26. निर्गुण रामनाम को जिम्या नहीं जानती
प्यारे लोगो!
ध्यान-योग ईश्वर-भक्ति के लिए ऐसी चीज है; जिस तरह शरीर के लिए प्राण है। प्राण नहीं तो शरीर जीवित नहीं रह सकता। ध्यानयोग नहीं तो ईश्वर-भक्ति में सार नहीं। ध्यान मन को एक ओर करने को कहते हैं। मन को एक ओर करने के लिए जप की भी आवश्यकता है। जितने भक्ति-मार्गी संत हुए, सभी जप बता गए हैं लेकिन केवल जप ही करने कहते हैं, सो नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने काकभुशुण्डिजी किस तरह ईश्वर का भजन करते थे, उस तरह को बताया है। उसमें जप कहा है, ध्यान कहा है और मानस-पूजा कहा है।
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जग्य पाकरि तर करई ।।
आम छाँह कर मानस पूजा। तजि हरि भजन काज नहिं दूजा ।।
बट पर कह हरि कथा प्रसंगा। आबहिं सुनहिं अनेक बिहंगा ।।
मतलब चौथी चीज है, सो सत्संग है। जैसे हमलोग ईश्वरीय-चर्चा करके, ईश्वर का गुणगान करके ईश्वर की प्राप्ति की निस्बत में संतवाणी से ठीक-ठीक निर्णय करके पढ़ते हैं, बोलते हैं, समझाते हैं। यह बाहरी सत्संग है। यह भी भक्ति है। इसलिए भक्ति करने के वास्ते गो0 तुलसीदासजी ने कहा है-
देहि सत्संग निज अंग श्रीरंग भवभंग कारन-सरन सोक हारी।।
कहा है कि हे भगवान! हमको सत्संग दीजिए। संसार वाला दुःख जो जीवों को है, वह सत्संग से नाश हो जाता है। जो सत्संग की शरण में जाता है; वह अपने को दुःख से निवृत्त हुआ पाता है। यह सत्संग बाह्य-सत्संग है। यह भी ईश्वर की भक्ति है। दूसरा जपयज्ञ है। भगवान कृष्ण ने भी जप को यज्ञ कहा है। फिर कहा है-मानस-पूजा। मानस-पूजा कहते हैं कि मन से इष्ट के रूप को बनाकर मन उसपर लगाना मानस-पूजा है। या बाहरी सामग्री को मन में बना-बनाकर इष्ट पर चढ़ाना भी मानस-ध्यान ही है। मानस-पूजा को मानस-ध्यान कहें, तो कोई हानि नहीं। मानस-पूजा के बाद फिर ध्यान चाहिए। तीनों, चारो काम करो, तो ईश्वर की भक्ति है। इसके बाद और ध्यान है। वह ध्यान क्या है? भगवान श्रीकृष्ण से उद्धवजी ने पूछा था कि ‘मैं आपका ध्यान कैसे करूँ?’ तो भगवान ने कहा-मेरे सम्पूर्ण शरीर का ध्यान करो, फिर चेहरे का ध्यान करो और तब शून्य-ध्यान करो।’ यही शून्य-ध्यान सूक्ष्म बात है। यही है-‘पीपर तरु तर ध्यान सो धरई।’ शरीर का वा मुखारविन्द का ध्यान मानस-ध्यान वा मानस-पूजा है। सम्पूर्ण शरीर के ध्यान में फैलाव अधिक है। उससे कम फैलाव है केवल मुखारविन्द में। अधिक फैलाव से कम फैलाव में रखने कहा। उससे आगे शून्य का ध्यान और कम फैलाव होना चाहिए। इसी को-‘प्रथमहिं सुरति जमावै तिल पर, मूल मंत्रा गहि लावै।’ संत कबीर साहब ने कहा है- इसी को विन्दु-ध्यान कहते हैं। चाहे शून्य-ध्यान कहो, चाहे विन्दु-ध्यान कहो, मन से बनाना नहीं होता। देखने के ढंग से दृष्टि को रखो, आप उदय होगा। जैसे कागज पर कलम की नोक रखी गयी, वहीं एक चिह्न हो गया। उसी को लोग विन्दु कहते हैं। संत पलटू साहब ने कहा है-
