए, कर्त्तव्य-कर्म का पालन करते हुए, संसार को छोड़कर जाओ। जैसे संसार के सभी देशों में कोई-न-कोई सरकार अवश्य होती है। उन सभी सरकारों में ऐसी शक्ति होती है, जो संसार में शासन का काम करती है और जो जनसमूह है, उसको शासन में रखती है और उनसे संसार का काम भी लेती है। उनको ईश्वर-भजन-पारमार्थिक-साधन करने से नहीं रोकती है। जो सरकार देश की रक्षा करती है और देश के मनुष्यों को शासन में रखकर उनकी भलाई करती है, तो उस सरकार की अथवा संसार के किसी देश के शासन की अवहेलना नहीं करनी चाहिये।
हमलोगों का देश बहुत पुराने जमाने से राजाओं के शासन में था। आज तक उसमें पहले जितने राजा लोग हुए, उन राजाओं में विदेशी राजाओं ने भी शासन किया। लेकिन हमारे पूर्वजों ने उनके शासन को मानते हुए भजन-ध्यान और सत्संग को नहीं छोड़ा। हमलोगों को भी भजन-ध्यान और सत्संग करते रहना चाहिये।
आज भी जो हमारी सरकार है, वह हम लोगों को साधन-भजन और सत्संग करने से नहीं रोकती है। आसानी से सत्संग-भजन-साधन हमलोग करते हैं। इस संसार में जो ऐहिक-सुख चाहते हैं; वे बहुत हैरान होते हैं। संसार के सुख के साथ दु:ख मिला हुआ है। जैसे दिन के बाद रात और रात के बाद दिन अनवरत-रूप से होता रहता है, उसी तरह सुख के बाद दु:ख और दु:ख के बाद सुख अनिवार्य रूप से होता रहता है। इससे भिन्न सुख है कि नहीं, उसकी खोज होनी चाहिये। सन्तों ने कहा- जो नित्य-सुख है, वह भी अवश्य है। इसलिये वे पारमार्थिक-साधन करने कहते हैं। सांसारिक-काम करने के लिये सन्तलोग मना नहीं करते हैं, सत्संग-भजन-साधन करने के लिये कहते हैं और कहते चले आये हैं।साधन-भजन में मुख्यता ईश्वर-भक्ति की है।
ईश्वर का ज्ञान पहले होना चाहिये और अपना भी ज्ञान होना चाहिये। हमलोग जो पहले स्तुति-पाठ करते हैं; उसमें ईश्वर-स्वरूप का वर्णन है। सन्तों के बताये अनुकूल चलकर वह सुख पा सकते हैं, जो ईश्वर में है। दिन और रात ये दोनों काल के अन्दर हैं। काल से जो परे है, वह परमात्मा का स्वरूप है। इसीलिये गुरु नानक देव जी ने कहा है-- अकाल मूरति अजोनि संभउ।
परमात्मा इसी तरह है - वह वचन से नहीं बताया जा सकता है।
निरुपम न उपमा आन राम समान राम निगम कहैं।
ऐसा गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है। और कबीर साहब ने कहा है
जस कथिये तस होत नहीं, जस है तैसा सोई।
कहत सुनत सुख ऊपजै, अरु परमारथ होइ॥
परमात्मा के इसी स्वरूप को जानकर पाना है। अवश्य ही यह अकथ है। अकथ को कथनी में लाना नहीं हो सकता है। उपासना करने के लिए पहले सत्संग करना पड़ता है। सत्संग से ज्ञान प्राप्त होता है। सत्संग से सब कुछ मिल जाता है। गो० तुलसीदास जी ने रामायण में लिखा है
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई॥
सो जानब सत्संग प्रभाऊ। लोकहुँ वेद न आन उपाऊ॥
मति=सुबुद्धि, कीरति=यश, गति=शुभगति=मोक्ष, भूति=ऐश्वर्य, भलाई-शीलता; ये सब सत्संग से मिलते हैं। जहाँ सुबुद्धि हो, यश हो, मोक्ष हो, ऐश्वर्य हो, शीलता हो वहाँ पाने को और बाकी नहीं रह जाता। हमलोगों में बहुत के जन्म ऐसे समय में हुए जब यहाँ अंग्रेजों का राज्य था। ईश्वर को जबतक मंजूर था, तबतक उनका राज्य रहा। महात्मा गाँधी जी हुए, उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ आन्दोलन किया और कांग्रेस महासभा का राज्य हुआ। इसमें भी वह शासन आया जो जनतंत्र-शासन कहलाता है। मुझे इस शासन में कोई कठिनाई नहीं होती है। सत्संग में उपदेश दिया जाता है- "झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, नशा मत खाओ-पीओ, हिंसा नहीं करो, व्यभिचार मत करो।" इसके खिलाफ में जो उपदेश होगा, इससे शासन को ठेस लगेगी और परमार्थ भी मिट जाएगा। हमलोग सत्संग करें और जीविकोपार्जन करें, खेती आदि जो कुछ काम करना हो करें। जिनको अपने उपार्जन के लिये जैसी योग्यता हो वैसा काम करें और सत्संग करें।
यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत पुरैनियाँ जिले के मौजम पट्टी ग्राम में श्री सदानन्द जी सागर के सुपुत्र मनु भास्कर जी की जयन्ती के अवसर पर दिनांक २४-७-१९७८ ई० को हुआ था।



९५. मरने के बाद क्या होगा?

"बंदऊँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर॥"
प्यारे लोगो!
हमलोग सत्संग-हॉल में यानी सत्संग-घर के अन्दर हैं, सत्संग करने के लिये। सत् का संग असत् को छोड़ देने से होगा। क्योंकि सत् और असत् दोनों का संग चिरकाल तक नहीं रहता है। सत्- जो कभी विनसता नहीं। जो नहीं विनसता, वह उपजता भी नहीं हैं इसलिये जो कभी नहीं हुआ है और कभी नहीं होगा, ऐसा जो कुछ है, वही सत् है। उसी का संग सत्संग है। परन्तु बाहर में ऐसा संग होना असम्भव है। हाँ, यहाँ जो हमलोग बैठे हुए हैं सत्संग करने के लिये, इसको बाहरी सत्संग कहते हैं। बाहरी सत्संग में ज्ञान होता है। इससे अनुभव तो नहीं होता है, श्रवण-ज्ञान होता है। इससे बुद्धि का विकास होता है। सब लोगों को यह ज्ञान मालूम होगा कि एक दिन हमारा यह शरीर भी छूटेगा, जैसे हमारे पूर्वजों का छूट गया। यह क्यों छूटेगा? इसलिये कि यह असत् है। परन्तु जो बाहर का सत्संग होता है, वह भी होना बहुत आवश्यक है। क्योंकि इससे जो हम ज्ञान पाते हैं, वह अन्तर्मुख करता है। इस ज्ञान को सुनकर यानी बाहरी ज्ञान को सुनकर हम जानते हैं कि कुछ ऐसा है कि जो सत् है, जो न उपजा है, न बिनसेगा। ऐसा जानना बुरा नहीं, अच्छा है। और आप जानते ही हैं कि -
बिनु गुरु होइ कि ज्ञान, ज्ञान कि होइ बिराग बिनु।
गावहिं वेद पुरान, सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु॥
बात-बात में गुरु है। जब हमने जन्म-धारण किया था, तब भी माता-रूपिणी धाई ने दूध पीना सिखाया। कुछ-काल बीतने पर हमारे नाम रखने वाले पंडित वा मौलवी नाम रख देते हैं। तबसे हमारा नाम यह है, इसका ज्ञान होता है। फिर जब कुछ लिखने-पढ़ने योग्य होता है, तो छोटी पाठशाला में पढ़ने जाते हैं। वहाँ सीखते हैं। यह इसीलिये कि हम देखते हैं कि पद-पद पर गुरु हैं। हम ऊँचे विद्यालय में जो सीखते हैं, उससे कमाने का बहुत ज्ञान होता है। उससे पेशा-रोजगार करके जीवन-यापन का भेद वा ज्ञान पा जाते हैं। हम जो कुछ कमावेंगे, सदा नहीं रहेगा। गो० तुलसीदास जी ने कहा है -
अरब खरब लौ सम्पदा, उदय अस्त लौ राज।
तुलसी तो भी मरन है, आवे कौने काज॥
मरने के बाद क्या होगा? इसकी भी चिन्ता चाहिये। सन्तलोग कहते हैं कि असली सत्य की खोज करो। अगर अपने अन्दर खोजो, तो सत् का पता लगेगा। जाग्रत् में, स्वप्न में, सुषुप्ति में इसका पता नहीं लगेगा। संत-योगी बताते हैं कि इनके परे एक अवस्था है, जिसको तुरीय कहते हैं। इसमें जो ज्ञान है, वह ज्योतिर्मय है। ज्ञान और ज्योति दोनों का संग है, यह समझिये। उस ज्ञान में समझने लगते हैं कि ज्योतिर्मय-ज्ञान के लिये साधन करना चाहिये। गुरु इसका ज्ञान पहले देते हैं, फिर साधन बतला देते हैं
