18. भीतर की सफाई ध्यान से होती है

 जितने जीव-जन्तु हैं, सब खुलासा-स्थान पसन्द करते हैं। सबसे  खुलासा क्या होगा? सबसे खुलासा आकाश है। आकाश में सूर्य है। सूर्य के ऊपर भी आकाश है, जिसका ओर-छोर, आदि-अन्त नहीं है। 
चाहे विचार में, चाहे दृष्टि में ऐसा हो, तो वह क्या होगा? जो सारी सृष्टि को धारण करके रखता है। जितने जीव है, जिनको जितना मिलना चाहिए, वे देते हैं। लोग कहते हैं-मैंने पुरुषार्थ किया था, यह पुरुषार्थ जगने और स्वप्न में कुछ मालूम पड़ता है। परन्तु गहरी नींद में सब चला जाता है। इसलिए जो परमाकाश है, वही परमात्मा है। हम ईश्वर को आकाश कहकर नहीं बताते हैं। बल्कि जो अवकाश है, उसके अन्दर यह आकाश है। वह कितना बड़ा अवकाश है?
प्रभु पूरन ब्रह्म अखण्डा, जाके रोम रोम ब्रह्मण्डा ।।
 केवल आकाश ही नहीं है, पृथ्वी भी है। बिना पृथ्वी के हम रह नहीं सकते। पृथ्वी में पहाड़, जंगल, अन्न और खानियाँ मिलती हैं। ये सब अपने हो गए हैं ? वे प्रभु करते हैं। वे करते सब कुछ हैं और सबसे आसक्तिहीन होकर करते हैं। हमलोग आसक्ति-रहित होकर कर्म नहीं करते हैं। इसलिये कर्मबन्धन में पड़ते हैं और कर्मों का फल भोगते हैं।
 जो कर्मबन्धन में नहीं फँसते, वे ईश्वर परमात्मा हैं। ऐसे परमात्मा इन्द्रियगोचर नहीं हैं। इन्द्रियगोचर में उलट-पुलट होती रहती है। जो इन्द्रियगोचर पदार्थ नहीं है, उनको हम पहचानते नहीं हैं। संतों ने उनकी पहचान का रास्ता बताया है-भेद बताया है।
 जबतक बाहर में शून्य का ख्याल रखोगे, बाहर-ही-बाहर रहोगे। लेकिन अन्दर चलो, तो जो बाहर संसार में है, वह अन्दर में भी है। उसके लिये साधन है। ईश्वर भजन करो। इसमें केवल बाहरी बात है नहीं, भीतर की भी बात है। अपने अन्दर में चलने के लिए पैर से नहीं चला जा सकता। जैसे पानी में तैरते हैं, वैसे भी नहीं तैरा जाएगा। इस शरीर में मन बड़ा बलवान है। बाहरी सभी इन्द्रियों को यह प्रेरण करता है, इन्द्रियों से संसार की वस्तुओं की पहचान करवाता है, काम करवाता है। चाहिये कि हम अपने मन को काबू करें। काबू करने के लिए ईश्वर-भजन करें। केवल ईश्वर का बाहर में गुणगान ही नहीं, इससे ईश्वर की महिमा का ज्ञान होता है। अन्दर में चलने पर महिमा की भी जानकारी होती है और उनके स्वरूप की भी जानकारी होती है।
 संतों ने भीतर-भीतर चलने के लिए कहा है। बाहर में शरीर को पानी आदि से साफ करते हैं और भीतर की सफाई
ध्यान से होती है। जो मूर्तिमान हैं, उनका ही ध्यान नहीं, बल्कि जो मूर्तिमान नहीं हैं, उनका भी ध्यान। जहाँ तक देखने के लिए है, वहाँ तक दृष्टि के अभ्यास से देख सकते हैं। स्थूल और सूक्ष्म को दृष्टि से देख सकते हो। लेकिन यह सीमित है। जो असीम है, उसको नहीं पहचान सकते। मन-बुद्धि से उसकी पहचान नहीं होती है। मन, बुद्धि से परे जो चेतनधार है, उसको लगाना है, जो दृष्टि से देखी नहीं जाती है। उसका यत्न गुरु से जानना चाहिए।
 परमात्मा से जो चेतन-धारा निकली है, वह उसी में समा जाती है। वह इतनी पवित्र हो जाती है कि किसी प्रकार मैल नहीं लगती। वह निर्मल तत्व में लीन हो जाती है। संतों ने कहा-पहले मन से जप करो। फिर मन से ध्यान करो। फिर दृष्टि से देखो। तेजो विन्दुः परं ध्यानं विश्वात्म हृदि संस्थितम्। अर्थात् हृदय-स्थित विश्वात्म तेजस्-स्वरूप-विन्दु का ध्यान परम-ध्यान है। इससे दिव्य दृष्टि खुलती है, दिव्य शब्द मिलता है। दिव्य शब्द मिलने पर वह उसमें डूब जाती है, जहाँ से यह धारा निकली है। चेतन-धारा में गूँज होती है। उस गूँज वा शब्द को पकड़कर परमात्मा तक जाते हैं।
 पहले मोटा-मोटी ध्यान, फिर सूक्ष्म-ध्यान-ज्योति-ध्यान। फिर नाद-ध्यान। इस नाद-ध्यान से परमात्मा में मिलकर एकमेक हो जाते हैं।
परमात्मा को सांसारिक सुख वा दुःख नहीं है। उनको ब्रह्म-सुख है। जो उस सुख में डूब जाएगा, वह संसार में फिर नहीं आवेगा। इसी के लिए दृष्टि-योग और शब्द-योग है।
(संतमत-सत्संग आश्रम, मनिहारी, कटिहार, 25.11.1977 ई0)



४९. मेरी पूजी है-सदाचार और नाद-विन्दु का ध्यान [05.04.1977]

"बंदऊँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ॥"
प्यारे लोगो!
