01. सब कोई सत्संग में आइए

प्यारे लोगो !
 पहले वाचिक-जप कीजिए। फिर उपांशु-जप कीजिए, फिर मानस-जप कीजिये। उसके बाद मानस-ध्यान कीजिए। मानस-
ध्यान में कोई स्थूल-रूप मन में बनाकर देखा जाता है। अपने-अपने इष्टदेव के रूप को मन में बनाकर देखना, मानस-ध्यान कहलाता है। यदि विचार करेंगे तो मूल में गुरु आ जाते हैं; क्योंकि शिक्षा देनेवाले को गुरु कहते हैं। इसलिए हमने तो गुरु का रूप रख लिया है और आपलोगों को भी सलाह देता हूँ कि गुरु-रूप का ध्यान कीजिए। यदि गुरु में श्रद्धा नहीं है, किसी दूसरे इष्टदेव में श्रद्धा है तो जो कुछ करना है, सो कीजिए। लेकिन तब आपकी गुरु में श्रद्धा नहीं। मानस-ध्यान के बाद होता है सूक्ष्म-ध्यान यानी विन्दु-ध्यान। विन्दु-ध्यान के आगे भी ध्यान है, वह है नादानुसंधान। नादानुसंधान के बाद कुछ नहीं बचता है। नादानुसंधान में बारीकी में ध्यान ले जाने से वह मिलता है, जो बारीक से बारीक शब्द है। उस बारीक शब्द को जानना चाहिए, जो परमात्मा से ही निकलता है-स्फुटित होता है। जो स्फोट-शब्द को जानेगा, वह परमात्मा-परमेश्वर को पाकर कृतकृत्य हो जाएगा।
 खाने-पीने का बन्धन रखना उत्तम है इसलिए सात्विक भोजन होना चाहिये। राजसी भोजन मन को चंचल करता है। तामसी भोजन मन को नीचे गिराता है। सात्विक भोजन में भी जैसे गाय का दूध
है, गाय के दूध को बेसी औटने से राजस हो जाता है। मांस-मछली-अण्डा आदि तामस-भोजन है। साधक को राजस और तामस भोजन छोड़कर सात्विक भोजन करना चाहिए।
 पहले के लोग हवा पीकर रहते थे। आजकल हवा पीकर नहीं रह सकते। ध्यान कीजिए, ध्यान में प्रणव-ध्वनि को ग्रहण कीजिए और मोक्ष प्राप्त कीजिए। मनुष्य जीवन का जो परम-लक्ष्य है मोक्ष, उसको प्राप्त कर लीजिए। सन्तमत का सार सिद्धान्त है-गुरु, ध्यान, सत्संग। सच्चे गुरु मिल जाये तो उनका सत्संग करो। कहीं रहो, उनके बताए कायदे पर चलो तो उनका संग होता रहेगा, सत्संग होता रहेगा। बिना संत्सग के बात ठीक-ठीक समझ में नहीं आएगी। गप्प-शप्प सत्संग नहीं है, ईश्वर-चर्चा सत्संग है।
‘धर्म कथा बाहर सत्संगा। अन्तर सत्संग ध्यान अभंगा।।’
 सप्ताह में एक बार मैं यहाँ (सत्संग-मंदिर में) आता हूँ। आपलोगों को देखता हूँ तो बड़ी प्रसन्नता होती है। जिनको श्रद्धा होती है, वे बड़े से भी बड़े लोग होते हैं, तो आ जाते हैं। ऐसे जो बड़े लोग हैं, उनको मैं धन्यवाद देता हूँ। जो प्रणाम करने योग्य हैं उनको प्रणाम करता हूँ। जो आशीर्वाद देने योग्य हैं, उनको मैं आशीर्वाद करता हूँ।
 जो सात दिन में यहाँ आते हैं, घर में सद्व्यवहार नहीं करते, तो वे सत्संग नहीं करते हैं। घर में रहना, पवित्रता से रहना, सद्व्यवहार से रहना है। स्त्रियाँ बच्चों की सेवा करें, पति की सेवा करें, आपस में मेल रखें, झंझट नहीं करें। जहाँ तक हो सके अपने को सत्य पर रखना। अपने को सत्य पर रखे बिना सत्संग नहीं। सत्य पर अपने को रखिए तो अकेले में भी सत्संग होता है।
