२८. कहै कबीर यह भरम किवाड़ी,जो खोलै सो जानै [25.07.1976]
"बंदऊँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ॥"
प्यारे लोगो!
हमलोग यहाँ सप्ताह में एक बार एकत्र होकर सत्संग करते हैं। सत्संग से सत् की प्राप्ति होती है। इसी वास्ते हमलोग सत्संग करते हैं। 'सत्य' क्या है? इसको समझने पर मालूम होता है कि अविनाशी को 'सत्य' कहते हैं, अपरिवर्तनशील को 'सत्य' कहते हैं। यहाँ जो हमलोग सत्संग करते हैं, वह अविनाशी वा अपरिवर्तनशील पदार्थ प्रत्यक्ष में मिलता नहीं। उसकी चर्चा मिलती है। अगर उसकी चर्चा नहीं हो तो इसको सत्संग कैसे कह सकेंगे।
सत् का और विशेषण है कि वह है, सब में विराजता है, सबसे निर्लेप रहता है। प्रकट किसी को नहीं मालूम पड़ता है। इसी से कबीर साहब ने एक युक्ति कही है
सबकी दृष्टि पड़े अविनासी, बिरला सन्त पिछाने ।
कहे कबीर यह भरम किवाड़ी, जो खोलै सो जानै ॥
माया को भ्रम कहा गया है। परिवर्तनशील को माया कहा गया है। जो है, सो है, ऐसा विदित होता है। लेकिन विचारो तो वैसा नहीं है। अविनाशी को सत् कहते हैं। जो भ्रम-किवाड़ी है, उसको विरला-सन्त खोलते हैं। वह किवाड़ी वा पट क्या है? लोग संसार की नाशवानता को नहीं देखते हैं, तो वह है। जो हमारी इन्द्रियों को गोचर है, वह माया है, सत्य नहीं है।
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा- " श्रीराम ने लक्ष्मण जी से कहा था।" भ्रम की किवाड़ी के कारण अविनाशी सत्य नहीं मालूम पड़ता। लेकिन जो कोई अपने को- ज्ञान-शक्ति को यानी चेतन को इस परदे से आगे बढ़ावे तो समझेगा कि यह अवश्य ही माया है, असत्य है। आप जो कुछ देखते हैं, वह माया है। इसकी तह में अविनाशी छिपा है। उस तह में जाकर देखिये, तब देखने में आवेगा।
सन्त तह में जाते हैं, देखते हैं। वे ही गुरु हैं-सद्गुरु हैं। इसलिये गुरु की बडी तारीफ है। गुरु नानक देव ने गुरु की बड़ी तारीफ की है--
गुरदेव माता गुरदेव पिता गुरदेव सुआमी परमेसुरा ।
गुरदेव सखा अगिआन भंजनु गुरदेव बंधप सहोदरा ॥
गुरदेव दाता हरिनामु उपदेसै गुरुदेव मंतु निरोधरा ।
गुरदेव शांति सति बुधि मूरति गुरदेव पारस परसपरा ॥
गुरदेव तीरथु अमृत सरोवरु गुरु गिआन मजनु अपरंपरा ।
गुरदेव करता सभि पाप हरता गुरदेव पतित पवित्रकरा ॥
गुरदेव आदि जुगादि जुगु जुगु गुरदेव मंतु हरि जपि उधरा ।
गुरदेव संगति प्रभु मेलि करि किरपा हम मूढ़ पापी जितु लगितरा । गुरदेव सतिगुरु पार ब्रह्म परमेसरु गुरदेव नानक हरि नमसकरा॥ यह काम गुरु का है। गुरु का मंत्र यह है कि इन्द्रियों का निरोध करो। इन्द्रियों को चेतनधार से रहित करो- रोको, वे ईश्वर मिल जायेंगे। इसी तरह संत पलटू साहब ने कहा है
साहिब साहिब क्या करे, साहिब तेरे पास।
साहिब तेरे पास याद करु, होवे हाजिर।
अन्दर धसि के देखु, मिलेगा साहिब नादिर॥
मान मनी हो फना, नूर तब नजर में आवै।
बुरका डारै टारि, खुदा बाखुद विखरावै।
रूह करै मेराज, कुफर का खोलि कुलाबा।
तीसो रोजा रहै, अन्दर में सात रिकाबा ॥
लामकान में रब्ब को, पावै पलटू दास।
साहिब साहिब क्या करे, साहिब तेरे पास॥