महर्षि जी के द्वारा यहाँ बुलाया जाकर मैंने बहुत आनन्द प्राप्त किया है। मेरे पास क्या ऐसी चीज है, जो महर्षि जी ने मुझे बुला लिया। महर्षि जी का आश्रम देखकर कितना बड़ा ऐश्वर्य मालूम पड़ता है, जिसका वर्णन मैं नहीं कर सकता।
मेरे पास कुछ है, तो गुरु-भक्ति है। गुरु से मैंने सीखा है- “नित्य सत्संग करो। सदाचार से रहो। कदाचार से दूर रहो। यह सरल-से सरल मार्ग है। सुमिरण करो और ध्यान करो। सुमिरण में वाचिक है, उपांशु है और मानस है। ध्यान में विन्दु-ध्यान और नाद-ध्यान है।" यह उपदेश मैंने पाया है और इसके अनुकूल अभ्यास करता जाता हूँ।
हमारी जो साधना है, उसको समास-रूप में कहकर सुनाया है। मेरे प्रेमी लोगों ने भी जो सुनाया है, वह भी आपलोगों ने सुन लिया। यहाँ तो यही धुन रहती है कि दृष्टियोग करो और नादानुसन्धान करो और सदाचार का पालन करो। इसी के पालन में रहते हैं और महर्षि जी जैसा महात्मा का दर्शन बराबर होता रहे, यही मेरा ख्याल बराबर बना रहता है। यह तो समास-रूप में कह दिया।
___ सत्संग के लिये यहाँ जो हाल है, उसको भर-भरकर लोग सत्संग किया करें, तो मैं समझेंगा कि मुझे बहुत बड़ी विदाई होगी। महर्षि जी के वचन को लिख लिया गया है, उसको हमलोगों का जो मासिक-पत्र 'शान्ति-सन्देश' है, उसमें निकाल दिया जायेगा।
जो सत्संगी लोग यहाँ हैं, प्रत्येक दिन आकर यहाँ सत्संग करें। महर्षि जी तो विदेश जाते हैं, हम तो समझते हैं- यहाँ के लोगों को बहुत उपदेश देना है। मैं तो कहूँगा-जो जंगली हैं, पहाड़ी हैं, इनको उपदेश देकर तब विदेश में उपदेश करें। ऐसे-ऐसे अपवित्र लोग हैं, देखकर घिना जायेंगे। नेपाल के नीचे और गंगा के दक्षिण के जो पहाडी लोग हैं, अपने देश की सरकार चाहती है कि ये लोग शिक्षित हो जाय। मेरी ओर से निवेदन है कि आप राजगीर की ओर देखें। जिनको अधिक शिक्षा चाहिये,
उनको अधिक शिक्षा दें। हमारी सरकार ने चेष्टा की है, लेकिन वह यथेष्ट नहीं है। हमारी सरकार बदल गयी, और भी बदलेगी। मुझसे कहा जाय कि उपदेश देने का काम तुम करो, तो मुझसे जहाँ तक हो सकता है, बाकी नहीं रखता हूँ, अब मेरी उम्र देखो। एक-ही-एक होकर काम नहीं कर सकता। मेरे पैर जब सबल थे, कमर में जब ताकत थी, तो मैंने पैदल चल-चलकर सत्संग-प्रचार का काम किया। परन्तु अब हमसे नहीं हो सकता। यह भार मैं महर्षि जी (महर्षि महेश योगी जी) को सौंपता हूँ।
चूँकि ये भी हमारे ही देश के हैं, यूरोप के नहीं हैं, ये विदेश के नहीं हैं। अब यही कह करके जितने सत्संगी यहाँ बैठे हुए हैं, सबों को चाहिये कि नित्यप्रति यहाँ आकर इस समय भी और दूसरा मौका मिले तो दुपहर के बाद भी -जबसे हो सके, तबसे सत्संग करें। मैंने कह दिया है कि मेरी पूँजी है – सदाचार और नाद-विन्दु ध्यान। बस इतना ही। सबसे ऊपर गुरु हैं। गुरु नहीं तो कुछ नहीं।
यह प्रवचन ऋषिकेश के शंकराचार्य नगर में दिनांक ५-४-१९७७ ई० को हआ था।



९६. कीला से लागा रहै, ताको विघ्न न होय

"बंदऊं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर॥"
प्यारे लोगो!