 सामूहिक सत्संग आप के घर में रोज हो सो नहीं हो सकता। जो कोई निजी उद्देश्य से सत्संग करते हैं यानी अपने उद्यम के लिए सत्संग करते हैं तो वह सत्संग सत्संग नहीं है। स्त्रियाँ सत्संग करें, पुरुष सत्संग करें। किसी भी मजहब के लोगों को यहाँ मनाही नहीं है। सब कोई सत्संग में आइए।
 एक-न-एक दिन संसार छोड़ना है। शरीर छोड़ने के पहले संसार में कोई उत्तम चिह्न-लकीर दे जाना अच्छा है। दूसरे संसार में भी आपकी उत्तमता का लोग गुण गावें और आप के मार्ग पर अपने को चलाकर बहुत पवित्र होते हुए शरीर छोड़ें। जो अपने खराब रास्ते पर रहते हैं, दूसरे को उस खराब रास्ते पर वे ले जाते हैं, इससे संसार में बहुत खराबी होती है। संसार को खराब मत करो, अपने खराब मत होओ।
 मेरे यहाँ आने के पूर्व जो आपलोग श्रीसंतसेवी जी से सत्संग-वचन सुन चुके हैं, उनसे सन्तमत का ही प्रचार हुआ है। सन्तमत के अनुकूल ही बातें हांगी। सब लोग उनकी उत्तम बातों पर चलिए। सब बातें उत्तम कही गई होंगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
(महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर 10.5.1974)



९४. सत्य नहीं बोलो तो कभी हृदय साफ नहीं होगा

"बंदऊँ गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि।
महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर॥"
प्यारे लोगो!
सत्संग कहते हैं कि सत् का संग हो। सत् उस पदार्थ को नहीं कहते हैं, जो ऐसा कि कभी नहीं था वा कभी नहीं रहेगा; सो नहीं। अचल और सर्वव्यापी-पदार्थ को सत् कहते हैं। ऐसा पदार्थ ईश्वर ही है। जो कभी नहीं थे, सो नहीं। जो कभी नहीं रहे सो नहीं। ईश्वर का जो संग करे, वह सत्संग है। उनका संग कौन करेगा? एक-एक शरीर में उनका अंश है।
ईश्वर अंस जीव अविनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी॥
- रामचरितमानस
जीव यही चाहता है कि उसका अंशी मिले, जिससे कभी छूटना नहीं हो। जहाँ सत् की चर्चा हो, उसको भी सत्संग कहते हैं। संतलोग- कबीर साहब, गुरु नानक साहब, पलटू साहब, दादू दयाल जी महाराज, ये सब संत हुए हैं। इनकी बहुत-सी वाणियाँ हैं। इनकी वाणियों को भी सुनना, यह भी सत्संग हैं। सो तो अभी के सत्संग में तीन बजे से ही आरम्भ हो गया है।
सत् को सत् से मिला दो। ईश्वर का अंश जीव सत् है और ईश्वर तो सत् हई हैं। दोनों को मिला दो, सत्संग हो जायेगा। बाहर जो कुछ देखते हैं, सब असत् है। जैसे धरती से सब्जी उपजती है, यह उद्भिद्-पदार्थ है। कीड़े-मकोड़े उत्पन्न होते हैं, यह उष्मज है। चीजें सड़ जाती हैं, जल जाती हैं, ये सब कोई सत् नहीं है। हमलोगों का शरीर भी सत् नहीं है। हाँ, इस शरीर में जीव का कुछ-काल के लिए वास है। इस शरीर से उन ईश्वर की ओर चले, वह रास्ता बाहर में नहीं, अन्दर में है। रास्ते का आरम्भ कहाँ से होता है? जो जहाँ बैठा रहता है। ऐसा नहीं कि जो जहाँ खड़ा नहीं है या बैठा नहीं है, वहाँ से चलो। इस शरीर में हमलोगों का जहाँ रहना होता है, वहाँ से चलो। बाहर की ओर देखना छोड़कर अन्दर चलो।
