11. बात -बात में गुरु की आवश्यकता है

प्यारे लोगो !
 इस शरीर की हालत आपलोग देखते हैं। शरीर की हालतों में जो अच्छा या बुरा कुछ उपजते रहते हैं, वह सब आपलोग जानते और भोगते हैं। सबके लिए यही बात है। मेरा यह शरीर है, मेरा मन है, मेरी यह बुद्धि है इत्यादि लोग बोलते हैं। यह मेरा कहनेवाला कौन है?
इसको पहचानना चाहिए। बाहर संसार में तमाम घूमो और पूछते रहो कि मेरे को बता दो, मेरे को बता दो। कोई कहेंगे कि यह पागल है। कोई कहेंगे कि ज्ञान की बात कर रहा है। जो अच्छे लोग हैं, विशेषज्ञ हैं, वे कहेंगे- ‘तू अपने में खोज, तो अपने को पाएगा।’
 अपने में अर्थात् अपने शरीर में खोजोगे तो अपने को पा जाओगे। इस खोज में कोई अपने जानते लाख कोशिश करे, कोशिश में लगावे तो भी इसका पता नहीं पा सकता है। यह पता कोई तभी पाता है, जिसको पता बतानेवाले मिले हैं। उनसे जाकर पूछिए। जिनको पता मिल गया है, वे ही अन्तर-साधन करनेवाले पूर्ण साधु-सन्त हैं।
 साधु-संत को इसका पता मिलता है। इसलिए कि वे अपने अन्दर खोजते हैं। अपने शरीर के अन्दर खोज कर लीजिए। अपने को समझे कि अपने शरीर में मैं कहाँ रहता हूँ। शरीर के ऊपर तो कहीं बैठा नहीं हूँ और अपने को विश्वास भी नहीं कि मैं शरीर हूँ । खोज करे, जहाँ वह बैठा है। बाहर में कहीं बैठा नहीं है। अन्दर खोज करे, बाहर का देखना छोड़कर। अन्दर में आँख बन्द करके पूछो मैं कहाँ हूँ। उत्तर आवेगा, अन्धकार में हूँ। अन्धकार कहाँ है? आँख में है। यहाँ से खोजना आरम्भ करो।
 जबतक अभ्यासी गुरु नहीं मिलेंगे, कैसे खोज करोगे, पता नहीं मिलेगा। बात-बात में गुरु की आवश्यकता होती है। बिना गुरु के एक अक्षर नहीं सीख सकते, माता-पिता भी नहीं सिखला सकते। ऐसे गुरु जो बता दें कि अन्धकार में कहाँ हो, वहाँ से कैसे चलना होगा? ऐसे गुरु कहाँ मिलते हैं? सत्संग में मिलते हैं। सत्संग में यह ज्ञान उपजता है कि गुरु की खोज करो। इसलिए ईश्वर की पहली भक्ति सन्तों का संग है। दूसरी बात है कि सत्संग में जो वचन हो, उसे खूब प्रेम से सुनो। तीसरी बात है कि उस सत्संग-वचन में जो गूढ़ बात हो, उसको जानो। इसलिए गुरु की ऐसी भक्ति करो कि जिसका अन्दाजा नहीं। सदा गुरु के साथ में कोई रहे, यह भी संभव नहीं। इसलिए कबीर साहब ने कहा है-
जो गुरु बसैं बनारसी, शिष्य समुन्दर तीर।
एक पलक बिसड़ै नहीं, जो गुन होय शरीर।।
 हमेशा गुरु की याद करो। द्वापर युग में द्रोणाचार्य एक गुरु हुए थे। कौरव-पाण्डव को वे धनुर्विद्या सिखलाते थे। एक भील-पुत्र भी गया उनसे सीखने के लिये, तो आचार्य द्रोण ने कहा, मैं राजकुमारों को सिखलाता हूँ, दूसरों को नहीं। वह भील-पुत्र था एकलव्य। उसने द्रोण की मूर्ति बनाई और उसका ध्यान करते हुए धनुर्विद्या का अभ्यास करने