काजर दिये से का भया, ताकन को ढब नाहिं।
इसका तरीका है। इसकी युक्ति है। युक्ति से दृष्टि को रखो। चित्त को इधर-उधर मत करो। ताकने का ढव चाहिए। यही गुरु से सीखा जाता है। यही एक विद्या है, जो सारी शक्तियों को प्राप्त करा देनेवाली विद्या है। ईश्वर से मिलने का ज्ञान यही विद्या देती है। ईश्वर-विमल-पथ में जो अनुभूति होती है, एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा, एवं प्रकार से उसमें साधक मन से कुछ बनाता नहीं है। यहाँ मानस-ध्यान का दखल नहीं। इसी को विन्दु-ध्यान कहते हैं। इसके लिए अन्दाजी बात नहीं हो सकता है, गुरु से जानो।
सतगुरु संत कंज में बासा। सुरत लाइ जो चढ़ै आकासा ।।
स्याम कंज लीलागिरि सोई। तिल परिमान जान जन कोई ।।
श्रुति ठहरानी रहे अकासा। तिल खिरकी में निसदिन वासा ।।
गगन द्वार दीसै एक तारा। अनहद नाद सुनै झनकारा ।।
की अनुभूति होने लगती है। संतों ने इस तरह कहकर भी और पोथी में लिखकर भी विदित कर दिया है। यही वह स्थान है, जहाँ से कोई आगे बढ़ता है।
मेरे ख्याल से जो भक्त लोग चन्दन लगाते हैं वे एक टीका भी लगाते हैं। यही टीका विन्दु का प्रतीक है। मैं कहूँगा शालिग्राम भी इसी का प्रतीक है। यह ईश्वर का सूक्ष्म-रूप है। ईश्वर का रूप क्यों कहा जाय? जो सत्संग करते हैं, वे जानने लगते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापक हैं।
अचर चर रूप हरि सर्वगत सर्वदा, बसत इति वासना धूप दीजै।।
-गो0 तुलसीदासजी
विन्दु भी वह व्यापक है। इसीलिए वह उसका रूप है। शालिग्राम में व्यापक है, इसलिए वह भी उसका रूप है। इसीलिए साधक लोग टीका लगाते हैं। मन को एक ओर करते-करते सूक्ष्मातिसूक्ष्म-दशा में ले आना है। सूक्ष्म-से-सूक्ष्म रूप क्या हो सकता है? विन्दु वह हो सकता है, जिसमें स्थान है, परिमाण नहीं है। यह अन्दाज से बन नहीं सकता।
तेजो विन्दुः परम् ध्यानं विश्वात्म-हृदि संस्थितम्।
-तेजोविन्दूपनिषद्
अर्थात्-हृदय-स्थित विश्वात्म-तेजस्-स्वरूप विन्दु का ध्यान परम-ध्यान है।
जिसका मन खूब समेट में आ गया, उनकी दृष्टि स्थिर हो गयी, तब जो विन्दु उदय होता है, अभ्यासी उसको देखता है कि ज्योतिर्मय-विन्दु है। अथवा तुलसी साहब का ‘गगन द्वार दीसै एक तारा।’ तारक-लोक में पहुँच जाता है। देखो तो ऐसा लगे कि फिर देखूँ, फिर देखूँ। देखने में जैसा अच्छा लगता है, मन में बड़ी शान्ति आती है। यह तो आरम्भ की बात है। यह तो प्रथम अव्यक्त रहता है। करते-करते व्यक्त होता है, गोचर होता है। अगर अपना ठहराव ठीक रखा हो, तो परमात्मा के नाना-प्रकार के ज्योति-रूप का दर्शन होता है। साधक प्रत्यक्ष तरह से देखता है। जिसको इसकी अनुभूति होती है, उसकी योग-शक्ति बढ़ती है। यहाँ तक कि अष्टसिद्धियाँ का ज्ञान