यह जो भ्रम की किवाड़ी- माया का परदा है, वह तीनों रूपों में है-अन्धकार-रूप, प्रकाश-रूप और शब्द-रूप। आँख बन्द करने पर अन्धकार मालूम होता है। वह नहीं रहे, फिर अन्धकार नहीं रहेगा। तब क्या रहेगा ? प्रकाश। प्रकाश नही रहेगा, तब क्या रहेगा ? अभी प्रकाश में हमलोग बैठे हैं यह प्रकाश नहीं रहेगा, तब और क्या रहेगा? शब्द। क्योंकि शब्द न तो अन्धकार से हट सकता है और न प्रकाश से हट सकता है। गुरु से भेद मिले कि शब्द भी हट जाय। जब तीनों परदा हट जाय, तब सबका मालिक ईश्वर-परमात्मा छिपा नहीं रहेगा। हमको इस 'सत्' का जान होना चाहिये। इस 'सत्' तक पहुँचने के लिये सच्चा-गुरु मिलना चाहिये। गुरु जो हमको उस तक जाने का रास्ता बता दे। हम चलते-चलते वहाँ तक पहुँचें, जहाँ ईश्वर-परमात्मा हैं। इसी को पुरुषोत्तम कहा जाता है।
श्रीमद्भगवद्गीता में क्षर-पुरुष, अक्षर-पुरुष और पुरुषोत्तम कहा है। क्षर-सभी नाशवान्-पदार्थ को कहा गया है।अक्षर, अनाश को कहते हैं। इसका अभाव नहीं होता। इन दोनों के परे जो है, पुरुषोत्तम। उसके परे और कुछ नहीं समझना चाहिये। हमलोग नित्य पढ़ा करते हैं
सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर और अक्षर पार में।
माया में जो सब विकार हैं, उन सबसे परे वे हैं। हमको चाहिये कि उस 'सत्' को पावें।
अन्दर धसि के देखु, मिलेगा साहिब नादिर।
नादिर=बहुत मशहूर। वह बाहर में नहीं। अन्दर में मिलेगा, इसीलिये संत दादू दयाल जी ने कहा--
दादू जानै न कोई, संतन की गति गोई।
अविगत अन्त अन्त अन्तर पट, अगम अगाध अगोई।
सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई॥
ईश्वर के स्वरूप को जानें। अन्दर में धँसकर जो मिलता है उसको पावें। यद्धपि वह सर्वत्र है, फिर भी इन्द्रिय-ज्ञान के कारण हम देख नहीं पाते। गुरु की युक्ति पाकर करने और नहीं करने योग्य कर्मों को जानकर करने योग्य कर्मों को करें। नहीं करने योग्य कर्मों को नहीं करें। साधन करें। संसार में जो दु:ख-सुख का ज्ञान होता है, वह नहीं रहेगा। साधन में संसार का ज्ञान नहीं रहता है। संतों ने कहा है-तीन परदों के परे जाओ। बहुत बड़ा साधन है। चुटकी बजाते नहीं होगा। होगा जरूर, करते रहो। करने के लिये संतों ने कहा है- जप करो और ध्यान करो।
जप में जो शब्द गुरु बतावें, उसका जप करो, जिस रूप का ध्यान गुरु बतावें, उस रूप का ध्यान करो अथवा जो रूप बहुत उपकारी मालूम हो, उस रूप का ध्यान करो। गुरु बड़े उपकारी हैं। माता-पिता भी उपकारी हैं, लेकिन एक हद तक। हमको चाहिए कि जाप करें, ध्यान करें। गुरु के बताये सत्मार्ग पर चलें। किसी से द्वेष नहीं करें। होते-होते अच्छे बनेंगे। इसीलिये हमलोग सत्संग करने के लिये यहाँ आते हैं।
ऐसे गुरु जो सत्मार्ग पर चलने के लिये और आवरणों से पार होने के लिये बतावें, वे ही गुरु हैं। जो नहीं बता सकें केवल कान फूंक दें वा एक शब्द बता दें, इसी में वे गुरु नहीं हो सकते। सेवा में सभी राजी रहते हैं। गुरु की सेवा करनी चाहिये।
यह प्रवचन दिनांक २५ जुलाई १९७६ ई० को भागलपुर नगर के गंगातट स्थित कुप्पाघाट आश्रम में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था।