९६. कीला से लागा रहै, ताको विघ्न न होय
"बंदऊं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर॥"
प्यारे लोगो!
सन्तमत पर आपलोग बहुत अच्छी बातें सुन चुके हैं। इसीलिये मैं कहूँगा कि -
सन्तमता बिनु गति नहीं, सुनो सकल दे कान।
जौं चाहो उद्धार को, बनो संत संतान॥
संतान शिष्य को भी कहते हैं और जो अपने रक्त से उत्पन्न होते हैं, उनको भी कहते हैं। जो सन्तों के ज्ञान को ग्रहण करके रहते हैं, उनको भी सन्त-संतान कहते हैं। सन्तमत के बिना कभी मोक्ष नहीं मिल सकता। इसलिये अपने कल्याण के लिये सन्तों का शिष्य होना चाहिये। धर्म ऐसी चीज है, जिसको लोग धारण करते हैं यानि जो धारण किया जाय, उसको धर्म कहते हैं। ज्ञान को धारण करते है, किसी को जानने के लिये। शुद्ध ज्ञान है, तो पहले अपने को खोजकर अपने को जानते हैं। फिर वे देखते हैं कि मैं हूँ कि और कोई है।
मैं तो कहूँगा कि सब कोई कहेंगे कि “मैं हूँ-मैं हूँ।" केवल एक 'मैं हूँ' नहीं है। इन सब 'मैं' को धारण करने वाले कौन हैं? परमात्मा हैं। उन परमात्मा को पकड़ने के लिये जो ज्ञान है, वही असली ज्ञान है और सब अज्ञान है। अज्ञान की दशा में ही काम, क्रोधादि-विकार उत्पन्न होते हैं। कामी, क्रोधी, लालची से ईश्वर की भक्ति नहीं होती। सन्त कबीर साहब ने कहा है--
कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय।
भक्ति करै कोई सूरमा, जाति बरन कुल खोय॥
भक्त-लोग सन्त होते हैं। इसीलिये मैंने इसको पढ़कर सुनाया -
कामी तो बहुतक तरै, क्रोधी तरै अनन्त।
लोभी जियरा ना तरै, कहै कबीर बिरतन्त॥
लोभ जरूर चाहिये। लोभ कुछ पाने के लिये होता है। अपने को पाने का जो लोभ है, वह ठीक है और जो लोभ संसार पाने के लिये है, वह संसार में फँसाकर दुर्गति को प्राप्त कराता है। अपने से बढ़कर कुछ है कि नहीं? अपने से बढ़कर है परमात्मा। जिस ज्ञान को धारण करने से ईश्वर-परमात्मा मिलते हैं, उसको धारण करना चाहिये। इसके अतिरिक्त का ज्ञान अज्ञान है।
बिना कर्त्ता के कार्य नहीं होता। इस सृष्टि को देखते हैं। यह सृष्टि आप-ही-आप है, यह कहना व्यर्थ है। यह पाँच तत्वों का शरीर और पाँच तत्वों का संसार है। इसके अतिरिक्त कुछ नहीं देखते हैं। नहीं देखने पर भी कुछ और है, उसको त्रयगुण कहते हैं; क्योंकि बिना तीन गुणों के सृष्टि नहीं हो सकती। रजोगुण-उत्पादक-शक्ति, सतोगुण-पालक-शक्ति और तमोगुण- विनाशक-शक्ति है। रज, सत, तम और पाँच तत्व मिलकर यह संसार है। जिस तरह बिना कील के जाँता (चक्की) नहीं चल सकता, उसी तरह इस संसार की भी कोई कील होनी चाहिये।
सारे संसार को देखते हैं। यह चाक के समान घूमता है। तारे एक ही जगह पर रहते हैं, सो नहीं। सूर्य और चन्द्रमा भी एक ही जगह पर नहीं रहते, जिस कील पर ये सब घूमते हैं, वही कील परमात्मा हैं। उनसे ही जितने पिसान हैं, पीसे जाते हैं। जो परमात्मा-रूपी कील से चिपके रहते हैं, वे पीसे नहीं जाते। संत कबीर साहब ने बड़ा अच्छा कहा है -