होता जाता है। अष्टसिद्ध की शक्ति थोड़ी-थोड़ी मिलती जाती है। जो विन्दु-ध्यान करेगा, उसको अवश्य होगा। गुरु के बताये अनुकूल जो कोशिश करता है, तो दर्शन होता जाता है, शक्ति आती जाती है। सिमटाव होने का फल ऊर्ध्वगति होती है, जैसे-जैसे ऊर्ध्वगति होती है, वैसे-वैसे परमात्मा की विविध-ज्योतियों को देखता है और लाभ प्राप्त करता है। कहने के लिए तुरंत हो जाता है; लेकिन करने में समय लगता है, मेहनत लगती है। जो उकताता है, वह असमर्थ होता है। करने को जाता है ध्यान और हो जाती है दूसरी बात ही, जिसको गुनावन कहते हैं। यह इसलिए होता है कि वह प्रत्याहार ठीक से नहीं करता है। प्रत्याहार में सचेत नहीं है। जहाँ-जहाँ मन भागे, वहाँ-वहाँ से समेट-समेटकर लाओ। जितनी बार मन बिछड़े उतनी बार मन को घेर-घेर कर लाओ, जहाँ गुरु ने बताया है। जो बहुत प्रत्याहार करेगा, उसको अवश्य धारणा होगी। कुछ काल ठहराव होगा। उसी ठहराव में शान्ति की अनुभूति होगी। दृष्टि का काम है देखने का। गुरुओं का आदेश है कि प्रत्याहार में खूब लगे रहो। प्रत्याहार से हारो मत।
शून्य महल में दियना बारि ले, आशा से मत डोल रे।
-संत कबीर साहब
वे तो खूब अभ्यास किए हुए थे। ज्योति जगेगी, प्रकाश होगा; इस आशा से डोलो मत, ईश्वर की भक्ति ऐसी करो। यह कहना सरल है। सत्संग ईश्वर-भजन की ओर झुकाता है। सत्संग भजन करने में तत्पर करता है। सत्संग भजन करने में कहता है कि हारो मत, करते रहो।
आप देखते हैं कि बादल लगता है, बिजली चमकती है। बिजली की चमक हो जाने पर बादल से आवाज भी आती है। इसी तरह साधक जब अन्तस्साधन करता है, तो पहले ही ठनका ठनकता नहीं है। पहले ज्योति चमकती है, तब ठनका ठनकता है। इसीलिए जबतक ज्योति-उदय नहीं हो, तबतक नादानुसंधान करने की इजाजत संतों की नहीं है। पहले देखो, फिर सुनो। अगर नहीं देखो, तो जो सुनोगे, ठीक नहीं सुनोगे।
कुछ लोग निर्गुण नाम-भजन को जो नहीं जानते हैं, वे कहते हैं कि ‘शरीर में वायुपरिभ्रमण होता है, रक्त का संचार होता है, उनकी सब आवाजें हैं सुनकर क्या होगा?’ मुझे एक वृद्ध संन्यासी ने कहा था। मैंने कहा-‘महाराजजी! नाद-उपासना इस तरह नहीं होती है।’ उन्होंने कहा-‘तब कैसे होती है जी?’ मैंने कहा-‘महाराज! पहले एकविन्दुता का साधन करना होगा। इससे मन सूक्ष्म में प्रवेश कर जाएगा। मन जब सूक्ष्मता में प्रवेश करेगा, तब वह स्थूल-ध्वनियों को नहीं सुनेगा, सूक्ष्म-नादों को सुनेगा।’ उन्होंने कहा-हाँ! हो सकता है’