लगा। होते-होते वह उस विद्या में इतना प्रवीण हुआ, जितना अर्जुन भी नहीं था। एक दिन ये लोग जंगल में घूमते थे। एक कुत्ता भी उनके साथ में था। वह कुत्ता एकलव्य को देखकर भूँका, तो एकलव्य ने उस कुत्ते के मुँह में इतने तीर मारे कि उसका मुँह तीरों से भर गया। लेकिन एक बूँद भी खून नहीं गिरा। कुत्ता जब इन लोगें के पास वापस आया तो इनलोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उस कुत्ते के पीछे-पीछे ये लोग चले।
वह कुत्ता एकलव्य की कुटिया के पास खड़ा हो गया। द्रोणाचार्य ने पूछा- ‘वह विद्या तुमने किससे सीखी? एकलव्य ने कहा, आपसे। अपकी मूर्ति बनाकर और उसका ध्यान करके मैंने इस विद्या को हासिल किया। कहने का तात्पर्य यह है कि जिसको गुरु में ज्यादा निष्ठा होती है, यह किसी-न-किसी तरह विद्या पाता है। गुरु के ख्याल से, गुरु के संग से लोग विद्या पाते हैं।
 राजा उत्तानपाद का पुत्र ध्रुव था। उसकी सौतेली माँ ने उसे पिता की गोद से उतार दिया। ध्रुव तपस्या करने जंगल चला गया। पाँचों भाई पाण्डव एक माता के नहीं थे। युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की माता कुन्ती थी। नकुल-सहदेव की माँ माद्री थी। सब सौतेली माताएँ एक-सी नहीं होतीं। कुन्ती ने नकुल और सहदेव को बहुत प्यार से पालन-पोषण किया। किसी माता को यदि सौत-पुत्र हो तो उसका प्यार से पालन करें और सच्चरित्रता
धारण करें। कुन्ती बड़ी सती थी और बड़ी विरक्ति उनमें थी।
 महाभारत-युद्ध के बाद जब पाँचों भाई पाण्डव का राज्य हुआ, तो धृतराष्ट्र और गांधारी; दोनों जंगल चले। उनके संग कुन्ती भी जंगल चलने लगी, तो उनके पुत्रों ने इन्हें मना किया। कुन्ती ने कहा कि मैंने अपने पति के समय में बहुत सुख पाया। मैं भी अब जंगल जाऊँगी। उन लोगों के साथ कुन्ती भी चली गई। लोगों को चाहिए कि सौत-पुत्र को सुदृष्टि से देखे और पतिव्रता भी रहे। पतिव्रता हुए बिना पवित्र हृदय नहीं होता। पुरुष को भी चाहिए कि श्रीराम की तरह एक पत्नीव्रत धारण करे और ईश्वर-भजन करे, इसमें कौन मना करेगा? जिसका हृदय प्रशान्त महासागर की तरह स्थिर हो गया है (प्रशान्त महासागर में ढेव नहीं उठता और अन्य समुद्र में ढेव उठता है।) वही शान्ति पाता है और हृदय शान्ति नहीं पाता। जो शान्ति पाता है, तो वह परमात्मा को पाता है।
 जैसे आकाश का अंश घटाकाश, मठाकाश होता है, लेकिन अभिन्न-अंश है। इसी तरह बिना टूटा-फूटा हुआ अंश जीवात्मा, परमात्मा का अंश है। अंश तो आवरण बनाता है। आवरण टूट जाय तो अंश नहीं रहेगा। अंश अंशी में मिल जाता है। वह प्रशान्त महासागर की तरह स्थिर हो जाता है। जैसे ईश्वर हैं, उन ईश्वर से मिलकर वह भी ईश्वर हो जाता है। इन्हीं सब बातों को सन्तमत बतलाता है।
(फतेहपुर, संताल परगना, 16.11.1976 ई0)



२८. कहै कबीर यह भरम किवाड़ी,जो खोलै सो जानै [25.07.1976]

"बंदऊँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि ।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर ॥"
प्यारे लोगो!