सन्तमत पर आपलोग बहुत अच्छी बातें सुन चुके हैं। इसीलिये मैं कहूँगा कि -
सन्तमता बिनु गति नहीं, सुनो सकल दे कान।
जौं चाहो उद्धार को, बनो संत संतान॥
संतान शिष्य को भी कहते हैं और जो अपने रक्त से उत्पन्न होते हैं, उनको भी कहते हैं। जो सन्तों के ज्ञान को ग्रहण करके रहते हैं, उनको भी सन्त-संतान कहते हैं। सन्तमत के बिना कभी मोक्ष नहीं मिल सकता। इसलिये अपने कल्याण के लिये सन्तों का शिष्य होना चाहिये। धर्म ऐसी चीज है, जिसको लोग धारण करते हैं यानि जो धारण किया जाय, उसको धर्म कहते हैं। ज्ञान को धारण करते है, किसी को जानने के लिये। शुद्ध ज्ञान है, तो पहले अपने को खोजकर अपने को जानते हैं। फिर वे देखते हैं कि मैं हूँ कि और कोई है।
मैं तो कहूँगा कि सब कोई कहेंगे कि “मैं हूँ-मैं हूँ।" केवल एक 'मैं हूँ' नहीं है। इन सब 'मैं' को धारण करने वाले कौन हैं? परमात्मा हैं। उन परमात्मा को पकड़ने के लिये जो ज्ञान है, वही असली ज्ञान है और सब अज्ञान है। अज्ञान की दशा में ही काम, क्रोधादि-विकार उत्पन्न होते हैं। कामी, क्रोधी, लालची से ईश्वर की भक्ति नहीं होती। सन्त कबीर साहब ने कहा है--
कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय।
भक्ति करै कोई सूरमा, जाति बरन कुल खोय॥
भक्त-लोग सन्त होते हैं। इसीलिये मैंने इसको पढ़कर सुनाया -
कामी तो बहुतक तरै, क्रोधी तरै अनन्त।
लोभी जियरा ना तरै, कहै कबीर बिरतन्त॥
लोभ जरूर चाहिये। लोभ कुछ पाने के लिये होता है। अपने को पाने का जो लोभ है, वह ठीक है और जो लोभ संसार पाने के लिये है, वह संसार में फँसाकर दुर्गति को प्राप्त कराता है। अपने से बढ़कर कुछ है कि नहीं? अपने से बढ़कर है परमात्मा। जिस ज्ञान को धारण करने से ईश्वर-परमात्मा मिलते हैं, उसको धारण करना चाहिये। इसके अतिरिक्त का ज्ञान अज्ञान है।
बिना कर्त्ता के कार्य नहीं होता। इस सृष्टि को देखते हैं। यह सृष्टि आप-ही-आप है, यह कहना व्यर्थ है। यह पाँच तत्वों का शरीर और पाँच तत्वों का संसार है। इसके अतिरिक्त कुछ नहीं देखते हैं। नहीं देखने पर भी कुछ और है, उसको त्रयगुण कहते हैं; क्योंकि बिना तीन गुणों के सृष्टि नहीं हो सकती। रजोगुण-उत्पादक-शक्ति, सतोगुण-पालक-शक्ति और तमोगुण- विनाशक-शक्ति है। रज, सत, तम और पाँच तत्व मिलकर यह संसार है। जिस तरह बिना कील के जाँता (चक्की) नहीं चल सकता, उसी तरह इस संसार की भी कोई कील होनी चाहिये।
सारे संसार को देखते हैं। यह चाक के समान घूमता है। तारे एक ही जगह पर रहते हैं, सो नहीं। सूर्य और चन्द्रमा भी एक ही जगह पर नहीं रहते, जिस कील पर ये सब घूमते हैं, वही कील परमात्मा हैं। उनसे ही जितने पिसान हैं, पीसे जाते हैं। जो परमात्मा-रूपी कील से चिपके रहते हैं, वे पीसे नहीं जाते। संत कबीर साहब ने बड़ा अच्छा कहा है -
काल रूप चक्की चले, सदा दिवस अरु रात।
अगुन सगुन दुइ पाटला, तामें जीव पिसात॥