आँख बंदकर देखो तो अंधकार मालूम पड़ता है। इस अंधकार से ही रास्ता है। गुरु से यत्न जानकर इस अंधकार से चला जाय तो अंधकार बदलता है। लेकिन बिना गुरु के कोई इसको जान नहीं सकता है। जो गुरु से सीखते हैं, वे चलते हैं। चलते-चलते अंधकार से प्रकाश में जाते हैं। प्रकाश में चलते-चलते प्रकाश भी नहीं रहता है। जैसे संसार में अन्धकार हो या प्रकाश हो, दोनों में शब्द होता है, उसी तरह अपने अन्दर अन्धकार को पारकर प्रकाश में जाता है तो उसको शब्द मिलता है। जो शब्द मिलता है, उसमें सुरत लगायी जाय, तो उसी को सुरत-शब्द-योग कहते हैं। शब्द अपने उद्गम-स्थान पर सुरत को खींचता है। शब्द का उद्गम स्थान कहाँ है? ईश्वर में सृष्टि की मौज हुई, लहर आयी, सृष्टि हो गई। जहाँ कम्प है, वहाँ शब्द है। जहाँ कम्प नहीं वहाँ यह आदिशब्द पहुँचा देता है।
जैसे कबीर साहब, गुरु नानक साहब, संत दादू दयाल जी, संत पलटू साहब गुजर गये हैं। अभी वे लोग नहीं हैं, लेकिन हमलोगों को विश्वास है कि ये लोग पहुँचे हुए संत थे और उस तरह की वाणी में उन्होंने कहा। जैसे कबीर साहब ने कहा
साधो शब्द साधना कीजै।
जेहि सब्द से प्रगट भये सब, सोई सब्द गहि लीजै॥
इस को पकड़ने के लिये संतलोग सुरत-शब्द-योग की साधना बता गये हैं। इसी को नादानुसंधान कहते हैं। आखिरी-सत्संग यही है कि मन को साफ करने के लिये कुछ सुमिरण करो, जो गुरु बता दे। मौखिक-जप करो, उपांशु-जप करो और मानस-जप करो। इससे मन की बहुत सफाई हो जाएगी और आगे चलकर प्रत्यक्ष हो जायेगा कि दृष्टि-योग से प्रकाश होता है।
आदि में कम्प हुआ, तभी सृष्टि हुई। जो लोग कहते हैं कि ईश्वर ने कहा 'हो', तो हो गया। यही साधन संतमत में है। इसके अलावा गुरु नानक देव जी ने कहा -
सूचै भाड़ै साचु समावै बिरले सूचाचारी।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी॥
पवित्रता स्नान करके हो, इतना ही नहीं, भीतर भी पवित्र होना चाहिये। जप और ध्यान से भीतर पवित्र होता है। सत्य बोलो। सत्य नहीं बोलो तो कभी हृदय-साफ नहीं होगा। कोई बात छिपाने की हो, तो कहो- इससे अधिक नहीं कहूँगा अथवा चुप हो जाओ। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह से शरीर और मन में अपवित्रता होती है। इससे पवित्र होने के लिये सत्य बोलना चाहिये। किसी से सत्य बोलना है और छिपाना है, तो चुप हो जाओ।
ईश्वर का भजन सत्य है। ईश्वर की तरफ चलने का रास्ता अपने अन्दर है। जीव की बैठक अपने अन्दर अंधकार में है। चलनेवाले ने देखा कि अच्छी तरह चलने से अन्दर में प्रकाश होता है।
आपलोगों ने जो भजन-भेद लिया है, उसे अच्छी तरह किये होंगे, तो कुछ-न-कुछ प्रकाश अवश्य मिला होगा। वहीं से शब्द पकड़ा जाता है। वह शब्द ईश्वर से हुआ। इसलिये उसका छोर ईश्वर तक लगा हुआ है। शब्द में गुण होता है कि जिधर से शब्द आता है, उस ओर ख्याल खिंच जाता है। मैं बोल रहा हूँ। जो मन लगाकर सुनते हैं, उनका ख्याल मेरी ओर है। इसी तरह जो अन्दर के शब्द को सुनते हैं, तो वह शब्द जहाँ से आता है, उस शब्द के उद्गम की ओर ख्याल हो जाता है। अर्थात् वह आदि-शब्द परमात्मा से आया हुआ है। जो कोई उस शब्द को सुनते हैं, वे खिंचकर परमात्मा तक पहुंच जाते हैं।
यह प्रवचन दिनांक १५-१०-१९७४ ई० को बेगुसराय जिले के बारो ग्राम में अपराह्नकालीन सत्संग के अवसर पर हुआ था।