काल रूप चक्की चले, सदा दिवस अरु रात।
अगुन सगुन दुइ पाटला, तामें जीव पिसात॥
आसे पासे जो रहै, निपट पिसावै सोय।
कीला से लागा रहै, ताको विघ्न न होय॥
सन्तलोग यही बात कहते हैं, कील से लगे रहो। इसकी वे युक्ति बताते हैं। सब लोगों को चाहिये कि सन्तों का उपदेश सुनें। इसके अनुकूल आचरण करें। जो सबके धारण करने वाले हैं, वे ही परमात्मा हैं, जो सबके-पिण्ड-ब्रह्माण्ड के आधार होकर स्वयं निराधार हैं। वह आधार पर नहीं हैं, वे आधेयता-गुण के परे हैं, उनके अतिरिक्त और सभी आधार पर हैं। उन्हीं परमात्मा का सुमिरण-भजन करो। कैसे करो, तो कबीर साहब कहते हैं
सुमिरन सुरत लगाय कर, मुखतें कछु न बोल।
बाहर का पट देइ कर, अन्तर का पट खोल॥
जो इसको नहीं जानता, वह सुमिरण नहीं कर सकता। अन्तर का पट खोलने की युक्ति सन्तलोग जानते हैं, योगी लोग जानते हैं, जो योग सरलता से हो सके, वह सबके लिये है। जो सरलता से नहीं हो सके, वह सबके योग्य नहीं है। सन्तों का योग सरल है। उसी को ऋषि-मुनि लोग नादानुसंधान कहते हैं और अब के सन्त लोग उसको सुरत-शब्द-योग कहते हैं। इसमें कष्ट नहीं है। इसी से आरम्भ है, सो नहीं। पहले कुछ सुमिरण है। सुमिरण करते-करते मन कुछ थम्ह (रुक) जाय, तो मानस-ध्यान करना चाहिये। उनके बाद दृष्टि-साधन की क्रिया होती है। तब शब्द में सुरत लगानी पड़ती है। शब्द में सुरत कैसे लगानी चाहिये, कहाँ लगानी चाहिये- इन बातों को सन्त से सीखो।
शिक्षा लेने वाला यदि शिक्षा देने वाले की सेवा नहीं करता है, तो वह ठीक-ठीक शिक्षा नहीं प्राप्त कर सकता। इसलिये ठीक-ठीक सेवा करो। उनसे ज्ञान लो। ध्यान की युक्ति जानो और संसार में रहकर समय व्यतीत करो। समय व्यतीत करने के लिये अपने गुजर के लिये रोजगार करो। एक (पिता) पुरुष का रूप, एक (माता) स्त्री का रूप परमात्मा ने दिया है। इन्हीं से संसार है। बिना इन दोनों के सृष्टि नहीं हो सकती। स्त्री वा पुरुष जो कोई संसार में हैं, सबको चाहिये कि ईश्वर का भजन करें और जीविका के लिये कोई-न-कोई उद्यम अवश्य करें। जो उद्यम नहीं करते, वह अवश्य दुःख में पड़ते हैं। भीख माँगकर खाना कोई जीविका नहीं है। जिन महात्माओं ने भीख माँगकर खाया, तो उन्होंने ज्ञान दिया। खाया तो कम और ज्ञान दिया अधिक, जिसकी कीमत नहीं बतायी जा सकती। जो लोग इस तरह माँगकर खाते हैं, वह भीख नहीं है। भीख है, तो अल्प है और संसार को जो ज्ञान मिलता है, वह अनमोल है। उनके ज्ञान का कोई मोल नहीं दे सकता। यही सब बात सन्तलोग बताते हैं।
संतमत में यही कहते हैं कि जीविका करो और सत्संग करते रहो। इसी से शुद्ध होओगे। गुरु जो बतलावें, उसको करो, तो कल्याण होगा। इसी तरह करते-करते शरीर छूटेगा, तो फिर दूसरा मनुष्य-शरीर मिलेगा, जिससे सुमिरण-भजन होगा और अपना परम-कल्याण होगा।
यह प्रवचन बिहार राज्य के नवादा जिलान्तर्गत पकड़िया ग्राम में अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग के विशेषाधिवेशन के अवसर पर दिनांक ३१-१२-१९७७ ई० को हुआ था।