हमलोग यहाँ सप्ताह में एक बार एकत्र होकर सत्संग करते हैं। सत्संग से सत् की प्राप्ति होती है। इसी वास्ते हमलोग सत्संग करते हैं। 'सत्य' क्या है? इसको समझने पर मालूम होता है कि अविनाशी को 'सत्य' कहते हैं, अपरिवर्तनशील को 'सत्य' कहते हैं। यहाँ जो हमलोग सत्संग करते हैं, वह अविनाशी वा अपरिवर्तनशील पदार्थ प्रत्यक्ष में मिलता नहीं। उसकी चर्चा मिलती है। अगर उसकी चर्चा नहीं हो तो इसको सत्संग कैसे कह सकेंगे।
                सत् का और विशेषण है कि वह है, सब में विराजता है, सबसे निर्लेप रहता है। प्रकट किसी को नहीं मालूम पड़ता है। इसी से कबीर साहब ने एक युक्ति कही है
सबकी दृष्टि पड़े अविनासी, बिरला सन्त पिछाने ।
कहे कबीर यह भरम किवाड़ी, जो खोलै सो जानै ॥
          माया को भ्रम कहा गया है। परिवर्तनशील को माया कहा गया है। जो है, सो है, ऐसा विदित होता है। लेकिन विचारो तो वैसा नहीं है। अविनाशी को सत् कहते हैं। जो भ्रम-किवाड़ी है, उसको विरला-सन्त खोलते हैं। वह किवाड़ी वा पट क्या है? लोग संसार की नाशवानता को नहीं देखते हैं, तो वह है। जो हमारी इन्द्रियों को गोचर है, वह माया है, सत्य नहीं है।
      गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा- " श्रीराम ने लक्ष्मण जी से कहा था।" भ्रम की किवाड़ी के कारण अविनाशी सत्य नहीं मालूम पड़ता। लेकिन जो कोई अपने को- ज्ञान-शक्ति को यानी चेतन को इस परदे से आगे बढ़ावे तो समझेगा कि यह अवश्य ही माया है, असत्य है। आप जो कुछ देखते हैं, वह माया है। इसकी तह में अविनाशी छिपा है। उस तह में जाकर देखिये, तब देखने में आवेगा।
सन्त तह में जाते हैं, देखते हैं। वे ही गुरु हैं-सद्गुरु हैं। इसलिये गुरु की बडी तारीफ है। गुरु नानक देव ने गुरु की बड़ी तारीफ की है--
गुरदेव माता गुरदेव पिता गुरदेव सुआमी परमेसुरा ।
गुरदेव सखा अगिआन भंजनु गुरदेव बंधप सहोदरा ॥
गुरदेव दाता हरिनामु उपदेसै गुरुदेव मंतु निरोधरा ।
गुरदेव शांति सति बुधि मूरति गुरदेव पारस परसपरा ॥
गुरदेव तीरथु अमृत सरोवरु गुरु गिआन मजनु अपरंपरा ।
गुरदेव करता सभि पाप हरता गुरदेव पतित पवित्रकरा ॥
गुरदेव आदि जुगादि जुगु जुगु गुरदेव मंतु हरि जपि उधरा ।
गुरदेव संगति प्रभु मेलि करि किरपा हम मूढ़ पापी जितु लगितरा । गुरदेव सतिगुरु पार ब्रह्म परमेसरु गुरदेव नानक हरि नमसकरा॥ यह काम गुरु का है। गुरु का मंत्र यह है कि इन्द्रियों का निरोध करो। इन्द्रियों को चेतनधार से रहित करो- रोको, वे ईश्वर मिल जायेंगे। इसी तरह संत पलटू साहब ने कहा है
साहिब साहिब क्या करे, साहिब तेरे पास।
साहिब तेरे पास याद करु, होवे हाजिर।
अन्दर धसि के देखु, मिलेगा साहिब नादिर॥
मान मनी हो फना, नूर तब नजर में आवै।
बुरका डारै टारि, खुदा बाखुद विखरावै।
रूह करै मेराज, कुफर का खोलि कुलाबा।
तीसो रोजा रहै, अन्दर में सात रिकाबा ॥
लामकान में रब्ब को, पावै पलटू दास।
साहिब साहिब क्या करे, साहिब तेरे पास॥