ज्योति-ज्ञान के लिये दृष्टि-योग है। जो दृष्टि स्थिर करते हैं, वे उस आनन्द को पाते हैं। जैसे दिन हो वा रात हो, अन्धकार हो वा प्रकाश हो, कुछ-न-कुछ ध्वनि होती रहती है। वैसे ही अन्दर में अन्धकार वा प्रकाश में भी ध्वनि होती रहती है। लेकिन इसके लिये मन का सिमटाव चाहिये। सिमटाव ऐसा हो कि सब छूट जाय। दृष्टि स्थिर होने पर जो प्रकाश मालूम होता है, वह ज्योति-ज्ञान है। शब्द होना अनिवार्य है, अन्धकार में भी और प्रकाश में भी। मन का इतना सिमटाव हो कि एकविन्दुता आ जाय। तब जो प्रकाश होगा, उसमें ध्वनि होगी। संतों ने प्रकाश के साधन को दृष्टियोग और नाद के साधन को सुरत-शब्द-योग कहा है। नाद जिधर से आता है, सुरत उधर खिंच जाती है। जैसे चुम्बक लोहे को खींच लेता है, उसी तरह शब्द से सुरत खिंच जाती है। संत दरिया साहब बिहारी ने कहा है
चुम्बक सत्त शब्द है भाई। चुम्बक शब्द लोक ले जाई॥
मृतु अंध जबही नियरावै। चुम्बक शब्द जीव मुक्तावै॥
लेइ निकारी होखै नहिं पीरा। सत्त शब्द जो बसै शरीरा॥
यह शब्द ऐसा कर देता है कि -
जल तरंग जिउ जलहि समाइआ, तिउ जोती संगि जोति मिलाइआ।
कहे नानक भ्रम कटै किवाड़ा, बहुरि न होइऐ जउला जीउ॥
- गुरुनानक देव जी महाराज
इस संसार में आना-जाना छूट जाता है। संत कबीर साहब के मुताबिक
जौं जल में जल पैस न निकसे, यौं ढुरि मिला जुलाहा।
जबतक जीवन-काल रहता है, तबतक ऐसा होता है कि -
सोवत जागत ऊठत बैठत, टुक विहीन नहिं तारा।
झिन झिन जंतर निसिदिन बाजै, जम जालिम पचि हारा॥
ऐसी अवस्था में साधक शब्द को क्या पकड़ेगा, शब्द से ही वह पकड़ा जाता है। उस शब्द में लगे रहकर जो संसार का काम करता है, वह असली कर्मयोगी है। इस कर्मयोग को वही जानेंगे, जो पूरा-पूरा साधन करेंगे। भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा था “यह ज्ञान प्राचीनकाल में मैंने पहले-पहल सूर्य को दिया, सूर्य ने मनु को, मनु ने इक्ष्वाकु को दिया।" सन्तलोग भी यही बताते हैं। इसका अभ्यास करना चाहिये। यह असली बात है। जिसको अभ्यास नहीं है, वह कमजोर रहेगा। कमजोरी मिट जाती है, अभ्यास करते-करते।
करत-करत अभ्यास ते, जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात तें, सिल पर पड़त निसान॥
-संत कबीर साहब
गुरु से भेद लेकर भजन हमलोग करते हैं। जिनको इसका भेद नहीं मिला है, उनको चाहिये कि सत्संग से लाभ उठाकर अच्छे गुरु से यत्न मालूम करें और लाभ उठावें। इस सत्संग-हॉल में यही शिक्षा दी जाती है। इसलिये यह सत्संग-मंदिर कहलाता है।
यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत भागलपुर नगर के श्री गंगातट स्थित महर्षि मेंही आश्रम, कुप्पाघाट के सत्संग-हॉल में दिनांक ८-१-१९७८ ई० को साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था।



१०२. जहँ न होहु तहँ देहु कहि

"बंदउँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर॥"
प्यारे लोगो!