आसे पासे जो रहै, निपट पिसावै सोय।
कीला से लागा रहै, ताको विघ्न न होय॥
सन्तलोग यही बात कहते हैं, कील से लगे रहो। इसकी वे युक्ति बताते हैं। सब लोगों को चाहिये कि सन्तों का उपदेश सुनें। इसके अनुकूल आचरण करें। जो सबके धारण करने वाले हैं, वे ही परमात्मा हैं, जो सबके-पिण्ड-ब्रह्माण्ड के आधार होकर स्वयं निराधार हैं। वह आधार पर नहीं हैं, वे आधेयता-गुण के परे हैं, उनके अतिरिक्त और सभी आधार पर हैं। उन्हीं परमात्मा का सुमिरण-भजन करो। कैसे करो, तो कबीर साहब कहते हैं
सुमिरन सुरत लगाय कर, मुखतें कछु न बोल।
बाहर का पट देइ कर, अन्तर का पट खोल॥
जो इसको नहीं जानता, वह सुमिरण नहीं कर सकता। अन्तर का पट खोलने की युक्ति सन्तलोग जानते हैं, योगी लोग जानते हैं, जो योग सरलता से हो सके, वह सबके लिये है। जो सरलता से नहीं हो सके, वह सबके योग्य नहीं है। सन्तों का योग सरल है। उसी को ऋषि-मुनि लोग नादानुसंधान कहते हैं और अब के सन्त लोग उसको सुरत-शब्द-योग कहते हैं। इसमें कष्ट नहीं है। इसी से आरम्भ है, सो नहीं। पहले कुछ सुमिरण है। सुमिरण करते-करते मन कुछ थम्ह (रुक) जाय, तो मानस-ध्यान करना चाहिये। उनके बाद दृष्टि-साधन की क्रिया होती है। तब शब्द में सुरत लगानी पड़ती है। शब्द में सुरत कैसे लगानी चाहिये, कहाँ लगानी चाहिये- इन बातों को सन्त से सीखो।
शिक्षा लेने वाला यदि शिक्षा देने वाले की सेवा नहीं करता है, तो वह ठीक-ठीक शिक्षा नहीं प्राप्त कर सकता। इसलिये ठीक-ठीक सेवा करो। उनसे ज्ञान लो। ध्यान की युक्ति जानो और संसार में रहकर समय व्यतीत करो। समय व्यतीत करने के लिये अपने गुजर के लिये रोजगार करो। एक (पिता) पुरुष का रूप, एक (माता) स्त्री का रूप परमात्मा ने दिया है। इन्हीं से संसार है। बिना इन दोनों के सृष्टि नहीं हो सकती। स्त्री वा पुरुष जो कोई संसार में हैं, सबको चाहिये कि ईश्वर का भजन करें और जीविका के लिये कोई-न-कोई उद्यम अवश्य करें। जो उद्यम नहीं करते, वह अवश्य दुःख में पड़ते हैं। भीख माँगकर खाना कोई जीविका नहीं है। जिन महात्माओं ने भीख माँगकर खाया, तो उन्होंने ज्ञान दिया। खाया तो कम और ज्ञान दिया अधिक, जिसकी कीमत नहीं बतायी जा सकती। जो लोग इस तरह माँगकर खाते हैं, वह भीख नहीं है। भीख है, तो अल्प है और संसार को जो ज्ञान मिलता है, वह अनमोल है। उनके ज्ञान का कोई मोल नहीं दे सकता। यही सब बात सन्तलोग बताते हैं।
संतमत में यही कहते हैं कि जीविका करो और सत्संग करते रहो। इसी से शुद्ध होओगे। गुरु जो बतलावें, उसको करो, तो कल्याण होगा। इसी तरह करते-करते शरीर छूटेगा, तो फिर दूसरा मनुष्य-शरीर मिलेगा, जिससे सुमिरण-भजन होगा और अपना परम-कल्याण होगा।
यह प्रवचन बिहार राज्य के नवादा जिलान्तर्गत पकड़िया ग्राम में अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग के विशेषाधिवेशन के अवसर पर दिनांक ३१-१२-१९७७ ई० को हुआ था।