लोग कहते हैं कि जो कुछ मैं कहता हूँ, अखंडनीय है; लेकिन जो वे कहते हैं, खण्डनीय हो जाता है। चौथी अवस्था में रहकर भजन करो। इसमें जो बढ़ते-बढ़ते अधिक बढ़ जाता है, वह उस अखण्ड-नाद को सुनता है। उसके नीचे का जो नाद है, वह भी कारण होता है उसको आगे बढ़ने का। जानना चाहिए शब्द में आकर्षण होता है। जिधर से शब्द आता है, खिंचते-खिंचते उस ओर पहुँचता है। कुत्ता भी पुकार सुनकर निकट आता है। यह सुरत-शब्द योग में गुण है। इसमें यह ज्ञान है कि शब्द कहाँ से आया। लोग कहते हैं, वह आकाश से आया। मैं कहता हूँ-वह भी मायिक-शब्द ही है। पंच भौतिक शरीर में रहकर जो सुनते हो, वह अन्दर की अनहद ध्वनि नहीं है। आज्ञाचक्र में अपने को स्थिर करने पर वह ऊपर की ध्वनि सुन पड़ती है।
बिना कम्पन के कुछ बन नहीं सकता। शब्द कम्पमय है और कम्प शब्दमय होता है। आदि-कम्प समझिए तो उसी को परा-प्रकृति कहते हैं। उस पद को सच्चिदानन्द कहना चाहिए। वह जड़-विहीन है। जड़-विहीन होने के कारण उसको कैवल्य परम पद कहते हैं। अति दुर्लभ कैवल्य परम पद।
आदि-कम्प की ध्वनि आदि-नाद है। उसको ब्रह्मनाद कहते हैं। अक्षर-ब्रह्म-शब्दब्रह्म कहते हैं। इसी को निर्गुण शब्दब्रह्म कहते हैं। इसके ऊपर परमात्मा का स्वरूप है। वह सत्-शब्द है।
चुम्बक सत्त शब्द है भाई। चुम्बक शब्दलोक ले जाई ।
लेइ निकारी होखै नहिं पीरा। सत्त शब्द जो बसै सरीरा ।।
(संत दरिया साहब) बिहार आरा जिला के रहनेवाले ने कहा।
संत कबीर साहब ने कहा है-
यही बड़ाई शब्द की, जैसे चुम्बक भाय ।
बिना शब्द नहिं ऊबरै, केता करे उपाय ।।
शब्द गह्यो जीव संशय नाहीं, साहब भयो तेरो संग ।
इसके लिए पहले सगुण ध्वनियों का अभ्यास साधु लोग करते हैं। जो एक प्रकार का शब्द सुना गया, उसके खिंचाव से ऊपर पहुँचा। फिर उसके केन्द्र पर दूसरे मंडल का केन्द्रीय शब्द पकड़ा जाता है। इसी प्रकार एक शब्द से दूसरे शब्द को पकड़ता है। शब्द ही शब्द को पकड़ानेवाला हुआ। गोया शब्द ही शब्द का गुरु हुआ। साधन करने से यह आप मालूम हेता है। कहने से, सुनने से विश्वास होगा। श्रद्धायुक्त होकर साधन कीजिए, यही है दीक्षा; लेकिन बिना शिक्षा के दीक्षा नहीं। ईश्वर-भक्ति में यह शिक्षा बहुत काम करनेवाली है। ऐसी कोई धारा नहीं, जिसके सहारे ईश्वर तक पहुँचा जाय। ईश्वर का यह निर्गुण नाम है।
बंदउँ नाम राम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को।।
जितने वेद-मंत्रा हैं, सबका यह प्राण है। राम-नाम सगुण भी है, निर्गुण भी है। सगुण रामनाम को जिभ्या से जपते हो, निर्गुण रामनाम को जिभ्या नहीं जानती। नाम-भजन की बड़ी महिमा है। सगुण राम-नाम को जपो और निर्गुण-नाम को भी जानो। ऐसा जानो कि कभी विश्वास से डिगे नहीं। हमलोग इसीलिए जो परिश्रम होना चाहिए करते हैं। दूसरों से भी कहते हैं कि कीजिए। यह बड़ा पवित्र काम है। जैसे ईश्वर पवित्र है, वैसे ही उनका यह काम भी पवित्र है। मन की मलीनता को दूर करो। मलीनता को दूर करने के लिए झूठ नहीं बोलो, चोरी नहीं करो, नशा नहीं करो और न पीओ, व्यभिचार मत करो, हिंसा मत करो। हिंसा के सिलसिले में मत्स्य-मांस का भोजन भी छोड़ो। जो मत्स्य-मांस खाते हैं, उनका मन हिंसा में कुछ-न-कुछ अवश्य रहता है। मनुस्मृति में अष्ट-घातक कहा है-