यह जो भ्रम की किवाड़ी- माया का परदा है, वह तीनों रूपों में है-अन्धकार-रूप, प्रकाश-रूप और शब्द-रूप। आँख बन्द करने पर अन्धकार मालूम होता है। वह नहीं रहे, फिर अन्धकार नहीं रहेगा। तब क्या रहेगा ? प्रकाश। प्रकाश नही रहेगा, तब क्या रहेगा ? अभी प्रकाश में हमलोग बैठे हैं यह प्रकाश नहीं रहेगा, तब और क्या रहेगा? शब्द। क्योंकि शब्द न तो अन्धकार से हट सकता है और न प्रकाश से हट सकता है। गुरु से भेद मिले कि शब्द भी हट जाय। जब तीनों परदा हट जाय, तब सबका मालिक ईश्वर-परमात्मा छिपा नहीं रहेगा। हमको इस 'सत्' का जान होना चाहिये। इस 'सत्' तक पहुँचने के लिये सच्चा-गुरु मिलना चाहिये। गुरु जो हमको उस तक जाने का रास्ता बता दे। हम चलते-चलते वहाँ तक पहुँचें, जहाँ ईश्वर-परमात्मा हैं। इसी को पुरुषोत्तम कहा जाता है।
   श्रीमद्भगवद्गीता में क्षर-पुरुष, अक्षर-पुरुष और पुरुषोत्तम कहा है। क्षर-सभी नाशवान्-पदार्थ को कहा गया है।अक्षर, अनाश को कहते हैं। इसका अभाव नहीं होता। इन दोनों के परे जो है, पुरुषोत्तम। उसके परे और कुछ नहीं समझना चाहिये। हमलोग नित्य पढ़ा करते हैं
सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर और अक्षर पार में।
 माया में जो सब विकार हैं, उन सबसे परे वे हैं। हमको चाहिये कि उस 'सत्' को पावें।
अन्दर धसि के देखु, मिलेगा साहिब नादिर।
 नादिर=बहुत मशहूर। वह बाहर में नहीं। अन्दर में मिलेगा, इसीलिये संत दादू दयाल जी ने कहा--
दादू जानै न कोई, संतन की गति गोई।
अविगत अन्त अन्त अन्तर पट, अगम अगाध अगोई।
सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई॥
 ईश्वर के स्वरूप को जानें। अन्दर में धँसकर जो मिलता है उसको पावें। यद्धपि वह सर्वत्र है, फिर भी इन्द्रिय-ज्ञान के कारण हम देख नहीं पाते। गुरु की युक्ति पाकर करने और नहीं करने योग्य कर्मों को जानकर करने योग्य कर्मों को करें। नहीं करने योग्य कर्मों को नहीं करें। साधन करें। संसार में जो दु:ख-सुख का ज्ञान होता है, वह नहीं रहेगा। साधन में संसार का ज्ञान नहीं रहता है। संतों ने कहा है-तीन परदों के परे जाओ। बहुत बड़ा साधन है। चुटकी बजाते नहीं होगा। होगा जरूर, करते रहो। करने के लिये संतों ने कहा है- जप करो और ध्यान करो।
जप में जो शब्द गुरु बतावें, उसका जप करो, जिस रूप का ध्यान गुरु बतावें, उस रूप का ध्यान करो अथवा जो रूप बहुत उपकारी मालूम हो, उस रूप का ध्यान करो। गुरु बड़े उपकारी हैं। माता-पिता भी उपकारी हैं, लेकिन एक हद तक। हमको चाहिए कि जाप करें, ध्यान करें। गुरु के बताये सत्मार्ग पर चलें। किसी से द्वेष नहीं करें। होते-होते अच्छे बनेंगे। इसीलिये हमलोग सत्संग करने के लिये यहाँ आते हैं।
 ऐसे गुरु जो सत्मार्ग पर चलने के लिये और आवरणों से पार होने के लिये बतावें, वे ही गुरु हैं। जो नहीं बता सकें केवल कान फूंक दें वा एक शब्द बता दें, इसी में वे गुरु नहीं हो सकते। सेवा में सभी राजी रहते हैं। गुरु की सेवा करनी चाहिये।
यह प्रवचन दिनांक २५ जुलाई १९७६ ई० को भागलपुर नगर के गंगातट स्थित कुप्पाघाट आश्रम में साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर हुआ था।