अभी आपलोगों ने सुना है
पात पात के सींचवो, बरी बरी के लोन।
तुलसी खोटे चतुरपन, कलि डहके कहु को न॥
अगर आपको एक वृक्ष लगाना है, तो उसके पत्ते-पत्ते पर पानी दीजिये और बेसन से जो पकौड़ी या बरी बनाते हैं तो उस एक-एक बरी में फुटा-फुटाकर नमक दीजिये, तो ठगे जायेंगे। इस तरह सभी ठगे गये। जैसे वृक्ष सींचने के लिये उसकी जड़ में पानी दे दीजिये, तो उसके पत्ते-पत्ते में पानी चला जायेगा। और जब आप बेसन में नमक नहीं देकर अलग-अलग करके नमक देंगे तो किसी में कम, किसी में बेसी नमक हो जायेगा। कोई छूट भी जा सकती है। लेकिन बेसन में नमक दे दीजिये, तो छोटी-बड़ी जैसी भी पकौड़ी बनाइये, सबमें समान रूप में नमक हो जायेगा। मतलब कहने का यह है कि सबकी जड़ परमात्मा हैं, इस ईश्वर की उपासना करो, तो सबकी उपासना हो जायेगी।
यदि कोई एक ईश्वर की उपासना से अप्रसन्न होते है, तो वे ईश्वर को नहीं जानते हैं। श्रीकृष्ण भगवान् ने कहा है- "देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मेरे को ही प्राप्त होते हैं।"
जो एकनिष्ठ होते हैं, वे ही ईश्वर का भजन करके उनको पाते हैं। जो एक को नहीं पूजते, वे आवागमन से नहीं छूटते। एक ईश्वर का भजन करने वाले ही आवागमन से छूटते हैं। लोग जिन दाशरथि राम को देखते थे, जिस रूप में देखते थे, वैसे ही वे नहीं थे, श्रीराम ने वाल्मीकि मुनि से पूछा कि चौदह वर्षों तक वनवास करना है, कहिये हम कहाँ रहें, तो वाल्मीकि जी ने कहा--
पूछेहु मोहि कि रहउँ कहं, मैं पूछत सकुचाउँ।
जहं न होहु तह देहु कहि, तुम्हहिँ देखावउँ ठाउँ॥
-रामचरितमानस, अयोध्याकाण्ड
मतलब यह कि आप सर्वत्र हैं। जो राम की उपासना करते हैं, वे जानते हैं कि भगवान् श्रीराम केवल शरीर-रूप में ही नहीं हैं, वे आत्म-रूप में भी हैं। बहुत अच्छा हो कि दोनों रूपों को जानो। जो रूप देखने में आता है, बड़ा सुन्दर है, उपासना का आरम्भ वहाँ से करो, किन्तु आत्म-स्वरूप जाने बिना कल्याण नहीं है। इसलिये वह भी छोड़ने योग्य नहीं है। रामचरितमानस के लिए तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है--
अस मानस मानस चखु चाही। भइ कवि बुद्धि विमल अवगाही॥
सगुण-महिमा जल की स्वछता है। लेकिन
रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनव सोइ बर वारि अगाधा॥
रघुपति की महिमा निर्गुण है, बड़ा अगाध है, गम्भीर है। विचारिये, जल स्वच्छ हो और अल्प हो, तो उतना काम नहीं चल सकता; लेकिन गम्भीर हो, गहरा हो, तो उससे काम चलेगा। इसलिये गो. तुलसीदास जी ने दोनों रूपों-सगुण-निर्गुण का वर्णन किया है--
जय राम रूप अनूप निर्गुन, सगुन गुन प्रेरक सही।
दस सीस बाहु प्रचंड खंडन, चंड सर मंडन मही॥
-रामचरितमानस, अरण्यकाण्ड
इसलिये निर्गुण-सगुण-दोनों से काम लेना चाहिये; लेकिन-
सकल सुमंगल मूल जग, गुरुपद पंकज रेनु।
गुरु के द्वारा ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करके उनके स्वरूप को पाने के वास्ते जो साधना अपेक्षित है, वह करनी चाहिये, तब ईश्वर का प्रत्यक्ष-ज्ञान हो जायेगा। केवल श्रवण, मनन से प्रत्यक्ष-दर्शन नहीं होगा, तब मन कहेगा कि प्रत्यक्ष-दर्शन नहीं हुआ।
मन्दिरों में जाकर दर्शन कीजिये। दर्शन के बाद मन यही कहेगा कि प्रत्यक्ष-दर्शन नहीं हुआ। सन्तमत न निर्गुण को छोड़ने कहता है, न सगुण को। निर्गुण
और सगुण-दोनों को पकड़ो। लेकिन पकड़ने और छोड़ने का जो तरीका है, सो गुरु से जानो।
यह प्रवचन बिहार राज्यान्तर्गत अब झारखंड राज्यान्तर्गत गोड्डा जिले के करमाटांड़ ग्राम के श्री सन्तमत-सत्संग मन्दिर में दिनांक २१-१०-१९७८ ई. को अपराह्न कालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था।