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रय विक्रयी ।
संस्कर्त्ता चोपह़र्त्ता च खादकश्चेति घातकाः ।।
अर्थात् (1) पशुवध करने की आज्ञा प्रदान करनेवाला (2) शस्त्र से मांस काटनेवाला (3) मारनेवाला (4) बेचनेवाला (5) मोल लेनेवाला (6) मांस को पकानेवाला (7) परोसने के लिए लानेवाला (8) खानेवाला-ये आठो घातक हिंसा करनेवाले ही कहलाते हैं।
इन पंच पापों से बच जाते हो, तो तुम्हारे पास पाप नहीं आने पायेंगे और देश में लोग ऐसे ही बेसी हो जाय, तो दृष्ट-कर्म हो सकेंगे? बड़ा सन्तोषवाला लोग सब होगा। जो कोई कहते हैं कि संत लोग कहते हैं कि ईश्वर भजो, ईश्वर भजो। पेट का ध्ंध कुछ बताते नहीं। माता अपना स्तन बच्चे के मुँह में डालती है; लेकिन चूसने के लिए कौन बताता है? पेट का ध्ंध तो आप ही सब कोई करते हैं। कमाई करो, उसकी मनाही नहीं है। सन्त लोग देश की मर्यादा के लिए देशवासी-निर्भर हो आए, ऐसा ज्ञान बताते हैं। देश के लिए संत अस्त्र-शस्त्र भी उठाए मौका पड़ने पर, जैसे गुरु गोविन्द सिंह ने किया। फिर भी देखो कैसी दया? युद्ध के मैदान में गिरे हुए सिपाहियों को पानी पिलाने के लिए एक सिक्ख को नियुक्त किया जाता है। लेकिन वह पानी पिलानेवाला दुश्मनों के गिरे हुए सिपाहियों को भी पानी पिलाता है। यह शिकायत गुरु गोविन्द सिंहजी महाराज के पास गई। उन्होंने उस पानी पिलानेवाले से पूछा-‘क्यों तुम दुश्मनों को भी पानी पिलाता है?’ उसने कहा-‘हाँ महाराज! जो गिर गया, वह दुश्मन कहाँ रहा?’
गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज बहुत खुश हुए और कहा, तुम बहुत अच्छा करते हो। ऐसा कौन योद्धा होता है? ऐसा नहीं कि संतलोग आलसी बनने के लिए कहते हैं।
हमारे गुरु महाराज कहते थे कि ैमसि ेचवतजमत ;सेल्पफस्पोर्टर-स्वावलम्बीद्ध बनो। जो ैमसि ेचवतजमत नहीं बनता, वह भजन नहीं कर सकता। उपार्जन करो, खाओ। दृष्ट-कर्म नहीं करो। जो स्वावलम्बी होगा, पापों से बचेगा, दुष्ट-कर्म से बचेगा। कितना कल्याण देश में होगा? धन कमाने के लिए दुष्ट-कर्म करके भी कमा सकते हो; लेकिन ईश्वर की भक्ति में दुष्ट-कर्म करने से आगे नहीं बढ़ सकते। जिसको संतमत कहते हैं, संसार में लाभ पहुँचाने के लिए इसकी बड़ी आवश्यकता है। केवल भारत को नहीं, सम्पूर्ण संसार में कुशल होगा। राष्ट्र को ठगेगा नहीं। इसलिए भक्ति सब कोई करो। भक्त सब बनो। अपने संगी-साथी को भी भक्त बनाओ। जो भजन अपेक्षित हो, उसको करो। भजन नहीं करते हो, केवल वचन कहते हो, तो उससे तुम्हारा कल्याण नहीं होगा। उपार्जन करो, भजन करो। सत्संग करो, इससे कल्याण होगा। संतों के ऐसे विचार को जो कोई आलसी कहे, वह उत्तम-विचार नहीं रखता है। वह सत्संग से मैत्रा नहीं करता है। मैंने मुलायम शब्दों में यह बात कही।
[राजेन्द्रनगर, पटना; (23.31975 ई0 रात्रि)]